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________________ 180 साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित NA संघ के विश्राम स्थान पर एक मुख्य द्वार-लगा होता था जिस पर सुन्दर अक्षरों में श्री 'मनसुखनगर' शब्द शोभा दे रहे थे। वास्तव में वह विश्राम स्थान एक नगरीके तूल्य ही था / नगरी में जो भी जनता के आवश्यकता को वस्तुए होती है वह सब सघ. . के साथ. उस स्थान पर लग जाती / जैसे कि डाकखाना, दवाखाना, बैंक; पुसीस स्टेशन आदि / केवल ये लगने से ही इसका कोई अर्थ नहीं निकलता बल्कि उसका वह पूर्ण रूप से कार्य भी करते थे। ...... प्रवेश द्वार से करीब आधा मील के फांसले पर एक विशाल मंडप दृष्टिगोचर होता था। जहां जाने पर ज्ञात होताकि यहांतो कोई पवित्र तीर्थ है और वास्तव में वह सघ एक चलता-फिरता पावन तीर्थ ही था / संघपति की उत्तम व्यवस्था के अनुसार चांदी के जिन मन्दिर और मेरूप त संघ के साथ था / वह जगह जगह पर संघ के विश्राम स्थान पर लगा दिये जाते थे। प्रातःकाल संघ के लोग बड़े प्रेम से संघपति सहित प्रभु पूजा का यहांआकर सबलोग लाभ लेते तां शाम को प्रभु भक्ति की सदा ही धूम लगती / स्थान स्थान से आई हुई सगीत मन्डलियों ने तो यहां प्रभु भक्ति का अपूर्व दृश्य उपस्थित कर दिया था। : -- संघ का विश्राम स्थान कई भागों में विभक्त होता था / जिनमें से. मुख्य 2 भागों का वर्णन करना अनुपयुक्त न होगा। श्रीजिनेश्वर देव के मन्दिर के दोनों ओर सामने ही विशाल तम्बू लगे होते थे। जिनमें एक ओर तो अपने कुटुम्ब सहित संघपति रहते और दूसरी ओर अनेक साधू समुदाय के सहित शासन सम्राटः आचार्य P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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