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________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 441 राजसभा विसर्जन होने पर भट्टमात्रने द्वारपाल से कहा, " इस अतिथि के लिये एक सुंदर घर आदि का प्रबंध करो." __ वह द्वारपाल रूपचंद्र पर तो प्रथम से अप्रसन्न था ही, क्यों कि उसने उसी द्वारपाल को चपेटा मार गिराया था, फिर भी राज आज्ञा का पालन करना तो उसे आवश्यक था, मन ही मन द्वारपालने विचारा, 'इस को अनर्थ की गर्ता में डालने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ है. अब ठीक मेरे हाथ अवसर आया है. उस चपेटे का बदला लेने का ह्रदय से सोचता हुआ द्वारपाल उस को साथ लेकर नगर में चला, चलते चलते जहां पर अग्निवैताल का निवासस्थान था, वहां आकर खडा हुआ. और उस अग्निवैताल का घर दिखा कर रूपचंद्र से कहा, “इस मकान में आप मुकाम कीजिये." ऐसा कहकर वह अपने स्थान पर लौट पड़ा.. बाहर से उस मकान को देख रूपचंद्र श्रीद् सेठजी के घर में रही हुई अपनी पत्नी का लेने के लिये चला. रास्ते में दीन, दुःखी, गरीबो को दान देता हुआ श्रीद् शेठजी की हवेली पर आ पहूँचा. और अपनी स्त्री से मिल कर सारा वृत्तांत सुनाया. श्रीद् सेठजी भी इस वृत्तान्त को सुनकर प्रसन्न तो हुआ किन्तु अग्निवैतालवाले घर में रहने की बात उसे अच्छी न लगी. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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