________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित 349 इस प्रकार अविवेक से काम करने वाला राजा और मंत्री आदि अधिकारियों को देख कर विक्रमने विचार किया, " यहाँ तो अन्याय का ही बोलबाला हैं. यहाँ न्याय का तो नामनिशान भी नहीं है. अतः अगर मैं भी अपने रत्नों की बात यहाँ निकालूगा तो निश्चय ही मुझे लेने के बजाय देने पड़ जायेगे. अतः अब यहाँ से तो न्याय की आशा छोड़ अपनी ही बुद्धि से काम लेना चाहिए.” ऐसा विचार कर विक्रम वहाँ से रवाना हो कामलता नामक उस वेश्या के यहां गये, वहाँ जाकर उन्होंने कामलता को तापस के द्वारा पांच रत्न ले लेने की सारी कहानी कह सुनाई. राजा की सारी बात सुन कर उस वेश्याने राजा विक्रमादित्य को आश्वासन देते हुए कहा, “हे महानुभाव ! आप चिंता न कीजिये, मैं अपनी बुद्धिबलसे आपके पांचो रत्न उस तापस से आप को दिला दूंगी. और उसने ओर यह भी कहा, “हे महानुभाव! मैं एक रत्नों का थाल भर कर उस तापस के यहाँ जाउँगी, उस समय आप भी थोडी देर बाद वहां आकर तापस से अपने पांचो रत्ने को मांगना.” इस प्रकार विक्रमादित्य को युक्ति बतला कर दूसरे दिन आने का निश्चित समय बता दिया. निश्चित समय के अनुसार दूसरे दिन वेश्या थाल भर कर रत्न ले उस तापस के वहां गई, और विनती करने लगी, " हे महाराज! मेरी पुत्री आग में जल कर मरने वाली है, उसके विना मेरी सभी संपत्ति व्यर्थ है. मैं अब अपनी सभी . संपत्ति दान-पुण्य में लगा देना चाहती हूँ. अतः मैं आपके P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust