________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित - - - करुंगी.' तब उस के पतिने कहा, 'मैंने आजतक एसा सुंदर भोजन कभी नहीं किया था.' तब हे राजन् ! मैंने पत्नी की बात का स्वीकार किया. स्त्री के बचनों में विश्वास करता हुआ माता के घर आने पर उन्हें मनचाहे शब्दों में बोल कर झगडा कर के मूढ मनवाला मैं माता पिता से अलग हो गया. तब मेरे पिताने मुझे एक भैंस, एक हल तथा पांच सौ रुपये दिये. पहले तो पत्नी मुझे खुब आदरपूर्वक स्नानादि करवा कर अधिक घी खिला कर सेवाभक्ति करने लगी. फिर कुछ समय जाने के बाद वही मुझे केवल थोडा ही घी देकर भोजन कराने लगी. तदनंतर धीरे धीरे घरनिर्वाह की चिंता द्वारा मेरा शरीर सुखने लगा. और इसी कारण निर्बलता से कीचड में गिर गया, और मेरी यह दूर्दशा हुई." इस प्रकार उस किसान का वृत्तान्त सुनकर महाराजा विक्रमादित्य को किसान की दरिद्रता से दुःखी हालत देख करुणा आई, और अपने भंडार से एक करोड सुवर्णमुद्रा निर्वाहार्थ दी. पाठकगण ! इस प्रकरण में राणीओं द्वारा कही हुई बात में से यह सार लेना आवश्यक है कि कोई कार्य दीर्घ विचार किये बिना नहीं करना चाहिये, बीना विचारे कार्य करने से पश्चात्ताप करना पडता है, और अन्तिम में लोलुपता दुःख का मूल है उस विषय से धन्य किसान की कहानी सुन महाराजा के दील में करुणा उत्पन्न हुई और अपने भंडार में से सहाय देकर सुखी कीया. अपनी शक्ति के प्रमाण में परोपकारी कार्या में सहयोग देते रहना मानवमात्र का कर्तव्य समजे. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust