________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरञ्जनविजय संयोजित . वह रत्नम जरी उत्तम सतीरत्न थी, लेकिन कल किसी कुकर्म के उदय से और पापरूप राक्षस से प्रेरित होकर चोर के साथ क्रीडा करने की इच्छा से उसने अपने पति को गुप्त रूप से मार डाला. बाद में चोर और अपने पति को मरा जान कर उसे खूब पश्चाताप हुआ. अपने किये हुए दुष्कर्मो की निन्दा करती हुई उसने अग्निप्रवेश किया-क्यों कि-क्षण में आसक्ति, क्षण में मुक्तता, क्षण में क्रोध, क्षण में क्षमावान् ऐसा मन, मोहादि की क्रीडा से बंदर की तरह चपलता को प्राप्त करता है. अर्थात् मन बन्दर की तरह चपल होता है, और परस्पर विरोधी भावों की क्षण क्षण में ग्रहण करता है. : अग्नि में प्रवेश करते समय नदी तट पर रत्नम जरीने आपको सत्य ही कहा है कि, 'आप पर्वत पर दूर जलते हुई आग-अग्नि को देख सकते है, लेकिन अपने पैरे। के पास जलती हुई आग को नहीं देख पाते. हमेशां निश्चल वुद्धि से शास्त्र का चिंतन करना चाहिये, आराधित राजाके प्रति भी निःशक नहीं रहना चाहिये, अपनी गोद मैं रही हुई स्त्री की भी बड़ी सावधानी से हमेशा देखभाल करनी चाहिये, क्यों कि शास्त्र में कहा है, राजा और युवती कभी भी वश / में नहीं रहती.x + शास्त्रं सुनिश्चिलधिया परिचिन्तनीयमाराधितोऽपि. नृपतिः परिशङ्कनीयः / / अङ्कस्थिताऽपि युवतिः परिरक्षणीया, शास्त्रे नृप च युक्तौ च कुतः स्थिरत्वम् (वशित्तम् ) // स. 11/538 // P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust