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________________ 526 विक्रम चरित्र देशी का ही रूप धारण किया और फिर दासी उसे भोजनस्थान में ले गई, जब उसने भोजन करने के लिये कहा तो राजा बोले, “मैं रात्रि में भोजन कभी नहीं करता. क्यों कि-श्री कृष्णने युधिष्ठिर से कहा, 'जो धर्मश्रद्धा से युक्त कोई गृहस्थी हो या विवेकवान हो, उनको रात्रिभोजन नहीं करना चाहिए, तपस्वी जन हो उस को विशेष प्रकार से रात्रि भोजन त्यागना आवश्यक हैं. जो व्यक्ति सदाकाल रात्रि भोजन त्यागता है उसको एक मास में पंदश दिन के उपवास का श्रेष्ठ फल मिलता है.' इस प्रकार जानकर में रात्रि भोजन नहीं करता हुँ, सूर्य होते तक दिन में दो ही बार भोजन करने का मुझे , नियम है.” उस के बाद चंदन का विलेपन कर हार और पुष्प समूह से शोभायमान उस राजा को वह दासी कोची के पास ले गई. राजाने विनयपूर्वक कोची को नमस्कार किया, इतने में तो उसने राजा का नाम लेकर कहा, “हे राजा विक्रमादित्य ! पधारिये. निरंतर प्रजाका न्याय करनेवाले, आप कुशल तो है ? आपकी पत्नी और मेरी पुत्री सदृश परम शीलवती देवदमनी कुशलपूर्वक तो है ? किस कारण से आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया ? जगत में सभी प्राणियों को अपना ही कार्य प्रिय होता है, दूसरे किसी का कार्य प्रिय नहीं होता. आप अपने कार्य से आये है, अथवा अपने मन का संशय निवारण करने . आये है, सो कहो. कोची पुनः बोली : जिस स्त्रीने अपने पति के साथ अग्नि प्रवेश किया है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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