________________ विक्रम चरित्र ROC जिस प्रकार चन्द्रमाँ को देखकर चकोरी प्रसन्न होती है, उसी तरह दिव्यरुप और श्रेष्ट आकार वाले राजा को आते देखकर वह प्रसन्न हुई. और आसनपर से खडी होकर सन्मानपूर्वक मधुर भाषामे बोली, "हे नरश्रेष्ट ! आप शीघ्र पीछे लौट जाइए, अन्यथा आप को बिना कारण ही विघ्न उठाना पड़ेगा. " .. . . ...राजाने पूछा, "मुझको क्या क्या विन होगा वह कहो?" तब वह कन्या लज्जासहित बोलो, "हे नरोत्तम ! आप सुनो-यह श्रीपुरनामका नगर है, इस नगरमें न्याय नीति परायण विजय नामक एक राजा थे, उनकी राणीका नाम भी विजयां था, चन्द्रावती नामकी उनकी * कन्या हूँ. भीम नाम के दैत्य-राक्षसने इस नगरकों उजाड़ कर दिया, सब लोग अपने अपने प्राण बचाने की इच्छासे दशों दिशाओंमें भाग गये हैं. उस राक्षसने मेरे साथ विवाह करने की इच्छासे मुझको ही यहाँ रखा है, इस राक्षस से मेरा छूटकारा होना असंभव हैं. यह राक्षस दुष्ट और मनुष्यों से दुःसाध्य है अर्थात्-यह किसी मनुष्य द्वारा मारा जाना असंभव है. क्यों कि-विधाताने बिच्छू के पूंछ में, सर्पके मुखमें, और दूर्जन के हृदयमें सदा के लिये विभाग कर के विष रखा है + इस राक्षस अर्थात् यह पूंछ में, - इस लिए उस राक्षस से मेरा उद्धार होना दुष्कर हैं." तब महाराजा विक्रमादित्यने कहा, "हे राजकन्ये ! डरो नहीं, साहस रखो! जैसे प्राणियों + वृश्चिकानां भुजंगानां दुर्जनानांच वेधसा: विभज्य नियतं न्यस्तं विषं पुच्छे मुखे हृदि " // स.९/३६९॥ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust