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________________ 282 . विक्रम चरित यदि तुमको अपने प्राण बचानेकी अभिलाषा हो तो, इस कन्याको छोड़कर यहाँ से अपने स्थानको चले जाओ." राजा विक्रमादित्य की निर्भय वाणी सुनकर क्रोधसे लाल नेत्र करके धम-धमाते राक्षसने तीन कोस ऊचा विस्तारवाला भयंकर अपना रूप बनाया। चरण के आघात से पृथ्वी को कम्पित करता हुआ देव और दानवों को डराता हुआ वह राक्षस राजाको मारने दौडा. अग्नि वैतालकी सहायता से राक्षस के शरीर से भी दुगना शरीर बनाकर राजा क्रोधसे. लाल नेत्र कर के राक्षस के कंधे पर चढ़ बैठा और उसीके 'वज्र दण्ड' से उसके शिर एक ऐसा जोरसे प्रहार किया कि जिससे वह दुराशयवाला राक्षस क्षण मात्रमें ही दुर्गति को प्राप्त हो गया.x कहा भी हैं कि' "घी रहित भोजन, प्रियजनोंका वियोग. अप्रियजनोंका संयोग यह सब पापका फल हैं." तीन वर्ष, तीन मास, या तीन पक्ष और तीन दिन में ही अत्यंत उग्र पाप या पुण्य का फल यहाँ ही प्राप्त हो जाता है, कहा भी है कि __x वास्तवमें जैन धर्मानुसार भूत-प्रेत-पिशाच-राक्षस आदि सब व्यन्तर 'जातिमें गिने जाते है, उस व्यन्तर जातिमें हलके स्वभावके देव होते, व कुतुहली-कुतुहल-प्रीय होनेके कारण दूसरे प्राणीओं के शरीर में अथवा कोई कोई स्थानोंमें प्रवेश कर अनेक चेष्टांए द्वारा लोगोंको कभी कभी दुःखी करत और आनंद विनोद मानते हैं। उन्हों को कोई मनुष्य मार नही सकते क्योकि उमका आयु अनपवर्तनीय-निश्चल होता है, किन्तु कोई महापुण्यशालि व्यापक * क्षण में उसको मार भगाता-वहाँ से दूर हठाता हैं। भूत-प्रेत-आदि व्यता “जातिके देव होने के कारण कुतुहल प्रिय जरुर है किन्तु मांस-दारु वर्गर " वे आहार नहीं करते केवल चेष्टा करते रहते हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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