________________ विक्रम चरित्र-द्वितीय भाग करते सोम के मस्तक में एक अत्यन्त तीक्ष्ण बाण लग गया, जिससे तत् क्षण में उसके प्राण पखेरू उड़ गये। जिस कार्य को एक दूसरे रूप में सिद्ध करना चाहता था, वह एक दूसरे ही रूप में बदल गयो / यह एक भाग्य की ही बात है / भार्या को छुड़ाने में अपने प्राण ही चले गये / सच है प्राणी सोचता कुछ और है और कुदरत करती है कुछ और / सूरकान्त युद्ध करते करते अपनी सेना के नष्ट हो जाने से कहीं भाग गया। इधर राजा की वह भिल्ल सेना अनुचित रूप में नगर को लुटने लगी। क्योंकि __ "चन्द्रबल, ग्रहबल, सेनाबल अथवा पृथ्वी का बल तब तक ही कार्य करता है, अपना सब मनोरथ तब तक ही सफल होता है, मनुष्य तब तक ही सज्जन रहता है, और मंत्र-तंत्र आदि का महात्म्य या पुरुषार्थ तब तक ही काम देता है, जब तक मनुष्यों का पुण्य विद्यमान रहता है, पुण्य के नष्ट होने पर सब कुछ नष्ट हो जाता है / " . 卐 तावच्चन्द्रबलं ततो ग्रहबलं तावबलं भूबलं, तावसिध्यति वान्छितार्थमखिलं तावन्जनः सज्जनः / मुद्रामंडलमंत्र तंत्र महिमा तावत्कृतं पौरूषम् , यावत् पुण्यमिदं नणां विजयते पुण्यक्षयात्क्षीयते ॥३८६।स.८ P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust