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________________ विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग 126 अधिक मास आता है / आपत्ति आने पर मित्र भी विरोध करते हैं। किसी प्रकार के छिद्र होने पर अनेक अनर्थ होने लगते हैं / - इसके बाद शुकराज नीचे भूमि पर इधर उधर देखता हुआ वन में . अपने ज्ञानी पिता को सुवर्ण कमल पर बैठे हुए देखा / तुरन्त ही , विमान से उतर कर शुकराज, देव, दानव तथा राजाओं से पूजित हैं चरण कमल जिसके ऐसे अपने पिता मृगध्वज केवलिमुनि को विधि पूर्वक प्रणाम किया तथा श्री केवलीमुनि भगवंत ने उसे धर्म . देशना देते फरमाया किः , "इस जगत् में धर्म यही सर्व मंगलों में श्रेष्ट मंगल है, सर्व . दुःखों का औषध जो कोई हो तो सर्व श्रेष्ट धर्म ही औषध रूप .. है, और सहायक बलों में धर्म ही श्रेष्ट बल है। इसीलिये इस जगत् में संसार से पार करने वाला और सभी प्राणियों को शरण . करने योग्य एक धर्म ही है। क्रोध मान, माया, लोभ, और दूसरे के दोष का त्याग करना आदि को श्री जिनेश्वर देवों ने स्वर्ग और मोक्ष को देने वाला धर्म बताया है।" __'उत्तम मनुष्य अपने प्राण जाने पर भी परके दोष को ग्रहण नहीं करते हैं और जीव-हिंसा नहीं करते।' इत्यादि देशना के अन्त में . अश्रु पूर्ण नेत्र होकर शुकराज ने गद्गद् कंठ से कहाकि मेरे समान रूप धारण करके किसी मनुष्य ने मेरा राज्य ले लिया है। ' चन्द्रशेखर और चन्द्रवती के सारे वृतान्त को जानते हुए भी केवलीमुनि भगवंत अनर्थ की आशंका से बोले नहीं / तब शुकराज पुनः कहने लगाकि 'हे भगवान तुम्हारा श्रीष्ट दर्शन होने पर भी यदि P.P.AC. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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