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________________ * साहित्य प्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित का मन मानता ही नहीं था, श्री जिनेश्वर को प्रणाम करके आगे पुनः जाता था तथा पुनः 2 लौट आता था / राजा को इस.. प्रकार बार बार करते देखकर मन्त्रियों ने कहा कि हे राजन् ! आप इस प्रकारक्यों लौट रहे हैं ? राजा ने कहा कि मैं, नहीं जानता हूँ कि मेरा पाँव आगे क्यों नहीं बढ़ता है। विमलानगरी का निर्माणः-- EMITS तब मन्त्रियों ने कहा कि यहाँ पर ही नगर की स्थापना करता हूँ। यहां ही सब लोग रहेगें। तब अनेक जिनेश्वरों के मन्दिरों से युक्त 'विमला' नाम की नगरी बसाकर राज धर्म ध्यान में लीनहोकर वहां पर रहने लगा। इधर गोमुख यक्ष ने आकर राजासे कहाकि "मैंने देवशक्ति" राजा से श्रीपुण्डरीक नाम,का पर्वत राज यहां पर बनाया था। अब आपकी तथा समस्त संघ की प्रतिज्ञा पूर्ण हो गई / इसीलिये अब मैं शीघ्र : ही इस पर्वतगज का संहरण करूगा इसलिये सौराष्ट्र देश में भूषण स्वरूप मुख्य तीर्थाधिराज श्री सिद्धाचल पर जाकर श्री ऋषभदेव प्रभु की भाव पूर्वक वन्दना कर आओ। क्योंकिः "देवताओं के द्वारा रचित चित्त को हर्ष देने वाला गृह आदि सब वस्तुएं एक पक्ष से अधिक नहीं रहते ऐसा जिनागम में कहा हुआ है।" ॐ विकुर्वितं सम वस्तु गेहादि चित्तहर्षदम्। . पक्षादुपरि नो कुत्र तिष्ठत्युक्त जिनागमे ।।२३८||सर्ग. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Sun Gun Aaradhak Trust
SR No.036483
Book TitleSamvat Pravartak Maharaja Vikram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNiranjanvijay
PublisherNiranjanvijay
Publication Year
Total Pages754
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size455 MB
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