________________ 186 साहित्यप्रेमी मुनि निरज्जनविजय संयोजित भाव भक्ति से सब कार्य करके श्री जिनेश्वर प्रभु की स्तुति में भक्ति पूर्वक गाने लगे:-- . . . 'हृदय बीच जिसके तुम प्रभुवर ! वास बनाकर रहते हो। उनके पाप नष्ट करके प्रभु, ज्ञान रत्न रब देते हो सुर असुरों के आनन्द दायी, मुख है कगल सदृश तेरा जिसको देख कृतार्थ हुये हम नष्ट हुआ दुख सब मेरा / / ' 'देव, असुर, महीपति आदिके मस्तक समूहों से प्रणाम किया गया है जिसके चरण को-ऐसे शत्रुञ्जय पवत के मुकुट मणिस्वरूप श्री ऋषभदेव भगवान् की मैं स्तुति करता हूँ / ' हे प्रभो ! जो मनुष्य तुम्हारे चरण कमल का सेवन करते हैं, उनकी देव, दानव, राजा सब कोई भक्ति पूर्वक सेवा करते हैं / * और भी कहने लगे कि-- ____"हे प्रभो ! जिसके हृदय में आप प्रतिदिन वास करते हो, उसके हृदय में जिस प्रकार सूर्य के उदय होने से अन्धकार नाश होता है उसी तरह आपके निवास से उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। हे नाभिराज पुत्र ! देव, दानव सबको सुख तनोषि वं विभो ! यस्य : मानसे वास मन्यहम् / - - तस्य पापानि गच्छन्ति तमांसीव दिनोदयात् / / 12148 र निरोक्ष्य त्वन्मुखाम्भोज सुरासुर सुखप्रदम् / कृतार्थो हम भूवं श्री नाभि पाल नन्दन ! ॥१२१शा।।। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust