________________ साहित्यप्रेमी मुनि निरन्जनविजय संयोजित 105 म गध्वज राजाको श्रीदतकेवली के वचनों का स्मरण होआना __ ये सब समाचार सुनकर मृगध्वज अपने मन में विचारने लगा कि 'पृथ्वी में जो मनुष्य व्रत ग्रहण करते हैं वे धन्य हैं।' "पिण्डों के लोभ लगाकर के तब तक संसार में पितर रहे। जब तक न पवित्रात्मा सुत कोई कुल में यति के धर्म गहे // " पुराणों में भी कहा है कि 'पिण्ड की अधिलाषा से पितर लोग तब तक संसार में भ्रमण करते है, जब तक कुल में पुत्र विशुद्ध अन्तःकरणवाला संयासी नहीं होता / पूर्व समय में ज्ञानी ने कहा था कि "जब तुम चन्द्रवती के पुत्र को देखोगे तब तुम्हारे हृदय में शुद्ध वैराग्य उत्पन्न होगा। परन्तु आज तक चन्द्रावती के पुत्र को मैंने नहीं देखा, अब मैं वृद्ध हो गया हूं। 'क्या ज्ञानीमुभि का वचन मिथ्या होगा ?' इस प्रकार मृगध्वज राजा उस बन में जब विचार कर ही रहा था तब ही एक बालक ने आकर राजा को प्रणाम किया। तुम कौन हो? कहां से आये हो ? ये सब बातें राजा जब तक उससे पूछता है इसीबिच में श्राकाश. वाणी हुई कि “यह चन्द्रावती का पुत्र है, बदि तुम्हारे चित्त में सन्देह होता है तो, हे राजन ! यहाँ से ईशान कोण में पांच कोस तक जाओ / वहाँ दोनों पर्वतों के मध्य में केले के वृक्षों से पूर्ण एक वन है। उसमें यशोमति नामकी एक योगिनी नित्य अत्यन्त उग्रतप करती है वहां जाकर तुम उस यशोमति * "तावद्भ्रमंति संसारे पितरः पिण्डकांक्षिणः / यावत्कुले विशुद्धात्मा यतिः पुत्रों न जायते ॥इति पुगणे।।६८८. P.P.AC.Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust