________________ 112 विक्रम-चरित्र द्वितीय भाग , धर्म के सार को विचार करके यह समझना चाहिये कि यह अत्यन्त गहन तथा अपार संसाररूपी सागर खारा है। मधुरता का इसमें अंश भी नहीं है / इसलिये बुद्धिमान लोग आसक्त नहीं होते हैं, यह गोरखनाथजी का उपदेश है / हाथी, घोडे, स्त्रियां ये सब किसीके नहीं हैं। क्योंकि नरक जाने के समय में कोई भी इनमें से रक्षा नहीं करता है / यह सब विचार बराबर करना चाहिये / क्रोधका त्यागकर, मानको हटाकर, माया, लोभ आदि से निवृत्त होकर दूसरोंसे वैरभाव न करके अपनी आत्मा के तारण के लिये सदैव धर्म उद्योग करते रहना चाहिये / मंत्रियों के आग्रह से मृगध्वज का नगर में प्रोना-- - यह सब उपदेश सुनकर राजा शान्त होगया तथा योगिनी को प्रणाम करके चन्द्राकके साथ अपने नगर के उद्यान में आ गया / तथा सन्मुख आये हुए मंत्रियों से कहने लगाकि 'आप लोग शुकराजको राज्य दे देवें / मैं इस समय यहीं रह कर गुरु से व्रत ग्रहण करूगा। नगर में जाने से मुनियों को भी दोष लग जाता है / इस लिये मैं नगर में नहीं आऊंगा / ' .. तब मंत्री लोग कहने लगेकि 'राजन् ! एक बार राजभवन को पवित्र करो, क्योंकि जो जितेन्द्रिय नहीं है उनको वनमें भी दोष लगता है' * कहा है कि:--- * वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां : गृहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः / .. . - अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते, . . निवतरागस्य गृहं तपोवनम् / / / 752 / / 8 / / P.AC.GupatnasuriM.S... . Jan Gun Aaradhak Trust