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ain sahaza
জালালি সজিক তো ছিল অনু THE SMRTI-SANDARBHA (A COLLECTION OF DHARMAJĀSTRAS)
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स्मृति - सन्दर्भ:
श्रीमन्महर्षिप्रणीत धर्मशास्त्रसंग्रहग्रन्थः
कपिलादिदशस्मृत्यात्मकः
पञ्चमोभागः
NAG PUBLISHERS
नाग प्रकाशक
११ ए/यू. ए., जवाहर नगर,
दिल्ली-७
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मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के आर्थिक अनुदान से प्रकाशित
नाग प्रकाशक J. 11 A/U. A. जवाहरनगर, दिल्ली-110007 2. 8 A/3 U. A. जवाहरनगर, दिल्ली-110007 3. जलालपुरमाफी (चुनार-मिर्जापुर) उ० प्र०
ISBN : 81-7081-170-8 (Set)
संशोधित एवं परिवदित संस्करण
मूल्य :10.866 : भागों के
नागशरण सिंह, नाग प्रकाशक, जवाहर नगर, दिल्ली-७ द्वारा प्रकाशित
तथा न्यू ज्ञान आफसेट प्रिंटर्स, शाहजादा बाग, दिल्ली द्वारा मुद्रित
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THE
SMRITI SANDARBHA
Collection of Ten Dharmashastric
Texts by Maharshis.
Volume V
NAG PUBLISHERS
NAG PUBLISHERS 11.A/U.A. JAWAHAR NAGAR (P. O. BUI D'NG)
DELH-1110007.
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This Publication has been brought out with the financial assistance from the Govt. of India, Ministry of Human Resource Development.
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NAG PUBLISHERS (i) 11A/ U.A. Jawahar Nagar, Delhi-110007 (ii) 8A/3 U.A. Jawabarnagar, Delhi-110007 (iii) Jalalpur Mafi (Chunar-Mirzapur) U. P.
ISBN 81-7081-170-8 (Set)
1988 PRICE RS200 vols. set
PRINTED IN INDIA Published by Nag Sharan Singh for Nag Publishers, 11A/U.A. Jawaharnagar, Delhi-110007 and printed at New Gian Offset
Printers, Delhi.
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श्रीगणेशाय नमः।
अथ स्मृतिसन्दर्भस्थ पञ्चमभागे सङ्कलित
स्मृतीनां नामनिर्देशः
स्मृतिनामानि
पृष्ठाङ्काः ४५ कपिलस्मृतिः
२५२६ ४६ वाधूलस्मृतिः
२६२३ ४७ विश्वामित्रस्मृतिः
२६४५ ४८ लोहितस्मृतिः
२७०१ ४६ नारायणस्मृतिः
२७७० ५० शाण्डिल्यस्मृतिः
२७६३ ५१ कण्वस्मृतिः
२८६० ५२ दाल्भ्यस्मृतिः
२६३३ ५३ आङ्गिरसस्मृतिः नं० २...
(क) , पूर्वाङ्गिरसम् .. ' २६४६
(ख) , उत्तराङ्गिरसम् ... ३०६५ ५४ भारद्वाजस्मृतिः ....
३०८५ विशेष द्र०-द्वितीयाङ्गिरसस्मृतेविषयवैशिष्ट्येनपृथगुपन्यासः
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॥ श्रीगणेशाय नमः।
स्मृतिसन्दर्भ पञ्चम भाग
विषय-सूची
की
कपिलस्मृति के प्रधान विषय अध्याय प्रधान विषय
. पृष्ठाङ्क कपिल-शौनक-सम्वादवर्णनम्
२५३६ ___ कपिल एवं शौनक में परस्पर वेद विषयक चर्चा ।
यहीं वेद निन्दकों का प्रकरण भी आया है (१-२०)। वैदिककर्मणामभावकथनम्
वैदिक कर्मों का अभाव कथन (२१-४०)। वेदमन्त्राणां व्यत्यासेनोचारणेदोषकथनम् २५३४ _ वेदमन्त्रों के व्यत्यास से उचारण करने में दोष होना (४१-५०)। श्राद्धप्रकरणवर्णनम्
- २५३५ श्राद्ध प्रकरण का वर्णन, नान्दीमुख श्राद्ध की प्रधानता, विभिन्न श्राद्धों का सुन्दर वर्णन (५१-३००)।
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२५६१
[ २ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क उपनयनसंस्कारवर्णनम्
२५५७ उपनयन संस्कार का वर्णन (३०१-३३३ )। ब्राह्मणादिवर्णानामेकपङ्क्तौभोजननिर्णयवर्णनम् २५५६
ब्राह्मणादिवर्गों का एक पङ्क्ति में भोजननिर्णय वर्णन (३३४-३५०)। विप्रमहत्त्ववर्णनम्
वित्रों के महत्त्व का वर्णन ( ३५१-३५८)। नान्दीश्राद्धप्रकरणवर्णनम्
२५६३ नान्दी श्राद्ध करनेवाले की योग्यता व अधिकार का वर्णन (३५६-३७४)। दत्तकपुत्रप्रकरणवर्णनम्
२५६५ दत्तकपुत्र का वर्णन और उसकी योग्यता (३७५-४२६)। दानप्रकरणवर्णनम्
२५६६ दशविधदानों का निरूपण (४२७-४७६ )। दान के अधिकारी जनों का वर्णन (४७७-४८७)। दौहित्रप्राधान्यवर्णनम्
२५७५ दौहित्र की सर्वत्र प्रधानता का निरूपण (४८८-५००)। भूमिदानप्रकरणवर्णनम्
२५७७ भूमिदान प्रकरण (५०१-५१८)।
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[ ३ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठा वर्जितस्त्रीणां श्राद्धपाककरणे दोषवर्णनम् २५७६
वर्जित त्रियों को श्राद्ध का पाक करने में दोष बतलाया है (५१६-५४०)। विधवास्त्रीणां कृत्यवर्णनम्
२५८१ विधवा स्त्रियों के कार्यों का वर्णन (५४१-५६२)। सधवाविधवास्त्रीणां मीमांसा
२५८५ सधवा एवं विधवा स्त्रियों का विवेचन (५६३-६३२) । विधवास्त्रीणां प्रकरणम्
२५८६ अतिरण्डा, महारण्डा और पुत्ररण्डा आदि का वर्णन (६३३-६५६)। पुत्रमहत्त्ववर्णनम्
२५६१ पुत्र के बिना एक क्षण भी न रहे । पुत्र के महत्त्व का विस्तार से निरूपण (६५६-६७८)। ज्येष्ठपुत्रस्य पत्र्ये योग्यता
२५६३ ज्येष्ठ पुत्र की पिता के सभी उत्तराधिकारियों से अधिक योग्यता (६६-६६८)। औरसपुत्रेषु ज्येष्ठत्वनिर्णयः
.. २५६५ औरस पुत्रों में ज्येष्ठ कौन हो इसका निर्णय (६६६-७००)।
प
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[४] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क पत्र्ये कर्मणि दौहित्रस्यौरसत्वम्
२५६७ पैञ्य कर्म में दौहित्र का पुत्र के अभाव में औरस होना (७०१-७४४)। धर्मसेवनलाभः
२५६६ धर्मसेवन का लाभ (७४५-७६६ ) । सुतस्य कुलतारकत्वम्
२६०१ . पुत्र का कुलतारक होना (७६७-७८६)। निर्दष्टपुत्रयोग्यता
२६०३ निर्दुष्ट पुत्र की योग्यता (७६०-८०६ )। दण्ड्यानामदण्ड्यानां यथायथधर्मव्यवहरणम् .. २६०५
दण्डनीय और न दण्ड देने योग्य जनों का धर्म से व्यवहार करना ( ८१०-८३०)। दण्डविधानम्
२६०७ दण्डविधान वर्णन ( ८३१-८७१)। विप्रमहत्त्ववर्णनम्
२६११ वित्र का महत्त्व निरूपण (८७२-८६३)। नानाविधदानप्रकरणम्
२६१३ विविध दानों का वर्णन ( ८६४-६८०)।
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[ ५ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क दुष्कर्मणां प्रायश्चित्तवर्णनम् ।
२६२१ दुष्कर्मों का प्रायश्चित्त वर्णन (६८१-६६५)। कपिलस्मृति का माहात्म्य वर्णन (६६)।
कपिलस्कृति की विषय-सूची समाप्त ।
वाधूलस्मृति के प्रधान विषय नित्यकर्मविधिवर्णनम्
२६२३ महर्षियों ने वाधूल मुनि से ब्राह्मणादि के आचार पूछे इस पर नित्यकर्म विधि का वर्णन उन्होंने किया (१-३)। ब्राह्ममुहूर्च में शय्या त्याग कर प्रसन्न मन से हाथ-पैर धोकर भगवत्स्मरण करे (४)। ब्राह्ममुहूर्त में सोनेवाला सभी कर्मों में अनाधिकारी रहता है (५)। प्रातः सन्ध्या तारागण के प्रकाश से लेकर सूर्योदय तक है । अतः तारागण के रहते प्रातः सन्ध्या करे (६)। सायंकाल में आधे सूर्य के अस्त होने के समय सन्ध्या करे (७)। कानों पर यज्ञोपवीत रखकर दिन में और सब सन्ध्याओं में उत्तर की तरफ और रात में दक्षिण की ओर मुँह कर टट्टी पेशाब करे (८)। सारे अङ्गों
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[ ६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क को सिकोड़ कर नाक और मुँह को वस्र से ढक कर मलमूत्र त्याग करे (६)। जो व्यक्ति अपने शिर को बिना ढंके मलमूत्र का त्याग करता है उसके शिर के सौ टुकड़े हों ऐसा वेद शाप देते हैं (१०)। बाद में शोधन कर्म करे। गृहस्थ, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और सन्यासियों का विभिन्न शौच प्रकार (११-१७ )। बाह्य और आभ्यन्तर शौच आवश्यक है क्योंकि शौच व आचार से हीन की सब क्रिया निष्फल हैं ( १८-२०)। आचमन प्रकार ब्राह्मण इतना आचमन ले जितना हृदय तक स्पर्श हो, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और स्त्रियां कण्ठतालु तक स्पर्श करनेवाले जल से आचमन करे । हाथ में कुश लेकर जल पीवे और आचमन करे । (२२-२७ )। अपने कटि प्रदेश तक जल में स्नान कर वहीं भीगे कपड़ों से तर्पण, आचमन और जप करे यदि सूखे कपड़े पहनकर करना हो तो स्थल में ये क्रियायें करें (२८-३०) उपवास के दिन दन्तधावनादि न करे । कुल्ला के समय तर्जनी से मुख के शोधन से प्रायश्चित्त
लगता है। स्नानविधिवर्णनम्
२६२७ निषिद्ध तिथियों में दन्तधावन नहीं करना चाहिये। पतित मनुष्य की छाया पड़ने से स्नान करना चाहिये
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[ ७ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क अस्पृश्य के छू जाने से १३ वार जल में नहाने से शुद्धि हो। रजस्वला स्त्री को यदि ज्वर चढ़ जावे तो वह कैसे शुद्ध हो इसके उत्तर में वाधूल ने बताया कि चतुर्थ दिन दूसरी स्त्री उसे स्पर्श कर दश या बारह बार आचमन कर अपने पहलेवाले कपड़ों को छोड़कर नये कपड़े पहन ले फिर पुण्याहवाचन के साथ यथाशक्ति दान करे (३१-४८)। भूमि पर गिरा हुआ जल गंगा के समान पवित्र है। चन्द्र और सूर्य ग्रहण के समय कुआ, वापी, तडाग के जल शुद्ध हैं। अपनी शौच क्रिया से निवृत्त होकर स्नान करे दोनों हाथों को मिला कर जल की अञ्जलि से जल में तर्पण करे जिस तीर्थ से जल लिया जाय उसीसे जलाञ्जलि देवे (४६-५६)। पूर्व की ओर मुख करके देवतागण को, उत्तराभिमुख होकर ऋषियों को और दक्षिण की ओर मुँह करके जल में पितरों को तर्पण करे । स्नान के लिये जाते हुए मनुष्य के पीछे पितरों के साथ देवगण प्यास से व्याकुल जल के लिये लालायित होकर वायुरूप होकर जाते हैं अतः देवर्षिपितृतर्पण किये बिना वस्त्र को न निचोड़े यदि वस्त्र निचोड़ा जाता है तो वे निराश होकर चले जाते हैं। सम्पूर्ण कर्मों की सिद्धि के लिये नदी, तालाब, पहाड़ी झरनों में प्रतिदिन स्नान करे (५७-६३) ।
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[ ८] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क दूसरे के बनाये हुए सरोवर में स्नान करने से उस बनानेवाले के दुष्कृत (पाप) स्नानार्थी को लगते हैं अतः उसमें न नहावे (६४)। सोकर उठने से लारपसीनों से भरा हुआ मनुष्य अशुद्ध है उसे स्नानादि से शुद्ध होनेपर ही नित्यकर्म सन्थ्योपासन देवर्षि पित तर्पण करना चाहिये। सूर्योदय के पूर्व प्रातःकाल का स्नान प्राजापत्य यज्ञ के समान हैं और आलस्यादि को नष्ट कर मनुष्य को उन्नत विचार और कार्यशील बना देता है। स्नान के समय पहने वन से शरीर को न मले न पोंछे ही इससे शरीर कुत्ते के द्वारा सूंघा हुआ हो जाता है जो फिर स्नान करने से ही शुद्ध होता है (६५-६८)।
स्नान मूलाः क्रियाः सर्वाः सन्ध्योपासनमेव च । स्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्युः निष्फलाः क्रियाः ।।६७॥ सम्पूर्ण क्रियायें स्नान के अन्तर्गत ही हैं। रविवार को उषा काल में स्नान करने से हजार माघ स्नान का फल और जन्म दिन के नक्षत्र में वैधृत पुण्यकाल, व्यतीपात और संक्रान्ति पर्वो में, अमावस्या को नदी में स्नान कोटि कुलों का उद्धार कर देता है। प्रातः स्नान करनेवाले को नरक के. दुःख कभी नहीं देखने
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[ 8 ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठा पड़ते। स्नान किये बिना भोजन करनेवाला मल का भोजन करता है (६९-७५)।
शिव सङ्कल्प सूक्त का पाठ, मार्जन, अघमर्षण, देवर्षि पितृ तर्पण ये स्नान के पांच अङ्ग हैं (७६-७७)। जल के अवगाहन, जल में अपने शरीर का अभिषेक, जल को प्रणाम और जल में तीर्थों गङ्गादि नदियों का आवाहन फिर मजन, अघमर्षण, देवर्षि पितृतर्पण का विधान बतलाया गया है (७८-८६)। प्रातः स्नान का महत्त्व । अपने शरीर को पोंछने पर सूखे कपड़े पहनकर उत्तरीय धारण करे। वन्दन और तर्पण के समय इसे कटि प्रदेश में ही बांधे रक्खे। फिर तिलक करे। पर्वत की चोटी से, नदी के किनारे से, विशेष रूप से विष्णु क्षेत्र में मिली सिन्धु के तट पर तुलसी के मूल की मिट्टी से तिलक प्रशस्त बताया गया है (१०-१०८)।
श्यामतिलक शान्तिकर लाल वश में करनेवाला, पीला लक्ष्मी देनेवाला और सफेद मोक्षदाता बतलाया है (१०६-११०)। भगवान् पर चढ़ाये गये हरिद्रा के चूर्ण के तिलक का माहात्म्य (१११) सम्पूर्ण संसार में जो कर्महीन द्विजाति मात्र हैं उनको शुद्ध करने के लिये सन्ध्या स्वयं ब्रह्मा ने बनाई। प्रातःकाल गायत्री का ध्यान, मध्याह्न में सावित्री
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[ १० ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क और सायं काल सरस्वती का ध्यान करना चाहिये। प्रतिग्रह, अन्नदोष, पातक और उपपातकों से गायत्री मन्त्र के जपनेवाले की गायत्री रक्षा करती है इसलिये इसका नाम गायत्री है।
प्रतिग्रहादन्नदोषात्पातकादुपपातकात् । गायत्री प्रोच्यते यस्माद् गायन्तं त्रायते यतः ॥११॥ सविता को प्रकाशित करने से इसका नाम सावित्री और संसार की प्रसवित्री वाणी रूप से होने से इसका इसका नाम सरस्वती अन्वर्थ है (जैसा नाम वैसा गुण) (११२-११६)।
आपोहिष्ठेत्यादि मार्जन मन्त्रों में नौ ओङ्कार के साथ जो मार्जन किया जाता है उससे वाणी, मन और शरीर के नवों दोषों का क्षय हो जाता है (११७-१२०) । सायंकाल में अर्घ्य जल में न देवे जहाँ सन्ध्या की जाय वहीं जप भी हो । वेदोदित नित्यकर्मों का किसी कारण अतिक्रमण हो जाय तो एक दिन बिना अन्न खाये रहना चाहिये और १०८ गायत्री मन्त्र के जप दोनों सन्ध्या में विशेष रूप करे (११-१२६)।
सूतक और मृतक के आशौच में भी सन्ध्या कर्म न छोड़े प्राणायाम को छोड़ कर सारे मन्त्रों को मन से
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पृष्ठाङ्क
[ ११ । अध्याय
प्रधान विषय उच्चारण करे (१३०-१३२)। देवार्चन, जप, होम, स्वाध्याय, स्नान, दान तथा ध्यान में तीन-तीन प्राणायाम करे (१३३-१३४ )। जप का विधान प्रातः काल हाथ ऊंचे रखकर, सायंकाल नीचे हाथ कर एवं मध्याह्न में हाथ
और कन्धे के बीच में रखकर जप करे नीचे हाथ कर जप करना पैशाच, हाथ बीच में रखकर करने से राक्षस, हाथ बांधकर करने से गान्धर्व और ऊपर हाथ करने से दैवत जप होता है ( १३५-१३६ )।
प्रदक्षिणा, प्रणाम, पूजा, हवन, जप और गुरु तथा देवता के दर्शन में गले में वस्त्र न लगावे ( १४०)। दर्भा के बिना सन्ध्या, जल के बिना दान और बिना संख्या किया हुआ जप सब निष्फल होता है । जप में तुलसी काष्ठ की माला और पद्माक्ष तथा रुद्राक्ष की माला प्रशस्त है ( १४१-१४३ )। गृहस्थ एवं ब्रह्मचारी १०८ वार मन्त्र का जाप करे। वानप्रस्थ तथा यति १००८ वार करें।
आहुति के लिये सामग्री का विधान (१४४-४५)। गृहस्थधर्मवर्णनम्
गृहस्थ को सम्पूर्ण कार्य पत्नी सहित इष्ट है । जिस मनुष्य की स्त्री दूर हो, पतित हो गई हो, रजस्वला हो, अनिष्ट वा प्रतिकूल हो उसकी अनुपस्थिति में कोई
२६३७
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[ १२ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ऋषि कुशमयी धर्मपत्नी, कोई ऋषि काश की बनी पत्नी को प्रतिनिधि रूप में रखकर नित्यकर्म क्रिया करने की सद्गृहस्थ को आज्ञा देते हैं (१४७-४८)। होम के लिये गो घृत श्रेष्ठ वह न मिले तो माहिष घृत उसके न मिलने पर बकरी का घृत और उन सब के न मिलने पर साक्षात् तैल का व्यवहार करे ( १८६)। समय पर
आहुति देने का माहात्म्य ( १५०-१५२ ) । वेदाक्षरों को स्वार्थ में लानेवाले मनुष्य की निन्दा। छै प्रकार के वेदों को बेचनेवाले का गणन (१५३-१५८)। रविवार, शुक्रवार, मन्वादि चारों युगों में और मध्याह्न के बाद तुलसी न लावे । संक्रान्ति, दोनों पक्षों के अन्त में द्वादशी में और रात्रितथा दिन की सन्ध्या में तुलसी चयन का निषेध है (१६०)। तीर्थ में मन, वाणी और कर्म से कैसा भी पाप न करे और दान न लेवे क्योंकि वह सब दुर्जर है अतः अक्षम्य है । भृत (व्यवहार ) अमृत सत्य कर्तव्य पालन ऋत या प्रमृत से और सत्य-अनृत से जीविका कमावे (१६१-६३)।
किसी वस्तु को बिना पूछे लेने से पाप (१६४)। मनुजी ने वनस्पति, कन्द, मूल फल, अमिहोत्र के लिये काठ, तृण और गौओं के लिये घास ये अस्तेय बताये हैं। किन-किन लोगों से किसी भी रूप में कोई वस्तु न लेवें
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[ १३ ] अध्याय प्रधान विषय
· पृष्ठाङ्क इसका वर्णन (१६५-१६८)। दूसरे के लिये तिल का हवन करनेवाले दूसरे के लिये मन्त्र जप करनेवाले और अपने माता पिता की सेवा न करनेवाले को देखते ही आंख बन्द कर ले (१६६)। जो लोग निन्द्य कर्म करते हैं उनके सङ्ग से सत्पुरुष भी हीन हो जाते हैं और उनकी शुद्धि आवश्यक है ( १७०-१७४ )। जो आदेश, तीन या चार वेद के महाविद्वान् दें वही धर्म है और कोई हजारों व्यक्ति चाहे, कहे वह धर्म सम्मत नहीं। वेद पाठी सदा पञ्चमहायज्ञ करनेवाले और अपनी इन्द्रियों को वश में करनेवाले मनुष्य तीन लोकों को तार देते हैं ( १७५-१७६)।
पतित लोगों से सम्पर्क करने से मनुष्य एक वर्ष में पतित हो जाता है ( १८०)। कलियुग में सभी ब्रह्म का प्रतिपादन करेंगे परन्तु कोई भी वेद विहित कर्मों का अनुष्ठान नहीं करेगा ( १८१)। मैथुन में त्याज्य दिनों की गणना-षष्ठी अष्टमी, एकादशी, द्वादशी, चतुर्दशी, दोनों पर्व अमावास्या, पूर्णिमा, संक्रान्ति कोई भी श्राद्ध दिन, जन्म नक्षत्र का दिन, श्रवण व्रत का समय और जो भी विशेष महत्त्वपूर्ण दिन हैं उनमें मैथुन (स्त्री गमन ) निषिद्ध है (१८२-१८३) । शुभ समय में अर्थार्थी मनुष्य जिन कामों को अपने स्वार्थ के लिये
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[ १४ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क करता है उन्हें ही यदि धर्म के लिये करे तो संसार में कोई दुःखी नहीं रह सकता।
अर्थार्थी यानि कर्माणि करोति कृपणो जनः । तान्येव यदि धर्मार्थ कुर्वन् को दुःखभाग्भवेत् ॥१८॥ भिन्न-भिन्न वस्तुओं एवं पतितों के छू जाने से स्नान का विधान किसी वस्तु को बेचने पर स्नान का विधान आवश्यक है ( १८४-१८८)।
श्रुति स्मृति के आदेश प्रभु की आज्ञा है इनको न माननेवाले को भगवद्भक्त बनने का अधिकार नहीं (१८६)। सच्चे अन्धे का लक्षण-जो श्रुति स्मृति का अध्ययन, मनन और अनुशीलन कर उनके मार्ग का अनुष्ठान नहीं करता वह अन्धा है (१६०-१६१)। पापी को धर्मशास्त्र अच्छे नहीं लगते (१९२)।
सच्चा ब्राह्मण वही है जो भृण करने से ऐसे डरता है जैसे सर्प को देखकर। सम्मान से ऐसे दूर रहता है जैसे लोग मरने से और स्त्रियों के सम्पर्क से जैसे मृतक से घृणा होती है वैसे दूर रहता है। ब्राह्मण वह है जोशान्त हो, दान्त हो, क्रोध को जीतनेवाला हो, आत्मा पर पूरा अधिकार करनेवाला हो, इन्द्रियों का निग्रह कर चुका हो। ब्राह्मण का यह शरीर उपभोग के लिये नहीं बल्कि इस शरीर में क्लेश के साथ तपस्या करते हुए
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अध्याय
[ १५ ] प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ऊर्ध्व लोक में अनन्त सुख की प्राप्ति के लिये है (१९३-१६४)। दर्श में सूखे कपड़े पहनकर तिलोदक जल के बाहर दे,गीले वखों से पितर निराश होकर जले जाते हैं । ऊर्ध्व पुण्डू का माहात्म्य ( १६५-२०१)। श्राद्ध के बाद ब्राह्मण भोजन का विधान (२०२)। विवाह में, श्राद्धादि में नान्दी श्राद्ध करने से, सूतक का दोष नहीं रहता (२०३)।
पितृ श्राद्ध में वर्जित लोगों को देवता कार्य में बुलाने की छूट (२०५-२०६)। पितृ श्राद्ध में वस्त्रों के देने का माहात्म्य (२०७)। अलग-अलग कमानेवाले पुत्रों द्वारा पृथक्-पृथक् पितृ श्राद्ध का विधान (२०८-२१०)। सन्यासी बहुत खानेवाला, वैद्य, नामधारी साधु, गर्भवाला, (जिसकी स्त्री गर्भवती हो ) वेदों के आचरण से हीन व्यक्ति को दान और श्राद्ध में न बुलावे (२११)।
गर्भ करनेवाले द्विज के लिये वर्ण्य कर्म (२११-२१७)। सान, सन्ध्या, जप, होम, स्वाध्याय, पितृ तर्पण, देवताराधन और वैश्वदेव को न करनेवाला पतित होता है अतः इन्हें नियम से करना प्रत्येक द्विजाति का कर्तव्य है (२१८-२२४ )। .
॥ वाधूलस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥
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विश्वामित्रस्मृति के प्रधान विषय
अध्याय
प्रधान विषय
१ नित्यनैमित्तिककर्मणां वर्णनम्
मङ्गलाचरण ( १ ) ब्राह्ममुहूर्त, उषःकाल, अरुणोदय और प्रातःकाल के मान का वर्णन ( ३ ) । नित्य और नैमित्तिक तथा काम्य कर्म समय पर करने से सत्फल देते हैं ( ४ ) ब्राह्ममुहूर्त में शौच से निवृत्त होकर अरुणोदय के पहले आत्मा के लिये स्नान करे प्रातः जप करे और सूर्य को देखकर उपस्थान करे ( ६ ) । काल बीतने पर कोई कर्म करने से फल नहीं मिलता यदि किसी कारण से काल का लोप हो गया तो तीन हजार जप करने से उसका प्रायश्चित्त विधान है । दुःसङ्ग या निद्रा अथवा प्रमाद आलस्य से काल का लोप करने से प्रायश्चित्त बतलाया गया है ( ८-१४) । जो व्यक्ति समय पर नित्यकर्मादि को करता है वह सम्पूर्ण लोगों पर जय पाकर अन्त में विष्णुपुर में जाता है ( १६ ) ।
पृष्ठाङ्क
२६४५
प्रातः स्नान सन्ध्या और जप अवश्य कर्म है । जैसे समय पर वर्षा होते ही बीज बोने से अच्छी खेती होती है वैसे ही नियुक्त कर्मों को नियुक्त समय पर करने से सद्यः सिद्धि मिलती है ( १७-२१ ) । उत्तम, मध्यम और
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[ १७ ] अध्याय प्रधान विषय .
पृष्ठाक अधम सन्ध्या के भेद । शुचि या अशुचि हो, नित्यकर्म को कभी न छोड़े (२२-२५) । तीनों सन्ध्या काल में या तो पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुँह कर नित्यकर्म करे। दक्षिण या पश्चिम की ओर मुंह करके नहीं (२६)। सन्ध्या नान किये बिना विद्या पढ़ना हानिकारक है, सन्ध्या काल आने पर उसे छोड़नेवाले को पाप लगता है (३०)। सोपाधि एवं अनुपाधि भेद से आचार के दो भेद-सोपाधि गुणवान् और अनुपाधि मुख्य है (३१-२६ )। गायत्री मन्त्र की विशेषता-प्रातःशय्यात्याग के बाद पृथ्वी का वन्दन भैरव की स्तुति, दक्षिण दिशा में जाकर मल-मूत्र आदि का त्याग करे (३२)। शौच का प्रकार (५३-५६ )। दन्तधावन और दतुवन के लिये वनस्पतियों का परिगणन (६३)। आचमन कर स्नान करने का प्रकार (६८)। सन्ध्यादि, तर्पण का विधान (७३)।
जलमान का विधान मन्त्रोचारण पूर्वक विशेष फलदायक है। तीनों कालों में स्नान का विशेष विधान (७८)। नान करनेवाले पुरुष के रूप, तेज, बल, शौच, आयु, आरोग्य, अलोलुपता, एवं तप की वृद्धि व दुःस्वप्न का नाश होता है। तर्पण की विशेषता (८७)। वाधारण में बसों के महत्त्व का वर्णन, प्राणायाम का
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[ १८ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क प्रकार, पूरक, कुम्भक और रेचक से सम्पूर्ण प्रकार के मलदोषों का नाश होकर शरीर की शुद्धि होती है और अध्यात्मबल बढ़ता है। तिलक धारण की विधि, पुण्डू
धारण इसके बिना सब कर्म निष्फल ( १०४ )। २ आचमनविधिवर्णनम्
२६५७ मुख्य तीन प्रकार के आचमनों का वर्णन, पौराण, स्मार्त और आगम, इनके साथ श्रौत एवं मानस आचमनों का वर्णन-मन्त्र जपने एवं नित्यकर्मों के आदि
और अन्त में आचमन करे। भगवान् के २१ नामों के साथ न्यास विधान (१-२०)। २ विधिवदाचमनस्यैवफलवर्णनम्
२६५६ गोकर्ण की आकृति बनाकर अंगूठे और सबसे छोटी अङ्गुली को छोड़कर अञ्जलि में जलग्रहण कर आचमन का विधान है इसी का फल है (२१-२३)। थूकने, सोने, ओढ़ने, अश्रुपात आदि से विघ्न होने पर आचमन करे या दक्षिण कान को तीन बार स्पर्श करे । भोजन के आदि में और अन्त में नित्य आचमन करे। मानसिक आचमन में भी केशवाय नमः, माधवाय नमः और गोविन्दाय नमः मन में बोलकर चित्त शुद्धि करे (२४-३२)।
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[ १६ ]
प्रधान विषय
अध्याय
२ मार्जनम्
"आपोहिष्ठा मयो भुवः” से मार्जन करे फिर न्यास करे, ऐसा करने से द्विजमात्र शुद्ध होकर ध्यान, जप, पूजा में सब सिद्धियां प्राप्त करते हैं ( ३३-३६ ) ।
983
२६६०
२ पञ्चाचमनविधिवर्णनम्
२६६१
ब्रह्मयज्ञ में तीन बार आचमन का विधान है । श्रौत, स्मार्त, आचमन को किन-किन स्थलों पर करना इसकी विधि (४०-५७ ) ।
३ प्राणायामविधिवर्णनम् पश्चपूजाविधिवर्णनम् विलोमगायत्रीमन्त्रवर्णनम्
२६६३
२६६५
२६.६७
नानामन्त्राणां जपे तत्तन्मन्त्रेण प्राणायामः २६६६
प्राण और अपान का समयुक्त होना ही प्राणायाम कहलाता है, इसे सन्ध्याकाल और प्रत्येक कर्म के आरम्भ में मन को एकाम करने के लिये अवश्य करे । नौ बार उत्तम प्राणायाम, छै बार मध्यम और तीन बार अधम कहा गहा गया है ( १-३ ) । गायत्री मन्त्र और व्याहृतियों के साथ प्राणायाम करना चाहिये
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[ २० ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क (४-५)। पहले कुम्भक फिर पूरक और फिर रेचक, इस क्रम से प्राणायाम करना इष्ट है । सन्ध्या होम काल
और ब्रह्मयज्ञ में कुम्भक से आरम्भ कर प्राणायाम करे । प्राणायाम में करने योगाध्यान का वर्णन (६-१०)। दश प्रणव एवं गायत्री मन्त्र के साथ इडा और पिङ्गला को छोड़ सुषुम्ना नाड़ी से कुम्भक करे साथ में मन्त्र का स्मरण बराबर होता रहे (११)। रेचक और पूरक बिना प्रयास के होते हैं । कुम्भक में प्रयास करना होता है यह अभ्यास से शक्य है । अनभ्यास से शास्त्र विष का काम करते हैं, अभ्यास से वही अमृत बन जाते हैं। प्राणायाम के समय सिद्धासन से बैठे। प्राणायाम में चारों अङ्गुली और अंगूठा काम में लेना चाहिये। इस समय मन्त्र के उच्चारण के साथ-साथ उस-उस देवता की मानसां पूजा करनी चाहिये इससे विशेष फल मिलता है।
लं, ह, यं, रं, वं इन वीजों से पृथिव्यात्मा को गन्ध, आकाशात्मा को पुष्प, वाय्वात्मा को धूप, अग्न्यात्मा को दीप और अमृतात्मा को नैवेद्य प्रदान करे। इस पञ्च- . भूतात्मक मानसी पूजा से ही प्राणायाम की सिद्धि मिलती है (१२-२६)। प्राणायाम का अभ्यास सिद्धासन, कुम्भक के साथ और मन्द दृष्टि के रूप में आँखें बन्द
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[ २१ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क करने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। प्राणायाम में मानसी पूजा का माहात्म्य (३०-३६)। प्राणायाम के बिना सब निष्फल है । विलोम गायत्री मन्त्र का वर्णन (३७-४६)। इससे सम्पूर्ण पाप, रोग, दरिद्रता दूर होते हैं (४७)।
विलोम गायत्री मन्त्र के जाप का फल सम्पूर्ण मन, वाणी और कर्म से किये गये पापों का नाश होना बताया है (४८-४६)। प्राणायाम न करनेवाला अवकीर्णी होता है उसे प्रायश्चित्त लगता है (५०-५२)। विशेष जिन-जिन मन्त्रों का विधान आता हैं उनके साथ भी पूरक, कुम्भक और रेचक क्रम से प्राणायाम करने का विकल्प है। चार्वाक, शैव, गाणेश, सौर, वैष्णव
और शाक्त जो भी मन्त्र हैं उन-उन से प्राणायाम की विधि फल देनेवाली है। भिन्न-भिन्न विधियों में प्राणायाम की १०, १५, २०, २४, १३, १४ और १६ बार आवृत्ति करने की विधि हैं । वैश्वदेव में १० बार आदि में १० बार अन्त में प्राणायाम करने का विधान हैं। जहाँ सङ्कल्प है वहां २ बार और सभी काम्य आदि कर्मों में १०-१० बार आवृत्ति का विधान है। विलोमाक्षरों से गायत्री का प्राणायाम अनन्त कोटि गुणित फल देता है ( ५३-७६ )। .........
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[ २२ ] प्रधान विषय
अध्याय
पृष्ठाङ्क
२६७१
मार्जनम् शिर से पैर तक "आपोहिष्ठादि” मन्त्र से मार्जन का फल । अर्ध मन्त्र और पूर्ण मन्त्र मार्जन दो प्रकार का है (१-५)। ऋग्यजुः साम वेद की शाखावालों का मार्जन क्रम। आपोहिष्ठादि के मन्त्र में प्रणव का उच्चारण करते हुए शिर पर मार्जन करे और “यस्यक्षयाय जिन्वथ से नीचे की ओर जल प्रक्षेप करे (६-१८)। शिर से भूमि तथा पादान्त मार्जन से अश्वमेध यज्ञ का
फल मिलता है। मार्जन की फलश्रुति(१६-२७)। ५ सार्घ्यदानगायत्रीमाहात्म्यवर्णनम् २६७४
सन्ध्यावन्दन के समय प्रातः और सायं तीन-तीन अयं सूर्य को दे, मध्याह्न काल की सन्ध्या में केवल एक ही। तीन अर्घ्य में एक दैत्यों के शस्त्रास्त्र नाश के लिये, दूसरा वाहन नाश के लिये और तीसरा असुरों के नाश के लिये और अन्तिम प्रायश्चित्ताय देकर पृथ्वी की प्रदक्षिणा से सब पापों से छुटकारा हो जाता है। गायत्री के पञ्चाङ्ग का वर्णन (१-२४)। ५ प्रायश्चित्तायविधिवर्णनम्
२६७७ नानामन्त्रविनियोगध्यानवर्णनम् २६७६
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[ २३ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क प्रायश्चित्तार्य की विधि का वर्णन-नाना मन्त्रों के विनियोग एवं ध्यान का वर्णन ( २५-४४ । ६ द्विविधजपलक्षणम्
२६८१ नैमित्तिक एवं काम्य दो प्रकार के जपों के लक्षण यह सन्ध्याङ्ग के रूप में नदीतीर, सरित्कोष्ठ और पर्वत की चोटी पर एकान्त वास में ही अधिक फल देनेवाला है (१-२)।
मूलमन्त्र से भूशुद्धि, फिर भूतशुद्धि, फिर रक्षाके लिये दिग्बन्धन करना और गायत्री के न्यास का वर्णन
(३४-३०)। ६ कराङ्गन्यासवर्णनम्
२६८५ दश बार मन्त्र का जप कर हृदय को हाथ से स्पर्श कर प्राणसूक्त जपे फिर प्राणायाम करे (३१-३२ )। अनुलोम एवं विलोम क्रम से करन्यास एवं हृदयादिन्यास एवं दिशाओं का बन्धन करे । ६ मुद्राविधिवर्णनम्
२६८७ आवाहन आदि के भेद से १० प्रकार की मुद्राओं का वर्णन, गायत्री जप के आरम्भ की २४ मुद्रा (३३-७१)। ७ उपस्थानविधिवर्णनम्
२६६० सन्ध्याकाल में सूर्योपस्थान का महत्त्व (१-२०)।
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[ २४ 1 अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ८ देवयज्ञादिविधानवर्णनम्
२६६२ वैश्वदेवकालनिर्णयवर्णनम् . २६६५ पञ्चसूनापनुत्त्यर्थ वैश्वदेववर्णनम् २६६७ वैश्वदेवमाहात्म्यवर्णनम
२६६६ वैश्वदेव में कोद्रव ( कोदो ), मसूर, उड़द, लवण और कड़वे द्रव्यों को काम में न लेवे (१-२)। नाना प्रकार की बलि करने से नाना प्रकार के काभ्य कर्मों की सिद्धियां होती हैं। द्विजों के लिये पांच ही क्रम से बलि का विधान है। पहले उपवीत, दूसरे निवीत, तीसरे पितृमेध के लिये बलि की जाती है (३-१२)।
वैश्वदेव में ताजा अन्न ही काम में लिया जाय (१३-१६)। वैश्वदेव मन्त्र के साथ हो या बिना मन्त्र के इसे किसी भी रूप में करना चाहिये ; क्योंकि इसको करनेवाला अन्नदोष से लिपायमान नहीं होता (१७.२४)। पञ्चशूनाजनित पापों को जैसे, चूल्हा, चक्की, जल भरने का स्थान, झाडू आदि के दोषों को दूर करने के लिये इसकी बड़ी आवश्यकता है (२५-३६.)।
वैश्वदेव को करने से सकल दोषों का निवारण होता है। नित्य होम का वजन सूतक एवं मृतक में बताया
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गया है। वश्वदेव के काल का वणन । वैश्वदेव माहात्म्य वर्णन (४०-८३)।
॥ विश्वामित्रस्मृति की विषय-सूची समाप्त ।।
प्रध
लोहितस्मृति के प्रधान विषय अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क विवाहाग्नौ स्मार्तकर्मविधानवर्णनम् २७०१
विवाहाग्नि में स्मात कर्मों का वर्णन । जिस स्त्री के साथ सर्वप्रथम गार्हस्थ्य सम्बन्ध जुड़ता है वह धर्मपत्नी है । उसके विवाह के समय की अग्नि का ही सभी कार्यों में उपयोग इष्ट है (१-११)। अन्य भार्याओं की अग्नि गौण है उनमें वेदोक्त एवं तन्त्रोक्त प्रयोग नहीं होना चाहिये। यदि उन्हें काम में भी लें तो अमन्त्रक ही प्रयोग होना चाहिये (१२-१६ )।
सभी स्मार्त कर्म, स्थालीपाक, श्राद्ध, या जो भी नैमित्तिक हो वह सारा प्रथम धर्मपत्नी की अग्नि में ही हो । (२०-२६)। अनेकाग्निसंसर्गः
२७०४ पूसणे अमियों का एकत्र संसर्ग का विधिपूर्वक
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[ २६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क विधान (३०)। यदि मोह से दूसरी पत्नियों की अग्नि में यागादि का विधान किया जाय तो वह निष्फल होता है (३१-३६)। इसके लिये फिर से मुख्य अग्नि की स्थापना कर फिर विधान करना लिखा है (३७)। यदि धर्मपत्नी कहीं बाहर चली जाय तो वह अग्नि लौकिक हो जाती है। अतः प्रातः सायंकाल के नित्य हवन में धर्मपत्नी का उपस्थित रहना आवश्यक है ( ३८४२)। सीमान्तर जाने पर उस अग्नि का फिर सन्धान (स्थापना ) करना चाहिये। ज्येष्ठादिपत्नीनांतत्सुतानांजैष्ठ्यकानिष्ठयविचारः २७०५ __ सभी कार्यों में धर्मपत्नी की ज्येष्ठता मानी गई है भले ही दूसरी पनियां अवस्था में कितनी ही बड़ी क्यों न हों (४३-४५)। इसी प्रकार धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही कर्मादि करने में ज्येष्ठता प्राप्त करेंगे क्योंकि दूसरी, तीसरी आदि से उत्पन्न पुत्र तो कामज है (४६-५२)। अपुत्राया दत्तकविधानवर्णनम् २७०७ दत्तपुत्र की जातपुत्र के समान स्नेहभाजनता एवं सम्पत्ति का अधिकार (५३-५४)। जिनके पुत्र न हों उन्हें अपने पुत्र के लिये प्रस्ताव करनेवाले की प्रशंसा (५५-५६)। जिसका पुत्र दत्तक लिया जाय उसे समाज
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[ २७ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क के प्रमुख व्यक्तियों के सामने इष्ट, भाई-बन्धुओं को बुलाकर बिना पुत्र के माता को विधि-विधान से देना चाहिये। जो पुत्र समाज के गोत्र कुल में से दत्तकरूप में लिया जाय वास्तव में वह अपने पुत्र तुल्य है और अपुत्रक माता-पिता के लिये सर्वथा दैवपत्र्य कार्य के लिये ग्राह्य है। उस पुत्र का औरस पुत्रों के समान ही सारा अधिकार होता है (६०-७१)।
यदि दत्तक पुत्र लेने के बाद उन माता-पिता के सन्तान हो जाय तो वह चतुर्थ भाग का स्वामी होने का अधिकार रखता है (७२-७४)। जब आदि धर्मपत्नी के न रहने व पुत्र न होने पर दूसरी पत्नी से जो पुत्र होगा वही ज्येष्ठत्व का अधिकारी होगा और अवशिष्ट स्त्रियों की सन्तान कामज रहेगी (७५-८५)।
आत्मज सन्तान की ही औरसता कही गई है (८६८७)। यदि कोई धर्मपत्नी के सन्तान न हुई उसने पति की इच्छा से दत्तक पुत्र लिया और संयोगवश फिर सन्तान हो गई तो दत्तक पुत्र को ज्येष्ठ पुत्र के रूप में बराबर भाग मिलेगा । यदि दत्तकपुत्र और औरस पुत्र उपस्थित हो तो औरस पुत्र को ही पिता-माता के और्ध्वदेहिक कर्म करने का अधिकार है ( ८६-६८)।
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अध्याय
पृष्ठाङ्क
[ २८ ]
प्रधान विषय धर्मपत्न्याः गृह्याग्निकृत्ये प्राबल्यम् २७१०
ज्येष्ठ पत्नी का ही सम्पूर्ण गृह्य अग्नि एवं पाक यज्ञादि में अधिकार एवं नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य सभी कर्मों में उसी की प्रधानता है (६६-१०४)। मुख्य गृह्यामि के कार्य धर्मपत्नी के अधीन हैं। अतः वह कार्यविशेष उपस्थित हुए बिना कोई भी रूप में सीमोल्लङ्घन न करे अन्यथा गृह्य अग्नि लौकिक अग्नि हो जायगी और अग्नि की स्थापना फिर से करनी होगी ( १०५-१०६ )। किसी छोटी नदी को भी यदि मोह से पार कर लिया तो फिर नई प्रतिष्ठा अग्नि सन्धान के लिये करनी होगी (११०-११४)।
यदि ज्येष्ठ पत्नी कारण विशेष से उपस्थित न हो सके बाहर गई हुई हो तो द्वितीयादि अग्नि से श्राद्धादि विधि सम्पादित हो सकती है, परन्तु उसमें कोई भी विधि समन्त्रक नहीं हो सकती सभी अमन्त्रक करनी चाहिये (११५-१२६)। पूर्व पत्नी के न रहने से गृह्याग्नि की स्थापना के लिये जब दूसरा विवाह किया जाय तो पहले के घड़े से नूतन विवाहित स्त्री के घट में अग्नि की स्थापना की जाय (१३०-१३५)। अग्नि उसी समय भ्रष्ट हो जाती है, जब पत्नी चरित्र से दूषित हो (१३६-१४०)।
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[ २६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क यदि द्वितीयानि से वेद प्रतिपादित कर्म किये जॉय तो ये फलदायक नहीं होते ( १४१-१५२)। अतः पूर्व पत्नी की गृह्याग्नि को दूसरे विवाह के बर्तन में स्थापित कर धमपत्नीवत् सारे काम किये जांय (१५३-१५५)। यदि किसी दुश्चरित्र माता के दूषित होने से पूर्व पति से सन्तान हुई हो तो वह सारे वैदिक कार्यों के करने का अधिकार रखती है, परन्तु दुश्चरित्र होने के बादवाली सन्तान किसी भी रूप में ग्राह्य नहीं ( १५६-१५७ )। कलियुग में पांच कर्मों का निषेध
अश्वालम्भ, गवालम्भ, एक के रहते हुए दूसरी भार्या का पाणिग्रहण, देवर से पुत्रोत्पत्ति एवं विधवा का गर्भ धारण ( १५८-१६६ )। द्वादशविधपुत्राः
२७१७ क्षेत्रज, गृढ़ज, व्यभिचारज, बन्धु, अबन्धु और कानीनज आदि १२ प्रकार के पुत्रों के भेद (१७०-१८६)। दत्तक पुत्र लेने और देने में माता-पिता ही एक मात्र अधिकार रखते हैं दूसरे नहीं १८७-२०८)। पुत्रसंग्रहावश्यकता
२७२१ पुत्र संग्रहण की आवश्यकता ( २२०)।
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अध्याय
पृष्ठाङ्क
[ ३० ]. __ प्रधान विषय - दौहित्रे सति पुत्रप्रतिग्रहाभावः
२७२२ दौहित्र होने पर पुत्रप्रतिग्रह नहीं करना, वयोंकि दौहित्र होने से अजात पुत्र भी पुत्र ही है ( २२१-२२४ )। किसी के सम्मिलित परिवार में अविभक्त धन के भागीदार की मृत्यु हुई यदि उसके पुत्री है और पुत्र नहीं है तो दौहित्र ही पुत्र के समान सभी कार्यों को करने व कराने का अधिकारी है (२२५-२२८)। जो कुछ धन अपुत्रक का है उसका सारा दायित्व उस मृतक की लड़की के पुत्र का है (२२६-२३०)। परधनापहारकाणां दण्डविधानवर्णनम् २७२३
जो व्यक्ति किसी भी प्रकार से दूसरे के द्रव्य को अपहरण करने की अनधिकार चेष्टा करे उसे राजा स्वयं कड़ा दण्ड दे और उसे अपने देश से बाहर निकालने का आदेश दे ( २३१-२३५)।
जो व्यक्ति धर्मसङ्गत राज्य की प्रतिष्ठा में पूर्ण सहयोग दें उन्हें रक्षापूर्वक रखना चाहिये ( २३६-२४१) पुत्रत्वस्याधिकारितावर्णनम् २७२५
दौहित्र को पुत्रग्रहण की योग्यता ( २४२)। अपने इष्ट परिवार माता-पिता, श्रेष्ठ पुरुष आदि की आज्ञा
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[ ३१ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क से अपुत्रा विधवा स्त्री दत्तक ले ( २४३-२४४)। जो निकट सम्बन्धी दो या दो से अधिक सन्तानवाला हो उसका कोई-सा भी पुत्र अपने लिये दत्तक लिया जा सकता है (२४६)। यदि कोई-सा भी लूला, लङ्गड़ा, गूंगा, बहरा, अन्धा, काना, नपुंसक या कुष्ठ का दागी हो तो उसे लेना न लेना बराबर है (२४७)। यदि ऐसे विकलाङ्ग दत्तक लिये गये तो मन्त्र क्रिया आदि का . लोप हो जाता है (२४८-२५२)। यदि समाज के सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति एवं परिवार के भाई-बन्धु जिसके लिये आज्ञा दें तो वह दत्तक सफल होता है (२५३-२५७)।
अपुत्रक का दत्तक लेना दौहित्र न उत्पन्न हो तब तक प्रामाणिक है बाद में यदि दौहित्र पैदा हो जाय तो वह अप्रामाणिक है।
मनु ने दौहित्रों में बड़े छोटे में किसी एक को लेने का विधान बताया है ( २५८-२६३)। हां, ३ या ५, ६ पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ और सबसे कनिष्ठ को छोड़ किसी एक को लिया जा सकता है ( २६४-२६६ )। यदि मोह से ज्येष्ठ को दत्तक ले लिया गया तो मौञ्जी विवाह विधि के बाद वह अपने सगे पिता का ही पुत्र होने का अधिकारी है दूसरे का नहीं (२६७)। ऐसा दत्तक
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[ ३२ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक पुत्र लेनेवाले के किसी काम का नहीं ( २७०)। कई स्त्रियों के एक पति से पुत्र हो तो ज्येष्ठ और कनिष्ठ को छोड़ अन्य लिये जा सकते हैं ( २७३ )। एकपुत्रस्य स्वीकरणनिषेधः
२७२७ एक पुत्र यदि बिना स्त्रीवाले के हो और विधवा स्त्री उसे दत्तक ले उसका निषेध ( २७४-२८५)। विधवास्वीकृतपुत्रदण्डम्
। २७२८ जो कोई सुता और दौहित्र को तिरस्कार कर अन्य को दत्तक ले उसपर राजाविशेष विधान से दण्ड लागू करे ( ( २६०-२६६)। दौहित्रप्रशंसा
..
२७२६ दौहित्र की प्रशंसा ( २६७-३२३)। .... दौहित्रत्रैविध्यम्एक तन्मातामह गोत्री, दूसरा दौहित्र और तीसरा निर्दोष
विवाह में कन्याप्रदान के समय मातामह एवं पिता की प्रतिज्ञा के अनुसार होनेवाले सम्बन्ध से उत्पन्न सन्तान क्रमशः तन्मातामह गोत्री और दौहित्र हैं तीसरा निर्दोष तातगोत्री है।
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[ ३३ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक दौहित्र की श्राद्धादि कर्म में श्रोत्रिय ब्राह्मण से ज्येष्ठता ( ३३६-३४८)। प्रत्याब्दिकाकरणे प्रत्यवायः
२७३४ प्रतिवर्ष के श्राद्ध को न करने से प्रत्यवाय होता है, अतः जल, तण्डुल, उड़द, मूंग, दो शाक, पत्र, दक्षिणा, पात्र और ब्राह्मण ये दश श्राद्ध में उपयोग करने की वस्तुएं हैं, एक का लोप भी वाञ्छनीय नहीं। यदि आपत्काल हो तो उसके लिये अनुकल्प का विधान है (३४६-३६३)। श्राद्धद्रव्याभावेऽनुकल्पः .. २७३५
घृत के दुर्लभ होने से तैल उसका प्रतिनिधि आज्य उसके अभाव में दूध और उसके न मिलने पर दही यदि .. ये भी न मिलें तो पिष्ट के जल से मिला कर होमकर्मादिक करे। या फिर प्राप्त मधु से सब काम सिद्ध करे, किसी भी रूप में फल, पत्र और सुद्रव्य आदि से श्राद्ध . का कार्य किया जाय। . इनके अभाव में आपोशानादिक क्रियायें जल से और अन्न से सम्पादन कर पिण्ड प्रदान करे और जल में विसर्जित करे अविशिष्ट को काम में लें फिर दूसरे दिन तर्पण करे।
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[ ३४ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क आपत्कल्प के इस विधान को शान्ति के समय काम में न ले। शुद्ध अन्न का प्रयोग जो अपनी अच्छी कमाई से लाया गया ही विहित है; सहव्य के द्वारा ही श्राद्ध करने का विधान उसका पाक भी श्राद्धकर्ता की स्त्री द्वारा शुद्धता से किया हुआ होना चाहिये। भावशुद्ध, विधिशुद्ध और द्रव्यशुद्ध पाक ही श्राद्ध में ग्राह्य है . (३६४-४०६)। श्राद्ध पाककर्तारः
२७३६ धर्मपत्नी, कुलपत्नी जो वंश में विवाहित हो, पुत्रवती हो, मातायें सम्बन्धियों की स्त्रियां, भूआ, बहिन, भार्या, सासु, मामी, भाई की त्रियां, गुरुपत्नियां और इनके न मिलने पर स्वयं श्राद्ध में पाक करनेवाले को प्रशस्त कहा है (४०७-४२०)। रण्डापाक और बन्ध्यापाक गर्हित बतलाया है (४२१)। हां कुल की कोई ऐसी त्रियां करनेवाली न हो तो उपर्युक्त सभी माताओं से पाकक्रिया सम्पन्न हो सकती है (४२२-४२६ )। मृतकार्ये कर्तुरनुकल्पनिषेधः
२७४१ स्वयं के लिये ही मृतकार्य के और्ध्वदेहिक कार्य का विधान वर्णित है (४२७-४३०)।
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अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक कर्त्तावृतस्याधिकारः
२७४२ अतद्वत (अनधिकार ) कर्म अकृत कर्म के समान है (४३१-४४४)। विधवानां निन्दा
२७४३ विधवाओं को स्वतन्त्र रहने से निन्दित कहा है अतः पतिगृह या पितृगृह में ही रहना आवश्यक है (४४५-४७२)। रण्डाया अस्वातन्त्र्यम्
२७४६ रण्डा की सम्पत्ति का अधिकार, वह उसके बेचने आदि की अधिकारिणी नहीं (४७३-४८२)। कई रण्डाओं के भेद (४८३-४६३)। विवाहात्परतः स्त्रीणामस्वातन्त्र्यवर्णनम् २७४६
विवाह के बाद स्त्रियों की अखतन्त्रता का वर्णन (४६६-५०५)। शास्त्रदृष्टि से धर्मपालन का महत्त्व (५०६-५२६ )। पुत्र के अभाव में दत्तक का विधान वर्णन (५२७-५७६)। समीचीन रण्डा का वर्णन (५७७-६०८)। उत्तमदण्डव्यवस्थावर्णनम्
२७५९ उत्तमदण्डव्यवस्था का वर्णन (६०६-६४०)।
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अध्याय
[ ३६ ] प्रधान विषय
पृष्ठा सुवासिनीनां शिरःस्नाननिषेधः
२७६१ हरिद्रास्नानविधिः
सुवासिनी स्त्रियों को ग्रहण, रजोदर्शन, मङ्गल कार्य, चण्डालस्पर्श एवं यज्ञ के आदि व अन्त इत्यादि कार्यों में शीर्षस्नान कहा है तथा हरिद्रा के चूर्ण को जल में प्रक्षेप कर स्नानविधि कही है ( ६४१-६४७)। पतिव्रताधर्माः
२७६२ पति की सेवा बड़े से बड़ा धर्म ( ६५३-६७०)। दुराचाररतां रण्डां दृष्ट्वा प्रायश्चित्तवर्णनम् २७६५
दुष्ट चरित्र युक्त रण्डाओं के देखने से प्रायश्चित्त का विधान कहा है ( ६७१-६८६)। नानादण्ड्यकर्मसु दण्डविधानवर्णनम् २७६७ नानादण्ड्य कमों में दण्डविधान का वर्णन (६८७-७०६)। नयप्राप्तराज्ये सर्वेषां सुखित्ववर्णनम् २७६८
नयप्राप्त राज्य में सभी के सुखी रहने का वर्णन (७१०-७२१)।
"॥ लोहितस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥
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नारायणस्मृति के प्रधान विषय अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क नारायणदुर्वाससोः सम्वादः
२७७० नारायण दुर्वासा का सम्वाद (१-६)। महापातकोपपातकवर्णनम्
२७७१ महापातक और उपपातकों का वर्णन (७-१५)। प्रतिग्रहपापप्रायश्चित्तवर्णनम्
२७७३ प्रतिग्रहजनित पाप के प्रायश्चित्त का वर्णन (१६-४१)। २ बुद्धिकृताभ्यासकृतपापानां प्रायश्चित्तवर्णनम् २७७४
बुद्धिकृत और अभ्यासकृत पापों के प्रायश्चित्त का वर्णन (१-७)। ३ नानाविधदुष्कृतिनिस्तारोपायवर्णनम् २७७५
नाना प्रकार के पापों के निस्तार का उपाय (१-१९)। प्रायश्चित्तवर्णनम्
२७७७ प्रायश्चित्तों का वर्णन ( १-११)। ५ दुष्प्रतिग्रहादिप्रायश्चित्तवर्णनम्
- २७७६ पाप समाचार की गति का वर्णन (१-२६)। पापादि को दूर करने के लिये सहस्र कलशस्थापन का विधान (३०-५५)।
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अध्याय
[ ३८ ] प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ६ सहस्रकलशाभिषेकः .
२७८४ ___ सहन कलशों से अभिषेक का वर्णन (१-७)। ७ कलौ नौयात्राद्यष्टकर्मणां निषेधः २७८५
कलियुग में विधवा का पुनः उद्वाह, नाव से यात्रा, मधुपर्क में पशु का वध, शूद्रान्नभोजिता, सब वर्गों में भिक्षा मांगना, ब्राह्मणों के घरों में शूद्र की पाचनक्रिया, भृग्वमिपतन वर्जित है (१-५)। वेन के पास ऋषियों
का अनुरोधपूर्ण आवेदन ( ६-३३)। ८ अष्टनिषिद्धकर्मणां प्रायश्चित्तवर्णनम्
२७८६ धनाढ्य व्यक्तियों को आठ निषिद्ध कर्मों के करने से सहस्त्र कलशस्नान, पञ्चवारुण होम, गायत्री पुरश्चरण, महादान और सहस्र ब्राह्मण भोजन इत्यादि प्राय
श्चित बतलाये हैं (१-१४)। १ धनहीनाय प्रायश्चित्तवर्णनम्
२७६१ धनहीन के लिये प्रायश्चित्त का विधान-वह शिखा सहित मुण्डित हो पुण्यतीर्थ में, या तालाव में, आकण्ठ जल में मग्न हो अघमर्षण जाप करे (१-१३)। ॥ श्री नारायणस्मृति की संक्षिप्त विषय-सूची समाप्त ॥
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शाण्डिल्यस्मृति के प्रधान विषय अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क १ आचारवर्णनम्
२७६३ आचार के विषय में मुनियों का शाण्डिल्य से प्रश्नोत्तर (१-१२)। द्विविधादेहशुद्धिवर्णनम्
२७६५ दो प्रकार की देह शुद्धि का शर्णन । दूसरे की निन्दा पारुष्य, विवाद, झूठ, निजपूजा का वर्णन, अतिबन्ध प्रलय, असह्य एवं मम वचन, आक्षेप वचन, असत् शास्त्र एवं दुष्टों के साथ संभाषण इत्यादि दुर्गुणों को त्याग कर स्वाध्याय, जप में रत, मोक्ष एवं धर्म के कार्य में निरन्तर लगना प्रिय बोलना, सत्य एवं परहितकारी वचनों का उच्चारण करना ऐसी बहुत-सी शुद्धियों का वर्णन । शिर, कण्ठ आँख और नासिका के मल को दूर करना यही सर्वाङ्गीणा शुद्धि बतलाई है (१८-३६)। ज्ञानकर्मभ्यां हरिरेवोपास्य इतिवर्णनम् २७६७ धर्म की हानि नहीं करनी चाहिये, संग्रह ही करे। धर्म एवं अधर्म सुख व दुःख के कारण हैं। यही सनातन धर्म शास्त्र है अन्य सब भ्रामक हैं तथा तामस व राजस हैं, यही सात्त्विक है । वेद, पुराण एवं उपनिषदों
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पृष्ठाङ्क
[ ४० ] अध्याय
प्रधान विषय में "इदं हेयमिदं हेयमुपादेयमिदं परम्” यही बतलाया है। साक्षात्परब्रह्म देवकी पुत्र श्री कृष्ण की आराधना सर्वोत्तम है। देव, मनुष्य और पशु आदि का विस्तार उन्ही से है।
साक्षाद्ब्रह्म परं धाम सर्वकारणमव्ययम् । देवकीपुत्र एवान्ये सर्वे तत्कार्यकारिणः ।। देवा मनुष्याः पशवो मृगपक्षिसरीसृपाः।
सर्वमेतज्जगद्धातुर्वासुदेवस्य विस्तृतिः॥ ज्ञान एवं कर्म से भगवान् की ही आराधना सर्वोत्तम है । वही ज्ञान है, वही सत्कर्म है एवं वही सच्छास्त्र है। जो भगवान् के चरणारविन्दों की सेवा नहीं करते हैं वे शोचनीय हैं (४०-५६)। सात्विकराजसतामसगुणानां वर्णनम् २७६६
प्रकृति त्रिगुणात्मिका है एवं जगत् की कारणभूता है । सम्पूर्ण संसार देव, असुर और मनुष्य इसी के विकार हैं। इस प्रकार सात्त्विक राजस और तामस गुणों का संक्षेप से वर्णन ( ६०-७०)।
देश शुद्धि का वर्णन-जहाँ म्लेच्छ पाषण्डी न होधार्मिक तथा भगवद्भक्तिपरायण मनुष्य रहते हों और हिंसक जन्तुओं से शून्य हो वह स्थान शुद्ध है (७१-८२१) .
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अध्याय
[ ४१ ] प्रधान विषय
पृष्ठा भगवत्पूजनविधिवर्णनम्
२८०१ सात प्रकार की शुद्धि कर भगवत्पूजापरायण होना चाहिये। प्रथम शरीर को तपस्यादि से शुद्ध करे अशक्त हो तो दान करे और दोनों में ही असमर्थ हो तो नामसंकीर्तन करना चाहिये (८३-६५)। उपवास, दान, भगवद्भक्तों के सेवन, संकीर्तन, जप, तप और श्रद्धा द्वारा शुद्धि होती है (६६-१०१ ) । पराविद्याप्राप्त्यर्थमधिकारिगुरुशिष्यवर्णनम् २८०३
विद्या की प्राप्ति के लिये आचार्य का वरण और अधिकारी शिष्य का वर्णन ( १०२-११२)।
मन, वाणी और कर्म से भी शिष्य अपने गुरु का अहित न विचारे कभी उनके सामने प्रमाद न करे किसी भी प्रकार की उद्विग्नता उत्पन्न करनेवाले भाव, विचार, इच्छा व कर्मों को न करे। शिष्य मूढ़ पापरत, क्रूर, वेदशास्त्रों के विरोधी लोगों की सङ्गति न करे
इससे भक्ति में विन्न होता है ( ११३-१२२)। २ प्रातःकृत्यवर्णनम्
२८०५ ऋषियों का प्रातः कृत्य के विषय में प्रश्न और महर्षि शाण्डिल्य द्वारा स्नान सन्ध्या आदि को लेकर विस्तार से प्रातः काल के कर्तव्यों का वर्णन । शय्या को छोड़ने
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अध्याय
[ ४२ ] प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क के बाद सर्व प्रथम भगवान् गोविन्द के दिव्य नामों का सङ्कीर्तन करते हुए वस्त्र और दण्डादि कमण्डलु लेकर अपने मस्तक पर कपड़ा बांध कर मल-मूत्र त्याग करने के लिये गांव के बाहर जावे। पेशाब, मैथुन, स्नान, भोजन, दन्तधावन, यज्ञ और सामूहिक हवन में मौन धारण करने की विधि है। यज्ञोपवीत को दाहिने कान पर टांग कर मल-मूत्र का त्याग करना चाहिये (१-६)। मलमूल करने में जो स्थान वर्जित हैं उनका परिगणन (१०-१२)।
मल-मूत्र त्याग के समय, देवता, शत्रु, शिष्य, अग्नि, गुरु, वृद्ध पुरुष और स्त्री को न देखे। अधिक समय तक मल-मूत्र न करे केवल आकाश, दिशा, तारा, गृह और अमेध्य वस्तुओं को देखे (१३-१४)। मिट्टी से गुदा और लिङ्ग को जल से धोवे। फिर हाथ धोकर दन्तधावन करे। स्नान के लिये तीर्थ, समुद्रादि, तालाब, कूप और झरने का जल विशेष प्रयोजनीय है ( १५-२०)। जल को अङ्गों से अधिक न पीटे न जल में कुल्ला किया जाय और देह का मल भी जल में न छोड़ा जाय. फिर बाहर आकर सन्ध्या कर्म के लिये स्थान को धोवे और कपड़े बदले (२१-२८)। स्नान प्रकरण के साथ नित्य कृत्यों का वर्णन (२८-६१)।
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[ ४३ ] . अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क ३ उपादानविधिवर्णनम्
२८१३ द्वितीयकाल में करने योग्य भगवत्पूजन आदि का वर्णन। भक्ति का लाभ जो श्रद्धालु एवं अपवर्ग के सुख को जाननेवाले हैं उन्हें ही मिलता है ( १-४६ )।
बाह्य और आभ्यन्तर शुद्धियों का वर्णन। भोजन को अनिदेव के समर्पण करने का वर्णन (५०-६०)। पाक में निषद्ध वृक्षों का इन्धन जलाने के लिये परिगणन (११-१०८)। निषिद्ध और ग्रहण योग्य वस्तुओं का वर्णन ( १०६-१२०)।
ग्राह्य और निषिद्ध पय का वर्णन (१२१-१३५)। भोजन बनाने में कुशल सती स्त्री एवं निषिद्ध त्रियों के लक्षण (१३६-१५०)। __ स्त्री के साथ सद्व्यवहार का वर्णन ( १५१-१५८ )। इस प्रकार भगवत्प्रीत्यर्थ उपादानों का उपयोग कर
गृहस्थ सुखी होता है (१५८-१६३)। ४ इज्याचारवर्णनम्
૨૮રહ एक देव की पूजा ही इष्ट है, भगवद्भक्ति विषयक नियमों का विस्तार से वर्णन । भागवतों की सदा पूजा . करनी चाहिये । विष्णुभक्त गृहस्थों के कर्मों का वर्णन भगवत्पूजा प्रकार, सच्छात्रों के श्रवण पठन का महत्त्व
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[ ४४ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क वर्णन, योगविधि का वर्णन, उपवास की प्रशंसा
(१-२४२)। ५ रात्रावन्त्ययामे योगकृत्यवर्णनम् २८५१
भगवत्पूजा करने का विधान । योगधर्म का वर्णन । भगवद्भक्त के शीलाचार का निरूपण सभी कर्मों को भगवदर्पण बुद्धि से करनेवाले मनुष्य का जन्म सफल होता है । शास्त्र की प्रशंसा (१-८१ )। .. ॥ शाण्डिल्यस्मृति की विषय-सूची समाप्त ।।
कण्वस्मृति के प्रधान विषय धर्मसारवर्णनम्
२८६० धर्मकर्त्तव्यवर्णनम्
२८६१ नित्यनैमित्तिककर्मणां फलनिर्णयः २८६३ नित्यकृत्यवर्णनम्
२८६५ प्रातःस्मरणे कीर्त्यानां वर्णनम् २८६७ पाने भक्षणेच शब्देकृते प्रायश्चित्तवर्णनम् २८६६
युगभेद से ब्रह्मवेत्ता आदि ऋषियों ने कण्व ऋषि से सनातन धर्मों के विषय में पूछा (१-५)।
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[ ४५ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक कण्व द्वारा धर्मसार का निरूपण
धर्मकर्त्तव्यवर्णन-जिस व्यक्ति की बुद्धि ऐसी है कि क्रिया, कर्ता, कारयिता, कारण और उसका फल सब कुछ हरि है वही स्थिर बुद्धि का है, उसका जीवन सफल है (६-१०)। परमेश्वरप्रीत्यर्थ किया हुआ कर्म ही सफल है। सत्सङ्कल्प एवं उसका फल (११-६१)। नित्यनैमित्तिक कर्मों का फल निर्णय (४-५०)। नित्यकृत्य का वर्णन (५१-७४ )। प्रातःकाल में स्मरण करने योग्य कीर्त्य महानुभावों का वर्णन (७५-८०)।
प्रातः शौचनानादि क्रियाओं का वर्णन ( ८१-६४ )। गण्डूष के समय शब्द का निषेध और उसका प्रायश्चित्त का वर्णन (६५-६७)। भक्षण एवं खाने के समय भी शब्द करने का निषेध (६८-१०४)। मूत्र पुरीषोत्सर्ग में गण्डूष के बाद आचमन का विधान (१०५-११६)। गृहस्थों का मृत्तिका शौच का विधान (११७-१२६ )। शुभकर्मों में सर्वत्र आचमन का विधान ( १२७-१४०)। नित्यकर्मों में उलट-फेर करने से फल नहीं होता है (१४१-१५०)।
स्नान के समय आवश्यक कृत्य जैसे सन्ध्या, अर्घ्य, गायत्री मन्त्र का जप देवर्षिपितृतर्पण, स्नानाङ्गतर्पण अवश्य करने चाहिये (१५१-१५८)। कण्ठस्नान,
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[ ४६ ]
प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क
कटिस्नान, पादस्नान, कापिल स्नान, प्रोक्षणस्नान स्नातस्नान एवं शुद्ध वस्त्र धारण करने का विधान, जैसा शरीर माने वैसा करे ( १५६ - १६० ) ।
अध्याय
वायव्य स्नान का अन्य स्नानों से श्रेष्ठत्व वर्णन ( १६१ - १६७ ) । सन्ध्याओं का विधान (१६८-१७०) । साथ ही गायत्री जप का माहात्म्य ( १७१-१६८ ) । सन्ध्या ही सब का मूल है ( १६६ - २०६ ) । गायत्री मन्त्र का वैशिष्ट्य वर्णन ( २०७-२२३ ) । वेद पठन का अधिकार गायत्री से ही शक्य है ( २२३-२२८ ) ।
सम्यक्प्रकार गायत्री जप का फल वर्णन ( २२६२४१ ) । सन्ध्या, गायत्री और वेदाध्ययन का फल कब नहीं मिलता (२४२-२५६ ) । कलि में गायत्री मन्त्र का प्राधान्य (२६०-२६६ ) । मूक ब्राह्मण का वेदादि व वैदिक कर्मों के करने में योग्यता का वर्णन ( २७०२८० ) । वैदिक कृत्य की सब में प्रधानता (२८१-३००) । ब्रह्मार्पण बुद्धि से ही सब कर्मों का अनुष्ठान इष्ट है ( ३०१-३२५ ) ।
एक कार्य के अनुष्ठान में कार्यान्तर (दूसरा काम ) वर्जित है ( ३२६-३२७ ) । उपासना का महत्त्व ( ३२८-३३४ ) । गार्हपत्य अभि की स्थापना और उसके उपयोग का
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[ ४७ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क वर्णन (३४०-३४६ )। नित्य होम एवं अग्नि के उपस्थान का विधान ( ३५०-३५०)।
पञ्चपाक न करने की अवस्था में विकल्प का विधान (३६१-३७१)। पञ्चमहायज्ञों का निरूपण (३७२३८३)। ब्रह्मवेदाध्ययन में अधिकारी होने का वर्णन (३८४-३६४)। ब्रह्मज्ञान की एक साधना का उपासनाक्रम प्रयोग (३६५-४१४ )। अग्निहोत्र, दर्शादि एवं आग्रयण, सौत्रामणि और पितृयज्ञों का निरूपण (४१५-४२६)।
वेदों के अनभ्यास से मानव-चरित्र का सांस्कृतिक विकास सदा के लिये रुक जाने से राष्ट्र की अवनति होती है (४२७-४३३ )। चित्तशुद्धि के लिये वेदोक्त मार्ग ही श्रेयस्कर है (४३४-४३७)। चार पितृ कर्मों का वर्णन, उन्हें यथाशक्ति करने का आदेश (४३८४४३)। विविध ऋणों से छुटकारा पाने का प्रकार (४४४-४६८)।
वैदिक कर्मों की तुलना में अन्य कार्यों का गौणत्व वर्णन एवं दिव्य भाषा की योग्यता (४६६-४७७)। नित्यनैमित्तिक कर्मों में विष्णु का आराधन वर्णन (४७८ ४८१)। दौर्बाह्मण्य से मनुष्य सदा दूर रहे (४८३-४८८)। अमिष्टोम और अतिरात्रों का अनुष्ठान
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[ ४८ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क श्रेयस्कर है, सप्तसोम संस्था के पाकयज्ञों का विधान (४८६-४६४)। इन अनुष्ठानों को न करने से प्रत्यवायिक दोषों का निरूपण (४६५-४६७)।
ब्रह्मचारी के नित्यकृत्यों का वर्णन (४६८-५०२ । जातकर्म, चौल, प्राजापत्य, उपाकर्म आदि का विधान (५०३-५१३)। भिन्न-भिन्न अनुवाकों का वर्णन (५१४-५२६)। नाना काण्डों का वर्णन ( ५२६-५३७ )। ब्रह्मचारी वेदव्रतों का सम्पादन कर विधिपूर्वक स्नातकधर्म में दीक्षित हो (५३८-५४६) । गृहस्थ में प्रवेश के लिये लक्षणवती स्त्री से विवाह और उसके साथ वैदिक विधि से गृहप्रवेश व अग्निहोत्र का विधान (५४०-५४५)। गुप्ति होम का विधान ( ५४६-५४८)। औपासन कृत्यों का वर्णन (५४६-५४४)। गृहस्थ के लिये नित्य कर्तव्य विधि का वर्णन ( ५४५-५५३ )। फिर इष्ट कर्तव्य एवं अनिष्ट कर्तव्यों का परिगणन (५५४-५६२ )।
प्रातःकाल से सायंकाल तक के कर्तव्यों का निर्देश (५६३-५७३)। गृहस्थ भगवान् लक्ष्मीनारायण का ध्यान सदैव करे। गृहस्थ को आनेवाले सभी सम्मान्य गुरुजन अतिथि एवं विशिष्ट जनों की पूजा का विधान (५७४-५६०)। उपयुक्त पाकों का विधान और उनके करनेवाले स्त्री पुरुषों का वर्णन ( ५६१-६०१)। पंक्ति
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[ ४६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क वर्ण्य भोजन में दोष वर्णन (६०२-६०५)। गृहस्थ के लिये पठनीय एवं करणीय विधान (६०६-६१३)। कन्दमूल फल जो भक्ष्य हैं उनका विधान (६१४-६१६)।
यज्ञों का ब्रह्मज्ञान के समान फल वर्णन (६२०६३६ )। शेषहोम के विधान का वर्णन (६३७-६५६)। ब्राह्मणादि का पूजन (६५७-६७७)। पुत्रविवाह से पुत्री विवाह की विशेषता। सुपात्र में कन्यादान पुत्र से सौ गुणा अधिक बताया है (६७८-७००)। गोत्रपरिवर्तन के सम्बन्ध में नाना मत (७०१-७२२)। वंश के उद्धार के लिये दत्तक पुत्र का विधान (७२३-७४३)। दत्तक में दौहित्र की योग्यता (७४४-७५५) । श्राद्धकृत्य में निर्दिष्ट का अन्य कृत्य नियोजन में निषेध (७५६-७८६)। एक काल में बहुत से श्राद्ध आने पर कृत्यों का सम्पादन प्रकार (७८६-७८८)। ब्रह्मवेदी ब्राह्मण का माहात्म्य (७८६-७६२)। कण्वस्मृति का फल वर्णन ।
॥ कण्वस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥
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दाल्भ्यस्मृति के प्रधान विषय अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क दाल्भ्यम्प्रति ऋषीणां धर्मविषयकः प्रश्नः २६३३ षोडशश्राद्धवर्णनम्
२६३५ दाल्भ्य से ऋषियों का धर्माधर्म विवेक, मृतशुद्धि, मासशुद्धि, श्राद्धकालादि के सम्बन्ध में प्रश्न, इष्टापूर्त को लेकर दालभ्य द्वारा विशेष प्रशंसा, पितरों के तर्पण का विधान ( १-१६ । १६ श्राद्धों का वर्णन (२०-४१)। श्राद्ध में निषिद्ध कर्मों का परिगणन (४२-५४)। श्राद्ध में भोजन करनेवाले के लिये आठ वस्तुओं का त्याग (५५-५६)। श्राद्धकरण में पुत्र का अधिकार (६०-६७)। शखहतकानां श्राद्धदिनवर्णनम् २६४१
नाना सम्बन्धियों के भिन्न-भिन्न दिनों में श्राद्ध का विधान । शत्र हतक के श्राद्ध दिन का वर्णन (६८-७०)। मृतक का श्राद्ध दिन अविदित हो तो एकादशी को श्राद्ध किया जाय (७१-८०)।
आम श्राद्ध के करने का विधान (८१)। पहले माता का श्राद्ध फिर पितरों का फिर मातामहों का (८२-८५)। ब्रह्मघातक का लक्षण, इनके स्पर्श करने
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[28]
अध्याय
प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क
से स्नान और भोजन करने से कृच्छ्रसान्तपन का विधान । जो चाण्डाली में अकाम से गमन करे उसके लिये सान्तपन एवं दो प्राजापत्य का विधान । सकाम चाण्डाली गमन करनेवाले को चान्द्रायण और दो तप्तकृच्छ का प्रायश्चित्त करने का विधान ( ८६६६) । गोहत्यावाले के लिये प्रायश्चित्त का विधान ( १७-१०२ ) । रोध, बन्धन, अतिवाह और अतिदोह का प्रायश्चित्तविधान ( १०३ - १९०८ ) । वृषभ की हत्या का प्रायश्चित्त ( १०६ - ११० ) ।
गोदोहन का नियम — दो महिने बछड़े को पिलावे व दो मास दो स्तनों का दोहन करे तथा दो मास एक वक्त शेष सराय में अपनी इच्छा हो वैसे करे |
द्वौमासौ पाययेद्वत्सं द्वौ मासौ द्वौस्तनौ दुहेत् ! द्वौमासौ चैकवेलायां शेषं कालं यथेच्छया ।। १११।।
किन-किन स्थानों में प्रायश्चित्त नहीं लगता इसका वर्णन (११२-११३)। किन-किन को प्रायश्चित्त न करने का पाप लगता है (११४) । आशौच का निर्णय वर्णन ( ११५-१२१) । किसी हीन से सम्पर्क करने में दोष कहा है ( १२२-१२३ ) । सूतक और मृतक के आशौच का विधान ( १२४-१२६ ) ।
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अध्याय
[ ५२]
प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क
आशौचनिर्णयवर्णनम्
२६४३
बाल, शिशु एवं कुमार की परिभाषा ( १३० ) । विवाह, चौल और उपनयन में यदि माता रजस्वला हो जाय तो शुद्धि के बाद मङ्गल कार्य करें (१३१-१३२)। कोई कार्य प्रारम्भ हो और सूतक का आशौच हो जावे तो उस कार्य के सम्पादन का विधान ( १३४ ) । श्राद्धकर्म उपस्थित होने पर निमन्त्रित ब्राह्मण आवें तो सूतक का आशौच नहीं लगता व उस कार्य के सम्पादन का विधान ( १३५ ) ।
देशान्तरपरिभाषावर्णनम्
२६४५
ब्राह्मणों के भोजन करते हुए यदि सूतक हो जाय तो दूसरे के घर से जल लाकर आचमन करा देने से शुद्धि हो जाती है ( १३७ ) । देशान्तर में यदि कोई सपिण्ड मर जाय तो सद्यः स्नान से शुद्धि कही गई है (१३८) । देशान्तर की परिभाषा ६० योजन दूर या २४ योजन अथवा ३० योजन दूर को देशान्तर बताया है या बोली का अन्तर या पर्वत का व्यवधान तथा महानदी बीच में पड़ जाती हो तो देशान्तर कहा जाता है ( १३६ - १४० ) ।
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अध्याय
[ ५३ ] प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क शुद्धाशुद्धिवर्णनम्
२६४७ आशौच का विशेष रूप से वर्णन-सूतक एवं मृतक आशौच का प्रारम्भ कब से माना जाय इसका निर्णय। रजस्वला के मरने पर तीन रात के बाद शवधर्म का कार्य सम्पादन किया जाय । शुद्धाशुद्धि का वर्णन (१४११६३)। स्पृष्टास्पृष्टि कहाँ नहीं होती इसका वर्णन (१६३)। दिन में कैथ की छाया में, रात्रि में दही एवं शमी के वृक्षों में सप्तमी में आंवले के पेड़ में अलक्ष्मी सदा रहती है अतः उनका सेवन न करे (१६४ )। शूर्प (सूप) की हवा, नख से जलबिन्दु का ग्रहण केश एवं वस्त्र गिरे हुए घड़ेका जल और कूड़े के साथ बुहारी इनसे पूर्वकृत पुण्य का नाश होता है (१६५) । जहाँ कहीं भी शुद्धि की आवश्यकता हो वहां-वहाँ तिलों से होम एवं गायत्री मन्त्र के जप से शुद्धि कही गई है (१६६) । दाल्भ्यस्मृति के सुनाने का फल (१६७)।
॥ दाल्भ्यस्मृति की विषय-सूची समाप्त ॥
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आङ्गिरसस्मृति के प्रधान विषय
अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क पूर्वाङ्गिरसम् आङ्गिरसम्प्रति ऋषीणाम्प्रश्नः- २६४६
आङ्गिरस से ऋषियों का प्रश्न ( १)। धर्म का स्वरूप वर्णन (२-४)। वैदिक कर्मों को पुराणोक्त मन्त्रों से न करे (५-६)। मन्त्र के अभाव में व्याहृतियों को काम में लिया जाय। व्याहृतियों का महत्व वर्णन (७-१४)। जात कर्मादि संस्कारों का अतिक्रम होने पर प्रायश्चित्त (१५-२१)। श्राद्धापाकानन्तरमाशीचे निणयः २६५१
श्राद्धपाक के बाद यदि आशौच हो जाय तो विधान । उस क्रिया के करने में ऋत्विकगण को वह वाधक नहीं हो सकता (२२-२४)। पाकारम्भ के बाद यदि आस-पास में कोई मृत्यु हो तो श्राद्ध दूषित नहीं होता (२५)। पाकारम्भ से पूर्व भी यदि कोई मृत्यु हो तो वह न करे (२६-२८ )। 'दर्श पूर्णमास इष्टि पशुबन्ध के अनन्तर श्राद्धं ( २६-३३)। महादीक्षा में श्राद्ध (३४-३६)। खर्वदीक्षा में श्राद्ध (३६-३७ )। दीक्षावृद्धि में श्राद्ध (३०-४०)। दीक्षा के बीच में मृत्यु
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[ ५५ ] अध्याय . प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क होने से नहीं होता (४१-४३)। वैदिक कर्म का प्राबल्य (४४)। सूतिकाशौच एवं मृतकाशौच में वैदिक कर्म न करे, अस्पृश्यता आवश्यक है (४५-४८)। सतत आशौच होने पर श्राद्ध करने के लिये उस ग्राम को छोड़ दूसरे ग्राम में जाकर श्राद्ध करे (४९-५५)। शिखानिर्णयवर्णनम् शत्रु के द्वारा छिन्न शिखा हो जाने पर गौ के पुच्छ के समान बाल रखकर प्राजापत्य व्रत कर संस्कार से शुद्धि कही गई है (५६-५७)। मध्यच्छेद में भी वही बात है (५८ )। रोगादिसे नष्ट होने पर भी पूर्ववत् विधान है (५८-६०)। ७० वर्ष की अवस्था में शिखा न रहने पर आस-पास के बालों को शिखा के समान मान ले (६१-६३)। पांच बार शत्रु से शिखा छेद होने पर ब्राह्मण्य नष्ट हो जाता है (६४-६६)। सूतकादि से श्राद्ध में विघ्न होने से स्त्री संभोग होने पर गर्भ रहे तो ब्रह्महत्या व्रत का विधान (६६-६६)। विधायक श्राद्ध का वर्णन (७१-७६)। लाजहोम से पूर्व यदि वधू रजस्वला हो तो "हविष्मती” इस मन्त्र से सौ कुम्भों के विधान से स्नान कर वस्त्र बदलने से शुद्धि (७७-८१ )। लाजहोम के बाद होने पर स्नान करा
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[ ५६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक कर अवशिष्ट निर्मन्त्रक विधि करे और शुद्ध होने पर समन्त्रक विधि यथावत् करे ( ८२-८४ )।
औपासन अभी आरम्भ न हो और दूसरे दिन रजस्वला हो तो उसी प्रकार अमन्त्रक विधि एवं शुद्ध होने पर मन्त्रोच्चारण के साथ क्रिया करे ( ८५-६३)। आशौच में नित्यनैमित्तिक कर्मों का वर्जन (६४-६५)। इनसे प्रेतकृत्य का नाश होता है अतः वर्जित हैं (६५. ६७)। अत्यन्याय, अतिद्रोह और अतिक्रूरता कलि में भी वर्जित है। अति अक्रम और अतिशास्त्र भी वर्जित है (६८-१०३)। जीवत्मिक पिण्ड पितृ यज्ञ श्राद्ध का वर्णन (१०४-१०७)। पिता यदि सन्यास ले ले तो पातित्यादि दूषित होने पर उनके पितादि के श्राद्ध का विधान ( १०८-११७ )। इसी प्रकार चाचा आदि की स्त्रियों का (११८-१२०)। गौणमाता के श्राद्ध का विधान (१२१-१२५)। श्राद्धाधिकार और श्राद्धकर्ता गौणपिता के लिये भाई का पुत्र सपत्नीक कृतक्रिय भी पुत्र सज्ञा पाता है (१२६-१२६)। गोत्र नाम का अनुबन्ध व्यत्यास होने पर फिर कर्म करें (१३०-१३२)। अनाथप्रेतसंस्कारेऽश्वमेधफलवर्णनम् २६६३ कर्ता के दूर होने पर प्रेष्यत्व करे ( १३३-१३४ )।
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[ ५७ ] अध्याय
प्रधान विषय - पृष्ठाङ्क अन्य से करने पर, वाङ्मात्रदान करने पर श्राद्धमात्र होता है (१३५-१३८) । भ्रष्ट एवं पतितों का घट स्फोटन का अधिकार (१३६-१४०)। अनाथप्रेत के संस्कार करने से अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है व प्रेत के संस्कार न करने में दोष (१४२-१४३)। विप्र की आज्ञा से यतिकृत्य ( १४४-१४७)। कर्ता के निकट होने पर अक कृत को फिर करे (१४८)। असगोत्रों के संस्कार में आशौच (१४६)। माता-पिता के मृताह का परित्याग होने पर प्रायश्चित्त ( १५०-१५१ )। नदी स्नान से निष्कृति या संहिता पाठ से ( १५२-१५६ )। वेदमहिमा ( १५७-१५६)। ब्राह्मण का वेदाधिकार ( १६०-१६३ )।
स्नान का सब विधियों में प्राधान्य (१६४) । सम्पूर्ण कार्यों में स्नान ही मूल कारण बताया है (१६५-१६७)। अस्पृश्य स्पर्शनादि कर्माङ्गस्नान ( १६८-१७१ )। वमन में स्नान (१७२ ) । वमन में स्नान न कर सके तो वस्त्र बदल ले (१७३-१७४)। शाकमूलादि के वमन में स्नान ( १७५-१७६ )। रात्रि में वमन में स्नान (१७७)। अपने गोत्र के छोड़ने पर अन्य गोत्र के स्वीकार करने का दोष (१७८-१७६ )। अर्धोदय, महोदय एवं योग का विधान ( १८०-१८३)। स्त्री के पत्यन्य के साथ चितारोहण होनेपर पुत्र का कृत्य ( १८५-१६१)।
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[ ५८ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क स्त्रीणां पुनर्विवाहे प्रायश्चित्तवर्णनम् २६६६
जातिभेद से निष्कृति ( १९२)। स्त्री के पुनर्विवाह में दोष जैसेपुनर्विवाहिता मूढः पितृभ्रातृमुखैः खलैः । यदि सा तेऽखिलाः सर्वे स्युर्वं निरयगामिनः ॥१६३।। पुनर्विवाहिता सा तु महारौरवभागिनी । तत्पतिः पितृभिः सार्धं कालसूत्रगगो भवेत् । दाता चाङ्गारशयननामकं प्रतिपद्यते ॥१६४।।
यदि मूर्ख एवं दुष्ट पिता व भाई आदि के द्वारा फिर स्त्री विवाहित की जाय तो वे सब नरकगामी होते हैं
और वह स्त्री महारौरव नरक में जाती है, व उसका विवाहित पति अपने पितरों के साथ कालसूत्र नामक नरक में गिरता है एवं देनेवाला अङ्गारशयन नामवाले नरक में जाता है। पुनर्विवाह के दोष निवारणार्थ प्रायश्चित्त का कथन ( १६३-२०४)।
भ्रान्ति से पुत्रिकादि विवाह होने पर चन्द्रायणादि करने से स्वमात्र की शुद्धि ( २०५-२०७ )। पुत्र होनेपर ब्रत का विधान (२०८-२११)। एक, दो, तीन और चार-पांच बार विवाहिता होनेपर प्रायश्चित्त ( २१२२१७)। उससे तो वेश्या की विशेषता (२१८-२२४ )। प्रविष्ट परपति के काय द्वारा संयोग होनेपर प्रायश्चित्त
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[ ५६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाडू (२२५-२२७)। अग्राह्य और ग्राह्यमूर्ति का वर्णन (२२८-२२६ )। अग्राह्यमूर्ति का निवेद्य (२३०-२३)। भगवत्प्रसाद ग्रहण में भक्षणविधि (२३६)। निवेदनविधि ( २४०)। अत्युष्ण निवेदन करने पर नरकगामी होता है (२४१-२४२) । निवेदन प्रकार ( २४२-२४५)। गृहस्थस्य रात्रावृष्णोदकस्नानवर्णनम् २६७५ निवेदित का स्वीकार प्रकार ( २४६-२४७ )। निवेदित वस्तु बच्चों को दे (२४८)। गृहस्थ द्वारा रात्रि में गर्म जल से स्नान (४४६-२५०)। अभ्यङ्ग का विधान (२५१-२५३ )। माध्याह्निक एवं क्षुर स्नान का वर्णन ( २५४-२५७ ) । प्रातः सायं पर्वादि में अभ्यजन स्नान ( २५८-२६२)। सोदकुम्भ नान्दी श्राद्ध में अभ्यञ्जन स्नान ( २६३-२६६ )। क्रोशस्थित नदी स्नान से श्राद्ध विधान (२६७)। सङ्कल्प (२६८-२७१)। पितृ श्राद्ध के व्यत्यास में फिर करने का विधान (२७२ )। शून्यतिथि में करने से फिर करे (२७३-२७४ )। पितृ श्राद्ध के बाद कारुण्य श्राद्ध (२७५-२७६ )। मातापिता का श्राद्ध एक दिन हो तो अन्न से करे (२७७२७६ )। चाक्रिक श्राद्ध ( २८०-२८१ )। ग्रहण में भोजन निषेध वृद्ध बाल और आतुरों को छोड़कर (२८२-२६१)।
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[ ६० ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्शङ्क अत्यन्त आतुरों को भी छूट (२१२-२६७)। प्रस्तास्त शुद्ध होने पर सकामी व निष्कामीजन के लिये भोजन का विधान (२६८-३००)। मातापितृभ्यां पितुःदानं ग्रहणश्च २६८१
अमिहोत्र वर्णन (३०१)। दत्तपुत्र वर्णन (३०२) । माता-पिता द्वारा देने और लेने का विधान (३०३३१३) । पुत्र संग्रह अवश्य करना चाहिये (३१४-३१५)। अपुत्र की कहीं गति नहीं ( ३१६ )। पुत्रवान् की महत्ता का वर्णन ( ३१७-३२३)। पुत्र उत्पन्न होनेपर उसका मुख देखना धर्म है (३२४-३२६)। वृत्तिदत्तादि पुत्रों का वर्णन (३२७-३३५)। सगोत्रों में न मिले तो अन्य सजातियों में से पुत्र को ले अथवा सवर्ण में ले (३३६-३३७ ) । असगोत्र स्वीकृति में निषेध ( ३३८३४२ )। विवाह में दो गोत्रों को छोड़ने का विधान (३४३-३४४)। अभिवन्दनादि में दो गोत्र का वर्णन (३४५-३४६)। गोत्र और ऋषियों का विचार (३४७३५१)। दत्तजादि का पूर्व गोत्र (३५२-३५८ )। भ्रातृपुत्रादिपरिग्रहवर्णनम्
२६८७ भ्राता के पुत्र को लेने में विवाह और होमादि की क्रिया नहीं केवल वाणीमात्र से ही पुत्र संज्ञा कही है
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[ ६१ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क (३५६)। भ्राता के पुत्र का परिग्रह (३६०-३६३) किसी पुत्र को लेने के लिये स्वीकृति होनेपर यदि
औरस पुत्र हो तो दोनों को रक्खे नहीं पाप लगता है (३६४-३६७) । पुत्रदान के समय में जो कहा गया उसे पूरा करना चाहिये (३६८-३७५)। भाई के पुत्र को लेने पर दिये हुए का समांश औरस गोत्र का चौथा हिस्सा ( ३७६-३८०)।
दत्तक से औरस उपनीत न होनेपर प्रायश्चित्त (३८१३८२)। भार्या पुरुष का पुत्र प्रहण (३८३-३८८)। उस समय की प्रतिज्ञा पूरी न करने से दोष (३८६३६६)। सपनियों में पुत्र के ग्रहण के समय जो रहे तो वह माता दूसरी सपनी माता (३६०-३६१)। अन्य मातामहादि का स्थान (३६१-३६५)। सपत्नी का पिता मातामह नहीं ( ३६६)। सपनी माता का तर्पण (३६६-३६८)।
औपासनानौ श्राद्धेऽप्रमादवर्णनम् २६६१
सपनी माता का औपासन अनि में श्राद्ध (३६६)। पन्नी की अग्नि (४००-४०१)। भाई के पुत्र के ग्रहण की विधि (४०२-४११)। विभाग में भाई बराबर है (४१२४१३)। कामज पुत्रों का वर्णन (४१४-४३३ )। हतादि
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[ २ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क में विशेष (४३४-४४५)। पत्नी की वैशिष्ट्यता (४४६-४४६) पुत्रों का ज्येष्ठ कानिष्ठ्य (४५०)।
भोगिनी (४५१)। भर्मणा, वा वातादि पत्नियों का वर्णन (४५६-४६४)। धर्मपत्नी से उत्पन्न शिशु का ही स्पर्श मात्र कर्तृत्व (४६५-४७१ )। सन्निधि भी स्पर्शमात्र कत्व (४७२-४७४ )। श्राद्धादि में अत्यन्त तृप्तिकर पदार्थ (४७५-४८१)। गौरी दान वृषोत्सर्ग व पितरों को अत्यन्त तृप्ति कर कहे हैं (४८२४८३)। जकारपञ्चक का वर्णन (४८४-४८५)। ग्रहण श्राद्ध का लक्षण (४८६-४६५)। पनस स्थापित महान् विशेष है ( ४६६-५०३ )। अलर्क श्राद्ध (५०४-५०८)। श्राद्धार्हदिव्यशाकवर्णनम्
३००३ श्राद्ध के योग दिव्य शाक (५०६-५३० )। पनस की महिमा ( ५३१-५७१ )। रोदन का फल (५७२-५८५)। उर्वारु महिमा (५८६-६०३)। उर्वारु को छोड़ने में दोष (६०४-६०५)। छियानवे श्राद्धों का वर्णन ( ६०६-६१६ )। १०८ श्राद्ध प्रकृति श्राद्ध, दर्श श्राद्ध, दर्श और आब्दिक समान हैं मन्वादि श्राद्ध, संक्रान्ति श्राद्ध, संक्रान्ति पुण्यवास (.६२०-६४८)। अन्न श्राद्ध में कुतप ( ६४६-६५४)।
दर्श संक्रान्ति आदि श्राद्ध (६५५-६५७ ) । महालय
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अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क (६५७-६५६)। श्राद्ध देवता (६६०-६६४)। पित्र्य कर्मों में प्रदक्षिणा न करे । शून्य ललाट रहे गृहालङ्कार भी न करे (६६५-६६७)। मातृवर्ग में प्रदक्षिणादि व अलङ्कार (६६८-६७०)। श्राद्धभेद से विश्वेदेव, सापिण्ड वर्णन (६७१-६७५ )। आशौच दश, तीन और एक दिन रहता है ( ६७६-६८३ ) । अमादि श्राद्ध में कर्तव्य (६८४-६८७)। एकोद्दिष्ट के अधिकारी (६८८-६६३)।
अपिण्डक और सपिण्डक श्राद्ध (६६०-६६३ । छियानवे श्राद्धों की संख्या का विचार ( ६६४-७०० )। महालय, सकृन्महालय में भरण्यादि की विशेषता महालय का काल, यतियों का महालय, दुर्मूतों का महालय ( १०१-७०६ )। सुमङ्गली का श्राद्ध (७१०-७१६) । महालय से दूसरे दिन तर्पण ( ७१७-७१८)। रवि के उदय से पूर्व तर्पण ( ७१६ )। निमन्त्रणाहविप्राणां वर्णनम् . ३०२५
जीवपितृक श्राद्ध ( ७२०-७२२)। श्राद्ध में वैदिक अग्नि के अधिकारी (७२३-७२६)। अष्टकामासिक श्राद्ध (७२७-७३२) । श्राद्ध प्रयोग में निमन्त्रण के योग्य व्यक्तियों का वर्णन (७३३-७३६) । वेदहीन को निमन्त्रण देने पर निषेध एवं प्रायश्चित्त (७३७-७४०)। अपने
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[ ६४ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क शाखा के ब्राह्मण की ही श्लाध्यता (७४१-७४२)। श्राद्ध में अभोज्य (७४३-७६८)। वरण (७६६-७७४)। प्रसाद के लिये दर्भदान (७७५-७७६ )। मण्डल पूजा (७७७-७७६ )। गुल्फों के नीचे धोना (७८०-७८१) । आचमन कर्ता के पहले भोक्ता का आचमन देवादि के भोजन की दिशा वरणत्रयकाल, विष्टर, अर्घ्य, आवाहन गन्धाक्षतादि दान (७८२-८०१)। अग्नौकरण फिर सङ्कल्प परिवेषण (८०२-८१७ )। परिवेषणे पौर्वापर्यवर्णनम्
३०३३ पौर्वापर्य में पहले सूप देना (८०८-८१४)। रक्षोन्न मन्त्र यदि असमर्थ हो तो दूसरे द्वारा बोला जाय (८५५-८१८)। गरम ही परोसना चाहिये ( ८१६८२५)। मन्त्र बोले जाय मन्त्रों की विकलता नाश के लिये वेद का घोष ( ८२६-८४८)। शास्त्र विरोधित्याज्य हैं (८४६-८६०)। तिलोदक पिण्डदान नमस्कार अर्चन, पुत्रकलत्रादि के साथ पितृ आदि की प्रदक्षिणा व नमस्कार (८६१-८६८)। मध्यम पिण्ड का परिमार्जन कर धर्मपत्नी को दे दे (८६६-८७२)। श्राद्ध दिन में शूद्र भोजन निषिद्ध (८७३)। पिता के भोजन के पात्र गाड़ दिये जायं ( ८७४)।
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[ ६५ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क श्राद्धे निमन्त्रितब्राह्मणपूजनवर्णनम् ३०४१
उद कुम्भ (८७५-८७७)। प्रथम वर्ष तिल तर्पण न करे सपिण्डीकरण के बाद श्राद्धाङ्गतर्पण (८७८-८८२)। श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मणों की पूजा का वर्णन (८८३-८४२)। पितरों के निमित्त रजत और देवता के निमित्त स्वर्ण मुद्रा दे। उपस्थान और अनुब्रजनादि का कथन (८६३-८६७)। कर्म के मध्य में ज्ञानाज्ञानकृत दोष का प्रायश्चित्त (८६८६०४)। उच्छिष्टादि श्राद्ध में सात पवित्र (६०५-६०६)। उच्छिष्ठ, निर्माल्य, गङ्गामहिमा, महानदी, नदियों का रजस्वलात्व, पुण्यक्षेत्र (६१०-६४२)। वमन (६४३६४५)। फिर श्राद्ध प्रकरण (६४६-६५०)।
अनुमासिक में उच्छिष्ट वमनमें व उच्छिष्ट के उच्छिष्ट स्पर्श में विचार (६५१-६५६ ) । एक दूसरे के स्पर्श में (६६०-६६४)। दर्शादि में छींक आने पर विचार (६६५-६७३)। अपुत्र की असापिण्ड्यता (६७४-७५) । पति के साथ अनुगमन में पत्नी का एक साथ ही पिण्डदान (६७६-६७८)। मृत के ग्यारहवें दिन या दूसरे दिन सहगमन में श्राद्ध (६८३-६८८)। यदि पत्नी ऋतुकाल में हो पति के मरण पर तो पति को तैल की कड़ाही में छोड़ दे और शुद्ध होने पर ही और्ध्वदेहिक
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[ ६६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क संस्कार करे (६८8-88५ )। उसका पिण्ड संयोजन (६६६)। अन्यगोत्रदत्तकपुत्रकृत्यवर्णनम् माता के सापिण्ड्य न होने का स्थल (६६७-६६८)। दत्तपुत्र का पालक पिता का सापिण्ड्य होता है (SEE)। दत्तपुत्र का औरसपिता के प्रति कृत्य ( १०००-१००५)। अन्य गोत्र दत्त का सपिण्डीकरण में विधान ( १००६१००८ )। कथातृप्ति ( १०१६-१०२१)। श्राद्ध दिन में वयं ( १०२२ )। श्राद्ध के दिन दान जप न करे ( १०२३-१०२७ )। दर्श में मृताह के श्राद्ध को पहले करे ( १०२८ )। मृताह के दिन मातामहादि का श्राद्ध हो तो मन्वादिक श्राद्ध करे ( १०२६-१०३१ )।
मताह में नित्यनैमित्तिक आ जाय तो नैमित्तिक पहले करे ( १०३२-१०३४ )। दर्श में बहुश्राद्ध हों तो दर्शादि को कर फिर कारुण्य श्राद्ध करे उसमें मतमतान्तर ( १०३५-१०४४)। किन्हीं का कल्प प्रकार ( १०४५-१०५६ )। भ्रष्टक्रिया का विधान, पतित की पच्चीस वर्ष के बाद क्रियायें हों ( १०६०-१०७२ )। श्राद्धाङ्ग तर्पण दूसरे दिन (१०७३-१०७५ )। उद्देश्य त्याग के समय सव्यविकिर न करे ( १०७६-१०७८ )। वमन में कर्ता के भोजन न करने पर अर्ध तृप्ति, तिल
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[ ६७ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क द्रोण का विधान, दर्शश्राद्ध तर्पण रूप से तिल ही मुख्य हैं । सभी कर्मों में जल की प्रधानता (१०७६-१११३)। ॥ आङ्गिरसस्मृति के पूर्वाङ्गिरसम् की विषय-सूची समाप्त ।।
३०६६
आङ्गिरस (२)
उत्तराङ्गिरसम् १ धर्मपर्षत्प्रायश्चित्तानां वर्णनम्
विधिः ( १-१०)। २ परिषद उपस्थानलक्षणम्
२०६७ . परिषद् के उपस्थान का लक्षण और उसके सामने
निर्णय पूछने की विधि ( १-१०)। ३ प्रायश्चित्तविधानम्
३०६८ सत्य की महिमा व किये गये कुकृत्यों के लिये सत्य बोलकर प्रायश्चित्त पूछने का विधान (१-११)। ४ परिषल्लक्षणवर्णनम्
प्रायश्चित्त का लक्षण (१-२)। परिषत् का लक्षण और उसके मेद (१ १०)।
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पृष्ठाङ्क
[ ६८ ] अध्याय
प्रधान विषय ५ प्रायश्चित्तनियन्तृकथनम्
३०७१ दशावरापरिषद् (१)। चतुर्वेद्य (२)। विकल्पी (३)। अङ्गवित् (४)। धर्मपाठक (५)। आश्रमी (६)। ब्राह्मणों की परिषद् आगे प्रायश्चित्त नियन्ताओं
का वर्णन बताया है (१-१४)। ६ प्रायश्चित्ताचारकथनम्
३०७२ प्रायश्चित्त के आचार का वर्णन (१-१५)। ७ पापपरिगणनम्
३०७३ . जानते हुए भी प्रायश्चित्त का विधान पूछने पर ही करे ( १-२)। पापपरिगणन ( ३-७ )। पञ्चमहापात
कियों का वर्णन (८)। पतितों का वर्णन (८-8)। ८ शूद्राबस्य गर्हितत्ववर्णनम्
३०७५ प्रतिग्रह में प्रायश्चित्त (१)। शूद्रान्न के भोजन में प्रायश्चित्त (२)। शूद्र की प्रशंसा कर स्वस्तिवाचन में प्रायश्चित्त (३-५)। प्रतिग्रह लेकर दूसरों को दे दे (६)। शूद्रानरस से पुष्ट वेदाध्यायी का प्रायश्चित्त (७)। शूद्रान्न छै मास तक खाने से शूद्र के समान हो जाता है एवं मरने पर कुत्ता होता है (८)। सारी उम्र खानेवाले को भी शूद्र ही होना पड़ता है (8)। प्रति
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[ ६६ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाक ग्रहकेयोग्यधान्य (१०-११)। पात्र से लेना चाहिये
प्रतिग्राह्य वस्तुयें ( १२-२०)। ६ अभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्तम्
३०७७ अभक्ष्यभक्षण का प्रायश्चित्त (१-८)। भिक्षुकों की गणना (8-१०)। कुत्ते से काटे हुए का प्रायश्चित्त
(११-१६)। १० हिंसाप्रायश्चित्तकथनम्
३०७६ हिंसा का प्रायश्चित्त वर्णन (१)। दण्ड का लक्षण (२)। गौओं के प्रहार करने से प्रायश्चित्त (३)। गायों के रोधनादि से मरने पर प्रायश्चित्त (४-५)। गायों की हड्डी आदि मारने से टूटने पर प्रायश्चित्त (६-१०)। किन-किन अवस्थाओं में प्रायश्चित्त नहीं लगता उसका परिगणन (११-१४)। गजादि प्राणियों की हिंसा में प्रायश्चित्त ( १५-१६ )। काम और कामादिकृत पापों के प्रायश्चित्त के लिये विशेष वर्णन (१६-१६)। बालक वृद्ध और त्रियों के लिये प्राय
श्चित्तविधि (२०-२१)। ११ गोवधप्रायश्चित्तकथनम्
३०८१ गोवध करनेवाले का प्रायश्चित्त वर्णन (१-११)।
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[ ७० । अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क १२ कृच्छ्रादिस्वरूपकथनम्
३०८३ प्रायश्चित्तविधि (१-४)। कृच्छादि का स्वरूप कथन (५-८)। ब्राह्मण महिमासमस्तसम्पत्समवाप्तिहेतवः समुत्थितापत्कुलधूमकेतवः । अपारसंसारसमुद्रसेतवः पुनन्तु मां ब्राह्मणपादपांसवः ।। (६-१६)। आङ्गिरस (२) के उत्तराङ्गिरस प्रकरण की विषय-सूची
समाप्त।
भारद्वाजस्मृति के प्रधान विषय १ भारद्वाजम्प्रति सन्ध्यादिप्रमुखकर्मविषये भृग्वादिमुनीनां प्रश्नः
३०८५ भारद्वाज मुनि से भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, शाण्डिल्य, रोहित आदि महर्षियों ने नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को लेकर प्रश्न किया (१-७)। उन्होंने बतलाया कि नित्यानुष्ठानों के न करनेवालों की सभी क्रियायें निष्फल होती . है। दिशाओं के निर्णय से लेकर प्रायश्चित्त तक ... २५ अध्यायों का संक्षेप से निरूपण (८-२०)।
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३०६७
[ ७१ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क २ दिग्भेदज्ञानवर्णनम्
३०८७ पूर्व,पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण दिशाओं के ज्ञान की सरलविधि (१-४)। अन्य दिशाओं का परिज्ञान प्रकार (५-७७)। ३ विष्मत्रोत्सर्जनविधिवर्णनम्
३०६४ मलमूत्र विसर्जन की विधि (१-८)। ४ आचमनविधिवर्णनम्
आचमन के पूर्व जवा से जानु तक या दोनों चरणों को और हाथों को अच्छी प्रकार धोकर आचमन का विधान (१-५)। जल में खड़ा हुआ जल में ही आचमन करे, जल के बाहर हो तो बाहर (६-७)। अंग-न्यास, देवताओं का स्मरण, आचमन कितना लेना चाहिये, बिना आचमन के कोई कर्म फल नहीं देता अतः इसका
बराबर ध्यान रक्खा जाय ( ८-४१ )। ५-दन्तधावनविधिवर्णनम्
४००१ मुख शुद्धि के लिये दन्तधावन का विस्तार से निरूपण, दन्तधावन के लिये वर्ण्य तिथियां एवं समय तथा कौनकौन काष्ठ ग्राह्य है तथा कौन-२ अग्राह्य हैं इसका निरूपण, मौन होकर दन्तधावन करे ( १-२५ )। स्नान विधि
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. [ ७२ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क का वर्णन ( २६-३८)। ललाट में तिलक का विधान (४०-४५)। ६ त्रिकालसंध्याविधानकथनम् -
एक ही सन्ध्या के कालभेद से तीन स्वरूप-प्रथम काल की ब्राह्मी दूसरे की (मन्याह्न की ) वैष्णवी तीसरे की रौद्री सन्ध्या कही गई है। यही ऋक्, यजु और सामवेदों के तीन रूप है । इनके नित्य ही द्विजमात्र को कर्तव्य इष्ट हैं। सन्ध्या की मुख्य क्रियाओं का विस्तार से परिगणन (१-६८)। गायत्री के जपविधान का कथन (88-१४०)। गायत्री का निर्वचन (१४१
१६३)। जप यज्ञ की महिमा (१६४-१८१ )। ७ जपमालाया विधानकथनम्
४०२४ जपमाला का विधान और जपमाला की प्रतिष्ठा विधि । जप विधान में अर्थ का प्राधान्य और साथ में मनोयोग पूर्वक करने से ही इष्टसिद्धि मिलती है
(१-१२३)। ८ जपे निषिद्धकर्मवर्णनम्
जप में निषिद्ध कर्मों का वर्णन ( १-१२ )। ६ गायत्र्याःसाधनक्रमवर्णनम्
४०३८ गायत्री के साधनक्रम को जानने से ही सद्यः सिद्धि मिलती है अतः उसको जानकर जप किया जाय (१-५०)।
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[ ७३ 1 अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क १० गायत्र्या मन्त्रार्थकथनम् ।
४०४३ गायत्री के मन्त्र का अर्थ का विस्तार से निरूपण (१-६)। ११ गायत्र्याः पूजाविधानकथनम्
४०४४ गायत्री का पूजा विधान (१-११८)। गायत्री पुष्पाञ्जलि का प्रकार (१११-१२१)। १२ गायत्रीध्यानवर्णनम्
४०५६ गायत्री का ध्यान वर्णन (१-६१)। १३ गायत्रीमूलध्यानवर्णनम्
४०६३ ___ गायत्री का मूलध्यान और महाध्यान का वर्णन (१-४४)। १४ पूजाफलसिद्धये द्रव्यगन्धलक्षणवर्णनम् ४०६६
पूजाफल की सिद्धि के लिये नाना द्रव्य, गन्धलक्षण का विस्तार से निरूपण (१-६४)। १५ यज्ञोपवीतविधिवर्णनम् ।
४०७२ यज्ञोपवीत की विधि का वर्णन-निवीत और प्राचीनावीत का लक्षण। शुद्ध देश में कपास का बीज बोया जावे, उसके तैयार होनेपर ही ब्रह्मसूत्र को विधिवत् बनाया जाय । नाभि के बराबर ६६ छियानवे चार हस्ताङ्गुल प्रमाण से बनाकर शुद्ध मन से देवगण ऋषियों का ध्यान करते हुए इस ब्रह्मसूत्र को पहने ( १-१५४ )।
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[ ७४ ] अध्याय प्रधान विषय
पृष्ठाङ्क १६ यज्ञोपवीतधारणविधिवर्णनम्
४१८७ शुद्ध होकर आचमन कर आसन पर बैठे फिर आचार्य, गणनाथ, वाणीदेवता, देवता, ऋषिगण और पितरों का स्मरण करे। भगवान्, ब्रह्मा, अच्युत और रुद्र को भक्ति से नमस्कार करे, नवों तन्तुओं में आवा
हन कर यज्ञोपवीत का धारण करे (१-६३) । १७ यज्ञोपवीतमन्त्रस्य ऋषिच्छन्द आदीनां वर्णनम् ४१६३
यज्ञोपवीत मन्त्र के ऋषि छन्द देवता आदि का विस्तार से वर्णन ( १-३१)। १८ सप्रयोजनकुशलक्षणवर्णनम्
४१६६ कुशों के विना कोई भी नित्यनैमित्तिक क्रिया का सम्पादन शक्य नहीं अतः कौन सी ग्राह्य है और कौन
सी अग्राह्य है इसका निरूपण ( १-१३१ )। १६ व्याहृतिकल्पवर्णनम्
४२०६ व्याहृतियों का विस्तार से निरूपण (१-४८)। व्याहृतियों से सम्पूर्ण कार्यसिद्धि शक्य है (४६)।
॥ भारद्वाजस्मृति की विषय-सूची समाप्त ।।
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॥ श्रीगणेशाय नमः॥ * कपिलस्मृतिः *
कपिल-शौनक-संवादवर्णनम् वेदनिन्दकानां दूषणम् :पुरा तु शौनकः श्रीमान्भाविनं पतिमीक्ष्य वै । मीनोत्यंतं कलौ भूम्यां तिष्ठेद्विप्रत्वमित्यसौ ॥१॥ अत्यन्तं चिन्तयाविष्टः कपिलं विष्णुरूपिणम् । अवशादागतं वीक्ष्य प्रहृष्टः सत्त्वरं तदा ॥२॥ समुत्थायाऽभिवाद्यैनं गामय॑मुदकं शिवम् । कल्पयित्वा नष्टश्रमं पश्चात्प्राञ्जलिरब्रवीत् ।। ३ ।। कलौ पापैकबहुले धर्मानुष्ठानवर्जिते । . . कथं तिष्ठति विप्रत्वं भूतले वद मे महन् ॥ ४॥ संशयोऽतीव सुमहान् वर्त्तते छिन्धि नु(मे)विभो। नितेन(शौनकेन)हन(कृतः)प्रश्नः कपिलः स सनातनः ॥५॥ स्मयं कृत्वा जगद्भर्त्ता सस्मितं वाक्यमब्रवीत् । त्वं महासि सर्वज्ञः सर्ववेदविदाम्वरः॥६॥ अग्रगण्यश्च भक्तानां वरिष्ठो ब्रह्मवादिनाम् । अष्टादशानां विद्यानां कोशभूतो महाद्युतिः॥७॥ ऐकायोगत्व(?) नानात्वं समवायविशारदः। क्रियाकल्पविशेषज्ञः सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ॥ ८॥ १५६
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२५३०
कपिलस्मृतिः अथाऽपि मुख्यसार्थ(झ)निश्चयैः श्रुतिसिद्धगैः। ब्राह्मण्यसाधकः कर्मविशेषैरेव तत्परम् ॥६॥ ब्राह्मण्यं तत्समीचीनमतितीक्ष्णतरं शिवम् । सुस्थितं प्रभवो नो चेन्न तिष्ठति रे(?)श्रितेति ॥१०॥ निष्कर्षस्सुमुखोऽयं (च) तस्मिन्नर्थे न संशयः। अथाऽपि सूक्ष्मं वक्ष्यामि तन्ममैकमनाः शृणु ॥ ११ ॥ अब्राह्मणेषु सर्वेषु सर्वस्मिन्ब्राह्मणब्रवे( वे)। नामधारकमात्रेषु श्रोत्रियेषु महत्स्वपि ॥ १२॥ सर्वेष्वपि च वेदेकपारगेषु महात्मसु । ब्रह्मत्वमेकसामान्यात्तिष्ठत्येव ह्यनश्वरम् ॥ १३॥ तन्महत्तारतम्येन न्यूनं चाऽधिकमेव च । महश्च सुव मोहचाऽपि दोषयुक्तं गुणोत्तरम् ॥ १४ ॥ निर्दोषम(मि)ति भेदेन बहुधाभि(हि)मृतेति(स्मृत)तत् । सर्वकमैकशून्येऽस्मिन्कलौ पापैकसङ्कुले ॥ १५॥ कर्मानुरूपं ब्रह्मत्वं प्रतिष्ठति हि भूतले । तन्न दूष्यं दुराधर्ष युगधर्मानुरूपकम् ॥ १६ ॥ परान्नेन मुखं दग्धं हस्तौ दग्धौ प्रतिग्रहात् । परस्त्रीचिन्तया चित्तं कुतः (त्र) शापः कलौ युगे ।।१७।। तिरी (रो) हितस्तत्र वेदः स्वभावात्पुनरि (रे) ष्यति । कुतर्वाधितोऽत्यन्तभाषापद्ध(न्थ)न राजते ।। १८ ॥ भाषाप्रध(न्थ कुतर्काणामागमानां प्रचारणात् । वैष्णवानांशोभ(ना)नां पुरान्नेवाना(पुरुषाणां)दुरात्मभिः१६
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वैदिककर्मणामभावकथनम्
२५३१ प्रकल्पितानां शास्त्राणामसतां सद्विरोधिनाम् । प्रबाहुल्याद्धर्ममूलं वेदः शाक्ततरं भवेत् ॥२०॥ एवं वेदे धर्ममूले परं शांतमवस्थिते । तथागतमतं केचिदनुसृत्य ततस्ततः ॥२१॥ कर्मोपयुक्तमात्रैकपुत्राध्ययनमात्रतः। सम्पूर्ण तच्च विप्रत्वं प्राप्तमेवेति वादिनः ॥ २२॥ देवो ध्येतव्यइत्युक्ते तदुपर्यपि युक्तिभिः । यत्किञ्चित्स तु यावद्वा यत्किञ्चिन्चेत्तदा किल ॥२३॥ या(?)त्रीमात्रतःस्याद्धि यावच्चेद् ब्रह्मणे नमः। सततं प्रलगा(?)सैवं पुनस्तेषां दुरात्मनाम् ॥२४॥ अदिव्यत्यत्तत्तद्वाक्योच्चारणे हि भयं च न (?) । वैदिकान्यपि कर्माणि दूषयन्ति सभासु च ॥ २५ ॥ तद्वाक्यतः पुनर्लोकेऽप्यल्पज्ञानां हि निश्चयः। बहुज्ञानां संशयोऽपि कदाचिजायते किल ॥२६॥ तद्वैदिकेषु शास्त्रेषु सदकर्मसु(सत्कर्मनिरतेष्वपि)। विश्वासस्तादृशानां च जायतेऽपि च कुत्रचित् ॥२७॥ ब्रह्मयोनिषु जातानामपि केषां दुरात्मनाम् । तानि प्रयुतकर्माणि दूषयन्त्यपि सन्ति च ॥ २८ ॥ श्रुतिप्रोक्तानि दिव्यानि मूढाः पण्डितमानिनः । मूढ़ानां तादृशानान्ते(ञ्च गुरुत्वं समुपाश्रिताः ।।२।। स्वयं च वैदिकाश्चेति वदन्तः पुनरप्यति । कुबुद्धिर्बोधयन्तश्च तादृशाः दुष्टचेतनः(नाः) ॥३०॥
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२५३२
कपिलस्मृतिः वर्द्धते भूतलेऽतीव कलिधर्मस्तु तादृशः। अथाऽपि भूतले भूयस्तत्र तत्र कचित्कचित् ।। ३१॥ वैदिकान्यपि कर्माणि वैदिकाश्शतशोऋचः। सामानि च यजूंष्येवं सम्यग्वास(?)भासपि ॥ ३२ ॥ शाखामात्राक्षरावाप्ति मात्रेण(?) महद्धितत् । श्रोत्रियत्वं (च) प्रथितं दुर्लभं सर्वदेहिनाम् ॥ ३३॥ शतजन्मसु विप्रत्वं प्राप्तस्य कृतिनस्ततः । श्रोत्रियत्वं सिध्यति हि ना रुद्रः(१)क्रमपाठकः॥ ३४ ॥ वर्णक्रमविभागज्ञः स्वरमात्रादिलक्षणैः । सदाचार (रा) वरोधीरो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ३५॥ तन्मन्त्रविनियोगज्ञः तक्रियाकरणक्षमः । चतुर्मुखस्सुभूतो (समुद्भूतो) लोकेऽर्थज्ञो जगद्गुरुः ॥३६।। साक्षान्नारायणः सोऽयं भेदक (ह्न)(?) हायमाभवेत् । वेदो नारायणः साक्षात्तदर्थज्ञः स एव हि ॥ ३७॥ सोऽयमर्थः - कल्पसूत्रः ब्राह्मणेन चतुर्दशः । वर्णान्यप्योजसाल्पेन तद्वर्ण (?) वासिपूर्वकम् ॥३८॥ विणान (?) वा निंद्य नाशार वामा त्रस्यात्र जडासकः । व्यत्यस्त मुञ्चरन्ज्याक्र(?) तदर्ध (द) वत्ति केवलम् ।।३।। शतजन्मसु तं विद्यात्साक्षादैवतमागतम् । वेदनारायणद्रोही निर्भयेन श्रुति सताम्(१) ॥ ४० ॥ वाचा संस्कृतया वत्ति(क्ति)द्वाससां(?)सुरतस्सतु। वर्णव्यत्यासतः प्रोक्त्या वेदेऽस्मिन्ब्रह्महा भवेत् ॥४१॥
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वेदमन्त्राणांव्यत्यासेनोच्चारणेदोषकथनम् २५३३ विसर्गविन्दुदीर्घाणां व्यत्यासोक्त्या वशादपि । भ्रूणहत्यामवाप्नोति स्वरादीनां तु केवलम् ॥ ४२ ॥ वीरहत्यां दुर्निवार्यामुच्चरन्तं तु तादृशाम् । अनधीत्यैव तूष्णीकं वेदवाक्यं शिवात्मकम् ॥ ४३ ॥ दु(दा?)र्वाधीनं कारपाठं अपि तूष्णीकपाठकम् । सद्यो वै धार्मिको राजा स्वस्माद्राष्ट्रात्प्रवासयेत् ॥४४॥ वेदं समुच्चरन्तं तच्छूद्रं तत्क्षण एव वै । जिह्वाच्छेदं तस्य कुर्यात् (धार्मिको नृपसत्तमः)। अनधीत्य पुरा वेदं या वा(अन्य)शास्त्रंश्रम(मो)वृथा॥४॥ करोति ब्राह्मणो मूढो नरो गर्दभ उच्यते । नरगादभसंसर्ग स्नानं पञ्चाङ्ग ( सं ) युतम् ॥ ४६॥ कृत्वा सङ्कल्प्य तत्पश्चात्प्राणायामशतं चरेत् । पूर्वस्मिञ्जन्मनि स तु नरगार्दभसज्ञिकः॥४७॥ सत्यं मृगवधाजीवः निर्धनिको नित्यकर्कशः। सत्वयं वेद चत्व (?) निरूपणकहेतवो ॥४८॥ भूतले कलिना सृष्टोः न कुर्यात्तेन भाषणम् । अश्रोत्रियैर्ब्रह्मविद्याविषये कलहं वृथा ॥४६ ।। न कुर्यादेव सोऽयं वै महाव्यामोहकारणम् । कुलादिनः कुतक्कार्ये(तर्काश्च)कुत्सिताः कलिरूपिणः ।।५०।। कुबुद्धयः कुबोद्धारः कुत्सिताचारकारकाः । नावलोक्या न सम्भाष्या विप्रनामकथारकाः ।।५।।
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२५३४
कपिलस्मृतिः । विशेषेणं श्राद्धदिने यदि दृष्टा हठात्तथा । इदं विष्णु व्याहृतीश्च जपित्वा प्रणवम्परम् ।। ५२ ॥ समुच्चार्याऽथ च श्रोत्रं दक्षिणं संस्पृशेदपि । सर्वेषामेव धर्माणां मुख्यधर्मोऽयमेव वै॥ ५३॥ कलौ पापैकबहुले श्राद्धाख्यः श्रुतिचोदितः । सन्ध्या वै तद्वपनान्यत् ब्राह्मणस्य महाक्षयः(?) ॥५४॥ जीवातुश्च ततःश्राद्धं भक्या कुर्यादतन्द्रितः । तच नानाविधं ज्ञेयं नित्यं नैमित्तिकन्तथा ॥५५॥ काम्यं चैतेषु सर्वेषु प्रत्यब्दान्तर मदमदा(मेवच)। पित्रोद (4) वततस्तस्याकरणे सद्य एव हि ॥५६॥ चण्डालत्वमवाप्नोति तस्मात्तत्तु दिवैव वै (१)। मृतयोदिवसे कुर्याच्छुद्धः सन् भक्तिसंयुतः॥५७॥ एवमेतद्वत्सरस्य स्थलेऽस्मिन् भक्त्या (?)भवेत् । श्राद्धमग्रिमवर्षस्य कुत्रेति (?) वा वदेत् ॥ ५८ ॥ सर्वेषां शृण्वतां मध्ये तावन्मात्रेण ते तदा । अतितुष्टा हि पितरः तावर्तृ या श्रतादिला(?) ॥ ५६ ।। किमप्य(?)मदकाक्षत्तं तदायेन सन्थ्यके । सदाशिषः प्रयुञ्जन्त एतत्पालनसम्मुखाः ।। ६०॥ मलद्वार्यस्य सततं तिष्ठन्ति किल सानुगाः। माषेभ्यः पञ्च षड्भिर्वागन्वहं मित्र मायषे(?) ।। ६१ ।।
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम् २५३५ प्रसक्ते सति तैरेतच्छाद्धकार्य कथञ्चन । कुत्र केन कथं कस्मात्प्रभविष्यति वै तदा । किं कुर्मश्चेति तञ्चिन्तापर एव स्थितो भवेत् ॥ ६२॥ तावन्मात्रेण तेषान्तु नित्यमेव विधानतः। कृतमेव भवेच्छाद्धं कीर्तनादेव केवलम् ।। ६३ ॥ समीचीनव्रीहिमाषमुद्रप्रमुखदर्शने। एतत्तुलितवस्तूनि स्वपितृणां मृतेऽहनि ॥ ६४॥ यत्नात्संत्यादीप्या(?)न मयात्तेवदेन्मुदा। न वयस्याः समुद्दिश्य भावयेद्वा स्वचेतसा ।। ६५॥ शक्त्या कालेन च ततः तदथं वस्तुसंग्रहम् । कुर्यादेव स्वयं भक्त्या पितृणां प्रीतिहेतवे ॥६६॥ पश्चाच्छ्राद्धेऽप्य पूर्वेम्य(?)रात्रौ कव्यस्य तद्भवेत् । श्वःकत्तव्यस्य तन्नाऽधात् स्वीकुर्यात्कामतःस्वयम् ॥६॥ रात्रौ कृताशनान्विप्राच्छाद्धे चैव निमन्त्रयेत् । ततः प्रातर्विधानेन स्नात्वा सन्ध्यामुपास्य च॥ ६८॥ कृत्वाऽग्निहोत्रं स्मार्तं च ब्राह्मणान्वै निवेदयेत् । श्राद्धेऽत्राऽऽहवनीयस्य स्थाने वै मन्निमित्ततः ॥ ६६ ।। प्रसादो भवता कार्य इति वाक्येन केवलम् । केवलं लोके नैव वृणुयाद्दर्भ दत्वा भवापुनः(?) ॥७०॥ तूष्णीं वा प्रति विप्राणामेवमेव विधिःस्मृतः। सर्वेषां पुनरप्येषां प्रति पूष (4) त्रयो मताः ॥ ७१॥
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२५३६
कपिलस्मृतिः सप्त पञ्च धवा प्रोक्ता शक्ता सत्या च चेत्पुनः । एकमेकं च सर्वत्र तत्राशक्ता च केवलम् ।। ७२ ।। पित्रादीनां त्रयाणां च विप्र एकोऽपि वा भवेत् । विप्रद्वयं तथा दैवे नाद्य(१)मि(मेवं सदा भवेत् ।।७३।। शश्वन्नान्दिस्तदा कार्यो यदा पुत्रः प्रजायते । जातकर्म तथा कुर्यात्कुर्यादभ्युदयं तथा ।। ७४ ।। सतै(च)लस्य पितुःस्नानं जातमात्रे विधीयते । अत्र देवे च पित्र्ये च युग्मसंख्या द्विजाःस्मृताः ।।७।। कन्यापुत्रविवाहेषु प्रवेशे वेश्मनामपि । नानाकर्मणि(सु) चौलानां चूडाकर्मादिके तथा ७६।। सीमन्तोन्नयने नै(च)व पुत्रादि मुखदर्शने । नान्दीमुखं प्रकर्त्तव्यं तत्र वृद्धान् पितृछुभान् ।।७७|| कुलजं सप्तमं पूर्व षष्ठं चाऽपि ततः परम् । पञ्चमञ्चाऽपि यत्नेन क्रमेणैव प्रपूजयेत् ॥ ७८ ॥ गोत्रान्तव(तर)प्रतिष्ठस्य नाद्यास्तेऽपि नरो खलाः । मातामहाश्च नितरां दुर्लभाः राव सत्तरम् (१) ।।७।। मातापितृभ्यां तद्गोत्रस्यागेऽङ्गीकारपूर्वकम् । स्व(स्वी)कृतोऽयं पालकेन तद्वगं तेन चाऽऽसनम् ।।८।। तन्मातृपितृभिः साकं न तत्त्यागः पुरा कृतः। तेन तन्मातामहानां त्यागस्त्वन्याय एव हि ॥ ८१॥ तथैव क्रियते सर्वैः तेन दत्तोऽथ पापकृत् । त्यक्तमातामहः क्रूरः दत्तो वैदिकवर्मना ।। ८२ ॥
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम् २५३७ नान्दीमुखे मातृवर्गः प्रपूर्यः (य) वेदशास्त्रगः । पितृवर्ग ततः पश्चाद्वगं मातामहस्य च ॥८३॥ सर्वकर्मसु चाप्येवं शुभाख्येषु विधीयते । मातृपूजा प्रथमतः पितृपूजा ततः परम् ।। ८४ ॥ वस्त्रभूषणयोर्दाने समनुच्चारणे तथा। दम्पती पूजने चाऽपि स्त्रीपूर्वेणैव चोपत्ता(त्तमा)॥८॥ कृतिस्सा श्रीमती पुण्या तादृशे पुण्यकर्मणि। त्यक्ता दत्तेन तूष्णीकं मोहान्मातामहाःपरे ॥ ८६॥ सपत्नीका हि पितरस्त्रयस्ते देवताः पराः। त्यक्तः स्विप्पेष्टदेवो(स्व-इष्ट)यः सोऽयमत्यन्तपापकृत् ॥८७॥ कृतं दत्तं वस्तुतस्तु सूतकान्ते विलक्षणम् । एकोद्दिष्टाप्तरतस्त्यक्त ( ? ) स्वीकृतगोत्रिणः ।। ८८ ॥ नरसिंहाकृतेरस्य संयोगं वस्तुभिश्चरेत् । रुद्रैरपि तथाऽऽदित्यैः प्रीतत्वस्य(?)दियुक्तयोः॥ ८६ ॥ तद्गोत्रशर्मभिस्तातपितामहमुखैः सह । वस्वादिरूपैः क्रमतः इत्येवं न कथञ्चन ॥१०॥ कुत एवमिति प्रोक्ते दत्तोऽयं मिश्रगोत्र्यपि । पालकस्यततादानां तादृशस्यास्य(?) केवलम् ॥ ११ ॥ सांकर्यशून्यशुद्धैकगोत्रत्रा(णा)मत्र गोत्रिणः । पिण्डैः संयोजनमत्र विधिरोधेन न शक्यते ॥१२॥ रसत्वमपि शुद्धत्वं भीवत्वं ( ? ) च तत्त्वकम् । तथा पितामहत्वञ्च प्रपितामह्य(हत्व) मेव च ॥१३॥
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२५३८
कपिलस्मृतिः
तदगोत्रिवीर्ये (र्य?, जेष्वेव स्युर्नान्यत्र कथञ्चन । कयोत्पत्ति निदान (च) ज (य) द्वीजं रस इतिस्मृतः ॥६४॥ तस्याऽपि यन्निदानं तच्छुष्मे शब्देन शबद्यते । तस्याऽपि यत्कारणं हि जीरशब्देन शब्धते ( भण्यते) ॥६५॥ तथेति पु (न) रन्येऽपि ततः शब्दादिकाः शिवः । तत्तद्गोत्रजपिण्डेषु भवेयुर्मुख्यधर्मतः ॥ ६६ ॥ मध्यप्रविष्टगोत्रस्य तत्त्वं तत्साम्यमेव च । सर्वथा दुर्लभं प्राहुस्तदसाधारणा गुणाः ॥ ६७ ॥ तस्मादेन तादृशेषु योजयेन्न तु धर्मतः । तातादयस्तु गुणिनः वसुत्वादिकमुच्यते ॥ ६८ ॥ गुणा इत्येव तेषां तद्विधानं मन्त्रवर्त्मना । सुखायाश्रयभूतानां तद्विधानां प्रशस्यते । गुण्यरण्य (?) भावे तस्य विधानं शास्त्रवर्त्मना । गुणस्य तत्कम ( कथं ) मंत्रतस्त्वसमञ्जसम् ॥६६॥ सपिण्डीकरणाभावे प्रेतत्वं न निवर्त्तते । तस्मात्तदापो जपित्वा वस्वादित्येन मंत्रवै (त्रेण वै ) || १००॥ तत एकं समुद्दिश्य चैकोद्दिष्टे विधानतः । प्रतिसम्वत्सरं श्राद्धं कुर्यादिति मनोर्मतम् ॥१०१॥ अन्यगोत्रप्रविष्टस्य सूनुश्चेह्य (प्र) कृतिंगतः । मृतं स्वपितरं तस्य गोत्रेणैव क्रिया परा ॥१०२॥ कुर्यादेव त्रिराचे ()ण मातुश्चापि तुरीयके । दिने सपिंडीकरणं सूच (त) कं च तथैव वै ॥१०३॥
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम्
२५३६ समनुष्टयेमेवेति सर्वशास्त्रविनिश्चयः। मातुलादिसमस्तातः भिन्नगोत्रः()तथा प्रसूः ।।१०४॥ आदिकेऽपि तयोरेकं पिंडं दद्यादिति श्रुतिः। केचित्तत्र पुनः प्राहुःपितरं तादृशं मृतम् ॥१०॥ तादृशस्तनयः पूर्वैस्तत्तातादिभिरेव वै। तद्गोत्रैर्योजयेन्मंऔरन्यथाऽस्य गतिर्भवेत् ।। १०६ ।। इति(शास्त्र)समाचाज्यालोच्य)प्रत्यब्दम्मयि केवलम् । या वर्णेन विधानेन कुर्यादित्येव चाऽब्रवीत् ॥१०७॥ नमत्याश्च(?) तथा कुर्यात् सूतकञ्चेत् त्रिरात्रकम् । यतो भिन्नं तस्य गोत्रं गोत्रिणामेव केवलम् ॥१०८॥ दशरानं सपिण्डानां जातकं मृतकं स्मृतम् । तद्भिन्नानां तु बन्धूनां प्रत्यासति प्रभेदतः ॥१०॥ त्रिरानं दक्षिणि(?)चाहद्दिनंश्च(१) विधिनोदितम् । भिन्नगोत्रस्य पुत्रस्य तमल्पास्तत्सुतस्य च ॥११०।। जातके मरणे चापि सूतकं पूर्ववत्सृ(स्मृ?)तम् । तत्पित्रोरपि तस्यैवं मर्यादा वै विलक्षणा ॥११॥ आत्रिपूर्वं ततस्त्वेवं तत्कुले हैन्यता परा। निखिला समता भागान्यून्यताज्ञाभिस्तथा(?) ॥११२॥ भवन्त्येवेति सर्वत्र निर्विवादो महानयम् । जनप्रवादः परमः सर्वशास्त्रविनिश्रितः ॥११३॥ ताततत्ताततातानां यावदेकं भवेत्तु तत् । गोत्रं पुराणं श्रुत्युक्तं ततस्तं निहितं जड़म् ।।११४॥
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२५४०
कपिलस्मृतिः निकृष्टं नैच्यन्यं गाम्या(?)तन्महत्त्व बहिष्कृतम् । ज्ञातिमात्रप्रग्रहणं गोप्यं वैदिककर्मणाम् ॥११॥ वैदिकानामयोगःस्यादस्वीकार्य विपश्चिताम् । ताततत्ताततातानां क्रमोक्तिःस्याद्यद। तदा ॥११६॥ तत्कुलं सत्कुलैस्साम्यं लभते नात्र संशयः । पदव्यत्या पुनरपि दत्तसूनोः मृतौपितु(?) ॥११७।। भिन्नगोत्रस्य कथिता तातास्तु कुलजैत्रिभिः । योजयेदेव विधिना बाधकं तत्र नैव वै॥११८।। एकोद्दिष्टं तस्य सूनोः(रत्यक्त्वा वा(ता)तं ततःपरं । पितामहादीनां सम्यग्योजयेदेव नान्यथा ॥११॥ यतो पितामहत्यागः पतिप्तिश्रततः(?)पुनः । ते तत्तद्वंशमात्रस्य निदानैच्येप्त (तु?) कीर्तिते ॥१२०|| यावत्प्रकृतिसंप्राप्तिपर्यन्तं धर्मतःस्मृतम् । एकस्मिन्नेव गोगे तु प्रवेशो यदि जायते ॥१२॥ तत्संततौ ततो घोरं सकटं सुमहत्खलु । जायते तत्तादृशंतु(?) तुच्छकर्म न चाऽऽचरेत् ॥१२२॥ एतद्धि तत्तुच्छकर्म प्रविष्टस्याऽस्य संततौ । सांकर्ये प्रथमस्याऽभूतत्तत्सुतस्य ततः परम् ।।१२३।। गतस्य प्रकृतिं चापि सपिंडीकरणात्परम् । या गोत्रवति पित्रादेः तत्सुतप्रभृतित्रिगोः ॥१२४॥ व्यत्यासाद्वातञ्जलो(?)यो जायते स्वयमेव वै । तद्वंशानां तेन नैच्यन्यं ग्रहेननि सूरिभिः(?) ॥१२॥
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम् २५४१ उपन्यस्तानि तावत्तु यावत्स्यात्प्रकृते:पुनः । संभवरतेन गोत्रेण कुर्यात्पुत्रस्य संग्रहः ॥१२६।। शस्येण निहतस्यैवं चतुर्दश्यां पितुः श्रुतम् । दक्षे महालयाख्येऽस्मिन् एकोद्दिष्टाख्यवर्मना ॥१२७।। सर्वेषामविशेषेण एकोद्दिष्टविधानतः। श्राद्धानि निखिलान्याहुः सपिण्डीकरणं विधि(:) ॥१२८॥ परं सपिण्डीकरणात्सोदकुम्भानि कृत्लशः। पार्वणेन विधानेन मासिकानि चरेत्परम् ।।१२।। संवत्सरविमोकाख्यं संततेच्छेति(?) तत्क्रमः । अपुत्रस्य पितृव्यस्य भ्रातुश्चैवाऽग्रजन्मनः ॥१३०।। मातामहस्य तत्पल्या:श्राद्धं पितृवदाचरेत् । पितृवत्करणं ह्यतत्प्रति संवत्सरं ततः ॥१३।। अत्यंतावश्यकत्वेन कारणं ह्य तदुच्यते । नौपासनानौ तत्कुर्यादग्नौकरणमञ्जसा ॥१३२।। तपित्रोरेव पत्न्याश्चतन्मातामहयोरपि । अग्नौकरणमित्याहुर्द्धर्मज्ञास्तत्त्वदर्शिनः ॥१३३।। नियामकं किमत्रेति प्रश्नाकांक्षा भवेद्यदि । समाधानं वक्ष्यतेऽस्यास्तद्रहस्यं श्रुतीरितम् ॥१३४॥ नित्यनैमित्तिकेष्वेषु काम्येषु सकलेष्वपि । .. ए(?)षां वा देवतात्वं स्यात्तेषामोपासनोनत्वः(नेन च)॥१३५ अग्नौकरणकार्यात्तु भ(भवतीति)तीतन:(त) पुनः(१) । तहि पल्याः कथंचेति प्रश्नाकांक्षा पुनर्भवेत् ।।१३६॥
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२५४२
कपिलस्मृतिः इदं तस्योत्तरं ज्ञेयं यतोमूलो (१) निलस्यतु । तस्मात्तस्यास्सदा श्राद्धे वान्हैशाया(?)सनेखिलैः ॥१३७।। प्राह्यतेति धर्मज्ञः निश्रितो ब्रह्मसन्निधौ । आत्मादाराः वह्निमूलं तस्यास्तु मरणे पुनः ।।१३८॥ तहि पल्याः कथञ्चेति(१) प्रश्नाकांक्षा भवेत् पुनः?)। इदंवस्यात्तरारत्नादहोरात्रा नसनंवह्निदानंच शाश्वते(१)१३६ भार्यायैपूर्वमालिरायै दत्त्वाग्निस्थधर्मवम॑ना(?) । आवधीते पुनर्वहीन् दारां औ(श्च?) वाविलम्बयन्(१) । पुनर्विवाहशक्तौ तु निर्मध्ये नैवतो दहेत् ।।१४०।। तेषुवह्निषु(?तत्पश्चात्कुर्वन्नित्यं क्रियापरम् । दर्शादिकाः यश्रका श्रिदत्यन्तावश्यकाः परा:(१)॥१४॥ सर्वखल्यादिका श्वादि तथा ग्रहण पूर्वका:(१) । प्रकुर्यादेव विधिना शुचिर्धर्म(?)यतोन्वहं ॥१४२॥ यद्वा तस्यै प्रदद्यात्तु वह्निमथ तथा ततः । भ्रात्रे भगिन्यै पुत्राय स्वामिने मातुलाय च ॥ मित्राय गुरवे श्राद्धमेकोद्दिष्टं न पार्वणम् । प्रतिसंवत्सरश्राद्धे प्राहुर्दिव्या महर्षयः ॥१४३॥ श्राद्धानां (?) वकुतिदशीषद्देवत्यत्र तत्तथा । पितरोऽस्य सपत्नीकाः तथा मातामहा अपि ॥१४४॥ देवताः कथितास्सद्भिः प्रतिसंकल्परा(ना ख्यकम् । त्रिवेदतात्तं(त्रिदेवतात्त्वं)सततं विशेषोऽत्र पुनः स्मृतः।।१४।।
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम
२५४३ भ्रात्रे भगिन्यै पुत्राय स्वामिने मातुलाय च। मित्राय गुरवे श्राद्धमेकोद्दिष्टं न पार्वणम् ॥१४६॥ प्रतिसंवत्सरं श्राद्धेऽप्येषां नित्यं श्रुतीरितम् । तानि त्रिदेवताकानि सपिण्डीकरणात्परम् ।।१४७। सादकुमादिकाव्येवं प्रत्यब्दा(?)न्तानि कानिचित् । शब्देवत्यानि वित्याणि दशान(?)दीदिस्मृतान्यपि ॥१४॥ नवदैवतकान्येवं व्यष्टकादीनि केवलम् । तथैव नान्दी परमा नवदैवतकाः स्मृताः॥१४॥ एतेभ्योऽप्यधिकं प्रोक्तं जीवच्छाद्धमतीव वै। विचित्रमेवं कथितं बहुदैवत्यमुच्यते ।।१०।। तत्तुरीय्याख्यमादेशकाले कार्ये(ले?) विपश्चिता। नान्यकाळे प्रकर्त्तव्यमित्युवाच बृहस्पतिः ॥१५॥ आगत्य न्यासकल्पे तु नैतदावश्यकं मतम् ।। श्राद्धानि दर्शादीनि स्युः स्सहिद्धानिति सूरिभिः(१) ॥१५२।। कथितानि महाभागेः कानिचित्तु तदैव वै। अपिण्डकामि श्राद्धानि संक्रमादीनि केवलम् ॥१५३।। अष्टोत्तरशतानि स्युः श्राद्धान्यैतानि संततम् । कर्तव्यत्वेन ख्यातानि सर्वशास्त्रेषु वर्त्मनः ॥१५४॥ तत्र द्वादशसंख्यानि मासि श्राद्धान्नसंततम् । मासि मासि यथाकामं तत्तत्कालेषु तानि वै ॥१५॥ कृष्णपक्षे विशेषेण विहितानि समासतः । अमामजु (नु?) युगक्रान्तव्यतीपातमहालयाः ॥१५६।।
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२५४४
कपिलस्मृतिः तिस्रोष्टकागजच्छायास्परावत्यः(१)प्रकीर्तिताः। एतेषु नित्यादर्शास्ते मनवश्च युगादयः॥१५७।। महालया अष्टकाश्च तथा नैमित्तिकाः स्मृताः। संक्रांतिवैधृतयः निखिलाः पातसंज्ञि(ज्ञ?)काः ॥१५८ गमि(ज?)च्छाया च कथिताः तत्कथं चेत्तदुच्यते । क्लिप्तकाला गमाभावा निमित्तत्र(न्तदु?)मुदाहृतम् ।।१५६॥ झांत्वांदीनांत्तु(? विज्ञया दर्शादीनां तु नित्यदा। क्लिप्तकाला(?)गमेनैव सरण्यानान्यया मता ॥१६०।। निश्शेषदेशलोकादिवर्णाश्रमनमात्रतः। । आमतो यस्य सततं क्लिप्त्या नित्यत्वमुच्यते ॥१६॥ नास्तिताह शनित्यत्व(?)मन्यस्य हि न कस्यचित् । प्रत्यब्दादिस्तु विज्ञा(ज्ञ?)या अतो नैमित्तिकं हि तत्।।१६२|| अथाऽपि तस्याऽकरणेसद्यः(?) चंडालतां व्रजेत् । पित्रोखेन (१) चाप्यस्य तत्समस्तेन वै पुनः ।।१६३।। प्रोक्तं मातामहश्राद्धे पितृव्यस्य तथैव वै। भ्रातुज्येष्ठस्य तत्पन्याः गुरोरपि विशेषतः ।।१६४।। येन केनाऽप्युपायेन पल्या अपि मृताहकम् । अनेनैव विधानेन कुर्यादेव न चाऽन्यथा ॥१६५।। न हेन्मामेनवा मंत्रै अग्नौ (?) करणमात्रतः। पिण्डप्रदानतो वाऽपि कक्षदाहेन वा तथा ॥१६६।। या वसेन कक्षा कंटक (?) फलेन तिलोदकैः । न प्रत्यब्दं चरेत्कृष्टा वयप्येहं न(?)संशयः॥१६७।।
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम्
२५४५ दर्शादिकं तु यच्छाद्धवृद्धि तत्प्रतिवत्सरं । येन केन विधानेन कुर्यादित्येव वै. मनुः ॥१६॥ शक्तौसत्यां विधानेन कुर्यादेव न संशयम् । दर्शादि सर्वश्राद्धानि मुख्यान्नेन तु(?)सन्ततं ॥१६॥ आमादिनानुकरणममुख्यमिति वै मनुः । यदनुष्ठानं तत्सर्वानुष्ठानं जायतेतराम् ॥१७०।। तादृशं परमं दिव्यं दशं कुर्यादतंद्रितः । येनकेनाप्युपायेन प्रतिमासं विधानतः ॥१७१।। पितृणां तृप्तयेऽतीव द्विजो धर्मपरोऽनिशम् । दर्शानुष्ठानमात्रेण सर्वश्राद्धानि केवलम् ॥१७२॥ कृतानि सम्भवं येन नात्र कार्या विचारणा । दर्शानुष्ठानरहितः येनकेनाप्युपायतः ॥१७३।। सर्वश्चाण्डालतां याति पितृश्राद्धनमस्तुतःद्धान्नवर्जितः । आपद्यपि पितृश्राद्धमनेनैव समाचरेत् ॥१७४|| न स्वर्णेन न चामेन(?)मंत्रश्रद्धादिभिर्विना(भि)स्तु वा । विभवे सति दर्शाख्यं श्राद्ध मंत्रेन(?)तश्चरेत् ॥१७॥ न चैवामेन हेम्ना वा मान्त्रैर्यवतिलादिभिः (१) । रक्षोदाहाभिर्वान कृत्यैः पिण्डाग्नौकरणादिभिः ।।६।। उदकेनापि वा कुर्यादन्यथापतितोभवेत् । महालयकरोविप्रःः प्रतिसंवत्सरं तथा ॥१७७।। पित्रोःप्रत्याद्भि(ह्रि)कश्राद्ध पितृणां तत्प्रसादतः । गयाश्राद्धफलं नित्यमवशाल्लभतेऽखिलम् ॥१७८।।
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२५४६
कपिलस्मृतिः अष्टकारहितो मूढः पितृद्रोहीति कथ्यते। . मासश्राद्धपरित्यागी सर्वकर्मबहिष्कृतः ॥१७६।। तदकृत्वा पितृश्राद्धं तद्विधानेन केवलम् । न कुर्यात्सर्वथा श्राद्धं प्रत्यब्दाख्यं कथंचन ॥१८०॥ पितृयज्ञविधानेन श्राद्धं पित्रोः समाचरेत् । एतद्धि न विधानेन तस्मिन् श्राद्ध तु(?)केवलम् ॥१८॥ कतिचिच्छाद्धदिवसा(ना) नांतद्धविर्नतु(?)गच्छति । मासश्राद्धविधानेन कृतं श्राद्धन्तु केवलम् ॥१८२॥ पुरुषाणां देवतानां कृतं कर्मत्रयं भवेत् । स्त्री देवतानां न भवेत् तस्माच्छाद्धं तु तादृशम् ।।१८३॥ न म (कु) त्तिद्विधानेन बाधकं बहु तत्र हि । श्राद्धपाकं भिन्नगोत्रैः कारयेन्नतु सर्वथा ॥१८४|| सुता ध्व(स्व)स्य पितृष्वस्य (स्वस्) मुखादिभिः । गृहिण्या वा गतायान्तु कारयेदिति केचन ।।१८।। गुरुश्रोत्रियसद्विप्रबन्धुश्वश्रूजनादयः। स्युस्तास्वस्याप्यसामर्थ्य पल्या इति महर्षयः ॥१८६।। स्नुषायाकैकमधुरा:(१) पितरस्संततं परम् । सुतादिपरिचारैकमावसाज्ञादि (१) पाकतः ॥१८७।। प्राप्नुवंत्यनिशं हर्ष यजमानपरिश्रमात् । सुखितादुःखिताश्राद्ध (१)भविष्यंत्यपि केवलम् ॥१८८।। ऋत्विवाभांदुश्रोत्रिये ज्यावाजकादिक संजना(?)। सपत्नी तु पिता सर्वे स्वयं चापि स प्रिये(१) ॥१८॥
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम् पितृप्रिये कर्मणि तु यजमान(?)सताधिका। . कर्मयत्येव(१)कथिता स्वस्नुषा तत्समा मता ॥१६॥ पितृस्नुषा सा स्वस्नुषा वा श्राद्धपाके महात्मभिः । अभिषिक्ताध्यायधर्ममंत्रतंत्रक्रियादिभिः ॥१६॥ सामर्थ्येन तु या नारी पितृश्राद्ध ा पासि(गते । पाकक्रियां न कुरुते जा(या)माता मोहमास्थिता ॥१२॥ सा जन्मजन्मनि तरा(था)दुर्भगा पितृघातिनी । वन्ध्या दरिद्रा विधवा भवेदेव न संशयः ॥१६॥ मृतानां स्नुषया पाकं यवा(दि)लोके नराधमाः। मोहान्नाकारयिष्यन्ति पितृघ्नाः किल वै सतः ॥१४॥ सती श्वशुरयोःश्राद्ध कृततप्ताकजामिका(?) । सद्यो दौर्भाग्यमापन्ना जायते सूकरि(री)श्रु(पु)नः ॥१६॥ यदावहसनेपत्नीस्थालीपाकादिकर्मसु । कीति श्रुतिसिद्धा वै पित्र्ये पाके तदैव हि ॥१६६।। भार्यायां विद्यमानायां तद्रजोदर्शनात्परं ॥१९॥ तया न कुर्यात्पाकंचेत्पी(प्री)त्यथं प्रतिवत्सरम् ॥१६८।। निराशाः पितरस्तस्य (अव)मान्यानिराश्रयाः । क्षुत्तुष्णासहिता नित्याः प्रततुल्या दिवानिशम् ॥१६॥ वाष्पाविलाः प्राप्तदुःखा असंप्राप्तमनोरथाः । स्वपुत्रमपि तत्पत्नी शपन्तश्च दिवानिशम् ॥२००। अटन्त्यत्रैव सततं नित्यं भोजनकांक्षिणः । रजोदर्शनतः पूर्व तादृशं यदि ताः स्त्रियः ॥२०१॥
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२५४८
कपिलस्मृतिः अपाकयोग्या अपि ताः तत्रत्यजनवाक्यतः । पितृणां तृप्तयेऽतीव तदोजनरसातले (लये) ॥२०२।। तबूच्युयारणं पाककाष्टायाजादिरापनम्(?) । पयोदध्याज्यमधुरशर्कराफलभोजनम् ॥२०॥ अपक्कचूर्णलवणभाजनासनसंचयः । समा स चनिकरणप्रवर्तन कृतावपि(१) ।।२०४।। अत्यंतासक्तमातीव (१) कार्याभवति केवलम् । न चेत्तं जन्मवैय्यर्थ प्राप्तोत्येवं न संशयः ।।२०।। स्नुषानामपि पुत्राणां पितृकार्यसमन्वयात् । तस्वं तत्कथितं सद्भिः न चेत्तत्त्वं न सिध्यति ॥२०६॥ पुत्राणां पितृकृत्येषु पृथिवीते तु इति मंत्रतः । तत्कृस्नद्रव्यताद्विप्रहस्तस्पर्शन(?) कर्मणः ॥२०७।। कारमुपितृत्वतोतीव (१) पुत्रत्वं सिध्यति सा। श्रुतिःप्राह शिवा पुण्या दिव्या शातपथाह्वया ।।२०८।। तस्मात्पुत्राः श्राद्धदिने पितॄणामतितृप्तये । तुष्टये च स्वयं पत्ना(तस्मात्)त्सर्ववस्तु(सद् नि भाजने ॥२०६ निक्षिप्तानि स्वमर्यादाजनेन तु ततः परम् । सम्यग्विलोक्य संप्रोक्ष्य गायत्र्या कूर्चवारिणा ॥२१०॥ विप्रहस्तेन मंत्रेण स्पर्शनं भावशुद्धितः । कारयित्वाऽतियत्नेन पल्यर्पितजलेन च ॥२१॥ दानं कुर्यात्तदनस्य नो चेत्सर्व तु निष्फलम् । न देवैखडाङ्गोपात्रेण(?) प्रेलपर्यटकेन च ।।२१२।।
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम्
२५४६ नेपालकं बलेनादि गव्यद्रव्येण वा पुनः । ते वै यवैः पुप्यकालैः पुण्यदेशैरशेषितैः ॥२१३॥ तीर्थैः पवित्रैः परमै वा(धी)णसुमुखैरपि । उच्छिष्टन च दिव्येन शिवनिर्माल्यतोपि वा ।।२१४।। वमनेनातिसौलभ्यतृप्तिकारकवस्तुतः।। राजतेन च पात्रेण महाभिश्रावणेन च ॥२१॥ तृप्तिन जायते तेषां किंतु तमुत्रं(तत्पुत्र) हस्ततः । कृतेन तद्विप्रहस्तसंस्पृष्ट्य क्षणपूर्वतः ॥२१६।। तत्पल्यपि तकीपाला (तत्काला) दानतोत्यंततुष्टिदा । तृप्तिस्साकथिताऽतीव तस्माच्छ्राद्धतु तत्करः ॥२१७|| आढ्यो वापि दरिद्रोवा वस्तु संपादितं तु यत् । द(त)द्भार्यामुखतस्सवं सयी(मी)चीनं विधानतः।।२१८।। कारयित्वा स्वयञ्चापि कृत्वा शुद्धमनाश्शुचिः । प्रत्नत्र सहस्तवस्त्रादि(?)मुखतः प्रोक्ष्य वस्तु यत् ।।२१।। प्रक्षाल्य प्रोक्षयित्वा च मंत्रामंत्रक्रियादिना । दद्यात् पितृव्यानितरान्सुमुखस्य प्रहृष्टधीः ॥२२०।। अतिपक्कमपर्वताक्षेमंदग्धं सकीलकम् । अहृष्टमस्पर्शयितं अप्रोक्षितमनादितम् ॥२२॥ पितॄणां न भवेद्वस्तु तस्मात्तन्न तथाचरेत् । यद्वस्तु यजमानेन न दृष्ट प्रीस्थितं(?)न तु ।।२२२।। तदस्पर्शपितु यद्वातत्प्रास्यायत्तुमोहतः(१)। भोक्ता चोरो भवेत्सद्यः तत्प्राशनमहांह (हैन) सः॥२२॥
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२५५०
कपिलस्मृतिः तस्मिन्ताताहिता ये वा पितरः खलु तत्क्षणात् । यमेन छिन्नजिह्वाःस्युः तद्दोषस्य निवृत्तये ॥२४॥ श्राद्धान्ते वामदेवाय महामंत्रजपः परं। ज्ञानज्ञानेकतादृक्तादुत्पन्नाद्यस्य शान्तये ॥२२५।। उपायःकल्पित.कापि वामदेवादिभिः पुरा । तस्मात्सम्यक्प्रवक्ष्यामि श्राद्ध कर्तृ मतां पराम् ॥२२६।।
औपासनानौपचनं प्रवरंचोत्तमोत्तमम् । न चेत्पाकादधो यत्तत्तदन्नं होमकर्मणा ॥२२७।। समये वाप्यधिश्रित्य प्रोत्क्षाद्वास्याभिधार्य च। हुत्वाभिमृश्य तत्सर्वमन्नशाकफलादिकम् ॥२२८।। प्रोक्ष्य मंत्रेण गायत्र्या व्याहृतीभिस्सतारकम् । स्वपत्नीकरनिर्मुक्त तत्पात्रे स्वकराम्मृते ॥२२६।। कारयित्वाथस्पर्शयित्वाथ(सर्व) (१) मंत्र विधानतः । तत्पात्रधारणं कुर्यात्प्राचीनावीतिनाखिलम् ॥२३०।। तदाज्यपात्रस्पर्शश्च कारयित्वापि सैन्धवं । वस्त्वन्तरेण संस्पृष्टं तद्विधाय च (१) ॥२३१।। जलपूर्व प्रदद्यात्तु पितृतीर्थेन तत्परम् । पृथकप्रदानाभावेन ह्यनौकरणलोपतः ॥२३२।। पिंडप्रदान एहीति पुनः श्राद्ध परेऽहनि । वमनेस्थाविप्रस्यतष्टातेलदर्भयोः (१) ॥२३३॥ उपन्यादे(दोदक(क)न (१) पुनः श्राद्धं परेऽहनि । अन्नादिस्पर्शराहित्यात्कभोक्त्रोः परस्परम् ॥२३४॥
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम् . . २५५१ पृथिवीतेति मंत्रेण पुनः श्राद्ध परेऽहनि । यजमानाप्रोक्षणेन हविषामनवेक्षणात् ॥२३॥ पाकात्परं तद्दिनेऽस्मिन्पुनः श्राद्ध परेऽहनि । पत्नीवचनसामर्थ्यो सति तस्य तु पैतृके ॥२३६।। तूष्टि(ष्णी)करणवा(रा)हित्यात्पुनःश्राद्ध परेऽहनि । दध्नः फलानां तद्भुक्ता(?) पत्न्या अपरिवेषणात् ।।२३७।। श्रमायनयनाकार्याद्वित्प्राणांतं पदे पदे । यजमानस्य भुक्त्यंते पूर्व दद्य(ध्य)न्नभक्षणात् ।।२३८।। तत्काक्षितयश्चशून्यात् (१) तथातस्यासमर्पणात् । आदिमध्यावसानेषु स्वकीयजलपात्रतः ॥२४०॥ स्वपल्यानीतसछीत (१) पानीय प्रश्नकून्यतः । निरन्तरैक तद्दृष्ट्वा पुनः श्राद्ध परेऽहनि ॥२४१।। आदिमध्यावसानेषु संप्रवीक्षणप्रश्नयोः। एहीत्याद्यजमानस्य पुनः श्राद्ध परेऽहनि ॥२४२॥ तद्भोक्ता दीयनाशेन (१) प्रापानाविसर्जनात् । ततःपिण्डददच्चापि(१) पुनः श्राद्ध परेऽहनि ॥२४३॥ यस्मै कस्मै तदिवसे पृष्टानां तत्प्रदानतः । तच्छ्राद्ध सद्य एव स्यान्नष्टमेवं न संशयः ॥२४४॥ तदिनेतिप्रयत्नेन दोमयेनानुकेवलम् (१) । कृत्वानेहस्यनप्तश्रात (?) न कुर्यात्तदलंकृति ॥२४॥ दम्पत्योस्तहिनेवा तत्रपाककृतामपि । मुखालंकरणं नैव प्रशस्तमतितद्विदः ॥२४६।।
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२५५२
कपिलस्मृतिः विप्रोद्वासनतः पश्चादहालंकारणंतरं (१) । कर्तव्यत्वेन विहितं न चेच्छ्राद्ध निरर्थकम् ।।२४७॥ . तन्त्रं श्राद्धदिने यत्नावतान्तरपूजनम् । न कुर्यादेव नितरां यदि कुर्यात्प्रमादतः ॥२४८।। कुप्यंति विर(पितर)स्त्वेनं तस्मात्तं परिवर्जयेत् । दानाध्ययनदेवाश्च जपहोमव्रतादिकान् ॥२४॥ न कुर्याच्छ्राद्धदिवसे प्राग्विप्राणां विसर्जनात् । संनिधाने देवविप्रयोः श्राद्ध विधिनाशुचिः ।।२५०।। अक्रोधश्चात्वरोतीव पुनः स्नात्वा समाचरेत् । विश्वेदेवाविधाश्राद्ध नान्यान्देवान्समच येत् ॥२५१॥ सपिण्डीकरणे तस्मिन् विष्णुमन्त्रेति केन च । शिवं शैवाः समभ्यर्च्य केशवं वैष्णवा अपि ॥२५२।। श्राद्ध कर्त्तव्यमेवेति कुर्वन्ति प्रददन्ति च । न तथा वैदिका कुयुः किन्तु श्राद्धायरिं(?)पुनः ॥२५३।। भिन्नपाकावपूजावैश्वदेवादिकं चरेत् ।। देवपूजादिकं यत्तु प्रदक्षिणविधानतः ॥२५४।। यज्ञोपवीतिना कार्य पुण्ड्धारणपूर्वकम् । तत्पैतृकं कर्म यत्तदप्रदक्षिणपूर्वकम् ॥२५५।। प्राचीनावीतिनाकार्य नापुण्डरहितेन वै । तदेतत्कर्मयुगलं परस्परविलक्षणम् ॥२५६।। तेजस्तिमिररेत्मैततछेषेणैव (१) केवलम् । एतत्कमककरणं पितृशेषणतत्परम् ॥२५७||
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श्राद्धप्रकरणवर्णनम्
२५५३ वैश्वदेवैककरणं देवपूजाकृतिश्च सा। द्वयमेतदनुष्ठानं न तु प्राणादिकं स्मृतम् ॥२८॥ अयमेव . महामार्गः श्राद्धीयेऽहनि संस्थिते । . पितृपूजानन्तरंतनिखिलं देवतार्चनम् ॥२५॥ ब्रह्मयज्ञादिकं कुर्यादन्यथा तद्विनश्यति । देवतार्च ननिर्माल्यं तच्छ्राद्धकरणे किल ॥२६॥ बाधकानि बहून्येव सम्भवंत्यपि केवलम् । ग्रहदेवार्चने विष्णो नैवेद्यायान्नमुत्तमम् ॥२६॥ सुखोष्णं कारयित्वैव पाकपात्रात्तदन्यके। कुर्यान्निवेदनमितितद्विधानं श्रुतीरितम् ॥२६२।। पैतृके कर्मणि पुनः यावदुष्णसमन्वितं । चुल्युस्मस्थितपात्रस्यादन्नमुधृत्य (१) यत्नतः ॥२६३॥ दध्यादिना ततो भूयः तत्पिधायोष्णसंस्थिते । तदुद्धृतं विप्रपात्रे निक्षिप्यशनकैस्ततः ॥२६४॥ अत्युष्णं परमान्नं तद्भक्षाण्यपितथैव (१) च । अत्युष्णान्यपि शाकानि सूपादीनि च कृत्स्नशः ॥२६॥ तेन मंत्रेण तत्प्रीत्यै पृथिवीत्यादिना तदा । दद्यादिति विधानं तत्पैतृकं तस्य चास्य च ॥२६६॥ धर्मभेदाद्विरुद्धं हि तच्छेषेण पुनः कथं । श्राद्धस्य कारणं युक्तं भवेदिति च पश्यतः ॥२६॥ निवेदताप्तरंछाध (?). तत्संकल्पादिकस्य तु । श्राद्धस्य दानपर्यन्तकालस्य घटिकाद्वयम् ॥२६॥
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२२५४
कपिलस्मृतिः अवशादेव भवति तन्निवेदितमोदनम् । ऊष्मादिरहितं पूर्व सुखोष्णं तत्कथं पुनः ॥२६॥ अत्यन्तोस्थासमायुक्त (?) श्राद्धयोग्यं भविष्यति । कर्म यद्देवपूजाथरव्यं एवं तद्धि(१)महात्मनि ॥२७०।। दैनन्दिनं प्रकथितं श्राद्धं तत्प्रातिवत्सरम् । नैमित्तिकमिति प्रोक्तं तेनतद्वाध्यते परम् ॥२७१॥ वोधोनमास्यत्तच्चाय(?) सम्यगेवव ाम्यहम् । एतस्य करणात्पश्चात्तत्कार्यमत एव वै ॥२७२।। एतच्छ्राद्धः प्रकथितः नान्य इत्येव सूरिभिः । तस्माच्छाद्धं तदिनैव अकृत्वैव कदाचन ॥२७३॥ कर्मान्यम्मोहतः कुर्यात्तद्धि सद्यः प्रणश्यति । यद्वदिकोक्त तत्कर्म ह्यग्निहोत्रं तथेष्टिकम् ॥२७४।। दर्शश्च पौर्णमासश्च तथैवाग्रयणं पुनः ।
औपासनं च कृत्वैव तस्मिन्नग्नौ ततः परम् ।।२७।। कुर्यात्त्रत्याद्विकर्माद्धं (?) इत्येव मनुशासनम् । वैदिका दुर्बलं कर्म दर्शादेःश्राद्धकर्म तत् ॥२७६।। अपि स्मात्तं यथा भूयः तेन बाध्यतरां भवेत् । वैदिकानन्तरं कार्यस्मातकर्मसुसन्ततं ॥२७७|| सर्वेभ्यःस्मातकर्मभ्यः श्राद्धमेकंमहत्स्मृतं । न साद्या(सद्यः)स्मातकर्म किंतु वैदिक कर्म हि ॥२७८।। प्रत्यक्षश्रुतिमूलत्वादग्निहोत्रसमं च तत् । औपासनं च कथितं तवयंतेन कृत्वैव(?) ॥२७॥
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श्राद्धप्रकरणषर्णनम्
२५५५ विधिनायश्चात्तश्राद्धं (१) तत्परंचरेत् । नान्यत्किमपि तत्कुर्यात्कर्मका–(म्य)न्तु तदिने । कर्मान्तरावशिष्टेन द्रव्येण न कदाचन ॥२८०॥ नैव कुर्यात् तथा श्राद्धं आपल्यापैतधेतरत (१)। (न)येतानि श्राद्धानि जातकादीनि कालतः ॥२८॥ संप्राप्तान्यैकदा वापि शिष्टद्रव्येण तत्परम् । न कुर्यादेव सहसा यदि कुर्याद्विनश्यत(ति) ॥२८२।। कर्तव्यत्वेन संप्राप्तान्यपि कर्माणि यानि वै। तानि सर्वाणि भिन्नानि प्राधान्येन पृथक् पृथक् ॥२८३॥ कुर्वीतैव प्रयत्नेन पूर्वशेषेण वस्तुना । कुर्यात्तदुत्तरं कर्म नैवं चेति हि निर्णयः ।।२८४॥ पुराचोला आज्यशेषेण नमकालेन(?) कर्मणोः । संप्राप्त संत्तिकंत्योयं मौज्यी कृत्वाथतत्परम्(१) ॥२८॥ परतन्तोस्तुवयसा कर्मभ्रष्टमभूत्परम् । इति भूयश्चकाराधभक्त्योपनयनंकिल ॥२८॥ तस्मात्कर्मावशिष्ट न येन केन च वस्तुना। कान्तरं न कुर्याद्धि कुर्याद्यदिनतत्कृतम् ।।२८७॥ भवत्येव न संदेह श्राद्ध त्रि प्राय केतुव(?) । एक दैवत्यस्ताहकर्मणि (१) ॥२८॥ द्वितीयवारनिक्षिप्ततार्तीयोकेन वै सह। न नप्यक्रमपदायैव प्राश्नीय्याद्वा(१)समुत्तमम् ॥२८॥
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२५५६
कपिलस्मृतिः यत्र यत्रैक देवत्यावृत्तिस्तत्र तथा भवेत् । प्रायाणिय्येतथाचोदयदिनिप्येतथैव (2) वै ॥२६०।। एकदैव सतो. नूनमभवन्नान्यथा हि तत्। कर्मणः कस्यचित्तस्माच्छिष्टद्रव्येण कर्मणः ॥२६॥ अन्येषां करणंन्यायं न भवेदिति वै मनुः। कर्मभ्योनिखिलेभ्योवै सूर्यग्रहग्रहाधिकः ॥२२॥ पैतृकं कर्म परममधिकंचोत्तमोत्तमम् । . तादृशं तत् परं (कर्म) कर्मशेषैकवस्तुना ॥२६॥ न्यायेन शक्यते कत्तुं कथंकाकेनिनेतरत्(?) । कर्मास्ते त्रिषु लोकेषु महद् ब्राह्मण्यमूलकम् ॥२६४।। तस्यैवैवं महाघोरे संकटे समुपस्थिते । कथंतत्कुस्थिलोके (१) कलौतिवृति केवलम् ॥२६॥ विप्रत्वं श्राद्धसंध्याभ्यां कलौ नान्येननिर्वृतिः। तस्मात्तु तवयं सम्यक् भक्त्त्यानुष्ठे यमेव वै॥२६६।। अंध पंगुजभ्राप्ताः (डश्चातों) क्लीबोमूको चिकित्सकः । उन्मत्तो बधिरः काणः वैश्यः क्षत्रिय एव च ॥२६७|| भिन्नभिन्नोपनयनाः वैश्य क्षत्रिय एव च। त एते निखिला ज्ञेयाः विधर्माभिः(१)नयेज्जयः ॥२६॥ दर्शनादिष्वयोगत्वमंधादीनां स्फुटन्तरम् । तेन तत्कर्म वैकल्यं जायते किल तेन वै ॥२६॥ सर्वसाम्यं भवेन्नैव तेषांतस्मात्सहात्मभिः ॥३००।
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उपनयनसंस्कारवर्णनम्
२५५७ अंधादयोविशेषेण भर्त्तव्यास्ते निरंशकाः । तेषामुपनये प्राप्त वैलक्षण्यं महद्भवेत् ॥३०१।। तदाभ्युदयकं सद्यः कर्त्तव्यत्वे न कीर्तितम् । न पूर्वेद्य द्विशेषेण ऋतवस्तूत्तरायणम् ॥३०२॥ कत्सस्तु (कुतुपस्तु) कालोविज्ञेयः नक्षत्रं पुण्यदैवतम् । स्नातं त्वलंकृतंकृत्वाचोपनेष्यति केवलम् ॥३०३।। संकल्पञ्च विधानेन वाचमय्य विधानतः ॥३०४॥ यज्ञोपवीतसूत्रेण कृत्वातमुपवीतिनम् । तथायोगंप्रकुर्याञ्च सर्वतंत्रं विशेषवित् ॥३०॥ भ्रातुस्तथापिमूकस्य स्वयं मंत्रक्रियाश्वरेत् । याज्ञिकं समिधं तूष्णीमाधाययतितत्करां(?) ॥३०६॥ तूष्णीमना समास्थाप्य समंत्रामंत्रतो वा। सर्व कुर्याद्विधाने (नौ) न तदशक्यं यदेव हि ॥३०७।। तंत्रमन्त्रे प्रकुर्वीत कृत्स्ने तद्वाचकादिके । सर्वस्मिन्नपि तत्कार्ये स्वयमेव क(य)दातदा ॥३०८।। प्रभवेदिति तत्कर्ता मौंजीकृष्णाया(त)श्चरेत् । याज्ञिकं सामधंतूष्णं आधापयति तत्करा) ॥३०६।। ज्वीकृष्णाजिनं तथा देवताभ्यः(१)प्रदानंञ्चहस्तंग्रहण मेव च । शक्यं सर्व प्रकुर्वीत यद्यत्साध्यं यथाविधि । स्वसाध्यं निखिलं कुर्यात् स्वतत्कार्यमशंकितः ॥३१०।। यदशक्यं त्यजेदेव नात्रकार्या विचारणा । सुप्रजाइति मंत्रं च कर्णे कुर्याजपं तथा ॥३११॥
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२५५५८
कपिलस्मृतिः ब्रह्मचर्यमित्यादीनान्तुलोप एव परस्ततः । प्रतिप्रश्नप्रवचननिवृत्तिस्तदनंतरम् ॥३१२॥ मंत्रेप्यसावितिस्थाननामनिर्देशवर्जनं। प्रधानहोमं विधिना कुर्यादेवाखिलं क्रमात् ॥३१३।। उरेदेशत्यागमखिलं (१) स्वयमेव वदेदपि । अथ यश्वजपादीनामन्ते ब्रह्मणि संस्थिते ॥३१४॥ तूष्णी कूर्च ततो गृह्य स्वयं तस्मिन् सुखेन ये । उपविश्य विधानेन गायत्री वेदमातरम् ॥३१।। अभ्यर्चति क्रमेणैव व्याहृतीभिर्विधानतः । सम्यगुच्चारयेदुक्त्वा प्रयत्नेनाधिकेन वै ॥३१६।। तदधीनं कारयीत चिरकालेन वायतनू (१) । उच्चप्रम(व)दनेनालं बधिरस्य विशेषतः ॥३१७|| पंग्वंधयोर्जडभ्रांत्तक्लीवापाद्य करोगिणां ।। यथा योग्यं यथाशक्ति वाचयित्वैवतांमनून ॥३१८।। अपिसर्वान्मनूशस्त्रमस्मृसद्विजावदून् (१) । उपस्थानञ्चाग्निकार्यमग्न्युपस्थानमेव च ॥३१॥ व्रतप्रवचनंचापि सत्यां शक्तौ यथामति । यथायोग्यंतथैवस्यान्मातृभिक्षादिकं तथा ॥३२०।। यस्य ते सनयर्थाथ (?) जलग्रहणमाचरेत् । यश्वादिनत्रयान्ते(?) तु पालाशादिक माचरेत् ।।३२१।। मूकमात्रास्यकोप्येको(?)विशेषोवक्ष्यतेऽधुना । प्रधानहोमादध(थ)चस्थालीपाकविधानतः ॥३२२॥
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ब्राह्मणादिवर्णानामेकपंक्तीभोजननिर्णयवर्णनम् २५५६ चलं कृत्वाऽर्धसावित्र्या हुवेदेकाहुतिं तथा। स्वयंकृत्वाखिलं कृत्यं यद्यद्योग्यं यथा तथा ॥३२३॥ पश्चात्तद्दत्तकोस्मिन्नुपविष्टो (१) जनोऽथवा। दधिवृते वापिसावित्रितांशलाकया(?) ॥३२४।। लेखयित्वा च संपूज्य ध्यानावाहनकर्म च । धूपदीपौ विधायैवं नैवेद्यचप्रदक्षिणम् ॥३२॥ नमस्कारानूनीराजनोपचारानखिलपि(?) । स्वयंकृत्वा तेन चापि कारयित्वा च तत्परम् ॥३२६॥ तत्प्राशयेद्विधानेन तेनासौ कृतकृत्यताम् । प्रयातीति विधिप्राह ततौ नित्यसमौ पुनः ॥३२७।। संध्यात्रयंञ्चाभिनयक्रियया सर्वमाचरेत् । ब्रह्मवीजसमुत्पन्ना माहात्म्यादष्पसं (१) परम् ॥३२८॥ अंतर्भावद्विजेष्वेव प्राप्नोति किल नान्यथा । न मंत्रैकस्य संस्कारो विद्यते सर्वथा ह्ययं ॥३२६॥ सर्वसाम्यन्नैव भजे न योग्यो हव्यकव्ययोः । यद्ययं तनयः पित्रोरेकरावभवेद्यदि(?) ॥३३०॥ पैतृके कर्मणि तथा प्रप्ता (१) संन्नस्तुवांधवः । तत्कर्तृत्वे यतःकश्चितन्मंत्रोच्चारकोभवेत् । तन्मंत्रकृत्प्रणत्वेवं दशाहं सूतकी भवेत् । तेनैव तत्क्रियाजालं निखिलं कारयेतथा ॥३३॥ पुत्रान्तरस्ये सद्भावे मूकपंग्वादयस्तदा । निरंशालवकथिताः (१) तत्प्रजाश्चापितादृशम् ॥३३३।।
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२५६०
कपिलस्मृतिः वैदिके का(लौकिके कृत्ये न साम्यं स्यात्तु बंधुभिः । निखिलब्राह्मणैरन्यैः कृपया ते विमत्सरैः ॥३६४॥ पालनीया गोपनीया रक्षणीयाश्चसन्ततम् । स पंक्ति योग्य अस्पृश्याः द्विजाने नृपैस्समाः ।।३३।। क्षत्रियश्चेत्समा वैश्याद्र(त)श्ने(श्चे)ज्जघन्यजैः । न विप्र पंड्मा(क्तौ)राजन्यः सुस्थेयोभोजनादिषु ॥३३६।। एवं राजन्य पंक्तयाञ्चेदूरुजोज्ञयउच्यते । उरव्यपंक्तौ शूद्रोपि नोपविश्यतमो भवेत् ।।३३७॥ राजन्यग्रहमुक्तौ तु ब्राह्मणस्य पृथक्स्मृता । पंक्तौसदा तथा वैश्य(१)ग्रहभुक्तौनृपस्य च ॥३३८॥ विप्रस्य वा पृथक् पंक्तिर्न समान्यत्रकुत्रचित्(१) । पार्श्वयोरभिमुख्ये वा पश्चाद्वा पंक्तिरुच्यते ॥३३॥ सततं भिन्नजातीनां पश्चाच्छूद्रस्य नैकदा । समकालभुजः प्रोक्ता द्विजानां पंक्तिभेदतः । त्रयाणामप्येकदेवभोजनंविधिचोदितं ॥३४०॥ समानमु(भु)क्तिर्मर्यादात्तत्तज्जातिषु संततं । अंधपंगुजड़ोन्मत्तमूकादीनां तथैव वै ॥३४॥ समा पंक्तिः कदाचिन्न कर्मन्यूना यतस्तु ते । भिन्नपंक्तौ भोजनीयाः समकालेपि सन्ततं ॥३४२॥ समानपंक्तौयदि ते भोजिताः प्रत्यवायिनः । भवंत्येवात्र मंदेहा नैवेति ब्रह्मवादिनः ॥३४३॥
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विप्रमहत्त्ववर्णनम्
२५६१ अथ पंगुजड़ोन्मत्तमूकादिसमभोजने । प्राजापत्यं प्रकथितं प्रायश्चित्तं द्विजोत्तमैः ॥३४४|| अंधस्य मंत्रसामर्थ्य यद्यप्यस्ति तथाप्यति । समीक्षणादि कृत्येषु यतो वैकल्यमेव तत् ।।३४५।। स्पष्टं प्रत्यक्षमेतत्तु न सर्वैस्सद्विजैस्समः । पङ्गोर्गमनकृत्येषु वैदिकेषु निरंतरम् ॥३४६॥ वैकल्यं स्पष्टमेवैतत् तद्द्वारा तस्य केवलम् । ब्राह्मण्यपरिपूर्तिन जडोन्मत्तौ तथैव हि ॥३४७॥ मूकस्य मंत्रसामान्याभावादेव निरन्तरम् । ब्राह्मण्यलेशोऽपि कथं तस्य स्यादिति पश्यत । ब्रह्मवीर्यक्षेत्रमात्रसमुत्पत्तिमहत्त्वतः । पुनस्तन्मंत्रकायैश्च न भवेद्भिन्नजातिकः ॥३४८।। दिव्यसम्पूर्णविप्रत्वमपि नास्ति ततःकिल । तत्तुर्यपंक्त योगेन क्षत्रवैश्यसमो ह्यतः ॥३४६।। क्षत्रादीनां विप्रसाम्यं कुतो नास्तीति चेदथ । प्रोच्यते कारणं तच्च तच्चोपनयनं महत् ॥३५०।। ऋतुव्यत्यस्ततः पूर्व व्यत्यासाद्वयसः परम् । दण्डभेदात् क्रियाभेदाद्विवाहादिविभेदतः ॥३५॥ वेदाध्ययनभेदाश्च तथा भिक्षाप्रभेदतः। तस्यास्य च महत्प्रोक्त तारतम्यं निरंतरम् ॥३५२।। तेन सर्वेऽपि विप्रस्य प्राप्नुवन्ति कथं महत् । साम्यं तत्सर्ववंद्य हि देवानामपिदुर्लभम् ॥३३॥
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कपिलस्मृतिः
ब्रह्माद्य: प्रार्थनीयश्च बहुजन्मतपश्शतैः । संप्राप्त' श्रुतिभिर्गीतं सर्ववेदकृताश्रयाः || ३५४ || यद्वदकृत्ययोग्यन्तत् ब्राह्मण्यं दिव्यमुच्यते । असावसाविति स्थाने प्रवरोक्ता महर्षयः || ३५५ || संबुध्य किल वक्तव्याः सर्वेष्वेवाविशेषतः । कृत्येषु वैदिकेष्वेषु दर्शादिष्वखिलेष्वपि ॥ ३५६ ॥ ते शुद्धगोत्रिणः स्युर्वै तदा वक्तुं समञ्जसम् । अध्वर्युणा तेन होत्रा शक्यं तेऽन्यस्य नैव हि ॥ ३५७॥ अन्यगोत्रप्रविष्टस्य सुतो यः पूर्वगोत्र्यभूत् ।
।।३५८।।
।।३५६ ।।
परप्रदानपूर्व वै ज्ञातीनामभ्यनुज्ञया तत्पुत्रपौत्रपर्यन्तं तस्य तत्संत तेरपि । पित्रा चारणे तस्मिन्पैतृके समुपस्थिते क्रमान्न शक्यते यस्मात् त्यक्तपुत्रादिकं न्यसुः । दत्ततत्पुत्रतत्पुत्रतत्पुत्राणामतोऽखिलाः ॥३६०|| वेदप्रोक्ताः क्रियास्सर्वा स्थानंकत्तु समञ्जसम् | प्रवरोक्तयोग्यतायाः अभावान्न्यंगनैच्यके || ३६१|| तत्संततौ चतसृणां (त्रयाण) स्यात्पूर्षाणां हेन्यमुत्तमम् । तच सम्यक् प्रवक्ष्यामि सुस्पष्ट शृणुताधुना ॥ ३६२|| त्रिष्वेष्वाद्याः त्यक्तपिता पश्चात्यक्तपितामहः । प्रपितामहानसंत्यागी क्रमात्ते वर्णिताः किल || ३६३|| तत्र यद्यपि दत्तस्तु शुद्धवत्प्रतिभाति हि । पित्रादित्यागशून्येन सर्वपित्र्येषु संततम् ॥३६४||
२५६२
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नान्दीश्राद्धप्रकरणवर्णनम्
२५६३ अथापि नान्द्यां तस्यापि वैकल्यं जायते किल। प्रपितामहीपूर्व वै वृद्धशब्देनसंयुतम् ॥३६५।। समुच्चार्यास्तत्रदेवाः सप्तमस्त्वष्ट(षष्ठ)पंचमौ। त्रयस्त एते तद्वर्गयुगलं षट् किलाभवन् ॥३६६॥ मातामहाः सपत्नीकाः नान्दीयं नवदेवता। पितृवर्ग मातृवर्ग त्यजतेऽनेनशास्त्रतः ॥३६७।। स्वमातामहवर्गस्य भिन्नगोत्रस्य सांप्रतम् । जन्ममात्रैकसंप्राप्तिमतरत्यागः कथं भवेत् ॥३६८।। तञ्च तच्चद्वयंग्राह्य मातामहकुलं वरम् । मोहात्तथा न कुर्वन्ति तेनैते त्वघभागिनः ॥३६६।। भवत्येवावशात्तूष्णीं त्यक्तमातामहो यतः । पितरौ सुतदानस्य कालेशक्तौ स्वसंततेः ॥३७०।। कतुं च्युतेः स्वभिन्नस्य तद्गोत्रस्य च केवलम् । च्युतीकरणकार्याय कथं शक्तौ भविष्यतः ॥३७१।। मत्सुतागर्भसंभूतं शिशुमेनं तथाविधम । अस्मद्गोत्रैककर्तव्यं निवृत्तीकरणाय वै ॥३७२।। को युवामिति पृच्छन्ति दानकाले समागताः । तन्मातामहसंदोहाः पितृभ्यां किल यद्यपि ॥३७३।। दत्तोऽपि तैर्नदत्तो हि तन्मातामहवृन्दकैः । तदा मातामहाभ्याञ्च त्यक्तोऽयमितिमंत्रतः ॥३७४।। समुत्सृष्ट इतिप्रोक्त बाधकं न तदा भवेत् ।'३७।
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२५६४
कपिलस्मृतिः तस्मादत्तसुत्तो लोके भिन्नगोत्रेषु कर्मसु । विवाहादिषु तवे द्रोहिणःस्युर्न संशयः ॥३७६।। ये देवहेलनपराः संत्यक्तस्वीयदेवताः। स्वदेवतासकाशान्ते च्यवन्ते नात्र संशयः ॥३७७।। तस्मात्परां गतिं दिव्यां प्राप्नुवंति न चैव हि । पापीयसो भविष्यंति भवेयुर्नरकालयाः ॥३७८।। तदाने तु यथापित्रोः सम्मतिः परमा भवेत् । तन्मातामहयोस्तद्वत् सम्मतिश्चतदायदि ॥३७६।। भवेदोषो नैव भवेदितिवेदानुशासनम् । यथा संत्यक्तपित्रादिः लोके भवति निन्दितः ॥३८॥ त्यतिमातामहश्चापि तथैवेति न संशयः । (तथैवस्यान्न संशय इतिपाठान्तरम् ।। दद्यातां दम्पती पुत्रं गृह्णीयाताञ्च दम्पती ॥३८॥ तयोरेवाधिकारोऽयं तदाने तत्प्रतिग्रहे । संप्रदाने तु पुत्रस्य तन्मातामहयोरपि ॥३८२।। अभ्यनुज्ञां विशेषेण कक्षिणीया तथा पुनः। पश्चापितामहादीनां बन्धूनामविशेषतः ॥३८३।। सतां गुरूणां महतां ज्ञातीनाञ्च सगोत्रिणाम् । तग्रामवासिनां चापि वणिजामधिपस्य च ॥३८४|| वृषलानामपि तथा तत्रत्यानांकृतात्मनाम् । सर्वेषामपि वर्णानां सम्मत्या तत्समाचरेत् ॥३८५।।
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दत्तकपुत्रप्रकरणवर्णनम् २५६५ परिग्रहं संप्रदानमन्यथानर्थ एव वै। भवेदेव शनैःकालात्तं गृह्णन्जनसन्निधौ ॥३८६।। होमःसद्यः प्रकर्त्तव्यः व्याहृतीभितेन वै। प्रभ्रंशाय पितुर्गोत्रात् स्वत्वसंपादनाय च ॥३८७॥ गोत्रप्रवेशसिद्धयर्थ प्रतिगृह्य च तं पुनः । कृत्वा होमं व्याहृतीनामाज्येनाष्टोत्तरं शतम् ॥३८८।। धर्मायत्वेति मन्त्रेण संतत्यै कर्मणेति च । हरिद्राजलपानञ्च कुर्यादयव तन्त्रतः ॥३८६।। एवं कृते त्वन्यसुतः कर्मणे स्वस्थकालतः । योग्योऽयं प्रभवेत्पश्चात्तज्ज्ञातस्तु स्वकं सुतम् ॥३६०॥ तज्ज्ञातिप्रार्थनापूर्व व्यूहयित्वाखिलानपि । नमो महद्भ्य मन्त्रेण नमस्कृत्वाखिलान्वकान् ।।३६११॥ दत्वा शतं सहस्र वा परं प्राञ्जलिरास्थितः। वदेवं प्रपश्यन्तो परं संगृह्य मामकम् ॥३६२।। तनयं मम ते यूयं कृपया स्वीयगोत्रके । मौञ्जीबन्धनकृत्याय स्वीकृत्यानतचेतसा ॥३६३।। इति संप्रार्थ्य तेषां वै संनिधावेव केवलम् । प्रतिष्ठाप्य विधानेन कृत्वा कर्माणि शास्त्रतः ॥३६४॥ अभ्यञ्जनमुखादीनि मंगलार्थानि यानि वा। तानि सर्वाणि तत्पश्चात्तस्मिन्नग्नौ यथाविधि ॥३६॥ हुवेत्तदाहुतिस्सर्वास्तद्गोत्रावेशकारकाः । कुलमन्यदाविशादस्मज्जमिमंकुमारसहसे पिता
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कपिलस्मृतिः महस्यामुष्यायणस्यगोत्रं प्राकृतं प्रापयाग्नेस्वाहा । कुलमन्यदाविशादस्मजमिमकुमारमोजसे पितामहस्यामुष्यायणस्य गोत्रं प्राकृतं प्रापयाग्नेस्वाहा ।। कुलमन्यदाविशादत्मजमिमं कुमारं बलायपितामहस्यामुष्यायणस्यगोत्रं प्राकृतंप्रापयाग्नेस्वाहा । कुलमन्यदाविशादस्मजमिमं कुमारं तेजसे पितामहस्यामुष्यायणस्य गोत्रं प्राकृतं प्रापयाने स्वाहा । कुलमन्यदाविशादस्मज्जमिमं कुमारं वर्चसे पितामहस्यामुष्याणस्य गोत्रं प्राकृतं प्रापयाग्नेस्वाहा । कुलमन्यदाविशादस्मजमिमं कुमारं हरसे पितामहस्यामुष्यायणस्य गोत्रं प्राकृतं प्रापयाग्ने स्वाहा । कुलमन्यदाविशादस्मज्जमिमं कुमारं भ्राजसेपितामहस्यामुष्यायणस्य गोत्रं प्राकृतं प्रापयाम्ने स्वाहा । कुलमन्यदाविशादस्मन्जमिमं कुमारमिंद्रियाय पितामहस्यामुष्यायणस्य गोत्रं प्राकृतं प्रापयाग्नेस्वाहा । कुलमन्येति मन्त्रेण हुत्वैकादशसंख्यया । कृत्वा जपादि होमञ्च हरिद्रासलिलं ततः ॥३६६।। पश्चात्तु मातृभिक्षार्थ प्रायश्चित्ताद्विधानतः । एवं कृते तस्य सूनोः मौजी कर्मणि तत्परम् ॥३६॥ पितामहस्य गोत्रेण संयुक्तो जातइत्यपि । सिद्धभवति शास्त्रेण तत्प्रपौत्रस्य तत्परम् ॥३६८।।
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दत्तकपुत्रप्रकरणवर्णनम्
२५६७ यदि जातस्सुतः सोऽयं सम्यक्शुद्धो न संशयः । स योगकर्मणां योग्यस्तदाद्यत्वे हि तत्कुले ॥३६॥ तद्योग्यता जायते च तावत् दत्तस्य संततिः । अयोग्यता कबलिता न्यंगनैच्यप्रपीडितः ॥४०॥ तद्दायाद्यशसाम्यादि कुण्ठिता श्रीबहिष्कृतः । स्वजनैकप्रसादश्रीकामुकास्तन्जनाश्रिताः ॥४०१॥ कुर्वती चातकी वृत्ति प्रतिष्ठति हि भूतले । कर्मठत्वसजातित्वतत्समत्वादिसिद्धये ॥४०२॥ पित्रादीनां त्रयाणाञ्च क्रमोक्तःसिद्धिरुत्तमा। यदा सञ्जायते सम्यक् प्रवरस्य च तत्कुले ।।४०३।। तथैव साम्यसिद्धिःस्यात् अंशभाक्त्वञ्च जायते । ब्राह्मण्यञ्च समीचीनं तथा यागाधिकारिता ॥४०४।। यथा पुत्रस्य तातस्य चोभयोभिन्नगोत्रता । तदेव त्रिदिनाशौचं संस्पष्टं मातुरेव च ॥४०॥ गांधर्वादिविवादस्तैयदि माता विवाहिता । तदा पितुः स्यात्रिदिनं तन्मृतौ सूतकं मतम् ॥४०६।। मातामहस्य गोत्रेण मातुः पिण्डोदकक्रियाः। कुर्वीत पुत्रिकापुत्र एवमाह प्रजापतिः ॥४०७॥ पितुश्चेत्सूतकं पूर्ण तथा मातामहस्य च । मातुलस्य च तत्पन्या यतस्तद्गोव्ययं स्मृतः ।।४०८।। यत्र मातुर्विवाहे तु दानं जातन्तु(तत्स्मृतः)शास्त्रतः । तत्र सप्तपदाख्यं च कर्म संजायते स्वतः ॥४०६।।
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२५६८
कपिलस्मृतिः स्वगोत्राद् भ्रश्यते नारी विवाहे सप्तमे पदे । लाजाहोमप्रधानाभ्यां प्रवेशो भगोत्रके ॥४१०|| स्त्रीजाते सर्वकार्येककर्तृत्वाभार ईरितः। नित्यं पराधीनता च न स्त्रीस्वातन्त्र्यमर्हति ॥४१॥ बाल्ये पित्रोरधीना सा पत्युरेव तु यौवने । वार्धके तनयानाञ्च स्वातत्र्यं न कदाचन ॥४१२।। कन्यादाता ब्रह्मलोकं पुत्रदो निरयं व्रजेत् । दाक्षिण्यमपि कारुण्यं कृपा यत्र प्रजायते ॥४१३।। पितृबन्धुगुरूक्तिश्च तत्रापदि कुलस्य च । यदि स्यात् बहुपुत्रत्वं तदैकस्यैव केवलम् ॥४१४॥ स्वगोत्रिणे स्वान्यभ्रात्रे स्वकुलीनाय वै सते । नैच्यन्यङ्ग करहितो लोभाशा परिवर्जितः ॥४१॥ दीयमानस्य तस्यापि न्यंगनैच्ये यथातराम्(१) । न भवेतां तथालोच्य तस्य वृत्ति तथादृढाम् ॥४१६।। एवमेतादृशीं सम्यक् दृढयित्वेति लोकतः । राजतोऽपि विनिश्चित्य दानं कुर्यादिति श्रुतिः ॥४१७॥ एवं दत्तस्य पुत्रस्य काले बहुगते ततः । केषुचिच्छुभकृत्येषु मातामहविवादतः ॥४१८।। शास्त्राणि भिन्नभिन्नानि बहूनि किल सन्ततम् । व्यक्तानि मतभेदेन तस्य मातामहद्वयम् ॥४१६।। जनन्या जनकश्चेति जनको ग्राहकस्य च । त्रेधा विकल्पितो...बभूव किल केवलम् ॥४२०।।
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२५६६
दानप्रकरणवर्णनम् विवादोऽयं परं त्वत्र तन्मात्रस्यैव जायते । न तस्य संततिः प्रोक्ता भिन्नगोत्रप्रदस्य चेत् ॥४२॥ आत्रिपूषं तत्सुतस्य तेन साकं तु पैतृके। परं सपिण्डिमारभ्य कुमार्गः संभवेत्खलु ॥४२२॥ तेन तावत्तस्य कुले जातानामात्रिपूर्षतः । विप्रत्वदन्यताज्ञाति भागसाम्यैक शून्यता ॥४२३।। न्यङ्गता नैच्यतातीव तज्जनाश्रयता तथा । तबन्धुमित्रपुत्रादि जनचित्तानुवर्तिता ॥४२४॥ एता भवन्ति सततं तस्मात्पुत्रं पिताहता । स्वल्पागतिं समीक्ष्यादौ न दद्याद्भिन्नगोत्रिणे ॥४२५।। पश्चात्तु तावता गाढं बाधकं प्रभविष्यति । येन केनापि दुर्वारमाचतुष्टयपूरुषम् ॥४२६।। सर्वदानानि सर्वैश्च कर्तव्यानि मनीषिभिः । शक्तौ सत्यां विशेषेण पुण्यकालेषु तेषु वै ॥४२७॥ वेदशास्त्रपुराणादि चोदितेषु युगादिषु । अोदये महोदये चन्द्र सूर्योपरागके ॥४२८॥ धरादानं प्रशंसन्ति सर्वदानोत्तमोत्तमम् । धेनुदानं वाहदानं गजदानं तदा न सः ॥४२६।। रथदानं वस्त्रदानं वार्षभं दानमेव च ।। शय्यादानन्तुलादानं कल्पवृक्षाख्यकं परम् ॥४३०॥ गोदानं रत्नदानञ्च पुष्पताम्बूलयोरपि । सुगंधं चन्दनमहो पवनोशीरसझनाम् ॥४३१॥
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२५७०
कपिलस्मृतिः चूणकुडमतकोल महौषधजलौकसाम् । पद्मोत्पलरमाजाजिकङ्गारहरिभूभुजाम् ॥४३२॥ गुड़ाज्यलवणक्षीरदधिकर्दमचूलिनाम् । हिरण्यरजतश्वेतकर्णिकाचटमालिनाम् ॥४३३।। धनानामपि धान्यानां सप्तानां पंचकात्मनाम् । महाचन्दनकाष्ठानां कर्पूरेलामरीचिनाम् ॥४३४॥ दिव्यानां देवपुष्पाणां क्रमुकाणां विशेषतः। फलानामपि शाकानां भूषणानां विशेषतः ॥४३।। कम्बलानां च दिव्यानां द्विपटानां सुपक्षणाम् । उष्णीषोत्तरधार्याणां माध्यानां मुखवासनाम् ॥४३६।। तिरस्करणिकानां च रज्जूनां दीर्घसूत्रिणाम् । शोभनोभयतो मुख्याः सवत्सायाः पृथक्पुनः ।।४३७।। गोसहस्रस्य चित्रस्य तिलपद्मस्य शूलिनः । शूलस्य दक्षिणामूर्तेरयसच्छागमेषयोः ॥४३८।। हिरण्यगर्भसंज्ञस्य लांगलस्य कपालिनः । साशिभ्राण(सलिंगस्य)महामूर्ते भस्मरुद्राक्षयोः पृथक।।४३६ महालिङ्गस्य लिङ्गस्य बाणलिङ्गस्य कर्मणः । ताम्रसीसादिपात्राणां दासीदासादि देहिनाम ॥४४०।। पुनरन्यानि दानानि पात्रदत्तानि शास्त्रतः । कामनारहितानि स्युः ब्रह्मज्ञानाय केवलम् ॥४४१।। पारमेश्वरतुल्यैकद्वारा नो चेत्तु वै पुनः। कृतानि कामतःसद्भिः तत्तत्कार्यकराण्यति ॥४४२॥
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दानप्रकरणवर्णनम्
२५७१ यद्यत्कामनया कर्म क्रियते तत्तु तत्पुनः । सद्गमाच्छिद्रसगुणमलोभाशाठ्यसंयुतम् ॥४४३।। मन्त्रतंत्रादिवैकल्यरहितं चेत्फलत्यदः । यत्किंचिदङ्गलोपेऽपि काम्यं कर्म न सिध्यति ॥४४४।। अप्यनेकाङ्गविकलं क्रियते पारमेश्वरम् । तत्कर्म सफलं सद्यः भविष्यति न संशयः ॥४४।। तस्मात्सद्भिः सदाकार्य कर्ममात्रं न संशयः(निरन्तरम्) । परमेश्वरतुष्टयर्थ चित्तशुद्धयर्थमादृतः(मात्मनः) ॥४४६।। स्वीयस्य दानं कुर्यात्तु नान्यदीयस्य वस्तुनः । न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य प्रदाने योग्यता भवेत् ॥४४७॥ अन्यायेनार्जितंद्रव्यं चौर्यव्यामोहनादिभिः । संप्राप्तमागतश्चापि दानयोग्यानि चाचरेत् ॥४४८।। कृतेन दानेन यथा परपीडा न जायते । वृथा तथा प्रकुर्वीत दानं धर्माय तत्परः ।।४४६।। परपीडाकरं दानं दातुस्तग्राहकस्य च । उभयोर्नरकायैव फलिष्यति न चान्यथा ॥४५०।। दानेन यस्य कस्यापि यथा पीडा व्यथा तथा । दुःखमादिश्च संमोहस्तथा कुर्यानचेद् वृथा ॥४५१।। न सामान्यं धनं देयं अल्पं वा महदेव वा। सामान्यवस्तुदानेन कलिं विंदति तत्क्षणात् ॥४५२।। यत्संदिग्धं परास्वाद्य संशयं वस्तु केवलम् । अदेयमेव सततं यत्तद्धमैकभीरुणा ॥४५३।।
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२५७२
कपिलस्मृतिः शुद्ध सत्वेन सुस्पष्टमनाकाक्ष्यं परैरपि । यद्वस्तु दीयते तत्तु परलोकाय युज्यते ॥४५४|| यद्वस्तु स्यात्परप्राप्यं कालेन शनकैस्तु तत् । अदेयं सर्वथा प्रोक्तं चोरस्तद्ग्राहकश्च यः ॥४५५।। क्रयश्चतादृशस्यैव वस्तुनः विधिचोदितः । कर्त्तव्यत्वेन तद्भिन्नं वस्तुनो न कदाचन ॥४५६।। राजतत्तुल्यतर्भूत्यतत्प्रेष्यपितृबन्धुभिः । तत्समैर्बलवद्भिर्यहत्तं सिद्धयति संततम् ॥४५७।। तद्भिन्नैर्दुर्बलैरन्यैः दत्तं यच्छास्त्रवर्मना । विशुद्धागमनं प्राप्तं चेत्सिद्धयति न चेतरत् ॥४५८।। यस्य प्रदानकर्तृत्वं शास्त्रागमसुनिश्चितम् । तेनैव दत्तं सर्वत्र सिद्ध्यत्येव न चेतरत् ॥४५॥ प्रतिग्रहेण लब्धाय भूमिग्रामोऽथ वर्णकः । माद्याख्यस्सीमनामा वा विद्यासंभावनादितः ।।४६०।। तेषां प्रतिग्राहयिता यजमानस्स एव हि । कर्ता कारयिता चापि स्वामी गोप्ता प्रवर्ततः ।।४६१।। स एव सर्व कथितः निग्रहानुग्रहादिकृत् । यदि तेन कृतास्तेषु, वृत्तयो वर्णकादिषु ॥४६२।। कालेन दत्तासद्यो वा ताः पुनःस्वेच्छयाऽथवा । परप्रेरणया वापि स तासां पतिरेव हि ॥४६३।। राज्ञा तथा कृताश्चेत्तु वृत्तयो द्विजहेतवे । सामान्यतस्तदा कर्ता तत्र राजा प्रभुस्सदा ।।४६४||
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दानप्रकरणवर्णनम्
२५७३ विशेषेण प्रदत्ताश्चेत्तत्तन्नाम्ना पृथक् पृथक् । अंशभेदेन तत्रापि तदा सर्वे तथा मताः॥४६॥ तावन्मात्रस्य कर्तारः मिलित्वा निखिला अपि । तस्मिन् ग्रामे तु कर्तारो निग्रहानुग्रहादिषु ॥४६६।। तत्तत्स्ववृत्तिषु परं कर्तृत्वं पृथगुच्यते । स्ववृत्तिभिन्नवृत्तीनां न कर्तारस्तु ते स्मृताः ॥४६७।। भूमेामादिरूपाया दत्तया स्वेन वान्यतः । प्रभुनराजा कथितः कर्त्तारोग्राहकाः स्मृताः ॥४६८।। तेह्यावश्यकस्यकार्यस्यकर्त्तव्यत्वे ह्यवस्थिते । तदा राजैव तत्कार्य कर्ता सम्यग्भवेद्धृवम् ॥४६॥ यतो हि जगतो राजा कर्ता दण्डयिता पिता । पालकश्च गुरुीकृत् निग्रहानुग्रहैकभूः ॥४७०।। एकद्वित्रिचतुर्वृत्तिमत्प्रभेदजनाश्रयः । ग्रामो यदि तदा तत्र तत्तन्मात्राधिकारिणः ॥४७१।। नाधिकस्य तु कर्तारः भवेयुरिति शास्त्रहृत् । सामान्यबलवत्कार्ये कर्त्तव्यत्वेन चागते ॥४७२।। सर्वे मिलित्वाकुर्वन्ति(वीरन्) एकबुद्ध्यैव नान्यथा । स स्वामिकग्राममध्ये बृहत्कार्ये निपातिते ॥४७३।। स्वाम्युक्तवर्त्मना सर्वे तत्कायं साध्यमित्ययम् । पक्षस्तु सर्वशास्त्राणां तत्र चापि स एव हि ॥४७४।। निर्वाहकः स्यादित्येव जाबालादिमतं परम् । अस्वामिकग्राममध्ये क्लप्तद्विजनिरन्तरे ॥४७॥
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२५७४
कपिलस्मृतिः न भिन्नग्रामिणा कार्यः क्रीतवृत्ति परिग्रहः । स्वीकारात्क्रीतवृत्तेस्तु वृत्तिमद्भिविशेषतः। तस्मिन्प्रामे न चान्यैस्तु कृता यदि न सिद्धयति ।।४७६।। ये प्रतिग्रहिणः पूर्व साक्षात्कर्तृ मुखात्परम् । अत्युत्तमाः कर्तृतुल्याः तत्सकाशप्रतिग्रही ॥४७७|| तत्तत्समो दुर्बलोऽयं यदि तेन समं कलौ । विवदेत्कार्यकालेषु सत्कार्येऽसौ महात्मभिः ॥४७८।। समानमपि वादं यः श्रुतं श्रुत्वा तु शक्तिमान् । तन्निग्रहमकुर्वाणो दुर्गति प्रतिपद्यते ॥४७६।। यदि स स्वामिको ग्रामस्तदा तन्मतपूर्वकम् । दानमाधि क्रयञ्चापि कुर्वीतैव न चान्यथा ॥४८०॥ ग्रामःसस्वामिको यो वा तस्मिन्वै तदनुज्ञया । क्रयादिदानकर्माणि कार्याणीति प्रचक्षते ॥४८॥ पुत्रपौत्रज्ञातिबन्धुसामन्ताद्यभ्यनुज्ञया। शुद्धचित्तेन यद्दत्तं तत्सिध्यति हि संततम् ॥४८२।। अन्वये सति भूदानं सहसा वनमाचरेत् । सर्वैरालोच्य सर्वेषां पर्याप्ता भूस्थिता यदि ॥४८३।। स्वगोत्रिणां सपिण्डानां समालोच्यैव केवलम् । वेदशास्त्रस्मृतिन्यायाविरोधेन ततः परम् ॥४८४॥ जनमत्या ज्ञातिमत्या बंधुमत्या सहादिषु । सर्वेषां पश्यतामारात् न्यायाप्तधरणी त्यजेत् ॥४४।। समीपज्ञातिदुष्टिश्चेद् भूदानाद्भिन्नगोत्रिणाम् । शक्यते हि तदा कत्तुं तहानं तु न चेञ्चरेत् ।।४८६।।
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दौहित्रप्राधान्यवर्णनम्
२५७५ दौहित्रसाम्यमात्रा येविभक्ता ह्यनु तस्य कुम् । नेच्छेयुरेव धर्मेण तामिच्छन्तः पतन्त्यधः।।४८७॥ विभागा ज्ञातयस्सर्वे भिन्नभिन्नाः स्मृताःपरम् । तत्तद्धनाना ते ते स्युःकरिश्वपृथगग्रहाः ॥४८८।। अपुत्रस्य धनं ज्ञातेर्विभक्तस्याखिलं भवेत् । दौहित्रस्यैव धर्मेण न ज्ञातेस्तु कथंचन ॥४८६।। ज्ञाती खलु सगोत्रस्य धनार्थं प्रेतकर्म यत् । तावन्मानं करोत्येव प्रत्यब्दश्च न चेतरत ॥४६०॥ दौहित्रश्चेद्धनाभावेऽप्यस्य सर्वेषु कर्मसु । पुत्रेण समतो नित्यं स्वविवाहानिलेऽद्भुते ॥४६।। असाधारणके मुख्येऽप्यनौकरणपूर्वकम् । ... सर्वश्राद्धानि नित्यानि करोत्येवाजुगुप्सितः ॥४६२॥ अमात्यो न तथा कापि किं करोति स्वगोत्रिणे । तस्मादभावे दौहित्रजनस्य किल तत्परम् ॥४६३।। असुतस्य धनं तत्तु प्रत्यासन्नः सपिण्डकः । यो वा सतु गृह्णीयादिति वेदानुशासनम् ।।४६४|| दौहित्राणामनेकेषां समवाये तदा किल । (श्राद्धानि नित्यानि करोत्ये वा जगुप्सितः)। यो वाऽत्यन्तं निर्धनः स्यात् सधर्मेण हरेद्धनम् ॥४६॥ समवाये निर्धनानां सर्व एव यथांशतः । पुनश्च निर्धनेष्वेषु धनिनस्तस्यतन्मनः ॥४६६।।
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२५७६
कपिलस्मृतिः यथा भवति (वदन्ति) तद्रीतिमनुसृत्य न चान्यथा । चरेयमिति सश्रीमान कपिलो व्याजहार ह ॥४६७॥ दौहित्र एव सर्वेषां पुत्राणामुत्तमः स्मृतः । तत्समस्त्वौरसस्तजः सुतश्चापि तथाविधः ।।४६८।। अपुत्रो बहुवृत्तिश्रीः विभक्तो ज्ञातिगोत्रिभिः । वृत्तिदानं प्रकुर्वाणो यथेच्छं कर्तुमर्हति ॥४६॥ स्वग्रामज्ञातिसामन्तादायादानुमतेन वै । मेघपुष्पसुवर्णाभ्यां कार्य भूदानमेककम् ॥५००।। सर्वाण्यन्यानि दानानि शास्त्र स्वीयानि छंदतः । तुष्टये परमेशस्य कार्याण्येवान्वहं यथा ॥५०१॥ यथा वा कन्यकादाने गोत्रभिन्नमनन्तकम् । तथाच्युतपदप्राप्तिसाधनं कथितं तथा ॥५०२।। स्वगोत्रम्मुख्यतो ज्ञेयं भूमिदानं पुरातनैः । कृतं कारयितश्चापि शास्त्रज्ञैरपि नैकधा ॥५०३।। उक्त प्रोक्तं प्रगीतं च सामादि त्रितयेन च । अभावे पुत्रयोवंशे भूमिदानं ततश्चरेत् ॥५०४।। सति वंशे वृत्तिदानं क्रयो वा तस्य नाचरेत् ॥ जाता जनिष्यमाणाश्च गर्भस्थाश्चापि देहिनः ॥५०५।। वृत्तिमेवाभिकांक्षन्ते तस्माद्वृत्ति प्रपालयेत् । अन्वये सति पुत्रस्य पुत्रिकाया विशेषतः ॥५०६।। वृत्तिरूहं भुवं मोहाद्दत्वा निरयभाग्भवेत् । विचक्षणो भूमिदाने शक्तस्तनयवर्जितः ॥५०७||
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भूमिदानप्रकरणवर्णनम् सगोत्रेभ्यो विशेषेण दद्यात् भूमि सदक्षिणाम् । भूमिदाने भ्रातृपुत्राः भ्रातरःपितरस्तथा ॥५०८।। पितामहाः पितृव्याश्च प्रद्वष्टारोऽपि पात्रताम् । प्रयान्ति च कृपादाजं प्रापकाः प्रभवन्त्यपि ॥५०६।। तस्मात्संततिविच्छित्तौ भूमिदानं सगोत्रिषु । कुर्वीत धर्मतो गत्वा संप्राश्य॑नां दुरात्मनः ॥५१०।। विशेषण तु विद्वांस त्यक्तवैरो हरि स्मरन् । कुर्यादेव ततो याति तद्विष्णोःपरम पदम् ॥५१।। निवारितो दानकाले न तद्दानं समाचरेत् । ज्ञातिपीड़ाकरं दानं महारौरवदायकम् ॥५१२॥ यज्ज्ञातिहत्तुष्टिकरदानं शिवपदप्रदम् । विदुषो ज्ञातिबन्धून्वा स्वयमज्ञो बलापि वा ॥५१३।। निगृह्य भूवृत्तिबन्धुदानं सद्गतिवारकम् । विभक्त ध्वपि विद्वत्सु भ्रातृतत्पुत्रकेष्वति ॥५१४।। महत्सु सत्सु तिष्ठत्सु नरो नारीसमोऽपिवा। श्रोत्रियाश्रोत्रियों मूढो विद्वान्वा वेदपारगः ॥५१।। यः कोऽपि भूमिदानं तत्तेभ्य एव समाचरेत् । सर्वो ज्ञातिजनो नित्यमसंततिधनार्थ्यति ॥५१६।। तस्माद्रिक्थं भूमिरूपं ज्ञातये देयमेव हि । विभक्तरूपा विभवा मध्यप्राप्तसुवृत्तिका ॥५१७।। बहुज्ञातिमती साध्वी मृयमाणापि सुत्रता। बलदभमि विनाज्ञातीनन्येभ्यो न निवेददोल॥१८
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२५७८
कपिलस्मृतिः परं तद्विषये तूष्णीं कलहं नैव कारयेत् । विभक्ता विधवा साध्या दैवात्संप्राप्तसत्कुलाः ॥५१६।। अवशादागतमहावृत्तिमत्यश्चतन्मुखात् । संप्राप्त्यैकमहागः कुमत्यो धर्मबुद्धितः ॥१२०।। अधर्ममेव कुर्वन्त्यः स्वजनद्वषतत्पराः । दानविक्रयकार्यकयोग्यता रहिता अपि ।।२।। तत्कार्यको दुर्बोधमहिम्नायाः खलाश्रयाः । ता विलोक्य प्रयत्नेन धार्मिको नृपतिः स्वयम् ।।५२२॥ देशात्प्रवासयेत्सद्यः तत्प्रतिग्राहकानपि । विधयानामनाथानामज्ञातानां च केवलम् ॥५२३।। पाकंकृतं तथा नाद्यात् सतीनामपि संततम् । रंडापाकं सदात्याज्यं प्रवदंतिमनीषिणः ॥५२४।। रंडावहुविधाज्ञेयाः पाकायोग्याः सदा सताम् । अज्ञातानामका काचित् काचित्प्रज्ञातनामका ।।२।। स्पृष्टास्पृष्टा नष्टसुता सत्पुत्रा चेति सूरिभिः । ता एता निखिला ख्याताः भूतानामधिकारकाः ॥५२६।। पाकक्रिया दूरगाश्च भर्त्तव्यास्साधुवृत्तयः । या भर्तारं न जानाति साज्ञाता कथ्यते बुधैः ॥२७॥ अत्यंतबाल्यसंप्राप्तवैधव्यात्यंतपापभूः । या विजानाति भर्तारं नान्यत्किमपि केवलम् ॥५२८।। सा विज्ञातेति विख्याता विधवा सच्चरित्रका । रतिमात्रेण या मतः वैधव्यं प्रतिपद्यते ॥५२६।।
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वर्जितस्त्रीणांश्राद्धपाककरणेदोषवर्णनम् २५७६ सुखदोषनिमित्तेन स्पृष्टायाविधमुच्यते। पश्चात्तु रजसो भर्तुः संगम्प्राप्य या वशात् ॥५३०।। वैधव्यं समवाप्नोति सा स्पृष्टा विधवा परा। नष्टप्रजा काचिदेवं विधवान्या मनीषिभिः ॥३१॥ नष्टपुत्रेति सम्प्रोक्ता चायोग्या पाककर्मणि । एवं सपुत्रिणी चापि स्वभञ्जमरणात्परम् ॥३२॥ वैधव्यं समनुप्राप्ता सत्पुत्रविधवा स्मृता । सपुत्रा विधवा या तु तया पाकः कृतस्तु यः ॥५३३।। स स्वीकार्यों हि निखिलैः रण्डापाको न च स्मृतः । सर्वा रण्डाःपाककृत्ये दूःपिता स्युर्मनीषिभिः ॥५३४॥ ताभिर्यदि कृताःपाकाः कर्मिणां ब्रह्मवादिनाम् । वणिकानां गृहिणां यतीनां ब्रह्मचारिणाम् ॥५३।। न भक्षणैकयोग्याः स्युनैवेद्याय च नाकिनाम् । बलीनामपि होमानां नालमेवेति वेदहृत् ॥५३६।। रण्डापाकेन यो मोहाद्देवतानां निवेदनम् । होमं बलिं तथा भिक्षा कव्यं हव्यं न भोजनम् ।।५३७।। ब्राह्मणानां स्वस्य चापि कुर्याद्वाकारयेदपि । तत्सवं व्यर्थमेव स्याप्रत्युतप्रत्यवाय्यपि ॥५३८।। भवत्येव विशेषेण तस्मात्तासां प्रमादतः। त्यजेदेव विशेषेण पाकं कृत्स्नं विशेषतः ॥५३६।। तत्कृतेन तु पाकेन यो मोहाज्ज्ञानवर्जितः । श्राद्धं करोति पितरः तत्क्षणात्तस्य केवलम् ॥५४०॥
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२५८०
कपिलस्मृतिः प्रपतन्त्यतिधोरेषु नरकेषु न संशयः। रंडा वैदिकका(?)णां सतां सुमहतामपि ॥५४॥ सर्वथैव न योग्यास्तास्तेषु कर्मसु तन्मुखम् । कर्मादौ कर्ममध्ये वा सर्वथा नावलोकयेत् ॥४२॥ अस्वातन्त्र्यं स्वतःस्त्रीणां सर्वशास्त्रैःप्रचोदितम् । विधवानां विशेषेण रंडानामपि तत्र च ॥५४३।। न कुत्रचित्सद्धर्मेषु यदि ताः पितृमातृतः । भ्रातृतो भत तो वापि भूमहद्भाग्यवत्तराः ॥५४४|| तदा ताभिविशेषेण धनै स्वीयैः क्रमागतः। सतीपथैव संप्राप्त यस्य कस्य च देहिनः ॥५४५।। अपीडाजनकैरेव धर्मः कत्तुं हि शक्यते । भूमि वान्याखिलान्येव दानानि धनवाससाम् ।।५४६।। भूषणानां च पात्राणां शय्याखट्वान्नसाधनाम् । कुर्यादेवान्वहं भक्त्या दिव्यनामस्मृति पराम ॥५४७|| स्नानोपवासनियमगुरुशुश्रूषणादिकम् । सद्गुरूक्तिवचः श्राव्यं पुराणश्रवणं तथा। शक्तौ सत्यां तटाकादिप्रतिष्ठा सुरसद्मनाम् ।।५४८।' वृक्षौघस्थापनं मागें तीर्थचयों तदा तदा । कुर्यादेव स्ववन्धूक्तवचनान्महतामपि ॥५४६।। भूभिन्नमखिलं दातुं तयैव किल शक्यते । पितृतो यदि भूः प्राप्ता मातृतो भ्रातृतस्तथा ॥५५०
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विधवास्त्रीणांकृत्यवर्णनम्
२५८१ भर्तु तो वा तदा तां कुं स्वपश्चात्सा यथा पुनः । तत्तद्वर्गगता सम्यक् तथा यत्नेन भीतितः ॥५५॥ कुर्यादेव न चेत्सेयं भूमिहर्च्यपि जायते । तीर्थकोटिसहस्रस्तु व्रतकोटिशतैरपि ॥५५२।। यज्ञकृच्छ्रसहस्रौधैः भूमिहन्त्री न शुद्धयति । न भूमिहरणात्पापमन्यत्किमपि न विद्यते ॥५५३।। भूमिहीं स्वयं राजा यत्नेन प्रविचार्य वै। सर्वस्वहरणं कृत्वा चोरदण्डेन दण्डयेत् ॥५५४।। अपराधसहस्राणि कृतानि वनिताजनैः । क्षन्तव्यान्यखिलान्येव धरित्रीहरणं विना ॥५५।। कदाचिद्विधवासाध्वी सपुत्रा भत्तुं भाग्यका । सोमपीथिन्यग्निचिच्च संजाता नष्टभर्तृका ॥५५६।। बहुशिष्यधनाग्रामवती पतिमहत्वतः । तादृशी कुलविच्छित्तौ कृस्त्रज्ञात्यौघबंधुभिः ॥५५७।। संप्रार्थिता सर्वशिष्यैः पुनरन्यैर्महात्मभिः । वंशोद्धरणकार्याय महत्तत्सुकृताय च ॥५५८।। सर्वज्ञातिमहाबन्धुजनमत्या सगोत्रिणम् । प्रत्यासन्नं सुतं कृत्वा स्वकुलं स्थापयेदिति ॥५५६।। अतिगुह्यमिदं शास्त्रं प्रसिद्ध वेदशास्त्रयोः। कण्वकाश्यपकाणादकपिलैः समुदाहृतम् ॥५६०।। तादृश्येव तथा कुर्यात् नान्यावारा तु लौकिका। या काचित्प्राकृतात्यल्पा तादृक्तत्करणे बहु ॥५६१।।
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२५८२
कपिलस्मृतिः साधनं प्रवदाम्यद्य तदाद्य तु महत्कुलम् । सुमहाधनसंपत्तिः सहस्राधिकगा परा ॥५६२।। पश्चात्तु ग्रामरूपस्य भूमिभागस्य संस्थितिः । सुमहाशिष्यसंपत्तिः बन्धुसम्पत्तिरेव च ॥५६३।। सर्वक्रतूनां सम्पत्तिः धर्मसम्पत्तिरीदृशी । सर्वेषामप्येकदैव सर्वमत्यैकसंपदा । संयुक्ताश्चत्तथा कतुं ताहगग्निचितस्सतः ॥५६४।। धर्मपल्याः संघटते न चेदेवान्यदेहिनः । अयं हि तनयोद्धारः मथनान्मिथिलो यथा ॥५६॥ पुराभवत्तथा चोक्तं आर्षः सर्वपुराणगः । उपमारहितः कोऽपि तादृश्येव हि शक्यते ॥५६६।। कत्तुं तथा तादृशेन चोपायेन च शक्यते । महद्भिस्ताहशैर्दिव्यैः पूर्वोक्तरखिलैर्गुणः ॥५६७।। न चेदेकेन लोपेन सतीनामतिदुर्घटः । पुत्रोद्धार इति ज्ञेयः दरिद्राणां सुदूरतः ॥५६८।। धनप्राममहाशिष्यबन्धुश्रीक्रतुशून्यतः। न शक्यते हि रंडायाः पुत्राद्यखिलसंपदः ।।६।। रंडानां सततं धर्मः उदयात्परमेव वै। नित्यस्नानं वैद्यबंधुसंनिधावेव संततम् ॥७॥ निवासो गुह्मसंभाषा सच्श्रूषा सदाश्रयः । चतुर्थकालभुक्तिश्च दधिक्षीराज्यवर्जनम् ॥५७१।।
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विधवास्त्रीणांकृत्यवर्णनम् । २५८३ सुगन्धवस्त्रालंकारगीतादीनां विसर्जनम् । ताम्बूलाञ्जनपुष्पाणां सन्ततं दूरवर्जनम् ॥५७२॥ खट्वतल्पादिशयनं शरीरोद्वर्तनं स्रजम् । अथाजनं चोष्णवारिस्नानमभ्यंजनं तथा ॥५७३।। पुनरन्यानि सर्वाणि वस्तूनि न च कामयेत् । दुरालापं.. दुष्टचिंतां निग्रहानुग्रहार्थताम् ॥५७४।। पुण्याधिकारकल्याणयज्ञकार्यादि कर्तृता। कुर्वती ताडनीया सा तत्स्वीयगुरुसजनैः ॥५७।। क्षारं च लवणं दिव्यं मधुरं सूपकंदरे। वर्जयित्वा विशेषेण तिक्त कटुकमेव च ॥५७६।। प्राशयेद्भोजयेन्नित्यं प्रासार्धेनैव जीवनम् ।
आषष्टिवर्षपयंतमेवं कालं प्रयत्नतः ॥५७७|| (विशेषानयनंकार्या पश्चात्कार्यानुगुण्यतः)। प्राणवृत्ति प्रकुर्वीत वयसश्चरमे ततः ॥५७८।। यथारुच्यशनं कुर्याद् गुरुवृत्तौ रता भवेत् । सा ज्ञातिगुरुबन्ध्वादिसञ्चिन्ता निपुणा भवेत् ॥५७६।। यदि गुर्वादिसञ्चिन्ता रहितातीव केवलम् । याजमान्यं समाश्रित्य स्वीयान्भृत्यवराब्जडान् ॥५८०।। पितृभ्रात्रादिदुष्टौघान् परिवारान्विधाय च । व्याहादिकारिणीभूत्वा मदीयस्याखिलस्य वै ॥५८१।। द्रव्यस्य भूमिमुख्यादेरहमेवाधिकारिणी। इत्येवं प्रवदन्ती के बालरंडाधिका खला ॥५८२।।
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२५८४
कपिलमुतिः दानादिव्यपदेशेन स्ववशस्थितमेदिनीम् । खजनैहियंत्येषा कुलश्नी परिकीर्तिता ॥५८३।। स्वभरी कुलसंजातविद्वज्जनविरोधिनी । तदीयवृत्तिभूभाग्य श्रीसंपद्विनिवारिणी। खभर्तृत्वैकसंबन्धमात्रेणैव पुरस्कृता ।।५८४॥ कुलप्रतिष्ठानाशाय पापैषात्र समागता। तामेनांधार्मिकोराजा धर्मान्न्यक्कृत्य सत्वरः ॥५८५।। प्रवासयेच्छिक्षयेद्वा तद्वाक्यान्यन्यथा चरेत् । तदीयपरिवाराणां यथा शिक्षा समाचरेत् ॥५८६।। तामुद्दिश्य च ये मूर्खा जीवंति वरसंज्ञिकाः । पुरुषःपशवास्तुच्छाः श्वाविदो वापि गर्दभाः ।।५८७। अज्ञाताख्यज्ञातिरंडाकृताभिस्ता(स्सा) मनीषिणः । एकोद्दिष्ट प्रशंसंति नवश्राद्धषु षट्स्वपि ।।५८८11 प्रज्ञाता रण्डयाचोन्नं (१) कृतं यत्तु विशेषतः । नम(व)श्राद्ध प्रशंसन्ति जीवश्राद्ध च सन्ततम् ।।५८६।। श्मशानबलये चापि वेदिकाबलयेऽपि च । स्पृष्टास्पृष्टारूयकाभ्यान्तु यद्भक्तं परिकल्पितम् ।।५६०।। तद्योग्यं षोडशाख्यानां श्राद्धानां तद्गुणस्य च । वसुरुद्रगणद्वंद्वयोरप्येवंसुनिश्चितम् ॥५६१।। अवशिष्टवृषोत्सर्गशास्त्रयोरपि तत्पुनः । एकोत्तराख्यश्राद्धस्य नष्टपुत्रा कृतं वरम् ॥६२))
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सधवाविधवास्त्रीयांमीमांसा
२५८५ जीवपुत्रा तु या नारी विधवेति न चोच्यते । पतिपुत्रविहीना या विधवेत्युच्यते बुधैः ॥५६।। पतेः सूनोविनाशेऽपि या नारी सोमपीथिनी । भाग्निचित्स्यात्पूर्व वै तपस्विन्यपि केवलम् ॥५६४।। महाकुलप्रविष्टा चेत् तादृशस्य तु पुत्रिका । अयाचकान्नदातीव विद्वजनमता सती ॥५६शा सा दंपती समा नित्यं सर्ववंद्या रमैव सा । तस्यास्स्यात्सर्ववेदोक्तं नित्यकर्मसु केवलम् ॥५६६।। अधिकारस्तथा तस्मात्पुत्रस्यापि परिग्रहम् । प्रत्यासन्नं सपिण्डेषु विच्छित्तौ संततेस्तथा ॥५६७।। विद्वबहुज्ञातिशिष्यबन्धूपकरणाय वै । प्रकतुं शक्यतेऽतीव तेषां प्रार्थनया परम् ॥५६८।। याभिस्ताभिस्तद्भिन्नाभिः नारीभिः ब्रह्मचारिभिः । वर्णिभि हिभिर्वापि दूरपत्नीजनैरपि ॥५६६।। पतिभिनष्टपत्नीकैः विधवाभेदबृन्दकैः । परिग्रहं तं पुत्राणां न कार्य सर्वथैव तत् ॥६००। कृतो यदि तथा सूनू रंडागर्भसमुद्भवः । भवेदेव न संदेहः स इत्थं ब्रह्मवादिभिः ॥६०।। तत्प्रसूतिप्रजननयोग्यतापात्रयोरपि । पुत्रग्राहस्तदानीं च भविष्यति न चान्यथा ॥६०२।। तत्प्रसूतिप्रजननयोग्यता ब्रह्मचारिणः । यतेर्वा वतिनोवापि विधवादेः कथं भवेत् ॥६०३।।
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२५८६
कपिलस्मृतिः रंडाभिस्ताहशीभिस्तु कृतं पाकं विगर्हितम् । गृहीत्यजेद्विशेषेण देवे पित्र्ये च कर्मणि ॥६०४ स्नुषा वा सोदरोवापि मातुलानी पितृष्वसा। मातृष्वसा ज्येष्ठपत्नी सोदरा वाथवा पुनः ॥६०।। पितृव्यपत्नीभगिनी तादृश्यो यदि संकटे । दैवपैतृककार्याय तासां पाकं न दुष्यति ॥६०६।। निशाकृतो रंडपाकः न प्राश्यस्सर्वदाभवेत् । सर्वेषामपि वर्णानामाश्रमाणां विगर्हितः ॥६०७॥ पत्नीसहोदराश्वभूस्वसृमातृपृथग्भवाः । प्रजावती गुरुपनी पुरोहितसती यदि ॥६०८।। श्यालकस्यसती दौहित्रस्यभार्या तथैव च । मातुलानी पितृव्यस्य पनी तस्यास्सहोदरी ॥६०६।। मातुलस्यस्नुषा कन्या सपिण्डायाः समीपकाः। तादृश्यो यदि तासां च पाकं रात्रिकृतं तु यत् ॥६१०।। भुक्त्वा तु संकटे विद्यात् मृत्युञ्जयममुं शिवम् । अष्टोत्तरशतं जप्त्वा पुनः श्रीमान्भवेदयम् ॥६११।। रंडा यदि स्नुषा तां वै श्वशुरोऽन्वहमेव वै। दानमानादिसत्कार्यैस्तन्मनः परितोषयन् ॥६१२|| प्रपालयेत्ता यत्नेन स्वयं पत्नीप्रजायुतः । तत्पालनात्तत्प्रदानात्तन्मनस्तोषणादपि ॥६१३॥ जन्मजन्मसुदीर्घायुः प्रजावान् धनधान्यवान् । नित्यारोग्यो नित्यभव्यः नित्यश्रीमानिराकुलः ॥६१४॥
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२५८७
सधवाविर्धवास्त्रीणांमीमांसा भवत्येव न संदेहस्त तस्तत्तु तथाचरेत् । यः श्रीप्रजाधनपशुर्दीर्घायुर्भगवत्परः ॥६१॥ स रण्डानां स्वकीयानां प्रपाल्यानां विशेषतः। तन्मनस्तोषणं कुर्यात्तद्याचितवसुप्रदः ॥६१६॥ भवेदेवान्वहं भित्वा मुक्तोऽयं तावता श्रिया। संवृद्धः प्रभवेदेव नात्रकार्याविचारणा ॥६१७॥ याः पाल्याशालतो रंडाः विहितत्वेन चोदिताः। जामयस्ताः प्रकथिताः तदुःखाग्रहिणोऽनिशम् । व्याधिदुःखंदरिद्र च दौर्भाग्यमतिवर्धते ॥६१८॥ तादृङ्मातृस्वसृभ्रातृपत्नीपाकं कृतंक्षपा। प्राश्यंगत्यंतराभावात्तस्मिन्सत्यां न चाचरेत् ॥६१६।। विश्वस्तया समासीनो वीतिहेतोर्महात्मभिः । श्मशानानिसमोज्ञेयो गृहिणो वैदिके जगुः ॥६२०।। विश्वस्तया समासीत जलंभवनलेपने। पात्रपादक्षालनाय तण्डुलक्षालनाय वा ॥६२।। शाकवस्त्रक्षालनाय भवेद्वागोमयाम्भसे। तदानीतं जलं जातबालानां हायनान्तरे ॥६२२।। यद्यु ष्णयित्वा स्नानाय' कल्पयेयुस्तदान्यतु । बुद्धिरल्पा महामंदा तथायुश्च दिने दिने ॥६२३।। भवेत्क्षीणंततस्तस्मात्सत्कर्म विनिवर्तयेत्। . तदानीं तेन पयसा शुभकर्मसु मोहतः ॥६२४॥
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२५८८
कपिलस्मृतिः नीराजनं प्रकुर्वन्ति ये वा ते दुःखभागिनः । कर्ता कारयिता तौ ते सर्वे स्युर्नात्र संशयः॥६२।। तेषां तु सततं कर्म नित्यस्नानात्परं सदा । नामस्मृतिनित्यकर्मवृद्धब्राह्मणसेवनम् ॥६२६॥ देवगृहेरंगवल्ली करणं व्रतकर्मणाम् । अनुष्ठानं सतीवाक्यश्रवणं तत्समागमः ॥६२७।। सत्यांशक्तौबीहि यवमाषमुद्गादिगोपनम् ॥६२८।। (समीकरणमेतेषां पयोदश्चिद्यादिरक्षणम् ) समीकरणमेतेषां वस्त्रकंचुकयानिनाम् । चूतसारंगचारुण्डशलाटूनां च खंडनम् ॥६२६।। खंडितानां पुनस्तेषां लवणादिमुखैःपरैः। वस्तुभिर्योजनद्वारा तत्रक्षणमुखादिकम् ॥६३०।। निखिलानामपक्कानां पैष्ठा वहननादिकम् । चूर्णानामपि कल्कानां करणं कर्मकारकम् ॥६३१॥ पुनस्तेषु सदा प्रोक्तं चोष्यखाद्यादिवस्तुषु । भक्ष्यभोज्यादिषु तथा सर्ववस्तुषु संततम् ॥६३२।। प्रावीण्यं प्रापणं नित्यं प्राकट्य धर्म उच्यते । अतिरंडा महारंडा क्षुद्ररंडास्त्रिधापुनः ॥६३३।। चोदिता यास्तु तासाञ्च स्वरूपं वर्ण्यतेऽधुना । अन्यगोत्रप्रदत्तस्य कलत्रं विधवा यदि ॥६३४॥ भवेत्तु शैशवेऽत्यंते सातिरंडा प्रकीर्तिता। दीर्घकालं तादृशेन भास्थित्वा सुतं ततः ॥६३।।
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विधवास्त्रीणांप्रकरणम्
२५८६ विश्वस्ता प्राप्य भवति महारंडेति साखिलैः। महद्भिः कथिता पापा निरीक्ष्या भद्रदूषिणी ॥६३६।। सगोत्रदत्ततनयकलत्रं नष्टभर्तृ कम्। असुतं पतिसंयोगरहितं स्यात्तदाख्यकम् ॥६३७।। तिमृणामपि चैतासामन्वहं मनुरब्रवीत् । भक्षणे कवलानां वा स्वातत्र्यं नेति सर्वदा ॥६३८।। नित्यास्वतंत्रं नारीणां विश्वस्तानां विशेषतः । तत्रापिबालरंडानामेवं सत्यत्र किं पुनः ॥६३६।। स्थावरे क्रयदानादिकृत्येष्वासां तु दूरतः । अधिकारस्यास्स)विज्ञेयः चोदितो निखिलागमैः ॥६४०॥ तस्मात्तु तत्कृतं राजा दानमादि क्रयं तु वा। सर्व मिथ्यापयित्वैव स्वस्थाने विनिवेशयेत् ॥६४|| रंडाकृतं भूमिदानं यत्तद्यज्ञोपवीतकम । नीराजनं वेदमन्त्राशिषस्सिध्यन्ति भूतले ॥६४२|| राजा प्रभुभूमिदाने तत्समस्सचिवादिकः । राजस्वीकृतभूभागो विप्रादिश्च भवेदपि ॥६४३।। विशुद्धागमसंप्राप्त धरणी सर्वजातयः । दानंकत्तुं शक्नुवन्ति विवादे रहिते यदि ॥६४४।। विवादशून्यदत्ता या · धरणीग्राहकस्य सा । सिद्धयत्यत्र पुनर्नोचेत् स्वीकृतापि न जीर्यते ॥६४।। दानादियोग्यतालब्धभूमिः पुंसो न च स्त्रियः । सर्वकृत्यस्य तंत्रस्य तस्यैव सततं भवेत् ॥६४६।।
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२५६०
- कपिलस्मृतिः भूस्त्री तस्याः प्रदानेऽस्याधिकारः पुंस उच्यते । न स्त्री स्त्रियं स्वयं दातुं कथं शक्नोति धर्मतः ॥६४७।। पुंसश्चेद्वनितादानेऽधिकारो नित्य उच्यते । सर्वेषां सम्मतिश्चात्र मुख्यत्वेन निरूपितः ॥६४८।। भर्तुः पुत्रस्यपौत्रत्य नप्तुः पित्रोर्मतेन चेत् । भूप्रदानेऽधिकारःस्यात् वनितायाश्च संततम् ॥६४६॥ इत्येवं धर्मतःप्रोचुः निर्विवादेन चेन्न तु। पुरुषस्यापि तद्दाने निर्विवादेऽधिकारिता ॥६५०।। विवादेत्वधिकारित्वं न सिद्धथति कदाचन ॥६५। (पित्रापुत्रेणयन्मुखैराप्तः ब्रह्मचर्यात्परं परम् )। ( ब्रह्मचर्यणधियानित्यं कृतान्यपिविवादेत्वधिका )। पित्रापुत्रेणभा वा नप्तापौत्रेण वा सदा ॥६५२।। स्त्रियस्सनाथाः कथिताः रंडा:स्युश्चेत्तुरोदिताः। अनाथा हि कथं तासां भुवोदानेऽधिकारिता ॥६५३।। याजनेनाध्यापनेन प्रतिग्रहमुखेन च । विशुद्धागमसंप्राप्तभूवृत्तौ च सदा द्विजः ॥६५४।। निवसन्नित्यकर्माणि कुर्वन्धर्मेण देवताः। संप्रीणयन्मुखैराप्तः ब्रह्मचर्यात्परं परम् ॥६५।। ब्रह्मार्पणधिया नित्यं कृतान्यपि विभावयन् । पितृणां तनयद्वारा तहणं चर्तुसंगतः ॥६५६।। अपाकुर्वन् शास्त्रमार्गात् कृतार्थः प्रभवेदपि । अश्रोत्रियो न म्रियेत नाहिताग्निरसोमपाः ॥६५७)
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पुत्रमहत्त्ववर्णनम्
२५६१ अमंत्रदग्धो न भवेदमंत्रो न क्षणं भवेत् । अनाश्रमी क्षणं तिष्ठेत्पुत्रवाश्चेदनाश्रमी ॥६५८।। न भवत्येव यदि सः श्रोत्रियोऽयं विचक्षणः । तथा"तस्य सततं ब्रह्मवादित्वमेव वै ॥६५॥ भवेन्नित्याहिताग्नित्वं विधुरत्वं च नैव हि । श्रोत्रियत्वात्पुत्रगतात्कृतकृत्यः पिता भवेत् ॥६६॥ दशभार्योऽप्यपत्नीकस्त्वसौ तनयवर्जितः । तथाविधो दशसुतःस्वयमश्रोत्रियो यदि ॥६६॥ भवेदजस्रःपत्नीकः श्रोत्रियश्चेदसौ ततः । नष्ठभार्योऽपि न भवेदपत्नीकः कदाचन ॥६६२।। तत्र चेत् ब्रह्ममेधाद्या याप्ययं तु विशेषतः । सपत्नीको ब्रह्मनिष्ठः सोमयाज्यपि चोदितः ॥६६३।। पुत्रिणःश्रोत्रियस्यात्र नापत्नीकत्वमुच्यते। पत्नीवत्वं तु यज्ञस्य नेनेन्द्रस्यानुवाकतः ॥६६४॥ चोदितं श्रुतिवाक्येन ताहक्पत्नीत्वमस्य च । श्रोत्रियस्य सदास्तैव(?)विशेषेण पुनः किल ॥६६।। तद् ब्रह्ममेधाध्यायी चेदुपमारहितः परः । (संशयोवर्त्तते वृतं श्रोत्रियो तो मनीषिभिः) ॥६६६॥ (सपत्नीक इतिप्रोक्तः पुत्रवान् चेद्विशेषतः)। न पुत्रेण समोधर्मः न पुत्रेण सम.क्रतुः । दर्शादिर्नामिहोत्रं च ज्योतिष्टोमादयः समाः ॥६६७।।
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२५६२
कपिलस्मृतिः सर्वे सपुत्रतुलिताः जिता: पुत्रवताखिलाः । भूर्भुवःस्वादयोलोकाः तपःकृच्छा व्रतादयः॥६६८।। योगी व्रती पुत्रवान् स्यादतोनित्यमतंद्रितः । तत्पुत्रोत्पत्तये यत्न मनोवाकायकर्मभिः ॥६६॥ (स्वकीयदेवताध्यानं पूजातत्प्रार्थनादिभिः) । अदृष्टयत्नशतकैरन्वहं कार्य एव वै ॥६७०॥ तदुत्पत्या क्षणान्मयो मुच्यते पैतृकाहणात् । यद्यजाते तु तनये सर्वयत्नसहस्रतः ॥६७१।। स्वभ्रातृजादिपुत्रेषु पुत्रमेकं परिग्रहेन । ज्येष्ठमन्त्यं वर्जयित्वा मध्यमेष्वेककं सुतम् ॥६७२।। परिगृह्यविधानेन होमपूर्वादिना ततः । जातकर्मादि कुर्वीत तेनैवास्य सुतो भवेत् ॥६७३।। न चेत्तुगौणपुत्रः स्यात् गौणःस्यात्तनयो यदि । तस्यैतत्कर्मकरणेकर्तृ त्वं शास्त्रतो मतम ॥६७४।। प्रत्यब्दकरणे चापि न तु दर्शादिकर्मसु । ये भ्रातृसूनवो लोके कृतमौज्यादिका अपि ॥६७।। कृतदाराः संगृहीताः पुत्रत्वेन विपत्सुते । तत्प्रेतकृत्यमात्रस्य तत्प्रत्यब्दस्य शास्त्रतः ॥६७६।। कर्तारः प्रभवेयुर्वं न चान्येषां तु कर्मणाम् । दर्शपातमुखादीनामतो भ्रातृसुतानपि ॥६७७।। तदन्याद्भिन्नगोत्राद्वा यं कंचन गृणन्नरः । तन्मतः पूरणं कृत्वा तत्पुत्रस्य च संविदम् ॥६७८।।
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ज्येष्ठपुत्रस्यपैत्र्येयोग्यता
२५६३ एवमेवं वृत्तिगेहक्षेत्रष्वन्यसुनिश्चितं । येषु तेषु च सर्वेषु मर्यादेयं मया कृता ॥६६॥ अद्यवेति दृढं नूनं दृढ़यित्वा ततः परम् । स्वीकुर्याद्विधिनोक्त न त्यक्त्वान्त्यं ज्येष्ठमेव च ॥६८०॥ मध्यमेकेन होमेन देवब्राह्मणसंनिधौ । राज्ञि बन्धुषु चावेद्य पितरौ तस्य केवलम् ॥६८१॥ भूषयित्वाप्रीणयित्वारत्नवस्त्रगृहादिभिः । तद्दारिद्रय वारयित्वा स्वीकुर्यात्तनयन्ततः ॥६८२।। यद्यन्यगोत्रस्तनयः संग्राह्योह्यवशाद्भवेत् । कदाचिदैवयोगेन पश्चाज्जातस्तदौरसः ॥६८३॥ वयसा यं कनिष्ठोऽपि पितृकर्मसु केवलम् । ज्येष्ठत्वं समवाप्नोति न कानिष्ठय कदाचन ॥६८४॥ सर्वथा दत्ततनयः वयोज्येष्ठः कृतक्रियः । सोमपास्त्वग्निचिच्चापि जातपुत्रोऽपि केवलम् ॥६८५।। सर्ववेदनिधिःशास्त्रनिपुणोऽध्यात्मवित्तमः । तदौरसेन पुत्रेणानुपनीतेन केवलम् ॥६८६।। अनभ्यस्ताक्षरेणापि न समास्यादिति श्रुतिः । स एव पितृकार्यषु ज्येष्ठयमाप्नोत्ययंतराम् (संशयम)॥६८७॥ मन्त्रोच्चारणसामर्थ्याद्यभावेऽप्यस्य वै तदा । तत्कर्तृ कंपुरस्कृत्य स्वयं दत्तः कनिष्ठवत् ॥६८८।। कुर्वीत सर्वकृत्यानि धर्मोऽयं तादृशःस्मृतः । यानि प्रधानि(प्रधानानि)कर्माणि तत्रस्युस्तानि दत्तकः ॥६८६ १६३
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२५६४
कपिलस्मृतिः तद्धस्तेनैव विधिना स्वमंत्रोक्त्या प्रचालयेत् । मर्यादेयं समाख्याता तत्क्रमे शास्त्रजालकैः ॥६६०॥ परंत्वत्रविशेषोऽस्ति यदि दत्तोऽन्यगोत्रजः। स्वीकृतस्तु तदापश्चाद्विभागे तुर्यभाग्भवेत् ॥६६॥ सगोत्रश्चेदयंत्वत्रतनयः श्रीमतःसतः। तत्पदानासहिष्णुभ्यामतिप्रार्थनयावशात् ॥६॥ दत्तस्तत्स्वीकृतश्चेत्तु पुनश्चशपथादिभिः। पित्रादिकृतमर्यादः यथा वा स्यात्तथा भवेत् ॥६३३॥ तेनायं समभागेव न तुरीयांशभाग्भवेत् । पुनः कोऽपि विशेषोऽत्र स्पष्टमेव निरूप्यते ॥६६४।। विभक्त भ्रातरं दीनं दरिद्र बन्धुमेव वा। अत्यंतकृपणं निस्वं पुत्री(?) दृष्ट्वा कृपापरः ॥६६॥ तद्रक्षणाय तनयं स्वीयं दत्वा श्रियं पुनः। दत्ते समुद्धरेत्श्रीमान् ततस्तस्य च दैवतः॥६६६॥ संजातस्तनयस्सोऽयमौरसो दुर्बलो भवेत् । दत्तपुत्रादिविज्ञेयः ज्येष्ठपत्नीसुतोऽप्ययम् ॥६६७।। ज्येष्ठपत्नीसुतस्यैव चौरसत्वं प्रकीर्तितम् । विभागोऽपि तथा ज्ञेयः समत्वेनैव सर्वतः ॥६६८॥
औरसस्य च दत्तस्य न्यूनत्वाधिक्ययोस्तदा । यथागामस्तथैव स्यात् निर्णयो धर्मतो मतः ॥६६६।। पुत्रग्राहकुसौभाग्यसंपच्छ्रीः प्राप्तये यदि। पुत्रत्वं प्रापितस्ताभ्यां दुर्बलः प्रभवेत्सुतः ॥७००।।
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औरसपुत्रेषुज्येष्ठता
२५६५ अपुत्रः प्रार्थनापूर्व दत्तोऽयं यदि तत्सुतः। श्रीमानेव तदा सोऽयं समभागी भवेद्ध्वम् ।।७०१॥ भ्रातृपुत्रं ज्ञातिपुत्रः बन्धुपुत्रोऽथ वा धनी। निरपेक्षोऽस्य सौभाग्ये ग्राहकप्रार्थनादिभिः ॥७०२॥ पुत्रत्वं समनुप्राप्तः निर्धनस्य विशेषतः । दत्तश्च कृपया तूष्णीमौरसादधिकोऽप्यति ॥७०३॥ पुनस्सत्कुलजो न्यूनकुलाय यदि केवलम् । दत्तः स्यात्तु तदासोऽयं विभागे समुपस्थिते ॥७०४॥ तुल्यो भवेदौरसेन न पित्र्येषु तु सर्वदा।
औरसो ज्यैष्ठयमाप्नोति पितृकर्मणि दत्ततः ॥७०५॥ वयसा चर्यया विद्याज्ञानाभ्यामधिकोऽपि वा। दत्तः पैतृककृत्येषु न्यूनएव भवेद्धृ वम् ॥७०६॥ जातेन्द्रियाणां दौर्बल्ये तु(दु)हिता तनये सति । अवशादसु (१) सन्देहो पुत्रग्रहणमुच्यते ॥७०७॥ पुत्रयोस्तनयाभावे नष्टयोरपि वै तयोः । पुत्रस्य कुर्याद्ग्रहणमिति वेदानुशासनम् ॥७०८॥ पौत्रे नप्तरि दौहित्रे सति वा पुत्रसंग्रहः । सर्वशास्त्रनिन्दिःस्यात् न तस्मात्तत्समाचरेत् ।।७०६।। आपन्निवारकस्सोऽयमापत्सापुत्रशून्यता। एक एव भवेन्नूनं दुहिता(तृतनयो मतः ॥७१०॥ दोहित्रे सतिपुत्रस्य ग्रहणं शास्त्रदूषितम् । कथं तदिति वा प्रोक्त स्पष्टतश्च तदुच्यते ॥७१।।
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२५६६
कपिलस्मृतिः दौहित्रोत्पत्तिमात्रेण तत्कुलद्वयसंभवाः । उत्तारिताः सद्य एव भवेयु त्रसंशयः ।।७१२।। तामभ्यनुज्ञां भार्यायाः पुत्रसंग्रहहेतवे । तद्दद्यात् सति दौहित्रे म्रियमाणः स्वयं पतिः ।।७१३।। दौहित्रोत्पत्तिमात्रेण मातामह्यादिका स्तुताः। दुहितःस्यात्समुद्वीक्ष्य हर्षगद्गदया गिरा ॥७१४।। प्रवदिष्यन्ति तां वाचं पितृलोकेऽतिसुन्दरे। अस्माकसुतभिन्नास्ते बान्धवा निखिलाः शिवाः ॥७१।। तर्पणे ब्रह्मयज्ञादिनित्यकर्मसु सन्ततम् । एकमेवाञ्जलिंनोवै भ्रातृतजातयो ददुः ।।७१६।। अद्यास्मज्जलदो जातः (तो) वयमेतेन भूषिताः । कृतार्था नितरां जाताः युष्मत्तुल्या अभूमहि ॥७१७।। तस्मात्तहत्तमुदकमस्माकं परमामृतम् । दधिसोमघृतक्षीरमेदोमाधुकसिन्धवः ॥७१८।। नारायणपदप्राप्तिकारकाश्वातिपावनाः । कुम्भीपाकमहाघोररौरवादिनिवारकाः ॥७१।। त्रयस्त्वञ्जलयः श्रीकाः शङ्खकुन्दवराङ्गिनः । अस्मत्सर्वोत्तमत्वस्य प्रापकाः(स्)तुल्य शून्यकाः ।।७२०।। यद्दीयतेऽस्मानुद्दिश्य चानेन भुवि नोऽमृतम् । अत्यल्पमपि तन्मेरुमहामन्दरसंनिभम् ॥७२१॥ अक्षय्यं तु ततोऽनेन पुत्रादिः कोऽपिनैव हि । दौहित्र एव नो लोके पुत्राणामुत्तमोत्तमः ।।७२२।।
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पैत्र्येकर्मणिदौहित्रस्योरसत्वम् २५६७ तत्समस्त्व(त्वौरसस्तजः(स् ) तजश्चापि तथाविधः । इत्युक्त्वा नर्तनं चक्रुः मातामह्यादिकानगाः ॥७२३।। दौहित्रजनने पूर्व तस्माद्दौहित्रसंनिभः । पितृणां तृप्तिदं(दो) कोऽपि नास्त्येव धरणीतले ॥७२४॥ मात्रादित्रयसाम्येन तर्पणे समुपस्थिते । तेषांच्यञ्जलिदस्सोऽयमेको दौहित्र उच्यते ॥७२।। तद्दत्तमुदकं तासां परं त्र्यञ्जलिसंख्यया। नवकं तत्पृथक्त्वेन महापद्मादिसंभवम् ॥७२६॥ तस्माजगति यो मोहात् प्रसत्तौ तर्पणस्य चेत् । दुहितातनयो मूढः(स्) तासामेकादिकाञ्जलिम् ।।७२७॥ सामान्यनारी बुद्धथा वै कुर्यादौहित्रपात्रतः। तासां शेवधिहर्ता स्यात् तच्छापस्यापि पात्रताम् ।।७२८॥ प्रयात्ययं सद्य एव तस्मात्तन्न तथाचरेत् । अत्र भूयः प्रवक्ष्यामि निष्कृष्टार्थमिदं रहः ॥७२।। सापत्नी जननी पत्न्योरन्वहं द्वयञ्जली स्मृते । मातामही मातृवर्गद्वयं व्यञ्जलिभाजनम् ॥७३०।। तर्पणेष्वखिलेष्वेनं (व) सर्वशास्त्रसुनिश्चितम् । दौहित्र्यपुत्रवान्नैव भवेल्लोके द्विजातिषु ॥७३१॥ विशेषेण समाख्यातः (तो) भर्तृ पुत्रादयोऽवरः । सपिण्डोऽपि तथैवस्यात्तत्कथं चेतिचेत्तदा ॥७३२।। निरूप्यते च सुस्पष्टं सपिण्डे खलु केवलम् । पितामहस्यावयवाः पित्रादिद्वारतोऽति वै ॥७३३।।
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२५६८
कपिलस्मृतिः सुसंवृद्धाः नास्य तत्र स पितुः स्वस्य वा खलु । न सन्त्येव विशेषेण तन्मुखात्तु सपिण्डता ।।७३४।। सपिण्डानां प्रकथिता नान्येन किल वर्त्मना । भ्रात्पुत्रेषु तेष्वेवं भ्रातुश्चापि पितुस्तथा ॥७३॥ सन्तिह्यवयवास्तेन भ्राता तत्पुत्र एव च । मार्गेण स्वीय इत्युक्ताः नतुस्वावयवैरहो ॥७३६।। दौहित्रे दुहितद्वारा स्वकीयावयवोद्भवे । संबन्धस्त्वधिकः स्वस्य तथा तेषु न संभवेत् ।।७३७|| संबन्धः कोऽपि सुस्पष्टः(स् )तस्मादेव तथादितः । दौहित्रो भ्रातृपुत्रादिभ्योऽयं स्वावयवादिभिः ।।७३८।।
(णामधिकोऽवयवादिभिः) अधिकश्चेति सर्वेषु स्वकर्मसु धनादिषु । नैतस्य संग्रहः कार्यः जन्मनैवायमुच्यते ॥७३६।। पुत्रत्वेन समश्चेति परश्चेति कचित्स्थले । अतः पुत्रत्वकरणं विरुद्ध न्यायशास्त्रयोः ॥७४०॥ दौहित्र जननादत्र परवि(?)वित्तैकमानसाः । विभक्ता ज्ञातयो दुष्टाः भवन्त्येवातिदुःखिनः ॥७४१॥ विभक्ताः पुत्रतज्ज्ञातिधनक्षेत्रादिवस्तुषु । तदुन्मुखाः सन्ततं ते कदापीति दुराशयाः ।।७४२॥ दौहित्रजननादेव केचिदत्र विवेकिनः । नेतः परमिदं नैव स्यादित्येव स्वचेतसि ॥७४३॥ निश्चित्य तूष्णीं तिष्ठन्ति केचित्त्वत्राजुगुप्सिताः। शास्त्रानभिज्ञां नितरां पामरा धर्मदूषकाः ॥७४४॥
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धर्मसेवनलाभः
२५६६ येन केनाप्युपायेन परं तद्ग्रहणोन्मुखाः । दुरालापान्प्रकुर्वन्तः सज्जनैरपि निन्दिताः ॥७४।। दूषयन्तश्च तान्भूयः छी( धिक् ) त्कृताश्चापि साधुभिः । न्यक्कृताः पण्डितैः सर्वैः सर्वत्रापि वृथैव हि ॥७४६।। तदुर्यनादिशतकं कुर्वन्तश्च तदा तदा । दुष्टक्रियाश्चकुर्वन्तो लयं यान्त्येव केवलम् ॥७४७॥ सर्वत्र धर्मोमध्यस्थः कदाचित्कलिदोषतः । न सिद्धयति कलौ भूयः सिद्धयत्यपि पुनः कचित् ॥७४८॥ प्रायेण धर्मतो वृद्धिः ततो भद्राणि विन्दति । व्यवहारे च जयति सन्तो व्याकुलयत्यपि ॥७४६।। परस्वान्यपि (दि) गृह्णाति समूलं च विनश्यति । सदैव धर्मः परमः सेव्यो नाधर्म उच्यते ॥७५०।। धर्ममार्गेण सर्वैरतैः गन्तव्यो नान्यमार्गतः। दौहित्रभिन्नं यं कंचित् विना ज्येष्ठ तथैककम् ।।७५१।। संगृह्णीयाच तनयं मध्यस्थं ज्ञातिमेव वा। भत्रभ्यनुज्ञाभिन्नायाभ्यनुज्ञा पुत्रसंग्रहे ॥७५२।। संगच्छते ज्ञात्यभावेतत्पुरस्तान्न युज्यते। ज्ञातिमत्याकृतं यत्तु पुत्रसंग्रहणादिकम् ॥७५३।। विश्वस्तया धरादान मुखकृत्स्नं तु सिद्धयति । सर्वज्ञातिमतं कार्य पुत्रसंग्रहणादिकम् ॥७५४।। धारादिकं च नो चेत्तत् न कायं यदि तत्कृतम् । तादृशं धार्मिको राजा न्यायशास्त्रप्रदूषितम् ॥७५।।
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२६००
कपिलस्मृतिः सद्यस्त्वन्यथयित्वैव शास्त्रीयेनैववर्मना । तत्कारयेज्ज्ञातिमुखसामीचीन्यं ततः पुनः। तद्यथा योग्यदण्डश्च तत्रमध्यम उच्यते ॥७५६।। आद्यन्त्यावेव संत्याज्यौ बहुभ्रातृषु तत्सुतौ । मध्ये ज्येष्ठात् द्वितीयादि नियमो नेति चोचिरे ।।७५७।। मोहादत्तो ज्येष्ठसूनुः स्वयंदत्तोऽथवा जडः । पतितः सद्य एवस्यादुभयभ्रष्ट ईरितः ॥७५८।। उपनीतेः परं तस्य विप्रत्वं तु न सिद्धयति । यदि ज्येष्ठसुतो दत्तः पितुर्वा पालकस्य वा ।।७५६।। तत्कर्मयोग्यो नैवस्याद्यत्कृतं तेन तत्परम् । सलिलं पुण्यलोकैकमहापाषाणसंनिभम् ॥७६०॥ महारौववाग्रथनयनं सक्रियौघहम् । न तत्समाचरेत्तस्मात्पुत्रदानग्रहौ द्वयम् ॥७६१॥ विधवाव णिविधुरदूरभार्याय(प)तिव्रताः ।। न दद्यु ः प्रतिगृह्णीरन् अपि सूतकिनोऽपिवा ॥७६२।। रजस्वला तत्पतिश्च कन्यकोऽनुपनीनकः । कौतुकी दीक्षितोवाऽपि श्राद्धकर्ता प्रदूषितः ।।७६३॥ बहिष्कृतो दूरपङ्क्तिभुक्तान्नो ग्रामरूपगम् । प्रायश्चित्ताधु न्मुखश्च पुनरन्ये तथा विधाः ।।७६४॥ न दधुः प्रतिगृह्णीरन् तनयं संशयभ्रमे । अहमेकसुतः पित्रोः दत्तोऽस्मीति वदन् पुनः ।।७६।। सभायां निर्भयं चोरः प्रसिद्धः कथितो बुधैः । पुत्रेण जातमात्रेण ताततत्ताततत्पराः ॥७६६।।
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सुतस्यकुलतारकत्वम्
२६०१ नन्दन्ति च प्रगायन्ति नटन्ति प्रनटन्ति च। उत्तारकोऽयमस्माकं संजातस्तनयोऽधुना ॥७६७।। वदन्त एव परममानन्दं दैवमानुषम् । आरभ्य कृत्स्नं ब्राह्म तद्विधिना श्रुतिनिरूपितम् ॥७६८॥ संद्यः प्राप्ता भवन्त्येव ब्रह्मानन्दस्तु सः परः। श्रुत्युक्तवर्मना साध्यः न केनान्येन सर्वथा ॥७६६।। यस्य कस्यापि संप्रोक्तः तद्भिन्नानखिलान्वरान् । आनन्दास्तस्य संभूत्या दौहित्रस्येक्षणादितः ॥७७०॥ प्राप्ता भवेयुः पितरः तत्कुलद्वयतारकः । तनयो दुर्लभो नृणां जातमात्रेण तेन वै ॥७७१॥ एकोत्तरकुलं चापि सद्यस्तुष्टं भविष्यति । तादृशं तनयं त्वेनमेकं जातं सुतं जड़ः ॥७७२॥ धनाशयान्यं कुरुते यः पितृघ्नः स्मृतः स तु । कुतस्तथेति चेव्यक्तं सम्यगेवेदमुच्यते ॥७७३।। सुतप्रदानोत्तरक्षणमात्रेणैव तेऽखिलाः। नष्टानन्दा भनकामाः ताडिता यमकिंकरैः ॥७७४।। नीयन्ते नरकेष्वेव ते य उत्तारिताः पुरा । ग्राहकस्यापि पितरः तादृशांस्ताम्पितॄन वरान् ॥७७॥ दृष्ट्वाति दुःखिताः सर्वे सहमानाश्च कश्मलम् । असह्यमिति घोरं तदीयं वै दुःसहं खरम् ॥७७६।। पुनः पुनरुदीक्ष्यैव किमासीदिति केवलम् । अशक्नुवन्तस्तदुःखं स्वयं चापि तथाविधाः ॥७७७।।
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२६०२
कपिलस्मृतिः भवेयुरेव नितरां मास्तु वंशस्य नोऽप्ययम् । इत्युक्त्वैनं दूषयन्ति नाङ्गीकुर्वन्ति तत्कृतम् ।।७७८।। प्रदूषयन्ति तं दृष्ट्वा पलायनकृतत्वराः। तहत्तं यच्च तत् सर्व वज्रपातोपमं खरम्(१) ॥७७६।। अङ्गीकुर्वन्ति तस्मात्तं पितरो ग्राहकस्य च । तस्मादेकसुतो दत्तो ग्राहकेण प्रदापितः ॥७८०॥ उभयोवंशयोश्चापि पितॄणां नरकप्रदः । तस्मादेकं सुतं दत्तपुत्रत्वेन कदाचन ॥७८॥ न स्वीकुर्यादतस्तेन न किंचितस्यात्प्रयोजनम् । तथा कनिष्ठं तनयं स्त्रीदत्तं वैधवं शिशुम् ।।७८२।। पुरुषेण प्रदत्तं वा कन्यावर्णियति (१) प्रदम् । ब्रात्यदत्तं सूतकिना प्रदत्तं कन्यया तथा ॥७८३॥ अनुवीतप्रदत्तं च सापत्नीमातृदत्तकम् । पितृव्यदत्तं तत्पल्या प्रदत्तं भगिनीप्रदम् ॥७८४॥ पितामहादिभिर्दत्तं ज्ञातिदत्तं सगोत्रिभिः । प्रदत्तं येन केनापि पुत्रत्वेन कथञ्चन ।।७८५।। न स्वीकुर्याच्छास्त्रदुष्टास्त एते तनया जडाः । प्रदातुहिकस्यापि महादुर्गतिदायकाः ॥७८६।। मामकस्तनयो जातस्तावकस्त्वधुना मम । संमत्यैवायमभवदिति वाक्येन तत्क्षणात् ॥७८७।। पुत्रनः प्रभवेत्सद्यः वीरहेति निगद्यते । तत्स्वीकर्ता भ्रूणहा स्यात् तहत्तो ब्रह्महा परः ॥७८८।।
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निदुष्टपुत्रयोग्यता
२६०३ एवं त्रयाणामेकस्य तनयस्य परिग्रहे। प्रत्यवायो महानुक्तः तस्मात्तत्कर्म नाचरेत् ॥७८६।। जडमूढान्धमत्ता ये मूकक्लीवाभिशस्तराः। पतिताः पामराश्चापि न स्वीकार्या विशेषतः॥७६०॥ ज्येष्ठपुत्राः पितृणां स्युःवल्लभः जगतीतले। यथा तथा कनिष्ठाश्च मातृणामतिवल्लभाः ॥७६१॥ अतः कनिष्ठास्तनयाः निन्दितारस्युस्तथैव हि । पुत्रग्रहणकार्येषु यदि दत्तो मृताः सुतः ॥७६२॥ पुनः पुत्रं न गृह्णीयादेकस्यैव सुतस्य वै। ग्रहणं शास्त्रविहितं न द्वितीयस्य सर्वथा ॥७६३।। अपविद्धस्ततोग्राह्यो यदि भूयः सुते मनः । निर्दुष्टपुत्रा जगति त्रय एव प्रकीर्तिताः ॥७६४॥ औरसः पुत्रिकापुत्रः अपविद्धश्च सूरिभिः । अन्ये तु तनया भूयः भूतले स्युर्जुगुत्सिताः ॥७६।। असत्कुलप्रसूतानां क्षेत्रजातिसुताः स्मृताः । महाकुलप्रसूतानां त्रय एव पुरोदिताः ॥७६६।। जगुप्सा सा प्रकथिता स्वस्मिन्पश्यति जीवति । पित्रादिषु स्वकीयेषु सत्सुजीवत्सुतत्परः ॥७६७॥ परस्मै पुत्रकार्याय धर्मपल्यर्पणं किमु । न्याय्यं युक्त सच्चरित्रं सर्वैस्तत्प्रविचार्यताम् ॥७६८।। पांसुलानां विटानां वा सा वृत्तिरजुगुप्सिता ।। याति घोरा वागवा स्वभार्यान्यनिवेदनम् ॥७६६
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२६०४
कपिलस्मृतिः विना जुगुप्सां ह्रीं घोर ह्रियं भीति दुरासदाम् । परसंगाप्तसद्गर्भनारी (१) ग्रहणतां भुवि ॥८००। सम्पाद्य चापिगार्हस्थ्यं लोकानां पश्यतां पुरः। परवीर्यैकसंजातगर्भिणी स्वकलत्रतः ॥८०१॥ ते जायन्ते तादृशानां पाकाः पद्मनिभेक्षणाः। कानीनपौनर्भवादितनया न जुगुप्सिताः ॥८०२।। किंवा न जाने तद्य यं विवाहानन्त क्षणात् । मुहूर्ताद्याममात्राद्वा यामद्वयमत एव वा ॥८०३।। (अन्हो) अहर्दिनात्तद्वितीयाद्वितीयात्तस्य तत्परम् । पक्षान्तमासाहतो(र)मासात् तृतीयाद्वा चतुष्टयम् ।।८०४॥ पञ्चषेभ्योऽपि मासेभ्यो डिम्बानां जननादहो। द्विपात्पशूनां सालज्जालक्ष्यते न च किं पुनः ॥८०॥ ते चापि मनुजैः साम्यं संप्राप्य च ततः परम् । यूयं वयं च मनुजाः समा एवेति वादिनः ॥८०६।। वागक्षीकर्णनासादि सर्वावयवसंयुताः।। निर्लज्जाः सर्वकार्येकनिपुणास्त इमे पुनः ॥८०७।। महात्मन:त्मिानं सत्कुलीनान हेलयन्ति हसन्ति च । पुनर्निराकरिष्यन्ति व्यवहारेषु सन्ततम् ॥८०८।। पराजयन्ति कुप्यन्ति तादृशेरखिलं जगत् । व्याप्तमानंति बहुना तादृशान्निखिलान्जनान् ॥८०६॥ व्यवहारेषु समतः संप्राप्ताः सज्जनस्सह । तुच्छान् दुरात्मनो दुष्टान् धार्मिको नृपतिः स्वयम् ।।८१०।।
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दण्ड्यानामदण्ड्यानायथायथंधर्मव्यवहरणम् २६०५ पराजयेत्तान्धर्मेण न्यायेनापि समागतान् । अब्राह्मणं ब्राह्मणेन व्यवहाराय चागतम् ।।८११॥ अपि न्यायगतं राजा व्यवहारे पराजयेत् । । एवमश्रोत्रियं राजा श्रोत्रियेण सभासु चेत् ।।८१२॥ तुच्छानतुच्छः समतः सद्भिस्सत्कुलसंभवैः । बाढं विवदतो नित्यं भोषयित्वा पराजयेत् ।।८१३।। दुर्बलेन स्वामिनैवं विवदन्तं सभासु चेत् । दुर्बलं बलिनं पोष्यं मदान्धो दुर्जनाश्रयात् ।।८१४॥ सद्भिः सोऽयं विगर्हःस्यात् राज्ञ प्रोक्ता यथास्य तु । शान्तिर्गर्वस्य महतः प्रभवेद्व समष्टितः ॥८१।। अश्रोत्रियश्रोत्रिययोः विवादे समुपस्थिते। तदात्वश्रोत्रियन्यायसत्पथस्थेऽपि केवलम् ॥८१६।। यथा वा श्रोत्रियजयः भवेत्सद्यः(स् ) तथा वदेत् । नित्यं सर्वत्र पूज्योऽसौ श्रोत्रियस्तेन तं तराम् ।।८१७|| नावमन्येत्पूजयित्वा प्रेषयेदेव सन्ततम् । स्वसारं भगिनी पत्नी मातरं तनयां तु वा ।।८१८।। तावकीमभिगन्तास्मीत्यहं वादिनमुद्धतम् । विवादे श्रोत्रियं दृष्ट्वा श्रोत्रियं सद्य एव वै ॥८१६॥ कपोलयोस्ताडयित्वाचीत्कृत्य (धिक्कृत्य) च दिनत्रयात् । परं निरोधादुद्धृत्ययथाशक्ति पणानपि ।।८२०।। चतुर्विंशतिसंख्याकान् द्विगुणं वा चतुर्गुणम् । तस्यापि द्विगुणंभूयः शतं वा तवयं तु वा ।।८२१।।
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२६०६
कपिलस्मृतिः तस्यशक्तरानुगुण्यात् समं संप्रेक्ष्य धर्मतः । दण्डरूपेण कृत्वास्य पश्चात्तं मोचयेन्नृपः ।।८२२।। यो मन्येताजितोऽस्मीति न्यायेनैव पराजितः । तमायान्तं पुनर्जित्वा दापयेद्विगुणं दमम् ।।८२३।। सदस्यदूषकं तूष्णीं ग्रामदूषणतत्परम् । अनपेक्ष्यस्वापराधं स्वकार्यवृजिने तथा ॥८२४|| नृपतिर्धार्मिकः सद्यः पणानष्टशतं हरेत् । सकाशात्तस्य विधिना न चेहोषमवाप्नुयात् ।।८२।। समुद्दिश्यस्वकार्य यः तूष्णीकं वेद सर्वतः। अश्रोत्रियः स्वयं (तद्वत् ) सत्कर्मत्वेन विशेषतः ।।८२६।। विद्यमानो मन्यमानः स्वयमस्यैव केवलम् । सच्छ्रोत्रियाः समुद्वीक्ष्य विवादे सति केवलम् ।।८२७|| पूजाभोजनकालेषु स्वस्यानाह्वानकारणात् । तदुद्धवनिरोद्धारं कृतशापं तथाविधम् ॥८२८।। यत्नेनैवाहयित्वैनं सभामध्ये परीक्षया । न्यक्कृत्य विधिना सम्यक्छी(धिक् )कृत्यैव ततः पुनः।।८२६ नैतादृशमितः कर्म परं स्यात्तु त्वया भवेत् । इति भीत्या समायुक्त कृत्वैनं निश्चयेन वै ।।८३०॥ विंशोत्तरं शतपणान् हरेत्तस्मान्न संशयः । यो मुक्तिकाले विप्राणां स्वकामैकपुरस्कृतः ॥८३॥ निरोधं कुरुते मूढः तस्यदण्डश्चपेटिका । फ(प)णाःस्युादश पुनः उत्सवेषु पुनः किल ॥८३२।।
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दण्डविधानम्
२६०७ विशेषतः क्रतुषु च निरोधे मौढ्यतस्तराम् । स्वपुरस्कारतोऽतीव समष्टया तस्य निग्रहः ॥८३३।। राज्ञो निवेद्य पश्चात्तु ताडयित्वा कपोलयोः । सर्वस्वहरणं कृत्वा तमेनं राष्ट्रतो नयेत् ॥८३४॥ ग्राममध्ये स्वशुद्धयर्थमपकीत्यकशुद्धये। क्रियाविशेषान् कुर्वन्तः मूढान् पण्डितमानिनः ॥८३शा शनैः कालेन महता धराधीशो महामनाः। शास्त्रविद्भ्यो विनिश्चित्य तत्कार्याणि ततः परम् ।।८३६॥ एतदर्थं त्वया चैवमेतत्तत्समनुष्ठितम् । किलेतिवचनं प्रोक्त्वास्त्री( धिक् )कृत्य च विशेषतः ।।८३७॥ तस्य शक्तनुगुणो दण्डो ग्राह्यो विशेषतः । ततः पुनरिदं वाक्यमेवमेतादृशं लघु ॥८३८।। त्वया न कार्य कर्मेति बोधयित्वा विशेषतः । विसर्जयच्छिक्षयित्वा तथा तद्बोधकानपि ॥८३६॥ समष्टया बहवो भूयः एकं निरपराधिनम् । हठात्कारेण तूष्णीकं कार्यकाले समागते ॥८४०॥ बाधयेयुर्विवदमानास्तज्ज्ञात्वा धर्मतो नृपः । शिक्षयेदेव विधिना ज्ञात्वा तत्कार्य(?)वम च ॥८४१।। पृथक् पृथक् सम्यगेव शनैर्वा तत्परं तु तत् । एक चेच्छ्रोत्रियग्रामे तदीयां पूज्यतां पराम् ॥८४२।। महत्वं व्यपदेश्यं च गुरुत्वमधिकं तथा । आचार्यत्वं पटुत्वं वैशा(र)द्य(म)अनश्वरम् ॥८४३।।
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२६०८
कपिलस्मृतिः विद्याधिक्यं च संप्रेक्ष्य तस्मिन्निरपराधिनि । अत्यन्तासहमानास्ते तूष्णीकं तदुपर्यथ ॥८४४॥ आरोपयित्वाऽन्योऽन्यं वैदुर्गुणा न तदीयगान् । समष्टयव ग्रामिणो वै बहवो मौढ्यमास्थिताः ।।८४॥ विद्याकर्मादिभिहींनाः दूषयेयुर्यदा तदा। धार्मिको नृपतिः श्रीमान् बहूनां तानि पृष्टतः(१) ।।८४६।। कृत्वा वचांसि तत्पश्चात्तमेव श्रोत्रियं परम् । कृत्वैव सम्यक् तत्पूर्व तमेवैनं प्रपूजयेत् ।।८४७।। शतानामपि मूढानां वचनं नैव कारयेत् । तथा पुनस्सहस्राणामयुतानां विशेषतः ।।८४८॥ किमस्ति वचने तस्मिन् तूष्णीके तदुरोपमे । वचनं तच्छ्रोत्रियस्य वेदशास्त्रविनिश्चितम् ॥८४६।। संश्राव्य सर्वदा सर्वैः सर्वलोकोपकारकम् । ये वा विरोधिनस्तस्य ते सर्वे दण्डभागिनः॥८५०।। भवेयुरेव सततं मूढा वेदविरोधिनः । यत्करोति श्रोत्रियोऽसौ वचने नैव तत्परम् ॥८५१।। न तत्कतुं मूढशतं किं शक्त प्रभवेदहो। यो भुक्तिसमये मौात् ब्राह्मणानां समर्पितम् ।।८५२।। दत्तं तथा प्रोक्षितं च मन्त्रेण परिषेचितम् । विघातयेद्षयेद्वा पांसुभिर्भस्मभिर्मदा ॥८५३।। उच्छिष्टेन पुरीषेण तथा तं सद्य एव वै। ग्राहयित्वा विशेषेण निगलेन च संवृतम् ॥८५४॥
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दण्डविधानम्
२६०६ मासवयनरूपेण विप्रसंख्यानुरूपतः । कारयित्वा ततः पश्चात् एकविप्रस्य षट्शतम् ।८।। पणान् दण्डं गृहीत्वा च सर्वेषां तत्र वै तथा । भोक्तुं समुपविष्टानां पृथगेवं निरीक्ष्य वै ।।८५६।। सर्वान् पणान् तान्स्वीकृत्य तां वृत्तिमुपहृत्य च । तग्रामिभ्योऽथ वा तस्य तत्प्रत्यर्थिन एव वा ।।८५७।। देशादुच्चाटयित्वाथ दद्यादेवाविशङ्कतः । विप्रवृत्तिस्तु विप्रेभ्यः एव देया न तु स्वयम् ॥८५८।। हरेद्राजा धर्मपरः हरन्सद्यः पतेधः । एवं शूद्रश्चरेत्कोऽपि तस्य दण्डो वधस्ततः ।।८५६।। छित्वा हस्तौ प्रथमतः निगले वसतिस्सदा । राज्ञानिष्ठप्रवक्तारं तस्यैवाक्रोशकारिणम् ॥८६०।। तन्मन्त्रस्य च भेत्तारं तत्पनीकृतसङ्गकम् । छित्वा जिह्वां च शिश्नं च सद्यो दूराद्विसर्जयेत् ॥८६॥ स्वजनैर्दूषितः सद्भिः भोजनादिषु कर्मसु । मोहयित्वा तदा यत्नादवशाचाप्यचिन्तितम् ।।८६२।। समागतश्च समये विवादेनैव केवलम् । दुराशया भोक्तु कामः दूरीकुर्वन्परान्द्विजान् ।।८६३।। दापनीयस्त्वसौ सम्यक् चतुर्विंशतिकान् पणान् । स आगतो यदि वयं भोक्तुं यत्र च यत्र च ।।८६४॥
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२६१०
कपिलस्मृतिः तत्र तत्र च गच्छामः(मो) न भुजिष्यामहे ततः । इत्यस्मिन् सङ्कटेऽर्थे तु विवादायागतो यदि ॥८६।। भुक्तिकाले दण्डनीयः नान्यकाले तदुक्तितः । भोजनेषु ब्राह्मणानां विवादे तु परस्परम् ।।८६६॥ संजाते सद्य एवास्य शान्तिःकार्या न चेद्वथा । हानिस्सुमहती घोरा जायते चोभयत्र तु ॥८६७| विवादे तादृशे शक्तः श्रोत्रियश्चेद्विशेषवित् । बहुभिस्तु विशेषेणाविद्यौरश्रोत्रियैर्युतः ।।८६८।। यदि स्युः श्रोत्रियास्सन्तः बहवस्तत्र तैस्समम् । अश्रोत्रियस्त्वं यं चैकः विवदेन तु धर्मतः ।।८६६॥ परेषां तु सहायेन तद्वाक्यश्रवणादिना। न कर्म कुर्यात्किमपि साहसं वचनं तथा ।।८७०।। न वदेश्चापि तूष्णीकं किं तु तानखिलान्द्विजान् । संश्रित्यैव प्रणत्या च प्रियोक्त्या स्ववशान्नयेत् ।।८७१॥ तानेतानखिलानो चेद्धानिरस्यैव जायते । बहुब्राह्मणविद्वषः तद्दुःखकरणं वृथा ॥८७२।। श्रेयसो न भवेदेव तस्मान्नतु तथा चरेत् । अधिकान् श्रोत्रियान् कुर्यात् न्यूनानश्रोत्रियान्सदा ॥८७३॥ कर्मणा मनसा वाचा प्रयत्नेन समाचरेत् । ब्राह्मणानर्चयेन्नित्यं ब्राह्मणानेव तोषयेत् ।।८७४।। भोजयेद्ब्राह्मणानेव दद्यात्तेभ्योऽनिशं धनम् । सर्वदेवभयो विप्नः सर्ववेदमयो द्विजः ।।८७५।।
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विप्रमहत्त्ववर्णनम्
२६११ सर्वक्रतुस्वरूपश्च सर्वतीर्थसदाश्रयः। सर्वव्रतानि कृच्छ्राणि तपांसि ब्राह्मणः स्मृतः ॥८७६।। सर्वे धर्मास्स एवस्याच्छ्राद्धानि नियमा अपि । ब्राह्मणेन विना किंचिदभिप्रेतं न सिद्धयति ॥८७७।। तस्मान्न ब्राह्मणसंमं किं भूतमिह विद्यते । यस्यास्येन सदाश्नन्ति व्यानि त्रिदिवौकसः ।।८७८॥ कव्यानि चैव पितरः किं भूतमधिकं ततः । ब्राह्मणो जङ्गमं तीथं प्रवक्ता ब्राह्मणस्सुरः ।।८७६।। अदाहकः पावकोऽयं चाक्षषो वायुरुच्यते । पद्मबन्धुरयं प्रोक्तः संत्यक्तास्तमयोदयः ॥८८०॥ सुपात्रं सर्वदा नाना शुभानामास्पदः पदः । अभाग्याज्ञानरोगाश्रीःमृत्युदारिद्रयमारकः ॥८॥ अकर्तुमन्यथाकतुं कर्तुं सर्व विचक्षणः । दुर्वर्णानपि सद्वर्णानवशात् कुरुते क्षणात् ।।८८२॥ नैतस्मादधिकं तुल्यं वस्त्वस्ति जगतीतले । हिरण्यगर्भत्रितयदानमात्रेण तत्क्षणात् ।।८८३॥ विप्रत्वं परमाप्नोति वृषलो नात्र संशयः । तत् षोडशमहादानप्रविष्ट कस्य वाडवे ।।८८४॥ करणादेव शेषाणां दानानां करणे पुनः । शूद्रादेर्वेदमन्त्रैस्ते सम्यक्कारयितुर्यथा १८८५॥ विधानतस्तुप्रभवेत् तत्तु विप्रमुखेन चेत् । क्षत्रादि मुखतश्चेत्तु न युक्त प्रभवेद्धि तत् ।।८८६॥
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२६१२
कपिलस्मृतिः तुलामादौ गोसहस्र कल्पवृक्षादिकं तु वा। शूद्रण प्रथमं दानममन्त्रकमधार्मिकम् ।।८८७।। कृतं चेत् तत्परं सर्व मुखाद्विप्रस्य चेत्स्मृतम् । वेदोक्त नैव मार्गेण क्षत्रियादिमुखेन चेत् ॥८८८॥ विप्रैश्चतुः षष्टिसंख्यैः ऋत्विग्भिः वृषलोऽपि सन् । द्वितीयादीनि दानानि तत्र ब्राह्मणसंनिधौ ।।८८६।। वेदोक्तनैव मार्गेण कुर्यादेवाविचारयन् । महादानस्य तस्मा(स्या)स्य कारणादेव केवलम् ।।८६०।। एकस्यापि ततः सद्यः तच्छिष्टे दानकर्मणि । वेदमार्गेण शक्नोति कतुं तत्कर्म तादृशम् ।।८६१।। न साक्षाद्वदमन्त्रोक्तीः तस्य संगच्छतेतराम् । ब्राह्मणस्य मुखेनैव तदुक्तिस्तस्य तत्र वै॥८६२॥ संगच्छते विशेषेण न तु स्वस्य विधीयते । त्रिवारं तेषु सर्वेषु कृतेषु तु ततः परम् ।।८६३।। तदुक्तावधिकारोऽपि सम्यक् संगच्छतेऽस्य तु । यो वा दानानि सर्वाणि महान्ति चरमे वयः ।।८६४॥ करोति भक्त्या शूद्रोऽपि तत्क्षणात्तेन कायतः। विष्णुलोकं प्रयात्येव महिना तस्य केवलम् ।।८६५।। हिरण्यगर्भदानस्य चतुर्वारकृतस्य तु । महिना वृषलस्यापि मौज्यामधिकृतिर्भवेत् ।।८६६।।
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२६१३
नानाविधिदानप्रकरणम् ततोऽपि कृतया मौज्या शूद्रो ब्राह्मण्यमृच्छति । तुलाष्टादशधाज्ञेया तत्रादौ राजता स्मृता ॥८६॥ चामीकरमयी पश्चात्त्रपुसीसकयोरपि ।
औदुम्बरमयी पश्चात् कार्पासपटयोरपि ॥८६८॥ गुडाज्यलवणंक्षीरदधिशाकमयाः पराः। माध्वीकतिलतैलानां पैल्वाकी धान्यराशिभिः ॥८६॥ चरमा सा प्रकथिता सप्तधान्यैः पृथक् पृथक् । ग्राम्यैरपि तथारण्यैः विकल्पेन मनीषिभिः ॥१०॥ चरमा सा तुला ज्ञेया चतुर्दशविधैकका। ग्राहकस्य ब्राह्मणस्य सद्योरक्षस्त्वदायिनी ॥१०॥ प्रायश्चित्तापनोद्या सा न भवेदेव सर्वथा। सर्वाण्यपि च दानानि तुलादीनि तु षोडश ॥६०२॥ तादृशान्येव सर्वाणि नात्र कार्या विचारणा। कर्तुस्सद्यस्सर्वपापनाशद्वारैव केवलम् ॥६०३॥ मुक्तिदान्येव सर्वेषां वर्णानामविशेषतः । एतानि चरमे काले यो वा मो महामनाः ॥६०४॥ मध्ये तेषां तुलादीनामप्येकं दानमुत्तमम् । करोति सद्यो मुक्तिं तां ब्रह्मसायुज्यलक्षणम् ॥१०॥ अवशादेव मनुजो लभते नात्र संशयः । चरमे जन्मनि नरस्तानि दानानि मानवः ॥६०६॥ करोत्येव न चान्यस्मिन् रहस्यं तन्मयोदितम् । दानं महत्तथैकेषामप्येकं भक्तिमान्नरः ॥६०७॥
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२६१४
कपिलस्मृतिः दशायां च रमायां तु कुर्याद्वापि तदेव हि । फलं तु लभते दिव्यं ब्रह्मसायुज्यलक्षणम् ॥६०८|| हैरण्यगर्भ तद्दान (न) गोमूत्रं प्रथमं स्मृतम् । गोमयोदकसंज्ञं तत् (द्) द्वितीय परिकीर्तितम् ।।१०।। दधिपूरितमन्यत्तु तृतीयमिति तद्विदुः । क्षीरपूरितमन्यत्तु चतुर्थं पापभञ्जकम् ॥६१०।। घृतेन पूरितं प्राहुः पञ्चपातकनाशनम् । तैलं हिरण्यगर्भाख्यं ततो भिन्नं प्रचक्षते ॥६११।। मधुना पूरितं पुण्यमत्यन्ताज्ञानवारकम् । तथेक्षुरससंपूर्ण महारौरवभीतिहम् ॥६१२।। नारिकेलोदकैः पूर्ण तथाम्भःपूर्णमेककम् । हैरण्यगर्भ चरमं प्राहुर्दिव्या महर्षयः ॥१३॥ एवं दशविधं प्रोक्त दानं पापापनोदकम् । हैरण्यगर्भसंज्ञं तत् ग्राहकस्यातिभीतिहम् ॥१४॥ तद्ब्रह्माण्डकटाहाख्यं दानं सर्वार्थदायकम् । चतुर्दशविधं प्रोक्त भूर्भुवस्वादिभिः पदैः ॥११॥ अतुलादिपदैश्वापि संयुक्त सर्वसिद्धिदम् । महादानं महाभूतिदायकं पापवृन्दहम् ॥६१६।। एषां यदेककं वापि कृतं चेनिखिलं कृतम् । तत्तत्कामनया चेत्तु चरेदेव तथा तथा ॥१७॥ तूष्णीकं परमेशस्य तुष्टये चेत्कृतं तु तत् । कर्तुस्सायुज्यदं सद्यः तथापि तु पुनः परम् ।।१८।।
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२६१५
नानाविधदानप्रकरणम् रहस्यमेकं वक्ष्यामि ग्राहकस्त्वस्य केवलम् । रक्षस्त्वं समवाप्नोति दाता सायुज्यमृच्छति ।।११।। गोसहस्रमतिश्लाघ्यं गोसत्रशतसन्निभम् । नीलादिभेदतस्तत्तु सप्तरूपं प्रचक्षते ॥२०॥ स्वर्णलाङ्गलसंज्ञं तदपरं दानमेककम् । मन्वादिभिविरचितं दातुस्सर्वफलप्रदम् ॥१२॥ नैतेन तुल्यमन्यत्तु दानं दानोत्तमोत्तमम् । कामधेन्वाख्यकं पश्चादेकं सर्वगुणान्वितम् ।।२२।। हरिश्चन्द्रादिभिर्घोरैः राजभिः समनुष्ठितम् । सर्वयज्वौघविनुतमपरं दानमेककम् ॥२३॥ कल्पवृक्षाख्यकं देवदेवस्य परमात्मनः । अतिसंप्रीतिजनकं सद्यः कैवल्यदायकम् ॥२४॥ एवं महाधरादानं गोमेधशतसंनिभम् । सर्वाण्येतानि दानानि कर्तुरेव त्रिपूर्वकम् ।।१२।। पूर्वोक्तफलदं ज्ञेयं नान्यस्येति सुनिश्चितम् । एवं सर्वाणि दानानि दशपञ्च च केवलम् ॥६२६।। नवमं कन्यकादानदातुस्तद्ग्राहकस्य च । चन्द्रमण्डलपर्यन्तं यवराशिः कृता यदि ॥६२७|| सूर्यमण्डलपर्यन्तं तिलराशि(:)कृता यदि । (अ) तद्री शिवलोकपर्यन्तस्सर्षपा राशिरुत्तमा |२८|| सप्तर्षिलोकपर्यन्तं वालुका राशिरुत्तमा । कृतस्त्वासां तु या संख्या तावद्वर्षसहस्रकान् ।।१२।।
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२६१६
कपिलस्मृतिः दशानामपि पूर्वेषां दशानामपि पूर्ववत् । पितुः स्वस्य तथा पश्चात्तत्पितुस्तत्पितुस्तथा ॥६३०॥ एकोत्तरशतानां च कुलानां महतामपि । पितृणामपि सर्वेषां नरकोत्तारपूर्वकम् ॥३१॥ तच्छाश्वतब्रह्मलोकावाप्तिकारकमुच्यते । दातुस्तु सद्यो विज्ञानद्वारैव पुनरेव वै ॥३२॥ तद्ब्रह्मसायुज्यनामा मुक्तिकारकमेव वै। तस्मान्नैतत् समं दानं धर्मो वै तत्परः पुनः ।।६३३।। सदैवैतत्समं दानं लक्ष्मीनारायणप्रियम् । महासन्ततिसंवृद्धिकारकं कथितं महत् ॥६३४॥ यथैतदेतत् परमं निश्शेषपितृतारकम् । कुर्यादानं प्रशंसन्ति तथा तत्तनयस्य च ॥१३॥ दानं पितृणामत्यन्तकलिदुर्गातिकारकम् (१) । पूर्ववत् कालसंख्या च वेदितव्या विशेषतः ।।६३६।। अस्मिन्नर्थे न सन्देहः एवमाह महर्षयः । यतये कन्यकादानं रसदानं च वर्णिनः ॥६३७॥ भिक्षादानं गृहस्थाय त्रयमेतद्विगहितम् । तथाथिनं मस्करिणं वर्णिनं चान्नकामुकम् ।।६३८॥ भिक्षार्थिनं गृहस्थं च सद्यो राष्ट्रात्प्रवासयेत् । तूष्णी भिक्षा गृणन् प्रामे वसन्तान्भक्षयन्वृथा ॥१३॥
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नानाविधदानप्रकरणम् २६१७ विनैव वेदाध्ययनं ब्रह्मचारी विशेषतः। दण्डनीयः प्रयत्नेन ताडनीयस्तदा तदा ॥६४०॥ राष्ट्रादु (द्वासयेत्तञ्चा) वेदाध्ययनतत्परम् । नित्यंभिक्षार्थिनोयत्नात् शाकसूपरसादिभिः ॥१४॥ भिक्षाप्रदानात्परतः तत्समाप्ति समाचरेत् । तावन्मात्रेण ते वेदाः सर्वे शास्त्राणि चाङ्गकैः ॥४२॥ तथा स्मृति पुराणानि (सेतिहासानि सर्वशः)। वर्णिभुक्तौ पसूपरसाद्यदधिगोरसाः ॥६४३।। हाटकक्षितिगोरत्नगजवाहा भवन्ति वै। गृहस्थस्य प्रतिदिनं गुह्यो धर्मः स्वयं महान् ॥६४४|| यतेर्वा वर्णिनोदत्ताः लवणव्यञ्जनादयः । भुक्तिकालेऽन्वहं नृणां ग्रहिणः कामधेनवः ॥६४।। कल्पवृक्षा भवेयुर्हि किं चैते रत्नसानवः । कन्याभूस्वर्णरत्नाश्वगजवाहनसंचयाः ॥६४६।। यतिवणि प्रदत्तास्ते गृहिणो नरकप्रदाः । भवेयुर्नात्र सन्देहः तभ्यां(स्या) दद्यादतो न तान् ।।६४७॥ गृहिणं त्वन्नभिक्षायै समागतमुदीक्ष्य ना। द्वितीयेऽहनि हुंकृत्य दूरमुद्वासयेद्धृ वम् ॥६४८॥ प्रथमेऽहनि चेदज्ञः किं कायं क्रियते त्वया । नेतः परं न कायं स्यादित्युक्त्वा तां प्रदापयेत् ।।१४।। गच्छेत्यु(दु)चाटयेत्तूष्णीं द्वितीयेऽहनि चच्छवै। . याचन्तं तण्डुलान् ब्रह्मचारिणं यतिमेव वा ॥६५०॥
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२६१८
कपिलस्मृतिः दृष्ट्वा विलोक्य मार्तण्डं पुण्डरीकाक्षमुच्चरेत् । ताम्बूलं धरणिं धान्यं यतिवर्ण्यः कदाचन ॥६५१।। जातरूपं न दद्याञ्च सुगन्धकुसुमस्रजम् । तण्डुलान् बालरण्डायै न दद्यात्तु कदाचन ।।६५२॥ आगतायै भिक्षुकायै करमात्राधिकान्ननु । तासां नित्यं धान्यमेव प्रदेयं करपूरितम् ॥६५३।। यदि पञ्चाशदधिकसंवत्सरपरा पुनः । तदा तण्डुलयोग्यापि भवेदिति भृगोर्मतम् ।।६५४॥ व्रतश्राद्धनिमित्तेन याचितो यदि वा त्वया । तत्पूर्तिमात्रदानेन गयाश्राद्धफलं भवेत् ॥६५५।। विधवाभिरनाथाभिः वस्त्राय यदि याचितः । तन्मनः पूरणं कुर्वन्नश्वमेधफलं भवेत् ।।१५६।। षष्टिवर्षात्परं तासामनाथानां तु याचने । भिक्षायामधिकारोऽस्ति तत्पूर्व नेति चाङ्गिराः ॥६५७।। वर्णिने यतये कन्यादानं शास्त्रविगहितम् । विशेषेण धराताम्बूलद्वयं नरकप्रदम् ।।६५८।। अपि यत्नात् श्राद्धदिने वर्णिने दैवरूपिणे । देया स्यादक्षिणा तस्मै न ताम्बूलमिति श्रुतिः ।।१५।। तिने कन्यकादानं रसदानं (तु) पुत्रिणे । यागार्थिनेऽन्नदानं च कोटियज्ञफलप्रदम् ॥६६॥ वैश्वदेवावसाने तु ब्राह्मणो यश्च कञ्चन(कश्चन)। क्षुधार्ता पात्रभूतस्य स्त्रियोऽन्तर्वन्य एव च ॥६६॥
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नानाविधदानप्रकरणम् . २६१६ कन्यका विधुरा बालाः तीर्थादिव्रतचारकाः। रण्डाश्च विधवास्सर्वे वर्णास्तेऽपि चतुर्विधाः ॥६६२॥ अन्नदानैकपात्राणि चण्डालान्तानि सूरिभिः । कथितानि महाभागैः क्षुत्क्षामापन्नपात्रता ॥९६३॥ महादानानि चामूनि तुलादीन्ययुना पुनः । आर्द्र कृष्णाजिना हीनि प्रायश्चित्तादिकैरपि ॥६६४॥ अनिवानि घोराणि ग्राहकस्यैव सर्वगा। तस्मात् स्वोदरपूर्त्य/गुरुद्रोहादिकं खरम् ॥६६॥ पितृदेवसखिद्रोहं कुर्याद्वापदि निर्भयम् । न तुलादिमहादानद्रव्यं सर्वात्मना स्पृशेत् ॥६६६।। देवब्राह्मणगोमांसं मातृमांसं सुरादिकम् । भक्षयेदापदि पुनः तत्र द्रव्यं न(सं)स्पृशेत् ॥६६७।। गुरुपत्नी च भगिनीं भ्रातृपत्नी सुतामपि । कदाचित् कामतोगच्छेत् तुलाद्रव्यं तु न स्पृशेत् ।।६६८।। प्रकुर्यान्मद्यपान वा गोमांसं वापि भक्षयेत् । कुर्याद्वा ब्रह्महत्यां च भ्रूणहत्यां तथा विधाम् ।।६६६॥ वीरहत्यां तु वा कुर्यात् तुलाद्रव्यं तु न स्पृशेत् । अथ वा मातरं गच्छेत् तुलाद्रव्यं तु न स्पृशेत् ॥६७०।। प्रायश्चित्तशतैश्चापि ' तीर्थकोटिशतैरपि । कृच्छातिकृच्छ्रचान्द्रायः तद्रक्षस्त्वं न नश्यति ॥९७१।। तर्हि तेषां पुनः प्रायश्चित्तशास्त्रं वृथा भवेत् । इत्युक्त सति तस्यापि प्रत्युत्तरमिहोच्यते ॥६७२।।
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२६२०
कपिलस्मृतिः आदौ प्रतिवसन्तस्य वसन्ते सोमयाजिनः । संकल्पकाल आढ्यस्य दैवान्नष्टश्रिया पुनः ॥६७३।। तद्विच्छित्तिर्दशायां चयन केनाप्युपायतः । कर्तव्यत्वेन चोक्तस्य सामर्थ्यात्करणे तथा ॥६७४|| तस्य प्रतिवसन्तस्य तादृशं दानमेककम् । प्रतिगृह्य विधानेन तद्र्व्यस्य तुरीयकम् ॥६७५|| त्यागं कृत्वा चित्तमपि तेन द्रव्येण तत्परम् । अनुष्ठितस्सप्ततन्तुः यदि तद्वत्सु चाखिलम् ।।६७६।। विनियुक्त तत्र सममात्र एवान्य तादृशः। तद्र्व्यं तत्प्रदं न स्यादेव यागाय यत्कृतम् ।।१७७|| तत्सर्वं तस्य दोषाय न भवेदेव सर्वथा । व्रतसंवत्सरं यावज्जीवं चैव विधानतः ॥६७८|| संकल्पितस्य यज्ञस्य विषये ब्राह्मणस्य चेत् । सर्वप्रतिग्रहेणापि न दोष इति सा श्रुतिः ॥६७६।। भ्रष्टाद्वा पतिताद्वापि पाषण्डान्नास्तिकादपि । चण्डालाद्यवनान्म्लेच्छात्प्रतिगृह्यापि तं ऋतुम् ।।६.८०। यजेत विधिवद्विप्रएवमेव वस्तथा। दौर्ब्राह्मण्यविनाशाय विच्छित्तौ वेदिवेदयोः ।।१८।। अतिपापादतिखलादतिनीचादतन्द्रितः। सकाशाद्वसु संगृह्य येन केन प्रकारतः ।।६८२।। अग्निष्टोमस्त्वनुष्ठ यः प्रथमोऽयं क्रतुर्भवेत्। । तस्यानुष्ठानमात्रेण दौर्ब्राह्मण्यं विनश्यति ॥६८३।।
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दुष्कर्मणांप्रायश्चित्तवर्णनम् २६२१ अत्यमिष्टोममुख्यान्तान् क्रमात षट्छदितः परम् । सद्रव्येणैव विधिना न्यायलब्धेन धर्मवित् ॥६८४॥ यजेतव्यं पुरोक्तन न मार्गेण कदाचन । दौर्ब्राह्मण्ये परिहृते येन केन प्रकारतः ॥१८॥ तदुत्तरक्रमाणां चेदनुष्ठानस्य शून्यतः । अभावात्प्रत्यवायस्य करणं मास्तु पूर्ववत् ।।६८६॥ कर्मणो यस्य वा लोके समनुष्ठानशून्यतः । प्रभवेत्प्रत्यवायोऽयं कर्मणस्तस्य केवलम् ॥६८७|| अत्यन्तावश्यकत्वेन कतव्यत्वं प्रकीर्तितम् । तद्भिन्नानां कर्मणश्चेत् करणेऽभ्युदयं परम् ।।६८८।। पुनस्त्वकरणे तेषां प्रत्यवायो न विद्यते । पञ्चपातकभिन्नानां पातकानां द्विजन्मनाम् ॥१८॥ गायत्री जप एवस्यान्निष्कृतिः शास्त्रसंमता । शतं सहस्रमयुतं नियुतं न्यर्बुदं तथा ॥६६०|| तत्तत्कार्यानुगुण्येन व्याहृतीनां जपोऽथवा । सोमातिरेकादिषु च महादानादिषु क्वचित् ।।६६ उपनीतिः पुनरपि . क्रूरकर्मसु केवलम् । परगर्भादिकं चापि कार्यमेवेति निष्कृतौ ॥१२॥ प्रवदन्ति महात्मानः नदीनानादिकानि च। कृच्छ्रप्रतिनिधित्वेन केचिदाहुश्च पापिनाम् ॥१३॥
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२६२२
कपिलस्मृतिः अनुग्रहाय सौलभ्यकारणाय च तादृशे । पुरुषसूक्तं च नी(न)मकं शिवसंकल्पकं तथा ॥४| रौद्रवैष्णवगायच्या शाखा चोपनिषत्तु वा। त्रियम्बकमिदं विष्णुपादकास्तारकाः स्मृताः || सर्वेष्वपि च कृत्येषु कपिलेनेदमीरितम् । धर्मशास्त्र महासारं सर्वलोकोपकारकम् । पठन् भक्त्याद्विजो नित्यमश्वमेधफलं लभेत् ॥ ६॥
॥ इति कपिलस्मृतिस्समाप्ता ।। ॐ तत्सद्ब्रह्मार्पणमस्तु॥
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॥ श्री गणेशायनमः॥
*वाधलस्मृतिः*
नित्यकर्मविधिवर्णनम् वाधूलं मुनिमासीनमभिगम्य महर्षयः प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन् ॥१॥ भगवन् ब्राह्मणादीनामाचारं वद तत्वतः । तच्छ्र त्वा मुनि शार्दूलस्तानृषीन् प्राह धर्मवित् ।। २ ।। ब्राह्मान्मुहूर्तादारभ्य त्रिकाले विहितं तथा। .. नित्यनैमित्तिकं चैव प्रवक्ष्यामि यथामति ॥३॥ ब्राह्म मुहूर्त संप्राप्त त्यक्तनिद्रः प्रसन्नधीः । प्रक्षाल्य पादावाचम्य हरिसंकीर्तनं चरेत् ॥४॥ ब्राह्म मुहूर्ते निद्रां च कुरुते सर्वदा तु यः। अशुचिं तं विजानीयादनहः सर्वकर्मसु ॥५॥ नक्षत्रज्योतिरारभ्य सूर्यस्योदयनं प्रति । प्रातः सन्ध्येति तां प्राहुः श्रुतयो मुनिसत्तमाः॥ ६ ॥ प्रातः सन्ध्यां सनक्षत्रामुपासीत यथाविधि । सादित्या पश्चिमा सन्ध्यामर्धास्तमित भास्कराम् ।।७।। दिवा सन्ध्यासु कर्णस्थो ब्रह्मसूत्र उदङ्मुखः । कुर्यान्मूत्रपुरीषे तु रात्रौ चेदक्षिणामुखः ॥८॥
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२६२४
वाधूलस्मृतिः अवगुण्ठितसर्वाङ्गः तृणैराच्छाद्य मेदिनीम् । घ्राणास्ये वाससाच्छाद्य मलमूत्रं त्यजेद्बुधः ॥६॥ अप्रावृत्य शिरो यस्तु विण्मूत्रं सृजति द्विजः । तच्छिरः शतधा भूयादिति वेदाः शपन्ति तम् ॥१०॥ उत्थाय वामहस्तेन गृहीत्वा चोर्ध्वमेहनम् । शौचदेशमथाभ्येत्य कुर्याच्छौचं मृदम्बुभिः ॥११॥ अरनिमात्रमुत्सृज्य कुर्याच्छौचमनुद्धृते । पश्चात्तच्छोधयेत्तीर्थमन्यथा न शुचिर्भवेत् ॥१२॥ विदछौचं प्रथमं कुर्यान्मूत्रशौचं ततः परम् । पादशौचं ततः कुर्यात् करशौचं ततः परम् ।।१३।। पञ्चधा लिङ्गशौचं स्याद्गुदशौचं त्रिवेष्टितम् । पादयोलिङ्गवच्छौचं हस्तयोस्तु चतुर्गुणम् ॥१४॥ एतच्छौचं गृहस्थानां द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम् । त्रिगुणं तु वनस्थानां यतीनां तु चतुर्गुणम् ॥१५॥ यद्दिवा विहितं शौचं तदधं निशि कीर्तितम् । तदर्धमातुरे प्रोक्तमातुरस्यार्धमध्वनि ।।१६।। विण्मूत्रकरणात्पूर्वमादद्यान्मृत्तिकां तदा । अददानस्तु तां पश्चात्सवासा जलमाविशेत् ॥१७॥ आर्द्रामलकमात्रास्तु ग्रासा इन्दुव्रते स्मृताः। तथैवाहुतयः सर्वाः शौचार्थे याश्च मृत्तिकाः ॥१८॥ शौचं तु द्विविधं प्रोक्त बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । मृजलाभ्यां स्मृतं बाह्य भावशुद्धिस्तथान्तरम् ॥१६॥
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२६२५
नित्यकर्मविधिवर्णनम् शौचे यत्नः सदा कार्यः तन्मूलो हि द्विजः स्मृतः। शौचाचारविहीनस्य समस्ता निष्फलाक्रियाः ॥२०॥ अन्तर्जानुः शुचौ देश उपविष्ट उदङ्मुखः । प्राग्वा ब्राह्मण तीर्थेन द्विजो नित्यमुपस्पृशेत् ।।२।। गोकर्णाकृतिहस्तेन माषमग्नजलं पिबेत् । तन्न्यूनमधिकं पीत्वा सुरापानसमं भवेत् ॥२२॥ संहताङ्गुलिना तोयं गृहीत्वा पाणिना द्विजः। मुक्तांगुष्ठकनिष्ठे तु शिष्टेनाचमनं भवेत् ॥२३॥ उपविश्य शुचौ देशे प्राङ्मुखो ब्रह्मसूत्रधृत् (क्)। बद्धचूडः कुशकरो द्विजः शुचिरुपस्पृशेत् ॥२४॥ अप्सु प्राप्तासु हृदयं ब्राह्मणः शुद्धतामियात् । राजन्यः कण्ठतालुस्मृक वैश्यः शूद्रः तथा स्त्रियः ॥२शा सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम् । नोच्छिष्ट तत्पवित्रं तुभुक्त्वोच्छिष्ट तु वर्जयेत् ॥२६॥ कुशहस्तः पिबेत्तोयं कुशहस्तः सदाऽऽचमेत् । सग्रन्थिकुशहस्तस्तु न कदाचिदुपस्पृशेत् ॥२७॥ प्रभासादीनि तीर्थानि गङ्गाद्याः सरितस्तथा। विप्रस्य दक्षिणे कर्णे सन्तीति मनुरब्रवीत् ॥२८॥ प्राङमुखोदङ्मुखो वापि समाचम्य विशुध्यति । पश्चिमे पुनराचम्य याम्या स्नानेन शुध्यति ॥२६॥ आवासा जले कुर्यात् तर्पणाचमनं जपम् । शुष्कवासाः स्थले कुर्यात्तपणाचमनं जपम् ॥३०॥
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वाधूलस्मृतिः
आम्रक्षु (ख)ण्डताम्बूलचर्वणे सोमपानके । विष्ण्वङ्घ्रितोयपाने च नाद्यन्ताचमनं भवेत् ||३१|| विष्णुपादोद्भवं तीर्थं पीत्वा नक्षालयेत्करम् । क्षालयेद्यदि मोहेन पञ्चपातकमाप्नुयात् ||३२|| उपवासदिने यस्तु दन्तधावनकृन्नरः ।
स घोरं नरकं याति व्याघ्रभक्षा (क्ष) श्वतुर्यु गम् ||३३|| प्रक्षाल्य पादौ हस्तौ च मुखं चाद्भिः समाहितः । आचम्य प्राङ्मुखः पश्चादन्तधावनमाचरेत् ||३४|| आयुर्बलं यशोवर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ||३५|| यस्तु गण्डूषसमये तर्जन्या वक्त्रशोधनम् । कुर्वीत यदि मूढात्मा नरके पतति द्विजः ||३६|| अलाभे दन्तकाष्ठानां प्रतिषिद्धदिनेष्वपि । अपां षोडशगण्डूषैः मुखशुद्धिर्भविष्यति ||३७|| प्रतिपत्पर्वषष्ठीषु नवमी द्वादशी तथा । दन्तानां काष्ठसंयोगो दहत्यासप्तमं कुलम् ||३८|| सुरया लिप्तदेहोऽपि प्रायश्चित्तीयते द्विजः । प्रातरभ्यक्तदेहस्य निष्कृतिर्न विधीयते ॥३६॥ तैलाभ्यङ्गं महाराज ब्राह्मणानां करोति यः । स स्नातोऽब्दशतं साङ्गं गङ्गायां नात्र संशयः ||४०|| द्रव्यान्तरयुतं तैलं न कदाचन दुष्यति । तैलमाज्येन संसिक्त ग्रहणेऽपि न दुष्यति ||४१ ||
२६२६
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२६२७
स्नानविधिवर्णनम् छायामन्त्यश्वपाकानां स्पृष्ट्वा सानं समाचरेत् ।। चत्वारिंशत्पदादूवं छायादोषो न विद्यते ॥४२॥ अस्पृश्यस्पर्शने चैव त्रयोदशनिमज्जनम् । आचम्य प्रयतः पश्चात्तानं विधिवदाचरेत् ॥४३।। ज्वराभिभूता या नारी रजसा च परिप्लुता। कथं तस्या भवेच्छौचं शुध्यते केन कर्मणा ॥४४॥ चतुर्थेऽहनि संप्राप्त स्पृशेदन्या तु तां त्रियम् । सा सचैलावगाह्यापः स्नात्वा स्नात्वा पुनः स्पृशेत् ।।४।। दश द्वादशकृत्वो वा ह्याचामेच पुनः पुनः । अन्ते च वाससा त्यागः ततः शुद्धा भवेत्तु सा ॥४६॥ दद्याच्छक्या ततो दानं पुण्याहेन विशुध्यति । आर्तवाभिप्लुते नारों संभाषता मिथो यदि ॥४७॥ उपवासं तयोराहुरशुद्धौ शुद्धिकारणम् । शावे च सूतके चैव सन्तरा चेतुर्भवेत् ।।४।। अस्नात्वा भोजनं कुर्याद् भुक्त्वा चोपवसेदहः । उत्सवे वासुदेवस्य यः स्नाति स्पर्शशल्या ॥६॥ स्वर्गस्थाः पितरस्तस्य पतन्ति नरके क्षणात्। अस्पृश्यस्पर्शने वान्तो अभुपाते झते भगे ॥२०॥ स्नानं नैमित्तिकं झेयं देवर्षिपितृवर्जितम् । स्वधुन्यम्भः समानिस्युः सर्वाण्यम्भासि भूतले ।।५।। कूपस्थान्यपि सोमार्कग्रहणे नात्र संशयः। अश्रोत्रियः श्रोत्रियो वा अपात्रं पात्रमेव वा ॥२॥
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२६२८
वाधूलस्मृतिः विप्र वो वा विप्रो वा ग्रहणे दानमर्हति । सर्व भूमिसमं दानं सर्वो ब्रह्मसमो द्विजः ॥५३।। सर्व गङ्गासमं तोयं ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः । प्रातराचमनं कृत्वा शौचं कृत्वा यथाविधि ॥५४।। दन्तशौचं ततः कृत्वा प्रातः स्नानं समाचरेत् । द्वौ हस्तौ युग्मतः कृत्वा पूरयेदुदकाञ्जलिम् ।।५।। गोशृङ्गमात्रमुद्धृत्य जलमध्ये जलं क्षिपेत् । येन तीर्थेन गृह्णीयात् तेन दद्यान्जलाञ्जलिम् ॥५६।। अन्यतीर्थेन गृह्णीयात्तत्तोयं रुधिरं भवेत् । पूर्वाशाभिमुखो देवानुत्तराभिमुखस्त्वृषीन् ॥७|| पितृस्तु दक्षिणास्यस्तु जलमध्ये तु तर्पयेत् । स्नानाथमभिगच्छन्तं देवाः पितृगणैः सह ॥५८| वायुभूतास्तु गच्छन्ति तृषार्ताः सलिलार्थिनः । तस्मान्न पीडयेद्वस्त्रमकृत्वा पितृतर्पणम् ॥५६।। निराशास्ते निवर्तन्ते वस्त्रनिष्पीडने कृते । तस्मान्न पीडयेद्वस्त्रं ये के च इति मन्त्रतः ॥६०।। वस्त्रं चतुर्गुणीकृत्य निष्पीड्य च जलाद्वहिः । वामप्रकोष्ठे निक्षिप्य द्विराचम्य शुचिर्भवेत् ॥६१।। मनुष्यतर्पण चैव स्नानवस्त्रनिपीडने । निवीती तु भवेद्विप्रस्तथा मूत्रपुरीषयोः ॥६२।। नदीपु देवखातेपु गिरिप्रस्रवणेषु च । म्नानं प्रतिदिनं कुर्यात सर्वकर्मप्रसिद्धये ॥६३।।
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स्नानप्रकरणम्
२७२६ परकीगनिपानेषु न स्नायाद्वै कदाचन । निपानकर्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते ॥५४॥ अन्यायोपात्तवित्तस्य पतितस्य च वाधुः। तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्राजापत्यं समाचरेत् ॥६॥ अन्त्यजैः खातिताः कूपाः तटाका वाप्य एव च । तत्र स्नात्वा च पीत्वा च प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥६६॥ परकीयनिपानेषु यदि स्नायात्कथंचन । सप्तपिण्डान् समुद्धृत्य तत्र स्नानं समाचरेत् ॥६७।। लालास्वेदसमाकीर्णः शयनादुत्थितः पुमान् । अशुचिं तं विजानीयादनहः सर्वकर्मसु ॥६८|| स्नानमूलाः क्रियाः सर्वाः सन्ध्योपासनमेव च । स्नानाचारविहीनस्य सर्वाः स्युः निष्फलाः क्रियाः ॥६६।। उपव्यु(षस्यु)षसि यत्स्नानं सन्ध्यायामुदितेऽपि वा । प्राजापत्येन तत्तुल्यं महापातकनाशनम् ॥७०।। स्नानवस्त्रेण यः कुर्याद्द हस्य परिमार्जनम् । शुनालीढं भवेद्गात्रं पुनः स्नानेन शुध्यति ।।७।। उष: काले भानुवारे यो नरः स्नानमाचरेत् । माघस्नानसहस्राणि गङ्गायमुनसङ्गमे ॥७२॥ जन्म: वैधृतौ पुण्ये व्यतीपाते च संक्रमे । अमायां च नदीस्नानं कुलकोटिं समुद्धरेत् ।।७३।। अकृत्यमपि कुर्वाणो भुञ्जानोऽपि यतस्ततः । कदाचिन्नारकं दुःखं प्रातःस्नायी न पश्यति ॥७४॥
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२६३०
वाधूलस्मृतिः विना स्नानेन यो मुक्त स मलाशी न संशयः । अस्नाताशी मलं भुङ्क्त यजयः पूयशोणितम् ।।७।। अहुताशी कृमि मुक्त ह्यदाता विषमश्नुते । संकल्पसूक्तपठनं मार्जनं चाघमर्षणम् ॥६॥ देवर्षितर्पणं चैव स्नानं पञ्चाङ्गमिष्यते । हिरण्यशृङ्गमित्युक्त्वा जलं समवगाहयेत् ॥७७|| सुमित्रा इत्युदाहृत्य स्वात्मानमभिषेचयेत् । दुमित्रा इत्युदाहृत्य मृस्थाने जलमुत्सृजेत् ।।७८॥ योऽस्मान् दृष्टीत्युदाहृत्य तथा तत्र जलं क्षिपेत् । यं च वयं द्विष्म इति पुनस्तत्र जलं क्षिपेत् ॥६॥ एवं त्रिमत्तिकास्नाने जलमञ्जलिनोत्सृजेत् । नमोऽप्रयेति मन्त्रेण नमस्कुर्यात् जलं ततः ।।८। यदपामित्यमेध्यांशं निरस्येद्दक्षिणे जलम् । अत्याशनादितिद्वाभ्यां त्रिरालोड्य तु पाणिना ॥८॥ चतुरनं तीर्थपीठं पाणिनोल्लिख्य वारिषु । नन्दिनीत्यादिनामानि बद्धाञ्जलिपुटो भवेत् ॥८२॥ आवाहयामि त्वां देवि स्नानार्थमिह सुन्दरि । एहि गले नमस्तुभ्यं सर्वतीर्थसमन्विते ॥३॥ इमं मेगङ्ग इत्युक्त्वा पुण्यतीर्थानि च स्मरेत् । आपो अस्मानीतिऋचामुक्त्वा मजनमाचरेत् ॥४॥ आपोहिष्ठादिभिर्मन्त्रैरभिप्रोक्ष्य च वारिभिः । ततो नारायणं स्मृत्वा प्रजपेदघमर्षणम् ॥८॥
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स्नानप्रकरणम्
२६३१ अघमर्षणसूक्तस्य ऋषिरेवाघमर्षणः । छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भाववृत्तोऽधिदेवता ॥८६।। त्रिवारमष्टवारं वा निमळ्यात्तज्जले जपेत् । एवंभूतस्य मन्त्रेण पुनः प्रोक्षणमाचरेत् ।।८७।। आद्रं ज्वलति मन्त्रेण प्राशयेन्मत्रितं जलम् । अकार्यकार्यमन्त्रं तु पुनः मज्जन् जले जपेत् ।।८८।। तद्विष्णोरिति मन्त्रेण मजेदप्सु पुनः पुनः । गायत्री वैष्णवी ह्यषा विष्णोः संस्मरणाय वै ॥८६।। प्रतिगृह्याप्रतिग्राह्य भुक्त्वा चाभक्ष्यभक्षणम् । तद्विष्णोरित्यपां मध्ये सकृज्जप्त्वा विशुध्यति ॥६॥ उत्तीर्य च द्विराचम्य देवादीस्तर्पयेत्ततः । उजं वहन्तीरिति च तृप्यतेतिस्थले क्षिपेत् ।।६।। स्नानवस्त्रेणहस्तेन यो द्विजोऽङ्गं प्रमार्जति । तथा भवति तत्स्नानं पुनः स्नानेन शुध्यति ।।२।। मार्जयेद्वस्त्रशेषेण नोत्तरीयेण वा शिरः। न च निधुनुयात्केशान न तिष्ठन् परिमार्जयेत् ॥६४|| स्नानं कृत्वा वस्त्रं तु ऊर्ध्वमुदा(त्ता)रयेद्विजः । स्नानवस्त्रमधस्ताच्चे पुनः स्नानेन शुध्यति ॥६॥ प्रातः सन्ध्यामुपासीत वस्त्रसंशोधपूर्विकाम् । उपास्य मध्यमां सन्ध्यां वस्त्रनिष्पीडनं परम् ॥६६।। नानमूलाः क्रियाः सर्वाः सन्ध्योपासनमेव च । तन्मात्सर्वप्रयत्नेन स्नानं कुर्यादतन्द्रितः ॥६७||
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वाधूलस्मृतिः प्रातरुत्थाय यो विप्रः प्रातः स्नायी सदा भवेत् । सर्वपापविनिमुक्तः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥al अन्तराच्छाद्य कौपीनं वाससी. परिधाय च । उत्तरीयं समादद्यात् तद्विना नाचरेत्रियाः ॥ यज्ञोपवीतवद्धार्यमुत्तरीयं सदा द्विजैः।। वन्दने तर्पणे चैव कट्यामेव च धारयेत् ।।६।। मुखजानामूर्ध्वपुण्डं तिलकं बाहुजन्मनाम् । पदाकारमूरुजानां त्रिपुण्डू पादजन्मनाम् ।।१०।। धृतोर्ध्वपुण्डः परमीशितारं
विष्णुं परं ध्यायति महात्मा। स्वरेण मन्त्रेण सदा हृदि स्थितं
परात्परं यन्महतो महान्तम् ॥१०१।। महोपनिषदि प्रोक्तमूर्ध्वपुण्ड्रं परं शुभम् । धृतोर्ध्वपुण्डः कृतचक्रधारी
नारायणं सांख्ययोगाधिगम्यम् । ज्ञात्वा विमुच्येत नरः समस्तैः
संसारपाशैरिह चैति विष्णुम् ॥१०२।। अथर्वशिरसि प्रोक्तमूर्ध्वपुण्डविधि द्विजा । प्रवक्ष्यामि हितार्थं वो भवपापप्रणाशनम् ॥१०३।। हरेः पादाकृतिं रम्यमात्मनश्चहिताय वै । मध्येछिन्दन्नूर्ध्वपुण्डू यो धारयति सर्वदा ॥१०४।।
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ऊर्ध्वपुण्ड्रमहत्त्ववर्णनम्
२६३३ स परस्य प्रियोनित्यं पुण्यभाक मुक्तिभाग्भवेत् । चतुरङ्गुलमूर्ध्वाय द्वयङ्गुलं विस्तृतं मृदा ॥१०॥ द्विजः पुण्ड्रमृजु सौम्यं सान्तरालं तु धारयेत् । ऊर्ध्वगत्यां तु यस्येच्छा तस्योध्वं पुण्ड्रमुच्यते ॥१०६।। ऊर्ध्वगत्यां तु देवत्वं स प्राप्नोति न संशयः । पर्वताय नदीतीरे विष्णुक्षेत्रे विशेषतः ॥१०७।। सिन्धुतीरेऽथ वल्मीके तुलसीमूलमाश्रिते। मृद एतास्तु संग्राह्या वाश्चान्याश्च मृत्तिकाः ॥१०८।। श्यामं शान्तिकरं प्रोक्तं रक्त वश्यकरं भवेत् । श्रीकरं पीतमित्याहुर्मोक्षदं श्वेतमुच्यते ॥१०॥ अङ्गुष्ठः पुष्टिदः प्रोक्तो मध्यमा पुष्करी भवेत् । अनामिकान्नदा नित्यं तर्जनी मुक्तिभुक्तिदा ॥११॥ अभिषिक्तं तु यच्चूर्ण विष्णुबिम्बे तु यो नरः । हारिद्र धारयेन्नित्यं सोऽश्वमेधफलं लभेत् ॥११।। अनागतां तु ये पूर्वी अनतीतां तु पश्चिमाम् । सन्ध्यां नोपासते विप्राः कथं ते ब्राह्मणाः स्मृताः ।।११२॥ यावन्तोऽस्यां पृथिव्यां तु विकर्मस्था द्विजातयः । तेषां हि पावनार्थाय सन्ध्या सृष्टा स्वयंभुवा ॥११३।। गायत्री नाम पूर्वाह्न सावित्री मध्यमे दिने । सरस्वती च साया सैव सन्ध्या त्रिधा स्मृता ॥११४।। प्रतिग्रहादन्नदोषात्पातकादुपपातकात् । गायत्री प्रोच्यते यस्मात् गायन्तं त्रायते यतः॥११।।
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२६३४
वाधूलस्मृतिः सवितृयोतनाच्चैव सावित्री परिकीर्तिता । जगतः प्रसवित्री च सा वान पत्वात्सरस्वती ॥११६।। आपोहिष्ठेत्यूचा कुर्यान्मार्जनं तु कुशोदकैः । प्रतिप्रणवसंयुक्त क्षिपेद्वारि पदे पदे ॥११७।। विग्रुषोष्टौ क्षिपेदूर्ध्वमधो यस्य क्षयाय च । संवत्सरकृतं पारं मार्जनान्ते विनश्यति ॥११८।। रजस्तमो मोहजातान् जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिजान् । वाङ्मनःकायजान् दोषान्नवैतान् नवभिर्दहेत् ।।११।। नवप्रणवयुक्त न ह्यापो हिष्ठेत्यूचेन च। संवत्सरकृतं पापं मार्जनान्ते विनश्यति ॥१२०।। ऋगन्ते मार्जनं कुर्यात् पादान्ते वा समाहितः । तृचस्यान्तेऽथवा कुर्याच्छिष्टानां मतमीदृशम् ।।१२।। पश्चादुभाभ्यां हस्ताभ्यां परिषिच्य यथाक्रमम् । सूर्यश्चेति जलं पीत्वा दधिक्रावेति मार्जयेत् ॥१२२।। पश्चादुभाभ्यां हस्ताभ्यां ह्यादायापः समाहितः । रवेरभिमुखस्तिष्ठन् तारव्याहृति पूर्वया ॥१२३।। गायत्र्या चाभिमन्व्याथ निक्षिपेद्विजसत्तमः। तिष्ठन् पादौ समौकृत्वा जलेनाञ्जलिपूरणम् ॥१२४।। गोशृङ्गमात्रमुत्सृज्य जलमध्ये जलं क्षिपेत् । सायं काले तु यो विप्रो जलेत्वयं विनिक्षिपेत् ॥१२॥ स मूढो नरकं याति यावदाभूतसंप्लवम् । चत्र सन्ध्यां प्रकुर्वीत तत्रैव जपमाचरेत् ।।१२६।।
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' सन्ध्याविधिवर्णनम्
२६३५ अन्यत्र तु जपं कुर्वन् पुनः सन्ध्यां समाचरेत् । वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे ॥१२७।। स्नातकव्रतलोपे च दिनमेकमभोजनम् । अर्ध्यप्रदानतः पूर्वमुदयास्तमये सति ॥१२८।। गायत्र्यष्टशतं जप्यं प्रायश्चित्त द्विजातिभिः । तत्र प्रातरा तेकामेदुपवासोऽहरुच्यते ॥१२॥ तथा सायमतिक्रामेद्रात्रिं चोपवसेद्विजः । यदद्यकच्चं वृत्रहन् प्रातरयमनुस्मृतः ॥१३०।। उच्छेदभीतिमध्याह्न प्रायश्चित्तार्घ्य उच्यते । न तस्येति च सायाह्न ततोऽस्त्रमुपसंहरेत् ॥१३१।। सूतके मृतके वापि सन्ध्याकर्म न संत्यजेत् । मनसोच्चारयेन्मन्त्रान् प्राणायाममृते द्विजः ॥१३२।। प्रणवेन तु संयुक्ता व्याहृतीः सप्त नित्यशः। सावित्री शिरसा साधं मनसा त्रिःपठेद्विजः ॥१३३।। देवार्चने जपे होमे स्वाध्याये श्राद्धकर्मणि । स्नाने दाने तथा ध्याने प्राणायामात्रयस्त्रयः ॥१३४।। आदावन्ते च गायत्र्या प्राणायामात्रयस्त्रयः। सन्ध्यायामर्घ्यदाने च प्राणायामाः सकृत्सकृत् ।।१३।। अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तु तथैव च कनिष्ठया । प्राणायामस्तु कर्तव्यः मध्यमां तर्जनीं विना ॥१३६।। तर्जनीं मध्यमांस्पृष्ट्वा जपन् शूद्रसमो भवेत् । कृत्वोत्तानौ करौ प्रातः सायंचाधोमुखौ करौ ॥१३७।।
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२३३६
वाधूलस्मृतिः मध्येस्कन्धभुजाभ्यां तु जप एवमुदाहृतः । अधोहस्तं तु पैशाचं मध्यहस्तं तु राक्षसम् ।।१३८।। बद्धहस्तं तु गान्धर्वमूर्ध्वहस्तं तु दैवतम् । प्रदक्षिणे प्रणामे च पूजायां हवने जपे ॥१३६।। न कण्ठावृतवस्त्रः स्यादर्शने गुरुदेवयोः। दर्भहीना च या सन्ध्या यच्च दानं विनोदकम् ॥१४०।। असंख्यातं च यज्जप्त तत्सर्वं निष्फलं भवेत् । जपस्य गणनां प्राहुः पद्माक्षः भत्ति वर्धनम् ॥१४१।। जपेत्तु तुलसीकाष्ठैः फलमक्षयमश्नुते । अच्छिन्नपादा गायत्री ब्रह्महत्यां प्रयच्छति ॥१४२।। छिन्नपादा तु गायत्री ब्रह्महत्यां व्यपोहति । गृहस्थो ब्रह्मचारी च शतमष्टोत्तरं जपेत् ॥१४३।। वानप्रस्थो यतिश्चैव जपेदष्टसहस्रकम् । प्रस्थधान्यं चतुःषष्टेराहुतेः परिकीर्तितम् ॥१४४।। तिलानां तु तदधं स्यात्तदधं स्यावृतस्य (?) च । आत्मारूढाप्सु मज्जेद्वा वदेद्वा पतितादिभिः ।।१४।। अथवा योषितं गच्छेदनृतौ काममोहितः । वदन्त्येषु निमित्तेषु केचिदग्निविनाशनम् ॥१४६।। आपस्तम्बस्य तन्नेष्टमात्मारूढः सदा शुचिः। यस्य भार्या विदूरस्था पतिता वा रजस्वला ॥१४७।। . अनिष्टा प्रतिकूला वा तस्याः प्रतिनिधौ क्रिया। अन्ये कुशमयीं पत्नी कृत्वा तु प्रतिरूपिकाम् ॥१४८||
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गृहस्थधर्मवर्णनम्
केचिच्छरमयीं पत्नीं नित्यकर्मणि
कारयेत् ।
माहिषम् ॥ १४६ ॥
होमार्थं गोघृतं ग्राह्यं तदलाभे तु आजं वा तदलाभे तु साक्षात्तैलं ग्रहिष्यते । यः शूद्रादधिगम्यार्थमग्निहोत्रं करोति चेत् ॥ १५० ॥ दाता तत्फलमाप्नोति कर्ता तु नरकं व्रजेत् । ऋत्विजस्ते हि शूद्राः स्युः ब्रह्मवादिषु गर्हिताः || १५१ ।। मेरुमन्दरतुल्यानि वाजपेयशतानि च । कन्याकोटिप्रदानं च समं सामयिकाहुतेः ॥१५२ || कृतदारो न वै तिष्ठेत् क्षणमप्यग्निना विना । तिष्ठेत चेद्विजो ब्राह्मं त्यक्त्वा तु पतितो भवेत् ॥ १५३ ॥ समिदात्मसमारूढो द्विकालमहुतस्तथा । धारणाग्निश्चतुर्वारं स वहिलौकिको भवेत् ॥ १५४ ॥ आरोपिताग्नेः समिधस्तु नाशे
सीमादिलंघे च पराग्निवेश ।
२६३७
अयाश्च मन्त्रेण चतुगृहीत्वा
तेनैव मन्त्रेण सकृज्जुहोति ॥ १५५ ॥ ब्रह्मयज्ञे जपेत्सूक्त पौरुषं चिन्तयन् हरिम् । स सर्वान् जपते वेदान् सांगोपांगविधानतः ॥ १५६ ॥ वेदाक्षराणि यावन्ति नियुञ्ज्यादर्थकारणात् । तावतीं ब्रह्महत्यां वै वेदविक्रय्यवाप्नुयात् ॥१५७॥ प्रख्यापनं प्राध्ययनं प्रश्नपूवं प्रतिग्रहः । याजनाध्यापने वादः षड्विधो वेदविक्रयः || १५८||
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वाधूलस्मृतिः आरवारे च शौक च मन्वादिषु युगादिषु । नाहरेत्तुलसीपत्रं मध्याह्नात्परतस्ततः ॥१५६।। संकान्त्यां पक्षयोरन्ते द्वादश्यां निशिसन्ध्ययोः । तुलसी ये विचिन्वन्ति ते कृन्तन्ति हरेः शिरः॥१६॥ तीर्थे पापं न कुर्वीत न कुर्याञ्च प्रतिग्रहम् । दुर्जरं पातकं तीर्थे दुर्जरश्च प्रतिग्रहः ॥१६॥ भृतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा । सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्त्या कथंचन ॥१६२।। यो राज्ञः प्रतिगृह्य व शोचितव्ये प्रहृष्यति । न जानाति किलात्मानं विष्ठाकूपे निपातितम् ॥१६३।। तृणं वा यदि वा काष्ठं मूलं वा यदि वा फलम् । अनापृष्ट्वैव गृहीयाहस्तछेदनमर्हति ॥१६॥ वानस्पत्यं मूलफलं दावम्न्यथं तृणानि च । तृणं च गोभ्यो प्रासार्थमस्तेयं मनुरब्रवीत् ।।१६।। भ्रूणहत्या प्रसिद्धि (वाघुषि) च तुलायां समतोलयन् । प्रतिष्ठभ्रूणहा कोट्यां वाधुषिः समकम्पत ॥१६६।। अयाचिताहृतं ग्राह्यमपि दुष्कृतकर्मणः । अन्यत्र कुलदा (पा)(ट) षण्डपतितेभ्यः(स्)तथा द्विषः । महापातकिनश्चोरादम्बष्ठाद्भिषजस्तथा। मृगयोः (टा)पिशुनाच्चैव नादद्यादाहृतं द्विजः ॥१६षा कुलदा(पा) षण्डपतितवैरिभ्यः काकिणीमपि । उद्यतामपि गृह्णीयादापद्यपि कदाचन ॥१६८।।
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गृहस्थधर्मवर्णनम्
२६३६ परार्थे तिलहोतारं परार्थे मन्त्रजापिनम् । मातापित्रोरपोष्टारं दृष्ट्वा चक्षुनिमीलयेत् ॥१६॥ कुक्कुटश्वानमार्जारान् पोषयन्ति दिनत्रयम् । इह जन्मनि शूद्रत्वं मृतः श्वा चाभिजायते ॥१७०।। परहिंसारताः ऋराः परदारपरायणाः। परद्रव्यापहारी च चण्डाला यस्तु निर्दयः ।।१७।। नगरे पट्टणे वापि द्वादशाब्दं तु यो वसेत् । स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः ॥१७२।। राजाश्रयेण यो मयों द्वादशाब्दं वसेद्यदि। जीवमानो भवेच्छूद्रः नात्र कार्या विचारणा ॥१७३।। अनृतात्स्वसमुत्कर्षो राजगामि च पैशुनम् । गुरोश्वालीकनिर्बन्धः समानि ब्रह्महत्यया ॥१७४|| यस्मिन् देशे यदा काले यन्मुहूर्ते च यदिने । हानिर्वृद्धिर्यशो लाभः तत्तथा न तदन्यथा ।।१०।। अज्ञात्वा धर्मशास्त्राणि प्रायश्चित्तं वदन्ति ये । तत्पापं शतवा भूत्वा तद्वक्त्रमधिगच्छति ॥१७६।। चत्वारो वा त्रयो वापि यज्ञ युर्वेदपारगाः। स धर्म इति विझयो नेतरस्तु सहस्रशः ।।१७७।। ये पठन्ति द्विजा वेदं पञ्चयज्ञरताश्च ये। त्रैलोक्यं तारयन्त्येते पञ्चेन्द्रियरता अपि ।।१७।। यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः : ब्राह्मणश्चानधीयानत्रयस्ते नामधारकाः ॥१६॥
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२६४०
वाधूलस्मृतिः संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन् । याजनाध्यापनादीनां न तु शय्यासनाशनात् ॥१८०।। सर्वे ब्रह्म वदिष्यन्ति संप्राप्त तु कलौ युगे। नानुतिष्ट न्ति वेदोक्त पाषण्डोपहता जनाः ।।१८।। षष्ठयष्टमीहरिदिनं द्वादशी च चतुर्दशी। पर्वद्वयं च संक्रान्तिः श्राद्धाहो जन्मतारका ॥१८२।। श्रवणव्रतकालश्च विशेषदिवसास्तथा । एते काला निषिद्धाःस्युः भद्र मैथुन कर्मणि ॥१८३।। कृते संभाष्य पतति त्रेतायां दर्शनेन तु। द्वापरे त्वन्नमादाय कलौ पतति कर्मणा ॥१८४।। चतुर्दश्यष्टमी चैव ह्यमावास्या तु पूर्णिमा । सर्वाण्येतानि विप्रेन्द्राः रविसंक्रान्तिरेव च ॥१८॥ अर्थार्थी यानि कर्माणि करोति कृपणो जनः । तान्येव यदि धर्मार्थ कुर्वन् को दुःखभाग्भवेत् ।।१८६।। चैत्यवृक्षंचितायूप(धूम) च(चाण्डालं वेदविक्रयम् । अज्ञानात्स्पृशते यस्तु सचैलो जलमाविशेत् ॥१८७।। इक्षनपः फलं मूलं ताम्बूलं पयऔषधम् । विक्रयित्वापि कर्तव्या स्नानदानादिका क्रिया ।।१८८।। श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञा यस्तामुल्लध्य वर्तते । आज्ञाच्छेदी ममद्रोही मद्भक्तोऽपि न वैष्णवः ।।१८६।। विष्णुना तु पुरा गीतमेवं तत्तु मयेरितम् । श्रुतिस्मृती तु विप्राणां चक्षुषी द्वे विनिर्मिते ॥१६॥
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ब्राह्मणशरीरोपयोगः
२६४१ काणस्तत्रैकवा हीनो द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः। चर्मखण्डनमक्षाणां शुनाघ्रातमरोचकम् ॥१६॥ पापपूरितदेहानां धर्मशास्त्रमरोचकम् ।। अहेरिव भृणागीतः स(म्मा)न्मानान्मरणादिव ।।१२।। कुणपादिव च स्त्रीभ्यः तं देवा ब्राह्मण विदुः। शान्तं दान्तं जितक्रोधं जितात्मानं जितेन्द्रियम् ॥१६॥ तमग्रथं ब्राह्मण मन्ये शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः । ब्राह्मणस्य च देहोऽयं नोपभोगाय कल्पते ॥१४॥ इह क्लेशाय महते प्रेत्यानन्तसुखाय च । दर्श तिलोदकं दद्याच्छुष्कवासा जलादहिः ॥१६॥
आद्रवस्रो यदि तदा निराशाः पितरो गताः। शिलातले पटे पत्रे रोमस्थानेषु कुत्रचित् ॥१६६।। ते तिला: कृमितुल्या:स्युस्तत्तोयं रुधिरं भवेत् । अङ्गुष्ठोदरमूले तु तिलानिक्षिप्य तर्पयेत् । ते तिला मेरुतुल्यास्स्युस्तत्तोयं सागरोपमम् ॥१६७॥ पानीयमप्यत्र तिलैवि मिश्र
दद्यारिपतृभ्यः प्रयतो मनुष्यः । श्राद्धं कृतं तेन समा सहस्त्रं
रहस्यमेतत्पितरो वदन्ति ॥१६॥ मासिके च सपिण्डे च प्रतिसंवत्सरे तथा । व्यर्थ भवति तच्छाद्धं वासुदेवं विना कृतम् ।।१६।।
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२६४२
वाधूलस्मृतिः जपस्तपः श्राद्धकर्म स्वाध्यायादिकमेव च । व्यथं भवति तत्सर्वमूर्ध्वपुण्ड्रं विना कृतम् ॥२०॥ श्राद्धं कृत्वा परदिने न द्विजान् भोजयेद्यदि । तच्छामासुरं लोके प्रवदन्ति विपश्चितः ॥२०१।। श्राद्धं कृत्वा परदिने ब्राह्मणान् भोजयेद्यदि । देवाश्च पितरस्तुष्टाः कर्तुः कुर्वन्ति संपदः ।।२०२।। श्राद्ध पाकमुपक्रम्य नान्दीश्राद्धं विवाहके। व्रतं चरति संकल्पे सूतकं तु न दोषकृत् ।।२०३।। श्राद्ध तु विकिरं दत्वा नाचामेन्मतिविभ्रमात् । पितरस्तस्य षण्मासं चण्डालोच्छिष्टभोजनाः ॥२०॥ सहोदराणां पुत्राणां पितुरेकदिने तथा।। श्राद्ध निमन्त्रणं वज्यं क्षरकर्म तथैव च ।।२०।। विधुरं च यतिं चैव सगोत्रं ब्रह्मचारिणम् । देवार्थे वरयेद्विद्वान् न पित्रर्थे कदाचन ॥२०६।। वासांसि वाससी वासो यो ददाति पितुर्दिने । तन्तु संख्यातवर्षेण देवलोके महीयते ॥२०७॥ अभिश्रवणहीनं तु यः श्राद्धं कुरुते नरः। तदन्नं मांससदृशं तद्रसं सुरया समम् ॥२०८।। उदफ्यायाः पतिं तावत्सूतिकायाः पति तथा । भाण्डस्पर्शनपर्यन्तं पैतृके वर्जयेतु धीः ॥२०६।। विभक्ता भ्रातरः सर्वे स्वस्वार्जितधनाः शनैः। दर्शाब्दिकं तथा पित्रोः श्राद्धं कुर्यात्पृथक पृथक् ।।२१०।।
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श्राद्धदानेचवाः
२६४३ संन्यासीबहुभक्षश्च वैद्यो वैखानसस्तथा। । • गर्भवान्वेदहीनश्च दानं श्राद्धं च वर्जयेत् ॥२१।। स्नाने दाने जपे होमे स्वाध्याये पितृकर्मणि। .. देवताराधने चैव त्याज्यदोषो न विद्यते ॥२१२।। प्रत्याब्दिके शतं जप्यं मासिके स्यात् द्विषट्शतम् । सपिण्डे त्रिसहस्रस्याच्छाद्धं त्रिंशसहस्रकम् ।।२१३।। मासिके पक्षमेकं स्यादाब्दिके च तदर्धकम् । एकोद्दिष्टे वत्सरं स्यात् पाण्मासं तु सपिण्डने ॥२१४|| महालये त्रिरात्रं स्यात् श्राद्ध त्वाकालिकं भवेत् । श्राद्धान्नं तिलहोमं च दूरयात्रां प्रतिग्रहम् ॥२१॥ सिन्धुस्नानं गयाश्राद्धं वपनं शवधारणम् । पर्वतारोहणं चैव गर्भकर्ता तु वर्जयेत् ॥२१६।। गर्भकर्ता तु यो विप्रो षण्मासाभ्यन्तरे यदि । श्राद्धान्नादीनि कुर्वाणो क्षिप्रमेव विनश्यति ॥२१७॥ मध्यंदिने दृढाङ्गो यः स्नानं त्यक्त्वार्चयेद्धरिम् । वैश्वदेवं च यः कुर्यात् स गुल्मव्याधिपीडितः ॥२१८।। पितरस्तत्र मोदन्ते गीयन्ते(१) च पितामहाः । प्रपितामहाश्च नृत्यन्ते श्रोत्रिये गृहमागते ॥२१॥ देशान्तरे दुरन्नानां प्रायश्चित्तद्वयं स्मृतम् । समुद्रगानदीस्नानं शिष्टागारेषु भोजनम् ॥२२॥ अनाचारस्य विप्रस्य पतितान्नं यतेस्तथा । शूद्रान्नं विधवान्नं च श्वमांससदृशं भवेत् ।।
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२६४४
वाधूलस्मृतिः यो मोहादथवाऽऽलस्यात्कृत्वा श्री)केशवार्चनम् । मुक्त स याति नरकं श्वानयोनिषु जायते ।।२२२॥ अनृतं मद्यगन्धं च दिवाखापं च मैथुनम् । पुनाति वृषलस्यान्नं सायं सन्ध्या बहिर्जले(बहिष्कृता)।२२३ स्नानं सन्ध्यां जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणम् । देवताराधनं चैव वैश्वदेवं यथाविधि । न कुर्याद्यदि मोहेन स चण्डालो न संशयः ।।२२४।।
॥ इति वाधूलस्मृतिः समाप्ता ||
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॥ श्रीगणेशाय नमः॥
* विश्वामित्रस्मृतिः *
अथ प्रथमोऽध्याय
नित्यनैमित्तिककर्मणांवर्णनम् सहस्रदलपङ्कजे सकलशीतरश्मिप्रभे। वराभयकराम्बुजं विमलगन्धपुष्पाम्बरम् ।। प्रसन्नवदनेक्षणं सकलदेवतारूपिणं । स्मरेच्छिरसिपावनं तदविधानपूर्व गुरुम् ।। १ ।।
आह्निकम् चतुःपञ्चघटीमानं मुहूतं ब्रह्मसंज्ञितम् । पञ्चपञ्चघटी ज्ञेया उषःकाल इतीष्यते ॥२॥ ऋतुबाणघटीमानमरुणोदयसंज्ञितम् । . उषः पञ्चघटीमानं प्रातःकाल इति स्मृतः ॥३॥ एवं ज्ञात्वां प्रभाते तु नित्यकर्म समाचरेत् । नित्यनैमित्तिके काम्ये कृते काले तु सत्फलम् ।।४।। ब्राह्म मुहूर्त उत्थाय कृत्वा शौचं समाहितः । स्नानं कुर्यादुषःकाले आत्मार्थमरुणोदये ॥५॥ प्रातःकाल जपं कुर्यान्नित्यनैमित्तिकं विदुः। . रश्मिमन्तं समालोक्य उपस्थानं समाचरेत् ॥ ६ ॥
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૨૬૪૬
विश्वामित्रस्मृतिः
॥ सन्ध्यायां मुख्यकालातिक्रमे दोषः ॥ कालातीतं न कर्तव्यं कर्तव्यं कालसंयुतम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन काले कर्म समाचरेत् ॥ ७ ॥ उक्तकाले तु यत्कर्म प्रमादादकृतं यदि ॥ ८ ॥ त्रिसहस्रजपं कुर्यात्प्रायश्चित्तं विधीयते । तथा प्रोक्तं प्राणायामद्वयत्रिकम् ॥ ६ ॥ अथवा जपमात्रेण कालातीतेन दोषभाक् । त्रिसहस्रं सहस्रं वा त्रिशतं शतमेव वा ॥१०॥ अनुलोमविलोमाभ्यां जप्त्वादपाप क्षयो भवेत् । उक्तकाले व्यतीते तु उपाधिश्व प्रमाणकम् ||११|| अनुलोमविलोमाभ्यां सहस्रजपमाचरेत् । देहस्वस्थवता (स्त्यवता) येन स्वस्थचित्तवताऽपि च ॥१२ कालोऽतिक्रम्यते नित्यं तस्य पापो न गण्यते । स सर्वमार्गविभ्रष्टस्तिर्यवत्वं समवाप्नुयात् ॥१३॥ तस्य दर्शनमात्रेण सचैल स्नानमाचरेत् । असम्बद्धप्रलापेन दुःसङ्गेनापि निद्रया ॥१४॥ अतिक्रामन्ति ये कालं ते नरा ब्रह्मघातिनः । नित्यकर्माखिलं यस्तु उक्तकाले समाचरेत् ॥ १५॥ जित्वा स सकलांल्लोकान् अन्ते विष्णुपुरं व्रजेत् । प्रत्यहं प्रातरुत्थाय स्नानं सन्ध्यां समाप्य ( विधाय ) च ॥ १६ ॥ यथाशक्ति जपेद्विद्वान् स मुक्तो नात्र संशयः । यामे चान्त्ये च सर्वर्या नाडीनां पञ्चकं द्विजः ॥१७॥
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अकालसम्पादितकर्मणोनिष्फलत्वम्
प्रातः काल इति ज्ञात्वा नित्यकर्म समाचरेत् । कर्मकालो दिनान्ते तु पादंन्यूनंघटीत्रयम् ||१८|| बिम्बं दृष्ट्वा त्यजेदर्घ्यं जपेदातारकोदये । षण्मतेषु समाप्तेषु तत्तन्मन्त्रानुसारतः ॥१६॥ नित्यकर्माणि यः कुर्यात्कर्मसिद्धिं लभेन्नरः (त सः) । अनुक्तकाले कृतकर्म निष्फलं
अकालवृष्टिः पतिता यथा भुवि ।।
उनि बीजानि विनिष्फलानि वा
करोत्यकालः कृतकर्मनिष्फलः ||२०|| नियुक्तकर्माणि नियुक्तकाले
कृतानि सद्यस्सुखसिद्धिदानि ।
यथोप्तबीजानि यथा फलानि
२६४७
काले हि वृष्टिर्भुवि जीवनानि ||२१|| सन्ध्यात्रितयलक्षणम्
उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका अघमा सूर्यसहिता प्रातस्सन्ध्या त्रिधा मता ||२२|| उत्तमा पूर्वसूर्या च मध्यमा मध्यसूर्यका । अघमा पश्चिमादित्या मध्यसन्ध्या त्रिधा मता ||२३|| उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्रभास्करा । अघसा तारकोपेता सायंसन्ध्या त्रिधा मता ||२४|| शुचिर्वाप्यशुचिर्वापि नित्यं कर्म न सन्त्यजेत् । तत्रापि कालनियमादर्घ्यदानं विशिष्यते
॥२५॥
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२१४८
विश्वामित्रस्मृतिः सन्ध्यात्रये पूर्वमुखो द्विजन्मा
त्रिधैवशुद्धाचमनं प्रकुर्यात् । उदक्मुखोवापि समाचरेन्न
तहक्षिणापश्चिमयोःकदापि ॥२६॥ सन्ध्यास्नानं परित्यज्य विद्याभ्यासं करोति यः। तस्य विद्याविनाशःस्यादधर्मोभवति ध्रुवम् ॥२७॥ गुरूपदेशविधिना स्नानं सन्ध्यां समाचरेत् । वेदादिसर्वविद्यार्थज्ञानसंपत्तिसाधनम् ॥२८॥ इत्येषाद्विजवर्णानां विद्याभ्यासविधिःक्रमात् । अन्यथा योऽभ्यसेद्विद्यां तस्य विद्या न सिध्यति ।।२।। यस्सन्ध्यां कालतः प्राप्तां अतिक्रमति दुर्मतिः । भ्रूणहत्यामवाप्नोति काकयोनौ प्रजायते ॥३०॥ यथाशक्त्याचरेत्सन्ध्यां कालेऽहा(द्वय फलमाप्नुयात् । काले तस्मात्प्रयत्नेन नित्यकर्म समाचरेत् ॥३।। आचारो द्विविधः प्रोक्तः सोपाधिरनुपाधिकः । सोपाधिर्गुणमात्रः स्यान्मुख्यास्यादनुपाधिकः ॥३२॥ उपाधौ समनुप्राप्ते गौणाचारं समाचरेत् । अनुपाधौ च दुर्बुद्धया गौणाचारं करोति यः ॥३३॥ स दारिद्रमवानोति महारोगः प्रजायते । अपवादो महान् दोषो सम्भवजन्मजन्मनि ॥३४॥ मुख्याचार परित्यज्य गौणाचारं करोति यः। तस्थ कर्मणि धर्माश्च निर्जिताः स्युन संशयः ॥३॥
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२६४६
दन्तधाक्नविधानवर्णनम् मुख्याचारो महानश्रेष्ठो मुमुक्षोरुपपादकः (कारकः)। यथाकालं द्विजः कुर्यान्मुख्याचार विधीयते ॥३६॥ स्वगुरु पूजयत्येवमुपचारैश्च पञ्चभिः। सद्भक्या संहितामेतां विश्वामित्रस्स(प्र)कल्पयेत् ॥३७।। प्रातरुत्थाय यो विप्रः स्वात्ममूलस्थकुण्डलीम् । प्रबोध्यो सुप्रभाताया गायत्री तत्र चिन्तयेत् ॥३८॥ कुण्डलिन्यां समुद्भूतां गायत्री प्राणधारिणीम् । प्राणविद्या महाविद्या यस्ता वेत्ति स योगवित् ।।३।। अष्टधा कुण्डलीज्ञेया द्वात्रिंशद् वर्णसंख्यया । एवं ज्ञात्वा प्रभातायां षडाधारे तथा न्यसेत् ॥४०॥ षडाधारेषु षट्कुक्षि विन्यसेञ्चतुरक्षरम् । आदिप्रणवसंयुक्त षट्कुक्षिं विन्यसेत्क्रमात् ॥४॥ सहस्रदलमध्यस्था सफला स चतुर्यका। सोऽहं हंसेति विज्ञेया संकल्पज्ञानपूर्वकम् ॥४२॥ अस्य संकल्पमात्रेण सर्व पापैः प्रमुच्यते । अनया सदृशी विद्या अनया सटशोजपः ॥४३।। अनया सदृशं ज्ञानं न भूतो न भविष्यति । समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ॥४४॥ विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे। अतितीक्ष्णमहाकाय कल्पान्तदहनोपमः ॥४॥ भैरवाय नमस्तुभ्यमनुज्ञां दातुमर्हसि । अयोत्थाय बहिर्गत्वा विण्मूत्रादि त्यजेद्विजः ।।४६॥
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२६५० विश्वामित्रस्मृतिः
प्रामाइक्षिणदिग्भागे शतधन्वन्तरावधि । देवाश्च ऋषयश्चैव गणनाथाश्च योगिनः ॥४ा गच्छन्तु देवताः सर्वा अत्र शौचं करोम्यहम् । प्रथमं च शिरोवेष्टं निवीतं च द्वितीयकम् ॥४८॥ दिग्दर्शनं तृतीयं स्यात् अन्तर्धानं चतुर्थकम् । मौनन्तु पञ्चकं ज्ञेयं पुरीषं षष्ठमेव च । सप्तमं मृत्तिकाधानं उदकं चाष्टमं स्मृतम् ॥४६॥ मुष्टिमात्रतृणं दत्त्वा रात्रौ चेद्दक्षिणामुखः। दिवाचोदङ्मुखः कुर्याच्छौचं कर्म समाहितः ॥५०॥ वामदक्षिणकर्णस्थ उपवीतं च धारयेत् । क्रमान्मूत्र पुरीषे च कुर्याच्छौचं द्विजोत्तमः ।।५।। यथाविध्युक्तमार्गेण कुर्यादुद्धृतवारिणा । कूपकुल्या तटाकादिजलैः शौचं करोति यः ॥५२।। कल्पकोटिशतैर्वापि नरकान्न निवर्तते । एकालिङ्गे करे तिस्रः पञ्चापाने तथैव च ॥५३।। पादद्वये चतुः संख्या एतच्छौचं विधीयते । एतद्धर्मो गृहस्थस्य इतरेषां पृथक्पृथक् ॥५४॥ स्मार्तानां द्विगुणं कुर्यात् वनस्थस्त्रिगुणं तथा। चतुर्गणं यतीनां च श्रेयाणां भेद ईरतिः ॥५५।। दुर्गन्धत्यागपर्यन्तं कृत्वा शौचं समाहितः ।।५६।।
॥ दन्तधावनम् ।। क्षीरकाष्ठेन कुर्वीत दन्तधावनमग्रजः । तृणपर्णैस्सदा कुर्यादमा (मे) एकादशी विना १५७
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कानाचरणस्यफलम्
२६५१ तयोरपि च कुर्वीत जम्बूलक्षाम्लपणकैः । आयुबलं यशो वचः प्रजाःपशुवसूनि च ॥८॥ ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते। निष्ठीवनं च गण्डूषं वायव्याभिमुखो नरः ॥५६॥ ईशानाभिमुखो भूत्वा वायव्यान्ते समुत्सृजेत् । अङ्गारवालुकाभिश्च भस्मांगुलिनखैरपि ॥६०॥ इष्टकालोष्टपाषाणैर्न कुर्याइन्तधावनम् । खदिरश्च करञ्जश्च कदम्बश्च वटस्तथा ॥६॥ वेणुश्चतिन्तिडीप्लक्षा वाम्रनिम्बे तथैव च । अपामार्गश्च बिल्वश्च अर्कश्चौदुम्बरस्तथा ॥६॥ एते प्रशस्ताः कथिता दन्तधावनकर्मणि । यथाशक्त्यनुसारेण दन्तधावनमाचरेत् ॥६३।। ततो नदी समागम्य गङ्गाध्यानपुरस्सरम् ।
॥ आचमनम् ॥ स्वसूत्रोक्तविधानेन कुर्यादाचमनत्रयम् । वामहस्ते जलं नीत्वा त्रिाहृत्याभिमन्त्रितम् ॥६४॥ आकृष्य दक्षिणे भागे रेचयेद्वाममार्गतः । खवामभागमालोक्य वज्रपाषाणतस्त्यजेत् ॥६॥ पुनः शुद्धाम्बुनाचम्य ततः स्नानं समाचरेत् । नाभिमाने जलेस्थित्वा त्रिवारं स्नानमाचरेत् ॥६॥
॥ स्नानभेदाः॥ प्राणायामत्रयं कुर्यात् दशप्रणवसंयुतम् । उल्लिखेन्मार्जनं यन्त्रं स्नानयन्त्रं समुल्लिखेत् ॥६७)
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२६५२
विश्वामित्रस्मृतिः गङ्गामंत्रेण चावाह्य सलिलोपरि (द्भव) मुद्रया। वह्रिमण्डलमालिख्य जलमध्येसबिन्दुकम् ॥६॥ मायाबीजं समुल्लिख्य दण्डेषु व्याहृतित्रयम् । ततश्शुद्धाम्बुनाचम्य प्राणायामत्रयं तथा ॥६॥ देशकालौ च सङ्कीर्त्य गायत्रीध्यानपूर्वकम् । सूक्तन मार्जनं कुर्याद्यथाशास्त्रोक्तमार्गतः ॥७०।। अघमर्षणमन्त्रण स्नायात्पञ्चाङ्गपूर्वकम् । सङ्कल्पं सूक्तपाठं च मार्जनं चाघमर्षणम् ॥७॥ देवादितर्पणं चैव स्नानं पञ्चाङ्गलक्षणम् । शिरःस्नानं गलस्नानं कटिस्नानं तथैव च ॥७२।। आजानुपादपर्यन्तं मन्त्रस्नानं चतुर्विधम् । तकाराद्यष्टभिर्वर्णैः शिरसि प्रोक्ष्यमान सैः
(शिरःलानं समारेत् ) ॥७३॥ भकाराद्यष्टभिर्वर्णैः कण्ठस्नानं समाचरेत् । सकाराद्यष्टभिर्वर्णैः कटिस्नानं समाचरेत् ॥४॥ पकाराद्यष्टभिवर्णैः जानुपादे समाचरेत् । एवं विज्ञानमात्रेण गङ्गास्नानशतं फलम् ।।७।। मन्त्रस्नानं विना विप्रो जलस्नानं करोति यः । मनोनिर्मलता तस्य नास्ति हि श्रुतिचोदितम् ।।७६।। श्रोत्रे नासाक्षिणी बद्ध्वा सहसान्तर्जले प्लुतः । मग्नं कृत्वा पठेन्मन्त्रं यावद्वायुनिरोधनम् ॥७॥
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प्राणायामविधिवर्णनम्
ततः स्नानत्रयं कुर्यात्रि रोव्याहतिपूर्वकम् । त्रिकालं त्रिविधं स्नायाद्वारुणं मृत्तिकायुतम् ॥७८॥ पञ्चार्द्रकमिति प्रोक्तं क्रमात्स्थानत्रयं बुधैः । शिरस्तनुर्द्वादशधा प्रोयेच्छङ्खमुद्रया ॥७६॥ व्याहृत्यादिशिरोऽन्त्येन मनुना द्विजसत्तमः । षट्संख्यं ब्रह्मरन्ध्रे तु त्रित्रिसंख्यं भुजहये ॥८०॥ मूलमन्त्रं च मनसा पज येत्पश्चपजनैः ब्रह्म (देव) पितृतुर्थं त्रिश्चतुर्वैव तर्पयेत् ॥८१॥ व्याहृत्यैककया युक्तः प्रणवादिनमोऽन्तकैः । तत्तदैस्तर्पयेत्त तुर्यैस्त्रैलोक्यसंयुतैः ||८२|| यस्तर्पणं विना स्नायात्सलिले मत्स्यवद्भवेत् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन यथोक्तं स्नानमाचरेत् ॥८३॥
यन्मया
दूषितं तोयं शारीरमलनाशनात् । तस्य पापविशुद्धयर्थं यक्ष्माणं तर्पयाम्यहम् ||८४|| इति त्रिरञ्जलिं दत्वा यक्ष्मप्रियकरं बहिः । ततस्तीरं समागम्य गायत्रीकवचं पठेत् ॥८५॥ गुणा दशम्नानकृतो हि पुंसो
रूपं च तेजश्च बलं च शौचम् ।
आयुष्यमारोग्यमलोलुपत्वं
२६५३
दुस्वप्ननाशं च तपश्च मेघा ॥ ८६ ॥
स्नानार्थं प्रस्थितं विप्रं देवा पितृगणैम्सह । तृष्णार्ताश्च (पार्ता) समायान्ति न स्नायानरकं व्रजेत ॥८७॥
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२६५४
विश्वामित्रस्मृतिः मध्याह्न मृत्तिकास्नानं कुर्यान्नित्यमतन्द्रितः । प्रातस्सायाह्नसमये न कुर्यान्मृत्तिकाक्रियाम् ||८||
॥ वस्त्रधारणम् ॥ सूत्रेण प्रथितं सूच्या खण्डं चित्रं तथैव च । विचित्रपुत्तलीवस्त्रमन्यवस्त्रं न धारयेत् ।।८।। एतत्समस्तमित्युक्त पट्टवस्त्रं न दोषभाक् ।
और्णवस्त्राणि सर्वाणि न दोषो धारयेद्बुधः ।।६।। प्रातमध्याह्रयोः स्नानं वानप्रस्थगृहस्थयोः । यतेनिषवणं स्नानमसकृत्तु ब्रह्मचारिणाम् ॥६॥ प्रोक्ष्य वासोपसंयोज्य प्रणवादिषडक्षरैः । शुद्धधोतं परिग्राह्य षट्कच्छविधिधर्मकम् ॥६२।। कच्छद्वयं वस्त्रमध्ये तच्छृङ्गषु (च) चतुष्टयम् । एवं क्रमेण बध्नीयाल्लक्षणं श्रुतिचोदितम् ।।६।। भोजनोत्तरनिर्माल्यं प्रक्षाल्यद्विजसत्तमः । सायंसन्ध्यां प्रकुर्वीत अन्यथा ब्रह्मघातकः ॥६४|| प्रातमध्याह्वयोः स्नात्वा पृथक्सन्ध्यां समाचरेत् । एष धर्मा गृहस्थस्य योगिनां प्रातरेव हि ॥६॥
॥प्राणायामः ॥ उषःकाले प्रशस्तं स्याद्योगिनां वायुधारणम् । गङ्गाद्वारे ततःस्नात्वा स्थित्वा ब्रह्मदिनत्रयम। तत्फलं समवाप्नोति द्विजो वायुनिराधमः(तः) ॥६६।।
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प्रणवोपासनाकेसन्ध्याविधि २६५५ तत्रापि कुम्भकं कृत्वा प्राणायाम समाचरेत्।। सूर्योदयं समारभ्य घटिकाद्वादशोपरि ॥१७॥ ब्रह्मयज्ञाङ्गकस्नानं अपराह्न तु तर्पयेत् । सङ्कल्प्य ब्रह्मयज्ञं च यथाशक्ति समाचरेत् ॥६८।। माध्याहिकं प्रकुर्वीत जपान्ते तर्पयेत्तथा। यन्त्रहीनं जलस्नानं बीजहीनं तु यन्त्रकम् ॥६६|| बिन्दुहीनं तु यद्वीजं वृथा स्नानं न संशयः । मन्त्रहीनो जले स्नात्वा सन्ध्यावन्दनमाचरेत् ॥१००।। अशुचेस्तस्यमनसो मलिनं नैव गच्छति । मन्त्रयन्त्रविहीनो यः स्नानं सन्ध्यां करोति चेत् ॥१०॥ विफलं मन्त्रतेजस्स्यात्सत्यं सत्यं न संशयः । पञ्चस्नानं विना येन सायं सन्ध्या कृता यदि ॥१०२।। तस्य पापं न गच्छेत यथा सुर्येऽस्तगे तमः । परिधाय शुभं वस्त्रं तिलकं धारयेत्ततः ॥१०३।।
॥पुण्डधारणम्॥ गुरूपदेशमार्गेण अन्यथा धर्मघातकः। मृद्वारिचन्दनं भस्म वामहस्ते निधापयेत् ॥१०४।। त्रिकोणयन्त्रसंलेख्य मध्ये मायां स बिन्दुकाम् । कोणाग्रे प्रणवं लेख्यं दण्डेषु व्याहृतित्रयम् ॥१०॥ अभिमन्त्र्य तु गायत्रं मन्त्रराजं दशावधि । ललाटे तिलकं कुर्याद्गुरुराजापुरम्सरम् ॥१०७॥
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२६५६
विश्वामित्रस्मृतिः मन्त्रयन्त्रविहीनं यत्तिलकं यदि धारयेत् । . तन्मुखं शववद्भाति ब्रह्मतेजो न विद्यते ॥१०८॥ तिलकं यत्र संयुक्त मन्त्रसंयुक्तमेव च । ललाटे यत्र दृश्येत तत्तेजो ब्रह्मनामकम् ॥१०॥ प्रणवं चोर्ध्वपुण्डं च त्रिपदा च त्रिपुण्डकम् । ललाटे यस्य दृश्यन्ते(वर्तन्ते तेजस्वि (खोब्रह्मदो भवेत् ११८
ओमापोज्योतिमन्त्रेण शिखाबन्धनमाचरेत् । स्वसूत्रोक्तविधानेन सन्ध्यावन्दनमाचरेत् । अन्यथा यस्तु कुरुते आसुरी तनुमाप्नुयात् ॥१११।। मयाकृते मूत्रपुरीषशौच
प्रक्षाल्यगण्डूषणमेहने च। वस्त्रस्यसंक्षालनके च दुष्कृतं
क्षमस्व गङ्गे मम सुप्रसन्ना ॥११२।। त्रिकोणमध्ये ह्रींकारं कोणा प्रणवं लिखेत् । दण्डेषु व्याहृतिश्चैव उहिखेदुदके तथा ॥११३।। प्रणवेनबहिर्वेष्ट्य जलं पीत्वाऽथ मार्जयेत् । तथैवविन्यसेत्संन्ध्यां अन्यथा शूद्रवद्भवेत् ॥११४॥ इति श्रीविश्वामित्रसंहितायां आन्हिकविधियोगोनाम
प्रथमोऽध्यायः।
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अथ द्वितीयोऽध्याय
__ आचमनविधिवर्णनम जलमध्ये वामकरे दक्षिणे कर्णवत्कृती । आदौ गुरु नमस्कृत्य पश्चादाचमनं चरेत् ॥ १॥ प्रागाचामेदमृतस्यात् सोम्यायां सोमपाभवेत् । पश्चान्मुखोरक्तपास्यात् सुरापो(पी)दक्षिणामुखः ॥ २ ॥ चतुर्विंशतिनामानि तत्तदंगानि संस्पृशेत् । विन्यसेत्केशवादीनि पौराणाचमनं भवेत् ॥३॥ तकारादियकारान्तैः चतुर्विंशति वर्णकैः । संस्पृशेत्तत्तदंगानि स्मार्तमाचमनं चरेत् ॥४॥ देव्यापादेखिराचम्य अदिलगैनवभिः स्पृशेत । सप्तव्याहृतिगायत्री शिरस्तुर्यस्तदागमम (?) ॥५॥ त्रिधाचाचमनं प्रोक्तं पौराणं स्मातमागमं । श्रोतं च मानसं चेति पंचधा प्रोच्यते पुनः ॥ ६॥ संध्याप्रारम्भकालेषु कुर्यादाचमनत्रयं । संहृताङ्गुलिहस्तेन ब्रह्मतीर्थे पिवेजलं ॥७॥ मुक्ताङ्गुष्ठकनिष्ठाभ्यां शेषणाचमनं भवेत् । गोकर्णाकृतिहस्तेन मापमात्रं जलं पिवेत् ॥ ८॥ न्यूनातिरिक्तमात्रण . तज्जलं सुरयासमं । आदौचान्ते च मंत्रैश्च क्रमादाचमनं चरेत् ॥४॥ श्रुतिस्मृतिपुराणानि पर्यायेणविलोमतः। अगुलित्रयसंयुक्त मुक्ताङ्गुष्ठकनिष्ठकं ॥१०॥
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२६५८
विश्वामित्रस्मृतिः गोकर्णाकृतिरित्याहुः ब्राह्मकर्म प्रकीर्तितं । हस्तमध्यस्थ सलिलं पीतशेषं न संत्यजेत् ॥११॥ कचित्त्यागं क्वचित्तानं कुर्यादुर्ब्राह्मणं विदुः । केशवादित्रयेणापो माषदनं पिबेत्क्रमात् ॥१२॥ गोविन्दमग्रतोन्यस्य सौषुम्ने विष्णुमेव च । मधुसूदनमादित्ये सुधांशौ च त्रिविक्रमं ॥१३।। अग्रतो वामनं चैव श्रीधरं हस्तयोस्तथा । हृषीकेशं पद्मनाभं उभयोः पादयोन्यसेत् ॥१४॥ दामोदरं ब्रह्मरन्ध्र नामसंकर्षणस्य च । न्यसेद्वा नासिकामध्ये चास्यान्ते वा विनिर्दिशेत् ॥१५॥ विन्यसेदक्षनासायां वासुदेवं तथैव च । प्रद्युम्नं विन्न्यसेवामे अनिरुद्धं तु दक्षिणे ॥१६।। पुरुषोत्तमं वामनेत्रे दक्षकर्णे ह्य) अधोक्षजम् । . नारसिहं वामकर्णे नाभावच्युतमेव वा ॥१५|| जनार्दनं हृदि न्यस्य ब्रह्मरंन्ध्रत्युपेन्द्रकं । विन्न्यसेच हरिं कृष्णं भुजे दक्षे च वामके ॥१८॥ पौराणं स्मार्तमित्येतत् क्षत्रियाणां विधीयते ॥१६।। परित्वागिर्वणोगिर इमा भवन्तु विश्वतो। वृद्धायुमनुवृद्धयो तुष्टाभवन्तु जुष्टयः ॥२०॥ पुण्यस्त्रीणां तथा ज्ञेयं शूद्राणां नाममात्रकं । शुद्धाचमानां त्रिविधं प्रकारं
कुर्यात्रिसंध्यापि(मु) समस्तकर्मसु ।
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विधिवदाचमनस्यैवफलवर्णनम् २६५६ आरम्भणं केशवनाम युक्त
श्रुति स्मृतिभ्यां द्विविधं तथोच्यते ॥२१॥ देवतीर्थेन संगृह्य ब्रह्मतीर्थे जलं पिबेत् । मुक्ताङ्गुष्ठकनिष्ठाभ्यां गोकर्णाकृति रुच्यते ॥२२॥ वर्तमादौ विधिपूर्वकर्मनित्य त्रिकालं प्रयतैश्च नित्यं । श्रुतिस्मृतिप्रोक्त पुराणमार्ग तस्माद्विशुद्धाचमनं विशिष्ट २३ नाम्नामादौ च वर्णानां पादादौ ॐ समुच्चरेत् । नमोऽतं विन्यसेन्मंत्र कुर्याच्छुद्धो भवेत्रिधा ॥२४॥ चतुर्विंशति पादानि चतुर्विंशतिवर्णकं। चतुर्विंशति नामानि प्रणवादिनमोन्तकं ॥२॥ वैश्यानां तु नमोन्तस्य अन्येषां वर्णमात्रकं । पुण्यस्त्रीणां नमोऽन्तस्यात विशेषात्केशवादिषु ॥२६॥ शूद्राणां विधवानां च नाममात्रं जलक्रिया। सुवासिन्यां नमोन्तं च द्विराचम्य विशुद्धयति ॥२७॥ नमोतं त्रिविधं ज्ञेयं प्रणवं त्रिविधं तथा । एवमेव त्रिराचम्य कर्मादौ तत्समाचरेत् ॥२८॥ अन्यथा हि कृतं यत्तु आचमनं तु निष्फलं । कराग्रपंचांगुलि पूर्ण मुद्रा सकेशवाद्य रनुवर्तनीया । निष्ठीवने (तथा) प्रसुप्ते च परिधानेऽश्रुपातने । पञ्चश्रोत्रेषुचाचामेच्छोत्रं वा दक्षिणं स्पृशेत् ॥२६।। भोजनादौ च भुक्त्त्यन्ते गोकर्णाकृतिपाणिना। आपोऽशनं पिबेन्नित्यमन्यथा(१) चेन्नदर्भकम् ॥३०॥
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२६६०
विश्वामित्रस्मृतिः नासापुटे (ह्य) अक्षकर्ण प्रजपव्याहृतित्रयम् । विस्पृशेच्छोत्रमानं च इत्येवं श्रुतिचोदितम् ॥३१॥ हस्वदीर्घप्लुतैर्युक्ता प्रणवं मनसा स्मरेत् । मानसाचमनं कुर्यान्मनोद्देशविधिक्रमात् ॥३२॥ त्रिभिः पादैरपः पीत्वा आपोहिष्ठाग्रतोन्यसेत् ।
. ॥मार्जनम् ॥ ता न ऊर्जे च सौषुम्ने रदन्महेरणाय च । यो वः शिवतमस्सोमे तस्य भाजयतोऽप्रतः ॥३३।। उशतीहस्तयोश्चैव वक्षे तस्माअरंन्यसेत् । यस्यक्षयाय वामे वा ह्यापो जनयथा शिरः ॥३४॥ नासान्ते भूपदं न्यस्य भुवः पादं तु दक्षिणे । सुवः पादं वामभागे महः पादं तु दक्षिणे ॥३॥ जनः पादं वामनेत्रे तपः पादं तु दक्षिणे । सत्यं पादं वामकरे नाभौ देव्यादिपादकम् ॥३६॥ न्यसेद्वितीयं हृदये ब्रह्मरन्ध्र तृतीयकम् । विन्यसेदक्षिणभुजे खमापो ज्योतिरेव च ॥३७॥ तुर्यपादं न्यसेद्वामे भुजे श्रुत्युक्ततः क्रमात् । श्रुत्याचमनमेभिर्यो हरेः कुर्याद्विजोत्तमः ॥३८॥ स सर्वपापमुक्तःस्यास्पृष्टास्पृष्टिर्न विद्यते। पादत्रयं नवपदं सप्तलोकास्तथैव च ॥३॥ पुनः पादत्रयं शीर्ष तुर्य श्रौतमितीरितम् । तुर्यपादं शिरः पादं गायत्री त्रिपदा सह ॥४॥
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पञ्चाचमनविधिवर्णनम्
२६६१ सप्तव्याहृतयश्चैव नवपादं त्रिपादकम् । चतुर्विंशतिपादानि न तत्स्थानेषु विन्यसेत् ॥४।। त्रीण्यादौ नव सप्तधा त्रीणिद्वे च श्रुतीरितम् । गायत्री(मुच्चरन् )बद्ध्वापोहिष्ठा नवभिः स्पृशेत् ॥४२।। सप्तव्याहृतिभिश्चैव गायत्रीत्रिपदैः स्पृशेत् । शिरः पदा तु व्यपदा चतुर्विंशतिभिः स्पृशेत् ॥४३॥ श्रुत्याचमनमेतद्धि विश्वामित्रादिभिः स्मृतम् । नाम वणं च पादं च भूर्भुवः (स्व) रोमिति ॥४४॥ पञ्चाचमनं चैतानि प्रोक्त स्वच्छन्दसां गणैः । तिसृभिश्च व्याहृतिभिः शिरश्चक्षू षि नासिके ।।४।। श्रोत्रद्वयं च हृदये संस्पृशेञ्चाथ वारिणा ।
॥ आचमनम् ।। त्रिराचामेदिति त्रेधा परिमृद्वति च त्रिधा । एकः सकृदुपस्पृशेदित्येवं श्रुतिचोदितम् ॥४६॥ ब्रह्मयज्ञे त्रिधाचामेच्छ तिस्मृतिपुराणकैः । द्विया परिमृज्यात्र ताल्वोहस्तेन मार्जयेत् ।।४७।। सकृजलं तु प्रणवेनांगुष्ठ नोपस्पृशेत् ।। अन्याः कुल्योपसंस्पृष्टाः निष्फलं कर्म तद्भवेत् ।।४८।। चतुर्विंशति पादानि चतुर्विशति वर्णकम् । चतुर्विंशतिनामानि त्रिधाचामेद्यथाविधि ॥४॥ तथा द्विः परिमृज्येति चन्द्रसूर्यो स्वरौ स्पृशेत् । उपस्पृशेत्सुषुम्ना च ब्रह्मयज्ञे सकृजनैः ॥१०॥
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२६६२
विश्वामित्रस्मृतिः ब्रह्मयज्ञे त्रिराचामेच्छौतं स्मातं पुराणकम् । परिमृज्य विधाताल्वोहस्तेन परिमार्जने ॥५१॥ उपस्पृशेत्प्रधानाङ्गं प्रणवेन सकृजपेत् । भोजने भवने दाने स्नाने दाने प्रतिग्रहे ॥५२।। सन्ध्यात्रये च निद्रायां तथा वस्त्रस्य धारणे । पूर्वः (म् ) पञ्चभिराचामेत् तथा रथ्योपसर्पणे ॥५३।। आदौ श्रौतं तथाचामे ततः स्मार्ताचमानकम् । ततः पौराणमाचामे नित्यं श्राद्ध विधीयते ॥४॥ पुराणं श्राद्धकाले च श्राद्धान्ते स्मार्तमुच्यते । पार्वणि श्रौतमाचामे न्यासः श्राद्ध विलोमतः ।।५।। पुरश्चर्या च दीक्षायां मूलमन्त्रेण केवलम् । दुर्दानं दुष्प्रतिग्राहं दुरन्नं दुष्टभाषणम् ॥५६॥ दुरालापादिकथनं दुष्टस्त्रीभिश्च सङ्गमम् । चाण्डालजातिसंस्पर्श मलिनीकरणादिकम् ॥७॥ सद्यो हरति सर्वं च विधानाचान्तमात्रतः । इति विश्वामित्र स्मृतौ शुद्धाचमनयोगोनाम
द्वितीयोऽध्यायः।
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अथ तृतीयोऽध्यायः प्राणायामविधिवर्णनम्
॥ प्राणायामः॥ देहिनां चैव सर्वेषां देहे ध्यानं समंन्यसेत् । तत्रापि द्विजवर्णानां प्राणायाम समं न्यसेत् ।। १॥ प्राणायामत्रयं प्रातः सन्ध्याकाले समाचरेत् । प्राणापानसमायुक्त प्राणायाम इति स्मृतम् ॥२॥ उत्तमं नवधा चैव षोढा मध्यममुच्यते । अभिमन्त्रीयमित्याहुः प्राणायामस्य लक्षणम् ॥ ३॥ सप्तव्याहृतिभिश्चापि प्रणवादिरनुक्रमात् । गायत्र्या शिरसा चैव प्राणायामो विधीयते ॥४॥ बिन्दुप्राणविसगैक्यं गायत्रं बिन्दुसंहितम् । शिरोव्याहृतिसंयुक्त प्राणायामे स्पृशेत्तथा(त्रिशस्त्रिधा) ॥५॥ आदौ कुम्भकमाश्रित्य रेचपूरकवर्जितम् । व्याहृत्यादिशिरोऽन्तं च प्राणायाम समाचरेत् ॥ ६॥ नित्ये नैमित्तिके काम्ये सर्वदा सर्वकर्मसु । आदौ कुम्भकमाश्रित्य रेचपूरे विसर्जयेत् ॥७॥ सन्ध्याकाले होमकाले ब्रह्मयज्ञे तथैव च । आदौ कुम्भकविज्ञेयमाश्रित्य)प्राणायाम समाचरेत् ।।८।। प्राणापानसमानबिन्दुसहितं बन्धत्रये संयुतं । सप्तव्याहृतिबिन्दु संपुटपरं देवादिपादत्रयम् ॥६॥
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२६६४
विश्वामित्रस्मृतिः गायत्रीं शिरसा बिनाडिसहितामूढाद्वयर्द्ध परं । शुद्ध केवल(ने चल) कुम्भकं प्रतिदिनं ध्यायामि तत्त्वं
परम् ( पदम् ) ॥१०॥ दश प्रणवगायत्र्या इडा पिङ्गलवर्जितम् । कुम्भं सुषुम्नया कुर्यान्मन्त्रस्मरणपूर्वकम् ॥१२॥ अधमे द्वादशी मात्रा मध्यमे द्विगुणा मता। उत्तमे त्रिगुणा प्रोक्ता प्राणायामविधिः स्मृतः ।।१२।। आयासो रेचकः पूरो ह्यनायासस्तु कुम्भकः । अनभ्यासे विषं शास्त्रं अभ्यासे त्वमृतं भवेत् ।।१३।। उत्तमं त्रिगुणं प्रोक्तं मध्यमं द्विगुणं तथा । अधर्म न वदेत्यायैः (१) प्राणायाम इतीरितः ॥१४॥ प्रणवादि नमोऽन्तं च मात्रा चेत्यभिधीयते । पञ्चद्वादशसंयुक्तां मात्रां मात्राविदो विदुः ॥१।। अंगुष्ठानामिकाभ्यां तु प्राणायामं यतिश्चरेत् । नासिकं वननं चैव वानस्थस्य तथैव हि ॥१६।। वकार इति पञ्चैते वर्णाः पञ्च च नोदिता । लं पृथिव्यात्मने गन्धान हमाकाशात्मने सुमम् ।।१७।। यं वाय्वात्मने धूपं दीप मग्न्यात्मने नमः। निवेदयेच्च नैवेद्य वकारममृतात्मने ॥१८॥ पञ्चभूतात्मिकामेतां पूजां मानसिकी यजेत् । सिद्धासनसमं नास्ति न कुम्भकेवलात्परम् ।।१६।।
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पञ्चपूजाविधिवर्णनन्
२६ ६५ नन्द दृष्टि समानास्ति प्राणवायुनिरोधने । अन्तश्चक्षुर्बहिस्तेजो अधस्थाप्य सुखासनं । । कृत्वा(शा साम्यं शरीरस्य प्राणायामं समाचरेत् ।।२०।। सर्वेषामेव जन्तूनां कर्तव्यं सुखमासनम् । तत्रापि मानसः श्रेष्ठ स्तत्रापि द्विज उच्यते ॥२१॥ सन्ध्या प्राचैव ध्येया च वनस्थस्य तथैव हि । सम्यक्पञ्चांगुलीभिश्च बद्ध्वा नासापुटं गृही। शनैश्शनैश्च निश्शब्दं प्राणायाम समाचरेत् ॥२२॥ पञ्चांगुलीभिर्नासां च बद्ध्वा वायु निरुध्य च । आकृष्यधारयेदग्नि प्राणायाम समभ्यसेत् ॥२३॥ प्राणायाम तथा ज्ञात्वा स्नापयेञ्चिन्मयं शिवम् । तदादौ मानसं कुर्यात्सम्यक्केवलकुम्भकम् ॥२४॥ पञ्चभूतात्मिकां चैव पूजांमानसिकी स्मरेत् । पूजामानससंयुक्तः प्राणायामफलं लभेत् ॥२।। पञ्चपूजां विना यस्तु प्राणायामं करोति चेत् । तस्य निष्फलितं कर्म विश्वामित्रेण भाषितम् ।।२६।। लकारश्वभकारश्च(हकारश्च)यकारो रेफ एव च । वकार(चकार) इति पञ्चैते वर्णाः पश्चार्चनोदिताः ॥२७॥ लं पृथिव्यात्मने गन्धान हमाकाशात्मने सुमम् । य वाय्वात्मने धूपं दीपमग्न्यात्मने चरम् ॥२८॥ निवेदयेच्च नैवेद्य वकारममृतात्मने । पञ्चभूतात्मिकामेतां पूजां मानसिकी यजेत् ॥२६||
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विश्वामित्रस्मृतिः सिद्धासनसमं नास्ति न कुम्भात्केवलात्परम्(केवलं)। नन्ददृष्टिसमा नास्ति प्राणवायुनिरोधने ॥३०॥ अन्तस्तेजो बहिश्चक्षरधः स्थाप्य सुखासनम् । कृत्वा साम्यं शरीरस्य प्राणायाम समभ्यसेत्
(समाचरेत् ) ॥३१॥ सर्वेषामेव जन्तूनां कर्तव्यं सुखमासनम् । तत्रापि मानसः श्रेष्ठस्तत्रापि द्विज उच्यते ॥३२॥ सन्ध्याप्रारम्भसमये कुक्कुटासनमुच्यते । जानुमध्यस्थबाहुस्सन् प्राणायाम समाचरेत् ॥३३॥ चन्द्रासने समासीनः चन्द्रबिम्बसमप्रमे। पूर्णदृष्टिस्तु कुर्वीत प्राणायामं हृदम्धुजे ॥३४॥ त्रिकोणमध्ये बिन्दुश्च प्रणवत्रिपदान्वितः । स्त्रीपुमान्मार्जयेन्नित्यं पञ्चपूजाविधानतः ॥३।। पञ्चपूजानुसारेण प्राणायामफलं लभेत् । पक्षपूजां न कुर्वीत निष्फलं श्रुतिघातकम् ॥३६॥ प्राणायामे च संप्राप्ते पूजां मानसिकी यजेत् । विशेषां सिद्धिमाप्नोति न कुर्यान्निष्फलं भवेत् ॥३७॥ अस्त्रप्रयोगकाण्डे (काले) तु प्राणायामबलं बलम् । प्राणायामं बलं कुर्यादुपसंहारकर्मणि ॥३८॥ प्रयोगे चोपसंहारे प्राणायामं तु कुम्भकम् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन प्राणायाम समाचरेत् ॥३६।।
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विलोमगायन्त्रीमन्त्रवर्णनम् २६६७ प्राणायामं विना यस्तु सन्ध्यावन्दनमाचरेत् । सर्वधर्मपरित्यागी स महापातको भवेत् ॥४॥ निगमागममन्त्राणां प्राणायामस्तु साधकम् । निगमागममन्त्रेषु मूलमन्त्रैश्च केवलम् ॥४॥ मनसा गणनापूर्व प्राणायामषिदो विदुः। स्थूलस्थूलादिवणं च युक्तायुक्तादिवर्णकम् ॥४२॥ प्राणापानादिसंयुक्त प्राणायामं समभ्यसेत् । ब्रह्मविद्या महाविद्या सप्तकोट्यमृता भुवि ॥४३॥ तज्जपेन्मूलमनुभिः प्राणायामो विधीयते । भूरादिव्याहृतिस्सप्त(प्रजल्पं सर्व)प्रजल्पस्सार्ववर्त्मना ॥४४॥ . तथा विलोममार्गेण प्राणायामं समाचरेत् । व्याहृतिःस्सप्तगायत्रीं शिरसा शिखयायुताम् ॥४॥ अनुलोमविलोमाभ्यां प्राणायाम जपेद्विजः। ओं सुव (व भावतं मृ सो र ती ज्यो पो मां ओं त्यादचोप्र नः यो यो धि। हि म धी स्य व दे ! भ यं णी रे तु वि सत् त (१) । त्यं स
ओं पः त ओं नः ज ओं हः म ओं हंम ओं वः सु ओं वः भूः ओं भूः ओंम् । मन्त्रराजं महातत्त्वमनुलोमविलोमतः । प्राणायाम प्रकुर्वीत महापातकनाशनम् ॥४६॥ महापातकनाशाय महारोगहराय (क्षयाय) च । दुःखदारिद्रयनाशाय प्राणायामफलं विदुः ॥४॥
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२६६८
विश्वामित्रस्मृतिः दशप्रणवगायत्रीमनुलोमविलोमतः। स्मरन् शतद्वयं सम्यक्प्राणायाम समाचरेत् ॥४॥
अविहितकृतदोषं राजसेवातिदोषं . करकृतमपिदोषं क्रूरकर्मादिदोषम् । हृदिकृतपरदोषं पापसंसर्गदोषं
हरति सकलदोषं मन्त्रराजं(जो)विलोमम्(मः)।।४६ ब्रह्महत्यादिपापानि अगम्यागमनादिकम् । अभोज्यभोजनादीनि अग्राह्यग्रहणादिकम् ।।१०।। तत्सर्वं नाशमाप्नोति पूर्वोक्तर्वायुरोधनैः । किमत्र बहुनोक्तने मन्त्रराजोऽमितप्रदः ॥५।। दशप्रणवगायत्र्या विनियोगरतो(हतो)द्विजः । प्राणायाममकुर्वाणो अवकीर्णी भवेत्तु सः ॥५२।। सर्वाण्यसंभावितानि विपरीतान्यनेकशः। नियमेन कृतैः काले प्राणायामैळपोहति ॥५३।। मन्त्रराजं चतुष्षष्टिं द्वात्रिंशञ्चतदर्धकम् । तदर्धमधमं ज्ञेयं प्राणायामं समाचरेत् ॥५४|| मन्त्रराज पराधं च प्राणायामं करोति यः। तस्य निष्फलितं मन्त्रं पुनस्संस्कारमहति ॥५५।। पष्टिवर्णात्मकं मन्त्रं पराधं यो निरोधयेत् । इह जन्मनि शूद्रत्वं जन्मन्यग्र वियोनिजः ॥५६।। अनुक्तविधिनामन्त्रं प्राणायामं करोति यः। तस्यायुष्यविनाशाय जन्मनीह दरिद्रता ॥५७।।
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नानामन्त्राणांजपेततन्मन्त्रैवप्राणायामः २६६६ तत्तन्मूलं विनामन्त्रं प्राणायामं चरेद्यदि । सङ्कल्पा निष्फलं यान्ति विघ्नं कुर्वन्ति देवताः॥५॥ उपक्रमोपसंहारकारिपादो द्विधाकृतः । नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं निष्फलं भवेत् ॥५६।। प्राणायामं स्मरेदन्यं जपमन्यवृथा क्रिया। यः करोति समूढात्मा द्विविधे निष्फलो मनुः ॥६॥ पादाधं पादमात्रं च द्विपादं च त्रिपादकम् । चतुः पादं(ष्पदं)पञ्चपाद(पद)षट्पाद(पदं) सप्तपादकम् ॥६१ अष्टपाद(अष्टा पदं)नवपदमशीतिं च शतं तथा। तत्तन्मूलं समाश्रित्य प्राणायामो विधीयते ॥६॥ निगमादिषु सर्वेषु आगमादौ तथैव च । तत्तन्मूलं प्रतिग्राह्य प्राणायाम प्रकल्पयेत् ॥६३।। एकाक्षरं द्वयक्षरं च त्र्यक्षरं चाधिकं च वा। सर्वथा मूलमन्त्रेण प्राणायाम समाचरेत् ॥६४॥ चार्वाकशैवगाणेश (सौर ) वैष्णवशाक्तिकाः। तेषां जपे तन्मूलैश्च प्राणायामान् समाचरेत् ।।६।। श्रौतहोमे दशावृत्तिः सायं प्रातस्तथैव च । पक्षहोमे पञ्चदश पशुबन्धे च विंशतिः ॥६६।। प्रायश्चित्ते चतुविशहत्विजश्चैकविंशतिः । यत्र कुत्र प्रमादश्च प्राणायामास्त्रयोदशः ॥६७|| औपासनद्वये चैव प्राणायामाश्चतुर्दश ।। सायं प्रातश्च मध्याह्न प्राणायामास्तु षोडश ॥६८॥
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२६७०
विश्वामित्रस्मृतिः
वैश्वदेवं प्रकुर्वीत दशपूर्वान् दशापरान् ।
यत्र यत्रैव सङ्कल्पः तत्र तत्र द्वयान्वितम् ||६६||
.
प्राणायामं प्रकुर्वीत दशपूर्वान् दशापरान् । गर्भाधानं समारभ्य आधानान्तं विधीयते ॥ ७० ॥ विक्रीणीते परार्थं यो जपं वै दैवतार्चनम् । परार्थं प्रतिघातं च कुर्याद्दुर्ब्राह्मणं विदुः ॥७१॥ प्रमादेनाप्रयत्नेन कदाचितक्रियते यदि ।
अनुलोम विलोमाभ्यां मन्त्रराजं शतावधि ॥७२॥ दशप्रणव गायत्री द्विषट्कं प्राणरोधनम् । वर्णमाला जपेन्मत्रं शान्तिपाठं समाचरेत् ॥७३॥
अनृतवचनदोषं दुष्टसंसर्गदोषं
अविहितकृतदोषं दुदु रान्नादिदोषम् ।
अहमिति दुरहं चासद्विजानामयूयं (थं ) हरति सकलदोषं मन्त्रराजो विलोमः ||७४ ||
स्नानं सन्ध्या मुक्तकाले द्विजो यः कुर्यान्नित्यं सर्वदोषं निहन्यात् ।
त्रयस्त्रिंशत्कोटिदेव प्रभावः
तेनावश्यं प्राप्यते सद्विवेकः ॥७५॥
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शतं त्रिलोकं त्रिशतं त्रिलोकं
पादं त्रिलोकं त्रिपदं त्रिलोकम् ।
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२६७१
मार्जनविधिवर्णनम् तारं त्रिलोकं त्रिशतं तुरीयं
सव्यापसव्यावदनस्य रोधम् ॥७६।। इति विश्वामित्रस्मृतौ प्राणायामविधानं (विधियोगे) नाम
तृतीयोऽध्यायः।
अथ चतुर्थोऽध्यायः
मार्जनम् पादं पादं क्षिपेन्मूर्धा प्रीतिप्रणवसंयुताम् । निक्षिपेदष्टपादं तु अधो यस्य क्षयाय च ॥१॥ अष्टाक्षरं नवपदं पादादौ ब्रह्महा भवेत् । पादान्तं मार्जनं कुर्यादश्वमेधफलं लभेत् ॥२॥ यस्य क्षयाय पादं तु आपश्शुन्धन्तु यत्पदम् । भूमौ पदो विनिक्षिप्य इतरं मूर्ध्निचाचरेत् ॥३।। पादादौ प्रणवं चोक्त्वा पादान्ते मार्जनं भवेत् । ऋगादौ प्रणवं चोक्त्वा मृगन्त(न्ते) मार्जनं भवेत् ॥४॥ आपोहीति द्विनवकं . दधिमात्रे द्विमार्जनम् । अगुष्ठेनोदकं स्पृष्ट्वा पादमात्रेण मार्जयेत् ॥५॥ अर्धमन्त्रं पूर्णमन्त्रं मार्जनं द्विविधं विदुः । रजस्सत्त्वतमोजातान् मनोवाकायजांस्तथा ॥६॥
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२६७२
विश्वामित्रस्मृतिः जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याथ नवैतान्नवभिर्दहेत् । दधि द्विमार्जनं मन्त्रं हिरण्यादिचतुष्टयम् ॥७॥ कामक्रोधादिषड्वर्ग यद्यत्सवं विनाशनम् । पादमन्त्रं चाय॑मन्त्रं पूर्णमन्त्रं विशेषतः ॥ ८॥ सर्वेषामेव वर्णानां त्रिविधं मार्जनं यजेत् । चतुर्विंशति गायत्री वर्णसंख्यानुसारतः ॥६॥ ऋक्शाखोक्तन मार्गेण मार्जनानि समाचरेत् । ऋग्यजुस्सामशाखानामेवं मार्जनलक्षणम् ॥१०॥ आश्वलायनशाखानां मार्जनक्रम उच्यते । आपो हिष्ठादिनवकं शंनोदेवी द्विमार्जनम् ॥११॥ अप्सुमे त्रीणि चोक्तानि भृतं चेत्येवमेव हि । त्र्यचस्य च नवर्चस्य अब्लिङ्गं द्विविधं भवेत् ॥१२॥ पादादौ प्रणवं चोक्त्वा पादान्ते मार्जयेद्विजः । ऋतं च मन्त्रस्यादौ च मार्जनानि समाचरेत् ।।१३।। शन्नो देवी समारभ्य गायत्री शिरसः क्रमात् । मृगादौ प्रणवञ्चोक्त्वा मार्जनम्परिकल्पयेत् ।।१४।। अप्सुमे च समारभ्य भुवैन्तं मार्जनत्रयम् । तत्रापि प्रणवं चोक्त्वा माजेनानि समाचरेत् ।।१६।। सुरान्तं मार्जयेद्भूमौ चतुर्विंशतिमार्जनम् । पादशोऽष्टादशोक्तानि त्रिपदाभ्यां द्विमार्जने ॥१७॥ षड्विधे क्रमशस्त्रीणि ऋक्त्रयेणैव मार्जनम् । यस्य क्षयाय च पदोअधोऽध्वं भुवि निक्षिपेत् ॥१८॥
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मार्जनविधानवर्णनम्
२६७३ एकविंशति मूर्ध्नित्यात् त्रि(पादो)भुवि मार्जयेत् । अगुष्ठाजलमादाय मन्त्रान्ते मार्जनं यजेत् ।।१८।। पादौ भूमौ त्रिवारं स्यान्मूनि स्यादेकविंशतिः। अष्टाक्षरं नवपदं पादादौ ब्रह्महा भवेत् ॥१६॥ पादान्ते मार्जनं कुर्यादश्वमेधफलं लभेत् । रजस्सत्त्वं तमोजातं मनोवाकायजं तथा ॥२०॥ जाप्रत्स्वनसुषुप्त्यर्थं नवैतान्नवभिर्दहेत्। नवप्रणव युक्तन आपोहीतित्यूचेन च ॥२॥ संवत्सरकृतं पापं पुनर्मार्जनतो दहेत् । शन्नोदेवी समारभ्य षड्भिश्चाथोसुवोऽन्तकैः ॥२२॥ अरिषड्वर्गपापानि नाशयेन्मार्जनानि च । अप्सुमे च समारभ्य ज्योक्चसूर्यान्तमार्जनम् ॥२३॥ इदमापस्समारभ्य ऋषभं मेहन्तमार्जनम् । पयस्वानन आरभ्य(भुवे) हुवेऽन्तं मार्जनं तथा ॥२४॥ ऋतं च सत्यमारभ्य अन्तरिक्षमथो सुवः। पर्यन्तं मार्जयेद्भूमौ गृह्योक्तविधिना द्विजः ॥२१॥ इत्येवं मार्जनं कृत्वा. सन्ध्यावन्दनमाचरेत् । मन्त्रलिङ्गं विना प्रोक्त (पूर्व)मार्जनं यः करोति हि ॥२६॥ तस्य पापमगण्यं स्यान्मार्जनं निष्फलं भवेत् । मन्त्रलिङ्गं यथाशास्त्रं मार्जनं परिकल्पयेत् ॥२७॥ १६८
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२६७४
विश्वामित्रस्मृतिः सर्वपापविनिमुक्तः स्पृष्ट्वा (स्पृष्टा) स्पृष्टिर्न विद्यते । इति विश्वामित्रस्मृतौ मार्जनयोगोनाम
चतुर्थोऽध्यायः ।
अथ पञ्चमोऽध्यायः सार्घ्यदानगायत्रीमाहात्म्यवर्णनम्
॥ अर्घ्यदानम् ॥ सन्ध्यावन्दनवेलायां दद्यादय॑त्रयं द्विजः । सायंप्रातः समानस्यान्मध्याह्न तु पृथविक्रया ॥१॥ एकं मध्याह्नकाले च सायंप्रातस्त्रयस्त्रयः । एवं ज्ञात्वा त्यजेदध्य लुप्तनक्षत्रपूर्वकम् ॥२॥ एकं शस्त्रास्त्रनाशाय चिरं वाहननाशने ।। असुराणां वधायकं दद्यादयंत्रयं क्रमात् ॥३॥ असुराणां वधादूध्वं प्रायश्चित्ताऱ्याकं परम् । पृथ्वीप्रदक्षिणं कृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥४॥ सन्ध्यावन्दनवेलायां प्रायश्चित्ताय॑मीरितम् । दद्यात्केवलगायत्र्या मूढो ह्ययं तु यो द्विजः ॥१॥ स वै दुर्भाह्मणो नाम सर्वकर्मबहिष्कृतः । ब्रह्मास्त्रं यो न जानाति स विप्रशूद्र एव हि ॥६॥
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गायत्रीमाहात्म्यवर्णनम्
२६७५ तस्य कर्मादिकं ज्ञानं तत्सवं निष्फलं भवेत् । बीजमन्त्रं तु गायत्र्याः प्राण इत्यभिधीयते ॥७॥ देहस्तु पिण्ड इत्युक्तो संज्ञाकवच एव हि । सर्वाङ्गानि पदो मन्त्रः सर्वमन्त्रेष्वयं विधिः ॥८॥ अस्त्रं वृष्टिरिति प्रोक्त गायत्रीन्याप्तिरुच्यते । एतत्षण्मन्त्रकं ज्ञात्वा दद्यादयं विधानतः ॥६॥ प्रणवो बीजमन्त्रः स्याद् गायत्र्यास्सर्वदा मतः । पिण्डमन्त्रं तुरीयं स्याद्गायत्रीसंज्ञितं परम् ॥१०॥ नारायणं मूलमन्त्रं संज्ञामन्त्रं भवेत्सदा । ओमापो ज्योतिरित्येतत्पदमन्त्रमितीरितम् ॥१॥ ओं तत्सवितुरित्येषा गायत्रीहन्महामुने । एतदेव हि गायत्री विप्राणां मुक्तिदायिनी ॥१२॥ ब्रह्मास्त्रं बीजमित्याहुः शर्म स्याद्ब्रह्मदण्डकम् । कीलकं ब्रह्मशीर्ष स्यादृष्यादिन्यासपूर्वकम् ॥१३॥ भान्तं वह्निसमायुक्त व्योमानलसमन्वितम् । मेषद्वयं दन्तयुक्त हालाहलमतः परम् ॥१४॥ खनाद्य वायुपूर्व स्याहत्तयुग्ममथापरम् । सरसामक्षपर्यायहान्तं भूर्भु (वस्त मतः परम् ॥१॥ अम्बरं वायुसंयुक्त अरिं मर्दय मर्दय । प्रज्वलेति द्विरुच्चार्य परमेतत्परं ततः ॥१६॥ तत्रिपादं प्रयोक्तव्यं गायत्रीमध्यमन्त्रतः। पदत्रयं प्रयोक्तव्यमेतद्ब्रह्मस्मृतीरितम् ॥१७||
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२६७६
विश्वामित्रस्मृतिः असुराणां वधार्थाय अयंकाले द्विजन्मनाम् । प्रोक्तं ब्रह्मास्त्रमेतद्व सन्ध्यावन्दनकर्मसु ॥१८॥ कर्मार्थ काममोक्षादि ब्रह्मास्त्रेणैव लभ्यते । ब्रह्मदण्डं तथा वक्ष्ये सर्वशस्त्रास्त्रनाशनम् ॥१६॥ गायत्रीं सम्यगुच्चार्य परोरजसि संयुतम् । एतद्वः ब्रह्मदण्डं स्यात्सर्वशस्त्रास्त्रभक्षणम् ॥२०॥ सर्ववाहननाशार्थ वच्म्यस्त्रं ब्रह्मशीर्षकम् । गायत्री पूर्णमुच्चार्य मूलमन्त्रं ततो वदेत् ॥२१॥ ब्रह्मशीर्षकमेतद्धि सर्ववाहननाशनम्। आधारादि समुद्धृत्य सुषुम्नामार्गनिर्गमे ॥२२॥ सम्यगाचम्य तां देवं ब्रह्मब्रह्माण्डभेदिनीम् । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च ईश्वरश्च सदाशिवः ॥२३॥ परमात्मेति गायत्रीमनुलोमक्रमान्न्यसेत् । अघोरास्त्राय शाोय नाराचाय सुदर्शन ॥२४॥
प्रतिलोमक्रमान्यसेत् ।
॥प्रायश्चित्ताय॑म् ।। एकं मध्याह्नकाले च प्रायश्चित्तार्थ्यमुच्यते । अर्घ्यद्वयं तु मध्याह्न तथ्यमेतन्महामुने ॥२॥ अर्घ्यत्रयप्रयोगार्थ प्रायश्चित्तं चतुष्टयम् । सायंप्रातर्द्विजातीनामेवमेष विधिः क्रमात् ॥२६।। ब्रह्मास्त्रं ब्रह्मदण्डं च ब्रह्मशीर्ष तथैव च । अयंत्रयप्रयोगार्थमेवमेतदुदाहृतम् ॥२७॥
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प्रायश्चित्ताय॑विधिवर्णनम् २६७७
शीर्षचेति मनुत्रयम् । पर्यायेण समुच्चार्य पिबेदञ्जलिना जलम् । विलोमेन च गायत्रीं बीजयुक्तां सतुर्यकाम् ॥२८॥ शिरसा शिरसा युक्त चतुर्धाध्यं विनिक्षिपेत् । अस्त्रदण्डशिरोयुक्त हंसमन्त्रं समुच्चरेत् ॥२६॥ शस्त्रवाहनरक्षोघ्नं एकाञ्जलिजलं क्षिपेत् । प्रायश्चित्तद्वितीयाय॑मसुराणां वधाय च ॥३०॥ प्रदक्षिणं चरेत्पृथ्ख्याः सर्वपापैः प्रमुच्यते । हंसस्येति मनुं विप्रो ब्रह्मदत्तं समाचरेत् ॥३१॥ शिरोदण्डास्त्र(संयुक्त निक्षिपेद्रविसंमुखे। उपमन्त्रं वदन् पूर्वमस्त्रदण्डंशिरस्तथा ॥३२॥ चतुर्मन्त्रं सम्यगुच्चार्य अर्घ्यमेकं विनिक्षिपेत् । उपमन्त्रं समुच्चार्य शिरोऽन्तं श्रेयसंयुतम् ॥३३॥ अर्ध्यमेकं तु मध्याह्न सत्यमुक्त महामुने । तर्जन्यपृष्ठसंयोगो राक्षसी मुद्रिका भवेत् ॥३४।। राक्षसीमुद्रिकादत्तं तत्तोयं रुधिरं भवेत् । निक्षिपेद्यदि मूढात्मा रौरवं नरकं व्रजेत् ॥३।। अगुष्ठच्छायया तोयं देवतामुद्रिका भवेत् । (इत्थं करणेन लोकस्य ) सर्वपापक्षयो भवेत् । एवं विज्ञाय यो दद्यादयं सम्यक्सुधीरितम् ॥३६।। अन्तरिक्षमथो स्वाहा आपश्शुन्धन्तु मैनसः । इति मन्त्रेण यो भागे मार्जयित्वाचमेत् ॥३७॥
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२६७८
विश्वामित्रस्मृतिः वायव्यास्त्रेण नववारं प्राणायामं कुर्यात् । उत्तमं नववारं स्यान्मध्यमं ऋतुसंख्यकम् ॥३८।। अधमं त्रयमित्याहुः प्राणायामस्य लक्षणम् । प्राणायामबलोपेतमुपसंहारमाचरेत् ॥३६॥ ततस्सर्वप्रयत्नेन प्राणायाम समाचरेत् । अस्य श्रीवायव्यास्त्रमन्त्रस्य, ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः महाभूतवायुर्देवता। यं बीजं, स्वाहा शक्तिः जगत्सृष्टिरिति कीलकम् । ब्रह्मास्त्रप्रयोगार्थ वायव्यास्त्रप्रयोगे विनियोगः। यामङ्गुष्ठाभ्यां नमः यी तर्जनीभ्यां स्वाहा। यूं मध्यमाभ्यां वषट् । मैं अनामिकाभ्यां हुम् । यः (यों) ओं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् । यः करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् । एवं हृदयादिन्यासः। लोकत्रयेण दिग्बन्धः॥
ध्यानम् चञ्चत्करं कृष्णमृगाधिरूढं
बाणेषुधी चापगदे दधानम् । भुजैश्चतुर्भिर्जगदादिकारणं
चैतन्यरूपं प्रणमामि वायुम् ॥४०॥ आवायव्यया वायव्योर्वा वायया वा हन हन हुं फट् स्वाहा इति त्रिवारं जपेत् । पुनमन्त्रंवादि नव वा प्राणानायम्य पञ्चोपचारैरभ्यर्च्य श्रीसूर्यनारायणप्रीत्यर्थ अर्घ्यप्रदानं करिष्ये इति सङ्कल्प्य अर्ध्य
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नानामन्त्रविनियोगध्यानवर्णनम् २६७६ प्रदानमन्त्रस्य सवितृ भगवानृषिः अनुष्टुपछन्दः, श्रीसूर्यनारायणो देवता ब्रह्मास्त्रं बीजं, ब्रह्मदण्डं शक्तिः। ब्रह्मशीर्ष कीलकं, श्रीसूर्यनारायणप्रीत्यर्थे अर्घ्यप्रदाने विनियोगः। तत्सवितुः ब्रह्मात्मनेऽगुष्ठाभ्यां नमः। वरेण्यं विष्ण्वात्मने तर्जनीभ्यां स्वाहा भर्गोदेवस्यरुद्रात्मनेमध्यमाभ्यां वषट् । धीमहि ईश्वरात्मने अनामिकाभ्यां हुम् । धियो योनस्सदाशिवात्मने कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् । प्रचोदयात् परमात्मने करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् । लोकत्रयेणेति दिग्बन्धः। ध्यानम्सर्वतोरणमध्यस्थं मण्डलान्तर्व्यवस्थितम् । ब्रह्मायुतसहस्रस्य सत्सन्तानकारणम् ॥४१॥ चिन्तयेत्परमात्मानमिव(वो)ऊर्ध्वं न च निक्षिपेत् । उत्तिष्ठ देवि गन्तव्यं पुनरागमनाय च ॥४२॥ अञ्जलिना जलमादाय गायत्री मालादारभ्य नासापुटे वा उत्तीर्याञ्जलौ निक्षिप्यार्थ्यप्रयोगं कुर्यात् । धाम्नो धाम्नो राजनितो–च हरोऽसि पाप्मानं मे विद्धि आश्वलायनं यदद्य कच्च वृत्रहन्नुदगा अभिसूर्य सर्वन्तदिन्द्र ते वशेइति प्रातः। आपस्तम्बस्य हिरण्यगभस्स-म इति प्रातः। गर्भोऽसि पाप्मानं मे विद्धि । आश्वलायनस्य प्रातः देवीमदिति जोहवोमि मध्यंदिन 'उदिता सूर्यस्य राये वित्रवारुणा
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२६८०
विश्वामित्रस्मृतिः सर्वताते शं तोकाय तनयाय शंयोः। आपस्तम्बस्य यः प्राणतो-मेति मध्याह्न। उत्के तदभश्रुत् । मघं वृषभं न सूर्यापनं अस्तारमेषि सूर्य । आपस्तम्बस्य य आत्मदामेति । सायाह्न । पुननववारं प्राणानायम्य पञ्चोपचारैरभ्यर्च्य असुरवधप्रायश्चित्तार्थ चतुर्थाय॑प्रदानं करिष्ये इति सङ्कल्प्य वाग्भवकामराजशक्तिबीजसहितं विलोमगायत्रीसहितं शिरःशिखासहितं सतुरीयं चतुर्थाध्यं दद्यात् । पुनर्नववारंप्राणानायम्य पञ्चोपचारमभ्यर्च्य । अस्य श्री अस्त्रोपसंहारमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः गायत्रीछन्दः विलोमगायत्री देवता ब्रह्म बीजं ह्रीं शक्तिः हूं कीलकम् अस्त्रोपसंहरणार्थे विनियोगः । अघोरास्त्राय शायि नाराचाय सुदर्शनाय हां धियो यो नः अङ्गुष्ठाभ्यां नमः। अघोरादि चतुष्टय परियुक्त तर्जनीभ्यां शिरसे स्वाहा। अघोरादिचतुष्टयसहितं हूं मध्यमाभ्यां वषट् । अघोरादिचतुष्टयसहितं हूँ भर्गो देवस्य ओं अनामिकाभ्यां हम् । अघोरादिचतुष्टय सहितं हें वरेण्यं ह्रीं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट् । अघोरादिचतुष्टयसहितं तत्सवितुरों करतलकरपृष्ठाभ्यां हफटः। एवं हृदयादिन्यासः। ओं भूर्भुवःसुवरोमिति दिग्बन्धः। .
ध्यानम्
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साङ्गन्यासजपविधानवर्णनम् २६८१ सोऽहमर्कमहं ज्योतिरकज्योतिरहं शिवः । आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतिरसो महिम् (ऽमृतम्) ४३।। आगत्य देवि तिष्ठ त्वं प्रविश्य हृययंमम । अङ्कुशं मुद्रया नासा पुटं हृदयेनाभिस्पृशेत् । विलोमगायत्री त्रिवारं जपेत् । असावादित्यो ब्रह्म पञ्चोपचारैरभ्यर्च्य पुनर्वायव्यास्त्रं न्यसेत् । इति त्रिकाले समानमन्त्रं अघोरास्त्राय शाय नाराचाय सुदर्शनम्। मायाषड्दीर्घगायत्री प्रतिलोम न्यसेत् क्रमात् । लकारं च हकारं च यकारं रेफसंज्ञकं ॥४४॥ वकारमिति विख्यातं पञ्चभूतात्मकं यजेत् ।
इति पञ्चमोऽध्यायः।
अथ षष्ठोऽध्यायः
द्विविधजपलक्षणम् ओमित्येकाक्षरं ब्रह्मन्यासध्यानपुरस्सरम् । यथाशक्ति जपं कुर्यात्सन्ध्याङ्गो जपईरितः ॥१॥ नदीतीरे सरिकोष्ठे पर्वताने विशेषतः। शिव विष्णुसमं देवा गायत्रीजपमाचरेत् ॥२॥ नैमित्तिकं च काम्यं च द्विविधं जपलक्षणम् ।
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२६८२
विश्वामित्रस्मृतिः
॥भूशुद्धिः॥ भूशुद्धयाधारशुद्धिं च विलिखेद्गुरुमार्गतः । शुद्धो भूमौ लिखेद्यन्त्रं प्रणवादिषडक्षरैः ।।३।। आधाराख्यं च संप्रोक्तं प्रार्थयेत्पृथिवीमिमाम् । अपसर्पन्तु ये भूता ये भूता दिवि संस्थिताः ॥४॥ ये भूता विघ्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया । पृथिवि(थ्वि)त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता ॥१॥ त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम् । प्रणवाद्यश्च षड्वर्णैर्दशवाराभिमन्त्रितम् ॥६॥ शुद्धभूमौ जलं प्रोक्ष्य विलिखेद्यन्त्रमुत्तमम् । त्रिकोणाग्रे वह्निबीजं मध्ये मायां सविन्दुकम् ॥ ७॥ युतं तन्त्रं जपस्थाने लिखेत्क्रमात् । चतुरनं हस्तमानं सुदृढं मृदु निर्मलम् । तस्योपरि समासीनो गायत्रीजपमाचरेत् ॥ ८॥ कृत्वा मूलेन भूशुद्धिं भूतशुद्धिं समाचरेत् । शोषदाहप्लवं कुर्यात् प्रणवादिषडक्षरैः ॥६॥ पार्थिवं शतमेकं च वकारं द्विशतं तथा । त्रिशतं वह्निबीजं च वायुबीजं चतुश्शतम् ॥१०॥ आकाशं पञ्चशतकं भूतशुद्धिरिति क्रमात् । प्रणवादि नमोऽन्तं च वृद्धिरेकोत्तरं शतम् ॥११॥ प्राणायामं च पञ्चाणैः कुर्याद्भभूतशोधनम् । मूलाधारं समारभ्य गायत्री तुर्यया सह ।।१२।।
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गायत्रीन्यासवर्णनम् २६८३ ऊर्ध्वनास्या(सां)समायोज्य गायत्री तत्र विन्यसेत् । अस्त्रमन्त्रेण कुर्वीत रक्षादिबन्धनं दिशाम् ॥१३॥ उपपातकरो(गा)णां महापातकनाशनम् । कामक्रोधादिषड्वगं पापं कुक्षौ विचिन्तयेत् ॥१४॥ खङ्गचर्मधरं कृष्णं पिङ्गलश्मश्रलोचनम् । उकारान्तःस्थितद्वीपं ज्वालाकार हुताशनम् ॥१५॥ प्रतिष्ठाप्य ततः कामं शक्तिना वायुना (सह)। शक्तिबीजात्मकं ज्वाला त्रितयेन विनिर्दहेत् ॥१६।। . कर्पूरमिव सुज्वालाशेषं कुर्यात्समाहितः । ओं यं नमः शोषणं कुर्यात् । ओं इं नमः इत्यग्निबीजेन दहनं कृत्वा। ओं वं नमः इत्यमृतबीजेन प्लावनं कृत्वा लं नमः इति षण्णवत्यङ्गुलप्रमाणेनावयवादिकं त्यक्त्वा । ओं हं नमः इत्याकाशबीजेन सर्वसंज्ञाभासप्रतिष्ठापनं कुर्यात् । पादादिजानुपर्यन्तं पृथ्वीमण्डलसंज्ञि(ज्ञक(त)म् । जान्वादिकटिपर्यन्तं जलमण्डलसंज्ञि(ब्ज)क(त)म् ॥१७।। कद्या(क्ष)दिकटिपर्यन्तं वह्निमण्डल संज्ञि(ज्ञ) (त) कम् । हृदादिवर्णपर्यन्तं वायुमण्डलसंज्ञि(ब्ज्ञ)(त)कम् ॥१८॥ कर्णादिब्रह्मरन्ध्रान्तं नभोमण्डलसंज्ञि(ज्ञ) (त) कम् । पाचभौतिकमित्येतच्छोधनं समुदाहृतम् ॥१६॥ गुदादिद्वथङ्गुलादूवं(मे)व्या(दा)दिद्वयङ्गुलादतः । सुषुम्नामूलमन्त्रेण वा (?) दि चतुरक्षरैः ॥२०॥
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२६८४
विश्वामित्रस्मृतिः विलसितकनकप्रभं पद्य ध्यात्वा तत्र विद्युल्लतायां कुलकुण्डलिनी सुषुम्नावर्तषट्पत्रभेदक्रमेण ब्रह्मरन्ध्र नीत्वा तत्र कुलसहस्रकर्णिकामध्यस्थितसंम्पूर्णगायत्री ओङ्कारस्वरूपपरमात्मनि शिवे लीनां कुर्यात् । पाशमायाङ्कुशैबीजप्रणवादिनमोऽन्तकैः। प्राणायामं प्रकुर्वीत एवमष्टोत्तरं शतम् ॥॥२१॥ पञ्चपूजां प्रकुर्वीत स्वात्मनो इंसरूपिणः । सोऽहं भावेन युञ्जीयादाकाशाद्रविमंडले ॥२२॥ आकृष्य धारयेद्दवी(प्राणस्थापन)प्राणस्नापनमाचरेत् । हृदिस्थजीवं चैतन्यं हंस इत्यक्षरद्वयम् ।।२३।। सोऽहं भावेन संपूज्य पञ्चपूजानुसारतः । उक्तसंख्याप्रकारेण प्राणायाम समाचरेत् ॥२४॥ प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । मृषयः कथितास्तस्य छन्दांसि निगमत्रयम् ॥२।। देवता प्राणशक्तिःस्याद्वीजं शक्तिश्च कीलकम् । पाशादित्रितयं प्राणस्थापने विनियुज्यते ॥२६।। बीजराजं पाशबीजं चैतन्यं चाङ्कशं तथा। हंसद्वयं ततः पश्चात्पञ्चाशद्वर्णमन्त्रतः ॥२७॥
नादैस्संपुटितैः क्रमात् । वगैश्च यादिक्षान्तार्णैः(स)नत्याभ्यां संपुटीकृतैः । पञ्चविंशतितत्त्वैश्च कराङ्गन्यासमाचरेत् ॥२८॥
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कराङ्गन्यासवर्णनम्
२६८५ प्रणवं प्राणशक्तिं च पाशमायाङ्कुशानि च। तृतीयस्वरसंयुक्तं यादिहान्तं समुच्चरन् ॥२६॥ मम प्राणा इरात्यादि वह्निजायान्तमुच्चरेत् । पाशादित्रितयं प्राणशक्तिं तारं समुच्चरन् ॥३०॥ इमं मन्त्रं सकृजप्त्वा प्राणस्थापनमाचरेत् ।
॥ अङ्गन्यासः॥ करेण हृदयं स्पृष्ट्वा गुरोराज्ञानुसारतः । जपेन्मन्त्रमिदं सम्यग्दशवारं यथाविधि ॥३॥ खस्य शाखोदितं प्राणसूक्तं वारत्रयं जपेत् । प्राणसूक्त त्रिरावृत्त्या आद्यन्तं प्रणवं युतम् ॥३२॥ प्राणायाम प्रकुर्वीत पिण्डब्रह्माण्डसंयमे।। मूलादिब्रह्मरन्ध्रान्तं प्रवालपद्मरागमयदण्डानुकारिणीम् अखण्डमुज्ज्वलन्ती सविस्मयां अखिलदुरिततिमिरनिरस्तपटीयसी ज्योतिर्मयीं त्रिपदा सतुरीयमन्त्रराजानुवर्तितेजः पुञ्जपञ्जरीकृतज्योतिर्मयस्वरूपिणी यावच्छवांसस्पृशशरीरशासनं कुर्यात् । हकारं प्रणवो ज्ञेयः सकारं प्रकृतिस्तथा ॥३३॥ प्राणायाम प्रकुर्वीत . मातृकावर्णकः क्रमात् ।। करशुद्धिश्च कर्तव्या षड्दीर्घस्वरसंयुतैः ॥३४॥ ऋष्यादिषट्कं विन्यस्य कराङ्गन्यासमाचरेत् । भृषि मूनि न्यसेत्पूर्व मुखे छन्द उदीरितम् ॥३॥
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२६८६
· विश्वामित्रस्मृतिः देवता हृदि विन्यस्य नाभौ बीजमिति स्मृतम् । आधारे विन्यसेच्छक्तिं कीलकं पादयोन्यसेत् ॥३६॥ ऋषिब्रह्मा समाख्यातो गायत्री छन्द उच्यते । देवो बहिर्मातृका स्याद्धलो बीजानि च स्वरा ॥३७॥ शक्तयश्च समाख्याता नमः कीलकमुच्यते । द्वाभ्यां द्वाभ्यां हकारादिवर्णाभ्यां संपुटीकृतैः ॥३॥ कादिवर्णैस्तत्त्वयुक्तः कराङ्गन्यासमाचरेत् । त्रिलोकैन्धनं ध्यानं योनिमुद्रां प्रदर्शयेत् ॥३॥
पञ्चादशाक्षरविनिर्मितदेहयष्टिं
फालेक्षणां हतहिमांशुकलाभिरामाम् । शुद्राक्षसूत्रमणिपुस्तकयोनि(ग)हस्तां
___ वर्णेश्वरी नमत कुण्डहिमांशुगौरीम् ॥४०॥ केशान्ते मुखमण्डले नयनयोः श्रोत्रद्वये नासयोः । दन्तोष्ठद्वयदन्तपत्तियुगले मूर्ध्यासने तु स्वरान् ॥४२॥ दोः पत्सन्धितदप्रपादयुगले पृष्ठे च नाभ्यन्तरे । याद्यानपि सप्तधातुषु तथा प्राणेषु जातानि तु ॥४२॥ ततोऽन्तर्मातृकान्यासं कुर्याद्विध्युक्तमार्गतः। तारत्रयेण कुर्वीत प्राणायामं समाहितः ॥३३॥ ऋषिश्छन्दो देवता च बीजं शक्तिश्च कीलकम् । ब्रह्मा च लिपिर्गायत्री ततोऽन्तर्मातृका मता ॥४४।। वाग्भवं शक्तिबीजं च श्रीबीजं च त्रयं तथा। तारत्रयमिति ख्यातं ज्ञात्वा न्यासं समाचरेत् ॥४शा
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मुद्राविधिवर्णनम्
२६८७ करन्यासं हृदिन्यासं कुर्यात्तारत्रयेण च।। अनुलोमविलोमाभ्यां त्रिलोकैबन्धनं दिशाम् ।।४६।।
॥मुद्राः॥ कृत्वा ध्यात्वा महायोनिमुद्रां सन्दर्शयेत्ततः । पञ्चाशन्निजदेहजाक्षर भवैर्नानाविधैः कर्मभिः॥४७॥ बह्वथैः पदवाक्य(दा)नजनकैरङ्गैश्च संभावितैः । साभिप्रायचिदर्थकर्मफलदानन्तैरसझेरिदं ॥४८॥ विश्वन्याप्यचिदात्मनाहमहमित्युज्जम्भसे मात्रके । एवमुक्तविधानेन विन्यसेन्मातृकाद्वयम् ॥४॥ आवाहनादिभेदैश्च दश मुद्राः प्रदर्शयेत् । आवाहनासने यो जुहुयाद्धविष्यं घृतसंयुतम् ॥५०॥ अथवा तण्डुलेनापि नित्यकर्म समाचरेत् । अनाज्ञातत्रयं कृत्वा गायत्रीदशकं जपेत् ॥५॥ प्रणवाद्यन्तमध्यस्थं होमान्ते च विधीयते। चतुर्विंशतिवर्णानि जपेत् पारायणे मनुः(म् ) ॥२॥ जपे पारायणे चैव युक्त च विरलं क्रमात् । चतुरक्षरसंयुक्त कराङ्गन्यासमाचरेत् ॥५३।। तुर्यपादं विनान्यासमाद्यन्तं प्रणवैस्सह । व्याहृतित्रयमुच्चार्यगायत्रीचतुरक्षरम् ॥४॥ पुनर्व्याहृतिमुच्चार्य कराङ्गन्यासमाचरेत् ।। पादं पादं द्विभागं च प्रतिप्रणवसंपुटम् ॥५शा
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२६८८
विश्वामित्रस्मृतिः कराङ्गन्याससंयोगे षट्पदा त्रिपदा भवेत् । अङ्गुष्ठादिचतुर्वर्णमनुलोमक्रमेण च ॥५६॥ हृदयादिचतुर्वणं क्रमेणैव विलोमता। चतुर्वर्ण विना यस्तु विपर्यासं न्यसेद्यदि ॥५७।। स विपत्ति समाप्नोति सत्यं सत्यं न संशयः। अस्त्राय फडिति न्यासमापादतलमस्तकम् ॥५८।। षष्णवत्यात्मके देहे प्रकाशार्थ प्रचोदयात् । लोकत्रयेण दिग्बन्धं ततो मन्त्राः(न्)प्रदर्शयेत् ॥५६॥ हंससिंहासनं वह्निविश्वयोनिस्तथैव च । खेचरी कुण्डलीकुण्डं सप्तव्याहृतिमुद्रिका ॥६०|| सुमुखं संपुटं चैव विततं विस्तृतं तथा। द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुःपञ्चमुखं तथा ॥६॥ षण्मुखाधोमुखं चैव व्यापकाञ्जलिकं तथा। शकटं यमपाशं च प्रथितं(चोन्मु)सम्मुखोन्मुखम् ॥६२।। प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यकूर्मवराहकौ । सिंहाक्रान्तां महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा ॥६३॥ एते मुद्राश्चतुर्विंशा गायत्री सुप्रतिष्ठिता । इति मुद्रां न जानाति गायत्री निष्फला भवेत् ॥६४॥ ध्यानं मुक्ताविद्रुम हेमनीलधवलच्छायैर्मुखैः-भजे । तारं तुर्यपादं चोक्त्वा बीजशक्तिं च कीलकम् ॥६।। त्रीणि त्रीणि विधाप्रोक्त क्रमादृष्यादिकं न्यसेत् ।। पूर्णगायत्रिया देव्याः प्रसादे विनियुज्यते ॥६६॥
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भिन्नभिन्नकालानांजपप्रकरणवर्णनम् २६८६ बीजशक्यादिकीलानां अनुलोमविलोमतः। आदौ प्रणवसंयुक्त कराङ्गन्यासमाचरेत् ॥६॥ प्रणवान्तलिलोकैश्च कुर्यादिग्बन्धनं ततः। ध्यानं-यहवास्सुरपूजितारुणनिभं हेमार्कतारागणैः पुन्नागाम्बुजनागपुष्पवकुलैः (वासा) दिभिः पूजितम् । नित्यं धातृसमस्तदीप्तिकरणं कालाग्निरुद्रोपमं, तत्संहारकरं नमामि सततं पातालषष्ठं मुखम् । शिखायोनिमहायोगी सुरश्चाप्युपमस्तनि (के)। लिङ्गमुद्रामहामुद्रांजलिरित्यष्टमुद्रिका ॥६॥ प्रातमध्याह्नकाले तु तुर्यपादं दशांशकम् । सायंकाले चतुष्पादसहितं जपमाचरेत् ॥६६॥ सुरभिर्ज्ञानवैराग्ये योनिः शङ्खोऽथपङ्कजम् । लिङ्गं निर्वाणमुद्राऽष्टौ जपान्ते परिकल्पयेत् ॥७॥
चक्र-अत्र ग्रन्थपातः क्रमात् ।। ऋक्शाखोक्तन विधिना योगे तु विलोमतः । विना प्रयोगजाप्ये तु अनुलोम न विद्यते ॥७१।। इति विश्वामित्रस्मृतौनानाप्रयोगविधानं
नामषष्ठोऽध्यायः ।
१६६
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अथ सप्तमोऽध्यायः उपस्थानविधिवर्णनम्
॥ उपस्थानम् ॥ अथातस्संप्रवक्ष्यामि उपस्थानविधि क्रमात् । ऋक्शाखोक्तने विधिना जातवेदस इत्युचम् ॥ १॥ प्रातःकाले च सायाहे जपेच्वेत्युक्तमार्गतः। मध्याह्न च पृथक्सन्च्या योदित्यं जातवेदसम् ॥२॥ सहस्रपरमां देवीं मध्याह्न च जले द्विजः। सूर्यावलोकनं कुर्वन् दुर्गोपस्थानमाचरेत् ॥३॥ सायाह्न सूर्यमालोक्य दद्यादय॑चतुष्टयम् । मृक्षप्रकाशपर्यन्तं जपेदेवं चतुष्पदाम् ॥४॥ जातवेदस इत्येषां प्रातस्सायमचं जपेत् । जलान्ते विधिवत्कुर्यात् उपस्थानं समाहितः॥५॥ हंसमन्त्रं समुच्चार्य गायत्री त्रिपदां वदन् । अर्घ्यमेकं तु मध्याहृ ऋग्यजुस्सामवेदिनाम् ॥६॥ प्रायश्चित्तं द्वितीयाध्यं असुराणां वधाय च । अर्घ्यद्वयं तु मध्याह्न सर्वेषामेवमेव हि ॥७॥ अर्घ्यप्रदानात्परतो गायत्री पूर्ववजपेत् । आवर्तनं गते सूर्ये उपस्थानं समाचरेत् ॥ ८॥ उदित्यमिति मन्त्रेण ऋकशाखोक्तविधिक्रमात् । मध्यंदिने रविध्याने प्रातस्सायाह्नवद्भवेत् ॥६॥
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सूर्योपासनाविधिवर्णनम् २६९१ कृत्वा माध्याहिकी सन्ध्या त्रयोदशपटीपरम् । .. आवर्तनान्तं प्रजपेदुपस्थानं ततः परम् ।।१०।। नित्यं जाप्यं विना यस्तु उपस्थानं करोति चेत् ।। सौरमन्त्रैश्च सकलैः गायत्रीजपपूर्वकम् ॥१॥ प्रत्यगासूर्यमालोक्य उपस्थानं समाचरेत् । उदयेऽस्तमये जप्त्वा दुर्गोपस्थानमाचरेत् ॥१२॥ मध्यन्दिने जपान्ते च सूर्योपस्थानमाचरेत् । आश्वलायनगृह्योक्तमृग्यजुस्सामशाखिनाम् ॥१३॥ जपोपस्थानयोरन्ते सौरं पश्चार्चनं यजेत् । प्रभान्तमुद्यत्प्रतिभास्यमानो
बिम्बं समालोक्य कृतोदितो वदेत् । मन्त्रस्य चार्षादिऋचं च याजुषैः
शाखान्तरोक्तास्तु(समु) उपासनीयाः ॥१४॥ त्रिपदाजपसाद्गुण्यं तुर्याजाप्यं दशांशकम् । तुर्यपादं विना जाप्यं कुरुते निष्फलं भवेत् ॥१॥ मित्रस्य चर्षणीमन्त्रं याजुषोपासनक्रमात् । प्रातर्जपान्ते गायत्र्याः सूर्योपस्थानमाचरेत् ॥१६॥ आसत्येनेति मन्त्रेण षडचोक्तविधानतः । मध्यन्दिने रविं ध्यायेज्जपान्ते विधिवक्रमात् ॥१७॥ सायं भानोरस्तमयाद्विघटी कर्मसंयमे । ऋक्षप्रकाशपर्यन्तं जपन् देवी मनोहराम् ॥१८॥
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२६६२ विश्वामित्रस्मृतिः
लुन सूर्य समालोक्य दिगुपस्थानमाचरेत् । सूक्तं वारुणमस्ते च इप्रमादि पठेन्मनुम् ॥१६॥ प्रियासूक्तं समुच्चार्य देवीं ध्यायेच्चतुष्पदाम् । पञ्चोपचारैरभ्यर्च्य गायत्री तुर्यया सह ॥२०॥ इति विश्वामित्रस्मृतौ उपस्थाननाम
सप्तमोऽध्यायः।
अथ अष्टमोऽध्यायः देवयज्ञादिविधानवर्णनम्
॥ वैश्वदेवम् ।। देवयज्ञादिकं वक्ष्ये गृह्योक्तविधिना ततः । कोद्रवान्मासुरान्माषान् मसूरांश्चकुलुत्थजान् ॥ १॥ लवणं च कटुद्रव्यं वैश्वदेवे विवर्जयेत् । नीवारान्वंशजं धान्यं गोधूमान् तण्डुलांस्तदा ॥२॥ कन्दमूलफलादीनि दधिक्षीरघृतादिकम् । प्रत्यहं वैश्वदेवार्थ कुर्यान्नित्यमतन्द्रितः ॥३॥ गृहस्थो वैश्वदेवस्य कर्म प्रारभते यदा। गृहे सिद्धान्नमादाय दधिक्षीरघृतान्वितम् ॥४॥ जपासने स्वकार्याथं सर्वेभ्यः पचने द्विजः।। यो हि यत्तधुनेदनौ गायत्रीमंत्रपूर्वकम् ॥५॥
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बलिप्रकरवर्णनम्
२६६३ दिवा सूर्याय रात्रौ चेदनये च हुवेद्धविः। प्रजापतय इत्येकामुभयोराहुति हुनेत्(?) ॥६॥ प्रणवव्याहृतिभिश्च हुत्वामन्त्रैः स्वशाखिभिः । भूतेभ्यश्चबलिंदद्यात् आयुष्कामो दिवारात्रौ शूपाकारं बलिं हरे । . मृत्युरोगविनाशार्थ नराकारं बलिं हरेत् ॥८॥ काम्ये कर्मणि वाक्ये च बलिं वल्मीकवद्धरेत् । आयुरारोग्यमैश्वर्यं पुत्रान्पौत्रान्पशृंश्च यः ॥ ६ ॥ काङ्क्षते स च मोक्षार्थी चक्राकारं बलिं हरेत् । धर्मार्थकाममोक्षार्थ व्यजने च बलिं हरेत् ॥१०॥ पञ्चवैतेषु विप्राणां मुख्यमेतचतुर्थकम् । प्रथम चोपवीतं स्याद्वितीयं च निवीतिकम् ॥११॥ तृतीयं पितृमेधार्थ वैश्वदेवे विधीयते । तण्डुलोदकसंयुक्त पाकं कुर्याद्विशेषतः ॥१२॥ तप्तोदकस्य मध्ये तु तण्डुलं नैव पाचयेत् । तप्तोदकस्य मध्ये तु तण्डुलं पाचयेद्यदि ॥१३॥ तण्डुलं गरलं ज्ञेयं तुल्यं गोमांसभक्षणम् । अन्नं पर्युषितं भोज्यं स्नेहाक्तं चिरसंस्थितम् ॥१४॥ अस्नेहा अपि गोधूमा यवा गोरसमिश्रिताः । पाक मध्ये घृतं दत्वा पाकादुत्तीर्य यत्नतः ॥१॥ तस्योपरि घृतं क्षिप्त्वा भागान् कुर्याद्विशेषतः । यज्ञार्थे देवपूजार्थे विप्रार्थे बलिकर्मणि ॥१६॥
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२६६४
विश्वामित्रस्मृतिः पृथक्पाकं न कुर्वीत वैश्वदेवे विशेषतः । हविष्यान्नं कुशैः कार्य पञ्चभागान्द्विजोत्तम ॥१७॥ अभिधार्य च तान् भागान् पूर्व पश्चाधुतेन च । मालायामान्प्रकुर्वीत पञ्चपूजापुरस्सरम् ॥१८॥ देशकालौ च संकीर्त्य ततः कर्म समाचरेत् । षड्भिराधः प्रतिमन्त्रं हस्तेन जुहुयात्ततः ॥१६॥ मनःस्था(खानि)स्थिरां कृत्वा स्वयं ज्ञानाग्निनापचेत् । खधर्मनिरतो यस्तु स्वयंपाकी स उच्यते ॥२०॥ अमन्त्रं वा समन्त्रं वा वैश्वदेवं न सन्त्यजेत् । वैश्वदेवस्य करणादन्नदोषैर्न लिप्यते ॥२१॥ प्रातमध्याह्नकाले च होमं कुर्याद्यथाविधि । सायंकाले तथा कुर्याद्धविष्यं तण्डुलं द्विधा ॥२२॥ विधाय प्रत्यहं पाकं हुत्वा देवार्पणं हविः । हुत्वा दत्वा च यो भुङ्क्त स्वयंपाकी स उच्यते ॥२३॥ पञ्चसूनापनुत्त्यर्थं प्रायश्चित्ते हुनेद्धविः। पवित्रमन्यं (न्न) तज्जातं नास्ति चेदपवित्रता ॥२४॥ एकपार्वेद्विधा होमौ न कुर्याद्वश्वदैविकम् । कदाचित्कुरुते यस्तु उपोष्य व्रतमाचरेत् ॥२॥ परेऽहनि समुत्थाय स्नानं कृत्वा यथाविधि । पाकं कुर्याद्विधानेन होमं कुर्यात्षडक्षरैः ॥२६।। भूभुवस्सुवरित्येतः हुनेत्प्रणवपूर्वकम् । अष्टोत्तरशतं चैव स्वसूत्रोक्तविधानतः ॥२७॥
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वैश्वदेवकालनिर्णयवर्णनम् २६९५ वैश्वदेवं ततः . कुर्यात्क्रमेणैव यथाविधि। बलिदानं ततः कुर्यात्प्रायश्चित्तं विधीयते ॥२८॥ सूतकद्वयसंप्राप्तौ नित्यहोमं परित्यजेत् । पारायणं प्रकुर्वीत वाचकोपांशुवर्जितम् ॥२६।। एकादशेऽह्रि संप्राप्ते पृथक्पाकं प्रकल्पयेत् । वैश्वदेवं प्रकुर्वीत बलिकर्म यथाविधि ॥३०॥ प्रेतश्राद्ध पृथक्पाकं वैश्वदेवं समाचरेत् । क्षये दर्शे च पक्षे च एकपाको विधीयते ॥३१॥ प्रेतश्राद्ध विना येन पृथक्पाकः कृतो यदि । राक्षसाः प्रतिगृह्णन्ति पाककर्ता पतत्यधः ॥३२॥ वैश्वदेवप्र(करणस्य) कालस्यात्र विनिर्णयम्। . सूर्योदयं समारभ्य घटिकाःस्युश्चतुर्दश ॥३३।। घटिका पञ्चदश च षोडश स्युः ततः परम् । ततस्सप्तदश प्रोक्ताः ततश्चाष्टादश स्मृताः ॥३४॥ सङ्गमान्ते ब्रह्मयज्ञं कुर्यास्नानपुरस्सरम् । मध्यसन्ध्यां तर्पणं च वैश्वदेवमिति क्रमात् ॥३॥ मध्यकाले तु मध्याह्न दक्षिणायनगे रवौ । वश्वदेवं प्रकुर्वीत मध्यकालाच पूर्वतः ॥३६।। मध्याह्रान्ते वैश्वदेवं घटिकानवकात्परम् । उत्तरायणगे सूर्ये वैश्वदेवं समाचरेत् ॥३७॥ चतुर्दशघटीभ्यस्तु मार्तण्डस्योदयावधि। परतस्तर्पणं कृत्वा वैश्वदेवं समाचरेत् ॥३८॥
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२६६६
विश्वामित्रस्मृतिः मृतुत्रयाख्यविधिना दक्षिणोत्तरमार्गयोः । सूर्योदयं समारभ्य घटिकाद्वयष्टकात्परम् ॥३६॥ तर्पणान्तेऽस्य विधिना वैश्वदेवं समाचरेत् । योगिनां वैश्वदेवस्य कालनिर्णय उच्यते ॥४०॥ याममध्ये न होतव्यं यामयुग्मं न लङ्घयेत् । योगिनां वैश्वदेवस्य काल एष उदाहृतः ॥४१॥ अन्यथा यस्तु कुरुते योगी भ्रष्टोऽभिजायते । योगिनां वैश्वदेवस्य मुख्यो विधिरुदाहृतः ॥४२॥ बलिक्रियां समुत्सृज्य कुर्यान्नित्यं षडाहुतिम् । नान्तलिक्रियां कुर्याद्वाह्य एको बलिःस्मृतः ॥४३॥ षड्भिराध हुनेदन्नं इति कौषातकिस्मृतः । तस्मा नेद्विधानेन वैश्वदेवं श्रुतीरितम् ॥४४॥ वैश्वदेवस्याकरणादोषं भिक्षुळपोहति । भिक्षोर्नदानं दोषं तु वैश्वदेवं व्यपोहति ॥४शा अकृत्वा वैश्वदेवं तु भिक्षौ भिक्षार्थमागते। उद्धृत्य वैश्वदेवार्थ भिक्षां दत्वा विसर्जयेत् ॥४६॥ काष्ठभारगतेनापि घृतकुम्भशतेन च । अतिथिर्यस्य भनाशस्तस्य होमो निरर्थकः ॥४७॥ दूरादतिथयो यस्य गृहं प्राप्य सुतोषिताः। सद्गृहस्थ इति प्रोक्तश्शेषाः स्नु हरक्षकाः ॥४८॥
वैश्वदेवं विना पाको यस्तु सप्रत्यनामकः। . . तं पाकं ब्राह्मणो भुङ्क्त स सद्यः पतितो भवेत् ॥४६॥
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पञ्चसूनापनुत्त्यर्थवैश्वदेवविधिवर्णनम् २६६७ वैश्वदेवाकृतादोषाच्छक्तो भिक्षुळपोहितुम् । पादुकायोगपट्टं च पवित्रं चित्रकम्बलम् ॥५०॥ स्वाहां स्वधा वैश्वदेवे तर्जन्यां रजतं तथा। वजयेज्जीवपितृकः कुर्यान्नित्यं षडाहुतीः ॥१॥ यदि पित्रा समाज्ञप्तो वैश्वदेवं समाचरेत् । असंस्कृतान्ननैवेद्य स्थावरेषु गृहेषु च ॥५२॥ स्वाहाकारं विना यस्तु कुरुते ब्रह्मराक्षसः । चराचरादिदेवानां हविष्यान्नं निवेदयेत् ॥५३।। पञ्चसूनापनुत्त्यर्थं वैश्वदेवं विधाय च । पञ्चसूनापनुत्त्यर्थं प्रायश्चित्तं हुनेद्धविः ॥४॥ तत्परं देवताभ्यस्तु नैवेद्यं परिकल्पयेत् । वैश्वदेवार्पणं येन द्विजदेवार्पणं हविः ॥५।। कुर्वन्ति ते महापापात्तद्धविः क्रिमिसकुलम् । रण्डावन्ध्याकृतः पाको बधिरामूकयोस्तथा ॥५६।। निष्फलायाश्च गुर्विण्या न भोक्तव्यं कदाचन । रण्डापञ्चविधं ज्ञात्वा प्रयत्नेन परित्यजेत् ॥५॥ श्मशाने चितिसंयुक्त प्रज्वाल्याभीष्टकाष्ठवत् । कन्या वैधव्यमापन्ना वीरेत्याचक्षते बुधैः ॥१८॥ रोहिणी विधवा भर्ता सा रण्डेत्यभिधीयते । दुर्भगः दशवर्षा या सा कन्या समुदीरिता ॥५॥ रजसः परतस्सा तु यातुकी. विधवा भवेत् । असन्ततिश्च या नारी सा रण्डेत्यभिधीयते ॥६॥
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२६६८
विश्वामित्रस्मृतिः नानाभावैः प्रयत्नेन रण्डापाकं परित्यजेत् । वीररण्डा कुण्डरण्डा बालपुत्राह्यपुत्रिणी ॥६॥ तासां पाको न भोक्तव्यो भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् । अस्माता विधवा चण्डी पक्काशी माससूतकी ॥६॥ पञ्चपक्वान्त्यजेद्विप्रः तत्प्रेष्यं च परित्यजेत् । पाकं कृत्वा प्रयत्नेन ह्यभुक्त्वा भोजने विषम् ॥६३।। रण्डापाकं महापापं वैश्वदेवे परित्यजेत् । नाहुतं पाकमनीयादनैवेद्य स मन्यते ॥६॥ रण्डापाकं विषं क्रूरं अहुत्वान्नं तथा विषम् । द्विविधं यन्त्रसंयुक्त तदन्नं कालकूटकम् नाना भावैः प्रयत्नेन रण्डापाकं परित्यजेत् । प्रमादात्प्राप्यते चान्नं प्राणायामांश्चतुर्दश ॥६६।। कुर्यात्कुम्भकमार्गेण न्यामध्यानपुरस्सरम् । मन्त्रराजहविर्भागं प्रथमं वैश्वदेविकम् ॥६॥ कृत्वा श्राद्धं प्रकुर्वीत नित्यनैमित्तिकं चरेत् । श्राद्धाग्नौ करणात्पूर्व वैश्वदेवं विधाय च ॥६॥ ततोऽनौ करणं कुर्यादन्यथा श्राद्धघातकः । वैश्वदेवं विना यस्तु श्राद्धकर्म समाचरेत् ॥६॥ वृथा श्राद्धं भवेत्तञ्च रौवं नरकं व्रजेत् । नित्यनैमित्तिके श्राद्ध पक्त्वा चान्नं प्रयत्नतः ॥७०।। ततो होमं प्रकुर्वीत ब्राह्मणान् भोजयेत्ततः ! यदन्नौ करणं कुर्याद्वश्वदेवपुरस्सरम् ॥१॥
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वैश्वदेवमाहात्म्यवर्णनम् २६६६ ब्रह्मार्पणं हविस्तत्स्यापितॄणां दत्तमक्षयम् । देवेभ्यश्च पितृभ्यश्च ऋषिभ्यश्च तथा हविः ॥७॥ आदौ वह्निमुखे दत्तं तृप्त्यै भवति नान्यथा । यस्त्वनौ न हुतं चान्नं दैवे पित्र्ये प्रयच्छति ॥७३॥ गोत्रपान्नं भवत्येव वृथा श्राद्धं न संशयः। नित्यश्राद्ध गयाभाद्ध तीर्थश्राद्ध तथैव च ॥४॥ वैश्वदेवं हुनेदादौ ततः श्राद्धं समाचरेत् । स्वाहाकारेण हुत्वादौ स्वधाकारेण वै ततः ॥७।। एवं होमत्रयं कृत्वा ततः श्राद्धं समाचरेत् । वैश्वदेवविषये :हविष्यमन्नं घृतसकुलं च
__ वह्रौ समांशं जुहुयात्रियामम् । द्वयोत्तरं त्रिजति(१) युग्मसंज्ञ
ओढारमादौ प्रतिमन्त्रयुक्तम् ॥७६॥ रसयुक्त हविष्यं स्याद्धृतयुक्त तथो(थौ)दनम् । ब्राह्मणो वैश्वदेवार्थ कुर्यान्नित्यमतन्द्रितः ॥७॥ अन्यस्य चेद्रसं त्यक्त्वा वैश्वदेवं करोति यः । देवेभ्यश्शापमाप्रोति दरिद्रो भवति ध्रुवम् ॥७८।। सुपक्कं रससंयुक्त राजान्नं घृतसंयुतम् । तद्धविष्यमिति ज्ञातं सुप्रीतानिदशादशः ॥७॥ पर्वद्वये समायोगे श्राद्धान्ते वैश्वदेवार्थ पाकं कृत्वाप्रयत्नतः ॥८॥
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२७००
विश्वामित्रस्मृतिः हुत्वा दत्वा च, भुक्त्वा च द्विजश्चान्द्रायणं चरेत् । देवानां च ऋषीणां च पितृणां च विशेषतः ।।८।। पर्यायेण प्रदातव्यं श्राद्धकाले हविर्द्विजैः। देवर्षिपित्तुष्ट्यर्थमेकपाको विधीयते ॥२॥ पृथक्साको न कर्तव्यः कृतश्चेत्पतितो भवेत् । अकृत्वान्नं तु नैवेद्य यः कुर्यात्क्रिमिसङ्कुलम् ।।८३॥ होमं कृत्वा प्रयत्नेन वैश्वदेवं प्रकल्पयेत् । इति विश्वामित्रस्मृतौ वैश्वदेव प्रकरणंनाम
सप्तमोऽध्यायः समाप्त।
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॥ श्रीगणेशाय नमः ।। * लोहितस्मृतिः *
. विवाहानौस्मार्तकर्मविधानवर्णनम् लोहितं सर्ववेदान्ततत्त्वज्ञं न्यायवित्तमाः। सामान्यज्ञानसंजातसंशयास्सर्व वस्तुषु ॥१॥ विशेष परिपप्रच्छुः भार्यापुत्रधनादिषु । स्मातं कर्म विवाहानौ कुर्वीत प्रत्यहंगृही ॥२॥ इत्यत्र विद्यमानोऽग्नि शब्दोऽयं संशयास्पदम् । प्रधानलाजहोमाग्निः विवाहानिरितिस्मृतः ॥३॥ सोऽयं नित्यत्वधार्यत्वविहितो हि यतो मतः । विवाहपचनाग्निश्चेत्प्रकृतेन समञ्जसः ॥ ४ ॥ तस्योत्तरत्र कार्येषु विनियोगैकशून्यतः : प्रधानहोमाग्नौ तत्र पुनस्संशय ऐककः ॥५॥ आद्याग्नौ वा द्वितीयाग्नौ तृतीयाद्यनलेऽपि वा। अथ वा स्याञ्चतुर्थानौ पञ्चमायौ न चेत्तथा ॥६॥ सर्वत्रैवाविशेषेण कुर्वीत प्रत्यहं गृहीः।। एवं पुनस्तथा पश्चात्क्षत्रियाद्यनलेषु वा ॥७॥ केन द्रव्येण भूयश्च कथं मन्त्राश्च के पुनः । इत्येवं संशये जाते निश्चयं वच्मि वोऽद्य तु ॥ ८॥
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२७०२
लोहितस्मृतिः ॥ बहुभार्यस्यौपासनादौ विशेषः॥ ब्रह्मचर्यनिवृत्तिस्सा' यस्यास्समुदपद्यत । धर्मपत्नी सैव लोके कथिता तत्समा च सा ॥६॥ भर्तुरर्धशरीरा च सर्वधर्मसमाश्रया। तद्विवाहसमुद्भूतो वहिनिखिलकर्मणाम् ॥१०॥ मन्त्रपूतो वेदजन्यः सर्वयागैकसाधकः । स एव हि प्रधानानिः ब्राह्मणस्यमहात्मनः ॥११॥ द्वितीयाद्यमयः शिष्टाः दुर्बलास्तत्समान तु । न ते वैदिककृत्यस्य तूष्णीका एव केवलम् ॥१२।। धर्मपत्नीवीनिहोत्रे स्मातं कर्माखिलं चरेत् । द्वितीयांपल्यमिषु चेत्तूष्णीकं कृत्स्नकर्म तत् ।।१३।। वेदोक्तमन्त्रतन्त्राणि न भवेयुः कदाचन । प्रत्यमावपि यत्नेन सायं प्रातस्समाहितः ॥१४॥ वेदोक्तमन्त्रैरखिलैः कुर्यादौपासनं बुधः । राजन्याद्यबलामीनां नित्यमोपासनं तु तत् ॥१२॥ ब्राह्मणेन तु कर्तव्यं ब्रीहिभिर्न तु तण्डुलैः । शूद्रकन्यौपासनं तु ब्राह्मणेन विपश्चिता ॥१६॥ यवैरमन्त्रकं नित्यं कर्तव्यमिति काश्यपः। पञ्चपल्यो ब्राह्मणस्य स्वजातो धर्मतो मताः ॥१७|| राजन्यवैश्ययोश्चापि स्वजातावेव वै तथा । त्रैवर्णिकानां सततं धर्मपत्नीधनञ्जयम् ॥१८॥
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श्राद्ध विशेषकत्यवणनम्
२७०३ प्राथम्येन पुरस्कृत्य वैदिकानि प्रचालयेत् । पितृश्राद्धषु सर्वेषु प्रथमेष्वेव पञ्चसु ॥१९॥ तदनौ करणं कुर्यात् विशेषोऽयमथोच्यते । धर्मपल्यनिले कुर्यात् मन्त्रवत्तद्विधानतः ॥२०॥ चतुर्वन्येष्वमन्त्रेण हुनेदिति मनोर्मतम् । . एवं पितुश्च मरणे प्रथमाग्नौ सुतेन वै ॥२१॥ सर्वा आहुतयः कार्याः तन्मन्त्रैरखिलैरपि । पश्चाद्वितीयाधनले तूष्णीकं ताः न वाहुतीः ॥२२॥ कुर्यादेव समन्त्रास्ते तत्रस्युस्सर्वथैव हि। सर्वे मन्त्राश्च धर्माश्च क्रियास्तन्त्राणि सूरिभिः ॥२३॥ धर्मपल्यनलावेव कर्तव्यत्वेन चोदिताः। क्षत्रियाद्यबलावह्निविशेषायेऽस्यतेऽभवन् ॥२४॥ तान् सर्वान्दीप्यमानेऽस्मिन् क्रमात्तूष्णीं तु निर्वपेत् । सर्वेष्वग्निषु तस्माद्व यावजीवं विधानतः ॥२५॥ स्मार्तकर्माणि कुर्वीत चौपासनमुखान्यपि । सजातिवहिषु सदा तदोपासनमात्रकम् ॥२६॥ आन्तं समन्त्रकं नित्यं स्थालीपाकं तथैव च । सर्व श्राद्धादिकं शिष्टं यद्वा नैमित्तिकं भवेत् ॥२७॥ तत्र सर्वत्र सततं प्रथमानौ समन्त्रकम् । इतरानिष्वमन्त्रं स्याद्वश्वदेवं यथारुचि ॥२८॥ सर्वोत्तमा धर्मपत्नी तनिश्च तथाविधः । । तप्राधान्येन कुर्वीत कर्म चौपासनं सदा ॥२६॥
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२७०४
लोहितस्मृतिः क्रमेणेतरकर्माणि न व्यत्यासेन तवरेत् । पृथनित्यं तथाकर्तुमशक्तश्चेद्विचक्षणः ॥३०॥
॥अनेकाग्निसंसर्गः॥ सर्वेषामपि वह्नीनां संसर्ग विधिनाचरेत् । संसर्गे तु कृते होमे चैको वह्निस्ततो भवेत् ॥३१॥ ततो होमे कृते तावन्मात्रेणैव समन्त्रकम् । सर्वत्रापि कृतं सम्यग्भवत्येव न संशयः ॥३२॥ धर्मपत्नीवीतिहोत्रे प्रधानेऽस्मिन्यथाविधि । क्रमेणैव स्थापयित्वा हुत्वामन्त्रस्तुतैरति(पि) ॥३३॥ योजयेत्तेन विधिना नान्यावह्नौ कदाचन । प्राधान्येन प्रधानाग्निं कृत्वा तस्मिन् परानशुचीन् ॥३४॥ योजयेत्समिताद्यस्तु चरुधर्मेण धर्मवित् । कदाचिन्मोहतो यो वा द्वितीयाद्यनलेषुचेत् ॥३।। संसर्ग कुरुते मूढः प्रधानमितरास्तु वा । सर्वे नष्टाह्यमयस्ते लौकिकत्वं भजन्ति हि ॥३६॥ तद्दोषशमनायाथ पुनरग्निं यथाविधि । प्रतिष्ठाप्याखिलैर्दारैरुपविश्य यथाक्रमम् ॥३७॥ प्रधानहोमं कुर्वीत लाजहोमं च पूर्ववत् । पत्नीसंख्याविधानेन पश्चात्तत्सिद्धिरीरिता ॥३८।। अन्यथा दोषमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा । श्रोताग्नौ विद्यमाने स्वायतने तु तदान्वहम् ॥३॥
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पत्नीसुतानांज्येष्ठत्वादिविचारवर्णनम् २७०५ सायंप्रातहोमकाले धर्मपल्यास्सदैव हि। सीमोल्लङ्घनमात्रेण सद्योऽनिलौकिको भवेत् ॥४०॥ तदधीनो यतो वह्निस्तथा तस्मात्प्रयत्नतः । तां धर्मपत्नी तत्सीम्नः तत्कालोल्लवनं यथा ॥४१॥ न करोत्येव सा यत्नात्तथा यत्नेन बोधयेत् । कदाचिद्यदि सा मोहादवशादुःखपीडनैः ॥४२॥ सीमान्तरं प्रविष्टास्यात्पुनस्सन्धानमाचरेत् । अपस्मारादिना सा चेदभिभूतावशा भवेत् ॥४३॥ निरोधयेद्गृहेष्वेव नो चेदग्निस्तु लौकिकः। ॥ज्येष्ठादिपत्नीनां तत्सुतानां च ज्यैष्ठ्यकानिष्ठ्यविचारः।।
धमपत्नी वयोन्यूना द्वितीया वयसाधिका ॥४४|| धर्मपत्न्येव सततं ज्यैष्ठ्यमहति कर्मसु । वयोधिका द्वितीया सा सदा कानिष्ठ्यभागिनी ॥४॥ भवेदेवेतिनिखिलाः प्राहुस्ते ब्रह्मवादिनः । द्वितीयादिसुतोज्येष्टः वयसा कर्मशीलतः ॥४६।। अधिकोऽप्याहिताग्निर्वा जातपुत्रो बहुश्रुतः। न ज्येष्टपत्नीतनयान्मौञ्जीविरहितादपि ॥४७॥ न समो धर्मतः प्रोक्तः सोऽयमेवौरसः परः । आत्मजश्चापे कथितो द्वितीयादिसुतास्तुते ॥४८॥ कामजा इति हि प्रोक्ताः श्रुतिस्मृत्यर्थदर्शिभिः । एतेनैव प्रकथिता स्तृतीया तुर्यकादयः ॥४॥
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२७०६
.. लोहितस्मृतिः ज्यैष्ठ्यकानिष्ठ्यधर्मेषु न्यूनाधिक्येष्वपि स्फुटम् । धर्मपत्नीसुतेनैव स दत्तो भिन्नगोत्रजः ॥५०॥ तुर्यभागीति कथितः न द्वितीयादिसूनुना । विशेषोऽत्रापि भूयश्च पालको यद्यकिञ्चनः ॥१॥ महाचारित्रबन्धुत्वशुश्रूषाद्यनुवर्तनः। श्रीमनामतितुष्टाभ्यां पितृभ्यां प्रीतिपूर्वकम् ॥५२॥
॥ दत्तपुत्रविषयः॥ कृपया दत्तपुत्रः श्रीभूमिक्षेत्रादि भाग्यवान् । बहुलो जातपुत्रश्च शनैः कालेन वै तदा ॥३॥ वृद्धि तां परमां प्राप्तस्तत्सून्वोश्च ततः परम् । तुल्यो भागः प्रकथितो न विवादः कदात्र वै ॥५४॥ तत्रापि जैष्ठ्यकानिष्ठ्य मात्रीचात्मजहेतुतः। विवदन् चात्र यः पापी राष्ट्रात्सद्यस्स एव हि ॥५॥ निर्वास्यस्ताडनीयश्च राज्ञा वै धर्म भीरुणा । एतेन सर्वदत्तानां पुत्राणामयमेव वै ॥५६॥ न्यायः प्रकथितस्सद्भिः एवं सत्यत्र केवलम् । एवं हि निश्चयो ज्ञेयः यो वा लोके त्वकिश्चनः ॥५७।। परश्रियं समुद्वीक्ष्य महिमानं च पूज्यताम् । तत्साम्यप्राप्तयेऽतीव कालमुद्वीक्ष्य केवलम् ॥८॥ परापुत्रत्वदुःखज्ञो भूत्वा पश्चात्स्वयं शनैः। युवाभ्यां तनयं स्वीयं प्रदास्यामीति तौ तराम् ॥५६।।
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अपुत्रायादत्तकपुत्रविधानवर्णनम् २७०७ संप्रार्थ्य यनासंबोध्य समाश्रित्य च बन्धुभिः । मित्रैराप्तैर्बोधयित्वा तदीयैर्जातिसजनैः ॥६॥ स्वपुत्रं प्रददेत्ताभ्यां अपुत्राभ्यां तदिच्छया । सोऽयमेव सुतः प्रोक्तस्तुर्यभाग्यौरसेन वै ॥६॥ पश्चाजातेन धर्मेण हेयापुत्रस्तुतात्यशः १ । भवत्येव च सर्वत्र नचदत्तः पुनर्यदि ॥६॥ विद्याश्रीधनभाग्यैस्तु समो वाभ्यधिकोऽथ वा। भ्राता सगोत्रस्तत्कामरहितः पुष्कलात्मवान् ॥६॥ अपुत्रप्रार्थनापूर्व दानधर्मैकवर्त्मना। पुत्रं जनानां पुरतो ग्राहयामास केवलम् ॥६॥ शपथैरतुलैपोरै राजबन्ध्वादिजल्पितैः । सपुत्रस्तेन तुलितः रिक्थद्रव्यक्षमादिषु ? ॥६॥ अधिकोऽपि कदाचित्स्यादौरसान्न तु तत्कृतौ। पैतृके तु स एव स्याज्ज्येष्ठोऽयं वयसा तराम् ॥६६॥ न्यूनोऽपि तादृशो दत्तः समोऽभ्यधिक एव वा । कानिष्ठ्यमेव लभते न तु ज्यैष्ठ्य कथंचन ॥६७।। प्रेतकृत्यैकभिन्नेषु विभागादिषु तादृशः।
औरसेन समः प्रोक्तः तादृशो यदि वा पुनः ॥६॥ ..."प्सादीकोग्राम भूमिजनताधनशेवधेः।। स एवार्हति सर्वस्वप्रदानादिषु केवलम् ॥६॥ स्वामित्वं च तदाधिक्यं तत्कर्तुत्वं तदीशताम् । न्यूनत्वं दत्तमात्रेण लभते किल केवलम् ॥७॥
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२७०८
लोहितस्मृतिः किं तु तज्जन्मजनक क्रियाभिः पूर्वसंविदैः। ग्राहकस्यावश्यकत्वनावश्यत्वमुखैः परैः ॥७॥ कृत्यैश्चरित्रैः सुस्पष्टं प्रभवेत्स्वयमेव वै। विद्वद्दत्तसुतोपायसंपादितमहाधने ॥७२॥ किमौरसस्य समता तुर्यता वेति वै जगुः । तत्राब्रु वन्धर्मपरा महान्तो ब्रह्मवादिनः ॥७३॥ दत्तः स्वप्रार्थनापूर्वप्राप्तपुत्रत्ववान्यदि । भिन्नगोत्रः पुनश्चापि तुर्यभाक् तु स एव हि ॥४॥
औरसेन समोनायं स्वयमेवागतो यतः। पालकप्रार्थनाधिक्य या च सा शपथादिभिः ।।७।।
प्रदानशपथप्रोक्तिमर्यादावाक्यसूक्तिभिः। १. स्वगोत्रसगृहीतो यः प्रत्यासन्नोऽति सुन्दरः ॥६॥
कापेयरहितस्सूनुः तत्समत्वेन कल्पितः । विद्वद्दत्तसुतोपायसंपादितमहाधने ॥७॥ विभागेच्छा पालकौरसस्यजाता तदाकिल। संपादकेच्छनियतां साम्यंशश्च विधीरितः ॥७॥ अत्रौरसः प्रकथितः धर्मपत्नीसमुद्भवः। द्वितीयादिसुतास्सर्वे सूनुपुत्रादिशब्दिताः ॥६॥ भवन्त्येवात्र सततमौरसत्वं न तेषु तु। एतादृशीयं मर्यादा धर्मपत्नीस्थितौ तदा ॥८॥ द्वितीयादिसमुद्भूतपुत्राणामिति निर्णयः। धर्मपन्यां तु नष्टायां पश्चात्स्याद्या विवाहिता ॥८॥
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धर्मपत्नीत्वविचारवर्णनम्
२७०६ सा चापि धर्मपत्नीत्वं प्राप्नोत्येवाचिरात्खलु । तस्यामपि च नष्टायां पुनर्यास्याद्विवाहिता ||८२।। कुले समाने सा चापि धर्मपत्नीत्वमर्हति । ज्येष्ठायां विद्यमानायां या द्वितीया विवाहिता ॥८३॥ पुत्राथं सापि काले न पुत्रिणी चेत्तथा भवेत् । तथा न चेद्भोगिनी स्यादाप्नोति पुरुषप्रसूः ॥४॥ यत्नेन धर्मपत्नीत्वमनवाप्यंसुनिर्मलम् । बहुकालसुता भावद्धर्मपत्नी द्वितीययोः ॥८॥ पुत्रसङ्अहणे जाते द्वितीया पुत्रिणी यदि । तदापि तनयस्सोऽयं औरसो न भवेदपि ॥८६॥ आत्मजत्वं दत्तपुत्रे अङ्गादङ्गेति मन्त्रतः । यतो निक्षिप्तवान् तातः परसंजातविग्रहे ॥८॥ ततो द्वितीयासंभूतः तनयस्तादृशो न तु। किं त्वयं कामजः कोऽपि सुतपुत्रादिवाच्यता ॥८८।। तस्मिन् तिष्ठति बाढं सा नौरसत्वं प्रतिष्ठति । आत्मजत्वं च मुख्येन गौणत्वेनाखिलं तु तत् ॥८६॥ प्रतिष्ठत्येव किं तेन नौरसेन समो भवेत् । ज्येष्ठाद्वितीययोरारात्पित्रापुत्रकृताः परः ॥oll उपनीतस्ततोज्येष्ठा मृता तस्याः क्रियां च सः। अकरोदत्तपुत्रस्तु ततः कालेन सा परा ॥६॥ पुत्रं प्रासूत सोऽयंचेहत्तोऽन्यकुलजोऽपि सन् । तत्समांशी भवेदेव नात्रकार्या विचारणा ॥२॥
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२७१०
लोहितस्मृतिः ज्येष्ठाद्वितीययोरारात्तातेन च स्वीकृतः सुतः । सगोत्रो वाऽसगोत्रो वा कृतमौज्यादिसत्क्रियः ।।६।। मृता द्वितीया तस्यास्तु चकार प्रेतकृत्यकम् । दत्तोऽयं स्वेन धर्मेण मृताया मातुरेव हि ॥६४|| पश्चात्कालेन सा ज्येष्ठा प्रासूत यदि पुत्रकम् । सोऽपिपुत्रोऽपि ते नैव तुल्य इत्येव सूरिभिः ।।६।। कथितो हि महाभागैः तस्मात्कर्म तथाविधम् । तादृकर्मकरो मुख्यो भवत्येव तु तादृशं ॥६६ कर्म सद्भिः प्रकथितं तत्कर्तादुर्बलोऽप्ययम् । प्रबलः सद्य एव स्यादौरसेन समोऽप्यतः ॥१७॥ एवं सत्यत्र भूयश्च निश्चयं वच्मिचैककम् । दत्तपुत्रादत्तपुत्रसन्निधाने पितृक्रिया ॥८॥ अदत्तपुत्रेणैव स्यात्कर्तव्याऽन्येन नैव हि ।
॥धर्मपल्याः प्राबल्यम्॥ ज्येष्ठपल्येव सा पत्नी धर्मपल्यपि सा परा ॥६॥ मुख्योवैदिककृत्यानां नान्या तत्सदृशी भवेत् । धर्मपत्नीसमुद्भूत औरसश्चात्मजश्व सः ॥१०॥ वंशोद्धरणकर्तृत्वसर्वधर्मसमाश्रयः । न तत्समः परस्तात्तु तदन्ये कामजाः स्मृताः ॥१०॥ सर्वे धर्मा धर्मपल्याः सकाशात्संभवन्ति हि । पाकयज्ञाः सप्त तेऽपि हविर्यज्ञास्तथैव च ॥१०२॥
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गृह्यामिकृत्येत्रियोमुखत्वम् २०११ सोमसंस्थासप्तसंस्थाः नित्यनैमित्तिकास्सवाः । सहस्रसंख्याः . काम्याश्च यज्ञेष्टिपशुकादयः ॥१०३।। अहीनाः क्रतवश्चापि सत्रास्ते विविधाः पुनः। धर्मपल्यनलाजातास्तेषामोपासनस्य तु ॥१०४॥ प्रथमः कथितस्सद्भिः मुखं प्रवर उत्तमः। तत्समो विद्यते भूमौ मूलभूतश्चकारणम् ॥१०॥ तादृशस्यास्य करणं धर्मपत्न्येव मुख्यभूः। तदधीना वहयः स्युस्तस्मात्सा सन्ध्ययोद्वयोः ।।१०६।। सीमासन्धिप्रदेशेषु न गच्छेदेव सर्वथा। नदीपाथः परंपारं न गच्छेदेव सर्वथा ॥१०७।। यदि मोहेन सा गच्छंद्वयस्सद्य एव वै। लौकिकत्वं प्राप्नुवन्ति तस्मात्तु सरितं नदीम् ।।१०८॥ महानदीमल्पनदीं यत्नानातिक्रमेत वै। ना त्तरणमात्रेण धर्मपल्या विशेषतः ॥१०॥ पत्नीमात्रस्य सामान्यात्सजातेरपि केवलम् । पक्षवन्तो वह्नयस्ते प्रद्रवन्त्याशु तत्क्षणात् ॥११०॥ तस्मादत्यल्पसलिलकुल्यागोष्पदमात्रकाः । सरित्स्नानाय गन्तव्या न भवेत्तु तया किल ॥१११।। यदि मोहेन सा पत्नी अत्यल्पसलिलामपि । कुल्यारूपामतिस्वल्पविशालां पादमात्रतः ॥११२॥ सुसन्तरेयां हेलाथं लक्ष्यन्नतु सर्वदा । स्रवन्त्या अपि तादृश्याः परे पारेऽतिबाल्यतः ॥११३।।
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२७१२
लोहितस्मृतिः अप्येकपादं पूर्व वा निक्षिपेत्तावतैव हि । पुनस्सन्धानमित्युक्त वह रेस्येति तजगुः ॥११४॥ धर्मपत्न्यतिरिक्तानां तादृशो नियमो न हि । संसर्गहोमात्परतः पत्नीनामिति निश्चयः ॥११॥ संसर्गहोमो यावत्तु न कृतः स्यात्तदा पुनः । तावत्तु तासां स्वामीनां अवनायायमेव वै ॥११६।। नियमः कथितस्सद्भिः संसर्गात्परतः पुनः । एतादृशस्तु नियमः त्वत्यन्तावश्यको न तु ॥११७।। तस्माद्वितीयादि भार्या विशेषाणां च सानिशम् । शरणं विश्रमस्थानं सर्ववैदिककर्मणः ॥११८।। यदि सा स्यात्समीचीना धर्मपत्नी सती शिवा । तया समुत्तारिताः स्युः सर्वाभार्याः परास्तुयाः ।।११।। यदि सा स्यादप्रगल्भा कर्माज्ञा कर्मनाशनी । धर्मस्यसिद्धिर्नास्यस्यादित्येवं धर्ममानसम् ॥१२०॥ अथापि तस्य यो वह्निः सदा रक्ष्यश्च सूक्ष्मतः। स हि प्रधानो धर्मस्य मुख्यश्चौपासनः शिवः ॥१२॥ तस्मिन्नेवोपासनेऽन्यवह्नयश्शास्त्रवम॑नाः । संयोज्यास्तदभावे तु द्वितीयाद्यनलेऽल्पके ॥१२२।। स्थालीपाकं पितृश्राद्धं आधानं सोम एव वा । कतुं न शक्यतेऽतीव कृतं यद्यकृतं भवेत् ।।१२३।। प्रथमायां धर्मपल्यां दूरगायां कदाचन । प्तेिषु श्राद्धकृत्येषु सद्यस्सन्धानकर्म तत् ॥१२४।।
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गृह्याग्निरक्षणविधिवर्णनम् २७१३ कृत्वा तस्मिन्वीतिहोत्रे तानि कर्माणि चाचरेत् । द्वितीयाद्यनलेष्वेवं विद्यमानेषु चेत्पुनः ॥१२।। अमन्त्रकेण होतव्यं अन्यथा कर्म नश्यति । कंचित्कालं धर्मपत्नी स्वधर्मेणस्थिता ततः ॥१२६।। चित्तव्यामोहरुक्क्रोधोऽपस्मारादिकुबुद्धिभिः। भर्तारमपि संलङ्घय भ्रष्टा तुच्छातिचारिणी ॥१२७।। जाता यदि तदा तस्यास्तमग्निं धार्य धर्मतः । विद्यमानं समिनिष्ठमथवात्मनि संस्थितम् ॥१२८।। तत्तत्कालेषु संप्राप्तश्राद्धषु च तथा पुनः । पित्रोश्च मातामहयोदर्शादिषु च कृत्स्नशः ॥१२॥ नित्यनैमित्तिकेष्वेवं स्थालीपाकेषु मन्त्रतः । हुत्वाज्यं व्याहृतीभिः सर्वचित्तप्रपूर्वकम् ॥१३०॥ तस्मिन्नेव प्रधानाग्नौ तानि कर्माणि चाचरेत् । अतिदुष्टेति या वत्सा त्यज्यते मन्त्रसंस्कृता ॥१३॥ ते नैव वह्निना दाहं प्राप्यते घटताडनात् । तावत्तस्मिन् पावके तु तद्भर्ता पितुराब्दिकम् ॥१३२।। स्थालीपाकं तथा धानं यच्चान्यदपि वैदिकम् । संप्राप्तमखिलं कुर्याद्विवाहो यदि वा पुनः ॥१३३।। घटप्रहरणाभावे कर्तव्यत्वेन निश्चितः । तस्मिन्वह्नौ विद्यमाने समिध्यात्मनि वा सदा ॥१३४|| विद्यमानं मन्त्रमुखात् पुनस्सन्धाय वा ततः । तस्मिन्वह्नौ विवाहोऽयं द्वितीयो मन्त्रपूर्वकः ॥१३।।
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२७१४
लोहितस्मृतिः कर्तव्यत्वेन विहितो न चेद्वानन्तरं पुनः। तस्मिन्नेव च संसर्गहोमं कुर्याद्यथाविधि ॥१३६॥ किमर्थमेवमिति चेत्सा भ्रष्टापितदुद्भवः । वहिरिशवो न संन्त्याज्यः आत्मगाम्येव वै यतः ।।१३७॥ सोऽयमेव प्रधानोऽग्निः यजमानस्य केवलम् । गार्हस्थ्यदायकः श्रीमान् ब्रह्मचयनिवारकः ॥१३८।। प्रबलस्तेन कथितस्तस्मिन् सति ततः शिवे । मुख्यानावात्मनि परे तमनादृत्य केवलम् ॥१३॥ वहिं गार्हस्थ्यदं दिव्यं पत्नीप्रदूषतो जडः। यदा पत्नी गता भ्रष्टा तदा सोऽपिविभावसुः ।।१४०।। नष्ट एवेतिनिश्चित्य दुर्बुद्धा शास्त्रवर्त्म तत् ।। अज्ञात्वेव जडो जाड्यं प्राप्य दुष्टधिया वृथा ॥१४॥ द्वितीयानिमुखाद्यद्यत्कर्म भ्रान्त्या करोतिचेत् । व्यर्थमेव भवेन्नूनं फलदं न भवेदपि ॥१४२॥ श्राद्धादित्यागदोषाय पात्रमेव भवेद्ध वम् । सति तस्मिन्प्रधानानौ वात्मन्यत्राशुशुक्षणौ ॥१४३॥ द्वितीयाद्यनले लौकिकत्वेनैव समे स्थिते । अमन्त्रेणैव होतव्ये समन्त्रेण कृतं तु चेत् ॥१४४।। व्यत्यासेन कृतं तच्च तूष्णीकं प्रभविष्यति । पित्रोः श्राद्ध तथा व्यर्थे जाते तत्परमेव वै ॥१४।। सद्यश्चण्डालता सा स्यादनिवार्या सुरैरपि । पुनर्मोहेन तस्मिन्वै द्वितीयाद्यनलेऽल्पके ॥१४६।।
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भ्रष्टचरित्राया:गृयाप्रिकृत्यनिषेधवर्णनम् २०१५ प्राधान्येनैव निश्चित्य तानि कर्माणि मोहतः । कृतानि चेद्वौदिकानि का वा तस्य गतिर्भवेत् ।।१४७॥ आदावेका गतिं कृत्वा पूर्वाग्नेश्शास्त्रवर्त्मना । खीकारं वा नचेत्त्यागं पश्चात्कुर्यात्सवादिकम् ॥१४८॥ इत्येवं केचन प्राहुराचार्य ब्रह्मवादिनः। वस्तुतस्त्वत्र निष्कर्ष प्रवदामि सुखाय वै॥१४६।। आत्मस्थं गैदिकाग्निं तं भ्रष्टायै न कदाचन । दातुं वै शक्यते तूष्णी दत्तश्चेदाशुशुक्षणिः॥१५०।। ताशायै शपत्येनं घटध्वंसात्परं क्रुधा। सप्राणां पतितां भार्या समुहिश्यैव पावकम् ॥१५१।। शुद्धमात्मैकशरणं बुद्धिपूर्व कथं शुचिम् । दातुमिच्छत्ययं मूढः मामित्येवं सुदुःखितः ॥१२॥ भवत्ययं वायुसखा तस्मात्तां घटताडने । लौकिकेन दहेव श्वानरेणैव न चान्यतः ॥१५३॥ पश्चात्पूर्वोत्थिते वह्नौ स्वात्मन्येवस्थितेशिवे । द्वितीयासंभवं वह्नि संसृज्य विधिवत्ततः ॥१४॥ तस्मिन्नेवानले सर्व कर्मजातं तु वैदिकम् । कुर्यादेव विधानेन न चेदोषो महान् भवेत् ।।१५।। दुश्चरित्रात्पूर्वमेव समुद्भूतस्सुतः शुभः। निर्दोष एव स्वीकार्यः सैव त्याज्या मनीषिभिः ॥१५६।। तवं चेत्समुद्भूतः तस्या गर्भात्तु शावकः। सतां ग्राह्यस्तु न भवेदिति वेदान्तशासनम् ॥१५७।।
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२७१६
लोहितस्मृतिः घटप्रहारात्परतः तत्प्रकृत्या च तां ततः। दग्ध्वाश्राद्धं च निवर्त्य सकृदेव स्वयं ततः ॥१५८। शुद्धो भवेन्नचेत्तूष्णी स्थितेऽस्मिन्वै तथा किल । श्रौतस्मादिकृत्यानां नाधिकारी भवेदयम् ॥१५६।। भ्रष्टायां पतितायां वा स्वैरिण्यां यदि दैवतः। जातायामपि तत्पन्यां त्यागं कुर्यादतन्द्रितः ॥१६०।। शास्त्रमार्गेण विधिना तमग्निं परिभा वै। त्यक्त्वा तां विधिना पश्चाद्भूयो धर्मार्थमेव वै॥१६॥ आहरेद्विधिवदारान् अग्नीश्चैवाविलम्बयन् । पञ्चाग्नयो ब्राह्मणस्य पक्षदाराश्चशास्त्रतः ॥१६२।। स्वाजातौ विहितास्सद्भिः तेषु दारेषुधर्मतः । ऋतुगाम्येव तु भवेत्तादृशेन हि कर्मणा ॥१६॥ अयं भवेद्ब्रह्मचारी सदा नित्यविशेषणः । प्रजार्थ मैथुनं कुर्वन् ताभिस्संप्रार्थयन्नति ॥१६४॥ पुनः कुर्वस्तथा नापि च्यवते ब्रह्मचर्यतः । ब्रह्मचर्यैकसंसिद्धिः पत्नीपञ्चकसंस्थितौ ॥१६॥ सिध्यते ब्राह्मणस्यैव ऋतुकालाभिगामितः। स्त्रीकामपूर्तिकरणाद्ब्रह्मचर्य कदाचन ॥१६६।। मो(क्ष)षमाप्नोति नैवेति ते प्राहुब्रह्मवादिनः । पत्नीनां करणं प्रोक्तं पञ्चानां स्यात्कृते युगे ॥१६७।। चातुर्वर्ण्यविवाहोऽपि मांसेन श्राइसक्रिया। अश्वालम्भो गवालम्भः भार्यान्तरपरिग्रहः ॥१६८।।
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द्वादशविधपुत्रवर्णनम्
देवरादिसुतोत्पत्तिः विधवागर्भधारणम् । एवमादीनि चान्यानि कर्माणि न कलौ क्षितौ ॥ १६६ ॥
॥ द्वादशविधपुत्राः ॥
प्रशस्तानीति नोचुर्हि तथा द्वादशपुत्रकान् । तत्रादौ क्षेत्रजो दुष्टः स्वपत्न्यामन्यसंभवः || १७०|| सगोत्रेणेतरेणापि तावुभौ शास्त्रनिन्दितौ । स्वस्मिन्व्याध्यादिना प्रस्ते सति सान्येन सङ्गता ॥ १७१ ॥ येन केनचिदज्ञाता गर्भ धृत्वा रहस्यति । प्रसूते यं सुतं सोऽयं सुतो गूढजनामकः ॥ १७२॥ पितृमात्रेण संज्ञातजननो व्यभिचारजः । पितृणां सर्वनरकप्रदः पापालयः खलः ॥१७३॥ बन्ध्वबन्धुप्रभेदेन द्विविधोऽयं च कथ्यते । या विवाहात्पूर्वमेव जारसङ्गतितः किल ॥१७४॥ गर्भेधृतेऽथ तर्ज्ञात्वा सत्वरमेव वै । विवाहितात्पितृभ्यां हि दत्वा वै यस्य कस्यचित् ॥ १७५॥ अकीर्त्यैकभयात्सद्यः सा प्रसूते तु यं सुतम् । कानीन इति विख्यातः पुनश्चायं तथा परः ॥१७६॥ प्रकारान्तरतः प्रोक्तः सूते कन्यैव यं सुतम् । सोऽयं तथाविधश्चापि प्रथितस्तेन दुर्जनिः || १७७|| तन्माता पतिता पश्चाद्यस्य कस्य विवाहिता । कुलनी सच्चरित्रेव गुह्यपापातिनिन्दिता ॥१७८॥
२७१७
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२७१८
लोहितस्मृतिः. तुच्छेन येनकेनापि भर्तृरूपेण सङ्गता । तज्जायापतिभावं च पश्यतां धारयन्त्यपि ॥१७६।। ""तं चापि तनयं स्वीकृत्य च ततः पुनः । पालयन्त्यपि निर्दुटपुत्रवत्पृथिवीतले ॥१८०॥ साध्वीषु च सतीष्वेवाहं काचिदिति वादिनी। स्वसुताना सत्कुलेषु बहुकाले गते शनैः ॥१८१।। दूरदेशस्थितैबन्धुजातै बन्ध्यमायया । विद्यमानातिचपला तेन पुत्रेण सत्कुलान् ॥१८२॥ महात्मनो नाशयन्ती तत्पुत्रस्तादृशो ह्ययम् । कानीनस्त्वपरः पापी निन्दितो ब्राह्मणोत्तमैः ।।१८३।। अक्षतायां क्षतायां च जातौ भगौ मतौ। तौ चापि निन्दितौ पापौ पुत्रबाटो प्रकीर्तितौ ॥१८४॥ अकीर्तिकारको बन्धुजनानां दूषितौ खलौ।। अतिनैच्यं गतौ हेयौ धर्मशास्त्रप्रदूषितौ ॥१८॥ पितृदोषैकजननौ न योग्यौ यस्य कस्यचित् ।
॥ दत्तस्थौरससमभागः॥ दत्तः पितृभ्यां दत्ताख्यः सापेक्षाभ्यां च सद्विधः । तथैव निरपेक्षाभ्यां तत्राद्यस्तु तुरीयभाक् । तत्तो यो निरपेक्षाभ्यां सकाशात्पालकस्य वै ॥१८६।। सोऽयं वै समभागी स्यात्पश्चाजातौ रसेन वै । दम्पत्योरेव तहानेऽधिकारस्तत्प्रतिग्रहे ॥१८७।।
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विधवाया:दत्तकपुत्रस्वीकारेऽनधिकारित्ववर्णनम् २०१६ दम्पत्योरेव नान्यस्य यतेर्वा ब्रह्मचारिणः । अकलत्रस्थतत्सामीप्याकलत्रस्य वा तथा ॥१८८॥ विधवाया नाधिकारः प्रदानग्रहणेऽपि वा। वानप्रस्थस्याशुचेर्वानुपनीतेः कदाचन ॥१८॥ तद्वत्सूतकिनश्चापि वतिनोनाधिकारता। विक्रीतः कथितश्चैवं पितृभ्यां ताशैरपि ॥१६॥ निर्वाहकेण ज्येष्ठेन पितृव्येण तथैव च। पितामहेन तत्पन्या तथा मातामहेन च ॥१६॥ स्वयं क्रीतश्च कथितः पुत्रः कृत्रिमसंज्ञिकः । स्वयंदत्तस्तु दत्तात्मा स्वपोषणपरः खलः ॥१२॥ सहोढजस्तथाप्यन्यः पुत्रः शास्त्रैकनिन्दितः। गर्भविनोन्यङ्गहेतुः पितृणां नरकप्रदः ॥१६॥ स कानीनः पुनरपि स्वगोत्रेण समुद्भवः । अतिपापी स चण्डालादधिकोऽश्चाव्य एव सः॥१४॥ स्मरणीयो न वाच्योऽयं वंशमज्जनकारकः । अपुत्रेण परक्षेत्रे नियोगोत्पादितस्सुतः ॥१६॥ उभयोरप्यसौ रिक्थी पिण्डदाता च धर्मतः । हैन्यन्यङ्गकनिलयः पुत्रोऽयं कश्चनस्मृतः ॥१६६॥ पितृभ्यां यस्समुत्सृष्टः महादोषसमुद्भवः । प्राइकेण स्वीकृतो यः सोपविद्ध इतीरितः ॥१६॥ त एते निखिलाः पुत्राः सूत्रकारैर्महात्मभिः । दुःखादनङ्गीकृताःस्युः महान्यायैकसंभवाः ॥१८॥
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२७२०
लोहितस्मृतिः चरमस्त्वपविद्धस्तु कृताकृत इतीरितः । तस्मावावेव तौ प्रोक्तौ तनयौ शास्त्रविश्रुतौ ॥१६॥ नरकोत्तारको सद्यो जन्मनैव न कर्मणा। आत्मजश्चापिदौहित्रः समानौ पैतृकेऽनिशम् ॥२००॥ कदाचिदधिकश्चापि दौहित्रस्तनयादति । दौहित्रात्तनयस्तद्वदधिकः केषु कर्मसु ॥२०१।।
औरसो धर्मपत्नीजस्तत्समः पुत्रिकासुतः। पुत्रभावोयस्य वा स्यात्कदाचित्केन कारणात् ।।२०२।। पुत्रसग्रहणं सद्यः कर्तुमाशु न शक्यते । चिरकालप्रतीक्षादौ तत्पित्रोः कामपूरणम् ॥२०३॥ तत्प्रार्थितप्रदानस्य शपथोक्त्यादिकं ततः । जनानां पुरतो होमः पश्चाच्छपथवाचनम् ॥२०४।। तस्यैतस्य तु कृत्स्नस्य तत्तत्काले शनैः शनैः । अत्यन्तदुःखं सुक्र रमनुभूय स भार्यकः ॥२०॥ तं सगृह्य विधानेन जातकर्मादिकं च तत् । कृत्वोत्सव नु भूय तस्य मौज्यादिपुस्वयम् ।।२०६॥ पश्चाज्जाते धर्मपन्यां तनये वा तदैव वै । द्वितीयायां तृतीयायां स्वकीयोत्पत्तिमात्रतः ॥२०७।। पूर्वकालगृहीतं तं कुमारं शुद्धचेतसम् । अपि तूष्णीं द्वष्टि किल तस्मादन्यसुतं हठात् ।।२०८।। सगृह्यचोभयत्रापि भ्रष्ट कृत्वा स्वयं ततः । अत्यन्नपातकावासमिथ्यावाक्यविशेषकान् ॥२०॥
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पुत्रसंग्रहावश्यकतावर्णनम्
२७२१ तमुद्दिश्यदिवारानं प्रलपन दुर्मनाः परम् । राजाज्ञापान्भूतश्च सज्जनैरतिदूषितः ॥१०॥ संलंघ्यन् मित्रवाक्यानि बन्धुवाक्यानि भूरिशः। तृणीकुर्वन् दुष्टवाक्यसहस्रणायमल्पकः ॥२१॥ तुच्छो दूष्यः प्रभवति तन्मध्ये च पुनः पुनः । ताडितो धिक्कृतो राजकीयैः पुंभिः प्रदूषितः ।।२१२॥ हेयभूतश्च भवति तस्मात्पुत्रस्य सङ्ग्रहम् । प्रकुर्वन्त्येव विद्वांसः पुत्राभावे तु मुख्यतः ॥२१३।। दौहित्रे सति सोऽयं स्यात्पुत्रतुल्यस्ततोऽधिकः । न तस्य होमः कर्तव्यो ग्रहणं न च मन्त्रतः ।।२१४॥ क्रियाः काश्चिन्न सन्त्यत्र जातकर्मादिकाः पराः। तनयोत्पत्तिसमयेस्वर्णदानादिकं परम् ॥२१॥ यद्यत्तदेतदखिलं यत्नसाध्यं न विद्यते । स वा नूनं कृते किञ्चित् पुनरप्यतिवार्धके ।।२१६।। अस्यैव पुरतो दैवात्पुत्रे जातेऽथवा तदा । जातं तमेनं दौहित्रो मातुलो मम संप्रति ॥२१७।। संजातइति सन्तोषपूर्वकं तोषयिष्यति । तयोश्चित्तं स्वबन्धूनां पश्चाज्जातोऽप्ययं शिशुः ॥२१८।। संजातमात्रः परमः सर्वप्राणेन सन्ततम् । प्रपालयति स्वप्राणाधिकतो मानयन्नति ॥२१॥ मानितः पालितः सम्यक्त नैवं सति सोऽप्यति । प्रीत्यैव सततं पश्यन्प्रतिष्ठत्येव सर्वदा ॥२२०॥ १७१
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२७२२ ___ लोहितस्मृतिः · तस्माद्दौहित्रतुलितो नास्ति पुत्रो जगत्त्रये।
॥ दौहित्रेसति पुत्रप्रतिग्रहाभावः॥ दौहित्रोत्पत्तिमात्रेण तत्कुलद्वयसंभवाः ॥२२१॥ उत्तारितास्सद्य एव भवेयुर्नात्र संशयः । तामभ्यनुज्ञां भार्यायाः पुत्रसङ्ग्रहहेतवे ॥२२२।। न दद्यात्सति दौहित्रे म्रियमाणः स्वयंपतिः। आपन्निवारकस्सोऽयं आपत्सापुत्रशून्यता ॥२२३॥ एक एव भवेन्नूनं दुहितातनयोऽखिलैः । दौहित्रे सति पुत्रस्य ग्रहणं न समाचरेत् ॥२२४॥ अजातपुत्रस्तेनैव पुत्र्ययं धर्मतो मतः । अविभक्तो ज्ञातिभिर्यस्त्वपुत्रो दैवयोगतः ॥२२॥ मृतश्चेत्तस्य ते सर्वे तन्मुखेनैव तक्रियाः। मन्त्रैः कारयितव्याः स्युरन्यथा पापभागिनः ॥२२६॥ ज्ञातयः प्रभवन्त्येव तक्रियामात्रतोऽस्य वै। तद्रव्यभाक्त्वं न भवेत् अविभक्ता यतस्तु ते ॥२२७॥ विभक्तास्ते खलु तदा भवेयुर्यदि तेन वै । ए मृते न चेत्तेषां ज्ञातीनां तु न किञ्चन ।।२२८॥ लशमानं हि किमपि धर्मतो न भवेद्ध वम् । द्रव्यं मृतस्य यद्वा तत्सवं पुत्रीसुतस्य वै ॥२२६॥ स्वीयमेव भवेन्नूनं तस्माज्जातेऽखिला भुवि । दौहित्रे भग्नमनसः नष्टकामा गतश्रियः ॥२३०॥
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परधनापहारकाणांदण्डविधानवर्णनम् २७२३ भवन्ति किल भूयोऽपि केचिदुष्टजनास्तराम् । परद्रव्यापहर्तारः नित्यचौर्यैकवृत्तयः ॥२३॥ कथं ज्ञातेविभक्तस्य धनं तूष्णीं दुराशयाः । कदा केन वरिष्याम इतिचिन्ता समन्विताः ॥२३२॥ अनृतानि च वाक्यानि प्रलपन्तस्ततस्ततः । सतां प्रद्वषिणोऽतीव वर्तन्ते पापिनो जडाः ॥२३३॥ तान्नित्यं धार्मिको राजा विचार्य शठबुद्धिकान् । धर्मेण चारमुखतः तया व्याभाषणादिना ॥२३४॥ तेषां परेषां विदुषां धर्मज्ञानां मिथोक्तितः। विचार सूक्ष्मयाबुद्धया समालोच्य ततः परम् ॥२३॥ स्वीकृत्य दण्डयित्वा च छीत्कृत्य च तदा तदा । राष्ट्रात्प्रवासयेदुष्ठान सन्तस्सम्यक्प्रपूजयेत् ॥२३६।। दानमानादिना नित्यं तेनात्य सुमहात्मनः । भूतियशो भगश्वायुर्वर्धन्तेऽन्वहमञ्जसा ॥२३७।। अपुत्रधनमात्रे स्युतियो नित्यमेव वै। दौहित्राजनने यत्नाद्धतुं यत्ता भवन्ति वै ॥२३८॥ दौहित्रजनने सद्यो नष्टकामास्तथा पुनः । निशानित्यदुःखाश्च कश्मलं प्राप्नुवन्ति च ॥२३६।। श्वश्रूश्वशुरयोः पित्रोः पत्यभाये ततः पुनः । अभ्यनुज्ञाप्रदानेऽस्या अपुनिण्या विपद्यपि ॥२४०।। सङ्गच्छते कदाचित्तु पुत्रग्रहणकर्मणः ।। अधिकारो मनुप्रोक्तः आपत्सापुत्रशून्यता ॥२४॥
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२७२४
लोहितस्मृतिः आपन्निवारकस्सोऽयं दौहित्रस्तस्य चोदितः । विधवा या पितभ्रातृकृता पुत्रग्रहे तु या ॥२४२।। अभ्यनुज्ञा ज्ञातिमता चेद्वन्धूनां च ग्रामिणाम् । जनानामपि शिष्याणां श्रोतृणामपि कृत्स्नशः ॥२४३।। युक्तत्वेनैककण्ठ्याच त्तथास्त्विति मनोर्मतम् । तदा तु ग्रहणं ज्ञाते न्यस्य तु कथंचन ॥२४४॥ कदाचिदपि पुत्रस्य ग्रहणे समुपस्थिते । अपुत्रिणोस्तदाभ्रातृमध्येज्येष्ठान्त्ययोः किल ॥२४॥ एकस्य ग्रहणं कायं धर्मतो यस्य कस्य वा। . ग्रहणं त्वेकपुत्रस्य सर्वेषामप्यसम्मतम् ॥२४६॥ न ज्येष्ठस्य कनिष्ठस्य पङ्गोमू कस्यरोगिणः। अन्धस्य बधिरस्यापि क्लीबस्य श्वित्रिणोऽपि वा ॥२४७॥ ग्रहणं नैव कुर्वीत कुर्याद्यदि वृथैव सः। औरसैरपि तैः पुत्रैः पङ्गुमूकादिभिर्जडैः ॥२४॥ निरंशैर्वेदमन्त्रैकन (१) धिकारनिदानकैः। निष्प्रयोजनकैः तुच्छैः नाममात्रैकभाजनैः ॥२४॥ भरणीयैरन्नपानप्रदानमुखतस्तराम् । प्रयोजनं किमप्यस्ति तदुत्पन्नैः कथंचन ॥२५॥ वर्गत्रयात्परं तेषां मूकाद्यौरससन्ततौ । भवेद्ब्राह्मण्यपौष्कल्यं तत्पूर्व तस्य खर्वता ॥२५॥ मन्त्राद्य चारणाभावात्तक्रियाणां च लोपतः । तथा तावत्प्रकथितं धर्मज्ञैस्तैर्महात्मभिः ॥२५२।।
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पुत्रत्वस्याधिकारितावर्णनम्
२७२५ ज्ञातिमत्या कृता बन्धुसामन्तजनसम्मता । सा चेद्भत कृतानुज्ञा पुत्रग्रहणहेतवे ॥२३॥ फलत्येवेति धर्मज्ञा न चेत्तु न तु सिध्यति । ज्ञातिमत्या कृतं यत्तु पुत्रसमहणादिकम् ॥२४॥ धरादानक्रयाद्यवं वैश्वस्तं तत्तु सिध्यति । सर्वज्ञातिमतं यत्तद्दानं विश्वस्तया कृतम् ॥२५॥ धारं धाराकृतं चेत्तु सिध्यत्यत्र न चेन्न तु। दानकालनिषिद्धं यद्दानं धारं रहः कृतम् ॥२५६।। देशान्तरकृतं चापि न सिध्यत्येव सर्वथा । रण्डान्यदेशरचितभूमिदानं महात्मभिः ॥२५७।। तच्छौर्यकृत्यमित्येव निश्चितं शास्त्रवर्त्मना । अपुत्रपुत्रग्रहणं दौहित्राजनने भवेत् ॥२८॥ दौहित्रजननादूचं तदप्रामाणिकं भवेत् । यावन्नृणां विभक्तानां दौहित्रोत्पत्तियोग्यता ॥२५६।। तावत्तु तस्य स्वीकारे योग्यतापि न जायते । जातेन्द्रियाणां दौर्बल्ये दौहित्रे सति सङ्कटे ॥२६॥ अवशादसुसन्देहे पुत्रग्रहणमिष्यते। एकस्य पञ्चषेष्वस्य ग्रहणं ज्येष्ठखर्वयोः ॥२६॥ विहितो यस्य कस्यापि मध्य एकस्य सङ्ग्रहः । न तत्र ज्यैष्ठ्यकानिष्ठ्यनियमो मनुना स्मृतः ॥२६२।। ग्रहणं त्रिषु मध्यस्य त्रयाणां पञ्चसु स्मृतम् । त्रयाणां षट्सु खो वा ज्येष्ठो वा नियमो न हि ॥२६॥
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२७२६
लोहितस्मृतिः त्रिषु पञ्चसु षष्वेवं भ्रातृष्वाधान्त्ययोश्च न । मध्य एकः त्रयश्चत्वारः स्युरत्रेति वै जगुः ॥२६॥ समाह्य वाद्य एकः स्याद्ग्राह्यो ज्येष्ठो द्वितीयकः । तृतीयो वा विधानेन न द्वौ सर्वात्मना स्मृतौ ॥२६॥ आद्यान्त्यावेव संत्याज्यौ बहुभ्रातृषु तत्सुतौ। मध्ये ज्येष्ठद्वितीयादि नियमो नेति चोचिरे ॥२६६॥ यदि मोहाउज्येष्ठपुत्रो दत्तस्याश्चत्ततः स्वयम् । कृतमौञ्जीविवाहोऽपि जनकस्य सुतो भवेत् ॥२६॥ न पालकक्रियायोग्यो न गृहीयादतस्त्विमम् । यः कृतो दत्तहोमस्स तूष्णीकं स्यान्न संशयः।।२६८।। दत्तोऽयं बालिशो भ्रष्टो ग्राहकस्य सुतो न तु । जनकस्य सुतस्सोऽयं इत्युक्त तं प्रवम्यपि ।।२६६।। न कर्मयोग्यस्तस्यापि किं तु तूष्णीं ततः परम् । क्रयक्रीतद्रव्यसमः तृणकाष्ठमृदादिभिः ॥२७०।। तुलितो न क्रियायोग्यो यतस्त्यक्तश्च तेन वै। अनेकजायासातपुत्रानेकस्य चेदपि ॥२७॥ जायानामग्रजस्त्याज्यः कनिष्ठोऽपि तथैव हि । ज्येष्ठान्त्ययोस्तु ये मध्याः संजातास्तनयास्तु ते ॥२७२।। ग्राह्यास्तत्र विशेषेण ज्यैष्ठ्यकानिष्ठ्यसंभवः । नियमोनेति तत्र स्यादिति सर्वमतं तराम् ॥२३॥
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एकपुत्रत्वेदत्तकायोग्यतावर्णनम् २७२७
॥ एकपुत्रस्य स्वीकरणनिषेधः ।। यद्य कपुत्रो दत्तश्चेदात्मानं ग्राहकं ततम् । मातृद्वयं तत्क्षणेन नरके पातयिष्यति ॥२७४|| उभयोस्तातयोश्चापि जनन्योरपि कर्मणि । नाधिकारी भवेत्तस्मादुभयभ्रष्ट ईरितः ॥२७५।। प्रदानसमये स्वस्य सन्तु भ्रातृषु तत्परम् । नष्टेषु तेषु चेदवशिष्टो यदि भवेदयम् ॥२७६।। उभयोः कर्मकर्ता स्यात्तदा तद्रिक्थभाग्यपि । एकपुत्रोऽहमित्येवं वदन् दत्तश्च साम्प्रतम् ॥२७७।। सभायां व्यवहारेषु बहिष्कार्यों विचक्षणैः । विधवासगृहीतोऽहमिति जल्पन सभासु चेत् ।।२७८।। (च)छपेटिकाप्रदानेन छी(धिक)त्कार्यस्सद्य एव वै । विधुरेण प्रदत्तोऽस्मि दूरभार्येण वै तदा ॥२७॥ तथैव सङ्गृहीतोऽहं वदन्नेवं तु निर्भयम् । स दूरीकरणीयः स्याचोरवत्तु विशेषतः ॥२८॥ वर्णिना यतिनापत्सु दत्तोऽहं मातृमात्रतः । पितृमात्रेण दत्तोऽस्मि सगृहीतोऽहमित्यपि ॥२८॥ सद्भिस्सभासु विवदन् दुश्चरित्रः परस्वहृत् । निर्लज्जया न्यङ्गहीनः सज्जनाकृतिमावहन् ॥२८२।। पूर्वोत्तरविरुद्ध तद्विवदन्प्रलपन्नति । तस्य तत्प्रतिवाक्येषु यो वै तं निग्रहं शनैः ।।२८३।।
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२७२८
लोहितस्मृतिः विरोधान्विविधान् सम्यक् संगृह्य व ततः पुनः । प्रदूषयेत्तिरस्कृत्य देशादुच्चाटयेदपि ॥२८४॥ दुष्टनिग्रहमात्रेण तद्देशस्य महीपतेः । तत्रत्यानां च सर्वेषां सर्वश्रेयो महद्भवेत् ॥२८५।। ज्येष्ठोऽहोकतनयः पितृभ्यां पुनरेव वै। दत्तोऽन्याभ्यामिति च वै विवदन्पररिक्थके ॥२८६।। पुत्रत्वहेतुना सोऽयं प्रसिद्धस्तस्करो मतः । कुतस्तथेति सन्देहे तबसम्यनिरूप्यते ॥२८॥ न दाना) ज्येष्ठपुत्रः कदाचिदपि वा भवेत् । तत्रापि चैकस्सुतरां तत्क्रियानधिकार्यपि ॥२८८ एवमेव परे चापि तनयाः परिरिक्थके। विवादमतिकुर्वन्तो दौहित्रादिष तासु च ॥२८६।।
॥विधवास्वीकृतपुत्र ( दण्डं)॥ तनयासु विभक्तानां प्रत्तासु विधवासु च । दत्तपुत्रोऽहमस्मीति सपिण्डोऽहं सगोत्र्यति ॥२६०|| सम्बन्धो भवतां को वा भिन्नगोत्रिधनेऽति वै। प्रलपन्तः केन दत्त इत्युक्त निर्भयान्विताः ॥२६॥ निर्लजा मातृदत्ताः स्मः विश्वस्ताः स्वीकृताः खराः। अभ्यनुज्ञाकृतस्वीकारा वै तद्भर्तृवाक्यतः ॥२६२॥ वयं तद्गोत्रसंभूता अस्माकं तद्धनं महत् । . न्यायेन निखिलं स्याद्धि सुतादौहित्रयोः कथम् ।।२६३॥
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दौहित्रप्रशंसावर्णनम्
स्थितयोः परगोत्रत्वे तद्धनं तु भविष्यति । इति शास्त्रविरुद्धानि वाक्यान्यन्यानि वा पुनः ||२४|| सभासु वै प्रलपतो सद्योदेशात्प्रवासयेत् । पुत्रभिन्नादन्ध्रगोत्रदत्तसाहस्रकात्तराम् || २६५॥ अधिको दुहितासूनुः सर्वशास्त्रैस्तथोदितः । कुतस्तथेति चोक्तं तु प्रवदामि च तत्स्पु ((स्फुटम् ॥ २६६॥ ॥ दौहित्रप्रशंसा ॥
२७२६
दुहिता (तृ) तनयो लोके सर्वेषां सर्वकर्मसु । नित्यं मातामहादीनां तत्पत्नीनां च पुत्रवत् ||२७|| करोति हि स्वपितृभिस्समत्वेन समन्त्रतः । दर्शादीन्यपि नित्यानि तथा नैमित्तिकान्यपि ॥ २६८ ॥ सर्वश्राद्धानि काम्यानि मासिश्राद्धादिकान्यपि । श्राद्धप्रतिनिधित्वेन क्रियमाणेसु कर्मसु ॥२६६॥ नित्यस्नानादिकर्मसु ।
तर्पणेष्वपि सर्वेषु पितृवर्गसमत्वेन वर्ग मातामहस्य वै ॥ ३००॥ मातृवर्गेण तुलितं तत्पत्नीनां त्रिकं तथा । को वा सपिण्डो यजते को वा भ्राता च तत्समः ॥ ३०२ ॥ तत्सुतः तस्य पौत्रो वा कदाचित्तस्य कर्मणि । कृते कार्यवशात्पश्चात्प्रतिसंवत्सरं ततः ॥३०२|| लौकिकामौ श्राद्धमात्रं तहिने त्वागते तदा । श्राद्धमात्रं तु तत्पत्न्याः अपि तूष्णीं करोति हि ||३०३ ! |
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२७३०
लोहितस्मृतिः अकृते वा तस्य दोषः शास्त्रतो नास्ति केवलम् । मृताद्विशेषलाभश्चेदस्य तेन तु पश्यताम् ॥३०४।। सतां चित्तसमाधानकार्याय किल तत्तथा । अकीर्तिभीत्या न प्रीत्या तथास्य करणं परम् ॥३०।। दौहित्रमात्रस्य तु चेल्लोके सर्वत्र केवलम् । तत्कर्मण्यकृतेऽनेन मुख्यकर्ता कृतेऽपि च ॥३०६।। सर्वशास्त्रोक्तमार्गेण यथा पुत्रस्य सन्ततम् । सर्वश्राद्धककरणमौपासनशुचौ हितः ॥३०७।। तथास्यापि स्मृतं तूष्णीं तदीयद्रविणादिके। स्वल्पेकस्मिन्नभावेऽपि किञ्चिद्वा विहिनेन वै ॥३०८।। तदीयसर्वश्राद्धानि गयातीर्थाष्टकादिषु । नान्दीदधिघृतारण्यकक्षेष्विभतणादिषु ॥३०६।। तान्यजन्नेव विधिना तत्पनीरपि तत्समम् । वर्तते राजते तस्मादपिकिञ्चिद्धनं विना ॥३१०॥ तमजानन्नपि तदा शास्त्रमर्यादया वशात् । तत्कं वेत्यविचार्यैव तादृशानेन कः समः ॥३१॥ कर्मकर्ता प्रकथितो नैतेनान्यो महीतले। तुलितस्तनयस्सद्धिर्विचार्य च पुनः पुनः ॥३१२।। नास्ति सूनोश्शतगुणो दौहित्रो गयनामकः । खङ्गपात्रं तिलादर्भास्तथा नेपालकम्बलः ॥३१३।। गोधूमाः कण्टकिफलं माषामुद्गायवा जलम् । गव्यं तद्रजतं गाङ्गं शिवनिर्माल्यमच्युतम् ॥३१४।।
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दौहित्रवैशिष्ट्यवर्णनम् २७३१ कुतपः श्रोत्रियो वीरोभ्र णोब्रह्म सनातनम् । उपमारहितास्सर्वे त एते पितृवल्लभाः ॥३१।। पुत्रदत्ताच्छतगुणा विनापाञ्जलयो नृणाम् । तद्दौहित्रेणसंत्यक्ता अक्षय्याः प्रीतिकारकाः ॥३१६॥ मृतानां कथितास्सद्भिनित्यनैमित्तिकादिषु । ततः प्रत्यब्दभिन्नेषु सर्वश्राद्धषु सन्ततम् ॥३१७।। स्वपितुर्वर्गसाम्येन जननीपितृवर्गके। स्वामातृवर्गसाम्येन तन्मातृत्रयकस्य च ॥३१८।। समर्चनं प्रकुरुते दौहित्रोऽयं सुताधिकः। कश्चिद्गीतः प्रसिद्धोऽत्र ताल्भ्यपत्न्या पुरास्फुटः ॥३१॥ सपत्नीतनययं दृष्ट्वा विवादे तनयं प्रति । अयं तवानुजो मह्यद्वयञ्जलीदो हि तर्पणे ॥३२०।। ब्रह्मयज्ञेन दर्शादिश्राद्धषु तु न किञ्चन । ‘भागिनेयस्तु ते वत्स वत्सोऽयं सर्वकर्मसु ॥३२१॥ पैतृकेषु प्रसक्तषु स्वमातृकुलसाम्यतः । मद्वर्गस्य समग्रस्य व्यञ्जलीदो हि कोऽत्रमे ॥३२२॥ आवयोः प्रवरः प्रोक्तः को वा त्वं वद मे स्फुटम् । इति मातुर्वचः श्रुत्वा वत्सस्तु सुमहानृषिः ॥३२३॥ सपत्नीतनयात्तस्या दौहिमधिकं तराम् ।
॥दौहित्रत्रैविध्यम् ॥ शास्त्रविन्मन्यते नूनं समालोच्य स्वचेतसा ॥३२४॥
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२७३२
लोहितस्मृतिः तन्मातामहगोव्येकः दौहित्रोऽन्यस्ततः परः । निर्दोषस्त्रिविधोज्ञेयः तमेनं प्रवदामि च ॥३२।। कन्याप्रदानसमये तेन मातामहेन वै। प्रोक्त एवं यदि तदा सोऽयमाद्योऽयमीरितः ॥३२६॥ अपुत्रोऽहं प्रदास्यामि तुभ्यं कन्यामलकृताम् । अस्वां यो जायते पुत्रः स मे पुत्रो भविष्यति ॥३२७|| एवं द्वितीयो विज्ञेयः कालेऽस्मिन्नेव केवलम् । भयन्तरेणचेत्प्रोक्तः दौहित्रः कोऽपिकथ्यते ॥३२८॥ अपुत्रोऽहं प्रदास्यामि तुभ्यं कन्यां भवानपि । पुत्रार्थी चेदिहोत्पन्नः स नौ पुत्रो भविष्यति ॥३२॥ अस्य गोत्रद्वयं ज्ञेयं तद्वंशस्य ततः परम् । गोत्रद्वयं च समाह्य विवाहादिषु कर्मसु ॥३३०॥ एताहगभिसन्ध्येकरहितेन यदि त्वसौ। कन्यकायाः प्रदनायाः तनयो दुहितुः पुनः ॥३३१।। तातगोव्येव विज्ञेय एवं स त्रिविधो मतः । त्रिविधोऽपि समो ज्ञेयो दौहित्रोऽयमकल्मषः॥३३२॥ वर्गद्वयोद्धारकश्च सर्ववर्णेकसम्मतः। तमेवं वीक्ष्य दौहित्रं विभक्तज्ञातिसञ्जयः ॥३३३॥ वर्द्धमानं श्रिया दीप्त्या वर्चसा भ्राजसौजसा। यशसा कान्तिदाक्षिण्यसौजन्यादिगुणादिभिः ॥३३४॥ निष्कारणं वृथा मोहात्प्रकुप्यति हि केवलम् । प्रतिग्रहो वा होमो वा दौहित्रस्य विधीयते ॥३३॥
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दौहित्रश्रोत्रिययोज्येष्ठतावर्णनम् . २७३३ जननादेव दौहित्रः (स्) तत्कुलद्वयतारकः । रौरवस्सर्वकृत्यानां पितृणामतितृप्तिकृत् ३३६॥ निवारको दुर्गतेन तारकस्ततयस्स च। द्रव्याभावे क्रियाभावे मन्त्राभावे तथैव च ।।३३७॥ विप्राभावे धनाभावे शक्त्यभावेऽथवा पुनः । सर्वाभावेऽपि यत्नेन दौहित्रस्य सुमेधसः ॥३३८।। श्रोत्रियस्यास्य तजग्धिमात्रेणैव च तत्क्षणात् । पितॄणां नित्यतृप्तिस्स्यादक्षय्या नात्र संशयः ॥३३६॥ तच्छाद्धदेवतानां वा श्राद्धकर्तुरथापि वा। दौहित्र इति विज्ञेयः कर्तृणामस्य वा पुनः ॥३४०॥ अमादिकानां श्राद्धानां प्रकृतित्वेन केवलम् । प्रोक्तानां पुनरन्येषां मनुभाटस्य तत्परम् ॥३४१॥ युगाद्यानां तथा पश्चान्महालयषकस्य च । अष्टकान्वष्टकानां च द्वादशानां तथैव च ॥३४२।। मजच्छायातीर्थदधिघृतानामेकमेव वै। उपायः कथितस्सद्भिदौहित्रस्यास्य भोजनम् ॥३४३।। लब्धद्रव्येण लघुना येन केन यथा तथा। सर्वाभावे तस्यभुक्तिमात्रेणैव परं कृतम् ॥३४४॥ सम्यग्भवति नास्त्यत्र संशयस्त्वणुमात्रकः। प्रत्यब्दमात्रमेकं तद्विध्युक्तन परं स्मृतम् ॥३४॥ कर्तव्यत्वेन विद्वद्भिः निश्चितं ब्रह्मवादिभिः । अन्नेनैव दक्षिणया होमेन ब्राह्मणैस्सड् ॥३४६।।
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२७३४
लोहितस्मृतिः अग्नौ करणतो वापि पिण्डदानेन धर्मतः । तदङ्गतर्पणेनैवं पित्रोः प्रत्यब्दमेककम् ॥३४७॥ अत्यन्तावश्यकत्वेन कर्तव्यत्वेन चोदितम् । अत्यन्तापदि च त्याज्यं न भवेदेव सर्वदा ।।३४८।।
॥ प्रत्याब्दिकाकरणेप्रत्यवायः॥ यदि त्यक्त तद्भभवते तत्क्षणादेव केवलम् । पतितः स्यान्न सन्देहः तस्मात्तत्तु विधानतः ॥३४॥ सर्वप्राणेन कुर्याद्व ब्राह्मण्यस्यास्य सिद्धये । यदलभ्यं वस्तु तस्य प्राप्तये मासपक्षयोः ॥३०॥ पूर्वमेव यतन् बाढं येन केन प्रकारतः। तत्संपाद्य प्रयत्नेन गोपयेत्तस्य कर्मणः ॥३५॥ जलानि तण्डुलामाषा मुद्गाशाकद्वयं कृतम् । पत्राणि दक्षिणां शक्त्या पात्राण्येतानि वाडवाः ॥३५२।। मन्त्रज्ञाः श्राद्भकार्याय दशप्रोक्ता मनीषिभिः । एतेषामेकलोपेऽपि न श्राद्धं सुकृतं भवेत् ॥३५३।। जलाभावे किमपि तन् न सिध्यत्येव सर्वदा । तानि यत्र समृद्धानि तत्र श्राद्धं हि सिध्यति ॥३५४।। तथैव तण्डुलाभावे न प्रत्यब्दकथा भवेत् । तण्डुलाश्चहिरण्यं च प्रधानद्रव्यमुच्यते ॥३५।। कार्यमात्रस्य कृत्स्नस्य किमुत श्राद्धकर्मणः । तवयं प्रथमं यत्नात्सङ्गृह्याति प्रयत्नतः ॥३५६।।
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श्राद्ध स्यापत्कल्पेसम्पादनवर्णनम् २७३५ तत्कर्तव्यं यत्र कुत्र मृतेऽहल्येव नान्यतः। . तदभावे लोपएव भवेदेव तु तत्पुनः ॥३५७।। मुद्गाभावे माषमात्रैः कतुं सूपाय शक्यते । माषाभावे त्वङ्गलोपो भवेदेव न संशयः ॥३५८।। महापदि. कदाचित्तु तेन लोपेन तत्युनः। शक्यते हि तथा कतुन त्याज्यं तत्तु तेन वै ॥३५६।। एषा हि चोदनाप्रोक्ता सुमहाचौर्यवर्त्मना । शाकाश्शाको तथा शाकः पृथक्त्वेन मनीषिभिः ॥३६०॥ कीकटादिषु तच्छ्न्ये न त्याज्यं श्राद्धकर्म तत् । पयोदधिघृतक्षीरसूपभक्ष्यादिसंभवे ॥३६१।। शाकाभावे विशेषेण बाधकं न भवेदिति । लौकिकानां वैदिकानां च महदुक्तिमहत्तरा ॥३६२।। लौकिकोक्तिवैदिकोक्तिः स्वीकार्ये वैदिकेऽपि च । भविष्यति कदाचित्तु चापत्कल्पं तदुच्यते ॥३६३।।
॥ श्राद्धद्रव्याभावे अनुकल्पः ॥ घृतस्य दुर्लभे जाते कदाचित्सङ्कटे खरे। देशनाशे राष्ट्रनाशे महावर्षादिदुर्घटे ॥३६४।। तैलं प्रतिनिधिस्तस्य दुर्लभे तस्य चागते । तस्य प्रतिनिधिस्त्वाज्यं दुर्लभे तु द्वयोरति(पि) ॥३६५।। पयः प्रतिनिधिः प्रोक्त तस्य प्रतिनिधिदधि । सर्वेषामपि चैतेषां दुर्लभे किं पुनस्त्विति ॥३६६।।
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२७३६
लोहितस्मृतिः परं चिन्तयतां तत्र महादेवः प्रजापतिः। स्वयमागत्य चोवाच सर्वलोकहिताय वै ॥३६७॥ पिष्टं जलेन संयोज्य लोडयित्वा विशेषतः । तेन पिष्टजलेनैव होमकार्यादिकं चरेत् ॥३६८॥ लब्धेन मधुना वापि सर्वकार्याणि साधयेत् । फलपत्रादिसुद्रव्यैरन्नेन च तदा किल ॥३६॥ श्राद्धादीन्यपिकार्याणि न त्याज्यानि मनीषिभिः । मासप्रयत्नदुर्लभ्ये तदा कुर्याधया तथा ॥३०॥ अष्टानां भुक्तिपत्राणां दुर्लभसति तत्परम् । श्राद्धकार्याय मृत्पात्रं कथितं यत्तु तत्सदा ॥३७१॥ संलब्धं कथितं श्रीमन् तेन तत्साधयेत्तराम् । आपत्सुपत्रालाभे तु लभ्यते यत्तु तेन तत् ॥३७२॥ साधयेदिति सर्वेषां संमतिः परमा स्मृता। विप्राभावे तु सर्वत्र दर्भमुष्टिषु तत्पितॄन् ॥३७३॥ सुरानपि विधानेन मन्त्रैरावाद्य भूतले। कृत्वा तां निखिलाम! अनौ करणमेव च ॥३७४॥ अन्नत्यागं च तत्कृत्वा सव तत्परिषेचनम् । आपोशनादिका कृत्वा मन्त्रमात्रेण चाहुतीः ॥३७॥ पञ्चापि जप्त्वा विधिना चाभिश्रवणमेव च । उत्तरापोशन(ण) कृत्वा मन्त्रैः पूर्ववदेव वै ॥३७६॥ पिण्डप्रदानं निर्वर्त्य तत्सवं सलिले क्षिपेत् । तच्छेषं च ततो भुक्त्वा तर्पणं च परेऽहनि ॥३७७॥
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सविधिश्राद्धकर्मफलवर्णनम्
२७३७ कुर्यादेव विधानेन दक्षिणां तां ततः परम् । यस्मै कस्मैचिद्विप्राय दद्यादिति हि सा श्रुतिः ॥३७८।। अस्वाधीनानि पात्राणि परेषां पूर्वमेव वै। त्रिदिनादेव स्वाधीना स कृत्वा तैः ततः परम् ॥३७६।। तैः श्राद्धं तु ततः कुर्यात्सद्यो लब्ध्वाऽथवाऽऽपदि । यथाकथंचित्कुर्याच तेन चापि विधानतः ॥३८०॥ कृतमेव भवेन्नूनं नात्र कार्या विचारणा । मृत्पात्राणि तु चेत्तानि पात्राभावेऽथवा पुनः ॥३८१॥ कबलं कबलं हस्ते यावद्द्वात्रिंशदाहुतीः । प्राणायेत्यादिभिस्सर्वैः षडावृत्या ततः पुनः ॥३८२।। तुरीयपञ्चमाभ्यां च सप्तमावृत्ति कर्मणि । पूरयित्वावृत्तिभेदं तां वृत्तिं तत्रकर्मणि ॥३८३।। श्राद्धाख्ये कारयेद्विद्वान् ब्राह्मणानामनापदि । एवं कृत्वा सद्य एव सर्वभ्रष्टा भवेदपि ॥३८४॥ वेदहन्ता शास्त्रहन्ता मर्यादामारकश्च सः। पितृन्नो विप्रहन्ता च भवेदेव न संशयः ॥३८५।। आपत्कल्पोक्तगर्यादाः शास्त्राणि विविधान्यति । अनापत्सु न गृह्णीयात् गृह्णन् तानि पतेदधः ।।३८६।। येन केन प्रकारेण पित्रोः श्राद्ध विधानतः । अन्नेनैव प्रकुर्वीत नान्येन तु कदाचन ॥३८७।। तदन्नमतिशुद्ध यद्योगं तच्छ्राद्धकर्मणि ।
अतिशुद्धत्वमन्नस्य सद्रव्येणैव केवलम् ॥३८८।। १७२
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२७३८
लोहितस्मृतिः संपादितस्य भवति नासद् द्रव्येण तद्भवेत् । न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य सत्त्वं प्रकथितं बुधैः ॥३८६।। तदन्यायार्जितं द्रव्यं असदित्येव सूरिभिः । कथितं सत्कर्मजालायोग्यं(?) निरयभीतिदम् ॥३६०।। तत्सद्र्व्यं ब्राह्मणस्य याजनाध्यापनादिभिः । सम्प्राप्त यद्विशेषेण स्वीयोर्वीसंभवं च यत् ॥३६१।। धान्यादिकं शाकमूलशलाटुफलमूलकम् । न्यायार्जितमितिप्रोक्त योग्यं सत्कर्मणां सदा ॥३६२।। महादानादिसंप्राप्त गजदानादिनागतम् । कुमा(ला)ध्यस्थ्यादिनाप्राप्त ग्रामसामान्यजादिकम् ॥३६३।। शौद्रं सौतं राथकारं ताक्षं त्वाष्ट्र तथैणवम् । मालाकारीयमाम्बष्ठतौन्नवाय(तान्तुवाय)च सौचिकम् ३६४ कौलकं सौचिकं नाटं शैलूषं भारतं तथा । पामरं जाल्मकं गाधं चाण्डालं यावनं तथा ॥३६शा म्लेच्छ होणं कौङ्कणं वा भृतकाध्यापनादिभिः । आद्यश्राद्धादिसंप्राप्त स्वामिद्रोहादिनागतम् !!३६६। चौर्यानृतसमुद्भूतं दुष्टयाजनसङ्गतम् । अहीनक्रतुसंलब्धं कन्यकाविक्रयोत्थितम् ॥३६७।। निक्षेपवार्युष्यगतं यदन्यच्छास्त्रनिन्दितम् । तदेतदखिलं द्रव्यमसमीचीनमुच्यते ॥३६८।। समीचीनं तदेव स्यात् सच्छ्रोत्रियमुखागतम् । एकविंशतिसंख्याकक्रतुदक्षिणया तथा ॥३६६।।
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असद्व्य कृतश्राद्धस्यनरकप्रदत्ववर्णनम् २७३६ प्रीतिदत्तं श्राद्धकालमहसंभावनादितः। संप्राप्त यान्चया प्राप्त शनकैश्शनकैरपि ॥४०॥ खलभव्यसुतोत्पत्तिपुराणस्मृतिपाठकैः । पठन्तैरपि तत्प्रीत्या संप्राप्तमवशात्तदा ॥४०१।। दक्षिणादानरूपेण सदस्यादिमुखेन च । सोमप्रवाकादिमुखादुत्सवादिमुखेन च ॥४०२॥ संप्राप्तमवशावात्संप्राप्त न्यायवर्त्मना । मधुपर्कादिरूपेण समागतमनीश्वरात् ॥४०३।। यच्चान्यदखिलं भूयस्सद्व्यमिति तद्विदुः । असव्यकृतं श्राद्ध पितृणां निरयप्रदम् ॥४०४।। ततोऽल्पेनापि सव्यसमानीतैकवस्तुभिः । स्वपत्नीहस्तरचितपाकैरत्यन्तपावनैः ॥४०।। भावशुद्ध न मनसा तादृशेनान्धसा च तत् । निर्वर्त्यमेकं प्रत्यब्दं मन्त्रपूतं च तातयोः ॥४०६।।
॥श्राद्ध पाककर्तारः ॥ तत्रादौ पाककन्येका धर्मपत्नी तथापराः। कुलपत्न्योऽनन्यजाति संभवाः स्युः प्रजावती ॥४०७|| मातरो ज्ञातिपत्न्यश्च पितृष्वस्रादिकाः पराः । भार्याः स्वसारःश्वश्र्वश्च मातुलान्यस्तथैव च ।।४०८।। अत्याराद्वन्धुपत्न्यश्च गुरुपत्न्यस्तथाविधाः । आनुकूल्येन निर्दिष्टास्सर्वाभावे स्वयं वरः ॥४०।।
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२७४०
लोहितस्मृतिः पाककर्मणि संप्रोक्तस्सत्सु दारेषु तत्पुरः। न तत्कर्मणि निर्दिष्टो यजमानोऽपि तत्र च ॥४१०॥ यदि कर्ता ब्रह्मचारी तदा पाकं प्रयत्नतः । न कुर्यादेव विधिना तस्य पांके कदाचन ॥४११।। अधिकारोऽस्ति धर्मेण वनस्थस्य यतेरपि । ब्रह्मचारी यतिर्वापि यस्मिन्देशे यदा तदा ॥४१२।। पचनं कुरुते मोहात्तद्राष्ट्र तत्क्षणात्परम् । श्रियादिरहितं सर्वदेववेदसुरद्विजैः ॥४१३॥ तीर्थैः पुण्यैः पवित्रैश्च सप्ततन्तुमुखादिभिः । प्रवर्जितं विशेषेण भवेदूरीकृतं तथा ॥४१४॥ नष्ट भ्रष्ट प्रभग्नं च भ्रान्तनष्टमृगद्विजम् । निर्मानुष्यं शुष्कजलं आशताब्दाद्भविष्यति ॥४१५।। पाकभिन्नानि कार्याणि सर्वाण्येवाविशेषतः। गुरोनित्यं ब्रह्मचारी कतुं शक्नोति सन्ततम् ॥४१६।। विना पाकं तमेकं तु कार्याण्यन्यानि यानि वा । तदुक्तानि प्रकुर्वीत यतिश्चापि तथैव हि ॥४१७|| वर्णिना यतिना पाके कृता भूमिस्तथा तराम् । भीता दग्धा प्रणष्टा च कम्पितास्यान्न संशयः ॥४१८॥ तस्मात्तु यदि वर्णीस्याच्छ्राद्धकर्ता तदा किल । तन्माता तस्य भगिनी याश्चकाश्चन तास्तु वै ॥४१६॥ बन्धुपल्योमित्रपत्न्यः गुरुपल्यादिकाः स्मृताः। पाकको नराः स्वीयाः कीर्तिता न स्वयं कदा ॥४२०॥
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श्राद्धषुपाकानांगर्हितत्ववर्णनम् २७४१ सर्वश्राद्धषु सर्वत्र रण्डापाको विशेषतः। गर्हितः स्यात्तथा वन्ध्यापाकोऽपि परिकीर्तितः ॥४२१।। स्वसा माता तथा श्वश्रूर्मातुलानीसुता पिता। पितृव्यपत्नी वा भार्या भगिनी वा तथाविधा ॥४२२॥ कीणां तु पुरोक्तानामभावे विधवा अपि । एता ग्राह्याः पाककार्ये श्राद्धकर्मणि सङ्कटे ॥४२३॥ ज्ञातिभार्याश्च निखिला: प्रत्यासन्नास्तथाविधाः । सपिण्डभार्यास्साध्व्यश्चेदग्राह्या एवेति शण्डिलः ॥४२४|| श्राद्धपाकक्रियायास्ताः प्राह श्रीमानसौ महान् । पुत्रिणीनां न रण्डात्वं निखिलैनिश्चितं पुरा ॥४२॥ वन्ध्यात्वं जातपुत्राणां न कदाचन विद्यते । कन्यकानुपनीतानां न कर्माहत्वमूचिरे ॥४२६।।
॥ मृतकार्यकर्तुरनुकल्पनिषेधः ॥ सति कर्जन्तरेभूयो न चेत्तेषां तु कर्तृता । अस्त्येवेति तदा प्राह मृतकार्ये विशेषतः ॥४२७|| स्वधानिनयनादेव मन्त्रकार्याखिलामता। अथवा तव्रतःकक्षान्तरनिष्ठस्तु कश्चन ॥४२८।। तत्कार्यमखिलं कुर्यात्तेन तत्सुकृतं भवेत् । विनैव वरणं तूष्णीं कर्तु:स्वस्य स्वयं यदि ॥४२६।। तत्कर्तव्यत्वेन कुर्यात्कर्म तत्स्याग्निरर्थकम् । यस्य कस्यापि नष्टस्य दूरे कर्तरि संस्थिते ॥४३०॥
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२७४२
लोहितस्मृतिः
॥कर्त्तावृतस्याधिकारः॥ तत्कर्तव्यत्वेन नान्यः कर्म कुर्यात्तथा यदि । पुनः करणमित्येव निश्चितं त्वादितो यथा ॥४३॥ अतवृतकृतं कर्माकृतमेवेति सूरिभिः । यतस्सुनिश्चितं तद्धि करणं पुनरर्हति ॥४३२॥ तादृशेष्वेष कृत्येषु रण्डानां पाककर्तृता। न तद्भिन्नेषु पित्र्येषु चैवं सति यदाऽवशात् ॥४३३।। मोहात्तत्कृतपाकेन कृतं श्राद्धं तदा पुनः । परेऽहन्येव कुर्वीत स्नुषापाकेन तत्सुतः ॥४३४॥ ज्ञाताज्ञातेति रण्डे द्वः स्पृष्टास्पृष्ट परे तथा । पतिं जानाति या ज्ञाता प्रथमा सा प्रकीर्तिता ॥४३॥ तत्राज्ञातेति या सेयं न जानाति पतिं स्वकम् । अत्यन्तपापा सा ज्ञाता यस्याः स्पर्शात्परं तदा ॥४३६।। सुखदोषेण मरणं तद्भर्ता प्रतिपद्यते । सा स्पृष्ट ति हि विख्याता लब्ध्वा तद्रतिं परम् ।।४३७।। रजसोऽप्यश्नुते घोरं वैधव्यं पापजं महत् । सास्पृष्ट ति समाख्यातास्ता एताः पूर्वजन्मनि ॥४३८।। नग्नश्राद्ध नवश्राद्ध लोष्टब्राह्मणभोजने ।
आद्यश्राद्ध च भोक्तारः प्रत्यक्षान्नं विनाशुचिम् ॥४३६।। क्रमेणैव महापापा: सप्तानां जन्मनां पुरा । अग्नौ प्रथमतः कृत्वा होमरूपेण कर्म तत् ॥४४०।।
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समा
विधवानिन्दावर्णनम्
२७४३ समाप्य विधिवद्भूयः यथा सङ्कल्पपूर्वकम् । सम्यग्विप्रमुखेनापि ताहकर्मचतुष्टयम् ॥४४१।। प्रकर्तव्यं प्रयत्नेन न चेत्तु ब्राह्मणो वृथा। अधः पतेदेवतरां नेहामुत्र च निष्कृतिः ॥४४२॥ तस्य भोक्त: प्रकथिता तादृक्प्रेतक्रियासु वै । विनाग्निमादितो विप्रमुखेन क्रियमाणके ॥४४३॥ प्राथम्येनैव तद्भोक्तु : पुलाकानां तु संख्यया । ज्ञातादिराण्डजन्मानि भवेयुरिति वै विधिः ॥४४४॥
॥विधवानांनिन्दा ॥ श्रीमान्प्रजापतिः प्राहः सर्वलोकपितामहः । तादृश्य एतास्सुक्रराः क्रूरचित्तामहाजडाः ॥४४५।। दयादाक्षिण्यसौभाग्यक्षान्तिदान्तिबहिष्कृताः ।
रातिक रसुक रतमा इति जगत्त्रये ॥४४६॥ जन्मनैव हि विख्यातास्तादृशीनां सदा क्षयः । पितरौ भ्रातरस्तज्जाः पितृगेहे प्रकीर्तिताः ॥४४७॥ पतिगेहे तु तत्तातभ्रातरस्तज्जतज्जनाः। अप्येवं सति सर्वत्र न स्वातन्त्र्यकथा सदा ॥४४८॥ तासां प्रकथिता सद्भिः एवं सति पितृगृहे । पित्रोस्तु कृपयापाल्यास्तत्कोष्ठजनितोऽन्वहम् ॥४४६॥ भ्रात्रादीनामपि तथा तज्जातानां तथैव च । एतद्भिन्नेन केनापि सम्बन्धेन न चैव हि ॥४०॥
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२७४४
लोहितस्मृतिः परं तु तत्र लोकानां पश्यतां तास्तथाविधाः । अनाथा इव भान्त्येता न तु तत्कृपया तराम् ।।४५१।। एतादृशी लोकरीतिस्तत्र भर्तृ निकेतने । अत्यन्तपारवश्यं तत् सुस्पष्ट लोकवर्मतः ॥४५२॥ गतानां तत्र निर्लज्ज पुरस्कारैकवर्जनात् । हैन्यमादौ जायते हि शनैः कालेन तत्परम् ॥४५३॥ भागांशादिप्रश्नमूलकलहेन निकृष्टता । स्वयमेवोत्पद्यते च जाते चैवं विशेषतः ॥४४॥ शापरोदनहुङ्कार त्वङ्कारादिककश्मले। समुत्थिते सङ्कटेऽस्मिन् मिथयोः पश्यतां पुरः ।।४५५।। किं कार्यमिति तैः प्रोक्त तामेनात्ताश्च वीक्ष्य वै। तत्परं दीयते चेति प्रतिज्ञाप्य ततः परम् ॥४५६।। यन्छास्त्रेणैव विहितं तावन्मात्रं तदा तदा। अस्माभिर्दीयते चेति नान्यत्किमपि क्षुल्लकम् ॥४५७॥ धर्मतोऽस्यास्तु रण्डाया मध्याह्नऽन्वहमेव वै । सार्वत्रिकरसंपूर्णास्तण्डुला लवणं समित् ॥४८॥ वसनंत्रिपणकक्रीतं त्रिमासानां तथैव च। एतावदेव साध्वीनां चोदितं विधवाशनम् ॥४६॥ प्रदेयं शास्त्रमार्गेण चैतस्मादधिकं न हि । इत्येवमुक्त्वा वचनं तावन्मात्रे ततः पुनः ॥४६०॥ दत्तेथ(ध) नालमेतन्मे चेति रोदनपूर्वकम् । द्वारे निरुद्ध ज्ञातेस्तु तत्र सन्तस्तु केचन ॥४६१॥
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विधवाया:स्वभर्तृ गेहनिवासवर्णनम् किमेतदिति तूष्णीकं सन्ततं पश्यतां पुरः। उभयैः क्रियते चेति हन्तसम्प्रतिमास्त्विति ॥४६२॥ तत्कोष्ठपूरणे यावत्तावद्दयमिति क वा। गच्छेदियमिति प्रोक्त्वा चैतावद्वत्सरस्य राः(१)॥४६३।। देया भवद्भिरित्येवं भूमिरूपेण वा पुनः । निबन्धद्रव्यरूपेण धान्यरूपेण वाथवा ॥४६४॥ भवेत्कालेन निष्कर्षः एवं सत्यत्र केवलम् । तस्यानिकृष्टता घोरा प्रसिद्धा जगतीतले ॥४६॥ सिद्धापि नात्र विशयः तस्मिन् भर्तृ कुलेऽन्वहम् । संप्राप्तजीवनांशायाः एवं यत्नेन कालतः ॥४६६।। पश्चान्निवासो भवने परेषां चेद्भवेद्यदि । अयशो महदेवस्याद्धात्रादीनां गृहेष्वपि ॥४६॥ तत्कलत्रादिजनताप्रद्वषः पुनरेककः। परगेहनिवासोत्थप्रत्यवायो महानपि ॥४६८।। जायते हि विशेषेण विश्वस्ताया व्रतं तु सः। सन्त्यक्तभर्तृगेहाया निवासो भर्तृ मन्दिरे ॥४६॥ अन्वहं कृच्छ्रफलदं ज्ञातिचित्तानुवर्तनात् । खभर्तृशयनस्थानपालनान्वेषणादितः ॥४७०॥ ब्रह्मचर्य महत्त्वं च सौजन्यमति वर्धते । तत्पुण्यतीर्थनिखिलसर्वकृच्छत्रतान्यपि ॥४७१॥ प्राप्तान्येव भवन्त्यस्यास्तस्मात्तत्रैव भक्तितः । येन केनाप्युपायेन भज्ञातिजनाश्रयम् ॥४७२।।
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२७४६
लोहितस्मृतिः
॥ रण्डाया अस्वातन्त्र्यम् ॥ कृत्वा तत्रैव निवसेद्दत्तांशाप्यनुसृत्य तान् । तत्रैव मरणे चेत्तु गङ्गातीरमृतौ तु या ॥४७३।। श्रेयसी कथिता सद्भिः तामाप्नोतीह तत्क्षणात् । तेषामनुसृति म स्वसंपादितवस्तु (वस्तू) नाम् ॥४७४।। समर्पणं यत्र कुत्र त्यक्त्वा तत्रार्पणं जगुः । दत्तांशायास्तु रण्डायाः यानि वस्तूनि सन्ति वै ॥४७॥ भूषणाच्छादनादीनि पात्रधान्यधनान्यपि । येभ्यः केभ्यः परेभ्यो वा स्वेभ्यो वा दातुमुत्तमः ४७६।। अधिकारोऽस्ति सततं यथेच्छं शास्त्रवर्मना । पितृभ्रातृपतिप्राप्तधरणी यदि संस्थिता ॥४७७|| तत्तत्कुलप्रसूतानां विनानुज्ञां तु तां हठात् । न दद्यादेवविधिनाऽन्यस्मै स्वच्छन्दतो ननु ॥४७८।। स्वीयानामेव वस्तूनां दानं शास्त्रैकसम्मतम् । सामान्यानां धनादीनां दानं शास्त्रैकनिन्दितम् ।।४७६।। न सामान्यं धनं देयं परभोज्यं विवादतः । स्पष्ट तरं भावदुष्ट निषिद्ध स्वैः परैरपि ॥४८०|| नियमोऽयं सर्वधर्मः पितृभ्रातृमतां सताम् । पुत्रिणामपि दानेषु तदनुज्ञां विना क्वचित् ॥४८१॥ कतुं न शक्यतेऽतीव भूमिदाने तु किं पुनः । स्वतन्त्रस्यापि शक्तस्य पुंसस्संपादकस्य च ॥४८२।।
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नानाविधरण्डानाभेदवर्णनम् २७४७ सगोत्रज्ञातिदायादसामन्तानुमतिः परा। अपेक्षिताधरादाने हिरण्यमुदकं तथा ॥४८३॥ एवं सतिः पुनर्नार्या अधिकारस्तथाविधे । कथं भवेद्भर्तृ पुत्रपौत्रवत्याः प्रदानके ॥४८४॥ विश्वस्तायास्सनाथायाः तस्मिन्दानेऽतिसङ्कटे । तत्रापि सुतरां दूरं अनाथायास्तु का कथा ॥४८॥ दाने तु तादृशेधारे ह्यशक्ये येन केनचित् । कतुं प्रयत्नशतकादधिकारो भविष्यति ॥४८६।। कथं वेत्यत्र देवेशो जानात्यन्येन चैव हि । अष्टवर्षा तु विधवा विवाहात्परतो यदि ॥४८७।। चित्यग्निसहशी प्रोक्ता प्रथमेयं स्मृताखला । रोहिणीविधवाचेत्तु चितिधूमसमानिशम् ॥४८८॥ अवीरेत्युच्यते नाना महापापैकसंभवा । गौरीदशायां वैधव्यमापन्ना तापिता स्मृता ॥४८६।। चित्युल्मूकैव सा ज्ञेया रजसोऽर्वागितीव च । पुरोदिताभी रण्डाभिस्साकं भूयः पराहताः ॥४६॥ सन्ति ताश्च प्रवक्ष्यामि स्पष्टाथं वै प्रसङ्गतः । दुर्भगाकुटिलाकाष्ठा चरमा चटुला वशा ॥४६॥ वीररण्डा कुण्डरण्डा बाधारण्डा तथा परा । दशानामपि चेतासां दशमाब्दात्परं तथा ॥४६२॥ ऐकादशाब्दप्रभृतिवैधव्यं क्रमतो यदि । रजसः परतो भूयो भवेयुस्तानि शून्यतः ॥४६३॥
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२७४८
लोहितस्मृतिः नामान्येतानि तुच्छानि चैतासां कर्ममात्रके। सन्नामके नाधिकारस्तथाप्यासां विधेर्वशात् ॥४६४|| सवृत्तिर्वसुधारूपा निबन्धादिस्वरूपका। संप्राप्तापिपितुर्भतुर्बन्धूनामथवा पुनः ॥४६। सकाशात्तु तया पश्चात् श्रियं सुमहती पराम् । संप्राप्ता अपि यद्यताः सततं परतन्त्रकाः ॥४६६। स्वपात्रस्थोर्णकबलप्राशनेऽपि स्वतन्त्रतः । अत्यन्तशक्तिविकलाः सर्वशास्त्रैकवर्त्मतः ॥४६॥ तथा हि तासां सर्वासां वनितानां महत्कुले । संजातानां विवाहस्य पश्चात्संवसरात्परम् ॥४६८।। कार्तिकगौरीपूजायाः तद्दीपाराधनात्परम् । त्रियुद्धिमृस्तम्भमहानिकटे तव्रते तदा ॥४६॥ महासुमङ्गलीवृन्दगीतवाक्यविशेषतः। प्राप्ताया अप्यनुज्ञायाः तत्पूर्तिकरणाय वै ॥५००।। नित्यं भुक्तिक्रियाकाले यां काञ्चिद्यं च कं च वा। दृष्ट्वा पृष्ट्वा भोजनस्याभ्यनुज्ञां तदनन्तरम् ॥५०१।। तया वा तेन वोक्त वाऽभ्यनुज्ञानविशेषके । सा भुक्तिः क्रियते तस्मात् वनितामात्रया भुवि ॥५०२।। अभ्यनुज्ञानदेवास्ते प्रथमं स्याद्गणाधिपः । वर्पत्रयं ततः पश्चाद्गुहस्ताक्ष्योऽथ वा स्मृतौ ॥५०३।। विकल्पत्वेननिर्दिष्टौ पूर्ववत्कालनिर्णयः । पुष्पवन्तौ च निर्दिष्टौ पश्चान्नोचेन्जगद्गुरू ॥५०४।।
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विवाहात्परतःस्त्रीणामखातन्त्र्यवर्णनम् २७४६ उमामहेश्वरौ पश्चालक्ष्मीनारायणौ ततः। उभयोरेतयोः कालो देवयोः परिकीर्तितः ॥५०॥ ततोऽपिद्विगुणस्तस्मात् वनितामात्रत: स्मृताः। अष्टादशस्युर्वर्षास्ताः भोजने नियतास्सदा ॥५०६।। अभ्यनुज्ञाव्रतस्यास्य चैतावदिति लेखनम् । जातं ममेति काश्यप्यां कृत्वा भक्त्या ततः परम् ॥५०७|| तां देवतां नमस्कृत्य पश्चाद्भोजनमुच्यते । अपि पात्रगते चान्ने हस्तेनादातुमप्यलम् ॥५०८।। विनाभ्यनुज्ञां तूष्णीकं न युक्तमिति हि श्रुतिः । सुमङ्गलीनां धर्मोऽयं मृते भर्तरि तव्रते ॥५०६।। तद्देवतेयं विधवा तदधीनैव सर्वदा । भवेत्तेनैवास्वतन्त्र्या(न्त्रा) परमाप्यवशा भवेत् ।।५१०॥ व्रतकाले तादृशे तु व्यतीतेऽस्यामहत्त्वकम् । स्वातन्त्र्यभ वाक्येन शनैस्तन्मुखतो भवेत् ॥५११।। एवं सत्यत्र जगति वनितानां विशेषतः । विवाहत्परतोऽत्यन्तमस्वातन्त्र्यं श्रुति-फुटम् ॥५१२।। स्वपात्रगतभिस्सैकग्रहणाणुस्वतन्त्रकम् (१)। अत्यन्तकपराधीनं अतो नारीजनस्य वै ॥५१३।। तादृशस्य कथंदानेऽधिकारः स्वस्य वा पुनः । वसुनः स्थावरादेर्वाऽभ्यनुज्ञां तां विनैव हि ॥१४॥ ज्ञातीनामभ्यनुज्ञा चेत् ज्ञातिप्राप्तक्षितेस्तथा। पितृप्राप्तक्षितेस्तस्य हत्यन्तावश्यकीति नु ॥५१।।
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२७५०
लोहितस्मृतिः युक्तत्वेनैव गृह्णन्ति लोके सन्तस्सुमेधसः। कृतेऽपितादृशे दाने कदाचिन्मूढयोपिहा ? ॥१६॥ समागतो यतोमूलः स्थावरो वनितास्पदम् । यथा वा तद्गतं भूयः तथाकुर्यान्नचेद्वृथा ॥५१७|| स्वगोत्रैककृतं भूमिदानस्यादुत्तमोत्तमम् । भिन्नगोत्रकृतं तत्तु तदर्धफलकं विदुः ॥१८॥ सत्सु साधुषु तिष्ठत्सु स्वकीयेषु जनेषु चेत् । आहिताग्निषु विद्वत्सु तद्धरण्यधिकारिषु ॥५१६।। विधवानाहिताग्नीनां जनानां तादृशीं धराम् । न दद्यादेव सहसा दत्ताप्येषा कथञ्चन ॥५२०।। न सिध्यत्येव तेषां सा पुरोडाशः शुनामिव । भूरस्माकमिदं मन्त्रं आहिताग्नेः प्रतीष्टिके ॥२१॥ अध्वयों सति जपति स्वीया सा भूमिरुत्तमा । तदीयपूर्वकोपात्ता कथमन्यत्र गच्छति ॥५२२।। गता विना न्यायवर्त्मद्वारा तस्य तु सा ततः। वृद्धितान भवत्येव वृद्धिदात्र्यपि केवलम् ॥५२३।। सद्यस्ततस्सर्ववंशमूलोन्मथनकारिणी । भवेदेव न सन्देहः हरिपत्न्यखिलाश्रया ॥५२४।। कालेन महता तस्मान्न कुर्यात्कर्म तादृशम् । नारीनरो वा मेधावी समालोच्य चिरंस्थिताम् ॥५२॥ स्ववंशेऽस्याधिकारं च तदागमनकारणम् । देशं कालंयुक्तपात्रं युक्त चायुक्तमेव च ॥५२६।।
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शास्त्रदृष्ट्याधर्मपालनमहत्त्ववर्णनन् २७५१ शास्त्रदृष्ट्या समालोच्य पश्चाद्धर्म समाचरेत् । पुंसो नित्याधिकारः स्यात्तद्द्वारा तनयस्य वा ॥५२७।। पित्रोः श्वसुरयो तुरनुज्ञानास्त्रियस्य तु। पुंसः शतगुणन्यूना वनिता सा सभर्तृ का ॥५२८।। तत्सहस्रगुणन्यूना विश्वस्ता नष्टपुत्रका। तत्सहस्रगुणन्यूना रण्डा सर्व विवर्जिता ॥५२६।। चित्यग्निधूमकाष्ठोल्मूकसमानाऽतिगर्हिता। सैतादृशीचेति वाक्यप्रलापनपरा खला ॥५३०।। सारण्डा तत्र भूदानं ग्रहदानं च नैष्कुटम् । कुल्यादानं कूपदानं वापीदानं च गाहनम् ॥५३१।। क्षेत्रदानं वृत्तिदानं सेतुदानं च वाक्षिकम् । औदान्यं माण्टपं सौधं प्रासादं गैहदं तदा ॥५३२।। यदाकरोत्तथैवाहं करिष्यामीति मामकम् । वदन्त्येवं निर्भयेन निर्लज्जं जनतापुरः ॥५३३।। तस्मादनुमतिं श्वश्र्वोः ज्ञातीनां चेत्तु सामगम् । तुल्यैवेति पुनस्त्वजमज्जनानां विशेषतः ॥५३४।। आकाङ्क्षानुमतिश्चाथाधिकोमम तु सांप्रतम् । सा ज्ञातीननुसृत्य स्वान् तत्सम्मत्या चकार हि ॥५३५।। इत्युक्त चेन्मामकानां जनानां परया ततः । संमत्यैव करिष्यामि पश्यतां तद्विरोधिनाम् ।।५३६।। तन्निरोधे कथं त्वं वै करिष्यसि नयो न तु । न युक्तमेवं करणमित्युक्त तत्र सज्जनैः ॥५३७।।
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२७५२
लोहितस्मृतिः पश्यद्भिरखिलैर्भूयो मामके क्षितिमात्रके । अहं वै प्रवरा की संप्राप्त व्यवहारतः ॥३८॥ मन्निरोधाय सम्बन्धः को वाद्यत्येवमेव वै। पूर्वोत्तरविरुद्धानि वचनानि प्रभाषतः ॥५३६।। दुश्बुद्धदुर्मुखस्य ज्ञातेरस्येति (जल्पतीम) वादिनीम् । हुकृत्य दूषयित्वैव भर्त्सयित्वा विशेषतः ॥५४०|| तत्सहायानधर्मज्ञान् पामरान्धर्मविद्विषः। . दानप्रतिग्रहव्याजान् मर्यादामात्रदूषकान् ॥५४१।। भ्रंशयित्वा बहिष्कृत्य निरोधनमुखेन च । धिकृत्य वेदविदुषस्ताडयित्वाप्यभीक्ष्णशः ॥५४२॥ अपराधानुगुण्येन द्वादशान्यूनकान्पणान् । तेभ्यः स्वीकृत्य तां गेहवापणरसादिकम् ॥५४३।। स्थावरं न्यायमार्गेण दापयेत्पृथिवीपतिः । तत्स्वामिने यथापूर्वं तेन स्वर्गो जितो भवेत् ॥५४४।। जीवनांशैकसंलब्धभूमिका यातिदुर्मतिः । अहो देवरपुत्रेण पुत्रिणीति ततो मया ॥५४५।। प्रदीयतेऽस्मै मत्तातसंलब्धा धरणीति वै। संवलब्धमनाथानां विधवानां कदाचन ॥४६।। न भूदानेऽधिकारोऽस्तीत्युक्त्वा वाक्यं ततश्च ताम् । दूरतः प्रेषयेदुष्टां तहत्तामपि तां धराम् ॥५४७|| तत्स्वामिने दापयेच्च तेन ऋतुफलं भवेत्। , पुत्रिणी सैव संप्राप्ता या प्रसूयेत जीविनः ॥५४८।।
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पुत्राभावेदत्तकविधानवर्णनम् २७५३ पुत्रो वा पुत्रिका वापि यस्यास्साऽस्ति ह्यपुत्रिणी । पुत्रसंग्रहणेनापि भर्ना साकं च पुत्रिणी ॥५४६।। वन्ध्याऽपि प्रभवेदेव शास्त्रेण रचितेन चेत् । अनेकवारं पुत्रस्य ग्रहणं शास्त्रनिन्दितम् ॥५५०।। नष्टऽपि दत्ततनये न पुनस्तचरेदपि । सगृह्णीयादेकमेव न द्वौत्रीन् चतुरोऽपि वा ॥५५॥ असकृद्वा सकृद्वापि पुमान स्त्री वा पृथङ्न तु। मिलित्वैवाऽतियत्नेन कुर्यात्तद्ग्रहणं मुदा ॥५५२।। सहस्रदः सहस्राठ्यो ब्रह्मनिष्ठोऽन्नदस्त्वति । वहुशिष्यधनज्ञातिग्रामभूमिविशेषवान् ॥५५३।। प्रथितस्त्वग्निचिन्नष्टपुत्रो दौहित्रवानपि । नष्टभार्या मित्रशिष्यज्ञातिप्रार्थनया तदा ॥५४॥ स्वीयसन्ततिविच्छित्तौ सर्वमत्या विधानतः । सङ्ग्रहीयाज्ज्ञातिपुत्रं दौहित्रस्य मतेन चेत् ॥५५।। अपि पत्नी तादृशस्य विधवा नष्टपुत्रका । कुलशिष्यज्ञातिधनबन्धुग्रामहिताय च ॥५५६।। तेषां वाक्येन दौहित्रमत्या पुच्याश्च ताठशे । सङ्कटे महति प्राप्त प्रकुर्यात्पुत्रसङ्ग्रहम ॥५५७।। स पुत्रो देवरसुतो भवितव्यो न हीतरः । पुत्रप्रदश्च सर्वेषाममात्यानां च मध्यमे ॥५५८।। देवरा एव विख्याता ज्ञातिभ्यो न्यायवर्मना । देवरेष्वपि भूयश्च सर्वेषामन्त्य एव चेत् ॥५५६।।
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२७५४
लोहितस्मृतिः . उत्तमः कथितस्सद्भिर्मध्यमस्य तु मध्यमः ।
ज्येष्ठस्य तु सुतास्सर्वे चाधमाः परिकीर्तिताः ॥५६०।। तद्भिन्ना ज्ञातिपुत्राश्चेदधमाधमसंज्ञकाः । एतेन खलु सर्वत्र दौहित्रे सति सङ्कटे ॥५६॥ पुत्रस्यग्रहणं दुष्ट शास्त्रजालैरशेषकैः।। इतियत्तस्य दौहित्रामतं यदि तदा तराम् (१) ॥५६।। न कार्यमेव तन्नो चेन्मतेनास्थ मुदादिना । सम्यकतुं शक्यते हि तस्मिंश्चेद्यदि दुःखिते ॥५६३।। सगृहीतस्स तु शिशुः पुत्रत्वेन न वर्धते । तत्संमतिश्च परमा नास्त्यस्तीति ततः परम् ॥५६४॥ कालेन महता पश्चात्कल्प्या फलबलेन हि । तादृशस्य च तादृश्याः विधुरस्य विपश्चितः ॥५६५।। तत्वल्या विधवाया वा स एषः पुत्रसङ्ग्रहः । उपयोरेगोरेर पृथक्त्वेन तथाविधम् ॥५६६।। संगच्छते कर्म कतु नैताभ्यां भिन्नयोर्ननु । सर्वथा शक्यते कतुं नान्यस्य तु कथंचन ॥५६७॥ अन्याया विधवाया वै सोऽयं पुत्रपरिग्रहः । उपमारहितश्रीकः मिथिलोत्पत्तिसन्निभः ॥५६८।। एतादृक्पुत्रकरणे गुणा ह्यावश्यकाः स्मृताः । तेऽत्यन्तदुर्लमा दिव्या ते सन्ति यदि वै तदा ॥५६॥
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समीचीनरण्डावर्णनम्
२७५५ कर्म कतुं तादृशं चालं युक्तं शात्रसंमतम् । ते गुणाश्चापि सुव्यक्त निरूप्यन्तेऽधुना क्रमात् ॥५७०।। वंशद्वयविशुद्धत्वं अत्यन्तावश्यकं स्मृतम् । सहस्रदक्षिणादत्वं सहस्रधनवत्त्वकम् ॥५७१।। पण्डितत्वं शताधिक्यशिष्यवत्त्वं महोन्नतम् । महाप्रामाधिकारित्वं ब्रह्मनिष्ठत्वमप्यति ॥५७२।। अन्नदत्वं ब्रह्मवित्त्वं शान्तिदान्त्यादिपात्रता । अग्निचित्त्वं धराधीशपूज्यता सर्वसम्मता ॥७३॥ यस्यैते निखिलादिव्याः सन्ति तस्यैवतादृशे । समये कर्म तत्कतुं तत्कलत्रस्य शक्यते ॥५७४|| विधवायास्तादृशस्य विधुरस्येति विश्वसृट् । पुत्रसंग्रहणे शास्त्रं कल्पयामास सूक्ष्मतः ॥५७।। अतिगुह्यमिदं शास्त्रं सर्वसाधारणं न तु । तादृशानां तु या काचिजन्मान्तरतपःफलात् ॥५७६।।
॥समीचीनरण्डा।। मृते भर्तरि तूष्णीकं सर्व निश्चित्य केवलम । नश्वरं दुःखजनकं अज्ञानास्पदमध्रुवम् ॥५७७।। सद्वाक्येन विनिश्चित्य किमे न ती। क्षान्तिशान्तिशमादीनां आलया सद्गुणाश्रया॥५७८।। वेदान्तवाक्यश्रवणं कुर्वन्ती महतां सताम् । वसन्ती निकटे नित्यं जगदेतचराचरम् ॥५७६।।
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२७५६
लोहितस्मृतिः कं खं भूौस्तथा वायुः पुष्पवन्तौ सुरासुरान् । वृकं खरं खगं छागं पश्यन्ती ब्रह्म शाश्वतम् ॥५८०॥ सत्यं ज्ञानमनन्तं च सच्चिदानन्दलक्षणम् । सर्वोपनिषदां सारं सर्वोपनिषदीरितम् ॥५८१॥ भेदं सर्वं परित्यज्य सोऽहं भावनयैव हि । विभावयन्ती सततं स्वात्मत्वेन समत्वतः ।।५८२।। सुखं दुःखं भवं भावं भावाभावौ तथैव च । विपत्तिमविपत्तिं च द्वन्द्वाद्वन्द्व लयालयौ ॥५८३॥ शत्रु मित्रं तथानुष्णमुष्णं तेजस्तमस्तथा। सिद्धान्तपूर्वपक्षौ च भेदराहित्यतोऽनिशम् ॥५८४॥ समदृष्टया प्रपश्यन्ती परत्वमपरत्वकम् । कामं क्रोधादिकं चापि रागद्वषादिकं परम् ॥५८।। लाभालाभौ च सततं स्वात्मन्येव व्यवस्थितम् । एकमेवेति मन्वाना द्वितीयं नेति सूक्ष्मतः ॥५८६।। मन्यमाना महाभागा महती ब्रह्मवादिनी । जाति मानं च गवं च जन्मवर्णाश्रमादिकम् ॥५८७॥ अहं भावं स्वकीयत्वं त्यक्त्वा विस्मृत्य सत्वरम् । किमप्यकाङ्क्षमाणैव सर्ववस्तुषु केवलम् ॥५८८।। काममिच्छामि नात्यन्तास्पृहया येन केनचित् । लब्धेन प्राणवृत्तिं तां कुर्वती च सुसंस्थिता ॥५८६।। नित्यतुष्टा नष्टदुःखा पूर्णकामा च सन्ततम् । अदः पूर्णमिदं पूर्ण पूर्णात्पूर्ण बहिस्तथा ॥६॥
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समीचीनायरण्डायावर्णनम् । २७५७ अन्तः पूर्णमधः पूर्णमूवं पूर्ण च तेन हि। परेण ब्रह्मणा तेन स्वयं तद्ब्रह्म किं कखौ ॥५६॥ नेतःपरमहं त्वस्मिंचेति बुद्धिः परा दृढा । रण्डापि सा सर्ववन्द्या सदा शास्त्रार्थतत्त्ववित् ॥५१२॥ यस्याः स्यात्काक्षितं वस्तु परमिष्टं ममेति न । सैवं साक्षात्परं ब्रह्म सर्व(च) ह्यप्रयोजकम् ॥५६३॥ तच्चर्याज्ञाननिष्ठाद्याः सर्ववन्द्याः सदा जनैः । स्वीकार्याः स्युर्विशेषेण तस्यां बुद्धिं तु मानुषीम् ।।५६४॥ न कुर्यादेव धर्मेण सा ब्रह्मव न संशयः। न यस्याः स्वं परं चेति परभावोऽप्यहकृतिः ॥५६।। देहे दुःखसुखे न स्तः सेयमप्राकृता स्मृता । सर्वप्राणिसमा दुःखसुखतुल्या निराकुला ॥५६६।। निराशा निर्ममा साध्वी रण्डाऽपीयं विशिष्यते। दुर्व्यापारमकृत्वैव परेषां स्वहिताय वै ॥५६७।। वृत्तिक्षेत्रगृहक्षोणी विषये निस्पृहा च या । सापि रण्डा समीचीना प्राकृताभिः समा न तु ॥५६८।। इदं कृत्यमिदं कार्यमिदं शास्त्रमिदं परम् । इदं युक्तमिदं न्याय्यं इदं धयं सनातनम् ॥५६६।। अप्रदेयं देयमिदं अवाच्यं वाच्यमेव च । अनुष्ठ यं च तद्भिन्न क्रेयमक्रयमेव च ॥६००|| अश्राव्यं श्राव्यमित्येतज्ज्ञानं तस्य निरीक्षणम् । अनुष्ठानं विशेषेण यस्याः स्युः साप्यकालतः ॥६०१॥ .
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२०५८ .... लोहितस्मृतिः ।
इयं रण्डाप्यरण्डेव ज्ञात्री धर्मपरा सती। सर्वज्ञाव्यपि या नूनं दुर्बुद्धया सततं कलिम् ॥६०२।। स्वजनैः ज्ञातिभिस्सद्भिः पितृभ्यां बान्धवैः परैः। कुर्वती सततं पीडां तद्र्व्यहरणेच्छया ॥६०३।। दुर्व्यापारादिना तेषां मृत्युस्सा सार्वकालिकी । तादृशीं धार्मिको राजा स्वदेशादन्यतो नयेत् ॥६०४।। तत्कृता दुष्क्रियास्सर्वा मार्जयित्वाऽथ सत्क्रियाः । कारयेदेव विधिना सद्धर्मस्थापनाय वै ॥६०।। असक्रियैककर्तारं असद्वाक्यैकवादिनम् । सद्षकं दुष्कर्मबोधकं राष्ट्रतो नयेत् ॥६०६।। निष्ठीवन्तं सभामध्यात्सभायां निर्भयेन वै। ताम्बूलचर्वणपरं वाक्येनोद्वासयेत्ततः ॥६०७।। कल्याणराजसदसि रागेण यदि वा क्षुतन् । अपानयन्वा दुर्बुद्धिं तूष्णीकं हि ततस्तु तम् ।।६०८।। सद्यउत्थापयित्वैव तत्रदर्भभुवं दहेत् ।
॥ सभायां एकस्मिन् अन्यस्यपतने । सभानृपतने जाते निद्रया यस्य कस्य वा ॥६०६।। तद्वस्त्रं सहसाच्छित्वा वेष्टयित्वा शिरोऽस्य वै। विसर्जयित्वा दूरेऽथ तं दूरीकृत्य तत्परम् ॥६१०।। प्रहृत्य पृष्ठ हस्तेन नां भूमिं च ततः परम् । प्रोक्ष्योद्धृत्याथतान्पांसून बहिर्गेहाद्विसर्जयेत् ॥६१॥
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उत्तमदण्डव्यवस्थावर्णनम्
२७५ मृदन्तरेण भूयश्च पूरयेत्तां भुवं यथा । त्रियम्बकेन मन्त्रेण हुनेदष्टोत्तरं शतम् ॥६१२॥ ब्राह्मणान् भोजयेत्पश्चाच्छत्तयाचित्रान्नषड्सः ।
आगामिसूतकं ज्ञात्वा गत्वा देशान्तरं त्वरन् ॥६१३।। लौकिकं वैदिकं तत्र नित्यं नैमित्तिकं तु वा। परस्य स्वस्य वा कर्म संप्राप्त कुरुते यदि ॥६१४|| कारयेद्वा विशेषेण यद्यदेवाखिलं परम् । तत्सूतककृतं नूनं भवेदेव न चान्यथा ॥६१५॥ कृतस्य सूतके यत्तु प्रायश्चित्तमुदीरितम् । तथैवेहास्य कथितं कर्मणो ब्रह्मवादिभिः ॥६१६।। तादृशं तमिमं राजा बलादाहृत्य सत्वरम् । उत्तमेनैव दण्डेन दण्डयेद्धर्मसिद्धये ॥६१७।। परप्रयोजनदशायां प्राप्तायां (तु) मृषाच्छलात् । चिराद्देशान्तरगतसूतकं नेति वै वदन् ॥६१८॥ दाप्यश्शतपणान्सद्यः तत्सत्यं चेत्तु तत्पुनः । स्वयेदं दुष्कृतं दुष्ट किं कृतं तद्धठाद्यथा ॥६१६।। न युक्तमेवं करणं तदिदानी सहिष्णुना। तदाद्य तावत्पर्यन्तकालहाते विगर्हितम् ॥६२०॥ एवं जनानां पुरतो लज्जयेत्तं विगर्हयेत् । सूतकी सन्परे देशे श्राद्धभुक् शुभकर्मणः ॥६२१॥ आत्विज्यं वैदिकस्यापि कुर्वन्यो वर्तते तराम् । तमेनं बालिशं मूर्ख सद्यो राजा विशेषतः ॥६२२॥
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२७६०
लोहितस्मृतिः ग्राहयित्वा रोधयित्वा मासं वा पक्षमेव वा। तमेवं पूर्ववत्कृत्वा लजयित्वा ततः पुनः ॥६२३।। तस्य स्वार्थधनं सम्यग्धृत्वा राष्ट्रात्प्रवासयेत् । पत्न्यां रजस्वलायां यः श्राद्ध भुक्तऽतिकामतः ॥६२४।। स्वायोग्यतां लोपयित्वा जनानां सोऽयमल्पकः । निष्कासितो धिक्कृतश्च मोचनीयः स्वकाद्गृहात् ।।६२५ चतुर्विशतिपणान्वापि दाप्यस्सद्योऽथ वा भवेत् । अमन्त्रनिपुणो मन्त्रैः कुग्रामेषु द्विजन्मनाम् ॥६२६।। वसतां कर्म सम्यग्वः कारयिष्यामि सन्ततम् । संमन्त्र्यैवं प्रतिज्ञाप्य तथा कुर्वन्न शास्त्रतः ॥६२७।। व्यामोहयन्वाक्यजालै नित्यानुसरणादिना । सेवया संचरन्नित्यं शास्त्रमार्ग विनाशयन् ॥६२८।। मन्त्रक्रियापरिज्ञानविकलो नटवत्तराम् । तक्रियाभिनयान् कुर्वन् वैदिकोऽहमितिब्र वन ॥६२६।। दुष्टोऽयमसतां मुख्यः सद्रूषणपरः पुनः । अज्ञातशब्दार्थभयरहितः पामरो जडः ॥६३०।। ज्ञातो विप्रमुखाद्राजा सद्यस्तं भटवर्त्मना । आनाययित्वा सन्ताड्य किं कृतं च त्वयानिशम् ।।६३१।। विधानं ब्रूहि पुरतो कर्मणां विप्रसन्निधौ । तूष्णीकं लोकविप्रत्वं नाशयिष्यसि केवलम् ॥६३२।। सर्व वः कारयिष्यामीत्युक्तिमात्रेण तान् जडान् । व्यामोहयित्वापापात्मन् एवमुक्त्वा पुनश्च तम् ॥६३३।।
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सुवासिनीनांशिरःस्नाननिषेधः २०६१ कपोलयोस्ताडयित्वा तत्तद्ग्रामनिवासिनाम् । कार्याय कर्मजालस्य दक्षमेकं नियुज्य च ॥६३४।। पश्चात्तस्यापि सर्वस्वं हृत्वा राष्ट्रात्प्रवासयेत् । विश्वस्तामशिरस्नातां शिरःस्त्रातां सुवासिनीम् ॥६३।। कदाचिदवशादृष्ट्वा कुर्यात्सूर्यावलोकनम् । शिरःस्नानं पतेः पित्रोः कृत्स्नश्राद्धदिनेषु तत् ॥६३६।। पाकस्य हेतवे हि स्यात् न चेन्नास्त्येव किंच तत् । प्रत्यब्दमात्रे भवति तदभावेऽपि केवलम् ॥६३७।। शिरःस्नानं ग्रहणयोः पूर्व चाप्यपरं परम् । द्विवारमपि यत्नेन तथा बन्धुमृतावृतौ ॥६३८।। चतुर्थेऽहनि तद्वर्त्मनियमेन समासतः । तथैवापूर्वतीर्थेषु चण्डालस्पर्शनादिषु ॥६३६॥ अभ्यङ्गकालनैयत्यं आर्थिकं प्रभवेद्धि वै । अध्वराद्यन्तयोरेवं नान्यत्रासां तु मास्तकम् ॥६४०।।
॥सुवासिनीनां शिरःस्नाननिषेधः ।। सुमङ्गलीनां तत्स्नानं हरिद्रावर्जनेन चेत् । जलं श्मशानगर्तस्थं सत्यं स्याद्धरणीगतम् ॥६४१।। यधु द्धृतं भाण्डगतं चण्डालचषकस्थितम् । तत्क्षणादेव भवति तदा तस्मात्तयैव हि ॥६४२।।
॥ हरिद्रास्नानविधिः॥ तथा स्नानं प्रकर्तव्यं अजस्रं तद्धरिद्रया। अजस्र विहितं स्नानं रात्रौ चेत्तज्जलं पुनः ॥६४३।।
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२७६२ . लोहितस्मृतिः
दैवाकीत्येकचषकमतमेव न संशयः। तासामाकण्ठमेव स्यादास्यस्य क्षालनं च तत् ॥६४४॥ भर्ना स्नानं नित्यमेव न मध्येऽहि(मध्यान्हे) विधीयते । भर्तुः स्नानात्परं प्रातः होमकार्याय तच्च हि ॥६४॥ होमाभावे यथेच्छ स्यात्सङ्गवे पाकहेतवे । पाकाभावेऽपि कालोऽयं सङ्गवो वाथ तत्परः ॥६४६॥ मध्याह्नो नापराह्नः स्यात्सदा कुर्याद्धरिद्रया। हरिद्रालेपने नित्यं तर्जन्या विदिशां दिशाम् ॥६४७।। सर्वासां देवपत्नीनां तस्यादानं च धर्मतः । कर्तव्यत्वेन विहितं हरिद्राया निरन्तरम् ॥६४८।। विदिशां देवपत्नीनां चतसृणां दिशामपि । हरिद्राकल्कलेशांस्तान् अक्षिप्त्वेवातिगर्वतः ॥६४६॥ अज्ञानाज्ज्ञानतो वापि नमस्कारप्रपूर्वकम् । या स्नाति विधवा नूनं सत्यमेव भविष्यति ॥६५०।। या करोति शिरःस्नानं जीवभत्री सुमङ्गली । पतित्री सा प्रकथिता तथोक्तं ब्रह्मवादिभिः ॥६५॥ विनाभ्यनुज्ञां भर्तुर्या चौपवस्तं करोति वै । भर्तु रायुष्यमन्नाति सैषा पापालया स्मृता ॥६५२।।
॥ पतिव्रताधर्माः॥ भ शुश्रूषणं नार्याः परमो धर्म उच्यते। नैतस्मादधिको धर्मो नैतस्मादधिको जपः ॥६५३॥
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पन्या :पतिशुभूपर्णपरमधर्मवर्णनम् २०६३ नैतस्मादधिकं दानं नैतस्मादधिकं तपः। नैतस्मादधिकं तीर्थ नैतस्मादधिकं दमः ॥६५४॥ नैतस्मादधिकाः कृच्छाः नैतस्मादधिकास्सवाः । . मुक्त्वा तत्पतिशुश्रूषां तस्मादन्यन्न किंचन ॥६५।। धर्म चरेत्प्रयत्नेन साध्वी नारी पतिव्रता। नैनमुच्चैः प्रभात प्रियमेवास्य यश्चरेत् ॥६५६।। अप्येनं कुपितं रोषात् प्रतिकुप्येत्कथंचन । कठोरं निर्दयं करं निरनुक्रोशमक्षमम् ॥६५७।। ताडयन्तमहोरात्रं शपन्तमपि दुई दम् । न दूषयेन्न चाक्रोशेल्न क्रुध्येत्प्रशपेदपि ॥६५८।। छायानुवर्तिनी नित्यं दुःखिते दुःखिता भवेत् । । सुखिते सुखिता तस्मिन् हृष्टे हृष्टा स्थिते स्थिता ॥६५६ शयिते शयिता सुप्ते पश्चात्सुप्ता स्वयं भवेत् । आहूताऽतित्वरा गच्छेदपि कायं विहाय च ॥६६०॥ शतं सहस्र गोप्यं वा गुह्यमावश्यकं तु वा । ताम्बूलचर्वणं नित्यं अक्ष्णोरञ्जनमेव च ॥६६१॥ कुङ्कुमं चापि सिन्दूरं कज्जलं कञ्चुकं कचः । कबरी च प्रशस्तं स्यात्सुगन्धं स्रक्सुमादिकम् ॥६६२।। नित्यमावश्यकं स्त्रीणां सतीनां विधिचोदनात् । भर्तरि प्रोषिते स्त्रीणां नालङ्कारो विधीयते ६६ पतिव्रतानां धर्मोऽयं तत्पुरोऽलङ्कृतिः परा। अन्वहं निशयास्नानं सिन्दूरं कुङ्कुमं सुमम् ॥६६४॥
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२७६४
. लोहितस्मृतिः
सुगन्धद्रव्यसद्वस्त्रकञ्चुकस्रककज्जलाः । निखिलास्वप्यवस्थासु संसेव्यास्त्वाभिरित्यपि ॥६६॥ नित्यभव्याय स मुनिरुवाच पुलहः पुरा । भौमवारे शुक्रवारे निमज्जन्ती धराजले ॥६६६।। सपतिं वनितां साध्वीं दृष्ट्वा तद्दोषशान्तये । पद्मानने पद्म उरु पद्माक्षी पद्मसंभवे ॥६६७।। त्वं मां भजस्व भद्राक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम् । इति मन्त्रं श्रियोमूलं समुच्चार्योदकेन वा ॥६६८।। नेत्रे प्रक्षाल्य नोचेत्तु नवनीतेन माष्टिं च । उदुत्त्येन ततस्सूर्य प्राङ्मुखस्त्ववलोकयेत् ॥६६६।। तथैवमवशादृष्ट्वा विश्वस्तां रक्तदन्तकाम् । ताम्बूलरञ्जितमुखीं सुगन्धालिप्तगात्रकाम् ॥६७०।। स्वतन्त्रां वातिहासां वा काल्योद्वर्तितविग्रहाम् । विचित्रवस्त्रां वा तद्वच्छलक्ष्णकायां सुचित्रिताम् ॥६७१।। अतिवैदग्ध्यमापन्नां अत्यन्तोत्कटवादिनीम् । क्षुद्रकण्टकतच्चित्रक्रियमाणाङ्गको पुनः ॥६७२।। तदा तदा भूषणाध्या(व्यां) वस्तुनीलितदुर्दतीम् । स्वर्णादिसूत्रखचितविद्रुमाच्छाक्षमालिकाम् ॥६७३।। व्यूहाधिपत्यं कुर्वन्ती दानमानादिदुर्नयैः । परद्रव्याणि स्वीयत्वबुद्धय व स्वजनैः कलौ ॥६७४।। प्राहयन्ती धर्ममात्रव्याजेनैव निरन्तरम् । सन्तोऽपि भ्रामयन्ती तु सत्कुलैकविभीषिका ॥६७।।
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दुराचाररतारण्डां दृष्ट्वाप्रायश्चित्तवर्णनम्
रण्डां तथाविधां दृष्ट्वा दुष्टचित्तां प्रतारकाम् । प्राणायामत्रयं कृत्वा पादप्रक्षालनात्परम् ॥६७६॥ उपस्थाय च सप्ताश्वं उद्वयद्वयतो हरिम् । संस्मृत्य व्याहृती जप्त्वा चेदं विष्णुं सकृज्जपेत् ॥६७७|| राजा चेत्तादृशींश्रुत्वा पृष्ट्वा वा सद्य एव वै 1 स्वदेशादुद्वसेन्नोचेच्छ्र यो भव्यं न विन्दति ॥६७८।। धनवन्तमदातारं दरिद्रमतपखिनम् ।
कण्ठे बद्ध्वा शिलां गुर्वी सिन्धुमध्ये विनिक्षिपेत् ॥६७६॥ सतोऽपि नित्यं दुर्भार्गग्राहकस्य दुरात्मनः । प्राप्तस्यात्यन्तमित्रत्वं शिक्षा तेन ह्यभाषणम् ||६८०|| दासीप्राणहरो दण्डः शिरोमुण्डनमुच्यते । रहस्यधेनु बालघ्न्याः प्रादायास्तथैव च ॥६८२॥ विषप्रदास्यद रण्डोऽयं धर्मशास्त्रैकनिश्चितः । तच्चूर्णक्षुद्रपाषाणवह्निना वर्ष्यदीपनम् ॥ ६८२ ॥ महावाते प्रचलति रात्रौद्वषेण दाहिनः । ग्रामं वीथीं गृहं वापि दण्डोऽयं देवनिर्मितः ||६८३|| ग्रामाद्बहिः शिरश्छित्त्वा तरुशूलाधिरोहणम् । सर्वं चतुर्थवर्णादिजनो पापालयोऽनिशम् ||६८४|| धेनुचौयं वाहचौथं मेषचौयं तथाविधम् । पुनरन्यानि चौर्याणि कुर्वन्नेव तदा तदा || ६८५ ।! अवशात्सङ्गृहीतश्चेत् बहुलोकापकारकः ।
सन्ताड्य तं भ्रामयित्वा सर्वा वीथीस्समाकुलाः ||६८६||
२७६५
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२७६६.
लोहितस्मृतिः घोषयित्वा विशेषेण यद्यचत्तस्य सषितम् । शनैः शनैरुपायेन समादायातिकौशलात् ॥६८७।। त्वां वयं मोचयिष्याम इत्युक्त्वा तत्कृताः पुरा। यत्र तत्र क्रियास्तास्ता ज्ञात्वा तन्मुखतः पुनः ॥६८८।। चो(चौ)रान्तरादिदुष्टौघान् विज्ञाय तदनन्तरम् । निगलेन पुनस्सम्यक् ग्रन्थयित्वा तदा तदा ॥६८६।। ताडयित्वा स्थापयित्वा बन्धयित्वातिनिष्ठुरम् । अखिलं तावक कृत्यं सम्यग्वदसि चेत्तदा ॥६६॥ निश्चयान्मोचयिष्यामो न चेन्मुक्तिस्तु तेन हि । त्रिवारमेवं संशोध्य पश्चाल्लब्धानि तन्मुखात् ॥६६॥ द्रव्याणि धर्मकृत्येषु योजयित्वा ततश्च तम् । करमेकं पादमेकं खण्डयित्वा विमोचयेत् ॥६॥२॥ गजचोरं महाघोरे पल्वले गजसड्महे । पुराकृते तादृशेऽस्मिन् कृतेऽद्यापि घने तथा ॥६६॥ पातयित्वा खनित्वैनं प्रच्छाद्यस्तम्भमूलके । काष्ठनिखातैः पृथुलैः हन्यादेवाविचारयन् ॥६६४॥ एडूकत्रोटने दक्षं तत्काले तमसि स्थिते । नैपुण्यधावनपरं ग्रहणायागतान् जनान् ॥६६॥ कृतप्रहारं खड्गेन गृहीतमवशाजनैः। चोरं सद्यस्ताडयित्वा करौच्छित्त्वा प्रवासयेत् ॥६६६।। यदि तेन हतः कोपि तस्मिन्काले विशेषतः । हिंसिताः स्युः परे क्रौर्याइण्डयित्वा प्रमापयेत्(प्रवासयेत्)६६७
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नानादण्ड्यकर्मसुदण्डविधानवर्णनम् २७६७ यदि चेद् ब्राह्मणो दुष्टश्चोरस्तत्रापि हिंसकः। तस्मिन्काले विशेषेण खण्डदण्डादिभिर्जनान् ॥६६॥ गृहीतोऽयं हतान्कृत्वा तमेनं निगलेन वै। बन्धयित्वा पीडयित्वा शोधयित्वा तदा तदा ।।६।। संवत्सरात्परं यत्नात्कृत्वैवाक्षतमव्रणम् । सर्वाङ्गवपनं कृत्वा घोषयित्वा पुरे स्वके ॥७००। गर्दभारोहणेनाथ राष्ट्रादस्माद्विसर्जयेत् । सर्वेष्वपि च कार्येषु चातिरेषु केवलम् ॥७०१।।
कृतेष्वपि तथा तेन त्वक्षतो ब्राह्मणो व्रजेत् । स्त्रीणां न हिंसाविहिता चातिक रेषु कर्मसु ॥७०२।। बालनीनां तु रागेण परेषां स्वस्य वा पुनः । क्षुद्रशूलशिलावह्निविग्रहैकप्रदाहतिः ॥७०३॥ प्रपातनं प्रकथितं ब्राह्मणीनां तु केवलम् । केशानां लुब्छनं कृत्वा च्छिन्नं कृत्वा यथातथम् ॥७०४॥ श्वदण्डध्वजशूलापस्मारचक्रादिभिः सदा । गदभारोहणादेव देशादुच्चाटनं स्मृतम् ॥७०।। अजितोऽस्मीति वक्तारं जितं न्याये न शास्त्रतः । सभायां तं पराजित्य दूषयित्वा प्रवासयेत् ॥७०६।। दुष्टं सतो दूषयन्तं स्वकार्यायान्वहं खलम् । त्यक्तकापट्यकौटिल्यान्मोहयन्तमभीक्ष्णशः ॥७०७॥ भेदयन्तं भीषयन्तं हेतुवाक्यादिभीषणैः।। तत्सज्जनाकारमानं सज्जनद्वषिणं तराम् ॥७०८।।
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२७६८ . लोहितस्मृतिः
सक्रियाचरणव्याजदुष्टकार्यैककारिणम् । कोपेयं कर्कशं करं सामान्यद्रव्यहारिणम् ॥७०६।। ग्रामद्रोहजनद्रोहसर्वद्रोहैकलोलुपम् । विद्याविहीनं पिशुनं पामरं पापचेतसम् ॥७१०॥ यत्नेन राजा निश्चित्य कालेन महता शनैः । जनवाक्येन महतां चर्यया भाषणे न च ॥७११।। पूर्वोक्तान् शिक्षयेत्सम्यक् सत्पथे विनिवेशयेत् । तस्योपायांश्च वक्ष्यामि स्पष्टाय विशदाय च ।।७१२।। स्वामिना स्वामिनं कार्यकाले तस्मिन्समागते । विवदन्तं समत्वेन सद्यस्सम्यक्प्रताडयेत् ॥७१३।। अज्ञं सभायां विदुपा समत्वेनैव निर्भयम् । विवदन्तं धराधीशः सन्ताड्योद्वासयेद्वहिः ॥७१४।। अश्रोत्रियं श्रोत्रियेण विवदन्तं सभास्वति । तूष्णीं विनैव मर्यादां दमं कुर्यात्तु हुङ्क्तेः ॥७१।। ग्रामे राष्ट्र च सर्वत्र प्राधान्येन चिरात्सितान् । महात्मनो महाभागान् दुष्टान् केचन सङ्घशः ।।७१६।। मिलित्वा तक्रियाः पौर्वापर्यमर्यादया कृताः । यवादन्यथयन्तो वै नास्माकं सम्मतिः परा ॥७१७|| इयमित्येव ये दुष्टा तान्सद्योनिर्दयं नृपः । एकदा भीषयेच्चेत्तु दण्डसमहणात्परम् ॥७१८।।
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नयमाप्रराज्येसर्वेषांसुखित्ववर्णनम २७६६ अनया निखिलाश्चापि सद्यश्शान्ता भवन्ति हि। अनयानामभावे तु लोकोऽयं सुखमश्नुते ॥७१।। लोको यदा सुखी राजा तदा सर्वान्मनोरथान् । अवशादेव लभते नात्र कार्या विचारणा ॥२०॥ इतीदं कथितं शास्त्रं लोहितेन महात्मना । हिताय सर्वलोकानां सारमुद्धत्य शास्त्रतः ॥७२१॥
श्रीलोहितस्मृतिः समाना।
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॥ श्रीगणेशाय नमः॥
* नारायणस्मृतिः *
प्रथमोऽध्यायः
नारायणदुर्वाससो सम्बादः एकदा नैमिषारण्ये ब्रह्मर्षिगणसेविते । नारायणो महायोगी दूर्वाससमपृच्छत ॥१॥ भगवन् मुनिशार्दूल सर्वधर्मभृतांवर । काले कलियुगे पुण्यधर्मे लुप्ते भुवस्स्थले ॥२॥ सर्वपापप्रशमनी प्रायश्चित्तविधिः कथम् । पापाः कतिविधाः प्रोक्ता विस्तरेण वदस्व मे ॥३॥
दुर्वासा उवाच । नारायण महायोगिन् शृणु विस्तरतो मम । कृते युगे चतुष्पादो धर्मों वर्द्धति वर्द्धति(ते)॥४॥ त्रेतायुगे तु सम्प्राप्ते पादहीनो भवेद्वषः । द्वापरे समनुप्राप्ते द्विपादाभ्यां वृषस्थितः ॥५॥ ततः कलियुगे प्राप्ते पादेनैकेन तिष्ठति । ततः कृतो युगःश्रेष्ठो मध्यमस्तदनन्तरम् ॥६॥
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महापातकोपपातकवर्णनम् २७७१ अधमो द्वापरयुगः कलिस्स्यादधमाधमः । कृते कृते युगे पापे तद्दशं संपरित्यजेत् ॥७॥ त्रेतायां ग्राममात्रं तु द्वापरे कुलमुसृजेत् । कलौ युगे विशेषेण कर्तारं तु परित्यजेत् ॥८॥ कृतत्रेताद्वापरे (षु) तु मरणान्तादिनिष्कृतिः। कलौ युगे तु सम्प्राप्ते मरणान्ता न निष्कृतिः ॥६॥ पापा नवविधाः प्रोक्ताः सावधानतया शृणु। ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमः ॥१०॥ य एतै (स्सह) संयोगी महापातकिनस्त्विमे । अतिदेशादमीषां यदातिदेशिकमुच्यते ॥११॥ एतत्प्रकाशपापानां रहस्यानां तथैव च । गोवधादिकमेनोयदुपातकमुच्यते ॥१२॥ यजातं तिलधान्यादि विक्रयात्पापमात्मनः । सङ्करीकरणं प्राहुः कन्यापहरणादिकम् ॥१३॥ मलिनीकरणं चैव चण्डालीगमनादिकम् । अपात्रीकरणं प्राहुः दुरन्नादेस्तु भोजनम् ॥१४॥ जातिभ्रंशकरं प्राहुस्तथा दुर्मरणादिकम् । प्रकीर्णकमिति प्रोक्तं पापानि नवधा क्रमात् ॥१।। महतां पातकानान्तु प्रायश्चित्तं कली युगे। द्वययुतैरेव गोदानैर्मत्या विप्रवधे कृते ॥१६॥ अमत्यायुतगोदाननिष्कृतिः परिकीर्तिता। सुरापानं द्विजः कृत्वा ब्रह्महत्याव्रतं चरेत् ॥१७॥
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२७७२
नारायणस्मृतिः म्वर्णस्तेयेऽपि तद्वत्स्यान्मातृगन्तुस्तथैव च । अभ्यासे द्विगुणादीनि कल्पनीयानि सत्तम ॥१८॥ गोवधे च कृते विप्रैरमत्या तु पराककम् । मत्या चान्द्रायणं कायं नान्यथा मुच्यते त्वघात् ॥१६॥ तिलविक्रयणे चान्द्र तप्त तण्डुलविक्रये। निक्षेपहरणे विप्रश्चान्द्रायणमथाचरेत ॥२०॥ चण्डालीगमने विप्रम्त्वज्ञानान्मासमात्रतः। सेतुम्नानं ततः कृत्वा शुद्धिमाप्नोत्यसंशयः ॥२१॥ मत्या द्विमासमभ्यासे वत्सरं सेतुमज्जनम् । व्यतिपातादिदुष्टान्नभोजने न कृते यदि ।।२२।। प्राजापत्यद्वयं कृत्वा शुद्धिमाप्नोत्यसंशयः। विधु दग्न्यादिभिर्विप्रो मत्या प्राणवियुज्यते ॥२३॥ तत्पापस्य विशुद्धयर्थं तत्पुत्रादियथाविधि । मत्या त्वशीतिकृच्छ्राणि कृत्वा संस्कारमाचरेत् ॥२४॥ अमत्या दशकृच्छ्राणीत्येवमाहुमहर्षयः । तुलाप्रतिग्रहे लक्षगायत्रीजपमाचरेत् ॥२॥ हिरण्यगर्भग्रहणे त्वष्टलक्षं जपेद्बुधः । प्रतिग्रहे कल्पतरोरष्टलक्षजपं चरेत् ॥२६॥ गवां चैव सहस्र तु प्रतिगृह्य द्विजाधमः । नवलक्षं जपं देव्याः प्रातस्स्नात्वा समाचरेत् ॥२७॥ हिरण्यकामधेनुं तु प्रतिगृह्य द्विजाधमः । अष्टलक्षं जपेहे वीं तत्पापस्यापनुत्तये ॥२८॥
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प्रतिग्रहपापप्रायश्चित्तवर्णनम २७७३ हिरण्याश्वस्य च तथा ग्रहणे भूसुराधमः। अष्टलक्षजपं कृत्वा शुद्धिमाप्नोति पूर्वजः ॥२६॥ हिरण्याश्वरथं गृह्य वसुलक्षजपं चरेत् । हेमस्तम्बेरमं गृह्य वसुलक्षजपाच्छुचिः ॥३०॥ हेमहस्तिरथस्यैव ग्रहणे मुनिनन्दन । कूष्माण्डलक्षहोमेन शुद्धोभवति पूर्ववत् ॥३१॥ पञ्चलाङ्गलदानस्य ग्रहणे विप्रनन्दनः । दशलक्षजपाद्देव्याः सम्यगेव समाचरेत् ॥३२॥ प्रतिगृह्य धरादानं दशलक्षजपं चरेत् । विश्वचक्रस्य ग्रहणे तत्पापप्रशमाय च ॥३३॥ प्रयुतेनाभिषेकेण शम्भोश्शुद्धिमवाप्नुयात् । लतायाः कल्पसंज्ञायाः ग्रहणे विप्रनन्दन ॥३४॥ लक्षद्वादशवारं तु गायत्रीजपमाचरेत् । . सप्तसागरसंज्ञस्य दानस्यैव प्रतिग्रहे ॥३॥ देव्या द्वादशलक्षं तु जपं विप्रस्समाचरेत् । प्रतिग्रहे चर्मधेनोस्तत्पापम्य विशुद्धये ॥३६॥ देवीद्वादशलक्षं तु जपं विप्रम्समाचरेत् । महाभूतघटम्यैव ग्रहणे विप्रनन्दन ॥३७।। लक्षमात्रं जपे वीं तम्मापापात्प्रमुच्यते । एवमादिमहापापान्यनेकानि च सन्ति हि ॥३८॥ यो विप्रो धनलोभन प्रतिगृह्णाति कामतः । नरके नियतं वासः कल्पान्तं परिकीर्तितः ॥३।।
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२७७४
नारायणस्मृतिः वधपानापहरणगमनाद्यश्च विक्रयात् । । हरणाद्भोजनात्सङ्गात् ग्रहणात्सहसङ्गतः ॥४०॥ पापान्यनेकान्युच्यन्ते तत्र तत्र महर्षिभिः । निष्कृतिश्चापि कथिता द्रष्टव्यां विप्रनन्दन ॥४॥ वच्मि ते परमं गुह्य किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ इति श्रीनारायणस्मृतौ पापविवरणं नाम
प्रथमोऽध्यायः॥
अथ द्वितीयोऽध्यायः बुद्धिकृताभ्यासकृतपापानांप्रायश्चित्तवर्णनम्
नारायणउवाच। भगवन्मुनिनाथ त्वं मयि वात्सल्यगौरवात् । पुनवदस्व गुह्य मे शरणं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥१॥ मत्यामत्या तथा पापात् अत्यन्ताभ्यासतस्तथा। बहुकालाभ्यासतश्च यत्पापं मनुजैः कृतम् ॥२॥ तत्तत्कालानुगुण्येन प्रायश्चित्तं वदस्व मे॥
दुर्वासा उवाच । नारायण महायोगिन् प्रायश्चित्तं यदीरितम् । तदबुद्धिकृते पापे द्विगुणं बुद्धिपूर्वतः ॥३॥ अभ्यासे त्रिगुणं चैवमत्यन्ताभ्यासतस्तथा । चतुर्गुणं बहोः कालात् षडगुणं परिकीर्तितम् ॥ ४ ॥
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वर्षादूध्वपापापनुतयेप्रायश्चित्ताकरणे न निष्कृतिः २७७५ एतद्वर्षात्पुराज्ञेयं वर्षादूर्ध्व न निष्कृतिः ॥५॥ तस्मात्पापं न कर्तव्यं नरैनरकभीरुभिः। वर्षात्परं तु. सामान्यपापाभ्यासात्पतत्यसौ ॥६॥ तस्मात् त्रिवर्षपर्यन्तं द्विगुणत्रिगुणादिकम् । कल्पनीयं प्रयत्नेन प्रायश्चित्तं मनीषिभिः ॥७॥ ततः परन्तु तद्भावमधिगच्छत्यसंशयः। इति श्रीनारायणस्मृतौ प्रायश्चित्तवर्णनं नाम
द्वितीयोऽध्यायः।
अथ तृतीयोऽध्यायः नानाविधदुस्कृतिनिस्तारोपायवर्णनम्
नारायण उवाच। दुर्मीसभक्षणेनैव दुस्संसर्गविशेषतः । दुष्कृत्यशतसाहस्रात् दुराचारसहस्रतः ॥१॥ अत्यन्तमलिने काये बहुकालं गतेऽपि च । नानाबन्धुविनिन्दाभिस्त्यागादात्मजनैरपि ॥२॥ परैरपि च संत्यागात् धनहान्या विशेषतः। अतिनिदमापन्नः काले बहुदिने गते ॥३॥ प्रपन्नश्शरणं कश्चित् कथं निष्कृतिरीरिता।
दुर्वासा उवाच । वास्तवाद्वाऽवास्तवाद्वा यः पुमान् शरणं व्रजेत् ॥४॥
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२७७६
नारायणस्मृतिः तं त्यजेच्छक्तिमान्सोऽयमाब्रह्म नरके वसेत् । शरणागतसंत्राणमवश्यं कार्यमेव हि ॥५॥ यावतत्रिवर्ष पतितोऽप्यात्मभावं न मुञ्चति । अभ्यासस्यानुसारेण कल्प्यं निष्क्रयणं भवेत् ॥६॥ आत्मभावविहीनस्स्यादतः परमनातुरः। चतुर्थवर्षपर्यन्तं कथंचित्पूर्वनिष्कृतिः ॥७॥ ततः परं न कहिः कृतनिष्क्रयणोऽप्ययम् । तथाऽपि पापबाहुल्यात् नालं पूर्वोक्तनिष्कृतिः ॥ ८॥ द्वितीयाब्दं समारभ्य सप्तमाब्दावधि द्विजः । प्राजापत्यद्वयं तस्य नित्यं स्यादिनसंख्यया ॥६॥ सौदर्शिनी तु संस्थाप्य कलशद्विशतेन तु । कूष्माण्डशतहोमेन गणहोमशनेन च ॥१०॥ पाहित्रयोदशानां च होमानां शतसंख्यया । तथैव विरजाहोमशतेन जुहुयाच्छुचिः ॥११॥ भूगोगर्भविधानेन पटगर्भविधानतः ।। स्वयं पितावाथान्यो वा जातकर्मादि भावयेत् ॥१२।। प्राच्योदीच्यांगसहितं प्रायश्चित्तमिदं चरेत् । नान्यथा शुद्धिमाप्नोति यथा भुवि सुराघटः ॥१३॥ एवमेव नवाब्दान्तं प्रायश्चित्तविनिर्णयः । दशमाब्दं समारभ्य याविंशतिवर्षकम् ॥१४॥ अघमर्षणसाहस्ररब्लिङ्गशतमज्जनैः । सहस्रकलशस्नानैः गायत्र्या प्रणवेन च ॥१।।
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नानाप्रायश्चित्तवर्णनम्
२७७७ ततः पूर्वोक्तहोमैश्च प्राच्योदीच्याङ्गसंयुतां । पूर्ववन्निष्कृतिं कृत्वा पञ्चगव्यं विशेषतः ॥१६।। दशदानं भूरिदानं सहस्रब्रह्मभोजनम् ।। ततो गङ्गाजले स्नानं सेतुदर्शनमेव वा ॥१७॥ एवं कृते विशुद्धोऽभूत् पूर्ववद्विजनन्दनः । स्वकर्मपरकर्मा) भवेदेव न संशयः ॥१८॥ विशतेवर्षतः पश्चात् आत्तॊ वाऽनात एव वा। नात्यन्तमलिनस्याहुः प्राजापत्यं महर्षयः ॥१६॥ इति श्रीनारायणस्मृतौ नानाप्रायश्चित्तवर्णननाम
तृतीयोऽध्यायः।
अथ चतुर्थोऽध्यायः
नारायण उवाच । योगिनांवर मत्स्वामिन् सर्वज्ञ करुणानिधे । वदस्व तपतां श्रेष्ठ मयि वात्सल्यगौरवात् ॥१॥ विंशतिवर्षतः पश्चात् अतीवार्तस्समागतः । निष्कृतिन कथं तस्य स्यादित्येवं ब्रवीषि मे ॥२॥
दुर्वासा उवाच । कोपसंरक्तनयनः कुटिलभ्र लतायुतः । स्फुरदोष्ठद्वयोऽतीव विष्फुलिङ्गितलोचनः ॥३॥
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२७७८
नारायणस्मृतिः नारायणमिदं प्राहः वाचातिक रया भृशम् । किमरे मूढ दुष्टात्मन् उपर्युपरिपृच्छसि ॥४॥ परिहासो भवेत्किंवा न सहे कोपमुल्बणम् । पुनरेवं न प्रष्टव्यं यदि पृच्छंसि दुर्मते ॥५॥ मत्कोपजातकालाग्नौ मूर्द्धा ते व्यपतिष्यति । इति ब्रुवन्तं कोपेन दुर्वाससमनन्यधीः ॥६॥ उत्प्रवेपितसर्वाङ्गो भयविह्वललोचनः। पपात पादयोस्तस्य शस्त्रच्छिन्न इव द्रुमः ॥७॥ ततः करुणया दृष्ट्या दुर्वासास्तु महामुनिः। पाणिभ्यां तं समुद्धृत्य ममार्ज मुखमञ्जसा ॥८॥ ततो धैर्य समालम्ब्य नारायणमुनौ स्थिते । प्रीत्योवाच स तुष्टात्मा नारायणमहामुनिम् ॥६॥ तात वत्स न भेतव्यं प्रसन्नोऽस्मि तवानघ । कुटिलं पृच्छमानं त्वां मत्त्वा कोपो महानभूत् ॥१०॥ त्वदुक्तिं संपरिज्ञाय मम चित्तं सुनिर्मलम् । सञ्जातमिहनिश्शंकं पृच्छ मां यद्यदिच्छसि ॥११॥ इति श्रीनारायणस्मृतौ प्रायश्चित्तवर्णनं नाम
चतुर्थोऽध्यायः।
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अथ पञ्चमोऽध्यायः दुष्प्रतिग्रहादिप्रायश्चित्तवर्णनम्
नारायणः उवाच । भगवन्मुनिशार्दूल नमस्ते रुद्रमूर्तये । कालाग्निसहशप्रख्य कोपनाय नमोनमः ॥१॥ प्रसीद मे महर्षे त्वं पाहि मां शरणागतं । न कौटिल्यादहं पृच्छे नाहङ्कारान्महामुने ॥२॥ हिताय सर्वलोकानां पृष्टवानस्मि साम्प्रतम् । प्रसन्नो यदि वात्सल्यात् प्रष्टव्यं किंचिदस्ति मे ॥३॥ कोपो न स्याद्यदि पुनः मामनुज्ञापय प्रभो।
दुर्वासा उवाच । तात मां पितरं विद्धि गुरुमाचार्यमेव वा ॥४॥ मम कोपः प्रशमितः तव वास्तवदर्शनात् । अतस्त्वं भयमुत्सृज्य पृच्छ मां यद्यदिच्छसि ॥५॥
नारायण उवाच । पृच्छन्तं मामतीवात्तं उत्तरं दातुमर्हसि । सर्वपापप्रशमनं सर्वसिद्धिकरं नृणाम् ॥६॥ चिराभ्यस्तमहापापदूषितानां दुरात्मनाम् । दुर्देशगमनेनैव दुष्प्रतिग्रहकोटिभिः ॥७॥ म्लेच्छान्त्यश्वपचस्त्रीभिः संसर्गाचिरकालतः। अपेयमद्यपानाद्यर्दुष्टमांसादिभक्षणैः ॥८॥
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२७८०
नारायणस्मृतिः आर्तानां का गतिब्रह्मन् वदस्व करुणानिधे ।
दुर्वासाः उवाच । शृणुष्व सारः पृष्ठोऽद्य लोकानां हितकाम्यया ॥६॥ संग्रहेण प्रवक्ष्येऽद्य सावधानतया शृणु । युगेष्वपि च सर्वेषु सत्त्वराजसतामसाः ॥१०॥ नित्यं गुणाः प्रवर्द्धन्ते तत्प्रभावं वदामि ते । सत्त्वप्रवर्तका भूयः प्रवर्द्धन्ति(न्ते)कृते युगे ॥११॥ सात्त्विकानान्तु वक्ष्यामि गुणानां कृत्यमद्भुतम् । स्त्रीपुंसंयोगमात्रेण स्त्रियां गर्भः प्रजायते ॥१२॥ तस्मिन्निविशते जीवः कर्मपाशवशंगतः । तस्य प्रवेशकालस्तु सात्त्विको यदि वै भवेत् ॥१३॥ जातमात्रस्य तस्यैव सात्त्विकत्वं भवेद्ध्वम् । ततः कतिपये काले बुद्धिस्सत्त्वे प्रवर्त्तते ॥१४॥ सत्त्रप्रवर्त्तनात्सोऽयं सत्कृत्यमनुतिष्ठति । स्नानं सन्ध्या जपोहोमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम् ॥१२॥ अतिथ्याराधनादीनि प्रवृध्यन्ति (प्रवर्धन्ते) हि नित्यशः । नैव पापसमाचारे प्रवृत्तिस्यात्कदाचन ॥१६।। कालधर्म गते तस्मिन मुक्त श्वयं भवेद्ध वम् । तस्य प्रवेशकालस्तु राजसो यदि वै भवेत् ॥१७॥ रजोगुणपरीतात्मा जायते भुवि मानवः । पशुपुत्राद्यन्नकामः कामभोगसुखानि च ॥१८॥
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पापसमाचारस्यगतिवर्णनम् २७८१ भुक्त्त्वान्ते दिवमासाद्य स्वर्गादिसुखमेष्यति । सोऽयंकालो मिश्रसत्त्वराजसो यदि वै भवेत् ॥१६॥ सत्त्वराजससम्मिश्रो जायते भुवि मानवः । भोगासक्तः कचित्काले कचित्सात्त्विककृत्यवान् ।।२०।। अन्ते स्वर्गसुखं भुक्त्वा ब्रह्मणा सह मुच्यते । तस्य प्रवेशकालस्तु तामसो यदि वै भवेत् ॥२॥ तमसा मूढचित्तस्तु जायते भुवि मानवः । नित्यं कलहकारी च नित्यं द्रौहैकतत्परः ॥२२॥ परदारपरद्रव्यपरिग्रहपरायणः। . नित्यं पापसमाचारः परत्रेह न शर्मकृत ॥२३॥ देहान्ते नरकं भुक्त्वा जायते भुवि कुत्सितः। . कलिस्तु तामसाधारः प्रायेणात्र तु तामसाः ॥२४।। जनिष्यन्ति विशेषेण सत्त्वोद्रिक्ताः कचित्कचित् । सर्वशक्तिक्षयकरः कलिर्दोषनिधिस्ततः ॥२॥ तस्माद्ब्रतोपवासाद्य कलौ नैव समाचरेत् । प्रत्याम्नायादिरूपेण प्राजापत्यादिकं चरेन ॥२६॥ द्वितीयवर्षमारभ्य यावद्विंशतिवत्सरम।। महापापोपपापादि युक्तमत्त्वातॊ भवेद्यदि ॥२७|| पूर्वोक्तहोमसंयुक्तमघमर्पणमेव च।। सहस्रकलशस्नानमलिङ्गशतमजनम् ॥२८॥ पञ्चगव्यप्राशनं च सर्व कृत्वा विशुद्धयति । एवं यः कुमते सम्यक सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥२६।।
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नारायणस्मृतिः
२७८२
नारायण उवाच । सहस्रकलशानां तु स्थापनं कथमुच्यते । कथं मण्डलसंस्थानं विस्तरेण वदस्व मे ॥३०॥ - दुर्वासा उवाच । शृणु मे विस्तरेणेह नारायण महामुने। सहस्रकलशानां तु स्थापनस्य विधिक्रमम् ॥३१॥ यच्छ वासर्वतापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः। नद्यास्तीरे तटाकस्य तौरे वा सुमनोहरे ॥३२॥ शाला विशालां विधिवत् षट्त्रिंशत्पदसंमितां। षोडशस्तम्भसंयुक्तां प्रपां तत्र प्रकल्पयेत् ॥३३॥ कदलीस्तम्भपूगालिमिश्रितां सुमनोहराम् । कृत्वा ततो वितानाद्य स्तोरणाद्य श्वभूषयेत् ॥३४॥ चतुरश्रां मध्यदेशे दशपादयुतां भुवम् । वेदिका कल्पयेत्सम्यक चतुरङ्गुलमुन्नताम् ॥३॥ ईशान्यादि चतुर्दिक्षु तथैव परिकल्पयेत् । गोमयेन समालिप्य निनोन्नतविवर्जिताम् ॥३६॥ पञ्चम्यगणैरलंकृत्य व्रीहिभारैस्ततस्तरेत् । सुधूपितान् सूत्रवस्त्रवेष्टितान् सुमनोहरान् ॥३७॥ कलशान् द्विशतं सम्यक् कलशाक्षतशोभितान् । पञ्चत्वपल्लवैर्मिश्रान् नालिकेराम्लपल्लवैः ॥३८॥ सुकू.श्च शु. देशे स्थापयित्वाऽथ देशिकः।। पुण्याहवाचनं कृत्वा संप्रोक्ष्य कलशानथ ॥३॥
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सहस्रकलशस्थापनेपापादिदूरीकरणाथवर्णनम् २७८३ एकं कलशमादाय स्थापयेबीहिमध्यतः । परितश्चाष्टकलशान् विरलान् परिकल्पयेत् ॥४०॥ ततो विंशतिसङ्ख्याकान् द्वात्रिंशत्सङ्ख्यकांस्ततः। चत्वारिंशञ्च कलशान् चक्राकारान्यथाक्रमम् ॥४॥ ततः शिरःप्रदेशे तु प्राच्यादिचतुरोन्यसेत् । मध्ये त्वेकं तु संस्थाप्य पार्श्वयोरुभयोरपि ॥४२॥ कलशत्रितयं दक्षे वामे च कलशत्रयम् । चक्रस्य दक्षिणे पार्वे कलशानां तु पञ्चकम् ॥४३॥ विन्यस्य मध्यमे त्वेकं तथैकं शिरसि न्यसेत् । ततस्त्वधः प्रदेशे तु रेखाद्वयसमाकृतीन् ॥४४॥ कलशान्दश विन्यस्य तथैवोत्तरतश्चरेत् । चक्रस्याधः प्रदेशे तु स्थाप्यैकं कलशं ततः ॥४॥ परितः परिकल्प्याथ कलशान्षड्यथाक्रमम् । पार्श्वयोरुभयोस्तद्वत् प्रत्येकं कलशद्वयम् ॥४६॥ अधस्तात्कलशानां तु षट्कस्य त्रितयं तथा । अधस्तात्कलशद्वन्द्व स्थापयेद्विप्रसत्तमः ॥४७॥ एवं कृते भवेत्स्पष्टं साक्षाच्चक्राकृतिः क्रमात् । ईशान्यादिचतुर्दिक्षु कल्पयेदेवमेव हि ॥४॥ पञ्चचक्राकृतिरियं महापापप्रणाशिनी । उपपातकदोषनी अतिपातकवारिणी ॥४॥ दुर्देशगमने चैव दुःखीसङ्गमे(मके)षु च । समुद्रलचने चैव नौयानमवलम्ब्य च ॥५०॥
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૨૭૮૪
नारायणस्मृतिः । द्वीपान्तरगतौ चैव चण्डालस्त्रीनिषेवणे । । सन्ध्यादिकर्मणां चैव श्राद्धादीनां.च लोपने ॥५१।। ब्रह्मनादिसहावासे तुलुष्कादिसमागमे। । सर्वेषामपि पापानामियमेका हि निष्कृतिः ॥५२।। भक्त्या परमया युक्त इमां निष्कृतिमाचरेत् । पराकमप्यकुर्वाणः पञ्चविंशतिसङ्ख्यया ॥५३॥ तप्तत्रिशतपूर्व तु भूगर्भ प्रथमं चरेत् । . गोगर्भ वटगर्भ च सर्व साङ्ग समाचरेत् ॥४॥ ब्राह्मः पूर्ववच्छुद्धो जायते स्फटिकोपमः।
स्वकर्म परकर्मा) जायते तदनन्तरम् ॥५॥ इति श्रीनारायणस्मृतौ विशेषविधानंनाम पञ्चमोऽध्यायः ।
अथ षष्ठोऽध्यायः
नारायण उवाच । सहस्रकलशस्नानं कथं कायं महामुने ।
दुर्वासा उवाच । स्वर्णराजतताम्रांश्च मृण्मयान्वा विशेषतः ॥१॥ ससूत्रवस्त्रान् सच्छिद्रान सालङ्कारान्सुधूपितान् । सहस्रसङ्घथान् कलशान तण्डुलादिपरिष्कृते ॥२॥
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कलौवर्ण्यकर्मणां निषेधवणनम् २७८५ दिश्यैशान्यां तथाऽऽग्नय्यां निऋत्यां मरुतो दिशि । मध्ये च स्थापयेद्विप्रः कलशान् द्विशतं क्रमात् ॥३॥ शुद्धोदकैस्समापूर्य नालिकेराम्रपल्लवैः।। समलङ्कृत्य विधिवत् वरुणं च प्रचेतसम् ॥४॥ आवाह्यापी पतिं चैव सुरूपिणमथाह्वयेत् । नैवेद्यान्तैस्तमभ्यर्च्य ऋत्विग्भिस्सहदेशिकः ॥५॥ शन्नोदेवीस्त्वापो वा द्रुपदादिव इत्यपि। आपोहिष्ठाहिरण्याद्य मन्त्रैस्सम्मन्थ्य मन्त्रवित् ॥६॥ गायत्र्या प्रणवेनैव त्ववरोहणमार्गतः। सकू.ःश्च (१) स्थानं प्रोक्षणमेव वा। कारयेत् सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥७॥ इति श्रीनारायणस्मृतौ सहस्रकलशाभिषेको नाम
षष्ठोऽध्यायः।
अथ सप्तमोऽध्यायः
नारायण उवाच । कलौ तु कानि कर्माणि वानि परिचक्ष्व मे ।
दुर्वासा उवाच । शृणु नारायण ब्रह्मन् सावधानतयाऽद्य मे ॥१॥ कलौ तु पापबाहुल्यात् वर्जनीयानि मानवैः । विधवापुनरुद्वाही नौयात्रा तु समुद्रतः ॥२॥ १७५
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२७८६
नारायणस्मृतिः आतिश्य ( ? प्राशनस ) करणार्थ तु मधुपर्केपशोर्वधः । शूद्रान्नभोज्यता विप्रैः तीर्थसेवी च दूरतः ॥३॥ सर्ववर्णेषु भिक्षूणां भैक्षाचयं विधानतः । ब्राह्मणादिषु गेहेषु शूद्रस्य पचनक्रिया ॥४॥ भृग्वग्निपतनं चाष्टौ कर्माण्येतानि वर्जयेत् । अवर्जयित्वात्वेतानि शास्त्रोक्तमिति बुद्धितः ॥५॥ कलौ युगे विशेषेण पतितस्स्यान्न संशयः । कृतादौ तु महीपालो वेनो नाम नृपोत्तमः ॥६॥ शशास पृथिवीं सर्वी सकुलाद्रिमहार्णवाम् । दुरात्मा स तु कृत्येन ब्राह्मणानन्वशासत ॥७॥ यूयमद्यप्रभृति वै समुद्र यानमार्गतः । द्वीपाद्वीपान्तरं गत्वा कुरुध्वं सर्वविक्रयम् ॥ ८॥ विधवापुनरुद्वाहं यथेच्छं न विचारणा । पशुभक्षमातिथ्यव्याजेनाचरथ द्विजाः ॥६॥ गृहे पचन्तु युष्माकं शूद्राःश्राद्धोऽपि नित्यशः । तीर्थसेवाव्याजमात्रात् त्यजध्वं श्रौतकर्म च ॥१०॥ यतयस्सर्ववर्णेषु भिक्षां कुर्वन्तु कामतः । ब्राह्मणाश्शूद्रगेहेषु भुञ्जन्तु च यथेच्छया ॥११॥ कालासहिष्णवो वृद्धाः भृगुपातं चरन्तु भोः। . यो मच्छासनमत्युग्रमन्यथाकर्तुमिच्छति ॥१२॥ असिना तीक्ष्णधारेण वध्य एव न संशयः । इति वेन वचश्श्रुत्वा पर्यतप्यन्त पीडिताः ॥१३।।
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वेनसमीपे सानुरोधं ऋषीणां समावेदनवर्णनम् २७८७ शप्तो यदि भवेदेष राज्यं भूयादनायकम् । अशप्तश्चेद्भवेत्पीडा कथं कार्यमितः परम् ॥१४॥ इति चिन्त्य (?) महात्मानः सङ्घीभूय सभान्तरे । वेनं महीपतिं व युः विप्राः प्राणपरीप्सवः ॥११॥ भो भो वेन महीपाल किमर्थं नः प्रबाधसे । अशास्त्रीयानिमान् कृत्वाऽमहर्षिकथितान् प्रभो ॥१६।। निपातयसि नो घोरे निरये किं फलं तव । ऋषिभाषितमेवाद्य करिष्यामो महीपते ॥१७॥ नान्यत् किञ्चित् करिष्यामः प्राणैः कण्ठगतैरपि । एतच्छ्र त्वाऽथ भूपालो वैनः क्रोधपरिप्लुतः ॥१८॥ अष्टादशसहस्रं तु ऋषीनानाय्य सत्वरम् । स्तम्भेषु पङ्क्तिशो बद्ध्वा केशरभिहनत्स्वयं ॥१९॥ तेन संपीड्यमानास्ते घोषयांचक्रिरे नृपम् । भो भो राजन् महीपाल किमर्थं नः प्रवाधसे ॥२०॥
॥ वेनउवाच । अमनोरञ्जकान्यद्य शास्त्राणि ( रचितानि ) हि । रञ्जकान्येव सर्वेषु वध्वं तत्प्रियं मम ॥२॥ नानादेशेषु विप्राद्याः नौयानात्प्रचरन्तु भोः। विधवापुनरुद्वाहं चरन्तु पृथिवीतले ॥२२॥ प्रचरन्तु पशोहिं सां मधुपर्के द्विजातयः । शूद्रगेहेषु भुंजन्तु द्विजगेहे पचन्तु ते ॥२३॥
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२७८८
नारायणस्मृतिः भिक्षवस्सर्ववर्णेषु भैक्षाचयं चरन्तु च । दीर्घकालासहा वृद्धाश्चरन्तु भृगुपातनम् ॥२४॥ काममग्नीन् परित्यज्य तीर्थसेवां चरन्तु च । इत्याकर्ण्य च तद्वाक्यं वेपमाना महर्षयः ॥२॥ नौयात्राद्यत्वष्टकर्मानुजानन्ति दुःखिताः।। ततो विसृज्य भूपालो महर्षीनमितौजसः ॥२६॥ शशास पूर्ववत् पृथ्वी परिपूर्णमनोरथः। ततः प्रभृति विप्राद्याः नौयात्राद्यष्टकर्मणि ॥२७॥ प्रवृत्ता ऋषिवाक्येन धर्मबुद्धया च मोहिताः। युगत्रयेषु यातेषु ततः प्राप्ते कलौ युगे ॥२८॥ बदरीवनमासाद्य सङ्घीभूय महर्षयः । विचिन्त्य विधियोगेन कृत्यान्येतान्यवारयन् ॥२६॥ तस्मात् कलौ विमान् धर्मान् वानाहुमहर्षयः। कलौयुगे तु संप्राप्त नौयात्रादि करोति यः ॥३०॥ पतित्वा निरये घोरे दुःखमेति महत्तरम् । तस्मादिमान् कलौधर्मान् वानाहुमहर्षयः ॥३१॥ इमान् कृत्वा कलियुगे निष्कृतिर्न विधीयते । यदि निष्कृतिमापन्नः सेतुस्नानादिना कचित् ।।३२॥ तथाऽपि न परिग्राह्यः पापबाहुल्यकं यतः । किमन्यच्छ्रोतु कामोऽसि वदस्व द्विजनन्दन ॥३३।। इति श्रीनारायणस्मृतौ नौयात्राद्यष्टकर्मणांनिषेधोनाम
सप्तमोऽध्यायः।
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अथाष्टमोऽध्यायः अष्टनिषिद्धकर्मणां प्रायश्चित्तवर्णनम्
नारायण उवाच । भो भो ब्रह्मन् वदस्खाद्य विस्तरेण ममाधुना। अबुद्धथा बुद्धिपूर्व वा कलिवानिमान्द्विजः ॥१॥ कृत्वा ततः परंभूयः पश्चात्पापपरायणः। शरणं यदि संप्राप्तः कथं निष्कृतिरुच्यते ॥२॥ केनैव विधिना सन्यग् बन्धुमध्ये प्रवेशनम् । किं कृत्वा मुच्यते पापात् कथं कर्हिता भवेत् ॥३॥ एतदाचक्ष्व भगवन् संशयो जायते महान् ।
दुर्वासा उवाच । शृणु नारायण श्रीमन् गदतो मम विस्तरात् ॥४॥ गङ्गास्नानं वर्षमात्रं मासं सेतुनिमज्जनम् । साङ्गं च विधिवत्कृत्वा व्यवहार्यो भवेदिह ॥५॥ भवेत्स्वकर्ममात्रस्य भविता त्वहता द्विज । परकर्मणि नैवाहः भवेदेव न संशयः ॥६॥ तस्मादिमान कलियुगे वानष्टौ ब्रुवन्ति हि । असाध्यत्वात्कलौ काले द्रव्यव्ययविशेषतः ॥७॥ यदि सर्वस्वदानेन चित्तं चरितुमिच्छति । तदाऽसौ सर्वकर्माहों भवेदेव न संशयः ॥८॥
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२७६०
नारायणस्मृतिः तदद्य तव वक्ष्यामि रहस्यमिदमुत्तमम् । यदा प्रवृत्तरत्वेतस्मिन् तदिनं परिगण्य च ॥६॥ चान्द्रायणद्वयं नित्यं कर्तव्यमविशङ्कया । पूर्वोत्तराङ्गसंयुक्त अब्लिङ्गशतमन्त्रितम् ॥१०॥ सहस्रकलशस्नानं पञ्चवारुणहोमकम् । कूश्मा(म)ण्डगणहोमानां शतं पाहि त्रयोदशैः ॥११॥ शतं तु विरजाहोमं गायत्रीशतहोमकम् । तिलहोमसहस्र श्च गर्भ च वटभूगवाम् ॥१२॥ मज्जनं गोमयदे गोदानं द्वादशाचरेत् । दशदानं भूरिदानं सहस्रब्रह्मभोजनम् ॥१३॥ एवमादि यथाशास्त्रं धनव्ययमचिन्त्य तु । सन्तुष्टचित्तः कृत्वा (सततं)शुद्धिमाप्नोत्यसंशयः ॥१४॥
स्वकर्मपरकार्माहों भवेदेव न संशयः । इति श्रीनारायणस्मृतौ कलावष्टविधवर्ण्यकर्म प्रायश्चित्तवर्णनंनाम
अष्टमोऽध्यायः।
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अथ नवमोऽध्यायः धनहीनाय प्रायश्चित्तवर्णनम्
नारायण उवाच । भगवन् सर्वधर्मज्ञ शरणागतवत्सल । अकिञ्चनानामार्त्तानां कलिवयंकृतां नृणाम् ॥१॥ कथं निष्कृतिरादिष्टा वद मे शिष्यवत्सल ।
दुर्वासा उवाच। तात ते कथयाम्यद्य शृगु वात्सल्यगौरवात् ॥२॥ अत्यन्तात्र्तों यदि ब्रह्मन् अधनः कलिवर्ण्यकृत् । शरणं यदि संप्राप्तः प्रायश्चित्तमिदं वदेत् ॥३॥ सशिखं वपनं कृत्वा नित्यकर्मपरायणः। पुण्यतीर्थे हृदे वाऽपि पुष्करिण्यामथाऽपिवा ॥४॥ आकण्ठजलसम्मग्नः प्रामुखस्त्वघमर्षणम् । शिरस्यञ्जलिमाधाय जप्त्वा स्नानं समाचरेत् ॥५॥ पुनर्जप्त्वा पुनस्स्नात्वा पुनजपमथाचरेत् । एवं मध्याह्नपर्यन्तं प्राङमुस्वस्स्नानमाचरेत् ॥६॥ माध्याह्निकं ततः कृत्वा समाराध्येष्टदेवताम् । ततः प्रत्यङ्मुखो भूत्वा पूर्ववत्स्नानमाचरेत् ॥७॥ साया समनुप्राप्ते तटमुत्तीर्य वाग्यतः। न संमृजेच्छरीराणि वाससा वाऽपिपाणिना ॥८॥
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२७६२
नारायणस्मृतिः फलाष्टकप्रमाणेन तण्डुलेनहतिः पचेत् । गोमूत्रे विनिवेद्य व हरये परमात्मने ॥६॥ तदेव भुक्त्वा साया स्वपेद्वः दक्षिणाशिरः। एवं षण्मासकृद्विप्रः पूर्ववतच्छुद्धिमाप्नुयात् ॥१०॥ ततो गङ्गाजले स्नात्त्वा सेतुदर्शनमेव वा। कृत्वा ततः पुनः कर्म कृत्वा शुद्धिमवाप्नुयात् ॥११॥ स्वकर्मपरकर्माहों भवेदेव न संशयः। एवं सम्यक् समादिष्टं श्रुत्वा नारायणो मुनिः ॥१२॥ विच्छिन्नसंशयो भूत्वा परमानन्दनिर्भरः । मेरुपृष्ठमुपागम्य तपश्चर्तुं ययौ मुनिः ॥१३॥ इति श्रीनारायणस्मृतौ कलौवर्ण्यकर्मप्रायश्चित्तवर्णनंनाम
नवमोऽध्यायः।
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॥ श्रीगणेशाय नमः॥
* शाण्डिल्यस्मृति *
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अथ प्रथमोऽध्यायः श्रीमत्तोदगिरेर्मुनि श्रीमत्यायतने हरेः। शाण्डिल्यऋषिमासीनं प्रणम्य मुनयोऽब्रुवन् ॥१॥ श्रीमदेकायनं शास्त्रं श्रुतं गुह्य सनातनम् । ज्ञातं च सर्व वेदानां अन्तस्सारमिदंत्विति ॥२॥ निवृत्तं वैदिकं कर्म यत्प्रोक्तं भवभेषजम् । पक्षकालात्मकं ज्ञानं तच्च ब्रह्मकदैवतम् ॥३॥ कुटुम्बाश्रमनिष्ठानां पञ्चकालनिषेविणाम् । आचारं त्वन्मुखाम्भोजाच्छ्रोतुमिच्छामहे वयम् ॥४॥ शाण्डिल्योऽपि नमस्कृत्य मङ्गलायतनं हरिम् । अब्रवीत्समुनिश्रेष्ठान् श्रेष्ठकर्मा महामुनिः ॥५॥ बहुशः पूर्वमेवायं समाचारो मयेरितः। पदार्थानधिकृत्यैव शास्त्रे सप्त संस्थितान् ॥६॥ महाविस्तररूपोऽयमाचारः पञ्चकालिनाम् । संक्षेपात्प्रब्रवीम्यद्य यथाशास्त्रं यथामति ॥७॥
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२७६४
शाण्डिल्यस्मृतिः
रहस्यमेतद्विज्ञानं भक्तानां हितमेव च। अतः प्रमाणं भक्तानां सारं सर्वागमेषु च ॥ ८॥ कुटुम्वाश्रममाश्रित्य तथा कालक्रमेण च । वक्ष्याम्येव समाचारान् मुख्यास्ते हि कुटुम्बिनः ॥६॥ आचारं मंगलोपेतं संक्षेपात्प्रब्रवीमि वः। अनन्यमनसस्सर्वे शृणुध्वं मुनिपुङ्गवाः ॥१०॥ पञ्चेन्द्रियस्य देहस्य बुद्धश्च मनसस्तथा । द्रव्यदेशक्रियाणां च शुद्धिराचार इष्यते ॥१॥ वक्ष्यमाणस्य सूत्रं हि स्तोके श्लोकोऽयमीरितः। संक्षेपविस्तराभ्यां च व्याख्यानमिदमुच्यते ॥१२॥ प्रतिषिद्ध ध्वसक्त हि यत्सक्तं शुद्धषु साधुषु । भगवद्विषयेष्वेव शुद्ध तच्छ्रोत्रमुच्यते ॥१३॥ स्पृश्यमस्पृशन्त्येवास्पृश्यं स्पृश्यमेव च। तत्राप्यलोलुपा सद्भि स्त्वक्शुद्धोति निगद्यते ॥१४॥ पाषण्डपतिाद्यषु न पतन्ति कदाचन । अरूक्षा संपतंती दृक्शुद्धा भागवतादिषु ॥१॥ भोज्यानेव रसाबस्याञ्जात्यन्द्ध च पलारसे । काले मितं तु सा जिह्वा परिशुद्ध तिकीयते ॥१६॥ अमेध्य गन्धादाक्षिप्ता मेध्यगन्धेषु योजिता । युक्त वलोलुपानासा सेह शुद्धोति कीर्त्यते ॥१७॥ द्विविधा देहशुद्धिश्च कर्मेन्द्रियवशात्तथा । सर्वाङ्गीणा च तद्युग्मं विविध्याद्यानुमन्यते ॥१८॥
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द्विविधादेहशुद्धिवर्णनम्
२७६५ परापवादं पारुष्यं विवादमनृतं तथा । अतिबन्धप्रलापं च निजपूजानुवर्णनम् ॥१९॥ असह्य मर्मवचनं आक्षेपवचनं तथा । असच्छास्त्रानुपठनमसद्भिस्सह भाषणम् ॥२०॥ इत्यादि दुर्वचो हित्वा स्वाध्यायजपतत्पराः । मोक्षधर्मार्थपठने निरता प्रियवादिता ॥२१॥ सत्यैः परहितैस्सात्थैर्जप्तैर्लक्षणसङ्गतैः । युक्ताक्षरैस्सुपूता वाङ्मौनरत्नेन मुद्रिता ॥२२॥ केशकेटानुसरणा नखरोमावकृन्तनम् । तृणमृच्छेदनं वृक्षगुल्मानां छेदनं तथा ॥२३॥ स्त्रीबालवृद्धातुराणामन्येषां ताडनं धा। परदारपरद्रव्यपरामर्श त्वकामतः ॥२४॥ अङ्गुल्यास्फोटनं लीला पाणितालादि हेलनम् । तर्जनं चैवमादीनि बहिष्कार्या शुभानि वै ॥२॥ अभ्यञ्जनादिव्यापारे युक्तः पित्रोणुरोस्तथा। धारकः पुण्यशीलानां वृद्धानां रोगिणामपि ॥२६॥ अत्थिनामिष्टदानेन सर्वदाीकृताङ्गुलिः । मल्लिकाजातितुलसीवर्द्धनादवकुण्ठितः ॥२७॥ भगवन्मन्दिरे नित्यं मार्जनादिक्रियापरः । अलङ्कारादिकरणे कुशलश्च जगद्गुरोः ॥२८॥ भगवत्पादपूजायां चरन् तालवने तथा । प्रसक्तश्शुभशास्त्राणां संस्कारादिक्रियापरः ॥२६॥
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२७६६
शाण्डिल्यस्मृतिः जपसङ्खथानुगणनव्यापारेण पवित्रतः। युक्तस्तथा शुभैरन्यैश्शुद्धः पाणितलो मतः ॥३०॥ भगवन्मन्दिरं वृद्धान् पूज्यानन्यांश्च मङ्गलान् । प्रतिप्रसारणं मोहान् भूमिघातं पलायनम् ॥३१॥ सर्वोपकरणानां च सर्वेषां प्राणिनां तथा। स्पर्शनं लञ्चनं चापि तथान्या अपि दुष्क्रियाः ॥३२॥ विसृज्य भगवत्कर्म सिद्धयर्थ गमने रतम् । तथा भागवतस्यार्था सिद्धयर्थं च विशेषतः ॥३३॥ प्रदक्षिणक्रियासक्तः तीर्थयात्रापरं तथा । दर्शनार्थ तथा नित्यं कर्मवानुभवाय च ॥३४॥ दिव्यायतनयात्रायामभियुक्त मृदुक्रमम् । महाभागवतानां च करसंस्पर्शवर्जितम् ॥३॥ सद्भक्तानामनन्यानां पूजार्थ दर्शनाय च । सत्वरं चैवमादीनि कुर्वन् पादद्वयं शुभम् ॥३६॥ उच्चारं धंसनं कुर्वन् कालएव च नान्यथा। गुप्त च सर्वदा शुद्ध पायुस्थानं विदुर्बुधाः ॥३७॥ काले निजस्त्रीसंसर्गरसयोगानुवृत्तिमान् । अन्यदानुद्वणं गुप्तमुपस्थं शुद्धमूत्रितम् ॥३८॥ शिरःकण्ठाक्षिनासादिमलनिर्हरणेऽनया। शुद्धिहस्य सा सद्भिस्सर्वाङ्गीणेति कीर्त्यते ॥३६॥ धर्महानिर्न कर्त्तव्या कर्तव्यो धर्म सङ्ग्रहः । धर्माधर्मों हि सर्वेषां सुखदुःखोपपातको ॥४०॥
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ज्ञानकर्मभ्यां हरिरेवोपास्यइतिवर्णनम्
इदमेव तु सच्छास्त्रमयं धर्मः सनातनः । अन्यानि सर्वशास्त्राणि मोहनानि क्रियास्तथा ॥ ४१ ॥ भ्रमन्ति सर्वभूतानि न च गच्छन्ति सत्पथम् । तामसं राजसं चान्यमेतत्सात्त्विकमुच्यते ॥ ४२॥ इदं हेयमिदं हेयमुपादेयमिदं परम् । एवमुक्तं पुराणेषु वेदेषूपनिषत्स्वपि ॥४३॥ एवं साधुभिराचीर्णमेव मन्याप्यकारिभिः । साक्षाद्ब्रह्म परं धाम सर्वकारणमव्ययम् ॥४४॥ देवकीपुत्र एवान्ये सर्वे तत्कार्यकारिणः । देवा मनुष्याः पशवः मृगपक्षिसरीसृपाः ॥४५॥ सर्वमेतज्जगद्धातुर्वासुदेवस्य विस्तृतिः । प्रवृत्तैश्च निवृत्तैश्च स्वर्गदैर्मोक्षदैरपि ॥ ४६ ॥ आराध्यो भगवानेव वेदधर्मै स्सनातनैः । स एव सर्वथोपास्यो नान्ये संसारतारणाः ||४७|| उभाभ्यां ज्ञानकर्मभ्यां आराध्यो भगवान् प्रभुः । तज्ज्ञानमेव विज्ञानं तत्कर्म परमं शुभम् उभावपि विभक्तौ तौ न तु संप्राप्तिकारकौ । युक्ताभ्यां भगवत्प्राप्तिः संसारफलमन्यथा ॥४६॥ तच्छास्त्रमेव सच्छात्रं तदीया एव पण्डिताः । शोच्या हि भगवत्पादपरिचर्याविधि विना ॥५०॥ कृतकृत्यधियो मूढाः अहो हतमिदं जगत् । इत्यादिसात्त्विकज्ञाननिश्चयेन दृढीकृताः ॥५१॥
||४८||
२७६७
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२७६८
शाण्डिल्यस्मृतिः अभेद्या परमा बुद्धिश्शुद्धति परिकीर्त्यते । परदारपरद्रव्यपरहिंसानुचिन्तनम ॥२॥ वैरानुबन्धनं चैर्षमलभ्यत्थानुचिन्तनम् । सुदूरं बहुधायातं भोक्तव्यमितिचिन्तनम् ॥५३।। असत्कथानुसरणमसत्कार्यनिरूपणम् । इत्यादिदोषरूपाणि हित्वा कर्मणि निश्चलम् ॥५४॥ भगवत्कर्मसिद्धयर्थं व्यापृतं भगवत्परम् । अविषण्णमनायस्तमहङ्कारविवर्जितम् ॥५॥ असद्विषयसक्तानामिन्द्रियाणामहर्निशम् । दमकं सर्वयत्नेन बाह्यारंभं विनिस्पृहम् ॥५६॥ सर्वदा भगवद्ध्यानं संसर्गविगतज्वरम् । भगवद्भक्तसद्वाक्यगङ्गाजलपवित्रितम् ॥५७|| सदर्थग्राहकं सूक्ष्मज्ञानरूपविचारकम् ।। समर्थमप्रधृष्यं च धृष्ट तुष्टमसङ्गि च ॥८॥ एवमादिगुणोपेतं निर्मलं मन इष्यते । इन्द्रियाणां सदेहानां बुद्धश्चमनसस्तथा ॥५॥ आख्याता शुद्धिरेषाऽत्र द्रव्याणामधुनोच्यते । इच्छया देवदेवस्य प्रकृतिस्त्रिगुणात्मिका ॥६॥ जगत्करणभूतान्ता विद्यत्याहुर्मनीषिणः।। तद्विकारं जगत्सर्व सदेवासुरमानुषम् ॥६१।। तस्याः स्वरूपं सत्त्वं तत् तदोषावितरौ गुणौ । अतएव विकारोऽयमभवत् त्रिगुणात्मकः ॥६२।।
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सात्विकराजसतामसगुणानां वर्णनम्
विद्यायाः पञ्चभूतानि जायन्ते प्रकृतेः किल । पञ्चभूतान्यधिष्ठाय वर्ज (र्त) येच्छास्त्रवर्त्मना ॥ ६३॥ राजसं तामसं चैव तज्ज्ञेयं पण्डितैर्वरैः । द्रव्यं रजस्तमोध्वस्तं वैष्णवैः कर्मवर्त्मनि ॥६४॥ संयोजयति यो मोहात् तस्य साऽपि फलक्रियाः । स्वयं तदश्नीयात् निषिद्ध मुग्धचेतनः ॥६५॥ अजानन् हृदयान्तःस्थं भोक्तारं न स सात्त्विकः । यादृशं द्रव्यमश्नाति तामसं सात्त्विकं तु वा ॥ ६६ ॥ तादृशं रूपमाप्नोति ततः क्षमेति ( भवे) तथा । विशुद्ध भोज्यमुद्दिष्ट अचोष्यैव कर्म सः ॥६७॥ यद्यश्नाति स्वयं मोहात् साक्षात्स्तेनः स पापकृत् । निषिद्धवस्तुतद्रौद्र रक्षाप्रेतादिसम्मतम् ॥६८॥ साक्षाद्द्रव्यविशुद्ध ं यत् सात्त्विकं सद्गुणोज्ज्वलम् । निषिद्धवर्जनादेव वर्द्धते सात्त्विकं परम् ॥ ६६॥ सात्विकस्य विशुद्धचैव ज्ञानं भवति निर्मलम् | शास्त्रदृष्टिं समीक्ष्यैव शुद्धानां द्रव्यसम्पदम् ॥७०॥ यत्नस्तु सङ्ग्रहे सद्भिः द्रव्यशुद्धिरपीष्यते । वक्ष्यामि देशशुद्धिं च संक्षेपेण यथागमम् ॥७१॥ या सत्रा (ता) मुपकाराय भवेत्सद्गतिकाङ्क्षिणाम् । म्लेच्छपाषण्डरहितधार्मिकेश्वरपाठितम् ॥७२॥ धार्मिकैस्सेवितं शश्वद् व्याघ्रसिंहादि वर्जितम् । निहन्तृदस्युरहितं सारंग शिखि सेवितम् ॥७३॥
२७६६
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२८००
शाण्डिल्यस्मृतिः मोक्षभूमिरितिख्यातमलाभे साधुसम्मतम् । दिव्यापगा देवघातवाप्यादिविमलोदकम् ॥७४।। प्रभूतकदलीचूतनालिकेरादिमण्डितम् । सुसमृद्धसमित्काष्ठसम्पन्नकुसुमोदकम् ॥७॥ आसन्नधोजलं रूढपलाशतुलसीकुशम् । गोसहस्रसमाकीणं सपुष्पं सोत्पलाम्बुजम् ॥७६।। एवमादिगुणोपेतं भूतलं यदि लभ्यते । विविक्तदेशभूभागे दृष्टदोषविवर्जिते ॥७७|| प्रासादं पर्णशालां वा कृत्वा निजबलान्वितम् । अविस्मृतमनिर्बाधं परितोऽपि मनोहरम् ॥७॥ वत्राप्युच्छिष्टमूत्रासृक् केशकीटादिवर्जितम् । करीषमृजलालिप्ते काष्ठताम्रण चेतसः ॥७॥ संप्रीतिजनके स्थित्वा भूतले भगवत्क्रिया। कर्त्तव्यमिति यत्नेन या शुद्धिभूतिगोचरा ॥८० देहाशुद्धिरितिख्याता सेयं सच्छास्त्रवर्त्मनि । अनार्यजनसंरोधवीक्षणादितिवर्जितम् ॥८१।। श्रद्धातिरेकसंयुक्त दम्भलोभविवर्जितम् । आत्मार्थं त्यक्तसंसिद्धि रूपालोकन तत्परम् ।।८।। अचञ्चला विषण्णान्तः करणायत्प्रीति संयुतम् । संकल्पपूर्वकं ध्येयं पदाब्जन्यास योगि च ॥८३॥ द्रव्यमन्त्रे च मन्त्रेषु समाहितमहामति । गुप्तसंसाररहितं शुद्धमौनमवितथम् ॥४॥
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भगवत्पूजनविधिवर्णनम्
२८०१ पूर्वमन्त्राक्षरं मन्त्रन्तु लयरूपसमाप्ति च । रसाधु त्सृष्टविषये भोगमोक्षमहासुखम् ।।८।। एवमादिगुणोपेतं भक्तिज्ञानोज्ज्वलं कृतम् । इष्टमन्त्रेण द्रव्यं च परमं कर्म मङ्गलम् ।।८६।। देहेन्द्रियान्तःकरणबुद्धिभूम्यर्थसिद्धिकृत् । । अत्रोक्तलक्षणोपेतकर्मभागमतः परम् ।।८७।। सप्तसंशुद्धिसंयुक्ता परिपूर्णा भवेक्रिया । सप्तैते विमला भावा श्रद्धावान् प्रारभेत्क्रियाम् ।।८८।। आधानादतिशुद्धा भा संस्कारैः पञ्चकालिनाम् । कुर्याद् ब्राह्मण एवैतत् त्रैविद्यो वा विशुद्धधीः ॥८६॥ श्रद्धावान् भगवद्धर्म रागादिरहितेन्द्रियः । ब्राह्मणः पूजयेन्नित्यं पञ्चकालपरायणान् ।।१०।। वस्त्रगोभूमिदानेन धनधान्यादिभिस्तथा । तोपयेत्परया भक्त्या नित्यं भागवतान्नरान् ॥६॥ सिद्धिर्भवति वा नेति संशयोऽच्युतसेविनाम् । न संशयोऽत्र तद्भक्तपरिचर्यारतात्मनाम ॥१२॥ केवलं भगवत्पादसेवया विमलं मनः। नरायते यथा नित्यं सद्भक्तचरणाचनात् ॥६३।। विशिष्टकुलसंजातसंस्कारस्संस्कृतो निजैः । त्वदितो यदि सिद्धिर्म चरेत्कृच्छ्राणि दान्तधीः ।।६४|| तपश्चर्तुमशक्तश्चेद धनवान्दानमाचरेत् । उभयोरयशक्तस्सन् नामसंकीर्तनं चरेत् ॥६।।
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२८०२
शाण्डिल्यस्मृतिः यथाशक्ति तपः कृत्वा दत्त्वा चैव यथाबलम् । तथाऽहमास्थि(तो)ध्यात्वा जपेत्सर्वाघशान्तये ॥६६।। उपवासात्तथादानात् सद्भक्तानां च सेवनात् । सङ्कीर्तनाजपात्तापाच्छ्रद्धया शुद्धिमृच्छति ॥१७॥ उपासीत निरस्तोऽपि पञ्चकालपरायणान् । यदीच्छेद्भगवद्धर्म सेवया भवशान्तये ॥६८|| पूर्वोक्ताचारसम्पन्नं युवानं गृहमेधिनम् । उत्तमैवृद्धसख्यं च भवसेवाविवर्जितम् ॥६॥ प्रख्यातशुद्धचरितं सद्ब्रह्म कपरायणम् । भगवद्धर्मसंयुक्तमर्थसेन्देहनोदकम् ॥१०॥ प्रतिपादनसामर्थ्य युक्तवत्पुत्रपातिकम् । उदारं भक्तिविवशं वशीकृतजगजनम् ॥१०१।। हृद्यवाक्यं कृतज्ञच दयाकृतमानसम् । अशूशिष्यश्शूद्राणां ज्ञानदानेष्वनाहतम् ।।१०२।। अक्रोधनमनुसिक्तमतिषण्णं विपत्स्वपि । भगवद्भक्तियुक्तषु दृष्टमात्रेण सुप्रियम् ।।१०३।। साधूनामुपकाराय व्यापृतं क्लेशवर्जितम् । ज(अ)न्यून्तूि)नानन्तरक्ताङ्ग विषयग्राहकेन्द्रियम् ॥१०४।। सौम्यवेषप्रशान्तं च पापरोगविवर्जितम् ।। अदुर्बलाङ्गमाख्येयं अक्त हन्नातिमानिनम् ॥१०।। शिष्याणां समहादेव प्रतिष्ठापनकर्मणि । शान्तिके पौष्टिके भीतं गुरुशुश्रूषणे रतम् ।।१०६।।
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पराविद्याप्राप्त्यर्थमधिकारिगुरुशिष्यवर्णनम् २८०३ एवमादिगुणोपेतमाचार्य वरयेद्विजः । आचार्यचित्तानुगुणं सिद्धान्तानुगुणा प्रिया ॥१०७।। अन्यत्र शृणुयाज्ज्ञ यमनुज्ञाप्यैव जीवति । यस्मिन् परमविद्यायानघं सिद्धिरबोधतः ।।१०८।। गुरोर्वाऽप्यन्यतो ग्राह्या परा विद्या गुणान्वितान् । परिशुद्धकुलोद्भूतं विशुद्धाचारतत्परम् ।।१०।। विरतं च महापापात् पितृदारादिपालकम् । दान्तं शान्तं मृदु सौम्यं प्रणतं भगवत्परम् ॥११०॥ सन्तप्तहृदयं भत्तया शक्त्या सर्वार्थसाधकम् । विप्रवाक्यं महाबुद्धिं सत्यं कुशलपाणिकम् १११।। एवमादिगुणोपेतं शिष्यभावेन संगतम् । संवत्सरं तदद्धं वा मासत्रयमथापिवा ॥११२॥ परीक्ष्य विविधोपायैः कृपया निःस्पृहो भवेत् । ब्रह्मविद्याप्रदानस्य देवैरपि न शक्यते ॥११३।। प्रतिप्रदानमपि वा दद्यात् शक्तित आदरात् । न प्रमाद्य द् गुरोशिशष्यो वाङ्मनःकायकर्मभिः ॥११४।। अपि भक्त्यात्मनाचार्य वर्त्ततास्मिन्यथोच्यते । आक्रोशकं दुष्टभावं पिशुनं सत्त्वरक्रियम् ।।११।। स्वार्थकसाधकं लुब्धमलसं सर्वकर्मसु । विचारपरिवादाद्य बहुभापितमुद्धतम् ॥११६॥ परावमानिनं सर्वश्रेष्ठ वा परिवर्जयेत् । मूडैः पापरतैः करैः सदागमपराङ्मुखैः ।।११७।।
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२८०४
शाण्डिल्यस्मृतिः संबन्धं नाचरेद्भक्ति नश्यते तैस्तु सङ्गमे । भगवत्कथानिरतैस्स्तोत्रपूजाजपादिभिः ।।११।। अवतग्राहकैस्त्यक्तविवादाल्लाभवर्जितैः । सुशीलैस्नानशीलैश्च बाह्यान्तस्तुल्यवेष्टितैः ।।११।। हृद्यवेषैविशुद्धान्तै भगवद्गुणमेलनैः । सत्यवाग्भिर्दयासारै स्सदा संगं वसेबुधः ॥१२०।। ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा । कृपया श्रमिणस्सर्वे धर्म व युस्स्वराङ्गने ॥१२॥ गृहस्थो वाऽपि सर्वेभ्यो धर्म बयान्महामतिः । परिबाडपि वा ब्रूयात् सर्वश्रेष्ठो गृहाश्रमी ॥१२२।। इति श्री शाण्डिल्य धर्मशास्त्रे भगवत्पूजाविधिवर्णनं नाम
प्रथमोऽध्यायः ।।१।।
अथ द्वितीयोऽध्यायः अथ प्रातःकृत्यवर्णनम्
मृषय ऊचुः । स्नानं प्रधानं भक्तानां सम्यक् शुद्ध्युपपादकम् । श्रोतुकामा विधिं तस्य सहाभिगमनेन च ॥ १ ॥
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प्रातःकृत्यवर्णनम्
२८०५
मुनिरुवाच । सहाभिगमनेनैव प्रातःकालानुयायिना । वक्ष्यामि योगादूर्ध्व यत् कर्तव्यं स्नानपूर्वकम् ॥२॥ उच्चैस्स्वरेण योगान्ते स्तुत्वा स्तोत्रैरनन्यधीः । वासुदेवादिदिव्यानां नाम्नां संकीर्तनं चरेत् ॥३॥ प्रादुर्भावगुणं चापि संस्मरेत्त्सर्वसिद्धये । कीर्तयेत्तद्गुणान्भक्त्या परमाद्भुतवेष्टितान् ॥४॥ अतन्द्रितस्य स्वाध्याये योगे युक्तात्मनस्सदा । सद्भक्त्या स्विन्नदेहस्स्यावश्यं नाम(नु)कीर्तनम् ।।५।। आदाय वस्त्रदण्डादि गृहीत्वा च कमण्डलुम् । प्रवृत्तच्छन्नमूर्दा च कर्मारंभपरो व्रजेत् ॥ ६॥ ग्रामार्बहिर्विनिर्गत्य विसृजेत्सहचारिणः । अपरिग्रहदेशेषु कुर्यान्मलविसर्जनम् ।। ७॥ मेहने मैथुने स्नाने भोजने दन्तधावने । इज्यया सह होमे च जपेन्मौनं समाचरेत् ॥ ८ ॥ स्वदक्षिणश्रुतिन्यस्य ब्रह्मसूत्रस्समाहितः । न श्मशाने न कृष्टेषु न मार्गे न च भस्मनि ॥६॥ नोपरे न च सस्येषु न गुल्मेषु न च सैकते । न वृक्षमूले नामध्ये न कीटेषु न चत्वरे ॥१०॥ नोदकान्ते न गोवासे न हृद्य न गृहाङ्गणे । न देवालयपार्वेषु न नद्यां नाप्यसन्निधौ ॥११॥
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२८०
शाण्डिल्यस्मृतिः न वल्मीके न रन्ध्र षु न करीषे न चोपले । न देवतारिशिष्याग्निगुरुवृद्धाङ्गनामुखः ।।१२।। नगो गगनदिक्तारागृहामेध्यावलोककः। न जल्पन्नस्पृशन्मौनी नचानावृतमस्तकः ॥१३॥ चिरन्नोपविशन्नाति पीडयन्नार्द्ध वैशसम् । एकाकी मुक्तपवृक्षो यतसर्वेन्द्रियक्रियः ॥१४॥ मेहनादि क्रियां कुर्यान्नवाच्छादितनासिकः । उदङ्मुखो दिवानक्तं दक्षिणामुखसंस्थितः ।।१।। दिवेव सन्ध्ययोः कुर्यान्मेहनाद्य विचक्षणः । वल्मीककृष्णभूतोथकीटाशुद्धादियोगिनम् ।।१६।। वर्जयित्वा मृदाशौचं कुर्यादुद्धृतवारिणा | पञ्चधा लिङ्गशौचं स्यात् गुदशौचं त्रिवेष्टितम् ।।१७।। मनःप्रसादनं कुर्यात् शक्तुं मूत्रविलोपनम् । पादयोलिङ्गवच्छौचं हस्तयोस्तु चतुर्गुणम् ।।१८।। दन्तान्तुशोधयेत्प्रातः पलाशवटपिप्पलान् । विहाय स्वशुभैराम्रपूर्वै विधिवदत्वरः ॥१६॥ उत्पादयन्नरक्तं च न पश्यन्सर्वतो दिशम् । समुद्रगापगादेवखातवापीह्रदाश्रये ॥२०॥ स्नायाजलेन देवानां संसर्गपरिवजिते । सरसे सेविते सद्भिदृष्टिदोषविवर्जिते ॥२१|| विशुद्धतीरभूभागे स्नायाल्लघुनि वारिणि । अम्बु न क्षोभयेदङ्गः पादेनोत्सादयेन्न च ॥२२॥
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प्रातःकृत्यवर्णनम्
नाचरेत्प्लवनक्रीडां न गण्डूषं जले क्षिपेत् । अन्योऽन्यं नोक्षिपेत्तोयं न देहमलमुत्सृजेत् ||२३|| न कुत्सयेदम्बुतीर्थमन्यत्तत्र न कीर्त्तयेत् । शोधयित्वा धृताम्भोभिर्देहं तीरे पुनर्जलैः ||२४|| प्रक्षाल्य भूमिं कर्मार्थमवतारं च शोधयेत् । न स्नायात्सहशूद्रण न स्त्रीभिर्नच नास्तिकैः ॥२५॥ न पापण्डेर्न बालैश्च न रोगाशौचिभिर्नरैः । चण्डालं शास्त्रपतितं शास्त्रनिन्दापरायणम् ||२६|| परित्रस्तं च नष्टं च दूरतः परिवर्जयेत् । शरीरं निर्मलीकृत्य कर्मारम्भपुरस्सरम् ॥२७॥ शुद्धावगाहनं कृत्वा समाचामेद्यथाविधि । जान्वोरन्तः करौ कृत्वा प्राङ्मुखो वाऽप्युदङ्मुखः ॥२८॥ पाणि च संस्पृशन्नद्भिः प्रकृतिस्थाभिरेव च । आदाय विमलं तोयं ब्रह्मतीर्थेन वाग्यतः ॥२६॥ हृद्गतं तु चतुःप्राश्य न शब्दमवतारयन् । तत्कालमार्जनं कृत्वा पाणिपादाववेक्ष्य च ||३०|| अङ्गुष्ठानामिकाभ्यां तु चक्षुषी संस्पृशेत्ततः । तर्जन्यङ्गुष्ठयोगेन श्रौत्रे चैव समालभेत् ॥३१॥ सर्वाभिरङ्गुलीभिश्च बाहुमूले उपस्पृशेत् । हृदयं च मूद्धिं जलं स्पृष्ट्वान्तरान्तरा ||३२|| न तिष्ठन्नैकहस्तेन न शूद्रावर्जितेन च । शुद्धां मृदं समादाय जप्त्वा मन्त्रचतुष्टयम् ||३३||
२८०७
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२८०८
शाण्डिल्यस्मृतिः चतुर्धा विभजेत्तां तु वामपाणितलोदरे। चतुर्मन्त्रैः परामृश्य मुखबाहुकलेवरान् ॥३४॥ पदौ यथाक्रमं लिंपेत् चतुर्मन्त्रेण मन्त्रवित् । तत्रस्थं भावयेवं समय गराशिभिः ॥३५॥ आसनाद्य यथाशक्ति समभ्यर्च्य जगद्गुरुम् । ध्यात्वा गङ्गा हरेः पादात्पतमानां स्वमूर्धनि ।।३६।। पवित्राद्यन्तकाभिज्ञाः मन्त्रैरिसञ्चेत्करात्करात् । ध्यायन्देवं परं ब्रह्म यथाशक्ति निमज्य च ॥३७॥ चतुर्निमज्य विधिवद् आचम्यादाय वाससा । खण्डद्वयं शिरश्चाङ्ग प्रत्येकं परिमर्द येत् ।।३८।। अन्तराच्छाद्य कौपीनं वाससी परिधाय च । ध्यानमौनपरो मन्त्री सम्यगाचमनं चरेत् ।।३।। भोजनाद्यतयोमूत्रशौचान्तेयज्ञकर्मणि । द्विद्विराचमनं कार्य वाससा परिवर्तते ॥४०।। पुण्यक्षेत्रे समुद्भूतां मृदमादाय वैष्णवीम् । प्रणवाद्यव (श्व) मूलेन कर्मारम्भं पुनर्जपेत् ।।४।।
आहृत्याम्बु पवित्रेण कृत्वा सव्यकरोदरे । कर्मारम्भेण मन्त्रोण मृदमालोडयेद्वशी ॥४२।। ब्रह्मणा तत्समीकृत्य ध्यायेद्दवें सनातनम् । प्रदेशिन्या समादाय किञ्चिच्छिरसि धारयेत् ॥४३॥ ललाटबाहुहृदयेष्वार्जवेन प्रदीपवत् । कृत्वोर्ध्वपुण्डू नाम्नां च चतुर्नान्या समाचरेत् ।।४४।।
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प्रातःकृत्यवर्णनम्
२८०६ पाठयेद्वादशनाम्नां तत्तत्स्थानेषु यो द्विजः। भवेत्स्नानफलं तस्य मृदा तत्र दिने दिने ॥४॥ तत आचम्य विधिवदभिज्ञाभिश्च तर्पयेत् । नमोऽन्तः प्रणवाद्य श्च पितृणां केवलं स्वकैः ॥४६॥ चतुमंत्रण संप्रोक्ष्य पीत्वा तेनाभिमन्त्रितम् । जलमाचम्य मूलेन दद्यादऱ्या परात्मने ॥४७॥ मर्त्य खान्तपि वा स्नायादापधु द्धृत्य तन्मृदम् । ध्यात्वा क्षीरां नवं तच्च नित्यशिष्टनिषेविते ॥४८॥ कूप तोयैरपि स्नायात् सर्वालाभे समुद्धृतैः । स्नानन्तु न घटैः कार्य नासाच्छिद्रविवर्जितैः ॥४६॥ आरनालं न सेवेत कदाचिद्भगवत्परः । सुराकल्पं हि तज्ज्ञ यं तस्माद्यत्नेन वर्जयेत् ॥५०॥ सप्तमीदशमी(चैव)त्रयोदश्यष्टमीषु च । द्वितीयायां नवम्यां च स्नायान्नामलकोदकैः ॥५१॥ ग्राहादिसेविते रूक्षे नीचावाससमीपगे। श्मशानपावके ज्ञाते न स्नायान्नोपरोधतः ॥५२।। न भुक्त्वा नातुरो जीर्णो नान्यकामी न कामतः न निशायां तथैकाकी न चिरं तोयमध्यतः ॥५३।। अज्ञानाचरिते पापे दृष्ट्वा च शवसूत्रके । वमने च व्यवाये च दुःस्वप्ने स्नानमाचरेत् ॥५४॥ मुक्ता श्रू शोकाच्छ्र त्वा च न्यस्ताङ्ग पाञ्चकालिकम् । स्पृष्ट्वा विकारं वर्मस्थं स्नायाद्रोगिणमेव च ॥५५।।
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२८१०
शाण्डिल्यस्मृतिः उक्तांमर्मगतंवाक्यं त्वङ्काराद्यञ्जने गुरौ । विवादं च जपस्नाननमस्कारैः पुनःश्शुचिः ॥५६।। शिरो विवर्य न स्नायान्निमज्जेतामुना सह । न स्नानशाटी पाणिभ्याम्मदयेदपि वा शिरः ।।७।। न कुर्यादा वस्त्रेण कर्म भागवतं बुधः । न दक्षिणामुखो शुद्धः पैशाचं तदुदाहृतम् ।।८।। प्रक्षाल्याजानुचरणौ मृज्जलैः कूर्परावधि । हस्तौ विमृज्य वदनं विद्वानाचमनं चरेत् ॥५६।। सुप्त्वा क्षिप्त्वा च निष्ठीव्य स्पृष्ट्वा नासापुटादिकम् । पादोदरं च भक्ष्यांश्च संभक्ष्याचमनं चरेत् ॥६०।। स्नात्वा संप्रोक्ष्य पतितांश्चण्डालाद्यांश्च गर्हितान् । पाषण्डिनश्च स्वाचान्तः पवित्रं ध्यानवान् जपेत् ।।६।। पूजायां स्नानकाले च भोजने जपकर्मणि । अवैष्णवानां जन्तूनां दर्शनाद्य विवर्जयेत् ॥६२।। नित्यं तीर्थोदकस्नायी तर्पयंस्तत्र तज्जलैः । श्रद्धया भगवन्मन्त्रैः सिद्धस्स्यादचिराद्विजः।।६३।। कर्मारम्भेण मन्त्रेण सर्व कर्म समारभेत् । पवित्रीकरणञ्चापि पवित्रेणैव सर्वतः ॥६४।। अभिगच्छेच्च देवेशं सुस्नातस्सोर्ध्वपुण्डकः । सुप्रक्षालितपादश्च स्वाचान्तस्संयतेन्द्रियः ॥६५।। सन्ध्ययोरुभयोनित्यं यावदकर्मदर्शनम् । ध्यायेद् ब्रह्म जपेन्मौनी तत्राभिगमनक्रियाः ॥६६।।
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प्रातःकृत्यवर्णनम्
२८११ नैकवस्त्रो न खिन्नश्च न ऋद्धो मलिनोऽपि वा। नाक्षालिताद्धिर्नाभ्यक्तो नातुरो न वदन्बहु ॥६॥ न रक्तकृष्णमलिनं वासोऽपि परिधाय च । न च शून्यकच्छश्शास्त्री न यायाद्भगवद्गृहम् ॥६८।। प्रणम्य दण्डवद्भूमौ उत्थायोत्थाय तन्मनाः । स्वाध्यायवदनः कुदर्शद् अष्टाङ्गन नमस्क्रियाम् ॥६६॥ . नमस्कुर्वन् प्रतिदिशं वाग्यतो ध्यानतत्परः । असंसक्तकरैः कैश्चिन्मन्दं कुर्यात्प्रदक्षिणम् ॥७०।। द्विचतुष्षड् दशाष्टाद्यः कुर्यादेव प्रदक्षिणम् । देवस्य निकटे कायं सम्यग्जानुप्रदक्षिणम् ॥७॥ चक्रवर्द्रमयेन्नाङ्ग पृष्ठभागं न दर्शयेत् । सन्निधौ देवदेवस्य नचोच्चैः प्रलपेत्तथा ॥७२॥ निधाय दण्डवह हें प्रसार्य चरणौ करौ । बद्ध्वा मुकुलवत्पाणिं प्रणामो दण्डसंज्ञितः ॥७३।। पादौ शिरस्तथा हस्तौ निकुञ्च्य मुकुलाकृतिः । मनोबुद्धयभिमानश्च प्रणामोऽष्टाङ्गसंज्ञितः ।।७४।। मस्तकं संपुटं चैव प्रह्लादं च त्रयं बुधैः । कृतयोरन्ययोः कार्यमन्यथा विकलो भवेत् ।।७।। सर्वत्र दृष्ट्वा देवेशं जितं त इति मन्त्रकम् । द्वादशाणं जपेन्मन्त्रं भीतवत्पूर्वमानतः ॥७६।। मत्कृतानि च कर्माणि मदीयमहमप्युत । तथैव नममेतीष्टं नमो भगवतैरिह ॥७७।।
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२८१२
शाण्डिल्यस्मृतिः प्रदक्षिणानमस्कारं जपध्यानार्जनास्तुतिम् । मत्कर्मतद्गुणोद्घोषैविना नात्रान्यदाचरेत् ।।७।। पादप्रक्षालनं व्याविष्टरं चावकुण्ठनम् । न कुर्याद् भगवद् गेहे भासं कण्ठध्वनि तथा ॥७६।। भोजनं स्वापमुद्घोषं ताम्बूलं केशशोधनम् । छत्राद्य च तथान्यांश्च न कुर्यान्नुल्बणक्रियाः ।।८।। प्रदक्षिणे प्रणामे च पूजायां हस्ने तथा । न कण्ठगतवस्त्रस्स्यात् दर्शने गुरुदेवयोः ॥८१।। भगवन्मन्दिरे वृद्धान् पूज्यानपि विशेषतः । विना भागवतश्रेष्ठ प्रणामाद्यर्नचार्चयेत् ॥८२।। गुरो हे देवगृहे पु(प)ण्यवाट्यां गवां कुले । कृपणं चोल्वणं कर्म वर्जयेदपि संसदि ।।८३।। जप्त्वाभिगमनं मन्त्रां वर्जयित्वा यथाविधि । आसनाादिभिर्भोगर्भक्त्या परमपावनैः ॥८४।। अभिगम्य जगन्नाथं ध्यायन्नेव सनातनम् । जपेद्यथाबलं प्रातः सहस्रशतसङ्ख्यया ॥८५।। कनिष्ठादि समारभ्य दर्शपर्वभरात्परः । पद्माक्षैस्स्फाटिकैर्वाऽपि जपेदुक्तादिभिस्तदा ।।८६।। आचार्य देवभक्तं च भगवन्मन्दिरं जलम् । अग्निमर्क च सोमं च पृष्ठकृत्य जपेन्न च ।।८७।। आपीठान्मौलिपर्यन्तं पश्यतः पुरुषोत्तमम् । जपतः पातकान्याशु नश्यन्ति सफलाः क्रियाः ।।८।।
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प्रातःकृत्यवर्णनम्
२८१३ आभिमुख्यं जपादीनां प्रशस्तं सर्वकर्मणि । उदङ्मुखः प्राङ्मुखो वा कुर्याद्भागवतः क्रियाम् ॥८६॥ अग्नीश्च जुहुयात्प्रातः मेध्यैरेव समिद्गणैः । वैशेषिकं च जुहुयान्नित्यं वा पापशान्तये ||१०|| आमुहूर्तात्तु वै ब्राह्मादमृतं प्रहरात्सुधीः। स्नानार्चन जपस्तोत्रपाठः कालं विनोदयात् ।।६।। इति श्री शाण्डिल्यधर्मशास्त्रो प्रातःकृत्यवर्णनं नाम
द्वितीयोऽध्यायः ।
अथ तृतीयोऽध्यायः उपादानविधिवर्णनम्
ऋषय ऊचुः। उपादानविधि सम्यक् श्रोतुमिच्छामहे वयम् । योग्यायोग्यविभागेन भगवत्कर्मसिद्धये ॥१॥
मुनिरुवाच । उपादानविधिं वक्ष्ये योग्यायोग्यविभागशः । द्वितीयकालकर्त्तव्यं कर्म यन्मुनिपुङ्गवाः ॥२॥
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२८१४
शाण्डिल्यस्मृतिः वक्ष्यामि वस्समासेन कथम ज्ञानां शुद्धिमृच्छति । कर्मण्यमेवोपादाय वर्जयित्वा तथेतरत् ॥३॥ क्रियमाणानि कर्माणि सफलानि भवन्ति हि । स्वकीयारामजातानि वन्यान्यन्यानिवादरात् ॥४॥ पुष्पपत्रोदकादीनि प्रातरेव समाहरेत् । क्रयेण वा हरेत्सर्वमपक्वं योगसाधनम् ॥ ५॥ फलपुष्पाम्बुकाष्ठाद्य विक्रोणीयं न किञ्चन । विक्रीणान्ब्राह्मणो द्रव्यं क्रोणान्वामृद्धिकांक्षया ॥६॥ खिन्नवृत्तिर्विकर्मस्थस्सत्पथाश्वपते (श्च्यवते) पुनः। वार्छष्यमुपजीवन्ति ये द्विजा लोभमोहिताः ।। ७ ॥ अभोज्यान्नानपाङ्क्त याः क्रियास्तेषां च निष्फलाः । पुष्पपत्रफलादीनि शाकानि विविधानि च ॥ ८॥ स्वेषु स्वेषु च कालेषु श्रद्धया वर्धयेद् गृही। मण्ट (ण्ड)पानि सरम्याणि पद्मोत्पलवनानि च ॥४॥ क्रीडाथ देवकीसूनो श्रद्धां भक्त्त्या प्रकल्पयेत् । तुलसीवाटिका यत्र यत्र वा कमलालया ॥१०॥ पञ्चकालपरा यत्र तत्रासौ भगवान्हरिः । सर्वैरक्षतैनित्यं अश्य(१)र्यकुसुमदुमान् ॥११॥ तुलसीं चाहरेत्पत्रपुष्पाद्य वाग्यतश्शुचिः । स्वयं संवर्ध्य तुलसी द्वादशाक्षरचिन्तया ॥१२।। अर्घयन्ति जगन्नाथं श्वेतद्वीपं प्रयान्ति ये । दण्डप्रणाममपि वा कारयेत्पुष्पवाटिकाम् ।।१३।।
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भगवदुद्देश्यककर्मवर्णनम् २८१५ अथवा तुलसी पुन्नां कृतकृत्यस्सनातनः । अङ्कयेच्छङ्खचक्राभ्यां चूताद्यांश्चम्पकादिकान् ।।१४।। तुलसीवाटिकाः कुर्यात् शङ्खचक्राम्बुजाकृतिः । वृक्षगुल्मलतादीनां अच्युतारामजम्मनाम् ॥१।। कुर्यान्नामानि देवस्य देव्यालक्ष्म्यास्तथा हरेः । ईहमानश्चरेन्नित्यं कदाचिन्नालसो भवेत् ॥१६।। अयाचितं शिलोच्छस्तु शिष्यदत्तैः क्रमागतः । कुर्यात्कर्मविशुद्धेभ्यः पुत्रग्राह्यापिवाधनम् ॥१७|| कुलटाषण्डपतितवैरिभ्यः काकिणीमपि । उद्यतत्वे विगृह्णीयादापद्यपि कदाचन ॥१८॥ महापातकिनश्चोरादम्बष्ठरहितस्तथा । मृगयोः पिशुनाच्चैव नादद्यादुद्यतं त्वपि ।।१।। याचनेनाऽपि वर्तेत दैन्यं हित्वागमस्ततः । दानेन वा नित्यं प्रतिगेहातामतन्द्रितः ॥२०॥ आपद्यपि न याचेत ज्ञातिसम्बन्ध्यरीनपि । भिक्षार्थ न ब्रजेत्तेषां गेहं कुर्यान्नचाप्रियम् ।।२।। राज्ञा न प्रतिगृह्णीयात् उपपातकिनस्तथा । पुरोधा गणिकाध्यक्षकदर्येभ्योऽपि नाहरेत् ।।२२।। श्वित्रिणोहैतुकेभ्यश्च विकर्मस्तेभ्य एवच । स्त्रीजिताच्च तथान्नेयात् स्वस्तिवहिग्भ्य एवच ।।२३।। शास्त्रावमानिनश्चैव परद्रव्यापहारिणः । सांयात्रिकाद्विषद्भ्यश्च गणकेभ्यस्तथैव च ।।२४।।
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२८१६
शाण्डिल्यस्मृतिः दधिक्षीरघृतादीनां लवणस्य मधोस्तथा । विक्रयिभ्योऽपि नादद्यादश्वविक्रयिणस्तथा ।।२।। नाचरन्ति यथोक्त ये तेभ्योऽपि भृतकार्चकात् । बीजप्रहारिणश्चैव बलीवर्दस्य साक्षिणः ॥२६॥ अयथार्थस्य नादद्यादश्वानां दमकात्तथा । अभक्ताच्च त्रयी विद्यादुदक्यागमकात्तथा ।।२७।। कौसीदकास्तथाभोक्त : श्राद्धस्य सततं तथा। न ग्रामयाजकेभ्यश्च नागम्यागमनात्तथा ॥२८॥ वणिग्भिश्च तथा शूद्रादुत्सृष्टाग्नेस्तथा शठात् । अगारदाहकेभ्यश्च परिवित्तेभ्य एव च ॥२६॥ बिम्बप्रस्थापकाच्चैव तथा शिल्पोपजीविनः । परिहस्ताच्च नष्टाच्च शूद्रशिष्यात्तथैव च ॥३०|| श्वपाकेभ्यः श्ववृत्तिभ्यः प्राड्विवाकात्तथैव च । भगवन्तं तथा विप्रान् पञ्चकालपरायणान् ।।३।। भगवन्मन्दिरं चैव पुण्यतीर्थानि सर्वदा । द्विषदश्चैव नादयान्निक्षिप्तस्यापहारिणः ॥३२॥ प्रतिलोम्याच्च जातेभ्यस्तथा चानृतजीविनः । उद्यतं त्वपि नादद्यादन्यदेवावलम्बिनः ।।३३।। क्रमागर्धनैर्वाऽपि स्वक्षेत्रारामसंभवैः । भगवद्भक्तिपूतेभ्यो विप्रेभ्यो याचितैस्तु वा ॥३४॥ आवासोपार्जितैर्वाऽपि कर्मकुर्यादतन्द्रितः । वन्यैर्वा पत्रपुष्पाद्यस्सर्वाभावे समर्चयेत् ।।३।।
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भक्तिलाभोऽपवर्गरसज्ञस्यैवेतिवर्णनम् २८१७ अलाभे सर्वभोगानां जलं प्रतिनिधिः स्मृतम् । अलब्धयान्यो विप्रेषु कषत्रयं वापि योऽर्चयेत् ॥३६।। विना मूर्द्धावसिक्तन्तु वैश्यं वाऽपि महापदि । अलब्धो याचनादेव तेषां वा वृत्तिमाश्रयेत् ॥३७॥ तिलं मांसं तथाऽन्नं च लवणं च तथाऽजिनम् । रक्तकृष्णादिकं वस्त्रं दधिक्षीरघृतादिकम् ।।३८।। साधनं चैव हिंसाया विषोल्वणकराणि च । । सुवर्ण चैव गां चैव विक्रीणन्नश्वमेव च ॥३।। श्रोत्रियाध्यापको भूत्वा वृत्तिं वा लभते द्विजः । स्त्रीबालवृद्धसंयुक्तः सर्वेभ्यो वा समाहरेत् ॥४०॥ भगवद्भक्तियुक्त भ्यो दद्यात्स्वस्तिकोभवेत् । उपादित्सुर्यथालाभं कर्मारम्भं प्रयोजयेत् ॥४॥ प्रतिग्रहाद्भवेदे(दो)षः चिरादेव (वि) नश्यति । भिक्षयित्वाऽपि वर्तेत स्वाश्रमानुगुणं तथा ॥४२॥ अपक्वं वाऽपि पक्कं वा सर्वश्रेष्ठा हि सा स्मृता । भिक्षित्वा(१)वर्तमानानां योगिनां सिद्धिकाक्षिणाम ।।४।। मदमात्सर्यमानाद्या दोषा गच्छन्ति संक्षयम् । यथा यथा हि खिन्नं स्यात् सांसारिकसुखोदये ॥४४॥ तथा तथा दृढं योगी निर्वाणपदमृच्छति । अपवर्गरसज्ञो हि सन्मना दुःखवर्जितः ।।४।। मोक्षधर्ममना नित्यं सुखं चरति मुक्तवत् । योगिनामवमानं च शरीरक्लेश एव च ॥४६॥
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२८१८
शाण्डिल्यस्मृतिः अर्थहानिश्च विज्ञानं वर्द्धयत्यग्निमाज्यवत् । यस्य सांसारिकं सौख्यं योगिनो नेह संभवेत् ॥४७॥ अनायासेन लभ्यं स्यात् तस्य तत्परमं पदम् । अविज्ञातमना नित्यं तापैरभिहतोऽपि सन् ॥४८॥ अक्लेशेन चरेत् तृप्तो विशुद्धद्रव्यतत्परः। अमार्गेण धनं लोभात् सम्पाद्य सुखमावसन् ॥४६।। न संसिद्धो भवेत्तस्मात् शुद्धद्रव्यपरोभवेत् । अकर्मण्यानि सिद्धानि यदि द्रव्याणि कामतः ॥५०॥ तेषां विनिमयेनैव शुद्धिस्त्यागेन वा भवेत् । अलाभे सर्वभोगानामुदकेनापि पूजितम् ॥५१॥ प्रयच्छत्यमलं लोकं भक्तिपूतान्तरात्मनाम् । जातया शुद्धवंशेषु भार्यया स्वानुकूलया ॥५२॥ सद्भक्तिपूतया नित्यं कारयेद् द्रव्यसाधनम् । शाकाम्बुभिर्वा न्यायात्तैर्भक्त्या संपूजयेद्धरिम् ।।३।। मन्त्री मन्त्रेश्वरश्शास्त्रं मन्त्रसिद्धिस्तथैव च । सिद्धान्तमक्षसूत्रं च गोप्यं धान्यं धनायुषी ॥५४।। अवमानमसामर्थ्य हृद्रोगं रोगमान्तरम् । अनर्थणमायासमकृत्यं न प्रकाशयेत् ॥५।। धान्यबन्धुविनाशेन नैर्धन्योपद्रवेण च। मूढः कृतावमानेन खिन्नस्यान्न कदाचन ॥५६।। प्रातस्नातोऽपि विधिवत् स्नानं माध्यन्दिनं चरेत् । शक्तश्चेदन्यथा रोगात् शाट्या सम्मार्जनं चरेत् ॥२७॥
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वाह्याभ्यन्तरशुद्धिवर्णनम् २८१६ शुद्धिं कुर्यात्सदा विद्वान् मलानामङ्गजन्मनाम् । कृत्तकेशनखश्मश्रु स्त्रीपक्षेषु हृषी (को ?) भवेत् ॥८॥ दिने दिने स्नानकाले कुर्यादभ्यञ्जनं गृही। अथवा शस्तकालेषु शक्तः कुर्यादिवैव तु ॥५६॥ विशुद्धदन्तवदनो निर्मलीकृतविग्रहः । शुद्धोदरः प्रसन्नात्मा यथालब्धैस्समर्चयेत् ॥६०॥ सतीनां योषितां देहो यागोपकरणं भवेत् । भर्त णां भगवद्भक्तदेहस्तद्वज्जगद्गुरोः ॥६॥ कर्मान्तरेष्वसंसक्तिफलकाङ्क्षाविवर्जनम् । भक्तिद्रवीकृतं चित्तं विरक्तिस्सर्ववस्तुषु ॥६२।। अभ्यासरसततं सर्वप्रकारैस्सक्रियाविधौ । आलस्यवर्जनं श्रद्धापरमं दम्भवर्जनम् ॥६३॥ अकार्पण्यमलोभश्च क्रोधमोहजयोभयम् । देहस्य सेन्द्रियस्यापि विशुद्धि व्यदेशयोः ॥६४|| अकाले वर्जनं निद्रामैथुनाशनकर्मणि । सर्वदा शास्त्रशिक्षा च शास्त्रदृष्टेषु कर्मसु ।।६।। पारवश्यप्रमागं च नित्यं शास्त्रो दृढंपरे। निषिद्धवर्जने यत्नस्संसिद्धान्ननिषेवणम् ।।६६।। मार्दवंहीर्दयाक्षान्तिरद्रोहस्सर्वजन्तुषु । एवमादिगुणाः पुंसां यदास्युस्सत्त्वसंभवाः ॥७॥ जातीर्यद्योगमात्मानं तदा भागवताविधौ । उत्सृज्य भगवत्कर्म बाह्यकर्मपरायणः ॥६॥
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२८२०
शाण्डिल्यस्मृतिः कुटुम्बसक्तो मूढात्मा राजसो नेह सम्मतः । रजसा तमसा वाऽपि यो यदा कलुषीकृतः ।।६।। अमेध्यद्रव्यवन्नाईस्सदाकर्मणि वैष्णवे । एवं सद्गुणसम्पन्ना महाभागवतप्रिया ॥७०।। कुटुम्बिन्यपि कर्त्तव्यं कर्म कुर्यादतन्द्रिता । उत्थाय पूर्व गृह्णीत सुस्नाता यतमानसा ||७१।। स्नुषादुहितपुत्राद्यान्यथाद्य शुचितां नयेत् । उर्ध्वपुण्ड्धराश्शुद्धा वस्त्राभरणभूषिताः ॥७२।। स्वाचान्तः प्रयतोदेवमभिगच्छेयुराहताः । त्रिसन्ध्यां कारयेद्वालान् प्रणामं देवपादयोः ।।७।। पुत्रः प्रेष्यस्तथा शिष्य इत्येवं विनिवेदयेत् । गृह्णीत प्रमुखास्सर्वा यजन्त्यः पुरुषोत्तमम् ।।७४।। बालक्रीडादिचरितैः कर्म कुर्युरतन्द्रिताः । पशुपुत्रादिकं सर्व गृहोपकरणानि च ॥७५।। अङ्कयेच्छङ्खचक्राभ्यां नाम कुर्याच्च वैष्णवम् । कारयित्वा सुवर्णन पञ्चायुधगणं हरेः ॥७६।। बनीयात्कण्ठदेशे नु बालानां सूतिकागृहे । न पुत्र ये दास्यन्ति शयनानि महीतले ॥७७।। स्थापयेत्क्षेत्रमध्येषु शिलां चक्रादिमुद्रिताम् । मुक्तामणिसुवर्णाद्यः कृत्वा चक्रादिभूषणम् ।।७८।। यथाहं विभृयुस्सर्वे पुमांसं स्त्रीजनोऽपि वा। वृद्धवालाङ्गनादीनां पूर्वाह्न भोजनं भवेत् ।।७।।
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भोजनस्याग्निदेवस्यसमर्पणवर्णनम् २८२१ यथाबलं समभ्यर्च्य साग्निं देवं ततोऽशनम् । घृतस्थाली विना सर्व जलक्षीरान्नसंश्रयम् ॥८०॥ कर्तव्यं दिवसं भाण्डमारुतातपतापितम् । कर्मण्यनघयुक्तषु पूर्वस्मिन्दिवसेऽनिशम् ।।८।। परस्मिन्दिवसे कुर्यात् पात्रेषु पचनादिकम् । गृहोपकरणं सर्व मुसलोलूखलादिकम् ।।८२॥ प्रक्षा(लये)जगन्नाथं यागोपकरणानि च । यागार्थ देवदेवस्य पाकाथं चाम्बुपावनम् ॥८३॥ स्थापयेत्पादहस्तादि शुद्धयर्थ च पृथक्पृथक् । वस्त्रेण बहुशश्शोध्य त्रिविधं चाम्बुपावनम् ।।८४।। इज्याङ्गमेवमेवाद्यसंस्कृतं क्षालयेत्पुनः । कर्मण्यं त्रिविधं वारि शुद्धभाजनसंभृतम् ॥८॥ कृच्छ्राद्य स्थापयेच्छीते निर्बाधे परिवर्जिते । अग्न्यगारं च संशोध्य यागोपकरणानि च ॥८६॥ उद्धृत्य भस्म सम्माय॑ वहिँ काष्ठस्समिन्धयेत् । करीषकबलं क्षिप्तौ कुसुमाद्य समर्चयेत् ॥८७।। श्रद्धयाच्छाद्य गृहिणी पुत्रवत्परिरक्षयेत्। शोषयेच्छुद्धभूभागे ब्रीहिमुद्गतिलादिकान् ।।८८।। पाकपश्वादिभूतानामप्राप्ये संवृताम्बरे। उपलिप्तौ शुचौ देशे शुद्ध शूदिसाधने ॥८६॥ ब्रीहिमुद्गादिकं सर्वमपहन्युः कुलाङ्गनाः। अस्पृशन्त्यो निजं देहमजल्पन्त्यस्तथा स्त्रियः॥६
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शाण्डिल्यस्मृतिः अवन्त्युप्रमापूर्युजीर्णवस्त्रनिमृज्य च । निर्मलीकृतकर्ताभं विशुद्धीकृत्य तण्डुलम् ।।६१॥ विकीर्य फलकापृष्ठे शर्कराद्यान् समाहरेत् । न पचेयु/हियवान् नावहन्युरतापितान् ॥१२॥ पचेयुर्वाऽपितानन्नं ए(ते)षां न हृदयंगमः । शस्त्रेण फलमूलानि निकृत्यालोक्य यत्नतः ॥१३॥ कृमिकण्टकदोषाणि निहरेद्वाग्यतो सति । यत्नेन सर्वशाकानां कृमिकीटादिवीक्षणम् ६४॥ विधायाहत्य बहुशः पुनः पुनरुदीक्षयेत् । सतण्डुलानि मुद्गानि शाकानि च फलानि च ।।६।। चतुः प्रक्ष्याल्य शुद्धाभिरद्भिश्च क्षालयेत्तथा। हव्यं मुद्गं च शाल्यन्नं शस्तं शाके तुलस्यपि ॥६६।। तण्डुलांभःकरणं तद्वद् अन्नस्रावणमेव च । संविभागात्पुरासर्वमुपयोगं नचाहति ॥६॥ अपर्युषिततप्तेषु तापितेष्वातपामिभिः । मृण्मयेषु च ताम्रषु पचेयुः क्षालितेषु च ॥६८|| मृण्मयेन नचेष्वेव शक्तश्चत्पाचयेद्धविः। . पक्षावं न कर्तव्या मृण्मये पचनक्रिया ॥६॥ भिन्नानि विकलाङ्गानि विकटानि तथैव च । शर्करास्थिसमेतानि भाण्डानि परिवर्जयेत् ।।१०।। पक्षाध्वं न संग्राह्य मुद्गसारं घृतं तिलम् । ताम्बूलं तण्डुलं चैव मासादूवं न संचयेत् ॥१०१।।
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पाके निषिद्धवृक्षाणामिन्धनदानेनिषेधः २८२३ अनावोदनपचने पाचयेदोदनादिकम् । वस्त्रं केशं हृषीकं वा स्पृष्ट्वा प्रक्षालयेकरौ ॥१०२।। नासोदकं नेत्रवारि स्वेदाम्बूनि तथैव च। न स्पृशेत् न च वस्रोण मार्जयेच्छोधयेद् बहिः ॥१०३।। नोपशाम्योपशाम्याग्निं न मन्दं नापि सत्त्वरम् । नावतार्यावतार्याधो नान्यबुद्धिः पचेदपि ॥१०४॥ तालमश्वत्थकाष्ठं च पलाशं बिल्वमेव च । मरीचकं मदनकं तैलमुन्मत्तकं तथा ॥१०॥ बाधकं च करञ्जञ्च करीषं व्याधिपातकम् । निम्ब तथा कपित्थं च पारिजातकमेव च ॥१०६॥ एरण्डमरुवं चैव कोविदारंबिभीतकम् । हरीतकं च शाल्मलिं च श्लेष्मातकमथापि च ॥१०७।। वर्जयेदिन्धनार्थ तु यच्चान्यत्कीटसंयुतम् । विषद्रुमाणि सर्वाणि कण्टकानि तथैव च ॥ १०८।। दुर्गन्धधूमयोनीति (नि) यत्नेन परिवर्जयेत् । व्यञ्जनानि च तानि शाकादीन्यपि पाचयेत् ॥१०॥ कदलीजातयस्सर्वा () चूतं च पनसद्वयम् । उर्वारुकं च बृहती कारवल्लीत्रयं तथा ॥११०।। कर्कन्धुक्षुद्रबृहती कूष्माण्डं तिन्त्रिणी तथा । नालिकेरं च सिंहीं च कार्कोटं वत्सरं तथा ।।११।। अलकं क्षुद्रकन्दं च महाकन्दं तथैव च । कन्दं पिन्धूयुतां चैव सूरणं तूलमेव च ॥११२॥
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२८२४
शाण्डिल्यस्मृतिः मरीचं शीरकं चैव निष्पावं राजमाषकम् । महामाषं सर्षपं च कृष्णमाष तथैव च ॥११३।। माषमुद्गं महामुद्गं मुरसी शाकिनी तथा। शटं शिगुकं चैव जीवन्त्यागस्त्य पथ्यवाक् ।।११४|| शृंगिबेरं कुलुत्यं च व्याघ्र सिंह तथैव च । शस्तान्यन्यानि दुशनि सुभृतं कारयेद्बुधः ।।११।। कोशातकमलाबुं च दूरतः परिवर्जयेत् । जीरकाद्यविमिश्राणि नालिकेरयुतानि च ॥११६।। समरीचानि कार्याणि व्यञ्जनानि रसैस्सह । पयोमिश्राणि शाकानि हिङ्ग्वमित्राणि साधयेत् ॥११७।। आसुरं स्याद्विदग्धं यदपक्वं रौद्रमेव च । दैवं शृगु तमेवातः कर्म शृगु च तहविः ।।११८ केशकीटादिभिर्दुष्ट विदग्धमशृतं तु वा । शाकौदनादिकं सवं सर्वथा परिवर्जयेत् ॥११६।। मुद्गान्नं च गुडान्नं च पायसान्नं विशेषतः । शक्तश्चेदानयेन्नित्यमपूपान्भक्ष्यमेव च ॥१२०।। पर्वणि अपयेदन्नं पायसं द्वादशीषु च । सर्वेषां पयसां शुद्धं गव्यं चेति निगद्यते ॥१२१।। अशुद्धस्तु दशाहानि प्रसूतायाश्च गोपयः । पलाण्डुलशुनामेव्यं खादयन्त्या पयस्तथा ॥१२२।। अनुनारहितायाश्च निक्षिप्तायाश्च गोः पयः । तथैवाधिकृतायाश्च लामं प्राप्त पयस्तथा ॥१२३।।
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निषिद्धपयोविवरणम्
२८२५ देशकालातिवृत्या च यस्या ऊधसि संस्थितम् । क्षीरं तस्यास्त्वकर्मण्यं विना वत्सं च दुह्यते ॥१२४|| विद्वौजामप्यकर्मण्यं प्रसलंते (१) निवृत्तितः । वृषस्यन्त्यास्तथा क्षीरं वाहार्थे या च कल्पिता ।।१२।। तं कर्मण्यमासां च वत्सो यत्यावमन्यते । रुद्रादिव्यपदे.शेन्यो याश्च गावस्तदङ्किताः ॥१२६।। पयस्तासामकर्मण्यं लीलं यत्सविरैरपि । कर्मण्यं पय आहृत्य पायसं कारयेद्धविः ॥१२७।। अपूपं च गुला(डा)न्नं च नन्दायां सगुणं हविः ।। वैशेषिकेषु कुर्वन्ति दिवसेषु विशेषवत् ।।१२८।। पाकं पायसपूर्वाणां सन्त्येषां च यथाबलम् । सङ्क्रान्तिर्जन्मनक्षत्रं श्रवणं द्वादशीव्रतम् ।।१२।। पर्वद्वयं समुद्दिष्ट सविशेषक्रियाविधौ । चन्द्रसूर्योपरागे च प्रादुर्भावदिनेषु च ॥१३०।। मासःषु महाहर्षे विशेषाराधनं हरेः । विदुदुनिमित्ते च दुःस्वप्ने संजातेऽपि महाभये ।।१३।। आगतेषु च भक्तषु कुर्याद्व शेषिकी क्रियाम् । द्रव्यहीना यदि भवेत् कर्म वैशेषिकं वृथा ॥१३२॥ निर्धनोऽपि यथाशक्ति कुर्याद्भुक्तषु विस्तृतम् । केवलेनोदनेनापि शाकान्नस्वशृतेन च ॥१३३।। नत्यं कर्म विधेयं वै भक्तानां शुद्धचेतसाम् । सुपक्षेषु च सर्वेषु परिमृज्याम्बुनाखिलम् ॥१३४।।
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२८२६
शाण्डिल्यस्मृतिः ऊर्ध्वपुण्डुरलङ्कृत्य नयेद्यागालयं हविः । पाकस्थानं गृहं सव विमृज्याभ्युक्ष्य वारिणा ॥१३५।। आच्छाद्य वस्त्रमन्यच्च समाचामेत्कुटुम्बिनी। प्रविश्य भगवद्गेहं दीपं प्रज्वाल्य गेहिनी ॥१३६।। काङ्क्षन्ति भर्तुरायानं तिष्ठेत्सपरिचारिका । जघन्यशायिनी नित्यं पूर्वोत्थानपरा तथा ॥१३७।। अन्तर्बहिश्च संशुद्धिः गृहकर्मसु सोधमा । मङ्गलाचारशीलाश्च भृत्यबन्धुजनप्रिया ॥१३८।। हृद्यवेषा सदाभतुरानुकूल्यप्रयोजना । यथालब्धेन संप्रीता कुशला पाककर्मणि ॥१३६।। र(म्य)वस्तुषु निस्स्नेहा काले मेध्यान्नभोजने । भगवद्भक्तियुक्ता च तथा भागवतप्रिया ॥१४०॥ मितरभाषिणी हासरोदनोद्घोषवर्जिता। गृहान्तरद्वारदेशस्थानासनविवर्जिता ॥१४॥ निद्रालस्यविवादासद्भाषणासत्यवर्जिता । निस्पृहा परकार्येषु स्थिरबुद्धिदृढव्रता ।।१४२॥ अलब्धानुद्व(ल्व)णा स्निग्धा सलज्जा मधुरस्वना । कुशला लोकयात्रासु दुष्टादुरक्रियापरा ॥१४३।। व्यये च मुक्तहस्ता च दोषश्रवणभीषिता । नास्तिवाक्येऽतिसंत्रस्ता संचारे छन्नविग्रहा ॥१४४॥ नचवक्त्र (१) च लाभा च वेश्यालावण्यनिस्पृहा । गुप्तवेषरहस्यार्थ कर्मभोज्यान्नभोजना ॥१४।।
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भोजनपरिवेषणेश्रेष्ठनारीलक्षणम् २८२७ एवमादिगुणोपेत (1) नारीणामुत्तमा सती । भनु कर्म स्वनुरूपास्याः (१) कृतकृत्यस्सचेतनः ॥१४६।। श्लाघयन्ती स्वसामयं भर्तृ निन्दापरायणा । असमक्षं समक्षं वा दुष्टां तां वर्जयेद्बुधः ॥१४७।। भतुर्धनं च लोभास्त्री क्लिश्यमानेऽपि भर्तरि । गोपयन्त्यर्थशीलां तां कुर्यात्कर्म बहिष्कृताम् ।।१४८।। निजोदरं पूरयन्ती भृत्यवर्ग तथाऽतिथिम् । न्यूनस्वस्राति स्त्री वा तथा पाकं विवर्जयेत् ।।१४।। श्वश्चां विवदमानायां स्नुषाया स्वेन वा सुतैः। वारयेत्तां प्रयत्नेन विना तां कर्म कारयेत् ॥१५०।। धर्महानिर्यथा न स्याद्यथा सज्जनगर्हणा। सर्व तथा समीक्षं (क्ष्यं) द्रागाचरेद् बुद्धिमान्नरः ॥१५१।। स्वाधीनां कारयेन्नारी सर्वकर्मसु नात्मवान् । सर्वकर्मानुसन्ध्यात् स्निग्धः किल तयावसन् ॥१५२।। स्त्रीकृतेषु न विश्वासः कर्तव्यः सत्क्रियापरैः । मायाचारेण निपुणा मोहयन्त्यविचक्षणान् ॥१५३।। अपराधो यदि भवेत् प्रमादान्निजयोषिताम् । मुखभङ्गस्मृतस्तासां दण्डस्सन्तप्तचेतसाम् ॥१५४।। न ताडयेन्नातिमात्रं पुण्येन कृशतां नयेत् । स्त्रियं भर्ता नचान्येषां दोषं तस्याः प्रकाशयेत् ।।१५।। , भोजनाच्छादनैः पुष्पभूषणाद्यनिजस्त्रियम् । आलापैरसरसैनित्यं तोषयेत्तां सयेन्न च ॥१५६।।
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२८२८
शाण्डिल्यस्मृतिः विलोभयन्सदापृष्टदृष्टार्थवचनैःस्त्रिया । . भगवत्कर्मसिद्धयर्थ नयेदात्मानुकूलताम् ॥१५७।। पुत्रान् भृत्यान् कलत्रं च भक्तमाश्रितमेव च । नित्यं कुर्यादुपायेन भगवद्भक्तिभावितान् ॥१५८।। अपुत्रा वा सपुत्रा वा भक्ता दक्षा च कर्मसु । या स्त्री तां वर्जयेद्भर्ता न कदाचिदपि प्रियाम् ॥१५६।। पुत्रार्थ नोद्वहेदन्यां कर्म पुत्रा हि योगिनः । अपुत्रोऽपि परं याति कामी नान्योऽपि सत्सुतः।।१६।। न स्त्रीजितो भवेद्भर्ता नचाशक्येषु (दाप)येत्।। भुक्तां न कथयेत्त्रीणां असक्तस्सक्तवद्वसेत् ।।१६१।। निर्भयास्सुहृदोलोको यथास्युस्सर्वजन्तवः । सिधाभीत (?) स्वकुलंतत्तथाचरेत् ।।१६२॥ यथाशास्त्रमुपादानमाचमेद्भोगनिस्पृहः । भगवद्धर्मलाभेन तृप्तो वस सुखी भवेत् ॥१६३।। इति शाण्डिल्यधर्मशास्त्रे उपादानाचरणं नाम
तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
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अथ चतुर्थोऽध्यायः
इज्याचारवर्णनम् उपादानप्रकारो यः सम्यगुक्तः समासतः । इज्याचारं च वक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ १॥ भोगानुपाज्ययागाधर्म विधिवत्स्नानमाचरेत् । प्रक्षाल्य पादौ स्वाचामेत् (नित्यंयः) स्वोर्ध्वपुड़कः ॥२॥ सप(वि)त्रकरञ्चैव प्रसन्नो यागमारभेत् । व्यक्त वेद्यामायतने व्योम्न्यन्तहृदयाम्बुजे ॥३॥ एकस्मिन्नेव देवेशं यथायोगं समर्चयेत् । युक्तमायतनं वाऽपि प्रथमं यत्समाश्रितम् ॥४॥ आदेहपातात्तद्वित्त्वा नान्यबिम्बं समाश्रयेत् । उपचारेषु भक्तस्सन् स एष इति निश्चितम् ॥ ५ ॥ व्यक्तायतनयोः पूजां कुर्याद्भक्तिविबृद्धये । वेद्यन्तरिक्षवन्मौढ्यावृत्तिस्थानं प्रपश्यति ॥६॥ व्यक्तायतनसंस्थानं नाहस्तत्रार्चनाविधौ । कर्मिणस्सर्वथा नित्यमस्वाधीनप्रवृत्तयः ॥७॥ इति उग्रहयोगेन वेदिर्वेदप्रचोदिता । लब्धं गुरोः प्रसादेन क्रमागतमथाऽपि वा ।। ८ ।। उद्यतं याचितं वास्यान् निम्नं गौणमतोऽन्यथा । भक्तानां सर्वविषयव्यावृत्तदृढचेतसाम् ।। ६ ।!
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२८३०
शाण्डिल्यस्मृतिः सर्वेषामादिपूर्तिस्तु मङ्गलं वेदवादिनाम् । कुटुम्बी वर्जयेद् बिम्बं दावं शैवं च मृण्मयं ॥१०॥ गृहेषु भित्तिसंस्थं च योगनिद्रारसोत्सुकम् । कुटुम्बाश्रमनिष्ठस्य नित्यं स्वाधीनकर्मणः ॥११।। अच्छिद्रकारिणश्शान्तं व्यक्त ऋद्धयस्य पूजनम् । चरतः कर्मणो यत्र वेदिः कर्तुं न शक्यते ।।१२।। अम्बुपायास्तथा भोगा स्तत्रेष्ट व्योम्नि पूजनम् । विवेकसिद्धा ये सन्तः पक्वयोगा गुणातिगाः ॥१३॥ केवलज्ञानसन्तृप्तास्ते यजेयुः परं हृदि । अन्येऽपि सर्वभोगानामभावे यत्र जायते ॥१४॥ यजेयुह दयाम्भोजे भोगैर्मानसकल्पितैः । सिद्धये तु महात्मानो विवेकज्ञानयोगिनः ॥१५॥ वर्जयित्वा कृतानन्ये यजेयुर्द्रव्यसंपदा । सर्वभूतेषु देवेषु नरः प्रकृतो (...?) तथा ॥१६॥ मनुष्याकृतिदेवेषु न कायं पूजनं बुधैः । (केचिद्) धनामुखाः केचित् दमनप्रतिशक्तयः ॥१७॥ मनुष्याकृतयो देवा नोपास्यास्ते कदाचन । प्रादुर्भावादिभिर्देवैः मत्स्यः कूर्मादिभिविना ।।१८।। अशुद्ध वर्चयन्मूढो नाप्नोति परमं पदम् । तिर्यक्त्वं मानुषत्वं वा मत्स्याद्य स्वेच्छया हरिः।।१६।। यथास्थितस्सएवासौ दीपादीप इवोदितः। व्यक्तायतनयो नित्यमर्चयेत्पुरुषोत्तमम् ॥२०॥
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भगवद्भक्तिविषयकनियमवर्णनम् २८३१ सावधानो भवेद्भक्त्या भृत्यो नृपमिवान्तिके। .. अन्यत्राप्यर्चयन्मन्त्री पूजाकाले जनार्दनम् ।।२१।। तत्रस्थं भावयेवं सर्वैश्वर्यसमन्वितम् । परीक्ष्य भोगानादाय तीर्थ्योऽप्यमृतरूपताम् ॥२२॥ प्रबाङ्गो भीतवद्भोगैस्तन्मयैस्तन्मयोचितैः । तत्राभिगमने पूर्व दिव्यमन्त्रार्थदर्शनात् ॥२३॥ साक्षादभिमुखं देवं भावयित्वाऽर्चयेद्वशी। भगवद्वदनाम्भोजस्यन्दमानामृतोदधिः ॥२४॥ पिबन्निवमहालादमध्यस्थः पूजयेत्प्रभुम् । भक्तसन्दर्शनप्रीत्या नानाभूतैरिवावृतः ॥२॥ नेत्रपातैर्भगवता स्वात्मानं शुचितां नयेत् । नातिपूतं नातिमन्दं नोच्चमन्त्रानुदीरयेत् ॥२६।। अत्वरः सुमनाः क्रोधकामं हित्वा यजेत च । न शब्दयन्स्वात्मसङ्घमम्धुनाना यन्महीम् ॥२७॥ नन्तु कु (?) अजल्पंश्च शुद्धमौनो भवेद्वशी । सम्पूज्याङ्ग रुपाङ्गश्च बद्धोष्ठं नासिकाक्षरैः ॥२८॥ अव्यक्तरप्यशुद्ध तन्मौनवद्वर्जनं शुभम् । यथा युवानं राजानं यदाचं मदहस्तिनम् ॥२६।। यथाप्रियातिथिं योग्यं भगवन्तं तथार्चयेत् । सम्यक्साधितमेवापि यत्स्यान्न हृदयंगमम् ॥३०॥ वर्जयेद् दृष्टदुष्टं च हस्तात्स्खलितमेवच । पुराभिगमनं मन्त्रैः प्रणवाद्य यथाविधि ॥३१॥
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२८३२
शाण्डिल्यस्मृतिः अभिगम्यैव देवेशं मानसाद्य समर्चयेत् । अष्टधा विहितैर्मन्त्रैश्चातुराश्च पदस्थितैः ॥३२॥ भगवत्प्रापकैश्शुद्धौरिज्यामन्यैस्समर्चयेत् । स्नानभौगैस्समभ्यर्च्य दिव्यालङ्कारादिण्डितम् ।।३३।। अलङ्कारासनं दत्त्वा दिव्यैस्त्रक्चन्दनादिभिः । भोगैस्सुसंस्कृतैर्देवमर्चितं भावयेत्परम् ॥३४॥ सतीवप्रियभर्तारं जननीव स्तनन्धयम् । आचार्य शिष्यवन्मित्रं मित्रवल्लालयेद्धरिम् ।।३।। स्वामित्त्वेन सुहृत्त्वेन गुरुत्वेन च सर्वदा । पितृत्वेन समाभाव्यो मातृभावेन माधवः ॥३६।। सुस्नातं स्वनुलिप्तं च स्रग्विणं च खलङ्कृतम् । संस्तुतं विविधैरस्तोगर्भोज्यासनगतं प्रभुम् ॥३७|| अवश्यं मधुपर्केण मध्वाज्यदधियोगिना । अर्चयेदुदकेनाऽपि त्वातिथ्येन फलादिभिः ॥३८॥ मध्याज्यं दधि संयोज्य यजते यो जनार्दनम् । अयं संसृज्यते तेन श्रीमता मधुपर्कवत् ॥३६।। मधुराणां तु सम्पर्को मधुपर्कः प्रकीर्तितः । सम्पर्कसरसस्तेन मधुपर्केण जायते ॥४०|| संपूज्य मधुपर्कण गां निवेद्य च दक्षिणाम् । गवार्थ द्रव्यमेवापि ततोऽग्नी च समर्पयेत् ।।४।। शाककन्दफलोपेतै गुड्दव्याज्यसंयुतैः । अन्नैः प्रभूतैर्दवेशं विविधैः पृथगर्चयेत् ॥४२॥
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भागवतानां पूजा
२८३३ मधुपर्कस्तथान्नाद्य यद्भुक्तं परमेष्टिनम् । प्राणवद्रक्षणीयं तद्विनियोगावसानिकम् ।।४।। प्राप्तान भावगतांस्तत्र गुरुपूर्व यथाविधि । अर्चयेत्परया भक्त्या द्रव्यैरादिभिश्शुभैः ॥४४॥ वासोभिभूषणैभक्ष्य धनधान्यादिभिस्तथा । श्रद्धया व(मूर्ति)तिमभ्यय॑ दद्यातो देवसन्निधौ ।।४।। इज्यामध्ये तथा होमे योगे च जपकर्मणि । आगतं पञ्चकालज्ञ संपूज्यवाचरेत्परम् ।।४६।। सुवर्ण गां गुणवती भूमि वृत्तिकरीमपि दद्याद्भागवताग्रेभ्यो भोगमोक्षार्थये सुधीः ।।४७|| उदकुम्भैः पवित्रान्तैः फलमूलादिभिस्तिलैः । गन्धाद्यरुपयोगार्हस्तोपयेत्सात्त्वतोत्तमान् ।।४।। प्रियंवदात्मनो नित्यं यत्ख्यातं सद्गुणोज्ज्वलम् । तन्निवेद्य जगद्धात्र दद्यात्सत्कर्म योगिने ॥४६।। यस्मिन कुम्भे प्रियं यत्स्यादम्बुवस्त्रोदनादिकम् । तस्मिन्काले प्रदातव्यं तेनेष्ट्वा पुरुपोत्तमम् ॥५०।। विशिष्ट वस्तु संपाद्य हृद्य पुप्पोदनादिकम् । अनिष्ट्वा तददत्त्वा च समश्मन्नरसूकरः ।।५।। अन्नं सुसंस्कृतं हृद्य भगवद्राह्मणाग्निभिः । भृत्यवगैस्तथा भुक्तं भॊज्यं विपमतोऽन्यथा ।।२।। रत्नौघमपि वा स्तोयं प्रभूतं स्वल्पमेव था। भगवत्प्रीतये नित्यं दद्याच्छुद्धाय योगिने ।।३।। १७८
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२८३४
शाण्डिल्यस्मृतिः ये तोषयन्ति निरतं पञ्चकालपरायणान् । के सकामास्तत्फलं यान्ति निष्कामाः परमं पदम् ।।४।। गृहे भागवते प्राप्ते तदिष्टमुपलक्ष्य च । अञ्जसा तत्प्रियं कार्य यथार्ह श्रमनुत्तये ॥५५।। आसनरर्यपाद्याद्ययंजनरुचितोक्तिभिः । पादसंवाहनाभ्यङ्गरतिथिः पूजयेत्प्रियम् ।।५६।। प्रहृथ्वदनं दत्वा वाक्यं प्रियमथासनम् । प्रदेयमञ्जसा नित्यं संप्राप्ते भगवत्परे ।।५७|| पूज्या नित्यं भगवतस्सन्निधाने विशेषतः । अनन्याः पञ्चकालज्ञा न कदाचिदथेतरे ।।५८।। अन्नमम्यूनिवस्त्राणि पात्राणि स्रफलादिकम् । इष्टमिष्टावशिष्टं वा दद्यान्ना पञ्चकालिने ।।५।। सर्वपापप्रशमनं सर्वदुःखनिवारणम् । भगवद्भुक्तमन्नाद्यमयोग्येभ्यो न योजयेत् ॥६०।। अयोग्ययोजनादेव योग्ये चाप्यनियोजयेत् । भगवद्भुक्त भा(ण्डा)नां प्रायश्चित्ती भवेन्नरः ॥६१।। भगवद्भुक्तमन्नाद्यमज्ञानाद्योऽवमन्यते । इह निकता प्राप्य जायते स पुरीषभुक् ॥६२।। पवित्रं भगवद्भुक्त सेवयाभ्युपयुञ्जते । भवन्त्यरोगास्सुखिनः पापदोषविवर्जितम् ।।६।। आराध्यैव जगन्नाथं तच्छेषं नापरा अपि । त्यक्तभक्ताचेना व्यर्था अरसा ऊपराम्बुवत् ।।६४||
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विष्णुभक्तानां गृहमेधिनां धर्मः २:३५ अभावे कारिणं कारि मनसाचार्यमर्चयेत् । तत्तन्मन्त्रौस्तथाद्रव्यस्तृणं कृत्वा महीतले ॥६।। आचार्यस्य पितुश्चैव स्वामिनो द्रव्यमर्हति । शिष्यः पुत्रस्तथा दास इति तद्भोक्त्तुमर्हति ॥६६।। ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्र स्त्रियमथेतरम । पूजयेत्तान् यथायोगं भगवद्योगभावितान् ॥६७।। दिव्यशास्त्रानभिज्ञोऽपि भक्तिमान्पुरुपोत्तमे । अभ्यसूयाविरहितश्शास्त्रं पृज्यस्स सात्वतः ।।६८।। अकृत्रिमा भगवति प्रीतियस्मिन् प्रदृश्यते । भक्तपु वाच्य एवायं वाह्यलिङ्गधरोऽपि वा ।।६।। वैष्णवोऽहं प्रदो(दे)हीति याचिते येन केनचित । नावमन्येत तं विद्वान तपेयदन्यथाऽपि च ॥७०।। अविज्ञाता अनर्हाः सामान्या ये गृहमेधिनः । देवानिवेदितै व्यस्तर्पयत्तदसन्निधौ ॥७१।। भुक्त भगवता यद्यद् गुरुशेपमथापि वा । हुतशेपं ततोच्छिष्ट भक्तिहीने न योजयेत ॥७२॥ अवश्यं भोजनीयानामभागवतवेदिनाम । लौकिकाग्निपु पक्वेन कार्यमन्येन तर्पणम ॥७३।। प्रापणं साधितुं नित्यमशक्तस्सकृदाग्निना । योग्यगेहाहतेनापि साधयेज्जुहुयादिह ।।७४।। प्रापणं भगद्भुक्तं लब्धा भागवतेन तत। पुनरिष्टव भोक्तव्यं दानं तस्य न चेष्यते ।।७।।
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२८३६
शाण्डिल्यस्मृतिः अनर्पितं भगवते स्वाराध्यायं स्वतन्त्रतः । यद्भुक्त्वा कुरुते कर्म तद्व्यं यस्य तस्य तत् ।।७।। कर्मणा मनसा वाऽपि यथाकालं यथाबलम् । स्वाराध्याथ निवेद्य व सर्व भुञ्जीत बुद्धिमान् ।।७७|| शुद्ध न्यायन संप्राप्त साधितं साधुयत्नतः । अभोज्यमेव जानीयान्निजमन्त्रानिवेदितम् ।।७८।। मूर्त्यन्तरेण संभुक्त अयत्नेन समागतम् । स्वमन्त्रमूत्तिं सञ्चिन्त्य मनसा तत्समर्पयेत् ।।७।। स्वत आत्मनि देवेश शेषभूतोऽप्यहं गतः । तवास्तीति वदन्छुद्वस्तथा स्वेन समन्वितः ।।८०|| मुमूर्षवस्तथा बाला भगवत्पादयोः परैः । समय॑न्ते तथाशक्त भॊज्यमन्नं निवेदितम् ।।८।। तथा स्वाराधनेनैव न प्रीतो भगवान् हरिः। यथा भागवतश्रेष्ठपादाम्बुरुहपूजनात् ।।८२॥ यथा कु(कौटुम्बिकश्रीमान् कुमारैरनुमोदिते । मोदिते भगवान् तेस्तैस्तथा नियतमानसः ।।८३।। अनाहतसुतं गेही पुरुष नाभिनन्दति । तथाऽनर्चितसद्भक्त भगवन्नाभिनन्दति ।।८४।। यस्य यम्याधिकं दृष्ट्वा भक्तिज्ञानक्रियामपि । तं तं समर्चयेत्पूर्व यथाहं क्रमयोगतः ।।८।। निधनांश्चरतो लोके वृत्त्यर्थमिव स(सा)स्वतान । नावमन्यत तैीक मपात्री कुझते हरिः ।।८६।।
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विष्णुभक्तानां गृहमेधिनां धर्मः २८३७ ये पाचयन्ति धरणी चरन्तो पाञ्चकालिकः । दर्शनाद्भाषणात्तेषां कृतार्थाः सर्वजन्तवः ॥८७।। अभ्यर्च्य श्रद्धया प्राप्तान् सर्वानभ्यागतातिथीन् । पाषण्डवय॑मन्नाद्यौरग्निकार्य समारभेत् ॥८॥ लवणं चोदकं हित्वा कर्मण्यं यद्यदाहृतम् । तत्सर्वं जुहुयादग्नौ तिलपुष्पौदनादिकम् ।।८।। यदन्नं साधितं साधु प्रापणार्थ प्रयत्नतः । भगवद्भुक्तशेषेण तेनैव भगवक्रिया ॥६॥ यथा व्योम्नि यथा वेद्यां योगे ध्याने यथोदितम् । कुटुम्बाश्रमनिष्ठानां तद्वदग्निषु पूजनम् ||६|| पापक्षयक्रियापूर्तिस्सर्वोपद्रवनिग्रहः । शुद्धिश्चित्तप्रसादश्च तस्माद्धोमं न लोपयेत् ।।१२।। निषिद्धद्रव्ययोगेन पञ्चकाले निषेवणाम । श्रद्धया जुह्वतां नित्यं नाराध्यमिह किंचन ।।१३।। आवाह्याग्नौ जगन्नाथं मनसाभ्यय॑ शक्तितः । जुहुयात्काष्ठपुष्पान्नं घृतक्षीरतिलादिकम् ॥६४|| श्रद्धया परया हुत्त्वा यथाविधि विधानवित् । संविभागं च भूतानां कुर्याद्भगवदग्रतः ।।६।। भृत्याश्च द्विविधा ज्ञेया प्रेता जीवास्तथैव च । प्रेता मृतास्ववंशेषु जीवा जीवन्ति वै गृहे ॥१६॥ पितृपुत्रकलत्राद्या दासीदाससमाश्रिताः । रक्षणीया गृहे ये स्यु भृत्या जीवा इमे स्मृताः ।।१७।।
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૨૮૩૮
शाण्डिल्यस्मृतिः यथाहं च यथाशक्ति सुविभज्यान्नमम्बु च । दद्यापितॄन समुद्दिश्य भगवज्ज्ञानयोगिने ॥६८।। चत्वारो बहवो द्वौ वा सम्यग्ज्ञान्येक एव वा । पूज्या नित्यं प्रयत्नेन पित्रर्थ भोज्यसंपदा ।।६।। स्वल्पैरप्यन्नपानाद्यः पादोदकविमिश्रितैः । भुक्तभंगवता सन्तं तोषयेत्पितृतृप्तये ॥१०॥ भिक्षां वा भिक्षवे दद्यात् पित्रर्थ शक्तिवर्जितः । प्रत्याचक्षीत नाल्पान्नं पानीयं लवणं सति ॥१०१॥ पितरं मातरं पुत्रान् कलत्रं मित्रमेव च । बिभर्ति वा यथागेही प्रेतभूतांस्तथैव सः ।।१०।। कृशान् भागवतान प्राप्तान दरिद्रानध्वकर्शितान । तैलान्नवस्त्रपानाद्यौः पुरस्तान् वासयेद् गृही ।।१०३।। निन्दन्ति ये भागवतानज्ञानात्पापचेतसः। न दद्यात्सर्वथा तेभ्यो वाचं वार्यापि वाङ्मुखम् ।।१०४। गृहे भागवतं प्राप्तमज्ञानाद्योऽवमन्यते । नष्टश्रीको भवेत्सद्यः क्षीणायुः पुण्यसञ्चयः ।।१०।। भोजयेद्भोजनीयांस्तान् गुरुपूर्व कुटुम्बिकः । पितृमातृक्रमेणैव दासान्तं प्रीतमानसः ॥१०६।। कांस्यं कुम्भोदलं पाद्म पालाशवटपल्लवम् । अश्वत्थपल्लवं चैव पात्रं कुर्यान्न भोजने ।।१०७|| नातिदोषावहं कांस्यं भोजनेऽश्वत्थ एव च । कुटुम्बिनामकामानामितीच्छन्ति हि केचन ॥१०८।।
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गृहमेधिनाधर्मवर्णनम्
२८३६ पात्रांदाच शैलं च मृण्मयं पाणिमेव च । आयसं वर्जयेद्योगी भूपृष्ठं वस्त्रमेव च ॥१६॥ हैमं रौप्यं च तानं च कदलीनालिकेरकम् । कारयेद्भोजने पात्रमन्यत्कर्मण्यवृक्षकम् ॥११०।। कर्मण्येष्वपि भिन्नेषु नाश्नीयात्तैजसेषु च । निक्षिपेन्नच ताम्रषु दधिक्षीरघृतादिकम् ॥१११।। चतुरश्रेषु शुद्धषु सद्यः प्रक्षालितेषु च । भूमि संस्पृष्टपार्वेषु विष्टरेषु क्रमाविशत् ।।११२।। पालाशवटतालानामश्वत्थस्य च काष्ठजम् । चक्रादिलाञ्छितं भिन्नं वर्जयेदुच्चमासनम् ॥११३॥ वेत्रचर्मकृतं चैव तालपत्रकृतं कुशम् । . आसनं वर्जयेद्भुक्तौ यागयोगोपयोगि च ॥११४।। स्पृष्ट्वा भुवं पदापण पात्रं सव्येन पाणिना। अश्नीयान्मन्दमावृत्त्य पादौ वस्त्रान्तरेण च ॥११।। अङ्कनारोहयेत्पादं पाणिना नाक्रमेद् भुवि । अङ्ग वा न स्पृशेत्पद्भ्यां पादं पादान्तरेण वा ॥११६॥ उपलिप्य शुचौ देशे निश्छिद्रं चतुरश्रकम् । सविताने सदीपे च भोक्तव्यं भगवन्मयैः ।।११७|| वेत्रासनस्थे पात्रे च नाश्नीयान्नासने स्थिते । नाकं स्थे दारुसंस्थे च नाकेशेनार्द्ध कारिते ॥११८।। नाश्नीयाच्छयनारूढो न दीपे निहते पुनः । न दृष्ट्वा केशकीटाद्य नचावैष्णवदर्शने ॥११॥
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२८४०
शाण्डिल्यस्मृतिः पानीयं न पिबेद्योगी शङ्खचक्रादिमुद्रितैः । शङ्खन वायसेनापि पद्मपत्रादिभिस्तथा ॥१२०॥ कुर्वन सुभोजनं कर्म सर्वेषु गृहमेध्यपि । प्रसाद्यस्ताननुज्ञाप्य सहाश्नीयात्प्रहृष्टधीः ॥१२१।। बालवृद्धातुरान्दासानाश्रितान् मातरं गुरुम् । पितरं चागतां ज्ञात्वा गृही भोजनमारभेत् ।।१२।। प्रक्षाल्य पादावाचम्य द्विरा मुखवत्करः । इज्या प्रदेशाभिमुखं समश्नीयात्प्रसन्नधीः ।।१२३।। जपभोजनहोमांस्तु देवस्याभिमुखं चरेत् । भगवत्पादयोर्योज्य( :) शिरश्शयनमाचरेत् ॥१२४॥ विशुद्धकोष्ठवृद्धाग्निः पादाम्बु कुसुमादिभृत् । पवित्रवेषश्शुद्धात्मा भुञ्जीतान्नपवित्रितम् ।।१२५।। कारंभपवित्रं च प्रणवं च षडक्षरम । जप्त्वा ध्यानपरोऽश्नीयात् तन्मयोऽन्नमनाकुलः ॥१२६।। संविभागावशिष्टेन कारिदत्तावशेषितैः । हुतशेषेण संयुक्त यदन्नममृतं तु तत् ॥१२७|| नावश्यं भोजने मौनं कुटुम्बाश्रमवासिनाम् । वाचोपचारः कर्त्तव्यो भोजने भुञ्जता सह ॥१२८।। भगवत्पादतोयेन मोक्षयित्वाऽमृतोदनः । ध्यायन्नन्नगतं देवं जपन्मूलं चतुर्गुणः ॥१२६।। अर्येण परिषिच्यान्नं कर्मारम्भेण मन्त्रवित् । इदमन्नं जपेन्मन्त्रां स्पृष्ट्वा भोज्यामनाकुलः ॥१३०||
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गृहमेधिनां धर्मवर्णनम् २८४१ धातारं हृदयान्तस्थं ध्यात्वा पादाम्बुजपूर्वकं । तदास्ये जुहुयादन्नं तत्तन्मन्त्रैस्समोहितैः ।।१३।। ध्यायन्नेवं परब्रह्म भोक्तारं हृदये स्थितम् । अश्नीयादत्वरो मन्त्री भोज्यं सर्वमकुत्सयन् ।।१३२।। विशिष्टभोज्यमायातमनिवेदितमन्तरा । अर्चापयेदनेनान्तस्सुशिष्यादिभिः परम् ॥१३३।। क्षुद्र वस्तु समायातं मनसा तन्निवेद्य च । अश्नीयान्मिश्रितं कृत्वा साक्षात्पूर्वनिवेदितैः ॥१३४॥ निष्कल्मषो भवेन्मर्त्य एवं शुद्धान्नभोजनात् । प्रसीदन्ती इन्द्रियाण्याशु सत्त्वं च परिवर्द्ध ते ।।१३।। अन्नशुधव सत्त्वस्य विवृद्धिस्सर्वदेहिनाम् । सत्त्ववृद्ध्यैव सत्कर्म निरते वर्जयेत्त्यसन् ।।१३६।। आरोग्यं रूपवक्ता च कीर्तिःश्रीज्ञानमेव च । शान्तिस्सत्कर्मणि श्रद्धा शुद्धान्नेन भवन्ति हि ॥१३७।। कामःक्रोधस्तथालोभः परहिंसारुचिस्तथा । निद्रालस्यादयो दोषा अमेध्यान्ननिषेवणात् ।।१३८।। अशुद्धान्नाशनात् पुंसां रोगावाह्यास्तथान्तरा । शत्रुवृद्धिग्रहद्रोहस्तामसीगतिरेव च ॥१३६।। परदारपरद्रव्यसव्य(:)संसक्ति दुष्टभोजनात् । कार्यबुद्ध्येव कालेन क्रियन्ते ते कुहेतिभिः ।।१४०।। शनैश्शनैः क्रिया साध्वी विगलय्य यथादि वा। अत्यन्तामेव भोज्यानि भोक्तुं मृगयते नरः ।।१४।।
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२८४२
शाण्डिल्यस्मृतिः गलेऽसत्कर्मणां रूपादमध्यस्य निषेवणात् । विषयेष्वभिषक्तानामायुः प्रक्षोयतेऽन्तरा ॥१४२।। पथ्यं मितं च शुद्धं च रस्यं हृदयनन्दनम् । स्निग्धं दृष्टिप्रियं चोष्ण मन्नं भोज्यं मनीषिभिः ॥१४३।। भगवद्यागयोग्यं यत्तदेवाशनकर्मणि । भोजनाहमिदं देव यागाङ्ग इति नेष्यते ॥१४४।। न भर्स्यन् बालपुत्रान् नावदन् न च भार्यया । अन्येभ्यो दापयज्ञस्या नश्नीयात्सहबान्धवैः ।।१४।। शक्तिहीनो यथाशक्ति दापयन्नन्नमम्बु च । भृत्यवर्ग समाश्नीयात् तेभ्यो दत्वा कदाचन ।।१४६।। पिबेभोजनपात्रेण पाणिना पानभोजने । प्रभूतं न पिबेत्तोयं नापिबन् वाशनं चरेत् ।।१४७।। पीत्वावशिष्टं चषके पुनस्तान्न पिबेजलम् । शाकाद्य नोत्सृजेस्थाल्यः पाणिना वापि भुञ्जताम् ॥१४८।। आद्यादाद्यन्तयोरार्द्रा मध्ये खिन्नमिवोदनम् । अन्नोपदंशपानीयै स्त्रिभागमुदरं भवेत् ॥१४६।। ये भुञ्जते समीपस्था ये भोक्ष्यन्ति ततः परम् । सर्व तन्मनसा बुद्ध्या तदर्हमशनं चरेत् ॥१५०।। भगवद्भक्तशेषं यद् भुक्त भागवता तथा । तदेव भोज्यमुद्दिष्ट भगवद्योगसेविभिः ।।१५।। वासोभूषणपुष्पाणि गन्धं तैलं तदौषधम् । सर्व भगवते नित्यमुपयुज्यान्निवेदितम् ॥१५२।।
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भगवत्पूजाप्रकारः
२८४३ स्नानाचमनपानार्थमहणाद्य यदम्बुवत् । उपयुक्त भगवता पानीयं तत्प्रकल्पयेत् ।।१५३।। भोजनाद्य तथादिव्यं पादाम्बेकं समन्त्रकम् । पीत्वे(पिबे)दवश्यं सद्भक्तो मिश्रितं वाहणादिभिः ॥१५४।। भोजनं भगवत्कर्म यद्यपि स्यान्मनीषिभिः । न कार्य भगवद्गेहे विशेषाद्देवसन्निधौ ।।१५।। तनयोऽहमिति ज्ञात्वा पात्रं शय्यासनादिकम् । उपयुञ्जन् भगवतः पातिन्या यत्प्रकल्प्यते ।।१५६।। तन्मयत्वेऽपि पुत्रस्य पितुः पुत्रो यदाभवेत् । नित्यं भिन्नश्च स यथा तथा भागवतो हरेः ॥१५७।। भुक्तोत्सृष्ट भगवता स्वात्थं तस्मै निवेदितम् । उपयोज्यं भवेत्सवं नासा कार्य समाचरेत् ।।१५८।। फलत्रयमपूपं च गुडान्नं पायसं तथा । सर्व भगवते दत्तं भोज्यं तन्मन्त्रमूर्तये ॥१५६।। चन्दनं गन्धपुष्पं च खण्डं कर्पूरमेव च । नोपयुञ्जीत राजाईमन्यच्च न समर्पितम् ॥१६०।। श्वसूकरहतं यत्स्यादुच्छिष्टं यच्च मानुषम् । नावद्यपि तदश्नीयात् दद्याद्वातापि कर्मिणे ॥१६१।। माषादिचूर्णंमृद्भिर्वा प्रक्षाल्यं करयो योः । प्रक्षाल्य जानुपादौ च दन्तान्काष्ठविशोधयेत् ॥१६२।। विशुद्धवदनो मन्त्री स्वाचान्तो द्विरनाकुलः । प्रविश्य भगवद्गेहं नत्वा पुष्पाञ्जलिं चरेत् ॥१६३।।
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२८४४
शाण्डिल्यस्मृतिः आदाय तुलसीं त्यक्तौ भगवत्पादमण्डिताम् । भक्षयेच्छोधये(हे भगवत्पादवारिणा ॥१६४॥ भक्षितं भगवत्पादसंस्पृष्टं तुलसीदलम् । आरोग्यं भक्तिवृद्धिं च पापहानि करोत्यपि ॥१६शा अष्टाङ्गयोगप्रीतिं च कृत्वा ध्यानपरो वशी। स्वाध्यायमपि सङ्कल्प्य यथाशक्ति जपेन्मनुम् ।।१६६।। स्तोत्रपाठैश्च सन्तोष्य शक्तश्चेद् गानविद्यया । स्वरयोगेन देवेशं तोषयेद्भक्तिवृद्धये ॥१६७।। पञ्चकालक्रमपरा गानविद्या विशारदाः । शुद्धाचारा महात्मानः पूज्या भागवतास्स्वयम् ।।१६८।। सुस्निग्धकण्ठास्तालज्ञास्स्वराचारादिवेदिनः । मागधाभिनयाः पूज्या अनिन्द्याभगवानिह ॥१६९।। भक्त्या पुलकितस्वाङ्ग आनन्दश्रुपरिप्लुतः । गद्गदस्वरयोगश्च यथा हि स्यात्तथा चरेत् ।।१७०।। अतिवेला यदि भवेत् भक्तिसंकीर्तनादिभिः । तदा नोपरमेत्तस्माद्यत्र याक्रियते मुदा ॥१७१।। ततस्स जडतां प्राप्तस्त्यक्तलज्जो गतक्लमः । अनुभूय हरिं भक्त्या शनरुपरमन्यथा ॥१७२।। गानविद्यासमर्थस्सन् गानेन पुरुषोत्तमम् । तोपयेत्तु यथाकालं मनस्यसन्निधौ हरेः ।।१७३।। अलङ्काराधनस्यान्ते स्वाध्यायाद्य तयोस्तथा । मध्यरात्रे व योगान्ते गानेनाराधयेद्धरिम् ।।१७४।।
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सच्छास्त्रश्रवणनपठन महत्त्ववर्णनम् २८४५ उपरम्येच्छनैर्विद्वान् स्तुतिगीति जपादिकान् । तोषयेदच्युतं भक्त्या भक्ष्यापूपफलादिभिः ।।१७।। समालिप्य जगन्नाथं कर्पूरागुरुचन्दनैः । कर्पटैय॑ञ्जनैर्वाऽपि यथाकालं समर्चयेत् ।।१७६।। भावयन्तो जगन्नाथं बोधयन्तं परस्परम् । सुसंभूय कथाः कुर्यात् सच्छास्त्राणि विलोकयेत् ।।१७७! सत्कर्मसततं कुर्यादऽसत्सवं च वर्जयेत् । एकमेकायनं शास्त्रं साक्षाद् ब्रह्मप्रकाशकम् ।।१७।। अन्यानि सर्वशास्त्राणि वदन्त्याच्छाद्य तत्परम् । सच्छास्त्रपठनैस्सद्भिशास्त्रार्थस्यापि शिक्षया ॥१७६।। शास्त्रार्थज्ञापनैर्वाऽपि शिक्षयेच्छास्त्रमादरात् । व्याख्यायालेखने नापि ग्रन्थनिर्माणकर्मणा ।।१८०।। शिष्याणां शिक्षया वाऽपि स्वाध्यायार्थेन मुच्यते । न स्मर्त्तव्यो विनीतेन वेदमन्त्रोऽप्यवैष्णवम् ।।१८।। काव्यालापोऽपि जप्योऽसौ यत्र संकीर्त्यतेऽच्युतः । गन्तव्यं यदि तीर्थार्थमुपादानार्थमेव वा ।।१८।। स्वाध्यायकाले गमनं प्रारम्भोऽथ यथासुखम् । अवश्यमिष्ट्वा हुत्वा च दत्त्वा चैव यथाबलम् ।।१८३।। गन्तव्यमिष्टसिद्धयर्थ भगवद्योगसेविभिः । शुभेऽनुकूले नक्षत्रे मुहूर्तेऽपि च मङ्गले ॥१८४।। दीर्घाध्वानं व्रजेद्विद्वान ससहायोऽप्रमत्तधोः । व्योम्नि देवं यजेन्नित्यं वाहुभ्यां न नदी तरेत ।।१८।।
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२८४६
शाण्डिल्यस्मृतिः सन्दिग्धान्नाश्रमे नावन्निवेद्यारोहयेद् बुधः। प्रयाणारम्भसमये मध्ये विश्रम्य चोत्थिते ।।१८६।। आचम्य पुनरुत्थाने कर्मारम्भं जपेद् बुधः । वल्मीकं गोमयं चैव छायामश्वत्थतालयोः ।।१८७|| न लश्यन्त्रद्विप्रो गवां नित्यमनापदि। छायायां विश्रमेन्नाऽपि कलिस्तस्यां हि तिष्ठति ।।१८८।। शास्त्राभ्यासपरस्यापि शास्त्रे भक्तिः सुदुर्लभा । शास्त्रे भक्तिमतामेव ह्यलभं शाश्वतं पदम् ।।१८६।। श्रवणं श्रावणंचिन्ता तदर्थे तस्य सङ्ग्रहः । चोदितानामनुष्ठानं शास्त्रे भक्तस्य लक्षणम् ।।१६०।। शास्त्राभ्यासपराणां च कर्मचाप्यनुतिष्ठताम । हृदये भक्तिहीनानां न शास्त्रां तु प्रकाशते ।।१६।। अभक्तानामनर्हाणां सन्छास्त्रं श्रूयतेऽपि वा । अन्यथा प्रतिभात्येव विषाक्तानां यथा पयः ।।१६।। प्रकाशयितुमात्मानं भक्तानां हितकाम्यया । अवतीर्णो जगन्नाथः शास्त्ररूपेण वै प्रभुः ।।१६३।। तस्माच्छास्त्रे दृढा कार्या भक्तिर्मोक्षपरायणैः । अभक्तस्य परे शास्त्रे भगवान्न प्रकाशते ॥१६४।। तामसानां विमूढानां पतितानां भवार्णवे । विपरीतं च सकलं धर्मज्ञानं प्रकाशते ।।१६।। उत्कीर्ण इव माणिक्यो विरलाम्बरवेष्टितः । दृश्यते विवरैरेव भक्तान्तः संस्थितो हरिः ।।१६६।।
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योगविधिवर्णनम्
२८४७ निष्प्रदोपस्यगेहस्य द्वारैरिव दुरात्मनाम् । दृश्यते करणैरन्तरन्धकारसमं निशि ।।१६७।। हृदयस्थे जगन्नाथे कार्यकारी प्रियं भवेत् । कालयोग्यं च कृत्त्वैव योगं भोजनमाचरेत् ।।१६८।। राज्यामजस्रयोगस्सन् यथाकामं समाचरेत् । भगवत्सन्निधाने वा विविक्तोऽन्यत्र वा स्थले ।।१६६।। योगं कुर्यात्समाधाय यथास्थानासनो वशी। उपलिप्ते शुचौ देशे कुशानास्तीर्य भूतले ।।२००।। शुद्धथासनं समाधाय वस्त्रेणास्तृणुयाच तत् । चीरशुक्लकृतं चर्म मार्ग वेत्रकृतं तथा ॥२०१।। अजिनमेकवस्त्रं च योगेस्यादासनं दृढम् । ईदृशः परमात्मा यः प्रत्यगात्मा तथेदृशः ।।२०२।। सद्धर्मानुसन्धानमिति योगः प्रकीर्तितः । योगानामिन्द्रियैर्वश्य बुद्ध ब्रह्मणि संस्थितः ॥२०३।। वदन्ति न तथा शेयं त्रयमेकं विदुर्बुधाः । भक्तिवन्न वियोगेन यथाचित्रं न लभ्यते ॥२०४|| कर्मज्ञानं तथा योगं विना योगो न लभ्यते । अज्ञस्त्वेकायनाचारं कर्मयोगं वदन्ति हि ।।२०।। सम्यग्ज्ञानमिदं प्राज्ञा वदन्त्यच्युतयोगिनः । योगो धर्म इति (प्रोक्त) साक्षाद्भगवतो विधिः ॥२०६।। सर्वेन्द्रियैरपि सदा योगो युज्यत इत्यतः । अनुसन्धानविज्ञानयोगेन ब्रह्मशाश्वतम् ।।२०७।।
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૨૮૪૮
शाण्डिल्यस्मृतिः अथाहमिन्द्रियैरात्मा सेव्यते सक्रियापरैः ।
.... . . . . . . . . ||२०८।। स्वामिन्यवस्थिते गेहे भृयवर्ग इवान्तरः । यथा यथा हरि भक्त्या जानाति पुरुषोत्तमम् ।।२०६।। तथा तथा समुत्सृज्य पापानि कुरुते शुभम् । सदाचारस्य वैकल्यमल्पं वा यत्र दृश्यते ॥२१॥ विकलां भक्तिरत्रेति बोद्धव्यं तमसाञ्जनान् । रजस्तमः क्षयादेव शुद्ध सत्त्वं ततोऽमलम् ।।२११।। ज्ञानं भवति विज्ञानात भक्तिः पुंसां प्रजायते । कर्मणा ज्ञानमिश्रेण स्थिरप्रज्ञोभवेत्पुमान् ॥२१२॥ सत्प्रकाशे तु न तमो रजो वा वर्त्तते क्वचित् । शुद्धाचारपरत्वं हि शुद्रसत्त्वस्य लक्षणम् ।।२१३।। निषिद्धकाम्ययोगश्च सत्त्वेतरगुणोद्भवः । सच्छास्त्रनिरतायैव शुद्धसत्त्वा हि योगिनः ।।२१४।। अक्लेशेन सुमुक्तिर्य भवाब्धि याति तत्परम । वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ शश्वत्स्वाध्याय तत्परः ।।२१५।। योगधर्मकनिरतो ब्रह्मभूयाय कल्पते । सकृदेवातितोऽप्यषः स्वाध्यायोद्वादशाक्षरम ।।२१६१! भक्तानां पातकान्याशु नाशयत्यवशादिव । नित्यं स्वाध्यायशीलानां स्वाधीनेन्द्रियवृत्तिनाम ।।२१।। यजतां जुतां चैव जीवन्मुक्तिर्व्यवस्थिता । उपवासंविनैवायं महापातकनाशनम् ।।२१८।।
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उषवासप्रशंसावर्णनम्
२८४६ निषिद्धकर्मणि संप्राप्त . सोपवासं जपेन्मनुम् । परिहत्य तु पापानि जपन् कुर्वन् सदा क्रियाम् ।।२१६ उपवासपरो भूयः स कृच्छ्राणि समाचरेत् । उपवासपराणां तु कदाचिन्नेन्द्रियभ्रमः ॥२२०।। इन्द्रियभ्रमहीनानामविराद्ब्रह्म सिद्ध्यति । अक्षतर्पणयुक्तानां यततामपि योगिनाम् ॥२२॥ नित्यं पार्श्वगतो मृत्युः सर्वसंजीविनामिव । अवश्यं भवसन्तारमिच्छन्नविजितेन्द्रियः ॥२२२।। शरीरं शोषयेन्नित्यं कृच्छचान्द्रायणादिभिः । उपवासपराणां तु केवलं नाक्षनिग्रहः ।।२२३।। क्रियमाणं कृतं यद्वा सर्व पापं विनश्यति । एकरात्रं द्विरात्रं वा त्रिरात्रमपि पक्षयोः ।।२२४।। यथाशक्त्युपवासी स्याद्यतवाक्कायमानसः । एकादशीमुपवसेदिनषटकं तु शक्तिमान् ॥२२५।। श्रवणकादशीसवं कृष्णाष्टम्याख्यमादरात् । उपोष्यैकादशी वाऽपि भगवत्प्रीतये बुधः ।।२२६।। स्वाध्यायतत्परश्शश्वत् द्वादश्यां पारणं चरेत् । उपोप्य विधिवदेवमभ्यय॑ च पदेऽहनि ॥२२७।। भक्त सहाश्नतां तुनि श्वेतद्वीपवासिनाम । उपवासदिने विद्वानात्मयागं विनैव तु ||२२८।। अन्यत्समाचरेत्सवं यथापूर्व तु विज्वरः ।
अथवा जपनिष्ठानां दातृणां मितभोजिनां ।।२२६।। १७६
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२८५०
शाण्डिल्यस्मृतिः अच्छिद्रकारिणां नित्यं पाश्चकाल्यमलं भवेत् । स्वाध्यायमभ्यसेन्नित्यं मनसा मौनमावहेत् ।।२३०।। अविरोधेन भूतानां मुच्चद्वाचमनाकुलः । यदुद्वगकरं वाक्यं अन्याथर्थावबोधनम् ।२३।। असत्यं निहतार्थं च नोच्चरेदपि गर्हिताम् । अर्थयुक्त (च) सत्यं च श्राव्यं प्रियकर मृदु ॥२३२।। शुद्ध मितं च सिद्धं च कालयोग्यं वदेद्वचः। वेदविद्याव्रतस्नातर्बाह्यान्तस्समचेष्टितैः ॥२३३।। असूयारहितैरस्मिन्छास्त्रे भक्त समाचरेत् । मूर्खाश्च पण्डितंमन्या अधा ह्यास्तिका इव ।।२३४।। धर्मयुक्तान् प्रबाधन्ते साधूनां लिङ्गमास्थितः । एकतस्त्वपवर्गार्थमनुष्ठानादिकौशलम् ।।२३।। लोकानुसारस्त्वेकत्र गुरुः पश्चादुदीरितः । भवन्ति बहवो मूर्खाः क्वचिदेकोऽपि शुद्धधीः ।।२३६।। त्रासितोऽपि यथा मूर्खरचलो यस्सबुद्धिमान् । न विश्वासः क्वचित्कार्यो विशेषात्तु कलौ युगे ।।२३७।। पापिष्ठा वादवर्पण मोहयन्त्यविचक्षणान् । गोपयन्नाचरेद्धर्मान् नापृष्टः किञ्चिदुच्चरेत् ।।२३८।। पृष्टोऽपि न वदेदर्थं गुह्य सिद्धान्तमेव च । आश्रितायातिभक्ताय शास्त्रश्रद्धापराय च ॥२३६।। न्यायेन पृच्छते सर्व वक्तव्यं शौचयोगिने । आत्मपूजार्थमर्थाय दम्भार्थमपि खिन्नधीः ।।२४।।
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रात्रौ योगकालेकृत्यवर्णनम् २८५१ अयोग्येषु वदच्छास्त्रं सन्मार्गात् प्रच्युतो भवेत् । उपरे निपतेद् बीजं षण्ढे कन्यां प्रयोजयेत् ॥२४१।। सृजेद्वाचा नरेमालां नापात्र शास्त्रमुत्सृजेत ।
अच्छिद्रकर्मनिरतः शास्त्राभ्यासपरस्सदा। स्वाध्यायाभ्यासयोगेन नयेत्कालमतन्द्रितः ॥२४॥ इति शाण्डिल्यधर्मशास्त्र व्रतादिविधाननिरूपणं नाम
चतुर्थोऽध्यायः ।
अथ पञ्चगोऽध्यायः
रात्रावन्त्यायमे योगकृत्यवर्णनम यामिन्यां योगकाले तु यत्कार्य योगिभिनरैः। वक्ष्यामि वस्समासेन शृणुध्वं मुनिपुङ्गवाः ॥ १ ॥ अथ वृक्षप्रमाणेन दृश्यमाने दिवाकरे । विधाय देहशुद्धिं च वासोऽपि परिधाय च ॥ २ ॥ प्रोक्षणाचमने कृत्वा दद्यादयं च पूर्ववत् ।। ध्यायन्नेवापरं ब्रह्म यावनक्षत्रदर्शनम ॥३।। जपेद् ब्रह्म पवित्रं वा मानसं मौनमास्थितः । अभिगम्य यथापूर्वमर्चयित्वा यथाविधि ॥ ४॥
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शाण्डिल्यस्मृतिः हुत्वा जप्त्वा तथा स्तुत्वा योगं कुर्यादतन्द्रितः । पुष्पानुलेपनैर्दीपैरर्यपूर्वैर्यथाविधि ॥५॥ सन्ध्ययोरुभयोः कार्या पूजा परमपावनैः । त्रिकालं द्रव्ययागेन तथा नैमित्तिकार्चनात् ॥ ६ ॥ भक्तिज्ञानक्रियावृद्धिरविघ्नेनैव सिध्यति । नक्त कुटुम्बिकोऽश्नीयात् हितं पथ्यं सुतृप्तिमान् ।। ७ ।। सर्वच तिलसंबन्धं दधिशाकं च वर्जयेत् । मुद्गसम्बन्धसवं च शुक्त कालान्तरे भवेत् ॥ ८॥ अपूपवर्ज तच्चापि वर्ण्यमेव दिनान्तरे । शुष्कपक्क तथा वस्तु सघृतं शाकमेव च ॥ ६ ॥ बुरी(गुरु)भूतं च गर नीरं न पर्युषितदोषभाक् । दध्यन्नपायसान्नं च गुडान्नं च घृतोदनम् ॥१०॥ अपूपानि च वया॑नि न पर्युषितदोषतः । तद्र पेण पुनःपक्कारसगन्धान्तरान्वितम् ॥११|| अन्योपयुक्तशेपं च वयं स्याद् गव्यवर्जितम् । भक्ष्यापूपफलादीनां शय्यानामपि पू (= ?)शः ।।१२।। तत्संबन्धानुसन्धानमिति योगः प्रकीर्तितः । योगान्नामेन्द्रियैर्वश्य श्शुद्ध ब्रह्मणिसंस्थितः ।।१३।। प्रयुक्त रप्रयुक्तर्वा भगवत्कर्मविस्तरैः । आभास ज्ञानिनो ज्ञानं योगकर्मपृथक्तत:(पृथक् पृथक् ) १४॥ वदन्ति न तथा ज्ञयं त्रयमेकं विदुर्बुधाः । भित्तिवर्णवियोगेन यथा चित्रं न लभ्यते ।।१।।
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योगधर्मवर्णनम्
२८५३ कर्मज्ञानं तथा योगं विना योगान्न लभ्यते । यज्ञास्त्वेकायनाचारं कर्मयोगं वदन्ति हि ॥१६॥ सन्ध्यज्ञानमिति प्राज्ञा वदन्त्य (?) योगिनः । योगधर्म इति ख्यातः साक्षाद्भागवतो विधिः ।।१७।। सर्वेन्द्रियैरपि सदा योगो युज्यत इत्यतः । अनुसन्धानुविज्ञान योगेन ब्रह्म शाश्वतम् ॥१८॥ यथाऽहमिन्द्रियैरात्मा सेव्यते सक्रियापरैः । बुद्धिं संस्थं परं ज्ञानं बुद्धिर्बुद्ध्यति तत्परम् ।।१६।। विशुद्ध रिन्द्रियैरेव बोद्धुतच्छक्यते न वा। इन्द्रियाणां विशुद्धित्वं भगवत्कर्म योगिता ॥२०॥ सर्वकर्म निवृत्तिर्वा दुर्लभा सा शरीरिणाम् । असद्विषयसंसृष्टै (रि) इन्द्रियै (वि?) हतामतिः ॥२१॥ न शक्नोति परं हन्तु अविधेयाश्वमेधवित् । भगवत्कर्मसंसक्त रिन्द्रियैविमला मतिः ॥२२॥ प्रयाति तत्परं दीपैः पदार्थादिव निशि । यथाच्छिद्रघटस्यान्तः प्रदीपे स्थापिते निशि ॥२३॥ ज्योतिर्मयानि छिद्राणि तथा द्वाराणि योगिनः । अज्ञानतमसा पूर्वे हृदयं मूढचेतसाम् ॥२४॥ द्वाराण्यपि ततः पूर्णान्यकृत्वान्येव कुर्वते। सर्वदा योग एवायमेवमेकायनो मुनिः ॥२५॥ मनसा केवलं रात्र्यां सेन्द्रियेण तथान्यदा । इन्द्रियेण कृ साः हि मनो ब्रह्मणि बद्धयते ॥२६॥
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शाण्डिल्यस्मृतिः निबद्धयते तन्निमूलं पारतद्रवबिन्दुवत् । अस्थिरे मनसि स्रोतो विषयाने(व) य(धा)वति ॥२७॥ मनस्तदाहदं मुग्धं रमते सत्प्रवृत्तिभिः ।। नियोज्य सक्रियास्वेव खानि बद्ध परे मनः ।।२८।। रमते तत्परेणैव स्वाधीना ( ? ) गुणं(:सद्) सुखम् । सम्यक् सद्विषयेष्वेव निवृत्तैरिन्द्रियैर्मनः ॥२६॥ सत्त्वं ब्रह्मणि कालेन निष्ठितैरेव तिष्ठति । यदा तु भगवत्पादसरसीरुहयोर्मनः ॥३०॥ निश्चलं रमते चित्तं कामकृत्यस्तथा बुधः । अनिर्जितेन्द्रियो सिद्धो भगवद्योगएव सः ॥३।। जहाति भगवत्कर्म पतितो याति रौरवम् । योगोऽयमेव यागश्च बाह्या ये व्याधयोऽभवन् ॥३२।। सर्व शरीरक्लेशाय येषु कृष्णो न चिन्त्यते । उत्सृज्य भगवत्कर्म सन्न्यासे हतसंशयः ॥३३।। निष्प्रयोजनदेहानां तेषां न सुलभो हरिः। इन्द्रियाणि प्रवृत्तानि कर्मस्विति न हीयते ॥३४॥ हीयते सातियाज्ञानि निषिद्ध ध्वनृतो यथा। भगवन्तं समुद्दिश्य तदेकशरणा नराः ॥३५।। कदाचिन्न च हीयन्ते कार्य (काम्य) कर्मरता अपि । उ श्रुतं स्मृतं दृष्ट स्पृष्ट रसितमेव यत् ।।३।। अवश्याद्याति तच्चित्तमथ कस्माद्विवर्जयेत् । पथा यथा परिचयं यत्र यत्र करोत्ययम् ।।३७।।
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भगवद्भक्तिशीलस्याचारवर्णनम् २८५५ तथा तथा स तन्निष्ठो रमते तत्र तत्र च । अभागवत भागस्था क्षीयते वासना यथा ॥३८॥ तथा यतेत पुरुषो मनोवाकायकर्मभिः । सर्वत्र मैत्री कुर्वीत विवादं नाचरेत्कचित् ॥३६।। न नासाचपलः कर्मी न जिह्वाचपलो भवेत् । अन्येषामिन्द्रियाणां च चापल्यं वर्जयेद् बुधः ॥४०॥ नान्यैरवमतोदह्यान्नान्यभक्तान्समाश्रयेत् ।। अधीतं नोत्सृजेच्छास्त्रं न ब यादनृते कचित् ।।४।। शपथं नाचरेत्पादं संस्पृश्य गुरुदेवयोः।। वाचि कर्मणि चित्ते च सर्वदा यश्शुचिर्भवेत् ॥४२॥ अतन्द्रितश्च शास्त्रार्थे योगसिद्धिं स गच्छति । अनुद्वणच्छत्र वासा नियतासनभोजनः ॥४३।। अनुद्धतजनैर्युक्तो योगसिद्धिं स गच्छति । नक्त न संचरेद्योगी संचरेद्यदि दण्डवृक् ।।४४।। ससहायस्सावकाशः संचरेत्कार्यगौरवात् । कूपं च वृक्षमूलं च सभावासं रिपोहम् ।।४।। शून्यायतनमेवापि न पश्येन्नक्तमञ्जसा । नक्तमुक्त वक्तव्यं विवादं न स्मरेद्बुधः ।।४६।। निष्प्रदीपे न भुञ्जीत विशेषान्निवृते पुनः । प्राग्रात्रो ( ? ) मास्थाय भुक्त्वा च मितमत्वरः ।।४७।। प्रोक्षितं सपवित्राद्भिराविशच्चयनोत्तमम् । यावन्निद्रा समभ्येति तावद्धि मनसा जपेत् ।।१८।।
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२८५६
शाण्डिल्यस्मृतिः निद्रान्तरे प्रबुद्धस्सन कीर्तयेद्भगवद्गुणान् । सुवस्त्रवेषधरया स्नातया दुर्विचित्तया ॥४॥ अरोगया दयितया स्वयमेवं विनिवेशयेत् (सदावसेत् ) । या तु क्षयो रोग वृद्धिरश्रीसत्कर्मविप्लवः॥५०॥ सौभाग्यायुर्यशो नाशः पुंसा स्त्रीष्वपि सर्गिणां । गायतां भगवद्गाथां कुर्वतां स्तोत्र मुच्चकैः ॥५१|| शृण्वन् श्रोत्रसुखं नादं निद्रामनुभवेद्बुधः । स्वप्नेषु चैव दृष्टेषु प्रियां भार्य गुरुं तथा ॥५२।। विना न कथयेत्स्वप्नं अन्येषा ( ? ) नमेव वा। दुःस्वप्नदर्शने सद्यः उत्थायाम्बुकृतक्रियः ॥५३।। प्रणम्य पादयोर्देवं जप्त्वा स्तोत्राणि कीर्तयेत् । दुःस्वप्नानुगुणं प्रातः स्नानदानार्चनादिभिः ।।५४|| कुर्याद्विशेषवत्कर्म यथा वित्तं प्रसीदति । सुखनिद्रारतः काले भवत्युत्थाय सत्वरः ।।५।। प्रक्षाल्य पादावाचम्य युञ्जीतापि यथाविधि । आद्यन्तवर्ज निद्राया योग्यं यामद्वयं निशि ॥५६।। चतुर्थ याममुत्थाय योगी योगं समाचरेत् । साक्षात्परमयोगस्तद्द्वादशाक्षरविद्यया ॥५७।। भगवद्वासुदेवस्य पादाम्बुरुहचिन्तनम् । ओमित्येकाक्षरं साक्षात् वासुदेवस्य वाचकः ॥५८।। ओमित्युच्चारणेनैव वाच्यमानीयते परम् । ओमित्यानीय तद्ब्रह्म नमस्कार प्रदेन तु ॥५६।।
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भगवदर्पणबुद्धवजन्मनःसाफल्यवर्णनम् २८५७ तदीयं तक्रियाहं च तवैवेति निगद्यते । अव्यक्तार्थतया तस्य प्रणवस्य विशेषतः ॥६०।। तदर्थद्योतनादेतमुदितं भगवत्पदम् । अन्यत्रापि च तद्दृष्टमित्यनन्यपरं वचः ॥६१॥ वासुदेव ( ? ) इतिदन्तस्य चोपरि। नमः परपदं योगादुपरिस्थपदद्वयम् ॥६२॥ चतुर्थ्यन्तमभून्नित्यं योगिनां योगसिद्धये । ओङ्कारपदमेवैकं योगिनां योगसिद्धये ॥६३।। . द्वादशाक्षररूपेण परिणाममुपागतम् । मन्त्रान्तरेष्वपि बुधा देवतान्तरभागिषु ॥६४।। प्रयुञ्जते तदोङ्कारं मन्त्राणां प्राणसिद्धये । मन्त्रान्तरे प्रयुक्तत्वाद्देवतान्तरगोचरे ॥६५।। अवक्त्रर्थस्तथोङ्कारः केवलेनैव धारकं । पक्कयोगशरीराणामेवं ज्ञानवतामपि ॥६६।। समासन्नेऽपि तज्ज्ञाने तन्मात्रं नैव साधनं । अपक्कयोगज्ञानानामपि वेदविदां नृणाम् ॥६७।। द्वादशाक्षरयोगेन दूरस्थं तदिहान्तिके । स्मृतमात्र महामन्त्रो सुसूक्ष्मे द्वादशाक्षरे ॥६॥ चित्तदर्पणसङ्क्रान्तः ससुखं लक्ष्यते हरिः। अतश्च द्वादशान्तेन स्वाध्यायेन जनार्दनम् ॥६६।। आसन्नतां प्रयात्याशु ब्रह्मण्यर्पितकर्मणां । स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमामनेत् ॥७०।।
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२८५८
शाण्डिल्यस्मृतिः स्वाध्याय योगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते । पाञ्चेन्द्रियस्य मर्त्यस्य च्छिद्रञ्चे (क)कमिन्द्रिया(म) ॥७१।। ततोऽस्य स्रवति प्रज्ञा (?) तेः पादादिवोदकम् । यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह ॥७२।। बुद्धिश्च न विचेष्टेत तमाहुः परमं हितम् । देवानामपि सर्वेषां समानायो जनार्दनः ।।७३।। द्वादशाक्षरमन्त्रोऽयं मन्त्राणां नाथ उच्यते । यथौषधीनाममृतं मणीनां कौस्तुभो यथा ॥४॥ सर्वेषामेव धर्माणां श्रेष्ठो भागवतो विधिः । सर्वधर्मान् समुत्सृज्य पाञ्चकालमनुव्रताः ।।७।। व्यामिश्रयागनिर्मुक्ता गच्छन्ति पुरुषोत्तमम् । व्यामिश्रयाजिनां ब्रह्मणि नर्पिलतसुवृत्तिनाम् ।।७६।। यततामपि वा नित्यं पदमेषां परं स्थितं । अकर्मकर्तृ चैवस्याज्ज्ञानं वा कर्म संभवेत् ।।७७।। कर्मयोगस्तथा वास्याद्योगः कर्मपरं तथा । तस्मात्परमकं शास्त्रं नास्मत्कर्मपरं तथा ।।७।। नास्मात्परमकं ज्ञानं नास्मात्परमकं सुखम् । ऋग्यजुस्सामसंज्ञेषु वेदशब्दः प्रयुज्यते ॥७६।। इदं सदागमाख्यां तु वेदशास्त्र मितीरितम् । इति संक्षेपतः प्रोक्तः सदाचारो यथागमम् ।।८।।
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२८५६
शास्त्रप्रशंसावर्णनम् तथा शास्त्रस्य माहास्यं विशेषश्चैकयाजिनां । इदं शास्त्रमधीयानो ब्राह्मणो भगवत्परः ।। श्रियं यशश्च विपुलं दीर्घमायुरवाप्नुयात् ॥८॥ इति श्रीशाण्डिल्यधर्मशावेशाप्रशंसावर्णनं नाम .: पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
॥शुभम्भूयात् ॥
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॥ श्री:
* कण्वस्मृतिः *
धर्मसारवर्णनम् कण्वं नत्वा महाभागं मुनयो ब्रह्मवित्तमाः । युगभेदप्रभेदेन सर्वधर्मान्सनातनान ॥१॥ पप्रच्छुरखिलज्ञप्त्यै लोकानां हितकाम्यया । कण्व वेदविदां श्रेष्ठ सर्वलोकहिताय वै ॥२॥ सर्ववैदिककृत्यानां मुख्यामुख्यगुणागुणम् । प्रविभज्य समासेन सुस्पष्टं कथयस्व नः ॥३॥ मुख्यं कल्पममुख्यं च गौणं काम्यमियत्तमः । एवमेतत्तथा नोचेत्साध्या साध्येचतत्परम् ॥४॥ चित्तंसद्यस्तत्रतत्र संग्रहेणानुविस्तरम् । सुस्पष्टं सुलभं तुल्ययोगयोग्यं तथा वद ॥५॥ इतिपृष्टो ब्रह्मनिष्ठ इदं प्रोवा च तान्प्रति । पृष्ठं भवद्भिः परमं रहस्यं स्वर्गसाधनम् ॥६॥ चित्तशुद्धिकरं ब्रह्म ज्ञानकारणमद्य वै । न शक्यतेऽन्यैरेतद्धिवक्तुं श्रोतु च कैश्चिदु ।। ७ ।। अथापि वः प्रवक्ष्यामि धर्मसारं श्रुतीरितम् । मुख्यामुख्ये विभज्यैव चित्तपूर्व द्विजोत्तमाः ॥८॥
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धर्मकर्त्तव्यवर्णनम् २८६१ क्रिया कर्ता कारयिता कारणं तत्फलं हरिः । सर्वमीश्वरमेवेति बुद्धिर्यस्य सदास्थिरा ॥६॥ स एव कृतकृत्यो हि सतु ज्ञानस्य भाजनम् । तत्कृतस्य च कार्यस्य वैगुण्यं नैव जायते ॥१०॥ कदाचिदपि केनापि नात्र कार्या विचारणा । यत्किंचिद्वा कृतं तेन पारमेश्वरतुष्टये ॥११|| तदक्षयममोघं स्यादब्रह्मज्ञानैकसाधकम् । यथाशास्त्रकृतं च स्यादशास्त्रकृतमप्यलम् ॥१२।। परमेश्वरतुष्टयर्थकृतं तस्मात्तथा चरेत् । तस्मादमू (गु) सर्वत्र परमेश्वरतुष्टये ॥१३।। करिष्ये कर्मचेत्युक्त्वा सर्वकर्माण्युपक्रमेत् । परमेश्वरशब्दयेत्यकत्वान्यंशब्दमुत्तमम् ॥१४॥ कर्मादिषु प्रकुर्वन्ति तानि वैगुण्यमाप्नुयुः । सद्यएव न संदेहस्तस्मात्तं तादृशश्शिवः ॥१।। परमेश्वरशब्दं ये कर्मादिषुसमाहितः। प्रवदेव दिकैः सिद्धिः ब्रह्मशब्दोऽथवा सदा ॥१६॥ श्रीशब्दपूर्वको नित्यं तावन्मात्रेण साक्रिया। . सम्यक्कृता दोषशून्या सर्वलक्षणभूषिता ॥१७॥ सर्वाङ्गोपाङ्गसहिता सर्वमन्त्रकृता भवेत् । देशःकालश्च वक्तव्यः कर्मादौ प्रत्यहं द्विजैः ॥१८।। तत्र देशाखिलानां च मेरुदक्षिणभागगः । षट्पञ्चाशत्प्रभेदेन कथितस्तं तथा वदेत् ॥१६।।
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२८६२
कण्वस्मृतिः जम्बूद्वीपं भारतस्य वर्ष भारतखण्डकम् । सर्वसाधारणाम्प्रोक्तमिदं संकल्पमात्रके ॥२०॥ यस्मिन्देशे स्थितो मर्त्यस्तं देशं स्वगृहावधि । समुच्चरेत्पैतृकेषु नान्यत्रैवं विदुर्बुधाः ॥२१॥ गण्डक्या अपि गङ्गाया नर्मदायास्तथैव च। गोदावर्याश्चकृष्णायाः कावेर्याश्चततः परम् ॥२२॥ ताम्रपाश्चसेतोश्चमध्यभागं पठेद्धि सः। कालं पराधं प्रथमं कल्पं मन्वन्तरं युगम् ॥२३।। तत्पादं संवत्सरं मासमृतु पक्षं तिथिं ततः । क्रमाद्वरेणसंयुक्तं समुच्चार्य च तादृशे ॥२४॥ सप्तम्यन्तेन च तिथौ करिष्यामीति कर्मणः । नामोच्चार्य वदेदेवमेतत्सङ्कल्पमुच्यते ॥२॥ संवत्सरऋतुर्मासोयुगः पक्षस्तिथिस्तथा। त एते कालभेदाःस्युश्चन्द्रगत्यासमुद्भवाः ॥२६।। यावत्कलाश्चन्द्रस्य प्रथमायावदीरिता । वृद्धिक्षयौयावत्तुप्रथमेत्युच्यतेवुधैः ॥२७॥ एवं सर्वेऽपि तिथयो ज्ञेयाः पञ्चदशापि वै । सुरपीतत्यचन्द्रस्य कलावृद्धिक्षयौ स्मृतौ ॥२८|| घटिकापष्टिसाध्या हि प्रकृत्याथापि तत्परं । अतिवृद्धिक्षयसमगतिभेदैस्तत्तत्तदातदा ॥१॥ यामार्धयामघटिकाद्वित्रिपञ्चक्षणादयः । व्यवस्थारहिताश्चस्युस्तिथ्यादीनां निशापतेः ॥३०॥
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नित्यनैमित्तिककर्मणांफलनिर्णयः २८६३ तस्मात्सर्वेषु चान्दादिकालभेदेषु चन्द्रमाः । एक एव भवेत्कर्तानान्यः कश्चन चोदितः ॥३१॥ सूर्यादीनां तु कर्तृत्वमुपचारात्प्रकीर्तितम् । वस्तुतस्तच्च कर्तृत्वं याथार्थ्यात्तु विधोर्मतम् ॥३२॥ तस्मान्मानस्तु चान्द्रोऽयं सर्ववैदिककर्मसु । परिग्राह्यो भवेन्नूनं तेन मानेन वैदिकः ॥३३।। तस्मात्सर्वाणि कर्माणिनियनैमित्तिकान्यपि । पैतृकाण्यपि देवानि यानिकान्यखिलान्यपि ॥३४॥ क्रान्तप्रयुक्तानि विना चान्द्रेणैव समाचरेत् । क्रियमाणेऽन्यथा तस्मिन्यस्मिन्कस्मिश्चकर्मणि ॥३५।। पक्षमासतु भेदः स्यात्तस्मात्संकल्प एव सः । अन्यथैव भवेन्नूनं तस्मात्तत्कर्म केवलम् ॥३६।। अन्यथैवं कृतं स्याद्धि तेन तत्तु विनश्यति । कालभेदकृतं कर्म तस्मात्तन्न तथाचरेत् ॥३७।। युगाब्दमासतु पक्षतिथयस्तत्रमुख्यतः । चान्द्रमाने संभवन्त्विकृप्ताश्चनियताः पुनः ॥३८।। यएते कथिताः सद्भिरन्ये ह्यनियताः किल । क्रान्तयो निखिलालोनिश्चयागमवर्जिताः ॥३६॥ तेषां मासत्वनामेदं मुख्यतस्तु न संभवेत् । मासादिमध्यान्तलक्ष्मराहित्येन तथोदितम् ॥४०|| तदाहि तत्सम्यगेव प्रकृतेऽप्यनिरूप्यते । इन्द्राग्नी हयते यत्र मासादिः संप्रकीर्तितः ॥४१॥
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२८६४
कण्वस्मृतिः अग्नीषोमौ स्थितौ मध्ये समाप्तौ पितृसोमको । किंच तन्मासपर्यायशब्दानां तदनन्वयात् ॥४॥ नराशयो मुख्यमासास्तेहीमेकथिताश्शिवाः । चैत्रादयो द्वादशापि सतु मेषा दयस्तुते ॥४३।। माससामान्यशब्दा:स्युस्ते चैतेषु भवन्ति हि ।। तानप्युदाहरिष्यामि स्पष्टार्थं सप्त सांप्रतम ॥४४।। दर्शान्तः पूर्णिमामध्यः भृत्वर्धः प्रतिपन्मुखः । त्रिंशत्तिथिः पक्षयुगं कृत्स्नाब्दक्षयवृद्धिकः ॥४।। मासवाचकशब्दाः स्युस्त इमे तत्रनोतराम । सौरमाने प्रवर्तन्ते मासेपु किल सर्वदा ।।४६।। सर्वे मेषादिशब्दास्ते राशीनामेव वाचकाः । समासानां मुख्यतो वै गुणतश्चेत्कदाचन ॥४७॥ तद्वाचकत्वकार्याय भवन्ति किल तावता । कथं ते मुख्यमासाःस्युस्तद्वयंऋतुरीरितः ॥४॥ तत्षट्कं वत्सरः प्रोक्तस्तस्मादब्दमृतु ततः । मासं पक्षं तिथिं चापि मार्गेणानेन सन्ततम ॥४६।। सम्यगालोच्य संकल्येव्यत्यासे न भवेद्यथा । तथासमुच्चरेत्सर्वान न्यूनानतिरिक्ततः ॥५०|| तिथ्यादीन्यदि संकल्प व्यत्यासेनोच्रेतदा । पुनः कुर्यात्तु तत्कर्म नष्टं तत्तेन तावता ॥५१।। स्नानद्वये नित्यमेव संकल्पं सम्यगाचरेत । कालादीन्प्रवदेच्चापि त्वरन् यदि तदा पुनः ॥५२।।
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नित्यकृत्यवर्णनम्
२८६५ संप्राप्तास्मदुरितक्षयद्वारेति ततः पुनः।। परमेश्वरतुष्यथं करिष्यामीति वा वदेत् ॥५३।। करिष्ये वेति वा नित्यं नित्यकर्मसु केवलम् । अलमेतावदेवेति रहस्यं श्रुति वत्ति)तन्मनः ॥५४॥ यत्र यत्रोच्चार्यते सः शब्दोऽयं परमेश्वरः । श्रीशब्दस्तत्र तत्र स्यादन्यथा शुभभाङ्न तु ॥५।। शम्भुः पुण्यशिवश्रीभिरास्व(श्व)न्तः कालकीर्तनात् । भवन्ति श्रीशुभावासास्तस्मादेतास्तदा वदेत ॥५६॥ ( भवन्त्यस्याः शुभाः सर्वे स्तोतारएतास्ततस्त्यजेत) आशाची प्रोक्तशंभ्वादि शब्दानां श्रुतिमात्रतः । आशौच मध्ये यदितान श्रीशम्भु शुभपुण्यकान् । आशौची प्रवदेन्मोहात्तस्याशौचस्य सर्वदा ॥५७।। वृद्धिरेव भवेन्नूनं तस्मात्तानति यत्नतः । प्रसमीक्ष्य त्यजेन्नूनमन्यथानर्थ एव वै ॥५८।। भवेदेव न सन्देहः अतस्तानत्र संत्यजेत । नैमित्तिकपु सर्वत्र सर्वप्वपिशुचिर्यतन ॥६॥ देशं कालविशेषांस्तान्संकल्पे प्रवदेद भृशम । उक्तिरेव हि संकल्पः कर्मादिपु न मानसः ॥६०।। सभाभ्यनुज्ञा च परावश्यकी दक्षिणा च सा । तिथिभेदान्मासभेदात्पक्षभेदाढतोस्तु वा ॥६।। अब्दभेदात्कर्मनष्टं प्रवन्नात्र संशयः । भेदो नामात्रसंकल्पे तथोक्तिरिति तत्स्मृतम् ॥६२।। अयनस्यप्रभेदोक्तिनदोपाय भवेत्किल । यतोऽयनस्य सततं पत्तृभिर्नास्ति ततस्तथा ॥६३।।
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२८६६
कण्वस्मृतिः मेषादीनामनेनैव नक्षत्रम्य च सर्वदा । प्रभेदोक्तौ न दोषोऽस्ति तेन तेषां कदाचन ॥६४॥ उक्तिरावश्यकी नेति संकल्पे श्रुतिराह हि । तस्मादब्दमृतु मासं पक्षं तस्य तिथिं शिवाम् ॥६५॥ संकल्पे ह्यत्यजन्सर्वान्प्रवदेत्सर्वकर्मसु ।। एतेषामन्यथोक्तौ चेत्संकल्पे तच्च कर्म वै ॥६६॥ नष्टमेव प्रभवति तेन तच्च पुनश्चरेत् । अन्यथा दोषमाप्नोति नात्रकार्या विचारणा ॥६७।। श्रुतिस्मृत्युदितं कर्म विहितं वैदिकस्य यत् । तदुक्त नैव मार्गेण कर्तव्यं नान्यथा चरेत् ॥६॥ यदि प्रमादेन कृतमन्यथा शास्त्रवर्त्मनः। तस्यतदोषशान्त्यर्थं सद्यश्चित्तं श्रुतीरितम् ॥६॥ स्मृत्युक्त वाथ सूत्रोक्त पुराणोक्तमथापि वा । समाचरेद्विधानेन भक्तिश्रद्धापुरस्सरम् ॥७॥ कृतमात्रे तु तस्मिन्वै प्रायश्चित्ते तक्षणात्ततः । तदोषो विलयं याति तेनायं स्यात्कृती शुचिः ॥७१॥ भवेदेव न संदेहो न चेद्दोषोऽभिवर्तते । कालेन महता भूयो दृषत्सु वटबीजवत् ॥७२॥ तस्माद्दोषं समुत्पन्नं सद्यएव प्रशामयेत् । बाडवः प्रातरुत्थाय स्मरेदीश्वरमव्ययम् ॥७३॥ पादौ प्रक्षाल्य गण्डूषं कृत्वाऽऽचम्य विधानतः । सप्तर्षीनपि मैनाकं मेरु मन्दरपर्वतम् ॥७४।।
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प्रातःस्मरणेकीर्त्यानांवर्णनम्
२८६७ गन्धमादनसंज्ञं च लोकालोकं गिरीश्वरम् । हिमवन्तं च कैलासं पुनरन्याञ्छुभाकरान् ॥७॥ पतिव्रताः पार्वतीम्बा अहल्या द्रौपदी शिवाम् । तारां मन्दोदरी पुण्यां नित्यकल्याणसुन्दरीम् ॥७६।। सीतामरुन्धती लक्ष्मी भारती परमेश्वरीम् । इन्द्राणींपुनरन्याश्च नित्यकल्याणमूर्तिकाः ॥७७|| ब्रह्मनिष्ठान्महाभागान्ब्राह्मणान्संशितव्रतान् । लोकपालान्लोकनाथान्ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् ॥७॥ स्मृत्वा ब्रह्मक्यसंधानं कृत्वा ब्रह्माहमित्यपि । सर्वेभ्यश्च नमस्कुर्यान्नमो महद्भ्यइति वै वदेत् ।।७।। तत्र ध्यानादि(?)स्मरणयोः कालादिनियमो नहि। यदावकाशो लभते तदानित्यं तु शक्यते ॥८॥ कतुं किलाथ च पुनः प्रातश्चेत्तद्विशिष्यते । पादप्रक्षालनं नित्यं पश्चिमाभिमुखश्चरेत् ॥८॥ यद्यन्यथाकृतं तत्तु तदाम्भस्तत्क्षणे परम् । मूत्रमेव भवेन्नूनं दक्षिणाभिमुखात्कृते ॥८॥ . उदगाभिमुखे चेत्तु तज्जलं रक्तमेव हि । प्राकतु चेत्तजलं मद्यतत्स्पृष्टोऽयं हि जायते ॥८३।। पादप्रक्षालनं पश्चात्पश्चिमाभिमुखेन हि । कर्तव्यं सततं यत्नान्नान्यया हरिता कचित् ॥४॥ सार्वकालिकधर्मोऽयं सार्ववणिक एव च। ... वैदिको निखिलो भूयो नूनं निश्चिनुताऽधुना ।।८।।
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२८६८
कण्वस्मृतिः श्राद्ध विवाहे यज्ञे च मौज्यां स्वस्य परस्य वा। दिगियं नियता प्रोक्ता तत्कर्मण्यागते सति ॥८६।। दक्षिणादिकृते तस्मिन्कदाचिद्यदि मोहतः । अयं मन्त्रो जपार्थःस्यात्पवमानः सुवर्जनः ॥८॥ प्राच्यादिशस्तथामन्त्रस्तदुत्तरइति श्रुतिः। उत्तरस्यां दिशि प्रोक्तस्तस्या अप्युत्तरो महान् ॥८॥ श्राद्धकाले स्वयं चेत्तु तथा विप्रस्य वा वशात् । तस्यास्यचा(प्यचे)ऽनुवाकस्य दशवारजपो भवेत् ।।८।। मौज्यां मोहेन चेद्भूयस्तथा कर्मण्य(न्या)(णि)दिक्षु वै । अग्ने तेजस्विननुवाकं द्वादशवारकम् ॥६॥ अग्नेस्तु पुरतस्तिष्ठन् प्रजपेत्पाणिपीडने। श्रीसूक्त पूर्वानुवाकं तथापि द्विगुणं जपेत् ॥११॥ यज्ञे तु संभारयजूंषि पल्यनुवाककम् । पुरुषसूक्तं वैष्णवं च अचं द्वादशवारकम् ॥१२।। प्रजपेदेव तस्मात्तु पादप्रक्षालनं तदा । पश्चिमाभिमुखेनैव कर्तव्यं नान्यथा मतम् ॥६३।। मुखशब्दमकुर्वन्वै नित्यं गप्डूषमाचरेत् । सर्वतो मुखहस्ताभ्यां शुद्धाभ्यां प्राङ्मुखोऽथवा ॥१४॥ उद्दङमुखो यथेच्छं वा सशुद्धकरतस्तदा। तथा शुद्धाभिरद्भिर्वा विपद्यपि न चाचरेत् ॥६॥ यदि गण्डूषकाले तु मुखाच्छब्दः प्रजायते । वाग्गतं तजलं तस्य श्वमूत्रसदृशं भवेत् ॥६६।।
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पाने भक्षणेच शब्देकृतेप्रायश्चित्तवर्णनम् २८६६ तद्दोषपरिहाराय गायत्रीं त्रिशतं जपेत् । एवमाचमने प्रोक्त जलपाने च भोजने ॥६७|| भक्षणे चापि भक्ष्याणां खाद्यानामपि खादने । भोज्यानां भोजने चापि तथा वै लेह्यचोष्ययोः ॥१८॥ अशब्दं सर्वतः कुर्वन् तत्तत्कर्म समाचरेत् । यदि शब्दं तथा कुर्वन् सद्यो निरयमृच्छति ॥६| तदोषपरिहाराय पूर्वचित्तं समाचरेत् । विशेषतस्तक्रदधिपयोदधिघृतादिषु ॥१००।। यदि शब्दः समुत्पन्नः पाने वा भक्षणे यदि । महाननों भवेत्सद्यः तद्रव्यं मद्यमेव हि ॥१०॥ भवेदेव न सन्देहस्तस्य चित्तं ततस्त्बिदम् । पक्षं तु यावकाहारो निराहारो दिनत्रयम् ॥१०॥ अष्टानां वा चतुष्णा वा ब्राह्मणानां च भोजनम् । कुर्यादेव न संदेहोऽथवा गायत्रमाचरेत् ॥१०३।। त्रिसहस्रजपं मासं संहितात्रयमेव वा। चित्तं तत्कथितं तस्मान्न तत्कुर्यात्तथा द्विजः ॥१०४।। नित्यं मूत्रपुरीषादिकर्मस्वेषु प्रचोदितम् । यत्र यत्र ह्याचमनं द्वयं (तत्र) तत्र परो विधिः ॥१०॥ अयमेव समाख्यातः प्रथमाचमने खलु । मन्त्रो मानसिकः कार्यः कदाचिन्न तु वाच(चि)कः ।।१०६।। द्वितीयाचमने सम्यमन्त्रोच्चारस्तु वाचिकः । न मानसः कदा कार्यः प्रथमे तु तथा चरेत् ॥१०७।।
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२८७०
कण्वस्मृतिः
तद्दोषाय भवेदेव तथा तन्न समाचरेत् । तद्दोषपरिहाराय तान्मन्त्रांस्तु ततः परम् ॥ १०८॥ पुण्डरीकाक्षदशकं जपपूर्वशताष्टकम् |
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प्रजपेदन्यथा दोषः स तु शान्तो भवेन्न तु ॥ १०६॥ कदाचित्तु जलाभावे दक्षिणं श्रवणं स्पृशेत् । त्रिवारं तत्र पूर्व वै तुष्णीमेव ततः परम् ॥११०॥ ओंकारस्तु समुच्चार्यो नचेत्कृष्णस्मृतिः परा । शिवस्मृतिर्वा परमा कर्तव्या स्यात्सभक्तितः ॥ १११ ॥ विभक्त्यैव प्रथमया वचनं तत्स्मृतिर्भवेत् । प्रायश्चित्तेषु सवत्र नामस्मृतिविधानके ॥११२|| उक्तिरेव समाख्याता न तु मानसईरितः । मन्त्राणामप्येवमेव सर्वत्र विहितो हि वै ॥ ११३ ॥ सर्वदाचमनं तद्धि नामकं यत्प्रशस्यते । मान्त्रिकं तु सदा शक्यते स तु तत्किमु ॥ ११४॥ चेत्तत्तु च प्रवक्ष्यामि यदि शुद्धस्तवापरम् ।
तु हि मन्त्राचमनं शक्यते नान्यथा ततः ||११५॥ तस्मात्सर्वेषु कालेषु सर्वदेशेषु चाखिलैः । सुलभाचमनं विद्धि नामाचमनमेव वै ॥ ११६॥ कर्तव्यत्वेन सौलभ्यादङ्गीकृतमिदं परम् ।
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माषमन जलस्यैव पानं तत्र परं मतम् ॥११७॥ न्यूनाधिकाभ्यां तच्चेत्तु महत्पापं तद्दोषपरिहाराय सन्ध्यावन्दन कर्मणि
समश्नुते । ॥ ११८ ॥
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गृहस्थानां मृत्तिकाशौचविधानम् २८७१ त्रिपदा नामगायत्री जलप्रक्षेपणं बुधैः । विहितत्वेन कथितं तेन तच्छाम्यतेऽखिलम् ।।११।। प्रायश्चित्तोक्तमन्त्राणां सर्वेषां सर्वदा परम् । किं कार्यमपरिज्ञाने इदं विष्णुश्च व्याहृतिः ॥१२०।। कर्तव्यत्वेन विहिते गायत्री च तथा तदा । नेतेभ्यस्तारकाः सन्ति तस्मात्तान्प्रवदे बुधः ।।१२।। नैऋत्यां निषुनिक्षेपे कुर्यान्मूत्रपुरीषके । जलपात्रेण मृत्पात्रं शुचौ निक्षिप्य दूरतः ॥१२२।। उदगह्नि तथारात्रौ एवं वै दक्षिणामुखः । यद्यतव्युत्क्रमात्कुर्यात्सूयश्चेति महामनुम् ॥१२३।। कृत्वा शौचं विधानेन ततस्तु प्रजपेत्तदा । अग्निश्चेति च मन्त्रं च अबद्ध मनुरेव च ॥१२४॥ चतुर्विंशति वाचं वै शतमष्टोत्तरं शतम् । गायत्रीमपि तापेन ततश्शुद्धो भवेदसौ ॥१२।। मेहने चैकवारं स्याद्गुदे पञ्च तथैव हि । पादयोः करयोश्चापि पृथक्त्वेन समाचरेत् ॥१२६॥ एव हि मृत्तिकाशौचं गृहस्थानां विधीयते । त्रिगुणं स्याद्वनस्थानां यतीनां स्याचतुर्गुणम् ॥१२७।। वर्णी गृही वनस्थो वा न कुर्यान्मृत्तिकाक्रियाः । पयस्तुर्याशपर्याप्त तस्य चित्तमिदं स्मृतम् ॥१२८॥ मृत्तिकेहनमन्त्रादि कृत्वा तत्परमां गतिम् । पर्यन्तं हि त्रिवारं स्याज्जपं कृत्वा शुचिः स्वयम् ॥१२६।।
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२८७२
कण्वस्मृतिः एककालस्य चित्तं स्यादेवं तत्कालसंख्यया । सम्यक्समीक्ष्य तत्कुर्यादन्यथा भ्रष्ट एव हि ॥१३०॥ भवेदेव न संदेहस्तदूध्वं चेत्तथाविधैः । पुनस्संस्कारताशुद्रो भविष्यति न चान्यथा ।।१३।। यदि प्रक्षालनं त्यक्त्वा मेहनस्य गुदस्य वा।। चरेद्विप्रो व्रात्यएव न संभाष्योऽखिलैरपि ॥१३२।। मोहना (त् ) क्षालनान्मासं मात्राद्यदिविपर्ययात् । भ्रष्टो भवेत्ततो भूयः पुनस्संस्कारतश्शुचिः ॥१३३।। यथार्थकथनान्नित्यं चित्ते कर्ता भवेन्न तु। बुद्धिपूर्वगुदप्रक्षालनशून्योऽभक्षणे ॥१३४॥ जाते तु सद्यः पतितस्तद्यथार्थोक्तितः परम् । आषण्मासाच्चित्तकर्मकर्तुं शक्यं ततः परम् ॥१३५।। पतितो नात्र सन्देहश्चित्तं तस्य च चोदितम् । पुनर्गर्भविधानेन पुनः संस्कारतस्तराम् ॥१३६।। शुद्धिः प्रकथिता सद्भिस्तप्तस्यैव न चान्यथा । कृत्वा तु तादृशं कर्म न कृतं चेति वक्ष्यति ॥१३७।। संत्याज्य एव सततं न योग्यो यस्य कस्यचित् । चरणौ च करौ सम्यक् प्रक्षाल्य च ततः परम् ॥१३८।। नाचामेद्यदि तूष्णीकं भवेन्नात्रसंशयः। पुनः प्रक्षाल्याचामेश्च तो पापस्य विशुद्धये ॥१३६।। अनाचम्यैव यो मोहाद्व दवणं समुचरेत् । भ्रूणहत्यामवाप्नोति तत्पापविनिवृत्तये ॥१४०।।
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नित्यकर्मणां व्यतिक्रमे फलाभाववर्णनम् २८७३ पाहि त्रयोदशाख्यमनुवाकं शतं जपेत् । लौकिकोक्त रिदं विष्णु प्रजपेद्दशवारकम् ॥१४॥ कदाचिन्मोहतो विप्रः अकृत्वा दन्तधावनम् । स्नायात्कृत्वा दन्तशुद्धिं पुनः स्नायाद्यथाविधि ॥१४२।। तृणपणैस्सदाकुर्यादमामेकादशी विना। तयोरपि च कुर्वीत जम्बूप्लक्षाम्लपर्णकैः ॥१४३।। अष्टकासु मृताहेषु अमामनुयुगादिषु । महालयेषु पुण्येषु संक्रान्तिध्वयनद्वये ॥१४४॥ व्यतीपाते गजच्छाया ग्रहणादिषु सूतके । पुनरन्यासु तिथिषु स्वजन्मत्रितये तथा ॥१४५।। दन्तधावनतः पापं महदाप्नोति केवलम् । तदोषपरिहाराय अग्नेमन्वानुवाककम् ॥१४६।। स्नात्वा संकल्प्य विधिना प्रजपेत्पञ्चवारकम् । पवित्रपाणिराचान्त उपविश्यैव नान्यथा ॥१४७।। तिष्ठन्धावन्प्रजल्पन्वा जपेद्यदि निरर्थकम् । भवेदेव न सन्देहस्तस्मात्तन्न समाचरेत् ॥१४८॥ यदि संध्यां प्रकुर्वीत चाकृत्वा दन्तधावनं । व्य भवेत्तु सा संध्या तस्मात्तद्भूय एव वै ॥१४६॥ दन्तधावनतः पश्चात्कुर्वीतैव यथाविधि । अपां द्वादशगण्डूषैर्मुखशुद्धिर्भविष्यति ।।१५०।। तथैव पैतृके कुर्यात्तद्भिन्नेषु तथा न तु । नित्यं स्नानं द्विजः कुर्यात्प्रातरुत्थाय धर्मतः ॥१५१।।
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२८७४
कण्वस्मृतिः देवर्षिपितृप्त्यर्थं अन्यथा तेऽखिलाः परम् । शपन्त्येतं जीवनाशावशतः कोपिता हि ते ॥१५२।। स्नातु प्रयान्तं विबुधाः पितरो मुनयोऽखिलाः । दृष्ट्वा पयोऽर्थिनः सन्त अनुधावन्ति पृष्ठतः ॥१५३॥ यदि तेषां तज्जलं हि दत्वैव किल मौढ्यतः । सर्वस्वाङ्गसमुत्सृष्टमन्यत्र किल गच्छति ॥१४॥ तूष्णीं तिष्ठन्ति वा मूढा भवेत्तच्छापभाजनम् । तस्मात्स्नात्वा प्रयत्नेन देवादीनां विधानतः ।।१५।। देयमेव भवेन्नूनं सर्वस्वाङ्गविनिर्गतम् । स्नानाङ्गतर्पणं चापि नित्यं कार्य विधानतः ।।१५६।। अकृते तर्पणे तस्मिन्वृथैव प्रभवेत्तु तत् । कुर्वीत तर्पणं सर्व स्नानेषु किल मार्जनम् ॥१५७।। संकल्पं तवयंचापि नचेत्स्नानं तु तद्भवेत् । यद्यशक्तो भवेत्स्नातुं सलिलेषु विधानतः ॥१८॥ नदीतटाककूपेषु स्नानमुष्णेन वा चरेत् । कण्ठस्नानं कटिस्नानं पादस्नानं तु वा चरेत् ॥१५६।। तत्रापि यद्यशक्तश्चेत्सर्वमुष्णेन वाऽऽचरेत् । अथवा कापिलस्नानं प्रोक्षणस्नानमेव वा ॥१६०।। स्नातस्नानं वा कुर्वीत शुद्धवस्त्राणि वा धरेत् (धारयेत)। कायानुगुणतस्सर्व कार्यमेव न चान्यथा ॥१६१॥ प्रातस्संक्षेपतः स्नानं होमाथं तु विधीयते । मध्याहतु यथाशास्त्रं शनैस्सवं समाचरेत् ॥१६॥
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वायव्यास्नानस्यश्रेष्ठयत्ववर्णनम् २८७५ जलस्नानं सर्वथा चेदशक्तः कर्तु मेव वै । कायानुगुणतो यद्वा स्नानमेकं समाचरेत् ॥१६३।। बहुप्रोक्तषु सर्वेषु दिव्यस्नानं विशेषतः । दुर्लभं सर्वमेतद्धि गङ्गास्नानसमं हि तत् ।।१६४॥ न संकल्पादि तत्र स्यात्तर्पणं प्राणसंयमः । तथैवाचमनं वापि वायव्येऽपि तथैव च ॥१६॥ तत्तु प्रयत्नसाध्यं स्यात्सायं प्रातस्तथान्तरे । न वायव्यसमं स्नानं त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥१६६।। तद्गङ्गास्नानतुलितं पञ्चपातकनाशनम् । उपपातकसंदोहनिर्मूलकरणक्षमम् ।।१६७।। ततस्सन्ध्यां प्रकुर्वीत शक्तः स्नानप्रपूर्विकाम् । नक्षत्रसहिता पूर्वा पश्चिमां सूर्यसंयुताम् ॥१६८।। असावादित्यमन्त्रेण ध्यानं तक्रियतेसदा । ब्राह्मणस्यैव संध्या स्यात्संधावक्षपामुखात् ।।१६।। सात्वर्घ्यपूर्वकर्ता स्याद्गायत्र्याय॑ त्रयं चरेत् । सम्यगुच्चार्य तां वर्णस्वरतः क्रमतस्तथा ॥१७०।। ब्राह्मण्यमूलं नैव स्यान्नान्यदस्ति जगत्त्रये । तन्मूलं तु ततस्साहि संध्यानां त्रितयेऽनिशम् ।।१७१।। जप्यात्यन्तैकनियमशतैर्यन्त्रशताधिकात् । एतन्मन्त्रजपेनैव ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥१७२।। सर्वलोकैकवन्द्यत्वं सर्वाचार्यत्वमेवच । वश्याकर्षणविद्वषस्तम्भनोच्चाटनादिकम् ॥१७३।।
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कण्वस्मृतिः निग्रहानुग्रही सर्वमहिमासर्वपूज्यता। एतन्मूलानि सर्वाणि तस्मादेतं मनुं परम् ॥१७४।। यथाशास्त्रमधीत्यैव स्वरवर्णक्रमान्वितम् । सम्यगेव जपेद्विद्वान् त्रिसंध्यासु यथोक्तितः ॥१७॥ अस्यास्तु ब्रह्मविद्यायाः स्वरवर्णादिशून्यतः । संध्यात्रयीकरणतो ब्राह्मण्यं दूषितंतराम् ॥१७६।। दोषयुक्त च भवति वर्णोच्चारणतः परम् । सर्वस्वरादिशून्ये न व्यत्यासः स्वरतस्तथा ॥१७७|| तद्ब्राह्मण्यं ताहगेव भवेदेव न संशयः। एतन्मत्रं समीचीनं प्रोक्त कर्मणि वैकृते ॥१७८।। अर्थाः सर्वेऽपि शुध्यन्ति तब्राह्मण्यं च पुष्कलम् । अतिशुद्ध महच्छीमत् प्रभवेद्वीर्यवत्तरम् ॥१७६।। चतुर्विशतिवर्णाना मुक्तिमात्रेण केवलम् । आभासमात्रब्राह्मण्यं तत्र तिष्ठति केवलम् ॥१८०।। तस्मात्सम्यक्त्वरयुतं तन्मन्त्रं वेदचोदितम् । विप्रत्वसिद्धयेऽधीत्य संध्याकर्मणि सिद्धये ॥१८॥ ब्रह्मध्यानाय॑मात्रो यः पुरापद्मभुवाखिलाः । श्रुतयो विशदत्वेन ब्राह्मणानां प्रदर्शिताः ॥१८२।। तस्माद् वेदान्विधानेन सम्यग्गुरुमुखात्परम् । अधीत्याग्रं तदन्तस्थां गायत्री शिरसा सह ॥१८३।। नित्यमावर्तयेद्भक्त्या त्रिसंध्यासु महाशुचिः । भूत्वा नात्वा स्वरैस्तत्तद्वर्णकैरतिशोभनैः ॥१८४।।
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गायत्रीमन्त्रजपेतदर्थभावनाया:श्रेष्ठफलदायकत्वम् २८७७ प्रजपेद् ब्राह्मणो धीमांस्तदर्थस्यानुचिन्तया । योनः प्रचोदयान्नित्यं धियः कर्मसु सत्सु वै ॥१८॥ वरेण्यं सवितुश्चापि देवस्य परमात्मनः । गायत्र्याख्यं च तद्भर्गस्तेजो धीमहि चिन्तया ॥१८६।। इत्येवं प्रजपेद्भतया ब्राह्मणो ब्रह्मवित्तमः । एव तं तदर्थानुस्मरणपूर्वकं प्रजपेत्सदा ॥१८७।। जपं करोति यस्सोऽयं स उ ब्रह्मविदांवरः । जीवन्मुक्तोऽपि सोऽयं स्याद् दुर्घटोऽयं महात्मनाम् ।।१८८।। योगिनामपि दिव्यानां तदर्थस्य महाजपः । तल्लाभो यस्यकस्य स्यात्स सर्वेषां भवेत्किल ॥१८६।। तथंवार्थानुसंधानं यस्य स्यात्स तु चोदितम् । सत्यं ज्ञानमनन्तं वै सच्चिदानन्दलक्षणम् ॥१०॥ परं ब्रह्म परं धाम परं ध्येयं परात्परम् । जगद्धेतुः श्रुतिप्रोक्तं जगजन्मादिकारणम् ॥१६॥ न सन्देहोऽत्र कथितः संदेही पापभाग्भवेत् । ताहगानुसंधानं कर्ता यस्तस्य केवलम् ।।१२।। अपेक्ष्यं नास्ति किमपि लोकेऽस्मिन्सचराचरे। स एव कृतकृत्यो वै स एव ब्रह्मवित्तमः ॥१६३।। परं त्वत्र प्रवक्ष्यामि केवलं वस्तुतो यथा। बहवो ब्राह्मणा भूमौ मन्त्रमानं सलक्षणम् ॥१६४|| समुच्चरन्तः परमं भक्त्या संध्यामुपासते । तावतैवात्रजगती चोदयास्तमयौ स्मृतौ ॥१६।।
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૨૮૭૮
कण्वस्मृतिः . एतावती च तवृष्टिर्भावाभावौ शिवाशिवौ । सुखदुःखेजन्ममृती जगत्कार्यप्रवर्तते ॥१६६।। जगत्कृत्यं जगत्कर्ता चकमे विप्रसंध्यया। येनके नचिदन्येन गुह्यमेतन्मयोदितम् ।।१६७।। सर्वेषामपि लोकानां सर्वेषां नाकिनामपि । ब्रह्मविष्णुमहेशानां मखानां बहुना किमु ।।१६८।। सर्वकृत्यं संध्ययैव सम्यगेव सुसाधितम् ।। ब्राह्मणानां प्रसादेन नचेकिमपि नास्ति वै ॥१६६।। संध्याभावे सर्वलोकविनाशः सद्य एव वै। भवेदेव न सन्देहो ब्राह्मणास्तादृशा हि वै ॥२०॥ सर्वत्रापि च वतन्ते कलौ चैतत्तु केवलम् । तिष्ठेतिरोहितत्वेन देवाज्ञातादृशा परो ॥२०१।। ब्राह्मणाः सर्वजगतां निदानं परमं परम् । तद्विना चेन्नकिमपि तेनैवैतत्प्रवर्तते ॥२०२।। तत्कारणं हि गायत्री वेदमाता जगन्मयी। तयैतत्सृज्यते सर्व तयैतत्पाल्यते परम् ।।२०३॥ संहोयते ( ? । तयैवेति सैषा किल जगत्प्रसूः । स्त्रीलिङ्गने श्रुतौ नित्यं लीलया व्यवही(१)यते ॥२०४।। लिङ्गानां वचनानां च हृदयं तत्र ब्रह्मणि । सर्वलिङ्गः सर्वशब्दैवचनैरखिलैरपि ॥२०५।। प्रतिपाद्य परं ब्रह्म नान्यत्किमपि विद्यते । स्त्रीलिङ्ग व्यवहारोऽयं यथा भवति तत्तथा ।।२०६।।
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गायत्रीमन्त्रवैशिष्टयवर्णनम् २८७६ देवता हृदयं प्रोक्तं पुलिङ्गो देवईरितः। नपुंसके ब्रह्मविद्या तदेतदखिलंस्मृतम् ।।२०७।। गायत्र्यास्तु छन्दो वै गायत्र्येव न चेतरत्। विश्वामित्रमृषिः प्रोक्तो देवता सविता स्मृता ।।२०८।। मुखमग्निः समाख्यातश्शिखा ब्रह्म प्रकीर्तिता । नारायणस्तु हृदयं शिखारुद्रः समीरितः ॥२०६।। महामन्त्रस्य तस्यान्यवर्णग्रहणमात्रतः । ब्राह्मण्यं मुख्यतः प्रोक्त प्रथमं तु ततः पुनः ।।२१०|| स्वरवर्णसमीचीनसमुच्चारणतत्परम् । पौष्कल्यं तस्य संप्रोक्त राहित्यात्सुस्वरस्य तु ।।२१।। तदुर्ब्राह्मण्यमेवस्याल्लुप्रवणैरसुमध्यमे । अब्राह्मण्यं प्रकथितं तयोर्ब्राह्मण्ययोस्ततः ।।२१२।। परिहाराय यत्नेन कालेन महता शनैः । वेदाभ्यासमुखेनैव गायत्री गुरुवाक्यतः ॥२१३।। समीचीनां तु कृत्वमा प्रजपेन्नित्यमञ्जसा । संशोधनं तु गायच्या वेदाभ्यासः परो भवेत् ।।२१४।। वेदाभ्यासेन वाग्दोषाः दुष्टवर्णस्वरादिकाः । शनैश्शनैर्विनश्यन्ति वनवाचो भवन्ति च ॥२१५।। एतदथं पुरा ब्रह्मा तन्माध्याहिककर्मणि । हंसमन्त्रेणार्यमेकं गायत्र्याकल्पयत्प्रभुः ॥२१६।। तस्मिन्मन्त्रे समीचीनस्वाधीने सति तत्परम् । सम्यग्वक्तं हि शक्यन्ते मन्त्राः सर्वत्र कर्मणि ॥२१७।।
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कण्वस्मृतिः
२८८०
तस्मादध्ययनं नित्यं गायत्र्याः किल केवलम् । समीचीनोच्चारणैकहेतवे तस्य नान्यथा ॥२१८।। तस्मादेवं विधिःख्यातो गायत्रीग्रहणात्परम् । वेदैकाध्ययनं नित्यं तत्संस्कारैकहेतवे ॥२१६।। एवं सति तु यो मूढो गायत्रीग्रहणात्परम । अनधीत्यैव तं वेदमसंशोध्यैव तामपि ॥२२०।। गायत्रीं वर्णसंयुक्तामुच्चरेद्वंदवर्जनात् । श्रममन्यत्रकुरुते शास्त्रजाले वृथाश्रमी ॥२२।। वेदारतस्तुयोलोके सोऽस्वाधीनैकवाग्भवेत् । देवी स्वाधीनवाकप्रोक्तस्तेन मन्त्रादिकं सदा ॥२॥ सम्यगुच्चारणाच्चैव प्रभवेकिलसन्ततम् ।। सर्वदक्षस्तु वेदीस्यात्सर्वसिद्धिश्च तेन सः ।।२२।। प्रभवेदपि ते नैव इदं नित्यं समभ्यसेत् । वेदान्वेदी नचेद्वदं शाखामात्रं तु केवलम् ॥२०४।। अध्येतव्यं प्रयत्नेन नचंदब्राह्मणः स्मृतः । दुर्ब्राह्मणो वा नो चेत्तु ब्राह्मणव न संशयः ।।२२५।। अथवा ब्रह्मबन्धुःस्यात्तएते ब्रह्मयोनिजाः । स्वकृत्यतस्तुचत्वारस्तेषां लक्षणमुच्यते ॥२२६।। ब्रह्मवीर्यसमुत्पन्नः सम्यङ्मन्त्रैर्न संस्कृतः । अश्रोत्रियैकता तेन कर्माभासैकसंस्कृतः ॥२२७|| अब्राह्मणइतिप्रोक्तो मन्त्राभासजपादिकः । गर्भाधानादिसंस्कारचौलोपनयनैर्युतः ॥२२८।। .
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सम्यग्गायत्रीजपफलवर्णनम् २८८१ वेदशून्येन तत्पित्रा सुधीर्भक्त्याप्रपूजितैः । सदसत्कृतसंस्कारोदुर्ब्राह्मणइति स्मृतः ॥२२६।। मन्त्रशून्यकृतैः सर्वैः संस्कारैर्नाममात्रकैः । कृतसंज्ञैः प्रतिष्ठायै विप्रस्योङ्कारपूर्वतः ॥२३०।। संस्कृतः स्यादब्राह्मण स्तूष्णी 'नामधरस्तुसः। गृहीतमात्रं गायत्रीवर्गकस्वरशून्यतः ॥२३॥ अकालकृतसंध्याख्यकृत्यं पण्डितमान्यपि । किंवेदेनेति यत्किंचिद्य(तो)वानिखिलोऽपिवा ।।२३२॥ यत्किचिन्निखिलानांस्याद्यावत्कस्यापि नास्ति हि । इत्येवं प्रलपन्दुष्टो दुष्टाभिरतियुक्तिभिः ॥२३३।। दूषयन्श्रोत्रियान्विप्राञ्छास्त्रमात्रकृतश्रमः । ब्रह्मबन्धुरितिख्यातो ब्रह्मविद्भिस्ततस्सदा ॥२३४।। यस्माद्व दाध्ययनतो गायत्री वेदमातरम् । उपनीतैः परं यत्नात्परैर्दादशवत्सरैः ॥२३॥ कृत्वा शुभां समीचीनां शास्त्रस्वरसमन्विताम् । संध्यात्रये च प्रजपेत्तादृशेनजपेन वै ॥२३६।। गायत्री सिद्धिदा यत्नाच्छनैर्भवति नान्यथा । शुद्धस्वरयुता देवी हंसमन्त्रसमन्विता ॥२३७।। सम्यग्जप्त्वा(प्ता) ब्रह्मविद्या सायुज्यफलदायिनी । सम्यगुच्चारणं पूर्वमृषिदेवादिचिन्तनम् ॥२३८।। पश्चान्न्यासस्तदर्थस्यानुसंधानं ततः पुनः । उत्तरोत्तरतो मुख्यः सर्वमर्थानुचिन्तनम् ॥२३६।। १८१
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२८८२
कण्वस्मृतिः सिध्यत्येव न सन्देहश्चिन्तनं तच्च वै क्रमान । अनेकजन्मकृतिनो भविष्यन्ति न चान्यथा ॥२४०।। असावादित्यो ब्रह्मति ध्यानरूपकृतेन्तराम्। संध्यायै समनुष्ठानयोग्यतायै प्रचोदिताः ॥२४१।। आपोहिष्ठात्रयो मन्त्राः यं जुष्टन नव स्मृताः। प्रोक्षणे विनियुक्ताः स्युर्दधिक्राव्णां च संगताः ॥२४२।। हिरण्यादिचतस्रश्च द्विपदा च शिवा तथा। स्नानमाचमनं चापि प्राणायामस्ततः पुनः ॥२४३।। सङ्कल्पो निखिलं चैतत् संध्यानुष्ठानहेतवे । तत्पूजारूपमेव स्यादर्घ्यदानं समन्त्रकम् ॥२४४|| रक्षोनिरसनादन्यदर्चनं तस्य किं स्मृतम् । तेनार्चयित्वा तां ध्यायेद्ब्रह्मत्वेनाथ तत्स्वयम् ॥२४॥ अस्मीति चैवं संध्या हि संध्ययोस्तांतु समाचरेत् । उभयोःकालयोर्मध्ये द्विवारं ब्राह्मणः सदा ॥२४६।। मध्यसंध्या च कर्तव्या मध्याह्न तद्वदेव हि । त्रिवारमन्वहं प्रोक्त संध्याकर्म द्विजन्मनः ॥२४७॥ यावजीवं भावना सा शक्तिःकतु न चेदपि । अर्घ्यदानात्परं सम्यगसावादित्यमन्त्रकम् ॥२४॥ वदेद्वाचा केवलं वा तावन्मात्रेण केवलम् । ब्राह्मण्यं सुस्थिरं तिष्ठत्ततः कुर्यात्प्रदक्षिणम् ॥२४॥ ब्राह्मण्यं गोपनीयं हि सर्वदेशेषु सर्वदा । मन्त्रोक्तिमात्रतो नित्यं तदर्थस्यानुचिन्तनम् ॥२५॥
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सन्ध्यागायत्री वेदाध्ययनस्याफललक्षणम् २८८३ योगिनामप्यशक्यं स्यात्तत्कर्ता यश्च कश्चन । स महात्मा महाभागो ब्रह्मनिष्ठो महामनाः ॥२५१।। जीवन्मुक्तश्च ब्रह्मव नात्रकार्या विचारणा । संध्यामूलमिदं ब्राह्म स्नानमूलं तथैव च ॥२५२॥ शौचमूलं मन्त्रमूलं जपमूलं क्रियापरम् । वेदशास्त्रोक्तमूलं च सर्व गायत्रिकं स्मृतं ॥२५३।। ध्यानप्रदक्षिणापश्चादोमित्येकाक्षरादिकम् । सम्यगुच्चार्य संयम्य नासिकाग्रहपूर्वकम् ।।२५४।। दशप्रणवगायत्री रेचकैः पूरकैस्तराम् । कुंभकैस्तद्विधानेन प्राणायाम जपंश्चरेत् ॥२५।। कृत्वा त्रिवारं तत्पश्चात्कृत्वा संकल्पभप्यसौ। सहस्रवारं मुख्यं हि शतवारं हि मध्यमम् ॥२५६।। अधर्म दशवारं स्यात्करिष्यैवमिति स्म वै। जपं कुर्याद्विधानेन मन्त्रं तत्तत्स्वरान्वितम् ॥२५७।। तत्तद्वदी जपे क्त्या तद्वदस्वरभिन्नतः । वेदभ्रष्टो भवेत्सद्यस्तदोषशमनाय वै ॥२५८।। तदवान्तरभेदयज्ञस्तत्क्रमेणैव तं मनुम् । त्रिमुहूतं जपेद्भक्त्या तदोषात्तु प्रमुच्यते ॥२५६।। तज्ज्ञानमात्रे विकलो ब्रह्मबंधवादिनामकः । परितप्तस्सदा विद्वान् नित्यं परिचरन्भिया ॥२६०।। उपकुर्वन्परंकुर्वन्प्रदक्षिणनमस्क्रियाः। दृष्टमात्राद्ब्रह्मनिष्ठान्श्रोत्रियान्वेदपारणा(गा)न ॥२६२।।
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२८८४
कण्वस्मृतिः समुद्दिश्य प्रयत्नेन तत्पादसलिलं तदा। पिबन्धरंश्च शिरसा पक्षे पक्षे यतश्शुचिः ॥२६२।। ब्रह्मकूर्चविधानेन तपिबन्होमपूर्वकम् । कालं नयेच्छुचिः स्वस्य तादृशस्यास्य भेषजं ॥२६३।। समीचीनमहासंध्यारहितस्य दुरात्मनः । नामानि तारकाणि स्युः प्रजातानि जगत्पतेः ॥२६४।। वेदाक्षरैकशून्यस्य पुराणान्तर्गताः पराः । श्लोकाः केचन संप्रोक्ताः स्नानसंध्यादिकर्मसु ॥२६।। न वैदिकः पुराणोक्त मन्त्रैः कुर्यात्कथंचन । किंचित्कर्मापि तस्मात्तैर्वैदिकैरेव वाचरेत ॥२६६।। सहस्रपरमां देवीं शतमध्यां दशापराम् । संध्यां नोपासते ये तु कथं ते ब्राह्मणाः स्मृताः ॥२६७।। कलौ तु केवलं तिष्ठद्गायत्रीवर्णमात्रतः । तदेकदेशतश्चापि क्रियानुकरणादपि ॥२६८।। ब्राह्मण्यं तच्च पूज्यं स्यान्न विचार्य प्रयत्नतः । न निषेध्यं विशेषेण गोपनीयतमं भवेत् ॥२६॥ संध्ययोः स्नानतो मौंज्याः बाह्य कक्रियया परम् । मोदनीयं हि विप्रत्वं न विचार्यतमं भवेत् ॥२७०।। मूकस्यापि च विप्रत्वमस्तीत्येवेति केचन । प्रोचुर्महर्षयो मौंज्यां गायत्रीजलपानतः ॥२७१।। जले संलिख्य गायत्र्या मन्त्रैः कृत्वाखिलाः क्रियाः । प्राशयेत्तं विधानेन मूकविप्रत्वसिद्धये ॥२७२।।
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मूकस्यविप्रत्वाधिकारित्वेविचारवर्णनम् . २८८५ तज्जातानां परं तत्तु विप्रत्वं दुर्लभं तराम् । ब्रह्मचित्तैकसंभूत्या पञ्चपूर्वात्परंतराम् ॥३७३॥ तावक्रियाभिः सम्यऽवै कृताभिस्तत्कुलेऽपि वै । विप्रत्वं प्रभवेद् भूयश्चास्खलद्विप्रकृत्यतः ॥२७४।। यदि मध्ये तत्कुलीनाः प्रास्खलन्वै स्वकृत्यतः । नष्टा एव भवेयुः तावत्तत्र समुद्भवाः ॥२७॥ वेदशास्त्रपराश्चापि सक्रियाभिश्च संस्कृताः । सत्कर्मिणोऽपि नितरां नान्ययोग्याइतिश्रुतिः ॥२७६।। ते परेषां हव्यकव्ययोग्याइत्येव तत्परम् । ब्रह्मविद्भिः प्रकथिताः परिनिष्ठः कुलोद्भवः ॥२७७॥ विप्रत्वप्रकृतिं याति नचेन्मूकस्तु केवलम् । को वानुमेयः सद्भिवै सदसत्तद्विलक्षणः ॥२७८11 गायत्रीवर्णरहिते क्रियामात्रैकभूषिते । कथं तिष्ठति विप्रत्वं मूके किं बहुना पुनः ॥२७६।। विप्रसंध्याकारकोऽपि स्वक्रियायै महत्तराम् । एनो महदवाप्नोति गवां (संध्या?) तद्रोधनेन च ।।२८०।। विप्रसंध्यारोधनस्य बालस्तस्य विरोधिनः । तत्पानसमयेऽतीव. भक्तमत्तु समुद्यतम् ॥२८॥ विघ्नकर्तुः श्राद्धकाल(ले)विघ्नकर्तुर्दुरात्मनः । रतिकल्याणमौंज्यादिपरतत्कालहारिणः ॥२८२॥ एकःस्याच्चैव संकल्पो यहवादेवजालकम् । कूष्माण्डं कथितं दिव्यं शतवारजपात्तु वै ॥२८३।।
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२८८६
कण्वस्मृतिः सर्वेषु श्रुतिरुत्कृष्टा रुद्रकादशिनी श्रुतौ । पञ्चाङ्गरुद्रन्यासेन सर्वकल्मषनाशनी ॥२८४।। विप्रसंध्याविघातस्य कर्ता सद्यः स्वयं तदा । तस्य संध्यां यतःकुर्यादन्यथा किल्बिषी भवेत् ।।२८।। न संध्याविघ्नकरणादन्यत्पापं तु विद्यते । ब्राह्मणस्य क्षत्रियादेरपि शूद्रस्य वा पुनः ।।२८६।। संध्यापरं तु होमः स्यात्सा च संध्याजपोऽपि वा । मित्रस्यचर्षणीमन्त्रादुपस्थानादिकं परम् ॥२८॥ आहिताग्नेः पूर्वमेव चोदयादंशुमालिनः । निखिलं तद्विजानीयादग्नेरुद्धरणं तथा ॥२८८।। आहिताग्नेरग्निहोत्रं सर्वश्रुतिसमीरितम् । निखिलेभ्यश्च कर्मभ्यः सततं ह्यतिरिच्यते ॥२८६।। तत्कर्मणः सर्वकर्मजालं यत्तदशेषकम् । परं तद्योग्यतामात्रं संपात(द)कमिति स्मृतम् ॥२६०।। तस्मात्तदुदयात्पूर्व स्मातं निवर्त्य चाखिलम् । ततः संकल्पनियतस्त्वग्निहोत्रस्य कर्मणः ॥२६॥ होष्यामीत्येव संकल्प्य सायम्प्रातः समाचरेत् । संकल्पानन्तरं तस्य तदुद्धरणमुच्यते ॥२६२।। अकृत्वैव (तु) संकल्पं न तदुद्धरणं चरेत् । कृते तस्मिंश्चसंकल्पे तन्मध्ये स्मार्तकर्म तत् ॥२६॥ न किंचिदपि कुर्वीत महावैदिककर्मणि । कर्मणोऽन्यस्य संकल्पेऽन्यकर्मान्तरमुच्यते ॥२६४।।
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वैदिककृत्यस्यसर्वतःप्राधान्यवर्णनम् २८८७ प्रबलं वैदिकं कर्म सर्वेष्वपि च कर्मसु । तत्कृत्वैवपुरापश्चापित्रोः कुर्याच्छवक्रियाम् ॥२६॥ शवे निपतिते गेहे पित्रोरपि पुनः किमु । स्नात्वा वाससा सस्वं अग्निहोत्रं यथा पुरा ॥२६६।। निवर्त्य तत्परं सर्व कुर्यादिति परा श्रुतिः । तद्वदिकस्य कृत्यस्य संकल्पेऽस्मिन्कृते यदि ॥२६७।। यस्य कस्यचिदेकस्य तदन्तःपातिनामपि । मध्ये वा ऋत्विजां नूनमाशौचं सूतकन्तु वा ॥२६८।। नास्त्येवेति ततः प्राह तस्मादत्र तु ऋत्विजः । स्नात्वा कर्माणि कुर्वीरन् कर्मकाले तु तत्पुनः ॥२६६।। वैतानिकस्थलं त्यक्त्वा दूरे तिष्ठति नात्र तत् । यावत्कर्म ततो भूयो बहिरन्वेति तं पुनः ॥३००।। एवं चेदृत्विजामन्यद्गोत्रिणामपि केवलम् । लग्नानां तत्र विप्राणां कीदृशं कर्म तद्भवेत् ।।३०१।। तत्तादृशं कर्म तस्मादुपमारहितं परम् । तत्परस्य ब्राह्मणस्य वैदिकस्य महात्मनः ॥३०२।। तद्धर्माः पृथगेव स्युः पितृदीक्षादयोऽखिलाः । गर्भदीक्षादयः सर्वे तस्यास्य च पृथक् पृथक् ।।३०३।। दिङ्मात्रमपि चोच्यन्ते वैदिकस्यान्वहं तराम् । उदयास्तमयात्पूर्व सूर्योपस्थानमीरितम् ॥३०४।। प्रतिपक्षेष्टितस्तद्वत्क्षुरकर्म हि पर्वणि । अतः सपित्रोशब्द सा (दीक्षाकेशस्थितिः सदा)
केशधारणरूपिणी ॥३०५।।
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२८८८
कण्वस्मृतिः कन्याकुम्भकुलीरेषु पत्नीगर्भे सुसन्ततम् । प्रत्यब्दमासपक्षेषु चानुमनुयुगादिषु ॥३०६।। प्रोच्यते वेदवाक्येन तस्मात्तु क्षुरकर्म तत् । आहिताग्नः पर्वणि हि कथितं तु विशिष्यते ॥३०७।। इष्टयभावेऽपि तत्कर्म मात्रादपि च केवलम् । यत्किंचित्कर्मणादिष्टिकमकदेशतः ॥३०८।। कर्मणादिष्टिसिद्धिश्च भवत्येवेति तत्कृतम् ॥३०॥ यावतः कर्मणः कर्तुमशक्तावपि तस्य वै । अङ्गमात्रास्यात्तु कृतौ समीचीनं भवेत्किल ॥३१०॥ सोऽयं तस्मादाहिताग्नेर्न कालादिनिरीक्षणम् । क्षुरस्य कार्य नैव स्यात्सकालः क्षुरकर्मणः ॥३११॥ नित्यतः समुपक्रान्तस्तस्याइष्टरुपक्रमे । त्यक्तनष्टाग्निहोत्रस्याहिताग्नेरेवमप्यति ॥३१२॥ चोदितं तद्धि चैवं स्यादाहिताग्नीतरस्य च । वर्णिनो ग्रहणश्चापि वैदिकस्यैव केवलम् ।।३१३।। उपाकर्मणि चोत्सर्गे व्रतानां सन्ततं तराम् । यदा तदा खुरं स्याद्धि न कालादिनिरीक्षणम् ।।३१४।। कूष्माण्डे गणहोमे च प्रायश्चित्ते छुपस्थिते । सूतकान्ते प्रसूत्यन्ते व्रते(त)चान्द्रायणादिषु ॥३१।। नैमित्तिकब्रह्मकूर्चे न कालादिनिरीक्षणम् । देवासुरसुराणां त(त्)त्रिविधं परिकीर्तितम् ।।३१६।।
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२८८६
ब्रह्मापणबुद्धवसर्वकर्मणामनुष्ठानम् श्मश्रूपपक्षकेशानां मानवं प्रथमं स्मृतम् । उपश्मश्रुकेशवपनं तदनन्तर ...."म् ॥३१७।। एतद्भिन्नं तृतीयं स्यादासुरत्वसमंजसम् । केचित्त्वयं प्रदायाथ स्वमत्या तत्परं शुचिम् ।।३१८।। समुद्धृत्य विधानेन चोदयान्तर्दशोत्तरम् । जपं कुर्वन्ति गायत्र्यास्तक्रियामध्य एव वै ॥३१॥ उदयानन्तरं सूर्योपस्थानमनन्तरम् । अग्निहोत्रं हि कुर्वन्ति तदेतदसमंजसम् ॥३२०॥ कर्ममार्गस्य कालं वै ज्ञानिमार्गस्य चेत्पुनः । ब्रह्मार्पणधिया सर्व कर्म तरिक्रयते परम् ॥३२॥ स्नानसंध्याग्निहोत्रादि स्मात वैदिकजालकम् । यत्कर्म तद्ब्रह्मधिया क्रियते किल तेन वै ॥३२२॥ को भेदः कर्मणां चेति कृत्स्नानां ब्रह्मरूपतः । तस्मात्कृत्वान्वहं सन्तः कृत्वैतद् बाधकन्तराम् ।।३२३॥ न भवेदिति च प्रोचुस्तदनुष्ठानमेतदु । नोत्तमत्वेन मन्वन्ते ज्ञानिनो वैदिकाः परम् ॥३२४।। न कर्मणि तु भिन्नस्य कर्मणः समुपक्रमः । विधि लमिति प्रोचुस्तदुपर्यपि केचन ॥३२।। इष्टमध्येऽग्निहोत्रं तक्रियते वा न चेत्पुनः । अन्वाधानात्परं भूयस्त्यज्यते किं तदुच्यताम् ॥३२६।। अतः स्यात्कर्ममध्येऽपि कर्मान्यत्कार्यमुच्यते । वस्तुतस्तु परं वच्मि मध्येऽस्मिन्स्मार्तकर्मणः ॥३२७।।
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२८६०
कण्वस्मृतिः कार्यान्तरं न कुर्वीत यावत्कृत्वा ततश्चरेत् । नौपासनात्परो धर्मो ब्राह्मणस्येह विद्यते ॥३२८॥
औपासने किलाधानमधं यावत्तु वा द्विधा। तेनाग्निहोत्रं तत्पश्चाद्दर्शादिस्तदनन्तरम् ॥३२।। आग्रयणं चातुर्मास्यं निरूढपशुरेव च । अग्निष्टोमादयः पश्चात्क्रतवो निखिलाः स्मृताः ॥३३०।। तस्मादौपासनसमं न धर्मान्तर मस्ति हि । अग्नौ प्रास्ताहुतिस्सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ॥३३१।। आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टरेन्नं ततः प्रजाः । तत्मादौपासने सूर्यायाहुतिर्दीयते परा ॥३३२।। तावन्मात्रेण सर्वेषामन्नादानां धरातले । महतां विद्यमानानां योगिनां ब्रह्मवादिनाम् ॥३३३।। जङ्गमानां च सर्वेषां क्षुधार्तानां विशेषतः । अन्नमन्नं महाक्षन्नः को वा तस्या निवृत्तये ॥३३४॥ प्रदास्यति महाभागः अटतामिति सर्वतः । भक्ष्यभोज्यैश्च लेह्य श्च चोध्यैरपि सुधास्रवैः ॥३३।। सूपेन परमान्नेन नानाशाकविशेषतः । प्रभूतसर्पिषा दध्ना पयसा मधुना फलैः ॥३३६।। दातुरन्धस्तु यत्पुण्यं तत्कोटिगुणितं फलम् । महदाप्नोति परमं नात्रकार्या विचारणा ॥३३७||
औपासने परा देवा वेदाः शास्त्राणि कृत्स्नशः । तीर्थानि पुण्यक्षेत्राणि व्रतानि विविधान्यपि ॥३३८॥
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गार्हप्रत्यस्थापन्नवर्णनम्
२८६१ कृच्छ्रचान्द्रायणादीनि दानानि विविधान्यपि । तुलाभारमुखान्येवं यानि लोकेऽधिकानि वै ॥३३६॥ फलाधिकानि वर्तन्ते तत्कर्ता तानि विन्दति । तस्मादौपासनं सायं प्रातश्च सुसमाचरेत् ॥३४०॥ धृत्वोखया विशेषणविवाहेऽग्निविशेषवित् । बिभृयादुखयैवैनं न तु भूमौ विनिक्षिपेत् ॥३४१॥ भूमौ तु गार्हपत्यस्य स्थापनं स्मृतिचोदितम् । औपासनस्य तत्प्रोक्तमुखं कृत्वा ततो यथा ॥३४२॥ सौलभ्याधारणामूलं भवेत्तस्यां निधायतम् । नित्यानुहरणं कुर्यात्कृते त्वैवं हि तद्गृहे ॥३४३॥ भव्यानुहरणे पूर्व बभूवुर्यानि कृत्स्नशः । मङ्गलानि प्रतिदिनं महोत्सवपरम्पराः ॥३४४।। पूर्व तु शेषहोमस्य विप्रागमविशेषकाः । तदर्चनाविशेषाच्च तद्भोजनपरम्पराः ॥३४५।। सर्वबन्ध्वागमाश्चापि स्वस्तिवाचनपूर्वकाः । असंख्याका अनन्ताः स्युर्मङ्गलध्वनयोऽनिशम् ॥३४६।। उख्यानुहरणं यत्तक्रियते गृहिणान्वहम् । सायंप्रातश्च विधिना मङ्गलायतनं हि तत् ॥३४७॥ तस्यानुहरणं पश्चाद्रथस्योत्सवनादिकः । गृहप्रवेशहोमाख्य आग्नेयश्च तथाविधः ॥३४८।। सप्तर्षि अरुन्धतीपूजादर्शनादिमहोत्सवः। औपासनसमारंभस्तद्गतेर्वनमर्चनम् ॥३४॥ .
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२८६२
कण्वस्मृतिः तहीक्षानियमा दिव्या दम्पत्यालापनादिकाः। महदाशीरुत्सवश्च भूषणोत्सव एव च ॥३५०।। दीपोत्सवो दीपशान्तिः कुलाचारादयोऽखिलाः । चौर्योत्सवो हेलनाख्यो बन्धुभक्तिमहोत्सवः ॥३५१।। गीतोत्सवो वाद्यरंध्रभाषणोत्सवसंज्ञकाः। शेषहोमो नाकबलि महेन्द्राणी(णं?) समर्चनम् ।।३५२।। त्रयस्त्रिंशत्कोटिसंख्या तद्देवानां समर्चनम् । महादिशामुत्सवश्च ताम्बूलोत्सव एव च ॥३५३।। तहम्पती महापूजा तन्नामोक्त्युत्सवः परः । गृहाग्रामविनिर्याणांमहाजलमहोत्सवः ॥३५४।। हारिद्रजलतच्चूर्णगम्धकुङ्कुमवस्तुभिः । दोलोत्सवोदेवतोद्वासनसंज्ञोत्सवः परः ॥३५५।। कङ्कणोद्वासनोबन्धोद्वासनादिकमित्यतः । यद्भव्यजातं तत्सर्वमन्वहं तत्ततोऽधिकम् ॥३५६।। भवत्येव ततो यत्नादुख्यमग्निं सदा धरेत् । यदि भूमौ निक्षिपेत्तु तपद्भूमिशुचिः सदा ॥३५७।। सशान्ति कुरुते तस्मात्परं तण्डुलहोमतः । गार्हपत्याख्यकश्चित्तु पुरोडाशादिना न तु ।।३५८।। हविषापाशुकेनैव नित्यशान्तो भवेदहो। नचेद्गार्हपत्याख्यो यजमानस्य सन्ततम् ॥३५६।। तस्मिन्नतीते वर्षौं पललं हि तदिच्छति । वह्नयो वैदिकात्तस्माद्गार्हपत्यादिकास्त्रयः ॥३६०॥
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पञ्चपाककरणासमर्थस्यविकल्पविधिवर्णनम २८६३ पञ्चपाकास्तापनीया नायमौपासनः कदा । तथाकर्तुमशक्तश्चेत्समारोपणतोऽपि वा ॥३६१।। अश्मनः समिधो वापि भर्तव्यः सन्ततं द्विजैः । परित्यजेद्यदि शुचिं विरहीत्युच्यते बुधैः ॥३६२।। सायं प्रातस्ततो नित्यं वन्युपस्थानमाचरेत् । होमात्परमुपस्थानं कार्यों होमस्ततः पुनः ॥३६३।। होमं विना ह्युपस्थानं न कदाचित्समाचरेत् । प्रवरस्यदितत्काले शुचिर्भक्त्या समन्वितः ॥३६४।। सूर्यायेदं नममेति तद्गृहाभिमुखो जपेत् । बुध्वा तं होमकालं वै तथास्विष्टकृतश्च वै ॥३६।। चतुर्थ्यन्तेन तत्पश्चात्तदुपस्थानमाचरेत् । प्रणमेत प्रयत्नेन गोत्राभिवादनं च तत् ॥३६६।। कुर्यादेव विधानेन न तु तूष्णीं स्वयं शुचौ । लौकिके जुहुयाद्यत्र कुत्रापि यदि वै तदा ॥३६७।। चरेद्वृथा हि तत्कर्म तथा नप्त भवेद्ध वम् । यतोऽयं वह्निरेवं हि भार्याधीनो बभूव हि ॥३६८।। पुरा तु ब्रह्मसदने निर्णयस्तु तथा कृतः।
औपासने स्थिते गेहे भार्याधीनेन कुत्रचित् ॥३६॥ प्रवासे यजमानस्य यदि प्रत्यब्दमागतम् । तदा तु लौकिके कुर्यादनौ पाणौ नचाचरेत् ॥३७०।। दर्भस्तंबेऽप्सुवा जायामग्नौकरणमापदि । न कुर्यादेव सहसा पाण्यादिषु हि याजुषः ॥३७॥
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२८६४
कण्वस्मृतिः नियमोऽयं याजुषस्य श्राद्धकर्मणि पावकः । वैदिकः कथितः सद्भिर्बह्व,चानां तथैव हि ॥३७२।। मुख्यः कल्पः पावके स्यादनौ करणकर्मणः । विकल्पात्पाणिहोमोऽपि तदादिस्तदनन्तरम् ॥३७३॥ प्रयतो वैश्वदेवान्ते ब्राह्मणानतिथीनपि। भोजयीत च बालादोन्मानुषोऽयं महासवः ॥३७४|| अजस्रं वैश्वदेवादाववसानेऽथवा शुचिः। औदुम्बर्यश्चसमिधो जुहुयाद्दश वा शतम् ॥३७।। तावत्संख्यान्नाहुतीश्च श्रीकामः कालयो योः। देवयज्ञोऽयमुदितः केचित्तु शकलाहुतिः ॥३७६।। इमं यज्ञं तमेवोचुर्यत्पितृभ्यः स्वधेति वै । तर्पणं क्रियते यत्तु पितृयज्ञं प्रचक्षते ॥३७७|| येयं पूर्व बलिः प्रोक्ता वायसानां शुनामपि । एषा(ष) वै भूत यज्ञः स्यादतिथीनां तु भोजनम् ।।३७८।। नृयज्ञः कथितः सद्भिःब्रह्मयज्ञस्त्रयीमयः । एवं पञ्चमहायज्ञाः श्रुतिप्रोक्ताः सनातनाः ॥३७६।। नैषामङ्गाङ्गिभावोऽस्ति स्वतन्त्रास्ते परस्परम् । तर्पणं ब्रह्मयज्ञस्य देवादीनां यदीरितम् ॥३८०॥ तदङ्गमेवतस्याः स्यात्तच्चनित्यमितीरितम् । देवानां प्रथमं तत्र तर्पणं समुदीरितम् ॥३८॥ ऋषीणामथ तत्प्रोक्त पितृणां तु ततः परम् । ब्रह्मादयोऽपि ये देवा वेदोक्ता अष्टमे मताः ॥३८२।।
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ब्रह्मवेदाध्ययनेऽधिकारित्ववर्णनम् २८६५ नमोब्रह्मणसुस्पष्टाः काण्डानुक्रमतो मताः। तत्तद्व देष्वेवमेव काण्डानुक्रमतस्त्विमे ॥३८३॥ ज्ञेया एव न चान्येऽत्र ब्रह्मवादिभिरीरिताः । ऋषयस्त्वेवमेव स्युः पितरोऽपि तथा मताः ॥३८४।। श्रुतिसंबन्धिनः कृत्स्नास्तत एव हि तर्पणम् । तेषामेव प्रकर्तव्यत्वेन तच्चोदितं परम् ॥३८५।। गणास्त एव कथिता अग्नये वायवेत्यादिना । एकादशैते कथिताः पल्यानेनादिकाः स्मृताः ॥३८६।। तत्रपन्यनुवाकेयाः पत्न्यस्ता एव चोदिताः। एतत्त्वनुवाकोक्तपत्नीनां मन्त्रमूलतः ॥३८७।। पठनादप्यपत्नीकः सपत्नीक इतीरितः । अपत्नीको ब्रह्ममेधानध्यायी श्रोत्रियोऽपि सन् ॥३८८।। सपत्नीको 'ब्रह्ममेधाध्यायी न संशयः । पत्नीपुत्रादिराहित्ये वैकल्यं श्रोत्रियस्य न ॥३८॥ विशेषेण ब्रह्ममेधाध्येतुस्तन्नास्ति सन्ततम् । पञ्चभार्यो दशसुतोऽप्यपत्नीकोऽप्यपुत्रवान् ॥३६०।। यो ब्रह्ममेधानध्यायी स एव कथितस्तथा । भार्यामात्रविहीनेन ब्रह्ममेधी महामनाः ॥३६१।। पत्नीमन्त्रैकसंलब्धसंस्कारहोतृसंस्कृतः । नित्यपत्नी समायुक्तस्तुच्छपत्नीविनाशतः ॥३६२।। अपत्नीकः कथमयं भवतीत्यसकृत्तराम् । मीमांसा चात्रकर्तव्या धर्मब्रह्मादिवादिभिः ॥३६३।।
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२८६६
कण्वस्मृतिः ब्रह्म वै चतुर्होतारः तेभ्यो यज्ञोऽधिनिर्मितः । स हि नारायणो ब्रह्मा पुरुषरूपेण तत्र च ॥३६४।। वर्तते चानुवाकेन चोत्तरेण जगन्मयः । सृष्टिस्थितिविनाशानां कर्ताकारणकारणम् ॥३६॥ करणस्यापि करणं जगजन्मादिकारणम् । सत्यज्ञानानन्दमयं सदसञ्चिन्मयात्मकम् ॥३६६।। तद्र पेणावतीणं तत्तस्याध्येता तदात्मकः । ब्रह्मवाद्युच्यते सद्भिः स यैर्न निषिध्यते ॥३६॥ स सर्ववेदयज्ञौधसत्कर्मव्रतकृन्मतः । स उ वै वैदिकश्रेष्ठःकर्मिष्ठः कर्मठोऽशठः ॥३६८।। सर्वाचार्यः सर्वबन्धः संप्रदायप्रवर्तकः । सर्वाचारस्थापकश्च सर्वलोकविलक्षणः ॥३६६।। सूक्ष्मधर्मार्थतत्वज्ञः सोऽयं किल विशेषवित् । वेदमार्गानुसारी च परं वेदोक्तमेव हि ॥४००।। करोति कर्मनान्यत्तु गौणमुख्य तथा बलम् । देशकालमहापात्रद्रव्ययोगादिकेक्षणे ॥४०॥ मुख्यं तत्समनुष्ठानं कुरुते किल सन्ततम् । सत्कर्मभिः सदा पूजां करोति कुलसंभवः ॥४०२।। सपत्रपुष्पादि कृता देवस्य परमात्मनः। भवेन्नतु सदापूजा किन्तु साकर्मभिः कृतैः ॥४०३।। यथाशास्त्रादिविहितैरलभ्यैर्महतीति सा। प्रोच्यते तद्विशेषज्ञैः स हि सर्वोत्तमोत्तमः ॥४०४।।
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ब्रह्मज्ञानैकसाधनौपासनप्रयोगः २८६७ सा सर्वसाधारणतो न कतुं शक्यते किल । साधारणाश्चपुरुषास्तादृशं दूषयन्त्यपि ॥४०॥ तां क्रियां तत्स्वरूपं च तन्मन्त्रान्वेदवर्जितान् । मोचयन्तः स्वका पूजामधिकत्वेन केवलम् ।।४०६।। वर्णयन्तः परं भावमजानन्तः श्रुतेः पदम् । व्यत्यासयन्ति सन्मार्गा न मार्गान्वर्णयन्त्यपि ॥४०७।। तदीयमार्गभाग्यो वै वैदिकोऽपि न वैदिकः । अखण्डवैदिको मार्गः सर्वेषामेव कर्मणाम् ॥४०८।। आरंभकाले सङ्कल्पे परमेश्वरतुष्टये । करिष्यामीति संकल्प्य तत्तत्कर्म यथाविधि ||४०६।। समनुष्टाय तत्पश्चात्तत्तत्कर्मान्त एव हि । प्रीणातु भगवान्देवः परमात्मा सदा हरिः ॥४१०॥ अनेन कर्मणा चेति त्यागं कुर्याज्जलेन वै। एतच्चक्रधरम्याम्य पृजनं महदेककम ॥४११।। सद्भिरुक्तं विधानेन परमवैदिकोत्तमः। पूजनं देवदेवस्य परं कर्मभिरेव वै ॥४१२।। कथितं तत्समासेन तानि कर्माणि सांप्रतम् । प्रवक्ष्यामि क्रमेणैव ब्रह्मज्ञानैकसाधकम् ॥४१३॥ औपासनं वैश्वदेवं पार्वणं च तथाष्टकाः । मासिश्राद्धं सर्पबलिरीशानबलिरेव च ॥४१४॥ अग्निष्टोमोऽतिपूर्वश्च उक्थ्यः षोडशसंज्ञिकाः ।
अतिरात्रोप्तोर्यामश्च वाजपेयश्च सप्त वै ॥४१।। १८२
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२८६८
कण्वस्मृतिः कथितास्तु समासेन हविर्यज्ञास्तथैव च। अमिहोत्रं च दर्शादि तथैवाग्रयणं महत् ॥४१६॥ चातुर्मास्यनिरूढे च सौत्रामणिरतः परम् । पितृयज्ञाश्च कथिता एकविंशतिसंज्ञिकाः ॥४१७|| कर्म यद्यपि तत्प्रोक्त त्रिक्षणस्थायि केवलम् । तानीमानि तु कर्माणि नित्यान्याहुर्मनीषिणः ॥४१८।। कथं तदिति हि प्रोक्त वीप्सावाक्येन केवलम् । तेन तत्कर्म कथितं केचिदत्र महर्षयः ॥४१६।। चत्वारिंशत्संस्काराः प्रोचुरेवं च तद्यथा। पद्यापद्यापि वक्ष्यामि क्रमेणैव पुनश्च तैः ॥४२०॥ गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोनाम(जात)कर्म च । नामान्नप्राशनं चौलं मौंजीव्रतचतुष्टयम् ॥४२॥ स्नानं गोदानिकं चेति विवाहः पैतृमेधिकम् । परं निष्क्रमणं त्वेवं परो विष्णुवलिः परः ॥४२२॥ तदंगभूतया दिव्यं सर्वाण्युक्तानि च क्रमात् । यस्य वेदश्ववेदी च विच्छिद्य ते त्रिपौरुषम् ॥४२३।। स वै दुर्ब्राह्मणो नाम सर्वकर्मबहिष्कृतः । दौर्ब्राह्मण्यविनाशाय द्विजो भक्त्या धिया युतः ।।४२४।। नित्यमेव यतस्तस्माद्यज्ञाने तान्सदा यजेत् । पितणां प्रजया पश्चादेतेषु त्रिषु सर्वदा ॥४२।। चेतसा भीतियुक्त न तदापाकरणहेतवे। स्वाध्यायोऽयं ह्यधी(मधे)तव्यो(१)महातन्नियमैर्युतः ।।४२६।।
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वेदानामनभ्यासे पतनवर्णनम् २८६ अनधीत्यैव यो वेदं शास्त्रेषु कुरुते श्रमम् । स पापीयानृषिमृणान्मुक्तो नैव भवत्यलम् ॥४२७॥ विप्रजन्म समासाद्य वेदं तमनधीत्य च। तेन वेदेन किं चेति वदन्मम महाजडः ॥४२८।। शास्त्रमात्रश्रमोऽतीव सप्ततन्तून्विहाय च। सुस्वार्थ मैथुनं कुर्वन्नदन्निष्टमटन्वनम् ॥४२॥ संपादयन्वृथातीव सत्क्रियाश्च विसृज्य वै । कुटुम्बभरणेऽतीव नित्यजागरसंमुखः (संयुतः)॥४३०॥ लुठन्महीतले तूष्णीमधोगच्छति मानवः । अनधीतैकवेदोऽपि तक्रियामन्त्रमात्रतः ॥४३॥ कृत्वा कर्माणि नित्यानि ज्योतिष्टोममुखानि वै । ब्राह्मणो ब्रह्म सायुज्यं लभते नात्र संशयः ॥४३२।। त्रिपूर्ववेदिविच्छित्ताविन्द्राग्नी पशुना यजेत् । त्रिपूर्वसोमविच्छित्तौ दौर्ब्राह्मण्यनिवृत्तये ॥४३३॥ तदाश्विनाख्य पशुना यजेतैवाविचारयन् । वेदोक्तकर्मभिनित्यैरेभि... रेव(हि?) जायते ॥४३४॥ चित्तशुद्धिाह्मणस्य नान्यैः कर्मशतैरपि । वेदोक्तमार्गो यो दिव्यः कथितश्चित्तशुद्धये ॥४३५।। सुलभोऽयं तमेवातः सेवेतैव विचक्षणः । चित्तशुद्धिवंशवृद्धिः पितृणां (तु) प्रसादतः ॥४३।। पितृप्रसादः श्राद्ध न न चान्येन कदाचन । एकविंशति यज्ञेषु मासि श्राद्ध तथाटकाः ॥४३७॥
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२६००
कण्वस्मृतिः महापितृयज्ञश्च पितृयज्ञस्तथैव च । पैतृकाणि हि कर्माणि चत्वार्याहुर्मनीषिणः ॥४३८॥ प्राधान्येनैव चोक्तानि जातकर्ममुखानि तु । मानुषाणि तु सर्वत्र प्रसिद्धानि जगत्त्रये ॥४३६।। पराणि दैविकान्याहुः सर्वाण्येतानि वै द्विजः । प्रतिसंवत्सरं कुर्यादेव पित्र्याणि शक्तितः ॥४४०|| शक्तिसाध्यानि कार्याणि कथं कुर्यादकिंचनः । प्रभूतधनधान्यानि ह्यग्निहोत्रमुखानि वै ॥४४॥ इत्याहुः केचनाचार्या वैखानसमहर्षयः । अपरे वालखिल्यास्तु वैदिकामतयोऽब्रुवन् ॥४४२॥ यस्य त्रिवार्षिकं वित्तं लक्षं लक्षार्धमेव वा। स कथं मत्तमातङ्गमनिहोत्रमुपासते ॥४४॥ पुनरन्ये ह्यश्मकुट्टाः स्वमतं प्राहुरुत्तमम् । रंभासंभोगकार्याय स्वर्गोऽयं विहितः पुरा ॥४४४।। पितामहेन देवेन तत्कार्याय मखः परः । रंभासंभोगकामा ये तैरेवाहिस हिक्रतुः ॥४४।। समनुष्ठ य एवेति नान्यकार्याय स स्मृतः । नैमिशा(ष)दि महाक्षेत्रे विद्यमानेश्वरार्चनात् ॥४४६।। मुक्तिर्नात्र विरोधो हि तस्मात्कुर्याद्धरेः सदा । प्रतिमासु पुराणेषु महारुप्रस्तरात्मसु ॥४४७॥ पत्रैः पुष्पैः फलैरर्ची षोडशैरुपचारकैः । नित्यपूजा विशेषेण तथा नैमित्तिकान्यपि ॥४४८।।
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त्रिविधऋणेभ्यऋणमोचनत्वप्रकारवर्णनम् २६०१ काम्यपूजां पक्षपूजां मासर्वब्दादिपूजनम् । जलाभिषेकपुष्पादिधूपाद्यश्च निवेदनैः ॥४४६॥ ब्राह्मण्यं ब्राह्मणे जातो न्यायोऽथायं क्रियामुखैः । उच्यते ब्राह्मणश्चेति स तु जातो महाऋणी ॥४०॥ स्वाध्यायाध्ययनाच्चापि ब्रह्मचर्यमुखादिना । ऋणं तं प्रथमं लंध्यं यज्ञैर्देवं ततस्तरेत् ॥४५१॥ सात्वतं विधिमास्थाय गीतनृत्तार्पणेन च । हरेर्गानं च नृत्तं च नटनं च विशेषतः ॥४५२।। सदा ब्राह्मणजातीनां विहितं नृत्यकर्मवत् । अर्धास्तमित आदित्ये पुनर|दयेऽनिशम् ॥४५३।। दिवैवाराधनं तस्य देवस्य परमात्मनः । कैवल्यदं सद्य एव तथा तदवलोकनम् ॥४५४।। यत्किंचित्क्रियते कर्म लौकिकं वैदिकं तथा। भोजनं गमनं दानमलङ्कारोऽथ भूषणम् ॥४५।। सर्व तत्प्रीतये कुर्यात्तन्निर्माल्यपरो भवेत् । तेनोपभोक्तभुक्त)स्रग्गन्धवासोऽलङ्कारचर्चितः ॥४५६।। उच्छिष्टभोजनश्च तस्य मायां जयत्यसौ। वैदिकानि तु कर्माणि शक्रादिप्रीतये खलु ॥४५७।। भवन्ति वै सुक्तिरसा भवत्यत्र कथं तथा। मुख्यं तमेव स्वीकार्य विप्रत्वस्य हि सिद्धये ॥४५८॥ गार्हस्थ्यं धर्मकार्याय परोपकृतिहेतवे । एवं ते वैदिकं मार्गमश्मकुट्टादयोऽखिलाः ॥४५॥
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२६०२
कण्वस्मृतिः वैखानसैकदेशापि चक्रुर्दूषणमेव वै। ते तु क्रमेण तद्भक्त्या वैखानसमहर्षयः ॥४६०॥ बालखिल्यास्तु संभूत्वा पश्चाजन्मान्तरे पुनः । संप्रक्षाला भवन्त्येव पश्चाजन्मान्तरे किल ॥४६॥ मरीचिपाः संभवन्ति तस्मिञ्जन्मनि केवलम् । वेदमार्गानुगां बुद्धिं संप्राप्य महतीं ततः ॥४६२॥ पितृभिशिक्षिताः सम्यग्वेदाभ्यासपरास्तरां । वासं गुरुकुले कृत्वा ऋचस्सामानि तानि च ॥४६३।। यजूंषि लब्ध्वा पुण्येन भवेयुः किल कर्मणा। सन्तः सत्पथगा धीराश्चांचल्यैकविवर्जिताः ॥४६४॥ सतां यजुस्सामऋचः श्रीदिव्या महती परा। तद्वन्तश्चतदर्थशास्तदनुष्ठानतत्पराः ॥४६॥ क्रमेणैव लभन्ते तं पन्थानं ब्रह्मवादिनाम् । सम्प्राप्य दिव्यज्ञानं तन्निदिध्यासनतत्परः ॥४६६।। सायुज्यनाम(मि)का मुक्तिं लभन्ते सद्गुरोस्तराम् । प्रसादेनैव कृपया पितृणामर्चया तथा ॥४६७।। अयमेव महामार्गों वेदोक्तात्यन्तसौलभः । अन्यः पन्था नायनाय श्रुतिरेवमुवाच सा ॥४६८।। ब्राह्मणस्यैव तद्विद्याशिक्षितस्य विशेषतः । द्वावेव श्रवणादीनां वेदवाक्यविचारतः ॥४६६।। सूत्राणां(शि) क्षया चापि मुक्तिः स्यात्तादृशी परा । विना वेदान्तवाक्यानां दिव्योपनिषदामपि ॥४७०।।
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नित्यनैमित्तिककर्मणाम्विष्णोराराधनवर्णनम् २१०३ दिव्यं ज्ञानं भवेन्मुक्तिः साक्षात्तेषां न संशयः । तदर्थभाषाशास्त्राणि चित्तव्यामोहकानि वा ॥४७॥ वैदिकेन ततस्तानि त्याज्यान्येव विपश्चिता। तथा सत्कर्मकालेषु भाषा या लौकिकी च सा ॥४७२।। वर्जनीया प्रयत्नेन तञ्चित्तज्ञानशुद्धये । दिव्यभाषा सदा ग्राह्या वैदिकेन महात्मना ॥४७३।। विशेषात्कर्मकालेषु ततोऽपि श्राद्धकर्मसु । महामौनेककालेषु क्रियाकारादिना तथा ॥४७४।। विलोकनादिना कुर्यात्पापसंदर्शनं नृषु ।। यदि मौनं त्यजेद्वाऽपि हठान्मोहाच्छलात्तथा ॥४७५।। वैष्णवी निष्कृतिदिव्या चेततुश्चतथा पराः । दिव्या व्याहृतयो यद्वा गायत्री वातिपावनी ।।४७६।। वेदमन्त्रं विना नान्यत्तारकं न हि विद्यते । दुरालापादिकालेषु नामान्याहुर्विपश्चितः ॥४७७|| पावनानि हरेरन्यदस्तीति परमं स्मृतम् । तस्माद्वैदिककृत्येषु निष्णातः सर्वदा भवेत् ॥४७८।। नित्यं यजेत निखिलैनित्यनैमित्तिकैरपि । शक्तस्त्वहीनक्रतुभिश्शतसंवत्सरादिभिः ॥४७६।। यजेतैव सदा विष्णोरर्चनाय द्विजाग्रणीः । अवेदवादिनो दुष्टान् धार्मिकान्धर्मदृषकान् ॥४८०।। तथागतांस्त्यक्तयज्ञान्कुचित्तान्यज्ञदूषकान् । परित्यजेद्रतो वै तान्यास्यान्यवलोकयेत् ॥४८॥
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२६०४
कण्वस्मृतिः विशेषेण ब्रह्मविद्या विषये वै वृथा कलिम् । न कुर्यादेव सहसा शक्त्या नित्यःस वो भवेत् ॥४८२।। नानाहिताग्निस्तिष्ठेत्तु न च दुर्ब्राह्मणोऽपि वा। येन केनाप्युपायेन दौाह्मण्यं समागतम् ॥४८३।। अपि स्वीकृत्य चण्डालान्नाशयेत धनं द्विजः । दौर्ब्राह्मण्येन नष्टस्याश्रोत्रियत्वेन वा तथा ॥४८४।। असोमयाजित्वेनैवं को लोकः स्यादहन्तराम् । नैव जाने नैव जाने नैव जाने पुनः पुनः ॥४८॥ वेदविद्भयस्ततो यत्नाद्विच्छित्तिर्नभवेद्यथा। मनुष्ययनः कर्तव्यस्तद्यत्नादपि केवलम् ॥४८६।। अदृष्टलाभो भवति विशेषेण न संशयः । नाहीनक्रतुभिस्तिष्ये(?)यजेतैव न चान्यथा ॥४८७।। कलापहीनक्रतवो दुस्साध्याः स्युर्हि देहिनाम् । सर्वक्रतूनां प्रथममाधानात्तु परंतराम् ॥४८८।। अग्निष्टोमस्त्वनुष्ठेयः अतिरात्रोऽथवा सदा। अतिराने प्रथमतो यदि चेत्समनुष्ठिते ॥४८॥ अधिकारस्तूत्तरेषु तेषु क्रतुष नैव वै। अग्निष्टोमे प्रथमतः कृते तु किल वच्म्यहम् ॥४६०।। ऋतूनामपि सर्वेषामनुष्ठानाय योग्यता। .. उत्तरेषां भवेदेव नात्रकार्या विचारणा ॥४६॥
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नित्यानुष्ठानाकरणेप्रत्यवायिकदोषवर्णनम् २६०५ अतिरात्रात्परं तस्यानुष्ठानं तु विनैव हि । अग्निष्टोमस्य मुख्यस्य नोत्तरक्रतुयोग्यता ॥४६२॥ एष हि प्रथमो यज्ञो निखिलानां मुखं परम् । ततोऽप्यत्यनिष्टोमः स्यादुक्थ्यः षोडशिका ततः ॥४६३।। अतिरात्रोझोर्यामश्च वाजपेयश्च तत्क्रमः । त एते सप्तसंख्याकाः सोमसंस्थाश्च सन्ततम् ।।४६४॥ अनुष्ठेया ब्राह्मणेन अकरणे प्रत्यवायिकाः । हविर्यज्ञास्ततो भूयः अग्निहोत्रं ततः पुनः ॥४६॥ दर्शश्चपौर्णमासश्चाग्रयणं तत्परं तथा । चातुर्मास्यानि प्रोक्तानि निरूढपशुरेव च ॥४६६।। सौत्रामणिस्तत्परं स्यापितृयज्ञोऽन्त्य उच्यते । एतानि किल कर्माणि चतुर्दशमहान्त्यपि ॥४६७।। नित्यानि कथितानि स्युः पावनानि द्विजन्मनाम् । ब्राह्मण्यपूर्तिरेतैःस्यादेतत्पूर्वाणि तानि हि ॥४६८।।
औपासनं वैश्वदेवः पार्वणं त्वष्टका तथा । मासि श्राद्धं सर्पबलिरीशानबलिरेव च ॥४६॥ सप्तैते पाकयज्ञाः स्युरेकवितिसंख्यया। कथितानि समस्तानि गृहिणो न तु वर्णिनः ॥५०॥ वर्णिनोऽध्ययनं त्वेकं गुरुशुश्रूषणं तथा । अग्निकार्य प्रतिदिनं भिक्षाचरणमेव च ॥५०१।। विप्रस्य जातमात्रस्य जातकर्म प्रकीर्तितम् । कर्तव्यत्वेन विहितं दिनाद्वादशमात्तु तत् ॥५०२॥
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२६०६
कण्वस्मृतिः नित्यं कर्तुं भवेद्भूयस्त्वतीतेषु दशस्वपि । अहन्येकादशदिने नामकरणाख्यकर्मणा ॥५०३।। कतु तश्च कृते भूयस्तञ्च नामाख्यकं परम् । तत्परस्मिन्नपि दिने कतुं वै शक्यते दिने ॥५०४।। दिनेऽतीते द्वादशे तु भक्तप्राशनकर्मणा । सहैव विहितं शास्त्रान्न पृथग्भिन्नकालतः ॥५०॥ मासि षष्ठे तञ्च कर्म कालेऽतीते तु तस्य च । वर्षे तृतीये चोलेन नान्तरा तच्च वै स्मृतम् ॥५०६।। तस्य कालेऽप्यतीते तु मौंज्या सह विधीयते । कर्तव्यत्वेन सततं जातकादीनि यानि वै ॥५०७।। तास्युस्ता निखिलान्यत्र मौंज्या सह विधानतः । तदानीमेव कार्याणि न तु भिन्नेन नेहसा ॥५०८॥ कर्म कर्मान्तरेणैव कर्तव्यं स्यात्प्रयत्नतः । यद्यतीतं कृतं कर्म भिन्ने काले प्रमादतः ॥५०॥ अपनीतेव्रतस्यापि पुनः करणमर्हति । पृथग्भिन्न भिन्नकालः समुहूर्तादयः स्मृताः ॥५१॥ प्राजापत्येन मुख्येन तद्वितीयादिना मुखम् । कर्तव्यं स्यादुपाकर्म तथा चोत्सर्जनं पुनः ॥५११।। प्राजापत्याख्य काण्डानि व्रतानि नव वै तथा । सौम्यान्यपि च दिव्यानि सप्ताग्नेयानि संविधिः ॥५१२।। वैश्वदेवाख्यकाण्डानि षोडश स्युर्हि संख्यया । प्राजापत्ये तत्र काण्डं पौरोडाशे विधीयते ॥५१३।।
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नानानुवाकानामवर्णनम्
।।५१८।।
याजमानं द्वितीयं स्याद्धोतारश्च तृतीयकम् । हौत्रं चतुथं संप्रोक्तं पितृमेधश्च पश्चमम् ||१४|| एतेषां ब्राह्मणानि स्युरनुब्राह्मणमेव च । काण्डत्रयं प्रकथितं नवकाण्डं च चोदितम् ||५१५ || तस्यास्य नवकस्यापि उपाकृतिरथापरम् । उत्सर्जनं च कथितं समारंभे समापने ॥ ५१६ || तद्रूयं (भूयः १) चोदितं सद्भिरेवं सौम्यस्य तत्परम् । आध्वर्यवं ग्रहश्चापि दक्षिणा च ततः परम् ||५१७ || समिष्टयजूंषि तत्पश्चादवभृथयजूंष्यपि । वाजपेयशुक्रियाणि सवश्चेति ततस्तथा ब्राह्मणानि च तेषां वै सौम्यानि स्युर्मनीषिणः । आप उन्दन्नु (न्तु) देवस्य प्रश्वद्वितयमध्वरः ॥ ५९६ ॥ सजोषा इन्द्रपर्यन्ता आदधे प्रमुखाग्रहः । ब्रह्मसंपदमानोनुवाकावध्यध्वरौ मतौ ||५२०|| उदुत्यमनुवाकांस्त्रीन् दक्षिणामूचिरे बुधाः । ब्राह्मणत्रयमेतेषां षष्ठकाण्ड उदाहृतः ॥५२१|| सत्रात्प्राचोऽनुवाकांस्त्रीनपि तद्ब्राह्मणं विदुः । उभये वै प्रश्न आद्य पञ्चमौ षष्ठसप्तमौ ॥५२२|| अग्ने प्रपाठके तुर्यमन्तिम श्चतुरस्तथा । अध्वरब्राह्मणं प्राहुरनुवाकानिमानपि ॥५२३|| त्रिवृत्सोम इति प्रश्नः सवाख्यः परिकीर्तितः । नमोवाचे तदूव तु प्रश्नौ शुक्रिय तद्विधिः || ५२४।।
२६०७
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२६०८
कण्वस्मृतिः पाकयज्ञमितिप्रश्नसप्तमाद्याःषडीरिताः। अनुवाकानाजपेयुस्तद्विधीन्प्रथमाष्टके ॥५२।। प्रश्ने द्वितीये. देवा वै यथेत्यष्टौ प्रचक्षते । एवं नवोदिताः काण्डाः सौम्यानाहुर्मनीषिणः ।।५२६।। अग्न्याधानं प्रथमतः अग्निहोत्रं ततः परम् । अग्न्युपस्थानमित्येव महाग्निचयनं तथा ॥५२७।। सावित्रं नाचिकेतश्च चातुर्होत्रं ततः परम् । वैश्वसृजोरुणायेति तद्ब्राह्मणमतः परम् ॥५२८।। अनुब्राह्मणमेवं च सप्ताग्नेयानि चोचिरे। राजसूयः प्रथमतः पशवः स्युस्ततः परम् ॥५२६।। इष्टयः स्युस्ततः सर्वा नक्षत्रेष्टिः परातनः । दिवश्येना अपाघाश्च सूक्तवाकानि तानि च ।।५३०।। उपानुवाक्यं च तथा याज्यानुवाक्यास्तथा पराः । नरमेधोऽश्वमेधश्च पशुबन्धस्तथैव च ॥५३१।। ब्रह्ममेधस्तथा कृत्यं सौत्रामणिरथक्रमः। अन्छिद्रमखिलं चापि वैश्वदेवाख्यकाण्डकम् ।।५३२।। सम्यक् षोडशसंख्याकं सर्वाण्येतानि कालतः । प्राप्तान्येव भवेयुर्हि कार्याणि ब्राह्मणेन हि ॥५३३।। आद्यकाण्डाष्टमः प्रश्नः राजसूयः प्रकीर्तितः । तद्ब्राह्मणं त्रयः प्रश्नाः षष्ठाद्याः प्रथमेऽष्टके ।।५३४।। वायव्यं काम्यपशवः परे काण्डष्टयस्त्रयः। सौत्रामण्यच्छिद्रनक्षत्रेष्टयः समुदाहृताः ॥५३५।।
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वेदानामध्ययनमनुगृहस्थाश्रमप्रवेशवर्णनम् २१०६ तुभ्यन्ताद्यास्तथा प्रोक्ता दिवश्येनादयश्च ताः । स्वाद्वीन्तानर्वनग्नेन इति प्रश्ना यथाक्रमम् ॥५३६।। सौत्रामण्यच्छिद्रनक्षत्रेष्टयः समुदाहृताः। . उभावामादयोत्यानुवाका व्यधिकविंशतिः ॥५३७।। युक्ष्वाहीत्यनुवाकश्च याज्या विद्वद्भिरीरिताः । वेदव्रतानि कृत्वैवं स्नानं कुर्याद्विधानतः ।।५३८।। विधानेन ततो यत्नालक्षण्यां त्रियमुद्हेत् । प्रधानहोमं निर्वा वाहयेत्तां समन्त्रकम् ॥५३६।। सम्यक् प्रवाहारयेद्वा वह्निमाहृत्य गोपथे । स्वधाम च विधानेन समागत्या विलम्बयन् ॥५४०।। गृहप्रवेशहोमाख्यं कुर्यादेवसमन्त्रकम् । स्थालीपाकं तथाग्नेयं विधानेन समाचरेत् ॥५४१।। कन्यादातगृहात्तस्य निर्गतस्य शनैश्शनैः । मार्ग चंक्रमतो मन्त्रैः कुर्वाणस्य च तत्त्रियाः ॥५४२।। दिनानि यानि मार्गे स्युस्तेषु कालद्वयेऽन्वहम् । गुप्तिहोमः प्रकर्तव्यो विवाहाग्नेविशेषतः ॥५४३॥ अकृते तु पुनस्तस्मिन्सोऽयमग्निविनश्यति । पुनः प्रधानहोमस्य प्राप्तिरेव भविष्यति ॥५४४।। पुनस्तदग्निसिध्यर्थमियं निष्कृतिरुच्यते। नान्यत्र निष्कृतिः प्रोक्ता गुप्तिहोमं ततश्चरेत् ॥५४५।। गुप्तिहोमं करिष्येति वह्नः संरक्षणाय मे। संकल्प्यैवं विधानेन परिषिच्य समन्त्रकम् ॥५४६।।
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२६१०
कण्वस्मृतिः
तदाहुतिद्वयं कुर्यान्नान्यत्किमपि विद्यते ।
अयं हि गुप्ति (प्र) होमे स्यान्नित्यं कालद्वये चरेत् ||५४७॥
तदभिरक्षणायैव
तदाद्य ेवं विधीयते ।
प्रधानाहुत्यथविवाहाग्निसिद्धिर्भवेत्किल स्थालीपाकादथपुनस्तदुपक्रम उच्यते । औपासनस्य कृत्यस्य कर्मणः श्रुति बोधनात् ||५४६|| तावन्मासस्तु पक्षो वा ऋतुर्वाप्ययनं शरत् । अहनद्योदिनं वापि मार्गमध्ये विधानतः ||५५०। सायं प्रातस्तस्य कालो न गृहे सोऽयमुच्यते । शकटारोहणात्पश्चाद् वध्वा कृशानुना सह ॥५५१ | होमकाले मार्ग मध्ये गुप्तिहोमोऽय मुच्यते । गृहप्रवेशहोमस्य चार्वागेव ततः परम् ||५५२|| यावज्जोवाख्य संकल्पपत्न्या कार्याद्विजन्मनाम् । अनुज्ञायं दक्षिणतः तेषां स्वप्रार्थनादितः || ५५३ ॥ औपासनारंभतुर्ययामिन्यपरपक्षके ।
॥५४८||
शेषहोमं प्रकुर्वीत मङ्गलस्नानपूर्वकम् ॥ ५५४॥ विवाहात्पूर्व दिवसे नान्दीश्राद्धमुदाहृतम् । ततः परं विधानेन लाजहोमात्परं तराम् ||५५५ || तीक्षायामनुष्ठेया दीक्षाधर्माः सनातनाः । नात संचरेद्वापि न ज्योत्स्नायां हिमेऽपि वा ॥२२६॥
नैव स्नानं प्रकुर्वीत तटाके वा सरित्यपि ।
हृदेवा देव खाते वा कूपे वा पल्वलेऽपि वा ॥ ५५७ ॥
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गृहस्थस्य नित्यकर्तव्यविधिवर्णनम् २६११ वेशन्ने दीपिकायां वा न मन्त्रैरघमर्षणैः । स्नानाङ्गतर्पणं नैव न संकल्पोऽपिवा तथा ॥५५८।। नित्यमुष्णेन तत्कुर्यात्सलिलेन सुगन्धिना। अलंकृतेन पात्रेण वेष्टितेनापि पर्णकैः ॥५५६।। गन्धाक्षतादिभिः सम्यक् संस्कृतेन कृतेन च । तथा तैलहरिद्राभ्यामुद्वर्तनमुखादिकम् ॥५६०॥ सर्वमङ्गलवाद्यश्च विना शीर्ष चरेदपि । संध्यात्रयं प्रकुर्वीत धार्य चन्दनमेव वै ॥५६।। नान्येन पुण्डं कुर्वीत कुङ्कुमाक्तः सदा भवेत् । सदापुष्पः सदाचूर्णसुगन्धो दिव्यभूषणः ॥५६२।। नैकान्नाशी भवेच्चापि सदा बन्धुभिरेव च । सुमङ्गलीभिविप्रैश्च भोजनं तदनुज्ञया ॥५६३।। कालद्वयं यथेच्छं च चरेदेव विधानतः । प्रत्यक्षलवणं त्यक्त्वा भक्ष्यभोज्यादिकं यथा ।।५६४।। क्षुदुत्पत्तिर्भवेत्तीक्ष्णा प्रभूताज्येन तच्छिवम् । भुञ्जीयादखिलं भव्यं द्रव्यं बुध्वा(ध्या)भिधारितम् ॥५६५।। यद्यत्र निखिलं द्रव्यं संमुखः सुमुखो मुदा । अश्नीयादेव सततं प्रसन्नः सन्वसेदपि ॥५६६।। दिवास्वापी भवेन्नैव नाह(क्तिद्वयं चरेत् । वध्वा तथाशयीतैव पृथड्नैव कदाचन ॥५६७।। कृत्वा दण्डं गन्धलिप्त मध्ये कृत्वा च तं यतन् । अभ्यर्च्य विधिना देवबुद्धया स्पृष्ट्वैव तं स्वपेत् ॥५६८।।
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२६१२
कण्वस्मृतिः दण्डं छत्रं वैणवं च तिरस्करणिकामपि । विचित्रामध्वगां कृत्वा चतुर्भिः षड्भिरुत्तमैः । ५६६।। अष्टभिर्वा द्विजैर्धारर्वेदघोषपुरस्सरम् । गीतवादित्रसंघेश्च सर्वमङ्गलसंवृतः ॥५७०।। बहिर्गच्छेत्तदागच्छेत्सायं प्रातश्च वर्षति । न चरेन्नैव निर्गच्छेन्न तुषारेऽतिधर्मके ॥५७।। न तप्तायां धरायां वा सोपानकोऽपि मङ्गले । नार्द्रायां कर्दमेवाऽपि गच्छेदपि च सङ्कटे ॥५७२।। अवशादागतं दैवात्सूतकं मृतकं त्यजेत् । इन्द्राण्युद्वासनात्तद्वदाकङ्कणविमोक्षणात् ॥५७३।। लक्ष्मीनारायणध्यानपरत्वेन सदा भवेत् । इन्द्राणीमपि गौरीणां सायं प्रातः समर्चयेत् ॥५७४|| यदि मोहेन तेनार्चे नित्या मङ्गलभाग्भवेत् । नित्यमोपासनं कृत्वा बृहत्सामेति मन्त्रतः ॥५५५।। तद्भस्मना प्रकुर्वीत स्वरक्षां तद्विधानतः। प्रयतानामिकाङ्गुल्या चेमांत्वमितिमन्त्रतः ॥५७६।। वध्वारक्षां प्रकुर्वीत शुभिके शिरमन्त्रतः । यामाहरेति मन्त्रेण मालिकामपि च स्रजम् ॥५७७|| बिभृयादपि(च)याने)न नीराजनरतश्च वै। तदा तदा च तन्मध्ये विप्राशीरपि सन्ततम् ॥५७८।। अत्यन्तावश्यकी ज्ञेया मङ्गलेषु पदे पदे। आगतानां विशेषेण बन्धूनां च द्विजन्मनाम् ॥५७६।।
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सर्वपूजाविधानम्
२६१३ याचकानां दरिद्राणामपि पूजाविशेषतः । विधानेनैव कर्तव्यं वासोऽलङ्कार भूषणम् ॥५८०।। दूरदेशान्तरस्थानां बन्धूनां सुहृदामपि । विशेषणात्र कर्त्तव्या मेलनं पूजनं परम् ॥५८१॥ कलहो नात्र कर्तव्यो नात्र कंचन पीडयेत् । दुःखयेत्ताडयेद्वाऽपि नावमेत्तोषयेत्परम् ॥५८२॥ अत्रसद्बन्धुसुहृद्विप्रवैर्युदासीनपूजनम् । गौरीशचीगनं(ण) सर्व भवेदेव न चान्यथा ॥५८३।। विप्रस्य करणं लक्ष्मीनारायणगतं भवेत् । शत्रवोऽप्यत्र पूज्याः स्यु? हूं दाः कलिचेतसः ॥५८४।। दुष्टा दुराचाररता अपि पूज्या विशेषतः । यथाशक्ति प्रदानैश्च सान्त्वसंवादनैरपि ॥५८।। शत्रवोऽप्यत्र(पूज्याः)वाच्या:स्युर्दत्वा देयमपि स्वयम् । सर्वेष्वपि च भव्येषु युग्मशाकक्रियापरा ॥५८६।। कर्तव्यायुगक त्याज्यं तत्रापि त्रयमेककं। न कुर्यादेव सहसा कुर्याच्चेत्सद्य एव वै ॥५८७|| कश्मलं तद्गृहे तस्मात्तादृशं वै परित्यजेत् । सार्षपं तवयं कार्य न कल्कान्यत्र कारयेत् ॥५८८।। सम्यग्)लवणशाकानि विशेषेण भवन्ति हि । आर्द्रकं नारदं त्वानं शिवमामलकं परम् ॥५८६।। दिनाष्टकात्पूर्वमेव संपाद्याखिलवस्तुभिः। संस्कृत्य सम्यग्लवणद्रव्यराशिपरिष्कृतम् ॥५६०।। १८३
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२६१४
कण्वस्मृतिः पात्राभिधारणं कृत्वा परिवेषणमादितः । प्रकुर्यात्तत्सतीगानपूर्वकं भोजनेऽन्वहम् ॥५६१।। बन्धूनां तत्र भोक्तृणां द्विजानां च महात्मनाम् । पयस्वाज्येषु दिव्येषु दधिरम्येषु भूरिषु ॥१२॥ परयोः सन्निधौ भुक्तौ वैश्वदेवैकवर्जनात् । यदत्र वृजिनं तन्न लक्ष्मीनारायणौ हितौ ॥५६॥ तत्सन्निधानाद्गौर्याश्च शच्याशोभनगिर्वणाम् । आसन्निधाने वरयोरपङ्क्तो भोजने तराम् ॥५६४|| कृच्छत्रयं प्रकुर्वीत ताभ्यां चेद्भोजने कृते । नैतत्किमपितत्प्रोक्त पायसं कुसरं विना ॥५६।। नाचरेद्विदुषां मुक्तिं भक्ष्याभावे ह्ययं विधिः । सत्सु भक्ष्येषु दिव्येषु परमान्नेषु भूरिषु ॥५६६।। नैवकश्चित्तरामत्र नियमो भनुरब्रवीत् । विप्रमध्ये सतीमध्ये विधवां नैव भोजयेत् ॥५६॥ कल्याणवेदिकामध्ये तेषु सर्वदिनेष्वपि । येषु केषु दिनेष्वेषु सतीषु ब्राह्मणेषु वा ॥५६८|| अकेशीर्वा सकेशीर्वा एतानेवौपवेशयेत् । न गाययेद्वा चैताभिर्गायन्ती,निषेधयेत् ॥५६॥ अपि ताभिः कृतं पाकं यत्नेनैव विवर्जयेत् । चौले चोपनये चापि ताभिरप्याहृतं जलम् ॥६००।। कुमारभोजनेऽप्येवं तथा ब्रह्मौदने शिवे । नाङ्गीकुर्यात्तु पाकाय ताभिर्नाग्निं न चानयेत् ॥६०१॥
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पंक्तिवर्ण्य भोजने दोषवर्णनम् २६१५ स्नानोदकाय पाकाय शाकसंवर्धनाय वा। नाभिः संवर्धिताश्शाक विशेषा दक्षिणामुखात् ।।६०२।। पश्चिमाभिमुखाद्वापि कल्याणेषु तु पाचिताः । यदि भुक्तास्ते द्विजैर्वाताभ्यां तद्वन्धुभिस्तुवा ॥६०३॥ तद्गृहे मरणानि स्युरशुभानि पदे पदे । तस्मात्तद्वर्जयेद्यत्नात् नात्रकार्या विचारणा ॥६०४॥ यद्यप्यावश्यकास्तास्तु तादृशः पुनरेव च । पक्त्यन्तरे यत्र कुत्र भोजयेद्वन्धुधर्मतः ॥६०।। नावमन्याश्चनायनात्पूजनीयाश्च वाग्यतः । मातृश्वभूम्ताहशैश्च नत्वान्यत्रैव भोजयेत् ॥६०६।। गृहिणो वणिनो भोज्याः सन्तो यज्वान एव च । कानप्रस्थाश्च भोज्याः स्युरेषु कर्मसु केवलं ॥६०५। यतयो न प्रवेश्याः स्युरस्मिन्सदसि कर्मसु । न ताम्बूलं वर्णिनां स्यात्प्रदेयं नात्र सन्ततम् ॥६०८॥ भुक्तये सर्वभक्ष्यादी() फ्योदध्याज्यपिटकान् । भुक्तियोग्थान्प्रदद्याश्च सग्गन्धादि विवर्जयेत् ॥६०६।। नेषु विद्युत्यर्जुनस्य नामान्युच्चारयेद्भिया । तांबूलादिप्रदाने तत्तत्कालेषु केवलम् ॥६१०॥ योग्यान्मन्त्रानुच्चरेच नरमेधं विवर्जयेत् । रक्षोन्नान् पितृसूक्तांश्च ब्रह्ममेधन्तथैव च ॥६११।। कृत्स्नमारण्यक काण्डं सन्तं प्राणादिकं त्यजेत् । समुद्र गच्छजालं च तदोपनिपदादिकम् ॥६१२।।
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२६१६
aurस्मृतिः
नोचरेत तदान्यानि पुराणादीनि कृस्नशः । पितृक्रियाप्रधानानि यामगाथादिकानि च ।। ६१३ || सप्रयत्नेनोश्वरेश्च पितृयज्ञादिकं तथा । साकमेधं शुनासीरीयकं तद्वश्वदेविकम् ||६१४॥ वारुणं तत्प्रघासं च कल्याणेषु विवर्जयेत् ।
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कुम्भाण्डश्चापिकूश्माण्डमसूरः कन्दसंज्ञकः ||६१५| मूलानिशा कुटादीनि कर्णप्रावरणं पुनः । निबो व्यो महासौम्यः सोमकेतुश्शिवारुणः ॥ ६१६॥ कर्णमूलं कर्णदामं
"पाप्मनः ।
पुण्यो वार्ताकजातीयः पटोल: पनसश्शिवः || ६१७॥ उर्वारुसरणस्सारः सारणोपसरित्तटः ।
एते शाकाश्शोभनदा : कल्याणेषु महर्षिभिः ||६१८॥ मुख्यत्वेनैव कुर्वीत सर्वसाधारणेन वै । देहे निपतिताः स्युश्चेत्प्रमादाद्वर्णविन्दवः ॥ ६१६ || जपेत्पृथिव्यै स्वाहेति चानुवाकं पराश्शिवाः । यदि वाकेन दैवेन ताडितस्त्वानपेन वा ॥६२०|| पवते सदवाक्यानि तानि सर्वाणि वै जपेत् । अवशाज्जलसिक्तश्चेद्भ्यः स्वाहेति वा जपेत् ||६२१|| शुना स्पृष्टिरस्पृश्यादिभिरेव वा । हरिद्रातैलचूर्णानि द्रव्यलिप्तो यदान्वहम् ||६२२|| उष्णोदकेन तु स्नानं पावमानीभिरेव च उत्तमाङ्गं विना स्नायादिदं विष्णुं च तं जपेत् ॥ ६२३||
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यज्ञानां ब्रह्मज्ञानफलसाम्यवर्णनम् २६१८ व्याहृतीश्च यथाशक्ति प्रजपेत्तस्य शान्तये । पद्भिन्नेषु चान्येषु निमित्तेषु तदा यदि ॥६२४॥ संजातेष्वखिलेप्वेवं श्रीसूक्त तारकं तराम् । भूसूक्त च कदाचित्तु लक्ष्मीसूक्तं कदाचन ॥६२।। न चेत्तु सर्वशान्त्यर्थ तृतीयदिवसे किल । गणनाथं प्रपूज्यादौ ब्रह्माणं च सरस्वतीम् ॥६२६॥ लोकपालांस्तथावाह्य पूजयित्वा विधानतः । विवाहमण्डपे भक्त्या सदः कृत्वा बहून्द्विजान् ॥६२७।। अभ्यर्च्य समलंकृत्य प्रत्येकं तैश्चमान्त्रिकम् । वेदोक्तामाशिषं दिव्यां गृह्णीयाइक्षिणादिना ॥६२८।। सर्वपीडाविनिर्मुक्तः सर्वमृत्युविवर्जितः। सर्वोपद्रवसंत्यक्तः सर्वारिष्टपराङ्मुखः ॥६२६॥ दीर्घायुदर्दीर्घसंपत्कः पुत्रपौत्रसमन्वितः। संप्राप्तकामः संप्राप्तब्रह्मविद्यामहामनाः ॥६३०॥ ब्रह्मज्ञानं च संप्राप्य ब्रह्मसायुज्यमृच्छति । किं चास्य वक्ष्ये माहात्म्यं य एवं महदाशिषम् ॥६३१।। कल्याणमध्ये कुरुते कारयत्यपि वा उभौ। कृतार्थों सर्ववेदानां यद्वा पारायणे फलम् ॥६३२।। यन्मखानां च सर्वेषां करणे फलमुच्यते । एते द्वे तत्र योक्तानां नित्यनैमित्तिकात्मनाम् ।।६३३।। काम्यानामखिलानां च ध्रुवं वै तदुदाहृतम् । महत्तदिव्यसन्दोहकृतप्राप्तमहाशिषाम् ॥६३४॥
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२६१८
कण्वस्मृतिः दौर्ब्राह्मण्यं कुले तेपां नास्त्येवादशपूर्वकम् । सवं यागप्रतिनिधिः कल्पोऽयं कश्चन स्मृतम् ॥६३५।। ब्राह्मणानां पुरा सृष्टं ब्रह्मणैव महात्मना । वेदक्रियासुचालस्यायेऽपि वातीवदुहृदः ॥६३६।। तेषामपि हितार्थाय महाशीरियमुत्तमाम् । सृष्टा किलातिचपलं सर्ववेदस्वसारतः ॥६३७।। समुद्धृत्य समुद्धृत्य चैकीकृत्य च तां चिरात् । प्रकाशिता जगत्यत्र तदेतत्तादृशं शिवम् ॥६३८।। महत्तु वैदिकं कर्म ब्राह्मणानां सुमेधसाम् । यद्यत्र शोभने तस्यः वस्त्रं कौतुकमुत्तमम् ॥६३६।। वध्वाहतस्य माङ्गल्यं वहिपृष्टं भवेद्यदि । दग्धमान्तं तथाधं वा यत्किंचिदपि वा पुनः ॥६४०।। उपदीकाहताः केशाः मूषकैर्वापि दंशिताः । द्वषाच्छन्तुभिरुत्कृन्ता येषां तेषां च कर्मणाम् ॥६४१।। आयुष्यसूक्तपठनं लक्ष्मीसूक्तस्य वै तदा। पुनर्वस्त्रान्तरादीनां तत्तन्मन्त्रैः परिग्रहः ॥६४२॥ निष्कृतिविहिता सद्भिर्वेदविद्भिद्विजोत्तमैः । यदि चण्डालसंस्पर्शो वरयोः संभवेत्तदा ॥६४३।। तदास्यान्मङ्गलस्नानं हरिद्रोष्णजलेन तु। यदि श्वकाकसंसृष्टिस्तदुष्णेनैव वारिणा ॥६४४|| हरिद्रामिश्रिते नैव घृतेन च विधीयते । नानात्परं रुद्रजपत्रिवारं निष्कृतिर्मता ॥६४५।।
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शेषहोमविधानवर्णनम् २६१६ आतपे यदि मूत्रस्य पुरीषस्य भवेन्न तु। दीक्षायामत्र तु तयोश्छत्रेण सह वै तदा ॥६४६॥ इदं विष्णुर्व्याहृतीश्च त्र्यंबकं च सुपावनम् । पश्चाच शुद्धाचमनादष्टवारं जपेत् क्रमात ॥६४७।। पुनश्छत्रं तत्तन्मन्त्राद्गृह्णीयात्तद्विधानतः । दीक्षासु सन्ततं तस्माद्विवाहस्य द्विजोत्तमः ॥६४८।। सच्छत्रस्त्वातपे कुर्यात्त्यागं मूत्रपुरीषयोः। शेषहोमात्परं प्रातः कुर्यान्नाकी बलिं शिवाम् ॥६४६।। तद्विधानं च वक्ष्यामि शचीं गौरी समर्चयेत् । वेदिकेशानदिग्भागे कृसराननिवेदनः ॥६५०। त्रयस्त्रिंशत्कोटिसंख्यदेवानामर्चनं क्रमात् । नमोऽन्तेनैव कुर्वीत सम्यक् संकल्पपूर्वकम् ॥६५१।। अष्टाभिः कलशैः पूवभागैस्तद्वच्च सर्वतः । संस्थितैः वैदिकां कृत्वाऽलंकृत्यैव विधानतः ॥६५२।। तन्मध्ये पृथुलैः कुम्भश्चतुर्भिः स्थापितैश्शिवैः । तन्तुभिर्वेष्टितैर्गन्धैः पुष्पैस्ताम्बूलजालकैः ॥६५३॥ हरिद्राजलकुम्भेन द्विमुखेन सुपाथसा। नवार्चान्याससंसिक्तः प्रादक्षिण्यक्रमेण च ॥६५४।। तत्संख्याकैः पुष्पदीपैः पुरंध्रीभिः समुद्धृतैः । परिक्रमणकर्तीभिस्तत्कृत्यमखिलं यथा ॥६५।। सर्वदेवपदस्पृष्टतद्ब्राह्मण्यसुघोषतः । त्रिः परिक्रम्य विधिनादिग्जयादिकलांछनम् ॥६५६।।
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२६२०
कण्वस्मृतिः जलाक्षताभ्यां संस्कृत्य पूजयित्वासतानपि । ऐरावतं च संपूज्य दक्षिणे चोत्तरे तथा ॥६५७।। सुप्रतीकं धराधारं त्रिःपरिक्रम्य तत्परम् । प्रति प्रति प्रवादाभ्यां विनियम्य परस्परम् ॥६५८॥
(न तत्सौमङ्गल्यवधथा) कृष्णान्मणींश्च तत्कण्ठे तद्देवानां च सन्निधौ । बनीयाद्गीतवादित्र पुरंध्रीगानपूर्वकम् ॥६५६।। ततः पुनश्च संकल्प्य फलदानानि चाचरेत् । तथा तांबूलदानानि दक्षिणादीनि शक्तितः ॥६६०।। ब्राह्मणेभ्यः प्रकुर्वीत तच्चालंकारपूर्वकम् । सभापूजां च कुर्वीत तदाशीः प्राप्य तत्परम् ॥६६१।। दम्पती चोपवेश्योभौ दम्पती पूजनक्रियां । प्रकुर्यातां विधानेन तदीयामाशिषां शिवाम् ॥६६२।। खीकुर्वतां तत्परं च दद्यात्ताभ्यां च दक्षिणाम् । तांबूलं च क्रमेणैव सर्वेषां च द्विजन्मनाम् ॥६६३।। तत्रत्यानां च सर्वेषां तांबूलं चापि दक्षिणाम् । शक्त्या लोभन दद्याश्च मञ्चारोहणमेव च ॥६६४।। डो(दो)लोत्सवोऽपि कर्तव्यो महाचूर्णोत्सवस्तदा । वीथीप्रदक्षिणं चापि पुनर्वेश्मप्रवेशनम् ॥६६॥ जलक्रीडाविधानं च तांबूलस्य च भक्षणम् । मध्याहे मङ्गलस्नानं पुनश्च स्वस्तिवाचनम् ॥६६६॥
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ब्रह्मादीनांपूजावर्णनम्
२६२१ स्तंभपूजां चतुर्दिक्षु नमोऽन्तेनैव चोदिता। पुष्पधूपादिनैवेद्यांतं वै तां तु समाचरेत् ॥६६७॥ ब्रह्मादीनां ततः पूजां पञ्चानामत्र कारयेत् । नवानामत्र कल्याणे प्रत्यक्षान्नं निवेदनम् ॥६६८।। भक्ष्यभोज्यैः फलैर्दिव्यैस्तांबूलैश्च सदीपकैः । नीराजनान्तैः कर्तव्यमन्यथाऽल्पायुरेव हि ॥६६॥ भवेदेव वरस्सेव्यो वधूः पश्चात्क्रमेण चेत् । हरिद्रा. स्युर्बान्धवाश्च तथा तस्मात्समाचरेत् ॥६७०॥ हरिद्रामिश्रसलिलदेवता किल चोदिता। वसन्तश्शोभनकरस्तस्य पूजा पराऽत्र वै ॥६७१॥ विशेषेण प्रकर्तव्या भाज्यबाहुल्यसिद्धये । देवतोद्वासनं कुर्याद्यज्ञेनेति च मन्त्रतः ॥६७२।। मोचनं कौतुकस्याथ तत्संपूज्याथ तच्चरेत् । पुण्याहं वाचयेत्पश्चाद् ब्राह्मणानपि भोजयेत् ॥६७३।। स्वीकुर्यादाशिषश्चापि दक्षिणादानपूर्वकम् । य एवं विधिना भव्यं कुरुते ब्राह्मणोत्तमः ॥६७४।। तस्य नन्दन्ति ते सर्वे वृद्धा ये प्रपितामहाः । पितामहाश्च ये वृद्धा वृद्धा ये पितरस्तथा ॥६७।। त एते शुभदेवाः स्युः सप्तएते (१) कुलोद्भवाः।। तेषां तुष्टया कुलस्यास्य प्रवृद्धिर्जायते परा ॥६७६।। एतेनैव विधानेन तस्मात्कल्याणसन्ततम् । मर्त्यः कुर्वीत सततं नित्यकल्याणसिद्धये ॥६७७।।
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२६२२
कण्वस्मृतिः कल्याणं पुत्रयोः कृत्वा द्वौषण्मासं ततः परम् । पित्रोविना मृताहं तु अन्यदर्शादिकं तु यत् ॥६७८।। दूर्वाक्षताभ्यां तत्सव कुर्यादेवाविचारयन् । यदि दूर्वाक्षतांस्त्यक्त्वा कारुण्यानां पितृक्रियाम् ॥६७६।। पितृव्यमातुलादीनामपि दर्शादिकं च यत् । तदादिकं दर्भतिलैःषण्मासं शुभात्परम् ॥६८०॥ पुत्रयोः स्वस्य वा मूढः सदादुःखी भवेदयम् । तस्मात्पैतृककृत्येषु स्वस्य वा पुत्रयोः शुभात् ॥६८१॥ षण्मासमध्यप्राप्तषु दर्शनैमित्तिकादिषु । दूर्वाक्षताः प्रशस्ताः स्युन दर्भा न तिला अपि ॥६८२।। पुत्रीविवाहः परमो विवाहात्तनयस्य वै । यतन(तनयः) स्वगृहेसम्यक्क्रियतेऽन्यत्र तस्य चेत् ॥६८३।। तस्मात्पुत्र विवाहस्य षण्मासात्तु परं तराम् । शुभकर्मसमाचारः स्वनुष्ठ यो विपश्चिता ॥६८४॥ पुत्रोपनयनं तस्माद्विवाहात्तस्य कर्मणः। शुभाचरणनाम्ना वै सततं ह्यतिरिच्यते ॥६८।। यतो विवाहं पुत्रस्य स्वीकृतो हि गृहान्तरे । तस्मादविवाहात्तु दुर्बलं नित्यमेव हि ॥६८६।। अथापि सम्यक्कुर्वीत विवाहात्तु तयोः परम् । शुभाचरणकर्माख्यषण्मासं च शनैश्शनैः ॥६८७।। तत्क्रमाञ्चापि वक्ष्यामि मन्दवारे च सौम्यके । वरयोरुत्सवं कुर्यान्मङ्गलस्नानपूर्वकम् ॥६८८।।
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सुपात्रे कन्या पुत्राच्छतगुणामता २६२३ बन्धूनां ब्राह्मणानां च सर्वेषां प्रीतिभोजनम् । नीराजनाशीर्वादौ च कर्तव्या चात्र दक्षिणा ॥६८६॥ भक्ष्यभोज्यादिकांश्चापि शतवादित्रपूर्वकाः। या याः क्रिया मङ्गलार्थास्तास्ताः सर्वा विचक्षणैः ॥६६॥ अष्टमे दिवसे चैवं षोडशे दिवसे तथा। स्थालीपाके तथान्वारंभरण्यां चैवं च दर्शके ॥६६॥ वारेषु शुक्रभान्वोश्च कुशलोत्सवमेव च । गमनागमने चैव निर्गमे पारिभद्रके ॥६६२॥ क्षेमोत्सवो द्वितीयेऽथ मासे कल्याणनामकः । शिवोत्सवस्तृतीयेऽथ तुर्येऽन्यश्रेयसात्मकः ॥६६३।। पञ्चमे मङ्गलाख्यश्च षष्ठ भद्रकनामकः । वरस्य केशवृद्धिस्तु तदा किल विधीयते ॥६६४॥ भुक्त्युद्भवश्च तन्मध्ये यावत्तावत्तु चोदितम् । शुभवृन्दं तथा तस्मात्प्रकर्तव्यं विचक्षणः ॥६६॥ एतादृशान्युत्सवास्तु कल्याणात्तु परं न तु । पुत्रस्य तु यतस्तस्मात्पुत्र्याः कल्याणमुत्तमम् ॥६६६।। अतएवात्र भूयश्च लौकिकी वानिरूप्यते । पुत्राच्छतगुणं पुत्री यदि पात्रो प्रदीयते ॥६६॥ इति यासा सुमहती किं चात्र पुनरेकका। वैदिकी वाक् च दिव्यास्यात्स्पष्टार्था समुदीर्यते॥६६८॥ पुत्रीदानं प्रशस्तं स्यादनेककुलतारकम् । तजातानां पुत्रतौल्यं पितृकर्मणि चोदितम् ॥६६॥
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२६२४ . कण्वस्मृतिः
एवं तु तनये दत्ते भिन्नगोत्राय चापदि । तज्जातानां पुनः स्वस्य जनकस्य कुलं प्रति ॥७००॥ समाननकार्या..."त(अ)ज्ञात प्रार्थनादिका । सहस्राख्य परं भूयो दायादानां च तत्पितुः ॥७०१॥ तदायादिः प्रकर्तव्यो हरिद्राजलक्षणम् । पश्चाश्च तत्वीकारोऽपि तदेतदखिलं कृतम् ॥७०२॥ किमासीदिति चालोच्य चेतसा पश्यताधुना। गोत्रप्रवेशादयन तत्संसृष्टौ तथा नराम् ॥७०३॥ जातायामपि तस्याःस्यात्तद्गोत्रस्य च तादृशः। तद्रिक्थसंबन्धकथा तत्समत्वकथापि वा ॥७०४।। क जाता तत्परं चास्य वंशो दुर्बल एव हि । बभूव किल हा तावत्प्रकृति याति केवलम् ॥७०॥ तावदेव हि विप्रत्वं न्यूनत्वं समुपागतम् । तत्रापि सम्यगधुना स्पष्टाय हि निरूप्यते ॥७०६।। अन्यगोत्रप्रदत्तो यः स तु स्वपितरं क्रमात् । पालयिता तस्य पित्रा च तत्पित्रा दत्तकेन वा ॥७०७।। सपिण्डीकरणे सम्यग्योजयेत्तत्र बाधकम् । न भवेत्किचिदपि वा दत्तजस्तु पुरा किल ॥७०८।। स्वपुत्रं न्यस्य तातैकगोत्रसिद्धयर्थमादरात् । स्वतातगोत्रमित्युक्तस्वपितामहगोत्रकम् ॥७०६॥ स्वताततातगोत्रस्य सिध्यर्थमिति तन्मनः । सुस्पष्टाय प्रकथितं तदर्थो गुरुणोदितः ॥७१०॥
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गोत्रपरिवर्तने नानामतानि
२६२५ अस्य गोत्रप्रदत्तोऽयं स तु स्वतनयं ततः । जनकस्यैव गोत्रेण योजयेदिति वै मनुः ॥७११॥ अन्यथा तस्य गोत्रस्य साङ्कयं प्रभवेत्किल। तेन चण्डालता भूयात्तद्वंशस्य ततस्त्यजेत् ॥७१२।। यदि दत्तस्वतनये स्वगोत्रे न प्रवेशयेत् । दत्तजावथ तज्जो वा तद्गोत्रद्वयजास्तुते ॥७१३॥ दत्तजः पितरं वृत्तं गोत्रे तत्पालकस्य वै। पितुस्सपिण्डीकरणं कुर्यादिति मनोर्मतम् ॥७१४॥ दत्तस्य पितरं चेत्तु स्वगोत्राद्भिन्नगोत्रिणम् । मुक्त्वैवं तूष्णीं तत्पश्चाद्भोजयेत्तत्ततादिभिः ॥७१।। तत्पिता जनको नैव तज्जस्तत्प्रपितामहे । योजयेदेव धर्मेण शास्त्रेण च सुवर्त्मना ॥७१६।। एवं पन्था महान्प्रोक्त एवं सत्यत्र दत्तजः । स्ववंशसाकर्यभिया युक्तो धर्मेण संयुतः ॥१७॥ स्वपुत्रस्वपितुर्गोत्रे योजनाय स्वबन्धुभिः ।। सम्यगालोच्य तान्जातिजनान्ल्यूह्याखिलान्नपि ॥७१८।। कृत्वा प्रदक्षिणं नत्वा वंशोद्धरणहेतवे । इत्येवं प्रार्थयेत्सर्वान्वरं दत्वा शतं शमम् ॥७१६।। सहस्र विभवे कुर्याद्गोत्रभ्रष्टस्य मे सुतम् । वंशसाङ्कर्यशून्योऽयं युष्मद्गोत्रे स्वकीयके ॥७२०।। उपनेष्यामि यूयं च स्वीकृत्यैवं स्वगोत्रके। हरिद्राजलपानेन कृतार्थ कुरुताधुना ॥७२१।।
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२६२६
कण्वस्मृतिः सम्यक् त्रिपूर्वपर्यन्त असौ यद्यपि नैच्यभाक् । वंशजानामस्य पितुस्त्याग एकस्य चोदितः ॥७२२।। पितामहस्य तत्पश्चाद्वितीयस्य ततः पुनः । तृतीयस्य परित्यागस्त्रयाणां तु ततः परम् ॥७२३।। तद्वंशजानां सुस्पष्टं न्यङ्गं नैच्यं च तत्कुले । सुस्पष्टमेव पित्रादित्यागस्तत्र सुवर्मना ॥७२४॥ युष्मत्साम्यं तत्परं वै वंशजानां भविष्यति । तावदेतांस्यक्तपितॄन् पश्यन्तः कृपया बत ॥७२५।। युष्माभिर्न समाय ते पुत्रपौत्रादयस्त्रयः । गोत्रप्रवररिक्यादिव्यवहारेषु वच्म्यपि ॥७२६॥ कृपया विप्रमावत्वस्वीकारेण मुदायुताः। अङ्गीकृत्य च मामेवमेतद्वशं च धर्मतः ॥७२७॥ समुद्धरत पाताद्य शरणं वोगतोऽस्म्यहम् । इत्युक्तास्तेऽपि सर्वे वै तथा कुपुंस्तहम्भसा ॥७२८॥
ओमित्येवेति तत्राग्नौ व्याहृतीश्चहुनेश्छतम् । ततो मौंक्षी प्रकुर्वीत तत्पुत्रस्तदनन्तरम् ॥७२६।। न तैस्समो भवेत्तावद्गोत्रा रिक्थक्रियादिषु । यावत्तु क्रमसापिण्ड्यसिद्धिः स्यात्तावदेव हि ॥७३०॥ स्वगोत्रागतपुत्रस्य तादृशस्य पितुम॒तौ।
आशौचं त्रिदिनं प्रोक्तमेवं मातुश्च तत्समम् ॥७३॥ दर्शादिदेवताश्चापि पितामहमुखात्रयः । नोच्चार्यश्च पिता तेषु श्राद्धमात्रं त्रिपूर्वकम् ॥७३२।।
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वंशोद्धरणायदत्तकविधानवर्णनम् २६२७ तन्मार्गेणैव कुर्वीत ततो मातामहाश्च वै। पितामहस्य एतेऽस्य चैतस्यापि मृतौ पितुः ॥७३३।। तथैवाशौचमित्युक्त एवं किल महत्तरम् । अत्यन्तबाधकं करमन्यगोत्रसुतस्य वै ॥७३४॥ परिग्रहे प्रकथितं ततस्त्वेतन्न चाचरेत् । स्वभ्रातृषु स्वगोत्रे च कृते पुत्रपरिग्रहे ॥७३।। न किंचिद्बाधकं तत्स्यात्तस्मादेतच्छिवं बुधः । समीक्ष्य सम्यगालोच्य पुत्रभावे प्रयत्नतः ॥७३६।। स्वीकुर्याद् भ्रातृपुत्रादीन् तत्समाधानपूर्वकम् । यद्यत्तत्रार्थितं दद्याद्ह्यात्मनः पुत्रसंशये ॥७३७।। सर्वस्वं वा तस्य दत्वा तादृशी समये परम् । गृह्णीयात्तनयं वंशोद्धरणाय विचक्षणः ॥७३८।। पुत्रस्वीकारसमये यद्यदुक्तं पुरा तयोः । न तस्यास्त्वन्यथाभावः कदाचिदपि धर्मतः ॥७३॥ तदुक्तिलंघनकराः ब्रह्मन इति सूरिभिः । कथितो हि ततस्तं वै राजा राष्ट्रात्प्रवासयेत् ॥७४०।। तनयग्रहणे यो वा तत्पित्रोः प्रार्थितं तदा। दत्वा शपथपूर्व वै पुनरन्यानि भाषते ॥७४१।। पुनश्च पुत्र संजाते चिराद्देवेन दुर्मतिः । तमेनं धार्मिको राजा तद्वन्धूंस्तत्परान्खलान् ॥७४२॥ तदुन्मुखांस्तत्सहायान् संताड्य च कपोलयोः। न्यक्कृत्य भीषयित्वा च यथायोग्यं यथा मति ॥७४३।।
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२६२८
कण्वस्मृतिः सर्वस्वहरणं कृत्वा तयोः पूर्व निबन्धनाम् । चाञ्चल्यरहितां कृत्वा देशात्तस्मात्प्रवासयेत् ॥७४४॥ परस्मै पुत्रदाने तु महते तादृशं पुनः । बाधकं शास्त्रतो ज्ञेयं पुत्रीदाने तु साधकम् ॥७४५॥ दौहित्रः कर्ता(?) तनयश्चापि सर्वशास्त्रसमौ मतौ । विभक्तेषु तु तद्भातमुखेषु किल तत्परम् ॥७४६॥ स्वर्यातस्य ह्यपुत्रस्य कर्ता दौहित्र उच्यते । दौहित्रस्य तु कर्तृत्वं स(पुन) ( (स) पुत्रयोः ॥७४७॥ अभावे कथितं सद्भिः स्युश्चेत्ते तु एव हि । तेषामभावे दौहित्रो भ्रात्पुत्रेषु सत्सु चेत् ॥७४८।। अविभक्तषु तैः सर्वैस्तन्मुखेनैव केवलम् । सवं कारयितव्यं स्यात्प्रेतकृत्यमशेषकम् ॥४६॥ नायं तद्धनभागी स्याज्ज्ञातयो धनभागिनः । यत्किचित्तैः प्रीतिदत्तमस्य तद्भवति ध्रुवम् ॥७५०।। न चेकिमपि नास्त्येव विभक्तषु तु तेषु वै । तद्धनं निखिलं चास्य धर्मतः प्रभवेद्ध वम् ॥७५१॥ यत एवमिति प्रोक्त पुत्राभावे तु चोदितः । प्रीत्यासन्नस्सपिण्डो यः कर्ता स इति निश्चयः ॥७५२।। प्रीत्यासन्नस्सपिण्डत्वं दौहित्रस्येद मुख्यतः(मुच्यते)। इति तेषां सपिण्डानाममुख्यं तेन केवलम् ॥७५३।। अङ्गादङ्गात्संभवति पुत्रवद् दुहिता यतः । तत्संभूतस्तु दौहित्रो भ्रातृपुत्रादयस्तथा ॥७५४॥
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श्राद्धकृत्यायनिर्दिष्टस्यान्यकृत्यनियोजननिषेधः २१२६ न भवेयुर्भ्रातृजा हि तदुत्पन्ना हि केवलम् । संबन्धस्तत्र नैतस्य पितृसंबन्धयोगतः ॥७५५।। ते सपिण्डाः प्रकथितास्ते तत्संबन्धलेपकः (लेखतः)। अत एव च सोऽयं वै दौहित्रः सर्वकर्मसु ॥७५६।। अमादर्शादिषु तथा श्राद्धाख्येषु च सन्ततम् । स्वौपासनाग्नौ पितृभिः समत्वेन निरन्तरम् ॥७५७|| मातामहान शास्त्रवम॑महापन्थानमाश्रितः । यजते धनभागीवाऽधनभाग्यैर्हि केवलम् ॥७५८|| तस्मात्सर्वसपिण्डानां दौहित्रो मुख्य उच्यते । निर्दिष्टं श्राद्धकृत्याय नान्यकृत्ये नियोजयेत् ॥७५६।। निर्दिष्टमन्योदे शेन न देवाय निवेदयेत् । निवेदितं यद्देवस्य न तदन्येन योजयेत् ॥७६०।। तथा निवेदितेनापि रुच्यर्थं वापि योजयेत् । निवेदितेन रुच्यर्थ योजयेन्न निवेदितम् ॥७६१।। यथा निवेदितं पूर्व स्वीकुर्याच्च तथैव हि । अपक्कमतिपक्क ना अत्यन्तोष्णमनुष्णकम् ॥७६२।। निवेदयेन्न देवाय किंतु तत्सम्यगेव हि। सुखोष्णयित्वा तत्पक्कं सम्यगेव समीक्ष्य वै ॥७६३।। सूपशाकान्वितं कृत्वा भल्याभोज्यादिसंयुतम् । अभिधार्याथ गायत्र्या परिषिच्य हविस्तथा ॥७६४।। आत्मानं हि ततो मन्त्रैः प्राणापानादिभिश्चरेत् । नान्यकार्ये योजयेत्तत्तत्कार्यमखिलं च यत् ॥६॥ १८४
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२६३०
कण्वस्मृतिः योजयेत्तु भवेदेव नात्र कार्या विचारणा । हविः स्वीकरणान्तो वै यागस्सर्वाङ्गसंयुतः ॥७६६।। एकं हविर्नान्यकार्यहेतवे प्रभवेत्किल । स्थालीपाकादिषु कृतं हविस्तद्ब्रह्मभोजने ॥७६७।। प्रभूतसर्पिषान्यस्य कार्यस्य न भवेदहो। मधुपर्कादिषु कृतं यद्धविस्तत्तथैव हि ॥७६८।। अन्यकार्याय न भवेच्छ्राद्धकर्मणि चेद्धविः । औपासनानौ तत्पूर्व कर्तव्यं मुख्यतो न चेत् ॥६॥ लौकिकाग्नौ सर्वजनसौलभ्यायैव केवलम् । औपासनकृतं चान्नमुद्धियादाज्ञया कृतम् ॥७७०।। तन्मे()क्षणेनोद्धृतं च होतव्यमधिकोष्णतः । यावत्तु प्राशनं तेषां तावदुष्णं भवेत्तराम् ॥७७१।। ततः परं च पिण्डेषु गतोष्णेषु नमो मनुः । नमस्काराय कथितस्तस्मात्पैतृककर्म यत् ॥७७२।। अत्यन्तोष्णेन निर्वत्यं तस्य प्राशनकर्मणि । प्रोक्षणं सेचनं चापि यजमानस्य मुख्यतः ।।७७३।। कर्तृणां गौणतः प्रोक्त कुमारस्य तु भोजने । गुरोरेव हि कर्तृत्वं भुक्त स्सूनोर्मतं तराम ॥७७४।। सेचनं प्रोक्षणे नम्तो ब्राह्मौदनिककर्मणि । हविर्भक्षणमात्रेप सर्वत्रैवं विधीयते ॥७७।। एवमाग्रयणस्मातंतण्डुलानां तथा पुनः । हविषश्वापि तत्प्रोक्त नतैः कर्मान्तरं चरेत् ।।७७६।।
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एककाले बहुश्राद्धागमेकृत्यसम्पादनविधि
२६३१ हविरन्तं सर्वकर्म तस्मिन्नष्टे पुनः क्रिया। होमे जाते विकल्पः स्यात्तस्मिञ्जातेऽपि केपुचित् ।।७७७|| इष्यते संम्यगान्तं च सर्वेष्टिषु तु केवलम् । विनाशो(शे)भूयः(कर्तव्यः प्रारंभ इति वै जगुः ।।७७८।। कदाचिद्द वयोगेन संघातमृतिमत्सु चेत् । एकस्मिन्नेवकाले वै श्राद्ध वै समुपागते ॥७७६।। तदानुक्रमशस्त्वेकपाकेनैव समन्त्रकम् । तन्त्रेण श्रपणं कृत्वा सर्वं कुर्यादचिन्तितम् ॥७८०।। तत्क्रमं च प्रवक्ष्यामि पितुः प्रथमतश्चरेत् । विप्रानुद्वास्य भूयश्च तद्धविस्त्वनले पुनः ॥७८१।। शास्त्रेण श्रवणं कृत्वा चाभिधार्य ततः किल । मातुः श्राद्ध प्रकुर्याच तद्धविः पूर्ववत्पुनः ॥७८२।। संस्कृत्याथ पितृव्यस्य तद्वच ततः परम । भ्रातु]ष्टस्य तत्पत्न्याः कनिष्ठस्य तथैव वै ॥७८३।। तत्कलत्रस्य तत्पुत्रक्रमेणैवं शनैश्शनैः । एकेनैव तु पाकेन सर्व शक्यं हि शक्यते ॥७८४॥ शुभकर्मकृतं चान्नं न श्राद्धाय कदाचन । यच्छ्राद्धकार्यककृतं न तत्स्याच्छुभकर्मणः ॥७८५।। देवपूजां सर्वकालसर्वदेशशुभोत्तमा । तादगथं तन्निमिनकृतं संपादितं तथा ॥७८६।। द्रव्यमन्नं जलं शाकं तत्संबन्धि यदुच्यते । न तन्नियोजयेत्पित्रे देवब्राह्मणमन्निधौ ।।७८७।।
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२६३२
aurस्मृतिः
श्राद्धं कुर्यात्प्रयत्नेन श्राद्धं कृत्वा विधानतः । देवपूजां प्रकुर्वीत वैश्वदेवं ततः परम् ॥ ७८८ ॥ वैदिकोऽयं विधिः प्रोक्तः कर्मान्ते ब्रह्मयज्ञकम् | प्रभब्रह्मपरो यस्तु शाखामात्रेऽतिपावने ॥ ७८६ ॥ शाखाध्यायी महाभागः पङ्क्तिपावनपावनः । शाखामात्रैकदेशस्याध्ययनाच्छ्रोत्रियत्वकम् ॥७६०॥ न प्राप्नोत्येव विधिना शाखाध्यायी ततो भवेत् । नित्यस्नानस्सदाचारः सदावह्निः सदाशुचिः ॥ ७६१ || सदातुष्टस्सदाशान्तः सदासूयाविवर्जितः । अग्निहोत्राद्यभावेऽपि वेदवेदिविवर्जितः ॥ ७६२ ॥ ब्रह्ममेधक्रियाशुद्धः पूर्वतुल्यो भवत्यपि ।
इत्येतदुक्तं कण्वेन मुनिना धर्ममुत्तमम् ।
शास्त्राणां प्रवरं शास्त्रं हिताय जगतां तराम् ॥७६३॥
॥ इति श्रीकण्वस्मृतिः समाप्ता ॥
शुभमस्तु
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॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
* दाल्भ्यस्मृतिः *
दाल्भ्यम्प्रतिषीणां धर्मविषयकः प्रश्नः कृताभिषेकं दालभ्यं स्वे आश्रमे समुपस्थितम् । परिपृच्छन्ति तत्वज्ञं ऋषयो वेदपारगाः ॥१॥ धर्माधर्मविवेकं च शुद्धिर्जातमृतस्य च । आयुष्यानि च तीर्थानि मासशुद्धिस्तथैव च ॥२॥ श्राद्धकालं च ब्रह्मनगोनचण्डालसंकरम् । रसानां परिवेत्ता च कथयस्व यथायथम् ॥३॥ स्मृतिसारं प्रवक्ष्यामि यथा शङ्खन भाषितम् । इष्टापूर्तविधिश्चैव प्रायश्चित्तविधिस्तथा ॥४॥ इष्टापूतौ तु कर्तव्यौ ब्राह्मणेन प्रयत्नतः । इष्टेन लभते मोक्षं पूर्ते स्वर्गोऽभिधीयते ॥५॥ एकाहमपि कौन्तेय भूमिस्थमुदकं कुरु । कुलानि तारयेत्सप्त यत्र गौ वितृषा भवेत् ॥६॥ भूमिदानेन ये लोका गोदानेन च कीर्तिताः। तान् लोकान् प्राप्नुयान्मर्त्यः पादपानां प्ररोहणे ॥ ७॥ वापीकूपतड़ागानि देवतायतनानि च । पतितान्युद्धरेद्यस्तु स पूर्तफलमश्नुते ॥८॥
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२६३४
दाल्भ्यस्मृतिः अग्निहोत्रं तपः सत्यं देवानां प्रतिपालनम् । आतिथ्यं वैश्वदेवश्च इष्टमित्यभिधीयते ।। इष्टापूतौं द्विजातीनां सामान्यौ धर्मसाधको । अधिकारी भवेच्छद्रः पूर्ने धर्म न वैदिके ॥१॥ यावदस्थीनि गंगायां तिष्ठन्ति पुरुषस्य च । तावद्वपंसहस्राणि स्वर्गलोके महीयते ॥११॥ देवानां च पितृणां च जले दद्याजलाञ्जलीन् । असंस्कृतप्रमीतानां स्थले दद्याजलाञ्जलीन् ॥१२।। केशकीटकशंबूकमस्थिकंटकमेव च ।। स्थलेषु च न दातव्यं कदाचिदशुचिर्भवेत् ॥१३।। वामहस्ते तिलान् स्थाप्य यस्तु तर्पयते पितॄन् । पितरस्तर्पितास्तेन रुधिरेण जलेन वा ॥१४॥ एकादेव(मेव) ऋषीणां तु द्वौ द्वौ तु सनकादयः । अर्हन्ति पितरस्त्रीन्त्रीनस्त्रियश्चैकैकमंजलिम् ॥१५॥ नाभिमात्रे जले स्थित्वा सतिलं दक्षिणामुखः । त्रीस्त्रीनपोऽञ्जलीन् दद्यादुच्चैरुच्चतरं द्विजः ॥१६।। जले चैव जलं देयं पितणां जलकाक्षिणाम् । ततःस्थलेषु दातव्यं पितॄणां नोपतिष्ठति ॥१७|| नोदकेषु च पात्रेषु नाशुद्धो नैकपाणिना । नोपतिष्ठति तत्तोयं यद्भूम्यां न प्रदीयते ॥१८॥ एकादशाहे प्रेतस्य यस्य चोत्सृज्यते वृषः । मुच्यते प्रेतलोकाच्च स्वर्गलोकं स गच्छति ॥१६॥
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पाडशश्राद्धवर्णनम
२६३५ यष्ठव्या बहवः पुत्रा यद्य कोऽपि गयां ब्रजेत । यजेत वा अश्वमेधं नीलं वा वृषमुत्सृजेत् ॥२०॥ लोहितो यस्तु वर्णन मुखे पुच्छे च पाण्डुरः । श्वेतः खुरविषाणाभ्यां स नीलो वृप उच्यते ॥२शा प्रथमेऽह्नि तृतीये च पंचमे सप्तमे तथा । नवमैकादशे श्राद्ध तन्नवश्राद्धमुच्यते ॥२२॥ नवश्राद्ध त्रिपक्षे च षण्मासे मासिकाब्दिके। पतन्ति पितरस्तस्य यो भुङ्क्त चापदि द्विजः ॥२३॥ मासिकानि यश द्वस्यादाद्यष्टे ह्यर्धमासिके । उनषाण्मासिको नाब्दे श्राद्ध संख्यास्तु पोडश ||२४|| मृतेऽहनि तु कर्तव्यं प्रतिमासं तु वत्सरम् । प्रतिसंवत्सरं चैवमाद्यमेकादशेऽहनि ॥२५॥ यस्यैतानि न कुर्वीत एकोदिशानि पोडश । पिशाचत्वं स्थिरं तस्य दत्तः श्राद्धशतैरपि ॥२६॥ सपिण्डीकरणादूध्वं यत्र यत्र प्रदीयते । तत्र तत्र त्रयं कुर्यादेकतस्तु क्षयेऽहनि ॥२७॥ एकोद्दिष्टं परित्यज्य पार्वणं कुरुते तु यः । अकृतं तद्विजानीयात्समातृपितृघातकः ॥२८॥ नित्यं नैमित्तिकं कायं नित्यं तु परिलंघयेत् । आदौ नैमित्तिकं कुर्यात्पश्चान्नित्यं समाचरेत् ।।२।। अमायां तु क्षयो यस्य प्रेतपक्षेऽथवा यदि। . सपिण्डीकरणादूचं तस्योक्तः पार्वणो विधिः ॥३०॥
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२६३६
दाल्भ्यस्मृतिः त्रिदण्डग्रहणादेव प्रेतत्वं नैव जायते । एकादशदिने पूर्णे पार्वणं तु विधीयते ॥३१।। यस्य संवत्सरादर्वाक् सपिण्डीकरणं कृतम् । प्रतिमासं तथा तस्य प्रतिसंवत्सरं तथा ॥३२॥ तस्याप्यन्नं सोदकुंभं दद्यात्संवत्सरं द्विजः। नित्यत्वात् कुलधर्माणां पुंसां चैवायुषः क्षयात् ॥३३॥ अस्थिरत्वाच्छरीरस्य द्वादशाहः प्रशस्यते । मातुः सपिण्डीकरणं कथं कार्य भवेत्सुतैः ॥३४॥ पितामह्या सहैतस्याः सपिण्डीकरणं स्मृतम् । पतिनैकेन कर्तव्यं सपिण्डीकरणं त्रियः ॥३॥ सा मृतापि हि पत्यैक्यं मांसमज्जास्थिभिः सहः । मातुः प्रथमतः पिण्डं निर्वपेत् पुत्रिकासुतः ॥३६।। द्वितीयं तु पितुस्तस्यास्तृतीयं तु पितुः पितुः । अथ चेन्मन्त्रविद्यु क्तः शारीरैः पङ्क्तिदूषकैः ॥३७॥ अदुष्यं(दू?) तं यमः प्राह पङ्क्तिपावन एव सः । अग्नौ करणशेषं तु पितृपात्रेषु दापयेत् ॥३८॥ पितृपात्रं पितॄणां च न दद्याद्वैश्वदेविके । मृन्मयेषु (एम) च पात्रेषु श्राद्ध भोजयते पितॄन् ॥३६॥ दातुश्च नोपतिष्ठेत भोक्ता च नरकं व्रजेत् । हस्तदत्तं तु यत् स्नेहलवणव्यंजनादिकम् ॥४॥ दातुश्च नोपतिष्ठेत भोक्ता भुंजीत किल्बिषम् । गण्डूषकरणात् पूर्व हस्तं प्रक्षालये द्विजः ॥४१॥
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श्राद्ध निषिद्धकर्मणां परिगणनम्
॥४५॥
हतं दैवं च पित्र्यं च आत्मानं चोपपातकैः । द्विस्त्रिः पिबति गण्डूषं ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः || ४२|| हतं देवं च पित्र्यं च आत्मानं चोपपातकैः । अधं पिबति गण्डूषमधं त्यजति भूमिषु ॥ ४३॥ प्रीणन्ति पितरः सर्वे ये चान्ये भूमिदेवताः । हस्तवाताहतं धूपं श्राद्ध यः संप्रदास्यति ॥४४॥ हतं दैवं च पित्र्यं च आत्मानं चोपपातकैः । पवित्रग्रन्थिमुत्सृज्य निक्षिपे भूमिमण्डले प्रक्षिपेद्भाजने विप्रो भ्रूणहत्यांस विंदति । पिता च म्रियते यस्य जीवेत च पितामहः ||४६ || द्वौ पिण्डावेकनामानावेकस्मिन् प्रपितामहे । पितॄणां त्रीणि पूर्वाणां पिता च वमते यदि ॥४७॥ तद्दिनं चोपवासश्च पुनः श्राद्ध परेऽहनि । जानुपातं बहिः पाणि हुंकारं तर्जनं बलिम् ||४८|| हस्तावलीढनं कुर्याच्छ्राद्धघाती प्रजायते । पानीयं पिबतः पात्रे मुखतो गलितं यदि ॥४६॥ हसते वदते चैव निराशाः पितरो गताः । बर्बरीकुसुमं चैव चैव केतकीकरवीरकम् ॥५०॥ जाती दर्शनमात्रेण निराशाः पितरो गताः । तुलसी शतपत्राणि भृंगराजस्तथैव च ॥५१॥ मारुतं मोगरं चैव पितॄणां दत्तमक्षयम् । कुलित्थाशणकाढक्यो मसूरा याव नालकाः ||५२||
२६३७
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२६३८
दाल्भ्यस्मृतिः निः पावा राजमाषाश्च नन्ति श्राद्ध पतत्यधः । श्राद्ध वै मृन्मय(मृण्मयं पात्रं मृत्तिकायाश्च लेपनम् ।।३।। साज्यं धूपं घृतं चैव निराशाः पितरो गताः । क्षारस्य तु यल्लवणमुच्छिष्टस्य तु यद्धृतम् ॥४|| मुखेन श्रमितं भुंक्त द्विजश्चान्द्रायणं चरेत् । अंगुल्या दन्तधावेन प्रत्यक्ष लवणेन च ॥५।। मृत्तिकाभक्षणं चैव तुल्यं गोमांसभक्षणम् । श्राद्धं कृत्वा परश्राद्धे यस्तु भुञ्जीत लोलुपः ॥५६।। पतन्ति पितरस्तस्य लुप्तपिण्डोदकक्रियाः। श्राद्धं कृत्वा तु यो विप्रो नैव भुंक्त कदाचन ॥५७।। हव्यं देवा न गृह्णन्ति कव्यानि पितरस्तथा । पुनर्भोजनमध्वानं भाराध्ययनमथुनम् ॥५६॥ दानं प्रतिग्रहो होमः श्राद्धभुगष्ट वर्जयेत् । श्राद्ध नियुक्तो भुक्त्वा च भोजयित्वाभिगम्य च ॥५६।। व्यवायी रेतसो गर्ने मन्जयत्यात्मनः पितृन् । देवपूर्वभवेच्छ्राद्धमदैवं चापि यद्भवेत् ॥६॥ ब्रह्मचारी भवेद्भुक्त्वा भुक्त्वा श्राद्धच नेत्तिकम् । पितृपात्रं समुत्सृष्ट्वा (ज्य)पिण्डास्तत्र प्रदापयेत् ।६।। अपुत्रा ये मृताः केचित् स्त्रियो वा पुरुषास्तधा । तेषां श्राद्ध तु कर्तव्यमेकोदिष्ट (?) पार्वणम् ॥६२।। सूतकांतरितं श्राद्धं प्रमादाद्गलितं तथा । तदिनाद्वादशाहे वा कुर्यात् तन्मासपर्वणि ॥६३।।
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श्राद्धकरणपुत्रस्याधिकारित्वम् प्रत्यब्दं पार्वणे नैव विधिना क्षेत्रजोरसौ । कुर्यात्तामितरे कुयुरेकोद्दिष्ट सुतादश ॥६४|| द्वौ दैवे प्राक्त्रयः पित्र्ये उदगेकैकमेव वा । मातामहानामप्येवं तन्त्रं वा वैश्वदेविकम् ॥६॥ बहूनामपि बन्धूनामेकश्चेत् पुत्रवान् भवेत् । सर्वे ते तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ॥६६॥ बहूनामेक भार्याणामेका चेत् पुत्रिणी भवेत् । सर्वास्तास्तेन पुत्रेण पुत्रवत्य इति स्थितिः ॥६७।। अष्टकासु च वृद्धौ च प्रेतपक्षे क्षयेऽहनि । मातुः श्राद्ध पृथक् कुर्यादन्यत्र पतिना सह ॥६८।। अन्वष्टक्यं च पूर्वार्मासि मास्यथ पार्वणम् । काम्यमाभ्युदयमाष्टम्यामेकोदिष्टमथाष्टमम् ॥६।। चतुर्थाद्य षु साग्नीनामग्नौ होमो विधीयते । पित्रियद्विजपाणौ च उत्तरेषु चतुर्ध्वपि ॥७०|| यच्च पाणितले दत्तं यच्चान्यदुपकल्पितम् । एकीभावेन भोक्तव्यं पृथग्भावो न विद्यते ॥१॥ प्रतिपत्प्रभृतिष्वेकां वर्जयित्वा चतुर्दशीम् । शस्त्रेणव हता ये तु तेषां तत्र प्रदीयते ॥७२।। मासिकेऽब्दे तु संप्राप्त अंतरामृतसूतके । वदन्ति शुद्रौ तत्कायं दर्श वापि मनीषिणः ॥७३।। श्राद्ध ऽहनि समुत्पन्ने मृतस्याविदिते दिने । एकादश्यां तु कर्तव्यं कृष्णपक्षे विशेषतः ॥७४।।
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२६४०
दालभ्यस्मृतिः समत्वमागतस्यापि पितुः शस्त्रहतस्य च । एकोद्दिष्ट सुतैः कार्य चतुर्दश्यां महालये ॥७।। महालये गयाश्राद्ध मातापित्रोः क्षयेऽहनि । कृतोद्वाहोऽपि कुर्वीत पिंडदानं यथाविधि ॥७६।। एकोद्दिष्ट . दैवहीनमेकाध्यकपवित्रकम् । आवाहनानौ करणरहितं त्वपसव्यवत् ॥७७|| संकल्पं तु यदा कुर्यान्न कुर्यात्पा.जपूरणम् । नावाहनानौ करणं पिण्डांश्चैव न दापयेत् ॥७॥ विवाहव्रतबंधोवं वर्षमब्दार्धमेव वा। पिण्डान्सपिण्डान् नो दधु न कुर्युस्तिलतर्पणम् ॥७६।। नित्यश्राद्धमदैवं स्यादर्घ्यपिण्डविवर्जितं । आमश्राद्धं तु नैव स्याच्छूद्रः कुर्यात्सदैव हि ॥८॥ अपत्नीकः प्रवासी च यस्य भार्या रजस्वला । आमश्राद्धो द्विजः कुर्याच्छूद्रः कुर्यात्सदैव हि ॥८॥ या संख्या पक्कपाकस्य शुष्कं तद्विगुणं भवेत् । चतुर्गुणं हिरण्यं तु श्राद्धकर्मणि संस्थितम् ॥२॥ मातुः श्राद्धं तु पूर्व स्यात् पितृणां तदनन्तरम् । ततो मातामहानां च वृद्धौ श्राद्धत्रयं स्मृतम् ॥८३।। दशकृत्वः पिबेदापो गायत्र्या श्राद्धभुक् द्विजः । ततः सन्ध्यामुपासीत होमं चैव यथाविधि ॥८४।। चान्द्रायणं नवश्राद्ध पाराको(?) मासिके मतः । पक्षत्रयेऽति कृच्छू स्यात् षण्मासे कृच्छ्र एव तु ।।८।।
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शस्त्रहतकानां श्राद्धदिनवर्णनम् २६४१ आब्दिके पादकृच्छू स्यादेकाहः पुनराब्दिके। अत उध्वं न दोषः स्याच्छंखस्य वचनं यथा ॥८६॥ शस्त्रविप्रहतानां च श्रृंगीदंष्ट्रीसरीसृपैः । आत्मनस्त्यागिनां चैव निवर्तेतोदकक्रिया ॥८॥ गोविप्रनृपहन्तणामन्वक्षं चात्मघातिनाम् । पाषण्डमाश्रितानां च निवततोदकक्रिया ॥८॥ अग्निदाता तथा चान्ये ये चान्ये पाशछेदकाः । तप्तकृच्छ्रण शुध्यन्ति मनुराह प्रजापतिः ॥८६॥ गोभूहिरण्यहरणे स्त्रीणां क्षेत्रगृहेषु च। यमुद्दिश्य त्यजेत्प्राणांस्तमाह ब्रह्मघातकम् ॥६॥ गोभिर्हतं ततो बद्धं ब्राह्मणेन तु घातितम् । तं स्पृशन्ति च विप्रा वोढारोऽग्निप्रदायकाः ॥११॥ उद्यता सह यावंत एककार्येष्ववस्थिताः । यद्य को घातयेत्तत्र सर्वे ते घातकाः स्मृताः ॥१२॥ बहूनां शस्त्रघातानामेकश्चेद्धर्मभेदनम् । सर्वे ते शुद्धिमिच्छन्ति स एको ब्रह्मघातकः ॥६३।। महापातकिसंस्पर्श स्नानमेव विधीयते । संस्पृष्टस्तु तथा भुंक्त कृच्छ्रसांतपनं चरेत् ॥६४|| यस्य चाण्डालिसंयोगो भवेत् किश्चिदकामतः । तत्र सान्तपनं कृत्वा प्राजापत्यद्वयं चरेत् ॥६॥ कामतस्तु यदा कश्चिञ्चण्डालीगमनं कृतम् । चान्द्रायणेन शुद्धिः स्यात्तप्तकृच्छ्रद्वयं चरेत् ॥६६||
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२६४२
दाल्भ्यस्मृतिः चण्डालोदकसंस्पर्श स्नात्त्वा विप्रो विशुध्यति । तेनैवोच्छिष्टसंस्पर्श त्रिरात्रेणैव शुध्यति ॥६॥ अज्ञानतः स्नानमात्रमन्येभ्योऽपि विशेषतः । अत ऊवं न दोषः स्यान्मदिरास्पर्शने तथा ६८।। अस्थिभेदं गवां कृत्वा लांगुलशफछेदनम् ।। पातनं चैव शृङ्गाणां मासाधू यावकं पिवेत् ॥६६। यवसस्तावदूढव्यो यावद्रोहति तव्रणः । तद्वर्णी दक्षिणां दद्यात्ततः पापात्प्रमुच्यते ॥१००।। हले वा शकटे चैव दुर्बलं यो नियोजयेत् । प्रत्यवाये समुत्पन्ने ततः प्राप्नोति गोवधम ॥१०१।। प्रयत्नाद्वापि कूपेषु वृक्षच्छेद निपातने । गवाशनं कृन्तयित्त्वा ततः प्राप्नोति गोवधम् ॥१०२।। अतिवाहातिदोहाभ्यां नासिकाभेदनेन तु । नदीपर्वतसंरोधे पादोनं व्रतमाचरेत ॥१०३।। एका चेद्रहुभिः कैश्चि वायापादिता यदि । पादं पादं च हत्यायाश्चरेयुम्ते पृथक पृथक ॥१०४।। एकपादं चरेद्रोधे द्वौ पादौ बन्धने चरेन । योजने च त्रयः पादाः चरेत्सर्व निपातने ॥१०।। रोम्णां तु प्रथमे पादे द्वितीये श्मश्रुवापनम् । पादहीने शिखावर्ज सशिखं तु निपातने ॥१८६।। पादे वस्त्रद्वयं दद्याद् द्विपादे कांस्यभाजनम् । पादहीने च गां दद्यान्मिथुनं च निपातने ॥१०७||
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आशौचनिर्णयवर्णनम्
२६४३ कथंचिद् वृषभं हत्वा होमधेनु तथैव च । अन्नं तु द्विगुणं कुर्यादक्षिणा द्विगुणा भवेत् ॥१०॥ राजा वा राजमान्यो वा ब्राह्मणो वा बहुश्रुतः । अकृत्वा वपनं तेषां प्रायश्चित्तं कथं भवेत् ॥१०६।। केशानां रक्षणार्थाय द्विगुणं व्रतमाचरेत् । द्विगुणे तु व्रते चीर्ण द्विगुणा दक्षिणा भवेत् ॥११०॥ द्वौ मासौ पालयेद्वत्सं द्वौ मासौ द्वौ स्तनौ दुहेत् । द्वौ मासौ चैकवेलायां शेषं कालं यथेच्छया ॥१११।। औषधं पथ्यमाहारो दद्याद्गोब्राह्मणेषु च। वैकल्यतः (ल्पतः?) विपत्तौ च प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥११२॥ निशिबन्धविरुद्धषु व्यावसर्पहतेषु च। अग्निविद्यु न्निपातेषु प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥११३।। स्नेहाद्वा यदि वा लोभाद्भयादज्ञानतोऽपि वा । वदन्त्यनुग्रहं ये वै तत्पापं तेषु गच्छति ॥११४॥ बलत्वेन दशाहे तु प्रेतत्वं यदि गच्छति । सद्य एव तु शुद्धिः स्यान्न शौचं नैव सूतकम् ॥११५।। आदन्त जन्मनः सद्य आचूडान्नैशिकी स्मृता । आव्रतात्तु त्रिरात्रं स्याद्दशरात्रमतः परम ॥११६।। आचूडाकरणात सद्यः प्रदानान्नैशिकी स्मृता । आविवाहात्रिरात्रं स्याद्दशरात्रमतः परम् ॥११७।। अहस्त्वदत्तकन्यासु बालेषु च विशोधनम् । गुवन्ते वाम्यनूचानमातुलश्रोत्रियेषु च ॥११८।।
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२६४४
दाल्भ्यस्मृतिः चतुर्थे दशरात्रं स्यात् षण्णिशाः पुंसि पञ्चमे । षष्ठे चतुरहं प्रोक्तं सप्तमे तु दिनत्रयम् ॥११।। एकाहाच्छुध्यते विप्रो योऽग्निवेदसमन्वितः । व्यहात् केवलवेदज्ञस्तद्धीनो दशभिदिनैः ॥१२०।। मन्त्रकर्मपरिभ्रष्टाः संध्योपासनवर्जिताः । नामधारकविप्राणां भस्मांतं सूतकं भवेत् ॥१२॥ संपर्काज्जायते दोषो नाऽन्यो दोषोऽस्ति ब्राह्मणे । तस्मात् सर्वप्रयत्नेन संपकं नैव कारयेत् ॥१२२।। आदावारभ्य आशौचं संयोगो यस्य नाग्निषु । आदावन्ते च विज्ञेयं यस्य वैतानि को विधिः ॥१२३।। शवसूतकमुत्पन्न पश्चाज्जातं न सूतकम् । शावेन शुध्यते सूतिः सूत्या शावं न शुध्यति ॥१२४।। जातं जातेन शुद्ध स्यान्मृतकं मृतकेन तु । न जाते मृतशुद्धिः स्यान्न मृते जातकं तथा ॥१२॥ मातुर प्रमीतिः स्यादशुद्धौ म्रियते पिता। पितुः शेषेण शुद्धिः स्यान्मातुः कुर्यात्तु पक्षिणीम् ।।१२६।। स्रावे मातुस्त्रिरात्रं स्यात्सपिण्डाः शौचवर्जिताः । पाते मातुर्दशाहः स्यात्सपिण्डानां दिनत्रयम् ॥१२७।। आचतुर्थाद्भवेत्सावः पातः पञ्चमषष्ठयोः। । अत ऊवं प्रसूतिः स्यात् सूतकं तु यथोदितम् ।।१२८।। शिशोरभ्युक्षणं प्रोक्त बालस्याचमनं तथा।। रजस्वलायाः संस्पर्श स्नानमेव कुमारके ॥१२६।।
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देशान्तरपरिभाषावर्णनम्
२६४५ आचूडाकरणाद्वाल आदन्ताच शिशुः स्मृतः । कुमारकस्तु विज्ञेयो यावन्मौञ्जीनिबन्धनात् ॥१३०।। विवाहबतयज्ञेषु त्वन्तरामृतसूतके । पूर्वसंकल्पितार्थानि भोज्यानि मनुरब्रवीत् ॥१३॥ विवाहचौलोपनयने यस्य माता रजस्वला । तस्याः शुद्धः परं कायं मांगल्यं मनुरब्रवीत् ॥१३॥ एकविंशत्यहर्यज्ञे विवाहे दश वासराः । पञ्चाहश्वोपनयने नान्दीश्राद्धं पुरो भवेत् ॥१३३।। विवाहवतयज्ञेषु अन्तरामृतसूतके । प्रारब्थे सूतकं न स्यादनारब्धे तु सूतकम् ॥१३४।। प्रारंभो वरणं यज्ञे संकल्पो व्रतसत्रयोः । विवाहे मातृपूर्व स्याच्छाद्ध पाकपरिक्रिया ॥१३।। निमन्त्रिते यदा विप्रे श्राद्धकर्मण्युपस्थिते । विधिना चैव तत्काय नाशौचं नैव सूतकम ।।१३।। मुंजानेषु विप्रेषु सूतकं जायते यदि । अन्यगेहोदकाचान्ताः सर्वे ते शुद्धिमाप्नुयुः ॥१३७|| देशान्तरे मृतः कश्चिन सपिण्डः श्रूयते यदि । न त्रिरात्रमहोरात्रं सद्यः स्नात्वा विशुध्यति ॥१३८।। देशान्तरं तु विज्ञयं पष्ट्रियोजनमायतम् । चत्वारिंशद्वदन्त्यन्ये त्रिंशदन्ये विपश्चितः ॥१३९।। वाचो यत्र विभिद्यन्ते गिरिर्वा व्यवधायकः । महानद्यन्तरं यत्र तद्देशान्तरमुच्यते ॥१४॥
१८५
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२६४६
दाल्भ्यस्मृतिः खगोत्रो वान्यगोत्रो वा यदि स्त्री यदि वा पुमान् । प्रथमेऽहनि यो दद्यात् स दशाहं समापयेत् ॥१४१॥ निर्दशे गुरुपाते च कृते चैवोर्ध्वदेहिके। ऊध्वं त्रिरात्रमाशौचं दशाहमकृतक्रियः ॥१४२॥ आत्रिमासात् त्रिरात्रं स्यात् षण्मासे पक्षिणी स्मृता । अहः संवत्सरादर्वाक् ततः स्नानं समाचरेत् ॥१४३।। रात्रावेव समुत्पन्ने मृते रजसि सूतके । पूर्वमेव दिनं ग्राह्यं यावन्नोदयते रविः ॥१४४॥ उदिते तु यदा सूर्ये नारीणां दृश्यते रजः। जननं वा विपत्तिर्वा यस्याहस्तस्य शर्वरी ॥१४।। उषसः प्राग्रजः स्त्रीणां विज्ञेयं दिनपूर्वकम् । अर्धरात्रावधिः कालः सूतकादौ विधीयते ॥१४६।। रात्रिं कृत्वा त्रिभागा तु द्वौ भागौ पूर्व एव तु । उत्तरं तु परं ज्ञेयं युज्यते रुधिरःस्मृतः ॥१४॥ रजस्वला यदि स्नाता पुनरेव रजस्वला । एकादशदिनादर्वागशुचित्वं न विद्यते ॥१४८।। रजस्वलायां प्रेतायां संस्कारादीनि नाचरेत् । ऊवं त्रिरात्रतः स्नातां शवधर्मेण दाहयेत् ॥१४॥ या मृता सूतकी नारी या मृता च रजस्वला । पूर्ववस्त्रं परित्यज्य शवधर्मेण दाहयेत् ॥१५०।। अन्तरिक्षे मृता ये वाऽप्यमौ चाप्सु प्रमादतः। उदयां सूतिकी नारी चरेश्चान्द्रायणत्रयम् ॥१५॥
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शुद्धाशुद्धिवर्णनम्
२६४७ स्नापयेत् पञ्चगव्येन मृत्तिकाभिश्च लेपयेत् । वंशपात्रेण तत्स्नानं ततः शुध्यति सूतिका ॥१२॥
आतुरे स्नानमुत्पन्ने शतकृत्वा ह्यनातुरः । स्नात्वा स्नात्वा स्पृशेदेनं ततः शुध्यति आतुरः ॥१५३॥ शुना पुष्पवती स्पृष्टा पुष्पवत्यन्यया तथा। शेषान्यहान्युपवसेत् घृतं प्राश्य विशुष्यति ॥१५४।। अन्त्यजैः स्वीकृते तीर्थे तडागेषु नदीषु च । पिबेत्पानीयमज्ञानात् पंचगव्येन शुध्यति ॥१५३।। तडागकूपगर्ते तु चण्डालादिविदूपिते । अपां शतघटोद्धारः पंचगव्येन शुध्यति ॥१५६।। दाराग्निहोत्रसंयोगं कुरुते योऽप्रजे स्थिते । परिवेत्ता स विज्ञेयः परिवित्तिस्तु पूर्वजः ॥१५७।। परिवित्तिः परिवेत्ता या या च परिविंदति । सर्वे ते नरकं यान्ति दातृयाजकपंचमाः ॥१५८।। पितृव्यपुत्राः सापत्नाः परनारीसुताश्च ये। दाराग्निहोत्रधर्मेण न दोपः परिवेदने ॥१५॥ ज्येष्ठो भ्राता यदातिष्ठेदाधानं नैव कारयेत् । अनुज्ञातस्तु कुर्वीत शंखस्य वचनं यथा ॥१६०।। आममांसं घृतं क्षौद्र स्नेहाश्च पत्रसंभवाः । म्लेच्छभाण्डगता ये वै आत्मभाण्डगताः शुचिः ॥१६१।। पत्रचूर्णेषु यत्तोयं गोरसेपु च संस्थितम् । न दृष्यं तद्भवेद्वारि इत्येवं मनुरब्रवीत् ॥१६२।।
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२६४८
दाल्भ्यस्मृतिः संग्रामे अट्टमार्गे च यात्रादेवगृहेषु च । महोत्साहे महोत्पाते स्पृष्टास्पृष्टिर्न दुःष्यति ॥१६३।। दिवा(१)कपिच्छ(स्थ)छायायां रात्रौ दधिशमीषु च। . धात्रीफलेषु सप्तम्यामलक्ष्मीर्वसते सदा ॥१६४॥ शूर्पवातो नखाद्विन्दुः केशवस्नघटोदकम् । मार्जनीरेणुसहितं हन्ति पुण्यं पुराकृतम् ॥१६५।। यत्र यत्र च संकीणं पश्येदात्मनमात्मना । तत्र तत्र तिलैहोमो गायत्र्या वर्तनं यथा ॥१६६।। इदं दाल्भ्यकृतं शास्त्रं श्रावयिष्यति यो द्विजान् । सर्वपापविशुद्धात्मा पुण्यलोकमवाप्नुयात् ॥१६७। ॥ इति श्रीदाल्भ्यप्रोक्तं धर्मशास्त्रं समाप्तम् ।।
॥शुभम्भूयात्॥
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॥ श्रीगणेशाय नमः॥
* आङ्गिरसस्मृतिः *(२)
पूर्वाङ्गिरसम्
आङ्गिरसम्प्रति ऋषीणांमप्रश्नः पावकप्रतिमं साक्षान्मुनिमाङ्गिरसं द्विजाः । ब्रूहि धर्मानशेषान्न इत्यूचुः प्रणिपत्य तम् ॥१॥ तेभ्यः स तु ततः प्रीत्या शृणुध्वमिति चाफणत् । वच्मि तानखिलान् धर्मान् वैदिकान् मुक्तये परान् ॥२॥ धर्मः स्याञ्चोदना प्रोक्तस्तदन्यस्तूपचारतः । लिङ्गादिरूपा सा ज्ञेया मुक्तिदा श्रुतिचोदिता ॥३॥ श्रुत्युक्तलिङ्लोट्तव्यप्रत्ययलक्षणलक्षिता । चोदना सैव नान्या सा पुराणस्मृतिचोदिता ॥४॥
पुराणोक्त न कुर्यात् न वैदिकः पुराणोक्तः कर्माणि मनुभिश्वरेत् । वेदोक्त रेव तैर्मन्त्रैनिखिलानि समाचरेत् ॥५॥ कर्ममध्ये पुराणोक्तमन्त्रोच्चारणमात्रतः।। नश्येत्तु वैदिकं कर्म तस्मात्तु न तथाऽऽचरेत् ॥ ६॥ पुराणोक्त ध्वेषु सत्सु लौकिकेषु तथाऽचरेत् ।
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२६५०
आङ्गिरसस्मृतिः
मन्त्राभावे व्याहृतयः मन्त्राभावे तु सर्वत्र स्मृता व्याहृतयः किल ॥७॥ अन्वये लिङ्गतोऽर्थाद्वा विरोधाभावतः परे। तत्तन्मन्त्राः संभवन्ति तेषु तेषु तु कर्मसु ॥ ८॥ प्रायश्चित्तं दृश्यते न यत्र कुत्रापि तत्र वै। तस्यैतत्कथितं दिव्यं प्रायश्चित्तं महत्तरम् ॥६॥ पुण्या व्याहृतयश्चेति सा ऋग्वा वैष्णवी शिवा । सर्वपापप्रशमनी चिन्तितार्थंकदायिनी ॥१०॥ प्रायश्चित्तक्रियाहेतोनिर्णीता विष्णुना पुरा । न व्याहृतिसमो मन्त्रो न व्याहृतिसमो जपः ॥११।। न व्याहृतिसमस्तीर्थो न व्याहृतिसमं तपः । न व्याहृतिसमो यज्ञो न व्याहृतिसमाः क्रियाः ॥१२॥ तस्मात्सर्वत्र ता दृष्टाः प्रायश्चित्ताय केवलम् । तस्माद्वदिककृत्यानां लौकिकानामशेषतः ॥१३।। प्रमादाकरणे कृत्स्ने तत्त्यागे बुद्धिपूर्वके । अज्ञानिनां ज्ञानिनां च पावकास्तारकाः पराः ॥१४॥ उत्तारका व्याहृतयो ऋचा युक्तास्तया पुनः ।
जातकर्माद्यतिक्रमे कर्मणोऽकरणे जातनाम्नोर्व्याहृतयः स्मृताः ॥१५॥ दिनैकसाध्याः कथितास्तथा नामाख्यकर्मणः । तथान्नप्राशनस्यापि चौलस्याकरणे ततः ॥१६॥
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श्राद्धपाकानन्तरमाशौचेनिर्णयः
दिवसद्वयसाध्या याः परा व्याहृतयः स्मृताः । पश्चान्मौली प्रकर्तव्या मौज्यास्त्वकरणे तथा ||१७|| मुख्यकाले षोडशाब्दपर्यन्तं दशमादितः । दिनत्रयचतुष्पञ्चषट्सप्ताष्टनवादिकाः ||१८||
२६५१
रात्रयः कथितास्तस्य तज्जपस्तस्य निष्कृतिः । किमन्येषां कर्मणां तु यस्य नास्ति हि निष्कृतिः ||१६|| तस्यैताः कथिताः सद्भिः सततं वेदवादिभिः । जप्त्वैता व्याहृतीदिव्याः प्रायश्चित्ताय केवलम् ||२०|| ( परिपूताः ) ततः सद्यस्तत्तत्कर्म समारभेत् । पाकारम्भसमारम्भः श्राद्धमात्रस्य संततम् ॥२१॥ प्रभवेद्धि विशेषेण संकल्पस्तु न तस्य वै श्राद्धपाकानन्तरमाशौचं यदि ।
यदि दैवाद्यत्नमध्ये भवेत्सूतक मृत्विजाम् ||२२|| तत्क्रियाकरणे तत्तु न तेषां वारकं भवेत् । तत्क्रियार्थं प्रथमतः स्नात्वा सम्यक् समन्त्रकम् ||२३|| तत्क्रियामथ कुर्वीत तावत्तेषां न सूतकम् । कर्मकाले तदाशौचं सद्यो विलयमेति वै ॥२४॥ वृत्ते कर्मणि भूयश्च तदुदेति स्वयं पुनः । पाकारम्भानन्तरं तद्वीथ्यां मृतिसंभवे
श्राद्ध पाकसमारम्भे वृत्तेऽथ निपतेच्छवम् ||२५|| तद्वीथ्यां तेन तच्छाद्ध दूषितं न भवेदपि ।
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२६५२
आङ्गिरसस्मृतिः
पाकारम्भात्पूर्व तद्वीथ्यां मृतिसंभवे पाकारम्भस्य पूर्व तत्प्रभवेच्छ्राद्धवारकम् ॥२६॥ शवं वीथ्यां निपतितं पाकारम्भात्परं तु न । उपक्रान्तस्य तस्यास्य सूतकं यदि मध्यतः ॥२७॥ अप्यागतं तेन तद्धि वारितं न भविष्यति। तस्माच्छ्राद्धमुपक्रान्तं सूतकेऽपि तथाऽऽचरेत् ॥२८॥ आतर्पणं विधानेन पाकस्यारम्भतोऽखिलम् ।
दर्शपूर्णमासेष्टिपशुबन्धानन्तरं श्राद्धम् सर्वेषां व्रतकृछाणां वारकं श्राद्धमेककम् ॥२६॥ तस्यापि वारको यागः पौर्णमासश्च दार्शिकः । पौर्णमासं च दशं च पशुबन्धं च तद्दिने ॥३०॥ समागतं समाप्याऽऽदौ पश्चाच्छाद्धं समाचरेत । पितृक्रियादिनप्राप्तयागानुष्ठानतोऽखिलाः ॥३११ वसवश्चापि रुद्राश्चाप्यादित्याश्चैव कृत्स्नशः। तद्र पाः पितरः सर्वे सर्वे चापि पितामहाः ॥३२॥ नित्यतृप्ता भवेयुर्वै निखिलाः प्रपितामहाः । दीक्षाप्राप्त्या तु भूयिष्ठा तृप्तिस्तेषां भविष्यति ॥३३॥
महादीक्षामध्यगतश्राद्धम् प्रत्यब्दमासस्तन्मासदीक्षा या न भविष्यति । प्रत्यब्दमपि पित्रोस्तन्न पितृव्यादिकं मतम् ॥३४॥ महादीक्षामध्यगतं गतमेव भविष्यति । महादीक्षागतस्यास्य तदन्ते करणं ननु ॥३३॥
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शुद्ध नव वैदिककर्मसुप्रवृत्तिःकार्या २६५३ दीक्षामहत्यस्ता ज्ञेयाश्चतुर्विशदिनाधिकाः ।
___खर्वदीक्षामध्ये तिस्रस्ताभ्यस्तु या न्यूनास्त्रिषडादिदिनात्मकाः ॥३६।। खर्वात्मकास्ता विशेयास्तन्मध्यगतपैतृकम् । यद्वा तदन्ते तत्कार्यमन्यत्कबलितं तया ॥३७॥
दीक्षावृद्धौ महत्या दीक्षया कर्म सत्रेध्वेवं गतं गतम् । न कार्यमिति वाच्यं किं दीक्षावृद्धौ कथंचन ॥३८॥ संप्राप्तमपि तच्छ्राद्धमवशाहवयोगतः । तदन्त एव कुर्वीत तस्या अपि पुनः कदा ॥३॥ दैवयोगेन चिवृद्ध महत्त्वं चेत्समागतम् । कारणान्तरसंगत्या तदन्ते चेत्कृताकृतम् ॥४०॥
दीक्षामध्यमृते न संस्कारः कर्तव्यः तच्छ्राद्धं भवतीत्याहुदीक्षामध्यमृतानपि । न संस्कुर्यान्नापि पश्येत् संस्कुर्यात्तद्वयतिक्रमे ॥४१॥ कर्मणो वैदिकस्यैवं प्राबल्यं प्रतिपादितम् । ब्रह्मविद्भिर्महाभागैर्धनस्तत्त्वदर्शिभिः ॥४२॥ दानतीर्थव्रतादिभ्यः कुछ भ्योऽपि विशिष्यते । वैदिकं तु महत्कर्म वैदिकं प्रभवेत्ततः ॥४३॥ शुद्धः सन्नेव कुर्वीत वैदिकं कर्म नाशुचिः । आशौचादशुचित्वं हि ब्राह्मणानां भविष्यति ॥४४॥
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२६५४
आङ्गिरसस्मृतिः
सूत्याशौचस्यास्पृश्यत्वम् सूत्याशौचे मृताशौचे वैदिकं कर्म नाचरेत् । अस्पृश्यत्वं न सूत्यां स्यादाशीचे तु भवेद्धि तत् ॥४५॥ उभयोर्भोजनं कुर्यान्महागुरुनिपातने। अहोरात्रं भुक्तिहैन्यं सर्वेषामपि तन्मतम् ॥४६॥ अकालभुक्तिराशौचे सूत्याशौचे न तन्मतम् । संध्यामात्रं प्रकुर्वीत तयोर्मानसनन्त्रतः ॥४७॥ एकद्वित्रिचतुर्नारीनष्टाशौचस्य चेत्पुनः । आशौचे वर्तमानस्य संघाताशौचिनस्ततः ॥४८॥ साक्षादन्नस्य भुक्तिर्न संध्या सा स्याजले क्रिया।
संतताशौचसंभवे शतज्ञातिगतग्रामवासिनः संतताधिनः ॥४६॥ सूतकान्ते पुनःप्राप्तसूतकस्य निरन्तरम् । अब्दं दृष्ट्वा ततो यत्नात्त्यक्त्वा तं ग्राममादरात् ॥५०॥ सद्यो देशान्तरे पित्रोः श्राद्ध कार्यमिति स्थितिः । यदा परंपराघोऽस्य (घस्य) जायते श्राद्धवारकः ।।१।। तदा संवत्सरं दृष्ट्वा सद्यो देशान्तरं व्रजेत् । यदि विघ्नो न जायेत श्राद्यस्याथ तथा तदा ॥५२।। श्राद्धं तत्रैव कुर्वीत धृतयज्ञोपवीतवान् । एकदैव समाक्रान्तः सूतकत्रयतो यदि ॥३।। एकाशौचेन वा पश्चाद्यज्ञसूत्रं तु बिभृयात् । यज्ञसूत्रविहीनः स्यादनहः सर्वकर्मसु ॥४॥
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शिखानिर्णयवर्णनम्
२६५५ अभावे तस्य सूत्रस्य चेलं वाजिनमेव वा। धारयीत विधानेन न मन्त्रस्तत्र विद्यते ॥५॥ सूत्रस्यैव भवेन्मन्त्रः शिखाहीनश्च तादृशः ।
शत्रुच्छिन्नशिखश्चेत् शत्रुच्छिन्नशिखः सद्यो बिभ्रन् कर्णे शुचिर्यतन् ॥५६।। समगोपुच्छलोमानि प्राजापत्यप्रपूर्वकम् । पुनःसंस्कारतः शुद्धः प्रभवेन्नात्र संशयः ॥७॥
मध्यच्छेदे मध्यच्छिन्ना यदा चूडा प्राजापत्येन शुध्यति ।
रोगादिना नाशे शिखाया रोगतो नाशे कृत्स्नायाः संकटेऽपि वा ॥५८।। अवशाद्वह्नितो वापि पुनः संस्कार एव हि । शिखारोहणतः पश्चान्न तत्पूर्व समाचरेत् ॥५६।। तावद्गोपुच्छलोमानि धार्याण्येव विधानतः । यथावत् सा तु न भवेद्वार्धकेण च रोगतः ॥६॥
सप्तत्यूध्वं रोमभिः सप्तत्यूध्वं तु चेत्तस्याः पूर्वतः पृष्ठतोऽपि वा। पार्श्वतः परितो वापि समुद्भूतैश्च रोमभिः ॥६॥ शिखा कार्या प्रयत्नेन न चेन्नैवोपपद्यते । तस्थाने सर्वशून्ये तु परितो वापि किं पुनः ॥६॥ ब्राह्मण्यसूचनायैवं तानि लोमानि धारयेत् । अन्यथा न भवेदेव तथा तस्मात्समाचरेत् ॥६३।।
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२६५६
आङ्गिरसस्मृतिः एवं वर्षाष्टकेऽतीते ताीयीकाश्रमं ब्रजेत् । शिखासूत्रं च तद्युग्मं ब्राह्मणत्वस्य मूलके ॥६४॥ यया कया च विधया शिखां सूत्रं च बिभृयात् । शिखाच्छेदो पञ्चवारं यदि जायेत शत्रुभिः ॥६॥ ब्राह्मण्यं तस्य नष्टं स्यात् पुनःसंस्कारतोऽपि तत् ।
श्राद्धविघ्न स्त्रीसंगे श्राद्धविघ्ने समुत्पन्ने सन्ततं सूतकादिना ॥६६॥ अकृत्वैव तदा श्राद्धं नोपेयाच्च स्त्रियं तराम् । तदा यद्याहितो गर्भो ब्रह्महत्याव्रतं चरेत् ॥६॥ तदा सकृत्सन्निपाते प्राजापत्यत्रयं चरेत् । असकृद्गमनाचापाग्रयानं च समाचरेत् ॥६॥ तस्योपनयनं भूयश्चोदितं ब्रह्मवादिभिः। प्रविष्टपरकायो यः स्वभार्या तेन वर्मणा ॥६॥ नोपेयात्तत्प्रविष्टः सन्नोपेयात्तस्य तामपि । तादृशं कर्म कुर्याच्चेत्तत्कुलं स्वकुलं च ते ॥७०॥ आत्मानं पातयेदोरे नरके गैरवाभिधे। नष्ट त्रिप्रायके श्राद्ध पूर्वस्मिन् हविषि क्वचित् ।।७१॥ तदा पुनस्तत्संपाद्य हुत्वा प्राणादिभिश्चरुम् । द्वात्रिंशदाहुतेः पश्चात्तच्छेषेण समापनम् ॥७२॥ यत्तस्त्रिप्रायकं श्राद्धं तस्यागूश्च समापनम् । अपराह्न च मध्याह्न सद्यः पक्कं भवेद्धि वै ॥७३।।
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लाजहोमात्परंरजस्वलायां जातायांनिर्णयः २६५७ पृथक् पाकात्तस्य भुक्तिद्वितीये तत्र नैव सा। विप्राणां भुक्तिमात्रं स्यादाभान्त्येतत्समाचरेत् ॥७४।। संभान्त्यथ मृताहस्य समारम्भो विधीयते । सर्वशेषं समादाय पिण्डांस्त्रीनेव निर्वपेत् ॥७॥ अवशिष्टं प्राशयेच्च त्रिप्रायकविधौ तथा । यत्नान्महाभीतिमति पश्चात्स्याद्भूरिभोजनम् ॥७६।।
लाजहोमात्पूर्व यदि रजस्वला अक्ति लाजहोमस्य वधूर्यदि रजस्वला । हविष्मतीति मन्त्रेण शतकुम्भैविधानतः ॥७॥ स्नापयित्वा विधानेन वस्त्राभ्यां संपरीत्यतः । जप्त्वा द्विवारं यत्नेन युञ्जानाहुतियुग्मकम् ॥८॥ पृथगनौ स्थापितेऽथ जहुयात्संस्कृतं घृतम् । पश्चात्तन्त्रं प्रयोक्तव्यमाब्राह्मणविसर्जनम् ॥७६।। योक्त्रं विमुच्य तां पत्नी दूरतस्तु विनिक्षिपेत् । पश्चाञ्चतुर्थदिवसे स्नातायां समनन्तरम् ॥८॥ प्रवाहनादिकर्माणि विधिनैव समाचरेत् । उभयोस्तु तदा नित्यं विधिना स्यात्पयोव्रतम् ॥८१।। तदौपासनहोमः स्यात् समारम्भात्तु तन्मतम् ।
लाजहोमात्परं चेत् । लाजहोमात्परं सा चेत्तदा तत्स्नानतः परम् ॥८॥ अक्ति शेषहोमस्य तूष्णीकं मन्त्रवर्जितम् । वस्त्रद्वयं प्रदायास्यै ताभ्यामाच्छाद्य तत्परम् ॥८३।।
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२६५८
आङ्गिरसस्मृतिः
अपावृत्ते तृतीये च दिवसेऽथ चतुर्थके | अह्नि द्वितीययामे वै शतकुम्भैरमन्त्रितैः ॥८४॥ अभिषेकं कारयित्वा शेषं कर्म समाचरेत् ।
औपासने त्वनारब्धे द्वितीयेऽह्नि चेत् औपासने त्वनारब्धे द्वितीयदिवसे यदि ॥८५॥ रजस्वला तदा तस्यै हविष्मन्मन्त्र सेचनात् । परं वस्त्रद्वयं दत्वा तूष्णीकं मन्त्रवर्जनात् ॥ ८६॥ ताभ्यामाच्छाद्य तत्पश्चात्सहस्र रुदकुम्भकैः । चतुर्थदिवसे कुर्यादभिषेकं समन्त्रकैः 112011 पञ्चगव्यस्तिलैः श्वेतैः सर्षपैः सर्वधान्यकैः । व्याहृत्या चैव गायत्र्या हुनेदष्टोत्तरं शतम् ||८८|| अष्टोत्तरसहस्रं चेत्सर्वदोषहरं परम् ।
आयुष्यसूक्तं हुत्वाथ चरुणा लाजतोऽपि वा ॥८६॥ होमशेषं समाप्याथ कर्मशेषं समापयेत् । पश्चाच्छुद्धिमवाप्नोति कर्मणस्तस्य केवलम् ||१०| तत्पश्चमेऽथ दिवसे त्वौपासनपरिग्रहः । तयाथ संगमो मासाद्गर्भाधानविधानतः ॥ १॥ तद्गृहक्षेत्रमनसां परस्परविरोधतः । निरुद्धप्रेतकृत्यानां सूतकं तत्समापनात्
||२||
निरुद्धप्रेतकृत्या ये तद्द्रव्यहरणेच्छया । तत्समापन पर्यन्तं तेषां तत्सूतकं भवेत् ॥ ६३ ॥
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सूतकिनो निषिद्धकर्माणि
२६५६ आशौचे नित्यनैमित्तिकादि तत्समापनपर्यन्तं न कुर्यः शुभकर्म च । नित्यं नैमित्तिकं काम्यं ब्रह्मयज्ञादिकं तथा ॥४॥ न स्वाध्यायं न वा होमं न सभायाः प्रवेशनम् ।
प्रेतकृत्यरोधे कुर्वीत मनसा संध्यां न स्वादूनि च भक्षयेत् ॥६॥ तानि कुर्यात्तु मोहेन स प्रेतो न सहिष्यति । शापं घोरं ददात्येव तस्मात्तत्कृत्यरोधनम् ॥६६।। मनसापि न कुर्वीत तच्चाण्डालं प्रकीर्तितम् । कृत्यं घोरं हि दुष्टं तत्तादृशं न तदाचरेत् ॥१७॥
अत्यन्यायादि कलौ न कारयेत् अत्यन्यायमतिद्रोहमतिक्रौयं कलावपि । अत्यक्रमं चात्यशास्त्रं न कुर्यान्न च कारयेत् ॥१८॥ यदि कुर्वीत मोहेन सद्यो विलयमेष्यति । कर्ता कारयिता चापि प्रेरकश्च निरोधकः ॥६६।। तत्सहायश्च सर्वे ते लयमेष्यन्ति सत्वरम् । गृहक्षेत्रादिकं सर्व न नित्यं शुभकारिणः ॥१००।। तन्निमित्तमिदं रूपं पापं मयों न चाऽऽचरेत् । आगामिसूतकं ज्ञात्वा समुपक्रान्तकर्मणः ॥१०१।। अङ्गापकर्षणं नैव कुर्यादिति मनोर्मतम् ।। समागते सूतकेऽपि समुपक्रान्तकर्मणः ॥१०२।।
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२६६०
आङ्गिरसस्मृतिः अङ्गानि तत्तत्कालेषु कुर्यात्तत्र न सूतकी। भवेदेव तदा सद्यो गते तस्मिन् पुनस्तथा ॥१०॥
जीवपितृकपिण्डपितृयज्ञादिश्राद्धम् अपि जीवत्पिता पिण्डपितृयज्ञं समाचरेत् । मासि श्राद्धं तथा होमादष्टकां पितृयज्ञतः ॥१४॥ पितुर्वियोगात्परतः पिण्डदानं समाचरेत् । तेनायं श्राद्धकर्ता स्यान्न मातुः पिण्डदानतः ॥१०।। जीवे पितरि चेच्छ्राद्ध प्राप्ते नैमित्तिके यदि । येभ्य एव पिता दद्यात्तेभ्यो दद्यात्तु तत्सुतः ॥१०६।। एवं पितामहे जीवे येभ्यो दद्यात् स हि स्वयम् । तेभ्यो दद्यात्तु तत्पौत्रस्तथा स्यात्प्रपितामहे(हान) ॥१०७||
पितरि संन्यस्ते पातित्यादिदूषिते तत्पित्रादिश्राद्धम् संन्यस्ते पतिते ताते भ्रान्तचित्ते चलात्मनि । तत्कर्तृ काणि श्राद्धानि स्वयं पुत्रः सगाचरेत् ॥१०८।। तत्तत्कालेषु विधिवच्छ्राद्धकर्ता न तेन सः। तेषामकरणात्सोऽयं सद्यश्चण्डालतां व्रजेत् ॥१०६।। श्राद्धाधिकारी पिण्डस्य दानमात्रेण जायते । ऋत्विक्त्वेन वृते तम्मिन् न तु कर्ता भवेदयम् ॥११०।। पितुः पिण्डप्रदानेन श्राद्धकर्ता भवेदयम । श्राद्धाधिकारसिध्यर्थं कुर्यादेकादशेऽहनि ॥११|| पार्वणं तद्विधानेन पितुः सिद्धरनन्तरम् । कर्मन्दी ब्रह्मभूतस्य तदा तस्मिन्नियोजयेत् ॥११२।।
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सिद्धिदिने श्राद्धविधानम्
२६६१ प्रतिसंवत्सरं सिद्धिदिने श्राद्धं समाचरेत् । पश्चादाराधनं कुर्यात्तस्मिन्नो चेत्परेऽहनि ॥११३।। ब्रह्मभूतस्य तस्यास्य सर्वदेवादिरूपिणः । संगच्छते पितृत्वं च तेन रूपेण तं यथा ॥११४॥ तस्मिन् श्राद्धदिने भक्त्या यजेदेव विधानतः । तादृक् तद्यजनं चास्य श्राद्धनामककर्मणः ॥११।। अधिकारित्वसिध्यर्थं तस्मात्तेनैव तं यजेत् । न मातरं पितृत्वेन यजेत तु कथंचन ॥११६।। पितृत्वं मातरि गतमेकशेषजमल्पकम् । यथा न तत्कार्यकरं मातृत्वमपि तत्तथा ॥११७||
पितृव्यपल्यादीनाम् पितृव्यपन्यादीनां स्यात्तादृक्पत्नीत्वमेव हि । तासां भवति तस्मात्तु न तन्मातृत्वमुच्यते ॥११८।। पितृत्वमपि मातृत्वं दानतो नाशमेष्यतः । तत्कर्मणि पुनः प्राप्त जननीत्वादिना भवेत् ॥११६॥ पितृत्वमपि मातृत्वमेकत्रैव हि तिष्ठति । न तिष्ठति तदन्यत्र क्रियाशतसहस्रकात् ॥१२०।।
गौणमातरि गौणमातरि मातृत्वं पुरस्कृत्यार्थलोभतः । समुच्चार्य क्रियां कुर्यान्न सा तद्गा भवेद्धृवम् ॥१२॥ लोभान्मातृत्वमन्यासु यदि निक्षिप्य मोहतः । क्रियां कुर्याज्जडमतिः सद्यश्चण्डालतां व्रजेत् ॥१२२॥
१८६
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२६६२
आङ्गिरसस्मृतिः अतस्मिन् तत्त्वमारोप्य संस्कुर्याद्यदि कामतः । निष्फलं याति तत्कर्म सोऽपि पातित्यमाप्नुयात् ॥१२३॥ पितृत्वं जनितर्येव मुख्यतोऽन्यत्र गौणतः । तत्पुरस्कृत्य चेत्कर्म कृतमन्यैः पुनः क्रिया ॥१२४॥ विहितेनैव पुत्रत्वं स्वीकारेण न चान्यतः । समवाप्नोति बन्धूनां राजविद्वदनुज्ञया ॥१२॥
भ्रातृजः कृतदारः कृतक्रियोऽपि । भ्रातृजो वाक्यतः पित्रोज्यैष्ठयकानिष्ठयवर्जितः । पुत्रत्वं समवाप्नोति कृतदारः कृतक्रियः ॥१२६॥ सोऽप्येकश्चेदवाप्नोति नोभयोस्तु तथा विधिः । जनितुर्मुख्यसूनुः स्यादन्यस्य गुणतः सुतः ॥१२७॥ मातुलत्वपितृव्यत्वसुतत्वाद्यनुबन्धकम् । मुख्यतो यस्य यद्वा स्यात्तदुद्दिश्यैव तक्रिया ॥१२८।। मुख्यानुबन्धनं त्यक्त्वा यः कर्म कुर्यात्प्रमादतः । पितृव्यादिकमुच्चार्य पुनः कुर्यात्तु तां क्रियाम् ॥१२६।।
गोत्रनामानुबन्धव्यत्यासे गोत्रनामानुबन्धानां व्यत्यासेनाप्यनेहसः । यदि कुर्याक्रियां तां वै पुनः कुर्याद्यथाविधि ॥१३०॥ उपनीतस्तु चेदुपनेतृत्वेनैव तक्रिया। विद्यादत्वेन तदातुर्भक्तदत्वेन तत्प्रदे ॥१३१॥ भयपत्वेन भयपे पितृव्यत्वेन तादृशे । तत्तदुच्चारणं कृत्वा तत्तत्कर्म समाचरेत् ॥१३२।।
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अनाथप्रेतसंस्कारेऽश्वमेधफलवर्णनम् २६६३ तदन्यथाकृतं तच्चत् सम्यग्भूयः समाचरेत् ।
कर्तरि दूरगे प्रेष्यत्वेन कुर्वीत मुख्यकर्बसमीपेऽन्यो न कुर्यात्स्वानुबन्धतः ॥१३३।। तत्प्रेष्यत्वेन कुर्वीत प्रेषितस्तेन वै वृतः। अवृतस्तेन तत्प्रेष्यत्वेन तद्रगे सति ॥१३४।। कृतं चेत्कर्म तद्भूयः संकल्पांदि समाचरेत् ।
अन्येन कृते वाङ्मात्रदाने श्राद्धमात्रम् वाङ्मात्रदत्तपुत्रस्तु कृतदारः कृतक्रियः।।१३।। ग्राहकस्य न कुर्वीत दर्शादि न कदाचन । तत्पन्यास्तस्य च श्राद्धमात्रं सम्यक् समाचरेत् ॥१३६।। प्रतिवर्ष प्रयत्नेन न दर्शादिकमाचरेत् । सतामेव हि बन्धूनां कर्म कुर्यात् प्रयत्नतः ॥१३७।। भ्रष्टानामपि तुच्छानां पतितानां विकर्मिणाम् । न कुर्वीत क्रियां यत्नादपि स्नानं समाचरेत् ॥१३८।। असतां पतितानां च भस्मान्तं सूतकं स्मृतम् ।
भ्रपतितानां घटस्फोटनाधिकारिणः जातिभ्रष्टानकर्मिष्टान् पतितान् मातरं सुतम् ॥१३६।। पितरं भ्रातरं पत्नी पतिमेवं मिथोऽसतः । त्यजेद्धटप्रहारेण नान्यानेवं समाचरेत् ॥१४०।।
अनाथप्रेतसंस्कारे अनाथप्रेतसंस्कारादश्वमेधफलं लभेत् । प्रेतनिर्वापणं तमत्र संस्कारशब्दतः ॥१४।।
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२६६४
आङ्गिरसस्मृतिः
प्रेतसंस्काराभावे अकृत्वा प्रेतसंस्कारं यो भुङ्क्त कामकारतः । तत्प्रेतकृतपापौघं तत्क्षणाल्लभतेऽखिलम् ॥१४२॥ तद्दोषशमनायाथ चापाग्रे स्नानमाचरेत् । मासमात्रं प्रयत्नेन न चेदुक्थ्यं समाचरेत् ॥१४३॥
___विप्रानुज्ञया यतिकृत्यम् विप्राभ्यनुज्ञया कुर्यात् कर्ममात्रं विशेषतः । पितृकृत्यं प्रेतकृत्यं तयोनों चेद्यतेरपि ॥१४४॥ विप्रानुज्ञा यतिरपि लब्ध्वा स्नात्वा वस्त्रतः । प्रेतकृत्यं प्रकुर्वीत न चेत् कृत्यं तु तन्न तु ॥१४॥ अपि शास्त्रकृतं कर्म बहुविप्रामतं तु यत् । तदभ्यनुज्ञया तत्तु कर्मतः पुनराचरेत् ॥१४६।। बहुविप्रतिरस्कारप्रद्वषागःप्रदूषितम् । तदभ्यनुज्ञारहितं यत्तत्कर्म पुनश्चरेत् ॥४७॥
___ कर्तरि सन्निहितेऽकर्तृकृतं पुनः यद्यक कृतं कर्म समीपे कर्तरि स्थिते । धनवृत्तिगृहक्षेत्रहेतवे तत्पुनश्चरेत् ॥१४॥
असगोत्रसंस्कृतावाशौचम् असगोत्रमपि प्रेतं दाययेद्यः कथंचन । स चापि गोत्रिभिस्तुल्यो दशाहं सूतकी भवेत् ॥१४॥
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वेदमहिनोवर्णनम्
२६६५ - मृताहस्य परित्यागे मातापित्रोः मृताहस्य परित्यागे मोहात्कृछद्वयं चरेत् । गायत्रीदशसाहस्रजपो गोदानमेव च ॥१५०।। एवं पञ्चत्रिंशवर्षपर्यन्तं चित्त(त्र)मुच्यते। पृथक्त्वेन महाभागैस्तदूवं पतितो भवेत् ॥१५॥
नदीस्नाननेन निष्कृतिः महानदीस्नानशतं पित्रोस्त्यक्त तु पैतृके। निष्कृतिः कथिता सद्भिः पुनः संस्कारतस्तथा ॥१५२।। नदीस्नानानि सर्वत्र सर्वकृत्येषु वच्मि वः। निष्कृतित्वेन विप्राणां वेदिनामभ्यनुज्ञया ॥१३॥ न हि स्नानेन सदृशी निष्कृतिविहितास्ति हि । तस्मात्स्नानानि सर्वत्र तीर्थादिषु विशिष्यते ॥१५४।।
संहितापठनादिः श्रुतिपारायणं यद्वा व्याहृतीनां जपोऽथवा । गायत्र्या वा जपो नो चेन्महारुद्रजपोऽथवा ॥१५५।। पुरुषसूक्तजपो वापि संहितापठनं सकृत् । निष्कृतिविहिता सद्भिरपि पातकिनामपि ॥१५६।।
वेदमहिमा वेदाक्षरोच्चारणतः सर्वनामफलं लभेत् । हरिनामानि यावन्ति पठितानि द्विजातिभिः ॥१५७।। असंख्याकान्यनन्तानि सर्वाविलहराण्यपि । तान्येकवेदवर्णः स्यात्ताहशैदिव्यवर्णकः ॥१५८।।
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२६६६
आङ्गिरसस्मृतिः अमेयैः संवृतो वेदः साक्षान्नारायणात्मकः । तादृशस्यास्य वेदस्य पठनात् सर्वकिल्बिषैः ॥१५६।। सद्य एव विमुक्तः स्यात् पातकी नात्र संशयः ।
ब्राह्मणस्य वेदाधिकारः तादृशस्यास्य वेदस्य पठने ब्राह्मणस्य वै ॥१६०।। अधिकारो न चान्यस्य संस्कृतस्यैव कर्मभिः । तत्रापि परिशुद्धस्य कृतनित्यक्रियस्य वै ॥१६॥ तत्रापि परिशुद्धस्य विशेषेषु दिनेष्वपि । शुद्धाच्छुद्धः स्वतो वेदस्तदुच्चारणतः क्षणात् ॥१६२।। देवनामान्यनन्तानि निखिलान्यघहानि वै। असकृत्पठितानि ग्युर्मात्र कार्या विचारणा ॥१६३।। स्नानं कृत्वा प्रारभेच्च वेदं तं तादृशं शिवम् ।
अस्नात्वारम्भे यद्यस्नात्वैव मोहेन प्रारभेत् पातकी भवेत् ॥१६४॥ स्नानतः सर्वकर्माणि सिध्यन्त्येव न संशयः ।
__सर्व स्नानमूलम् स्नानमूलमिदं ब्राह्म स्नानमूलमिदं तपः ॥१६॥ स्नानमूलाखिला यज्ञाः स्नानमूलमिदं जगत् । सर्वकृत्येषु सर्वत्र स्नानमेव परं मतम् ॥१६६।। कृत्स्नेष्वशुचिषु स्नानं तारकं परिकीर्तितम् ।
अस्पृश्यस्पर्शनादिकर्माङ्गस्नानम् अस्पृश्यस्पर्शने चैवमभक्ष्याणां च भक्षणे ॥१६७।।
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शाकमूलादिवमनेऽघमर्षस्नानादिविधानवर्णनम् २६६७ संकलीकरणे चांत्र मलिनीकरणे तथा । अपात्रीकरणेऽन्यत्र जातिभ्रंशकरादिषु ॥१६८।। सूतकादिषु सर्वेषु सर्वेष्वाशौचकर्मसु । स्नानमेव परं प्रोक्तं सर्वकछव्रतादिषु ॥१६॥ सर्वाद्यन्तेष सत्रेषु तदेव परिकीर्तितम् । अभोज्यभोजनेष्वेवं स्नानं तत्समुदाहृतम् ॥१७०।। अकार्यकरणेष्वेषु मुख्यस्नानानि मुख्यतः । भवेयुर्हि पवित्राणि तानीमानि ततः सदा ॥१७१।। चरेद्यत्नेन शुध्यर्थं न चेतिक वात्र शुध्यति ।
वमने स्नानम् स्वक्रियावमने सद्यः सवासा जलमाविशेत् ॥१७२।। अजीर्णवमने स्नानमौषधादिक्रियावशात् ।
वमने स्नानाभावस्थलम् वमनेऽप्यवगाहः स्यान्मक्षिकामूलतो यदि ॥१७३।। नावगाहः प्रकर्तव्यस्तल्लेपक्षालनं परम् । प्रकर्तव्यं प्रयत्नेन धारणं शुद्धवाससाम् ॥१४॥
शाकमूलादिवमने शाकैर्मलैः फलैः पत्रैः कटुतिक्तरसादिभिः । सद्यश्चद्वमनं तन्न चिरकाले तु तद्भवेत् ।।१७।। यदा चेद्रोगवमनं तदा स्नानं विधानतः । सद्य एव प्रकर्तव्यमघमर्षविधानतः ॥१७६।।
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२६६८
आङ्गिरसस्मृतिः
व रात्रौ वमने रात्रौ तु वमने जाते रोगाद्य रप्यजीर्णतः । अर्धरात्रादधस्तूष्णे पाथसि स्नानमुच्यते ॥१७७|| तत्परं प्रातरेव स्यादिति शाकलभाषितम् ।
स्वगोत्रत्यागेऽन्यगोत्रपरिग्रहणे स्वीयगोत्रपरित्यागादन्यगोत्रपरिग्रहात् ॥१७८॥ प्रभवेत्पतितः सद्यः शुद्धः संस्कारतः पुनः । स्वीयगोत्रपरित्यागो भिन्नगोत्रपरिग्रहः ॥१७६।। द्वयमेतत्प्रकथितं त्रिय एव हि नुर्न तु ।
अर्धादयः अर्कश्रुतिव्यतीपातयुक्ताऽमा पुष्यमाघयोः ॥१८॥ अमाव|दयो योगः कोट्यर्कग्रहसंनिभः । अस्मिन् स्नातो चापकोटौ कुर्यात्स्नानशतं यदि ॥१८१।। त्रिंशद्वषं त्यक्तपितृकर्मा शुद्धो भवेत्ततः । महोदये तु तस्नानसहस्रं यदि भक्तितः ॥१८२॥ कुर्याद्वा कारयेद्वापि शुद्धः पूर्वाघतो भवेत् । अन्यथा निष्कृतिर्नास्ति तादृशस्यास्य पापिनः ।।१८३।। तं योगं सुसमीक्ष्येत तस्मात्ताहक्तु किल्बिषी ।
पत्यन्येन चितारोहितायाः पुत्रस्य कृत्यम् यदि साध्वी प्रमादेन पत्यन्येन चितिं व्रजेत् ॥१८४।। कथं तत्कर्मकरणं पश्चात्तज्जातजन्मनाम् । इति चिन्तापरा देवा बभूवुः किल वै चिरम् ॥१८॥
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स्त्रीणां पुनर्विवाहे प्रायश्चित्तवर्णनम् २९६६ पश्चादुदभवद्वाणी दिव्या स्पष्टपदाक्षरा । पत्यन्तनरयोगस्य षडब्दं कृच्छ्रमुच्यते ॥१८६।। मोहात् प्राणपरित्यागे महापापस्य कर्मणः । तस्याः षडब्दं संप्रोक्तं षड्गुणेनैव संयुतम् ॥१८७॥ सदानेनैव कुर्वीत लोभशाठ्यविवर्जितम् । तदोषशमनायैव प्राणत्यागाख्यकर्मणः ॥१८८॥ चापाप्रयानं कृत्वादौ तत्र स्नानशतं चरेत् । पक्षमात्रं प्रयत्नेन नित्यं प्रियपुरःसरम् ॥१८६।। तच्छान्तिस्तेन नान्येन साधसाहस्रमजनैः । ब्राह्मणानां प्रसादेन कूष्माण्डगणपाठतः ॥१६॥ नित्यं त्रिवारं तत्रैव पश्चात्तु प्राकृतं चरेत् । ततः शुद्धा भवेत्सा तु तैरेतैः कर्मभि शुभैः ॥१६॥
जातिभेदेन निष्कृतिः द्विगुणं राजयोगेन त्रिगुणं वैश्ययोगतः । चतुर्गुणं शूद्रयोगादेवं निष्कृतिरीरिता ॥१६२।।
स्त्रियः पुनर्विवाहे पुनर्विवाहिता मूढैः पितृभ्रातृमुखैः खलैः । यदि सा तेऽखिलाः सर्वे स्युर्वै निरयगामिनः ॥१६॥ पुनर्विवाहिता सा तु महारौरवभागिनी । तत्पतिः पितृभिः साधं कालसुत्रगतो भवेत् ॥१६४||
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२६७०
आङ्गिरसस्मृतिः दाता चाङ्गारशयननामकं प्रतिपद्यते ।
__तस्य निष्कृतिः तद्दोषशमनायाथ प्रायश्चित्तमिदं परम् ॥१६५।। दाता सेतुगतः सद्यो धनुष्कोट्यां समाहितः । नित्यं त्रिषवणस्नायी यावकाहार एव वै ॥१६६॥ संवत्सरं प्रयत्नेन वसेदेवान्वहं तराम् । स्वकृतं यच्च तत्पापं वदन्नित्यमटन् यतन् ॥१६७।। सर्वेष्वपि च तीर्थेषु तप्तकृच्छ्रशतं चरेत् । ततः शुद्धो भवेदेवं वोढा चापि तदा पुनः ॥१६८।। तदोषशमनायैव पुण्यं चान्द्रायणत्रयम् । यत्नात्कुर्वन् वसेत्तत्र ऋतुत्रयमतन्द्रितः ॥१६६।। प्रतिनित्यं पञ्चगव्यं पिबंस्तद्विधिना रुदन् । निर्लज्जया लोकपुरः कूष्माण्डादीन् पठंस्तथा ।।२००|| द्रपदा नाम गायत्री गायत्रीं वेदमातरम् । संध्यात्रये सहस्राणि जपंस्तप्ताख्यकं शिवम् ॥२०१।। कृच्छ विधानतः कृत्वा पुनःसंस्कारतः पुनः । पुटगभविधानेन शुद्धो भवति तत्र चेत् ॥२०२।। न चेत्तप्तशतं कुर्यात् पुनरुपनया (यना)त्परम् । सा चद्भ द्वयं त्यक्त्वा सेतुस्नानसहस्रकम् ॥२०३॥ कृत्वा च यावकाहारा वर्षमात्रेण शुध्यति । यद्यपुत्रा पुत्रिणी चेत् पतेदेवाशु सेः सह ॥२०४।।
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बहुवारविवाहिताया गतिवर्णनम् २६७१ सा वै पुत्रैस्तदुद्भूतैश्चण्डालत्वं भजेत वै।
भ्रान्त्या पुत्रिकादिविवाहे जाते स्वमात्रशुद्धिः यदि स्वसारं तनयां चिराद्भ्रान्त्यादिकृच्छ्रतः ।।२०।। विवहेन्मोहतो ज्ञाते कृत्वा चान्द्रसहस्रकम् । चापाग्रयानतः पश्चात् पुटगर्भविधानतः ॥२०६।। करणाज्जातकादीनां स्वमात्रस्य शुचिर्भवेत् । परेषां शूद्रतुल्योऽयं ततस्ता बिभृयादपि ॥२०७।। पूर्वधर्म विनिक्षिप्य तस्यां भक्त्या जपन्वसेत् ।
पुत्रे जाते . यदि तस्यां प्रजायेरंस्तांश्चण्डालेषु विन्यसेत् ॥२०८।। ततः स्वयं च नित्यं वै यावकाशी चरेद्भवम् । पापप्रख्यापनं कुर्वन् यावज्जीवं हरिं भजन् ।।२०६।। पुण्यक्षेत्रेषु नियतं वसन् भक्त्या रसामटेत् । विवाहितां च विधवा महामोहेन वञ्चकैः ॥२१०॥ दत्तां विवाह्य तज्ज्ञात्वा सद्यश्चण्डालतां व्रजेत् । तदोषशमनायैवं पूर्ववत्तु समाचरेत् ॥२११।। द्विगुणं निखिलं कृत्यं समुन्नेयं विचक्षणैः ।
एकद्वित्रिचतुः पञ्चवारं विवाहिता एकद्वित्रिचतुः पञ्चवारं वै या विवाहिता ॥२१२।। अतिक्षुद्रककालेषु पापैकबहुलेषु च । विज्ञाता चेत्तु तां सम्यक् पृष्ट्वा गत्वा विचार्य च ॥२१३।।
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२६७२
आङ्गिरसस्मृतिः तत्त्वं तस्यास्तु विज्ञाय प्रायश्चित्तं ततश्चरेत् । यत्र यत्र च सा गत्वा यं यं वा स्वजनैः सह ॥२१४॥ मायया मोहयामास वञ्चयित्वाऽतिचर्यया। . तं तं ज्ञात्वा च संभाष्य तत्तद्वाङ्मूलमप्यलम् ।।२१।। श्रुत्वा पश्चाच्छोत्रियेभ्यः श्रावयित्वाऽखिलं ततः। राशे बन्धुनि चावेद्य प्रायश्चिनं ततश्चरेत् ॥२१६।। एतादृशेषु कृत्येषु सा क्षेत्रं प्रभवेद्ध वम् । प्रथमोद्वाहकरयैव परं त्वेषा परा न तु ॥२१७|| कदाचिद्धर्मकृत्यानां न तस्यापि परस्य वा।
तदपेक्षया वेश्या विशिष्यते सा भोगमात्रयोग्यापि वेश्या तस्या विशिष्यते ॥२१८॥ तया चेत्तेषु कृत्येषु सपङ्क्तौ भोजनं तथा । सह वा भोजनं दुष्टं यदि पातित्यकारकम् ॥२१६।। तच्छुध्यर्थं रसायां तु श्वभ्र संछाद्य धर्मतः । खनित्वा याममात्रं वा घटिकाद्वयमेव वा ॥२२०।। तस्मादुद्धृत्य पश्चात्तु जातकादि समाचरेत् । तप्तकृच्छ्रसहस्राणि धर्मतश्च समाचरेत् ॥२२१।। नियतात्मा यावकाशी चापाग्रं तद्भवेच्छुचिः। पञ्च स्नानसहस्राणि स्वयं विप्रमुखेन वा ॥२२२।। समाचरेत्ततः स्वस्य शुद्धो भवति केवलम् । न परेषामयं योग्य एवमाह पुरा भृगुः ॥२२३॥
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अग्राह्यमूर्तिग्राह्यमूर्तीनां वर्णनम् २६७३ प्रविष्टपरकायेन यदि संयोगमाप्नुयात् । त्रिमासयावकाहारा साध्वी शुध्यति नान्यथा ।।२२४॥ प्रविष्टपरवाणं विज्ञातं स्वपति सती । प्रपालयेद्विशेषेण रतिमात्रं न चाचरेत् ॥२२॥ काययोरेव संबन्धः पुरा संस्कृतयोः पुरा । नात्मनोरस्ति संबन्धो भिन्नकाये न चेत्ततः ॥२२६।। आत्मान्यकायं स्पृश्येन्न तेन पातित्यमाप्नुयात् । सुराणामपि चैवं हि मनुष्याणां तु किं पुनः ॥२२७।।
_अग्राह्यमूर्तयो ग्राह्यमूर्तयश्च अग्राह्याभेद्यमूर्तीनां ग्राह्यभेद्यशरीरिणाम् । देवानां सुमहाभेदस्तारतम्यं च तत्परम् ॥२२८।। स्पष्टमेव प्रभवति तेनाग्राह्याः सुरास्तु ये। ग्राह्यकायसुराणां वै प्रपूज्याः परमाः परम् ॥२२॥ अधिका वन्दनीयाश्च ते न नीचास्तु तेन वै।
अग्राह्यमूर्तिनिवेद्यम् तन्निवेदितमत्यथं न तेषां परिकल्पयेत् ॥२३०॥ तेनापराधः सुमहान् प्रभवेन्न तथाचरेत् । अग्राह्याभेद्यमूर्तीनां ग्राह्यभेद्यनिवेदितम् ॥२३१।। अयोग्यं सततं स्याद्धि शूद्रस्येव श्रुतिर्यथा । श्रौतस्मातक्रियादक्षः पैतृकोद्देशतोऽपि वा ॥२३२॥
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२६७४
आङ्गिरसस्मृतिः निरुप्तमन्योद्देशेन न देवाय निवेदयेत् ।
निवेदितेनानिवेदितयोजने निवेदितेन रुच्यर्थं योजयेन्नानिवेदितम् ॥२३३॥ तथा निवेदितं भूयो लवणं च नियोजयेत् । निवेदनादथ पुनस्तदादाय घृतेन वा ॥२३४।। तैलेन लवणेनापि यत्नेन न नियोजयेत् । तदुच्छिष्टं न कुर्वीत तत्करेण न पीडयेत ॥२३।। न खण्डयेन्मिथोऽज्ञानान्न तत्प्रोक्षणमाचरेत् । परिषिञ्चेन्नैवमेव तूष्णीमास्ये विनिक्षिपेत् ॥२३६।। गृह्णीयात्तु तदन्तर्वै न दन्तैरपि पीडयेत् । तदेतत्परमं शुद्ध निर्माल्यमतिदुर्लभम् ॥२३७।। देवानामपि तद्भोज्यं प्रयत्नेनातिभक्तितः । तदोपदंशं स्वीकुर्यान्निवेदितमहाक्षणे ॥२३८।।
भगवत्प्रसादग्रहणे भक्षणविषये निवेदितस्य हविषो भक्षणे समुपस्थिते । आपोशनं न कुर्वीत प्रोक्षणं परिपेचनम् ॥२३६।। यदि कुर्वीत मोहेन रौरवं नरकं व्रजेत् । अन्नं पक्कात् समुद्धृत्य पृथक्पात्रे नियुज्य च ॥२४०ii कृत्वा सुखोष्णं संस्कृत्य पश्चान्छाखादिभिर्यजेत् ।
__ अत्युष्णादिनिवेदने असह्योष्णं महोष्णं वा पक्कपात्रगमेव वा ॥२४॥ .
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गृहस्थस्य रात्रावुष्णोदकस्नानवर्णनम् २६७५ यो निवेदयते मोहाइवाय नरकी भवेत् ।
निवेदनप्रकारः तस्मादन्नं समुद्धृत्य पृथक्पात्रे निधाय च ॥२४२।। कृत्वा यत्नात्सुखोष्णं च राशिं कृत्वाभिघार्य च । अतिशुद्धमतिश्रेष्ठं राजयोग्यं सुशोभनम् ॥२४३।। शाकभक्ष्यफलोपेतं देवाय विनिवेदयेत् । तदन्नमपि यत्नेन पश्चाद्दद्यात्समाहितः ॥२४४|| अप्रोक्ष्यापरिषिच्यैवमप्राणाहुतिपूर्वकम् । उच्छिष्टमप्यकृत्वैव यत्नाद्दद्यात्स्वयं शुचिः ॥२४५।।
स्वीकारप्रकारः निवेदितानि वस्तू न दन्तैः परिघट्टयेत् । न खण्डयेच्छब्दयेच किं तु तूष्णी तदम्बुवत् ॥२४६।। रसवत्फलवद्यत्नात् प्राशयेच्च न शब्दयेत् । कण्ठतो वापि यत्नेन काष्ठभूतफलान्यपि ॥२४७॥
अर्भकेभ्यो दद्यात् प्रदद्यादर्भकेभ्यो वै न स्वीकुर्यात्स्वयं यदि । स्वीकुर्यात्तु तदा नक्तमुपविष्टः शुचिस्थले ॥२४८।। शब्दानजनयन्नेव तालुदन्तादिभिह्य दन् ।
गृहस्थस्य रात्रावुष्णोदकस्नानम् गृही न रात्रौ स्नायीत यदि स्नायीत वारिणा ॥२४६।। उष्णेन भवने विप्रसाक्षितो वह्रिसाक्षितः । उष्णेन शक्तो न स्नायादशक्तश्चेत्तदाचरेत् ॥२५॥
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२६७६
आङ्गिरसस्मृतिः
अभ्यङ्गम् अभ्यक्तश्च तथा स्नायाच्छरीरारोग्यहेतवे । तत्स्नानं कथितं सद्भिर्न नित्यं तेन नाचरेत् ॥२५१।। कर्म नैमित्तिकं तस्माहवानामपि नार्चनम् । यावन्नित्यादिकौंचं निर्वत्यैव विधानतः ॥२५२।। पश्चादभ्यञ्जनस्नानं न चेत्काले तु मध्यमे । मध्याह्न संगवे वापि स्नानं कृत्वा तु तादृशम् ॥२५३।।
माध्याहिकस्नानम् माध्यंदिनस्य कृत्यस्य पुनः स्नानं यथाविधि । कृत्वा तत्प्रारभेत्कर्म तेनैतत्कर्म नाचरेत् ॥२४॥ मलापकर्षणार्थाय तद्धि स्नानं प्रकीर्तितम् ।
- क्षुरस्नानम् एवमेव क्षुरस्नानं कर्मायोग्यं प्रचक्षते ॥२५॥ क्षुरस्नानात्परं यस्तु पुनः स्नानान्तरं विना। करोति वैदिकं कर्म न तत्फलमवाप्नुयात् ॥२५६।। भवेदपि प्रत्यवायी तथातो नाचरेद्बुधः।
__ प्रातःसायंपर्वादिष्वभ्यञ्जनस्नानम् नाभ्यञ्जनं प्रकुर्वीत प्रातःसायं न पर्वसु ॥२५७।। ग्रहणे श्राद्धकालेषु व्रतेषु निखिलेष्वपि । पुण्यवैदिकदीक्षासु न नक्त क्षेत्रतीर्थयोः ॥२५॥ सुप्त्वा भुक्त्वा रुदित्वा वा दूरं गत्वा पिपासितः । अतिक्षुधातुरो रोगी न कुर्वीत कथंचन ॥२५॥
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क्रोशस्थितनदीस्नानाच्छ्राद्धवर्णनम् २६७७ अकृत्वा नित्यकर्माणि छर्दयित्वाऽतिताडितः। शप्तः शपित्वा व्याजेन घातयित्वा नरान् परान् ।।२६०॥ हत्वा धनानि दीनानां न कुर्यात्तत्तु सर्वदा । स्वजनान् प्रेषयित्वा च न्यकृत्य गुरुबान्धवान् ॥२६१।। तदवश्यककृत्येषु कर्तव्यत्वेन शास्त्रतः(शाश्वतः)। महत्सूपस्थितेष्वेव तान्यकृत्वैव मौल्य॑तः ॥२६२।। न कुर्यादेव सहसा विग्रहोद्वर्तनं द्विजः ।
अभ्यञ्जनस्नानं सोदकुम्भनान्दीश्राद्धयोः सोदकुम्भश्राद्धमात्रं कृत्वाभ्यञ्जनतः परम् ॥२६३॥ कुर्यादेवेति हारीतो नैवानेनेति वै मनुः । स्नातस्नानेन कुर्वीत न श्राद्धानि कदाचन ॥२६४।। नान्दि(न्दी) ताभ्यां प्रकुर्वीतानुकल्पेनैव तत्स्मृतम् । स्नानमभ्यञ्जनं स्नानमशक्तस्य कदाचन ॥२६॥ सोदकुम्भस्य नान्द्याश्च कर्तुः संपद्यते किल ।
क्रोशस्थितनदीस्नानाच्छाद्धम् क्रोशस्थितनदीस्नानान्न पित्रोः श्राद्धमाचरेत् ॥२६६।। महादवभृथाच्चापि शावाद्वाविगाहतः । तदङ्गस्नानतः सद्यः श्राद्धाख्यं कर्म तच्चरेत् ॥२६७।।
संकल्पः कर्ममात्रस्य सर्वत्र प्राणानायम्य मन्त्रतः । करिष्य इति वागुक्तिरूपं संकल्पमाचरेत् ॥२६८।।
१८७
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२६७८
आङ्गिरसस्मृतिः न संकल्पं विना कम नित्यकाम्यादिकं चरेत् । स मानसः स्यात्संकल्पः कर्तव्यो वाचिकः परः ॥२६॥ यक्ष्य इत्येतद्वाक्येन तथा प्राह श्रुतिः शिवा । देशः कालश्च संकल्पे वक्तव्यौ तत्र चेत्पुनः ॥२७०।। तिथिः काल इति प्रोक्तो व्यत्यासे तस्य कर्म तत् । नष्टमेव भवेत्सद्यस्तस्मात्तत्तु पुनश्चरेत् ॥२७१।।
पितृश्राद्धव्यत्यासे पुनश्चरेत् एकस्मिन्नेव दिवसे पित्रोः श्राद्धमुपस्थितम् । तत्क्रमेणैव कर्तव्यं व्यत्यासे तु पुनश्चरेत् ॥२७२।। मोहादतदिनकृतश्राद्धं चापि पुनश्चरेत् ।
शून्यतिथिकृतं पुनश्वरेत् तथा शून्यतिथौ यत्नात्कृतं चापि पुनश्चरेत् ॥२७३।। सूतकान्ते शून्यतिथिदोषोऽयं श्राद्धकर्मणः । कदाचिन्न भवत्येव तस्मात्तत्रैव तच्चरेत् ॥२७४||
पितृश्राद्धात्परं कारुण्यश्राद्धम् पितुः श्राद्धात्परं श्राद्ध कारुण्यानां समाचरेत् । तदन्यथाकृतं तच्चत् परेा स्तत्पुनश्चरेत् ॥२७॥ निमित्तग्रहपश्राद्धं कृत्वान्नेनापि तद्दिनम् । भूयः सम्यक् प्रकुर्वीत भिस्सयैव न चान्यथा ॥२७६।।
मातृपितृश्राद्धमेकदिनेऽन्नेन पित्रोस ताहं सततमपि कृच्छ्रगतो नरः । अन्नव प्रकुर्वीत नामाद्यन कदाचन ॥२७॥
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चाक्रिकश्राद्धवर्णनम्
ग्रहणादिषु शक्तश्चेद्भिस्सया तानि चाचरेत् । न चेदामादिना शुद्धस्तद्धर्मैरखिलैर्वृतः ।।२७८|| ग्रहे मुहूर्तद्वितये गतेऽन्नश्राद्धमाचरेत् ।
अपि शक्तोऽपि तन्त्यूने तादृकछ्राद्धं न चाचरेत् ॥ २७६ ॥ चाक्रिकश्राद्धम्
।।२८२ ।।
चाक्रिकं ग्रहणं मुख्यमायनं तदमुख्यकम् | पुष्पवन्मण्डलसममध्यभागप्रपीडितम् ||२८० ।। यन्नीललक्ष्मपृथुलं वर्तुलं तत्त्रियामगम् । तच्चाक्रिकमिति प्रोक्तं ग्रहणं पितृतृप्तिदम् ॥ २८१|| तच्च पञ्चशताब्दानामेकदा वै भविष्यति । ग्रहणे भोजननिषेधः, वृद्धबालातुराणां न ग्रहस्य चाक्रिकस्यास्य पूर्वं यामत्रयं नरैः भोजनं नैव कर्तव्यं वृद्धबालातुरान्विना । अपराह्न न मध्याह्न मध्याह्न े न तु संगवे ||२८३ || संगवे तु न तु प्रातः पृथुकानां तु केवलम् । स्तन्यपाने न दोषोऽस्ति तत्काले कैवलेऽपि वा ॥ २८४ ॥ यवाग्वाः पयसो दापि पानीयस्या ( २ ) शरत्समम् । नियमोऽयं प्रकथितो न तदूध्वं तु तच्चरेत् ||२८५।। अयनग्रहणे मुख्ये पौनः पुन्यगते सकृत् । कोणैकदेशसंष्ट तन्न्यून समर्थास्थिते ॥ २८६ ॥
द्वयं साधयामद्वयं यामत्रयं तथा । सार्धयामत्रयं यामचतुष्टयमिति क्रमान
२६७६
||२८|
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२६८०
आङ्गिरसस्मृतिः
अधिकारप्रभेदेन भोजनस्य निरूपणम् । यदेतत्तस्य सर्वस्य प्रवदामि विनिर्णयम् ॥ २८८ ॥ तत्कालाजीर्णराहित्ये हृदयं तन्निबोधत । एवं स्थिते पुनर्वच्मि यामतः सार्धयामतः ॥ २८६ ॥ जीर्णशक्तिमतो नुश्चेत्तत्काले क्षुद्भवेद्यदि । न दोषः कथितः सद्भिः कदाचिद्द वयोगतः ॥२६०|| अजीर्णः स्यात्तदा दोषः सुमहान् प्रभवेदपि । तस्माद्यामद्वयं सर्वैर्भुक्तिस्त्याज्या विचक्षणैः || २६१||
अत्यन्तातुरादीनाम्
॥ २६२॥
विशेषः कोऽपि भूयश्च प्रोच्यते सुमहान् परः । रोगिणोऽप्यतिमात्रस्य चौषधातिक्षुदनतः क्रूरप्रहातितप्तस्य पिशाचावेशिनस्तथा । वश्याकर्षणविद्वेषस्तम्भनोच्चाटनादिभिः || २६३|| पीडितस्य विशेषेण मूर्छितस्यातिताडनैः । तत्कालभक्षणमपि न दुष्यति कदाचन अत्युत्क्रान्तिप्रवृत्तस्य चिरत्यक्तान्धसस्तथा । अप्राशनोत्पन्नमृतिसंशयस्य विशेषतः ॥ २६५॥ तत्कालभक्षणावृत्तिर्न दोषाय भवेदयम् ।
।।२६४||
सर्वेषामपि वर्णानां सर्वाश्रमनिवासिनाम् ॥ २६६ ॥ मुरूयो साधारणो धर्मस्तत्कालाजीर्णशून्यता । यामत्रयादिकाः कालास्तत्र तत्र प्रचोदिताः ॥२६७॥
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मातापितृभ्यांपितुःदानं प्रहणञ्च २६८१ तैस्तैस्ते निखिला ज्ञेया नृभेदेन विवक्षिताः ।
प्रस्तास्तके सकामिनिष्कामिनोः सोमं प्रस्तास्तगं सूर्यमपि वा शास्त्रदृष्टितः ॥२६८।। मुक्त ज्ञात्वा ततः स्नात्वा निष्कामो भोजनं चरेत् । शुभ्रांशुचण्डांशुलोककामी चेन्न तु भोजनम् ॥२६॥ चरेदेव न संदेहस्तल्लोकाकामिनः परम् । दोषाय भोजनत्याग एवमाह प्रजापतिः ॥३००।
अग्निहोत्रम् विहितस्य परित्यागादग्निहोत्रस्वरूपिणः । पीतमातृस्तनरसो जनकाशौचमोचने ॥३०॥ सहिष्णुर्न भवेत्तस्मात्तत्पूर्व तत्समाचरेत् ।
दत्तपुत्रः आरान्न्यक् सोदरसुतस्तर्णकः कर्मवर्जितः ॥३०२॥ कृतकर्मत्रयकृतो यो दत्तः प्रवरः स्मृतः।
मातापितृभ्यां दानं ग्रहणं च दद्यातां दम्पती पुत्रं गृह्णीयातां च दम्पती ॥३०३।। तयोरेवाधिकारोऽयं तदाने तत्प्रतिग्रहे । ब्राह्मणानां सपिण्डेषु कर्तव्यः पुत्रसंग्रहः ॥३०४॥ सगोत्रेष्वथवा कार्यो ह्यन्यत्र तु न कारयेत् । असंस्कृतो दत्तसूनुः पितुश्चाप्यकृतक्रियः ॥३०।। न तद्धनमवाप्नोति तवृत्तौ का कथा पुनः । जातकर्मादिना तस्य पुत्रत्वं नान्यथा मतम् ॥३०६।।
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२६८२
आङ्गिरसस्मृतिः मौज्यन्तेनातिहर्षेण सर्वमत्या समन्त्रतः । पुत्रो ज्ञातिमतो दत्तः कृतसर्वपितृक्रियः ॥३०॥ यदि स्वयं तदा सर्वी तवृत्तिं लभते पराम् । सर्वस्य प्रतिमन्त्रस्य पितृहेतुप्रपाठनात् ॥३०८॥ दत्तस्य तद्भूलाभः स्यात्तत्पूर्व सा न सिध्यति । हिरण्यकक्ष्यामन्त्राणां पठनात्तत्त्रयं पुनः ॥३०६।। प्रदूरीकृत्य तज्ज्ञातीनवशादेति चाखिलम् । दत्तसूनुः पित्रान्येन संस्कृतो यदि तद्वृतः ॥३१०।। तदा तु तद्धनं सर्व ज्ञातिसाधारणं भवेत् । स्वयमेव पितुर्दत्तः कर्म कुर्यात्प्रयत्नतः ॥३११॥ तद्धनं तु न चेत्सद्यस्तज्ज्ञातिगतमेव वै। दत्तोऽयमसगोत्रश्चेत्सदा दुर्बल एव वै ॥३१२।। भवेदेव न संदेहः शास्त्रेऽमुत्र परत्र च। . यदि जामी तत्र भवेत्तन्मुखं नावलोकयेत् ॥३१३।।
अवश्यं पुत्रसंग्रहः कर्तव्यः यथाकथंचित्पुत्रस्य संग्रहः कार्य एव वै। दौर्बल्ये स्वस्य संजाते धर्मज्ञेन महात्मना ॥३१४।। जलबुबुदसंकाशं वष्म॑तत्कथितं बुधैः । न हि प्रमाणं जन्तूनामुत्तरक्षणजीवने ॥३१।। तस्मादात्महितं नित्यं चिन्तयन्नेव तच्चरेत् ।
अपुत्रस्य लोको नास्ति नापुत्रस्य तु लोकोऽस्ति पुत्रिणस्तु त्रिविष्टपम् ॥३१६।।
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पुत्रवतो महिमवर्णनम्
२६८३ ब्रह्मलोकादयो लोकाः स्वाधीना एव सर्वदा ।
पुत्रवानग्निमान् पुत्रवानग्निमान्नित्यं पुत्रवान् श्रोत्रियः स्मृतः ॥३१७।। पुत्री साक्षाद्ब्रह्मविच्च पुत्रवानेन भाग्यवान् । ये ये धर्माः स्वेन ते ते पुत्रेणैतेन तत्क्षणात् ॥३१८॥ संपादिता भविष्यन्ति नात्र कार्या विचारणा । न पुत्रवानपत्नीकः किं तु सोऽयमपुत्रवान् ॥३१६।। अनग्निको न पुत्री स्यादपुत्रोऽनग्निमान् स्मृतः । पुत्रेण स्थावरं दानं फलवद्दानमेव च ॥३२०।। यद्यल्लोके महत्सवॆदुर्लभं पुत्रिणी चरेत् । पुत्रयत्नं सदा कुर्याद्वदिकं लौकिकं शुभम् ॥३२१॥ तस्मादृतुमती भार्या सदा स्वस्थो न लङ्घयेत् । लक्येद्यदि तां मूढो भ्रूणहत्यामवाप्नुयात् ॥३२२। ऋतुस्नातदिने सोऽयं युवा श्रोत्रिय एव वा। न कव्याय भवेदेव पुत्रवान् यदि तद्भवेत् ॥३२३।।
जातमात्रे पुत्रमुखवीक्षणम् पुत्रेण जातमात्रेण ऋणान्मुक्तो भवेदयम् । तस्मात्पुत्रस्य जातस्य पश्येत्सद्यो मुखं पुमान् ॥३२४॥ न पश्यतस्तल्लपनमृणान्मुक्तिर्न जायते । येन केन प्रकारेण तस्मात्कुर्वीत मानवः ॥३२॥
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२६८४
आङ्गिरसस्मृतिः पुत्रसंपादनं धीमान् दुर्बलश्चेद्विशेषतः।
. वृत्तिदत्तादयः वृत्तिदत्तं कल्पयेद्वा मौञ्जीदत्तमथापि वा ॥३२६।। विवाहदत्तमथवा यज्ञदत्तं न चेत्परम् । वृत्तिदत्तः कुलान्यष्टौ मौञ्जीदत्तस्तु षोडश ॥३२७।। विवाहदत्तो द्वात्रिंशद्यज्ञदत्तस्तरिष्यति। चतुः षष्टिकुलान्यस्य लीलया सद्य एव वै ॥३२८।। अपुत्रदत्तवृत्या यः प्राणवृत्तिं चरत्यलम् । वृत्तिदत्त इति ख्यातस्तनयः पुण्यलोककृत् ॥३२६॥ धनतो यस्य यो लोके झु पनीतो भवेदहो। स मौञ्जिदत्त इत्याख्यस्तनयस्तु ततोऽधिकः ॥३३०।। एवमेव भवेदन्यस्तनयः परलोकदः। विवाहदत्तसंज्ञः स्यात्ततोऽपि द्विगुणः परः ॥३३१॥ ततोऽधिको यज्ञदत्तस्तनयः पितृवल्लभः । त एते तनयाः सर्वे तत्तत्कमकपूर्तये ॥३३२॥ कृतेन धनदानेन भवन्ति किल नान्यथा । तस्मात्सन्तः किलैतेषां कर्मणामेकतो धनम् ॥३३३॥ न गृह्णन्ति महात्मानो परलोकदिदृक्षवः । कणशः कणशः सद्भयः प्रतिगृह्य ततस्ततः ॥३३४।। शनैः शनैश्च कालेन महता तानि चाचरेत् । एवं कृतेषु तेष्वेषु महत्सु किल कर्मसु ॥३३५।।
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विवाहे गोत्रद्वयत्यागवर्णनम् २६८५ नैकस्य तनयास्ते स्युस्तस्मात्तेषु तथाचरेत् ।
___ अन्येषु सुतग्रहणम् दुर्लभे(षु) तु सगोत्रेषु सपिण्डेषु सुते यदि ॥३३६।। सुतं बन्धुषु वान्येषु गृह्णीयादन्यजातिषु ।
सवर्णेषु ग्रहणम् सवर्णेष्वेव कुर्वीत नासवर्णेषु तद्ग्रहम् ॥३३७।। असवर्णेषु तत्कुर्वन् सद्यः पतति वर्णतः ।
असगोत्रस्वीकृतौ । गृहीत असगोत्रश्चेत्तनयः पुरुषत्रयम् ॥३३८।। कृतार्थतां प्रापयति तत्कुलं तदनन्तरम् । संकीर्णमवशाद्याति यत्नतश्चेत्तरिष्यति ॥३३६॥ असगोत्रस्तु न ग्राह्यो गृहीतुः (तः) स्यात्स एव हि । दत्तो रिक्थमवाप्नोति सन्ततितुरेव हि ॥३४०।। तस्माद्दत्तसुतः स्वस्वतनयानुद्भवान् ततः। जनकस्यैव गोत्रे तान् मौज्यां मन्त्रैः प्रवेशयेत् ॥३४।। यदि दत्तस्वतनयान् स्वगोत्रे न प्रवेशयेत् । दत्तजो वाथ तज्जो वा तद्गोत्रद्वयजास्तु ते ॥३४२।।
विवाहे गोत्रद्वयत्यागः एवं सत्यत्र जनने जातानां पाणिपीडने। समागते तदा सम्यग्यत्नाद्गोत्रद्वयं त्यजेत् ॥३४३।। तद्गोत्रद्वययुक्त्यर्थज्ञानाय किल तत्परम् । तज्जातानां विवाहस्य तदार्षद्वयमाचरेत् ॥३४४॥
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२६८६
आङ्गिरसस्मृतिः
अभिवन्दनादौ द्विगोत्रत्वम् नित्याभिवन्दने सन्ध्यावन्दने काम्यवन्दने । कृत्स्नायं त्वेकगोत्रे परस्मिन्नपि गोत्रके ॥३४॥ स्वीकृत्यार्षद्वयं तेन योजयित्वा ततः परम् । एकमेव वदेद्गोत्रमेकद्विव्यापकं तथा ॥३४६॥ पञ्चसप्तापकं वैतन्नवैकादशकार्षकम् । गोत्रमेकं भवेदेवं त्रयोदशकमार्षकम् ॥३४७|| एवं पञ्चदशाषं च गोत्रं तत्प्रभवेदपि। एवं जातानि गोत्राणि दत्तावृत्त्युद्भवानि वै ॥३४८।। वर्तन्ते भूतले तस्माद्गोत्रिणस्तान्विचार्य च। पृष्ट्वा तत्संशयस्त्याज्य एतावन्त्येव भूतले ॥३४६॥ गोत्राणि शास्त्रसिद्धानि चैकायाणि कानिचित् । द्वचर्षेयाणि त्र्यार्षेयाणि पञ्चायाणि सन्ति हि ॥३०॥ एतावन्त्येव सर्वत्र शास्त्रसिद्धानि नेतरत् । आद्यदत्तैकतद्दत्तपारम्पर्येण केवलम् ॥३५१॥ दृश्यन्ते ब्राह्मणाः सप्तदशायावधीतरे ।
दत्तजादीनां पूर्वगोत्रम् तस्माद्दत्तजपुत्रांस्तान् पूर्वगोत्रे प्रवेशयेत् ॥३५२।। विना प्रवेशं यदि ते परं प्राप्तैकगोत्रिणः । यदि स्युर्मोहतः पश्चात्पूर्व तज्जनकस्य च ॥३५३।। गोत्रं वज्यं विवाहादावेवं सत्यत्र कालतः। अज्ञात्वा पूर्ववृत्तान्तं गोत्रे तज्जनकस्य च ॥३५४।।
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भ्रातृपुत्रादिपरिग्रहवर्णनम्
२६८७ विक्हेरन् महानर्थः प्रभवेत्किल केवलम् । पूर्ववृत्तेऽथ विज्ञाते तां त्यक्त्वा मातृवत्तु ताम् ॥३५।। पालयेदेव धर्मेण पश्चात्कृच्छत्रयं चरेत् । तद्दोषपरिहाराय तत्र जातांस्तु चेत्ततः ॥३५६।। चण्डालेष्वेव निष्कम्पं योजरोदिति निर्णयः। असगोत्रसुतं तस्मान्न स्वीकुर्यात्कथंचन ॥३५७।। बुद्धिमान् धर्मविकिंतु पौर्वापर्यविशेषवित् । सगोत्रेष्वेव कुर्वीत शास्त्रतः पुत्रसंग्रहम् ॥३५८।।
भ्रातृजेषु न विवाहहोमादिः भ्रातृजेषु विवाहो न न स्वीकारश्च सक्रिया । न होमादिश्च कार्यों वै वाङ्मात्रेणैव पुत्रता ॥३५६।।
भ्रातृपुत्रादिपरिग्रहः भ्रातृपुत्रेषु तिष्ठत्सु नान्यं ज्ञातिजनं तथा । न स्वीकुर्यादूरगं वा स्वीकृतश्चोर एव सः ॥३६०।। पुत्रग्रहणकाले तु तत्पित्रोर्मानसं तदा । तोषयित्वा प्रदानाद्यभविष्यत्कालकृत्यकम् ॥३६१।। कृत्वा च शपथं बाढं बन्धुराजादिभिर्जनैः। तत्पुत्रस्य च मर्यादा चैवमित्यपि वै पुनः ॥३६२॥ जातेऽपि चौरसे भूयः करोम्येवं न संशयः । दृढयित्वा स्वयं पश्चात् स्वीकुर्यात्तनयं ततः ॥३६३।।
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२६८८
आङ्गिरसस्मृतिः न चेदोषो महानेव भविष्यति न संशयः ।
स्वीकृत्यनन्तरमौरसोत्पत्ती स्वीकृत्य परपुत्रं यः संजाते त्वौरसे पुनः ॥३६४॥ पुरोक्तान्यन्यथाकृत्वा मोहात्तदहितं चरन् । प्रलपस्तदुरुक्तानि मम मास्त्वयमद्य वै ॥३६।। वदेत्पापी महाक रस्तेन भूर्भाग्वत्यलम् । तं देशाद्धार्मिको राजा ताडयित्वा प्रवासयेत् ॥३६६।। सर्वस्वं तस्य गृह्णीयात्तस्मिन् जनपदे न चेत् । न वर्षेत्किल पर्जन्यः राष्ट्रक्षोभोऽपि जायते ॥३६७।।
पुत्रप्रदानसमये यदुक्त तत्कर्तव्यम् । पुत्रप्रदानसमये तत्पित्रोहिकेण या। वागुक्ता तां ततः काले तिरस्कर्तुं न शक्यते ॥३६८।। तद्वन्धुभिस्तेन राज्ञा तैर्जनैतृदापकैः । तद्भार्याभिस्तत्तनयैर्येन केनापि वा पुनः ॥३६६।। पुत्रप्रदानसमये प्रोक्तवाक्यं तु तत्परम् । अल्पं महदशक्यं वा शक्यं वा तन्न लवयेत् ॥३७०।। स्वकार्याय पुरा प्रोक्त्वा जनानां पुरतो दृढम् । इच्छंस्तदन्यथयितुं यतते यस्तु या जडा ॥३७१।। ऊध्वं लोकं न यातो वै भ्रूणहत्यामवाप्नुतः ।
भर्तुः पितुर्वा वाक्यातिक्रमे स्वपुत्रहितमिच्छन्त्यो भर्तृ वाक्यं पुरोदितम् ॥३७२।।
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भ्रातूपुत्रस्वीकृतौ दत्तस्य समांशः २६८६ तिरस्कुर्वन्ति सहसा ता वै निरयभाजिनः । भर्तुः पितुर्वा यद्वाक्यं तदा पूर्वमुदीरितम् ॥३७३॥ पत्नी पुत्रोऽथवा मौादनृतं मौय॑चोदितम् । दुःश्रुतं परुषं क्रूरमस्मत्कार्यविरोधि तत् ॥३७४।। नाप्यकुर्म स्वीकरणमिति वक्तृन् दुरात्मनः । न्यकृत्य वाचा धिक्कृत्य ताडयित्वा कपोलयोः ॥३७॥ शीघ्र प्रवासयेद्देशात् साधूनू सम्यक् प्रपूजयेत् ।
भ्रातपुत्रस्वीकृतौ दत्तस्य समांशः स्वीकृतभ्रातृसुनोश्च पश्चाजातौरसस्य च ॥३७६।। समभागः सदा प्रोक्तस्तदन्यस्य पुनर्यदि ।
सगोत्रस्य तुरीयभागः । तुर्यभागः सगोत्रादेरेवमाह पितामहः ॥३७७।। औरसो वयसा न्यूनो ज्येष्ठ एव न संशयः । नष्ट तु पालके ताते स्वीकृतो वयसाधिकः ॥३७८।। उपनीतः कलत्री वा जातपुत्रोऽथवा यजन् । यत्नाच्च तं नोपयेहत्तो जातं तदौरसम् ॥३७६।। कनिष्ठो धर्मतो दत्तो ह्यप्ययं वयसाधिकः । न्यूनोऽपि वयसा ज्येष्ठः औरसो नात्र संशयः ॥३८०।।
दत्तनौरसे उपनीते तस्मादत्तः स्वयं पश्चाजातं धर्मेण पूर्वजम् । धमन्यूनो नोपनयेद्यदि मोहेन तादृशम् ॥३८॥
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२६६०
आङ्गिरसस्मृतिः प्रमादेन ह्य पनयेत् स्यातां तौ पतितौ ध्रुवम् । न तयोर्द्वन्द्वभावोऽस्ति कदाचित्तु परस्परम् ॥३८२।।
मृतभार्ययत्यादिपुत्रग्रहणम् मृतभार्यो यतिवर्णी विश्वस्ता दूरभर्तृका। पुत्रं न प्रतिगृह्णीयाद्रभार्योऽपि सूतकी ॥३८३।। अधिकारो मिलितयोर्दम्पत्योरुभयोरपि । कदाचिन्न पृथक्त्वेन तद्दाने तत्प्रतिग्रहे ॥३८४।। सूतिप्रजननस्थानापन्नयुग्मद्वयस्य चेत् । वस्तुनो मेलनं पुत्रदानं तद्ग्रहणं भवेत् ॥३८॥ सूतिप्रजननस्थानयुग्मद्वन्द्वमनःसुखम् । अचञ्चलं स्थिरं तुष्टं चेन्मनस्तच्चरेन्ननु ॥३८६।। दम्पती दम्पतीचित्तं तुष्टं कृत्वाम्बरादिभिः। कृत्वा च शपथं गाढं भविष्यत्कार्यहेतवे ॥३८७।। साक्षिणां पुरतो नूनं देवब्राह्मणसन्निधौ। राशे बन्धुनि चावेद्य गृह्णीयातां सुतं ततः ॥३८८॥
तत्काले प्रतिज्ञाय तदकरणे शपथानन्तरं कालान्मर्यादा था कृता पुरा ।
नरोस्तानुल्लङ्घयत राजा राष्ट्रात्प्रवासयेत् ॥३८६।। पत्रीषु सुतस्वीकारकाले या सन्निहिता सा माता, अन्या सपत्नीमाता
सुतस्वीकरणे याऽऽरास्थित्वा साऽम्बास्य वै भवेत् । सापकी जननी दूर स्थिवा भवति नान्यथा ॥३६॥
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औपासनानौ श्राद्धेऽप्रमादवर्णनम् २६६१
अन्ये मातृमातामहादयः द्व तिस्रो वा स्थिताश्चेत्तु तदारादेव केवलम् । पुत्रग्रहणतुष्टयौव भर्ना साकं हृदा तया ॥३६१॥ निखिला मातरो ज्ञेया बहुमातृक एव सः। तदानीं स्वीकृतसुतो नात्र कार्या विचारणा ॥३६२॥ तासां च पितरः सर्वेऽप्यस्य मातामहाः स्मृताः। सर्वश्राद्ध ष्वनेनाथ सर्वान् मातामहान् क्रमात् ॥३६३॥ एकस्मिन्नेव तत्पिण्डे योजयेद्वा पृथक्तु वा । पिण्डान्वा निक्षिपेत्तेषां स्मर्तृणामत्र केवलम् ॥३६४।। वचनानां समत्वेन विकल्पस्तुल्य एव हि । यथारुचि प्रकुर्वीत यथा वा पुरतः कृतम् ॥३६।। तथैव पश्चात्कुर्वीत सर्वत्रैवं हि निर्णयः ।
सपत्नीपिता न मातामहः सपत्नीजननीतातो न तु मातामहो भवेत् ॥३६६।।
सपत्नीमातृतर्पणम् .. सपत्नीजननी नित्यतर्पणे द्वयञ्जली लभेत् । स्वमातृवत्त्यञ्जलिं सा कदाचिदपि नो लभेत् ॥३१७॥ पुनर्विवाहितेनैवं तद्भार्या द्वयञ्जलिं लभेत् । अपुत्रा वा सपुत्रा वा तत्समा सा प्रकीर्तिता ॥३६।।
तस्या औपासनानौ श्राद्धम् वस्था औपासने श्राद्धमग्नौ कुर्यान्न लौकिके। यदि कुर्यास्त्रमादेन कुलं तस्य विनश्यति ॥३६६।।
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२६६२
आङ्गिरसस्मृतिः
पत्न्या अग्निः यतः पत्नीमृतदिनं पितृनाशदिनेन वै। तुल्यत्वेनैव कथितं तस्याः को वा विमूढधीः ॥४००। लौकिकाग्नौ प्रकुर्वीत स्वसमाया विचक्षणः । सा विद्यमाना भायैव मृता चेन्मातृवर्गगा ॥४०।।
भ्रातृपुत्रग्रहणविधिः कृतत्रयविवाहस्य पत्नी दृष्ट्वा चिरं पृथक् । द्वादशाब्दमलभ्येतं तद्रजोदर्शनात्परम् ॥४०२।। पुत्रग्रहः प्रकथितो मुख्योऽयं तद्ग्रहे विधिः । तत्र साक्षात्कनिष्ठस्य सुतश्चेन्जातमात्रकः ॥४०३।। प्रवरः कथितः सद्भिस्तस्य व्यवहितश्च चेत् । तस्मान्न्यूनो भवेत्पुत्र एवं द्वित्रिविभेदतः ॥४०४॥ भ्रातुः पुत्रो भवेन्न्यूनः सद्यः स्तन्यरसग्रहात् । परं तद्ग्रहणात्पुत्रस्तस्मान्न्यूनः प्रजायते ॥४०॥ एवमन्येषु नवसु जातहोमात्परं पृथक् । दिनभेदेन तन्न्यूनो दत्तो भवति पुत्रकः ॥४०६।। ततो ज्येष्ठस्य चेत्पुत्रस्तन्न्यूनो नात्र संशयः । न चाप्येकद्वित्रिभेदाद् भ्राता व्यवहितो यदि ॥४०७।। तस्य सूनुस्तथा न्यून एवमेव पुनस्त्वथा । सापत्नीमातृतनया उन्नेया ज्येष्ठतः परम् ॥४०८।। तनयाः शास्त्रमार्गेण न्यूना एव भवन्ति ते । एवं पितृव्यतनयतनयाश्च पृथग्विधाः ॥४०६।।
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कामजपुत्राणाम्वर्णनम्
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तन्न्यूना एव कथिताः सगोत्रा एवमेव वै विज्ञेयाः किल किं भिन्नगोत्राश्चेत्तु ततः पुनः ॥ ४१०॥ किं वाच्यमस्ति तज्ज्ञात्वा बुद्धिमान् कालदेशकौ । समालोच्य विधानेन कुर्यात्पुत्रस्य संग्रहम् ॥४११|| विभागे भ्रातरस्तुल्याः
२६६३
विभागे भ्रातरस्तुल्यास्तत्पुत्रास्तत्समा हि यत् । ते गृहीत्वा न तुर्याशं तलभन्ते सुतोद्भवे ||४१२|| सममेव लभन्तेऽशमौरसेन समा हि ते । धर्मपत्न्यां समुद्भूत औरसः कथितो बुधैः ॥ ४१३॥ द्वितीयादिसमुद्भूतो न तत्साम्यमवाप्नुयात् ।
कामनपुत्राः
॥४१४॥
धर्मपत्नीसुतं प्राहुरौरसं ब्रह्मवादिनः द्वितीयादिसुतान् सर्वान् कामजानिति चोचिरे । धर्मपत्नीसुतो ज्यैष्ठय' दत्ताद्गौरवमाप्नुयात् ॥ ४१५॥
पश्चाज्जातः कनिष्ठोऽपि द्वितीयादिसुतास्तु चेत् । पित्र्यादिक्रियया कालाद्धर्मपत्नीसुतैः समाः || ४१६॥ भवन्त्यपि न संदेहस्तथापि पुनरेककम् । प्रवदामि समुद्भूतस्तस्मात्तत्कार्यकृद्भवेत् ॥ ४१७ ॥ बयोऽधिको दत्तसुतो न तत्कार्य प्रभुर्भवेत् । दत्तसूनुर्धर्मपत्न्याः सति तातेऽथवा न चेत ॥४१८॥ द्विभार्य के क्रियाकृच्चेत्तद्भार्याया (अथापि वा ) । दत्तनुस्तयोरन्यतरस्य यदि कर्मकृत् ॥ ४१६ ॥
१८८
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२६६४
आजिरसस्मृतिः सत्यौरसे तत्समोऽयं प्रभवेदिति वै मनुः । दौहित्रो यदि दत्तः स्याद्भातृजो बा तथाविधः ॥४२०॥ औरसेनैव तुलितौ सततं धर्मतत्परौ। दत्तस्य पितरौ प्रोक्तौ ग्राहकावेव संततम् ॥४२१॥ पितृत्वमपि दत्तेन तिष्ठज्जनकयोन तु। दानहोमात्परं तस्मात्पितरावस्य तौ मतौ ॥४२२।। पितृत्वमपि मातृत्वमेकत्रैव हि तिष्ठति । न तिष्ठति तदन्यत्र क्रियाशतसहस्रकात् ॥४२३।। पितृत्वं मातरि गतमेकशेषजमल्पकम् । यथा न तत्कार्यकरं मातृत्वमपि तत्तथा ॥४२४।। पितृव्यपत्न्यादीनां स्यात्तादृक्पत्नीत्वमेव हि । तासां भवति तस्मात्तु न तन्मातृत्वमुच्चरेत् ॥४२॥ प्रजापतिभ्यो ह्यभिमानसूनुः
पितृव्यसूनुस्त्वथवा सगोत्रः । ज्येष्ठः कनीयान्न भवेत्तथैको
. च भिन्नगोत्रो न सगोत्रविद्विट् ॥४२६।। सगोत्र्यसंमतः सूनुर्यः कश्चन समागतः । पुत्रत्वेनोदरपरो नाभिमानसुतो भवेत् ॥४२खा धर्मपत्नीसुतो वर्णी द्वितीयादिसुतो गृही। जातपुत्रोऽप्याहिताग्निर्न समस्तेन वणिना ॥४२८॥ धर्मपत्नीसुतो बालो द्वितीयादिसुतो युवा। आहिताग्निर्दशसुतो न समस्तेन चोदितः ॥४२६।।
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दत्तकस्य कर्म करणेऽधिकारित्वघर्णनम्
॥४३१||
स एव पितृकृस्येषु मुख्यकर्ता न संप्रयः । अनुपेतोऽप्यसौ यद्यप्यथ तत्कर्तृ सोऽखिलम् ||४३०|| कारयेज्न्येष्ठमुखतस्तथा चेत्कर्म तत्परम् । जातमात्रे धर्मपत्नीसुते गौणसुताः परे द्वितीयादिपुरोद्भूता भवेयुस्तत्क्षणाननु । धर्मपत्नीसुतोत्पत्या दत्ततत्कार्यतोऽपि च ।।४३२।। द्वितीयादिसुतानां स्यात्सद्यो हैन्यं श्रुतीरितम् । तत्पत्नकर्मकर्ता चेद्वितीयातनयस्य सः ||४३३||
२६६५
दत्तादौ विशेषः
दत्तोऽधिकवेद्भवति पितुर्यदि पुनस्तराम् । raat निधौ वा ताते जीवति दत्तकः ||४३४|| तद्भार्याकर्मकर्ता चेत्तत्सापतिरिष्यते । द्वितीयातनयश्चेत्तु कर्मकृदत्तस्तदा ॥४३५|| सद्यो हैन्यमवाप्नोति न ज्येष्ठातनयो यदि । ततस्तद्धर्मपत्नी च समौ दत्तस्य संततम् ||४३६|| पराणि तत्कलत्राणि संस्कार्याणि सुतो न चेत् । सुते सति स एव स्यात्तत्कर्मणि न चेतरः ||४३७५॥ सर्वदेवं समाख्यातो न तेनायं हि दुर्बलः । दत्तेन तत्त्रस्य प्रथमस्य कृता क्रिया सत्यन्यातनये तावन्मात्रेणायमथाधिकः । तुर्याशोऽपि समांशः स्यात्तादृशं कर्म तत्कृतम् ||४३६||
||४३८।।
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२६६६
आङ्गिरसस्मृतिः सति तत्तत्सुते तस्मात् पितृपल्या विचक्षणः । ज्येष्ठायास्तत्कनिष्ठाजः स्वयं कर्म समाचरेत् ॥४४०॥ ज्येष्ठेन दत्तपुत्रेण तत्क्षेत्रस्य पितुस्तु वा। कृते कर्मणि तस्य स्यादाधिक्यं तत्सुतात्परम् ॥४४॥ ताते सति कलत्रस्य तत्पुरो ज्यायसोऽस्य चेत् । कृतं कर्म हि दत्तेन सद्यः पुत्राधिको भवेत् ॥४४२॥ पुत्रेषु सत्सु दत्तन पितुः कर्म कृतं तु चेत् । न तदा तस्य वाधिक्यं स्वाम्यं किमपि लभ्यते ॥४४३।। यदि तज्ज्येष्ठभाया अपुत्राया कृतं तु तत् । कर्म तत्पुरतो नूनं दत्तः स्यादधिकः सुतात् ॥४४४॥ पितुः कर्म कृतं तेन दत्तेन यदि तत्परम् । अप्ययं मुख्यकर्ता न मुख्यः स्यात्सुत एव वै ॥४४॥ निखिलेभ्यो सुतेभ्योऽसावौरसो ह्यतिरिच्यते।
पत्नीविशेषाः, तत्र धर्मपत्नी औरसो धर्मपत्नीजो धर्मपत्नी च केवलम् ॥४४६॥ याऽनेन पूर्व बाला वा दुर्गुणा वा विवाहिता । सैवास्य धर्मपत्नी स्याद्धर्मविद्भिरुदाहृता ॥४७॥
द्वितीयपत्नी तत्पश्चाद्या कुलीना वा सुरूपा वा वयोऽधिका । न सास्य धर्मपत्नी स्याद्वितीया भोगिनी स्मृता ।।४४८|| सति चेत्तनये तल्पे पुनः कामाद्विवाहिता। द्वितीया भोगिनी नारी धर्मपत्नी न सोच्यते ॥४४६।।
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नानाविधानां पत्नीनांवर्णनम् २६६७
पुत्राणां ज्यैष्ठयकानिष्ठयम् धर्मपत्नीसमुद्भूतो ज्येष्ठपुत्र इति स्मृतः। पत्नी तनयराहित्यकृतवैवाहिकस्य सा ॥४५०।। येयमूढा धर्महेतोधर्मपत्न्यभिचोदिता।
भोगिनी कलत्रे सति पुत्रे वा पौत्रे नप्तरि सन्ततौ ॥४५॥ स्थितायां येयमूढा स्यानोगिनी काञ्चनाह्वया ।
भर्मणावावातादिपत्नयः भर्मणोऽमूनि यानि नामानि तानि सर्वाणि कृत्स्नशः ।।४५२।। लभतेऽतस्तु सा प्रोक्ता द्वितीया काञ्चनाह्वया । न धर्मपत्नी भवति भोगिन्येव परा स्मृता ॥४५३।। भर्मणेयं यतः साध्या वनिता तेन सा स्मृता । सर्वस्वर्णपदैर्वाच्या वावातेति च फण्यते ॥४४॥ परा दुर्वर्णनामानि यानि ख्यातानि भूतले। तानि सर्वाण्यवाप्नोति तृतीयेति च तां विदुः ॥४५॥ परिवृत्तीति तामेके विज्ञेयां विमलामति । हरिद्रां हरिणी कल्यां जगदुब्रह्मवादिनः ॥४५६॥ एतासां तनयाः सर्वेऽप्युत्तरोत्तरदुर्बलाः । धर्मपत्नीसुतान्न्यूना वयसाप्यधिकास्तराम् ॥४५७।। प्रथमा धर्मपत्नी च सुभगा महिषीति च । सत्कर्णीति च कल्याणी धर्मज्ञैः कथिता हि सा ॥४५८।।
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२६६८
आङ्गरसस्मृतिः धर्मपत्नीसुतो बालो मौञ्जीविरहितोऽपि वा। तिष्ठत्सु चान्यापुत्रेषु कर्मभिः सत्कृतेष्वपि ॥४५६।। उत्तमः पितृकृत्येषु तस्मादग्निप्रदः स तु। तेन प्राधानिकं कर्म यद्यत्तत्तत्तु तन्मुखात् ॥४६०।। सम्यक्कारयितुं न्याय्यं मन्त्रान् सर्वान्परे सुताः । पठेयुर्वं विधानेन चैवं धर्मोऽखिलो महान् ॥४६१॥ विहितस्तु समासेन तेन यावत्कृतं न तु। तावत्स तु मृतो तातः परलोकं न विन्दति ॥४६२।। प्रेतत्वाच्च म निर्मुक्तः क्षुत्तष्णापीडितस्तराम् । शरणं यत्र कुत्रापि ह्यटन धावन् स्खलन भ्रमन् ।।४६३।। नित्यं च सलिलाकाङ्क्षी प्रेतलोके ह्यधोमुखः । रुग्णो मुण्डश्च विकलो जडो भ्रान्तश्च दुर्मनाः ।।४६४॥ निवसेदेव सततं तस्मादौरस एव सः।
धर्मपत्नीजस्य स्पर्शमात्रक त्वम् धर्मपत्नीसमुद्भूतो ह्यपरिज्ञातवर्णकः ॥४६।। प्रेतकार्यस्पर्शमात्रं स्नात्वा कुर्यादमन्त्रकम् । तावन्मात्रेण तत्तातः कृतकृत्यः सुखीतराम् ॥४६६।। सम्यक् पितृत्वमाप्नोति नित्यानन्दः प्रजायते । तत्तन्मातुस्तत्तनया मुख्यकर्तार ईरिताः ॥४६७।। सत्स्वौरसेषु मुख्यत्वात्त एव कथिताः पराः। तत्तत्कर्मसु कर्तारो नान्यमातृसमुद्भवाः ॥४६८।।
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श्राद्धादावत्यन्ततृप्तिकराणाम्वर्णनम् २६EE धर्मपत्नीसुते बाले केवलं रहिताक्षरे । अस्पष्टस्पष्टवणे वा विद्यमाने मृते तु वा ॥४६९।। कल्यानन्तरनिष्ठेन येन केन मुतेन गा। तत्समेनाऽथवा भ्रात्रा शिष्येणान्येन बन्धुना ॥४७०।। सवं कारयितव्यं स्यात्समन्त्रेणाऽत्र तत्र चेत् । यद्यत्प्राधानिकं कर्म तत्र तत्रास्य वै शिशोः ॥४७१।।
सान्निध्यं स्पर्शमात्रकर्तृत्वम् स्पर्शमात्रः प्रकर्तव्यस्तत्सान्निध्यं च केवलम् । अपेक्षितं मृतस्यात्र महातृप्त्यैकहेतवे ॥४७२।। तत्सान्निध्यस्पर्शमात्रात् स मृतः सुखभागलम् । भवेदेव न संदेहस्तथा तस्मात्तु तच्चरेत् ॥४७३॥ मृतस्यैतानि प्रोक्तानि तारकाणि महात्मभिः। कारकाणि महातृप्तेस्तानीमानि स्मृतानि हि ॥४७४।।
श्राद्धादावत्यन्ततृप्तिकराणि जकारपञ्चकं त्वेकं धर्मपत्नीजसन्निधिः । तत्कार्यकरणं तद्वद्ग्रहणश्राद्धमेव च ॥४७।। गयाश्राद्धं च फल्गुन्याः शाकश्राद्धमथापि च । तथैव वरणं गौर्या वृषोत्सर्जनमेव च ॥४७६।। महालयश्च पनसस्त एते निखिलाः पराः । अत्यन्ततृप्तिमुक्त्यैकनिदानानीति तान् जगुः ॥४७७।। जन्मभूम्यादिकं तत्र तज्जकारस्य पञ्चकम् । मृतस्य तारकं पूर्व तत्परं त्वौरसस्य वै ॥४७८।।
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३०००
आङ्गिरसस्मृतिः सान्निध्यं मृतिकाले तु द्वितीयादिसुतस्य वा। परलोकानुकूला या मृतस्य प्रभवेत्तथा ॥४७६।। तक्रिया मन्त्रपूर्वैवं मृतस्य प्रभवेत्तथा । एवं स्याद्ग्रहणश्राद्धं गयाश्राद्धमथापरम् ॥४८०॥ तृप्तिदं फाल्गुनीश्राद्धमष्टोत्तरशतैरुत । शाके श्राद्धं यत्क्रियते तदेकमध तारकम् ॥४८॥
गौरीदानं पितृतृप्तिकरम् गौरीदानं वृषोत्सर्गः पाक्षिकोऽयं महालयः । स्थापनं पनसाख्यस्य तानीमानि स्मृतानि हि ।४८२।। पितृणानपि सर्वेषां वल्लभानीति वै जगुः । जकारपञ्चकं वत्सः परलोकगतस्य तत् ॥४८३।। तृप्त्यै संतरणायापि प्रोवाचैवं न चेतरत् ।
जकारपञ्चकम् जलाधं जाह्नवीतीरं जनार्दनमहास्मृतिः ॥४८४|| ज्वलनो जननोत्पन्नसुतसान्निध्यमेव च । जकारपञ्चकं प्रोक्त कथितं जन्ममोचकम् ॥४८॥
ग्रहणश्राद्धलक्षणम् ग्रहस्पर्शादथ यतन् सद्यः पल्यादिभिर्वृतः । तदान्नेनैव यच्छाद्धं करोति पितृप्तये ॥४८६।। स्नात्वा तेनैव विधिना तद्ग्रहश्राद्धमुच्यते । तदेतत्किल देवेशो भगवान् भूतभावनः ॥४८७।।
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पनसस्थापनमाहात्म्यम्
३००१ षोडशश्राद्धतुलितं महादानशताधिकम् । प्रोवाच किल सर्वेशो गयस्य सुमहात्मनः ॥४८॥ गयाफल्गुनिकाशाकश्राद्धान्येतत्समानि वै। गौरीदानं तथैवेति वृषोत्सर्जनमेव च ॥४८॥ महान्ति निष्क्रियाणीति मनुः कात्यायनोऽङ्गिराः । कुत्सवत्साग्निभरतविश्वामित्रशुकादयः ॥४६॥ नैतेषां तुल्यमपरं पैतृकं कर्म विद्यते । लोकत्रयेऽपि परमं तस्मादेतेषु चैककम् ॥४६॥ अपि कर्ता कृतार्थः स्यात् सुकृती पितृतारकः । इत्येवमेनं जहषुः पनसस्थापकं तु तम् ॥१२॥ वयं न विद्मः को वा स दू दुर्वासाजनकोऽथवा । कुम्भोद्भवो दधीचिर्वा शिबिर्वा नहुषो नलः ॥४६३॥ मान्धाता वाऽप्यलों वा हरिश्चन्द्रोऽथवा महान् । गयो रामोऽथवा श्रीमानेषु चैकोऽथवा न चेत् ॥४६॥ एतत्समष्टिलोकानां हितायाऽत्र भुवः स्थले । अवतीर्णो न सन्देह इति ब्रह्मा शिवो हरिः ॥४६॥
___ पनसे स्थापिते महान् विशेषः पनसस्थापकं प्रोचुः शलाटोस्तस्य पृष्ठतः । सर्वे कण्टकरूपेण समाश्रित्यैव सन्ततम् ॥४६६।। अष्टोत्तरशतश्राद्धदिव्यशाकविशेषकाः । प्रवर्तन्ते यतस्तस्मात्तदा शाकसहस्रकम् ॥४६॥
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३००२
आङ्गिरसस्मृतिः तस्वास्य दिव्यरूपस्य पितृप्राणैकरूपिणः । सर्वदेवस्वरूपस्थ सर्वमन्त्रमयस्य च ॥४६८॥ सर्वयज्ञमहातीर्थसरिदग्निसुवर्मणः । निखिलागमशास्त्रौघव्रतकृच्छामृतान्धप्ताम् ॥४६६।। निधानस्य पवित्रस्य पित्र्याकर्षणवर्मणः । स्थापनं क्रियते येन तच्छायापत्रमूलकैः ॥५००।। फलैः शलाटुभिर्वापि काष्ठेश्छाय भिरेव च । क्रियते पितृतृप्तिः स्याद्बुद्धिपूर्वमबुद्धितः ॥५०१।। तस्य पुण्यफलं वक्तुं गुरुणा ब्रह्मणापि वा। शक्यं वर्षसहस्रण फणिराजेन वा न तु ॥५०२॥ पुरा किल पितृतृप्तिहेतवोऽखिलशाककाः । तपस्तप्त्वा वरेणाऽथ ब्रह्मणः पनसं श्रिताः ॥५०३।।
अलकश्राद्धम् अलकालर्ककारूषाच्युतचूताजरामराः। सप्तस्वेतेष्वच्युतश्चेदलर्कश्चाजरास्त्रयः ॥५०४॥ प्रतिमासजभेदेन स्मृता द्वादशजातयः । अतः षट्त्रिंशत्कसंख्या तस्मादेतत्त्रयस्य च ॥५०।। एतेषां मासजानां स्यादेकजातिशलाटुतः । तद्भिन्नैकादशानां च शलाटुफलभेदतः ॥५०६।। द्वविध्यं किल संप्राप्त शलाटोरपि वै मुहुः । आर्द्रशुष्कप्रभेदेन द्वविध्यं समुपागतम् ॥५०७।।
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श्राद्धार्हदिव्यशाकषर्णनम् ३००३ तद्वत्फलानां च पुनद्वै विध्यं समुपागतम् । तच्चैत्रामलको ग्राह्य आशरत्सपवित्रकः ॥५०८।।
दिव्यशाकाः श्राद्धार्हाः वारुकः कर्मजः शारिः श्रीपणं श्रीकरः शमी । युगदो युग्मदो रम्यं वज्रपर्णी फरीषकी ॥५०६।। कारवल्ली त्रयी कारुः कामकृत् कामवारकः । कामवाही कामदूरः शाकुटद्वयमग्रिमा ॥५१०।। कामपं कामदं कम्रः कलिङ्गः कलिवारुकः। अजश्रीरजचर्माख्यो दारुको धर्मदो दमः ॥११॥ कुलंकारी मनुर्मानी राजश्रीः शेखरी नलः । नालकः कारकः खाद्यो गायत्रो हरिलोचनः ॥५१२॥ हरिदश्वो हयग्रीवः कारुण्यः कनकप्रियः । कार्मुकः कर्मकृत्कार्यों धैर्यदो मानकृत् कुणिः ॥५१३।। शरच्छीको मङ्गलको कुण्डोऽकुण्डो गुडप्रियः । फलश्रीर्मधुरग्रीवो दानदः कटुकः क्षमी ॥१४॥ मान्मथो मधुरस्रावा वज्रनो वज्रपञ्जरः । वल्मीकजो बालराजो बालपुत्री बृहद्रथः ॥५१।। कर्णकारोऽक्षिरोगनः प्रतीहारी वलीमुखः । शर्मकृन्नेत्ररोगनो धान्यद्वषी दरिद्रहृत् ॥५१६।। कुशलः कर्मसुखकृत् कण्ठहृत् कनकप्रभः । विश्वाकरः पिप्पलनः क्षुन्मूलो क्षुन्निवारणः ॥५१७।।
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३००४
आङ्गिरसस्मृतिः अग्निधामा धरानाथो धरावासो धराश्रयः । अद्रिराजो धर्मदेशी धर्माश्रयकरः प्रराट् ॥१८॥ अनिकेतो निमिग्रीवो नौलनेत्रो मरुत्पतिः । मणिमालो बृहन्नालो नारदो लिकुचो नटः ॥१६॥ कुम्भाडः कुण्डली चक्रः शैत्यकर्मा शताकरः। कल्याणाधार ईशान ईशानो दक्षिणास्पदः ॥२०॥ शतवल्ली महावल्ली चक्रवल्ली निपानकृत् । द्रोणप्रियो द्रोणराजो गुल्महृत् कटुमूलकः ॥५२१॥ नित्यश्रीको नित्यपुष्पो निर्मलो बहुपुष्पकः । प्लक्षराजन्यसंभूतो हेतिमूलो निशाप्रियः ॥५२२॥ महादाहकरोऽश्वत्थः सुन्दरः पर्वताश्रयः । कर्दमाढ्यः कर्दमाधः सूपस्थानः सुरास्पदः ॥२३॥ पूर्णपात्रं शर्मपात्रं शातकुम्भः स्थिराकरः । काव्यश्रीः श्रीकरः श्रीगः परागश्रुतिदीपनः ॥५२४॥ महामाली जीवमाली पाशाढ्यः पाशदुःसहः। प्रथितो प्राणतरणो देवराजप्रियः पणः ॥२५॥ सद्योमूलः पण्यमतिः गरदूषो गणत्रिगः। गुहावासो गुहामूल्यं भरण्यं मुनिवन्दितः ॥५२६॥ मुनिप्रियो दन्तरिपुः शर्मकृच्छर्ममत्सरी । त एते दिव्यशाकाः स्युः श्राद्धकर्मणि चोदिताः ॥५२७।। एतेषामम्लयोगेन तदयोगेन च द्विधा । भवेयुः किल ते भूय एतेषां पुनरेव वै ॥२८॥
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पनसमहिमावर्णनम्
३००५ मध्ये शाकुटकादीनि मूलतः स्तम्भतस्तथा । पत्रतत्रिविधो ज्ञेयः कानिचिच्छुष्कभेदतः ॥५२६॥ पक्कन जलतैलाभ्यां पृथक्त्वेन समष्टितः। चूर्णकल्कप्रभेदेन यत्नतः स्यात्सहस्रकम् ॥३०॥
पनसमहिमा एतत्सर्व चैकपात्रे निधाय किल पद्मजः । अन्यपात्रे च पनसं तुलयामास पाणिना ॥५३१॥ तदा तु पनसः किंचिद्वभूवाधिक एव वै । बृहती त्रिशतसमा तदा जाता हि पश्यताम् ॥५३२।। आर्द्रकं षट्छतसमं तिलाः शतसमं तराम् । एवं तुलायां त्रितयं संबभूव तदादि वै ॥३३।। भूतले ब्राह्मणाः सन्तः पवित्रे श्राद्धकर्मणि । तुल्यं शाकसहस्रस्य तिला कबृहत्ककम् ॥५३४|| संपादयन्ति यत्नेन पितृणामतितृप्तये । तिलमाषव्रीहियवा मुद्गगोधूमशाककाः ॥५३।। काशा दशविधा दर्भा मुख्यामुख्याश्च ये मताः । खड्गं दशविधं मांसं प्रेतपर्पटभूतपाः ॥५३६।। वामदेवादयो विप्राः पितृसूक्तविशेषकाः। गयादिपुण्यक्षेत्राणि वटभूरुह एव च ॥५३७।। बिन्दुमाधवविश्वेशचतुर्दशपदानि च । ईशानादिमुखान्येवं गधाधरमहेश्वरौ ॥३८॥
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३००६
आङ्गिरसस्पतिः भागीरथी फल्गुनी च यमुना च सरस्वती । पितृसूक्तानि सर्वाणि वैष्णवानि विशेषतः ॥५३६।। रक्षोन्नानि पवित्राणि पुनरन्थे तथाविधाः । श्राद्धद्रव्यविशेषाः स्युः पितृणामतिवल्लभाः ॥५४॥ ते सर्वे पनसस्त्वेकः सुमहाक्षयकारकः । एतस्मिन् पनसे लब्धे सर्वश्राद्धनिदानके ॥५४१।। मृताहदिवसे पुण्ये नित्यतृप्ताः सुतोपिताः पितरस्तुन्दिलाः सद्यो भवन्त्येवेति सा श्रुतिः ॥५४२।। एवं सत्यत्र यो मर्त्यः पनसस्थापको हृदा । मत्याऽमत्याथवाऽतीव भक्त्याऽभक्त्याथवा पुनः ॥५४३।। ज्ञानेनाऽज्ञानतो वाऽपि भूतले यत्र कुत्रचित् । स एव कथितः सद्भिर्गयाश्राद्धसहस्रकृत् ॥४४॥ पनसं सहकारैश्च कदल्यादिद्रुमैः सह । स्थापयित्वा विधानेन पत्नात्संबधितैः शिवः ॥५४५।। चम्पकैः पाटलौभिश्च मधूकैः सुमनोरमैः । चन्दनैः स्वन्दनैनींपैस्तच्छायाभिश्च तत्फलैः ॥५४६!! पत्रैः पुष्पैश्च तत्काष्ठेर्नानाशाकविशेषकैः । कुर्वन् स्ववृत्या प्रयत्न कुलकोटिसहस्रकैः ॥५४७।। ब्रह्मलोकमवाप्येह तत्सायुज्यमवाप्नुयात् । । पनसं यत्र कुत्रापि दृष्ट्वा सद्यो महामनाः ॥४८॥ तत्काष्ठपत्रकुसुमशलाटुफलमुख्यकैः । येन केनापि वा तृप्ति पितॄणां तां समाचरेत् ॥५४६।।
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श्राद्ध पनसस्यावश्यकवावर्णनम् ३००७ सद्य एव ब्राह्मणेभ्यो लब्धमात्रे च तत्फले । दृष्टमात्रेऽथवा भक्त्या दद्याद पितृतप्तये ॥५५०।। शलाटुं पानसं पत्रं फलं दृष्ट्वा तु यो नरः। पितृतप्तिमकृत्वैव तूष्णीं तिष्ठेन्महाजडः ॥५१॥ तं तस्य पितरः सर्वे शपन्ति किल कोपतः। दृष्टमात्रे तु तस्मात्तु पानसद्रव्यमुत्तमम् ॥५५२।। येन केनाप्युपायेन पत्रेण च फलेन वा। शलाटुना छायया वा पितृतृप्तिनिमित्तकम् ॥५५३।। यत्किचिदपि वा तेषु ब्राह्मणेभ्यः प्रदापयेत् । तावन्मात्रेण पितरो नित्यतप्ता भवन्ति वै ॥५५४।। एवं सत्यत्र यः कश्चिद्भाग्यवान् पनस्री नरः । तद्रव्यैरनिशं भक्त्या तृप्त्यकृत् कातकी भवेत् ।।५५५।। गालवस्तु पुरा विप्रो दृष्ट्वा बीजानि भक्तितः । क्रयेण पञ्चषान् गृह्य पितृप्रीत्यै बुभुक्षितः ॥५५६।। स्वयं पत्न्या भक्षयित्वा पितृतप्ति चकार है। तावन्मात्रेण ते चापि परं तृप्ताः शताब्दकात् ॥५५७।। आनन्दसागरे मना बभूवुरिति नः श्रुतम् । पुरा कुशवने पुण्ये माण्डव्यो वेदवित्तमः ॥५५८।। महाविन्ध्याटवीमार्गे पनसं कार्तिकेऽवशात् । दृष्ट्वाकं च नतस्तूष्णी समालोच्य क्षणात्परम् ॥५५६।। तत्पत्राणि पवित्राणि पतितानि भुवः स्थळे । . दृष्ट्वा समादायैतानि निपुणः सर्वकर्मसु ॥५६०।।
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३००८
आङ्गिरसस्मृतिः तानि स्वकरतः शीघ्र कृत्वा पत्रपुटं त्वरन् । कस्मैचिद्विप्रपुत्राय पात्राय जलकांक्षिणे ॥५६१।। समुधु क्ताय पातुं तज्जलं भूमिगतं कथम् । पास्यामि सलिलं वेति समालोकयतेतराम् ॥५६२।। पिबत्यनेकत्तरसा पितृप्रीत्यै पितृन् महान् । स्मृत्वा ददौ तदा तेऽऽपि समागत्यातिसत्वरम् ॥५६३।। तावन्मात्रेण संतुष्टा गयाश्राद्धशताधिकात् । अतिहषं गताः सद्यस्तमेनं भूरितेजसम् ॥५६४।। आशीभिश्च प्रशस्ताभिः प्रत्यक्षेणैनमीक्ष्य ते । परं तृप्ताः स्मेति चोक्त्वा त्वं कृतार्थो महानसि ।।५६५।। शास्त्रार्थधर्मतत्त्वज्ञस्त्वमस्मत्परितृप्तिकृत् ।। इत्युक्त्वाऽऽभाष्य ते तेन तत्पदं चक्रपाणिनः ॥५६६।। पश्यतस्तस्य पुरतो जग्मुः किल सुरोत्तमैः। प्रार्थनीयं विशेषेण सोऽयमेतादृशो महान् ॥५६७।। पितृणां पनसः श्रीमान् वल्लभः परमो महान् । कारश्च कारवल्लीकः कारुकः कालिको करुत् ॥५६८।। पञ्चैते ब्रह्मपुरतो देवानां शृण्वतां तदा।। इदमूचुर्वचो दुःखादस्माकमपि सन्ति हि ॥५६६।। कण्टकानि ततो भूयः खराणि सुमहान्त्यपि । त्वमस्माकं तु तत्साम्यं किमर्थ नाकरोविभो ॥५७०।। इत्येवमतिदैन्वेन पौनःपुन्येन केवलम् । रुरुदुः किल दुःखार्तास्तानेतांस्तादृशान्विभुः ॥५७१।।
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३००६
का
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कारस्यश्लाध्यत्ववर्णनम् नाकिनां पुरतो भूयः प्रहसन् वाक्यमब्रवीत् ।
रोदनम् यन्माहात्म्यसुमहतो जन्मसिद्धातिसुश्रियः ॥५७२।। दृष्ट्वा विभूतिं परमामसहन्नेव केवलम् । तत्साम्यमिच्छुरारान्मे रोदनं कृतवानसि ॥५७३।। तस्मादेतत्प्रभृति ते भुवने ये दरिद्रतः । श्राद्ध ककरणाशक्ता अष्टोत्तरशतेष्वपि ॥५७४।। श्राद्धषु केषुचित्कालविशेषेषु कथंचन । रोदनाच्छ्राद्धकरणफलं ते प्राप्नुयुः परम् ॥५७५।।
कारस्य श्लाध्यत्वम् यस्मादत्यम्लवचनं मत्पुरः प्रोक्तवानसि । देवानां शृण्वतां चापि तस्मात्त्वं श्राद्धकर्मसु ॥५७६।। नित्याम्लयुक्तो वर्तस्व कार रे रे कृती भव । कारवल्ल्यादयो यूयं स्वेषां कण्टकसाम्यतः ॥५७७।। तत्साम्यचेतसो यस्मादङ्गीकुर्मश्च सांप्रतम् । युष्मान् श्राद्धषु सर्वेषु तद्योग्या भवतैव वै ॥५७८॥ तत्साम्यं तत्त्रयस्यैव मिलित्वैव पृथङ् न तु । नित्यं शाकसहस्रस्य बृहत्यादेस्तु वो न तु ॥५७६।। युष्माकं श्राद्धयोग्यत्वमात्रं मद्वचसा मतम् । सकण्टकबृहत्यस्ता मनसा पूर्वमेव वै ॥५८०।। साम्यं कण्टकतस्तस्य पनसस्य त्वकामयन् । युष्मदीयमिमं वृत्तं ज्ञात्वा तूष्णीं व्यवस्थिताः ॥५८१॥ १८६
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३०१०
आङ्गिरस स्मृतिः
अतिचातुर्यतोऽतीव निपुणाश्च विचक्षणाः । ज्ञात्वा तद्धृदयं सर्वमवलेपं तथाविधम् ॥ ५८२ ॥ सर्वं ज्ञात्वा विधास्यामि लोकेष्वद्य च श्रूयताम् । मन्वादिषु मदीयेषु युगादिषु चतुर्ष्वपि ॥ ५८३ ॥
अष्टकासु च पुण्यासु संक्रान्तिषु च वृद्धिके । नैमित्तिके च तासां स्यादयोग्यत्वं तथाविधम् ||५८४|| तत्र चैतासु याः क्रूराः प्रेतकर्मणि ता. पराः । संभवन्तु न चान्येषु मर्यादैवं मया कृता
।। ५८५ ।।
उर्वारुमहिमा
एतस्मिन्नन्तरे तत्र देवसृष्टोऽतिसुन्दरः । पत्रपुष्प महावल्लीशलाटुफलसंवृतः ।। ५८६ ।। समागत्यातिचपलात् कैलासाद्धरणीधरात् । नत्वा बद्धाञ्जलिपुटचोर्वारूर्मम का गतिः || ५८७ इति चोवाच लोकेशं भगवन्तं पितामहम् । तादृशं तं समुद्वीक्ष्य गौरीवाक्येन केवलम् ||५८८|| शम्भुना लोकनाथेन सृष्ट शुद्ध कविग्रहम् ।
वत्सलम् ॥५८६||
सर्वसुन्दरम् ।
समागतं महाप्रह्व महागुरुषु शुद्धसत्वं दूरगवं ज्ञात्वा तं अतिप्रशस्यं चोवाच देवानां पुरतो विभुः त्वमुर्वारो स्थाणुसृष्टो भवानीवचसा यतः ।
स्वयं प्रकृत्या च महान् शान्तो दान्तो महामनाः ॥ ५६१||
।।५६०।
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• पनसस्तुतिवर्णनम्
३०११ गुरुप्रियो विनीतश्च सततं गुरुवत्सलः । अवलेपैकरहितश्चाद्यप्रभृति भूतले ॥५६२।। दैविकेषु च पित्र्येषु कल्याणेषु नवेषु च । नैमित्तिकेषु नित्येषु काम्येषु सकलेप्वपि ॥५६३। कृत्स्नक्रियाविशेषेषु वालवृद्धातुरादिषु । नित्ययुक्तः सदा योग्यः शलाटूनां दशासु च ॥५६४। दशास्वेवं फलानां च शाश्वतो भव शाश्वतः । पितृणां सर्वदात्यन्तं वल्लभः परमो भव ॥५६५!। वसन्तमाधवस्य त्वं ग्रीष्ममृत्युंजयस्य च । महावर्षाः मततन्तुः शरत्काल्यस्तथा पुनः ॥५६६। हेमन्तवनराजन्यः शिशिरः शीतलः शिवः। सुखाकरः शुभकरो नित्यकल्याणकारकः ॥५६७। प्रथितो भव सर्वेषां पानसैराम्रकैः शिवः। रम्भाभिस्तुलितो भूयः कदाचिदधिकस्तथा ॥५६८॥ विद्वत्स्तुत्यो राजमान्यो त्वज्जातीयकपोडशः। संग्राह्यो भव सर्वत्र सर्वनेत्रप्रियोऽनिशम् ॥५६६।। सर्वदा सर्वसंवृद्धो भवोर्वारोऽतिवर्धितः । मरुत्कृतौ तु त्वद्वीजविक्षेपणमुखादितः ॥६००। फलबीजसमुत्पत्तिपर्यन्तं किल सर्वदा।। तदिष्टित्रयतः शुद्धो महान्मन्त्रपरिष्कृतः ॥६०१ । त्रयस्त्रिंशत्कोटिसंख्यदेवानां वल्लभो भव । इति स्तुतः पृजितश्च शासितो विहितोऽनघः ॥६०२।।
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३०१२
आङ्गिरसस्मृतिः
किल कारितः ।
अत्यन्तपितृ तृप्त्यैककारकः उर्वारुस्तादृशः प्रोक्तः संग्राह्यः श्राद्धकर्मसु ॥ ६०३|| उर्वारुत्यागे दोषः
तादृशं तमिमं यो वै मौढ्याच्छ्राद्धषु संत्यजेत् । सद्य एव पितुद्रही भवेदेव न संशयः ||६०४|| देवद्रोही श्रुतिद्रोही सर्वद्रोही स एव हि । विधिघ्नः श्राद्धहन्ता स्यात्तानीमानि प्रवच्यतः ||६०५ || षण्णवतिश्राद्धानि
अमामनुयुगक्रान्तिधृ (व्य ) तिपातमहालयाः ।
तिस्रोऽष्टका गजच्छाया षण्णवत्यः प्रकीर्तिताः ||६०६|| मासिश्राद्धानि तान्येवं मासि मासि कृतानि वै । अष्टोत्तरशतानि स्युस्तानीमानि ततः पुनः ||६०७|| पित्रोमृताहः कथितोऽलङ्कनीयः कथंचन । रवि च प्रथमे पादे कविं चैव द्वितीयके ||६०८|| त्रयोदश तृतीये स्यादमाव्याख्यानमुच्यते । पुनर्निरूप्यते स्पष्टममावाक्यस्य सांप्रतम् ||६०६॥ अमावास्या द्वादश स्युर्मनवस्तु चतुर्दश । युगादयश्च चत्वारः क्रान्तयो द्वादश स्मृताः ॥ ६१०॥ धृतयश्चापि पाताश्च त्रयोदश त्रयोदश ।
महालयाः पञ्चदश अष्टका द्वादश स्मृताः ॥ ६११॥ गजच्छाया तथा चैका षण्णवत्य इतीरिताः । प्रतिमासं प्रकर्तव्यत्वेन तानि च सांप्रतम् ॥६१२||
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दर्शश्राद्धवर्णनम्
३०१३ कीर्तितानि द्वादश हि मिलित्वैतेऽखिलान्यपि । अष्टोत्तरशतानि स्युः श्राद्धानि विहितानि वै ॥६१३॥ प्रतिवर्ष प्रयत्नेन ब्राह्मणस्य महात्मनः । अमावास्यास्तत्र क्लृप्ता मासान्ता नित्यमेव वै ॥६१४।। अत्रैव पितृयज्ञश्च कर्तव्यत्वेन चोदितः । श्रुत्युक्तोऽयं पितृणां स्यादतितृप्त्यैककारकः ॥६१।। श्राद्धानां प्रकृतित्वेन चोदितः स्मृतिकर्तृभिः । नैतस्मात्तु परं श्राद्धं विद्यते यत्र कुत्रचित् ॥६१६।। श्रुत्युक्तमेतदेव स्यादेतन्मात्रे कृते तु चेत् । सर्वाण्यपि कृतानि स्युरथवैतदिने तु यैः ॥६१७।। श्राद्धं वै क्रियते तद्वा प्रकृतिश्चेति वै जगुः । इतरैः सर्वपित्र्याणां श्रुतितो ब्रह्मवादिनः ॥६१८॥ यदनुष्ठानतः सर्वानुष्ठानं जायतेतराम् । तदेव प्रकृतिः प्रोक्ता हि कैश्चिद्ब्रह्मवादिभिः ॥६१६।।
दर्शश्राद्धम् . दर्शानुष्ठानतः सर्वश्राद्धानि स्युः कृतानि वै। इति सर्वे त्रयो लोकास्तूष्णीं तिष्ठन्ति केवलम् ॥६२०।। न केनापि च तस्मात्तु दर्शः संत्यज्यते परः । दर्शमात्रेऽनुष्ठितेऽस्मिन् येन केन प्रकारतः ॥६२१।। सर्वाण्यनुष्ठितानि स्युरिति वै लोकसंस्थितिः । न तत्र साक्षाच्छाद्धं च क्रियते येन केन वा ॥६२२॥
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३०१४
आङ्गिरसस्मृतिः क्रियते कृतिना तत्तु भूतले येन केनचित् । तेनाप्युदकमात्रेण श्राद्ध नापि कृतेन वै ॥६२३।। सर्वाण्यपि कृतान्येवेत्येवं . सर्वैकनिश्चयः । स दर्शस्ताहशस्यानुष्ठाता यो ब्राह्मणोत्तमः ॥६२४।। अग्निहोत्री स एव स्यादर्शयाज्यक्षयाज्यपि । सोमयाजी सर्वयाजी तत्त्यागी ब्रह्मघातकः ॥६२।। स एव कर्मचण्डालस्तमेनं ब्रह्मघातकम् । दृष्ट्वा समागतं पापं वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत् ॥६२६।। प्रकृतिश्राद्धमात्रश्च दर्श एव न चापरः । पितृयज्ञमुखादेव प्रकृतित्वं तदीरितम् ॥६२७।। तत्रैव विहितोऽयं हि पितृयज्ञः श्रुतीरितः ।
दर्शाब्दिको तुल्यौ दर्शो मृताहश्च समौ न कदाचित्तु शक्यते ॥६२८।। येन केनापि वा त्यक्तुं तत्त्यागी चेत्पतत्यधः । पित्रोताहस्त्वन्नेन कार्यः स्यात्तु न चान्यतः ॥६२६। न हेनान्नेन होमेन पिण्डदानेन मन्त्रतः । अक्षेण शष्पैर्मन्त्रैर्वा न दुःखेन तदाचरेत् ॥६३०; किं त्वमौकरणाद्ब्रह्मभोजनात्पिण्डदानतः । कृतं भवति तत्कर्म न. चेच्चण्डालतां ब्रजेत् ॥६३१।।
. दर्शाब्दिको न त्याज्यौ मृताहोऽलङ्घनीयः स्यादर्शश्चापि तथाविधः। , येन केन प्रकारेण शक्यते किल दुर्बलैः ॥६३२।।
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संक्रान्ति पुण्यकालवर्णनम्
अकिंचनैदुर्बलैर्वा व्याधितैर्वा विशेषतः । वाधितैर्धावमानैर्वाऽज्ञातवासिभिरेव वै ॥६३३॥
३०१५
नष्टक्रियैर्नष्टधनैमृतप्रायैरथापि वा ।
त्यक्तुं न शक्यते श्राद्धं मृताहाख्यं कथंचन ॥६३४|| मृताहस्तादृशः क्लृप्तः प्रतिवर्षं च चान्द्रतः । मानेनैव भवेन्नूनम क्लू प्रोऽन्येन चेद्भवेत् ॥ ६३५|| अत्यन्तावश्यको न स्यादं क्लृप्तश्चेत्तु यो भवेत् । क्लृप्तस्यावृत्तिरित्येव मर्यादा शास्त्रसंमता ||६३६|| तिथ्यग्नीन तिथिस्तिथ्याशे कृष्णे भोऽनलो ग्रहाः । तिथ्यर्को न शिवोऽश्वोऽमातिथी मन्वादयः स्मृताः ||६३७|| तस्मात्तु क्लृप्ता इत्युक्तास्ततश्च क्रान्तयः स्मृताः । सूर्यराशिक्रमणतश्चाऽक्लुमा इत्युदीरिताः
॥६३८||
संक्रान्तिस्वरूपम्
अयने द्व े च विपुवौ चतस्रः षडशीतयः । चतस्रो विष्णुपद्यश्च संक्रमा द्वादश स्मृताः ||६३६ || स्थिरभेष्वर्कसंक्रान्तिर्ज्ञेया विष्णुपदाह्वया । पडशीतिमुखं ज्ञेयं द्विः स्वभावेषु राशिषु ॥ ६४०|| सौम्ययाम्यायने नूनं भवतो मृगकर्कटौ । तुलामेषोभयं ज्ञयं विपुवं सूर्य संक्रमे ॥ ६४१|| संक्रान्ति पुण्यकालः
अहः संक्रमणे पुण्यमहः कृत्स्नं प्रकीर्तितम् | रात्रौ संक्रमणे भानोर्व्यवस्था सर्वकर्मसु (सङ्क्रमे ) || ६४२ ||
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३०१६
आङ्गिरसस्मृतिः सौम्ययाम्यायनद्वन्द्व विशेष इति वै जगुः । अतात्याप्राप्य तत्कालं पुण्यकाल उदाहृतः ॥६४३।। संक्रान्तिष्वखिलास्वेवं तत्कालः पुण्यदः स्मृतः । या याः सन्निहिताः नाड्यस्तास्ताः पुण्यतमाः स्मृताः॥६४४॥ अयने द्वे च विषुवे चतस्रः षडशीतयः । चतस्रो विष्णुपद्यश्च संक्रमा द्वादश स्मृताः ।।६४॥ त्रिंशत्कर्कटके नाड्यो मकरे विंशतिः स्मृताः। वर्तमाने तुलामेषे नाड्यस्तूभयतो दश ॥६४६॥ षडशीत्यां व्यतीतायां षष्टिरुक्ताः प्रणाडिकाः । पुण्यायां विष्णुपद्यां च प्राक् पश्चादपि षोडश ॥६४७।। अर्धरात्रात्तदूर्ध्व वा संक्रान्तौ दक्षिणायने । पूर्वमेव दिने कुर्यादुत्तरायण एव वै ॥६४८।।
अन्नश्राद्ध कुतपः यद्यत्तु पैतृकं कर्म श्राद्धमन्नेन चेत्पुनः। कुतपे तद्धि कुर्वीत तद्भिन्नस्य तु चेदयम् ॥६४६।। विधिः ख्यातो न सन्देहो धर्मविद्भिः सनातनैः ।
ओदनश्राद्धमात्रस्य संक्रान्तीनां च कृत्लशः ॥६५०।। द्वादशानां तथान्येषां कुतपो मुख्य उच्यते । तद्भिन्नस्नानदानादितर्पणादिषु ते स्मृताः ॥६५१॥ तदा तदा तु विहिता एते कालविशेषकाः। श्राद्धकर्तस्तु सर्वत्र कृतिनः काल एककः ॥६५२॥
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श्राद्धदेवतावर्णनम्
कुतपो वेदवचसा मुख्यः प्रोक्तो न चेतरः । सोऽपि यस्मिन् दिने सम्यग्दक्षिणायनकालकः ||६५३|| तमुत्तरायणे कुर्यादुत्तरायणमेव हि । कुतपस्य तु यत्र स्याल्लोभपूर्वं तथाचरेत् ||६५४॥ दर्श संक्रान्त्यादिश्राद्धानि तत्क्रान्तियुग्मश्राद्धादिकृत्यं सर्वं यथा लभेत् । औत्तरेयने सम्यक् कुतपेऽस्मिन् तथाऽऽचरेत् ॥ ६५५ || संक्रान्तिमात्राः कथिता अक्लृप्ता इति सूरिभिः । एवं धृतिश्च पातश्च षड्विंशतिक संख्यया ॥ ६५६।। कथिताः किल सर्वाण्यप्यक्लृप्तान्येव केवलम् ।
३०१७
महालयः
महालया बहुविधाः पूर्वं पञ्चदशेति वै ॥ ६५७|| षोडशैवेति केचित्तु दशेति च तथापरे । पञ्चैवेति त्रयं चेति एकमेवेति केचन ॥६५८|| षोढा ताः कथिताः सद्भिरष्टका द्वादश स्मृताः । यदेन्दुः पितृदेवत्ये हंसश्चैव करे स्थितः ॥ ६५६॥ याम्या तिथिर्भवेत्सा तु गजच्छाया प्रकीर्तिता ।
श्राद्धदेवताः
कर्माणि कानि ख्यातानि त्रिदैवत्यानि केवलम् ||६६०|| षडदैवत्यानि कानि स्युर्नवदैवत्यकानि च । तत्रादौ तु त्रिदैवत्यं मृताहस्त्वेक उच्यते ॥ ६६१।।
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३०१८
आङ्गिरसस्मृतिः . षड्दैवत्यस्तु दर्शः स्यादष्टका नवदेवताः । अष्टकासु च वृद्धौ च गयागां च मृतेऽहनि ॥६६२|| मातुः श्राद्धं पृथक् कुर्यादन्यत्र पतिना सह । पतिना सह कर्तव्यं पृथक्त्वेन कृते यदि ॥६६३॥ . तत्पैतृकमहासङ्गसौख्यविघ्नकरं भवेत् । पितृवर्गस्तु पूर्व स्यान्मातृवर्गस्ततः परम् ॥६६४॥ ततो मातामहानां च वर्गोऽयं तत्कलत्रतः ।
पित्र्येऽप्रदक्षिणम, शून्यललाटता च पितृवर्गो यत्र पूर्व तत्र स्यादप्रदिक्षणम् ॥६६५।। अपसव्यं तथा शून्यललाटं प्रभवेदपि । यत्र यत्राऽऽपसव्यं स्यात्तत्र तत्राऽप्रदक्षिणम् ॥६६६।। तथा शून्यललाटं च प्रधानाङ्गे च तत्स्मृतम् ।
तत्र गृहालंकारो न कर्तव्यः यत्रैतत्त्रितयं तत्र गृहालंकरणं न तु ॥६६७।।
___ मातृवर्गे प्रदक्षिणादि मातृवर्गो यत्र पूर्व तत्र स्यात्तु प्रदक्षिणम् । सव्यं पुण्ड्रललाटं च मङ्गलस्नानमेव च ॥६६८।। गृहालंकरणं चापि मङ्गलानि तथा पुनः । पितृणां च क्रमो मुख्यो भवत्यपि च सन्ततम् ॥६६६।। प्रपितामहपूर्व स्यात्तत्पितामहमध्यकम् । पित एव कथितं तदुच्चारणलक्षणम् ॥६७०।।
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आशौचकालनिर्णयवर्णनम् ३०१६
श्राद्धभेदेन विश्वेदेवाः तेषां च विश्वेदेवास्ते सत्यसंज्ञिकनामकाः । सर्वत्र वृद्धशब्दश्च प्रयोक्तव्यश्चतुर्ध्वपि ॥६७१॥ तथैव मातृवर्गेऽपि तार्तीयीके च वर्गके। जननक्रमतश्चेदं तेषामुच्चारणं भवेत् ॥६७२॥ एतद्विरुद्ध तत्सर्वं तद्विरुद्धमिदं परम् । निःशेषमिति बोद्धव्यं ते सर्वे देवताः किल ॥६७३॥ वसवः पितरोऽत्र स्यू रुद्राश्चापि पितामहाः। प्रपितामहाश्च कथिता आदित्या इति तद्गणाः ॥६७४।।
सापिण्ड्यनिरूपणम् एतत्त्रयात्पूर्वकस्य चतुर्थस्य सकृत्किल । श्राद्धस्य करणं प्रोक्त पाथेयाख्यस्य सूरिभिः ॥६७।। तदेवं सप्तपूर्षाख्यं सापिण्ड्यस्य निरूपणम् ।
आशौचं च दशत्रिदिनमेकदिनम् तावत्तु सूतकं सर्व तज्जानां संप्रकीर्तितम् ॥६७६॥ समानोदकसंज्ञाश्च ततो भूयः सगोत्रिणः । तदूर्ध्व मिति विज्ञयं तेषां तत्सूतकं ततः ॥६७७।। त्रिदिनं चैकदिवसं पश्चात्स्नानं च बोधितम् । क्रमेणैव परं यावत्तावत्पर्यन्तमेव वै ॥६७८।। स्नानमात्रं च कथितं प्रसंगादिदमीरितम् । जीवच्छ्राद्धं तु तत्प्रोक्त सर्वश्राद्धविलक्षणम् ॥६७६॥
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३०२०
आङ्गिरसस्मृतिः चत्वारिंशद्देवताकमथवा पञ्चसंख्यया। पुनः समेतं तत्प्रोचुरतस्तद्विविधं स्मृतम् ॥६८०।। श्राद्धानि कानिचिद्भूयो देवतासहितान्यपि । अदैविकानि च पुनस्तानीमानि च भण्यते ॥६८१॥ वृद्धिश्राद्धं गयाश्राद्धं घृतश्राद्धं तथैव च। दधिश्राद्धं तृणश्राद्धममादीन्यखिलान्यपि ॥६८२।। सदैविकानि ख्यातानि प्रेतश्राद्धानि कृत्स्नशः। . अदैविकानि प्रोक्तानि सोदकुम्भानि कृत्स्नशः ॥६८३।।
अमादिश्राद्धे कर्तव्यानि प्रेतश्राद्धेषु सर्वत्र संकल्पो मुख्यतः स्मृतः । अभ्यनुज्ञापि परमा सा चात्राऽऽवाहनं मतम् ॥६८४॥ सपाद्यार्थ्यगन्धधूपदीपपुष्पाणि केवलाः। तिलाः सर्वत्र तूष्णीकाः कृत्स्नं वेदमनुं विना ॥६८५॥ तत्र पूजा प्रकर्तव्या पिण्डदानं च दक्षिणा । आवश्यक्यत्र परमा दध्याज्ये वस्त्रमेव च ॥६८६।। पूर्वाह्न एव कुर्वीत कुतपं नावलोकयेत् । पिण्डानि वायसेभ्यो वा गृध्र भ्यो वा निवेदयेत् ॥६८७।। न चेज्जलचरेभ्यो वा नान्यत्र तु विनिक्षिपेत् ।
एकोद्दिष्टाधिकारिणः भ्रात्रे भगिन्यै पुत्राय स्वामिने मातुलाय च ॥६८८।। मित्राय गुरवे श्राद्धं पितुर्मातुः स्वसुस्तथा। श्वशुराय श्यालकाय चैकोद्दिष्टं न पार्वणम् ॥६८६।।
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महालयविधवर्णनम्
अपिण्डकानि सपिण्डकानि च श्राद्धानि
युगक्रान्तिमनुश्राद्धं प्रेतश्राद्धादिकं तथा । अपिण्डकानि ख्यातानि सपिण्डानीतराणि च ॥६६०|| मद्दालयषोडशत्वे गजच्छायाऽत्र नो भवेत् । षण्णवत्यत्वसंख्यायै सा हि पञ्चदशत्वतः ॥६६१|| यया कया संख्यया वा तया षड्विधया भवेत् । महालयत्वस्य सिद्धिर्विशेषे तु फलं तथा ॥ ६६२|| सर्वत्रैवं समाख्याता प्रयासाधिक्यतः फलम् । प्रभवत्येव सुमहन्नात्र कार्या विचारणा ॥६६३ ॥
३०२१
महालयः
किल तत्र वै ॥६६४ ||
महालयः पाक्षिकोऽयं द्विविधः परिकीर्तितः । एकविप्राने कविप्रभेदेन एकविप्राख्यपक्षस्य स्वरूपं वच्मि पूर्वतः । महालयानां सर्वेषामापक्षान्तस्य केवलम् ॥६६५|| ये वृताः प्रथमदिवसे वान्येषां च केवलम् । त एव नान्ये कर्तव्याः पक्षान्ते श्राद्धदक्षिणा ||६६६ || एकदैव हि देया स्यान्न देया स्यात्तदा तदा । अनेकविप्रपक्षे तु प्रतिनित्यं च बाडबाः भिन्नभिन्नाः प्रकर्तव्याः प्रतिनित्यं पृथक् पृथक् । दक्षिणा च प्रदातव्या प्रतिपूषं पृथक् पृथक् ॥६६८|| प्रतिवर्गं न चेद्विप्रा वरणीया विधानतः । षड्दैवत्यं तु सर्वत्र नवदैवत्यमेव वा ॥६६६॥
||६६७॥
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३०२२
आङ्गिरसस्मृतिः ख्यातो महालयः सद्भिः षड्विधोऽपि महालयः । एवमेव प्रकर्तव्यो नान्यथा तं समाचरेत् ॥७००||
___ सकृन्महालयः चरेद्यदि विशेषेण नानादैवतकेन वै । सकृन्महालयः सोऽयं स भवेत्किं तु स स्मृतः ॥७०१।। गयाश्राद्धसमः कोऽपि कथितः परमो महान् । अनिर्वाच्योऽखिलः शास्त्रैर्महाश्राद्धविशेषकः ॥७०२।। तादृशश्राद्धकर्तापि षड्दैवत्येन संयुतम् । नवदैवतकेनापि विष्णुना वा समन्वितम् ॥७०३।। धुरिलोचनसंयुक्त कुर्याच्छाद्धं महालयम् । सकृत्पक्षण वा पूर्वप्रोक्तपक्षेषु येन वा ॥७०४।। पक्षण केनचित्कुर्यात् स महालयकृद्भवेत् । न चेदयं गयाश्राद्धतुलितं यं च कंचन ॥७०।। पुण्यं श्राद्ध विशेषं वै कुर्यादेवेति सा श्रुतिः ।
महालयस्य भरण्यादीनां श्लाध्यत्वम् दिने दिने गयातुल्यं भरण्यां गयपञ्चकम् ॥७०६।। दशतुल्यं व्यतीपाते पक्षमध्ये तु विशतिः । द्वादश्यां शतमित्याहुरमायां तु सहस्रकम् ॥७०७।।
महालयकालः आषाढीमवधिं कृत्वा यस्याः पक्षस्तु पञ्चमः । महालय इति प्रोक्तः पितॄणां श्राद्धसंपदे ॥७०८।।
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३०२३
सुमङ्गलीनांकृते श्राद्धव्यवस्थावर्णनम्
____ यतीनां महालयः तत्र पक्षे यतीनां तु द्वादश्यां श्राद्धमाचरेत् ।
दुर्मूतानाम्
चतुर्दश्यां विशेषेण दुर्मूतानां चरेस्क्रियाम् ॥७०६।।
- सुमङ्गल्याः सुमङ्गलीनां कथितं नवम्यां श्राद्धमेककम् । अश्रोत्रियकलत्राणां यावत्तद्भर्तृवर्तनम् ॥१०॥ प्राणिलोके ततस्तत्तु कुर्याद्वा न तु वा द्वयम् । एतदस्ति ह्यनुष्ठानं सकृन्महालये तु चेत् ॥११॥ यावत्पैतृकधर्माः स्युस्तुलितस्तेन स स्मृतः। अतीतो यदि पक्षः स तद्भिन्नेऽपरपक्षके ॥७१२॥ तदन्यस्मिन् तादृशे वै तदन्यस्मित् तथाविधे। यावत्तु वृश्चिकस्तिष्ठत् तावत्तत्तु समाचरेत् ॥७१३।। अदर्शने वृश्चिकस्य जाते तत्पितरः परम् । धनुर्मासे तु संप्राप्ते श्राद्धाकरणमीक्ष्य वै ॥७१४।। सद्यः शापप्रदानायोधु क्ता एव भवन्ति वै । तावदेव ततो भक्त्या श्राद्धं महालयाख्यकम् ।।७१।। विधिनैव प्रकुर्वीत न चेदोषो महान् भवेत् । येन केन प्रकारेण ततश्च श्राद्धमेककम् ॥७१६।। कुर्यादेव पितुः श्राद्धतुल्यं प्रत्यब्दमेव वै।
महालये परेऽहनि तर्पणम् प्रत्यब्दधर्मा निखिलाः सकृन्महालयस्य ते ॥७१७।।
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३०२४
आङ्गिरसस्मृतिः भवेयुरेव तस्मात्तु परेऽहन्येव तर्पणम् ।। श्राद्धे यावन्त उद्दिष्टास्तत्परेऽहनि तान् यजेत् ।।७१८॥
रब्युदयात्पूर्व तर्पणम् तच्छेषतिलदभैस्तु पूर्व सूर्योदयस्य वै । प्रनष्टपितृकश्चेत्तु तर्पणस्याधिकाययम् ॥७१६।। स प्रनष्टप्रसूनित्यं तर्पणेऽधिकृतो भवेत् ।
जीवत्पितृकश्राद्धम् मासिश्राः पितृयज्ञे नान्दीश्राः च सन्ततम् ।।७२०॥ जीवत्तातोऽपि कर्ता स्यादाहोमात्करणं स्मृतम् । पूर्वद्वये तु सततं नान्दीश्राद्धं तु सर्वदा ॥७२१।। येषामेव पिता दद्यात्तेभ्यो दद्यात्तु तत्सुतः । ताते भ्रष्ट च संन्यस्ते रुग्णे रोगैकपीडिते ॥७२२॥ यत्कर्तव्यं तेन कर्म पैतृकं तत्सुतश्चरेत् ।
__श्राद्धे वैदिकाग्न्यधिकारिणः पित्रोः श्राद्धं स्वपत्न्याश्च सपत्नीमातुरेव च ॥७२३॥ मातामहस्य तत्पल्याः श्राद्धमौपासने भवेत् । तद्भिन्नानां तु सर्वेषां श्राद्धं स्याल्लौकिकानले ॥७२४।। अपुत्राणां पितृव्यानां भ्रातृणामग्रजन्मनाम् । तत्पत्नीनां च सर्वासां लौकिकाग्नौ यथाविधि ॥७२५।। अवश्यत्वेन कर्तव्यं न त्याज्यं धर्मतोऽखिलैः । प्रत्यब्दं श्राद्धमानं स्यात् पितृश्राद्धसमानतः ॥७२६।।
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निमन्त्रर्णाहविप्राणाम्वर्णनम् ३०२५
अष्टकामासिश्राद्धम् माघकृष्णाष्टमी यस्यां रात्रौ कुर्यात्समन्त्रकम् । होमं दध्यञ्जलिस्तस्यापूपस्य स्थानके ततः ॥७२७।। नवम्यां तु ततो भक्त्या श्राद्धं कुर्याद्विधानतः । मासिश्राद्धविधानेन तावन्मात्रेण केवलम् ॥७२८।। तानि शिष्टानि सर्वाणि ह्य कादश किलाऽष्टकाः । कृता एव भवेन्नूनं लघूपायोऽयमुच्यते ॥७२६।। अष्टकासु यथा दर्शश्राद्धतोऽखिलपैतृकाः। कृतप्राया इति तथा लघूपायः प्रकीर्तितः ॥७३०।। सर्वाणि पृथगेव स्युः कार्याणि नियमेन वै ।' अष्टोत्तराणि ख्यातानि कदाचित्तु विशेषतः ॥७३॥ असमर्थस्य तु प्रोक्तो लघूपायस्तु कश्चन । समर्थस्तु यथाकल्पं प्रतिसंवत्सरं द्विजः ॥७३२॥ सर्वाणि कुर्याच्छःद्धानि न चेदोपश्च कीर्तितः ।
__ श्राद्धप्रयोगः । श्राद्धप्रयोगश्च मया कृत्स्न एवोच्यतेऽधुना ॥७३३।।
निमन्त्रणम् निमन्त्रणं च पूर्वेध : प्रकर्तव्यं विधानतः ।
निमन्त्रणाऱ्याः विप्राणां वेदिनां नित्यं कार्य नाऽवेदिनां तराम् ।।७३४॥ कुक्षौ तिष्ठति यस्यान्नं वेदाभ्यासेन जीर्यते । कुलं तारयते तेषां दश पूर्वान् दशाऽपरान् ॥७३॥
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३०२६ - आङ्गिरसस्मृतिः
वेदाध्यायी तु यो विप्रः सततं ब्रह्मणि स्थितः । साचारः साग्निहोत्री च सोऽग्निः कव्यवाहनः ।।७३६।।
वेदहीननिमन्त्रणे मन्त्रपूतं तु यच्छ्राद्धममन्त्राय प्रयच्छति । तदन्नं तस्य कुक्षिस्थं रुदत्येव न संशयः ॥७३७|| शपत्येनं प्रदातारं स्वस्य तं तादृशं किल । यजनं च प्रदातारं तदन्नं तद्धृदि स्थितम् ॥७३८। यावतः पिण्डान् खलु स प्राश्नाति हविषोऽल्पकः। तावतः शूलान् प्रसति प्राप्य वैवस्वतं यमम् ॥७३॥ दातृहस्तं च छिन्दन्ति जिह्वाग्रमितरस्य च । पश्यतश्चक्षुषी चैव शृण्वतः श्रोत्रयुग्मकम् ॥७४०॥ दुर्लभायां स्वशाखायां भोक्तृनन्यान्निवेदयेत् ।
स्वशाखीयः श्लाघ्यः पित्रोः श्राद्ध विशेषेण स्वशाखीयान्निवेदयेत् ।।७४१।। कन्यादानं पितृश्राद्धं शुद्धकच्छेभ्य एव च। प्रदेयं स्यात्प्रयत्नेन नासत्कच्छेभ्य एव वै ॥७४२॥
अभोज्याः रोगयुक्त दुष्टबुद्धिं दुष्टचारित्रतत्परम् । सदोषकं च सद्वषं कुनखं श्यावदन्तकम् ॥७४३।। नित्याऽप्रयतवमणिं दुर्वणं च कुरूपिणम् । नक्षत्रजीवनं दासकृत्यं शूद्रकजीविनम् ॥७४४॥
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अभोज्यानाम्वर्णनम्
३०२७ शूद्रकयाजकं शूद्रपुष्टं शूद्रनिकेतनम् । शूद्रप्रतिग्रहपरं नित्ययाचकमेव च ॥७४।। तथा पल्लविकं करमात्मसंभाविनं शपम् । अतिमानिनमग्राह्य निष्क्रियं वेदनिन्दकम् ॥७४६॥ वेदविक्रयिणं नित्यं ग्रामयाजकमेव च । ब्रह्मविद्व पिणं चैव ब्रह्मस्वहरणोन्मुखम् ॥७४७|| परदारपरं दुष्ट परदारकचिन्तकम् । त्यक्तभायं दत्तपुत्रं पुत्रविक्रयिणं तथा ॥७४८।। मातापित्रोरुपोष्टारं गुरुद्रोहिणमेव च । धनसंग्रहणोद्य क्तमानसं धनिनं कटुम् ॥७४६॥ निर्दयं दानविमुग्वं नास्तिकं परदूपकम् । मणिकारस्वर्णकाररजकादिपुरोहितम् ॥७५०॥ अधिकाशमतृप्त च दुर्वादं दाम्भिकं जडम । बेदकर्मत्यागपूर्वशास्त्रमात्रकृतश्रमम ॥७५१।। नास्तिकं किंभविष्यन्तमृणिनं त्यक्तवेदकम् । त्यनास्नानं त्यक्तसंध्यं निवृत्तक्षुरकर्मकम् ॥७२॥ कृतार्धक्षुरकर्माणं तुच्छं विकसितमेहनम । फल्गु कुजं तथा चान्धं बधिरं भ्रान्तमुल्बणम ।७५३।। उन्मत्तं दुर्वलं सन्नं कोपिनं कुनग्वं रतम ! कुण्डकं गोलकं त्रात्यमशुचि परसूतकम ॥७४।। परान्निनं पराधीनं कर्पकं वार्धपि वृपम् । नृपवृत्तिं वैश्यवृत्तिं शूद्रवृत्ति दुराशयम ॥७१।।
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३०२८
आङ्गिरसस्मृतिः अत्यन्तचपलं श्रान्तमवीरापतिमेव च । तथैव गर्भिणीनाथमभोज्यान्नं दुरागसम् ॥७५६।। अश्रोत्रियसुतं कारुधृतवस्त्रं च दुःशठम् । गायकं व्रणिनं क्षुद्रभाषिणं तुच्छभाषकम् ॥७५७।। हास्यकारं नटं नाट्यविद्य बुरुडकृत्यकम् । क्षुद्रजीवं कार्यजीवं नित्यवेतनजीविनम् ॥७५८॥ न भोजयेत्प्रयत्नेन निमन्त्रणदिनात्परम् । दिनत्रयं वर्जयित्या (त्वा) वृणुयादतिचर्यया ॥७५६।। अनुमासिकभोक्तारं पक्षमात्र परित्यजेत् । ऊनमासिकभोक्तारं मासमात्रं परित्यजेत् ॥७६०।। नमश्राद्ध वर्षमात्रं नवश्राद्ध तदर्धकम् । षोडशे सार्धवर्ष तु सपिण्डे च द्विवत्सरम् ॥७६१।। वर्जयित्वा द्विजं पश्चाग्राहयेच्छ्राद्धकर्मणि । शूद्रामश्राद्धगं सम्यक् त्यजेद्वर्षत्रयं तथा ॥७६२।। नृपवैश्यश्राद्धभिरसाभक्षकं सन्ततं तराम् । वर्जयेदव्दमात्रं तु ग्रामचण्डालकर्मसु ॥७६३।। आमश्राद्धगृहीतारं तदिने नावलोकयेत् । दिवारात्रमसंभाष्यो दिवाकीर्त्यपुरोहितः ॥७६४।। पुण्यकाले त्वसंभाष्यः कुलालानां पुरोहितः । भानुवारे भौमवारे शुक्रवारे च सन्ततम् ॥७६।। असंभाष्यः प्रयत्नेन परसौनपुरोहितः।। पर्वणोर्योगकालेषु द्विजवेश्यापुरोहितः ॥७६६।।
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प्रसादायदर्भदानम्
३०२६ नावेक्ष्या एव चैते वै यदि दृष्टास्तदा तदा। अग्नेमन्वेऽनुवाकस्य पठनात्कृतकृत्यता ॥७६७।। तीर्थप्रतिग्रही दृष्टो यदि श्राद्धदिने तराम् । तीर्थजीवी तदावासी तत्पुरोहित एव च ॥७६८।। यदा दृष्ठस्तदा सूर्य पश्येमेति विलोकयेत् ।
वरणम त्रिपूर्षचर्यावृत्तान्तः स्पष्टो यस्य भवेत्तराम् ॥७६६।। तादृशं प्रयतं दान्तमलोलुपमदाम्भिकम् । यदृच्छालाभसन्तुष्ट श्रोत्रियं वेदिनं शुचिम् ॥७७०।। नित्याग्निं पूर्ववयसं सुधियं सत्कुलोद्भवम् । तस्मात्प्रत्युपकारैकरहितं सुमुखं द्विजम् ॥७७१।। समीक्ष्य वरयेत्सम्यग्ब्राह्मणं श्राद्धकर्मणि। आदौ संकल्प्य प्रयतः सपवित्रकरस्तथा ॥७७२।। दर्भपाणिः कृतप्राणायामोऽत्वरतरस्तराम् । अक्रोधनश्च सुमुखो वाचा संकल्पमाचरेत् ॥७७३।। देशं कालं च संकीर्त्य तथा च प्रकृते ततः । पितन देवान् प्राकृतान्वै समुहिश्य च प्राकृतम् ।।७७४।। करिष्ये कर्म चैवेति संकल्पं प्रथमं चरेत् ।
प्रसादाय दर्भदानम् विश्वेषामत्र देवानां स्थानमाहवनीयके ॥७७।। क्षणं कृत्वा प्रसादोऽद्य करणीय उदीर्यते। इत्येवं दक्षिणे हस्ते दद्याद्दर्भान् द्विजस्य वै ॥७७६।।
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३०३०
आङ्गिरसस्मृतिः एतद्धि वरणं प्रोक्तं पितृणामेवमेव वै ।
मण्डलपूजा कृत्वा तु वरणं पश्चादों तथेति च चोदिते ॥७७७|| कृत्वा तु मण्डलं शुद्ध गोमयेन विधानतः । मण्डलं पूजयित्वादौ दैवं पैतृकमेव च ॥७७८।। मण्डलात्पश्चिमे भागे ब्राह्मणे स्वागतीकृते । तत्रैव विसृजेत्पाद्य क्षालयेन्मण्डलोपरि ७७६।।
गुल्फयोरधः क्षालनम् पादप्रक्षालनं श्राद्ध वरं स्याद्गुल्फयोरधः । पितृणां नरकं घोरं रोमसंसक्तवारिणा ॥७॥ यदि स्याद्रोमसंसक्त पादप्रक्षालने भवेत्। तद्दोषपरिहाराय आजानु क्षालयेत्परम् ॥७८१।।
आचमनप्रकरणम् आदावन्त्ये च पाद्य च विष्ठरे विकिरे तथा । उच्छिष्टपिण्डदाने च षट्सु चाचमनं स्मृतम् ॥७८२।।
कर्तुः पूर्व भोक्तु राचमने कर्ताऽनाचम्य यद्भोक्ता कुर्यादाचमनक्रियाम् । शुनो मूत्रसमं तोयं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥७८३।।
देवादिभोजनदिक उदङ्मुखस्तु देवानां पितृणां दक्षिणामुखः । प्रदद्यात्पार्वणे सर्व देवपूजाविधानतः ॥७८४।।
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विष्ठरवर्णनम्
३०३१ वरणत्रयकाल: केचिद्रात्रौ तु पूर्वेयु स्तहिने प्रातरेव च । कुतपे तहिने भूयत्रिवारं श्राद्धमूचिरे ॥७८५।। सकृदेवेति तज्जामितया श्राद्धं प्रकुर्वते । तत्स्थाने वरणं कृत्वा श्राद्धं सर्वं प्रकुर्वते ॥७८६॥ ओं भूर्भुवः सुवरिति स्वाहान्तमन्त्री वै ततः।
विष्टरः अयं वो विष्टरश्चेति प्रदद्याद्विष्टरं तथा ॥७८७।। स्वधाशब्दं पितृस्थाने सर्वत्रैवं विधीयते । अनेनैव तु मन्त्रेण तत्पूजा विहिता परा ॥७८८॥ अयं हि परमो मन्त्रः पितृणामर्चने महान् । प्रयोक्तव्यः श्राद्धदिने मन्त्राः प्राकृतमातृकाः ॥७८६।। विश्वान देवान् पितृन्वापि संबुध्योचार्य तत्परम् । पूर्वोक्त नैव मन्त्रेण विष्टरं प्रतिपादयेत् ॥६॥ षष्ठयन्तेनासनं दद्यात्क्षणश्च क्रियतामिति । क्षणं दद्यात्तु दर्भेण हस्तसंस्पर्शनेन वा ७६१|| प्राप्नुवन्तु भवन्तश्च तारपूर्वेण वै वदेत् । अध्यं कृत्वा कृतः प्रोक्तः कर्तव्य इति चेत्ततः ॥७६२) दर्भानास्तीर्य भूपृष्ठ. तत्र पात्रमधोबिलम् । निक्षिप्य तदुपर्येवं दभैराच्छिद्य वै ततः ॥७६३॥ उद्धृत्य प्रोक्ष्य तत्पात्रे यवानिक्षिप्य शम्बरम् । भूर्भुवःसुवरापूर्वगन्धाक्षतसुमादिकम् ॥६४॥
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३०३२
आङ्गिरसस्मृतिः तत्र निक्षिप्य तच्चाम्भस्तद्धस्तेऽयं प्रदापयेत् । आवाहनं च तत्पूर्व परं वा तत्कृताकृतम् ॥७६५।। यदि कर्तव्यधीः स्याच्चत्तदा व्याहृतिभिश्चरेत् । या दिव्या इति वा नो चेदेवा वोऽयमिति ब्रुवन् ॥७६६।। दद्यात्तमध्यं देवेभ्यः पितृभ्यश्च क्रमेण वै। आवाहने विश्वेदेवा उशन्तस्त्विति युग्मकम् ॥७६७।। उभयत्र प्रकथितं केचनात्रापरामृचम् । विश्वेदेवास इत्येकां विश्वेदेवेति वै पराम् ॥७६८।।
आगच्छन्त्विति तां चापि देवार्थे प्रजपन्ति वै । पितृस्थान उशन्तस्त्वा आयन्तु न इतीव वै ॥७६६।। प्रजपेयुः केचनात्र तदेतत् कथितं परम् । कृताकृतं प्रकथितमनुक्ताबाधकं न तु ॥८००।। वेदमात्रानुक्तितस्तु गन्धाक्षतयवादिकम् । धूपदीपदुकूलादि कृत्स्नं यज्ञोपवीतकम् ॥८०१॥ सर्व व्याहृतिभिर्दद्यात्तूष्णीं वा तद्यथारुचि ।
अग्नौकरणम् ततोऽनौ करणं कुर्याद्यदि पूर्व स्वसूत्रतः ॥८०२।। अनुक्तमन्त्रैः काश्चित्तु कृताः स्युस्ताः क्रियास्ततः । तत्पूर्वकृतसंकल्पकर्ममध्याधिकत्वतः ॥८०३।।
पुनःसंकल्पप्रकरणम् तत्किचिद्विगुणीभूयात् तद्वगुण्यत एव वै। पुनः संकल्पयित्वैव तत्पूर्वकक्रियां चरेत् ॥८०४।।
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परिवेषणेपौर्वापर्यवर्णनम् ३०३३ सर्वत्रैवं विजानीयात् तत्तत्संकल्पकर्मसु । न चेदेकस्य संकल्प एकधैव भवेद्धि वै ॥८०॥ आसमाप्तेविधानेन प्रकृते पैतृके किल । अनुक्तमन्त्रपठनात् पुनः संकल्पमाचरेत् ॥८०६।। यद्युक्तमण्त्रमात्रेण यत्कर्म चलति स्थले । तत्कर्ममध्ये । पुनः संकल्पः प्रभवेद्धि वै ॥८०७॥ तस्मात्संकल्पयित्वाऽथ चाग्नौकरणमारभेत् ।
परिवेषणप्रकारपौर्वापर्यम् संपरिस्तीर्य विधिना दर्भस्तैर्दक्षिणायकैः ॥८०८॥ अन्नमादाय पक्कात्तु चोपस्तीर्य ततः पुनः । मेक्षणेनान्नमादाय मन्त्रमेतं श्रुतीरितम् ॥८॥ प्रतिकल्पैकपठितं सोमायेति हुनेद्धविः। तच्छेषेण यमायेति अग्नयेति च तत्परम् ॥८१०॥ उद्देशत्यागमानं च प्राचीनावीतिनैव वै। समुच्चार्य पुनश्चैव परिषिच्याप्रदक्षिणम् ॥८११॥ अमन्त्रकं विधानेन तदन्नं शिष्टमुद्धृतम् । अर्ध क्षिपेद्विप्रपात्रे दत्वा हस्तोदकं ततः ।।८१२॥ देवपात्रेऽभिघार्याथ पूर्ववञ्च विधानतः । अन्नं च पायसं भक्ष्यं व्यञ्जनानि फलानि च ।।८१३।। पयो मधु घृतं चान्ते सूपं तु परिवेषयेत् ।
अग्रे सूपदाने यदि सूपादथ पुनर्वस्तु स्यात्परिवेषितम् ॥८१४।।
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३०३४
आङ्गिरसस्मृतिः तद्राक्षसं भवेच्छाद्धं तथा तस्मान्न चाचरेत् ।
रक्षोनमन्त्रम् अन्नमाज्येनाभिघाय गायच्या प्रोक्ष्य तत्परम् ॥८१।। दधिनान्नं (दर्भेणान्न) च प्रच्छाद्य चाहमस्मीति सूक्तकम् । प्रपठेदन विधिना राक्षोन्नश्रुतिमध्यगम् ॥८१६।।
येन केनाप्युच्चारणमसमर्थस्य स्वयं यद्यसमर्थश्चन्मन्त्रोच्चारणकर्मणि । येन केन च विप्रेण वाचनीयं प्रयत्नतः ॥८१७|| नैते मन्त्रा याजमाना अत्रोक्ताः किल कर्मणि । राक्षसानां विनाशाय वेदघोषः प्रशस्यते ॥८१८।। स घोषो ब्राह्मणैः कतुं शक्यते प्रकृते किल ।
उष्णं दातव्यम् अन्नं वस्तूनि यानीह पात्रेण सह केवलम् ॥८१६।। चुल्लिस्थानि भवेयुर्हि तेभ्यः पात्रेभ्य एव वै । दर्विभ्यश्च समुद्धृत्य स्वल्पं स्वल्पं यथोष्मकम् ।।८२०॥ यदा भवेत्तदा तत्र विप्रेभ्यः परिवेषयेत् । ऊष्मभागा हि पितरश्चोष्मशून्यं न पैतृकम् ॥८२१।। भवेदेव न सन्देहः पश्चादन्नं यथा पुरा । विप्रहस्ते जलं दत्वा गायत्र्या प्रोक्ष्य वै ततः ।।८२२।। यदैवाहवनीयं वै दक्षिणाग्निं विधानतः । नित्यं वै गार्हपत्यं च परिषिञ्चति मन्त्रतः ।।८२३।।
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मन्त्रवैकल्यनाशाय वेदघोषवर्णनम् ३०३५ सत्यं त्वर्तेन विधिना ब्राह्मणं परिषिच्य वै । पृथिवी तेति तत्सर्वमभिमृश्य ततः पुनः ॥८२४॥ समुपस्पर्शयित्वाथ पित्रादिभ्यो निवेदयेत् । प्रधानमेतद्धोमश्च समुपस्पर्शनं पुनः ॥८२५।।
मन्त्राः वाच्याः एतन्मन्त्रत्रयं वाचा यजमानः समुच्चरेत् । एतन्मन्त्रत्रयं श्राद्ध प्रधानकमिहोच्यते ॥८२६।। तथा पिण्डप्रदानस्य मन्त्राः केचन चोदिताः। एतदुच्चारणाशक्तौ व्यथं श्राद्धं भवेत्किल ॥८२७|| तस्माद्यत्नेन महता होमाग्नेय इति त्रयम् । द्वयं वाथ पुनश्चैकं पृथिवी तेति किंचन ॥८२८।। अन्नाभिमर्शने प्रोक्तममृतोपस्तराणकम् । पञ्च प्राणाहुतौ मन्त्राः प्राणायेत्यादिकाः पराः ।।८२६।। यथावदेव वाचा ते प्रवाच्या श्राद्धकर्मणि । न चेच्छ्राद्धं भवेन्नैतदेतैर्मन्त्रैर्भवेद्धि तत् ॥३०॥ पश्चात्पिण्डप्रदानेऽपि मन्त्रा वाच्याश्च भक्तितः।
मन्त्रवैकल्यनाशाय वेदघोषः भोजने समुपक्रान्ते वेदघोष प्रयत्नतः ॥८३१॥ कारयेद्विप्रमुखतः ऋग्यजुःसामभिस्तराम् । तेन वैकल्यदोषा ये रक्षोभिः परिकल्पिताः ॥८३२॥ सद्यो नष्टा भवेयुर्हि तस्मादेव तथाचरेत् । यथान्यघोषो विप्राणां शृणुयानात्र केवलम् ॥८३३।।
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३०३६
आङ्गिरसस्मृतिः तथा घोषः प्रकर्तव्यः स्वयं परमुखात्तथा। यत्नात्कारयितव्यश्च न चेहोषो महान् भवेत् ॥८३४।। वेदोच्चारणसामर्थ्यविकलो यदि तत्करः। नमो वः पितरो मन्त्रमात्रं भक्त्या जपेत्तु वै ॥८३।। इदं विष्णुाहृतीर्वा गायत्री वा विधानतः। विष्णोरराटमन्त्रं वा गायत्री वैष्णवीमपि ॥८३६।। न चेत्तु पौरुषं सूक्तमथवा तं त्रियम्बकम् । आ वो राजानमन्त्रं वा मधुत्रयमथापि वा ॥८३७।। नमो ब्रह्मण्यमन्त्रं वा दश शान्तिषु कामपि । स्वाधीनां तामृचं नो चेद्गायत्रीं सर्वशून्यदाम् ।।८३८।। प्रतद्विष्णुमन्त्रमिरावती धेनुमतीति च। यजमानः स्वयं प्रीत्यै पितृभ्यो प्रवदेत्तराम् ॥८३६॥ भोजनान्ते च संपन्नं प्रददेत्पुरतः स्थितः । तृप्ताः स्थेति द्विवारं तदुक्त्वा दद्यात्तदन्नकम् ॥८४०॥ तत्रैव विकिरेत्पात्रसमीपे तत्पुरः स्थितः । उच्छिष्टपिण्डं च दद्यादुत्तरापोशनं ततः ॥८४।। सर्वाण्येतानि शिष्टानामाचारेण न चोक्तितः । सूत्रकारस्य वेदस्य कृतेऽभ्युदयमुच्यते ॥८४२।। अकृते प्रत्यवायो न पुनरन्यानि केवलम् । तत्तक्रियाविशेषेषु तूष्णीकं वेदमन्त्रकैः ॥८४३।। अत्रानुक्त महाकालविलम्बो बाधकाय वै । भवेदेव न सन्देहः श्राद्धमन्त्रो य ईरितः ॥८४४||
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शास्त्रविरोधित्यागवर्णनम्
३०३७ तन्मात्रस्य समीचीनप्रोक्त्यै तत्कर्म साधु वै । भवेत्किलान्यथा तद्धि किं भवेदिति साधुभिः ॥८४॥ सम्यगालोचनीयोऽतो श्राद्धमन्त्रोक्तिमात्रतः। यावान् कालविलम्बः स्यात्तावानेवात्र केवलम् ।।८४६।। प्रामाणिको हि तद्भिन्नोऽविहितश्च विधानतः। कर्मणो बाधकायैव साधकाय भवेन्न तु ॥८४७|| तस्माद्विद्वान् सूत्रवेदविहितं यावदेव वै। तावदेव प्रकुर्वीत सर्वसौख्याय केवलम् ॥८४८॥ आत्मनो ब्राह्मणानां च भोक्तृणां शास्त्रवर्त्मनः ।
शास्त्रविरोधि त्याज्यमेव यथावदेव कुर्वीताधिकं शास्त्रविरोधि यत् ॥८४६॥ सर्व सम्यक्परित्याज्यं विहितं यत्तदाचरेत् । विप्राणां भोजनात्पश्चात्तच्छास्त्राधिककृत्यतः ॥८५०।। समागतात्पुनः प्रोक्तः संकल्पो नान्यथाचरेत् । अपां मध्येन चाच्छिन्द्य दर्भान् मूलैः सकृद्धतैः ।।८५१॥ शुन्धन्तां पितरः प्रोक्ष्य आयन्त्वित्यभिमन्त्र्य च । सकृदाच्छिन्नमन्त्रेण संस्तीर्यैव ततः पुनः ॥८५२।। मार्जयन्तेति मन्त्रेण · ततो दद्यात्तिलोदकम् । सकृदाच्छिन्नदर्भेषु त्रिषु स्थानेषु तत्परम् ॥८५३।। एतत्तेति च मन्त्रेण दद्यात्पिण्डत्रयं पुनः । यन्मे मातेति मन्त्रं तत् पितृभ्य इति वै पुनः ॥८५४॥
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३०३८
आङ्गिरसस्मृतिः अत्र पितरोऽमुत्र च अमी मदमतः परम् । ये समानास्ततो भूयो येन जातास्ततः परम् ॥८५५।। वीरं धत्तेति तत्प्राश्याघ्राय वा तत्परं पुनः। मार्जयन्तेति मन्त्रेण पूर्ववच्च तिलोदकम् ॥८५६।। दत्वाञ्जनाभ्यञ्जने च वासश्छित्वा विधानतः। नमो व इति मन्त्रेण नमस्कारान् समाचरेत् ॥८५७।। गृहान्न इति मन्त्रं च ऊजं वहन्तीमनुं ततः । उत्तिष्ठत पितरो मनो न्वाहुवेति मन्त्रकम् ॥६५८।। पुनर्न इति भूयश्च यदन्तरिक्षमिति वै । मन्त्रान् जप्त्वा क्रमेणैवं पिण्डांस्तान्पूजयेत्ततः ॥८५६।। पितृपिण्डार्चनं यैस्तु क्रियते दर्भपत्रकैः । तण्डुलैरक्षतैः पुष्पैस्तिलैरपि यवैस्तथा ॥८६०।। प्रीणिताः पितरस्तेन यावच्चन्द्रार्कमेदिनी ।
पुत्रकलत्रादिभिः पितृप्रदक्षिणनमस्कारः वासोभिः पूजयेत्पिण्डान् यथाशक्त्या विचक्षणः ।।८६१।। दक्षिणाभिश्च ताम्बूलैधूपदीपादिभिस्तथा । प्रदक्षिणनमस्कारैः पुत्रपौत्रादिभिः सह ॥८६॥ कलत्रैः परिवारैश्च न चेत्तस्य कुलं तराम् । न वर्धते क्षीयते च काले काले शनैः शनैः ॥८६३।। त एव पिण्डाः पितरस्तद्र पेण स्थिताः परम् । भवेयुः पूजनार्थाय नात्र कार्या विचारणा ||८६४॥
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श्राद्धदिनशूद्रभोजनवर्णनम् ३०३६ अप्रत्यक्षा हि पितरो वायुरूपं समाश्रिताः। आकाशरूपमापन्नाः कालभेदेषु सन्ततम् ॥८६॥ नित्यमाकाशरूपास्ते श्राद्धकालेषु भक्तितः । समाहूतास्तदा सद्यो वायुरूपं समाश्रिताः ॥८६६॥ समायान्ति मनोवेगात्पिण्डकाले तु ते पुनः । तत्प्रविश्यैव पुत्राणां हिताय क्षणमञ्जसा ॥८६७॥ तिष्ठन्ति किल तत्पूजास्वीकाराय ततो यतन् । तत्पूजा विधिना कुर्यात्ततश्चेत्पुत्रकामुकः ॥८६॥
__ मध्यमपिण्डं परिमृज्य प्रयच्छेन्मध्यमं पिण्डं धर्मपत्न्यै समन्त्रकम् । आधत्त पितरश्चेति ततः सा नियता शुचिः ॥८६॥ प्रगृह्याञ्जलिना भक्त्या प्राङ्मुखी मौनमाश्रिता। तं प्राश्य विधिनाचम्य तत्पश्चात्तु त्रिरात्रकम् ॥८७०।। कुर्वन्ती भोजनं भतुर्भुक्तः पश्चात्सकृच्छुचिः। मुदिता हर्षितातीव दुःखिता मलिना तथा ॥८७१।। भावयन्ती महारुद्र तं कालं निनयेदपि । तावन्मात्रेण च ततः सा पुत्रं पुष्करस्रजम् ॥८७२।। लभते नात्र सन्देहो यदि सा स्याद्रजस्वला ।
श्राद्धदिने शूद्रभोजने न शूद्र भोजयेच्छ्राद्ध गृहे यत्नेन तद्दिने ॥८७३।।
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३०४०
आङ्गिरसस्मृतिः श्राद्धशेषं न शूद्रभ्यो न दद्यात्तु खलेष्वपि ।
पितृभोजनपात्रस्य खननम् पितुरुच्छिष्टपात्राणि श्राद्ध गोप्यानि कारयेत् ॥८७४।। खनित्वैव विनिक्षिप्य यथा श्राद्ध न गोचरम् ।
सोदकुम्भम् कृतेऽकृते वा सापिण्ड्ये मातापित्रोः परस्य वा ॥८७५।। तस्याप्यन्नं सोदकुम्भं दद्यात्संवत्सरं द्विजः । अदैवं पार्वणश्राद्ध सोदकुम्भमधर्मकम् ॥८७६।। कुर्यादाब्दिकपर्यन्तं संकल्पविधिनान्वहम् । कुर्यादहरहः श्राद्धममावास्यां विना सदा ॥८७७|| यत्सोदकलशश्राद्धं न कुर्यादनुमासिके।
प्रथमान्दे न तिलतर्पणम् प्रथमाब्दे न कर्तव्यं तिलतर्पणमित्यपि ॥८७८।।
सपिण्डीकरणात्परं श्राद्धाङ्गतर्पणम् यदेतत्तत्तु कथितं वत्सराटदे सपिण्डने । एकादशे द्वादशे वा सपिण्डीकरणं यदि ॥८७६।। कृतं चेत्तत्पुरं सम्यक् सद्यः श्राद्धाङ्गतर्पणम् । कुर्वीतैव तथा दर्श प्रतिमासं पृथक् पृथक् ॥८८०|| अकृते तर्पणे भूयः पितरस्तस्य केवलम् । भवेयुदु:खिता घोरं पुनः प्रेतत्वशङ्कया ॥८८१।।
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श्राद्ध निमन्त्रित ब्राह्मणपूजावर्णनम् ३०४१ तेषां शङ्कानिरासाय मासिकेष्वङ्गतर्पणम् । श्राद्धान्ते विधिना कार्य सद्य एव न संशयः ॥८८२॥ प्रतिमासं तदा दर्श यच्छ्राद्ध तर्पणादिकम् । असंशयं प्रकुर्वीत न चेदोषो महान् भवेत् ॥८८३।। श्राद्धभुक्तः परं तेषां द्विजानां करशुद्धये । तिलहस्तोदकं कायं षड्वारं दर्भपुञ्जतः ॥८८४|| न चेत्तत्करशुद्धिश्च न भवेदेव केवलम् । मद्गोत्रं वर्धतां देव पितृणां च प्रसादतः ।।८८।। इति ब्राह्मणपादेषु सपर्या तां तदाचरेत् । विश्वेदेवप्रसादं च पितृणां च प्रसादकम् ॥८८६।। स्वीकृत्य शिरसा गृह्य देवाश्च पितरस्ततः। स्वस्ति व्रतेति वाचोक्त्वा ह्यक्षयोदकमित्यपि ॥८८७|| अस्त्वित्यपि च तद्धस्ते शम्बरं सतिलाक्षतम् । यथाक्रमेण दद्याच वाचयिष्ये स्वधां तथा ॥८८८॥ स्वाहामपि च संप्रार्थ्य वाच्यतामिति तस्ततः। संप्रोक्तस्तु ऋचे त्वेति धारां तां प्रवदेत्पराम् ॥८८६।। पितृभ्यश्च पथमतः पितामहेभ्य एव च । प्रपितामहेभ्यश्च तद्वत स्वधास्ता वाच्यतामिति ॥८६०|| त्रु वन्तु च भवन्तो वै ओं स्वधामिति वै वदेत् । संपद्यन्तां स्वधाश्चेति देवाश्चापि तथा पुनः ।।८६|| प्रीयन्तां पितरः पश्चापितामहास्ततः किल । प्रपितामहाश्च पितरस्तद्धस्ते सलिलं क्षिपेत् ॥८४२||
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३०४२
आङ्गिरसस्मृतिः
पितृणां रजतं, देवानां स्वर्णम् ततः श्राद्ध कसाद्गुण्यहेतवे दक्षिणां मुदा । यथाशक्त्या प्रदद्याच्च पितृणां रजतं परम् ॥८६३॥ हिरण्यं चापि देवानां वाजेवाजेति वै वदेत् । उत्तिष्ठतेति पितरः अनुगच्छन्तु देवताः ॥८६४॥ इत्युद्धास्य तु तान् पश्चादन्नशेषोऽखिलः पुनः । क्रियतां किमिति प्रोक्त चेष्टः स उपभुज्यताम् ।।८६५।। इत्युक्तस्तु ततो भूयः स्वादुष सद इत्यतः । उपस्थानं पितृणां तु कुर्यात्प्राञ्जलिना द्विजः ॥८६॥ तेषां तामाशिषं गृह्य प्रणिपत्य विधानतः । अनुव्रज्य विधानेन स्वगृहस्यान्तिमे त्यजेत् ॥८६७।। न चेत्सर्वत्र ताः प्रोक्ताः परा व्याहृतयः शिवाः । न चेत्तु वामदेवाय मन्त्रं परममुत्तमम् ॥८६८।। प्रवदेत्तेन मनुना यद्यद्वगुण्यमागतम् । कर्ममध्ये पैतृकेऽस्मिन् ज्ञानाज्ञानत एव वै ॥८।। कर्तृ भोक्तृमहादोषद्रव्यकालादिसंभवाः । लोभमोहाज्ञानचित्तकायकृत्यविशेषजाः ॥६००।। महापराधाः सुक्रराः परीहारैकवर्जिताः । ते सर्वे स्मरणात्तस्य महामन्त्रस्य वैभवात् ॥६०१॥ सपो विलयमायान्ति कर्मसाद्गुण्यमप्यति । प्रभवेत्सद्य एवैवं तस्मात्तु मनुमुत्तमम् ॥६०२॥
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उच्छिष्टादिश्राद्ध सप्तपवित्राणि ३०४३ नमोद्वादशसंयुक्त पठनीयं सकृत्किल । तावन्मात्रेण तत्कर्म परमं तृप्तिकारकम् ॥१०॥ अच्छिद्रं सद्गुणं साङ्ग विकलैकविवर्जितम् । प्रत्यवायकरहितं गयाश्राद्धशताधिकम् ॥६०४॥ भवत्येव न सन्देहस्तस्मात्तन्मन्त्रमुच्चरेत् ।
उच्छिष्टादि श्राद्ध सप्त पवित्राणि उच्छिष्ट शिवनिर्माल्यं वमनं प्रेतपर्पटम् ॥१०॥ श्राद्ध सप्त पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः । पयसो वत्सपीतत्वादुच्छिष्टमिति नाम तत् ॥६०६।। भगीरथप्रार्थनया तद्गङ्गात्यवलेपहा । तिरोधानं जटारण्ये कृत्वा तामधरद्यतः ॥६०७।। तन्निर्माल्यं ततो गङ्गा सा प्रीत्यै परमा स्मृता। सा नित्यशुद्धा तद्योगाद्गङ्गा पतितपावनी ॥६०८।। निर्दोषा सैव कथिता तद्भिन्ना सप्त याश्च ताः। . अशुद्धाश्च कदाचित्स्युः शिवाङ्गपतिता तु सा ॥१६॥ अत्यन्तैकपवित्रा हि नान्या वै तत्समा सरित् । तदीयोदकसंबन्धाद्यत्पित्र्यं कर्म तत्तु वै ॥१०॥ अपवित्रसहस्रभ्यो मुक्त सद्यो भविष्यति । पितरो नित्यतृप्रास्ते नष्प्रक्षुत्काः पितामहाः ॥६११।। पारमेश्वरसायुज्यं लभन्ते प्रपितामहाः । अप्यन्ये कुलजा एव स्युस्ते कुलसहस्रकम् ॥१२॥
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३०४४
आङ्गिरसस्मृतिः तच्चापि वैष्णवं धाम तत्क्षणात्प्रापितं भवेत् । त्रिरात्रफलदा नद्यः पुण्ये तदयनद्वये ॥६१३।। अर्धोदये महोदये चक्रिके ग्रहणे तथा । पद्मकापिलषष्ठयां वा पुनरन्येषु ताः पुनः ॥६१४।। विधिप्रयत्नरचिताऽवगाहनजपादिकैः । फलप्रदा हि सरितो न तथा जाह्नवी शिवा ॥१५॥ दर्शनस्पर्शनध्यानर्जन्तूनां जन्ममोचनी । तदुत्तरक्षणाद्गङ्गा तद्भार्गतनुसंभवा ॥६१६।। सिंहकर्कटयोर्मध्ये सर्वा नद्यो रजस्वलाः । दिनत्रयमसंस्पृश्यास्तत्रादौ याः सरिद्वराः ॥६१७||
महानद्यः गोदावरी भीमरथी तुङ्गभद्रा च वेणिका । तापी पयोष्णी दिव्या स्युर्दक्षिणे तु सरिद्वराः ॥६१८॥ पावनी नर्मदा चैव यमुना च महानदी। सरस्वती विशोका च वितस्ता च तथा पुनः ॥११॥ दक्षिणायनकाले तु संप्राप्ते चावगाहनात् । परं त्रिदिनपर्यन्तं भवेयुस्ता रजस्वलाः ॥२०॥ न तु सा शम्भुसंबन्धान्नित्यशुद्धा प्रकीर्तिता। जाह्नवी सरितां मुख्या सर्वलोकैकपावनी ॥६२१।। लादनी पावनी कामा कामनीया कलावती । करका कलुषत्री या नागाश्चैतास्तुरीयकात् ॥६२२।।
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दिनसङ्खथया नदीनां रजस्वलात्ववर्णनम् ३०४५ दिवसात् प्रभृति प्रोक्तास्तिस्रो रात्री रजस्वलाः । सप्तमीप्रभृति ह्यवं सरितः काश्चनापराः ॥६२३।। नलिनी निर्मला नारा गुर्वी गर्भा गरा धरा । क्षरिका काशिका श्यामा दश प्रोक्ता रजस्वलाः ॥६२४॥ दारिद्रयनाशिनी देया बाहुदा बहुला बला। शर्मिष्ठा शयना स्वापा नव नद्यो रजस्वलाः ॥१२॥ दशमीप्रभृति प्रोक्तास्तिस्रो रात्रीर्मनीषिभिः। तप्ता तापा तापसा च विश्वामित्रा बृहद्वरा ॥२६॥ धेना सेना सना सोमा नव नद्यो रजस्वलाः । त्रयोदशीप्रभृत्येता कथितास्ता रजस्वलाः ॥२७॥ कलिका वरुणा वामा सोमदा महिला कला। त्वरिता लुलिता तारा षोडशप्रभृति स्मृताः ॥६२८॥ तिस्रो रात्रीरापगास्ता महाशुद्धा रजस्वलाः । गारुत्मता गतिमती गतिदा गणवारिता ॥२६।। गुणाढ्या गुणदा शेषा सप्त नद्यः प्रकीर्तिताः । एकोनविंशतिदिनप्रभृत्येता रजस्वलाः ॥६३०॥ शातद्रुश्च शतद्रुश्च वरणी वारुणी रसा। हिरण्यदा हैमवती गजवासी मनस्विनी ॥३१॥ रजस्वला नवैताः स्युभविंशतिदिनादितः । करतोया कालतोया वर्षतोया सरदसा ॥६३२।। अन्तर्जला खेयतोया बृहत्तोया स्रवज्जला । पञ्चविंशत्यादितो वै विज्ञेयास्ता रजस्वलाः ॥६३३।।
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३०४६
आङ्गिरसस्मृतिः अष्टाविंशत्प्रभृति वै याः काश्चन जनैः किल । नदीति नित्यं कथ्यन्ते खन्यन्ते च तदा तदा ॥६३४।। नदीगा: सिन्धुगा वापि पर्वतादिसमुद्भवाः । यत्र कुत्रापि वा जाताः क्षुद्रा दीर्घा जलैर्यताः ।।१३।। वर्षाजलाश्च खननजला लवणशम्बराः । सर्वास्ताः कथिताः सद्भिर्मासान्ते स्यू रजस्वलाः ।।६३६।। विशेषेणाधुना प्रोक्ताः सर्वासां सरितामपि । प्रसंगात्तत्स्वरूपस्य माहात्म्यं च तथाविधम् ॥१३७।। उक्तप्रायं विजानीयाद्या वा नित्यजलाः पुनः । उत्तमा इति ताः प्रोक्ता नदीनां सिन्धुसंगतः ॥६३८॥ आधिक्यं तत्प्रकथितं पुण्यक्षेत्रादिना तथा । क्षेत्रं चापि तथा ज्ञेयं नदीयुग्मैकमेलनात् ॥६३।। खननोत्पन्नसलिला तन्न्यूना कथिता तथा । खननाच्चाधिकजला तच्छष्ठा वै स्मृताखिलैः ॥६४०॥ पञ्चयोजनपर्यन्तप्रवहत्सलिलोत्तमा। उत्पत्तिप्रभृतिस्थैर्यवहत्सलिलसंयुता ॥६४१॥ परमा चोत्तमा चेति सा गङ्गेति च फण्यते । नदीनां प्रवरा गङ्गा तज्जलं श्राद्धकर्मणि ॥६४२।। पावनं परमं प्रोक्त वमनं मधु चोच्यते । तत्प्रेतपर्पटं साक्षात्पितणां दुःखवारकम् ॥६४३।। खड्गपात्रं हि कुतपो दौहित्रो वा पुनः स्मृतः । शिवनिर्माल्यतः श्राद्धवैगुण्यं तत्प्रशाम्यति ॥६४४||
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अनुमासिकायु च्छिष्टवमने विधिवर्णनम् ३०४७ पुनःकरणसंप्राप्तौ शिवनिर्माल्ययोगतः । प्रनष्टः प्रभवेदोषस्ते चात्रापि वदाम्युत ॥१४॥
पुनःश्राद्धप्रकरणम् विप्रवान्तावग्निनाशे पिण्डे च विदलीकृते । पिण्डगोलकसंयोगे दीपनाशे तथैव च ॥६४६॥ रजस्वलानाथभुक्तौ बुद्धिपूर्व तथैव च । अशौचभुक्तावाशौचिसंस्पर्श होमविस्मृतौ ॥६४७|| अतिथौ तदिनभ्रान्त्या संकल्पकरणेऽपि वा। एकस्मिन्नेव दिवसे पित्रोद्यत्यासतः कृतः ॥६४८॥ तद्दिने चोपवासः स्यात्पुनः श्राद्ध परेऽहनि । आद्यश्राद्ध तु भुञ्जानविप्रस्य वमनं यदि ॥६४६|| यत्ते कृष्णेति मन्त्रेण होमं कुर्याद्यथाविधि । षोडशश्राद्धभुञ्जानब्राह्मणस्तु वमेद्यदि ॥६५०।। प्रेताहुतिस्तु कतव्या लौकिकाग्नौ यथाविधि ।
अनुमासिकाधु च्छिष्टवमने अनुमासिकेऽत्र कतव्य उच्छिष्ट वमनं यदि ॥१५॥ कवले तु सुभुञ्जाने तृप्ति चैव विनिर्दिशेत् । अमावास्यामासिके च ब्राह्मणो मुखनिः तम् ।।६५२।। तथा महालयश्राद्ध पित्रादेवमनं यदि । पितामहादिवत्कृत्वा श्राद्धशेष समापयेत् ॥६५३।।
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३०४८
आङ्गिरसस्मृतिः
उच्छियोच्छिष्टसंस्पर्श उच्छिष्टन तु संस्पृष्टो भुञ्जानः श्राद्धकर्मणि । शेषमन्नं तु नाश्नीयात्कर्तुः श्राद्धस्य का गतिः ॥६५४|| तत्स्थाननामगोत्रेण ह्यासनादि तथार्चयेत् । अन्नत्यागं ततः कृत्वा पावके जुहुयाञ्चरुम् ॥१५॥ पुरुषसूक्त न जुहुयाद्यावद्द्वात्रिंशदाहुतिः । होमशेपं समाप्याथ श्राद्धशेष समापयेत् ॥६५६।। अकृत्वा तु समीपे तु ब्राह्मणे वमनं यदि । पुनः पाकं प्रकुर्वीत पिण्डदानं यथाविधि ॥६५७|| उच्छिष्टस्पर्शनं ज्ञात्वा तत्पात्रं च विहाय च । तत्पात्रं परिहृत्याथ भूमि समनुलिप्य च ॥६५८|| तस्य शीघ्र विधायैव सर्वमन्नं प्रवेष्टयेत् । परिषिच्य ततः पश्चाद्भोजयेच्च न दोषकृत् ॥६५६।।
अन्योन्यस्पर्श श्राद्धपङ्क्तौ तु भुञ्जानावन्योन्यं स्पृशतो यदि । द्वौ विप्रो विसृजेदन्नं भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ।।६६०।। उच्छिष्टोच्छिष्टसंस्पर्श शुना शूद्रण वा तथा । उपोष्य रजनीमेकां पञ्चगव्येन शुध्यति ॥६६॥ इन्द्राय सोमसूक्त ने श्राद्धविघ्नो यदा भवेत्। अग्न्यादिभिर्भोजनेन श्राद्ध संपूर्णमेव हि ॥६६२॥ इन्द्राय सोमसूक्तन भोजनेनेति च त्रयम् । विधानं कथितं सम्यग्व्यवस्था ह्यत्र चोच्यते ॥६६३।।
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दर्शादौछर्दने पुनःपाकविधानम् ३०४६ पिण्डदानात्परं यस्य कस्यचिद्ब्राह्मणस्य वै। वमनाच्छ्राद्धविन्न तु तदा सूक्तजपाद्धि सा ॥६६४॥ श्राद्धसंपूर्णता ज्ञेया तत्पूर्व चेत्तु दैवके ।
पितामहविष्णुवमने पितामहे तत्परस्मिन् विष्ण्वा वा वमने यदि ॥६६॥ होमेनैव तदा ज्ञया द्वयोर्यदि तदा पुनः । तत्सूक्तजपहोमाभ्यां श्राद्धसंपूर्णता स्मृता ॥६६६॥
दर्शादौ छर्दने पितृस्थानस्य विप्रस्य वमने यदि दर्शके। पुनः पाकेन तच्छ्राद्धभोजनं विहितं तदा ॥६६७।। आब्दिके वानुमासे वा तद्दिनोपोषणं भवेत् । परेऽहनि पुनःश्राद्धं भोजनेनैव नान्यथा ॥६६॥ एक एव यदा घिनो भोजने छर्दितो यदि । आब्दिके तु परेऽढ्य व दर्श वा यदि मासिके ॥६६६|| तथैवाग्निं समाधाय होमं कुर्याद्यथाविधि । तत्स्थाननामगोत्रेण चासनादि समर्चयेत् ॥१०॥ अन्नत्यागं प्रकुर्वीत ततोऽनौ जुहुयाञ्चरुम् । प्राणादिपञ्चभिर्मन्त्रैर्यावद्द्वात्रिंशदाहुतिः ॥१७॥ होमशेषं समाप्याथ श्राद्धशेषं समापयेत् । पुनः पाकेन सद्यो वै श्राद्धम्य करणं स्मृतम् ॥६७२।। दर्शादिष्वेव कथितं न प्रत्यब्दे कथंचन । प्रत्यब्दस्य परेऽहय व स्थानं विप्रस्य तत्स्मृतम् ।।६७३।।
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३०५०
आङ्गिरसस्मृतिः
उपवासार्थः उपावृत्तिस्तु पाकेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह ॥६७४|| उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः ।
अपुत्रासापिण्ड्यम् पन्याः कुर्यादपुत्रायाः पत्युर्मात्रादिभिः सह ॥१७॥ सापिण्ड्यमनुयाने तु जनकेन सहात्मजः ।
अनुगमने मृतं यानुगता नाथं सा तेन सह पिण्डनम् ॥६७६।। अर्हति स्वर्गवासेऽपि यावदाभूतसंप्लवम् । स्त्रीपिण्डं भर्तृ पिण्डेन संयुज्य विधिवत्पुनः ॥६७७। त्रेधा विभज्य तत्पिण्डं क्षिपेन्मात्रादिषु त्रिषु । भर्तुः पित्रादिभिः कुर्याद्भा पन्यास्तथैव च ॥६७८! सपत्न्या वाऽसपत्न्या वा न भेद इति गोभिलः ।
एकादशेऽहनि षोडशम् केचिदत्र पृथक्प्रोचस्तं पक्षं प्रवदाम्यहम् ॥६७६।। एकचिया समारूढौ दम्पती निधनं गतौ । एकोद्दिष्टं षोडशं च पृथगेकादशेऽहनि ॥६८०।। द्वादशेऽहनि संप्राप्ते पिण्डमेकं द्वयोः क्षिपेत् । पितामहादिपिण्डेषु तं पितुर्विनियोजयेत् ॥६८।। केचित्तमेव पिण्डं तु द्वधा कृत्वा ततः परम् । उदग्भागगतं पिण्डं पितृवर्ग नियोजयेत् ॥६८२।।
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सकृन्मातृकपैतृकमरणेप्रधानाप्रधानयोनिर्देशवर्णनम् ३०५१ यं दक्षिणस्थितं पिण्डं मातृवर्गे नियोजयेत् ।
तदिने परेधुर्वा सहगमने श्राद्धम् अत्र केचित्पुनः प्रोचुः प्रकारान्तरतः किल ॥६८३।। तदिने वा परेद्य यं भर्तारमनुगच्छति । भर्ना सहैव शुद्धिः स्यात् श्राद्धं चैकदिने भवेत् ।।९८४॥ पैतृकं मरणं यत्र तदेवाहुः प्रधानकम् । केचित्तु मातृकं प्राहुरेवं पक्षद्वयं स्मृतम् ॥१८॥ प्रचेता अत्र चोवाच स्वमतं तत्प्रवन्म्यहम् । भ; सह प्रमीतायाः मृतेऽहन्यपरेऽह्नि वा ॥६८६॥ आशौचं मरणोद्दिश्यं दहनादि तयोर्न तु। पुनः पक्षान्तरं प्रोक्त कैश्चित्तत्र महर्षिभिः ॥६८७|| पतिव्रता त्वन्यदिनेऽनुगच्छेद्या स्त्री पतिचित्त्यधिरोहणेन । दशाहतो भर्तुरघस्य शुद्धिः श्राद्धद्वयं स्यात्पृथगेककाले ॥६८८
तयोराशौचे मरणादि भर्तारमनुगच्छन्ती पत्नी चेदातवा यदि । तैलद्रोण्यां विनिक्षिप्य लवणे वा स्वकं पतिम् ॥१८६।। परं त्रिरात्रादहनं कुर्युस्ते बान्धवास्तया । श्राद्धं चैकदिने कुर्यु योरपि हि निर्णयः || एकोदिष्ट पोडशं च भर्तुरेकादशेऽहनि । द्वादशेऽहनि संप्राप्ते पिण्डमेकं द्वयोः क्षिपेत् ||६|| पितामहादिपिण्डेषु तं पितुर्विनियोजयेत् । ब्रह्मवादिमतं भूयस्त्वन्यद्वक्ष्यामि शोभनम् ॥६६२॥
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३०५२
आङ्गिरसस्मृतिः दह्यमानं तु भर्तारं दृष्ट्वा नारी पतिव्रता । अनुगच्छेत्तयोः श्राद्धं पृथगेकादशेऽहनि ॥६६३|| शिलाप्रतिष्ठापनादिकृत्यं सर्व पृथक् पृथक् । एकत्रैव प्रकुर्वीत पितुर्मातुः समन्त्रकम् ॥६६४॥ षोडशान्तं पृथक्कृत्वा सापिण्ड्य द्वादशेऽहनि । प्रेतत्वात्तु विमुक्त न सह मातुः सपिण्डकम् ॥६६शा
तत्पिण्डसंयोजनम् स्त्रीपिण्डं भर्तृ पिण्डेन संयुज्य विधिवत्पुनः । त्रेधा विभज्य तं पिण्डं क्षिपेन्मात्रादिषु त्रिषु ॥
६६॥ ___ मातुः सापिण्ड्याभावस्थलम् अत्र विष्णुर्मतं स्वस्य सुलभायावदत्किल । कृते पितुः सपिण्डत्वे मातुस्तु न सपिण्डनम् ॥६६७|| पितुरेव सपिण्डत्वे तस्या अपि कृतं भवेत् । स्त्रीणां पृथङ् न कर्तव्या सपिण्डीकरणक्रिया ॥६६८||
दत्तेन पालकपितुः सापिण्ड्यम् अन्यगोत्रप्रदत्तश्चेत्तनयः स्वपितुस्ततः । पालकस्य प्रकुर्वीत तत्पित्रादिसपिण्डनम् ॥8
दत्तपुत्रकृत्यम् विवादो नात्र कोऽप्यस्ति तादृग्दत्तसुतः पितुः । स्वयं तद्भिन्नगोत्रोऽपि तद्गोत्रे योजयेच्च तम् ॥१०००।।
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अन्यगोत्रदत्तकपुत्रकृत्यवर्णनम् ३०५३ पितामहादिभिः सम्यक् यत्प्राचीनकगोत्रकैः । दत्तपौत्रस्य पितरं प्रपितामहमुख्यकैः ॥१००१।। त्यक्त्वा पितामहं त्वन्यगोत्रं सम्यक् ततः परम् । योजयेन्नात्र सन्देहस्तज्जं तत्प्रपितामहम् ॥१००२।। त्यक्त्वा सम्यग्विचार्यैव स्वगोत्रैरेव योजनम् । कुर्यात्तद्विधिना नो चेत् पितृणां संकरो भवेत् ॥१००३।। तेन दोषश्च सुमहान् प्रभवेदेव दुर्घटः। दत्तपुत्रोद्भवो यत्नात्सपिण्डीकरणे पितुः ॥१००४॥ त्यजेत्पितामहं यत्नात्तत्पुत्रः प्रपितामहम् । तत्पुत्रश्चेत्ततो वृद्धप्रपितामहमेव वै ॥१००५।। एवं मातुः सपिण्डे तु दत्तपुत्रोद्भवश्चरेत् ।
_ अन्यगोत्रदत्तः यद्यन्यगोत्रजो दत्तः सन्ततौ तत्परंपराम् ॥१००६।। चतुष्कुलैकपर्यन्तं जातानां सङ्कटं महत् । तस्मिन् सपिण्डीकरणे तदानीं समुपस्थिते ॥१००७।। भवत्येव हि तत्पश्चात् पञ्चमादि यथाक्रमम् । स्वयमेव भवेत्तावत्तद्वर्गे जन्मिनां महत् ॥१००८।। अवेक्षणं जागरूकता च नित्ये स्मृते तराम् । तस्मात्सगोत्रे तनयं संगृह्णीयादपुत्रकः ॥१००६॥ शिष्टं सर्वं पूर्वमेव मया सम्यङ् निरूपितम् । पुत्रे जाते ततो भूयः पुत्रस्वीकरणादथ ॥१०१०॥
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आङ्गिरसस्मृतिः जातोऽधिकः प्रदत्तात्तु धर्मतः सर्वकर्मसु ।
पितुः श्राद्धस्य षण्मासात्पूर्व प्रभृति कृत्यम् पित्रोः श्राद्धस्य षण्मासात्पूर्वमेव तदा तदा ॥१०११।। श्राद्धस्मृति प्रकुर्वन्वै कथाः काश्चन सन्ततम् । प्रकुर्वन् स्वजनैस्तिष्ठदिष्टान् कांश्चिद्विशेषकान् ।।१०१२।। तिलमाषव्रीहियवान् गुडमुद्गादिकान् मधु । कन्दमूलादिकान् कांश्चिद्वस्वकार्पासकादिकान् ।।१०१३।। संगृह्य स्थापयेद्यत्नादिव्यचन्दनखण्डकम् । दिव्योशीरं गुग्गुलुं च निक्षिपेच्चावनीतले ॥१०१४।। शुष्कान् शलाटुकान् कांश्चिद्गोपयेच्छ्राद्धहेतवे । वृक्षेषु कांश्चिद्यलेन भूम्यन्तर्भूतले तथा ॥१०१।। कुसूलेषु दुकूलेषु पुनः कुम्भघटेषु च । स्थापयेन्निक्षिपेदेवं निखनेकांश्चिदप्युत ॥१०१६॥ समीचीनानि वस्तूनि दृष्टमात्राणि चेत्तदा। श्राद्धार्थमिति निश्चित्य प्रोक्त्वा स्वीयैश्च केवलम् ॥१०१७।। गोपयित्वैव यत्नेन स्थापयेत्पालयेदपि । तदुक्तितत्कथातृप्ताः पितरो नित्यमेव वै ॥१०१८।। आशीभिरेनं सततं वर्धयन्त्यपि तारिताः ।
कथातृप्तिः भवन्ति कथया स्वर्गे पितृलोके च तेऽनिशम् ।।१०१६।। कथया तृप्तिरेतेषां स्मृत्योक्त्या वचनादपि । तदीयकृत्यसंभाषाप्रियवस्तुप्रचारणैः ॥१०२०॥
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विप्रविसर्जनानन्तरमेव दानजपादिकरणविधानवर्णनम् ३०५५
विद्यमानाग्निरपि त्रिदिनात्पूर्व पुनः यत्नादिनत्रयात्पूर्व विद्यमानाग्निरप्यलम् । पुनःसंधानविधिना श्राद्धायामि सुसंस्क्रियात् ।।१०२१॥
__ श्राद्धदिने वय॑म् औपासनं विना होममन्यं होमं तु तदिने । न कुर्यादेव विधिना यदि कुर्यात्तु तत्पतेत् ॥१०२२।।
श्राद्धदिने दानजपादि न कर्तव्यम् दानाध्ययनदेवार्चाजपहोमव्रतादिकान् । न कुर्याच्छाद्धदिवसे प्राग्विप्राणां विसर्जनात् ।।१०२३।। न दद्याद्याचमानेभ्यः फलपुष्पजलाक्षतान् । तण्डुलान् दधितक्राज्यशाकपात्रतॄणस्थलम् ॥१०२४॥ काष्ठमूलकन्दभाण्डविद्यापुस्तकभूषणम् । अणमेवं धनं धान्यं चेलं वाऽनुग्रहादिकम् ॥१०२५।। कल्याणवार्ताकोपादिचाटुपारुष्यभाषणम । बालनिग्रहतग्राहतत्संल्लापादि वर्जयेत् ॥१०२६।। उच्च संभाषणं हस्तताडनं हसनं वृथा । दुरालापं दुष्टलोकभाषणं दुष्टशिक्षणम् ॥१०२७।। नैतानि कुर्याद्यत्नेन प्रत्यब्दे तु विशेषतः ।
मृताहे दर्श दर्शादिषु मृताहश्चेन्मृताहं पूर्वमाचरेत् ॥१०२८।।
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३०५६
आङ्गिरसस्मृतिः पश्चाद्दर्श प्रकुर्वीत पित्रोरेवायमुच्यते ।
मृताहे मातामहादिश्राद्धसंभवे मातामहस्य तत्पत्न्याः सापत्नीमातुरेव च ॥१०२६।। पितुः श्राद्धसमत्वेन प्रोचुः किल महर्पयः । दर्श समागतं मन्वादिकं लाद्धं समाचरेत् ॥१०३०।। दर्शसिद्धिस्तावता स्यादैवतैक्येन केवलम् । सपिण्डकमपिण्डं वा दैवतैक्ये पृथङ् न तु ॥१०३१।। कायं भवति तच्छ्राद्धं भिन्नदैवतके पुनः ।
नित्यनैमित्तिके प्राप्ते पूर्व नैमित्तिकं काय प्रत्यब्दे यदि तत्तदा ॥१०३२।। प्रत्यब्दमागतं प्रत्यासत्तियोगवशाचरेत् । पितुः श्राद्धं प्रथमतो मातुः श्राद्धं ततः परम् ॥१०३३।। पश्चान्मातामहस्यापि तत्पत्न्याश्च ततः परम् । पश्चात्सपत्नीमातुः स्यात्पश्चात्पन्या प्रकीर्तितम् ।।१०३४।। सुतभ्रातृपितृव्याणां मातुलादिक्रमात्स्मृतम् ।
दर्श बहुश्राद्धसंभवे पित्रादिभिन्नश्राद्धानां कारुण्यानां यदा पुनः ॥१०३५।। दर्शादिष्वागतानां चेन्मृताहानां तदा परम् । दर्शादिकं समाप्यैव कारुण्यश्राद्धमाचरेत् ॥१०३६।। केचित्पत्न्याः पितृव्यस्य तत्पत्न्याश्च समागमम् । दर्शादिषु मृताहं वै पूर्व कृत्वा ततः परम् ॥१०३७।।
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सवत्र क्रियाभेदाच्छ्राद्धानुष्ठानवर्णनम् ३०५७ दर्शादिकमनुष्ठ यमिति प्रोचुश्च तत्कृतौ । तस्माद्यथारुचिपरमात्मतृप्तिः प्रशस्यते ॥१०३८।। वस्तुतोऽत्र पुनर्वच्मि पितृव्यो यदि केवलम् । एतस्य परमो मुख्यस्तत्पत्नी वापि पल्यपि ॥१०३६।। मातृत्वकार्यका(क)रणे महती सुमहत्यपि। तदा चेत्तन्मृताहं तु पूर्व कृत्वा ततः पुनः ॥१०४० दर्शादिकं प्रकुर्वीत न चेत्ते केवला यदि । नाममात्रेण कथितास्तदा दर्शादिकं पुरा ॥१०४१॥ कृत्वैव पश्चात्तच्छ्राद्धं कारुण्यानामिति स्थितिः। सर्वत्रैवं प्रकथितं स्वामिनः सख्युरेव वा ॥१०४२॥ पुरोहिताचार्ययोश्च प्रत्यासत्तिप्रभेदतः। श्राद्धस्य करणं प्रोक्त पुनरप्युपकारिणः ॥१०४३।। तेषां तेषां क्रियाभेदाच्छादानुष्ठानमुच्यते । सर्वत्रैवात्मतुष्टिः स्याद्विदुषः परमोत्तमा ॥१०४४॥
केपांचित्कल्पप्रकारः पुनर्विशेषः कोऽप्यस्ति प्रवक्ष्याम्यत्र तं पुनः । यतस्तातो यतो वृत्तिर्यतो जीवो यतः प्रसूः ॥१०४१॥ स स्वीकृतः श्राद्धतिथिभ्रत्यक्तपिताऽपि वा। दर्शादिश्राद्धपरतो मृताहबादमाचरेत् ॥१०४॥ पित्रात्यन्तैककलहे धावनावसरे सुते ।
जाते नष्टे च पितरि तथा मातरि तत्परम् ॥१०४०॥ ११२
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३०५८
आङ्गिरसस्मृतिः अल्पकालमृतायां तु तत्तद्ग्रामस्थितैरपि । तदा तदा पालितो यो दैवाज्जीवन्प्रवर्धितः ॥१०४८।। दृष्टमात्रैर्बाल्य एव विप्रबुध्यैव तैस्तराम् । संस्कृतश्चाध्यापितश्च ज्ञाताज्ञातैकगोत्रकः ॥१०४६॥ अज्ञातप्रामतातादिर्जातजातिर्जनोक्तितः।। ततो विद्वान् महात्मा यो यतस्तात इति स्मृतिः ॥१०५०।। एवमेव तथान्योऽपि तथावस्थाप्रभेदतः । यतो पत्तिस्तु कथिता अज्ञातग्रामसंभवः ॥१०५१।। स्वजीवनप्रकारं यो बाल्ये द्वादशवार्षिकात् । न वेत्ति नष्टजनको यतोत्पत्तिस्तु कथ्यते ॥१०५२।। मातरं यो न जानाति स्वकीयजनशून्यतः । तथा पित्रादिकान् सर्वान् प्रोच्यतेऽसौ यतः प्रसूः ॥१०५३॥ त एते किल सर्वेऽपि विपत्कालसमुद्भवाः । नष्टपित्रादिकजना दैवात्संप्राप्तजीवनाः ॥१० ४॥ यैश्च कैश्चिदृष्टमात्रैविप्रबुध्यैकपालितैः । अवस्थाभेदतः सर्वे तत्तन्नामाङ्किताः स्मृताः ॥१०५५।। चत्वारः कथिताः । सद्भिरतिदुःखैकजीवितम् । अतिबाल्ये ततो भूयो यौवने प्राप्तसंपदः ॥१०५६॥ दैवयोगेन विद्वांसः कर्मठाश्चापि वा भवन् । पितुर्पततिथिं यो वा ज्ञात्वा बाल्येन केवलम् ॥१०५७।। स्वयमेव श्राद्धहेतोर्मार्गशीर्षे ह्यमादिकम् । शास्त्रदृष्ट्या समालोच्य सद्भिरुक्तोऽथवा गृणन् ॥१०५८॥
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सर्वथापतितम्य पञ्चविंशद्वर्षात्परंक्रियारम्भवर्णनम् ३०५६ स्वस्वीकृतश्राद्धतिथिरुच्यते ब्रह्मवादिभिः।
भ्रष्टक्रिया मद्यपानादिना भ्रष्टः पिता यस्य वभूव वै ॥१०५६।। मृतेस्तस्य परं प्रोष्य चतुर्विंशतिवार्पिकम् । भ्रष्टक्रिया प्रकर्तव्या पुत्रेण विदितात्मना ॥१०६०॥ तस्य श्राद्धं ततः कार्य तादृशस्य दुरात्मनः । तापितृक्रियाकर्ता स उ भ्रष्ट्रपिता स्मृतः ॥१०६१॥ पितुस्तु भ्रंशमात्रेण नायं भ्रष्ट्रपिता भवेत् । ताटकमंककरणसमयादथ तादृशः ॥१०६२॥
सर्वथा पतितस्य पञ्चविंशद्वर्षात्परं क्रियारम्भः भवत्यपि तथा त्यक्तपिता चापि प्रकथ्यते । स्वयं चण्डालता बुध्या प्रानो यो स्वजनैरपि ॥१०६३।। वहिष्कृतश्च संत्यक्तस्तादृशं पितरं मृतम् । पञ्चविंशतिवर्पेभ्यः परं पुत्रः स शास्त्रतः ॥१०६४।। पडव्दं पडगुणत्वेन वर्पयित्वातिकृच्छ्रकैः । महाकृच्छ स्तप्रकृच्छ: पराकातिशतैरपि ॥१०६।। चापाग्रस्नानशतकमन्त्रकुम्भसहस्रकैः । गोसहस्र विधानेन संस्कुर्यात्तस्य केवलम् ॥१०६६।। प्रतिसंवत्सरं पश्चात्ताहकच्छाद्धकरस्तु यः । स उ त्यक्तपिता ज्ञेयस्त एते तनयाः सदा ॥१०६७।। एवंजातीयका ये म्युस्ते सर्व धर्मतत्पराः । दर्शादिश्राद्धपरतो मृताहश्राद्धमाचरेत् ॥१०६८।।
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३०६०
आङ्गिरसस्मृतिः तेषां श्राद्ध ककरणमेतेषां स्वस्य केवलम् । प्रत्यवायैकशून्याय न चेदोषो महान् भवेत् ॥१०६६॥ तत्संभूतमहादोषपरिहाराय वा न चेत् । प्राप्तये कर्मठत्वस्य न चेदस्य तु केवलम् ॥१०७०।। श्राद्धत्यागात् प्रत्यवायो भवेत्तस्मात्तथाऽऽचरेत् । नित्यं तेषां मृताहेषु दानधर्मादिकं चरेत् ॥१०७१।। विप्राणां भोजनात्पूर्व नियमोऽयमुदाहृतः । दुरात्मनां विशेषेण पूर्ववद्दोषशान्तये ॥१०७२।। श्राद्धभुक्तः परं तेषां न कुर्याद्भरिभोजनम् ।
श्राद्धाङ्गतर्पणं परेऽहनि परेद्य र्वा प्रयत्नेन श्राद्धाङ्गतिलतर्पणम् ॥१०७३।। सद्य एव प्रकर्तव्यं पूर्व पश्चात्तु वा तथा । अभिश्रवणमेवं स्यादेकेनैव हि कारितम् ॥१०७४।। नान्नसूक्तं त्यागकाले प्राचीनावीतिकं न तु । अनौकरणहोमेऽपि तञ्चावश्यकमुच्यते ॥१०७॥
उद्देशत्यागकाले सव्यम् उद्देशत्यागकाले च सव्यमेव भवेद्धि वै।
- मधुवावाद्यन्ते न मधुवातादिकं भुक्तरन्ते नैव वदेदपि ॥१०७६।।
विकिरं न कुर्यात् विकिरं नैव कुर्वीत नित्यकर्माणि यानि वा । तानि सर्वाणि सर्वत्र धृत्वा पुण्डू विधानतः ॥१०७७॥
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पितृश्राद्धोऽगृहीतभोजनस्य पुत्रस्यप्रायश्चित्तवर्णनम् ३०६१ निवेदितान्नतः पञ्चयज्ञान्तेऽतिथिपूजनात् । पूर्व तेषां प्रकर्तव्यं प्रत्यब्दादिककर्म वै ॥१०७८।। तेषां श्राद्ध त्यागमात्रात्कृते सर्व कृतं भवेत् ।
वमने अपि प्राप्तेऽपि वमने पितृस्थानस्य वा किमु ॥१०७६।। न पुनः करणं कुर्याच्छाद्धशेषं समापयेत् । पादप्रक्षालने तेषां मण्डलानर्चनं भवेत् ॥१०८०।। पादप्रक्षालनार्थाय प्रदेयमुदकं परम् । त एते निखिला धर्मा मृताहे केवलं स्मृताः ॥१०८।। न दर्शादिषु विशेयास्तत्र धर्मा यथोक्तितः । प्रकर्तव्या विशेषेण विकारोऽत्यन्तकुत्सितः ॥१०८२॥ मृताह एव कथितो नान्यतो यत्र कुत्रचित् । श्राद्धान्ते वा परेधुर्वा शक्तो यः पितृकर्मणि ॥१०८३॥ न कुर्यान्मोहतस्तूष्णीं विप्राणां भूरिभोजनम् । अर्धतृप्ता हि पितरो भवेयुर्नात्र संशयः ॥१०८।।
कर्तुर्भोजनाभावे श्राद्धं कृत्वा तु यो मूढो न भुक्त पितृसेवितम् । इष्टः पुत्रैर्बन्धुभिश्च ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ॥१०८।। आचार्यैर्गुरुभिः सद्भिरागताभ्यागतैरपि । पितरो नैव तृप्ताः स्युर्भुञ्जीयात्तेन तृप्तितः ॥१०८६॥ तद्वश्यानामर्भकाणां विप्रभुक्तरेनन्तरम् । तत्कांक्षितानि वरतूनि भक्ष्यादीनि फलान्यसि ॥१०८५।
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३०६२
आङ्गिरसस्मृतिः . स्वच्छन्दतः प्रदेयानि तावन्मात्रेण ते परम् । अतितुष्टा महातुष्टाः परितुधाः प्रहर्षिताः ॥१०८८।। पूजिताश्च भविष्यन्ति तस्माद्वालमनोरथम् । पूरयेपितृप्त्यर्थं तदिनेषु विशेषतः ॥१०८६।। तृप्ताः स्थेति तथा प्रोक्त त्रिवारं पितृसूनुना। भावयन्ति तदा ते वै चेतसा तु वयं तथा ॥१०६०।। तृप्ता जातास्तथा त्वं च तृप्तो यदि तदा वयम् । तृप्ता भूम न चेन्नोऽद्य का तृप्तिरिति वै तराम् ॥१०६१।। दूयमानेन मनसा तिष्ठन्ति किल तेन वै । सम्यग्भुञ्जीत वै पूर्व यथा कुर्वन् भुजिक्रियाम् ।।१०६२।। अतृप्ता एव नो ते स्युरिष्ट पुत्रैश्च बन्धुभिः । विप्रालंकरणे जाते गृहालंकरणं भवेत् ॥१०६३॥ पत्न्यादीनामलंकारः शिष्टब्राह्मणभोजनम् । अन्वेव भोजनं तेषां तदिने क्रियते तु यत् ॥१०६४।। तत्सर्व प्रीतये तेषां भवेदेव न चान्यथा । यद्वा तद्वा प्रकर्तव्यं तत्ततसर्व प्रयत्नतः ॥१०६५।। अनन्तरं विप्रभुक्तः पित्रुद्वासनतः परम् । तत्पूर्व लवमात्रं वा वस्तु किञ्चिदपि स्वयम् ॥१०६।।
तिलद्रोणत्रयः तिलद्रोणवयं कुर्यात्तदिने समुपस्थिते ।।१०६७।। भक्ष्यास्तिलमयाः कार्यास्तिलकल्क विशेषतः । तिलचूर्णं तैलपिष्टं तिलभर्जनमप्युत ॥१०६८।।
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दर्शश्राद्धतर्पणस्वरूपवर्णनम् ३०६३ तिलार्चनं तिलमुखं रक्षोहननमाचरेत् । तिलैर्विकिरणं कुर्याद्रव्यलोपेषु कृत्स्नशः ॥१०६६॥ समीचीनं तिलैः कुर्यात्तिलाः स्युः सोमदेवताः। सोमः पितृणामाधारः सोमायैव तु हूयते ॥११००। सोऽयं हि पितृभिः प्रीतस्तहत्तं कव्यमुत्तमम् । सोमतृप्त्यैकजनकं तस्मात्सोमहुतं हविः ॥११०१॥ तत्कलावृद्धिजनकं सा कला पीयते हि तैः। वस्वादिभिः पितृभिस्तु तदेवं तत्तिलैः सदा ॥११०२।। सर्वश्राद्धषु पितरः पूजनीया विशेषतः ।
. दर्शश्राद्ध तर्पणस्वरूपेण सर्वाभावे विशेषेण तिलैर्जलविमिश्रितैः ॥११०३।। दर्शादिकानि श्राद्धानि कार्याण्येव समन्त्रतः । स्वधा नमस्तर्पयामि पितरं च पितामहम् ॥११०४।। प्रपितामहमेवं च वस्वादिकमयांस्तथा। नामगोत्रैकसंयुक्तान् श्राद्धं कृत्वाऽपि तत्परम् ॥११०।। तदङ्गतर्पणं कार्य मृतस्यादौ तिलोदकम् । समारभ्य क्रियाः कार्यास्तस्मात्सन्तस्तिलोदकम् ॥११०६।। प्रथमश्राद्धमेवोचुः श्राद्धप्रतिनिधित्वतः। तदेवोचुश्च निखिला दुर्बलानां हितेच्छवः ॥११०७॥ समालोक्यैव शास्त्राणि श्रुतिमूलानि ते पुरा । मन्वादयो महात्मानस्तिला स्युम्तादृशाः किल ॥११०८॥
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३०६४
आङ्गिरसस्मृतिः सतिलैविद्यते श्राद्धं विना सर्वत्र केवलम् । मुख्यद्रव्यैस्तिलरद्भिः पैतृक निखिलं भवेत् ॥११०६।। सर्वेषां कर्मणामाद्या आप एव विशेषतः । परमाः कारणानीह तस्माद्ब्राह्मपुंगवाः ॥१११०।। अप एव समाश्रित्य वर्षन्ते तोयदा महत् । जलं तत्रैव वर्तन्ते तदेव परमं स्थलम् ॥११११।। प्रभूतधोदकामः सर्वदेशोत्तमोत्तमः । नदीतीरं विशेषेण तच्छताधिकमुच्यते ॥१११२।। तत्रैव सकला धर्मा अनुष्ठ या हि सन्ततम् । नदी च सजला ज्ञेया न तच्छ्रन्या कदाचन ॥१११३॥
इति पूर्वाङ्गिरसम् इत्याङ्गिरसस्मृतौ पूर्वाङ्गिरसं समाप्तम् ।
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॥ श्रीगणेशाय नमः॥
* आङ्गिरसस्मृतिः *(२)
उत्तराङ्गिरसम्
प्रथमोऽध्यायः
धर्मपर्षत्प्रायश्चित्तानांवर्णनम् विश्वरूपं नमस्कृत्य देवं त्रिभुवनेश्वरम् । धर्मस्य दर्शनार्थाय अङ्गिरा इदमब्रवीत् ॥१॥ अथ त्रयाणां वक्ष्यामि प्रमाणं विधिमादितः। धर्मस्य पर्षदश्चैव प्रायश्चित्तक्रमस्य च ॥२॥ प्रायश्चित्तं चतुष्पादं विहितं धर्मकर्तृभिः । परिषद्दशधा प्रोक्ता त्रिविधा वा समासतः ॥३॥ प्रमाणाभिहितं यत्तु सर्वमङ्गिरसा तदा। अप्रमेयप्रमाणस्य दुःखेनाधिगमो भवेत् ॥४॥ तस्मादङ्गिरसा पुण्यं धर्मशास्त्रमिदं कृतम् । उपस्थानत्रतादेशचर्याशुद्धिप्रकाशनम् ॥ ५॥ स धर्मस्तु कृतो शेयः स्वाधिष्ठानक एव वै। चतुर्भिः साधनैश्चैव धर्मः प्रोक्तः सनातनः ॥६॥
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आङ्गिरसस्मृतिः कृत्वा पूर्वमुदाहार्य यथोक्त धर्मकर्तृभिः । पश्चात्कार्यानुसारेण शक्त्या कुर्युरनुग्रहम् ॥७॥ यत्पूर्वमृषिभिः प्रोक्त धर्मशास्त्रमनुत्तमम् । तत्प्रमाणं तु सर्वेषां लोकधर्मानुवर्णनम् ॥८॥ न हि तेषामतिक्रम्य वचनानि महात्मनाम् । प्रज्ञानैरपि विद्वद्भिः शक्यमन्यत्प्रभाषितुम् ॥६॥ स्वाभिप्रायकृतं कर्म विधिविज्ञानवर्जितम् । क्रीड़ाकर्मेव बालानां तत्सर्वं स्यानिरर्थकम् ॥१०॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे उपोद्धातो नाम प्रथमोऽध्यायः ।
द्वितीयोऽध्यायः
परिषद उपस्थानलक्षणम् अत ऊवं प्रवक्ष्यामि चोपस्थानस्य लक्षणम् । उपस्थितो हि न्यायेन व्रतादेशनमर्हति ॥१॥ सद्यो निःसंशयः पापो न भुञ्जीतानुपस्थितः। भुञ्जानो वर्धयेत् पापं परिषद्यत्र वर्तते ॥२॥ संशये न तु भोक्तव्यं यावत्कार्यविनिश्चयः । प्रमाणेनैव कर्तव्यं यावदाशासनं तथा ॥३॥ कृत्वा पापं न गृहेत गृह्यमानं तु वर्धते । स्वल्पं वाऽथ प्रभूतं वा धर्मविद्भयो निवेदयेत् ॥४॥
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प्रायश्चित्तविधानवर्णनम्
३०६७ ते हि पापकृतां वैद्या बोद्धारश्चैव पाप्मनाम् । दुःखस्यैव यथा वैद्या सिद्धिमन्तो रुजायताम् ॥५॥ प्रायश्चित्ते समुत्पन्ने श्रीमान् सत्यपरायणः । मृदुरार्जवसंपन्नः शुद्धिं यायाद्विजः सदा ॥६॥ सचेलं वाग्यतः स्नात्वा क्लिन्नवासाः समाहितः । क्षत्रियो वाथ वैश्यो वा ततः परिषदं व्रजेत् ॥७॥ उपस्थानं ततः शीघ्रमर्तिमान् धरणी व्रजन् । गात्रैश्च शिरसा चैव न च किंचिदुदाहरेत् ॥८॥ ततस्ते प्रणिपातेन दृष्ट्वा तं समुपस्थितम् । विप्राः पृच्छन्ति यत्कार्यमुपवेश्यासने शुभे ॥६॥ किं ते कार्य किमर्थं वा किं वा मृगयसे द्विज । पर्षदि ब्र हि तत्सर्वं यत्कार्य हितमात्मनः ॥१०॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे परिषदुपस्थानं नाम
द्वितीयोऽध्यायः । .
तृतीयोऽध्यायः
प्रायश्चित्तविधानवर्णनम् सत्येन द्योतते राजा सत्येन द्योतते रविः। सत्येन द्योतते वह्निः सत्ये सर्व प्रतिष्ठितम् ॥१॥ भूर्भुवःस्वस्त्रयोलोकास्तेऽपि सत्ये प्रतिष्ठिताः । अस्माकं चैव सर्वेषां सत्यमेव परा गतिः ॥२॥
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३०६८
आङ्गिरसस्मातः यदि चेद्वक्ष्यते सत्यं नियतं प्राप्यते सुखम् । यद्गृहीतो ह्यसत्येन न च शुध्येत कर्हिचित् ॥३॥ सत्येनैव विशुध्यन्ति शुद्धिकामाश्च मानवाः । तस्मात्प्रन हि यत्सत्यमादिमध्यावसानकम् ॥४॥ एवं तैः समनुज्ञातः सत्यं ब्रूयादशेषतः। तस्मिन्निवेदिते कार्येऽपसार्यो यस्तु कार्यवान् ॥५॥ तस्मिन्नुत्सारिते पापे यथावद्धर्मपाठकाः। ते तथा तत्र कल्पेयुर्विमृशन्तः परस्परम् ॥६॥ आप्तधर्मेषु यत्प्रोक्त यश्च सानुग्रहं भवेत् । परिषत् संपदश्चैव कार्याणां च बलाबलम् ॥७॥ प्राप्य देशं च कालं च यच्च कार्यान्तरं भवेत् । परिषचिन्त्य तत्सर्व प्रायश्चित्तं विनिर्दिशेत् ॥८॥ सर्वेषां निश्चितं यत्स्यायश्च प्राणान्न पातयेत् । आहूय श्रावयेदेको यः परिषन्नियोजितः ॥६॥ शृणुष्व भो इदं विप्र यत्त आदिश्यते व्रतम् । तत्तद्यलेन कर्तव्यमन्यथा ते वृथा भवेत् ॥१०॥ यदा च ते भवेवीणं तदा शुद्धिप्रकाशनम् । कार्य सर्वप्रयत्नेन न शक्त्या विप्रपूजितम् ॥११॥ . इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे प्रायश्चित्तविधानं नाम
तृतीयोऽध्यायः
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परिषल्लक्षणवर्णनम्
३०६६ चतुर्थोऽध्यायः
परिषल्लक्षणवर्णनम् प्रायो नाम तपः प्रोक्त चित्तं निश्चय उच्यते।। तपोनिश्चयसंयोगात्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥१॥ प्रायश्चित्तसमं चित्तं चारयित्वा प्रदीयते । पर्षदा क्रियते यत्तत्प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥२॥ चत्वारो वा त्रयो वापि वेदवेदाग्निहोत्रिणः । ये तु सम्यस्थिता विप्राः कार्याकार्यविनिश्चिताः ॥३॥ प्रायश्चित्तप्रणेतारः सप्तैते परिकीर्तिताः। एकविंशतिभिश्चान्यैः पार्षदत्वं समागतैः ॥४॥ सावित्रीमात्रसारैस्तु चीर्णवेदव्रतैर्द्विजैः । यतीनामात्मविद्यानां ध्यायिनामात्मवेदिनाम् । शिरोवतैश्च स्नातानामेकोऽपि परिषद्भवेत् ॥५॥ एवं पूर्व मयाप्युक्त तेषां ये ये परे परे। स्ववृत्या परितुष्टानां परिषत्त्वमुदाहृतम् ॥६॥ एषां लघुषु कार्येषु मध्यमेषु च मध्यमा। महापातकचिन्तासु शतशो भूय एव वा ॥७॥ अत ऊवं तु ये विप्राः केवलं नामधारकाः । परिषत्त्वं न तेष्वस्ति सहस्रगुणितेष्वपि ॥८॥ जन्मशारीरविद्याभिराचारेण श्रुतेन च। धर्मेण च यथोक्तन ब्राह्मणत्वं विधीयते ॥६॥
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३०७०
आङ्गिरसस्मृतिः चित्रकर्म यथानेकरङ्गरुन्मील्यते शनैः। ब्राह्मण्यमपि तद्वत्स्यात्संस्कारैर्मन्त्रपूर्वकैः ॥१०॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे परिपल्लक्षणं नाम
चतुर्थोऽध्यायः
पञ्चमोऽध्यायः
प्रायश्चित्तनियन्तृकथनम् चातुर्वेद्यो विकल्पी च अङ्गविद्धर्मपाठकः । त्रयश्चाश्रमिणो मुख्या पर्पदेपा दशावरा ॥१॥ चतुर्णामपि वेदानां पारगा ये द्विजोत्तमाः। स्वैः स्वैरङ्गैविनाप्येते चातुर्वेद्या इति स्मृताः ॥ २॥ धर्मस्य पर्पदश्चैव प्रायश्चित्तक्रमस्य च। . त्रयाणां यः प्रमाणज्ञः स विकल्पी भवेद्विजः ॥३॥ शब्दे छन्दसि कल्पे च शिक्षायां चैव निश्चयः । ज्योतिपामयने चैव सनिरुक्त ऽङ्गविद्भवेत् ॥४॥ वेदविद्यावतस्नातः कुलशीलसमन्वितः । अनेकधर्मशास्त्रज्ञः पठ्यते धर्मपाठकः ॥५॥ ब्रह्मचर्याश्रमादूर्ध्वमाश्रमाद्वृद्ध उच्यते । एषामेव तु वृद्धानां य एते संप्रकीर्तिताः ॥६॥ परिषद्राह्मणानां च राज्ञां सा द्विगुणा स्मृता । वैश्यानां त्रिगुणा चैव पर्षद्वच्च व्रतं स्मृतम् ॥७॥
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प्रायश्चित्तनियन्तृकथनम्
३०७१ ब्राह्मणो ब्राह्मणानां तु क्षत्रियाणां तु पाठकः। वैश्यानां चैव यो प्रष्टा त एव व्रतदाः स्मृताः ॥ ८॥ अगुरुः क्षत्रियाणां तु वैश्यानां चाप्ययाजकः। प्रायश्चित्तं समादिश्य तप्तकृच्छ समाचरेत् ॥६॥ एवमुद्दिश्य वर्णेषु क्षत्रियादिपु दर्शनम् । प्रवृत्तानां तु वक्ष्यामि प्रायश्चित्तमनुत्तमम् ॥१०॥ शूद्रः कालेन शुध्येत गोब्राह्मणहिते रतः। दानैर्वाप्युपवासैर्वा द्विजशुश्रूषणे रतः ॥११॥ अपि वा मार्गमालम्ब्य क्षत्रधर्मेषु तिष्ठतः। अन्तरा ब्राह्मणं कृत्वा ततोऽस्य व्रतमादिशेत् ॥१२॥ तस्माच्छूद्र समासाद्य तथा धर्मपथे स्थितः । प्रायश्चित्तं प्रदातव्यं धर्मवेदविवर्जितम् ॥१३॥ आपन्नो येन वा धर्मो व्रतं वा येन तुष्यति । ब्राह्मणानां प्रसादेन संतार्यः सर्व एवं हि ॥१४॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे प्रायश्चित्तनियन्तृकथनं नाम
पञ्चमोऽध्यायः।
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३०७२
आङ्गिरसस्मृतिः
षष्ठोऽध्यायः
प्रायश्चित्ताचारकथनम् पणे तु पर्षत्कल्पस्य कल्पस्य परिषद्बलम् । कारिणश्चाप्युपस्थानं बलं सम्यनिवेदितम् ॥१॥ अकल्पा परिषद्यत्र कल्पो वा परिषद्विना । कार्य वाप्यन्यथोक्त वा शुद्धिस्तत्रास्य दुर्लभा ॥२॥ परिषत्कल्पतो कार्य यथा सर्वे बलीयसः । भवन्ति न तथा पापं तस्मिन् योगेऽवतीर्यते ॥३॥ एवमेतत्समासाद्य तद्योगं च प्रणश्यति । महत्यां चाम्भसि क्षिप्तं यथाल्पलवणं तथा ॥४॥ एतद्योगप्रधानाय कार्याणि परिशोधने । तद्रव्यं कर्मसंयोगाद्वक्त्राणामिव शोधने ॥१॥ यत्पापं शाम्यमानस्य कर्तुर्धर्मेण शास्त्रतः । तद्वद्गच्छति कार्येन भागशः प्रब्रवीमि ते ॥६॥ गुरुरात्मवतां शास्ता शास्ता राजा दुरात्मनाम्। अन्तःप्रच्छन्नपापानां शास्ता वैवस्वतो यमः ॥७॥ गुरु राजा यमो वाऽपि शास्ता धर्मण युज्यते । शास्ता संमुच्यते पापाहाहतो भयतः शुभम् ॥८॥ प्रायश्चित्ते यदा चीर्ण ब्राह्मणे दग्धकिल्बिषे । धर्म पृच्छामि तत्त्वेन तत्पापं कनु तिष्ठति ॥६॥ नैव गच्छति कर्तारं नैष गच्छति पार्षदम् । मारुतार्कीशुसंयोगाजलवत्संप्रशीर्यते ॥१०॥
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प्रायश्चित्तवर्णनम्
३०७३ तेषां त्रेतामिना दग्धं पावकस्य तु धीमतः । नश्यते नात्र संदेहः सूर्यदृष्टिहिमं यथा ॥११॥ प्रब यात्पक्षतो यच्च बाह्यं यचापि पर्षदः।। गच्छतस्तावुभौ मूढौ नरकं तेन कर्मणा ॥१२॥ 'अजानन् यस्तु विब याजानन्वाप्यन्यथा वदेत् । उभयोहि तयोर्दोषः पक्षयोरुभयोरपि ।१३।। अजानानां च दातृणामदातृणां च जानताम् । एवं भवेन्महादोषस्तस्माज्ज्ञात्वा वदेत्सदा ॥१४॥ यत्तु दत्तमजानद्भिः प्रायश्चित्तं समागतः। . तत्पापं शतधा भूत्वा दातृनेवोपतिष्ठति ॥१२॥ ये तु सम्यस्थिता विप्रा धर्मवेदाङ्गपारगाः। शक्तास्ते तारणे तेषामात्मनोऽनुग्रहस्य च ॥१६॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे प्रायश्चित्ताचारकथनं नाम
षष्ठोऽध्यायः।
सप्तमोऽध्यायः
पापपरिगणनम् आर्तानां मार्गमाणानां प्रायश्चितानि ये द्विजाः । जानन्तो न प्रयच्छन्ति ते च यान्ति समं तु तैः॥१॥ तस्मादातं समासाद्य ब्राह्मणं तु विशेषतः । जानद्भिः पर्षदः पन्था न हातव्यः पराङ्मुखैः ॥२॥ १६३
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३०७४
आङ्गिरसस्मृतिः
प्रायश्चित्तं वक्तव्यम् तस्य कार्यों व्रतादेशः प्रमाणार्थं हि दातृभिः। अज्ञानादुपदेष्टव्यः क्रमशः सर्व एव वा ॥३॥ भयादभ्युत्तरेत्कश्चिद्भयात ब्राह्मणं कचित् । एवं पापात्समुद्धृत्य तेन तुल्यफलो भवेत् ॥४॥ अनर्थितैरनाहूतैरपृष्टश्च यथाविधि। प्रायश्चित्तं न दातव्यं जानद्भिरपि च द्विजैः ॥५॥ तस्माजनैः प्रदातव्यमनुज्ञाप्य च पर्षदम्।। न चान्येषु प्रजल्पत्सु चैवं धर्मो न हीयते ॥६॥ पातकेषु शतं पर्षत् सहस्र महदादिषु । उपपापेषु पञ्चाशत् स्वल्पं स्वल्पेषु निश्चयः ॥७॥
___ पञ्चमहापातकिनः ब्रह्महा स्वर्णहारी च सुरापो गुरुतल्पगः । एतैः संयुज्यते योऽन्यः पतितैः सह पञ्चमः ॥८॥
पतिताः नारीपुरुषहन्ता च कन्यादूषी गवां च हा। चत्वारः पतिता प्रोक्ता यथा वै ब्रह्महादयः॥ उपपातकास्त्वसंख्यातास्ते च गोन्नादयस्तथा ॥६॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे पापपरिगणनं नाम
सप्तमोऽध्यायः।
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द
अष्टमोऽध्यायः शूद्रान्नस्यगर्हितत्ववर्णनम्
प्रतिग्रहे आहिताग्निस्तु यो विप्रः प्रतिगृह्णाति शूद्रतः । भोक्तृणां समतां याति तिर्यग्योनि च गच्छति ॥१॥
शूद्रानभोजने यस्तु वेदमधीयानो भुङ्क्त शूद्रान्नमेव च । शूद्र वेदफलं याति शूद्रत्वं च स गच्छति ॥२॥
शूद्रप्रशस्य स्वस्तिवचने घात्वा पीत्वा निरीक्ष्याथ स्पृष्ट्वा च प्रतिगृह्य च । प्रशस्य स्वस्ति चेत्युक्त्वा भोक्ता एव न संशयः ॥ ३ ॥ एते दोषा भवन्तीह शूद्रान्नस्य परिग्रहे। अनुग्रहं तु वक्ष्यामि मनुना चोदितं पुरा ॥४॥ आमं वा यदि वा पकं शूद्रान्नमुपसेवते । किल्विषं भुञ्जते भोक्ता यश्च विप्रः पुरोहितः ॥५॥
__ प्रतिगृह्यान्येभ्यो दातव्यम् गुरुवह यतिथीनां तु भृत्यानां तु विशेषतः । प्रतिगृह्य प्रदातव्यं न भुञ्जीत स्वयं ततः ॥६॥
शूद्रान्नरसपुष्टाधीयानस्य शूद्रान्नरसपुष्टस्य चाधीयानस्य नित्यशः । .. जपतो जुह्वतो वापि गतिरूवं न विद्यते ॥७॥
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३०७६
आङ्गिरसस्मृतिः
__षण्मासं भुक्तो षण्मासानथ यो भुत शूद्रस्यान्नं निरन्तरम् । जीवन्नेव भवेच्छूद्रो मृतः श्वा चाभिजायते ॥८॥ अकृत्वैव निवृत्तिं यः शूद्रान्नान्प्रियते द्विजः । आहिताग्निविशेषेण स शूद्रगतिभाग्भवेत् ॥६॥ पकान्नवज विप्रेभ्यो गोधान्यं क्षत्रियादपि । वैश्यात्तु सर्वधान्यानि शूद्राद्धान्यं न किंचन ॥१०॥ अनूदकं तु तत्सर्व गन्धमाल्यविवर्जितम् । यथा वर्णेषु यहत्तं प्रतिगृह्णीत वै द्विजः ॥१२॥ यत्तु क्षेत्रगतं धान्यं खले वा कण एव वा। सार्वकालं ग्रहीतव्यं शूद्रादप्यगिरोऽब्रवीत् ॥१२॥ सत्पात्रे समनुज्ञातं दुग्धं यच्छुचिना भवेत् । चथा चौषधिकृत्यं स्याहन्ना वा पयसापि वा ॥१३॥ पात्रेभ्योऽपि तथा ग्राह्य शूद्रभ्यः प्राकृतादपि । शूद्रवेश्मनि विप्राणां श्रीरं वा यदि वा दधि ॥१४॥ निवृत्तेन न पातव्यं शूद्रान्नसदृशं हि तत् । अग्न्यगारे गवां गोष्ठे नदीविप्रगृहेषु च ॥१५॥ कूपस्थाने तथारण्ये पेयं चैव पयो दधि । आमं मांसं दधि घृतं धान्यं क्षीरमौषधम् ॥१६॥ गुडो रसस्तधोदश्विद्भोज्यान्येतानि नित्यशः । अभृतं चारनालं च ताम्बूलं सक्तवस्तिलाः ॥१७॥
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अभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्तवर्णनम् ३०७ फलानि पिण्याकमथो ग्राह्यमौषधमेव च। अप्रणोद्यानि मेध्यानि प्रतिमाह्याणि नित्यशः ॥१८॥ सूतके तु यदा विप्रो ब्रह्मचारी विशेषतः। पिवेत्सानीयमज्ञानाद्भुङ्क्त वा संस्पृशेत वा ॥१६॥ पानीयपाने कुर्वीत पञ्चगव्यस्य प्राशनम् । . त्रिरात्रोपोषणं भुक्त स्पर्शे स्नानं विधीयते ॥२०॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे शूद्रान्नादिनिषेधकथनं
नामाष्टमोऽध्यायः।
नवमोऽध्यायः
अभक्ष्याभक्षणप्रायश्चित्तम् . अन्तर्दशाहे भुक्त्वान्नं सुतके मृतकेऽपि वा। दशरात्रं पिबेद्वज़ ब्राह्मणो ब्राह्मणस्य तु ॥१॥ क्षत्रियस्यार्धमासं तु विशः पञ्चाधिकं तथा । शूद्रस्यैव तु भुक्त्वान्नं त्रिभिर्मासैर्व्यपोहति ॥२॥ आहिताग्निस्त्रिरात्रेण ब्रह्मक्षत्रविशामपि। पञ्चरात्रं चरेद्भुक्त्वा श्रोत्रियस्याग्निहोत्रिणः ॥३॥ अत ऊध्वं तु स्नाताना मासाशौचं न विद्यते । दीक्षितानां च सर्वेषां राज्ञां सर्वनिधेस्तथा ॥४॥
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३०७८
आङ्गिरसस्मृतिः ससत्रे दानधर्मे च पक्कमन्नं तु गर्हितम् ।। पञ्चरात्रं चरेज षडहं प्रध्यमाचरेत् ॥५॥ तथा चान्येष्वभोज्येषु ज्यहमेवे समाचरेत् । अनापत्सु चरेद्भक्ष्यं सिद्ध वस्तु गृहे वसन् ॥६॥ दशरात्रेचरेद्वनमापत्सु च व्यहं चरेत्।। पतितानां च सर्वेषां भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥७॥ प्रतिमासदिनं हृष्टमन्यथा पतितो भवेत् । प्रतिसंवत्सरं वापि श्रोत्रियस्य भवेदिदम् ॥८॥ ब्रह्मचारी यतिश्चापि विद्यार्थी गुरुपोषकः । अध्वगः क्षीणवृत्तिश्च षडेते भिक्षुकाः स्मृताः ॥६॥ व्याधितस्य दरिद्रस्य कुटम्बात्प्रच्युतस्य च । अध्वानां वा प्रयातस्य भैक्ष्यचर्या विधीयते ॥१॥ ब्रह्मचारी शुन्ना दष्टस्यहमेवं समाचरेत् । गृहस्थस्तु द्विरात्रं वाप्येकाहं वामिहोत्रवान् ॥११॥ नाभेरुध्वं तु दुष्टस्य तदेव द्विगुणं भवेत् । तदेव द्विगुणं वक्त्रे मूर्ध्नि चैव चतुर्गुणम् ॥१२॥ अत ऊवं तु यत्स्नातः स्नानेनैव विशुध्यति । सर्वेष्वेवावकाशेषु तदा प्रबजितः स्वयम् ॥१३॥ अती सव्रती वापि शुना दष्टस्तथा द्विजः । दृष्ट्वानि हूयमानं तु सद्य एव शुचिर्भवेत् ॥१४॥ ब्राह्मणी तु शुना दष्टा सोमे दृष्टिं निपातयेत् । सदा न दृश्यते सोमः प्रायश्चित्तं कथं भवेत् ॥१५॥
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हिंसाप्रायश्चित्तकथनम् यां दिशं तु गतः सोमस्तां दिशं तु विलोकयेत् । सोममार्गेण सा पूता पञ्चगव्येन शुध्यति ॥१६॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे अभक्ष्यभक्षणप्रायश्चित्तविधिर्नाम
नवमोऽध्यायः।
दशमोऽध्यायः
हिंसाप्रयश्चित्तकथनम् दण्डादूवं तु यत्नेन प्रहरेत्तु निपातयेत् । द्विगुणं गोव्रतं तस्य प्रायश्चित्तं विधीयते ॥१॥
दण्डलक्षणम् अङ्गुष्ठमात्रं स्थूलः स्याद्वाहुमात्रप्रमाणतः । साश्च सपलाशश्च दण्ड इत्यभिधीयते ॥२॥
गवां रोधनादिना मरणे रोधने बन्धने वापि योजने वा गवां रुजा। उत्पन्ने मरणे वापि निमित्तं तत्र विद्यते ॥३॥ पादमेकं चरेद्रोधे द्वौ पादौ बन्धने चरेत् । योजने पादहीनं स्याचरेत्सवं निपातने ॥४॥ न नारिकेलेन न फालकेन
न मौञ्जिना नापि च वल्कलेन । एतैश्च गावो न हि बन्धनीया
बध्वा तु तिष्ठेत्परशुं प्रगृह्य ॥५॥
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३०८०
आङ्गिरसस्मृतिः शकारीस्तु बनीयादूचं दक्षिणतोमुखम् । पाशलग्ने तथा दाहे प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥६॥ यदि तत्र भवेच्छोकः प्रायश्चित्तं कथं भवेत् । जपित्वा पावमानीयं मुच्यते सर्वकिल्बिषात् ॥७॥ अस्लिमङ्गं गवां कृत्वा ललगूलच्छेदनं तथा। पातनं चैव शृङ्गस्य मासाधं यावकं पिबेत् ॥८॥ प्रणभङ्गे च कर्तव्यः स्नेहाभ्यङ्गश्च पाणिना। यवसश्चोपहर्तव्यो यावद्र ढव्रणो भवेत् ॥६॥ अस्थिभने तथा शृङ्गकटिभङ्गे तथैव च। यावजीवति षण्मासान् प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥१०॥ शृङ्गभङ्गेऽस्थिभङ्गे च चर्मनिर्मोचने तथा। दशरात्रं पिबेद्वनं यावत्स्वस्ति भवेत्तदा ॥१॥ अन्यत्राङ्कनलक्ष्मभ्यां वाहनिर्मोचने तथा। सायं संगोपनाथं तु न दुष्येद्रोधबन्धयोः ॥१२॥ यन्त्रण गोचिकित्साथ मूढगर्भविमोचने । यले कृते विपद्यत न दोषस्तत्र विद्यते ॥१॥ औषधं स्नेहमाहारं दद्याद्गोब्राह्मणे हितम्। प्राणिनां प्राणवृत्त्यर्थं प्रायश्चित्तं न विद्यते ॥१४॥ गजे वाजिनि वा व्याघ्र खड्गे श्याममृगे के। सिंहे शुनि वराहे च मयूरे पक्षिणामपि ॥१॥ काके हंसे च गृध्र च टिट्टिो खञ्जरीटके। यथा गवि तथा विन्द्याद्भगवान्मनुरखवीत् ॥१६॥
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गोवधप्रायश्चित्तकथनम्
३०८१ मोहाद्विरूढमाचार्यप्रत्यावृत्तौ तु यो द्विजः। प्रायश्चित्तं न मृग्येत शृणु तस्यापि यो विधिः ॥१७॥ विहितं यदकामानां कामात्तद्विगुणं भवेत् । पश्चात्तु दह्यात्तापेन कृत्वा पापानि मानवः ॥१८॥ धनत्यागं गृहे कृत्वा सर्वत्यागेन शुध्यति । द्रव्यैर्वा विपुलैर्विप्रान् तोषयेद्यः सुनिश्चितम् ॥१६॥
बालवृद्धाङ्गनानां प्रायश्चित्तम् तन्नार्यः कामतः प्राप्ताः पापभधं समादिशेत् । अक्तुि द्वादशादब्दात् पुरुषो धर्मभाग्भवेत् ॥२०॥ अशीतिर्यस्य चापूर्णा वर्षाध सकलो विधिः । प्रायश्चित्तस्य ये क्लोबबालवृद्धाङ्गनादयः।। तेषु सर्वेषु संचिन्त्य पादमेकं समाचरेत् ॥२१॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे हिंसाप्रायश्चित्तकथनं नाम
दशमोऽध्यायः।
एकादशोऽध्यायः
गोवधप्रायश्चित्तकथनम् उपपातकसंयुक्तो गोनो भुञ्जीत यावकम् । अक्षारलवणं रूक्षं षष्ठे कालेऽस्य भोजनम् ॥१॥ कृतावापो वने गोष्ठे चर्मणा तेन संवृतः। द्वौ मासौ स्नानमभ्यङ्गं गोमुत्रेण विधीयते ॥२॥
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३०८२
आङ्गिरसस्मृतिः पादशौचक्रिया कार्या अद्भिः कुर्वीत केवलम् । व्रतिवद्धारयेद्दण्डं समन्त्रां मेखला तथा ॥३॥ गाश्चैवानुव्रजेन्नित्यं रजस्तासां सदा पिबेत् । तिष्ठन्तीष्वनुतिष्ठेच्च व्रजन्तीष्वप्यनुव्रजेत् ॥४॥ शुश्रूषित्वा नमस्कृत्वा रात्रौ वीरासनं वसेत् । गोमती च जपेद्विद्वानोंकारं वेदमेव च ॥५॥ आतुरामभिशस्ता वा चोरव्याघ्रादिभिर्भयैः। पतितां पङ्कलग्नां वा सर्वप्राणैर्विमोक्षयेत् ॥६॥ उष्णे वर्षति शीते वा मारुते वाति वा भृशम् । न कुर्वीतात्मनस्त्राणं गोरकृत्वा स्वशक्तितः ॥७॥ आत्मनो यदि वान्येषां गृहे क्षेत्रेऽथवा खले। भक्षयन्ती न कथयेत् पिबन्तं चैव वत्सकम् ॥ ८॥ अनेन विधिना गोनो यस्तु गा अनुगच्छति । स गोहत्यात्मकात् पापान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ६ ॥ ऋषभैकादशा गाश्च दद्यात्सुचरितत्रतः। अविद्यमाने सर्वस्वं वेदविद्भयो निवेदयेत् ॥१०॥ एतेषां विहितं पुण्यं कृच्छ्रमङ्गिरसा स्वयम् । धर्मविद्भिरनूचानैरुपपातकनाशनम् ॥११॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे गोवधप्रायश्चित्तं
नामैकादशोऽध्यायः।
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द्वादशोऽध्यायः
कृच्छ्रादिस्वरूपकथनम् अत अवं प्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तविधिं शुभम् । यमधीत्य विमुञ्चन्ति श्रुत्वा स्मृत्वा च वै द्विजाः ॥१॥ सदा त्रिषवणं स्नायात सकृत्स्नात्वा पयः पिबेत् । प्रातः स्नात्वा समारम्भं कुर्याज्जप्यं तु नित्यशः ॥२॥ सावित्री व्याहृतीं वापि जपेदष्टसहस्रकम् । ओंकारमादितः कृत्वा रूपे रूपे तथान्तरम् ॥३॥ स्थानं वीरासनं सक्तः कुर्यादासनमेव वा। आसनं शल्यविद्धं स्यादमधःशायी भवेत्सदा ॥४॥ गव्यस्य पयसोऽलाभे गव्यमेव भवेद्दधि । दध्यभावे भवेत्तक्र तक्राभावे तु यावकम् ॥५॥ एषामन्यतमं यच्चाप्युपपद्यत तत्पिबेत् । गोमूत्रेण तु संयुक्त यावकं तत्पिबेद्विजः ॥६॥ एतत्तु विहितं पुण्यं कृच्छ्रमङ्गिरसा स्वयम् । प्रणवात्तु समारम्भो नाम्ना वज्रमिति स्मृतम् ॥७॥ एतत्यातकयुक्तानां प्रायश्चित्तं विधीयते । महापातकसंयुक्ता वर्षेः शुध्यन्ति ते त्रिभिः ॥ ८॥ अथोपपातकाश्चिन्त्यास्तथा कालं समादिशेत् । कालस्य तु यथोक्तस्य ब्राह्मणस्तत्र कारणम् ॥६॥
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३०८४
आङ्गिरसस्मृतिः ब्राह्मणा एव च क्षेत्रं ब्राह्मणा एव दैवतम् । ब्राह्मणानां प्रसादेन सूर्यो दिवि विराजते ॥१०॥ . न ब्राह्मणसमं क्षेत्रं न ब्राह्मणसमोऽनलः । विधिर्न ब्राह्मणादूर्ध्व न देवं ब्राह्मणात्परम् ॥११॥ जपतां जुह्वतां चैव यच्छतां च सतामपि । क्षेत्रोऽग्नेस्तु सुसंभूतो ब्राह्मणोऽद्य विशिष्यते ॥१२॥ न स्कन्दते न व्यथते न विनश्यति कर्हिचित् । वरिष्ठमग्निहोत्रेभ्यो ब्राह्मणस्य मुखे हुतम् ॥१३॥ देवतापितृभूतानां काचिद्भवति कस्यचित् । ब्राह्मणे देवताः सर्वाः स च सर्वस्य देवता ॥१४॥ यो हि यां देवतामिच्छेदाराधयितुमव्ययम् । सर्वोपायप्रयत्नेन तोषयेद्ब्राह्मणान् सदा ॥१२॥
समस्तसंपत्समवाप्तिहेतवः
समुत्थितापत्कुलधूमकेतवः। अपारसंसारसमुद्रसेतवः
पुनन्तु मां ब्राह्मणपादपांसवः ॥१६॥ इत्याङ्गिरसधर्मशास्त्रे कृच्छादिस्वरूपकथनं नाम
द्वादशोऽध्यायः । इत्युत्तराङ्गिरसम् इत्याङ्गिरसस्मृतिः।
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॥श्रीगणेशाय नमः।
* भारद्वाजस्मृतिः *
प्रथगोऽध्यायः भारद्वाजम्प्रति भृग्वादिमुनीनां सन्ध्यादिप्रमुखकर्मविषये प्रश्नः
हेमाद्रिशिखरे रम्ये सुखासीनं महाजनम् । भरद्वाजं मुनिश्रेष्ठं सर्वविद्यातपोनिधिम् ॥१॥ पुण्यकृति पुण्यशीलं ब्रह्मनिष्ठं जितेन्द्रियम् । तमासाद्य मुनिश्रेष्ठः भृावाद्या मुनिपुङ्गवाः॥२॥ भृगुरत्रिर्वशिष्ठश्च शाण्डिल्यो रोहितः क्रतुः । हरितो गौतमो गर्गः शङ्खः कालातपोऽङ्गिराः ॥३॥ मार्कडेयश्च माण्डव्यः कपिलो नारदः शुकः । जमदग्निर्याज्ञवल्क्यो विश्वामित्रः पराशरः॥४॥ एते वाऽन्येऽपि मुनयो धर्मज्ञा धर्मतत्पराः । सर्वोपचारैः सम्पूज्य वचनञ्चेदमब्रुवन् ॥५॥ भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्ववेदार्थपारग। सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञ सर्वसत्कर्मकोविद ॥ ६ ॥ सन्ध्यादि प्रमुखाः सर्वा नित्यनैमित्तिकाः क्रियाः। यास्ता द्विजौधिभिः(द्विजादिभिः) कार्या कथन्नो वक्त मर्हसि
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३०८६
भारद्वाजस्मृतिः इति वुष्टो (पृष्ठो) भरद्वाजस्तैर्महामुनिभिर्मुनिः । तान्प्रत्युवाच धर्मात्मा सन्तुष्टहृदयो भृशम् ॥ ८॥ पृष्टा युष्माभिरधुना याः क्रियास्ता महर्षिभिः । यथा क्रमेण कथ्यन्ते सन्ध्याप्रणतिपूर्विकाः ॥६॥ नित्यानुष्ठानरहितैर्द्विजैरधिकृतागमाः। यज्ञाः क्रतुश्च विधिवन्न भवन्ति फलप्रदाः ॥१०॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शुचि ( ) भूत्वा द्विजोत्तमः । अनुष्ठानम्प्रकुर्वीत प्रत्यहं शास्त्रचोदितम् ॥१।। धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु समस्तेष्वागमेषु च। सारमुद्धत्य वक्ष्यामि शृणुध्वमृषयोऽनघाः ॥१२॥ शास्त्रायणमिदं श्रेष्ठमध्येयं श्रद्धया सह । शे पूर्धिमिः(१)द्विजैः काममनुष्ठानादि साधनम् ।।१३।। शास्त्रावतारो दिग्भेदः मलमूत्रपरिच्युतिः । शौचमाचमनं दन्तधावनं स्नापनं ततः ॥१४॥ सन्ध्या प्रणामश्च जपः ब्रह्मयज्ञश्चतर्पणम् । औपासनं वैश्वदेवं महायज्ञचतुष्टयम् ।।१५।। भोजनं शयनं ध्यानं महाध्यानञ्च पूजनम् । पूजा द्रव्यं जपलक्ष(?) कलशं च क्रिया अपि ॥१६।। यज्ञोपवीतञ्च कुशाः प्रणवो व्याहृतिस्ततः । साधनं प्रायश्चित्तञ्च क्रमोऽयं शास्त्रसंग्रहः ॥१७॥ दिग्()निर्णयं समारभ्यो प्रायश्चित्तावधि क्रमात् । स पञ्चविंशत्याध्यायं धर्मशास्त्रं ब्रवीमि वः ॥१८॥
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दिगभेदज्ञानवर्णनम्
३०८७ पञ्चविंशति कर्माणि प्रोक्तान्यध्यायरूपतः । एकैकस्मिन्किस्क(?) माध्याये प्रोक्त का परिसंख्यया ॥१६॥ स पञ्चविंशत्यध्याये कर्मक्लप्तिर्यथाक्रमम् । धर्मशानं समाख्यातं भारद्वाजमहर्षिणा ॥२०॥ इति भारद्वाजस्मृतौ सन्ध्यादिप्रमुखकर्मविषयक प्रश्न
वर्णनंनाम प्रथमोऽध्यायः।
अथ द्वितीयोऽध्यायः
दिग्भेदज्ञानवर्णनम् अथ विजानीयात्पूर्वादि दिग्भेदज्ञानपद्धतिम् । कथयिष्याम्यहं सम्यक् सर्वकर्मफलाप्तये ॥१॥ पूर्वादि दक्षिणा वारुण्युदीची च यथाक्रमम् । दित(?श,श्चतस्रः परितः भवन्ति स्मृतिचोदिताः।२।। यत्रोदेति सहस्रांशुः स्यात् (सा) पूर्वादिगुदाहृता। यत्रास्तमेति सा प्रत्य गीतकि(?)दक्षिणोत्तरे ।।३।। दिक्संधयः स्युद्धिदशः चतस्रः परिकीर्तिताः । अभ्यन्तरं दिशोमन्तः तदूर्ध्वमुपरि स्मृतम् ॥ ४॥ तदधस्तादधोदिक्स्यात् एकादश दिशः स्मृताः(स्त्विमाः)। एवमेताः परिझेया दिशः सामान्यरूपतः ॥५॥ प्राङ्मध्यम विजानीयात् मेषस्थाऊदयम्बुधाः। तत्क्रमेणेतरदिशः मध्यदेशं यथाक्रमम् ॥ ६ ॥
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३०८८
भारद्वाजस्मृतिः मेष सूर्योदये यत्रच्छायाशंको समस्थले। निर्गगा सा प्रतीची स्यात् अस्ति प्राचीत्युदाहृता ॥७॥ दिग्नामानिस्तूपावास प्रामादिस्थापने बुधाः । शकृच्छाया पशाद्धया प्रात्यामध्यनिश्चयः ॥ ८॥ यानि देवोक्त कर्माणि प्रागादिमुखसंस्थितः। वेदी क्षेत्राणि सर्वाणि कुर्यात्तदभिवक्त्रतः ॥ ६ ॥ अथात्तरोर्ध्वकाष्ठासु कर्मान्यु'ण्युक्तानि यानि वै। तानि कुर्यात्तदभ्यस्य तत्कर्मफलसिद्धये ॥१०॥ केचिद्देवालयद्वारं प्राचीमध्यं प्रचक्षते । प्राम राजन गृहद्वारं तथाऽन्योऽस्यदिगन्तरम् ॥११॥ प्राक्पूर्वदिति नामानि प्राच्याः प्राहुः पुरातनाः। . याम्यवाची दक्षिणाया नामनी नामानि कथ्यते वुधैः ।१२ पश्वा(त) प्रत्यग्वारुणीति प्रतिच्यानानुवाचकाः । कौबेर्यादिच्युत्तरेति नामानिस्युरु"..." शः ॥१३॥ अभ्यन्तरान्तरालातरव कोशान्तराह्वयः । अवान्तरदिशः सझौः(सज्ञाः) विद्वद्भि परिकीर्तिता ॥१४॥ उपरिष्टादुपरिचेत्येतेवेसीमनी बुधाः। आहुरूर्ध्व दिशस्त्वेवमभ्यासर्व दिशः स्मृताः ॥१५॥ हरिद्राशाककु.काष्ठा चेतिनामानि वै दिशाम् । सर्वासामेवै हि दिशां सामान्यं विबुधा विदुः ॥१६॥ पूर्वादि वतुराशेगः क्रमादिद्रियबुराट् । किन्नरेश्वर इत्येते भवंति विदिशामथ ॥१७॥
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दिगमेवहानवर्णनम् समाश्वासिनिर्वावुः यिईिशानाचेल्यमीश्वराः। अंतरोधिरदिशां भूतदेवादयोधिपाः ॥१८॥ एवं दिग्विषयाः प्रोक्ताः सर्वेषां सर्वकर्मणि । परिक्षयः प्रयत्नेन बुधै कर्मफलेच्छुचिः ॥१६॥ मेषकर्किनुनश्चत्वारो राशयस्त्वमी। पूर्वादिषुचतुधि(दि,क्षु मध्येऽन्योन्यत्र राशयाः ॥२०॥ प्राचीमध्यं विनान्यत्र संस्थिताये च राशयः । तस्थिता हि मरिचच्छाया वक्त्रा सदा भवेत् ॥२१॥ समभूमिस्तले दण्ड प्रमाण चतुरश्रके। शंखोकोश्च द्विगुणेनैव शुल्पे(१) कृति मंण्डले ॥२२॥ मधमलापयेवंकुं (१) मेषस्थाकोदये बुधः। मेषस्मार्णदयालाभे तुलस्याकोदयोथवा ॥२३॥ मंडता(लांतर्गतायस्यच्छायायत्राबुराट्सरी(रित् । अपराह तथा तत्र शतक्रतु हरिद्ववेत् ॥२४॥ तयोबिद्दद्वयं मध्ये प्रकुर्वीत विचक्षणः । ततः प्रासारयेत्सूत्रं तत्रबिंदु च यत्समः ॥२५॥ प्राचीप्रतीच्योस्थं मध्ये इतिज्ञेयं विपश्चिता । बिंदुद्वयांत्तरभ्रांतशफरानतपुश्चकं ॥२६॥ सूत्रं यत्तद्भवेन्मध्यं दक्षिणोत्तरयोः क्रमात् । उपगाद्यपरांतानि पर्यंतानि विनिक्षिपेत् ।।२७॥ सूत्राणि च ततः प्राः प्रागुत्तरमुखानि च । मातंग्ग,ग्गखदिर शमीशाक कुचंदनाः ॥२८॥ १६४
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३०६०
"भारद्वाजस्मृतिः तिहुकरकदिरश्चेनि शंखुवृक्षाः समीरिताः। यस्वोछादिविस्तकावष्कुरंगुल पंचकं ॥२६॥ चतुरंग्गुलविस्तारः मूर्धासौ शंकुरुत्तमः। यस्योछायादिनाबौ द्वौ भवतोष्टादशांगुलौ ॥३०॥ न शंकुर्मध्यगोग्रत्यनाभिः सम्दशग्गुलम् । यस्याश्चनाभौ भवतः द्वादशैकादशांगुलौ ॥३१॥ कनिष्ठोसौ समाख्यातः शंखुच्छायावलोकने। .. सर्वेनिवृत्ताः सस्मिग्धाः च्छत्रानारसिरोंकिताः ॥३२॥ निवृणाः शंकगोयेते निर्मितास्युः शुभप्रदाः। त्वग्भिश्चंपकयावानां नारिकेलफलस्य च ॥३३॥ ईज्जुर्यानिमितासंस्थात् प्रशस्ता मानकर्मणि । न्यग्रोधकेतकी तालवल्केष्वेतेषुनिर्मितम् ॥३४॥ कार्पासवटतंत्वोत्रिवृद्ग्रंथिविवर्जितम । स्वकनिष्ठांग्गुलि थू स्मिग्धंककुदसंम्मितम ॥३।। सूत्रमेवंविधं शरतं मापने सर्वभूमिषु । शुल्बेरज्जुविदरसूत्रं गुण एकार्थमुच्यते ॥३६।। देवब्रह्मपितृगां च जात्याद्युक्त यात्रिवृत् ।। वृषकन्यकयोच्छाया नवक्त्रास्यावस्थितौ ।३७॥ वृषस्तभानोरुदये कन्यास्तार्कोदयेपि वा । मण्डले स्थापये छंक यथापूर्व तथा क्रतौ ॥३८॥ पश्चादिधात्मकच्छाया यत्र तत्र तथा ततः । तत्राचीदिगितिप्राहुः ति(ई)तरेदक्षिणोत्तरे ॥३॥
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दिनिश्चयवर्णनम्
३०६१ अजेतुलायां मिथुने मृगेद्वचङ्गुलं नयेत् । कर्कट वृश्चिके मीने शोधयेश्चतुरंग्गुलम् ॥४०॥ षडंग्गुलंघटचापे मकरेऽष्टांग्शुलं तथा । छायायांदक्षिणेमेनित्वा सूत्रं प्रमारयेत् ॥४१॥ केचिदेवंत्यार्याः प्रास्प्रत्यधिग्विनिश्चये। खदिरक्षीरिणीसालामधूवदिरास्तथा ॥४२॥ ख्याताश्शंकुतमा प्रोक्ताः अथवा सालभूरुहाः । एकादशांगुलादेक: विंशतंगुलदीर्धकः ॥४३॥ पूर्णमुष्टिस्तुनन्नाभौ मूलं सूचिनिभो भवेत् । प्रमाणसूत्रभित्युक्त प्रमागनिश्चितोहितः ॥४४॥ तद्वहिः परितोभागेपर्यंत्तं सूत्रमिष्यते । गर्भसूत्रादिरीत्यादुसूत्रमेवप्रचोदितम ॥४॥ यदिवृत्याससूत्रं हि वृत्थानं सूत्रमियते । अणुरेणु शिरोजामूलाक्षायुक्ताः यवाक्रमात् ॥४६॥ एकैकाष्ठ गुणिन्नयाः स्याद्यवाष्टकमंगुलम् । द्वादशांग्गुलकंनालः अस्तम्तालद्वयंस्मृतम् ॥४७॥ हस्तैश्चतुर्भिदंडडंस्यात् सूत्रदंडाष्टकं स्मृतम् । स्वस्वहस्ताख्य सूत्राणि चतुर्थं वति हि ॥४८॥ पिन स्थिस्थूलयित्युनः अंग्गुलं सूत्रलंझिकम। अष्टभिः समभिष्टद्भिः यवैविज्ञयमङ्गुलम् ॥४६॥ उत्तमं मध्यमंनीचं उत्तमेवं यथाक्रमम् । अंग्गुलं त्रिविधं प्रोक्त इदं यवसमुद्भवाः ॥५०॥
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३०१२
भारद्वाजस्थतिः अस्यांगुलमेतैस्तु कथ्यतेस्मिन् यतो भवेत् । साध्यैषद्विसंवैधासाध्यै सप्तभिरेव वा ।५।। साध्यैः सप्तभिराख्यातं एवं त्रिविधर्मग्गुलम् । शाविभिश्च त्रिभिः सार्धेः चतुर्भिश्च यथायवैः ।।२।। शाल्याद्भवं समाख्यातं अंग्गुलं त्रिविफ(ध) बुधैः । एवंमानांमगुलं प्रोक्तमात्रांग्गुलमथोच्यते ॥५३॥ मध्यमांगुलमध्यस्त पर्वदीर्घमितत्तु यत् । तच्छष्ठमंगुलं प्रोक्तं पादहीनं तु मध्यमम् ॥५४॥ अधही (न) कनिष्टं स्यादेवं मात्रांग्गुलत्रयम् । मंगुष्ठ तर्जनीदीर्घ यत्तत्प्रदिशसंज्ञतं ॥५॥ अंगुष्ठमध्यमायामं यत्ता साराभिदानकम् । अंगुष्ठानामिकायामं यत्तद्गोकर्णसंज्ञिकम् ॥५६॥ अंग्गुष्ठाभ्यंगुला पाहुः वितस्तेरिति कथ्यते । यत्रयच्चोदितं तत्र प्रयंजातेषु तत्प्रयः ॥५७।। अंडादिसूत्रपयंत्तं प्रमाणं समुदाहृतम् । किष्वादि पंचशाकानां अधुनाभेद उच्यते ॥८॥ किष्कुर्नामभवेद्धस्त चतुर्भिष्टब्धिरंग्गुलैः। प्राजापत्योभवेद्धस्तः पंचविंशब्धिरंग्गुलैः ॥५६॥ षड्विंशत्यंगुलैर्हस्तः स्याद्धनुमुष्टि संझिकः । हस्तग्राहलयोहसप्तविंशब्धिरंग्गुलैः ॥६॥ एवं चतुर्विधोहस्तः विज्ञेयः कर्मवित्तमैः । बद्धनुषिकि कोरनिररनिः सकनिष्ठिकः ॥६॥
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दिनिश्चयवर्णनम्
३०६३ इत्येतो कथितौ हस्तौ मनुष्याणां मनीषिभिः। पूर्वोदित चतुर्हस्तो यत्रनाभिहितादिमौ ॥६२॥ हस्तौ तत्र प्रयोक्तव्यो सामान्योनोदितकवे(?) । वाहुहस्ताद्वयोरनिररविः किष्कुरित्यपि ॥६॥ कथितो हस्तपर्यायः हस्तेछेदांग्गुलैरपि। खट्वानुरवासनादीनि किष्वुहस्तेन कारयेत् ॥६४॥ प्राजापत्यकरेणैव प्रासादादिशिहस्रयान्। विमानं मौलिशांशाला सभास्थानं न कारयेत् ॥६॥ धनुग्रहोण प्रामादीन धनुर्मुष्टया(प्ट्या) ग्रहादिकान् । राजान्पदं(?) राजधानी तदानयनसंज्ञिकम् ॥६६॥ धनुर्मुष्टिकरेणैव प्रकुर्वीत विचक्षणः। अलाचे किष्कुहस्तो वा सर्वेषामेव केवलम् ॥६॥ अल्पांग्गुलमानेन क्षुत्रासंग्गुलमानतः। प्रामं च नगरं खेटे पत्तट(न) खटं पुरं ॥६॥ विटंक शिबिरं वेश्म निगमाराजधानिकम् । सेनामुखमितिप्राहुः द्वादशैतानि सूरयः ॥६६॥ अन्येषु शिल्पशास्त्रेषु पश्येदेषान्तुलक्षणम् । नदी जलायनं क्षेत्रं सूत्रेणैव तु मापयेत् ॥७॥ दंडेन वाधसूत्रेण प्रामयोरंन्तरं तथा। यस्वातिचित्रयोर्मध्ये उदयं श्रवणन्य च ॥७॥ तलाचीमध्यम प्रोक्तं श्रविष्ठायाश्च सूरिभिः । तिष्योत्तरात्रयमुखा रोहिणीनां समुद्रमः ॥७२॥
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३०६४
भारद्वाजस्मृतिः यत्रैवं नैऋतिमध्यं इत्येते ब्रुवतेतराः । तत्प्रतीपं प्रतिच्यास्तु मध्यष्टंघरातवे ॥७३॥ एवं मध्यद्वयं ज्ञात्वा ततोबिंदुद्वयं क्षिपेत् । ततो द्विबिंदुमध्ये तु समं सूत्रं प्रसारयेत् ॥७४॥ एवं प्राचिप्रतिच्यास्तु जानीय्यान्मध्यमं बुधः । ध्रुवस्थानमुदिच्यास्तु मध्यपूर्वक्रमेण तु ॥७॥ सूत्रं प्रसाद्ययामायां मध्यं ज्ञेयं विपश्चिता। ध्वनिः प्राच्याथवा सौध्यानिश्चिता पूर्व वस्तुतः ॥६॥ प्राचीतरं तु यत्स्थानं सर्व दोषकरं भवेत् । एवं प्राची नहोच्युते”परिज्ञायानम्मेकर्माण्य धारयेत् ।
अज्ञात्वाऽरब्धऽकर्माणि निष्फलानि भवंत्ति हि ||७|| ।। इति भारद्वाजधर्मशास्त्रे दिनिश्चय नाम द्वितीयोध्यायः ॥
अथ तृतीयोऽध्यायः
विण्मूत्रोत्सर्जनविधिवर्णनम् विण्मा(मूत्रोत्सर्जनविधिद्विजानां प्रथमेरघ(स्फुट ? । शौचक्रमश्चाधतथा (१) समीचीनमिहोच्यते ॥२॥ ब्राह्म मुहूर्ते चोत्थाय धर्मतत्वार्थमीश्वरम्। : न चिन्त्यायप्र(ग)हाद्गत्वा देशे दक्षिणपश्चिमे ॥३॥
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विण्मूत्रोत्सर्जनविधिवर्णनम् ३०६५ आहृताया मृदापश्चातस्ताशुद्धभूतले(?)। पात्रयोदमावश्च क्षिपेश्चाछार्धमाहात्मन(?)॥४॥ वल्मीकेथाऽग्नि वृक्षादौ मार्गे मूषिकसद्मनि । शौचदेशे जलांतस्ति कर्दमे देवतालये ॥५॥ पुरीषभूमालिरिणे निवासे च गवामपि । मृत्तिका न परिग्राह्य शौचाथ जातु विद्युदैः ॥ ६ ॥ संध्यास्वाह ? कर्णस्था ब्रह्मसूत्र उद्ङ्मुखः । वानसामौलिसाच्छाद्यामौनिमूर्ध्वानमस्पृशन् ॥ ७ ॥ समे रहसि भूभागे दर्भेतरत्तणास्मृते । विसृजेन्मलमूत्रे तु रात्रीचेदक्षिणामुखः ॥ ८॥ देवालयमखस्थानश्मशानाचलदारिषु । तदीकाब्धितटीतीरनुच्छायामूलभस्मसु ॥ ६ ॥ लोष्टसस्य च यश्वभ्रपराग बहुलीकृते । स त्यजेन्मलमात्रे तु स्थानेष्वेतेषु बुद्धिमान् ॥१०॥ आदित्यानलविप्राग्निनाभित्क्रस्यजेन्मूत्रपुरीषेतु विचक्षणः(?) प्रमादात्स्वमलं दृष्ट्याभूमिस्थं ब्राह्मणोयदि ॥११॥ सवितारं द्विजंद्रग्गामग्निं वा निरीक्षियेत् । दभैरपितृणैशुष्कै गुदमुत्सृज्य सत्वरम् ॥११॥ अयज्ञदारुकाष्ठन तत्पत्रैर्वाप्यलोभतः। उत्थाय सध्यहरते गृहीत्वाज्ञस्वमेहनम् ॥१२॥ शौचदेशमदागव्य कुर्याच्छौचं मृहांबुना। पूर्व ज्जलेन प्रक्षाल्या मृदापश्चात्ततोंव्बुना ॥१३॥
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भारद्वाजस्मृतिः एवं द्वादशकृत्वस्तु गुदशौचं समाचरेत् । प्रस्पति प्रमिताचामृत द्वितीया तु तदर्भका ॥१॥ उत्तरोत्तरतः सर्वात्रितय्यावतुता बुधैः । दशकृत्वोवामहस्तं सप्तकृत्वः कराटभौ ॥१४॥ संयोज्य चैवं प्रक्षाल्य सकछोचं पुनश्चरेत् । पंचकृत्वः ककाक्षाल्य मृदामलकमात्रया ।।१।। त्रिकृत्वोलिंगशौचं तु हस्तक्षाल्यपदेद्वयं । संयोज्यत्रिमृदाक्षाल्य क्षालयेच्छौचभूतलं ॥१६॥ कुर्वीतेवदिवा शौचं रात्रावस्यार्थमुच्यते । उ(अ)शक्तस्य यथा शक्ति शौचमुक्त तथाध्वनि ॥१॥ योषितामुक्त शौचा) शूद्राणामप्युदीरितम् । नदीनरस्तटाकेषु वापीकुण्डहृदेषु च ॥१८॥ निझरे देवखातेब्धौ द्विजः शौचं न कारयेत् । एवं शौचविधिः प्रोक्ता द्विजानां शुद्धि हो (ह) तवे ॥१८॥ विधि विसृज्य यच्छौचं वृथा कृतमविस्मृतम् । कृतं संध्यादिकं कर्म नित्यं नैमित्तिकं तथा ।
सर्व निष्प(फ)लतांयाति शौचहीनं द्विज(न्म)नाम् ।।१६।। ॥ इति भारद्वाजस्मृतौ विण्मूत्रविसर्जनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥
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अथ चतुर्थोऽध्यायः
आचमनविधिवर्णनम् समस्त कर्मणामादि साद्धनं सर्वशानां । उपस्पृष्ट विधिः सम्यद्विजानामधुनोच्यते ॥१॥ आचम्य विधिक कर्मकृतं यत्तत्प्रसिध्यति । विनैवाचमनं कर्म कृतमव्यफलं लभेत् ॥२॥ तस्मात्सर्वप्रयत्नेन आचम्य विधिवत्ततः । औतं कर्माथवास्मात्तं कुर्यात्कर्म फलाप्तये ॥३॥ जंघान्तं जानुपर्यन्तं अपिवाचरणद्वयं ।। परांतंकरौसम्यक्क्षालयेत्प्रथमं बुधः ॥४॥ नाभेरथ(ध)स्तात्त्सकलं क्षालयेत्सव्यपाणिना। कुर्यादाचमनादीनि कर्माणारेदपाणिना ॥५॥ जलममुधृतंवापिवारिशुद्धं प्रपश्यते। सलस्थंचोधृतंञ्चापि यथशुद्धंतदुत्सृजेत् ॥ ६॥ जले जलस्थ आचामेबहिष्ठस्तु जलाबहिः । बहिरंतस्थ आचामेदुभयत्र शुचिर्भवेत् ॥७॥. जानोरधस्तास्तविले उपस्पृष्टउपग्पृशेत् । जलाशयादिष्ट्वाचामेदूर्वाभः सूर्द्धसंस्थितः ।। ८ । उपविश्य शुचौदेशे प्रामुखो ब्रह्मसूत्रधृक् । बद्धचूड-कुशकरः द्विजः शुचिरुपस्पृशेत् ॥ ६ ॥
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३०६८
भारद्वाजस्मृतिः तिष्ठन्नमन् स्वपन जल्पन् शृण्वनंत्यजभाषणा। अश्यस्पृशन्दिशप्पस्पनकदाचिदुपस्पृशेत् (१) ॥१०॥ काकश्वखरविट्रोडताम्रचूडरजस्वलाः । व्रात्यांत्यजाति पतितान्पश्यन्नपिरपृशेद्विजः ।।११।। देवलाजभिषः शूद्रान् चंडालानुरुपातकान् । पश्यन्नोपस्पृशे द्वीमान् अन्याः संकरजानपि ॥१२॥ शयानः पादुकस्थश्चेबहिर्जानुः शरासनः । उष्णीषीकंचुकीननः न कदाचिदप स्पृशेत्. ॥१३।। ब्रह्मप्रजापतिपितृत्वौंकोजातवेदसाम् । संतिपंचापितीर्थानि पाणौ विप्ररय दक्षिणे ॥१४॥ अंग्गुष्ठस्य कनिष्ठायाः तर्जन्यामूलमग्रकम् । कंकरस्यमध्यमंचाहुस्तीर्थस्थानानिसाधवः ॥१५॥ तर्पणं देवतादिभ्यः स्वती नैव तर्पयेत् । पिवेदाचमनेदादिवीक्षितं ब्रह्मतीर्थतः ॥१६।। पानमार्जनसानादिस्पर्शानामधिदेवताः। क्रमेण सम्यकथ्यते तदा संस्मरणाय वै ॥१७॥ कार्यः सर्वागिरो वेदः पुराणोनितिहासकः(?) । प्राणंदुभानुदिग्भूमि ब्रह्मरुद्रामराधिपाः ॥१८॥ एतेपानशरीरांग्गदेवता इति कीर्तिताः। . तत्तक्रियायां स्मर्तव्या पदोपस्पर्शने द्विजैः ॥१६॥ उपस्पर्शनकालेन स्मरन्यानांग्गदेवताः। पिबेत्सृद्विजन्मायः तस्यौपस्पर्शनं वृथा ॥२०॥
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आचमनविधिवर्णनम्
३०६६ प्रक्षाल्य चरणौ हस्तौ प्राङ्मुखोवाप्युदङ्मुखः । उपविश्यासनेशुद्धे कुर्याद्गोकर्णवत्करां ॥२१॥ सपवित्रंकरे तस्मिन् माषमानमितं जलं । आनीय्यत्रिःप्पिवेद्धीमान्वेदत्रितियतुष्टये ॥२२॥ पक्कं सफेनकलुषं सदुर्गद्धंस् बुद्बुदम् । उष्णंसंमृत्तिकंक्षारं त्यजेदाचमने जलम् ॥२३॥ अंतरीक्षं नखस्पृष्टं भिन्नरंद्रविनिर्गतम् । एक हस्तापितंवारि त्यजेदाचमने द्विजः ॥२४॥ चिंतापर्युषितत्सृष्टं अंत्यजैः क्रममि (१) संयुतं । देवाभिषिक्त हेयं च त्यजेदाचमने वयः ॥२५॥ अथाग्गिरसस्तुष्टै ततोधिः परिमार्जयेत् । तिर्यदंग्गुष्टमूलेन मुखरन्ध्र विचक्षणः ॥२६॥ इतिहासपुराणानां तु'पुष्पैनिर्मार्जयेत्पुनः । अथावरोह क्रमतः तथा हस्ततलेन च ॥२॥ पादयोः सत्यपाणौ च का(प्र)क्षिपेद्वि णुतुष्टये। नासामूलं स्पृशेत्तुष्ट्य मध्यत्तंगुलिभिः शितः ।।२।। ततः पा(प्रा)णस्य संत्तु ट्य नासिका विवरद्वयं । अंग्गुष्ठ तर्जनीभ्यांतु संस्पृशेत्तु द्विजोत्तमः ॥२६॥ सूर्याचन्द्रमसोः प्रीत्यैदीर्ध्या प्रीत्यै च संस्पृशेत् । . अंग्गुष्ठानामिकाभ्यांतु चक्षुषी श्रवणद्वयं ॥३०॥ भूदोंग्गुष्ठ कनिष्ठाभ्यां नाभिं संप्रीतये स्पृशेत् । ब्रह्मणो हृदयंप्रीत्यै अलभेततलेन वै ॥३॥
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३१००
भारद्वाजस्मृतिः
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सर्वाम्गुलीभिरीशस्य मूर्धानं प्रीतये स्पृशेत् । अंगुष्ठाङ्गुलीभिस्तुष्ट्य जिष्णो स्पृशेद्रजौ (१) ||३२|| कर्मावसाने कर्मादौ देवमाचमनं द्विजः । कुर्यात्स्वकर्मसिध्यर्थं सर्वदा सर्वकर्मसु ||३३|| ताम्रचर्माश्वबालांबु नारिकेलाश्मपत्रकी । उपस्पृशेत्स्वहस्तरमै रेतैरपि विचक्षणः ||३४|| ब्रह्मयज्ञे विशेषोस्ति किंचिदाचमनक्रमे । प्रवक्ष्यते तदेतद्धि तत्कर्मफलसिद्धये ||३५|| पानत्रयं यथा पूर्वं तथा द्विः परिमार्जनं । उपस्पृश्य शिरश्चक्षु नासिकाद्वितयं तथा ॥३६॥ श्रोत्रद्वयं च हृदयं पूर्वोक्तविधिना लभेत् । एवमाचमनं प्रोक्तं ब्रह्मयज्ञे महर्षिभिः ||३७|| स्नानपानक्षुतस्पाप होमभोजनकर्मसु । अध्वोपसर्पणे मूत्रविदुत्सृष्टौ द्विराचमेत् ||३८|| जपेश्मशानाक्रमेण परिधान्येन वासिनः । चत्वाराक्रमणे चैव द्विजातिद्विरुपस्पृशेन ॥ ३६ ॥ विनाविध्युक्तमार्गेण यो द्विजो नित्यमाचरेत् । अनाचांतः स एवस्यादशुद्धयितिभाषितः ||४०|| एवमाचमनस्योक्तं विधानं श्रुतिचोदितं । एतद्धेयं द्विजश्रेष्ठैः अनुष्ठानादिसाधकैः || ४१|| ॥ इति भारद्वाजस्मृतावाचमनविधिर्नाम चतुर्थोध्यायः ॥
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अथ पञ्चमोऽध्यायः
दन्तधाबनविधिवर्णनम् दन्तानां धाबनविधिर्द्विजानामधुनास्पस्कुटं। कद्यते (कथ्यते) मुखशुध्यर्थ योग्यायं सर्वकर्मणां ॥१॥ प्रक्षाल्य चरणौ हस्तौ मुखंचाथ यथाविधि । आचम्य प्राङ्मुखःस्थित्वा दन्तधावनमाचरेत् ॥२॥ एकादश्यष्टमीषष्ठि नवमी च चतुर्दशी। प्रतिपत्पौर्णमासी च काप्टमेतासुवर्जयेत् ॥३॥ जन्मत्रयापराहार्कदिवसम्यतिपातकाः । स संक्रमाविवर्जान्युर्वतयावनकर्मणीम् ॥४॥ शल्मल्येरंद्रकाांसा पालाशाश्वद्धतिदुकाः । श्लेष्मातकसमीनिम्बधबधात्रिलिभीतकाः ॥५॥ निवारशीतकर्कक्षिरिका कोविदारिकाः । काशांग्गुलिकुशाश्चैव विवर्जा दन्तधावने ॥ ६ ॥ अशोकमधुकप्लक्षविल्वांकोलप्रियंगवः। जंव्वुकदंब्बश्यामाक बदरीगचंप्पकाः ॥७॥ शिरीषदाडिमार्काम्राकरवीरातिमुक्तकाः। जजी श्रीफल भांडीरभद्रदारुविकंछताः ॥ ८ ॥ काश्मरीबृहतीसाल चिरिविल्वा अरूक्षकाः। अपामार्गाश्वकर्णाख्य ककुभाभूतभूसहः ॥६॥
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३१ ०२
भारद्वाजस्मृतिः एते वृक्षा प्रशरतास्यु क्षीरलब्धमहीरुहाम् । यादावनं (१) कुर्यात्तानां सततं द्विजा ॥१०॥ बका विवालाः शुकायाः सरंध्राः युग्मपक्ककाः । विकूर्चाहोयगंधा च सकीटज्ञातपूर्विका ॥११॥ सप्रवासा समुच्चेदा न शास्त्रोक्तामनोहरा। त्यक्तव्येग्विधाशाखा द्विजैः शुद्ध विचक्षणः ॥१२॥ स्मिग्धासांद्रासुविदलाढ़ावामातिराजिता । स्वकनिष्ठांग्गुलिथूलावितस्त्यायातिकाशुभाः ।।१३।। नित्य देवालये गोठे श्मशाने जलमध्यगे। यागस्थाने शुचौदेशेनाचरेहंत्तधावनं ॥१४॥ शार्दूल कृष्णगोकृत्ती यज्ञवृक्षे तृगेषु च । उपविश्य न कुर्वीत वस्त्राशुद्धिमनासनः ॥१४॥ दक्षिणामुखस्तिष्ठं शयानश्चधिदिङ्मुखः । गच्छ वजत्यज्ञरवोभूत्वा नाचरेत्तधावनम् ॥१५॥ पतितात्यय पाषंड देवजीवरजस्वलाः । भिषक्यातकिछंडाल न प्रक्ष्यादंतधावने ॥१६॥ शुनकं विड्वराहं च गर्धभंत व्रचूडकं । अन्यान्नैवेद्यशापयें द्विजः शुद्ध विचक्षणः ॥१७॥ यावंत्तो नियमाः प्रोक्ता द्विजश्रेष्ठत्य सुजितः(?) । प्रेक्ष्याप्रेक्ष्येषु कर्तव्याः समौनेन विपश्चिता ॥१८॥ कदांबार्जुन कौशीरशिरीष खदिरहषु । द्विजः शुद्धि यतिः कुर्यात नदाष्टांग्गुलिशाखया ॥१॥
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दन्तधावनविधिवर्णनम् आयुरित्यादिमंत्रोयं उक्तः शाखाभिमात्रिणे। विनाभिमंत्रिणं तूष्णीं वृथास्याहन्तधावनं ॥२०॥ अस्य प्रजापति ऋषिः छंदोनुष्टुग्वनस्पतिः।। देवतेतिहृदिस्मृत्वा मंत्रारभेपदेद्युधः ॥२१॥ अभिमाहृतांशाखां मंत्रेणानेन वै द्विजः । पश्वादूर्ध्वं क्रमणे पदावयेच्छाकयैकया ॥२२॥ शाखांविदार्य तस्यास्तु भागेनैकेन मार्जयेत् । स्थूलमध्याल्पभेदतः ॥२३॥ श्रेष्ठामध्याः कनिष्ठास्युकृत्यायग्रासकल्पने।। पिप्पलाद समुत्पन्ने कृत्यये लोकभय करि ।।२४।। पाषाणंत्तेमयादत्तमाहारार्धं प्रकल्पितम् । तिलाक्षतेः स्हाशीलां मा मं,त्रेणानेनवारि च ॥२५॥ दत्तेवाधांजलिंबध्या ततस्नायाद्यथाविधि । विद्धेपर्वतान) स्नायाच्चतुर्दश्यां महोदधौ ।।२६।। साचेद्भौमयुता स्नायात्तामतिक्रम्य पर्वणि । प्रक्षाल्य चरणौ हस्तौ प्राङ्मुखो वायुदङ्मुखः ॥२७॥ स्थित्वा यथावदाचम्य प्राणायाम समाचरेत् । ततः संकल्पयेत्स्नानं ब्राह्मस्य विनियोगकं ।।२८।। आपोहिठाधिभिः षड्भिः तिसृभिः प्रणवस्य च । हिरण्यवर्ण इत्यादि चतुर्भिश्च ततः परं ॥२६॥ पवमानानुवाकेन पादाद्युक्त विधानतः । स्वात्मानं सकुशैरब्धिः मार्जयेत्परितोबुधः ॥३०॥
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३१ ४
- भारद्वाजस्मृतिः ग्रामस्थानमिदं प्रोक्त पापक्षयकरं परं। पादयोधि हृदये मूर्ध्नि वक्षसि पादयोः ॥३१॥ वक्षश्यध्योश्चमूनीति ब्राह्मो संमार्जनं क्रमः । प्राङ्मुखः प्रयतः पादौ प्रक्षाल्यचम्य पूर्ववत् ॥३२॥ प्राणानायम्य संकल्प्य भस्मस्थानं समाचरेत् । आदायभसितं स्वेतं अग्रिहोत्र समुद्भवं ॥३३॥ ईशानेन तु मंत्रेण शिरस्येव विनिक्षिपेत् । । तत आदायतद्भस्म मुखेतत्पुरुषेण तु ॥२४॥ अघोराख्येन हृदये ततस्तदसितं क्षिपेत् । सद्योजाताभिधानेन ममपातहये क्षिपेत् ॥२५॥ सर्वोगं प्रणकेनैव मंत्रणोद्दूलवेत्ततः।। एवमाग्नेयजं मानं उदितं परमर्षिभिः RAI प्राङ्मुखश्चरणौ हस्तौ प्रक्षाल्याचम्य पूर्ववत् । प्राणानायम्य संकल्प्य तिष्ठेद्व चसा ॥२६॥ स्वशरीरं भवेदार्थ यावत्तावत्सितिप्रमा। दिव्यं स्थानमिदं प्रोक्त मुनिभिः सत्वचिंतकैः ॥२७॥ पूर्ववत्सकलं कृत्वा संकल्पान्ते द्विजोत्तमः । प्रामावहिः शुचौ देशे गवागमसपद्धतौ ॥२८॥ स्मरन्नारायणं तिष्ठंद्यावदल्यावृतं पुनः। वायव्यंस्नानमित्युक्त एतदानायवादिभिः ॥२६॥ देवालये नदीतीरे मठेपुण्यायश्रमेवने। प्र(गृहावान्यतत्रस्थाने शुद्धे स्नानं समाचरेत ॥३०॥
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स्नानविधिवर्णनम्
३.१०५ येषु देशेषु यच्छत्यं तत्कृत्वा स्नानमादितः। प्रक्षाल्य चरणौ हस्तौ उपस्पृर्श श्य) यथाविधि ॥३॥ उपविश्यचु शु) चौ देशेशिश्चला ककृशास्मृते । ऊर्ध्वपुंडूच्च विधिना ललाट हृदये गले ॥३२॥ स्नात्वाग्निहोत्रजेनैव भस्मना च प्रसन्नधीः । पंचभिव्रह्मभिर्वापि कृतेन भसितेन च ॥३३॥ वामभागेस्मरेद्विष्णुं कमलारूढपक्षसं । पीताम्बरधरश्यामं चतुर्बाहुं कीरीटनं ॥३४॥ नानारत्नप्रभाजालस्पु(स्फु) रन्मकरकुण्डलं । सर्वाभरणसंयुक्त होमयज्ञोपवीतिनम् ॥३॥ पवित्रहस्तोध्यायितः किंचित्प्रहसिताननं मुकजंपांचजन्यच्च बिभ्राणं हस्तदक्षयोः ।।३।। कौमोदकी रथांगं च बिभ्राणं वामहस्तयोः। तिष्ठंतवासुखासीनं तदाध्यायेद्यथारुचि ॥३७।। विवंभक्त्या स्मरस्थ्यायेदीश्वरं मुरनायकं । सर्वपापविनिर्मुक्तः स याति परमांगतिम् ॥३८॥ इदं स्तानंत्तु सर्वेषां स्नानानामाचरेद्यथा। द्विजः शक्तस्त्वशक्तश्चेदिममेव समाचरेत् ॥३६॥ इदं हि मानसंस्कारं भुक्तिमुक्तिफलप्रदं । देवैर्महर्षिभिः सेव्यं भक्त्यापि परया सदा ॥४॥ एवं सप्तविधं स्नानं ब्रह्मणेदं पुरोदितम् । ज्ञात्वा द्विजोत्तमः सम्यग्यथायोग्यं समाचरेन ॥४॥ १६५
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३१०६
भारद्वांजस्मृतिः अत्रोक्त सर्वमंत्राणां प्रजापतिरिषि स्मृतः । च्छंदश्चंदसि विज्ञयं लिंग्गोक्ता देवता स्मृता ।।४।। प्रयोगकाले मंत्राणां ऋषिश्चंदोधिदेवताः। विनियोगक्रमादुक्त्वा तत्तत्कर्म समाचरेत् ॥४३॥ अवदित्वा ऋषिच्छंदो देवतं विनियोगकं । प्रयुनक्तिमसून्यूमौ पापिय्यान्भवतिधृ'धू)वं ॥४४॥ द्विजोमिहूब्रजनैव भस्मना च सवारिणा । धारयेदूर्ध्वपुंडू च सर्वपापविशुद्धये ।
ललाटचोर्ध्वपुंडस्यात्सर्वपुण्यफलं भवेत् ॥४॥ ॥ इति भारद्वाजस्मृतौ स्नानविधिवर्णनंनाम पञ्चमोध्यायः॥
अथ षष्टोऽध्यायः
त्रिकालसंध्याविधानकथनम अथ संध्यात्रयोपास्ति विधानं कथयाम्यहं । द्विजन्मनां परिस्पष्टं समस्ताभिष्टसिद्धये ॥ १॥ ब्रह्मव्याकारभेदेन याभिन्ना कर्मसाक्षिणी। भास्वतीश्वरशक्तिः सास्संध्येत्यभिहिता बुधैः ।। २ ।। तं मयूस्वकायायां निविष्टं स्वस्वविग्रहं। संचिंत्यतस्याः कुर्याद्यत् कर्मोपायस्तदुच्यते ॥३॥
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त्रिकालसंध्याविधानकथनम् ३१०७ उत्पत्तिस्थितिसंहार स्वस्वभाव प्रभेदतः। संध्या सर्वगतासाध्या एकैव त्रिविधा भवेत् ॥४॥ प्रासंध्यामध्यसंध्या च सायं संध्येत्यनुक्रमात् । तिस्रः संध्या भवत्येवं जन्मस्थितिलयात्मिकाः ॥ ५॥ तत्पूर्वसंध्या ब्राह्मीस्यान्मध्यसंध्या तु वैष्णवी । रौद्रि तु पश्चिमासंध्या चैवं संध्या त्रयं स्मृतं ॥ ६ ॥ ऋग्यजुस्सामवेदानां रूपत्रयमिदं मतं ।। तस्माद्विजस्सदा संध्या त्रितयं सर्वदा चरेत ॥७॥ पारभृतारकाज्योतिराभानुदय दर्शनात् । प्रातः संध्यत्यभिहित स्वाध्यायश्चमहर्षिभिः ॥ ८॥ सूर्यस्यास्थमयात्पूर्वमारभ्यातारकोदयात् । सायंसंध्येति सामध्यमुभयोमध्यमातथा ।।।। सेवेत पूर्व प्रासंध्यांमध्यसंध्यां ततस्तथा । ततश्चात्पश्चिमां संध्या नियमेन ततोद्विजः ॥१०॥ उद्धाय पूर्व संध्यायाः कृत्वा चावस्यकादिकं । स्नानांत्तं विधिवत्सर्व संध्याकर्म समाचरेन ॥११॥ महाधुनीधुनीश्रोतः सरोमातम्तटाककः । तालः पुष्करिणीत्यौ एते च मविलाशयः ॥१२।। एतेष्वेकस्त... बद्धे शुद्धस्लानेषु चैव हि । तत्रस्तित्वाद्विजः संध्यामुपासीत विधानतः ।।१३।। स्नात्वानुपहतः पादौ प्रक्षाल्य प्राङ्मुखस्थितः । उपस्पृश्यसमाचम्य प्राणायाम समाचरेत् ।।१४।।
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३१०८
भारद्वाजस्मृतिः प्रणवं व्याहृतिः सप्तगायत्रिं सिरसासहा । त्रिः पठेदायतः पाणः प्राणायामः स उच्यते ॥१५॥ सप्तव्याहृति पूर्वी तां आद्यंत्तं प्रणवाहृदा। जपेद्वादश गायत्रि एकोयं प्राणसंयमः ॥१६।। अशक्तास्यात्समुदितः प्राणायामो द्विजन्मनां । वालस्यचेतरेषां तु प्रशस्तः प्रथमोदितः ।।१७।। दक्षिणाघ्राणरंध्रेण रेचयेत्सर्वकर्मसु । प्राणायामेन वामेन स्वरंध्रेण च पूरयेत् ॥१८॥ प्रायशोखिलमंत्राणां ऋषिश्चंदोधिदैवताः। विनियोगं च संस्मृत्वा ततो मंत्राः समुच्चरेत् ॥१६।। इत्येवमुक्तो विधिवज्जपः कर्मणि सूरिभिः । व्यक्तोपांशुश्च कंठोष्टैमनस्सापिय॑नुक्रमात् ॥२०॥ पार्श्वस्थितजनैश्रोतुं य उच्चारः परिस्घटः। स्पस्यश्रोतुं परीसृट उच्चारो जपकर्मणि ॥२१॥ यो सा उपांशुरित्युक्त जपयज्ञपरायणैः । य उच्चारः सविद्वद्भिः कंठोष्ठक इतिस्मृतः ॥२२॥ मंत्राक्षराणि मनसाचिंत्तयन्नप्यथक्रमात् । पृथक्पृथक्तदुचारो मानसाख्य इति स्मृतः ॥२३॥ व्यक्त एकगुणसस्मादन्योदशगुणाधिका। कंठोष्टकश्शतगुणः तत्सहस्रगुणोदिकः ॥२४॥ पुरस्थात्प्रणवोच्चारः मंत्राणां सर्वदा स्मृताः। सर्वकर्मसु सर्वत्रापरेषां परमर्षिभिः ॥२५॥
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त्रिकालसंध्याविधानकथनम् ३१०६ पणिवस्य ऋषिब्रह्म देवता च शृतित्रयं । च्छंहस्तु देविगायत्रि विनियोगोसुसंयमे ॥२६।। भूर्भुवस्वमहाजनस्तपः सत्यमितीरिताः। यथाक्रमेण सप्तैताः महाव्याहृतय स्मृताः ॥२७॥ भूरादिनामत्रिभृगुकुत्सवशिष्ठगौतमकाश्यपोंग्गिराः। सप्तैते मुनयस्सप्तव्याहृतिनां क्रमास्मृताः ॥२८॥ भूदांसिगायर्युष्णिश्च अनुष्टु(प) हति तथा । पंक्तित्रिष्टुप च जगते चैव मुक्तान्यनुक्रमात् ॥२६॥ भूरादिव्याहृतीनांत्तु मुनयो मुनिसप्तकं । संस्मर्तव्यमिति प्राहुः केचित्स्वाध्यायवादिनः ॥३०॥ विश्वामित्रो जमदनिर्भरद्वाजोथ गौतमः। अत्रिभृगुः कश्यपश्च इति सप्तमहर्षयः ॥३१॥ पावकस्य सन्त्सूर्यवागीशोयादसांप्पतिः । देवरात्विश्य देवाश्व देवता इत्युदीरिताः ॥३२॥ स्वेतस्त्रामश्च सारांग्गः पीतवर्णाश्च लोहिता। सुवर्णवर्ण इत्येते तासां वर्णाः क्रमात्स्मृताः ॥३३॥ विश्वामित्र ऋषिश्चंदो गायत्रि देवतांशुमान् । गायाशिरसो ब्रह्म मुनिश्चंदस्तथैव च ॥३४॥ देवता परमात्मास्याद्विनियोगोनुसंयमे। प्रणवस्यतथावर्ण शुद्धस्फटिकसंनिभः ॥३५॥ तथैषामुक्तमंत्राणां सर्वतत्रमिति स्मृतं । इत्येवमुक्तानत्वा च सर्वकर्म समाचरेत् ॥३६॥
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__ भारद्वाजस्मृतिः आदौ यः सर्ववेदानां उच्चार्यः प्रणवो हि सः । भूरादयोत्र कथिताः संत्तिचंदसि सप्त च ॥३७॥ यस्यतत्सवितुपूर्व तदंतं च प्रचोदयात् । तस्मादयं प्रकथितः मंत्रः सर्वागमेष्वपि ॥३८॥ पवित्रवत्तइत्यस्मिन् सूक्त देयुजुरागमे । नतामियंनित्यस्मिंच मंत्रस्यश्चंदसिस्पुटं ॥३॥ ॐ मापो ज्योतिरित्यादि भूर्भुवः सुवरोमिति ! सर्वशृतिशिरोगृह्यमेतद्गायत्रिया स्मृतां ॥४०॥ एतद्रहस्यं गायत्र्याः शिरः सप्तदशाक्षरं । परब्रह्मत्यभिहितं वेदेवाजसनिय्यके ॥४|| ततः संकल्पयेत्प्रातः संध्योपास्तिकरोति यः। इति स्वचेतस्मरणं यः संकल्पस्तदुच्यते ॥४२।। आपोहिष्ठादिभिर्मत्रैः त्रिभिः संमार्जयेततः । सिंधुद्वीपभृषिश्चंदो गायिच्यापोहि देवताः ॥४३।। मार्जने विनियोगस्तु सूर्यश्चेति जलं पिवेत् । अस्यानुवाकस्य ऋषिः छंदो गायत्रमंशुमान् ॥४४॥ देवता विनियोगोपांपाने समुपवेशयेत् । आत्मानं प्रोक्षयेत्पश्चात् दधिक्रावुण्न इत्र्यूचा ॥४॥ आपोहिष्ठादितिसृभिः ऋग्भिश्च सकुशैर्जलैः । दधिक्रावुण्नमंत्रस्य बामदेवऋषिर्मनोः ॥४६॥ छंदोनुष्टुग्विश्वदेवाः देवतापश्चवास्मृता । ततोपसव्यं व्याहृत्या वा समस्तया ॥४७॥
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त्रिकालसंध्याविधानकथनम् ३१११ पश्चादुवाभ्यां हस्ताभ्यां आदायांव्युसमाहितः। ......"भिमुखस्तिष्टप्राणव्याहृति पूर्वया ॥४८॥ गायत्रियाभिमंत्रोवं त्रिःक्षिपेद्विजसत्तमः । तत प्रदक्षिणिकृत्य प्रोक्षतेद्धिशुचिस्थले ॥४६॥ दर्भेषुवाग्यतत्तिष्ठन् प्राङ्मुखोदर्भपाणिकः । त्रिः प्राणसंयमं कुर्यात् ऋष्यादीनधनस्तरान् ॥५०॥ गायत्र्यास्तु समस्थाया ऋषिच्छंदोधिदेवताः । स्मृत्वाप्रत्यक्षरं पश्चादृष्ट्यादिन्क्रमशस्मरेत् ॥५१॥ वशिष्टभरद्वाज गौतमभृगुशाण्डिल्यरोहितगर्गशाण्डिल्य । शातातपसनत्कुमारसत्यवद्भार्गवपराशरपौण्डरीक क्रतुदक्षकाश्यपजमदग्न्यात्रंङ्गिरः कार्तिकेयमृगकुंभयोनिसाध्या इति ।।२।। चतुर्विंशति वर्णानांत्तदादिनां यथाक्रमं । ऋषयोगीसमाख्याताः स्मर्तव्याः प्रथमे मनोः ॥५३॥ गायत्र्युष्णिगनुष्टुपपंतित्रिष्टुब्जगतिकांतिवृहतिसकृत्य "लाविष्टदपंङ्ति अक्षर पंक्तिकात्यायनि ज्योतिष्मति त्रिष्टुब्जगति सर्वछंदो गायत्रिछंदो देवी गायत्रित्येतानि छंदांसि ॥४॥ चतुर्विंशतिरेतानि छंदास्सिहयथाक्रमं । प्रोक्तानिगायत्र्यादीनि तदादीनां पृथक् पृथक् ॥५५॥
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३११२
भारद्वाजस्मृतिः अग्निप्रजापतिस्सोमः यीशानस्त्वदितिवृहस्पतिर्मित्रोभगः । अर्यमान(स)वितात्वष्टा पूचंद्राग्निवामदेवोमित्रावरुणाचभ्रातरौ विश्वेदेवाविष्णुर्वसोजीवः ।। कुबेर अश्विनौ ब्रह्मति तेषां यथाक्रमेणैतेचतुर्विंशति संख्यया ।। अक्षराणां तदादीनां समाख्याता हि देवताः। पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशागंद्धरसरूपस्पर्शवाकस्वस्तिपादपाया(यू)पस्तश्रोत्रमनश्चक्षुर्जिव्हाघ्राणहंकारबुद्धि गुणत्रयमित्येतानि सर्वाणितत्दानिति ।।६।। चतुर्विशतिवर्णानां तदादीनां यथाक्रमं । तत्वानितानि 'प्रतिणं पृथक् पृथक् ।।७।। ब्राह्मीसभामहानित्या विपापा च सरस्वती। प्रभावतिललाकांतिः कात्तदुर्गापरानला ॥५८।। विश्वरूपा विशावेशा व्यापिनी कमलापति । मोहावसूक्ष्मा हिरण्मया शांतापद्मा सचापरा शोभानागदारूपिणिति॥ चतुर्विंशतिरेतेषां अक्षराणां पृथक् पृथक् । यथाक्रमं समाख्याताः शक्तयः सर्वकामदा ॥५६।। सुमुखं संपुटं विस्तीर्ण वित्रतं द्विमुखं त्रिमुखं चतुर्मुखं पंचमुखंषणमुखादामुखव्यापकांजलिशकटयमपाशप्रथित सुमुखोस्मुख प्रलंवमुष्टिक मीनकूर्मवराहसिंहाक्रांत्तमहाक्रांत्तमुद्रपल्लवमिति ॥
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न्यासविधिवर्णनम्
३१ १३ चतुर्विशत्यक्षराणो येतामुद्रा पृथक् पृथक् । यथा क्रमेण कथिताः शीघ्रसिद्धिप्रदायकाः ॥६०॥ आदौ सांग्गं च कर्मोक्व सप्तम्यंत्तमनंतरं । विनियोग इतिवदेद्विनियोगस्तदुच्यते ॥६॥ चंप्पका पुष्पवल्मितं इन्द्रनीलसमप्रभं । कृपीटयोनि दीप्ताभं जलद्वह्नि समप्रभ ॥६॥ पूर्णेन्दुशंखधवलं पांडरं शुक्रकोपहं । गोरक्तसदृशं भानोः उदयद्युतिसन्निभं ॥६३।। गोरोचनप्रभावीतं नीलोत्पलदलप्रभं। शंखकुंदेंदुधवल वर्णातीतंतदद्भुदं ॥६४॥ चतुर्विशतिवर्णानां वर्णाः प्रोक्ता यथाकूर्म । एवंमृष्ट्यादिकानेतः सर्वास्मृत्वा प्रणम्य च ।।६।। सम्यगुक्तप्रकारेणन्यासत्रयमथाचरेत् । प्रथमं तु करन्यासं देहन्यासंत्ततः परं ।।६६।। अंग्गन्यासं ततः प्रोक्तमेवन्यास त्रयं क्रमात् । कोष्टातंवहिःप्पाण्योः तलयोस्तलष्टयोः ॥६॥ तलयोर्मध्यमविप्रः प्रणवं केवलंन्यसेत् । प्रकोष्ठहस्तविन्यासं संमार्जनंपाणिनामिथः ॥८॥ तलमध्यमविन्यासं संस्पर्शमध्यांग्गुलाग्रतः । उभयोंग्गुष्ठयोस्वस्य तर्जन्या प्रणवन्यसेत् ।।६।। अना(मिका)मंग्गुलीनांत्तु चतुर्विशति पर्वसु । चतुर्विशत्यक्षराणि तर्जन्यात निमारभ्यवतर्जनिकावधि।
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३१ १४
भारद्वाजस्मृतिः स्वस्यांग्गुष्ठेन्यसेद्वर्णन्प्रणवेन पृथक् पृथक् । इत्येवमेतत्कथितं करंन्यासं यदौर्धतः ॥७॥ कृत्वासहसनंन्यासमधुकुर्या द्विजोत्तमः । अंग्गुष्ठ गुल्फजंघासु जानूरुशमलाद्वसु ॥७२।। वृषणेकटिनाभ्योश्चाजठरस्तनहृत्स च । कंठास्यतालुकानानुदृग्भूमध्यांग्गकेषु च ॥७३।। प्रारदक्षिणोत्तरप्रत्यगूर्ध्वषुशिरसः क्रमात् । चतुर्विंशत्यक्षराणीतदादीनिस्वविग्रहो॥७४॥ चतुर्विशतु देशेषु प्रोक्त ध्वेषु प्रविन्यसेत् । पापघ्रमुपपापघ्नं महापातकनाशनं ॥७॥ दुष्टाम्रग्रहरोगनं भ्रूणहत्याघनाशनं । अगम्यगमनागनं अभक्ष्यास्वादनाद्यहं ॥७६।। ब्रह्महत्याघहरणं नृहत्यापविनाशनं । गुरुस्तीगमनागनं ग्रामकूर कृतापहृत् ।।७।। पितृमातृवधाघन पूर्वजन्माघनाशनं । दुष्टपावसमूहान त्रिविक्रमपदप्रदं ।।७।। पदं पदं महेशस्य पद्माक्षस्यपदप्रदं । विधेप्पदप्रदं ब्रह्म विष्णुरुद्रादि संस्तुतं ॥७६।। आदित्येतन्महः साक्षात्परब्रह्म प्रकाशकं । चतुर्विंशत्यक्षराणां फलमुक्त पथक् पृथक् ॥८॥ न्यस्याक्षराणि स्वस्यतनौस्मरेत्तत्तत्पलं भवेत् । उत्तमक्षरविन्यासं अंग्गुष्ठादिशिरोवधि ॥८॥
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त्रिकालसंध्याविधानकथनम् ३१ १५ अथपादादिमूर्ध्वातं पादंन्यासस्तु कथ्यते । पादयोस्तत्पदंन्यस्य सवितुः जंघयोयसेत् ॥८२॥ जानुद्वयेवरेण्यंत्तु गर्भइत्यूरुदेशतः । देवस्य गुह्योविन्यस्य धीमहीति च तत्र वै ॥८॥ स्तनयोस्तुधियोन्यास कंठेय इति विन्यसेत् । न इतिन्यस्य पदने नासिकायां प्रचोदयात् ॥८४॥ ॐ मापोज्योतिरित्यादिगाया सकलं शिरः। शिरः प्रभृति पादांत्तं हस्ताभ्यां विन्यसेत्ततः ॥८॥ एवं स्पष्टं पदंन्यास विधानं समुदाहृतं । मंत्रेणानेन सर्वेण सौकरेण दिविग्रहं ।।८६॥ कराभ्यां संस्पृशेद्धिमान् मूर्द्धादिचरणावधि । एतत्संहननन्यासं वज्रसंपन्ननोपमं ॥८७।। कृत्वाषडंग्गविन्यासंट्कर्माध (१) समाचरेत् । हृद्धस्तकेशिखागात्रनेत्र प्रहरिणा निषट् ॥८॥ अंग्गान्यमूनित्युक्तानि वच्मिषट्पल्लवान्यथा । तिस्रोव्याहृतयोमंत्रेषड्वर्ण हृदयादयः ॥८॥ चंतुध्यंत्ताः पल्लवारित्ताः एतेंग्गमनवः स्मृताः। हृन्मंत्रं हृदयेकान्ते शिरोमंत्रंशिखामर्नु ॥६॥ शिखायाः कवचं देहो कृक्फालेषु(मध्यमांग्गुलैत्रिभिः)। अंग्गुष्ठतर्जन्याग्राभ्यां सशब्दंदिक्षुपार्श्वयोः ॥४॥ षडंग्गंन्यासमित्युक्तं च दृङ्मनु । पार्श्वयोर्दिशिश्वत्तमंत्रयित यथाक्रमं ॥१२॥
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३११६
भारद्वाजस्मृतिः अंग्गुलीभिश्चतशृभिः द्वयोह दयशीर्षयोः। मुष्टेरंग्गुष्ठशिरसापश्चमेतस्यवामतः ॥१३॥ वहिः कलाभ्यां दृक्फालं मध्यमांग्गुलैत्रिभिः । अंगुष्ठतर्जन्यमाभ्यां सशब्दंडि(दि)क्षुपार्श्वयोः ।।४।। षडंग्गन्यासमित्युक्त इदंम्मेतप्रकारतः। न्यस्याघायातु वरदेत्यनुवाकेन मंडभानोरावाहयेदेवींसंध्यांगायय॑ह्वया। वासुदेवऋगिश्चंदोनुष्टुस्सावित्रि देवता ।।६।। आवाहने विनियोगः देव्वा अस्यायथाक्रम । अविचावाहयेद्देवी हृदयांभोरुहे द्विजः ॥६६॥ ध्यात्वाध्येयं यथाप्रोक्तं मूर्तिध्यानं तथैव हि । धात्वोपचाराः सकलास्कृत्वाधजपसमाचरेत् ॥६७।। अष्टोत्तरसहस्र वाह्यष्टोत्तरशतं तु वा। जप्तष्ट्य्वा विंशतिं वापि वीजशक्तिकमा(ज)पेत् ॥१८॥ पूर्वाण्डं च चतुर्थाण्हं वीजमस्या इति स्मृतं । चतुर्विशाद्यक्षरांतं सदीधं शक्तिरुच्यते ।।६।। जपेदष्टोत्तरशतं अष्टाविंशतिरेफला । एतयोः पूर्वमुनिभिः आख्यातः शक्तिबीजयोः ॥१००। अंगुलिभिस्तुरेखाभिः अथवा जपमालया। जपस्यसंख्या विज्ञेया जपद्भिर्द्विजोत्तमैः ॥१०॥ वृथाभवेत्कृतो विप्रैः संख्याज्ञानं विनाजपः । तस्मात्संख्यापरिज्ञानं अवश्यं जपकर्मणि ॥१०२॥
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जपविधानकथनम् जपस्येकस्यैकमणि नयेदक्षसृजि क्रमात् । तथांग्गुष्ठेनसकलानितरंग्गुलैः सहा ॥१०३॥ अपवित्रकरोनग्नः मुक्तकेशः सकंचुकः । उष्णीस्यशुद्धो भूमिष्टः प्रलपन्नजपोद्विजः॥१०४॥ निष्टेवजभण क्रोधनिद्रालस्यक्षताः मदः । पतितश्वांत्यजालोकादशैते जपवैरिणः ॥१०।। यद्येषांभवेविप्रः सूर्यादीनवलोकयेत् । उपस्पृश्याथवाशेषं प्राणाः संयम्य वा जपेत् ॥१०६॥ सूर्योषqधतारेश नक्षत्रग्रहतारकाः । एते सूर्यादयः प्रोक्ताः मुनिभि ब्रह्मवादिभिः ॥१०॥ एवं सभ्यग्विधानेन जपं सर्वं समाप्य च । समाहितश्चनद्भक्त्यादेवीं विप्रोभिवादयेत् ॥१०८।। कर्णयुग्मं स्वहस्ताभ्यां स्पृष्ट्वा जानुद्वयादिकं । चरणांग्गुष्ठयुग्मांत्तं संमृज्य तु शनैः शनैः ।।१०६॥ दक्षश्रोत्र समंलाहुं दक्षिणेन प्रसार्य च । वाहूपरिशिरोनम्र मुक्ति तदभिवादनं ॥११०॥ स्वगोत्रनाम शर्माहं भवत्यंत्तेभिवादयेत् । इत्येतद्भाषणंयत्तन्मंत्रस्यादभिवादने ॥११॥ मंत्रेणानेनगायत्रिं यथावदभिवाद्य च । उत्तमेनानुवाकेन देवीमुद्वासयेदधा ॥११२॥ अनुवाकस्यतस्यैवा वामदेय ऋषिस्मृतः। छंदोनुष्टुप् च सावित्रि देवतोद्वासने विधिः ॥११३।।
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३१ १८
भारद्वाजस्मृतिः इत्युक्तानेनगायत्रिं अनुवाकेन वै द्विजः । उद्वास्याधनमस्कुर्याञ्चतुः संध्यादि देवताः ॥११४॥ संध्यापुरस्ताद्गायत्रि सावित्रि च सरस्वती । एतत्संध्यादयः प्रोक्ताः चतसोदेवताः क्रमात् ॥११॥ स्वस्वनाम चतुर्थ्यत्तं प्रणवादि नमोत्तकं । मंत्रमासामिह प्रोक्तं प्रणमेत्स्वस्वमंत्रतः ॥११६॥ केचित्तु मुनयः प्राहुः प्रतिमंत्रं प्रदक्षिणं । कुर्वन्प्रणामं कुर्वीता ताभ्याः भक्तितो द्विजा ॥११७॥ मित्रस्येत्यादिभिग्भिः विस्पष्टोदित मंडलं । आदित्यंतिमृभिर्देव उपतिष्ठेदधद्विजः ॥११८॥ असामृषिविश्वामित्रः देवता वै दिवाकरः।। भूमिगायत्र्यमाद्यस्यत्रिष्टुभाविहपश्चिमौ ॥११६ ।। इत्येवमुक्त्वोपस्थाय ततस्थमभिवादयेत् । अभिवादनमंत्रेण सद्भक्त्या लोकसाक्षिणं ॥१२०।। सगोत्रनामशर्माहं भी पादैरभिवादयेत् । इत्येवं भाषमाणेयं मंत्रमर्काभिवादने ॥१२॥ सर्वाभ्यो देवताभ्यश्चेत्येतत्प्रणव संयुतं । उक्त्वानमोनमयिति प्रणमेत्सर्व देवताः ॥१२२।। कामोकाषिन्मनपुरकापिदेत्येतत्पूर्वमंत्रवत् । उक्त्वा प्रदक्षिणे नैव नमस्कुर्यात्रयितनुं ॥१२३।। प्राची च दक्षिणांचाध प्रतीचीचोत्तरोधकं । अधरांचात्तरिक्षं च एताः सप्तादितादिशः ॥१२४||
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जपविधानवर्णनम्
३१ १६ संध्यादीनां यथा प्रोक्त मंत्रमासांतथैव हि । ज्ञात्वा यथाक्रमेणैताः प्रणमेत्स्वावमंत्रतः ।।१२।। गायत्र्यसोतिनत्वाध प्रणवव्याहृति पूर्वया । स्याद्गायामलंदद्यादविवैतद्विसर्जनं ॥१२६॥ ॐ सूर्याय नमः। प्रातः सायमोमग्नये नमः। इत्यसग्नि ब्रह्मचारि प्रदद्याश्चोदकं यतिः ॥१२७॥ दत्त्वादकं जपेदन्व जपस्तेनाग्निमान्द्विजाः। पितृणांमरुतांतुप्यैक्षयायसकलेनसां ॥१२८।। आत्मानं परमात्मानं भावयित्वा द्विजोत्तमः । आत्मानमात्मनाध्यात्वा हृत्मनंचोपसंग्रहात् ।।१२।। एवं संध्यामुपास्याधाभ्यां यं यं प्रपश्यति । यं यं स्पृशति हस्तेन तत्तत्सवं शुचिर्भवेत् ॥१३०।। अथोच्यते विशेषस्तु संध्ययोरन्ययोर्द्वयोः । पयः पानेप्युपस्थाये मंत्रष्वर्क प्रचेतसोः ॥१३॥ आपः पुनंत्विच्येतस्यमुनिरायो विधानतः। छंदोनुष्टुविति प्रोक्त देवता ब्रह्मणस्पतिः।।१३२।। विनियोगः पयः पाने इत्युक्त्वानेन मंत्रितं । पीत्वाजलमधाचामेदन्यत्प्रातरिवाखिलं ॥१३३।। असब्येनाति षड्ऋचां हिरण्यस्तूप इत्युषिः । पूर्वेद्वेष्टि त्रिष्टुभौपश्चाद्गायत्रि जगती ततः उष्णीत्रिष्टुवितिप्रोक्त्वा छंहास्यर्कोधिदेवताः ॥१३४।।
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भारद्वाजस्मृतिः अन्यत्सवं यथापूर्व कर्मकुर्याद्विजोत्तमः । एवं मध्याह्न संध्यायां विशेषविधीरितिः ॥१३॥ अथ पश्चिम संध्यायां विशेषोत्र विधीयते । सितेरवाउपक्रम्य पश्चिमं तु समाप्नुयात् ॥१३६॥ अग्निश्चेत्यनुवाकश्च मुनिः सूर्योहुताशनः । देवता गायत्रं छंदः पानेपांविनियोगकः ॥१३७।। एतत्प्रत्यङ्मुखस्थित्वा स्मृत्वात्त्वानेनकंपिवेत् । उपासने विशेषोयं उपस्थानेथ वक्ष्यते ॥१३८।। याञ्चिद्धित्यादिपंचाल देवराज इति स्मृतः । गायत्रित्रिष्टुन्जगति गायत्रित्रिष्टुभित्यपि यथाक्रमेनाच्छंदांसि वरुणाश्चाधिदेवता ॥१३॥ उपस्थाने विनियोगयित्युक्त्वातं च पंचभिः । वरुणं समुपस्थाय कुर्यादन्यदापुरं ॥१४०॥ प्रयोगकाले मंत्राणि ऋषिच्छंदांसि दैवतं । विनियोगं शक्तिवीजे स्मरेनोचेवृथाफलं ॥१४॥ इदं समस्तं सृतिभिः गायत्रिचेद्युदाहृता। विधिनैवाभ्यसेद्यावततुरिय्यं परमं पदं ॥१४२।। ॐ भूदित्यादित्रिमंत्रः प्रागायर्त्यनंतरं । तस्यां प्रथमपानेन भूर्भुवः सर्जगत्यं ॥१४३॥ प्याप्यं द्वितिय्यपादेन वेदानां त्रितया तथा । त्रितिय्येन तु पादेन प्राणव्यानं समानकं ॥१४४॥
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गायत्रिनिर्वचनम्
३१ २१ व्याप्त चतुर्थपादेन परमं रविमण्डलं । क्रमाणानेन संक्रांत्तं ययाव्याप्तमिदं जगत् ॥१४४।। गायत्रि सर्व देवानां माताः साक्षाद्विजाश्रयाः। तामेव प्रजपेद्भक्त्याध्यायेच्च सततं द्विजः ॥१४॥ दुष्प्रतिग्रह भुक्त्याहं उपाह्वभ्यो निशं द्विजः । गायंतं त्रायते यस्मात् गायत्रीति स्मृता बुधैः ॥१४६॥ पाणागाधाइति प्रोक्ताः त्रायतेतानधापि वा। गायत्रीतिभवेन्नाम केवलं त्रायतीति वा ॥१४७।। आशेषप्राणि जिह्वासु सदावाग्रूपवर्त्मनात् । परस्वतीतिनानोयं समाख्याता महर्पिभिः॥१४८॥ सवित प्रकाशकरणात्सावित्रीतिमृता बुधैः । जगतः प्रसवतीति हेतुनानेन वा भवेत् ॥१४६।। तस्मादियं सदोपाश्या निशादिवसयोर्द्विजैः । गायत्रिसनन्निवेलायनैव संध्येति कीर्तिताः ॥१५॥ यो जपेद्वजसंज्ञात्वा नश्यत्यहंसि तत्क्षणात ।
पिच्छंदो देवताश्च जपेत्तास्ता यथाक्रमात ॥१५१॥ 'ज्ञात्वायोपास्तिमाचरेत' ज्ञात्वा पदानि जित्वा धमदिय्यं पादमव्ययम् । ब्राह्मणो याति तत्साम्यं पदं ज्ञात्वा तुरिय्यकम् ॥१५२।। यासायत्रिचरणा सात्रिमूर्तिस्वरूपिणि । उपास्यानारतंप्रैः त्रिसंध्यासु त्रिमूर्तिषु ।।१५३।। १६६
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३१ २२
भारद्वाजस्मृतिः । तुरिय्यपादमेतस्या ज्ञात्वा यो पास्तिमाचरेत् । सरत्नपूर्ण पृथिवीं गृह्णान्नो दोषमाप्नुयात् ॥१५४|| ब्रह्मकेशवरुद्रादि देवताभिरुपाशिताम् । संध्यात्ताकोन सेवेत विप्रः सदभिलाषकः ॥१५।। प्रातः सतारकां संध्यां सायं संध्यां सभास्कराम् । स्नानकर्मणितन्मध्यां उपासीत यथाविधि ॥१५६।। प्रारेवमुपासित्वा प्रात्कुर्याद्भवनं जपं । स्नानस्यानंतरं कुर्यात्तर्पणंच महाक्रमान् ॥१५७।। सायं संध्यां तथोपास्य होमं कुर्वोत वासनं । संध्योपासनहीनो यः न योग्यः सर्मकर्म सु॥१५८॥ तस्मादुपास्यविधिना संध्यामन्यक्रियां चरेत् । नोपासयो द्विजस्संध्याविनाशूद्रत्वमाप्नुयात् ॥१५६।। कर्माण्यान्यानि संत्यत्य संध्या वा केवलां द्विजाः । उपास्ये सर्वपुण्यानि कृत्वाः सभवेदलं ॥१६०। संध्योपास्ति विना विप्रः पुण्यन्यम्यासिचाचरेत् । यस्तस्यतानि पापानि भवत्येव न संशयः ॥१६॥ नाशये जनितंपाप दशजन्माप्तमात्मनः । पुराकृतं शतजपात् गायाख्यं विजन्मनः॥१६२।। कृतयुगेपिचैकस्मिन् सहस्रण जपेन तु। तद्भक्त्या जपतस्तस्माद्गायत्रि सर्वदा जपेत् ॥१६३।। समस्तसप्ततंतुभ्यः जपयज्ञः प्परस्मृतः। हिंसयान्येव प्रवर्तते जपयज्ञो न हिंसया ॥१६४।।
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जपयज्ञवर्णनम्
३१२३
यामतः कर्मयज्ञाश्च दानानि च तपांसि च । ते सर्वे जपयज्ञस्य कलांनाहन्ति षोडशम् ॥१६॥ जपेन देवता नित्यं स्तूयमानाप्रिनादति । प्रसन्ना विपुलांन्भागान अंतेमुक्तिच्च शाश्वति ॥१६६।। यक्षराक्षसवेतालग्रहभूतपिशाचकाः। जपाश्रयं द्विजं दृष्ट्वा दूरतोयांत्ति भीतितः ॥१६७।। तस्माज्जितेंद्रियो नित्यं संध्योपास्ति समाचरेत् । स सर्वलोकासिजत्वाध विप्रस्ववशमानयेत् ॥१६८।। तदत्ते ब्रह्मभावेन यावदाभूतसंप्लवं । तावन्नित्योनिरातको भवेदत्र न संशयः ।।१६।। एवं संध्यां बिनासर्वां यो प्राध्यापये द्विजः । अध्यापरो यदावच श्रोता चैकाग्रमानसः ।।१७।। स सर्वपापन्निर्मुक्ताः सर्वविद्या विशारदः । सर्वधान्यधनोपेतः जपाद्वर्पशतं सुखि ॥१७॥ एपद्विधानं सकलं यो वेदाखिलवेदवित् । स योसवेदवेदानां पारगोपिन वेदवित् ॥१७२।। इमंविधिंदारयितुं यो मूल ब्रह्मसंत्ततिः। क्षात्रं च पूर्वजनने कृतविन्यास संततिः ।।१७३।। यो दद्यादिममध्यायं सद्भक्त्या ब्रह्मणोत्तमः । मनस्तु निर्मलं तस्य भवदस्य न संशयः ।।१७४।। एतद्विद्वानं योधित्य श्रावयेद्ब्रह्मणोत्तमान् । प्रतिपर्वप्रयत्नेन ब्राह्मणो नियमेन च ॥१७॥
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३ १ २४
भारद्वाजस्मृतिः अज्ञानेन प्रमादेन शृतविन्नान्य संत्ततिः। (दुयत्समुदितं)तस्य तत्सकलं नाशं ब्रजेत्तत्रन संशयः ॥१७६ या संध्योपास्तिविच्छंत्ति यस्यस्थानविहीनता। पर्वणि श्रवणादन्यत्र तत्सर्व पूर्णतां भवेत् ॥१७७।। कामवान्मोहयाल्लाभात्संध्यांन्नातिक्रमेद्विजः । संध्यातिक्रमणद्विजः ब्राह्मण्यात्वततेयतः ॥१७८।। अनागतांतु ये पूर्वी अनिधीतां तु पश्चिमां । संध्यांन्नोपासते ये तु कथंते ब्राह्मणा स्मृताः ॥१७६।। सायं प्रातः सदासंध्यां विनादिप्राउपासते। कामं तां स्वधिरोराजा शूद्रकर्मसु योजयेत् ॥१८०।। विधानमेतन्नोदेयं रहस्यं यस्यकस्यचित् ।
वेदाध्यायाभिजाताय प्रदेयं स द्विजन्मने ॥१८१।। ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ जपविधानवर्णनंनाम षष्ठोध्यायः ॥
अथ सप्तमोऽध्यायः
जपमालायाःविधानकथनम् सहस्त्रपरमां नित्यां शतमध्यां दशावरां । तां सावित्रि जपेद्विद्वान् प्राङ्मुखः प्रयतस्थितः ॥ १॥ अथोपतिष्ठेतादित्यं उदयंत्तं समाहितः । भत्रैस्तु विविधैस्सौरै ऋग्यजुः सामसंभवैः ।। २ ॥
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जपमालायाः विधानकथनम्
उपस्थाय महादेवं देवदेवं दिवाकरं । कुर्वीत प्रणतिं भूमौ मूर्धानेनैव मंत्रतः ॥ ३ ॥ ॐ वषट्काराय शांताय कारणत्रय हेतवे । निवेदयामि चात्मानं नमस्ते ज्ञानरूपिणे ॥ ४॥ नमस्ते घृणिने तुभ्यं सूर्याय ब्रह्मरूपिणे । विधानं जपमालायाः प्रवक्ष्यामि यथाक्रमं ॥ ५ ॥ जपो विशेष फलदः यो जपे जपमालया । तस्मात्सर्व प्रयत्नेन जपमालां यथाविधि ॥ ६॥ संध्याद्यानंत्तरं विप्रः जपेत जपमालया । जपमालामणिस्तेषां लक्षणानि ततोविधिः ॥ ७ ॥ जपमालाविशेषश्च कथ्यते च यथाक्रमं । अपत्यजीवखंखार्क प्रवालमणिमौक्तिकाः ॥ ८ ॥ सरोजबीजगाग्गेय कुशरुद्राक्ष संज्ञिका । दशैते जपमालायां मणिकण्युदीरिताः ॥ ६ ॥ एकस्मादधिकस्वेकः फलेनाभिहिता अमी । अंग्गुलीभिः कृतजपः क्रियातावानिति स्मृतः ॥१०॥ रेकाभिरेकोष्ठाउक्तः तेकस्तुजपिनेदश ? | शंखेरेकगुणं तद्वत्स्फटकाक्षिश्चविभ्रमैः ॥ ११॥ एक सहस्रमणिभिः एकोदशसहस्रकः । लक्षयुक्ताफलैरेकः कोटिरेकोव्जवीजकैः ॥१२॥ हैमैरेकादशकोटि शतकोटिस्तथा कुशैः । अनंतमेकोरुद्राक्षैः एवमुक्तं फलं क्रमात् ॥ १३॥
३१२५
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३ १ २६
भारद्वाजस्मृतिः मणिभिर्मोक्षमाला च सप्तविंशति संख्यकैः । त्रिंशत्संख्यै तु मणिभिः जपमालामतंद्रितः ॥१४॥ पंचाशच्छतसंख्याकैःमाला चतुरुत्तरपंचाशर्मणिभिर्ज
पमालिका। विद्वेषणादिषु क्षुद्रकर्मस्वभिहिता बुधैः ।।१५।। अष्टोत्तरशतं मालामणिभिर्या विनिर्मिता। सर्वाभिष्टेक फलदा सदाजपकृतामलं ॥१६।। एवं संख्याफ्लं प्रोक्त मणिनांतु यथाक्रमं । अथोच्यतेंग्गुल फलं अंग्गुष्ठादि यथाक्रमं ।।१७।। जपोमोक्ष प्रदोंग्गुष्ठः मध्यायुः प्रष्वृद्धिदाः । समस्ताभीष्टफलदा नामिकामरणादिषु ॥१८॥ क्षुद्रकर्मसुसर्वेषु तर्जनि तत्फलप्रदा । अंग्गुलिनां फलं सम्यक्क्रमेणोक्त पृथक् पृथक् ॥१६॥ अथोच्यते मणीनां तु लक्षणं साध्वसाधु च । न ज्यास्मिग्धाः दृढ़ाः पक्काः गुरुवो ऋजुरंध्रकाः ॥२०॥ न्यायागताये मणयः ते शुभाजप कर्मणि । पाक्तनाकिप्पुरुषा खंडाः स्फटिकाश्च सकीटकाः ।।२१। अतिसूक्ष्मा अतिस्थूलाः अपकावरंध्रकाः। अन्यायेनागताः पूर्व पूर्वोक्ता जपकर्मणि ॥२२॥ हताश्चयेते मणयः न ग्राह्यजपकर्मणि । रुद्राक्षाः पुत्रजीवाख्याः पद्मवीजेष्वमीगुणाः ।।२३।।
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जपमालायाः विधानकथनम्
सुप्रेक्षमणिय्यारत्नेषु सद्रत्नमणयः शुभाः । रुद्राक्षण्येकवक्त्रादि चतुर्दशमुखावदि ||२४|| संत्तितद्वदनाकाराः ऋजुरेखैवतिष्ठति । विप्रभूपतिविट्च्छूद्राः रुद्राक्षास्युश्चतुर्विधाः ||२५|| सितरक्त सुवर्णाभ कृष्णायिति यथाक्रमं । समजातिमुखायोग्य रुद्राक्षा मालिका कृताः ||२६|| विपरीत्तानियो ग्यास्यु तथावृषलजातयाः । बिद्दता सकलंक्कादिदोषरत्नेष्वशोभनाः ||२७| निर्मलादोषरहिताः एतेसम्मणयस्मृताः । बिंद्वावत्तत्तुषंत्रास रेखाकांचन कीलकाः ||२८|| सप्तते कथिता दोषाः रत्नशास्त्रविशारदैः । जंब्यूपलवदाकारः स्तनचूचुकसंनिभः ||२६|| चूड़ामणिवदाकारो वालवत्सस्यशृङ्गवत् । इयं चतुर्विधा विदुखी संतति विनाशकृत् ||३०| शंखमस्तकसंक्काशसरिद्वेणुभ्र मोपमः । आवर्तोद्विप्रकारोयं सदा विभ्रमकारकः ||३१|| गोधूमचूर्ण सदृशः व्याप्यरत्नं समंततः । आस्ततत्तुषसंज्ञोयं सर्वदांग्गकृशप्रदः ||३२|| त्रासाख्यः स्फटिकप्ररूयः शुक्त्यभ्यंतरुक्समः । त्रासस्तु विप्रकारोयं त्रास संजननः सदा ||३३|| रविरश्मि समाकारा मूत्रपात्त परावृतिः । वनपातवदाकारा त्रिधोरेखादिकष्टधा ॥३४॥
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भारद्वाजस्मृतिः कौशिका कृष्णलोहभाकृष्णंभ्रक समाकृतिः। शिखिपिञ्चवदाकारा त्रिधैतदसुनाशकृत् ॥३।। कीलकंकीलवकीलवतिष्टेत् सत्वधाहृदयत्तिकृत् । एवं रत्नेषु दोषाणां लक्षणं समुदाहृतम् ॥३६॥ भल्लेक्षणानिरत्नानि ग्राह्यण्यानि वर्जयेत् । गोमेधकः पुष्परागवैडूर्यः शतरुज्मणिः ।।३७।। एतेचस्फटिकाप्रख्याः स्फाले स्फटिकजातयः । जपमालाकृताचैव मणीनालोक्य शोभनाम् ।।३८।। जपांग्गुलिसमस्थूलमस्थूलान् संगृषिय्याद्विजोत्तमः । यज्ञोपवीतबिधिना शुल्वं कृत्वा विधानतः ।।३।। मणिनेकमुखाः सर्वास्फुटयेद्गात्र पंक्तिवत् । रुद्राक्षस्योन्नतस्थानरंध्रस्यात्समुदाहृतं । पृष्टनिनस्थलंरंधे संयुतं च शलाकया ।।४०|| पद्मवीजस्यवदनंविंद्वय समन्वितं । नेकविहुस्थलं पृष्ट विशालतस्य च स्मृतं ॥४१॥ पृष्टास्ये पुत्रजीवस्य रुद्राक्षस्य यथापुरा । ज्ञात्वैतं प्रोत्यतच्छुल्पेस्वेष्ट संख्यामणिन्छुवान् ॥४२॥ प्रन्थिपृथक्पृथक्कुर्यामणीनामंतरे बुधः । ऊर्ध्वाभ्यां प्रोत्यसीमा ग्रंथिंदद्याद्यथाशुभं ॥४३।। रुद्राक्षादित्रिवीजानां एवंमालाकृतिक्रमः । मणिनामितरेषां तु मुखभेदो न विद्यते ॥४४॥
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जपमालायाःविधानकथनम् ३१ २६ एतद्वदनमित्येवं संकल्प्य घटयेवुधः । कुशमालाकृतौ किंञ्चिद्विशेषात्रैव कथ्यते ॥४॥ सत्कुशान्विधिनाहृत्य तीव्रशुल्भं प्रकृत्य च । स्वेष्टसंख्यामणीग्रंथिं कुर्यानेत्रयं दृढ़ ॥४६॥ ततोमाला शिरोग्रंथिं प्रकुर्वीत यथापुरा। कुशाक्षमालिकामेवं कृत्वावत प्रकल्प्य च ॥४७॥ सगृहितद्विज श्रेष्ठैः सर्वथा जपकर्मणे । स्त्रिवतामंत्रअपे स्त्रिकुशाक्षस्रगुप्तमा ॥४८॥ सिंदेवता मंत्रजपेखितदर्भाक्षमालिका । एवं ज्ञात्वा जपेतेति क्रमादसृजाद्विजः ॥४॥ प्रणवस्य व्याहृतीनां गायाश्च जपेभृशं । श्रेष्टाकुशाक्षमालास्यात्समस्तानां जपस्रजां ॥५०॥ सूर्यक्षेत्रेदशैतेषां मंत्राणां जपकर्मणि । रक्तांभोरुहबीजाक्षमालिका प्रवरा स्मृता ॥५॥ वक्ष्याम्यथाक्षमालायाः प्रतिष्ठाविधिमुत्तमं । या प्रतिष्टाक्षमालायाः सासमस्त फलप्रदा ।।२।। अप्रतिष्ठितमालाय सा जपे विफला स्मृता । तस्मात्प्रतिष्ठा कर्त्तव्या जपस्य फलमिच्छता ॥५३॥ द्विजाविधियथस्नात्वा प्रतिष्ठास्नानमीप्सितं । तत्स्थाने मंडलं कुर्यादिहिभिश्चतुरश्रकं ॥५४॥ तन्मध्ये तु विधित्पद्म अष्टव्रतं सकर्णिकं । पूर्वादिदिक्षुपरितः कुशैश्च प्रागुदुक्रकैः ॥५५॥
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३ १३०
भारद्वाजस्मृतिः परिस्तीथतन्मध्ये ततः कूचं विनिक्षिपेत् । ततः प्रक्षाल्यचरणावाचम्य च यथाविधि ॥५६॥ उदङ्मुखः प्रसन्नः सन् उपविश्य कुशासने । प्राणानां संयमं कृत्वा प्रतिष्ठाथं जपस्रजः ॥५७॥ ततः पुराणाह संकल्पं द्विजन्मानुज्ञया चरेत् । ततोविद्युक्त मार्गेण कुर्यात्पुण्येहवाचनं ॥५८।। प्रक्षालयेततोमालां पुण्याह कलशोदक। ततोभिषेचयेत्पञ्चगव्यैदिक्षुरसेन च ॥५६।। मधुना कुशतोयेन स्नाप्य संस्कृत्य बुद्धिमान् । गोमूत्रं गोमयंक्षीरं दधिसर्पिष्यमानि च ॥६०॥ पंचगव्यानिमुनयः प्रवदंति मनीषिणः । प्रिहिद्रोणेन कृत्वाघमंडलं चतुरश्रकं ॥६१॥ तन्मध्ये पद्यमालिख्य साष्टपत्रं सकर्णिकं । पूर्ववन्मंडलंदर्भः परिस्तिर्याथमध्यमे ॥६२॥ कुशकुर्चक्षिपेधीमान् प्रागग्रंचोदगग्रकं । लोहितः सदृढ़स्मिग्धः प्रस्थतोय प्रमाणकः ॥६३।। कलशः पंचगव्यादि द्रव्याणां समुदाहृताः । असिता लोहितापीता धवला कपिला क्रमात् ॥६४॥ गोमूत्रगोमयक्षीर दध्याज्यानामिह स्मृताः । व स्ववर्णयुतालाभे लब्धगव्यानि वा हरेत् ॥६५।। तत्रापि दोषदुष्टानि परित्यक्त्वा शुभानि चेत् । आहारवशजीर्णाया रोगाक्षिणवत्सका ॥६६॥
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जपमालायाःप्रतिष्ठाविधिवर्णनम ३१३१ वन्ध्या नवप्रसूता च न योग्या गव्य संग्रहे । गोमूत्रं प्राग्दलेज्यस्य स्थापयेत्कलशंस्थित ।।६७॥ गोमयांब्बु तथा विद्वान् स्थापयेदक्षिणेगले । पिय्यार्षपश्चिमदले तथैव स्थापयेदध ॥६८।। उदग्धलेदधिस्थाप्य पूर्ववन्मध्यमेघृतं । तद्वत्साप्य च तेष्वंत्तः गंधपुष्पाक्षतानि च ॥६६।। कुशकु_निजत्वाध मंत्रयेत्तान्पृथक् पृथक् । स्थापयेन्नारिकेलांब्यु तथा स्वाहोशादिग्दले ||७०।। तथैव स्थापयेद्धीमान् क्षिपेन्नितिदिग्दले । कुशांब्बुवायुदिक्यत्रे स्थापये प्रथमोक्तवत् ।।७१।। गंधतोयं तथैवेशदिग्दले प्रविनिक्षिपेत् । पूर्ववत्तेषु सर्वेषु गंधादिनपि निक्षिपेत् ॥७२॥ एतान्यप्यभिमंाध धूपदीपौ प्रदापयेत् । ततस्तदधिदेवान्नुकलशस्थापने क्रमात् ॥७३॥ तत्तत्कलशपात्रेषु गंधपुष्पादिभिवर्जयेत् । रविसोमाग्निवागीश शुक्रांगारवृषेश्वराः ॥७४॥ सरस्वतीचेत्या ताः गोमूत्रात्यधिदेवताः। गायल्चैवगोमूत्रं गंधद्वारेति गोमयं ।।७।। आप्यायत्वेति च क्षीरं दधिक्रा पुण्नतोदधि । आज्यमशुक्रमसीत्येवं गाया नारिकेलकं ॥७॥ मधुवाताऋतयिति देवस्यत्वेतिदर्भकं । गायत्रैव च गंधांब्बुस्नानमंत्राण्यमूनि वै ॥७७।।
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३१ ३२
- भारद्वाजस्मृतिः एतद्रव्यैस्तुविधिवत् स्नापयेदक्षमालिकां । द्रव्याभिमंत्रिणे मंत्रं प्रणवस्यमुदाहृतः ॥७॥ अष्टोत्तरशतंरूपं मंत्रावृत्तिरुदीरिता। कलशानां समस्तानामभिमंत्रविदौबुधैः ।।७।। आपोहिष्टादिभिभत्रैः स्त्रीभिः प्राङ्मार्जयेद्बुधः । हिरण्यवर्णइत्याद्वैः चतुर्भिस्तदनंतरं ।।८०॥ पावमानानुपाकेन ततः सकुशवादिभिः । प्राणवाष्टशतेनाभिमंत्रितेनांभसा ततः॥८॥ स कूर्चाक्षतवलयमभिषिचेद्विजोत्तमः । गायाष्टशतेनाभिमंत्रे तेनांभसा ततः ।।८२॥ अभिषिचेत्तु सद्गंधं कूर्चेन च जपस्रजं । होमपात्रेथवादौ मृण्मयेतदनंतरं ॥३॥ आलिप्यं चंदनेनाथ पद्मपुष्पाणि लिखेत् । प्रणवं पंकजेध्यायेतत्पादं कणिकांतरे ।।४।। सवितुः शक्रदिकृत्रे वरेण्यं वन्हिदिग्दले। भर्गोयमककुत्पत्रे देवस्यनैतेदले ॥८॥ प्रत्यग्दले धीमही च धिनः पावनादिग्दलै । धियस्सोमदिग्दले कुद्रदिग्दलेन प्रचोदयात् ॥८६॥ सर्वत्रैवंहृदाध्यायन् पद्मपीठं प्रकल्प्य च । ततस्तत्पद्मपीठस्य मध्येतत्कर्णिकोपरे ॥८॥ कुशकूर्च यथा पूर्व प्रक्षिपेद्विजसत्तमः । तन्मध्येनववस्त्रेण शुक्लेन जपमालिका ॥८॥
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जपमालायाःप्रतिष्ठाविधिवर्णनम् ३१ ३३ आवेष्ट्यस्थाप्य गायाः मंडलांबुजमध्यमे । निधायमालिकां गंध तंड्डुल प्रसवैथुजेत् ।।८।। धूपदीपं च तद्वाथ स्वस्यदक्षिणपाणिना । स्पृशन्जपेञ्च प्रणवं अष्टोत्तरशतं द्विजः ॥१०॥ ततस्तदैव गायत्रिं अष्टोत्तरशतं जपेत् । पायसं स गुडाहरं अनेकापूपभक्षणं ॥६॥ तत्वानिवेद्य गायत्र्या ततः स्तांबूलमुत्तमं । स्वगृह्य क्तविधानेन कुर्यादग्निमुखं ततः ॥६२।। तस्यचेशानदिग्भागे हावयेत्समुदाधिकैः । प्रत्येकसमिदंदनाखैः तिलैश्चाष्टोत्तरंशतं ॥१३॥ गायत्र्याजुहुयाद्धीमान् प्रणवव्याहृति पूर्वया । अलाभेष्टाविंशतिर्वा द्रव्याणां जुहुयात्ततः ॥६४॥ ततो जयादीन्जुहुयात् सर्पिषा सर्वसिद्धये। प्रायश्चिताहु तिहृत्वा कुर्यात्पूर्णाहुतिं ततः ॥६॥ ततः प्रदक्षिणं कृत्वा दंडवत्प्रणिपत्य च । ततोर्चयेत्स्वस्यगुरुगंध प्रसवतंडुलैः ॥६६॥ ततः सद्भक्तितोदद्याद्वस्त्रहोमांग्गुलिय्यकं। विषामलाभेभक्तश्चेद्यथाशक्ति समार्चयेत् ॥१७॥ ततोदंडनमस्कारं कुर्वीत द्विजसत्तमः । एवमक्षसजाधीमान् प्रतिष्ठाप्य यथाविधि ॥१८॥ गुरुहस्तेनलब्धेन तयामालिकया जपेत् । . मुखमारभ्यवृष्टात्तं जप्त्वापश्चात्प्रदक्षिणं ॥६६।।
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३१ ३४
भारद्वाजस्मृतिः भ्रामयित्वा पुनर्वक्त्रमारभ्य च जपेत्पुनः । अयमेवसमाख्यातः जपमाला विधिक्रमः ॥१०॥ एकादिपंचपर्यंत्तं कनिष्ठाद्व-यगुलिक्रमात् । संकोदयेत्ततोविद्वान्यथापूर्व प्रसारयेत् ॥१०॥ अनेन जपसंख्यास्यात्क्रमेणैव जपस्य तु । एकः स संख्या वामहस्ते दक्षिणेन तथाक्रमात् ॥१०२।। तत्रापि दशसंख्याया शतसंख्येति च स्मृतः । जपांग्गुलिक्रमेणोक्तो लेखाक्रममधोच्यते ॥१०३।। मध्यांग्गुले ध्यरेखां समारभ्य प्रदक्षिणं । अनामिकांतरेखांत्तं अंग्गुष्ठेन यथाक्रमं ॥१०४।। स्पृष्ट्वा द्वादशसंख्याना:नवारेण तत्पुनः । एवं रेखाक्रमजपः प्रस्पष्टः"प्रकाशितः ॥१०॥ एतत्समस्तं विज्ञाय यो जपेद्विजसत्तमः । सर्वपापविनिर्मुक्तः सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥१०६।। इहलोके सुखी भूत्वा प्राप्नुयात्परमं पदम् । प्रणवव्याहृतिः सप्तगायत्रिं वैदिकान्मनून् ॥१०७|| विनानन्यान्जपेन्मात्राननयाजपमालया। गुर्वलाभे स्वयंवापि प्रतिष्ठाप्यजपस्रजं ॥१०८।। अनेनविधिना विप्रा जपेदक्षस्रजातया । वामनेनस्पृशेन्मालां करेण ब्राह्मण कचित् ॥१०६।। करेकंठेथवास्कन्धे धारयेन्नकदाचन । जपखजातयानित्य जपकाले जपः शुचिः ॥११०॥
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जपमालायाःप्रतिष्ठाविधिवर्णनम् ३१३५ कलीत्वैवायशुचिस्नाने द्विजन्मात्र विनिक्षिपेत् । अम्याक्षमालयैतानि मंत्राणि च जपेद्बुधः ॥११।। नान्येषामन्यमंत्राणां जपकर्माथमर्पयेत् । श्लेष्मरक्तसुरामांस विण्मूत्रोच्चिष्टकिकसैः॥११२।। कपालनखकेशैश्च पतितैरंत्यजैरपि । उदक्याकाकविटकोढ़खरपादायुथश्वभिः ॥११३।। शाखारंडकदोषज्ञ देवाजवमहाहिभिः । जपमाला यदिस्पृष्टा तां तथैव परित्यजेत् ।।११४|| अज्ञातपूर्वगणिका पंचवीसूतिकारुचिः । याताभिरपि संस्पतिष्ठां त्यजेदक्षस्यजं बुधः॥११॥ तयैवाक्षनृजानित्या जपेत्सर्वार्थसिद्धये । दोषदुष्टाक्षमालांत्तं महानद्यां ह्रदेथवा ॥११६।। पुण्यतीर्थथवा विप्रो मंत्रैणैव प्रचिक्षिपेत् । समुद्रं गच्छस्वाहेति मंत्रमेतदुदीरयत् ॥११७।। गंधपुष्पार्चितैः साधं मालामंत्रेण निक्षिपेत् । रुद्राक्ष पुत्रजीवाज्ज बीजदर्भ जपस्रज ॥११८॥ दुःसृष्टि दोषविज्ञयो न तु रत्नजपस्रजे। पुनरेवं विधानेन संवाद्याक्षस्रजस्ततः ॥११॥ यदिच्छेदोष संस्पृष्टि भवेद्रनजपस्रज । पुनरेवं प्रतिष्ठाप्य जपेदक्षप्रजातया ॥१२०॥ प्रतिष्ठा कीर्तन्नाध्यायः ममाख्यातो जपस्रजः। न यस्य कस्यचिद्देय दातव्यं सद्विजन्मने ॥१२१।।
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३१३६
भारद्वाजस्मृतिः । यदाक्षराभिधानाना वलयोनियमोत्र नः | स्मृतिष्यर्थं प्रगृहिय्यादर्धमेव प्रयोजनं ॥१२२॥ आगमेषु पुराणेषु स्मृतिष्विकदासु च । अर्थमेव तु गुहिय्यान्न च शब्दविचारयेत् ॥१२३॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौजपमालायाःविधानकथनंनाम
सप्तमोऽध्यायः॥
अथ अष्टमोऽध्यायः
जपेनिषिद्धकर्मवर्णनम् जपेनिषिद्धकर्माणि यानि वक्ष्यामितान्यहं । निषिद्धकर्मकरणान्निपिध्यति जपोकृतः ॥ १॥ तस्मात्सर्वप्रकारेण जपकर्माणि बुद्धिमान् । निषिद्धानिह कर्माणि कदाचिदपि नाचरेत् ॥२॥ पादप्रसारणं वार्तामालोकन विजृ भणि । जुह्वाप्रसारणंश्वापः नखच्छेदन ताडनं ।। ३ ।। भुजाद्यास्फालनं रज्जुकरणं तृगदंशनं । क्षुददिष्टिवनं गात्रचलनं केशबंधनं ॥४॥ अधरस्पर्शनं दत्तकर्षणं देहकंप्पनं । .. आस्फोटनं प्रहासीन शयनं परिवीक्षणं ॥ ५ ॥
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जपविधानवर्णनम् अन्वेषणमंग्गुल्या मुखवास प्रपूरणं । शिरः कंठे प्रावरणं वाससादोः प्रसारणं ॥ ६ ॥ शिरः प्रच्छादनं शिल्पकरणं चोपचर्वणं । सूक्ष्मजंत्तु प्रहननं मालाधानं तथैव च ॥ ७ ॥ क्रोधनं दुष्क्रियाध्यानं कर्माण्यस्यदपिदृशं । भवंति कर्माण्येतानि जप नाशकराणि च ॥ ८ ॥ पापरुपापोरूपाप जनाभूतिसुरार्चका । एषानिशामनंचैक भापणं जपनाशकृत् ॥६॥ भत्ति कर्माण्येतानि यदिचेत्तु प्रमादतः । प्रक्षाल्य चरणाहस्ती आचम्य च यथाविधिः ॥१०॥ प्राणायाम त्रयं कृत्वा सबितारं विलोक्य च । नमस्कृत्य ततोधीमान्जपशेपन समाचरेत् ॥११॥ एवं सर्वविधि ज्ञात्वा जपं कुर्याद्विजोत्तमः । तत्तदुक्तफलं सम्यक् प्राप्नुयास्नेहमानवः ॥१२॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृती जपविधानवर्णनं
नामाष्टमोऽध्यायः ।।
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अथ नवमोऽध्यायः
गायत्र्यासाधनक्रमवर्णनम् अर्थतस्याः प्रवक्ष्यामि गाया साधनक्रम । न साधितं य आमंत्रं प्रयोगो न फलप्रदः ॥ १॥ तस्माद्दिद्युक्तमार्गेण साधयित्वा द्विजोत्तमः । ततः प्रयोजयेत्मंत्रः अभिष्टफलदं भवेत् ॥२॥ ऋषीन्छंदांसि देवानश्च वर्णनास्तत्वानिशक्तितः । मुद्राश्च विनियोगं च वीजशक्त्यासनानि च ॥३॥ मानंकालं च तद्ध्यान यथावद् गुरुवक्त्रतः । अधिकृत्या ततो विप्रा मंत्रमेतत्पुरश्चरेत् ॥ ४॥ शिरोब्रह्म शिखारुद्रेः विष्णुर्ह दयसंयुतः। उपायने विनियोगो गोत्रसाख्यानश्च तु॥५॥ ज्ञात्वैतानि शुचिभ्यानि शुद्धविक्षासनः सकृत् । यत्रकालाप्लवोमृत्युः जपे द्वादशलक्षकं ॥६॥ कृतादिश(क)लिपर्यन्तं क्रमाल्लक्षत्रियंत्रयं । युगं प्रत्येवमारोप्य पुरुश्चरणमाचरेत् ॥ ७॥ पुरश्चरणमेतद्धि गाया परिकीर्तितं । एकं द्वित्रिचतुः पंचषट्सप्ताष्टानवोपरि ॥ ८ ॥ दशाननक्रमेणैव शतंदशवतस्मृतं । तथा सहस्रमयुतं लक्षंचेति यथाक्रमं ॥६॥
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गायत्र्यासाधनक्रमवर्णनम
३१३६
एवं संख्याक्रमं ज्ञात्वा मंत्रिमंत्रासदा जपेत् । संख्याज्ञाननं पद्मबीजैः सूक्ष्मशुद्धात्मवित्तु वा ॥१०॥ संख्यारेकाभिरथवा भूमौ वा रज्जुबन्धनैः । विप्र पापक्षयार्थिचेत् प्रातः प्रथमवासरे ॥१॥ नत्वाध नित्यकर्माणि निवर्त्य च यथाविधि । ब्रह्मकूचीपिवेदनि द्वितीये प्रथमोक्तवत् ॥१२॥ सर्वं कृत्वाधभूजीत विशुद्धं यावकाशनं । पूर्ववत्सकलं कृत्वा द्वितीये दिवसे पुनः ॥१३॥ द्विजोत्तमान्नभुक्त्वाथ सावित्रि जपमाचरेत् । गायात्त्वभिमयांभः शतवारंजलस्थितः ॥१४॥ स्नात्वापीत्वा शतंजप्ता सर्वपापै प्रमुच्यते । ब्रह्महा मधुपस्वर्णस्तेयि च गुरुतल्पगः ॥१५।। गोमातृहापितृघ्नो वा गुणस्पृत्वि म सागरां । सदाचार्य मुखात्सागां अधितांत्तु विधानतः ॥१६।। गायत्रिमयुतं जप्त्वा पापैरेतद्विमुच्यते। आदौवेवक्रममिदं कृत्वा स्वस्याभिवृद्धये ॥१७॥ गायाधत लाभाय होमं सम्यक्समाचरेन । जपहोमौ च सततं कुर्याद्विपस्वतेजसा ॥१८॥ सर्वकामसमृद्ध्यर्थं परब्रह्मोदमुच्यते । नित्यनैमित्तिकेनाम्ने त्रितयेस्मित्र्यतिष्ठिता ॥१६॥ गायत्रितत्परं नान्यत् इहैव च परत्रयः । मध्यंदिनेल्पभुज्यौनि त्रिकालज्ञानतत्परः ॥२०॥
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३१४०
. भारद्वाजस्मृतिः लक्षत्रयजपेधेतत्पुरश्चरणसिद्धये । सर्वेषुकायिकेष्वेवं क्रमेण विधिरीरितः ॥२१॥ यावत्कर्मसमाप्तिस्तु प्रातःस्नानं न सत्यजेत् । अथवेदादिभातति प्रसादजननं विधिं ॥२२।। गायत्र्या संप्रवक्ष्यामि धर्मकर्माथमोक्षदं । पूर्व सूर्योदयात्स्नात्वा सहस्र प्रत्यतां जपेत् ॥२३॥ आयुष्यमर्थमारोग्यं लभेत्कीर्तिं च वांधवां । उपवास त्रयं कृत्वा सहस्र जुहुयाद्भुतं ॥२४॥ सहस्रपोषं लभते प्रवृद्धाचिषे पावके । पयसाभ्यज्यसमिधः पालाशस्यसहस्रकं ।।२।। ग्रहणेजुहुयादिदोः सहस्ररजितं लभेत् । घृतेनाभ्यज्यसमिधः खदिरस्यहुताशने ॥२६॥ जुहुयाद् ग्रहणेभानोः सहस्रणेषमाप्नुयात् । (सहस्र पोषमाप्नुयात् )। अलक्ष्मिप्रचुरव्याधिदुःस्वप्नाच समाश्रीताः ।।२७।। सहस्रजप्ता कुंभांभ सेवनान्नादमाप्नुयात् । यां दिशं ब्राह्मणोगंत्तुधिश्चन्लोष्टानि सप्त च ।।२८।। सप्तकृत्याभिमंत्र्याथ विनृजेत्तत्रनोभयं । क्षिराशीजुहुयालक्षं क्षेरं.मृत्युं व्यपोहति ।।२६।। घृताशी प्राप्नुयान्मेधां जप्त्वालक्षं न संशयः । नाभिमानेभनिस्तात्वा सूर्यस्याभिमुखोजलं ॥३०॥
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गायत्र्यासाधनक्रमवर्णनम् ३१ ४१ लक्षं त्तु जुहुयाद्राज्यं लाभेन्निष्कंटकं ध्रुवं । हुनेहेतसत्राणि घृतयुक्तानि पावके ॥३१॥ लक्षभूमौ भवेदिष्टिमहत्यत्र न संशयः। सहस्र जुहुयाद्भस्म जलेवर्ष विमुंचति ॥३२॥ लक्षेण भस्महोमेन कृत्वा चोत्तिष्टते जलं । तदेव जुहुयादप्सुलक्षं गुर्वि श्रीयंलभेत् ॥३३॥ तिलास्मृताक्तान्जुहुया लक्षं स्वाहधिनायके । विमुक्तस्सकलाहोमिः परमैश्वर्यमाप्नुयात् ॥३४॥ सत्तंडुलतिलान्लक्षं जुहुयात्सर्पिषासह । स्वाहप्रियेस्यगेहेभिः वृद्धिरत्युत्तमा भवेत् ।।३।। प्रत्यहं जुहुयादन्नमष्टोत्तरशतं द्विजः । अशक्तोष्टाविंशति वा तद्गृहोन्नध्रुवं भवेत् ॥३६॥ गोघृतं जुहुयाल्लक्षं समस्तारयुमनोरथाः। शुचिर्भूत्वा द्विजश्रेष्ठाः सुनमिद्धेहुताशन ॥३७॥ गोघृतं मधुसंम्मिश्रं इष्टत्री वस्यकर्मणि । अयुतं जुहुयादग्नौ सास्त्रिप्राणप्रिया भवेत् ।।३।। सद्वृत्यबलवानविश्वयं गोघृतं लक्षंजुहुयात्प्रलभेस्थिरं। जुहुयाद्रक्तसिद्धार्थैः लक्षं साहा प्रिये यदि ॥३।। प्रत्यर्थिनोध युध्यंत्तः ते व्रजेयुर्यमालयं । ताम्राश्वमारसमिधः जुहुयालक्षं हुताशने ।।४।। भवेद्विदेशगमनं संप्पन्नस्य न संशयः । सा यत्र प्रतिलोमोक्ता बवश्चाच्छन्विनाशयेत् ॥४॥
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भारद्वाजस्मृतिः अक्षरप्रतिलोमूयं यस्मिन्नुद्धतकर्मणि | तदमोखं विजानिय्यादेतद्धि ब्रह्मणोबलं ॥४२॥ विभीतकेथ समिधः ह्याक्षरप्रतिलोमया । हुनेत्सर्षप तैलेन विभीतककृतमृचा ॥४३।। ययिञ्चेत्पीटकंशत्रोः अपिवोत्सादनं पुनः । पञ्चतृ संपुले शत्रून वर्णाशश्च प्रयोजयेत् ॥४४॥ कर्मणां मरकादीनां तत्रोक्तानामनंतरं । होमकर्म प्रवक्ष्यामि समस्तानां प्रशांतये ॥४॥ गोसर्पिदधिपिय्यासमेकीशृत्वज्वलक्षुका । यावत्तत्कोपशमनं तावत्तज्जुहुयाच्छुचौ ॥४६।। लघ्वासनोब्रह्मचारी त्रिसहस्र जपेच्छुचिः । संवत्सराद्धनैश्वयं न लभेन्नात्र संशयः ।।४७।। निराहारो जपेल्क्षं सदाद्यादीप्सितंवरं । प्रत्यंवयोजपेदेताः अब्दत्रयमतंद्रितः ॥४८॥ द्विजन्मा सपरब्रह्म ययादत्र न संशयः । पुरश्चरणपूर्वाणि कर्माणि सकलानि तु ॥४६॥ अध्यास्मिन्मयोक्तानि ज्ञातव्यानि द्विजोत्तमैः । अनेनविधिनाभीष्टं सकलं साधयेद्विजः ॥५०॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ गायत्र्यासाधनक्रमवर्णनंनाम
नवमोध्यायः॥
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अथ दशमोऽध्यायः
गायत्र्यामन्त्रार्थकथनम् अथायमर्थं गायत्र्या प्रवक्ष्यामि यथातथं । द्विजोत्तमानां सद्भक्त्या जपादीनि प्रकुर्वतां ॥१॥ पीत्वा सभक्तिजननं मंत्राथं ज्ञानमुत्तमं । तस्मादर्थ विजानिय्याद्यत्नेन जपकृद्विजः ।। २ ।। विश्वानभक्तिभाजांत्तु जपादीनां महत्ततं । फलं लभेज्जपकृतामिति वेदेषु भाषितं ॥३॥ पदानजनमंत्रस्य तदादीनि यथाक्रमं । पदं प्रत्यर्थनिष्पत्तिः विस्पष्टं क्रियतेत्र तु ॥४॥ तदिति द्वितियेकवचनं अनेन जगदुत्पत्तिस्थिति लयकारणभूतमौपनिषधिकंधानिरुपंतेजः सूर्यमंडलामेधेयं परब्रह्ममिधिय्यते। सवितिरितिषष्ठकवचनंषून प्राणिप्रसवइत्यस्पधातोः एत पंसर्वस्यधातोर्वाभरित्यर्थः । वरेण्यं वरणिय्यं प्रार्थनिय्यं नियमादिभिरवगतकल्मषैः। सध्येयंर्ग: भंज्जोआमर्दने भुज्जिमदभर्जन इत्येतयोर्धात्वोः भजतां पापभंजनहेतुभूतमित्यर्थः॥ भ्रा "लुदीप्तापितस्यधातोर्वाभर्गाः । तेज इति यावत् देवस्यवृष्टिदानादिगुणयुक्तस्य निरतिशयेत्यर्थः । तः प्रकाशात धीम
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३१४४
भारद्वाजस्मृतिः हियेचिंतायां नियमनिमुक्तविद्यारूपेण चक्षुषायोसाधादित्योहिरण्मयः पुरुषःसोहमिति चिंत्तयामिधिय इते तु द्वितिय्या बहुवचनं य इलिछांडसत्वालिंग्गव्यत्ययः। यस्यतेजः सवितुर्देवस्यवरेण्यंश्रेष्ठं अस्मारभिध्यातं भर्गोदेवभजतां पाप भंजन हो भूतं अस्माकं नः धियः। बुद्धिश्रेयस्करेषुकर्मसुप्रचोदयात् प्रेरयेदित्यर्थः। एषाव्याख्या तु गायत्र्या सर्वपाप प्रणाशिनी। विज्ञातत्वा प्रयत्नेन द्विजैः सर्व शुभेप्सुभिः॥५॥ जपस्थानांत्तरेव्याख्या कर्तव्याहरहर्द्विजैः । स्मरणात्सर्वपापानि प्रणस्यंति न संशयः ॥६॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ गायत्र्यार्थप्रतिपादननाम
दशमोऽध्यायः॥
अथ एकादशोऽध्यायः
गायत्र्यापूजाविधानकथनम् उत्तप्रमाण सुस्मिग्धं दृढ़शुल्पंचरंत्रिवृत् । संस्कारेणोपसंयुक्त यत्तयं द्विजोत्तमैः॥१॥ छिन्नं प्रभिन्नं स्फुटतं विशीणं मानतोधिकं । मानहीनमसंस्कारं ब्रह्मसूत्रं न धारयेत् ॥२॥
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गायत्र्यापूजाविधानकथनम् ३१४५ शशिव्रतं त्रयः क्रछाः गायत्र्या अयुत त्रयं । अल्प वनं महानद्या सममेतञ्चतुष्टयं ॥३॥ अथ पूजां प्रवक्ष्यामि देव्यासिद्धार्थ सिद्धिदान् । सर्वपापप्रशमनी सर्वाभयविनाशिनी ॥४॥ स्नात्वा शुक्लांवरधरःस्सपवित्रकरद्वयः । पादौशमे च प्रक्षाल्य सपस्पृश्शावाग्यतः॥ ५॥ उर्ध्वपुडूत्तु गिधिवत्भस्मना चंदनेन वा। धृत्वा ललाट' हृद्ग्रीवा भुजयुगेन च द्विजः ।। ६ ।। उपह्वरे शुचौदेशे विलिप्ते गोमयांब्बुना । दीपमारोप्यगंधादि पूजाद्रव्याणि निक्षिपेत् ।। ७ ।। सुगंधाक्षत पुष्पाणि धूपदीपादिकानि च । सतांबूलोपहारं च द्रव्याणाराधनस्य तु ॥ ८॥ सौवर्णं रजितं ताम्रशुस्वकांस्यंच्छदारवं । मृण्मयं चेति पात्राणि सप्तात्रकदिता।।६॥ हाटकं कलधौतं च लोहशैलं च दारवं । आराधनविधौ पीठं पंचदा समुदाहृतं ॥१०॥ पूजापीठं स्नानपीठं इति पीठं द्विधारमृतं । पंकजं स्वस्तिकं चेति पूजकस्यासनंद्विधा ॥११॥ सत्यष्टचीनदेवांग्ग कार्पासाच्छादनानि यत् । नवानिवृतान्यन्न्यै सुक्षाप्यत्रोदितानि वै ॥१२॥ स्वासनार्थं ततोदर्भानास्तीर्य प्राक्सेखानभः । तेषापविश्योदङ्मुखः खापद्मत्तिखेन्महात् ॥१३।।
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३१४६
भारद्वाजस्मृतिः तत्पन्नस्यवहिदेव्या स्नानस्थानं हरेर्दिशि। तत्रैवस्थापयेत्पीठं नानार्थ द्विजसत्तमः ॥१४॥ पीठं तन्मध्यमेस्थाप्य वस्त्रमाछाद्य तत्र च । ततस्तस्यसमीभागे कुशकूचासनोपरि ।१।। स्वाचार्य पूज्य तद्भक्त्या चंदनप्रसवाक्षतैः । नमस्कृत्य ततः कुर्यात्प्राणायाम त्रयं बुधः ॥१६॥ ऋषिश्छंदो देवताश्च वर्ण तत्वान्यजुक्रमात् । विनियोगं च संस्कृत्वा न्यासं कुर्यादनंतरं ।।१७।। करन्यासं पुराकृत्वा गेहन्यासमथाचरेत् । अंग्गन्यासं ततः कुर्यादेवंन्यास विधौक्रमः ॥१८॥ ततो भांडजलेकुचं चंदनादित्रयं पुनः । दत्वामृताक्षरान्यश्च संस्पृशा द्विजसत्तमः ।।१६।। गायत्र्यासप्रणव व्याहृतितितयाव्यया । अष्टकृत्वो येत्ततो विप्रमुद्रयाच्छादनाख्या ॥२०॥ पूर्वादिषु महादिक्षु विदिक्षु परिचक्रमात् । अस्त्रेणरक्षणं कुर्यातद्विच्छेदनमुद्रया ।।२।। ततस्तज्वलमादाय पात्रेणास्वस्यपूर्वतः । सन्नाप्यजलसंस्कारं यथापूर्व समाचरेत् ।।२२।। ततस्तद्वारिकूर्चेन समंतात्सकलेवरं । मूर्धादिपादपर्यंत्तं प्रोक्षयेन्मूलमुद्रया ॥२३।। स्नानद्रव्याणि च तथा ततः संप्रोक्षयेद्विजः । द्रव्याणि चंदनादीनि त्रिण्यब्धिः संस्मृतो यदि ॥२४॥
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गायत्र्यापूजाविधानकथनम् ३१४७ तथाभिमंत्रणं दिक्षु रक्षणंचाध कारयेत् । तानिद्विधा विभज्याथ समीचीनांशमेतयोः ॥२॥ देव्यर्थं परिवारार्धं इतरांशमिति स्मरेत् । परिवारांशकद्रव्यैः यजेतात्मानमर्चकः ॥२६॥ गंधपुष्पाक्षतैधूप दीपाभ्यां चोद्यविद्यया । तत्पात्रे तोयमुत्सृज्य पुनंप्पत्रेण तेन च ॥२७|| आदाय भांडसलिलं चतुष्पात्राणि पूरयेत् । अर्ध्याचमन पात्राणं पात्राणि त्रीणिचेतरत् ॥२८॥ सामान्यामृतमित्येवं उक्त पात्र चतुष्टयं । ततः सलिलसंस्कारं यथापूर्वं समाचरेत् ।।२१।। प्रक्षालनार्थं सलिल पात्रेप्रागेव पूरयेत् ।। अरप्रक्षालनार्थत्वादन्यसंस्कारणं न हि ॥३०॥ सामान्याचमानााणं पाद्यक्षालनयोस्तथा । पात्राणिस्थापयेत्प्रत्यगदिप्रागवसात्तिकं ।।३।। ततो गंधाक्तपुष्पेन पीठमध्ये सरोरुहं । संविख्यकूर्चे तन्मध्ये न्यसेद्धर्मानुदच्छिखं ॥३२॥ ततः पीठस्य नैमृत्यां पद्म संलिख्य पूर्ववत् । गंधादिभिस्त्रिभिदेव अर्चयेद्गणनायकं ॥३३।। यी(ई)शानदिशिपीठस्य लिखितांभोरहोपरि । ततो गंधादिभिर्मा क्षेत्राधिपतिमर्चयेत् ।।३४।। पश्चादधस्तात्पीठस्य चंदनप्रमुखैस्त्रिभिः। आधारशक्तिं संपूज्य तदूर्ध्व कूर्ममर्चयेत् ।।३।।
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३१ ४८
भारद्वाजस्मृतिः पश्यादनंतरं पृथ्वि ततो गंधाधिदिभित्रिभिः । उपर्युपरिसंपूज्य धर्मादीनध पूजयेत् ॥३६॥ धर्मज्ञानंच वैराझं ऐश्वर्यचेत्यनुक्रमात् । आज्ञेयदिक्षुकोणेषु चतृष्वापि यथाक्रमं ॥३७।। अधर्माज्ञानवैराग्यनैश्वर्याणि ततः क्रमात् । पूर्वादिषु महादिक्षु यजेत्पीठोपरिद्विजेः ॥३८॥ ततस्तन्मध्यमस्थाने चंदनप्रमुखैत्रिभिः । महासिंहासनध्यात्वा दिव्यं समभिपूजयेत् ॥३६।। तदूर्ध्वग्न्यर्कसो(मा)नां मंडलानि ततः क्रमात् । उपर्यपरिगंधादि त्रितयेन समर्चयेत् ॥४०॥ ततस्तदूवंतस्योरजः सत्वंददूर्ध्वतः । चंदनानि त्रयेणैव गुणत्रयमधार्चयेत् ।।४१॥ पीठस्यांतः पूर्वदले पूजयेदणिमाह्वयं । लघिमाह्वयमाग्नेय्यां महिमाख्यंत्तुदक्षिणे ॥४२॥ प्राप्ति निमृतिदिग्भागे प्राकाम्यं पश्चिमे दले । ईशित्वंवायुदिक्पत्रे वसित्वं यक्षदिग्दले ॥४३॥ यी ईशानदिग्दले पश्चात् सर्वज्ञत्वं विचक्षणः । चंदनत्रितयेनैव ऐश्वर्यादिमर्चयेत् ॥४४॥ तद्वहिः पूर्वदिक्पत्रे प्रज्ञामनलदिन्दले। धृतियमककुत्पत्रे क्षेमां निभृतिदिग्दले ॥४शा शांतिवरुणदिक्पत्रे स्मृति वायुककुद्दले । कात्तिः मुत्तरदिक्पत्रे शृतिमीशानदिग्दले ॥४६॥
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गायत्र्यापूजाविधानकथनम् ३१ ४६ स्वस्ति गंदादिभिभक्त्या सहनिभिरथार्चयेत् । एवमेताः समभ्यर्च ततो वेदास्समर्चयेत् ॥४७॥ ऋग्वेदंतद्वहि प्राच्यां यजुर्वेदं तु दक्षिणे । सामवेदं तु वारुण्यांअथर्वाख्यं तथोत्तरे ॥४८॥ पुराणाद्यकथात धर्मशास्त्राण्यनुक्रमात् । अमिरक्षोनिवेशास कोणेषु च समर्चयेत् ।।४।। निरुक्तं ज्योतिषं शिक्षा कल्पव्याकरणं तथा । छंदः सूत्राणि शाखाणि पूर्वादिषु समर्चयेत् ॥५०॥ ततः पूर्वादि दिक्षादौ विधीक्षु च यथाक्रमं । भत्त्यार्चयेद्वसूनष्टौ चंदनप्रमुखैत्रिभिः ।।५क्षा धरः सोमौनिलश्चैव प्रभासौध्रुवसंक्षकः । आपः प्रत्यूषसंज्जिश्च वषोत्कारयिति स्मृतः ॥५२॥ ततस्तुदद्वहिर्देशे रुद्रानेकादश क्रमात् । .. सद्भावभक्तिसहितः यजेस्त्रीतद्विजसत्तमः ॥५३॥ महादेवः शिवोरुद्रः शंकरो नीललोहितः । यी(ई)शानो विजयो भीमो देवदेवोभवोहरः॥५४॥ कपालिसंञ्जिइत्येते रुद्र एकादश स्मृताः । पूर्वादिषु त्रिकाष्टासु रुद्रास्त्रीस्त्रीननुक्रमात् ॥५।। रुद्रौद्यौउत्तराशायमर्चयेच्चंदनादिभिः । ततः प्रागादिकाष्टासु यजेद्वादश भास्करान् ॥५६॥ त्रींस्त्रीन्यथाक्रमेणैव तद्वाह्य चंदनादिभिः। वैकर्त्तनोविवस्वांश्च मार्तण्डं भास्करो रविः॥७॥
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३१५०
भारद्वाजस्मृतिः लोकप्रकाशकश्चैव लोकसाक्षी त्रिविक्रमः । आदित्यश्च तथा सूर्यः अंशुमाली दिवाकरः ।।८।। त एतेद्वादशादित्याः सर्वलोकविभानका । एतानेवनमभ्यर्च्य तद्वाह्योतन्मुनीन्यजेत् ।।५।। पूर्वादिषु चतुर्दिक्षु वशिष्ठादीनप्रदक्षिणं । पत्पद्यथाक्रमेणैव मुनीनांग्गाधिभित्रिभिः ॥६॥ ततोवहिस्थले धीमान् इन्द्रादिनष्टलोकपान् । पूर्वादिष्वष्टकाष्टाषु पूजयेदर्चनादिभिः ॥६॥ इन्द्राग्निसमवति च निऋतिर्वरुणोनिलः । भीमकुवेर इत्यष्टौ लोकपाल अमीस्मृताः ॥६२।। स्वस्वनाम चतुर्थ्यंतं प्रणवादिनमोंत्तकं । सर्वेषां परिवाराणां मंत्रमाराधने स्मृतं ॥६३॥ स्वस्वमंत्रेण सकलान् उपचारान्द्विजोत्तमः । आचार्य प्रमुखस्तत्तत् ध्यानेन सहपूजयेत् ।।६४।। एवमेताः समभ्यर्च सुगंधकुसुमोक्षतैः । ततो देवीं यजेद्वीमान् गायत्रिं वेदमातरं ।।६।। ध्यानध्यायो यथाप्रोक्तं रूपंदेव्याश्चलक्षणं । स्वर्गादिभिस्तथा कुर्यात् प्रतिमां नयनप्रियां ।।६।। सुबर्णरोप्यस्फटिक पाषाण प्रतिमाकृता । चत्वारयेतेशस्तास्युरलाभे स्थंडिलं स्मृतं ॥६॥ कृतांप्रतिष्ठां तां कृत्वा विधिना च द्विजोत्तमः । ततोद्विजन्महरहः तस्यां देवीं समर्चयेत् ॥६॥
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गायत्र्यापूजाविधानकथनम्
पूर्वसंध्यार्चितां पुष्पं प्रतिमाया विसृज्य च ।
प्रक्षाल्य स्थापयेत्पीठे प्रतिमां प्राङ्मुखीं द्विजः ॥ ६६ ॥ पश्चात्पुष्पाक्षतैस्तेषु प्रतिमायाः पदेषु च । ततः सलिलमादाय स्नानपात्रेण पूर्वतः ॥ ७० ॥ संस्थाप्य जलसंस्कारं यथापूर्वं समाचरेत् । ततः कूर्चेन तत्तोयं आदाय च शनैः शनैः ॥७९॥ संप्रोक्षयेत्तत्प्रतिमां सद्भावेनाद्यविद्यया । ततः पुष्पांजलिं कृत्वा प्रणवेनाकमंडलात् ॥७२॥ देवीमावाहयेछीमान्प्रतिमायां यतेन्द्रियः । ततोजलिस्थितं पुष्पं विक्षिप्य प्रतिमोपरि ॥७३॥ अधोमुखेनांजलिना स्थापयेन्मूलविद्यया । तत्तोभुष्टिद्वयांत्तस्थं कृत्वांगुष्टद्वयं बुधः ||७४ || प्रदर्शयेन्मुखे देव्याः भवेत्तत्संनिरोधनं । पश्चान्मुष्टिद्वयांतस्थं कृत्वांग्गुष्ठद्वयाबुधः ॥७५।। वक्त्रे प्रदर्शयेत्देव्याः सन्निधौचरणं हि तत् । एतत्प्रयोगद्वितये मूल विद्यैव भाषिता ॥ ७६ ॥ ततः साक्षातपुष्पाणि दद्यानेष्वाद्यविद्यया । पश्चात्तुपाद्याचमनमध्यं चानुक्रमेण तु ||७७|| दत्वाद्यविद्यया पश्चात्वस्त्रं यज्ञोपवीतकं । दत्वाचाध्याप्यचमनं पूर्ववन्मूलविद्यया ॥७८॥ चंदनाक्षतपुष्पाणि तथा दद्याद्यथाक्रमं । धूपदीप ततौ दत्वा किंचिन्मूलमनुंजपेत् ॥७६॥
३१ ५१
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भारद्वाजस्मृतिः
ततः समस्तनिर्माल्यं आदाय प्रविसृज्य च । पुष्पाणि शीर्षेष्वारोप्य दद्यदाचमनं ततः ॥८॥ ततोनुपहतैर्गव्यैः प्यंचभिप्परमेश्वरी। ततः मृतैर्गंधतोयैः प्रत्यप्रैरभिषेचयत् ।।८१॥ गोमूत्रं गोमयंक्षीरं दध्याधुराभिधानकं । एतानि पंचगव्यानित्याख्यातानि महर्षिभिः ।।८।। पेय्याषदद्याधाराख्यंमबीक्षुरसपंचकं । एतत्पंचामृतंनाम लपने प्रवरं स्मृतं ।।८।। द्रव्याण्यमूनिपात्रेषु पूरइत्वाथ पंचसु । . गंडपुष्पाक्षतान्थूपदीन्दत्वा पृथक् पृथक् ? ॥४॥ स्पृष्ट्वाष्टकृत्वा साविच्या पात्रंप्रत्यभिमंत्र्य च । । द्रव्यैरेतैस्ततो देवीं सापयेद्विधिपूर्वकं ।।८।। गंधद्वारांकरिषस्य गायत्रिं गोजलस्य च । आय्यायस्वेति पयसा शुक्रमस्यधसर्पिषः ॥८६॥ दधोदधिक्रापुण्न इति देवस्यत्वा कुशोदकं । मधुवातामधोर्धाराविद्ययेक्षुरसस्य च ।।८।। मंत्राण्यमूनिद्रव्याणिमाख्यातानि पृथक् पृथक् । गोमूत्र पूर्वस्नानादि मंत्रैरेभिः समाचरेत् ॥८८। एवंदशविधं स्नान कृत्वाचोषेण वारिणा । गोधूमपिष्टमुद्वाभ्यांपेषयित्वाभिषेचयेत् ॥८६।। ततोहरिद्रयालिप्य शुद्धशीत(ज लेन वा । अभिषिच्य ततस्त्रानं त्रितयं च समाचरेत् ॥६॥
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गायत्रीपूजनविधानम् आपोहिष्टादिभिर्मत्रै त्रिभिःप्राक् स्नापनं स्मृतम्। . हिरण्यवर्ण इत्याद्यैश्चतुर्भिःस्नापनं स्मृतम् ।।६।। पवमानानुवाकेन न(स्न) पनं च तृतीयकम । एवं त्रिः स्नाय्यमनुभिः एतैरप्याद्यविद्यया ॥२॥ समस्तयाऽथव्याहृत्या परिपिंचेत्प्रदक्षिणम् । दद्यादाचमनं देव्याः स्नानं प्रत्यात्मविद्यया ॥६।। तथैवसाक्षतं पुष्पं अवास्यांध्रिपु च द्विजः । ततः पूर्वाचिते पीठे स्थापयेस्थानपीठतः।।१४।। ततः पुष्पांजलिं दत्वा नमस्कृत्यात्मविद्यया । ततः पूर्वस्वलाद्यादि त्रितयं क्रमशोऽर्चयेत् ।।६।। दद्यात्पाद्यं पदान्तेपुमुखेष्वाचमनिय्य(नीय)कम । अघं पंचसु शीर्पषु मूलमंत्रण मंत्रवित् ॥६६ ततो वस्त्रं ब्रह्मसूत्रं दत्वाऽऽचमनमर्पयेत् । गंधपुष्पाक्षतरेवमर्पयेदात्मविद्यया ।।६७|| ततो नानाविधैः पुष्पैः सुगंधैः कुसुमादिभिः । यथेष्टं पूजयेदेवी यथानयनवल्लभम् ।।६।। ततो धूपं ततो दीपं दद्यात्पुष्पांजलिं ततः । सौवर्ण राजते शोल्वकांचने भाजने शुभ ॥६॥ नापूपघृतनिष्पन्नं परमान्नं सशर्करम् । दत्वाऽऽत्मविद्यया प्रोक्ष्य पुष्पं तदुपरि क्षिपेत् । ततोमंत्रासनस्योर्ध्व तत्स्थाप्यामृतमुद्रिकाम् ॥१००।। १६८
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३१५४
भारद्वाजस्मृतिः दत्वा समस्तव्याहृत्या परिषिच्यानभाजनम् । प्रणवेन जलंध(द)त्वा तन्नैवेद्यं निवेदयेत् ।।१०।। ततः सपुष्पहस्तेन दक्षिणेन द्विजोत्तमः । पात्रस्थमन्नं त्रिः स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा स्पृष्ट्वा निवेदयेत् ॥१०२॥ पुष्पं दत्वा ततो हस्तं प्रक्ष्याल्याष्टोत्तरं शतम् । जपेदष्टाविशतिं वा यथाशक्ति च संकटे ॥१०३।। अंगुल्याक्षसृजावापि गायत्रीं द्विजसत्तमः । अलाभेऽत्रोक्तपात्राणां पत्रपात्रेषु शोभने ॥१०४॥ शास्त्राविरोधभूजावलतिका वीरुधामपि । निवेद्य प्राक्समाख्याते दुर्लभेऽतीव सोमपाः ॥१०॥ होमोक्तधान्यजान्नं वा कंदमूलफलानि वा । गोक्षीरं दधिखंडं वा लड्डुकादिकमेव वा ॥१०६।। इतरद्भुक्तिजातं वा विशेषसुलभन्तु वा । निवेदयेत्तु नैवेद्यं द्रव्यैः सर्वप्रकारतः ॥१०७॥ पश्चादाचमनं दत्वा नैवेद्यं तद्विसर्जयेत् । ततः संप्रोक्ष्य तत्पानकरं वासस्ततोऽर्पयेत् ॥१०८।। अलंकारानुभूषण पश्चात्ताम्बूलमुत्तमम् । क्रमेण कृत्वा त्रितयं मूलमंत्रेण मन्त्रवित् ॥१०॥ अन्यानि यानि देयानि दद्यात्तान्यात्मविद्यया । पश्चादुत्थाय सद्भत्त्या गंधपुष्पाक्षतान्वितम् ॥११०॥ जलमंजलिना दद्याचालकोदकमंत्रतः। ज्ञानेन प्रमादेन द्रव्यालाभेन वा यदि ॥११॥
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३१५५
गायत्रीपुष्पाञ्जलिप्रकारः । अन्यूनमतिरिक्त वा तत्क्षमस्व ममेश्वरी। जगन्मये जगन्मातः जगज्जननकारणे ॥११२।। यदलीकं कृतं सर्व तन्मया(मम) क्षन्तुमर्हसि । मंत्रहीनं क्रियाहीनं भत्तिहीनं महेश्वरी ॥११३।। यत्पूजितं मया देवी परिपूर्ण तदस्तु मे। दत्वाऽमीभित्रिभिर्देव्याश्चुलकोदकमर्चकः ॥११४।। ततः प्रदक्षिणं भक्त्या तोषयेत्परमेश्वरीम् । पश्चादंण्डनमस्कारत्रयीकुर्याद् द्विजोत्तमः ।।११।। उत्थाय हस्तौ प्रक्षाल्य श्रीपादकुसुमं ततः । आत्ममूर्ध्नि च सद्भतया धृत्वा प्रक्षालयेत्करौ ॥११६।। ततः पुष्पांजलिं दद्याचरणेष्वाद्यविद्यया। ततः क्षमस्व देवी त्वं मां च रक्षेत्युदीर्य च । प्रणवेनाऽथ देवेशी सूर्यविम्वे प्रवेशयत् ।।११७।। (ततः प्रसन्नवदने ?)गायत्र्यांख्यां महो(हे)श्वरी । सद्भक्त्याऽभ्यर्चयेद्विप्रो विमुक्तः सर्वपातकैः ।।११८।। सर्वयज्ञतपोदानतीर्थवेदेषु यत्फलम। पिहत(विधिना? तत्सकलंलब्ध्वा यात्यन्तेशाश्वतं पदम् ११६ विषुवायनसंक्रांतिग्रहणेषु च वैधृती। व्यतीपाते महापूजामशक्तश्चेत्समाचरेत् ॥१२०।। एतद्रहस्यं परमं एतद्देव्यामहार्चनं ।
सत्कुलाय सुशीलाय वेदाध्यायिद्विजन्मने ।।१२।। ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ पूजाध्यायकथनं नाम एकादशोऽध्यायः।।
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अथ द्वादशोऽध्यायः
गायत्रीध्यानवर्णनम् अथ वक्ष्यामि गायत्र्याः ध्यानसर्वाघनाशनम् । सर्वाभीष्टप्रदं साक्षादिहलोके परत्र च ॥१॥ ध्यानं संध्यान्नये(सायन्तने) यत्र ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् । अन्यथा तु निजध्यानं प्रधानं च यथाक्रमम् ॥२॥ ध्यानं विना जपं सर्वं यत्नेनाऽपि कृतं वृथा। तस्माद्विजस्तु ध्यानेन जपं सह समाचरेत् ॥३॥ हंसस्थां कांस्यका रक्तां चतुर्वक्त्रां चतुर्भुजाम् । पद्मासन जटाचूडामष्टनेत्रां स्मिताननाम् ॥ ४॥ पीताम्बरप्रकटितां रत्नकुण्डलमण्डिताम् । दिव्यचंदनलिप्तांगां दिव्यपुष्पैरलंकृताम् ॥५॥ सर्वाभरणसंयुक्तां होमयज्ञोपवीतिनीम् । दक्षिणेऽक्षस्रजं कूर्च वामभागे सवं वरम् ॥ ६॥ चतुर्हस्तेन विभ्राणांदरण्येदिकप्रदक्षिणम् । प्रासंध्यायाःस्मरेदेवीं गायत्र्याख्यां द्विजोत्तमः ॥७॥ दक्षिणेऽक्षस्रजं कूचं नवं वामे कमंडलुम् । एवं वापि स्मरेदेवीं द्विजः पूर्वोक्तलक्षणाम् ॥ ८॥ दधतीं श्वेतरूपां तां शितवस्त्रां चतुर्भुजाम् । द्विनेत्राहिमकोटि....."त्रिवेष्टनाम् ।।६।
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गायत्रीध्यानवर्णनम्
२१२७ सीतक्षामांबरधरां प्रसन्नेदुनिभाननाम् । सुगन्धां लिप्तसाङ्गी सुपुष्पस्रग्विभूषिताम् ॥१०॥ समस्ताभरणोपेतां स्वर्णयज्ञोपवीतिनीम् । दक्षिणे पंकजं शंख वामे चक्र महागदाम् ॥११॥ चतुर्हस्तेन बिभ्राणां धरादित्यो प्रदक्षिणाम् । एवं मध्याह्नसंध्यायां सावित्री द्विजसत्तमः ।।१२।। कृष्णां प्रौडा(ढा,वृषारुढ़ां एकवस्त्रां त्रिलोचनाम् । चतुर्भुजां जटानागकुंडलेनसुमंडिताम् ॥१३॥ व्याघवांबरधरां नानाभरणभूषिताम् । अक्षत्रजमहाशूलंडमरुंचकपालकम् ॥१४॥ चतुष्करेषु बिभ्राणां अधरादि प्रदक्षिणम् । एवं सरस्वतीसंज्ञां सायंकाले स्मरेद् द्विजः ।।१५।। सपवित्रां चतुर्हस्तां तिस्रो हेव्य इमा ध्रुवाः। त्रिमूर्तिरूपधारिण्यः सृष्टिस्थितिलयांशकाः ।।१६।। एवं त्रिषु च संध्यासु जपकालेऽर्कमंडले । गायत्री संस्मरेद्विप्रः सर्वान्कामानवाप्नुया(त)॥१७॥ पञ्चास्यानि यः पादाः षड्वागादिशबाहवः । नेत्राणि पंचदश च श्वेततक्रान्तिमत्तनुः ॥१८॥ प्रदक्षिणां ततः प्रत्यगूर्वाश्यानि(?) यथाक्रमम् । रक्तकृष्णसुवर्णाभः श्वेतज्योति निभानि च !।१६।। हुताशनवदास्यानि सुस्थिरत्वंत्तुतद्वयः । उत्संगे पृष्ठभागे तु कुक्षयःषट्प्रकीर्तिताः ॥२०॥
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३१५८
भारद्वाजस्मृतिः कूर्चाक्षसूत्रं शृग्दधा(गदा?)भयादक्षिणपाणिषु । पुस्तकानि नुवं पात्रं वराश्चेतरपाणिषु ॥२१॥ अथवाल्पकशस्त्राणि भवेयुर्दशपाणिषु । चतुर्भुजां वा तां ध्यायेदन्यत्सर्वं पुरोक्तवत् ।।२२।। अफाक्षिमालाममयं दंडं दक्षिणहस्तयोः । कमंडलु च वरदं बिभ्राणां वामहस्तयोः ।।२३।। मुकुन्दं कुंडलं हारं कपरं कुक्षिबन्धिनीम् । छन्नं पीनं कराकल्पं कराशाखाविभूषणम् ॥२४॥ कलापपादकटयोपुराङ्गुलिभूषणम् । एतैविभूषणैर्हे मैः नानारत्नसमन्वितैः ।।२।। दिव्यैविभूषितां देवीं रुम्मयज्ञोपवीतिनीम् । पवित्रहस्तदलकां किंचित्प्रहसिताधराम् ॥२६॥ दिव्यगंधानुलिप्तांगां दिव्यमाल्यैरलंकृताम् । सीतक्षामपरीधानां सर्वावयवसुंदराम् ॥२७॥ सर्वलक्षणसंपन्नसर्वलोकैकनायकीम् । समस्त मंत्रतंत्राणां नायकत्वे प्रतिष्ठिताम् ।।२८|| शुद्धस्वर्णमयैरलैः अनेकरूपशोभिता । आनानात्यन्तसौंदर्यस्थाने पंचास्य विष्टरे ॥२६॥ तथाविधे भद्रपीठे विस्मये चोर्ध्व संस्थिताः । चतुर्वेदैःषडंगैश्च चतुषष्टिकलात्मभिः॥२०॥ वशिष्ठाद्यैश्चमुनिभिः गायत्र्याद्यैश्च दैवतैः । अन्यामिाह्ममुख्याभिः शान्तिभिः स्वर्गवारिभिः ॥३॥
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गायत्रीध्यानवर्णम्
३१५६. त्रयस्त्रिंशद्धि अमरैः सेंद्रैः संसेविता भृशम् । सदाशिवस्वरूपेयमीश्वरस्याङ्गनाकृतिः ।।३।। सततं ब्रह्मविष्णुभ्यां समुद्रेश्चनमस्कृता । तस्मादियं द्विजश्रेष्ठा ध्येया जप्या च सर्वदा ॥३३॥ गायत्रीभक्तितस्तेषां भुक्तिमुक्तिफलप्रदा। एवं सर्वेश्वरी देवीं गायत्रीं वेदमातरम् ।।३४।। ध्यायञ्जपन् सर्वसुखाप्नोतीह परत्र च । ब्रह्महा वा सुरापी वा स्तेयी वा गुरुतल्पगः ॥३५॥ तद्योगी वान्यपापी वा यो वा को वा द्विजोत्तमः । देवीध्यानरतः साधं जपेन सहभक्तितः ॥३६।। तत्रैते पातकाः सर्वे विनश्यन्ति न संशयः । व्याघ्रादयो मृगाः क्रूराः वृश्चिकाद्याश्च जन्तवः ॥३७॥ ब्रह्मराक्षसपूर्वाश्च पिशाचा व्याधयश्च ये प्रेताग्रहाश्च निर्घाताः अप्यन्ये बद्धवैरिणः ॥३८॥ देवीध्यानरतं विप्रं न स्पृशंन्ति प्रमत्तितः । देवाश्च मुनयश्चान्ये सिद्धाः साध्यौ(घ्याश्च)च गुह्यकाः ३६ गंधर्वाप्सरसो यक्षाः किन्नरागरुडोगगाः। विद्याधरास्तथैवाऽन्ये भूताख्या भुविचारणाः ॥४०॥ सर्वे तु वशमायान्ति देवीध्यानरतस्य च । महानदीषु गिरिषु महावाते महानले ॥४१॥ महाविपिने(वने?) भयंनास्ति देवीध्यानरतस्य च । द्विजस्य जप्यं ध्येयं च न गायत्र्याः परंपरम् ॥४२॥
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भारद्वाजस्मृतिः सर्वप्रकाराल्लोकेषु त्रिषु सत्यं न संशयः । उत्पत्तिस्थितिसंहाराः यस्यास्युर्वशगा भृशम् ।।४३।। तां गायत्री परित्यज्य विप्रः किं प्राप्यति(?) ध्रुवम् । स्वाध्यायाः संस्तरामंत्राः दानान्युप्रतपांसि च ॥४४॥ तीर्थानि वेदाः सकलं गायत्र्यैव द्विजन्मनः । सत्यं श्रेयोमहानंदोयकस्तेजोबलं(?) सुखम् ॥४५।। भागधेयं च सकलं गायत्र्यैव द्विजन्मनः। आयुर्धान्यंधनं रूपं सुशीलं सुमतिः कुलम् ॥४६।। ज्ञानं विद्याश्च सकलं गायत्र्यैव हि सोमपाम् । देवीमेतां परित्यज्य देवतामितरां द्विजः ॥४७॥ आश्रयेत्कोऽत्र निर्भाग्यस्तस्माकिंयदि(कोऽप्यस्ति)पापभाक् । गायत्री जननी शस्ता गायत्री भ्रातरःस्मृताः ॥४८॥ गायत्री बन्धुवर्गश्चगायत्री चाधिदेवता। यतिनिश्चित्य यो विप्रस्तां समाश्रित्य तिष्ठति ॥४६॥ तस्येह दुर्लभं किञ्चिदिह नास्ति परत्र च । गायत्री यो न जानाति जातो विप्रकुले यदि ॥५०॥ ब्राह्मणत्वं कुतस्तस्य स शूद्रेण समः स्मृतः । स्नात्वा विधिवदाचम्य सपवित्रं करद्वयः ।।५१।। उर्ध्वपुंडू च विधिवदग्निहोत्रोत्थभस्मना । धृत्वा ललाटभुजयोहदि कंठे यथाक्रमम् ।।२।। सदाकर्त्तव्य कर्माणि कृत्वा दर्भायने द्विजः । उपविश्येंद्रियदिग्वक्त्रः भूत्वोदङ्मुख एव वा ।।३।।
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गायत्रीध्यानवर्णनम् आसनं स्वस्तिकरवदा कृत्वा त्रीनप्राणसंयमान् । ततो गुरुं गणेशानं भक्क्यादेवंप्रणम्य च ॥४॥ ऋषिश्छन्दो देवताश्च शक्तितत्वान्यनुक्रमात् । वीजं शक्ति नियोगं च स्मृत्वोक्ता प्रणिपत्य च ।।५।। कृत्वा न्यासत्रयं पश्चाद्ध्यायेद्देवीमिहोत्थितः । संध्यासंहिमरुग्विबे स्ववेतस्यथवा बुधः ॥५६।। एकाप्रमानसो भूत्वा जपेदष्टसहस्रकम् । नित्यमष्टशतं वापि यथाशक्त्याऽथ वा पुनः ॥७॥ संभवेत् त्रिषु लोकेषु निग्रहानुग्रहाक्षमः । यथेष्टमखिलान्भोगान्भुक्त्वा भूर्तिच शाश्वतीम् ॥५८।। ततःस्वर्गफलान्भुक्ता प्राप्नोत्यंते परं पदम् । ध्यानाध्यायमिदं पुण्यं न देयं यस्य कस्यचित् ॥५६।। सद्ब्राह्मणाय दातव्यं सच्चरित्रगुणाय च । दुश्चरित्राय दुष्टाय दुर्विप्राय दुरात्मने ॥६॥ न देयमेतदध्यायं स्नेहाकिमपि कांक्षया । यदि दुष्टस्तलेदत्तमध्यायं येनकेनचित् । स पापात्मा महाघोरे नरकाब्दौ वि(चि)रंवसेत् ॥६॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ गायत्रीध्याननामको
द्वादशोऽध्यायः ॥
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अथ त्रयोदशोऽध्यायः
गायत्रीमूलध्यानवर्णनम् अथातः संप्रवक्ष्यामि मूलध्यानं तदात्मकम् । धैतः(देव)प्रसादजननं(सर्वाघोघ)सर्वथाघविनाशनम् ॥१॥ सर्वथाऽनुष्ठितं सिद्धं मुनिभिस्तत्त्वकांक्षिभिः । महानुभावैरमरै रवि सद्भक्ति तत्परम् ॥ २ ॥ अन्येषामपि सर्वेषां निखिलाभीष्टसिद्धिदम् । तस्मादिदं महाध्यानं ध्यातव्यं द्विजसत्तमैः ॥ ३॥ स्नात्वा शुद्धः शुचौ देशे प्रक्षालितपदद्वयः। स पवित्रकरद्वंद्वः कृते चास्पर्शने द्विजः ॥४॥ अमिहोत्रजयाभूत्या शुद्धयाजलसिक्तया। धृत्वालिकादि स्नानेष पुंडूच पञ्चसु ॥५॥ कुशासने प्राग्वदनः उदग्वक्त्रोयथामति । उपविश्य गुरुं वाचं गणेशं प्रणमेदथ ॥६॥ त्रिप्राणसंयमो भूत्वा भूर्भुवादित्रयेण तु । रेचकश्चाथतृतीयः कुंभकं (च) ततः (परम्) ॥ ७ ॥ ऋषिश्छंदो देवताश्च विनियोगं च वर्णकान् । तत्वादिशक्तिवीजं च शक्तिश्चाथ क्रमास्मरेत् ॥ ८॥ अथहस्ताङ्गदेहेषु कुर्यान्न्यासंत्रयं क्रमात् ।। दिग्बन्धनं च तत्पश्चाद् ध्यायेद्देवी प्रसन्नधीः ॥ ६ ॥
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'गायत्रीमूलध्यारवर्णनम् ३१६३ यात्वित्यनुवाकेन हृदये वाऽर्कमंडले । देवीमावाह्य गायत्री ततो ध्यायेद्विजोत्तमः ॥१०॥ . पंचवक्त्रां दशभुजां षड्गी चरणत्रयाम् । त्रिपञ्चषष्टि ... गायत्री परमेश्वरी ॥११॥ वेदादिविद्याभूताशहुतरक्तदवो जगत् । ब्रह्मविष्णुशिव.श्चास्याः प्रथनावयवा अमी ॥१२।। ऋग्वेदः पूर्वचरणः यजुर्वेदो द्वितीयकः। सामवेदस्तृतीयस्तु चरणः प्रथितः परम् () ॥१३॥ महाद्रिमलयाऊरू वासौ रत्नाकरारमृताः । पूर्वादिप्रथमा कुक्षिः दक्षिणादिग्द्वितीयकाः ॥१४॥ पश्चिमादिक्तृतीयास्याः कुबेराशाचतुर्थका । उर्ध्वादिक्पश्चिमायादिगष्टेत्युक्ता यथाक्रमात् ॥१५।। इतिहासपुराणानि नाभिर्दिव्याति वै जगत् । गर्भान्तरंमरुदर्भश्छदासि च ततस्तनौ ॥१६॥ हृदयं धर्मशास्त्राणि बाहवो न्यायविस्तरः । शिरोधरागिरिपतिःशीर्षाणि च पृथक् पृथक् ॥१७।। छंदःशिरःशब्दशास्त्रं शिरःशीष द्वितीयकम् । शिरः कल्पस्तृतीयन्तु तञ्चतुर्थं निरुक्तकम् ॥१८॥ पंचमं ज्योतिष शीर्ष परमं परिकीर्तितम् । सितेकरगतिर्वक्त्रं वदनश्चेन्दुमंडलम् ॥१६॥ समीरणं च निश्वासः प्रसन्नो वायुरीरितः । कृष्णाभ्रपंक्तिरलकाः दोर्माला हिमदीधितिः ॥२०॥
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भारद्वाजस्मृतिः । पुष्पावतंसाज्योतींषि हरो नक्षत्रमालिका । रसाकल्पावनीरुहः मीमांसालक्षणानि च ॥२१॥ विद्याविधौशिरः पश्चा(द) अथर्वाख्यो विचेष्टितः । वेदान्तशास्त्रं विमलं मानसं परिकीर्तितम् ।।२२।। ब्रह्मा मुखं शिखा रुद्रः विष्णुरात्मा हृदि स्थितः। एतल्लक्षणसंपन्ना गायत्रीति प्रकीर्तिता ॥२३॥ सांख्यायनस्य गोत्रैषा जगद्रूपाखिलेश्वरी। एवं ज्ञात्वा स्वहृत्पद्म दिव्याकाशेऽन(?) स्थले ॥२४॥ हैमे सिंहासने देवीं स्थितां ध्यात्वा द्विजोत्तमः । भद्रपीठेदयाघूढ़े नानारत्नसमन्विते ॥२॥ पद्मासनेऽथवा सौम्ये तदायाते स्वचेतसः । पाद्यमाचमनं चाध्यं वस्त्रं यज्ञोपवीतकम् ।।२६।। चंदनं चाक्षतं पुष्पंधूपदी निवेद्यकम् । करानुलेपं तांबूलं दत्वाधिजपमाचरेत् ॥२७॥ प्रदक्षिणप्रणामांश्च यथाशक्त्या च कारयेत् । स्तुत्वाऽथ विविधैस्तोत्रैर्देवीमुद्वासयेत्ततः ॥२८॥ एतान्यमूनि द्रव्याणि प्रोक्तानीहार्चनाधुना : मानसोक्तानि सिद्धानि शुभानि द्रव्यजानि च ।।२।। एवं द्विजोत्तमः सम्यनियमेनैव सर्वथा । यो ध्यानेनार्चयेद्देवीं सर्वाभीष्ट लभेत्ततः ॥३०॥ ध्यानं कृत्वा ततः सम्यग्ब्राह्मणस्य महात्मनः । महापातकपूर्वाणि न स्पृशंन्ति तमांस्यपि ॥३१॥
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गायत्रीमहाध्यानम् यानियोग्यानिवस्तूनि ध्यानं कुर्वन्स्पृशेद्विजः । भवन्ति तानि सर्वाणि पवित्राणि न संशयः ॥३२॥ सततं ब्राह्मणो भक्त्या सहैव ध्यानतत्परः । न तस्य दुष्कृतं किंचिदिहोपरिमहात्मनः ॥३३॥ ब्रह्माविष्णुहराश्चैव मुनयः पितरस्तथा । प्रीताः प्रीत्या प्रयच्छंति धान्यानि च मनोरथम् ॥३४॥ ब्रह्मविद्भिरिति ध्यानं ध्येयं तद्ब्रह्मसिद्धये । सद्ब्रह्मणोऽनिशं शुद्धैर्भावैवश्यैरपिस्मृतम ॥३॥ योगेन ध्यानमार्गेण जपेञ्च सततं द्विजः। तिष्ठत्याश्रित्य वेदाभ्यां सनाक्षदीश्वरसंस्मृताः ॥३६॥ प्रायः किंजल्पनैबधेः भूयोभूयोविमोहनैः।। गायत्र्यास्तु परं नास्ति दैवतं सद्विजन्मनाम् ॥३७॥ वेदांबिका परित्यज्य गायत्रीं ये द्विजातयः । पठन्ति वेदानस्तेषांत्ते भवेयुर्गर्दभस्वनाः ॥३८॥ गायत्रीध्याननिरतो यो द्विजो जप्यवेदवित् । सवेदविदिति प्रोक्तो विशुद्धश्च द्विजातिषु ॥३६॥ एतद्ध्यानं ततः कुर्यात् सद्भक्त्या नियमेन यः। . स स्नातः सर्वतीर्थेषु कृतास्तेनाखिलाधराः॥४०॥ कृतानि सर्वदानानि भूदानप्रमुखानि च। कृच्छ्रचान्द्रायणादीनि कृतान्युप्रतपांसि च ॥४१॥ अन्यानि यानि पुण्यानि यानि धर्माणि तानि च । यथोदितक्रमेणैक समस्तानि कृतानि वै ॥४२॥
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भारद्वाजस्मृतिः महाध्यानमिति प्रोक्तं एतद्ध्येयं द्विजातिभिः। सद्विजायपरेष्टव्यं(प्रदातव्यं) अन्यस्मै न कदाचन ॥४३॥ द्विजः सदा महाध्यानाध्यायमेतं परः शुचिः। सर्वपापविनिर्मुक्तस्स याति परमं पदम् ।।४४॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ महाध्याननामक
स्त्रयोदशोऽध्यायः॥
अथ चतुर्दशोऽध्यायः पूजाफलसिद्धये द्रव्यगन्धलक्षणवर्णनम् अथार्चनोक्तद्रव्याणां गंधानां च पृथक् पृथक् । लक्षणं संप्रवक्ष्यामि सपर्याफलसिद्धये ॥१॥ चंदनागरुक'रकाश्मीरजचतुष्टयम् । गंधाख्योऽयं विलेप्यास्या भक्त्यावापि पृथक् पृथक् ॥ २ ॥ चंदनागरुकपर कुंकुमस्निग्धकर्दमः । गंधोत्तमइति प्रोक्तः श्रेष्ठः सर्वानुलेपने ॥३॥ पूतिमृगमदादीनि पुण्यांगानि विशेषतः । द्रव्याण्यतिसुगंधीनि प्रमृज्यान्यनुलेपने । चंदनागरुलोहाख्य काश्मीरजचतुष्टयम् ॥ ४॥ एकैकमष्टद्वितयशतसंख्यागुणाधिकम् । अभिन्नाशंखवश्चेताः सुस्निग्धा व्रीहितण्डुलाः ॥५॥
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नानाद्रव्यगन्धलक्षणम् अक्षताश्चेत्यभिहितास्ते प्रशस्ताः समर्चने । कृष्णाः कड्गा(? बहुविधाः पुरुषाश्चमलीमसाः॥६॥ ब्रीह्यक्षता अपि क्षुद्राः न हि योग्याः समर्चने । मालतीमल्लिकाशोकाः जीवन्ती नवमल्लिकाः ॥ ७ ॥ पुन्नागवकुलांभोजाः पाटलोत्पलचंपकाः । कदंबकर्णिकाराख्यपलाशकरवीरकाः ॥ ८॥ मंदारनागविजयश्वेतमंदारकेसराः । कोजुकामतमातल्लिसंध्यावर्तकुसुंभकाः॥६॥ बकागस्यासनद्रोण आरग्वधककांचनाः। त्रिसंध्य पृथुवालार्कजपास्युः पुष्पसंकटः ॥१०॥ एषां पुष्पाणि सततं प्रशस्तानि समर्चने । एषु लक्षणयुक्तानि योग्यानि कुसुमेष्वपि ।।११।। अलक्षणानि पुष्टानि न योग्यानि कदाचन । सदलानि न नालानि सुपक्कानि नवानि च ॥१२॥ स लक्षणानि तान्याहुः पुष्पाण्यक्षिप्रियाणि च । पुष्पेषु चतुर्वर्णा भवन्तिधवलादयः ॥१३॥ तानि सर्वाणि पुष्पाणि प्रयोज्यानि समर्चने । प्रयोज्यान्यर्चनादिभिः(एणि पुण्यगन्धानुलेपनैः)॥१४॥ अतिपक्कान्यपक्कानि तप्तानि विदलानि च । निर्नालानि प्राक्तनानि केशकीटयुतानि च ॥१२॥ विशीर्णानि सरंध्राणि कृष्ठोपहृतानि च।। एतान्यलक्षणादीनि पुष्पाणि कार्थ(कथि?) तानि तु ॥१६॥
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३१ ६८
- भारद्वाजस्मृतिः । वीतपुष्पफलाशानि विभज्य न तु पूजयेत् । अन्तरेण सरोजातेंदिवर प्रसवद्वयम् ।।१७।। अत्राख्यातानि पुष्पाणि न योग्यानि कदाचन । तस्मादुक्तानि पुष्पाणि योग्यान्यभ्यर्चने सदा ॥१८॥ बिल्वापामार्गमरुवतुलसीदमनाम्र कः । भृङ्गराड्जंबुखदिरमहमदिदकाह्वयाः ॥१६॥ शशिब्रह्ममहीजात हरिताल कुशाह्वयाः । एषां कोमलपत्राणि योग्यान्य(प्य,मर्चने सदा ॥२०॥ पूर्वोक्तकुसुमालाभे पत्रैरेतैनियोजयेत् । एषामलाभे पत्राणां अक्षतैतिरैलै,यजेत् ॥२॥ स्वारामोद्भूतकुसुमै (र) अर्चाश्रेष्ठेत्युदीरिता । मध्यमा वनजैः पुष्पैः क्रीतपुष्पैः कनीयसी ॥२२॥ कपित्थवा कुचीसर्ग शिरीषमदयन्तिकाः । शल्मल्पेरंडमधुकबिभीतकविषद्रुमाः ॥२३॥ अन्ये येनाऽत्र कथिताः विरोधो लतिकाद्रुमाः । त्रीणिप्रसूनानि यजने न भवन्ति हि ॥२४॥ नस्तस्मास्तर्यजेदेवी(भत्म्या)न्वेष्टशीघ्राभिलाषुकः । स्तेयेनाऽऽहृत्य पुष्पाणि बलाद्वा येन केनचित् ।।२।। यो यजेत तैर्वृथा पूजा भवेदेव न संशयः । गंधानि पूजाद्रव्याणि स्तेयेन प्रसभेन वा ॥२६॥ आहृत्य पूजयेत्तैर्यः सा पूजा च वृथा भवेत् । सि...दं (सिन्दूर) कुंकुमं दूर्वा कोष्टं लावंजकं तथा ॥२७।।
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३१६६
. पूजाद्रव्योपकरणवर्णनम् अमूनि पंचद्रव्याणि पाद्यान्याहुमहर्षयः । फलं कर्पूरतंकोलकोप्टैलोशिरजानि च ॥२८॥ अमून्याचमनीय्यस्यानि द्रव्याण्युक्ता निसबुधैः । कुशाग्रे तिलसिद्धार्थ यवाक्षतवयांसि च ॥२६॥ द्रव्याण्यमूनिपद्राहुः (?) अय॑स्य मुनिपुंगवाः । न मेरुसज्जश्रीवासकुङ्कुमं श्रीफलं मधु ॥३०॥ लाक्षाकृष्णागरुः सर्पिः श्वसनः सरलद्रुमः । अगरुमहिपानश्च श्रीगंधो गुग्गुलुस्तथा ॥३१॥ निर्यासश्च्यवनश्चेति धूपद्रव्याणि पोडश । द्रव्येष्वषु यथालव्धं तथा तद्धपमर्चयेत् ॥३।। अलाभे प्रसवेनैव धूपं संकल्प्य वार्चयेत् । कर्पूरलोहश्रीखंडेलामन्जुकचतुष्टयम् ॥३३॥ रूपवेदांग तुरगसख्यं सधृ(घ)तसाधनम् । एतन्मधुधृतं पात्रं विततज्वालपावके ॥३४॥ प्रक्षिप्य दद्यात्तद्धपं महासम्मोहना वृयं(त्मकम्)। कर्पूरसीतलोहोभूकालेयंकंदुरुष्करम ।।३।। निर्यासश्चंदनंचेति द्रव्याण्येतानि मप्त वै। क्रमेणैव तु सप्तांनं संख्ययाच्युतभापितम् ॥३६॥ मधुपद्यत्मृतं (द्रव्यात्मक) देव्याः तन्प्रियं घूपसाधनम । एतेपामपि विज्ञयाः भागाः पूर्व यथोदिताः ॥३७।। कर्पूरं गोघृतं तैलं महवैदिव (क)साधनम। . पट्टसूर्पच कार्पासं तद्वर्तिकरण स्मृतं ॥३८॥ १६६
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भारद्वाजस्मृतिः महानदी पुण्यतीर्थ सलिलं चोत्तमोत्तमम् । नदीधनरसं मेध्यं इतरंतु कनीयसम् ॥३६॥ तत्र स्वादूदकं श्रेष्ठं काषायांभस्तुमध्यमम् । इतरत्सलिलं वारि कनीयसमुदाहृतम् ॥४०॥ सकीटकं स दुर्गधं हेयवस्तु समन्वितं । समृत्तिकं यत्सलिलं तदयोग्यमिति स्मृतम् ॥४१।। श्लेष्मरक्तसुरामांससर्पिर्मात्रास्थिशिरोरुहैः । एतानि हो(हे)यवस्तूनि न संस्पृश्यानि हि कचित् ॥४२॥ स्वच्छं सुशीतलं स्वादु लघुसत्पात्रपूरितम् । पानीप्यं तत्तु जानीयात्सलिलं श्रेष्ठमुच्यते ॥४॥ चंदनागरुकर्पूरचंपकोसीरकुंकुमैः। वस्ति(संशोधितं यत्तन्नदीतोयं मनोहरम् ॥४४॥ मूलेनाष्टोत्तरशतं वार्येतदभिमर्त्य च। सकूचं नापयेद्देवीं सर्वपुण्यफलं लभेत् ॥४॥ निवारतंडुलाः श्रेष्ठाः मध्यमा व्रीहितंडुलाः । होमोक्तधान्या जायंते तंडुलाःस्युः कनीयसः ॥४६।। अखण्डा निस्तुषा श्रेष्ठाः श्वेताःस्निग्धाश्च शोभनाः। सतुषा बहुवर्णाश्च कणाम्ना नैव शोभ नाः ॥४७॥ आढ़कप्रमिताः श्रेष्ठाः तदर्धा मध्यमाःस्मृताः । कनीयसस्तदर्धाश्च नैवेद्यपरिकल्पने ॥४८॥ क्लिन्नान्नं तंडुलान्नं चाभिः सटालंवणोदनं । सर्वगान्नं घटान्नश्च नैवेद्य परिकल्पयेत् ॥४॥
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पूजाद्रव्योपकरणवर्णनम्
३ १.७१ दुर्भात्स्थानपरार्धान्नं स्पृष्टान्नं शूद्ररोगिभिः । उच्छिष्ठावहितं चान्नं नैवेद्य परिवर्जयेत ।।५।। अतिपक्काअपक्वाश्चसंस्पृष्टा मंदकादयः । नैवेद्य तेन योग्या:स्युर्मादकाबंतु पूतनम् ॥५॥ गवां प्रशस्तं त्रितयं पीयूपदधिमर्पिपाम । अस्य जीवफलान्नं च प्रशम्तमिति तत्स्मृतम् । अतिपक्कमपक्वं च न कल्पति कृमिनं ॥५॥ दुभांडसातमसद्यस्कं दुर्गधमशुभं स्मृतम् । परिपक्वं सुपात्रस्थं सुगन्धं नयनप्रियम् ॥५३॥ सद्यस्कमेतत्रितयं नैवेद्येऽति शुभप्रदम् । कदलीनारिकेलाम्लपनसानां फलानि च ।।५४|| समस्येदिक्षुदंडानि सुपक्कानि सुखानि च । भक्ष्याणि यानि श्रेष्ठानि कंदमूलफलानि च ॥५।। निवेद्यकानि सर्वाणि दातव्यानीतराणि न । मुद्गानिष्पावकामापास्तुपर्याश्चणका अमी ॥५६॥ पंचतेऽनिप्रशस्ताःम्युनवैद्ये दोपवर्जिताः। क्रमुकस्य फलान्यष्टौ अनुच्छिष्टानि संति चेत् ॥५७। पत्राणि नागवल्याश्च द्विगुणं शुक्तिचूर्णकम् । अन्यैरादाय नोच्छिष्टं दुचूर्णमलाभकं ॥५॥ कर्पूरसहितंयत्तत्ताम्बूलमितिभाषितम्।.. अस्याऽलाभे यथालब्धं पत्रक्रमुकचूर्णकम् ।।५।।
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३१ ७२
भारद्वाजस्मृतिः ताम्बूलं भावयेच्छ्राद्धं यत्तन्नयनवल्लभम् । श्रेष्ठानि पत्रवस्त्राणि महााणि च सर्वदा ॥६०॥ एषामलाभे कार्याः स्युर्वासांसि प्रयतानि वा । नेत्रप्रियाणि सूक्ष्माणि नूतनानि घनानि च ॥६१॥ यान्याहृतानि वस्त्राणि प्रशस्तानि भवंति हि । आहुर्दग्धानि जीर्णानि अन्यैरपि धृतानि च ॥६॥ कृमिदुष्टानि जीर्णानि स्थूलान्युपहतानि च । दुष्करं सुप्रयुक्तानि देवताभिभूतानि च ॥६३।।
नूतान्यस्यानिलब्धानि सस्युशस्थानिजा'चित्(?) । . एवं सर्व समाख्यातं द्रव्याणां लक्षणं स्फुटम् । एतज्ज्ञात्वा द्विजोदेवीं सद्भिद्रव्यैः समर्चयेत् ॥६४॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ पूजाद्रव्योपकरणवर्णनं नाम
चतुर्दशोऽध्यायः ॥
अथ पञ्चदशोऽध्यायः
यज्ञोपवीतविधिवर्णनम् अथ यज्ञोपवीतस्य विधिं सम्पद्विजन्मना । श्रौतस्मार्तक्रियासिद्ध्यै प्रवक्ष्येऽखिलशाखिनाम् ॥१॥ यज्ञोपवीतं. धृत्वैव सर्वकर्माणि सर्वथा। श्रौतस्मार्तानि चान्यानि कुर्यात्पुण्यानि च द्विजः॥२॥
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यज्ञोपवीतविधिवर्णणम्
३१ ७३ अज्ञात्वाऽस्यविधिं विप्रः कृत्वा कृत्यान्करोति यः। यानि कर्माणि सर्वाणि तानिस्युनिष्फलानि वै॥३॥ तस्माद्यत्नेन कर्तव्यमुपवीतं विधानतः। .. विधानेन विना जातं भवेद्गोकंठरज्जुवत् ॥४॥ अतः सम्यविधि ज्ञात्वा कुर्वीत विधिपूर्वकम् । यज्ञोपवीतं षट्कर्म तत्सत्कर्माधिसाधनम् ॥५॥ सह वै देहनाच्चेत्यायेसिनूजुश्रुतौ (व)।। यज्ञोपवीतं विधिवत्कृत्वा धृत्वां द्विजोत्तमः॥६॥ ततो वेदमधीयीत श्रौतस्मार्तक्रियां चरेत् । इत्येवं सुदृढ़ प्रोक्तं अतोदध्यादिनान्ततः ॥ ७॥ दैवं पैतृकमार्षं च कर्म कुर्यात्सदा द्विजः । कुर्याद्यज्ञोपवीत्येव नान्यथा तत्फलप्रदम् ॥ ८॥ निवीतं मनुष्याणां प्राचीनावीतं देवानामितिश्रुतिदर्शनात् । चतुणां ब्राह्मणानां च वर्णानां क्षेत्रसंभवम्॥४॥ कार्पासमुपवीतार्थं गृह्णीयान्न (तु ?) भूमिजम् । कार्पासः प्रथमः सृष्टः जगत्स्रष्टौ स्वयंभुवा ॥१०॥ ब्राह्मण्यस्य स्थापनार्थं वेदानां स्थापनाय च । साधीनं क्षेत्रनं स्वस्य कार्पासमधमं स्मृतम् ॥१२॥ तस्माच्छष्ठं स्वयं वीजं उप्त्वा तत्र समुद्भवम् । स्वस्ववर्णस्वदारे(हि) समुत्पादितवीरुधिः ॥१२॥ कार्पासं यत्तदुत्कृष्टं उपवीतकृता भृशम् । म्वक्षेत्रे स्वगृहाभ्यासे शुचौ देशेऽपि वा द्विजः ॥१३॥
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३१७४
भारद्वाजस्मृतिः न्वेष्टंयावत्स्थलं तावदवटं जानुमात्रकम् । गोमयेन प्रलिप्तेन स्वोक्तवर्णान्मुदा सह ॥१४॥ . अंबूनि निर्वपेद्वीजं सकार्पासद्वयं शिवम् । प्रणवेनाभिमन्त्र्यैव ततस्तोयं प्रसेचयेत् ।।१५।। आपोवाइतमित्यादि सूक्त नैवाभिमंत्रितम् । ततः शुद्धाम्बुनैकेन तत्सस्यमनुवर्धयेत् ।।१६।। तथा जातेषु जातं यत् कार्पासमतिशोभनम् । श्वेतलोहितपीताःस्युः विप्रक्षत्रविशां क्रमात् ॥१७॥. वर्णशूद्रस्य कृष्णःस्याद्वर्णोऽन्यः संकरः स्मृतः । स्वक्षेत्रात्स्वहृतं श्रेष्ठं कार्पासं धवलं द्विजैः ॥१८॥ पितरैरपि वा शुद्धं उपवीतकृतौ शुभम् । फलवत्तुषकेशास्थि तृणवल्कानि यत्नतः ।।१।। पात्रे पवित्रं संस्थाप्य प्रयतः शोधयेद्विजः । तस्मिन्कराभ्यां मुच्येत कार्पासबीजसंचयम् ।।२०।। कार्पासरज्जुशापेन कुर्वीत मृदु कर्म तत् । तेनैव द्विजकर्माऽथ कार्तिकं सूक्तमुत्तमे ।।२१।। शुद्धाभिर्विधनाभिर्यास्वस्यगोत्राभिरथापि(रप्यथा) वा। पुंश्चलीमीरुदक्यांभिःकन्यकाभिश्च(?) पुरन्ध्रिभिः ।।२२॥ तंतुकर्म न कर्त्तव्यं कार्पासमृदुकर्म च । आसु न्यूनाधिकागाश्च कुत्सितावयवा अपि ॥२३॥ असौम्यापनकेनस्यु योषिस्तं(?) (योषितस्तत्प्रोकल्पने। सुमंगल्या कन्याप्रशस्ता(स्यात्तु कर्मणि ॥२४॥
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यज्ञोपवीतविधिवर्णनम् विश्वस्थान प्रशस्तेति केचिदाहुमहर्षयः। कीर्तितं स्वस्य हस्तेन सूत्रमित्युत्तमं स्मृतम् ।।२।। द्विजकर्मादिभिःपश्चादशक्तश्चेदयं यदि । उत्तमस्तंतुकद्रौक्मः कलधौतस्तुमध्यमः ॥२६।। कनिष्ठस्थानकश्चेति तंतुकर्मण्युदीरितम् । द्विषडङ्गुलमात्रायामंगुल्यां तस्य तु प्रमा ||२७|| कलाकालक्षणं त्वेवं प्रोक्त तंतुकृतः खलु । व्यासोन्नतेंऽगुले वृत्तं समातन्तुकृतौ मता ॥२८॥ लक्षणं द्विधमाख्यातं यन्त्रं तन्तु क्रियार्हकम् । तस्मिन्मणिशलाकान्तं संप्रोक्ष्याद्वयवायतम् ।।२६॥ विनिर्गतं स्थितं यत्तत्तन्तु कृत्स्नमुदीरितम् । तन्तुकृत्प्रोतलोहानां लज्जेनैकेन निर्मितम् ॥३०॥ पात्रं भवेदलाभे वा यज्ञंयदमनिर्मितं । षडंगुलोच्छ्रयं तस्य व्यासमंगुलपंचकम् ॥३१॥ पाणिग्रीवान्वितं यत्तत्तन्तुकृत्पात्रमुच्यते । सार्द्धद्वयांगुलं पात्रं तदांघ्रिः कंधरांगुलम् ॥३२॥ उच्छेधस्तस्यविस्तारं कर्णस्य व्यंगुलं भवेत् । तन्तुकृद्भ्रमणं स्थानं पात्रं ख्यातं द्विरंगुलम् ॥३३॥ तथैव पादखातं स्यात् कर्णरंधं यथारुचि।। लोहकंकुटकान्येषु यथालब्धे न वा कृतः ॥३४॥ काकादीनां तन्तुकृतां अलामे तन्तुकृद्भवेत् । कुचन्दनश्चखदिरः कस्यत्मणिकर्मणि ॥३५॥ . .
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३१७६
भारद्वाजस्मृतिः तज्जातिनालं तस्य स्यात् कुशनालमथापि वा। स्वर्णतन्तुकृतादीनामलाभे धनसोमपाम् ॥३६॥ शुद्धमृण्मणिसंप्रोता कुशनाली प्रशस्यते । समक्षमृन्मणिस्तक्षः तंत्तुकृतंत्तुकर्तने ॥३७॥ यज्ञोपवीतस्य भवेज्जातु चिह्न द्विजन्मनः । अस्य शुद्धिर्जनस्पृष्टिोपो ह्यस्माञ्चकारणात् ॥३८|| आस्तृश्यलोत्पादेषः (?) तन्तुयंत्रो न शस्यते। अतिसूक्ष्ममतिस्थूलं शीपं निम्नोन्नतं च यत् ॥३६।। यत्नेन कीर्तितमपि द्विजः सूत्रं तदुत्सृजेत् । म्लानं यंत्रक्रियायुक्त उपयुक्तसुरैधृतं ।।४०॥ दग्धं तष्टं मुष्टिकाद्यैः यत्तत्सूत्रं परित्यजेत् । पूयंशोणितविण्मूत्रश्लेष्मोच्छिष्टैश्च यद्यपि ॥४१॥ संस्पृष्टं तद्भवेत्सूत्रं उपवीतकृतौ न हि। उपक्रम्य प्रतिपदं यावत्स्यात्पूर्णिमावधि ॥४२॥ शुक्लपक्षःस्मृतस्तावत्प्राह मध्याह्नतः पुरा । स्वाध्यायोक्ततिथौ पुण्ये नक्षत्रे शुभवासरे ॥४३॥ प्राह शुचिः शुचौ देशे ब्रह्मसूत्रं प्रकल्पयेत् । स्वाध्यायपठने योग्यास्तिथयो या प्रकीर्तिताः ॥४४॥ ताश्च स्वाध्यायतिथयो पक्षान्ते पुण्यहानि च । चित्राश्विनीशतभिषकस्वातिपुष्याःपुनर्वसू ॥४॥ हस्तचित्रविष्टानुराधा(विशाखानु)रेवतीरोहिणीप्रभम् । उत्तरत्रितयं मूलविशाखा हरितारकम् ॥४६॥
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यज्ञोपवीतविधानम् एतान्यष्टादशआणि पुण्याण्यक्षयाजनुः । हस्ताभिजिद्नुराधश्वयुक्प्रौष्ठ पदाह्वयाः ॥४७॥ तिष्यः पुनर्वसूचेतिताराः पुंसज्ञका इमाः । आसूपवीतं कुर्वीत द्राकर्मफलवाचकः ॥४८॥ ऋक्षेषु जन्मश्रेष्ठःस्याञ्चतुर्थ षष्ठमष्टकम् । द्वितीयं नवमं चान्यस्वस्वताराः शुभेतराः॥४६॥ तृतीये सप्तमे षष्ठे दशस्वस्य(स्व?) जन्मनि । एकादशे स्थितश्चंद्रः शुभप्रद इति स्मृतः । ताराचंद्रबलोपेते दिवसे स्वस्य कल्पयेत् ॥५०॥ ब्रह्मसूत्रं तयोहीनबलेनैव प्रकल्पयेत् ।
गथर्वयजुः साम्नां क्रमादेतेऽधिपाः स्मृताः ॥५१॥ देवेड्ययेमरुक्पुत्र दैतेयाराध्यभूमिजाः । स्वस्ववेदे शखेर(?)वस्यवारेतदुदयेऽपिवा ॥५२।। विदर्घितोपवीतानि तदलाभे शुभेऽहनि । बृहस्पतिः सुराचार्यः रोहिणेयो हिमांशुकः ॥५३।। एते शुभग्रहास्त्वेषां वासराः शुभवासराः । देवस्थानं नदीतीरमाश्रमं गोनिकेतनम् ॥५४।। मठश्चैतेषु लब्धेषु कुर्याद्यज्ञोपवीतकम् । ब्रह्मविष्णुशिवस्सूर्यः दुर्गागणपतिर्गुहः ॥५५॥ एतेषान्तु मुनिस्थानं देवस्थानमिति स्मृतम् । गंगादिसरितां कूलं नदीतीरमितिस्मृतम् ॥५६॥
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भारद्वाजस्मृतिः
तपोवनमृषीणां यत्तत्तदाश्रममिति स्मृतम् । वासस्थानं गवां यत्तदुदितं गोनिकेतनम् ||५७|| स्थानं तपस्विनां यच भवेत्तस्यमदाह्वयम् । स्नात्वा शुचिर्द्विजः श्रेष्ठश्चरणौ च ककाततः ॥ ५८ ॥ प्रक्षाल्याचम्य विधिवत्प्राङ्मुखो वाऽप्युदङ्मुखः । कृष्णाजिनासनालाभे कुशक्लासनोऽपिवा ॥ ५६ ॥ स्थित्वा समाहितमनाः प्राणायानं समाचरेत् । ततो गणेश्वरं वाचं स्वाचार्यं त्रिदशानृषीन् ||६०|| पितृन्ब्राह्मणमज्जाक्षं रुद्रं भक्त्याभिवादयेत् । ततः प्रणवमुच्चार्य व्याहृतित्रितयं ततः ॥ ६१ ॥ नवतींसगृह्णीयात्तत्सूत्रं चतुरंगुलैः । तदेवाचिररूपेण कुर्वीत त्रिगुणां ततः ॥ ६२ ॥
तत्संप्रक्षालयेच्छुद्धैरम्बुभिः प्रणवेन च । व्याहृतित्रितयेनाधस्तत्कू चपारे निक्षिपेत् ॥६३॥
३१७८
आपोहिष्टादिभिर्मन्त्रैः कुशैस्तन्मार्जयेत्त्रिभिः । हिरण्यवर्णा इत्याद्यैश्चतुर्भिर्मार्जयेत्ततः ॥ ६४ ॥ पवमानानुवाकेन ततो मार्जनमाचरेत् । उपवीतकृतौ विप्रः शुद्धौ द्वौ देवभाषितौ ॥६५॥
एकोनं वा ततो विप्रश्चान्यो मध्यमधारकः । प्राक्प्रत्यग्वदनो विप्रः दक्षिणाभिमुखोऽपि वा ॥ ६६ ॥
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यज्ञोपवीसविधानम्
३१ ७६ स्थित्वापठनम्मरन् तुल्यं तत्सूत्रममुपत्रयेत् । उच्चरन्प्रणवं पूर्व व्याहृतित्रितयं तथा । शनैर्वामस्वहस्ताभ्यां अदाव्यग्रोऽनुवर्तयेत् ।।६७।। तत्सूत्रं त्रिगुणीकृत्य तैरग्राभ्यां त्रिभिःसवा । प्राणानाग्रंद्धि(?)दसीत्युक्त्वाथ परिवेष्टयेत् ॥६८॥ उच्चरन्प्रणवं पूर्वं व्याहृतित्रितयं तथा । शनैर्वामं स्वहस्ताभ्यां तथाव्यग्रोऽनुवर्तयेत् ।।६।। नरा मृगाः पतंगाश्च संधानेचानुवेष्टयेत् । सूत्रस्याधो न गन्तव्याः गताश्चेद्युदतस्त्यजेत् ।।७०॥ विण्मूत्रांगारकेशास्थिचर्मक्रिमिचयोपरि । अनुवर्तनसंधाने सूत्रस्य न समाचरेत् ॥७१।। कपालोच्छिष्टनिर्माल्यतुषधूमेरिणोपरि । न चानुवर्तयेत्सूत्रं संद्धानं चास्य नाचरेत् ।।७२।। यज्ञोपवीतशिल्पस्य नवकस्य प्रमाणकं । सिद्धार्थस्यापि च फलस्थूलस्योक्तं महर्षिभिः ॥७३॥ स्थूलफलस्य तूलस्य मध्यमस्य कृशं न च । तत्र श्रेष्ठ मध्यमं स्यात् कनिष्ठं क्रमशः स्मृतम् ॥७४॥ आयुहरंतूलशुल्पं तपोहरं ( कनिष्ठं च ?)। . उत्तमप्रमाणं शुल्पं यदुपवीतं करोति शम् ॥७॥ एवं ज्ञात्वानुवाऽधः कुशौ स्पृष्ट्वा कुशास्तृते । देशे प्रसार्य दौं द्वौ दत्वा कुर्यात्करध्वनिम् ॥७६॥
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३१ ८०
भारद्वाजस्मृतिः पश्चात्तद्रज्जुमादाय प्रणवव्याहृतित्रया । जपच्छनैः शनैर्गद्धिं कुटिले परिमोचने ॥७७|| तच्छुल्वनेत्रिवलया कृत्वागाधं दृढ़ विधा । आवेष्टय बंधयेग्रन्थि त्रितयं चोपरिक्रमात् ॥७८॥ पलाशखदिराश्वद्धा(त्था)बिल्वाद्यध्वरभूरुहं । तक्षिपेदेकशाखायां भूर्भुवः सुवरोमिति ॥६॥ गोमयेन शुचौ देशे प्रविलिप्त कुशास्तृते । व्रीह्यासनं प्रकलप्याऽथ कूर्च तन्मध्यमे क्षिपेत् ॥८॥ तस्योपरिष्टात्कलशं ताम्रसूत्रेण वेष्टितम् । पूर्ण पवित्रसलिलैः सुगंधं कुसुमाक्षतैः ॥८१॥ संस्थाप्य कलशाभ्यां तु तच्छाखासूत्रसंयुताम् । यज्ञे गंधादिभिस्तच्च प्रणवे सद्विजोत्तमः ॥८२॥ यजेद्गंगादिभिस्सद्यः प्रणवेन द्विजोत्तमः । ततः सप्रणवेनैव व्याहृतित्रितयेन च ॥८३॥ सह प्रतिष्टापयाभिपदेनैकापमानसः । प्रतिष्ठाप्य ततः सूत्र आदायाऽऽदित्यमंडलम् ॥८४॥ आसत्येनादिभिमत्रैश्चतुर्भिः संप्रदर्शयेत् । ततः पूर्वस्थले तच्च संस्थाप्याष्टोत्तरं शतम् ।।८।। पृथक् पृथक् प्रणवं गायत्री स्पर्शयन्जपेत् । अनेनोक्तविधानेन सञ्जातं संस्मृतंच यत् ।।८६।। तन्महामुनिभिर्वन्द्यैः ब्रह्मसूत्रमिति स्मृतम् । त्रयःकालास्त्रयोलोकाः तिस्रःसंध्यास्त्रयोगुणाः ।।८७।।
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यज्ञोपवीतविधानम्
त्रयोऽग्नयस्त्रयोवर्णा त्रयोवेदास्त्रयः स्वराः । तिस्रोव्याहृतयो देवाः त्रयस्त्रिंशच्च शक्तयः ॥८८॥ अस्मिन्यज्ञोपवीतेऽमी वसंत्यत्र मुदाहृताः । तस्माद्विजानतो भक्त्या ब्रह्मसूत्रं द्विजोत्तमः ॥ ८६ ॥ कृत्वैव धारयेच्छश्वत् सर्वकर्मफलाप्तये । द्विजानां स्थूलकायानां उपवीताय तु प्रमा ॥६०॥ स्वनाभिसदृशं ज्ञेयं स्थूलमानपुरोक्तवत् । इह पादतलस्थैर्यद्ब्रह्मसूत्रं हृदिस्थितम् ||१|| यथादृश्यं तथाधायं ब्रुवत्येते महर्षयः । नाभेरूर्ध्वमनायुष्यं अधोनाभेस्तपःक्षयः ||२|| तस्मान्नाभिसमं दद्यात् उपवीतं द्विजः सदा । उपवीतं निवीतं च प्राचीनावीतमित्यपि ॥ ६३॥ देवमानुषपित्र्येषु कर्मस्वेतत्त्रयं स्मृतम् । करेऽपसव्ये प्रक्षिप्तमुपवीतमुदाहृतम् ||४|| प्राचीनावीतमन्यस्मिन्निवीतं कंठलम्बितम् । उपवीतं ब्रह्मसूत्रं यज्ञोपवीतकम् ||१५|| यज्ञसूत्रं देवलक्ष्म चैत्याषट्कमस्य तु । द्विजस्य दक्षदो कंठा ॥६६॥ आहृतास्तेयतस्तस्मादुपवीतं तदुच्यते । ब्रह्माख्यौ द्वौ तपोवेदौतापत्र प्रसूचनात् ॥६७॥ ब्रह्मसूत्रमितिख्यातं एतद्ब्रह्माख्यसाधनम् । भूम्यन्तरिक्षस्वर्गेषु वर्त्तते यानि तानि च ॥६८॥
३१ ८१
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३१ ८२
भारद्वाजस्मृतिः सूचनात्स्वधरस्यैव सूत्रमित्यभिधीयते । यज्ञोपयज्ञयागांगोगोपवीतं (१) लक्षणाह्वयम् ॥६६।। यज्ञोपवीतमित्युक्त तस्य संरक्षणतः सदा । अनिष्टोमादयो यज्ञाः एतत्सम्यद्विजन्मनाम् ।।१००।। सततं सूचनादेतद्यज्ञसूत्रमिति स्मृतम् । रुद्रश्चतुर्मुखो विष्णुरप्यन्येऽमृतभोजनाः ॥१०१।। शश्वद्धधत्यतोदस्तद्देवरक्षेति चोच्यते । भूरितेजोवायुश्चप्राणाआत्मत्रयं तथा ॥१०॥ क्रमाद्भवंति तंतूनां सदानामधिदेवता। . ग्रंथित्रयस्याधिपाःस्युः पितामहहरीश्वराः ॥१०३।। यज्ञोपवीतकारस्य परं ब्रह्मादिदैवतम् । तन्तुग्राहो ग्रन्थिकृतौ सूत्रसन्धारणेऽपि च ॥१०४।। देवानेतान्हृदि स्मृत्वा नमस्कुर्वीत भक्तितः। एकैकमुपवीतं स्यादात्यंताश्रमिणोर्द्वयोः ॥१०॥ दशाष्टौ वा गृहस्थस्य चत्वारि वनचारिणः । एकमेव यतेः सूत्रं तथैव ब्रह्मचारिणः ॥१०६।। .सौत्तरीयं गृहस्थस्य तथैव वनचारिणः । कृष्णसारंगवस्तानां अजनं क्रमशःस्मृतम् ॥१०७॥ सरोभूनूतनंस्निग्धंसत्कृष्णधवलं शुभम् । अदृढं नोपयुक्त यत् प्रशस्तमजनं स्मृतम् ।।१०८।। स्वर्णेन रत्नैरुचिरं वध्याचाक्षिप्रियं यथा । धार्य क्षत्रियपुत्रेण सत्पुरोहितसूमुना ॥१.०६।।
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यज्ञोपवीतविधिवर्णनम् ४०८३ यज्ञोपवीतं संधार्य जातुचिद्ब्रह्मचारिणा । विप्रस्यशालीरशना मौर्वी भूपस्य मेखला ॥११०।। अपि सूत्रकृतं तच्च वैश्यस्य ब्रह्मचारिणः। विप्रादीनां त्रयाणां च त्रिवृता त्रिप्रदक्षिणा ॥११॥ त्रिवृद्मन्थिरितिप्रोक्ता मेखला स्मृतिचोदिता। कौपीनधारणायाऽथ शुल्वं कृत्वोपवीतवत् ॥११२॥ यतिश्चब्रह्मचारी च दध्यातां वै प्रदक्षिणम् । नग्नत्वपरिहाराय गृहस्थवर्णिनस्त(नां?) था ॥११३।। तथैवधारयेयातां अवश्यं केवलं च तौ। तालद्वितयविस्तारतद्वद्विगुणमायतम् ॥११४॥ तत्कौपीनमिति प्रोक्त स्वीयहस्तप्रमाणतः । सव्यं पार्श्वद्वयदशासमेतं सूक्ष्ममुत्तमम् ॥११॥ विप्रस्य वासः काषायं मञ्जिष्ठ क्षत्रियस्य तु । वैश्यस्य पीतमित्युक्त क्रमेण ब्रह्मचारिणः ॥११६।। गृहस्थस्यनितं वस्त्रं वानप्रस्थस्यचापितत् । .. काशायमुत्तरासंगं यतेराहुश्च नूतनम् ॥११७।। द्वादशांगुलविस्तारं स्वस्ववस्त्रं दशांगुलम् । यज्ञसूत्रायतं यत्तदुत्तरीयमिति स्मृतम् ॥११८॥ शुक्लांबरं गृहस्थस्य विप्रस्याऽथ महीपतेः । पट्टानि नववस्त्राणि वैश्यस्य च तथैव हि ।।११।। कुसुंभरक्तवस्त्राणि चोदितानि महीतले । वैश्यस्य पीतवस्त्राणीत्याहुः केचिन्महर्षयः ।।१२०।।
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३१ ८४
भारद्वाजस्मृतिः शुचिर्विप्रस्य पालाशः नृपश्चौदुबरो विशः। बैल्वो विशः समाख्यातः क्रमेण ब्रह्मचारिणः ॥१२॥ विप्रस्य दंडः पालाशः नैय्यग्रोधो महीपतेः । वैश्यस्यौटुबरः प्रोक्तः अलाभे त्वग्रजन्मनः ॥१२२।। पालाशबिल्वौ विप्रस्य पैप्पलं क्षत्रियस्य तु । वैश्यस्य पैलवो दण्डः समानि ब्रह्मचारिणः ॥१२३।। स्वस्य शाखोक्तदंडानामलाभे सर्वसोमपाम् । सर्वेष्वेषु यथालब्धो दडःस्यात्संकटस्थले ॥१२४॥ नृपस्य स्वस्य वैश्यस्य भवेयुः सर्वभूरुहाः । स्ववृक्षा एव वैश्यस्य दण्डसंग्रहणे स्मृताः ।।१२।। गृहस्थस्यवसस्तस्य यतेरासु त्रिजातिषु । वेणुदंडः प्रशस्तःस्यात् निर्दोष"प्रणक:(?) ॥१२६।। गुह्यारण्यस्थयोर्दण्डो युक्पर्वो यतिनोऽन्यथा। शिरःप्रमाणं विप्रस्य क्षत्रियस्यालकोन्नतम् ।।१२७।। घ्राणप्रमाणं वैश्यस्य दंडमेवं क्रमात्स्मृतम् । क्रिमिदुष्टः स्वयं शुष्कः सरंध्रः कुटिलो लघुः ॥१२८॥ श्रितो निर्वल्कलो दंडः यो न योग्यः स कथ्यते । सत्रणः फलकाकारः परुषो नवकन्दकः ॥१२।। जीर्णोवयुक्तो यो दंडो न योग्यःस्यात्सदारणे । समच्छेदांगुलव्यस्तो पक्काऽऽयामः सुवर्तुलः ॥१३०।। चक्षुस्याभिनवो दंडो योऽसौ सकलसिद्धिदः । एतैश्चदोषरहितैर्वध्वानयनवल्लभम् ॥१३१।।
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यज्ञोपवीतविधानम्
दध्याद्दंडं नृपस्तद्वतत्पुरोगस्य च तत्सुतः । विप्रस्य धवलच्छत्रं ताम्र छत्रं महीपतेः ॥१३२॥ पीतच्छत्रं विशः कृष्णच्छ छत्रं शूद्रादिजन्मनाम् । द्विजन्मनः चतुस्तालं दशतालं नरेशितुः ॥ १३३॥ पंचतालं विशच्छत्रं विस्तारः क्रमशः स्मृतः । स्वस्वोक्त वर्णसूत्रेणवध्वा छत्रं यथादृढम् ॥१३४॥ स्वस्वोक्त वाससाऽऽच्छाद्य संगृहीयु द्विजादयः । सर्वेषां वेणुदंडः स्यादला भेवार्क्ष एव वा ॥ १३५ ॥ श्लेष्मातककरंजाक्ष वृक्षाः सन्यासिनां शुभाः । चतुष्षष्ट्यं गुलायामः ब्राह्मणस्य महीपतेः ॥ १३क्षा एकनवत्यं गुलै ह्रौं द्विसप्तत्यंगुलायतः । वैश्यस्यैवंक्रमाइंड : छत्रस्तु समुदाहृतः ॥ १३७॥ तेषां नाहं यथा योग्यं दंडानामित्युदाहृतम् । स्वस्वोक्तवस्त्रेणकृतं प्रथमांत्याश्रमस्थयोः ॥१३८|| द्विजछत्रमितिप्रोक्तमितरैर्नधृतं पुरा । वस्त्रस्यशूद्रादि स्पृष्टिदोषोऽस्ति सर्वदा ॥ १३६ ॥ वृक्षपूतानि पात्राणिददत्यस्य न जातुचित । पलाशकेतकीतालनारिकेला दिभूरुहाम् ॥१४८॥ पात्रैराराराधितंछत्रं अन्यं स्यादप्रजन्मनाम् । पट्टे देवांगचीनादि चित्रांशुकविनिर्मितम् ॥ १४१ ॥ चित्र्यन्मौक्तिकच्छत्रं होमछत्रं महीपतेः । बार्हातपत्रं सर्वेषां अमीषामितिभाषितम् ॥ १४२॥
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भारद्वाजस्मृतिः फ(पालाशकृष्ण छत्रे द्वे शूद्रादीनां नृणां स्मृते । सुवर्णरजिताशाल्पात्रिविधाकुंण्डिका स्मृता ॥१४३।। उत्तमामध्यमानी च पूर्वोक्ता च यथाक्रमात् । अपामूढकवाङ्भानश्रेष्ठानि प्रस्थवामिता ॥१४४॥ मध्याद्विप्रस्थवाङ्भौना कुंडिकास्यात्कनीयसी। कांस्यपित्तललोहैर्वा कुर्यात्स्वर्णाद्यलाभतः ॥१४॥ स्वर्णाद्याख्यातविधिना कुंडिकामुखवद्विजः। आसामलाभे गोचर्मनिर्मितःस्यात्कमंडलुः ॥१४६।। अन्यानिषिद्धत्वग्जातो भवेत्सापि कमंडलुः । वैरूप्यताम्रकुर्वीतकाराधारजलानयम् ।।१४७॥ अलाभेयज्ञवृक्षेण कुर्वीतजलपद्धतिम् । मृत्तिकाभस्मलोधृत्वकषायाम्बुफलत्रयम्॥१४८।। एककदिनन्या पूरणाश्चर्मशुध्यति। पश्चात्तु पंवदश्यांतुप्रक्षाल्याऽथ शुभैर्जलैः ॥१४६।। प्रक्षाल्यापर्य तत्तोयं उपयुंजीत सर्वदा।। त्वक्सारनारिकेलाम्रवृक्षालाबुफलेषु च ॥१०॥ एतेष्वपि यथालब्धो भवेद्वाऽपि कमंडलुः । अन्यैरनुपयुक्तायाः कुंडिकास्ता शुभप्रदाः ॥१५॥ उपयुकानसंग्राह्यः अपवित्रो द्विजोत्तमैः । अजामेत्सजलैगेतैः स्वकरग्थैः सदा द्विजः ।।१५२॥ एषामुच्छितानास्थितत्पात्रस्यैव केवलम् । अयः पात्रमयोग्यं स्यात्नानाचमनकर्मणि ॥१५३॥
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यज्ञोपवीतधारणविधिः ३१८७ तत्रस्थितं घनरसं नोपयोज्यं द्विजन्मभिः। यज्ञोपवीतं वैवक्ष्य मेखलादंडमंबरम् । छत्रदंडकमंडल्वाः (डलूनां) विधिरुक्तः सलक्षणः ॥१५४॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ यज्ञोपवीतविधानंनाम
पञ्चदशोऽध्यायः॥
अथ षोडशोऽध्यायः .
यज्ञोपवीतधारणविधिवर्णनम् अथ यज्ञोपवीतस्य धारणे कथ्यते विधिः। सात्वा शुचिः शुचौ देशे प्रक्षाल्य चरणौ करौ॥१॥ पवित्रपाणिराचम्य प्राङ्मुखोवाप्युदङ्मुखः। उपविश्याऽथदर्भेषु प्राणानायम्यवाग्यतः॥२॥ आचार्य गणनाथं च वाचन्देवानृषीपितृन् । ब्रह्माणमच्युतं रुद्रं नमस्कुर्वीत भक्तितः॥३॥ अथोपवीतं विधिना संजातं तद्विजोत्तमः। जपेत्रियम्बकं मन्त्रं स्पृशन्दक्षिणपाणिना ॥४॥ दक्षिणं पाणिमुद्धत्य शिरसैवसहद्विजः।। मंत्रं सदैवमुच्चार्य ब्रह्मसूत्रं गले क्षिपेत् ॥५॥ यज्ञोपदी समित्यादि मंत्रमन्यैतदीरितं । यस्ययज्ञोपवीतेयन्मंत्रमुक्तमथापि वा ॥६॥
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३१८८
भारद्वाजस्मृतिः अथ द्विराचमेदेवं सदैव ब्रह्मचारिणः । विना यज्ञोपवीतेन द्विजातीनां न चेतरत् ॥ ७॥ गृहस्वस्य वनस्थस्य सूत्रं प्रति पुनः पुनः । मंत्रोच्चारणमाताम्रा(मानातं) द्वितयं क्रमशःस्मृतम् ॥ ८ ॥ अनेनोक्तप्रकारेण धारयेयुर्द्विजाः सदा । अनेन वेदाः कर्माणि यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः ॥६॥ विना यज्ञोपवीतेन द्विजातीनां न चेतरत् । जपहोमार्चनस्नानस्वाध्यायाहारकर्मसु ॥१०॥ वृद्दा(द्धा) तिथिगुरुप्राप्तौ उपवीतो भवेद्विजः । ब्रह्मादि देवताःस्थिसौ( सर्वे ) देवताश्चेतरा अपि ॥१श उपवीतधरास्तस्माद्धार्यमेतद्विजातिभिः । आज्ञावन्तो वशिष्ठाद्याः ऋषयश्चतपोऽधिकाः ॥१२॥ धृत्वा चैतत्प्रसादेन जीवंतस्ते बलान्विताः। नियमेन सदा धायं उपवीतं द्विजोत्तमैः ॥१३॥ कदाचिदपि नो धायं शूद्ररितरजातिभिः। .. आमेखलामर्जनं वस्त्रं दंडं छत्रं कमंडलुम् ॥१४॥ स्वस्वगृह्योदितैमत्रैः द्विजोदध्याद्विचक्षणः । अज्ञाता यदि चेन्मंत्राः स्वस्वगृह्य षु चोदिताः॥१५॥ उपवीतमुखानां वै तेषां संधारणे द्विजैः । केवलं प्रणयो वाऽपि व्याहृतित्रितयं तु वा ॥१६॥ स्यातां विप्रादिवर्णेषु द्वावेतौसर्वशाखिनाम् । प्रणवः सर्वमन्त्राणां पितेत्याहुमहर्षयः ॥१७॥
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यज्ञोपवीतधारणविधिः
३१८६ ॐ मितिब्रह्मचेत्याश्रुतिवाक्यनिदर्शनात् । । सर्वेषामेव जंतूनां व्याहृतित्रितयन्तु वा ॥१८॥ भूर्भुवः सुवरित्येतद्व्याहृतित्रितयं स्मृतम् । भूर्भुवः स्वरित्येव एतास्तिस्रो व्याहृतयः॥१९॥ भृक्सामयजुरंगानीत्यागमोक्तिनिदर्शनात् । एतास्तिस्रो द्विजो वेत्ति सरहस्यं सकल्पकम् ।।२०।। स हि देवः परं ब्रह्म तदंते यात्यसंशयम् । चतुरंगुलविस्तारं शिखामूलं द्विजन्मनः ।।२।। राज्ञः पंचांगुलंन्यासं वैश्यानां वै तथैव च । स्थापयेयुः शिरो मध्ये शिखां सर्वे द्विजातयः ।।२२।। स्वमृष्युक्तस्थले वाऽपि खर्वा(ल्वा)टस्य न चोदितः । यज्ञोपवीतममलद्युतं वा वीत(वीत?)मापणे ॥२३॥ धायं न जातुचिद्वैममन्तरेणोपवीतकम् । हैमंसतारवैकक्ष्यं उपवीतं सलक्षणम् ।।२४॥ धायं सहोपवीतेन देवैर्नृपतिभिः सदा। एकेन हैमसूत्रेण कुर्वीत लवनत्रयम् ।।२।। नवतंतुं स्मरेच्चैव प्रतिष्ठासमये बुधः । शुल्पाथूलोऽथ वा सूक्ष्मो न हि तनियमोऽत्र तु ॥२६।। नेत्रशोभी यथाजाति कुर्याद्वैमोपवीतकम् । हैमयज्ञोपवीतस्य न संख्यानियमः कृतः ॥२७॥ एकसंख्यादिपयतंयल्लन्यं तत्प्रमाणकम् । तारवैमध्यविस्तारं एकांगुलमुदाहृतम् IRan
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३१६०
भारद्वाजस्मृतिः तदर्धमथवा कार्य उपवीतप्रमाणतः। द्वितीयजन्मनिश्चन्मः (१) विनाशे च यदासति ॥२६ यज्ञोपवीतं संधार्य अन्निधान(अन्यन्वैव)द्विजन्मभिः । मानाधिकं मानहीनं प्रच्छिन्नं त्रुटितं च यत् ॥३०॥ भिन्नं विशीणं तंतूणं अपि सूत्रं न धारयेत् । उपवीतं विशीणं स्यादेकस्यां वा त्रिरज्जुषु ।।३।। छिन्ने यदि प्रमादाद्वा तन्न धार्य ततः परम् । ये वेदाभ्यासनिरताः श्रौतस्मातक्रियापराः ॥३२॥ उपवीतमिदं दध्युरितरे नाधिकारिणः । उपवीतं द्विजश्चैव धायं सद्भिः सुसंस्कृतम् ।।३३।। वृद्धैरसंस्कृतं धार्य जातिज्ञानाय केवलम् । कानीनगोलकत्रात्यकुंडकुष्ट्यवकीणिभिः ॥३४॥ एतैरविरतं धार्य उपवीतमसंस्कृतम् ।। कानीनः कन्यकाजातः गोलको विधवोद्भवः ।।३।। कुंडः सुमंगलीजातः ब्राह्मणाद्ब्रह्म(?) द्वये । तदैव तेषां विज्ञेयाः त्रिषु क्षत्रियवैश्ययोः ॥३६।। स्वजातिपुरुषा जाताः याश्चगोत्रा यथा क्रमात् । अनुसन्यासिनः संगात्स्वगात्रपुरुषा यदि ॥३७॥ स चंडाल इति शेयः न तु पूर्वोदिताबहिः । ब्रात्यः संस्कारहीनःस्यादवकीर्णः क्षतव्रतः ॥३८॥ नरस्त्वग्दोषदुष्टःस्यात्पचीयान्पाप कृद्विजः। ननिक्षिपेस्कटामू िकटिमून्यो:१)देशेबाम्यस्थलेमुवा ३६
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३१६१
यज्ञोपवीतधारणविधिः उपवीतं द्विजश्रष्ठो जातुचित्वधनिर्मितं । चंडालरंत्यजैरुक्तौ मलमूत्रविसर्जने ॥४०॥ दक्षिणश्रवणे विप्रो यज्ञसूत्रं विनिक्षिपेत् । भार्यासंभोगसमये पुष्पकादिनान्यथा ॥४१॥ ब्रह्मसूत्रं द्विजः कुर्यान्निवीतं पृष्ठभागतः । रक्तश्लेष्मसुरामांसविण्मूत्राक्त प्रमादतः ॥४२॥ उपवीतं तदुत्सृज्य दध्यादन्यं द्विजः सदा । मलमूत्रं त्यजेद्विप्रो विस्मृत्यैवोपवीतधृक ॥४३।। उपवीतं तदुत्सृज्य दध्यादन्यं नवं तथा । महापातककृयो वा द्विजस्तत्वाप संक्षयः ॥४४॥ तावद्भवेद्यज्ञसूत्रं यदि दध्यादन्यं स्मृतम् । कोपाबलाद्वा यो विप्रो यज्ञसूत्रं छिनत्ति वै ॥४॥ नद्यां स्नात्वाऽथ गायत्री जपेदष्टसहस्रकम् । खयमन्योऽपि वा स्वस्यपरस्यैवं भवेद्यदि ॥४॥ तच्छेदपापशुद्ध्यर्थं प्रायश्चितमिदं चरेत् । प्रायश्चित्तमकुर्वाणः कुर्यान्नित्यक्रियां द्विजः॥४७॥ निष्फला तस्य सातस्मात्प्रायश्चित्तमिदं चरेत् । स्पृष्टरक्ताधिभिश्छिन्नं उपवीतं प्रमादतः ॥४८॥ सरिदद्भिस्तटाकेषु सतोः एषु विसर्जयेत् । समुद्रगश्च स्वाहेति मंत्रः प्रक्षेपणस्य तु ॥४॥ केवलं प्रणवो वाऽपि व्याहृतित्रितयन्तु वा । धृत्वोपवीतं लोभेन निषिद्धं ब्राह्मणो यदि ॥५०॥
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३१६२
भारद्वाजस्मृतिः श्रोतः स्मार्तक्रियाः कुर्यान्नैवतत्फलभाग्भवेत् । द्विजो नष्टोपवीतश्चेदुपवीतं परं द्विजः ॥५१॥ आचम्य सन्नियभ्याऽथ मंत्रैणैव च धारयेत् । धारणात्प्रानिमज्याः सु तूष्णीतत्पुरतः स्थितः ।।२।। नवतंतुकृतं सूत्र प्रणवेनैव धारयेत् । उपवीती स भूत्वा च यत्नादाचम्य यथाविधि ।।३।। यज्ञोपवीतं विधिवत्कृत्वा दध्याद्विचक्षणः । पथावदेवोक्तपक्षतिथ्याहःकालभूमिषु ।।४।। कृत्वा यज्ञोपवीतानि धारणार्थं विनिक्षिपेत् । यथाद्विजन्मनः प्राप्त उपवीतस्य धारणम् ।।५।। समं सर्वाश्रमस्थस्य तथैव तानि धारयेत् । यज्ञोपवीतं ये दध्युर्मोहान्छुद्रादयोनराः ॥५६।। ते पापिनः पतिष्यन्ति महानरकवारिधौ। तंतुना वाऽथवान्येन कृत्वा यज्ञोपवीतवत् ॥५७।। बिभर्ति शूद्रो यदि यः साऽपि यास्यति दुर्गतिम् । पादजात्यायज्ञसूत्रं मनुजा दधते हृदि ।।८।। तांश्च धृत्वाऽथ तश्चर्मद्रव्यं नृपतिहरेत् । हतोपवीतं दृष्ट्याश्रुत्वाथ वा नृपः ।।५।। यदि तूणी समासी नरकान्दो चिरं वसेत् । अतः सर्वप्रकारेण कुर्यात्तदनुशासनम् ।।६।। इहोपरि सुखं प्राप्य धर्मशास्त्रार्थमार्गतः । विना यज्ञोपवीतं यो यद्यासीतविचक्षणः ।।६।।
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यज्ञापवतिधारणविधिः उपवीती ततः शुद्धः स गायत्रीशतं जपेत् । द्विजन्मनां प्रशस्त्येतन्नटे भेदे तथैव च ॥२॥ पितामहाख्या:स्वर्देवाः भूमिदेवा द्विजोत्तमाः।। उपवीतमतो धार्य नित्यं तेनैव नेतरैः। अनामिकादेवबाहु मूल देकं प्रमाणकम् ।।६३॥ ॥ इति श्रीभारद्वाज मृतौः यज्ञोपवीतधारणविधिनाम
षोडशोऽध्यायः ।।
अथ सप्तदशोऽध्यायः यज्ञोपवीतमन्त्रस्यऋपिच्छन्दआदिनांवर्णनम् इति यज्ञोपवीतस्येत्याहुः केचिन्महर्षयः।। अथात्राख्यातो मंत्राणां ऋषिच्छंदोऽधिदेवताः ॥ १॥ विनियोगं क्रमेणैव प्रवक्ष्यामि पृथक पृथक् । प्रणवस्य ऋषिब्रह्मा परमात्मा च देवता ॥२॥ छंदस्तु देवा गायत्री विनियोगः क्रियावशात् । देवताजपकाले तु तेऽपिहोमे हुताशनः ।।३।। ध्यानकाले परं ब्रह्म विश्वेदेवास्तु देवताः । भूरादीनां सप्तानां व्याहृनीनां यथाक्रमम् ।। ४॥ भृषिश्च्छन्दो देवताश्च प्रवक्ष्यामि प्रयत्नतः । अत्रिभृगुधकुत्सश्च पशिष्ठो गौतमस्तथा ॥५॥
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३१६४
भारद्वाजस्मृतिः
कश्यपश्चांगिराश्चैते मुनयोऽमी प्रकीर्तिताः ।
(गायत्र्ष्णगनुष्टुप् च बृहती पंक्तित्रिष्टुभः ) सप्तर्षयोऽथवैतेषां सप्तानामृषयः स्मृताः । विश्वामित्रो जमदग्निभरद्वाजोऽथ गौतमः || ६ | अत्रिर्वशिष्ठः काश्यपश्चसप्तामी मुनयः स्मृताः । छन्दांस्यथ प्रत्रक्ष्यामि सप्तानां सप्तसु क्रमात् ॥ ७ ॥ गायत्र्युष्णिगनुष्टपूच बृहती पंक्तित्रिष्टुभः । जगती चापि छंदांसि क्रमेणैषां भवेत्सदा ॥ ८ ॥ अनिर्वायुः सहस्रांशुर्वागीशो वरुणस्तथा । इन्द्रश्चविश्वेदेवाश्च देवता इति कीर्तिताः ॥ ६॥ विश्वामित्रऋषिश्छन्दोगायत्री देवता रविः । सावित्री च समाख्याताः विनियोगक्रियावशात् ॥ १०॥ ॐ (आ) मापोज्यो तिरित्येतद्गायत्री शिर उत्तमम् । ऋषिर्ब्रह्माछन्दोऽनुष्टुप्परं ब्रह्मास्य देवता ||११|| उत्तमस्य तु भागस्य भूर्भुवः सुवरोमिति । अस्य प्रजापतिर्देवः केचिदाहुर्महर्षयः ||१२|| आपो वायिदमित्यस्य ब्रह्मसूक्तस्य वै मुनिः । यजुश्छन्दो देवतांभ: विनियोगोऽभिमंत्रणे ॥ १३ ॥ आपोहिष्ठादित्र्यृचस्य सिंधुद्वीप इतिस्मृतः । छंदो गायत्रमात्रश्च देवताप्रोक्षणे विधिः ||१४|| दधिक्का पुण्नयित्यस्यवामदेव ऋषिः स्मृतः । छंदोऽनुष्टुब्देवताश्च अपस्युस्ता उदाहृताः ||१५||
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यज्ञोपवीतचन्दआदिवर्णनम् ३१६५ हिरण्यवर्णाइतिचतुर्णा मंत्राणां परमेष्ठीऋषिश्छंदः। त्रिष्टुब्देवता स्यात् अपांसंप्रोक्षणे विधिः ॥१६॥ परमांशस्य मुनयो विश्वेदेवाः प्रकीर्तिताः । प्रथमस्य द्वितीयस्य गायत्रं छंद उच्यते ।।१७।। अनुष्टुपच तृतीयश्व गायत्री चोपरि द्वया। षष्टसप्तमयोस्रिष्टुब्गायत्री चाष्टमस्य तु ॥१८॥ नवमप्रभृत्यष्टानां अनुष्टुत्रिष्टुबंत्यकम् । लिंगोक्तादेवताः प्रोक्ताः विनियोगस्तु'मार्जने ॥१९॥ भूरग्निचादि सूक्तस्य प्रजापति ऋषिः स्मृतः । स एव देवता छन्दो यजुरित्यभिधीयते ॥२०॥ आसत्यादीनां चतुणां हिरण्य स्तूपको भृषिः । त्रिष्टुब्बनुष्टब्गायत्री त्रिष्टुप्छंदांसि वै क्रमात् ॥२१॥ एषां समस्तमंत्राणां देवता तिग्मदीधितिः। विनियोगश्चकथितः सूर्यसंदर्शकर्मणि ॥२२॥ वसिष्ठात्य॑वकमनोः मुनिर्देवनियंवकः । छंदोऽनुष्टुब्विनियोग उपवीताभिमंत्रणे ॥२३॥ उपवीतमनोब्रह्म मुनिर्वेदाश्च देवताः। छंदस्त्रिष्टुब्विनियोगः उपवीताभिमंत्रणे ॥२४॥ प्राणानागंत्थिरसीत्यस्यब्रह्ममुनिर्यजुश्छंदः । प्राणोब्रह्मयजुश्छंदइति स्मृतम् ।।२।। सविताचाश्विनीपूषा भवेयुरधिदेवताः। उदुत्यंजातवेदस्य पूर्वमेवसमीरिताः ।।२६।।
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भारद्वाजस्मृतिः ऋषिश्छंदो देवताश्च विनियोगमथात्र तु। आबहतीत्यस्य ब्रह्मा ऋषिश्छंदोऽधि देवताः ॥२७॥ अनुष्टुप्छामहावंती (?) च नियोग शस्त्रधारणे । प्रयोगकाले मंत्राणां ऋषिश्छंदोऽधिदेवताः ॥२८॥ विनियोगं च संस्मृत्वा नत्वा मंत्रानथोश्चरेत् । अज्ञात्वैतान्प्रयुङ्क्ते यः मंत्रास्तत्रक्रियासु च ॥२६॥ तस्यतत्तत्फलप्राप्तिर्द्विजस्य न भविष्यति । शास्त्रमेतचतुर्वर्गफलसाधनसाधकम् ।।३०।। यावन्ति तस्य विप्रस्य नासाध्यमिहचोपरि । अध्यायोयोद्विजश्रेष्ठैः वाच्यःश्राव्यश्व सर्वदा । ब्राह्मण्यस्थापनाथंच स्वाध्यायस्थापनाय च ॥३१॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ यज्ञोपवीतादिविधानंनाम
सप्तदशोऽध्यायः॥
अथ अष्टादशोऽध्यायः
सप्रयोजनकुशलक्षणवर्णनम् कुशस्य च पवित्रस्य लक्षणं तत्प्रयोजनं । सकलं कथ्यते स्पष्टं कर्मानुष्ठानहेतवे ।। १॥ श्रुतिस्मृतिषु याः प्रोक्ताः नित्यनैमित्तिकाः क्रियाः । कुशैविना कृताः सर्वा निष्फलाःस्युद्धिजन्मनाम् ।।२।।
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सप्रयोजनकुशस्यप्राशाग्राह्यत्ववर्णनम ३१६७ तस्मात्समस्तकार्येषु मंत्रवत्सु द्विजोत्तमः। ... प्रयतश्च प्रसन्नात्मा कुशहस्तः समाचरेत् ॥३॥ पापाह्वयः कुशब्द स्याच्छ शब्दःशमनालयः । तूणेन पापशमनं येनैतत्कुश उच्यते ॥४॥ कुशहस्तश्चरेत्नानं कुशहस्तः सदा जपेत् । जुहुयात्कुशहस्तश्च फलवाप्त्यभिलाषुकः ॥५॥ कुशस्य मूले मध्ये श्रे ब्रह्मविष्णुनहेश्वराः। सदावसन्त्यतः श्रेष्ठः कुशः सकलकर्मसु ॥६॥ नदीतीरेऽब्धितीरे तीर्थक्षेत्रे च कानने । जातः कुशः समस्तासु क्रियासु श्रेष्ठ उच्यते ॥ ७॥ तत्रापि च द्विजन्मादि द्विजात्यवनिसंभवः । तत्तज्जाति क्रियायोग्यः अलाभे वास्यमूभिजः ॥ ८॥ पाटलारुणपीताश्युः विप्रराड्वैश्यभूमयः । कृष्णावृषलभूरन्याभूर्मुहुः संकरा स्मृताः ॥६॥ द्विजोवैश्योनृपश्शूद्रो इत्ययं स्याश्चतुर्विधः ! गौरपीतारुणश्यामः सुमन्योक्तिर्यथा क्रमात् ॥१०॥ पुमांस्त्रीक्लीब इत्येवं तत्रापि त्रिविधाः स्मृताः। तत्तज्जातिक्रियास्वेव प्रयोक्तव्यः फलार्थिभिः ॥१०॥ क्लीबेनाभि प्रयोक्तव्यः स्त्रीपुंकर्मसु जातुचित् । स्त्रीपुंसावेव सर्वत्र प्रयोक्तव्या वतामतः॥१२॥ समन्ताद्धूसरोगाधः पुरुषश्चन्दनः कशः। समस्तकर्मसु श्रेष्ठः पुमान्योऽसौ फलप्रदः ॥१३॥
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३१६८
. भारद्वाजस्मृतिः समंताद्धरितःस्निग्धः कुशः कोमलपत्रकः । कुशः सयोषिदित्युक्तस्तत्सत्कर्मशुभप्रदः ॥१४॥ कुशः सौम्यस्तुसुमुकः कुशोयस्तवकाकृतिः । स नपुंसक इत्युक्तः क्लीबकर्मसु चोदितः ॥१५॥ वल्मीकस्थः श्मशानस्थः ऊपरस्थः तरद्भवः । अंत्यजात्यालयारात्स्थः कुशःकर्मस्वशोभनः ॥१६॥ सदाघनरसांतस्थस्सदाच्छायाप्रवर्तितः। आनीतश्च प्रयत्ना)चात्तु कुशः कर्मस्वशोभनः ॥१७॥ हीनाङ्गः (स्यात् ? स्वयं शुष्कः शुष्कायः क्रिमिद्दष्टकः । भिन्नाभ्रः सकुनुमस्तु कुशकर्मस्वशोभनः ॥१८॥ नक्तमालार्क किंपाकसलु तु दुर्गंधपार्श्वजः। महावृक्षाक्षपाश्र्वोत्थस्तच्छायास्थस्त्वशोभनः ॥१।। पलाशाश्वत्थखदिरवटवृक्षसमीपजः। बिल्ववैकुकतांतस्थः तच्छायास्थः कुशशुभः ॥२०॥ अनोकानामन्येषां समर्यातः समुद्भवः । च्छायासमुद्भवकुशो मध्यमः सर्वकर्मसु ॥२१॥ स्नात्वा संध्यासपर्यादि नित्यकर्म समाप्य च । नित्यहोमं ततः कृत्वा तस्मिंसप्ताचिपि द्विजः।।२२।। दानं प्रणवसंयुक्त व्याहृत्या च समस्तया । निष्टप्यभवनात्याची अपि स्यान्चोत्तरां दिशम् ॥२३॥ निष्क्रम्याद्युक्तशेषेषु यास्तिकेशसमुछयः। तत्र गत्वा स्वचरणौ हस्तो प्रक्षाल्य वाग्यतः ॥२४॥
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कुशस्यग्राह्याप्राह्यत्ववर्णनम् ३१६६ आचम्य सुमनाः सम्यक् प्राणायामथारयेत् (थाचरेत् )। ततो निलविनं वायु यमं वरुणमश्विनौ । औषधीशं शचीनाथं विश्वेदेवान् सरस्वतीम् ।।२।। देवानृषीन्पितॄन स्कंदं गुरून् गणपतिं ततः। वसून्रुद्रांस्तथाऽऽदित्यान्ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् ॥२६।। देवांश्च हृदये ध्यायन्नमस्कुर्यात्पृथक् पृथक् । ततोदात्रेण पूर्वास्यः उदगारयोऽथ वा कुशान् ॥२७॥ मुष्टिमात्रोपरिष्टात्तु छिंद्यात्प्रणवमुच्चरन् । प्रेतक्रियाएं पित्र्यथं आभिचारार्थकं तथा ॥२८॥ दक्षिणाभिमुखोच्छिद्यात्प्राचीनावीतिको द्विजः । भिन्नाभ्रपूर्वकांस्त्यक्ता कुशान्धड् द्विजसत्तमः ।।२६।। अन्यान् सलक्षणकुशान् संग्रहीयात्प्रयत्नतः। त्रिवृच्छुल्वं कुशैः कृत्वा प्रागग्रं चोदगग्रकम् ॥३०॥ वितत्य च कुशानेतान्क्षिपेत्तस्मिन्यथा पुरा । पश्चान्छुल्बेन तेनैव दृढं वध्यात् यथाक्रमम् ।।३।। प्रागप्रमुदगग्रं वा शुचौ देशे क्षिपेद्गृहे । पित्र्यर्थमेकवृच्छुल्वं विपरीतं वितत्य च ॥३२॥ ततोऽनुपहतैः रोतैः कुशैः कर्माणि बुद्धिमान् । शस्तान्कुशांस्तानावध्य स्थापयेत्तान्पृथक् पृथक् ॥३३॥ श्रौतस्मार्दानि कर्माणि कुर्वीत फलभाग्भवेत् । शुनाशुद्धवराहैणमार्जारेणैकचक्षुषा ।।३४॥
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३२००
भारद्वाजस्मृतिः खरेण कुक्कुटेनैव स्पृष्टः कर्मरिपुः कुशः। कपिनाकृकलाशेन पतितेनांधजातिना ॥३॥ भिषजा रोगिणा स्पृष्टः कुशः कर्मस्वशोभनः । देवलेन च चंडेन व्रात्येन ज्ञानहानिना ॥३६॥ वर्यः पातकिना स्पृष्टः कुशोऽनुष्ठेयकर्मसु । रक्तश्लेष्मादिभिः स्पृष्टः क्रियायुस्तः पुराग्रतः ॥३७॥ उच्छिष्टजनसंस्पृष्टः कुशः कर्मविनाशकः। सूतिकात्रयकावेश्य ज्ञातपूर्वाभिसारिका ॥३८॥ अन्याः सदोषायारताभिः कुशःरपृष्ठः क्रियारिपुः । दोषैरेवंविधैरन्यैर विस्पृष्टः प्रमादतः॥३६॥ कुशः कर्मस्वयोम्यः स्यादाघातः पशुभिः स्मृतः । पिंडकर्मणि ये युक्ताः कुशा ये पितृतर्पणे ॥४॥ उच्छिष्टेऽपि च ये युक्ताः ते योग्या न हि कर्मसु । दोषानष्टान्कुशो त्यक्त्वान् कुशक्त्वीक्तैर्गुणैर्बुधः ||४|| शृतिस्मृत्युक्त कर्माणि वारयेत्कर्मसिद्धये। कुशालाभेश्ववालोवा विश्वामित्रोऽभिवारिजः ॥४२॥ दूर्वा चैतेषु यो लब्धः तेन कर्म समाचरेत् । . अत्रोक्त कुशमुख्यानां तृणानां स्युः पृथक् पृथक् ॥४३॥ नामान्यमूनि सर्वेषां देहोबहिः कुशस्मृतः । अतःश्रेष्ठतमं कर्म अन्यश्रेष्ठोऽपि वा कुशः ॥४४॥ विश्वामित्राश्च वालौ द्वौ तथावितरौ स्मृतौ। श्वलांगूलवत्पुष्टं पुष्टमिक्षुकपाशवत् ॥४॥
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कुशविधानम्
३२०१ जलाशयेषुजननं यस्या सावश्वबालकः । श्रुतिस्मृतीनांमित्रत्वाद्विप्राणां विश्वकर्मणाम् ॥४६॥ विश्वांहसाममित्रत्वात् विश्वामित्रमिति स्मृतः। यो नित्यमोधदीष्वेकोनृभिर्योज्योऽनुवासरम् ॥४७॥ जनेष्वयं प्रसिद्धत्वानोक्त संयुक्तलक्षणम् । पलाशमल्पदीर्घ च संधिष्कं कुरुसंभवम् ॥४८॥ कुशनालुलतारूपं यत्तदूर्ध्वतिभाषितम् । दुःस्वप्नचाची दुःशब्दः वा शब्दो नामसंज्ञकः ॥४॥ दुःस्वप्ननाशकत्वेन यत्तहूर्वेति कीर्तिता। विधिना स्वीकृतान्दर्भाद्विजमान्यान्द्विजन्मनः ॥५०॥ अनुष्ठानाय शौर्येण नाहरेज्जातुचिद्विजः । तदनुज्ञां विना विप्रः कुशानाहृत्य तैर्यदि ॥५॥ कुर्यात्स्वकर्मानुष्ठानं तत्सर्वमफलं भवेत् । प्रकुर्यात्तुत्रिभिर्धर्मः पवित्रं वाथ पंचभिः ॥५२॥ द्वाभ्यां वा शांन्तिकार्येषु सर्वकर्मसु शस्यते । शान्तिकं पौष्टिकं यावच्छुभं किमपि कर्म च ॥५३।। शांतिकादीनि कर्माणि त्रीण्यमूनि विदुर्बुधाः । चतुर्भिराभिचारे च पितृकर्मसु चैककः ॥५४॥ तत्तत्कर्मानुरूपेण समस्ताश्च क्रियाश्चरेत् । अत्रोक्तसख्या युञ्जीयादेकीकृत्य समं यथा ॥५॥ मूलानि दक्षिणे हस्ते धृत्वाग्रण्यन्यपाणिना । दक्षहस्तेनदद्वाभ मनुसृत्य यथादृढ़म् ।।५६।। २०१
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३२०२
भारद्वाजस्मृतिः एकीकृत्याऽथ वा मूलाग्राण्यनुवर्त्य प्रदक्षिणम् । तथैवाग्रेण चावेष्ट्य कुर्याग्रन्थिं यथादृढ़म् ॥१७॥ पवित्रीकरणं त्वेवं उदितं सर्ववेदिनाम् । वलयं स्वांगुलैर्मानं ग्रंथिरेखांगुलीप्रमा ॥५॥ चतुरंगुलमग्रस्य मध्यस्थानमनामिकम् । वलयं ग्रन्थिकाग्राणां ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥५६।। पवित्रस्य भवत्येते क्रमेणैवाऽधिदेवताः । अर्कोदितानां सर्वेषां पवित्राणां च लक्षणम् ॥६०॥ सामान्यमिदमित्येवं उदितं ब्रह्मवादिभिः । एतत्पवित्रमाग्नेयं नामधेयं प्रचक्षते ॥६१॥ धृत्वैव सर्वकर्माणि कुर्यात्कर्मफलाप्तये । पूर्वेतरप्रकारेण कुर्यादेकेनबहिषा ॥६२।। पवित्रं पितृकार्येषु तत्समस्तेषु भाषितम् । अन्योन्याप्रैः कुशैः कुर्यात्पवित्रं न कदाचन ॥६३॥ एकैकखंडैरपि वा यत्र कुत्र स्थितैरपि । उक्तान्दर्भान्यथापूर्व एकीकृत्यानुवर्त्य च ॥६४॥ प्रदक्षिणद्वयोरज्वोरानीयाग्रेण पूर्ववत् । अन्थि कुर्यात्तथामेदं पवित्रे ब्रह्मनामनि ॥६॥ इदं पवित्रं पूर्वोक्तात्पवित्रादधिसत्तमम् । अन्यद्ब्राह्मयथा पूर्व अनुवत्यैक बहिषा ॥६६॥ ... कुर्यात्पवित्रत्येस्याग्रन्थि ब्राह्मपवित्रवत् । मंत्रेण धारयेद्विप्रः विना मंत्रं धृतं तु तत् ।।६७॥..
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कुशविधानम् यदेतद्वर्तते हस्ते तत्पवित्रं मलं स्मृतम् । तस्मात्पवित्रो मंत्राभ्यां धारयेदभिमंत्र्य च ॥६॥ पवित्रवन्त इत्यादि मंत्रद्वितयमस्य तु। ऋषिब्रह्मानयोश्छन्दो जगती ब्रह्मणःम्पतिः ।।६।। देवताब्रह्मविष्ण्वीशाः अधिदेवा इति स्मृताः । प्रणवस्तस्य मंत्रस्य सप्तव्याहृतयस्तु वा ॥७०॥ दध्यात्पवित्रमनयोः एकेन श्रुतिवर्जिताः । पवित्रोक्तप्रकारेण होना कुर्यात्पवित्रकम ॥७॥ तद्धार्यममरै पैश्शुचये मंगलाय च । अस्मद्विधा यथापूर्व आग्नेयं ब्राह्ममित्यथ ॥७२॥ पुनः पित्र्ये तथैवैतत्पवित्रद्वितयं स्मृतम् । स्नानसंध्योपरिष्टाच्च जपे होमे सुरार्चने ।।३।। स्वाध्याये भोजने विप्रः पवित्रं करयोन्यसेत् । श्रौतस्मार्तानि कर्माणि यावन्तीहोदितानि वै ॥७४. तानि सर्वाणि कुर्वीत सपवित्रकरो द्विजः । पवित्रं द्वितयं दर्भान्कारयेद्धस्तयोर्द्वयोः ॥७॥ धृत्वा सर्वाणि कृत्यानि शुचिौंनी समाचरेत् । कृतमेनोऽनुदिवसं वपुषा चेतसा गिरा ॥७६।। हन्यात्पवित्रं हस्तरथं सर्व यत्तद्विजन्मनः । नित्यनैमित्तिके वाऽपि काम्योपक्रमणे कृतं । पवित्रं चापिकर्मान्ते ग्रन्थि मुक्त्वाऽथ तन्यजेत ॥७७
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३२०४
भारद्वाजस्मृतिः कुशहस्तः पिबेत्तोयं कुशहस्तः सदाऽऽचमेत् । सप्रन्थिकुशहस्तेन न कदाचिदुपस्पृशेत् ॥७८॥ मुक्ता प्रन्थि विमुच्याऽथ तेन पीत्वा जलं सदा । तत्पवित्रं त्यजेद्भूमौ अथ मंत्रेण जातुचित् ॥७६।। विस्मृत्य यदि पात्रं तु पवित्रं विसृजेद्यदि । प्राजापात्यं चरेत्कुलछं (व्रत) तत्किल्बिषविशुद्धये ॥८॥ शमलप्रसवे स्पृष्टौ चांडालांत्यजभाषणे । पवित्रं करशाखस्थं दक्षिणश्रवणे न्यसेत् ।।८१॥ गोपुच्छरोमभिः कृत्वा पूर्वाभिहितलक्षणम् । पवित्रं धारयेद्विप्रः कर्णोपक्रमणेन वा ॥८२।। आग्नेयं ब्राह्मभेदोऽस्ति पवित्रस्याऽस्ति पूर्ववत् । तस्मात्फलविशेषोऽस्ति तथैवाशेषकर्मसु ॥८३।। रोम्णां पवित्रकरणे नियमो न कुशाम्विना । कुशरज्जोर्यथामूलप्रमाणं करयोस्तथा ॥४॥ क्रमशश्चतुर्भिरंगुल्योः पवित्रे धारयेदिमे । भुक्तिकर्मणिनान्येषु द्विजन्माऽखिलकर्मसु ॥८॥ कमाते पुनरादाय पवित्रद्वितयं द्विजः। शुचौ देशे विनिक्षिप्यारध्यादेतत्पुनः पुनः ॥८६॥ याच्छिष्टाद्युपहतं पवित्रं च्छेदितुं यदि । तदेवप्रन्थिमुत्सृज्य त्यजेदितरथा न हि ॥८॥ रोमाणि मध्यमं बध्वा सुदृढ़ च कुशैः सदा। . होमांगुलीयकेनापि मार्जनं सर्वपापहम् ॥८८॥
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कुशविधानम्
३२०५ रोमसंग्रहणे विप्रः प्रमुखानां द्विजन्मनाम् । धवलारुणपीता:स्युरनड्वाहो यथाक्रमम् ।।८।। एतानामपि सर्वेषां प्रशस्ता कपिला गवाम् । सर्वेषां विप्रमुख्यानां रोमसंग्रहणे भृशम् ।।800 अनाभाव जीणों गौः वंध्यारहितकार्णिका। नवप्रसूतासरुजाचित्राकृष्णा न शोभना ॥६॥ स्वर्णोक्तवर्णायुवतीः सवत्साशांत्तविग्रहा। सम्पूर्णावयवा गौःस्यादुत्तमारोमसंग्रहे ॥१२॥ स्नात्वा शुचिद्विजोवात्रमानौ (मौनी)? निष्टप्य पूर्ववत् । अग्निं प्रदक्षिणीकृत्य मंत्रेण प्रणमेदथ ॥३॥ रुद्रमातर्वसुनुते सुतानामेशुमत्सुते । सर्वदेवात्म गौः स्वा(त्वां स्तौम्यहं त्वं प्रसीदमे ॥४॥ मंत्रेणानेन दत्वा गां पुच्छरोमाणिदात्रतः। गव्यानि भेदयेद्विप्रः संप्रोक्षणपवित्रयोः ।।१।। गोपुच्छरोमभिर्दभैः पवित्रीकरणक्रमः । आख्यातोऽनंतरं वच्मि कूर्चस्य करणं क्रमः ॥६६॥ नवभिर्दभैः पंचभिः क्रमशः स्मृतः । कूर्चःश्रेष्ठोमध्यमश्च कनीयस इति स्मृतः ॥६॥ तग्रंथि व्यंगुलो ज्ञयः तदूर्ध्वं चतुरंगुलम् । षोडषांगुलमायामं अधस्तात्तत्प्रकीर्तितम् ।।८।। पवित्रे प्राग्यथा प्रोक्ता प्रन्थिस्तेनक्रमेण तु। अन्थि दध्याद्विजः कूर्चे तद्विदःस्यात्प्रवर्त्तवत् ।।
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३२०६
भारद्वाजस्मृतिः यान्यपैतृकयोः कूर्च कर्मणोस्तत्पवित्रकम् । प्रन्थिकार्योंविशेषोऽत्र कथितस्तत्पवित्रवत् ॥१००| ब्रह्मक्षत्रियवैश्यानामेवं कूर्च उदाहृतः।। अलाभे स्वस्यकूर्चस्य यथालब्धोऽपि वा भवेत् ॥१०१।। द्वाभ्यां कुशाभ्यामथवा सपूर्वोदितलक्षणम् । कृत्वा कूर्चमलाभे तु सर्वकर्मसु योजयेत् ॥१०२॥ कूर्चादिग्रंथनाग्राणामिमास्तिस्रोऽर्थदेवताः । भवन्ति वसुधा ब्राह्मी सर्वतीर्थानि च क्रमात ॥१०३॥ आसने देवतादीनां अपि च स्नानवारिषु।। पंचगव्यप्रयोगे तु द्विजकूचं प्रयोजयेत् ॥१८४॥ अमृतेषु च गव्येषु पंचसु स्नानकर्मणि । पुण्याहक्रमतोयेषु द्विजः कूचं प्रयोजयेत् ॥१०॥ ऊर्ध्वाग्रं स्थापयेत्कूचं गलत्यां कलशेतु च । ततः संप्रोक्षणं कुर्यात्तदग्रेण द्विजोत्तमः ॥१०६।। प्रागप्रमुदगग्रंवा स्थापयेत्कूर्वमासनम् । मृष्यथं देवतार्थं च पित्र्यर्थं दक्षिणायकम् ।।१०७॥ कर्माते प्रन्थिमुत्सृज्य द्विजः कूचं परित्यजेत् । ग्रंध्या सह न तु त्याज्यं उपवीतं कदाचन ॥१०८॥ पवित्रकूर्चेयस्यायं संग्रंथ्यास्तु प्रमादतः। उपवासश्चरेदेकं उपवासक्रमं तथा ॥१०॥ कूचप्रयोगो. यत्प्रोक्तः तत्रैतत्कूचंमग्रजः । अनारतं प्रयुंजीत स्वेष्टकर्मफलाप्तये ॥११०।।
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कुशविधानम्
३२०७ विधानमेतत्तथाख्यातं कूर्चस्य सकलं क्रमात् । अनंतरं प्रवक्ष्यामि दर्भमालाकृतिक्रमम् ॥१११।। त्रिभिश्चतुर्भिश्च कुशैः दीधैर्लक्षणसंयुतैः। कुर्वीत मालिकां विप्रो यथानयनवल्लभाम् ॥११२॥ उपर्यग्रमधोमूलं कृत्वादर्भास्तदग्रकैः। . रज्जुकनिष्ठिका प्रकुर्वीत यथादृढ़म् ॥११३॥ कुशानामंतरं तेषां व्यस्तामास्थानमांगलम् । उत्तम व्यंगुलं मध्यं अधमं त्र्यंगुलं क्रमात् ।।११४॥ शुल्वस्याथ कुशायामा पंचशाखा प्रमाणकम् । एवं सम्यकृतायासा कुशमालंतमाःस्मृताः ॥११॥ यज्ञशालावृता वैषा प्रोक्तातद्वारदक्षिणे । जपहोमार्चनस्थानध्यानसंवरणेऽपि च ॥११६।। तृतीयांगुलमुष्टीनां द्वयं वैकमथापि वा। आसनं ब्राह्मणस्य स्याद्ब्रह्मयज्ञं प्रकुर्वतः ॥११॥ अष्टोत्तरशतं दर्भाः निर्दोषानिप्सरायताः । सदृशं सर्वहोमेषु संग्राह्य सर्ववेदिनाम् ॥११८॥ आत्मब्रह्मासनार्थं च संकल्पोद्देश्यका)र्थकम् । प्रोक्षणि पूर्णपात्रार्थं आज्यसंस्करणार्थकम् ।।११।। पात्रं सम्मानार्थं च सम्परिस्तरणार्थकम् । संस्कारार्थममी दर्भाः प्रयोक्तव्या यथाक्रमम् ॥१२०॥ देव्याः कुशाश्चयुगपत्परमात्मनि निताः। यत्रोक्तं वैदिकं कर्म कुशास्तत्र प्रकीर्तिताः ॥१२॥
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३२०८
भारद्वाजस्मृतिः अतोऽजयन्मुनयो लोकान्कुशेन मकलान्पुरान् । सामध्यं चाभवेत्तेषां अतोऽनेन कुशः स्मृतः ॥१२२॥ राजानेनकृतस्मृतः। यथेन्द्रस्याशनिहस्ते यथाशूलं कपर्दिनः । यथानुदर्शनं विष्णोः विप्रहस्तकुशस्तथा ॥१२३॥ वरुणस्य करे पाशः यथा दंडो यमस्य तु । तथा ब्राह्मणहस्तस्थः सकलं साधयेत्कुशः ॥१२४॥ विधिनाऽथकृतोदर्भः सर्वकर्मफलप्रदः। विधिनाऽथ गृहीत्वाऽथ (साधयेत्सकलां?) विधिम् ॥१२॥ विनागृहीतोयः प्रयुक्तस्तृणवद्भवेत् (तृणवत्तद्भवेत्सदा)। तस्माच्छास्त्रं परिज्ञाय शास्त्रोक्तविधिना द्विजः ॥१२६॥ कुशान्संगृह्य कर्माणि समस्तानि समाचरेत् । देवब्राह्मणकार्येषु भक्षयेद्वृषलः खलु ॥१२७|| सुवर्णांगुलिकं हृत्वा तत्तत्कर्म समाचरेत् । दध्यात्पवित्रं वृषलः कर्मानुष्ठानवर्जितः ॥१२८॥ यच्छिद्रं नरके घोरे पतत्यत्र न संशयः। कस्मिन्नहनि वा शूद्रो पवित्रं धारयेद्यदि ॥१२६।। न वच्यते(वनिच्यातो)महाघोरैः सुचिरं नरकाग्निभिः । शूद्रः पवित्रमज्ञाना(दुर्द्धषा) विधारयेत् ॥१३०॥ स पापात्मा महाघोरे चिरं तिष्ठति दुर्गतौ ।
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३२०६
कुशविधानम् तस्मात्पवित्रं सततं द्विजैर्वेदपरायणैः। कर्मानुष्ठाननिरतैः धायनेतरजातिभिः ॥१३॥ ॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ कुशविधानं नाम
अष्टादशोऽध्यायः ।।
अथ उनविंशोऽध्यायः
व्याहृतिकल्पवर्णनम् अथ कल्पं प्रवक्ष्यामि व्याहृतीनां यथातथम् । द्विजानां सर्वशाखानां कल्पानां सदृशःस्मृतः॥१॥ भूरितिव्याहृतिः पूर्वा द्वितीयेति भुवःस्मृता। सुवस्तृतीयःतियाचमहः चतुर्थीः पंचमीजनः॥२॥ तत्षष्ठी सप्तमी च सम्यगेवं समीरिताः । एता महाव्याहृतयः सर्वदेहे स्थिता द्विजाः॥३॥ असुसप्तमपूर्वाःम्युः तिस्रो व्याहृतयःक्रमात् । एवं महाव्याहृतयो द्विधा व्याहृतयस्तथा ॥४॥ अहं(एव)? क्रमेण वक्ष्यामि मुनिच्छन्दोऽधिदेवताः। वर्णास्थानस्वरूपाणि विनियोगं निजासनम् ॥५॥
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३२१०
भारद्वाजस्मृतिः पंचशाखं शरीराणां विन्यासत्रितयं तथा । जपे होमे क्रमं चैव पुरश्चरणसत्क्रमम् ॥ ६॥ काम्यहोमफलावाप्तिमन्यद्भव्यफलं च यत् । तदशेषं यथास्पष्टं भवत्यत्यन्तमुतमम् ।। ७॥ ऋषिरासां समस्तानां व्याहृतीनां प्रजापतिः । कथ्यते मुनयस्तासां व्याहृतीनां पृथक पृथक् ॥ ८॥ अत्रिभृगःकुत्ससशज्ञा(कश्यपश्च?) वाशिष्ठो गौतमस्तथा । काश्यपश्चांगिराश्चैते मुनयः क्रमश स्मृताः ।।६।। सप्तर्षयोऽथवैतासां सप्तानां स्युर्यथाक्रमात् । क्रमेणैते प्रवक्ष्यते परिस्पष्टं यथाह्यधः ।।१०।। विश्वामित्रो जमदग्निर्भरद्वाजोऽथगौतमः । अत्रिर्वशिष्ठकश्यप इति सप्तसप्त(र्ष)यः स्मृताः ॥११॥ दिव्यचंदन लिप्तांगा: दिव्यैःपुष्पैरलंकृताः । गायत्र्युष्णिनुष्टुप्च बृहती पंक्तिरेव च ।।१२।। त्रिष्टुप्चजगती चैवस्युश्छन्दांसि यथाक्रमम् । अनिर्वायुः सहस्रांश्शुर्वागीशो वरुणो वृषा ॥१३॥ आसां यथाक्रमेणैव विश्वेदेवाश्च देवताः । दिव्यचंदनलिप्तांगाः दिव्यपुष्पैरलंकृताः ॥१४॥ नीतोपवीतहृदयः सपवित्रे चतुष्कलाः । अग्निद्र'मीध्र?) वदनांभोजाः प्रभामंडल संस्थिताः ॥१५॥ अभयाक्षस्रग्दधानाः परहस्तसरोरुहाः । एवं होमेन प्रारंभे ध्येयास्तुह्मतयो द्विजैः ॥१६॥
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व्याहृतिविधानम्
३२११ तत्तस्फलप्रसिद्धयर्थं अन्यथा तत्फलं न हि। तत्तत्कर्माभिधानार्थे विनियोगः उदाहृतः ॥१७॥ आसनं स्वस्तिकं प्रोक्तं जपहोमौ प्रकुर्वतः । कुशेशयासनं वापि वीरासनमथापिवा ॥१८॥ अंगुष्ठाऽधिकनिष्ठान्तं उभयोर्हस्तयाः क्रमात् । भूरादिपंचवि(क)? न्यस्यन्यसेदन्यद्विकं दले ॥१६॥ करन्यासक्रमोऽयंत्याहेहन्यासोऽथ कथ्यते । पादजानूर्वधोनाभिवक्षः करास्यमूर्धसु ॥२०॥ भूरादिसप्तकं न्यस्य प्रणवं चाऽथ विन्यसेत् । देहन्यासोऽयमाख्यातः त्वयमेवान्यथोच्यते ॥२१॥ भूरिति न्यस्य शिरसि भुवो बाहुद्वये न्यसेत् । सुवश्चरणयोय॑स्यमहर्वामकरे न्यसेत् ॥२२॥ वामस्कंधे जनं न्यस्य तपो हस्तेऽथ दक्षिणे । सत्यं च दक्षिणस्कधे न्यसेत्पश्चाद्विचक्षणः ॥२३॥ देहन्यासकरं प्रोक्त त्वंगन्यासोऽथ कथ्यते । हृदये भूर्भुवो मौलौ शिखायां सुपरित्यध ॥२४॥ तपोमहर्बहिश्चाक्षोः जनस्तपश्चपार्श्वयोः । सत्यं दशककुप्स्वेवं षट्स्थानेषु क्रमान्न्यसेत् ॥२५॥ आद्यन्तयोाहतीनां सप्तानां प्रणवेन सह । गायत्री शिरसा योज्य जपेत्संध्यां जप क्रमात् ॥२६॥ एवं समाहितमनाः प्राणान् संयम्य वै तथा। .. त्रिवेदस्यनामास्यात्प्राणायामो जपस्य तु ॥२७॥
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Ps
भारद्वाजस्मृतिः सप्तैताव्याहृतीरेता केवला वा द्विजो जपेत् । जपक्रमोऽयमेवं स्यात्सर्वपापप्रणाशनः ॥२८॥ पूर्ववत्प्राणसंरोधं कृत्वैताश्च द्विजो जपेत् । तस्य चाप्यभिधानं स्यात्प्राणायामो जपस्य तु ॥२६॥ अष्टोत्तरसहस्र वा अष्टोत्तरशतं तु वा। जपतः सर्वपापानि प्रणश्यन्ति न संशयः ॥३०॥ देवादिस्थापनार्चासु भवने वाऽघमर्षणे । तिस्रो व्याहृतयो मुख्याः इति भोक्ता महर्षिभिः ॥३१॥ व्यस्तं पूर्व प्रयोक्तव्यं समस्तं तदनंतरम् । एवमासां प्रयोगोऽयं चतुर्धा समुदीरितः ॥३२॥ व्याहृतित्रितयं श्रेष्ठमंत्रेण सकलेष्वपि । भूर्भुवः सुवरिति वा तिस्रो व्याहृतय :स्मृताः ॥३३॥ चतुर्थं महइत्येतद्ब्रह्म सर्व उदाहृतः। भूम्यान्तरिक्षस्वळख्याश्चतस्रःस्युः क्रमा इमाः ॥३४॥ प्राणापानव्यानानि अर्कवाय्वग्निवारिजाः। ऋक्सामयजुर्ब्रह्मणि इत्येवं श्रुतिचोदनात् ॥३॥ एताश्चतस्रो यो वेत्ति सकल्पं सरहस्यकम् । स हि वेत्ति परब्रह्म तदन्ते यात्यसंशयम् ॥३६॥ जपहोमार्चनारंभे स्मृत्वा वा मुनिपूर्वकान् । मृत्वा(मूलं) न्यासत्रयं कृत्वा तत्तत्कर्माणि कारयेत् ॥३७॥ अज्ञात्वैतानि होमानि कुर्युरुक्तक्रियां द्विजः । होमेन केवलैमत्रैः निष्फलत्वं प्रयान्ति ताः ॥३८॥
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ब्याहृतिविधानम्
३२१३ व्याहृतीनामथैतस्मिनपुरश्चर्याविधिं पुरः। शत्यर्थमन्यथाशक्तिर्न पुरश्चरणं विना ॥३६॥ तस्मात्पुरश्चरेद्धीमान् अथ कर्म समाचरेत् । कर्माणीष्टानि सिध्यति सत्यं तस्याग्रजन्मनः ॥४०॥ त्रिस्नानं ब्रह्मचर्य च वसुधाशयनं चरेत् । जपेद्द्वादशसाहस्र उपवासत्रयं द्विजः ॥४१॥ अशक्तोयस्त्वहोरात्रं वोपोष्याभिहितं जपेत् । अपुरश्चरणं ह्यतदिष्टानान्यथाऽऽचरेत् ॥४२॥ ब्रह्मवर्चसकामश्चेत्सहस्रं ब्रह्मभूरुहाम्। . सरधाक्तौरदध्यक्ताः समिधो जुहुयाल्लभेत् ॥४३॥ तेजस्कामस्तथाऽऽज्येन धान्यकामस्तु शालिभिः । क्षीरेण पशुकामस्तु पुत्रकामो वदेन्धनैः ॥४४॥ शांतिकामःशमीकाष्ठैः अर्थकामोर्कतर्पणैः । रक्षोविनाशनार्थीचल्लाजैरपिति वैरपि ॥४॥ दुःस्वप्नपापनाशार्थी पापी सद्यो विनश्यति । प्रक्षिप्याभिभ्रातृकामः पुत्रार्थी पिप्पलेन्धनैः ॥४६॥ अपामार्गेरैश्वर्यकामः श्रीकामी यः पलाशकैः । सुधर्मा प्रियकामस्तु सर्वद्रव्याण्यनुक्रमात् ॥४७॥ सहस्रसंख्यया होमः ततइष्टं प्रयच्छति । तस्माद्विप्रपुरश्चयाँसम्यग् कृत्वार्थहावयेत् ॥४८॥
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३२१४ भारद्वाजस्मृतिः
किमप्यसाध्यमेताभिः व्याहृतीभिर्न जातुचित् । तस्मादेताः समाश्रित्य साधयेत्सकलं द्विजः ॥४६॥
॥ इति श्रीभारद्वाजस्मृतौ व्याहृतिनिधानं नाम
ऊनविंशोऽध्यायः॥ * ॐ तत्सद् ब्रह्मार्पणमस्तु के
॥ शुभम्भवतु ।।
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