________________ 70 ] [ प्रज्ञापनासून लिक्षा / अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, (उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए / ) ये (उपर्युक्त प्रकार के) सभी (द्वीन्द्रिय) सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं / [2] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / एएसि णं एवमादियाणं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽयज्जत्ताणं सत्त जाइकुलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / से तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / [56-2] ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार -पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रियों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा गया है / यह हुई द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना / विवेचन द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत सूत्र (सू. 56) में द्वीन्द्रिय जीवों की विविध जातियों के नामों का उल्लेख है तथा उनके दो प्रकारों एवं उनकी जीवयोनियों की संख्या का निरूपण किया गया है। कुछ शब्दों के विशेष अर्थ-'पुलाकिमिया' = पुलाकृमिक एक प्रकार के कृमि होते हैं, जो मलद्वार (गुदाद्वार) में उत्पन्न होते हैं / कुच्छिकिमिया-कुक्षिकृमिक एक प्रकार के कृमि, जो उदरप्रदेश में उत्पन्न होते हैं। संखणगा- शंखनक-छोटे शंख, शंखनी। चंदणा - चन्दनक-यक्ष / गंडयलगा गिडोला / संवुक्का - शम्बूक = घोंघा / घुल्ला घोंघरी। खुल्ला= समुद्री शंख के आकार के छोटे शंख / सिप्पिसंपुटा= शुक्तिसंपुट- संपुटाकार सीप / जलोया = जौंक / ' सम्वेते सम्मच्छिमा-इसी प्रकार के मृतकलेवर में पैदा होने वाले कृमि, कीट आदि सब द्वीन्द्रिय और सम्मूच्छिम समझने चाहिए। क्योंकि सभी अशुचिस्थानों में पैदा होने वाले कीड़े सम्मूच्छिम ही होते हैं, गर्भज नहीं। और तत्वार्थसूत्र के 'नारक-सम्मूच्छिनो नपुंसकानि' इस सूत्रानुसार सभी सम्मूच्छिम जीव नपुसक ही होते हैं / 2 / जाति, कुलकोटि एवं योनि शब्द की व्याख्या-पूर्वाचार्यों ने इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-जातिपद से तिर्यञ्चगति समझनी चाहिए। उसके कूल हैं-कृमि, कोट, वृश्चिक आदि / ये कल योनि-प्रमुख होते हैं, अर्थात-एक ही योनि में अनेक कल होते हैं। जैसे--एक ही छगण (गोबर या कंडे) की योनि में कृमिकल, कीटकल और वश्चिककल आदि होते हैं। इसी प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जातिकुल के योनिप्रवाह होते हैं / द्वीन्द्रियों के सात लाख जातिकुलकोटिरूप योनियां हैं। त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना 57. [1] से कि तं तेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? तेदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा प्रणेगविहा पन्नत्ता। तं जहा–ओवइया रोहिणीया कुथू पिपीलिया उसगा उद्देहिया उक्कलिया 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 41, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 1, पृ-३४८-३४९ 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 41 (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 50 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 41 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org