________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] करना है; क्योंकि वे सब जीव एक ही शरीर में आश्रित होते हैं / एक शरीर में आश्रित साधारण जीवों का पाहार, प्राणापानयोग्य पुद्गलग्रहण एवं श्वासोच्छ्वास साधारण ही होता है। यही साधारणजीवों का साधारणरूप लक्षण है। एक निगोदशरीर में अनन्तजीवों का परिणमन कैसे होता है ? इसका समाधान यह है-अग्नि में प्रतप्त लोहे का गोला जैसे सारा-का-साग अग्निमय बन जाता है, वैसे ही निगोदरूप एकशरीर में अनन्त जीवों का परिणमन समझ लेना चाहिए / एक, दो, तीन, संख्यात या असंख्यात निगोद जीवों के शरीर हमें नहीं दिखाई दे सकते, क्योंकि उनके पृथक्-पृथक् शरीर ही नहीं हैं, वे तो अनन्तजीवों के पिण्डरूप ही होते हैं / अर्थात् अनन्तजीवों का एक ही शरीर होता है / हमें केवल अनन्तजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं, वे भी बादर निगोदजीवों के ही; सूक्ष्म निगोदजीवों के नहीं; क्योंकि सूक्ष्म निगोदजीवों के शरीर अनन्त जीवात्मक होने पर भी वे अदृश्य (दृष्टि से अगोचर) ही होते हैं। स्वाभाविकरूप से उसी प्रकार के सूक्ष्मपरिणामों से परिणत उनके शरीर होते हैं / अनन्त निगोदजीवों का एक ही शरीर होता है, इस विषय में वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् के वचन ही प्रमाणभूत हैं। भगवान् का कथन है---'सूई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात-असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं।' अनन्त निगोदिया जीवों का शरीर एक ही होता है, यह कथन औदारिकशरीर की अपेक्षा जानना चाहिए। उन सब के तैजस और कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न ही होते हैं। द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना 56. [1] से कि तं बंदिया ? बंदिया (से कि तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा) प्रणेगविहा पन्नता। तं जहा-पुलाकिमिया कुच्छिकिमिया गंडयलगा गोलोमा णेउरा सोमंगलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जलोउया संख संखणगा घुल्ला खुल्ला गुलया खंधा वराडा सोत्तिया मोत्तिया कलुयावासा एगोवत्ता दुह प्रोवत्ता गंदियावत्ता संवक्का माईवाहा सिप्पिसंपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। सम्वेते सम्मुच्छिमा नपुंसगा। [56-1 प्र.] वे (पूर्वोक्त) द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के हैं ? [वह द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना क्या है ? ] [56-1 उ.] द्वीन्द्रिय (द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीव-प्रज्ञापना) अनेक प्रकार के कहे गए हैं / (अनेक प्रकार की कही गई है।) वह इस प्रकार-पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक (जालायुष्क), शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा (वराटिका = कौडी), सौक्तिक, मौक्तिक (सौत्रिक मूत्रिक), कलुकावास, एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावत, शम्बूक, मातृवाह, शुक्तिसम्पुट, चन्दनक, समुद्र 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 39-40 (ख) 'गोला य असंखेज्जा होंति नियोगा असंखया गोले / एक्केको य निगोमो प्रणत जीवो मूणेयवो / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org