________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 67 अवगाहना में रहते हैं, परन्तु विशिष्ट कर्मरूपी श्लेषद्रव्य से मिश्रित होने के कारण वे जीव भी एकशरीरात्मक, एकरूप एवं एकशरीराकार प्रतीत होते हैं। द्वितीय दृष्टान्त-जैसे तिलपपड़ी बहुत-से तिलों के एकमेक होने से (गुड़ आदि श्लेषद्रव्य से मिश्रित करने से) बनती है। उस तिलपपड़ी में तिल अपनी-अपनी अवगाहना में स्थित हो कर अलगअलग रहते हैं, फिर भी वह तिलपदी एकरूप प्रतीत होती है। इसी प्रकार प्रत्येक शरीरीजीवों के शरीरसंघात पृथक्-पृथक् होने पर भी एकरूप प्रतीत होते हैं !' अनन्तजीवों वाली वनस्पति के लक्षण-(१) टूटे हुए या तोड़े हुए जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल, बीज का भंगप्रदेश समान अर्थात्-चक्राकार दिखाई दे, उन मूल आदि को अनन्तजीवों वाले समझने चाहिए। (2) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध और शाखा के काष्ठ यानी मध्यवर्ती सारभाग की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, उस छाल को अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए / (3) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, स्वचा, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोड़े जाने पर उसका भंगस्थान चक्र के आकार का एकदम सम हो, वह मूल, कन्द प्रादि अनन्तजीव वाला समझना चाहिए। (4) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोड़े जाने पर पर्व--गांठ या भंगस्थान रज से व्याप्त होता है, अथवा जिस पत्र आदि को तोड़ने पर चक्राकार का भंग नहीं दिखता और भंग (ग्रन्थि-) स्थान भी रज से व्याप्त नहीं होता, किन्तु भंगस्थान का पृथ्वीसदृश भेद हो जाता है / अर्थात् सूर्य की किरणों से अत्यन्त तपे हुए खेत की क्यारियों के प्रतरखण्ड का-सा समान भंग हो जाता है, तो उसे अनन्तजीवों वाला समझना चाहिए / (5) क्षीरसहित (दूधवाले) या क्षीररहित (बिना दूध के) जिस पत्र की शिराएँ दिखती न हों उसे, अथवा जिस पत्र की (पत्र के दोनों भागों को जोड़ने वाली) सन्धि सर्वथा दिखाई न दे, उसे भी अनन्तजीवों वाला समझना चाहिए / (6) पुष्प दो प्रकार के होते हैं--जलज और स्थलज / ये दोनों भी प्रत्येक दो-दो प्रकार के होते हैं-वृन्तबद्ध (अतिमुक्तक आदि) और नालबद्ध (जाई के फूल आदि), इन-पुष्पों में से पत्रगत जीवों की अपेक्षा से कोई-कोई संख्यात जीवों वाले, कोई-कोई असंख्यात जीवों वाले और कोई-कोई अनन्त जीवों वाले भी होते हैं / अागम के अनुसार उन्हें जान लेना चाहिए। विशेष यह है कि जो जाई आदि नालबद्ध पूष्प होते हैं, उन सभी को तीर्थंकरों तथा गणधरों ने संख्यातजीवों वाले कहे हैं; किन्तु स्नि रों ने संख्यातजीवों वाले कहे हैं; किन्तु स्निहूपुष्प अर्थात-थोहर के फल या थोहर के जैसे अन्य फल भी अनन्तजीवों वाले समझने चाहिए। (7) पद्मिनीकन्द, उत्पलिनीकन्द, अन्तरकन्द (जलज बनस्पतिविशेषकन्द) एवं झिल्लिका नामक वनस्पति, ये सब अनन्तजीवों वाले होते हैं / विशेष यह है कि पद्मिनीकन्द आदि के विस (भिस) और मृणाल में एक जीव होता है / (8) सफ्फाक, सज्जाय, उव्वेहलिया, कहन और कन्दुका (देशभेद से) अनन्तजीवात्मक होती हैं / (6) सभी किसलय (कोपल) ऊगते समय अनन्तकायिक होते हैं। प्रत्येकवनस्पतिकाय, चाहे वह प्रत्येकशरीरी हो या साधारण, जब किसलय अवस्था को प्राप्त होता है, तब तीर्थकरों और गणधरों द्वारा उसे अनन्तकायिक कहा गया है। किन्तु वही किसलय बढ़ता-बढ़ता, बाद में पत्र रूप धारण कर लेता है तब साधारणशरीर या अनन्तकाय अथवा प्रत्येकशरीरी जीव हो जाता है। प्रत्येकशरीर जीव वाली वनस्पति के लक्षण-(१) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प अथवा फल या बीज को तोड़ने पर उसके टूटे हुए (भंग) प्रदेश (स्थान) में हीर 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org