________________ 68 1 [ प्रज्ञापनासूत्र दिखाई दे, अर्थात्-उसके टुकड़े समरूप न हों, विषम हों, दंतीले हों, उस मूल, कन्द या स्कन्ध आदि को प्रत्येक(शरीरी)जीव समझना चाहिए / (2) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध या शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकशरीर जीव वाली समझनी चाहिए / (3) पलाण्डुकन्द, लहसुनकन्द, कदलीकन्द और कुस्तुम्ब नामक वनस्पति, ये सब प्रत्येकशरीरजीवात्मक समभने चाहिए। इस प्रकार की सभी अनन्त जीवास्मकलक्षण से रहित वनस्पतियां प्रत्येकशरीरजीवात्मक समझनी चाहिए / (4) पद्म, उत्पल, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, अरविन्द, कोकनद, शतपत्र और सहस्रपत्र, इन सब प्रकार के कमलों के वृन्त (डण्ठल), बाह्य पत्र और पत्तों की आधारभूत कणिका, ये तीनों एकजीवात्मक हैं। इनके भीतरी पत्ते, केसर (जटा) और मिजा भी एक जीवात्मक हैं। (5) बांस, नड नामक घास, इक्षुवाटिका, समासेक्षु, इक्कड घास, करकर, सूठि, विहंगु और दूब आदि तृणों तथा पर्ववाली वनस्पतियों की अक्षि, पर्व, बलिमोटक (पर्व को परिवेष्ठित करने वाला चक्राकार भाग) ये सब एकजीवात्मक हैं। इनके पत्ते भी एक जीवाधिष्ठित होते हैं। किन्तु इनके पूष्प अनेक जीवों वाले होते हैं। (6) पूष्यफल, कालिंग आदि फलों का प्रत्येक पत्ता (पृथक्-पृथक), वन्त, गिरि और गूदा और जटावाले या बिना जटा के बीज एक-एक जीव से अधिष्ठित होते हैं।' बीज का जीव मूलादि का जीव बन सकता है या नहीं?—बीज की दो अवस्थाएँ होती हैं— योनि-अवस्था और अयोनि-अवस्था / जब बीज योनि-अवस्था का परित्याग नहीं करता किन्तु जीव के द्वारा त्याग दिया जाता है, तब वह बीज योनिभूत कहलाता है / जीव के द्वार त्याग दिया गया है, यह छदमस्थ के द्वारा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अतः अाजकल चेतन या अचेतन, जो अविध्वस्तयोनि है, उसे योनिभूत कहते हैं। जो विध्वस्तयोनि है, वह नियमतः अचेतन होने से अयोनिभूत बीज है। ऐसा बीज उगने में समर्थ नहीं रहता। तात्पर्य यह है कि योनि कहते हैं---जीव के उत्पत्तिस्थान को। अविध्वस्तशक्ति-सम्पन्न बीज ही योनिभूत होता है, उसी में जीव उत्पन्न होता है / प्रश्न यह है कि ऐसे योनिभूत बीज में वही पहले के बीज वाला जीव आकर उत्पन्न होता है अथवा दूसरा कोई जीव पाकर उत्पन्न होता है ? उत्तर है-दोनों ही विकल्प हो सकते हैं। तात्पर्य यह कि बीज में जो जीव था, उसने अपनी आयु का क्षय होने पर बीज का परित्याग कर दिया / वह बीज निर्जीव हो गया किन्तु उस बीज को पुनः पानी, काल और जमीन के संयोगरूप सामग्री मिले तो कदाचित् वही पहले वाला बीज मूल आदि का नाम-गोत्र बांध कर उसी पूर्व-बीज में पा कर उत्पन्न हो जाता है, और कभी कोई अन्य पृथ्वीकायिक आदि नया जीव भी उस बीज में उत्पन्न हो जाता है। __साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिकजीवों का लक्षण--साधारण वनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे प्राणापान के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही उनका श्वासोच्छ्वास होता है। एक जीव का आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करना ही (उस शरीर के आश्रित) बहुत-से जीवों का ग्रहण करना है, इसी प्रकार बहुत-से जीवों का आहारादि-पुद्गल-ग्रहण करना भी एक जीव का आहारादि-पुद्गल-ग्रहण 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 1, पृ. 300 से 325 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 35-36-37 20 प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 38 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org