Book Title: Samaysar
Author(s): Kundkundacharya, 
Publisher: Bharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सहजानन्द शास्त्रमाला (सर्वाधिकार सुरक्षित) प्रति ११०० सन् १९९५ ई० परमपूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत समय-सार एवं उस पर परमपूज्य श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचित संस्कृत टीका आत्मख्याति तथा दोनों पर अध्यात्मयोगी न्यायतीर्थ गुरुवर्य सहजानन्द (मनोहर जी वर्णी) महाराज द्वारा विरचित सप्तदशाङ्गी टीका प्रकाशक श्री भारतवर्षीय वर्णी जैन साहित्य मन्दिर १५- प्रेमपुरी, मुजफ्फरनगर (30प्र0) लागत मूल्य ६०/ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार महिमा सभी जीव शाश्वत शान्ति चाहते हैं और एतदर्थ ही भरसक प्रयत्न करते हैं। जो जीव विषय भोगोंग ही आनन्द मानते हैं और विषय भोगों के बाधक निमित्तोंसे ष एवं कलह करके शान्ति प्राप्त करना चाहते हैं, उन जीवोंकी तो इसमें चर्चा ही नहीं करना है। जो अलौकिक उपायोंसे शान्तिका मार्ग हते हैं, उनकी ही कुछ चर्चाओं के बाद परिणामस्वरूप हितकर प्रकृत बातपर आना है। कुछ विवेकी महानुभादोंकी धारणा है:-कि जिस परम ब्रह्म परमेश्वरने अपनी सृष्टि की है उस परम पिता परमात्माकी उपासनासे ही दुःखोंसे मुक्ति हो सकती है। कुछ विवेकी महानुभावोंकी धारा है :-..प्रित लोर पुराना नया होनेने ही लश एवं जन्म-परम्परा हुई है, सो प्रकृति और पुरुषका भेदज्ञान कर लेनेसे हो क्लेश एवं जन्म-परम्परासे मुक्ति मिल सकती है। कुछ विवेकी महानुभावोंकी धारणा है कि :-क्षणिक चित्तवृत्तियों में जो आत्मा मानने का भ्रम है इस बात्मभ्रमसे सारा क्लेश है, सो आत्माका भ्रम समाप्त कर देनेसे ही निर्माण प्राप्त हो सकता है। कुछ विवेकी महानुभावोंकी धारणा है कि :--पारमा तो शाश्वत निर्विकार है। उसमें विकारका जब तक घ्रम है तब तक जीब दुःखी है, विकारका भ्रम समाप्त होनेसे ही जीव शान्ति प्राप्त कर सकता है। कुछ विवेकी महान भावोंकी धारणा है कि:-दुक्रमों से ही जीव सांसारिक यातनाएं सहता है, और याानाओंसे मुक्ति पाना सत्कर्म करने से ही सम्भव है। और कुछ विवेकी महानुभावोंकी धारणा है कि:-विकलात्मक विविध उपयोगोंसे ही जीवका संसार परिभ्रमण चल रहा है। इस भवभ्रमणको निति निर्विकल्प समाधिसे ही हो सकती है। इत्यादि प्रज्ञापूर्ण बनेक धारणाएं हैं। इनमें से किसी भी धारणाको असत्य नहीं कहा जा सकता और यह भी.नहीं कहा जा सकता कि इसमें कोई भी धारणा किसी दूसरेके विरुद्ध है। इन सब धारणाओंका जो लक्ष्य है वह सब है एक 'समयसार"। एक समयसार के पचार्थ परिज्ञानमें उक्त समस्त उपाय गभित है। एक समयसारके परिज्ञानसे उक्त सब उपाय कैसे प्रचलित हो जाते हैं वह बात अभिधेय समयसारके यकिंचित अभियान के पश्चाल कहीं तो विषाद उक्तियोंमें और कहीं फलितार्थ रूपमें प्रकट हो हो जायेंगी । अतः अन्य कोई विस्तृत विवेचन न करके अब समयसारके सम्बन्ध में ही संक्षिप्त प्रकाश डाला जाता है। समयसार का प्रथ समय शब्दके दो अर्थ है:-१-समरत पदार्थ, २-आत्मा। इनमें अर्थात् समस्त पदार्थों में अथवा आत्मा जो सार हो वह समयसार कहलाता है । 'सम्-एकोभावेन स्वगुणपर्यायान् गच्छति' इस निरूपितसे समय शब्दका अर्थ समस्त पदार्थों में घटित होता है; क्योंकि सभी पदार्थ अपने-अपने ही गुण पर्यायौंको प्राप्त हैं। 'सम्-एक्स्वन युगपत् अ गच्छति, जानाति' इस निरुक्तिसे समय शब्दका अर्थ आस्मा होता है, क्योंकि आत्म-पना ही जानने वाला है और उसका स्वभाव सर्व पदार्थोंको एकस्वरूप अर्थात् केवल उसका सत्तारमक बांध एक माथ जानने का है। ___अब सब पदार्थों में सार कहो तो वह आत्मा नामका पदार्थ है और उसमें भी निरपेक्ष, णाश्वत, सहज, एक स्वरूप आत्मस्वभाव (चंतन्य स्वभाव) की दृष्टिले दष्ट आत्म-सस्व सार है। इसी प्रकार दूसरी मिलिसे भी यही समयसार वाच्य है। समयसार के अपर नामब्रह्म, परम-ब्रह्म, परमेश्वर, कारण परमात्मा, जगतपिता, का सार है। इसी प्रकार दूसरी नि Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुअचेतन, परम-पारिणामिक भाव, शुद्धत्रेवना, सर्वविशुद्ध, चिमात्र, चैतन्य, प्रभु, विभु, अद्वैत, विष्णु, ब्रह्मा, परमज्योति और शिव इत्यादि अनेक है। यह समयसार अजर, अमर, अविकार शुद्ध, बुद्ध, नित्य, निरंजन. अपरिणामी,ध्रुव, अचल, एक-शायक-स्वरूप अनंतरसनिर्भर, सहजानन्दमय, चिन्मात्र, सहजसिस, अकलंक, सर्व विशद्ध, जानमात्र, सच्चिदानन्द स्वरूप इत्यादि अनेक द्वार से सम्वेद्य है। वस्तु-व्यवस्था - समयसारके विशद परिज्ञानका उपाय भेद-विज्ञान है। अनेक पदार्थोको स्वस्व लक्षणोंसे पृथक-पृथक नियत कर देना और उनमें से उपादेय पदार्थको लक्षित और उससे समस्त पदार्थों को उपेक्षित कर देने को भेद-विज्ञान कहते हैं । प्रकृत भेद-विज्ञान के लिए आत्म-अनात्मस्वरूप समस्त पदाथोंका जान लेना प्रथम आवश्यक है। इस जानकारीके लिए समस्त पदार्थ कितने है यह जानना आवश्यक है। इस जानकारीके लिये आखिर एक पदार्थ होता कितना है यह भी जानना आवश्यक है। एक परिणमन जितने पूरेमें होना ही पड़े और जितने से बाहर त्रिकाल में भी कभी न हो सके, उतनेको एक पदार्थ कहते हैं । जैसे-विचार, सुख, दुख, अनुभव आदि कोई परिणमन मेरा, केवल मेरे आत्मामें, द वह भी समस्त प्रदेशों में होता है और मेरे आत्म-प्रदेशोंसे बाहर अन्यत्र कभी नहीं हो सकता। इसलिए यह में आत्मा एक पदार्थ हूं। इसी प्रकार सब आत्मा हैं। इस तरह विश्व में अक्षय अनन्तानन्त आत्मा हैं। दृश्यमान स्कंधों में जो कुछ दीखता है वह एक एक नहीं है: क्योंकि जलनेसे या अन्य हेतुओंसे या समय व्यतीत होने से उस एक पिण्डमें एक जगह तो रूप-परिवर्तन और तरह देखा जाता है। किन्तु वह परिवर्तन सर्वत्र नहीं होता। इसी प्रकार रस, गन्ध, स्पर्श में भी विविधता देखी जाती है। एक पदार्थका जो लक्षण है उसके अनुसार यह निर्णीत होता है कि इन पिण्डों में एक एक परमाणु करके अनन्त परमाणु हैं और वे एक-एक द्रव्य हैं। क्योंकि एक पदार्थ का लक्षण इनमें घटित हो जाता है। इस तरह जब दृश्यमान छोटे से पिण्डमें अनन्त परमाणु है सब समस्त विश्व में तो अक्षय अनन्तानंत परमाणु है। यह सुसिद्ध बात है । इन परमाणुओं को पुद्गल कहते हैं। क्योंकि इनमें पूर पूर कर एक पिण्ड होनेकी व गल-गलकर पुनः बिखरने की योग्यता है। अनन्तानन्त जीव व अन्तानन्त पुद्गलद्रव्यों के चलने में जो उदासीन सहायक द्रव्य है, वह धर्मद्रव्य है, और वह एक है । अनन्नानन्त जीव व अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य के चमकर ठहरने में जो उदासीन सहायक द्रव्य है, वह अधर्म द्रव्य है, बह भी एक है । समस्त जीव व पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य आदि समस्त द्रश्यों के अवगाह का जो उदासीन हेतु है ऐसा आकाश एक द्रव्य है। इन सबके परिणमनका जो उदासीन हेतुरूप है वह काल द्रक काल दव्य असंख्यात है। वे सोकाकाश (जितने बाकाशमें सब प्रध्य है) के एक एक प्रदेशपर एक एक स्थित है। आकास बप एक है। इस प्रकार अनन्तानन्त आत्मा, अनन्तानन्त पुद्गल, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म दव्य, एक आकाश द्रव्य व असंख्पात काल द्रव्य ऐसे अनन्तानन्त पदार्थ है। समयसारके परिज्ञानके लिए अब अनन्तामन्त पदार्थो में से एक आत्मा स्वके रूपमें और अवशिष्ट अन्य अनन्तानन्त आत्मा, अनन्तानन्त पुद्गल, एक धर्म द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य एक आकाश द्रव्य, असंख्यात काल द्रव्य इन सबको परके रूपमें जानना चाहिये। इसके अनन्तर उस एक आत्मामें भी उन सभी गुण व स गौण करके सनातन एक चैतन्य स्वभाव की दृष्टि करनी चाहिमे । पावश्यक बजातव्य दृष्टियां समयसारके परिजानके लिए समयसार व समयसारसे भिन्न समस्त परभाव का जानना आवश्यक है और आवश्यक है उन समस्ल परभावों से हटकर एक समयसारका ही उपयोग करना । एतदर्थ बह सब परिज्ञान अनेक दृष्टियोंसे आवश्यक होता है । अत: संक्षेपमें आवश्यक दृष्टियोंका वर्णन किया जाता है। इसके पश्चात् समयसार प्रन्थ में वणित विषयोंका संक्षेप सारांश प्रकट किया जायगा । दृष्टिके अपर नाम नय, अभिप्राय, आशय, मत इत्यादि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- अनेक हैं। इनमें प्रसिद्ध शब्द नय है। नय के मुख्य भेव दो हैं (१) निश्चयनय (२) व्यवहारनय । एक पदार्थके ही जाननेको निश्चनय कहते हैं। अनेक या अन्य के निमित्तसे होने वाले कार्य व्यपदेश आदिके जाननेको व्यवहारनय कहते हैं। चूंकि पदार्थोंको केवल भी जाना जा सकता है, संयुक्त या सहयोगी भावों द्वारा भी जाना जा सकता है, इसलिये नयोंकी द्विविधता होना प्राकृतिक बात है। अथवा पदापोंको भेदरूपसे जाननेको व्यवहार कहते है और अभेदरूपसे जाननेको निश्चयनय कहते हैं। निश्चयनय एक व अभेद अथवा एक या अभेदको जानता है, व्यवहारनय अनेक व भेद अथवा अनेक या भदको जामता है। इस कारण कितने ही निश्चयनम उसके सामने अन्य अन्तरंगकी दृष्टि प्राप्त होनेपर व्यवहारमय हो जाते हैं और कितने ही व्यवहारमय उसके सामने अन्य अधिक बहिरंग की दृष्टि प्राप्त होने पर निश्चयनय हो जाते हैं। फिर भी माध्यम द्वारा नयोंका संक्षिप्त विस्तार किया जाता है :.... विश्ववनयके दरमशनिश्चयनय, विवक्षितकदेशद्ध निश्चयनय, शुद्ध निश्चयनय, और अशद्ध निश्चयमय आदि भेद हैं । व्यवहारनयके उपचरित असद्भूत व्यवहार, अनुपचारित असद्भूत व्यवहार, उपचारित सद्भुत व्यवहार और अनुपचारित सद्भुत व्यवहार आदि भेद हैं। परम शुद्ध निश्चयनय-परिणमन व शक्तिभेद (गुण) की दृष्टि गोण कर एक स्वभावमय पदार्थको जानना परमशुद्ध निश्चयनय है। जैसे आत्मा चितस्वरूप है। इसी नम का विषय समयसार है। विवक्षितकदेशशुद्ध निश्चयनय-उपादेय तत्वको शुद्ध निरखकर विकारका उपाधिसे सम्बन्ध जाननेको विवक्षत कवेश निरालय विराशय अशुद्ध निश्चयनयकी मुख्यता होने पर व्यवहारनय हो जाता है । शुद्ध निश्चयनय-शुद्धपर्यायपरिणत पदार्थके जाननेको शुद्ध निश्चयन य कहते हैं जैसे सिर प्रभु शुख हैं। अशुद्ध निश्चय नय--अशुद्धपर्यायपरिणत पदार्थफे जाननेको अशुद्ध निश्वयनय कहते हैं। जैसे रागादि मान् संसारी जीव हैं। उपचरित असद्भुत व्यवहारनय--अन्य उपाधिके निमित्त से होने वाले प्रकट परभावको निमित्तसे उपचरित करना उपचारित असद्भूत व्यवहारनय है जैसे-अनुभूत विकारभाव पुदगल कर्म के कारण जीवमें हुए हैं। अनुपरित असभूत व्यवहारनय :--अन्य उपाधिके निमित्त से होने वाले सूक्ष्म (अप्रकट) विकारको कहना अनुपचारित असद्भुत व्यवहार नय है, जैसे औपाधिक अवृद्धिगत जीवके विकार भाव । उपचरित सद्भुत व्यवहारनय :- उपाधि के क्षयोपशम से प्रकट होने वाले जीव के गुणों का विकास उपचरित सद्भुत व्यवहारनय है, जैसे जीव के मतिज्ञान । अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय-जीचके निरपेक्ष आदिक स्वभाव-भावको गुण-गुणीका भेद करके कहना अनुपचरित सद्भुत व्यवहार नय है, जैसे जीवके ज्ञानादि गुण।। इस प्रकार अन्तरंगसे बहिरंगकी ओर, बहिरंगसे अन्तरंगकी ओर अभिप्रायोंका आलोडन बिलोडन करके समय (आत्मा) का सम्यक प्रकारसे निश्चय किया जाय और पश्चात अनेक निश्चयनयों में से निकल कर परम शुद्ध निश्चयनयका अवलम्वन करके समयसारका परिशान किया जाये और फिर परम शुद्धनिश्चयनपके आसयसे भी सहज छूटकर समयसारका अनुभव किया जाये। । - समयसारका विषय विभाग समयसार बारमतस्वकी विवेचनाका अनुपम अन्य है। इस ग्रन्थका प्राकृत भाषा में नाम 'समयपाड" है, जिसका संस्कृसानुबाद है समयप्राभूत । प्राभूतका अर्थ भेंट भी होता है जिससे यह ध्वनित हवा कि समय अर्थात् शुद्ध धारमसत्यकी जिज्ञासा करने वाले मुमुक्षु समयसार (कारणपरमात्मा या निर्दोषपरमात्मा) राजाके दर्शन करने के लिये उद्यम करे तो इस भेंटका (ग्रन्धका उपयोग करें। यदि कोई यह जानना चाहे किन सिदान्तमें वर्तमान सर्व Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमुख व्यवहारोपयोगी ग्रन्थ कौन है तो यह नि:शक कहा जा सकता है कि एक सत्वार्थ-मथ और दूसरा समयसार । ये दो ग्रन्य प्रमुख लोकोपयोगी है। समयसारमें तो आत्म-तत्त्व विषयक सुविवेचना है और सल्वार्थसत्र में पदार्थ की विविध विषयक सुविवेचना है। समयार ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय विस्तृत है । अतः इसके मुलकर्ता (गाथाकार)ग्य श्रीमत्यून्दकुम्दाचार्य) की रचना इस प्रकार हुई है :-प्रारम्भ को १२ माथा तो समयसारको पीठिका है। पश्चात मुरूप निषय जीवके स्वरूपका है सो जीवाधिकार आया। पश्चात् अजीवाधिकार प्रामा । पश्चात् जीव-अजीवके बनन के मूल का अर्थात् कल-कर्म-भाचका अधिकार आमा । पश्चात् कत कर्म भायके परिणाम स्वरूप अथवा संसारके प्रधान एक भाव निमित्तभूत पुण्यपापकर्मका अधिकार आया। पश्चात् पुण्यपापकर्म के द्वार 'भूत आसयका अधिकार आया । इसके पश्चात् आस्रव के विपक्षी अयवा मुक्तिके मूल उपायभूत सबरका अधिकार आया। पश्चात संबत होनेपर कार्यकारी एवं मोक्षके साधनभूत निर्जराका अधिकार प्राया। पश्चात मीक्षके विपक्षभूत बाधका अधिकार आया । पश्चात् मोशका अधिकार आया । पश्चात् मुक्ति थे. सर्व उपायोके लक्ष्यभूत समयसाका विशद्ध वर्णन करने के लिए सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार आया । अन्तमें इसौ सत्वका तथा पूर्व में उक्त व अनुवत विपयाचा उपसहार करने वाला परिशिष्ट रूप स्याहाद अधिकार आया। इस प्रकार इस समयसार ग्रन्थ (१) पीटिका (२) जोवाधिकार (३) अजीवाधिकार (४) क-कमां धिकार । (५) मृत्य-पापाधिकार (६) आसवाधिकार (७) संवराधिकार (८) निर्जराधिकार (6) बंधा धिकार (१०) मोक्षाधिकार (२६) सर्वविशुद्ध जानाधिकार (१२) चूलिकाधिकार और (१३) स्थाद्वादाधिकार आये 1 एन १३ अधिकारों में आस्मतत्त्व का वर्णन किया है। अद्यतन प्रसिद्धि के अनुसार पीटिकाव जीबधिकारका वर्णन एक धारा में होने के हेतु इमैं दो अधिना कपूरंग ही जानेसे, व अजीवाधिकार में ही विधि-निषेधक रूपमें जीवका वर्गत आ जानेके हसु प्रजीवाधिकार हो जाने से, तथा सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार व चलिकाधिकार का विषय भी एक धारा में चलने से एवं स्याद्वाद (परिशिष्ट) अधिकार समय प्राभूत सस्य के टीकाकार पूज्य श्री अमृतचन्दजी सूरि की स्वतन्त्र रचना होने ले (१) पूर्वरंग (२) जीवाजीवाधिकार (1) कत कर्माधिकार (४) पुण्य-पापाधिकार (५) बासवाधिकार (६) संघराधिकार (७) निर्जराधिकार (6) बंधाधिकार () मोक्षाधिकार (१०) सर्व विशद्धज्ञानाधिकार । इस प्रकार १० अधिकार हैं। अब समयसार अन्यके उक्त अधिकारों में किस किस विषयका वर्णन है, इसपर संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है ताकि मह भी सुगमतासे जानने में आ सके कितभाव से की गई अनेक ऋषियोंकी पूक्ति विभिन्न आध्यात्मिक धारणाओंका लक्ष्य भी यही समयसार हैराहे उनमें से किसी ने उसपर लक्ष्य कर पाया हो या न कर पाया हो। पौडिका सर्व प्रथम समयसारके पूर्ण अनुरूप विकास अर्थात् सिद्ध प्रभुको नमस्कार करके समय (सामान्य आत्मा) का इस प्रकार संकेत किया है कि समयकी दो अवस्थायें होती है (१) स्वसमय (शुद्धावस्था) (२) परसमय (अशुद्धाबस्था)। जो अपने दर्शन-ज्ञान-चरित्र में स्थित हो, अर्थात शुद्ध ज्ञान-दर्शनमय निज परमात्मतत्वको रुचि, संवित्तिव निश्चल अनभूतिसे परिणत हो, सो स्वसमय है और जो औपाधिक भावों में स्थित हो सो परसमय है। ये दोनों अवस्थायें जिस एक पदार्थकी है वह समय है। अन्य सर्व परपदार्थोंसे, सर्व पर्यानों से भिन्न देखा गया, केवल यही समय समयसार कहलाता है। संसारी जीवोंने इस समयसारकी दृष्टि नहीं की। इसी कारण इसे जीवलोक आपमियोंका भाजन होना। पड़ा है। इस समयसारका वर्णन करने के पहले अन्यकर्ता श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं कहते हैं कि इस सममसार (एकस्व विभक्त आत्मा) को यात्मविषय द्वारा दिखाऊँगा, यदि दिखा तो स्वयं अपने विभवस प्रमाण करना, यदि दिखाने में चक जाऊँ सो छल ग्रहण नहीं करना। दिखाना शब्दों द्वारा ही तो हो रहा है, यह क्रिया नयगभित है अतः सुनने में नयका ठीक उपयोग न करमेसे श्रोसाका चुकना सम्भव है। इस ही बातको अपनेपर लेने से प्रत्यकर्ताकी कितनी निगर्वता प्रकट हुई है और स्वयं अनुभवसे प्रमाण करना चाहिये इस भाव द्वारा वस्तुस्वातन्क्ष्य की प्रतीति Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 i प्रकट हुई है; इससे सहसा विवेच्य विषयपर श्रद्धा होती है तथा मनन कर लेनेसे सो दृढ़ प्रतीति हो ही जावेगी क्योंकि इस विवेचनामें सब वैज्ञानिक पद्धति है । समयसार अर्थात् शुद्ध आत्मतत्वका लक्ष्य इस प्रकार किया गया है, कि जो न प्रमत्त या कषायसहित है और न अप्रमत या कषामरहित है; किन्तु एक शुद्ध ज्ञायक भावमय है, वह शुद्ध आत्मा है। इस शुद्ध आत्मामें बन्धकी कथा तो दूर ही रहो इसमें ज्ञान दर्शन- चरित्र आदिक गुणभेद भी नहीं हैं। फिर भी बुद्धि में गुणभेद आदि किये बिना परमार्थभूत आत्माको समझाया नहीं जा सकता। इसलिये गुणभेद आदि निरूपक व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक होने से वक्तव्यं होता है और यह व्यवहार पहिली पदवी में प्रयोजनवान् है, किन्तु परमार्थभूत चैतन्यमात्र आत्मतत्त्व के अवलोकन करने वालोंको व्यवहार प्रयोजनवान् नहीं है । अधिकार-गाया उक्त प्रकार से एकल्ब विभक्त शुद्ध आत्मा अथवा समयसारका संक्षेप में दर्शन किया गया है उसी को विस्तृत रूप में कहने के लिये एक अधिकार गाया ग्रन्थकर्ता ने दी है। भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवा व पुष्ण पाय च । आसव संवर णिज्जर बंधो मोखो य सम्मसं ॥ भूतानयसे जाने गये जीब, अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष सम्यवत्व है । यहां कारण में फार्मका उपचार करके सम्यक्त्वका वर्णन किया है, जिससे यह भाव निकला कि भूतार्थ नयसे जाने गये जीवादि नवस्थ सम्यमत्वके कारण हैं। गुण पर्यायोंके भेदसे उठाकर एक में ले जाने वाले नयको भूतार्थनय कहते हैं। इस गाथा में अधिकारसूची भी आ गई। आध्यात्मिक ग्रन्थोंमें आवश्यक कर्तव्य होनेसे केवल व कर्माधिकार व सर्वविज्ञानाधिकार और कहना पड़ा। नृलिका तो प्रायः सर्वत्र आपतित होती ही है । उक्त नव तत्त्वों में जीव व अजीव तो द्रव्य है व पुण्य-पाप, आसव आप पर्यायें है। इसी कारण ये सातों जीव रूप भी कहे गये हैं और अजीवरूप भी कहे गये हैं। जैसे जीव पुष्य, अजीव पुण्य आदि । जवकी परिणतियां जीवपुण्य बादि हैं व अजीव (कर्म) की परिणतियां अजीव पुण्य आदि हैं। जोवपरिणतियोंके द्वारसे चलकर उन परिणतियोंके स्रोतभूत गुणपर आना और गुणद्वारसे चलकर गुणोंके अभेद पुञ्ज अथवा गुणोंके श्रीतभूत जीवद्रव्यपर बना यह भूतार्थ नमकी पद्धति है। इसी प्रकार अजीव भी लगानी चाहिये। यह सर्वविषय ग्रन्थके अध्ययन से स्पष्ट करना चाहिये । यहाँ तो विषयोंका दिग्मात्र हो दिखाना है । श्रीवाधिकार जीवाधिकार में सर्वप्रथम हो शुद्ध आत्माके स्वरूप, स्वामी व उपायका ही एकदम सुगम रीति से वर्णन कर दिया गया है, कि जो अपनी आत्माको (अपने आपको ) अवद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशिष्ट व असंयुक्त देखता है उसे शुद्धनय जानो, अथवा शुद्ध-नमसे जैसा शुद्ध आत्मतत्व देखा जाता है आत्मतत्त्व वैसा ही शुद्ध जानो । यही जिन शासनका सार है । इस शुद्ध आत्माका श्रद्धान ज्ञान व आचरण करना चाहिये। वस्तुतः श्रद्धान जान आचरण भी आत्मा ही है । यद्यपि यह आत्मा स्वभावसे ही ज्ञानमय है किन्तु इसकी निजतत्वपर दृष्टि नहीं हुई अतः इसकी उपासनाका आदेश दिया गया है। समयसारका परिचय न होने से जीवको दृष्टि कर्म, शरीर व विभावमें "यह मैं हूं पाये मेरे हैं" ऐसी मान्यताकी हो जाती है; और जबतक ऐसी दृष्टि रहती है तबतक यह जीव अज्ञानी कहलाता है। इतना ही नहीं waratatah भूत, भविष्यत्‌का भी परिग्रह लगा रहता है। अज्ञानीके यह धारणा रहती है कि शरीरादिक में हूं ये मेरे हैं, मैं इनका हूँ ये मेरे थे, में इनका था, ये मेरे होंगे, मैं इनका होऊंगा इत्यादि । ( ११ ) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु शरीरादिक अजीव पदार्थ व चेतन आत्मा एक कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि जीव तो ज्ञानलक्षण वाला है और अजीव ज्ञानरहित है । हे आत्मन् ! तू शरीर नहीं है, किन्तु शरीरका अभी पड़ोसी है, शरीर से भिन्न उपयोग - स्वरूप अपने आरमाको देख चूंकि जीवलोकको इस शरीररूपमें ही जीवका परिचय रहा है और कभी धर्म भी चला तो इसी पद्धति से । इसी कारण उक्त उपदेशकी बात सुनते ही कोई शिष्य पूछता है कि प्रभो ! शरीरसे भिन्न आत्मा कहाँ है ? शरीर ही जीव है, यदि शरीर हो जीत न होता तो तीर्थंकर देवकी जो ऐसी स्तुति की जाती है कि आपकी कांति दसों दिशाओं में फैल जाती है, आपका रूप बड़ा मनोहारी है, आपके १००८ शुभ लक्षण हैं, इत्यादि सब स्तुति मिथ्या हो जायेगी तथा आचार्य परमेष्ठीको जो स्तुति की जाती है कि आप देण, जाति व काल से शुद्ध है, शुद्ध मन, वचन, काय वाले हैं वही स्मृति भिया हो जायेगी । इसका पूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य उत्तर देते हैं व्यवहारनयसे तो देह व जीवका संयोग परन्तु निश्चयनवसे जीव ही जीव है. देह् न दो प्रकार के होते हैं (१) व्यवहारमय ( २ ) निश्चयनय । बन्ध है; इसलिये देह व जीव कथंचित् एकत्व मान लिया जाता है, जीव हो ही नहीं सकता । शरीरकी स्तुति से आत्माकी स्तुति व्यवहाररूपसे कथंचित् हो सकती है, निश्चयन्यसे तो शरीर के गुण आत्मा के कुछ नहीं है; इसलिये शरीरकी स्तुतिसे आत्माकी स्तुति नहीं होती, आत्माकी स्तुति से ही आत्माकी स्तुति होती है । यहाँ यह अवश्य जान लेना चाहिये कि जो आत्मा आत्मस्वरूपसे बिलकुल अपरिचित है उसके लिये तो व्यवहारनयसे भी स्तुति नहीं कहला सकती । freeतुति किस प्रकार हो सकती है इस विषयपर आते हैं । चूंकि यह निश्चयस्तुति है, इसलिये जो भी विशुद्ध स्थिति कही जावेगी वह आत्माकी ही कही जावेगी । आचार्य पूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्द प्रभुके द्वारा कही हुई निश्चय स्तुतिका साथ पूज्य श्री अमृतचन्द्रजी सूरि व्यक्त करते है :- जिन्होंने असंग, अखण्ड चैतन्य स्वभाव के अव लम्बन द्वारा शेय पदार्थोंसे, भावेन्द्रियोंसे व द्रव्यन्द्रियोंसे पृथक् अपनी प्रतीति करके इन्द्रियोंको जीतकर स्वभावमय अपनेको माना है वे जितेन्द्रिय जिन कहलाते हैं। जो द्रव्यमोह व भावमोहसे अलग अपने आत्मा को अपने में सेने के द्वारा मोहको जीतकर परमार्थ सद्रूप ज्ञानस्वभाषमय अपने आत्माको अनुभवते हैं, वे जितमोह कहलाते हैं । ( पुनश्च ) उक्त प्रकार से मोहको जीत लेनेवासे निर्मल आत्माके मोह ऐसा समूल नष्ट हो जाता है कि फिर कभी भी उसका प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। ऐसी उन निर्मस आत्माको क्षीण-मोह कहते हैं 1 सवंश, सर्वदर्शी, सहजानन्दमय इस्मादि स्तुति भी निश्चय स्तुति कहलाती है । इन्द्रियोंका विजय आत्मज्ञानसे ही है। वस्तुतः त्याग ज्ञानस्वरूप ही है, क्योंकि परको पर जानकर ही त्याग किया जाता है व पर तो भिन्न है ही मान्यता में एक कर रक्खा था सो सच्चा ज्ञान करना ही उसका त्याग है । इस प्रकार प्रासंगिक स्तुति के बाद अन्त में दिखाया है कि सम्यज्ञानीकी अन्तर्भावना ऐसी होती हैमोह मेरा कुछ नहीं है, मैं तो एक उपयोगमात्र हूं, शेमाकार व शेय पदार्थ मेरा कुछ नहीं है, में तो एक उपयोगमात्र हूं, मैं एक (केवल) हूं, शद्ध है, दमनज्ञानमय हूं, अमूर्त हूँ और अन्य कुछ परमाणुमात्र भी मेरा कुछ भी नहीं है। प्रजीवाधिकार इस अधिकारमें उन सब भावोंको भी अजीव बतलाया है जो जीव स्वरूपम नही अतः अजीव आत्माको नहीं जानने वाले अतएव परभावोंको आस्मा मानने वालोंकी विभिन्न धारणायें है। कोई तो राग-द्वेषको, कोई राग द्वेषके संस्कारको, कोई कर्मको, कोई ritesो, कोई कर्मफलको, कोई सुख दुखको, कोई आत्मा व कर्मको मिलावटको इत्यादि अनेक प्रकारसे जीव मानते हैं, किन्तु ये सब जीव नहीं हैं; क्योंकि ये सवं या तो पुद्गलद्रव्यके परिणमन है या कर्मरूप मुलद्रव्यके निमित्तसे हुए परिणमन हैं । . में अजीव द्रव्य तो है ही, साथ ही औपाधिक भाव भी अजीव है । इस अवसर में यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि फिर तो जीवसमास, गुणस्थान भादि की चर्चा भगवा स-स्थावर भेद वाले जीव मानना यह सब जैन शास्त्रोंमें क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर यह है कि यह स ( १२ ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यवहारका उपदेश है, जो कि तीर्थकी प्रव सिके निमित्त बतलाना आवश्यक ही है। अन्यथा षटकायके जीवपर्यायोंको अजीव मानकर जितना चाहे मदित कर दिया जाये, हिसा नहीं होनी चाहिये । फिर तो हिसाके अभाव में बन्धका अभाव व बन्धके अभाव में मोक्षका भी अभाव हो जायेगा अथवा उच्छा खलता आ जायेगी। हाँ निर्विकल्प समाधि के उद्यममें तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही जीव है, अवशिष्ट भाव सब अजीब हैं, इसी दर प्रतीतिसे काम चलेगा। बस्ततः जीवका लक्षण चेतना है। जीव वर्ण, मन्धरस, और स्पर्श, शब्दसे रहिस है। जीव वाब चिन्ह से ग्रहणमें नहीं आ सकता । जीवका सहज निघत संस्थान भी कोई नहीं है । तात्पर्य यह है कि चैतन्य भाषके अतिरिक्त अन्य सब भाव अजीव हैं। इसी कारण जीवके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मूर्तिकता, शरीर, संस्थान संहमन (अस्थिपिंजर) राग, द्वेष, मोह, कर्म, शरीर, विचार, योग, बन्ध, उदय, संकलेश, विशुद्धि आदि कुछ नहीं हैं। ये सब व्यवहारनयसे जीवके कहे गये हैं । व्यवहारनय विरोधक नहीं, किन्तु श्यवहार नय भी वस्तु के किन्हीं भावोंके जानने का एक तरीका है। जैसे कि जिस रास्ते में चलते हुए मुसाफिरों को डाकुओं द्वारा लूटा जाता हो, लोग उस रास्तेको "यह रास्ता लूट लिया जाता है" ऐसा कह देते हैं। परन्तु वास्तव में रास्ता क्या लटेगा, फिर भी व्यवहारसे ऐसा तो कहा ही जाता है, क्योंकि लटने वाले उस रास्ते में होते हैं। इसी प्रकार जीवमें बन्धपर्यायसे स्थित कर्म व शरीरके वर्ण बादिको जानकर व्यवहारमयसे कहा जाता है कि जीव में वर्णादिक है। वस्तुत: जीवमें वांदिका कुछ भी तादात्म्य नहीं है। यदि जीव के साथ वर्णादिका तादात्म्य मान लिया जाता है तब तो अनेक अनिष्टापत्तियों आती हैं जैसे कि (१) वर्णादिका जिसके साथ तादात्म्य है वह तो पुद्गल कहलाता है, यदि कभी संसारी जीव मुक्त हो तो यही माना जायेगा कि पुदगलको मोक्ष हो गया । (२) जीव अजीवका कोई भेद नहीं रहा; तो जीव का ही अभाव हो गया इत्यादि। इस प्रकार यह सिद्ध हआ कि जिनका पूगल उपादान है वे परिणमन व जिनका पदगल कार्य निमित्त है ये परिण मन ये सब कोई भी परमार्थसे जीवके नहीं है। इन्हें अजीब कहा गया है। कत कर्माधिकार अधिकार गाथामें यद्यपि क-कर्मभाव अधिकारकी कोई सपना नहीं है, तो भी जीवाजीवाधिकार के पश्चात् व आस्रव अधिकारके पहले कल कम अधिकारका कहना यह दिखाने के लिये आवश्यक हुआ है कि जब नीव और अजीप स्वतन्त्र द्रव्य है तब जीव व अजीवके सम्बन्ध वध पर्याय कैसे हो जाती है? इसका उत्तर कर्नु फर्माधिकार में किया गया है । जीव व अजीवका सम्बन्ध धन्ध पर्याय कैसे मिट सकती है इसका उत्तर भी उसा दिया गया है। जब तक जीव निज-सहज-स्वरूप ध क्रोधादि औपाधिक भावों में अन्तर नहीं जानता है तब तक क्रोधादि भावाका निज स्वरूपमें जानने के कारण उनमें जीवकी प्रवत्ति होगीठी और क्रोधादिमें वर्तने वाले इस जीवक नामत्तनैमित्तिक सम्बन्धके वशसे पुद्गल कम (अजीव) का संचय हो जाता है। परगल कर्मके आनेका नाम अजीवावध है और जीवमें जो ये क्रोधादिक भाव हये हैं उनका नाम जीवास्रव है। यहां एक प्रश्न हो सकता है कि अजीवास्रवका निमित्त तो निज परमें परस्पर कतकर्मभावकी मान्यता है, इस कतै कर्मभावकी मान्यता में क्या निमित्त है ? उत्तरइस कन-कर्मभावकी मान्यता में पूर्वबद्ध अजीब कर्मका उदय निमित्त है। प्रश्न-इस कर्मास्रव में क्या निमित्त हमा था? उत्तरः- इस कमसिव में पूर्वका स्वपरका कन-कर्म भाव निमित्त हा था। इस प्रकार यह अनादिप्रबाहक्रम चला थापा है। इस स्वपरकर्तृकर्मभाव की प्रवृति भी अनादिसे पली माई है। यद्यपि यहाँ ऐसा सम्बन्ध है कि जीव के परिणामको हेलू पाकर पुदगल कामोणमा गामको हेतु पाकर पुदगल कार्माणमणायें कर्मरूपसे परिणम जाती है और पुदगल कर्मके उदयको निमित्त पाकर जोबके ऐसे परिणाम हो जाते है, तो भी जीव व पुदगल का परस्पर कतं कर्मभाव नहीं है, क्योंकि जीवन तो पुदगलकमका कोई गण या परिणमन करता है और न पुद्गल कम जीवका कोई गुण या परिणमन करता है । केवल अन्योन्यनिमित्त से दोनोंका परिणमन हो जाता है। इस ही निमित्त-नैमित्तिक-सम्बन्धके कारण व्यवहारनयसे 'जीब पवगलकम (वष्यासक) का कर्ता' और 'पूदगल जीवाम्रवका का' कहा जाता है। जीवमें अनुभवनशक्ति है, सो वस्तुतः पूदगलकमके उदयको निमित्त पाकर श्रीव अपने में आनन्द-श्रद्धा-पारिवादि गुणोंको विकृत परिणमनरूपसे भोगता है तो भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्धके Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु जीव पुदगलकर्मको भोगता है यह भी व्यवहारममसे कहा जाता है। परमार्थसे जीव न तो पुदगल कर्मको करतो है पोर न पुदगलकमको भोगता है; क्योंकि यदि जीष पुद्गल कर्मको भी करे व भोगे तो एक तो जीव ने अपने परिणामको किया व भोगा और दूसरे पुद्गल कमको भी किया च भोगा तो इस तरह जीव दो दृष्योंकी क्रियाका कर्ता बन जायेगा । ऐसा होनेपर कि क्रियाका उस काल में तादात्म्य रहता है, इस कारण जीव व अजीवमें भेद नहीं रहा अथवा जीव अजीवमें से एकका अथवादोनोंका अभाव हो जायेगा इत्यादि अनेक अनिष्टापत्तियां हो जायेगी। एक वृष्य दो प्रख्योंकी क्रियाका कर्ता है, ऐसा अन भय करने वाला जीव सम्यग्दृष्टि नहीं, किन्तु मिथ्याष्टि है। अर्थात बस्तुस्वरूपसे विपरीत ष्टिवाला है। कर्म उपाधि के निमित्तसे होने वाले कोधादिक औपाधिक भाव हैं, उनका भी जीव सहज भावसे याने उपाधिको निमित्त पाये बिना कर्ता नहीं है । इन क्रोधादिक परभावोंका काम लो जीव है और न कम; किन्तु कमके निमिससे जीवके उपादान में कोधादिक परिणमन होता है। जीव निज, सहज, चैतन्य स्वरूप व क्रोधादि परभावोंमें अन्तर नहीं समझता। इसी कारण यह बन्ध होता है यह मोलिक प्रकृत बात सिद्ध हुई। अब जिज्ञासा होती है कि इस बन्धका अभाव कैसे हो? समाधान-जीवकी परमायके प्रति किमंकी प्रवृत्ति होनेसे बन्ध होता था । जब कर्ता-कमकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है तब बन्धका भी अभाव हो जाता है। प्रपन:- इस कर्ता-कर्मप्रवृतिका अभाव कैसे हो जाता है ? उत्तर:-अब यह जीव आत्मामें व परभावमें इस प्रकार से अन्तर जान लेता है कि वस्तु स्वभावमात्र होती है, मैं बस्तु हूं, सो मैं भी स्वभावमात्र इं। स्वभाव कहते हैं स्वके होनेको, मैं स्वज्ञानमय है। सो जितना ज्ञानका होना है सो तो मै आत्मा है और क्रोधादिका होना कोधादि है, आत्मा (स्ब) व कोधादि-आम्रवों में एकवस्तुता नहीं है । जब जीव ऐसा आत्मा व आखवमें अन्तर जान लेता है तभी कर्माकर्मकी प्रवृत्ति दूर हो जाती है और कर्ता-कर्मकी प्रवृत्ति दूर होनेपर पुद्गल कर्मबन्ध भी दूर हो जाता है। आत्मा और अनारमा के भेदविज्ञानसे उसी कालमें आरवी निवृत्ति होने लगती है । जानी जीवके इस प्रकारका विशद ज्ञान प्रकट रहता है-मैं आत्मा सहज पवित्र हूं, ज्ञानस्वभाबी हूं. दुःखका अकारण हूं, समई, नित्य है, म्वयंशरण समस्या : ये साव, अमीन है, विरुद्ध स्वभाववाले हैं, दुःख के कारण हैं, विषम हैं, अनित्य हैं, अभरण हैं, दुःखस्वरूप है और इनका दुख ही फल है। मैं एक हूं, शुद्ध हं, मोह रागादि परभावरहित हूं, ज्ञानदर्शनमय हूं, मैं (आत्मा) कर्मके परिणमनको व नोकर्मके परिणमनको नहीं करता है। पुद्गलकर्भ परद्रव्य है। मैं परद्रध्यका झायक तो हूं, किन्तु पर परद्रब्धमें व्यापक नहीं है। अतएव परद्रव्यकी पर्यावरूपसे परिणमता नहीं हूं अर्थात् में परद्र ब्यकी परिणति का कर्ता नहीं हूँ। मैं पुदगलकमके फल सुख दुःखादिको जान तो सकता हूं, किन्तु पुद्गलकमको परिणतिका कर्ता नहीं ई । इसी प्रकार पुद्गल कर्म भी मेरा कर्ता नहीं है। ___ अशुद्ध-निश्चयनय से आत्मा तो मात्र अपने अशुद्ध भावका कर्ता है, उसको निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य कमरूप से स्वयं परिणम जाता है । जैसे कि हवाके चलनेके निमित्तसे समुद्र में तरंग उठती है । निश्चयसे तरंगोंका कर्ता तो समुद्र ही है, हवा तो उसमें निमित्त है। हवामें हवाका कार्य है । समुद्र में समुद्र की परिणति है। प्रत्येक द्रव्यको स्वतन्त्र सत्तात्मकताके ज्ञान से कर्मबन्ध हकता है और परको आत्मा मानने व आत्माको पररूप माननेसे कर्मका बंध होता है । अथबा परको आत्मा माननेवाला अज्ञानी जीव कमका कर्ता होता है। वस्तुत: तो अज्ञानी भी कर्मका कता नहीं है, परन्तु अपने अशुद्ध भावका कर्ता है। उस अशद्धमावको निमित्त पाकर कर्मका आस्रव स्वयं हो जाता है। वस्तुत: कर्मासवका निमित्तरूपसे भी जीव का नहीं है, किन्तु उसके योग व उपयोग जो कि अनित्य हैं, वे अनित्य परिणमन हो वहाँ निमित्त हैं। क्योंकि यह वातस्त्रभाव अटल है कि कोई द्रव्य किसी अन्य दृष्य के रूप या अन्यके गुण-पर्याय रूप नहीं हो सकता। इसलिये यह सुप्रसिद्ध हुआ कि आत्मा पुद्गलकमका का नहीं है। यहाँ दो रष्टियोंसे यह निर्णय करना चाहिये-(१) निश्चयनयसे जीव पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है। (२) व्यवहारनपसे जीव पुद्गलकर्मका कसा है । (१) निश्यचयनयसे जोन पुद्गलकर्मका भोक्ता नहीं है । (२) व्यवहारनवसे जीव पुद्गलकर्मका मोक्ता है । (१) निश्चयनयसे जीवमें पुद्गलकर्म बद्ध नहीं है । (२) व्यवहारनयसे Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव, पुद्गलकर्ष बद्ध है (१) मिश्चपनयसे जीवमें राग-द्वेषादि नहीं है । (२) व्यवहारनयसे जीवमें राग द्वेषादि है । (१) निश्चयनयसे जीव पुद्गलके परिणमनका निमित्त नहीं है । (२) व्यवहारमयसे जीव पुद्गलके परिणमनका निमित्त है । इत्यादि अनेक चर्चाये दोनों नयों से स्पष्ट कर लेनी चाहिये पश्चात् समयसारके अनुभव के उद्यममें दोनों ही नयपक्षों को ग्रहण नहीं करना चाहिये । जैसे कि पूर्ण निर्मल, देवाधिदेव, सर्वज्ञ परमात्मा विमानधन - भूत होने के कारण नयपक्षके परिग्रहसे दूर होनेसे किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते हैं, इसी प्रकार जिनसंज्ञक निर्मल सम्यग्दष्टि तत्वज्ञानी, अन्तरात्मा श्रुतज्ञानात्मक विकल्प वाले होकर भी परिप्रहके प्रति उत्सुकतासे निवृत होने के कारण विकल्प-शूमिका से दूर होकर स्वरूपको ही जानते हैं और किसी भी मयपक्षको ग्रहण नहीं करते हैं, वे ही समयसारका अनुभव करते हैं। पुण्य-पापाधिकार मोह व रागद्वेषकी प्रवृतिके निमित्तसे जिन कोका आश्रय हुआ, उनमें से कारणभूत, अभ-अशुभ योग उपयोग के अनुकूल कोई कर्म शुभ प्रकृति के (पुण्यरूप) व कोई अशुभ प्रकृतिके (पापरूप) हो जाते हैं। होओ, फिर भी चाहे पुण्य कर्म (राशील कर्म) हों; चाहे पाप-कर्म (कुशील कर्म) हो; सभी वस्तुतः कुशील ही हैं, क्योंकि सभी कम संसारमार्गके निमित्त हैं। जैसे कि चाहे सुवर्णवी बेड़ी हो, चाहे लोहेकी बेडी हो, कंदीके लिये दोनों भारभूत हैं। इसलिये दोनों प्रकार के कर्मों को बंधमार्ग जानकर इनमें या इनके कारणभूत भावों में बाश्रयभूत विषयों में मन वचन कारसे राग घ संसर्ग छोड़ देना चाहिये । रागी जोय कर्मों को बांधता है व विरागी-आत्मा कोसे छूट जाता है, इसलिए चाहे शुभ कर्म हो, चाहे अशुभ कर्म हो किसी भी कर्ममें राग मत करो। जैसे उनके हाथोको फंसाने के लिये शिकारी लोग एक गड़गर बांस व कागजकी बड़ी सुन्दर एक हथिनी बनाते हैं और सामने एक मूठा हाथी। बनहस्ती हुधिनी के ग्राम में व दूसरे हाथोको विषय-वाचक जान कर उससे षके कारण शीच वहां आता है और गड्ढे में गिर जाता है । तो उस हाथीको गड्ढेका अज्ञानरूप मोह था व समंदर हथिनीका राग या दूसरे हाथीसे वेष था। इस तरह मोह-राग द्वेष वश हाथीने विपसि हो पाई। पुण्यकर्म भी मूठी सुन्दर हधिनीके समान विपत्तिमें निमित्त बन जाता है। इसलिरे किसी भी कर्ममें राग मत करो। मोह-राग द्वेष ये सभी अज्ञानके विविश्व रूप है । ये भाव जाननेका कार्य नहीं करते, इसलिये भी अजानरूप हैं। अमानमात्र बंधका हेतु है, वे ज्ञानभाव मोक्षका हेतु है। परमार्थ मृत ज्ञान होने पर बाय प्रत नियम तपकी विशेषता हो तो भी ज्ञान मोक्षका कारण है। जो परमार्यभूत समयसारसे अपरिचित हैं ये ही केवल अशुभ कों को ही बग्धका कारण जानकर व शुभ कमको मोक्षका कारण जानकर पूण्य कर्मकी चाह करते है। सब हो कर्म मोक्षके हेतभूत सम्यक्त्व, ज्ञान व परित्रका तिरोभाव करने वाले हैं। इसलिये ज्ञानमाव मोक्षका अर्थात् पूर्ण विकासका हेतु है । अत: सर्व कर्मों का राग छोड़कर एक निजज्ञापक स्वभावकी उपासना करना शान्तिका (मोक्ष का) मार्ग है। प्राखवाधिकार विकृतरूपसे आनेको आसव कहते हैं । आम्रवभाव जीवके राग तूष मोह भाव हैं। इनको निमित्त पाकर पौगलिक कार्माणवर्गणाओंमें पी विकारकी प्रकृति बनती है। इसलिये आस्रवका परिणाम होनेसे इन पौदगलिक वर्गणाओं में कर्मद आने को भी आस्रव कहते हैं। राग देष मोह भाव अज्ञानमयशय परिणाम हैं। अज्ञानमय परिणाम अज्ञानी जीवके होते हैं । ज्ञानीके ज्ञाममय परिणाम होते हैं। ज्ञानमय परिणामोंके द्वारा अज्ञानमय परिणामोंका निरोष हो जाता है। अत: जानी जीवके ज्ञानमय रा आसमका निरोध हो जाता है। अतश्च पदगलकमका बंध नहीं होता. पयोंकि शानमय परिणाम हो फर्तृत्वबुद्धि में प्रेरक होता है, ज्ञानमय परिणाम तो स्वभावका हो उद्भासक है, उससे बन्ध कैसे हो सकता है। (१५) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . पहाँ कोई पुरुष ऐसे शंकाल हो सकते हैं, कि सम्यग्दष्टि ज्ञानी जीवके भी तो दावें गुणस्थान तक बन्ध चलता है, फिर ज्ञानीको प्रबन्धक कसे कहा गया है? सो उन्हें तीन प्रकारसे बात जानकर अपना चित्त समाधान रूप कर लेना चाहिये । (१) जिस गुणस्थानमें जितनी प्रकृतियोंका बन्न नहीं होता है, उतनी प्रकृतियों की अपेक्षा उन्हें अवन्धक समक्षना, (२) जो भी किंचित् बंध होता है वह संसारपृद्धिको सामथ्यं नहीं रखता, इसलिये अबन्धसम ही समझना । (३) ज्ञानी विशेषण कहने से उसको केवल ज्ञानपरिणमनरूपसे ही देखना, अन्य परिणमनरूपसे नहीं देखना । तब तो यह पूर्ण सिद्ध है कि शानीले किचिन्मात्र भी बंध नहीं होता। जानी जीत्रके पूर्वसंचित कर्म उदयमें आ ते हैं, नवीन वाले काम नहीं इनते, मोति जानीके विभावये राग नहीं रहा । ज्ञानी जीवके जो भो अंध चलता है वह जानकी जघन्यतासे अनुमीयमान शेष रहे अबुद्धिपूर्वक रागके कारण होता है । अतः कर्तव्य तो यही है कि तबतक ज्ञानको अनवरत उपासना करना चाहिए, जबतक ज्ञानका पूर्ण विकास न हो। शुद्धनपके विषयभूत समयसारसे व्युत रहकर या होकर जीव रागादि परिणामसे संकीर्ण हो जाता है और उसके निमित्तसे पुद्गल-कर्मवर्गणाएं स्वयं बंधरूपसे परिणम जाती है। जैसे किसी पुरुषने आहार ग्रहण किया, यह तो उसका बद्धिपूर्वक कार्य हुआ। अब आगे बह आहार स्वयं रस, रुधिर, मल आदि रूप परिणम आता है और जो विपाक होना होता है, होता है । यह सब निमित्त-नैमित्तिक भाववश होता ही है। यदि कोई आसक्तिसे आहार ग्रहण करे तो उसे उसके फलमें आहार-विपाकके समय वेदना भोगनी पड़ती है। इसी तरह यदि कोई आसक्सिसे, मोहसे विभावरति करे तो तन्निमित्तक हुए कर्मबंधके परिपाकसमयमें वेदना भोगनी पड़ती है। इसलिये कहा जा सकता है कि 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेष कदाचन" । अत: कल्याणार्थीको अपने परिणाम सदा सावधान रखना चाहिए। संपराधिकार संबर नाम रुकने का है। रागादिभावोंके आगमन रुकने के या न आनेको संवर कहते है। इस रागादिके संवर के परिणाममें कोका आना भी रुक जाता है। अत: कमौका आना रुक जानेको भी संबर कहते हैं। संबर का उपाय भेदविज्ञान है । आत्मा तो शानमात्र है और शानभावके अतिरिक्त शेष सर्व औपाधिकभाव अनात्मा है। वहां अब यह देखना चाहिये किमानमें (उपयोगमें, अयवा आत्मामें कोषादिक औपाधिक भाव नहीं हैं और क्रोधादिक औपाधिक भावों में उपयोग नहीं हैं । कोषादिक तो क्रुध्यतादिक स्वरूपमें है और ज्ञान जानत्तारूपमें ही है । इस भेदवितानसे शुद्धारमाकी उपलब्धि होती है और शुद्धात्माकी उपसम्धिसे संवर होता है। शुद्धात्माको जानता हुआ आत्मा शुद्धात्मा को प्राप्त करता है और अशुद्ध आत्माको जानता हुआ आत्मा अपने को अशुद्ध ही पाता रहता है । शुद्धात्माको प्राप्ति व संत्ररका बुद्धिपूर्वक व अबुधिपूर्वक उपाय यह है कि-शुभ तथा अशुभ योगमें प्रवतंते हुये अपने आपको प्रबल भदविज्ञानके उपयोग द्वारा इस प्रवर्तनसे रोके और शुद्ध चतन्या. स्मक निज आत्मतत्व में प्रतिष्ठित करे। फिर यह आत्मा इच्छा-रहित व संग-रहित होकर अपने आपके द्वारा अपने आत्माका ध्याता हो जाता है। उस समय एकत्व-विभक्त निज आत्माका ध्यान करता हुआ अर्थात चैतन्य चमत्कारमात्र आस्माका ध्यान करता हुआ निज अकलंक आत्माको प्राप्त करता है। यही संबरका प्रकार है व कमोसे मुक्त होने का उपाय है। तात्पर्य यह है कि भवविज्ञान से शुद्ध आत्मा की उपलब्धि होती है, शुद्ध आरमाकी उपलब्धि होनेसे अध्यवसानोंका अभाव होता है, अध्यवसानोंके अभाव होनेपर मोहका अभाव होता है, मोहझाव का अभाव होनेपर रागद्वेषभाव का अभाव हो जाता है, राग-द्वेष का अभाव होने पर कर्मका अभाव हो जाता है, कर्मका अभाव होनेपर सदा के लिये शरीरका अभाव हो जाता है और शरीरका अभाव होनेपर संसारका अभाव हो जाता है। संसार ही Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख है, सो दुःखोंका अत्यन्लाभाव हो जाता है। इसलिये भेदविज्ञानकी तब तक निरन्तर भावना करनी चाहिये जब तक कि ज्ञान परसे बिलकुल न हट जावे और ज्ञान में ही प्रतिष्ठित न हो जाये। निराधिकार विकार के झड़नेका नाम निर्जरा है। निर्जरा दो प्रकार की है-(१) भावनिर्जरा (२) थ्यनिर्जरा-सुखदुःख राग द्वेषादि बिभाय जो उदित हए, वे बंधने कारण न बनें और झड़ जावें इसका नाम तो भावनिर्जरा है और इसी कारण अन्य बंधका कारण न बन कर काँका व अन्य कमोका निष्फल झड़ जाना सो दृष्य-निर्जरा है। । ज्ञानका ऐसा ही सामथ्र्य है कि कर्मविपाकको भोगता हआ भी ज्ञानी कोसे नहीं बॅघता है। जैसे कि ताधिक, मान्त्रिक अथवा विषवंद्य पुरुष विषको खाता हुआ भी मरणको प्राप्त नहीं होता। वैराग्य में भी ऐसा ही सामर्थ्य हैं । वस्तुत: ज्ञान और पैराग्य अलग-अलग तश्क नहीं है, विधिरूपसे देसनेपर ज्ञान प्रतिष्ठित है और रागनिषेधको ओरसे देखनेपर वैराग्य प्रतिष्ठित है। सम्यग्दृष्टिका मुख्य विषार एक यह भी रहता है कि जो लोभ क्रोधादि प्रकृति वाले कर्म होते हैं, उन कमौके उदयके निमितसे उत्पन्न हुये रामाविक भाव परभाव हैं। ये मेरे स्वभाष नहीं हैं। मैं तो टंकोरकीर्णवत् निश्चल स्वतः सिद्ध एक शापक स्वभावरूप हूं। इस विचार-बलसे नानी परभाघोंसे विरक्त रहकर उनको छोड़ देता है। रागादिभाद बाराका स्वपद नहीं , पय विजय ही भान अत्यनावके विरुद्ध है, विषम है. अनेकरूप हैं, क्षणिक हैं और व्यभिचारी हैं। कभी कोई भाव रहे, कभी कोई भाव न रहे, दूसरा रहे। इस कारण स्थायी रूपसे आस्मामें स्थान नहीं पाते अर्थात् अस्थायी है। किन्तु ज्ञानस्वभाव आत्माका स्वपद है; क्योंकि यह वानस्वभाव आत्मस्वभाव है, सम अर्थात् नियत है, एकरूप है, नित्य है । अव्यभिचारी अर्थात सनबरत सदा आत्मसमें रहता है। इस ही कारण ज्ञानस्वभाव स्थायीरूपसे आत्मामें स्थान पाता है। इसलिए है आत्मनु ! इस एक ज्ञानस्वभावका ही अनुभव करो। जिसमें रंचमात्र भी विपत्ति नहीं रहती। इस ज्ञानस्वभावके जितने परिणमन है, उन परिणमनोंके ज्ञान-द्वारसे परिपूर्ण ज्ञानस्वभावको ही देखो । इस शानभावके आश्रयसे ही शानकी प्राप्ति है, अन्य क्रियाओंसे नहीं। इस ज्ञानभावके आश्रयके बिना महान तपों का भार भी सहे तो भी मुक्ति नहीं होती। झानोपयोगी आत्मा निष्परिग्रह है, क्योंकि परिग्रह तो वास्तव में इच्छा ही है, सो ज्ञानीके इच्छाका आदर ही न राग ही नहीं, केवल इच्छाका ही नहीं, किन्तु समस्त विभावोंका जानीके ममत्व नहीं, बादर नहीं, ज्ञानी किसी भी परमावको नहीं चाहता । इसी कारण बाह्य विषयोंकी चाह नहीं। ज्ञानी आत्मा प्रतीत भोगोंका तो ख्याल ही क्या करेगा, वह तो वर्तमान गोगोंमें भी वियोगबुद्धिसे प्रवमान हो रहा है। यो वियोगधुद्धिसे रहे, वह परिमही नहीं है। भविष्यत् भोयकी चाहभी अनेक कारणोंसे शालीक नहीं है (१) ज्ञानीके बस्तुस्वभावकी ओर इष्टि रहा करती है सो निदानको अवसर ही नहीं मिलता। (२) वस्तुस्वातंत्र्यकी प्रतीतिके कारण किसी भी बाह्य पदार्थसे शानीको हितकी आशा ही नहीं है। (३) ज्ञानीके यह दढ़ निश्चय है कि इच्छाभाव व भोगभाव में दोनों भाव एक समय में हो ही नहीं सकते; क्योंकि जब किसी वस्तुकी चाह है तब तो उस वस्तुका भोग नहीं और कदाचित् उस वस्तुका भोग हो तो तद्विषयक चाह नहीं कि यह मिल जावे। अब इच्छा न भोग दोनों एक समयमें मिल नहीं सकते तो फिर चाह ही क्यों की जाये। मानी आत्मा सर्व प्रकारके राग-रसका छोड़नेवासा होता है। इसी कारण कोई भाभी कभके मध्य भी पड़ा हो, तो भी कर्मसे लिप्त नहीं होता। जैसे कि सुवर्णका जंगसे लिप जानेका स्वभाग नहीं है, तो कीचड़के बीच पड़ा हा सोना जंग नहीं खाता। लोहका जंगसे लिप जानेका स्वभाव है, सो कीचड़के बीच पडा हा लोहा जंग खा Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। इसी तरह अज्ञानी बीय राग-रससे लिप्त हो जाने की प्रकृति वाला है, सो कममध्य पड़ा हुआ कर्म से निप्त रहता है। ज्ञानीका मुख्य चिन्हें काथनाका अभाव है। कोई सोचे...मज्ञानी तं, मुझे भोग भी कर्मबंध नहीं होता, अरे यदि कामना बनी हुई है तो उसक बने रहने से कर्मबंधमें फरक नहीं आता, कर्मबन्ध होता हो है : ज्ञानीके भोग में भी कर्मबन्ध नहीं यह मात्र कह की चीज नहीं है । ज्ञानरूप प्रसौसिके परिणगनेकी करामात है। सभ्यदृष्टिका परिणमन कैसे होता है इस विषधको संक्षेपमें कहा जाय तो उसका अब्द अंगों द्वारा वर्णन होता है । सम्पष्टिके अंग ८ है-(१) निःशंकित (२) नि.कानिस (३) निविचिकिस्सिन (४) अमूदृष्टि (५.) उपमूहन (६) स्थितिकरण () वात्सल्य और (4) प्रभावना ।। नि:शंकित.- ज्ञानी आत्मा गाता प्रकार के भय रहित होने में बयथार्थ बम्न स्वरूपकी यथार्थ प्रतीतिके कारण सदा निःशंफ रहता है। जानी जीवको इहलोकभय नहीं रहता कि इस जीवन का कसे गुजारा होगा, क्योंकि शांनीको दष्टि है कि मेरा लोक तासन्य है इसका मुजारा याने परिणमन तो निर्वाध होता ही रहेगा। ज्ञानी जीवके परलोकभय नहीं रहता कि परलोक में मेरा कैसे गुजारा होगा; क्योंकि ज्ञानी की दृष्टि है कि चैतन्य हो मेगा परलोक है उसका गुजारा भी निर्वाध होगा। ज्ञानी जीवक वेदनाभय नहीं होता कि इस रोगसे मेरी वेदना (अनभूति) कैसी होगी; क्योंकि ज्ञानीकी दृष्टि है कि यह अविचल ज्ञान स्वयं देखा जा रहा है, यही मेरी वेदना है, यह अन्य वस्तुसे नहीं होती। मानी जीवके अरक्षाभय नहीं होता कि मेरी कोई रक्षा नहीं है, कभी मेरा नाश न हो जाय; बयोंकि जानी आत्माको दुष्टि है कि जो सत् है ससका नाश नहीं होता, सह स्वयं सुरक्षित है, मैं भी सत् हूं: अतः सुरक्षित हूं । ज्ञानी जीवके अगुप्तिभय नहीं होता कि मेरा कोई गुप्त स्थान (किला आदि सब स्थान) नहीं है, कोई मुझे बाधा देने न आ जाये। क्योंकि ज्ञानी जीवकी दृष्टि है कि मेरा स्वरूप ही मेरी गुप्ति हैं उसमें परका प्रवेश ही नहीं हो सकता । ज्ञानी जीव के भरण-भय नहीं कि मेरे प्राण नष्ट न हो जायें, क्योंकि ज्ञानी आत्माकी यह दृष्टि है कि मेरा प्राण तो ज्ञान है, यह कभी नष्ट नहीं हो सकता । ज्ञानी जीवके आकस्मिक भय नहीं होता, कि मुझपर अकस्मात कोई आपत्ति न आ जाये क्योंकि ज्ञानी जीद की यह दृष्टि है कि मैं अनादि, अनन्त, अचल, स्वत:गिद्ध, ज्ञाममात्र हूं, मुझमें दूसरेका आक्रमण नहीं हो सकता । ज्ञानी जीवके वस्सुस्वरूपकी अविचल प्रतीति है, उसके भय कहाँस हो? वह तो नि:शंक स्वयं सहज ज्ञानका अनुभव करता है। इसलिये उसके शंकाजनित बंध नहीं होता, किन्तु निःशंक होनेसे निर्जरा ही होती है। निःकांक्षित--सम्यग्दष्टि जीबके सब प्रकारके कर्मों में कर्म के फलोंमें और भोगों में वाञ्छा नही रहती है, इसलिये उसके कांक्षाकृत बन्ध नहीं होता किन्तु निष्कांक्ष होनेसे निर्जरा होती है। निविचिकित्सित-सम्पन्दष्टि जीवके धर्मात्माओं के अनि शरीरकी सेवा में, धर्मात्माओं व समस्त वस्तुछो-में ग्लानि नही रहती और न कर्मविपाकस्वरूप सधा आदि विपत्तियों में वेदरूप परिणाम रहता है। इसलिये उसके विचिकित्साकृत बन्ध महीं होता; किन्तु निविचिकित्स होने से निर्जरा होती है। समष्टि ...-सम्परिट जीवके बम-विक किसी भी कभावमें व भाव वालों में समोह नही होता। इसलिये उसके मुष्टिकृत बन्ध नहीं है। किन्तु अयुष्टि होनेसे निर्जरा ही होती है। स्थितिकरण-उन्मार्गमें जाते हये स्वयको उन्माममें जानेसे रोक लेने व स्वयको स्वरूप में स्थित कर देनेसे एवं परको भी घर्भमें स्थित पर देने के निमित होनेसे ज्ञानी स्थितिकरण-युवत होता है, इसलिये उसके मार्ग-पतन-कृत बन्ध नहीं होता, किन्तु धर्मस्थितताके कारण निर्जरा ही होती है। वात्सल्य - रत्नवरको अपने में अभेदबुद्धिसे देखनेकी वत्सलता होने से व व्यवहारमें धर्मात्मा जनोंमें निश्छल पारसत्य होने से सम्यग्दृष्टि मार्गदरसल होते हैं। इसलिये उनके अवात्सत्यकृत बन्ध नहीं होता, किन्तु मागवत्सलताके कारण निर्जरा ही होती है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावना--ज्ञानशक्तिके विकाससे सम्यग्दष्टि प्रभावनाकारी होता है। अत: उसके अप्रभावमाकृत धन ही है; किन्तु ज्ञानप्रभावक होने से निर्जरा ही होती है। ज्ञानी पुष्प अपनी अलौकिक आध्यात्मिक बांके कारण पूर्ववस कर्मोकी निर्जरा करता है। वह निर्जरा मोक्ष तत्वका साधन है। निर्जराका फल मोक्ष है । 'मोक्ष बन्धपूर्वक है। अतः मोक्षतस्यके वर्णनसे पहले बन्धतत्वका वर्णन किया जा रहा है। बन्ध किस कारण होता है वह व्यक्त करने के लिये एक उदाहरण है। जैसे कोई मल्ल देह में तेल लगागर धूलभरी भूमिपर स्थित होकर तलवारसे कदली वंश आदि पेड़ों को काटता है। इस अवमरमें उसका देह धूलसे लिप्त हो जाता है। यहाँ विचार करो कि वह धल क्यों चिपट गई? क्या धलभरी भमिमें स्थित होने से धुल चिपट गई? नहीं । यदि धूलभरी भूमिमें स्थिति होने के कारण धूल विषष्टी होती तो अन्य कोई मल्ल जिसके देह में तेल न लगा हो वह उसी भूमिमें वैसा ही व्यायाम करे उसके तो नहीं निपटती। क्या शस्त्र चलाया इस कारण घूल विपटी नहीं, दूसरा भी तो वही शास्त्र चलाता है उसके सो नहीं चिपटती। क्या अक्षोंका घात करता है इस कारण चिपटी? नहीं, दुसरा महल भी तो घात करता है उसके क्यों नहीं चिपटती। निस्कर्ष यह है कि इन बाह्म साधनोंसे धन विपटी, किन्तु जो देह में स्नेह (तेल) लगा है, उसके कारण धूल चिपटी। इसी प्रकार अज्ञानी जीव रागादि करता हुआ कार्माण-दर्गणाओंसे व्याप्त लोकमें मन वचन कायकी चेष्टा करता हुआ अनेक प्रकारके साधनोंसे सजीव अजीब पदार्थोंका धात करता हुआ कर्मरो बंध जाता है। यहां विचार करो कि कर्म बंधने का कारण क्या है ? क्या यह बीव कार्माण वर्गणान्याप्त लोकमें स्थित है इस कारण कर्भ-बंध हुआ ? नहीं क्योंकि अरहंत सिद्ध भी तो ऐसे ही नोकमें हैं, उनके तो कर्मबंध नहीं होता। क्या मन वचन कायकी मेष्टा कर्मबंधका कारण है ? नहीं, क्योंकि ग्यारहवे, बारहवें, तेरहवें गूणस्थान वालोंके भी योगचेष्टा है, उनके तो कर्म नहीं बंधता। क्या अनेक उपकरण उसके पास है। इसलिये कर्म बंध होता है? नहीं, अरहंतदेवके समीप समवसरणादि महान वैभव है, उनके तो बंध नहीं होता। क्या घात होनेसे कर्म बंध होता है? नहीं, समिति-पूर्वक क्रिया करने वाले मुनि-देहसे सक्षम जन्तु-घात सम्भव है, उनके तो बन्ध नहीं होता। निष्कर्ष यह है, कि इन बाह्य साधनोंसे कर्मबन्ध नहीं होता, किन्तु उपयोग में जो रागादि (स्नेह) को ले जाना है वह कर्मबन्धका कारण है।। जो ज्ञानी रागादिको उपयोगभूमिमें चले जावे, ज्ञानस्वरूप रहे, यह कमसे नहीं बंधता। यहां विशेष यह जानना चाहिये कि रागसे जो बन्ध होता है वह संसारको दृद नहीं करता, किन्तु रागमें राग होने से जो बध होता है वह संसारको दृढ़ करता है । विकारमें लगाव होना मोह है, मोह कृतवन्ध संसारको दद करता है। अजानी जीवकी मान्यता परतन्त्रताकी रहती है। अज्ञानीके ऐसे भाव होते हैं कि मैं दूसरोंको मारता हूं, दूसरोंसे मारा जाता है, मैं दूसरोंको जिलाता हू, दूसरोंके द्वारा में जिलाया जाता हूं, मैं दूसरोंको सुख दुःख देला है, दूसरे मुझे सुख दुःख देते इत्यादिः किन्तु यह सब भाव मिश्या है। जीवोंका मरण उनके ही आयुकर्म के अयसे होता है । जीवोंका जीवन उनके ही आयु-कर्म के उदयरो होता है। सुख-दुख भी उनके ही कर्मके उदयसे होता है। किसी के विकल्पसे किसी अन्य जीवकी परिणति नहीं होती, विकल्प करके प्राणी कर्मबन्ध ही करता है। उन विकल्पोमें यदि वे विकल्प पापसम्बन्धी हो तो फापका बन्ध होता है । यदि दया त ता आदिके शुभ विकल्प हो तो पुका बन्ध होता है। बाह्य पदार्थ वन्धका कारण नहीं है। बन्धका कारण तो विकल्प है। विकल्पके आश्रयमन वाह्य पदार्थ हैं। भान-स्वभाव का अनुभव बन्धका टालनेवाला है ; परमार्थभूत ज्ञानभावके आश्रय बिना दुर्धर व्रत, तए भी निर्वाणके साधन नहीं होते, किन्तु कर्मबन्धके ही हेतु होते हैं। पर्यावद्धि जबतक रहती है तबतक जीव संसारका ही पाप होता है। मोक्षमागंकी सिद्धि उस ज्ञानी के कैसे हो सकती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नात्पर्य यह है कि निज आत्माको जायकस्त्रभावरूप स्वीकार किये बिना कितने भी विकल्प किये जायें उनसे मुक्ति नही होती. किन्तु बन्ध ही होता है। मैं साधु हूँ मुझे दया करनी चाहिये, सत्य बोलना चाहिये, परोह सहना चाहिये, व परीवह भी ऐसी सहे कि कोल्हूमें पिल जाय फिर भी उफ या क्रोध न करें। इन सब करामातोंके बावजूद भी चूँ कि अपनेको साधुपर्यायरूपमें ही प्रतीत किया है, जायकस्वरूपके अनुभव से अनभिज्ञ है, अतः पुण्य बंध तो होता है और मिथ्या आषाय के कारण वाप बंध भी होता है, किन्तु धर्मभाव, संवर व निर्जरा भाव नहीं होता है । अतः दुखों से मुक्ति पाने के लिए निज शुद्ध सनातन चित्स्वरूपका प्रज्ञा द्वारा परिचय प्राप्त करना चाहिये । मोक्षाधिकार आरिमा और बंधको यो रूप अर्थात् अलग अलग कर देनेका नाम मोक्ष है। आत्मा स्वभावरूप है। बंध विभावरूप है। स्वभावका विभाव परिणमन न रहकर स्वभावपरिणमन रहे, यही अवस्था मोल तत्वमें है । fear ही पुरुष बंधक चिन्तनपरिणामको मोक्षका कारण मानते हैं। वह ठीक नहीं; क्योंकि जैसे कि बेड़ी में बंधा हुआ पुरुष astrध स्वरूपको जानने मात्र से या बेडीबंधकी चिन्तामात्र से छुटकारा नही पाता, किन्तु बेड़ कटने से अर्थात् अलग होनेसे हो छुटकारा पाता है। इसी प्रकार कर्मबन्धसे बद्ध आत्मा बन्धका स्वरूप जाननेमात्रसे या अपायविदयधमंध्यान में ही बुद्धि लगाते मावसे कर्ममुक्त नहीं होता, किन्तु बन्ध अर्थात् विभावपरिणमनके अलग करनेसे ही कर्ममुक्त होता है । बन्धच्छेदका उपाय क्या ? प्रज्ञा । नियत स्वलक्षणका जो अबलम्बन करे ऐसे विज्ञानको प्रज्ञा कहते हैं । पहिले प्रज्ञासे यह निर्णय किया जाता है कि आत्माका स्वमश्रण चैतन्य है जो कि मात्मामें अनादि अनन्त तादात्म्यरूपसे है तथा बारमातिरिक्त किसी भी पदार्थ में कभी नहीं रहता; और वन्धका स्वलक्षण सगादिक है जो कि चैतन्यचमत्कार से अन्य तथा आत्मा में उपाधि-संयोगवश क्षण-क्षणको प्रतिभासते हैं व नष्ट होने का स्वभाव विकारक जान कर बन्धसे विश्वत हुआ जाता है और शुद्ध आत्मतत्वको आत्मस्वभाव जानकर उसको ग्रहण किया जाता है। यह ग्रहण अभिन्न चेतन-क्रिया द्वारा अभिन्न पकारक रूप में होता है । जैसे कि मैं चेतता हूँ, चेतयमान होता हुआ चेतता हूं, वेतमानको घेतता हूं, चेतमानके द्वारा चेतला हूं. चेतयमानके सिए चेतता हूँ, चेतयमान से चेतता हूं, वेतयमानमें चेतता हूं। पश्चात् अभेद चैतन्यको प्रस्तर उपासना में अभिन्न षट्कारक के सूक्ष्म विरूपका भी निषेध करके ( कि मैं न बेतता हूँ. न तयमान होता हुआ चेसता हूं, न चेतयमानको तता हूँ अवि रूपसे निषेध करके ) सर्वविशुद्ध चिन्मात्र हूं, ऐसा अनुभव होता है। इसी शुद्ध अनुभव के बल से बन्धस्छेद होता है; क्योंकि परभावका ग्रहण करना हो अपराध अर्थात् राम्र ( आत्मसिद्धि) से दूर रहने का भाव था. इस अपराधके दूर होनेपर बन्धको शंका ही सम्भव नहीं है । सर्वविशुद्धचिन्मात्र के अनुभवका परिणमन व्यवहार प्रतिक्रमण आदि भाव से भी उत्कृष्ट है और वस्तुतः प्रतिक्रमणादि व अज्ञानी जनों के अतिक्रमणादिसे विलक्षण यह सहज अप्रतिक्रमणादि तो अमृत है और वे दोनों विष है। सहज अतिक्रमणादि रूप तृतीय भूमिका सम्बन्ध हो द्रव्य प्रतिक्रमणादिको अमृतपना व्यवहारसे सिद्ध कराता है । इस प्रकार सर्व विशुद्धचिन्मय के अनुभवका परिणमन सर्वोत्कृष्ट परिणमन और यही मोक्षका हेतु है । सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार नवारक, अब अन्तमें सबके आधार भूत उसी पारिणामिकभावका पुनः विस्तारसे इम अधिकार में दर्शन किया गया है जिसकी कि सूचना पीठिकामें की गई थी। सम्यग्दर्शनका विषय शुद्धद्रव्य है। ज्ञानको समीचीनता भी शुद्ध द्रव्यके परिचयसे है। सम्यक्चारित्रका स्वरूप लाभ भी शुद्ध पके स्पर्शसे है । अतः बूंद अर्थात् आध्यात्मिक विकासका आश्रय ही शुद्ध आत्म-तम्ब है। यह शुद्ध मात्म-तत्त्व सर्व-विशुद्ध ज्ञानस्वरूप है अर्थात् यह शुद्ध बारमद्रव्य न तो किसीका कार्य है न किसीका कारण ( २० ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । क्योंकि प्रत्येक व्योंका केवल स्व स्वको पर्यायोंसे तादात्म्य है । यहाँ शुद्धस तात्पर्य परसे भिन्न व स्वके स्वभावमय से है । पर्याय व शक्तिभेदको गौणता करके अभेद स्वभावकी दृष्टि में यह संवेद्य है। आत्मतत्त्वका व परद्रव्यका कोई सम्बन्ध नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य निज-निज सलात्मक ही रहता है। इसी कारण पात्मा व परदर में सर्तसम्बना भी नहीं। फिर आत्मा परहस्यका कर्ता कैसे हो सकता है ? और इसी कारण आत्मा परद्रव्यका भोक्ता भी कैसे हो सकता है ? जिनके आशय में पर-द्रश्यका कर्तृत्व-भोवतृत्व समाया हुआ है यह सब उनके अज्ञानभायकी महिमा है। जैसे दृष्टि (नेत्र) दृश्यमान पदार्थ से अत्यन्त भिन्न है। वह दृश्य वस्तुको न तो करती है और न भोगती है, केवल देखती मात्र है, क्योंकि यदि करे तो अग्निको देखने से जल जाना चाहिये, यदि भोग तो अग्निको देखनेसे नेत्र तप्त व भस्म हो जाना चाहिये। इसी प्रकार ज्ञान भी एक दृष्टिही तो है वह किसी परपदार्थको न तो करता है और न भोगता है। वह तो तत्वज्ञान के कारण पर पदार्थको अहं व मम रूपसे अनुभव नहीं कर सकने के कारण केवल जानता है, चाहे बन्ध हो, मोक्ष हो, उदय हो या कुछ हो । यहाँ यह निर्णय कर लेना आवश्यक है कि शुद्ध आत्मतत्व अथवा समयसार अभेद शुद्ध चैतन्य स्वभाव है। वह अनादिसे अनन्त काल तक एकस्वरूप है। यही वह सहज सिद्ध भाव है जिसका अवलंबन मोक्ष मार्ग है। यह तो बंध मोक्ष पर्यायसे परे है। इस परम पारिमाणिक भाव स्वरूप समयसारका ध्यान, भावना, दृरिट, आश्रय और अधर्मबन मोक्षमार्ग है। जीवमें यह अनादिसिद्ध भाव है, किन्तु इसकी दृष्टि बिना प्रकृतिस्वभाव (रागादिभाव) में स्थित होकर विपरीताशय होकर यह अज्ञानी जीव कर्मका कर्ता कर्मफलका भोक्ता होता है । जब प्रकृति-स्वभावमें व आत्मा में भेदज्ञान करता है तब पता अभोत्ता हो जाता है। स्यावाद अब समस्या एक सुलझनेको आ जाती है कि राग-द्वेषादिभावोंका का कौन है? यूदगलकम तो कर्ता नही है क्योंकि पुद्गलकर्म परद्रव्य है । परद्रव्य अन्य-परके गुण पर्यायका न कर्ता है और न अधिकारी है। आत्मा भी राग-द्वेषाधिका कर्ता नहीं; क्योंकि यदि आरमा राग-द्वषादि करे, तो मात्मा तो नित्य है फिर तो आत्मा रागादिका नित्यकर्ता हो जायगा ! अतश्च मोक्षका अभाव हो जायगा । रागादिक विषयात पदार्थ भी रागादिक कर्ता नही। इस प्रकार रागादिका का न तो आत्मा.ही है और न कर्म ही है और न बिषय हैं। फिर भी समादि परिण मन तो होता है। इस समस्याको सुलझाने के अनेकोंने अनेक प्रयत्न किये है, किन्तु एक सन्धि नियत किए बिना यह समस्या नहीं मलझती। वह सन्धि है निमित्त-नैमित्तिक भाव । अनित्य कर्मोदयको निमित्त पाकर अनित्य रागादि होते हैं। अनित्य रागादिकका निमित्त पाकर अनित्य कर्मचन्ध होता है। फिर बद्ध अनित्य कर्मोदयका निमित्त पाकर अनित्य रागादि होते है। यह परम्परा चलती रहती है, जबतक कि प्रखर भेद-विज्ञान न हो जाय । यहाँ बन्धमें निमिन आत्म-विभाव है। उपादान कारण कार्माणवर्गणा है तथा रागादिमें निमिस कर्मोदय हैउपादान-अध्यवसित आत्मा है। निमित्तनैमित्तिक भावकी इस सन्धिका होना भी अज्ञानकी महिमा है और आत्माका कर्ता भोक्ता बनना भी अजामकी महिमा है। इस प्रकरण से ऐसा नहीं समझना चाहिए है कि आत्मा भिन्न वस्तु है और वृत्तियो सर्वथा भिन्न वस्तुतत्व है। क्योंकि ऐसा समझने से दो प्रकारको पृथक-पृथक् विचारधाराएं वहने लगती है। (१) आत्मा सर्वधा अदिकार है। विकार तो किसी अन्य से है उसे कोई जीव कहते हैं, कोई मन कहते हैं अथवा विकारको प्रकृतिका कार्य कहते हैं। (२) आत्मा कोई एक है ही नहीं, ये वृत्तियां ही आत्मा है सो करने वाला और है और भोगने वाला और है। इनपर विचार करना आवश्यक है। जीवका मत चेतन है या अचेतन ? यदि चेतन है तो यही तो आत्मस्वरूप है, फिर तो भारमाके नामान्तर ही हुए यदि अचेतन है तो जानने, देखने और विचारने वाले पदार्थको घबड़ाने अथवा कल्याणकी क्य जरूरत? प्रकृति नाम कर्म का है। रागादि विकार यदि प्रकृतिका कार्य है, तो "कारण-सदर्श कार्य"। इस न्यायसे Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सब विकार अचेतन ही होना चाहिये विकार में बुद्धि विचार सभी आ गये। यदि आत्मा प्रकृतिमें विकार करता है. तो प्रकृति वेतन हो जायेगी । यदि आत्मा व प्रकृति दोनों मिलकर विकार करते हैं, तो उसका फल दोनोंको भोगना " चाहिए। यदि कहा जाय कि प्रकृति सर्व विकार करती है, तो आत्माको परिणति बताओ क्या होगी ? परिणति बिना तो आत्मा का अभाव हो जायगा और फिर प्रकृति ही कर्ता, प्रकृति ही भोक्ता, प्रकृति ही बद्ध व प्रकृति ही मुक्त हुई, तब समझदार व्यक्तियों को चबढ़ाने व कल्याणकी क्या आवश्यकता ? इन सबका समाधान है पूर्वोक्त नैमिकि भावकी सन्धि एक दृष्टिसे देखा जाय तो चैतन्य भाव से अतिरिक्त जितने है। भाव हैं, वे परभाव कहे गये हैं । क्रोध, मान, माया, लोभ, सुख-दुःख, विचार, कल्पना, संकल्प आदि सब औपाधिक भाव हैं । इनमें विचार बुद्धि जैसे भाव तो प्रकृति के क्षयोपशम से है। क्रोधादि-भाव प्रकृतिके उदयसे है । तब ये सभी भाव अचेतन है | चेतन तो एक शुद्ध चैतन्य है । अथवा जो भाव शुद्धचैतन्यको चेतता है वह है । नयदृष्टियों सभी चर्चाओं का विशुद्धसमाधान करना चाहिये । विवक्षावंश प्रकृति कत्रीं है, आत्मा मोक्ता है, यह भी सिद्ध हो जाता है, निमित्तनैमित्तिकभावका इसमें उल्लंघन नहीं होता । दूसरी चर्चा यह है कि यदि वृत्तियों हो आत्मा है और दे अनेक है तो असत् का उत्पाद हो जायेगा, किंतु सर्वथा असत् का उत्पाद होता ही नहीं । अतः आत्मा सब पर्यायों में वही है और उसकी पर्यायें भिन्नभिन्न समयों भिन्न-भिन्न है। तब पर्याय दृष्टिसे जातो, करने वाला और पर्याय है भोगने वाला और पर्याय है । जैसे मनुष्यने पुण्य किया, देवने भोगा, परन्तु द्रव्यष्टि से देखो तो जिस आत्माने किया उसी आत्माने भोगा | यह ध्यान रखने की एक बात और है कि आत्मा व पाचक केवल रूढ़िवश य शब्द - विशेषता से कहीं-कहीं यह प्रसिद्धि हो गई कि आत्मा अविकारी है जीद विकारी है. हाँ यदि आदिसे अन्त तक सिलसिले में बोला जाय तो यह कहना चाहिये कि वेतनद्रस्य जब मिध्यात्व-विकार से मुक्त होकर स्वरूप दृष्टि कर लेता है, तो वह आत्मा कहलाता है । यदि मिथ्यात्व विकार में स्थिर रहता है तो वह जीव कहलाता है । निमित्त कि भाव वाले पदार्थों में इतनी बात सुतासे जानते रहना चाहिए कि जैसे जीव व कर्म में निमित्त नैमित्तिकता तो हैं किन्तु कोई किसी दूसरे में तन्मय नहीं हो जाता। इसी कारण जीव प्रकृतिवन्धका कर्ता है, प्रकृति aafeerer कर्ता है, जीव प्रकृतिफलको भोगता है, ये सब बातें व्यवहारमय से मानी जाती है। इसके लिये दो मुख्य दृष्टान्त हैं- ( १ ) जैसे व्यवहारनयसे कहा जाता है: - कि सुनार सुवर्णका माभूषण बनाता है व आभूषणका फल ( मूल्य वैभव ) भोगता है, वस्तुतः सुनार अपनी बेष्टा ही करता है व विकल्प हो भोगता है। उसकी चेष्टाका निमित्त पाकर सुवर्णकी परिणति सुवणं ही करता है। (२) व्यवहार नपसे कहा जाता है कि याने भीत (दीवार) सफेद कर दी, खड़ियाने तो खड़िया को ही सफेद किया । हाँ, यह बात जरूर है कि दीवालका निमित्त पाकर खड़िया ऐसे विस्ताररूपमें अपना परिणमन बना रही है। इस तरहसे तो यहृतिक निर्णय कर लो कि आत्मा निश्चयसे अपने को ही जानता है, देखता है। परका जानना देखना कहना भी व्यवहारनयसे है। व्यवहारसे, तो कर्ता व कर्म भिन्न-भिन्न मान लिये जाते हैं । किन्तु निश्चय कर्ता, कर्म एक वस्तु होता है और परम शुद्ध निश्चयनय में कर्म-कर्ता का भेद ही नहीं । एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें परिणमन नहीं होता । अन्यथा द्रव्यसीमा ही नष्ट हो जायगी । भव आत्मा जो दूसरे द्रव्यकी ओर आकर्षित होता है, व रागी-द्रषी होता है वह अज्ञानकी प्रेरणा है। यह रागद्वेष तक रहता है, जबतक ज्ञान ज्ञानरूपसे न रहे, किन्तु ज्ञेयार्थपरिणमन करता रहे। कोई भी शेय आत्माको प्रेरित नहीं करते कि तुम हमको जानो, देखो, स्वादो, छुओ, सुनो, सूचो और आत्मा भी स्वप्रदेश से च्युत होकर उनमें प्रवेश कर जानना आदि का कार्य नहीं करता, किन्तु ज्ञान अपने परिणमनसे जानता है । बाह्य पदार्थका आत्मामें सम्बन्ध नहीं फिरभी मायें विकार आने ती बह अज्ञानको महिमा है । इन सब व्यापत्तियों बचनेका उपाय प्रशा है। प्रशाबलसे अनुभव करें कि मैं कर्मविपाक, रागादि समस्त ( २२ ) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अज्ञान भावोंसे परे हूं. शुद्ध ज्ञानमात्र हूं। इस अनुभबके बलसे चूकि शुद्धज्ञानकी संचेतना हो रही है अतः पूर्वरच कर्म निष्फल हो जाता है. आगामी कर्मबन्ध रुक जाता है और वर्तमान कर्मविपाक भी बिना दे निकल जाता है। शानी जीवके अज्ञानचेतना नहीं है, वह शान क्रियासे अतिरिक्त अन्यको में करता हूँ ऐसी सदेतना रूप कम-चेतना नहीं करला । और ज्ञानक्रियासे अतिरिक्त अन्य भावोंको मैं भोगता है ऐसी संपेवनारूप कर्मफल-चेतना भी नहीं करता। ___ज्ञानचेतना ही मोक्षका कारण है । ज्ञानके शरीर नहीं है इसलिये शारीरकी प्रवृत्ति-निति रूप कुछ भी भष। मोक्षका कारण नहीं है। हां यह बात अवश्य है कि शान वेतनाके उपयोग वाले जीवको इतमी प्रबल ज्ञानाराधना की रुचि होती है, कि रागभाव गये, अब बाह्यमें परिग्रहको कौन संभाले । सो देहका निग्रंय निष्परिग्रह वेप हो जाता है। फिर भी ज्ञानचेतना ही मोक्षका कारण है, क्योंकि वह आत्माश्रित है। हलिग मोक्षका कारण नहीं, क्योंकि वह पराश्रित है। इसलिये निरिग्रह निन्यस्वरूप द्रव्यलिंगसे गुजर कर भी देहलिगकी ममतासे दूर रहकर एक समयसारका हो अनुभव करना चाहिए । जो समयमा रमें स्थित होता है वही सहज उत्तम शानन्दको प्राप्त करता है। स्थाद्वार (परिशिष्ट) अधिकार यह अधिकार पूज्य श्री अमूलचन्द्र जी मूरि व पूज्य श्री अयमेनावाने स्वतन्य रचना द्वारा प्रकट किया है। कि वस्तुको सिटि स्याद्रादसे होती है, अत: ज्ञानमात्र दृष्टि से देग्ने गये जानमात्र आत्माको म्याद्वाहसे उपयोग करना चाहिये । प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील होने के कारण प्रतिक्षण परिणमता ही रहता है । सो यह ज्ञानमाय आत्मद्रम्प भी प्रति समम परिणमता रहता है। अब इस ही प्रसंगमें ज्ञानमात्र आत्मा दो दृष्टियोंसे देखा जा रहा है--(१) ज्ञानशक्ति द्वारसे निश्चयनव द्वारा, (२) ज्ञानपरिणमन (याकार) द्वारसे व्यवहारनय द्वारा । पदार्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावात्मक होता है । इस कारण सत्वका विचार द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चार दृष्टियोंसे भी होता है प्रकारको पोजिम संकेतोंरे माद मर जान मात्र आत्माको चिन धर्मों के द्वारमे प्रसिद्ध करता है उन्हें कहते हैं -(१) आत्मा तेंद्र प है, (२) आत्मा अतद्प है, (३) आत्मा एक है, (४) आरमा अनेक है, (५) आत्मा द्रव्यतः सत् है, (६) आत्मा द्रव्यतः असत् है, (७) आत्मा क्षेत्रात: सत् है, (4) आत्मा क्षेत्रतः असत् है (5) आत्मा कालत: सत् है, (१०) आत्मा कालत: असत् है, (११) आत्मा भावतः सप्त है, (३) आत्मा भायतः असत् है, (१३) आत्मा नित्य है, (१४) आत्मा पनित्य है, (१५) पारमा लभेदात्मक है, (१६) आरमा भेदात्मक है। (१-२) आत्मा ज्ञानयन्तिसे तद्प है व ज्ञेयाकार परिणमनसे अत्तर प है, क्योंकि झेयाकार परिणमन स्पतिरेकी परिणमन है, अथवा शानमात्र आत्मा स्वस्तृरूपसे तद्रूप है व परवस्तुरूपसे अताप है । मैं जायकतासे भी शून्य हूं, ऐसा अथवा सर्व वस्तुओंसे भी तद पहूं ऐसा नहीं मानना। (३-४) ज्ञानमात्र आत्मा अखण्ड एक ज्ञानस्वभावको अपेक्षा एक है, वह भयाकार पर्यायोंकी अपेक्षा अनेक है, शेयाकार मुझमें नहीं है ऐसा यह मे याकार मात्र हूं, ऐसा नहीं मानना । १५. शानमात्र आत्मा शाता द्रव्यको अपेक्षासे सत् है व गुण-पर्याय-रूप द्रव्यविभागकी अपेक्षा असत है अथवा ज्ञाता द्रव्यको अपेक्षा सत् है, वह ज्ञायमान परद्रध्यकी अपेक्षा असत् है। ज्ञाता ट्रध्य हौ परद्रव्यरूप है परद्रव्य सब ही में ज्ञाता द्रव्य हं ऐसा नहीं मानना। (७.) जानमात्र आत्मा ज्ञानामा रहे प्रसे सत् है वह जयाकारक्षेत्रसे असत् है, अधचा स्वक्षेपसे सत * वनसभतरवस्त के क्षेत्रसे बसत है। परक्षेत्रगत शेपार्थपरिणमनसे ही मैं हूं. ऐसा बझयाकारका मुझ में मर्वथा स्थाग है ऐसा नही मानना । (इ.१०) ज्ञानमात्र प्रारमा काल-पर्यावसामान्यसे सत् है व काल-विशेषस असत. अथवा स्वपर्यायमे सत ( २३ ) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, व परपर्यायसे असत् है पदार्थोक वालम्बनकालमें ही सत् है व आलंबित अर्थक विनाशकाल में निराश है, ऐसा नहीं मानना । (११-१२) ज्ञानमात्र आत्मा ज्ञायकभावसे सत्त है, शेयभावसे असत् है अथवा अपने गुणसे सत् है परके गुणसे असत है । सब हो (स्व पर) भाव में मैं हूं, या मैं ही संच भाव हूं, ऐसा नहीं मानना । (१३-१४) ज्ञानमात्र आत्मा ज्ञानशक्तिकी अपेक्षा नित्य है, ज्ञेयाकार विशेष पर्यायकी अपेक्षा अनित्य है। ज्ञानरात्र आत्माको सर्वथा नित्य या अनित्य नहीं मानना । (१५-१६) ज्ञानमात्र आत्मा द्रव्यदृष्टि से अभेदात्मक है. व्यवहारष्टि से भेदात्मक है । अनेकान्तस्वरूप होकर भी प्रात्माको जानमात्र प्रसिद्धि क्यों की? लक्ष्यभूत आत्माको सुगमतया प्रसिद्धि के लिये अथवा ज्ञानमात्र एक भाव में ही गाभत अनन्त शक्तियोंका विकास प्रकट होने से ज्ञानमापनेकी मुख्यतासे आत्मा लक्ष्य हो जाता है। इसलिये ज्ञानमात्र आत्माकी प्रसिद्धि की। ज्ञानमात्र होकर भी अनेकान्तरूप क्यों बताया ? विषाद जानने के लिये, अघमा भेदरलत्रय व अभेदरत्नत्रयके उपदेशके लिये, अथवा उपाय-उपेयभावका चिन्तवन करने के लिए ज्ञानमात्र आत्माको अनेकान्तरूप प्रगट किया। इस प्रकार निज शुद्ध आत्मतत्वस्वरूप समयसारको प्रतीति करके उसमें ही अनुष्ठान करना चाहिये । एतदर्थ परमार्थदृष्टि रखकर भावना करना चाहिए—मैं सहज शुद्ध ज्ञानानंद स्वभाव हूं, निर्विकल्प हूं, अखंड हूं, निरंजन हूं, सहजानन्दस्वरूप स्वसंवेदनसे गम्य हूं, राग-द्वेष-विषय-कषायादिसे रहित हूँ। समयसारके परिजानका प्रयोजन समयसार निरपेक्ष आत्म-स्वभाव है। इसका अपरनाम सहजसिद्ध परमात्मा है। इस अविकार स्वरूपकी दृष्टि होनेपर परिणमन में भी अधिकारता प्रगट होती है। अधिकारता ही सत्य आनन्दकी अमोघ जननी है। समस्त दार्शनिकोंके प्रयोजनकी सिद्धि इस समयसारके परिचयमें हो जाती है। समयसार अर्थात् शुद्ध आत्मतत्त्व अविकार है, नित्य है, भेददृष्टिसे परे होनेके कारण एक है। आत्म-गुणों में व्यापक होने से 4 आत्म-गुणोंसे बढ़ने के कारण बहा है। ऐसा स्वभाव होते हुए भी कि प्रत्येक द्रव्य परिणमनशील है सो आत्मा भी परिणमनशील है। अत: इस आत्माकी पर्यायें होती हैं। वे पर्याय अनित्य है। अत: मायारूप कही जाती है। इसतरह ब्रह्म और मायाको सन्धि है । अविकार होते हुए भी यह मायाका आधार है। यह रहस्य जिन्हें प्रकट हो गया ये विवेकी है और फिर मायाकी दृष्टि न रख कर जो एक परम ब्रह्मकी दृष्टि रखते हैं बे परमविवेकी हैं। समयसारके परिज्ञानका प्रयोजन निर्विकल्प समाधि की सिद्धि है जिसके बलसे समस्त कर्म-कलकोसे मुक्ति, पूर्ण ज्ञानकी सिद्धि द अनन्त आनन्द की निष्पत्ति होती है। समयसारमें दार्शनिक संतोष प्रत्येक आत्मामें समयसार सत्व है। इसे परम ब्रह्म परमेश्वर कहते हैं। इसकी पर्यापोंका मूल आधार यह ही है । इस प्रकार प्रत्येक आत्माओंकी सृष्टिका कारण उन्हीं में विराजमान परम ब्रह्म परमेश्वर है । शुद्धनयको दृष्टि में अनेकता नहीं है । अतः इस पद्धति में यह अभिप्राय मुयुक्ति युक्त है कि जिस परमब्रह्म परमेश्वरने अपनी सृष्टि की है, उस परम पिताकी उपासनासे ही दुखोंकी मुक्ति हो सकती है। समयसारको उपासना के बिना दुःखोंसे मुक्ति नहीं हो सकती। स्वभावतः अधिकार होकर भी प्रकृतिजन्य विभायों में एकत्वका अभ्यास होनेसे नाना भबोंके अवतार रूपोंमें यह समयसार पुरुष प्रगट हा है। प्रकृति (कर्म व औपाधिक भाव) व पुरुष का जबतक भेदशान नहीं होता तबतक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : पर्व रंग गलेश व जन्म-परम्परा बैलती ही रहती है। अतः यह बात सुयुक्त है कि प्रकृति व पुरुष का भेदविज्ञान कर लेनेसे ही बलेश एवं जन्म परम्परासे मुक्ति हो सकती है । समयसारस्वरूप आत्मद्रव्य नित्य होनेपर भी इसकी परिणतियां प्रतिक्षण होती ही रहती हैं। आत्माका मुख्य लक्षण ज्ञान | ज्ञानस्वभावकी भी परिणतिय प्रतिक्षण होती रहती हैं। हम लोगोंकी ज्ञानपरिणतिथोंका नाम चित्तवृत्ति है। ये चित्तवृत्तियां क्षणिक हैं। वे आत्मस्वरूप नहीं हैं। आत्मद्रकी क्षणिक परिणतिया हैं। उन्हें ही जो आत्मद्रव्य समझते हैं वे इष्ट अनिष्ट कल्पना द्वारा रागो-द्वेषी होकर दुखी होते हैं। जो चित्तवृत्तियों का गौण कर इस अधिकार समयसार (शुद्ध आत्मतत्व) को अनुभवते हैं, वे दुःखोसे मोक्ष (निर्माण) प्राप्त करते हैं। अतः यह बात सूयुक्त है कि क्षणिक चित्तवृतियों में श्रात्माका श्रम समाप्त कर देनेसे ही निर्वाण प्राप्त हो सकता परम- शुद्ध निश्चयसे देखा गया समयसार तत्व शाश्वत अविकार है । इस तत्वकी विकारीरूप में उपलब्धि करने की जब तक प्रकृति रहती है तब तक वह जीव दुखी है। जब निरपेक्ष निज चैतन्य स्वभावको द्रव्यशुद्धि में उपलब्धि कर विकारश्रमको समाप्त कर देता है तब आत्मा शांतिका अनुभव करता है। अतः यह निश्चित है कि विकारोंसे सम्बन्ध न होनेसे जीव शांति प्राप्त कर सकता है । समयसारको उपलब्धि न होनेके कारण जीवका उपयोग विरुद्ध कर्मों (दुकमों) में भ्रमण करता रहता है। और इन्हीं दुष्कमोंसे ही जीव सांसारिक यातनाएं सहता है। उनसे मुक्ति पाने का उपाय समयसारको दृष्टि है और यही निश्वयतः सत्कर्म है तथा जबतक जीव समयसारको निश्चल अनुभूति में नहीं रह पाता, तबतक इस अशान्तिका उपयोग दुष्कर्म न उठा लें। इसलिये दुष्कर्म से बचने के अभिप्रायसे व्यावहारिक सत्कर्मको प्रवृत्ति होती है | अतः यह सुयुक्त है कि सांसारिक यातनाओंके कारण भूत दुष्कर्मोोंसे मुक्ति पाना सत्कर्मसे ही सम्भव है । निविकल्प समयसारका परिचय जब तक जबकी नहीं है, वह विविध कल्पनेही उपयुक्त रहकर संसारका परिभ्रमण करता रहता है । विकल्पोंसे होने वाली भटकनकी निवृति निविकल्प ज्ञानपरिणाम से ही सम्भव है । अतः यह बात भी सुयुक्तिक है कि संसार परिभ्रमणकी निवृत्ति निर्विकल्प समाधिसे ही हो सकती है। निर्विकल्प समाधि समयसार के आलम्बनमें होती है। इस प्रकार अनेकों दार्शनिक इस समयसार में ही सन्तोष पाते हैं। उनके उद्देश्यको पूर्णता भी इसी समयसार - में होती है । हे आत्मन् ' ऐसा अद्भुत विलक्षण, अलौकिक सारभूत परमब्रह्मस्वरूप समयसार हस्तगत हुआ है, हाथ आया है तो इसकी अनवरत दृष्टि रखकर निर्दोष होते हुए तुम सहज आनन्दका अनुभव करो । ओ३म् शुद्धं चिदस्मि ! "शुद्धं चिदस्मि सहज परमात्मदन्यम् ।" समसारकी महिमा अपूर्व है। इसका वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता। इसके शुद्ध अनुभव ही महिमा की अनुभूति होती है । जिनका परिणमन समयसार के पूर्ण अविरुद्ध हो गया है अर्थात् समस्त आत्मगुणोक पुर्ण शुद्ध विकास हो गया है, ऐसे देवाधिदेव परमात्माको और जो आत्म-गुणोके शुद्ध विकास में चल रहे हैं ऐसे गुरुओं को नमस्कार करता हूं, अर्थात् सर्वपरमेष्ठियों को नमस्कार करता है, जिनके स्वरूपचिन्तन व परम्पराप्राप्त उपकारों में धमा उपकृत हुआ हु । समयसार ग्रन्थ के मूल रचयिता पूज्य श्रीमत् कुन्दकुन्दाचार्यको नमस्कार करता है । समयसार गाथाओं के हाईको आत्मख्याति टोकाद्वारा व्यक्त करने वाले पुज्य श्रीमदमृतचन्द्रसूरिको नमस्कार करता हूँ । समयसारगाथाओं के शब्दानुसार भाव एवं तात्पयंको तात्पर्यवृत्ति द्वारा व्यक्त करने वाले पूज्य श्रीमज्जयसेनाचार्यको नमस्कार करता जिनकी रचनाओं के आधार पर शान्ति मार्ग-प्रत्यय हुआ । अतः गृहवास सन १६४३ में आत्म-शान्तिके मागवर खलने का अधिक भाव हुआ । (२५) छोड़कर व्रत प्रतिमा ग्रहण करने के अनन्तर ही उस रामय समयसारखं मनन करने परिणाम Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। उन शीत ऋतुओंके दिनों में बिलोकसार व कर्मकाण्डके विशप शान-अनुसंधान में लग रहा था। अत: समयमारके मननका समय ४ बजे प्रातः से लेकर ६ बजे तक का था। समप्रसार ग्रन्थक देखनेका यह पहिला ही प्रश्सर था। आत्म-हयाति टीकाके आधार पर मनन शुरू किया। उममें ओ बीच-बीच में कही कठिनाइयां आती थी, उनका हल श्री पं. जयचन्द जी छावड़ा त हिन्दी टोकास हो जाया करता था। इस प्रकार यह हिन्दी टोका भी मुझे बहुत ही सहायक रही । एतद में श्री पं. जयचन्द जी छाबड़ाका भी विशेष आभार मानता हूं। पूज्य श्री १०५ क्षु. गणेशप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्यका तो मैं अत्यन्त आभारी है जिनके तत्वावधान में बाल्यकाल से ही न्यायतीर्थ परीक्षा पर्यन्त मेरा अध्ययन रहा और न्याय विषयको स्वयं आपने पाया । अध्ययनके अतिरियन आरम-विकासमार्गमें चलने के लिये आपमे ही दीक्षा प्राप्त हुई। ओ३म शान्ति: ओ३म शान्तिः ओम शान्तिः मनोहर वर्णी सन् १९५८ में स्वलिखित समयर महिमासे (सहजानन्द) नयचक-प्रकाश पाठ १–नयज्ञानको प्रावश्यकता वस्तुका ज्ञान प्रमाण और नयोंसे होता है । वस्तु उत्पादध्ययोग्यात्मक है। प्रोब्य न हो तो उत्पाद व्यय नहीं हो सकता, उत्पाद व्यय न हो तो धोन्य नहीं हो सकता । धौव्यसे वस्तुके इम्मपनका बोध होता है। उत्पाद व्ययसे वस्तु के पयायपनेका बोध होता है। वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। वस्तुका व्यष्टिसे भी ज्ञान हो, पर्यायष्टिसमी ज्ञान हो तो उसका पूर्ण ज्ञान होता है। एक दृष्टि से ज्ञान करमेको नय कहते हैं। दोनों दृष्टियों से ज्ञान करनेको प्रमाण कहते हैं। प्रयोगत: नमोसे वस्तुका ज्ञान होनेपर प्रमाणसे ज्ञान होता है और प्रमाणसे शान होनेपर नयोंसे ज्ञान होता है । प्रमाण के बिना निरपेक्ष नयों से ज्ञान होना मिथ्या है और प्रमाणपूर्वक नयोंसे ज्ञान होना सम्पद है क्योंकि, प्रमाणसे ग्रहण किये गये पदार्योका अभिप्राय वश एकदेश ग्रहण करनेवाले ज्ञानको नय कहते हैं। वस्तु शाश्वत निरन्तर द्रव्यपर्यायात्मक है। पर्यायके बिना दव्य नहीं रह सकता सो पर्याथ प्रतिक्षण होती रहती हैं। ट्रष्यके विना पर्याय किसमें हो सो अन्वय बिना पर्याय हो ही नहीं सकती। इस प्रकार जब वस्तु सदा द्रध्यपर्यायात्मक है तो द्रव्यष्टि से व पर्यायष्टिसे वस्तुका ज्ञान करना आवश्यक है। नयों के विस्तार में जितने भी नय हैं वे सब इन्हीं दोनों दृष्टियों के भेद प्रभेद हैं । निक, यह है कि वस्तुका परिचय पाने के लिये नयज्ञानकी महती आवश्यकता है। भले ही नय व प्रमाणके विकल्पसे अतिक्रान्त होकर हो आत्मानुभव होता है, किन्तु इस अतिक्रमणकी योग्यता वस्तुका परिचय किये बिना नहीं पाई जा सकती है। पाठ२-नयोंके संक्षिप्त प्रकार वस्नु द्रव्य पर्यायात्मक है। उसको जानने के लिये नयके मूल दो प्रकार आते हैं १-द्रव्याथिक नय, २-पर्यायाथिक नय । द्रव्य हो जिसका प्रयोजन हो उस नयको न्यायिक नय कहते हैं व पर्याय ही जिसका प्रयोजन हो उम नयको पर्यायाथिक नय कहते हैं। द्रव्याथिक नयके ३ प्रकार हैं.-१. मैगम नय, २. संग्रह मय, ३. व्यवहार नय 1 पर्यायाथिक नयके ४ प्रकार हैं--१. ऋजसत्र नय, २. शब्द नय, ३. समभिरून नय, ४. एवंभूत नथ । इस प्रकार नप हुप। इन मात नयोंमें ३ विभाग होते हैं-१-जाननय, २-अर्थनय व ३ .-गब्बनय । नमम नय तो ज्ञानमय है क्योकि वह संकल्प मात्रको प्रकट करता है, पदार्थको मुख्यतया नहीं कहता। संग्रह नय, व्यवहार मय क जमूत्र नय अर्थनय कहलाते हैं, क्योकि ये पदार्थकी जानकारी कराते हैं। संग्रह नय व व्यवहार नय लो ब्यष्टिकी मुरुषतास Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुको जानकारी कराते हैं, किन्तु ऋजुसूत्र नय पर्यायष्टिको मुख्यससे वस्तुको जानकारी कराता है। शन्दन य. समभिरूढ़ नए द एवभत नय भी कराते तो जानकारी हैं पर्यायरष्टि से वस्तुकी, लेकिन शब्दकी मुख्यतासे जानकारी कराते हैं। अत: इन तीन अन्तिम नयोंको शब्दनय कहते हैं। अब सर्वप्रथम इन सात नोंकी जानकारी कीजिये। पाठ ३–प्रख्यापिक नंगमनम संकल्पमात्रग्राही नगमः । ओ संकल्पको ग्रहण करे (जाने) वह नंगमनम है । नैगमनय में अभेद व भेद दोनो विषम पड़े हैं। नैगमनय ३ प्रकारका होता है(१) मतनगमनय, (२) भाषिनगमनय, (३) बर्तमान नैगमनय । अतीत में कामानका आरोपण करना भूतनगमनय है, जैसे कहना कि आज दीपावली के दिन श्री दई मान स्वामी मोक्षको गणे है। यहां जो कुछ कहा जा रहा है उसमें संकल्पकी मुख्यता है । भविष्य के बारे में अनीतकी तरह कहना भायिनंगमनय है, जैसे कहना कि अन्त तो सिद्ध हो हो चुके । यहाँ भी संकल्प की प्रधानता है। करने के लिए प्रारम्भ किय गये कुछ निष्पन्न व अनिष्पन्न वस्तुको निष्पनकी तरह जहाँ कहा जाता है वह वर्तमाननगमनय है, जैसे कहना कि भात (चावल) पक रहा है। ये सभी नेगम नय संकल्पमें होनेवाले जान हैं । यहाँ दम पर्याय, भेदै अभेद, सत् असत् का समन्वयपूर्वक ज्ञान चल रहा है जो संकल्पमात्र है। अत: नंगमनय जाननय है । अर्थमय नैगमनयसे सूक्ष्मविषयमय है। अर्थनयोंमें महाविषयरूप संग्रहन य है। संग्रहसयसे सूक्ष्मविषयी व्यवहारनयनामक द्रव्यायिकनय है. इससे सूक्ष्मयिषयो ऋजमयनयनामक पर्यायाथिक नय है। पाठ ४-वड्याथिक संग्रहनय संग्रहनयसे अनेक वस्तुओंका संग्रह जाना जाता है। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपमात्र है। वह अखण्ड सत् है, निश्चयनय द्वारा जय है 1 से अनन्त सतों का, सर्व सतों का संग्रह किसी साधारण धर्मकी मुख्यताकी दृष्टि होनेपर ज्ञात हो जाता है। जैसे सत इस दृष्टि में सर्व सत् पदार्थोका संग्रह ज्ञात हो गया। इस सर्वसंग्रहका सान करनेवाले ज्ञानको परयसग्रहनम कहते हैं। इस संग्रह अनन्त परमार्थीका संग्रह है, यह ज्ञान तो हुआ सग्रहनरसे, किन्तु जब तक एक अखण्ड सत् पर दृष्टि नहीं बनती तब तक केवलदष्टि याने मुद्धनय न आ सकनेसे मोक्षपथमें मति नहीं हो पाती, अत: आवश्यक है कि परमसंग्रहको भेद करके आवान्तरसत् की ओर बढ़ें। इसके लिये आगे कहा जानेवाला व्यवहार. नयनामक द्रव्यार्थिक नय प्रयोक्ता होता है। उसमें पहली बार भेद किया तो कुछ बिभक्त होनेपर भी संग्रह ही बना रहा । ऐसा संग्रह जाननेवालेको अपरसंग्रह नय कहते हैं. यहाँ भी परामर्थ सतों का संग्रह ही रहा ।।मे अनेक बार व्यवहारमयनामक द्रव्याथिकनय विभाग करते जानेपर भी जब तक अखण्ड एक सत् नहीं ज्ञात हो पाता है तब तक अनेकों अपरसंग्रह नय होते जाते हैं। इसका प्रथम प्रकार है-(४) परसंग्रहनयनामक द्रव्याथिक नय । द्वितीय प्रकार है. (५) अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याथिकनय । इसमें अभेद द्रव्य, शुद्धपर्यायी द्रव्य, अश पर्यायी व्यका जानाशय होने में इसके ३ भेद हो जाते हैं, (६) परमशुद्ध अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याथिक नय (७) शुद्ध अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याथिक नय (5) अशुद्ध अपरसंगहनमनामक द्रव्याथिक नय । पाठ ५.-वख्यायिक व्यवहारनय संग्रहनयसे ग्रहण किये गये पदार्थोके संग्रहका भेद करके भेदरूपसे ग्रहण करनेवाले ज्ञानको व्यवहारमय कहते हैं । यह व्यवहारनय अनेक अखण्ड सतोंके संग्रह में से अखण्डोंको असम-अलग जानने के प्रयत्न में चलता है । सो परसंग्रहका भेद करके कुछ अलग-अलग जातियों में विभक्त कर जानना परसंग्रहभेदक व्यवहारनयनामक द्रव्याधिकमय है। फिर उनमें भी भंट करके विभक्त सारूप्यमें पदार्थोंको जानता जाये तो वे सब अपरसंग्रह एक व्यवहारनपनामक द्रग्याथिकनय कहलाते हैं । जैसे–पहिले "सत" परसंग्रहको भेद करके छह जातियों में लाये-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल दन्य, तो यह परसंग्रहभेदक व्यवहारनयनामक दयधिकनय कहलाया । फिर उनम से मानो Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जीव दय" अपरसंग्रह का भेद किया. जीव दो प्रकारक है मुक्त व संसारी, सो यह अपरसंग्रहभेदक व्यवहार नामक द्रव्याथिकनय हुआ। अब आये एक-एक विभागका भेद करते जायें तो वे सब अपरसंग्रह भेदक व्यवहारनय होते जायेंगे । इस प्रकार जब तक एक अखण्ड सत् पर नहीं पहुंचते तब तक अपरमंग्रहभेदक व्यवहारनय प्रयोक्तव्य होते जाते हैं। इसका प्रथम प्रकार है-(६) परसंग्रहभेदक व्यवहारमयनामक द्रष्याथिकनय । द्वितीय प्रकार है-(१०) अपरगग्रह-भेदकन्यवहारनयनामक ट्रव्यापिकनय । तृतीय प्रकार है.-(११) अन्तिम अपरसंग्रहभेदक व्यवहारनय । इनके ३ भेद आशथवश हो जाते हैं। ४-(१२) परम शुद्ध अपरसंग्रहदकव्यवहारनयनामक द्रव्याधिकनय, (१३) गद्ध अपरसंग्रहमै दक पबहारनयनामक द्रव्यापिकनप, (१४) अशुद्ध अपरसंग्रहभेदक व्यवहारनयनामातल्यायिकनय । पाठ ६ --ब्रन्यायिक अन्तिम व्यवहारमय अपरसंग्रहका भेद कर-कर जब हम अखण्ड सत् तक पहुंच जाते हैं फिर इसका भेद नही किया जाता। अब एक सत तक पहुंचाने वाले इस व्यवहारनयको अन्तिम व्यवहारमय नामक द्रव्याधिकनय कहते हैं। यही निश्चयनय कहलाता है। निश्चयनय एक अखण्ड सत को अर्थात् एक द्रव्यको जामता है सो अन्तिमव्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनयने भी अन्तिम अपरसंबह को भेद करके एक अखण्ड सस्का बोध कराया। अब इस एक सतको जानते समय परमएड, शुद्ध अथवा अशुद्ध जिस विधिका मूड होगा उसी विधिमें इस सत्का जान होगा। इसको परमशुद द्रव्यामिक, प्रद्धरण्यायिक द अशुद्धद्रव्यार्षिक कहिये या परम शुद्धनिश्चयनय, शुद्ध निश्चयनय व अशुद्धनिश्चयनय कहिये । यह अन्तिम व्यवहारनय अर्थनय है व उसमें भी द्रव्याथिकनय है। इस कारण र व्यवहारमय अध्यात्मशास्त्रों में प्रयुक्त होने वाले निश्चय व्यवहार वाले व्यवहारसे भिन्न है। निश्चय व्यवहारमें प्रयुक्त व्यवहार कथन करने दाना है और यह व्यवहारनयनामक धाथिकनय अधिगम करने वाला है और यह भी द्रव्याथिक दृष्टि से । इम अन्तिम व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनय में परिपूर्ण अखण्ड एक सत् अन्य सबसे विभक्त करके दिमें स्थापित किया । पाठ ७--अन्तिम च्यवहारमय नामक द्रव्याथिकमयके प्रकार अन्तिम व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनयने अन्तिम अवरसग्रहको विभत करके अखण्ड एक सत का बोध कराया । अब इस अखण्ड एक सत् को गुण, स्वभाव, शुद्ध पर्याय, अशुद्धपर्याय, अभेद आदि जिस जिसकी मुख्यता करके जिस-जिस रूपसे जाना जामेगा उतने ही इसके प्रकार बन जावेंगे । जैसे (१५) परमशद्ध अभेदविषयी असिमलक्षित व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनय, जैसे चिन्मात्र आत्मा।(१६) परमशुद्ध भेदविषयी अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक च्याधिकनय, जैसे-जान दर्शन आदि गुण वाला आत्मा । (१७) शुद्ध अभेद विषयी अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक ट्रेध्यामिकलय, जैसे-जीव केवलज्ञानी है। (१८) शुद्ध भेदविषयी अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक दव्याथिकनय जैसेमुक्त जीवक अनन्त ज्ञान अनन्तदर्शन आदि । (१६) अध्यक्त अशुद्ध अन्तिमलक्षित स्यवहारनयनामक व्याथिकनय, जैसे अबुद्धिगल क्रोध आदि बाला जीव (२०) व्यक्त अशुद्ध अन्तिमलक्षित व्यवहारनयनामक दायिकन य, जैसे बुद्धिगत क्रोध आदि वाला जीव । (२१) उपाधिनिरपेक्षशुद्ध द्रव्याधिकन य, जैसे-संसारी जीव सिद्धसमान शुशास्मा है । (२२) उत्पादव्ययगौणसत्ताप्राहक शुद्ध द्रव्याथिक नप, जैसे- द्रव्य निस्य है । (२३) भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय, जसे-निजमुण पर्याय स्वभावसे अभिन्न द्रव्य है। (२४) उपाधिसापेक्ष अशुद्रव्याथिकनय, जैसे -कर्मोदय विपाकके सान्निध्य में जीव विकास विकल्परूप परिणमता है।/४ A) उपाध्यभावापेक्ष शुद्धष्ट्रध्याथिकनय, जैसे-कमोपाधिके अभावका निमित्त पाकर आत्माकी शुद्ध परिणति होनेका शान (२४B) शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध-द्रव्याथिकनय, जैस-आत्माके शुद्धपरिणामका निमित्त पाकर कमंत्वका अय होनेका ज्ञान । (२५) उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यापिकनय, जैसे-द्रव्य उत्पादम्ययध्ययुक्त है । (२६) भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्यापिकन य, जैसे आत्मा ज्ञान है, दर्शन है, चरित्र है आदि । (१५-२७) अन्वयव्याथिइन य, जैसे-गुणपर्याधस्वभावी आत्मा है। (२६) स्वदम्यादि ग्राहक द्रव्याथिकनय, जैसे-आत्मा प्याथिकलय Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वचतुष्टयसे है । (२६) परद्र हरदयामाया, से -मा परचमटा दी है । (३०) परमभावग्राहक जैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप है 1 इस प्रकार १८ रूपोंमें निश्चयनय आया, तो भी एकके सामने दूसरों की तुलना होनेपर उनमें ओ अधिक अभेदमाला निश्चयतय है उसके सामने अन्य निश्चय व्यवहार कहलाते हैं। पाठ-पर्यायाथिक प्रर्धनय पर्यायाथिकनय हैं.-ऋजसूत्रनय, शब्दनय, समभिरूढ़नय, एवं भूतनय । इनमें से सिर्फ ऋजसवनय अपनय है, शेष ३ नय अदनय हैं। जो वर्तमान पर्यायको जाने उसे ऋजसत्रनय कहते हैं। यहां यह जान लेना अत्यावश्यक है कि पर्याय स्वतंत्र सत् नही है याने सत् नहीं है, किन्तु सत् पदाधंका परिणमन है। सत् के ये लक्षण हैं-(१) उत्पादश्ययधोध्ययुक्तं सत, (२) मुणपर्ययवदव्यम्, (३) अन्य सतोंसे प्रविभक्त (पृथक् ) प्रदेशवाला, (४) साधारण व असाधारण गुणवाला, (२) दम्पपजनपर्याय व गुण व्यञ्जनपर्यायवाला। इन लक्षणों में से एक भी लक्षण पर्याय में नहीं है, अतः पर्याय सत् नहीं है। फिर यह प्रश्न हो सकता है कि जब पर्याय सत नहीं है, तो उसका ज्ञान कैसे हो, सत हो तो प्रमेय होता है। उत्तर... पर्यायका जान नहीं हबा करता, किन्त पर्यायमखेन सत दृश्यका ज्ञान हुआ करता है। ऋज मूत्रनय द्वारा पर्यापमुखन द्रव्य सत् का ज्ञान होता है। हां. पर्याषकी मुख्यता इष्टिमें है । जिनके मतमें पर्याय स्वतन्त्र सत् है उनके मन में पर्याय ही पूरा पदार्थ हो जाता है, फिर उसका अन्वय व उपादान कुछ न रहने से सर्वथा क्षणिकवाद बन जाता है, जो जनशासनसे विपरीत है, जिसका निराकरण प्रमेयकमलमार्तण्ड अक्टसहस्री आदि शंनिक ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक है। सुक्ष्म जसअनयका विषय एक संमयकी पर्याय है। यह जान किसी व्यवहार या प्रयोग बनाने के लिये नहीं, इस शानमें तो व्यवहारका लोप होता है। यह तो विषयज्ञान कराने मारके लिये है। ऐसा स्पष्ट कथन सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों में आचार्य देवोंने किया है। ऋजुसूत्रनयके प्रकार इस प्रकार हैं ---(३१) अशुद्ध स्थल ऋजुसूमयनामक पर्यायाचिकनय, जैसे–नर नारक मादि पर्याय याने विभावधव्यन्जन-पर्यायों का परिचय 1 (३२) शुद्ध स्थूल ऋजुसत्रनय, जैसे चरमशरीरसे कुछ न्यून आकारवाला सिद्ध पर्याय पाने स्वभावद्रव्यन्यजनपर्यायों का परिचय । (३३) अशुस सुक्ष्म ऋजसवनय, जैसे-कोष आदि विभावगुणव्यम्जन पर्यायों का परिचय । (३४) शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय, जैसे-केवलज्ञान आदि स्वभावगुणव्यञ्जन पर्यायों का परिचय । (५) अनादि निस्य पर्यायायिकनय जैसे-मेरु आदि नित्य है इत्यादि परिषय । (३६) सादि नित्य पर्यायापिकनय, जैसे--सिद्ध पर्याय नित्य है। अशुद्ध पर्याय हटकर सदा शुद्ध रहने वाले पर्यापोंका परिचय । (१७) सत्तागीणोत्पादव्ययग्राहक नित्य अशुद्ध पर्यायाधिकनय, जैसे प्रतिममय पर्याय विनाशीक है आदि परिचय । (३०) ससासापेक्ष नित्य अपाद्ध पर्यायाधिकनय, जैसे-एक समयमें हुए वयात्मक पर्यायों का परिचय। (३६) उपाधिनिरपेक्ष नित्य शुद्ध पर्यायाथिकनय, जैसे -सिद्धपायसदश संसारियोंकी शद्ध पर्याय। (४०) उपाधिसापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायाबिकनय, जैसे---संसारी जीवोंके उत्पत्ति और मरण है। पाठ-शदाय शब्दनयके ३ प्रकार है, (४१) शब्दनय, (४२) समभिनय, (४३) एवंभूतनय । ऋजसूत्रनयनामक पर्यायाचिकनयसे जो परिणमन ज्ञात हुआ है उसे उसके प्रायः पर्यायवाची सब शब्दोंमें से न कहकर जो पदार्थादिविधिसे पूर्ण फिट बैठे उस गन्दसे ही कहना (समझना) शम्दनाय है। जैसे दारा भार्या कलय आदि शब्दोंसे भिन्न-भिन्न रूपमें बायको ग्रहण करना। शब्दनयसे उस शके वाच्य अनेक अर्थों में से जिस अर्थ में उस शम्बकी रूदि है उस अर्थको ही उस शब्दसे ग्रहण करना (सममना) सममिवनय है। जैसे-गो बदके वाव्य गाय, किरण, क्षणी, आदि अनेक अर्थ है, किन्तु गो शवकी कदि गायमें होनेसे गो घाब्दसे गायको हो ग्रहण करना (समाना) । समभिरूद्धनयसे जो अर्थ समझा उसको भी सभी समयमें न कहकर (समत कर) उस शब्दकी बाच्य अपंक्रियासे परिणत अब Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह अर्थ हो तब उस शब्दमे उसे कहना (समझना) एवं भतनय है जैसे-पूजा करते समय हो उस व्यक्तिको पुजारी कहना आदि। तीनों शब्दमय शब्दों द्वारा तक वितर्क कर पाण्डित्य दिखाते हैं। अत: इनका विषय समझ लेना पर्याप्त है। कहीं कहीं इनका उपयोग भी होता है वह किसी समस्याका समाधान भी करता है। हां अर्थनयोंका परिचय अधिक आवश्यक है और उन धर्थनयों में से भी अन्तिम व्यवहारनयनामक दव्याथिकनायका परिचय और भी अधिक आवश्यक है। क्योंकि सर्वनयों में से आत्माका परिचय पाकर सविधि परमहद्रयाथिकनय के विषयको लक्ष्य में लेकर नय प्रमाणसे अतिक्रान्त होकर आत्मानुभव होना सुगम होता है । पाठ १०-निश्चयनय व व्यवहारनयके प्रसंगकी जिज्ञासा अध्यात्मशास्त्र में निश्चयनय, ध्यबहार व उपचारका पद पदपर वर्णन मिलता है। सो यहाँ यह जिज्ञासा होना साभत्र है कि तत्वार्थसूत्रके प्रणेता पूज्य श्रीमदुमास्वामीने नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, गब्द, समभिरुढ, एवंभत ये सात मय कहे हैं। इनमें निश्चयनयका नाम ही नहीं हूँ, आध्यात्मशास्त्र में प्रयक्त व्यवहार सप्लनबमें प्रयुक्त व्यवहारनय से भिन्न है, उपचारका भी सप्तनयमें संकेत नहीं है, फिर आध्यात्मशास्त्र में प्रयुक्त निश्चय व्यवहार उपचारका मतलब क्या है ? इसके समाधानका संकेत कुछ छटे गाठमें किया गया है फिर भी और स्पष्टीकरण आवश्यक है। यदि कोई यह समाधान करनेको चेष्टा करे कि नय दो प्रकार के होते हैं एक आगमनय दूसरा अध्यात्मनाय, नो यहां यह टांका होगाती है कि कमा सामान्य आगमसे अलग विषय है। प्रादमाङ्गको आगम कहते हैं, क्या इस आगम से बाहरी विषय है अध्यात्म । यदि आगमसे पृथक है अध्यात्म, तो वह प्रमाणभूत कैसे रहेगा। अत: नथोंके विषयमें परस्पर भिन्न आगमनय व अध्यात्मनय ये दो प्रकार कहना आगमसम्मत नहीं। सौ इस प्रकार निश्चय, व्यवहार व उपचारके प्रसंगकी जिज्ञासाका समाधान नहीं हो पाता। भले ही कहीं-कही यह उल्लिखित है कि ये अध्यात्मभापासे नव हैं, किन्तु उसका अर्थ यह है कि है तो सभी नय आगममें, किन्तु उन सब। नयों से कुछ नयोंका अध्यात्मग्रन्थों में अधिक प्रयोग होता है । उसी कारण इन्हें अध्यात्मनय कहने लगे हैं, सो यह जिज्ञास खड़ी हो रही कि अध्यात्मशास्त्रों में निश्चय व्यवहार आदि का कहाँ समावेश है। पाठ ११.-निश्चयनय व व्यवहारमयके प्रसंगको जिज्ञासाका समाधान अध्यात्मशास्त्र में नबादिक ४ प्रकारों में है-१-निश्चयनय, २. व्यवहार नय, ३-व्यवहार व ४-उपचार । अभेदविधि से जाननेवाले भयको निश्चयनय कहते हैं। भेदविधिसे जाननेवाले नमको व्यवहारनय कहते हैं। निश्चमनय व व्यवहारलय से जाने गये विषयके कथनको व्यवहार कहते हैं। भिन्न भिन्न दयोंका परस्पर एकका दूसरेको कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्धी व आधार आदि बतानेको उपचार कहते हैं। मिश्चयनय तो ७३ पाठमें बताये गये जो १६ प्रकारके अन्तिम व्यवहारनयनामक न्यायिकनय हैं उनमें जो जो अभेदविषयक नब हैं उनमें ममाविष्ट हैं । और, व्यवहारनय भी उन १६ अन्तिम-यवहारनपनामक द्रव्यापिकनयों में से जो जो भेदविषयक नए हैं उनमें समाविष्ट हैं। इनके अतिरिक्त ८ वें पाठ में उल्लिखित पमायाधिक नयों में जो एक व अभेद विषयक नय हैं उनमें कुछ निश्चयनय समाविष्ट हैं और जो अनेक /भेदविषयक नय हैं उनमें व्यवहारनय समाविष्ट है क्योंकि अभंद विधिसे जाता नयको निश्वयनय कहते हैं और भेदविधिसे ज्ञाता नयको व्यवहारनय कहते है। व पर्यायाथिक नये प्रमाण के अश होनेसे सश्य हैं ऐसे ही निएचयनय व व्यवहारनय प्रमाण के मश होने से सत्य हैं। द्रव्याथिकनय वस्तुको द्रव्यको प्रधानता से जानता है, पर्यायाथिकनय बस्तु को पर्यायकी प्रधानतासे जानता है, निश्चयनय वस्तुको अभेदविधिसे जानता है, व्यवहारनय बस्तुकोद मे विधिसे जानता है। यहाँ यह जानना कि भेदविधिसे द्रव्य व पर्यायका ज्ञान नराने वाला यह व्यवहारनय व्यवहारनयनामक व्याथिकनयोंमें यथोचित समाविष्ट होनेपर भी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवहारनप्रनामक रस्याबिकनय से भिन्न लक्षण वाला है तथा यह व्यवहारमय व्यवहार और उपचार से तो जदा है ही। पाठ १२-व्यवहार व उपचारके प्रसंगको बिज्ञासाका समाधान दव्याधिकनय व पर्यायाधिकनवसे, निश्चयनय व व्यवहारनयमे जाने गये विषयका निरूपण करना व्यवहार है। यह व्यवहार रुपबहारनय व व्यवहारनयनामक व्याधिकनय इन दोनों के विषयका भी निरूपक है तो भी यह व्यवहार व्यवहारनपसे भिन्न लक्षणवाला है तथैव वह व्यवहार व्यवहारन यनामक व्याथिकनयसे भी भिन्न लक्षणवाला है। उपचारसे व्यवहार तो भिन्न है ही, क्योकि उपचार तो सिन्न-भिन्न द्रव्योंमें परस्पर कारकपना या सम्बन्ध बताता है, और व्यवहार भिन्न-भिन्न प्रज्यों में परस्पर बारकपना या सम्बन्ध नहीं बताता, किन्तु एक ही द्रव्यको व अनेक द्रव्योंको घटनाका तथ्य बताता है। इसी कारण उपचार मिश्या है, परन्तु व्यवहार मिथ्या नही । यहाँ दो बाते जातव्य है.---१-व्यवहार शब्द का प्रयोग इन स्थलोंमें आता है, व्यवहारनयनामक द्रव्याथिकनय, व्यवहार नय, व्यवहार व उपवार मो वहाँ यह विवेक बनाना चाहिये कि यदि वह व्यवहार उपनारवाला है तो मिथ्या है और यदि द्रव्याबिकनयान्तर्गत रावष्टारनयवाला व्यवहार है तो मिथ्या नहीं, इसी तरह जो नर्क विषयका प्रतिपादक व्यवहार है वह मिध्या नहीं। २-उपचारमें भी जिस भाषा में वह बात उपस्थित करता है उसी रूपमें याने उपादान उपादेव रूपमें . भिन्न ध्योंका परस्पर कारकत्व समझे तो वह समझ मिथ्या है और यदि उपचार कथन में प्रयोजन और निमित्त को समझनेका ही मतलब रखें तो उस विवेकीने उपचार कथनमें से भी प्रयोजन निकाल लिया। पाठ १३-निश्चयनयके प्रकार अभंदयिधिसे एक द्रव्य के बारे में जानकारी होना सो निश्चयनय है (४४) यदि यह जानकारी अखण्ड परम स्वभावको है सो अखाडपरमशद्ध निश्चयनव है..-जैसे अखण्ड शाश्वत महजतन्यस्वभावमात्र आत्माका परिचय । १४५) यदि यह जानकारी गुणकी है तो शक्तिबोधक परमगनिश्चयनम है, जोसे आरमा सहज जान दर्शन शक्ति वीर्य वाला है । (४६) यदि वह जानकारी अभेदविधिसे शुद्ध पर्यायको है तो वह शुद्धनिश्चयनय है। जैसे जीव केवलज्ञाती है आदि शुद्धपर्यायमय जीवका परिचय ।(४६ए) यदि एक द्रव्यमें जानकारी अभेद विविसे शद्ध पर्यायकी है तो वह सभेद शुद्धनिश्चयनय है जैसे-जीवके केवलज्ञान है, केवलदर्शन है, अनन्त सुख है आदि। (४७) यदि एक दूध में जानकारी अभेद विधिसे अशुद्धपर्यायकी है तो वह अशुद्धनिश्चय नम है, जैसे जीव रागी है आदि अशुद्ध पर्यावमा द्रव्यका परिचय । (४७ए) यदि एकद्रव्यका परिचय भेदविधिसे अमाद्धपर्यायको है तो वह सभेद अशुद्धनिश्चयनय है, जैसे जीवके कोन है, मान है, माया है आदि मेदसहित अणुपर्यायमय द्रव्यका परिचय । मभेद परम शुद्धनिश्चयनय शाश्वत गुणको जानने के लिये निश्चयनय है और गुणभेद करके जननिकी दृष्टिसे व्यवहारनय है। इसी प्रकार सभेद शनिश्चयन में एक इव्यमें जानकारी देने से निश्चमन्य है और भेदपूर्वक जानकारी देने से व्यवहारमय है। इसी प्रकार सभेद अशुद्ध निश्चयनम एक द्रव्य में जानकारी देनेसे निश्चनय है और भेदपूर्वक जानकारी देने से व्यवहारमय है। वरपुत: अखण्ड परमशुनिश्चय ही निश्चयनय है उसके समक्ष अन्य निश्चयनय व्यवहार है। निगंतः पयः यस्मात स निश्चयः इस व्युत्पत्ति में प्रर्थ हा कि जिस में अन्य कुछ जोड़ा न जावे और नि:शेषेण चयः निश्चयः इस व्युत्पलिसे अर्थ हुआ कि जिसमें से कुछ निकाला न जाये उसे परिपूर्ण हो रहन दिया जावे। इस प्रकार निश्चयका अर्थ हा कि जह! ओ और तोड न किया जावे वह निश्चयनय है। इस व्युत्पत्यर्थ में परमशुद्धनिश्वयनय सदा निश्चयनय है और जिन निपचपनयोने गुणको जामा, पर्याय को जाना के उत्तरोत्तर अन्तदृष्टि होनेपर व्यवहार हो जाते हैं। उक्त चारों निश्चयनयोंमें पहिले दो तो अन्तिम व्यवहार नवनामक द्रव्याथिकनबमें अन्तर्गत है । अन्तके दो निश्चय नय आशयब उक्त द्रश्याथिकनय में व पर्यायाधिकनय में अन्तमंत है। इसका निर्देश अन्तिम पाठमें नवचो में दिया जायेगा। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १४-शुद्धनय व विवक्षिप्तकदेश शुद्धनिश्चयनय (४८) विवक्षितकदेश शुद्ध निश्चयलयमें विवक्षित वस्तुको युद्ध स्वरूप में ही निखारा जाता है, यस्तुको विकारों से पृथक् निरखा जाता है। जो विकार होते हैं उन्हें चूकि उपादान ही स्वयं निमित्त होकर नहीं प्रकट करता है, निमितके सान्निध्य में ही प्रकट हो पाते हैं, अतः उन विकारोंको निमित्तस्वामिक बताकर वस्तुको शुद्धस्वरूप में ही दिखाना इस नयका काम है, जैसे जीवके विकारपरिधामनोंको पौदालिक जताना द विकारोंसे पृथक जीवको निरखना। व्यवहारनयको गोणकर अर्थात भेदविधिसे जामनेका उपयोग न करके निश्चयनको मुख्य कर माने अभेदविधिसे जाम में परनशुनियनय तक, यि यह भी स्वभावका एकका विकल्प रहा उससे भी अतिक्रान्त होकर स्वानुभवके निकट होते हैं तब संकल्पविकल्पको ध्वस्त करता हुआ शुद्धनय उक्ति होता है और उसके फल में प्रमाणनयनिक्षेपके विकल्पसे अतिक्रान्त होकर सुनायं प्रमाणस्वरूप हो जाता है। यह शानस्थिति (४६) शुद्धनय है । शुद्धनयके प्रकार नहीं हैं, वह तो स्वयं शुद्धनय है। नहीं तो नय विकल्पसे अतिक्राम्त अखण्ड अन्तस्तत्त्वका अभेद दर्शन है। (ए) वहिस्तत्वके निषेध द्वारा शद्ध तत्वका परिचय कराना प्रतिषेधक सुद्धनय है, जैसे जीव कमसे अबर है आदि परिचय। पाठ १५–व्यवहारनयके प्रकार भेदविधिसे वस्तु के जाननेवाले नयको व्यवहारनय कहते हैं। विधिकी दृष्टि से कई द्रव्याथिकनय व्यबहा रनथ हो जाते हैं और कई पायाथिकनय व्यवहारमय हो जाते हैं । कई निश्यमनय भी उससे अधिक अन्तष्टि होनेपर उसको तुलना में व्यवहारमय हो जाते हैं । सब ही प्रकारके व्यवहारनयों के नाम इस प्रकार है-- । (५०) परमशुद्ध भेदविषयी ध्यबहारनन अथवा भेदकल्पनासापेक्ष बस ब्याथिकनय, जैसे आत्माके ज्ञान हैदर्शन चारित्र है आदि परिचय । (५१) प्राद भेदविषयी दश्याथिक या पाइसक्ष्म ऋजसव केवल ज्ञान, अनन्त आनन्त है आदि का परिचय (५२) अशुद्धपर्याय विषयी व्यवहारनय या अशुद्ध सूक्ष्म ऋजूसूत्रनय, जैसे जीव के कोध है, मान है आदि । (५३) उपाधिसापेक्ष अमुख द्रव्यायिकनम, जैसे कर्मोदय विपाकके सान्निध्य में जीवके विकाररूप परिणमनेका परिचय । (५४) उत्पादव्ययसापेक्ष असद्धाद्रव्याधिक, जैसे द्रव्य उत्पादम्पयनोध्ययुक्त है. यों त्रितययुक्त द्रव्य को निरखता (५५) अशुद्ध स्थूल ऋजुसूत्रन्य, जैसे मर मारक, तियं च, देव आदि विभावदस्यध्यान पर्याय निरखना । (५६) गद्ध स्थूल सूत्रनय, जैसे चरम परीरसे किषित् न्यून आकार वाला सिवपर्याय जानना । (५७) अनादि नित्यपर्यायाथिकनय, जैसे मेरु मादि निस्प है आदि का परिचय (५८) सादिनित्यपर्यायाथिकन, जैसे सिद्धपर्याय निस्य है आदि परिचय (५६) ससागौणोत्पादस्पयवाहक नित्याशुद्धपर्यायाथिकनय, जैसे प्रतिसमय पर्याय विनाशीक है। (६०) सत्तासापेक्ष नित्याशुद्धपर्यायाधिक नय, जैसे एक समय में अमात्मक पर्याय ! (६१) उपाश्चि साक्षपे नित्यागद्धपर्यायाधिकनय, जैसे संसारी जीवों के उत्पत्ति मरण है। इसीप्रकार भेदविधि जहां पाई जावे वे सब व्यवहारनय है। यहाँ इस संदेह में नही डोलमा है कि ये ही अनेक नय निश्चयनयमें कहे गये हैं और ये ही गहाँ व्यवहारमय में कहे गये हैं, क्योंकि आशयवश यह सब परिवर्तन हो जाता हैं। जब अभेदकी ओर आगय हो जाता है तो वह निश्चय हो जाता है और जब भेदकी ओर आशय हो जाता है तो वह व्यवहारनय हो जाता है। सभेद प्रयुक्त गुणपर्यापका परिचय एक दृश्य में अभेदके आशयमें निपचयनय है, भेदके आशय में व्यवहारमय है। ऐसी गुजाइशें कई तो पापिकनयों में हैं और कई पर्यायाथिकनयों में हैं। इसका निर्देश अन्तिम पाठ नयमूची में हो जायेगा । आत्मष्ठिसकी साधनामें भेदप्यमहारने तज कर अभेद अन्तस्तत्वका उपयोगी बनना होता है. अतः साधनाके प्रसंग में व्यवहारनय मिथ्या हो जाता है और पश्चात सवनयात्मक ज्ञानानमति के प्रसंगमें निपचयनय भी मिथ्या हो जाता है, किन्तु परिचय के प्रसंगमें न तो मिश्चयनय मिथ्या है और न व्यवहारनय मिथ्या है। ( ३२ ) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १६-व्यवहार द्रव्याथिकनय व पर्यायाथिकनयसे तथा उनके अन्तर्गत निश्वयनय व व्यवहारनपसे जाने गये विषपका कथन करना सो व्यवहार है याने तथ्यके कयनका नाम व्यवहार है। इसका दूसरा नाम उनम है । जितने भी नम हैं उनका कथन किया जाय तो उसने ही व्यवहार हो जाते है। अत: उन व्यवहारों के नाम भी वे ई पड़ जाते हैं, उनके अन्तमें निरूपक व्यवहार इतना शब्द और जोड़ दिया जाता है। फिर भी कई नाम पवहारके ऐसे हैं जिनके शटो से ही कथनप्रकारके हेतुबोंका निर्देश हो जाता है । अतः कुन्छ व्यवहारों के नाम दिये जाते हैं । (६२) भूतनंगमप्रतिपादक व्यवहार, जैसे-भूत कालीन स्थितिको वर्तमान काल में जोड़ने के संकल्पका घटनासम्बन्धित प्रतिपादन । (६३) भाविनगमप्रतिपादक व्यवहार, जैसे-भविष्यत्कालीन स्थितिको वर्तमान में जोड़ने के संकल्पका घटनासम्बन्धित प्रतिपादन । (-४) वर्तमाननेगमप्रतिपादक व्यवहार, जैसे वर्तमान निष्पन्न अनिएको निष्पन्नवत् संकल्पका प्रतिपादन । (६१) परसंग्रह प्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जोसे 'सत' कहकर ममम जीव पुद्गलादिक सतोंके संग्रहका प्रतिपादन करना। (६६) अपर संग्रहदव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे मन को भेष्ट कर कहे गये जीव ब अजीवमें से जीष कहकर समस्त जीवोंके संग्रहका प्रतिपादन करना। (६६A) परमगुद्ध अपरसग्रहद्रव्वार्थिकप्रतिपादक व्यवहार, जैसे 'ब्रह्म' कहकर सर्व जीवोंमें कारण समयमारका प्रतिपादन करना । (६६B) शुद्ध अपरसंग्रहाच्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे मुक्त जीव कहकर समस्त कर्ममुक्त सिद्ध भगवंतोंका प्रतिपादन करना । (६६C) अश्य अपरसंग्रहवब्याथिकप्रतिपादक व्यवहार, जैसे संमारी जीव कहकर समस्त संसपी जोबोंका पनिपादन करना । (६७) परमसंग्रहभेदक व्यवहारमय दन्यायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे सत् २ प्रकार के हैं जोय असो व आदि यों परसंग्रहको भेदनेका प्रतिपादन 1 (६८) अपरसंग्रहदक व्यवहारनय द्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार. जौमे जीव प्रकार के हैं मुक्त संसारी आदि यों अपरसंसहको भेदनेका प्रतिपादन । (६८A) अन्तिम अपरसंग्रहभेदक व्यवहाग्नय प्रत्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जेसे दयणक स्कंध भेद कर एक-एक अणका प्रतिपादन । (६८B) अन्तिम-अखण्डस्चकै ध्यनहारनय दम्याधिक प्रतिधायक व्यवहार, जैसे एक अण, एक जीव आदि अखण्ड सत का प्रतिपादन। (६६) अखण्ड पम्मशुद्ध सद्भुत व्यवहार, जैसे अनाद्यनन्त अहेतुक अखण्ड चैतन्यस्वभावमात्र आत्माका प्रतिपादन । (६EA) गुणमुणि निरपक परमशुद्धसद्भूत-व्यवहार, जैसे आस्माका स्वरूप सहज चैतन्य है आदि प्रतिपादन । (७०) सगुण परमशुद्ध मद्भून व्यवहार, औरी आत्माके सहज अनादि अनन्त चतुष्टयका प्रतिपादन । (७०A) प्रतिषेधक शुद्धनय प्रतिपादक व्यवहार, गैरो जीव पुद्गलकर्मका अफा है आदि कथन । (७१) अभेद शुद्ध सद्भत व्यवहार, जैसे गुर फ्यायमय अस्माका प्रतिपादन । (७२) सभेद शुद्ध सद्भूत व्यवहार, असे आत्माके केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि शुद्ध पर्यायवान आत्मा का प्रतिपादन । (७३) कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहार, जैसे आत्माको जानता है आदि एक ही पदार्थ ये कलां कर्म आदि #कों का कथन । (७४) अनुपचरित अशुद्ध सद्भूत व्यवहार, जैसे श्रेणीमत मुनिके गादिक विकारका प्रतिपादन ।। ) उपयरित अशुद्ध सद्भुत व्यवहार, जैसे जीवके व्यक्त क्रोध मान आदि अशीयोंका प्रतिपादन । (६) उपाधिसापेक्ष अशुस द्रष्यार्थिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे पद्गलकर्मविपाकका निमित्त पाकर हये विकृत जीवका प्रतिपादन । (७७) उपचरित उपाधिसापेक्ष पाद्ध प्रतिपादक व्यवहार, जैसे विषयमा पदार्थ में उपयोग देनेपर ये व्यक्त विकारका कथन । (७८) उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध ब्याथिक प्रतिपादक व्यवहार, जैरो संसारी जीव मिसदृश शवात्मा है का प्रतिपादन। (७६) उत्पादन्यवगौणसत्ताग्राहक शुद्ध न्यायिक प्रतिपादक ब्यवहार. मे प्रोब्धत्वको मुधनासे देयके नित्यत्वका प्रतिपादन । (40) भेदकल्पनानिरपेक्ष शद्ध द्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार से निज गुण पर्यायगे अभिन्न द्रव्य है आदि का प्रतिपादन । (८१) उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिका प्रतिपादक व्यवहार, जैमे प्रत्येक वस्य ध्रुध होकर भी उत्पाद व्यय वाला है आदि कथन । (२) भेदकल्पनासापेक्ष अजय द्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार जैसे आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चरित्र आदि गुण हैं आदि कथन । (८.) अन्वय द्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे द्रव्य सदैव Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने गुण पर्यायों में व्यापक रहता है आदि कथन । (८४) स्वद्रव्यादिग्राहद्रव्यायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे जीव स्वदध्यक्षेत्रकालभावसे है आदि कथन । (८५) परद्रव्यादिग्राहकद्रव्याथिकप्रतिपादक व्यवहार, जैसे जीव परद्रव्यक्षेत्रकालभाबसे नहीं है आदि कथन । (८६) परमभावनाहक व्रज्यार्थिक प्रतिपादक व्यवहार, असे अत्मा सहज ज्ञायक स्वभाव है आदि कथन ! (८७) अशुद्ध स्थूल ऋजुसूत्र प्रतिपादक व्यवहार, जैसे नर, नारक, स्कन्ध आदि अशुद्ध द्रज्यव्यञ्जनपर्यायोंका कथन। (८८) शुद्ध स्थूल ऋजुसूत्रप्रतिपादक व्यवहार, जैसे सिद्ध पर्याय, एक अणु, धर्मास्तिकाय आदि पशुश द्रव्य व्यवनपर्यायका कथन । (६) अशुद्ध सुक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादन व्यवहार, जैने क्रोध, मान आदि विभाव गुणन्यजनपर्यायोंका कयन । (६०) शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादक ध्यबहार, जैसे केवलज्ञान, केवलदर्शन, मावि स्वभावगुणग्यजन पर्यायोंका कथन । (६१) अनादिनित्यन्यायाधिक प्रतिपादक श्ययाः, न मे : अकर चल्यालय नित्य है आदि कथन । (६२) सादि नित्य पर्यायाधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे सिद्ध पर्याय नित्य है आदि शुद्ध होकर सदा रहने वाली पर्यायका कथन । (६३) सत्तागौणोत्पादश्ययग्राहक अशुद्धपर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे-समय समय में पर्याय विनश्वर है आदि कमन (६४) सप्तासापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे समय समय में यात्मक पर्याय हैं आदि कयन। (६) उपाधिनिरपेक्ष मित्य शुद्ध पर्यायाथिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे संसारियोंकी सिद्ध पर्यायसदा शुद्ध पर्यायोंका कथन 1 (६६) उपाघिसापेक्ष नित्य अशुद्ध पर्यापार्थिक प्रतिपादक व्यबहार, जैसे संसारी जीवोंके इस्पत्ति मरण है आदि कथन । (६७) स्वजात्यसद्भूत व्यवहार, जैसे परमाणु बहुपदेशी है, जीव रागी है आदि कथन । (६५) विजात्यसद्भूत व्यवहार, जैसे मतिज्ञान भूतं है, इश्वमान मनुष्य, पशु जीव है आदि कथन । (६६) स्वजातिविजात्यसद्भूत व्यवहार, जैसे झम जीव अजीव में ज्ञान जाता है आदि कथन । (१००) शब्दनय पर्यायाधिक प्रतिपादक व्यवहार, जैसे ऋजुसत्रतयके विषयको लिंगादि व्याभिचार दूर करके मोग्य शब्दसे कहना। (१०१) समभिरूढनयपर्यावाथिक प्रतिपादकव्यवहार, जैसे शवन यसे निश्चित शब्दसे वाच्य अनेक पदार्थों में से एक रुढ पदार्थका कथन करना । (१०२) एवंभूतनयपर्यायाथिकनय प्रतिपादकव्यवहार, जैसे समभिरूढनयसे निश्चित पदार्थको उसी क्रियासे परिणस होनेपर ही उस शब्दसे कहना। पाठ १७-उपचार भिन्न-भिन्न द्रव्य गुण पर्यायों में परस्पर एकमें एक दूसरेके द्रव्य गुण पर्यायोंका आरोप करना तथा कर्तापन, कर्मपन, करणपन, संप्रदानपन, अपादानपन, संबंध व आधार बताना उपचार है। उपचार जिस भाषामें कथन करता है उसके अनुसार स्वरूप या घटना नहीं है अतः उपचार मिथ्या है, फिर भी उपचारका वर्णन उपदेश में इस कारण चन्नता है कि उस प्रसंगमें जो प्रयोजन है या निमित्त है उसका संक्षेपतः सुगमतया बोध हो जादै । इस कारण उपचार कुछ प्रयोजनवान है। उपचार के प्रकार इस प्रकार हैं (१०३) उपाधिज उपचरित स्वभाव व्यवहार, जैसे जीवके मूर्तत्व व अचेतनत्व का कथन । (१०४) उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार, जैसे क्रोधकर्मके विपाकके प्रतिफलनको क्रोध कर्म कहना । (१०५) स्वाभाविक उपवरित स्वभाव व्यवहार, जैसे प्रभ समस्त पर पदार्थोके ज्ञाता है आदि कथन । (१०६) द्रव्ये द्रव्योपचारक (एकला. तिद्रव्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक) असमत व्यवहार जैसे शरीरको जीव कहना । (१०६A) स्वजातिद्रव्ये स्वजातिद्रव्योपवारक असगत व्यवहार, जैसे शरीर मिट्टी है आदि कथन । (१०७) एकजातिपर्याय अन्य जातिपर्यायोपचारक असदमूल म्यवहार, जैसे अन्न ही प्राण हैं आदि कथन । (१०८) स्वजातिपर्याय स्वजातिपर्यायोपचारक असत व्यवहार, जैसे दर्पण में हुये प्रतिमिम्बको दर्पण कहना । (१०६) एक जातिगुणे अन्य जातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार, जैसे मदिरापानसे अभिभूत मतिज्ञानको मूर्त कहना । (११०) स्वजातिगुणे स्वजातिगुणोपचारक असदभूत व्यवहार, जैसे ज्ञान ही श्रद्धान ह, शान हा चरित्र है आदि कथन । (१११) एकजातिदध्ये अन्यजातिगुणोपचारक असद्भुत व्यवहार, जैसे जीव मुर्तिक है पादि कथन । (११२) स्वजातिद्रव्ये स्वजातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार, जैसे परमाणुको ही रूप कहना । (११३) एकातिद्रव्ये अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भूत आवहार, जैसे जीव भौतिक हैं आदि कथन । (११४) स्वजातिध्ये Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वजातिपर्यायोपचारक असद्भूत व्यवहार, जैसे परमारण बहुप्रदेशी है, आत्मा भी गुण है आदि कथन । (११५) एकातिगुणं अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भुत व्यवहार, अस ज्ञान गुण हो सकल द्रव्य है आदि कथन । (११६) स्वजातिगुणे स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भुत व्यवहार जैसे द्रव्य के रूपको ही द्रव्य कहना, एप परमाणु आदि ।।११७) एकबातिगुणे अन्यजातिपर्यायोपचारक असदभुत ध्यबहार, जैसे ज्ञान ही धन है आदि कथन । (११८) स्वजानि गुण स्वजातिपर्यायोपचारक असनत व्यवहार, जैसे ज्ञान पर्याय है आदि कथन । (११६) एक जातिपर्याय अन्यजाति द्रव्योपचारक असद्भुत व्यवहार, जैसे शरीरको ही जीब कहना।।१२०) स्वजातिपर्याये स्वजातिथ्योपचारक असत व्यवहार, जैसे पृथ्वी आदि पुन गल स्कन्धको द्रव्य कह देना । (१२१) एकजातिपर्याये अन्यजातिगणोपचारक असद्भुत उपवहार, 1 जैसे पण पक्षी आदिके शरीर को देखकर यह जीव है आदि कथन करमा । (१२२) स्वजातिपर्याये स्वजातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार, जैसे अहिंसाको गुण व विशिष्ट रूपको देखकर उत्तम रूप वाला कहना । (१२३) संश्लिष्ट स्वजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार, जैसे यह परमाण इस स्कंधका है आदिकथन । (१२४) असंश्लिष्ट स्वजात्युपचारित असद्भत व्यवहार, जैसे ये पुत्र स्त्री आदि इम जीवके हैं आदि कथन । (१२५) संश्लिष्ट विजात्युपचारित असद्भुत व्यवहार, जैसे यह शरीर इस जीव का है, आदि कथन । (१२६) असंशिलष्ट विजात्युपचारित असद्भुत गवहार, जैसे यह धन वैभव मेरा है आदि कथन 1 (१२७) संश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार, जैसे यह आभूषणसज्जित कन्या मेरी है आदि कथन । (१२५) अंसविनष्ट स्वजातिविजात्युपरित असद्भूत व्यवहार, जैसे ग्रह ग्राम नगर मेरा है आदि कथन । (१२६) पर कतत्व अन्पचरित अमद्भुत व्यबहार, जैसे पुदगल कर्मने जीवको रागी कर दिया आदि कथन । (१२६ए) परभोक्तृत्त्व अमद्भूत व्यवहार, जैसे जीव पुद्गलकमको भोगता है आदि कथन । (१२६वी) परकर्तृत्व उपचरित असद्भूत व्यवहार, जैसे जीव घट पट आदिका कर्ता है आदि कथन । (१३०) परकर्मत्व असदभत व्यवहार, जैसे जीवके द्वारा ये पृण्य पाप बनाये गये आदि कथन । (१३१) परकरणत्व असद्भूत व्यवहार, जैसे जीव कषाय भाबके द्वारा पौद्गलिक कर्मों को बनाता है भादि कवन 1 (१३२) परसंप्रदानत्व असद्भूत व्यवहार, जैसे पिताने पुषके लिये मकान बनाया आदि कथन । (१३३) परापादनत्व असद्भूत व्यवहार, जैसे जीवसे इतने कर्म झड़कर अलग हो गये आदि कथन । (१३४) पराधिकाणत्व असदभूत ब्यवहार, जैसे जीवमें कर्म ठसाठस भरे हुये है आदि कथन । (१३५) परस्वामित्व असदभूत व्यवहार जैसे मेरा यह धन वैभव शरीर आदि है का कथन । (१३६) स्वजातिकारणे स्वजातिकार्योपचारक ध्यवहार, जैसे रिसा आदिक दुःख ही है, आदि का प्रतिपादन । (१३७) एकजातिकारणे अन्यजाति कार्योपचारक व्यवहार, जैसे अन्न छन प्राण है आदि कथन । (१३८) स्वजातिकायें स्वजातिकारणोपचारक व्यवहार, जैसे श्रत ज्ञान भी मतिज्ञान है आदि कथन । (१३६) एक जातिकायें अन्यजातिकारणोपचारक व्यवहार, जैसे घटाकारपरिणत ज्ञान घट है आदि कथन । (१४०) एकजात्यल्पे अन्यजातिपूर्णोपचारक ध्यवहार, जैसे राज घराने में यह नौकर सर्वध्यापक है आदि कथन । (१४१) स्वजात्यल्प स्वजातिपूर्णोपचारक व्यवहार, जैसे सम्मक् मतिज्ञान केवल ज्ञान है आदि कथन । (१४२) एक जात्याधारे अन्यजात्याधेयोपोचारक व्यवहार, जैसे मंचपर बैठकर विद्वान प्रवचन करें तो कहना कि इस मंचने बड़े प्रवचन किये । (१४३) स्वजात्याधारे स्वजात्यायोपचारक व्यवहार, जैसे इस गरुके उदरमें हजारों शिष्य पड़ें हैं। ११४४) एक जात्याधेये अन्यजात्याधारोपपारक व्यवहार, जैसे डलियामें केला रखकर बेचने वालेको केला कहकर पुकारना । (१४५) स्वजात्याधेये स्वजात्याधारोपचारक व्यवहार जैसे मौजसे मां की गोद में बैठे हुये बालकका नाम लेकर मांको पुकारना। (१४६) तद्वति तदुपचारक पवहार, जैसे लाठी वाले पुरुषको लाठी कहकर पुकारना । (१४७) अतिसामीप्ये सत्त्वोपचारक व्यवहार, जैसे नरम (अन्तिम) भवसे पूर्व के भनुष्य भवको भी चरम कहन । (१४८) भाविनि भूतोपचारक व्यवहार, जैसे वें गुणस्थान में औपमिक या क्षायिक भाव कहना। (४६) तत्सदृशकारणे तदुपधारक व्यवहार, जैसे कर्मोदयजनित विकार इस जीबके लिये शल्य है। (१५.) सणे एकत्योपचारक व्यवहार, जैसे गेहूं दानोंके ढेरको गई एक वचन कहकर कहना। (१५१) आश्रये आश्चयी-उपचारक व्यवहार जैसे राजा प्रजाके गुण दोषोंको उत्पन्न करता है, आदि कथन । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ १८-अवाप्ति नय पदार्थ को शीघ्न सुगमविधिसे नि:संशय यथार्थ समझने के लिये अन्य भी दृष्टियां याने नय हैं। इन नयों में जो अभेदारक नय हैं भे निश्चय नय हैं, जो भेदपरक नय हैं वे व्यवहार गय हैं । इन अवाप्तिनयों का निर्देश २२३ पाठ में १५२ न० से २० नं० तकके नयों में किया जावेगा। पाठ १६ निमित्तकारण व प्राधयभत कारण का विवेक निमित्तका सही प्रयोग करने में और नयष्टि परखने में जहाँ अनेक परिचय ज्ञातव्य है वहाँ कुछ प्रसंगों में निमित्त कारण व आधयत कारणका अन्तर भी ज्ञातव्य है। निमित्त कारण उसे कहते हैं जिसका नमित्तिक कार्य के साथ अन्वय व्यतिरेक सम्बन्ध हो जैसे क्रोध प्रकृति का विपाक (उदय या उदीरणा) होनेपर ही जीवमें कोष विकल्प होना, कोचप्रकृतिविमाक न होनेपर क्रोधविकल्प नहीं होना । वह अन्वयष्यतिरेक सम्बन्ध कर्मविपाकमें है अत: क्रोधप्रकृतिविपाक क्रोध निमित्त कारण है। तथा जिस व्यक्तिपर उपयोग देकर क्रोध प्रकट हो उसे आश्रयभुतकारण कहते हैं। आथयभूत कारणका विकारके साथ अन्वयव्यतिरेक सम्बन्ध नहीं, किन्तु उपयोग देकर कारणा बनाया गया, अतः आगभूत कारण आरोपित कार है, समरिसर: है. कारण नहीं । यहां यह ज्ञातव्य है कि निमित्त उपादानमें कुछ परिणति नहीं करता, किन्तु ऐसा योग है कि निमित्त कारगके सानिध्य में ही विकार होता, निमित्त कारण के अभाव में विकार नहीं हो सकता । आश्रयभूत कारण उपादानमें भी कुछ परिणति नहीं करता और बाश्रयभूत विषयके न होनेपर विकार न हो और विषयभूत पदार्थ के होने पर ही विकार हो या विषयभूत पदार्थ के होनेपर विकार हो हो हो ऐसा कुछ भी नियन्त्रधा नहीं है । हाँ प्रकृति के उदय होनेपर यह जीव यदि विषयभूत पदार्धपर उपयोग देता है तो विकार व्यक्त होता है उपयोग न दे तो विकार व्यक्त नहीं होता, प्रकृति के उदय होने पर व विषयभूत पदार्य पर उपयोग न होने पर प्रकृतिविपाकविमित्तक विकार अध्यक्त होकर निकल जाता है। विकारसे हटना व स्वभाव लगना यह अनादिसे विषयप्रेमी इस जीवको कैसे बने ? जब तक विकारसे घृणा न होनब तक विकारसे हटना संभव नहीं । विकारसे घणा तब बनेगी जब यह ज्ञान में आ जाये कि विकार असार है, अपवित्र है, परभाव है और यह ज्ञान तब बने जद विकार नैमिसिक है यह बात जात हो। विकार नैमित्तिक है यह शाम तत्र बने जब निमितका नैमिनिक से अन्ययध्यतिरेक सम्बन्ध ज्ञात हो। इस तरह निमितका नैमित्तिकका पथार्थ ज्ञान भितिक विकारसे हटने के लिए प्रायोजनिक है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि साधयमत पदार्थ विकारका निमित नहीं है, किन्तु व्यक्त विकारके लिये आश्रय भून हा व्यवहारमें उसे निमित्त कह देते हैं । सो आययभूत कारणको निमित्त बताकर, उदाहरणमें रख-रखकर निममा मर्वथा खण्डन करना या तो अज्ञानमुलक है या पहिले आश्रयभूतको ही निमित्त समझकर उसका खण्डन काली चले आये थे, मो अब वास्तविक निमिसकी बात सामने आने पर भी उसी हठको निभाना कपरमूलक है। निमय विकारका कर्ता नहीं, किन्तु निमिससानिध्य बिना विकार होता नहीं। यों निमित्तकारण व आषयभूतकारणका बिकानेर, नबस्टियोजना, व आता हित के लिए प्रयोगविधि सही बन जाती है। पा४२०-व्यवहार का विवेक व्यवहार शब्दका प्रयोग व्यवजारनयनामक द्रव्याधिकनय, भेदविषयक व्यवहारनय, नविषयप्रतिपादक व्यवहार व उपचार न चार स्थलोंपर होता है। अनः जहाँ व्यवहार शब्द आवे वहाँ यह विवेक करना अत्यावश्यक है कि यह बार उन चारोंमें से कौनसा है । यदि यह विवेक न रखा ज्ञावे और उपचार वाले व्यवहारको मिथ्या कहा है सो मी नानको मर्वत्र व्यवहारमें अपनाकर आदिके तीनों व्यवहारोंको मिथ्या कह दिया जाये तो सई आगम शास्त्र मिच्या मानने गड़गे । अत: यवहारका विवेक अत्यावश्यक है। उनः वाणे व्यवहारोंका स्पष्टीकरण पाठ नं. ५, ६, ७, १०, ११, १२, १५, १६, १७ में किया है । उसे Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ लेने से नयष्टिका प्रयोग व आत्महिनके लिये आत्मप्रयोग सही होगा। जैसे दूध गाय, भैस, बकरी के दूधको कहते हैं और आकके पेड़से निकले सफेद रसको भी दूध कहते हैं, आकका दूध पीनेसे मरण हो जाता है तो आकके दूध का उदाहरण देकर सर्वथा यह कहना कि दूध प्राणघातक है यह क्या युक्त है व ऐसी श्रद्धासे जीवन चलेगा क्या ! हाँ वहाँ जो विवेक करेगा कि आकका दूध घातक है गाम भैस आदिका दूध घातक नहीं, बल्कि पोषक है वह अपना जीवन में सही प्रयोग करेगा। पाठ २१-स्वतन्त्र सत्त्व व अत भाषका विवेक वस्तु दव्य रूपसे, गुणरूपसे व पर्यामरूपसे शेय होता है। वहाँ द्रष्यका लक्षण अन्य है, गुणका लक्षण अन्य है, पर्यायका लक्षण अस्प है। गुणोंमे भी प्रत्येक गुणका लक्षण अन्य-अन्य है। पर्यायों में भी प्रत्येक पर्यायका लक्षण अन्य अन्य है। इनका वर्णन करते हुए अपना कौशल बताने के लिये यदि कोई यों कहने लगे कि प्रत्येक गुण स्वतन्त्र मत है, प्रत्येक पर्याय स्वतात्र मत है, गण स्वतन्त्र सत् है पर्याय स्वतन्त्र खत है, सो यह सब कथन स्याद्वादशासन से बहिभूत है । पर्याय स्वतःच सत् नहीं इसका संक्षिप्त निरूपण ८ ३ पाठ है । गुण स्वतन्त्र सत् नहीं इसका अन्न यहाँ विचार कीजिये। जो स्वतन्त्र सत् याने सत् होता है उसके ये लक्षण है.-१-उत्पादश्यध्रौव्ययुक्त सत् २-गुणपर्यायवद्रव्य ३-प्रविभक्तप्रदेशत्व, ४-साधारणगरा वाला, ५-असाधारणगणवाला, ६-द्रव्यध्यजनपर्यायवाला, जाण व्यज्जनपर्यायवाला । गुणमें ये सातों ही बातें नहीं पाई जाती हैं । गुण उत्पादव्यय वाला नहीं है, गुणमें गुण होते नहीं हैं, क्योंकि गुण निगुण हैं, 'द्रव्याश्रमा निगुणा गुणाः', गुणों के प्रदेश द्रव्य व पर्याय से भिन्न नहीं है । गुणोंका आकार नहीं होता । अतः सातों बातें ही गुणमें नहीं हैं। गुण और पर्याय सद्भूतद्रव्यको तारीफ है । इस तारीफको समझने के लिये इनका लक्षण जानना होता है । सो लक्षणभेदसे गुण व पर्यायोंका विशिष्ट परिचय होता है । यो द्रव्य, मुण, पर्यापमें, व परस्पर सब गुणों में, परस्पर सब पर्यायों में अतद्भाव है, किन्तु स्वतन्त्र-स्वतन्त्र सस्व नहीं है। हाँ वस्तुको द्रव्य कहते हैं सो द्रव्यको स्वतन्त्र सत् कह सकते हैं । गुणोंको व पर्यायको स्वतन्त्र मत कहना मीमांसकोंका सिद्धान्त है। इस प्रकार द्रव्य गुण पर्यायके सम्बन्ध में सही जानकारी होने पर नयोंका प्रयोग आत्महितके लिये आश्मप्रयोग सही होता है। पाठ २२-दृष्टि सूची . सामनय (मैगममय व्याधिक) १. भूतनगम नय (जैसे आज दीपावलिके दिन वर्षमान स्वामी मोक्ष गये इस प्रकार वर्तमान में भूतका प्रकाश)! २. प्राधिगमलय (जैसे अहंन्त तो सिद्ध हो ही चुके इसप्रकार वर्तमान में भावीका प्रकास)। ३. वर्तमान समनय (जैसे भात पक रहा है, आदि इसप्रकार निष्पन्न व अनिष्पन्नका वर्तमानमें निष्पन्नवत् प्रकाश। संग्रहनय अध्याथिकमय ४, परसंग्रहनामक ग्यापिकमय (जैसे-सत्, सत् में सबका संग्रह है, क्योंकि चेतन अचेतन सभी पदार्थ सरस्वरूप हैं) ५. अपरसंग्रहनयनामक द्रव्यापिकनय (जैसे-जीक । जीवमें जीवोंके सिवाय अन्यका संग्रह नहीं) ६, परमशुद्ध अपरसंग्रहलामक याचिकमय (जैसे-ब्रह्मस्वरूप आत्मा, जिसके एकान्तमें सांख्याविसिद्धान्त हो जाते हैं) ७. शुख अपरसंग्रहनयनामक द्रव्याबिकनम (जैसे-मुक्त जीव, इसमें अतीत अनागत वर्तमान सर्व सिठोंका संग्रह है। ८. अशुद्ध अपरसंग्रहनयनामक द्रव्यापिकनय (जैसे संसारी जीव, इसमें पस स्थावर प्रादि सभी अशुद्धपर्यायवान जीवोंका संग्रह है। मनन्तिम व्यवहारनय व्याथिकमय ६. परमसंग्रहभेवक व्यवहारनयनामक द्वयमाथिफनए (जसे-द्रव्य ६ प्रकारके हैं जोय, पुद्गल, धर्म,अधर्म आकाश व काल) ( ३७ ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. अपरसंग्रहोंरक व्यवहारमयनामक थ्याथिकनम (जैसे-जीव दो प्रकारके हैं मुक्त व संसारी, इस प्रकार शुख व अशुद्ध का भेद किये बिना जीवोंका भेदोंमें परिचय) ११. अन्तिम अपरसंग्रह वकव्यवहारनयनामक ख्यायिकनय (जैसे-पृथक् पृथक् एक-एक सत् व मणुक आदि स्कन्ध में एक अणुका परिचय) १२. परमशुद्ध अपरसंग्रहभेवक द्रव्यहारनयना किनाः स्यान्मकार सम्बद्ध अनन्त आत्मावोंका परिचय) १३. शुद्ध अपरसंग्रहभेवक व्यवहारनयनामक द्रव्याधिकनय (जैसे-मुक्त जीवोंका क्षेत्र काल गति लिङ्ग आदिसे परिचय) १४, अशुद्ध अपरसंग्रहभेदक व्यवहारनधनामक द्रध्यापिकनय (जैसे-संसारी जीवोंका स स्थावर आदि विभागोंसे परिचय) अन्तिम व्यवहारनय त्याथिक १५. परमशव अभेदविषयी अन्तिम व्यवहारमयनामक द्रव्याधिकनय (जैसे आत्मा चैतन्यस्वरूपमात्र है आदि) १६. परमशव भंविषयो अन्तिम व्यवहारनयनामक द्रष्यायिकनम (आत्मामें ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण हैं। १७. माद्ध अभेदविषयी अन्तिम व्यवहारनयनामक प्राधिकनय (जैसे भगवन्त आत्मा केवलज्ञानी है आदि) १८, शुखभेवधिषयी अग्तिम व्यवहारनयनामक प्रत्याधिकनय (जैसे भगवन्त आत्मामें अनंतज्ञान, दर्शन आदि हैं) १६. अव्यक्त अशुब अन्तिम व्यवहारनय-नामक द्रव्यायिकनय (जैसे-उपशम या अपकश्रेणिमें आया हुआ मुनि) २०. व्यक्त मशुद्ध अन्तिम व्यवहारनयनामक बध्यार्थिकमय (जैसे किसी व्यक्तिपर क्रोध करनेवाला कोई एक मनष्य) २१. उपाधिनिरपेक्ष राख व्यायिकनय (जैसे-संसारी जीव सिद्ध समान शुद्धात्मा है आदि, उपाधिका सम्बन्ध नरक कर स्वभावमाध निरखना) २२. उत्पादग्ययगीणसत्ताग्राहक शुद्धद्रव्यापिकनय (जैसे द्वन्य नित्य है, आदि, प्रौव्यकी मुख्यतासे बस्तुका निरसना) २३. भेदकल्पनानिरपेक्ष शद्रव्यापिकमय (जैसे-निजगुणपर्यायसे अभिन्न द्रव्य है, यों शुद्ध स्वरूप निरखना) २४. उपाधिसापेक्ष अशुबध्याथिकनय (जैसे कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव विकाररूप परिणमता है, आदि परिचय) २%A, उपाध्यमानापेक्ष शुद्ध व्यायिक्रमय (जैसे-कर्मोपाधिके अभावका निमित्त पाकर कर्मत्वका दूर होना निरखना) २४B शुखभावनापेक्ष शुद्धद्रश्यापिकनय (जैसे-आत्माके शुद्धपरिणामका निमित पाकर कर्मत्वका दूर होना निरखना) २५, उत्पावव्ययसापेक्ष अशुखद्रव्याथिकनय (जैसे-द्रव्य उत्पादव्ययनौम्पयुक्त है, यों विलक्षणासत्तामय द्रव्य निरखना) २६. भेव ल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (जैसे-आत्माके ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र हे आदि गुणोंका परिचय) २७. अन्धय ग्याथिकाय (जैसे-त्र कालिक गुणपर्यायस्वभावी आत्मा, आदि मूलवस्तु निरखना) २८. स्वव्यादिग्राहक न्यायिकमय (जैसे-स्वद्रव्यक्षेत्रकासभावसे वस्तुके अस्तित्व का परिचय) २६. परद्रव्यादिप्राहक द्रव्याथिकनय (जैसे-परद्रव्यक्षेत्रकालभावसे वस्तु के नास्तित्व का परिचय) ३०. परममावग्राहक द्रव्याथिकनय (जैसे-सहज अखण्ड ज्ञानस्वरूप आत्मा का परिचय) ३०A. शुद्धपारिगामिकपरममावग्राहक शुद्धद्रव्याथिकनय (जैसे-बद्धाबद्धादिनयविकल्परूप जीव नहीं होता आदि परिचय) प्रर्थनय पर्यायाधिक ३१. अशुद्धस्थूल ऋजसूत्रनयनामक पर्यायायिकनय (जैसे-नर नारक आदि विभाष द्रव्यब्यजन पर्यायोंका परिचय) ३२. शुभस्यूल ऋजुसूत्रनयनामक पर्यायाधिकनय (जैसे-सिद्धपर्याय आदिक स्वभावद्रव्यच्यञ्जनपर्यायोंका परिचय) ३३. अशुद्धसूक्ष्म ऋजुसूत्रनयनामक पर्यायाचिकनय (जैसे क्रोध आदि विभावगुणव्यञ्जनपर्यायोंका परिचय) ३४. सुखसकन ऋजसत्रनयनामक पर्यायाथिकनय (जसे केवलज्ञान आदि स्वभावगुणव्यसनपर्यायोंका परिचय) ३५. अमारिनित्य पर्यायाथिकनय (जैसे-मेक निस्प है आदि, प्रति समय आय व्यय होते हुए भी वैसे के वैसे ही बने ___रहनेवाले पदार्थों का परिचय) ३६. सादिनित्य पर्यायायिकनय (जैसे सिद्ध पर्याय आदि, अशुद्धता हटकर सादिशुद्ध रहने वाले पर्यायों का परिचय) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i ३७. सत्तागणोत्पादव्ययक विशुद्धपर्यायाधिकनय (जैसे प्रति समय पर्याय विनाशक है आदि परिचय ) ३८. सत्तासापेक्ष नित्य अशुद्धपर्यायार्थिकनय (जैसे-एक समय में हुए श्रयात्मक पर्यायोंका परिचय ) ३६. उपाधिनिरपेक्ष नित्य शुद्धपर्याय (जैसे- सिद्ध पर्यायारी जीवोंकी शुद्ध ४०. उपाधिसापेक्ष नित्य अशुपाधिकय (जैसे- संसारी जीवोंके उत्पाद और मरण है आदि परिचय) शब्दनय पर्यायार्थिकनथ आदि का परिचय ) वचन आदि व्यभिचार हटाकर किसी उपयुक्त शब्दसे कहना ) वाच्य अनेक अर्थोंमें से किसी एक रूढ अर्थको ही कहना ) (भिक्रिया परिणत होते हुए के समय ही उसी शब्दसे कहना) निश्चयनय ४१. शब्द (ऋअसूननयको लिङ्क ४२. समशिन द्वारा नियत ४३. एवंभूत ४४. अखण्ड परमशुद्ध निश्चयमय (जैसेण्डा सहज चैतन्यस्वभावमात्र आत्माका परिचय ) ४५. शक्ति परमशनिश्चय (जैसे- आत्मा सहज ज्ञान दर्शन शक्ति वीर्यवान है आदि परिचय ) ४६. शुद्धनिश्चयन (जैसे-जीव केवलज्ञानी है, यदि शुद्धपर्यायात्मक द्रव्यका परिचय परिचय ) ४६. सभेः शत्रुनि (जैन जीके केवलज्ञान है, केवलदर्शन है, अनन्त सुख है आदि परिचय) ४६. अपूर्णशुद्ध निश्चयनय (जैसे स्वरभेदविज्ञानी एकत्वविभक्त आत्माकी ख्याति होनेसे ज्ञानमय भाव का परिचय ) ४७. अशुद्ध arare (जैसे-जीव रागी है आदि अशुद्धपर्यावमय द्रव्यका परिचय ) ४७. समंद अशुदिचय (जैसे- जीवके श्री है, मान है, माया है, लोभ है आदि भेदसहित अशुद्ध का परिचय ) ४८. विवक्षित देशुद्धनिवसनय (जैसे- रामादिक पौगलिक हैं, यो औपाधिक भावोंको उपाधिके लिये सौंपकर आत्म स्वरूप को शुद्धस्वभाव मात्र निरखना) ४६. शुद्ध (जैसे नयविकल्प जतिकान्त अखण्ड अन्तस्तत्त्रका, अभेद दर्शन ) ४६. प्रतिषेधक वय (जैसे जीवपुद्गलकर्मका गात्रादिका अकर्ता है आदि परिचय) ४६४ उपादानष्टि (जैसे जीनकी योग्यानुसार उसका परिणमन उसी जीव में निरखना) व्यवहार नय ५०. परमशुद्ध र्भवविषयी न या भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (जैसे- आत्मा के ज्ञान है, दर्शन है आदि पाश्वत गुणोंके रूपसे आत्माका परिचय) ५१. शुद्धभेदेविषयी व्यायितय या वाहतूक्ष्म ऋजुसूत्रनय (जैसे- आत्माका केवलज्ञान, अनन्त आनन्द आदि निरुपाधि शुद्ध पर्यायों का परिचय) ५२. अशद्ध पर्यायी व्यवहार या सूक्ष्म ऋजुसून (जैसे जीवके क्रोध, मान आदिका परिचय ) ५३. उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यामि (जैसे- कमदयविपाक के सान्निध्य में जीत्र विकाररूप परिणमता है) ५३. निमित्तवृष्टि (जैसे चक्र के आधारपर दण्ड द्वारा भ्रमण होकर जल मिश्रण दशा में कुम्हार के हस्तव्यापारके निमित्तसे मिट्टीका घड़ा बनना आदि परिचय ) ५४. उत्पादध्ययसापेक्ष अशुद्ध द्वार्थिकनय (जैसे द्रव्य उत्पादव्ययधोत्र्ययुक्त है, यो त्रितययुक्त द्रव्यको निरखना) ५५. अदक्ष अस्थूल ऋजुनून (जैसे नर नारक, तियंच, देव, आदि विभावद्रव्यव्यञ्जन पर्यायें निरखना) ५६. शुद्धस्कूल ऋजुसूत्रनय (जैसे- वरमदेह न्यून आकारवाली सिद्धपर्याय स्वभाव द्रव्यव्यञ्जन पर्याय निरखना) ५७. अनादिनित्य पर्यायाथिकनय (जैसे-मेर नित्य है आदि प्रतिसमय बनना बिगड़ना होनेपर भी बना रहना निरखना ) ५८. साविनित्य पर्याय विनय (जैसे सिद्धपर्याय नित्य है, आदि उपाधिके अभाव से सदा रहनेवाली पर्यायका परिचय ) ५६. गणोत्यग्राहक नित्याद्ध पर्यायार्थिकतय (जैसे- प्रतिसमय पर्याय विनाशक है, क्षणिक पर्यायका परिचय ) ( ३६ ) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. सत्तासापेक्ष नित्याश उपर्यायाथिकनय (जैसे-एक समयमें श्रयात्मक पर्याय, उत्पाश्व्ययध्रौव्य या भूतमाविवर्त मानयर्यायका परिचय) ६१. उपाधिसापेक्ष नित्याश पर्यायाधिकनय (जैसे-संसारी जीवोंके उत्पत्तिमरण हैं, विषय कषाय हैं का परिचय) । व्यवहार (यथार्थ प्रतिपादक व्यबहार) ६२. भत्तनगम प्रतिपादक महार (भूतकालीन स्थितिको वर्तमानमें जोड़नके संकल्प का घटनासम्बन्धित प्रतिपादन) ६३ माचिनंगमप्रतिपादक व्यवहार (भविष्यत्कालीन स्थितिको वर्तमानमें जोड़ने के संकल्पका घटनासम्बन्धित प्रतिपादन) ६४, वर्तमायनेगमप्रतिपावक ब्यवहार (बर्तमान निष्पन्न अनिष्पन्नको निष्पन्नवत संकल्पका प्रतिपादन) ६५. परसंग्रह द्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे-'सत्' कहकर समस्त जीवपुदगलादिक सतोंके संग्रहका प्रतिपादन) ६६. अपरसंबह अध्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे सत्को भेदे गये जीव' व अजीवमें से जीव कहकर समस्त जीवोंके संग्रहका प्रतिपादन) , ६६A. परमशुद्ध अपरसंग्रहदव्याधिकप्रतिपादक व्यवहार (जैसे 'ब्रह्म' कहकर सर्व जीवोंमे कारणसमयसारका कथन) ६६. सुखअपरसंग्रह प्रतिपावक वहार (जैसे मुक्त जीव कहकर समस्त कर्म मुक्त सिद्ध भगवन्तोंका प्रतिपादन) ६६. अशुद्धअपरसंग्रह तयायिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे संसारी जीव कहकर समस्त संसारी जीवोंका प्रतिपादन) । ६७. अपरसंग्रहभेदकव्यवहारनप द्रव्यापिकप्रतिपादक ध्यपहार (जैसे सत् २ प्रकार के हैं जीव अजीव, आदि, यों परसंग्रहको भेदनेका प्रतिपादन) ६८. अपर संग्रहभेवकव्यवहारमय द्रव्याथिकप्रतिपादक व्यवहार (जैसे जीव २ प्रकारके हैं मुक्त संसारी आदि यों अपर. संग्रहको भेदनेका प्रतिपादन) ६RA. अन्तिम-अपरसंपहभेदकव्यवहारनय व्यायिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे द मणुक स्कंधको भेद कर एक अणुका प्रतिपादन) ६.B. अन्तिम अखण्डव्यवहारनयध्याथिकप्रतिपादक व्यवहार (जैसे एक अणु, एक जीव, आदि अधण्ड सत्का प्रतिपादन) ६६ अखण्ड परमश व सब भतम्यवहार (जैसे अनावनन्त अहेतुक अखण्ड चैतन्यस्वभावमात्र आत्माका प्रतिपादन) ६EA. गुणिभेदक परम सब भूत व्यवहार (जेसे आत्माका स्वरूप सहज चैतन्यस्वरूप है आदि प्रतिपादन) ७... सगग परमाश उसद भूत व्यवहार (जैस आत्माके सहज मानादि अनन्तचतुष्टय का प्रतिपादन) GOA प्रतिषेधक बनयप्रतिपावक व्यवहार (जैसे जीव पुगद्लकमंका अकर्ता है आदि कथन) ७१. अभेद श च सदभूत व्यवहार (जैसे शुद्धपर्यायमय आत्माका प्रतिपादन) ७२. सभेव श स भूतव्यवहार (जैसे आत्माके केवलज्ञान, केवलदर्शन, आदि शुद्धपर्यायवान आत्माका प्रतिपादन) ७३. कारककारकिभेवक सब भूतय्यबहार (जैसे आत्मा आत्माको जानता है, आत्मा के द्वारा जानता है आदि एक ही पदार्थमें कर्ताकर्म करण आदिका कथन) ७३. कारककारकिर्भवक अश द्धसद्भूतव्यवहार (जैसे जीवधिभावोंका कर्ता जीव है आदि कथन) ७४. अनुपचारित अश रासन भूत व्यवहार (असे श्रेणिगत मुनिके रागादिविकारका प्रतिपादन) ७५. उपचरित अशु ससब भूतव्यवहार (जैसे जीवके व्यक्त क्रोध आदि व्यक्त अशुद्ध पर्यायोंका प्रतिपादन) ४६. उपाधिसापेक्ष अश अ द्रव्यायिकप्रतिपावक व्यवहार (जैसे पुद्गलकर्म विपाकका निमित्त पाकर विकृत हुए भीषका प्रतिपादन) ७७. उपचरित उपापिसापेक्ष अाख व्याथिकप्रतिपावक व्यवहार (जैसे विषयभूत पदार्थ में उपयोग देनेपर हुए व्यक्त रिकारका कथन) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. उपाधिनिरपैम श द्रष्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे संसारी जीव सिद्ध सदमा पदमा है का प्रतिपादन) ७६. उत्पावध्ययगौणसत्ताग्राहक श सवध्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (औसे ध्रौव्यत्बकी मुख्यतामें द्रव्यके नित्यत्वका प्रतिपादन ८०. भंवकरुपना-निरपेक्ष शनच्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (जैस निजगुणपर्यायसे अभिन्न द्रव्य है, आदिका प्रतिपादन ८१. उत्पादव्ययसापेक्ष अश व द्रव्यायिक प्रतिपादक व्यवहार (प्रत्येक द्रव्य ध्रुव होकर भी उत्पाद यादवाला है आदि कथन) १२. भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (आत्माके ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण हैं आदि कथन) ८३. अन्वयद्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (द्रव्य सर्वव अपने गृणपर्यायों में व्यापक रहता है आदि कथा) ५६. स्वव्यादिनाक द्रवाFिirs : (ो जीव स्बद्रत्यक्षेत्रकालभावसे है आदि कथन) ५. परतण्यादिग्राहक अध्यायिक प्रतिपादक यवहार में जीव पर प्रत्यक्षेत्रकालभावसे नहीं है आदि वायन । ६. परममावग्राहक द्रव्याधिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे आत्मा सहज ज्ञायकस्वभाव है आदि कथन ७. अशवस्यूल जसत्र प्रतिपादक व्यवहार (जैसे नर "नारक" स्ध आदि अगले द्रव्य व्यञ्जन पयायोंका कथन। ८८, शुद्धस्थूल सूक्ष्म ऋजुसूत्र प्रतिपादक व्यवहार (जसे सिद्धयर्याय, एक अणु, धस्तिकाय कालाण आदि शुद्धद्रव्य व्यञ्जन पर्यायका कथन) ८६. अशुखसूक्ष्म ऋजुसत्र प्रतिपादक व्यवहार (जैसे क्रोध, मान आदि विभाव गुणाध्याजन पायाका कथन १०. शुद्ध सूक्ष्म ऋजुसत्र प्रतिपादक व्यवहार (जसे केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि विभावगुणव्य-जन पर्यापोंका कथन) ११. अनादिनित्यपर्यायाथिक प्रतिपादक व्यवहार (मेह, अकृत्रिम त्यानय नित्य हैं आदि कचन) १२. साविनित्यपर्यायाथिफ प्रतिपादक व्यवहार (जैसे सिद्धपर्याय नित्य है आदि सद्ध होकर सदा रहनेवाली पर्यायका कथन) १३. सत्तागीणोत्पादव्यपग्राहक अशुद्धपर्यायायिक प्रतिपावक ध्यबहार (जैसे समय समय में पर्याय विनश्वर है आदि कथन) १४. सत्तासापेक्ष नित्य अशुअपर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार (जैसे समय समयमें यात्मक पनि है आदि कथन) १५. उपाधिसापेक्ष नित्य अशुसपर्यायाधिक प्रसिपायक व्यवहार (जैसे संसारिवोंकी सिद्धपर्यायमरण गद्धार्यानों का कथन) १६. उपाधिसापेक्ष नित्य अशुढपर्यायाधिक प्रतिपावक व्यवहार (जैसे संसारी जीवोके उत्पति मरण हैं आदि कथन) १७. स्वाजात्यसभूत व्यवहार (जैसे परमाणु बहुप्रदेशी है, जीव रागी आदि कथन) , २८. विजात्यसद्भूत व्यवहार (जैसे मतिज्ञान मूर्त है, इण्यमान मनुष्य, पशु जीव है आदि कथन ) ६६. स्वजातिविजात्यसरभूत व्यवहार (जैसे जेय जीव और अजी व में ज्ञान जाता है आदि कथन १००. शयनयपर्यायायिक प्रतिपादक व्यवहार (ऋजसवनयके विषयको निगादिव्यभिचार दूर करके योग्य नसे कहना) १०१. समितनयपर्यायायिक प्रतिपावक व्यवहार (शब्दन यसे निश्चित शब्दस वाच्य अनेक पदार्थोमसे एक अदपदार्थका १०२. एवंभूतनयपर्यायाधिक प्रतिपादक उपवहार (सपभिरूढस निश्चित पदार्थको उसी क्रिया परिणत होनेपर ही कत्ता ) उपचार (प्रारोपक व्यवहार) १०३. उपाधिज उपचरितस्वभावव्यबहार (जैसे जीध के गूर्तत्व व अचेतनत्वका कथन) १०४. उपाधिज उम्परित प्रतिफलनव्यवहार (जैसे क्रोधकमके विपाकके प्रतिफलन को शोधकर्म कहना। १०५. स्वाभाविक उपचरितस्वभावष्यवहार (जैसे प्रभु समस्त पर पदार्थोके भी जाता हैं आदि कथन) १०५A. अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (जमें जीव घट पटकादि पर पदार्थ का ज्ञाता आदिधन) १०६. द्रष्ये द्रव्योपचारक (एकजातितश्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक) असद्भूतव्यवहार (अस शरीर को नीच जना Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६A. स्वजातिये स्वजासिद्रक्ष्योपचारक असद्भुतव्यवहार (जैसे शरीर मिट्टी है आदि कथन) १०७. एकजातिपर्याय अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भुत श्यवहार (जैसे अन्न ही प्राण है आदि कथन) १०८. स्वजातिपय स्वजातिपर्यायोपचारक असदभूत व्यवहार (जैसे दर्पणमें हुए प्रतिबिम्बको दर्पण कहना) १०६. एकजालिगणे अन्य जातिगुणोपमारक असद्भुत व्यवहार (मदिरापान से अभिभूत मनिज्ञानको मूतं कहना) ११०. स्वजासिगुणे स्वजातिगुणोपचारक असन 'मराटार (ज्ञान ही श्रदान है, मान ही चाचि है. आदि कथन) १११, एकजतिद्रव्ये अन्यजातिगणोपचारक असदभूत व्यवहार (जीय मूनिक है आदि कयन) ११२. स्वजातिये स्मजालि गणोपचारक असबभूत व्यवहार (जैसे परमाण को ही रूप बहना) ११३. एफजातिद्रव्ये अन्यजातिपयायोपचारक असद्भूत व्यवहार (जैसे जीव भौतिक है आदि कथन) ११४. स्वजातिद्रव्ये स्वजातिपर्यायोपचारक असदभूत व्यवहार. (जैसे परमाणु बहुप्रदेशी है. आत्मा श्रुतज्ञान है आदि का) ११५. एकातिगुणे अन्यजातिद्रव्योपचारक प्रसदभूत व्यवहार (जैसे ज्ञान गुण ही सकल' देव्य है आदि कथन) ११६. स्वजातियणे स्वजातिगथ्योपचारक असद्भुत व्यबहार (जैसे धके रूप को ही द्रव्य बहना, रूपपरमाण आदि) ११७. एकजातिगुर्ण अन्यजातिपर्यायोपचारक असदभूत व्यवहार (जसे जान ही धन है आदि कचन) ११८. स्वजाति गुणे स्वजातिपर्यायोपचारक असद्भूत व्यवहार (जैसे ज्ञान पर्याय है आदि कथन) ११६. एकजातिपर्याय अन्यजातिपर्यायोपचारक असदभूत व्यवहार (जैसे घटाकार परिणत ज्ञानको घट कहना) १२०. स्वजातिपर्याधे स्वजातिव्योपचारक अमद्भूत व्यवहार (जैसे पृथ्वी आदि पुद्गलस्कंधको दध्य कह देना) १२१. एकजातिपर्याय अन्यजातिदस्योपचारक असमूत व्यवहार (जैसे यश-पक्षी आदिके शरीरको जीब कह देना) १२२. स्वजातिपर्याय स्वजातिगुणोपचारक असदभूत व्यवहार (जैसे अहिंसाको मुण कह देना व देहके विशिष्ट रूपक देखकर रूपवाला कहना) १२३. संश्लिष्ट स्वजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार (जैसे यह परमाणु इस स्कंधका है आदि कपन) १२४. असंश्लिष्ट स्थजात्युपश्चरित असद्भूत व्यवहार (जैसे ये पुत्र स्त्री आदि इस जीवके हैं आदि कथन) १२५. संश्लिष्ट विजात्युपचरित असदभूत व्यवहार (जैसे यह शरीर इरा जीवका है, आदि कथन) १२६. असंश्लिष्ट विजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार (जैसे यह धन वैभव मेरा है आदि कथन ) १२७, संदिल र स्वजातिविजात्युपरित असद्भूत व्यवहार (जैसे आभूषणसज्जित कन्या मरी है आदि कथन । १२८. असंश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार (जमे यह ग्राम नगर मेरा है आदि कथन) १२६. परकर्तृत्व अनुपरित असदभूत व्यवहार (जमे पुद्गलकर्म ने जीवको रागी कर दिया आदि कथन ) १२६०, परभोक्तृत्व अनुपचारित असदभूत व्यवहार (जैसे जीव पुद्गल कर्म को भोगता है आदि कथन) १२६४. परकतत्व उपचरित असद्भुत व्यवहार (जैसे जीव घट आदिका कर्ता हैं इत्यादि कथन) १२६८. परभोक्तत्व उपचरित असद भूत व्यवहार (जैसे जीव घट पट आदिका भोक्ता है इत्यादि कथन) १३०. परकर्मत्वं असद भूत व्यवहार (जैसे जीवके द्वारा ये पुष्य पाप बनाये गये आदि कथन) १३१. परकरणत्व असद भूत व्यवहार (जैसे जीव कषायभावके द्वारा पोद्गलिकों को बनाता है आदि कथन) १३२. परसप्रदानत्य असब भूत व्यवहार (जैसे पिता ने पुत्र के लिये मकान बनाया जादि कथन) १३३. परापादनत्व असद भूत य्यवहार (असे जीवसे इतने कम झड़कर अलग हो गये आदि कथन) १३४. पराधिकरणस्व असद मत व्यवहार (जैसे जीव में कर्म ठसाठस भरे हुए हैं आदि कथन) १३५. परस्वामित्व असर भूत व्यवहार (जैसे मेरा मह धन वैभव शरीर आदि है का कथन) १३६. स्वजातिकारणे स्वजातिकार्योपचारक व्यवहार (जैसे हिंसा आदिक दुःख ही हैं, आदिका प्रतिपादन) १३७. एक जातिकारणे अन्यजातिकारणोपचारक व्यवहार (जैसे अन्य धन प्राण हैं आदि कथने) १३८. स्वजातिकाय स्वजातिकारणोपमारक व्यवहार (जैसे श्रुत ज्ञान भी मति ज्ञान है अदि काथन) Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 2 P १३६. एकजातिकायें अन्यजातिकारणोपचारक व्यवहार (जैसे घटाकार परिणत ज्ञान घट है आदि कथन ) १४०. एकजात्यरूपे अन्यजातिपूर्णोपचारक व्यवहार (जैसे राजघरानों में यह नौकर सर्वव्यापक है आदि कथन ) १४१. स्वजात्यल्पे स्वजातिपूर्णोपचारक व्यवहार (जैसे सम्यक् मतिज्ञान केवल ज्ञान है आदि कथन } १४२. एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (जैसे जिस पर बैठकर विद्वान प्रवचन करे तो कहना इस मंचने बड़े प्रवचन किये) कर बुलाना ) १४३. स्वजात्याबारे स्वजात्याधेयोपचारक व्यवहार (इस गुरुके उदर में हजारों शिष्य पड़े हैं आदि कथन ) १४४. एकजात्याधेये अन्यजात्याधारोपचारक व्यवहार इसे डाल १४५. स्वजात्याधेये स्वजात्याधारोपचारक व्यवहार ( जैसे मां को गोदनें बैठे हुए बालकका नाम लेकर मां को पुकारना ) १४६. तद्धति तदुपचारक व्यवहार (जैसे लाठीवाले पुरुषको लाठी कहकर पुकारता ) १४७. अती सामीप्ये तस्योपचारक व्यवहार (जैसे चश्म (अंतिम) भव से पूर्व के मनुष्यभवको भी चरम कहना ) १४८. भाधिनि भूतोपचारक व्यवहार (जैसे दवें गुणस्थान में औपशमिक या क्षायिक भाव कहना) १४९. तत्सच्ाकारणे तपसारक व्यवहार (जैसे कर्मोदयअनित विकार इस जीवके लिये शल्य हैं आदि कथन ) १५० सदशे एकरवोपचारक व्यवहार (जैसे गेहूं दानोंके ढेरको गेहूं एक वचन कहकर कहना ) १५१. आश्रये आधी उपचारक व्यवहार (जैसे राजा प्रजाके गुण दोषोंको उत्पन्न करता है आदि कथन ) अवाप्तिनय १५२. व्यय (जैसे आत्मतत्त्व निमा है आदि परिचय ) १५३. पर्यायनय (जैसे आत्माको दर्शन ज्ञान आदि मात्र देखना आदि परिचय ) १५४. अस्तित्वनय (जैसे अपने व्यक्षेत्र कालभावसे आत्माका अस्तित्व जानना) १५५. मास्तित्वनय (जैसे परके द्रव्यक्षेत्र कालभावसे आत्माका नास्तित्व जानना ) १५६. मस्तिस्वनास्तिस्वनय (जैसे स्थावरद्वव्यक्षेत्र कालभावसे आत्माको अस्तित्वनास्तित्ववान् जानना आदि ) १५७. अवक्तव्यनय (जैसे युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्र कालभावसे कहा जाना अशक्य होने से आत्मा वक्त है ऐसा जानना ) १४८. अस्तित्वाबक्तव्यमय (जैसे स्वद्रव्यक्षेत्र कालभावसे तथा युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्र कालभाव से आत्मा अस्तिस्वचदवक्तव्य है ऐसा जानना आदि) १५६. नास्तित्वक्तव्यय (जैसे परद्रव्यक्षेत्रकालभाव से तथा युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्र कालभाव से आत्मा नास्तित्ववददरम्य है आदि परिचय) १६०. अस्तित्वनास्तित्वावक्तव्यमय (जैसे स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावसे, परद्रव्यक्षेत्र कालभावसे व युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावसे आत्मा अस्तित्व नास्तित्ववदवतथ्य है आदि परिचय) १६१. विकल्पनय (जैसे कोई एक वही जीव मनुष्य है पशु है आदि परिचय ) १६२. अधिकल्पनय (जैसे एक आत्मामात्र का प्रतिभास) १६२. नामदय (जैसे ज्ञायक नाम आत्माका रखा है आदि नामसे परिचय ) १६४. स्थापनानय (जैसे देहरूप पुद्गलस्कंधों में आत्माका प्रतिष्ठापन ) १६. व्यनय (जैसे अतीत अनागत पर्यायों में आत्माका बोधन) १६६. भावनय (जैसे वर्तमान पर्याय आत्माका बोधन) १६७. सामान्यनय (जैसे गुण पर्यायों में व्यापक सामान्य का बोधन) १६८. विशेषनय (जैसे सदा न रहनेवाले नरनारकादि जीव का बोधन ) १६६. निष्यनय (जैसे नाना प्राणिभेदोंको धारण करनेवाले एक आत्मा का बोधन) १७०. अनियनय (जैसे अनवस्थायी मनजादिवेशी आत्माका बोधन) ( ४३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१: सर्वगतनय (जैसे ज्ञानमुखेन सर्वज्ञं यवर्ती आत्मा का बोधन) १७२. असर तनय (जैसे स्वात्मप्रदेशवर्ती आत्मा का बोधन) १७३. शून्यनय (जैसे सर्वपरभावशून्य केवल आत्माका बोधन) १७४ अशूभनय (जैसे सर्व याकाराकान्त आत्मा का बोधन) १७५. ज्ञान या तनय (जैसे जोयाकारपरिणत ज्ञान के एकपनेका बोधन) १७६. ज्ञान यह तनय (जैसे जयाकारकालम्बित आत्मा के अपनेका दर्शन ) १७७. नियनिय (जैसे शाश्वत ज्ञानस्वभावमें नियत आत्माका बोधन) १७८. अनियनिय जैसे औवारिक विभावरूप अनियतभावान आत्माका बोधन) १७६. स्वभावनय (जैसे संस्कारका आवश्यकतासे जन्य परिपूर्ण आत्माका बोधन) १८० अस्वभावनय (जैसे संस्कारवशवर्ती अल्प आत्मा का बोधन) १८१. कालनय (जैसे अपने समयपर विपच्यमान भावमुक्त आत्माका शोधन) १८२. अकाल (जैसे असमयवच्यमान भावयुक्त आत्माका बोधन) १८३. पुरुषकारनय (जैसे पुरुषार्थ की प्रधानता से साध्यसिद्धि होने का बोधन ) १८४. वेजन (जैसे कर्मोदयको प्रधानता साध्यसिद्धि होने का बोधन) १८५ ईश्वरनय (जैसे कर्मविपाकानसे परतन्त्रमा अनुभव का परिचय ) १८६ अनश्वरनय (जैसे अपनेही स्वरूप से प्रकट स्वतंत्रविलास के अनुभवका बांधन) १८७ (जैसे गुण आत्मा के अभिभू उपयोगी गुणवाहिका बोधन) १८८ अगुणिनय (जैसे सर्वत्र उपयोगवान आत्मा की साक्षिताका परिचय) १८६. कन (जैसे अपने को कर्मविपाकप्रतिफलन का कर्ता समझना ) १६० अनय (जीसे कर्मविपाकप्रतिफलनको अस्वभाव जान मात्र ज्ञाता होने का परिचय ) १६१. भोक्तृन (जैसे विभावानुरागी आत्मा के सुख दुःखादि भोगने का परिचय) १८२. अमोन (जैसे विवेकी आत्मा के सुख दुःखादिपने को साक्षिता का बोधन) १९३. किमानय (जैसे चारित्रप्रधान आत्मा के ज्ञाननिधिको साध्यताको सिद्धिका बोधन) १९४. ज्ञानमय (जैसे विवेक बुद्धिकी प्रधानता से आत्मा के साध्यकी सिद्धि का बोधन) १६५. व्ययहारनय (जैसे जीवको कर्मवन्ध व कर्ममोक्ष दो में रहनेवाला विश्वाना) १९६. निश्चयनय (जैसे बन्ध, मोल किसी भी स्थिति मात्र शुद्ध आत्माको दिखाना) १६३. अशुद्धनय (जैसे औपाधिक स्थितियों में जीवका सोपाधिस्वभाव दौखना ) १६८. शुद्ध (जैसे केवल आत्मव्यका निरुपाधिस्वभाव दीखना ) १६६. ऊध्ये सामान्यमय (जैसे कालिकपर्यायों में मात्र एक आत्मद्रश्य दीखना २००. ऊर्ध्वदिशेषन (जैसे एक आत्मा के त्रैकालिक नाना पर्यायोंका दीखना) २०१. निमित्तत्वनिमितदृष्टि (जैसे नदीनकर्मास के निमित्तभूत द्रव्यप्रत्यय के निमित्व के निमित्त रागादिभावका परि०) २०२. साध्ययनय (जैमं पुण्य पाप कर्मको कर्मत्वदृष्टिसे एकरूप देखना आदि) २०३. वैलक्षण्य (जैसे प्रकृति आदिके भेद से पुण्य पाप कर्म में अन्तर जानना ● इति नयचक्र प्रकाश समाप्त ( ४४ ) मनोहर वर्णी सहजानन् Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ समयसार का विषय-क्रम ॥ गाया सं. विषय प्रारम्भ पृष्ठ सं. १-पूर्वरंग १ मङ्गलाचरणमें स्वभावानुरूप पूर्णविकसित सिद्ध भगवंतोंको नमस्कार तथा अन्धकार की प्रतिज्ञा और ग्रन्थकी प्रामाणिकताका हेतु २ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र परिणत जीम स्वसमय होता है मिथ्यादर्शन-जान चारित्र परिणत जीव पुद्गामा चित्त है.मेरे सार : पसा है। ३ एकत्वनिश्चयको प्राप्त जीव लोकमें सर्वत्र सुन्दर है किन्तु एकत्ब होनेपर उदयवश होने वाली बंधकी कथा विसम्वाद झगड़ा करने वाली है। जीको कामभोग विषयक बन्धकथा तो सुलभ है, किन्तु आस्माका एकत्व दुर्लभहै। ग्रन्धकार आचार्यका एकत्व-विभक्त आत्माको निजवैभवसे दिखलानेका निर्देशन तथा दूसरोंको अपने अनुभवसे परीक्षा करके ग्रहण करनेकी प्रेरणा जीव प्रमत्त-अप्रमत्त दोनों दशाओंसे पृथक् ज्ञायक भाबमान है। ७ ज्ञानीके दर्शन-ज्ञान-चारित व्यवहारसे कहे जाते हैं, निश्चयसे शानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। उसके दर्शन शान-बारिश्रखण्ड परमार्थत नहीं है। व्यवहारके बिना परमार्थका उपदेश अशक्य है व्यवहारनय परमार्थका प्रति पादक है। १. श्रुतकेबलीका निश्चय व व्यवहारसे लक्षण व्यवहारनय अभूतार्य है और शुसनम भूतार्थ है। भूतार्थका आश्रय करनेवाला जीब सम्म्यदृष्टि होता है। १२ शुद्ध परमभावके दर्शी जीवोंको शुद्धनय ही प्रयोजनवान है किन्तु अपरम भाव में स्थित जीवोंके लिए व्यवहारनयका उपदेश करना चाहिए। निश्चममयसे जाने हुए जीवादि नवतत्त्व सम्यक्त्व है, अर्थात् सम्यक्त्व के संपादक हैं १४ निश्चयनय आत्माको अवस्पष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयक्त निरखता है १५ शनयके विषयभूत आत्माको निरखने वाला सर्वजिनशासनका द्रष्टा है १६ से १५ साधु पुरुषोंको सदा सम्यग्दर्शन-जान-पारिवका सेवन करना चाहिए, निश्चयनय से ये तीनों एक आत्मा ही है, उसका दृष्टान्तपूर्वक कथन १६ सुद्धनयके विषयभूत आश्माको अब तक न जाने, तब तक वह जीव अज्ञानी है २० से २२ जो परद्रव्यमें आत्माका विकल्प करता है, वह असानी है। अपने आत्माको अपना आत्मा मानने वाला शानी है २३ से २५ अज्ञानीको उपदेश है यह कि जद और चेतन धोनों सर्वथा भिन्न द्रव्य हैं वे एक नहीं हो सकते Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ से ८ या सं० विषय ६ अजनीका प्रश्न है कि यदि जीव और शरीर एक नहीं है तो वीर और आयामों की स्तुति मिथ्या हो जायगी । उत्तर:- व्यवहारनय जीव और शरीरको एक कहता है किन्तु निश्य से ये दोनों पदार्थ नहीं है, तो भी व्यवहारनय से छद्मस्य शान्तहर मुद्राको देखकर शरीर के आपसे भी स्तुति करता है। एक आत्मा तो शरीरका मान अधिष्ठाता है वहाँ निश्चयमय शरीर के स्तवन से आत्मा का स्तवन नहीं बनता, उसका उदाहरण पूर्वक वर्णन प्रभुवर्धन ज्ञान होनेपर एक जिज्ञासा कि परद्रव्यका प्रत्यास्थान अर्थात् न्याय क्या है ? उसका समाधान कि अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर है ऐसा जानकर इतर ज्ञान होना है। उसका दुष्टापूर्वक वर्णन २९ से ३० ३१ मे २३ ३४ से ३५ २६३८ अनुभूति होने पर भेदज्ञान व निजके अभेदज्ञान का प्रकार २३ से ४३ जीव अनी दोनों ४६ ५० से ५५ ५६ से ६० ४४ से ४८ जीवका अन्यया स्वरूप कल्पना करने वालोंको प्रतिबोधन कि अध्यवसानादि भाव पुद्गलम है, जीव नहीं हैं। इनको व्यवहारये जीब कहा गया है, इसका अन्त ६१ मे ७० ७१ मे २ ७३ ६१ मे ६८ वर्णादिक भावका जीवके साथ तादात्म्य मानने का निषेध ૩૪ २ जीवाजीवाधिकारः रूप होकर एक देखने जाते हैं, उनमें अज्ञानी जीवों की अध्यवसानादि भावरूपसे जीवको अन्यथा कल्पनाओं का पांच गाथाओंमें वर्णन व असमें अज्ञानोको शंकाचोंका संक्षिप्त समाधान १७६ से ७६ प्रारम्भ पृष्ठ स ८३ ५४ में दृष्टपूर्वक वर्णन परमार्थ जीवका सहज स्वरूप वर्षको आदि लेकर युजस्थान एक नाव ये जीव नहीं है इसका विर वर्षा भाव जीव के हैं ऐसा व्यवहारतम कहता है, निश्चयनय नहीं कहता उसका दृष्टातपूर्वक वर्णन ३ कर्तृकर्माधिकार जब तक अज्ञानी जीव क्रोधादिकमें बर्तता है, तब तक उसके धन्ध होता रहता है । आव और आत्मस्वरूपका भेदज्ञान होनेपर बंध नहीं होता। आश्रमे निवृत्त होने विधान ज्ञान होता और मास्रत्रोंसे निवृत्ति होना एक ही कालमें है इसका कथन ज्ञानस्वरुण हुए आत्माका परिचायक चिन्ह आघव और आत्माका भेदजान होनेपर आत्मज्ञानी होता है, और तब क फर्मभावका आशय भी नहीं रहता जी और निमित-मिनिक भाव होनेपर भी कतु कर्म भाव नहीं है। निश्चय आत्मा अपना ही कर्ता भोक्या है वुद्गल कर्मकर्ता-भोक्ता नहीं है। व्यवहारमा पुद्गलकर्मस्वका और पुद्गलकर्मभोवतृत्व का म ( ४६ } ६८ ७० ७३ ०६ ८३ ८८ EX १०१ ܒ ܕ ܕ ११४ १२० १२८ १४३ १५५ १५८ १६१ १९९ १७२ १७५ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं0 विषय प्रारम्भ पृष्ठ सं. ८५ से १६ आमाको गुदगलकमका का-भोक्तः माननेगर अात्मा पुदगला अभिनत्मक। प्रमंद आएगा, जोकि जिनदेवका मत नहीं है। अन स्व व पदगलकमें दोनों आत्मा करता है ऐसा मानने वाला भी मिपा दष्टि है। ८७ से ८ मिथ्यास्थादि आसव,जीव अजीब के भेद से दो-दो प्रकार के है ऐसा निकम और उसका हेनमे समर्थन । ८६ से १२ अनादिश उपाधिसंयोगवश आत्मा. मिथ्यात्य, अशान और अविरनिय तीन परिणाम होने चले आ रहे हैं । जब इन सीन प्रकार के परिणामकारतय होता है, तब पदगाल द्रव्य स्वयं वमरूप परिणमित होता है। १३ गरमें आत्मत्वका विकसन करने मे आत्म। कर्मका कर्जा नहीं होना । ६४ से ६५ अज्ञानसे कम किस प्रकार उत्पन्न होता है? अमका निरूपण ६ अज्ञानवश जीव रको व आत्माको एक मानता है। १७ शाम होने पर यह जीव समस्त कलत्व विकल्पको छोड देता है। २०२ १८ से ११ व्यवहारमे जीनको पुदगल वर्मका कर्ता कहते हैं. किन्तु निश्चयनः जीवको पूगलकमका कर्ता मानने में दोष है उसका निराण । १०० आत्मा निमित-नमिभिवा भावसे भी पदगल मना कर्ज नहीं है । जीवका मात्र योग-उपयोग निमिन-मैमित्तिक भावसे कम है। योग उपयोगका जीनपर्ला । १०१ जो आत्माको पर.का अकर्ता जानता है वह शानी है १० से १०४ अज्ञानी भी परद्रव्य के भावका कर्ता नहीं है मान अपने शुभाशुभ भाव का कर्ता है; इसका सयक्तिक स्पष्टीकरण १०५ से १०५ जीवके निमित्तमान होने पर फर्मका परिण मन देखकर उपचारसे कहा जाता है कि वह बाई जीवने किया । उसका उदाहरण पूर्वक पंथन । २१८ १०६ से ११२ मिथ्यात्वादि गामान्य आसन और उसके विशेष रूप तेरा गुणस्थान ये अंधके को हैं। निश्चय से जीव कमेंका कर्ता नही है। २२४ ११३ से ११५ जोव और प्रत्ययों (आस्रवों में एकरने नहीं है ! दोनों भिन्न-भिन्न हैं इसक: विवरण ११६ से १२५ सांस्यानुयायी लोग पुरुष और प्रकृतिको अरिणामी मानते है, उसका निपंध्र करके पुरुष और पुदगलको परिणामी सिद्ध करनेका निरूपण १३६ से १३१ ज्ञानसे ज्ञानमय भाव और अज्ञानसे अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है। हग की उदाहरणपूर्वक मिद्धि २३८ १३२ से १३६ अज्ञारी जीवके द्रव्यकर्मांध में निमिसरूप होने वाले अजानादि भावोंवा हेनत्व । १३ मे १४० पक्ष्गल और जीव दोनोंके परिणाम एक दुसरे से पृथक हैं। इसका वर्णन २५० १४१ हम जावमय दर्म जीव में बद्धस्पष्ट है अथवा अपदस्पष्ट ? इसका नविभागस समाधान १४२ से १४८ जयपक्षों से रहित आत्मा का कमभाव से रहित समयसार अर्थात व्यतः युद्ध आत्मा है। ४-पुण्य-पाप अधिकार १४५ शुभाशुभ कर्म दोनों ही प्रा-माके लिये अहित. २१ मा निर्देश । १४६ गभाशुभ दोनों ही नाच अविशेषतारो कर्मबन्ध के कारण है। २१३ २२८ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . २६३ गाथा सं० विषय प्रारम्भ पृष्ठ संग १४७-१५० दाभाशम दोनों कर्मोले राग व संसर्ग छोइनेका उपदेश व कर्मोंसे राग संसर्ग करनेसे हानिका उदाहरणपूर्वक निरूपण १५१ शानही मोक्षका कारण है इसकी सिद्धि ૨૭૬ १५२ से १५३ अज्ञान-पूर्वक विए गए बत नियम, शील और तप से मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती। २८१ १५४ परमार्थसे बाह्य जीव अशानसे नोलका हेतुन जानते हए संसारके हेतुभूत पुण्यको मोक्षहेतु समझकर पुण्य कमो में आसक्त रहते हैं। २५४ १५५ जीबादि पदार्थोंका श्रद्धान, उनका अधिगम और रागादिकका परिहार, इस रत्नन्नयभात्र की मोक्ष-मार्ग रूपताका वर्णन २८६ १५६ परमार्थरूप मोक्षके कारणसे भिन्न अन्य काँका निवेध । १५७ से १५९ · कर्म मोक्षके कारणका घात करता है उसका दृष्टान्तपूर्वक निरूपण १६० कर्म में स्वयं बचपनेकी सिद्धि १६१ से १६३ मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय सम्प्रदर्शन-जान-चरित्न के प्रतिपक्षी हैं । २६८ ५-आस्रवाधिकार १६४ से १६५ मिथ्यात्व, अविरति, योग और कषाय जीव अजीव के भेद से दो प्रकार के हैं। उन दोनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव होनेसे आसवकी उपपत्ति १६६ शानी के पात्रवोंका अभाव और पूर्णनिबद्ध कर्मोका जाननपना १६५ राग-द्वेषमोहरूप श्रज्ञानमय परिणामोंके ही यात्रवपनेका नियमन ३०५ १६८ जीवके रागादिसे असंकीर्ण भावको संभवताका कथन १६६ ज्ञानीके ध्यानवोंके अभावका निरूपण ३०० १७० जानी किस प्रकार मिरास्त्राव होता है. ऐसी जिज्ञासाका समाधान ३१० १७१ से १७६ अज्ञानी और ज्ञानीके आस्वकी संभवता व असंभवता का क्लिपूर्वक वर्णन १७७ से १८० राग-द्वेष-मोह अज्ञान परिणाम ही स्त्रव है, वह ज्ञानीके नहीं है। अतः ज्ञानीके कर्म बन्ध भी नहीं है। ६-संवर अधिकार १८१ से १८३ संवरके मूल उपायभूत भेदविज्ञानका निरूपण ३२७ १८४ से १८५ भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माको प्राप्ति होती है, उसका उदाहरणपूर्वक वर्णन ३३२ १८६ शुद्ध आत्माको जानने से शुद्धात्माकी प्राप्ति है और अशुद्ध जानने से अहात्मा की प्राप्ति है, शदात्माकी प्राप्ति संबर है १८७ से १९२ संबर किस प्रकार से होता है इसका अनुक्रमिक वर्णन ७-निर्जरा अधिकार १९३' द्रव्य निर्जराका स्वरूप व व्यनिर्जराका कारण ३४४ १६४ भावनिर्जराका स्वरूप व भावनिर्जशका परमार्थ आधार १९५ पुत् गलकोदयका उपभोग होनेपर कर्मसेन बंधनेका आधार ज्ञानसामध्य ३४६ १९६ विषयोपभोग होनेपर भी कर्मसे न बंधनेका आधार तीन वैराग्य सामर्थ्य ३५० १९७ ज्ञान व वैराग्यके सामथ्र्यका दृष्टान्तपूर्वक स्पष्टीकरण ३५२ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं० विषय प्रारम्भ पृष्ठ संग १९८ से १९६ सम्यग्दृष्टि सामान्यरूपसे तथा विशेषरूपसे स्वपरको रवभाव रूप व अस्वभावरूप उन उनके स्वलक्षणों से जानता है ।। ३५४ २०० सम्यग्दष्टि ज्ञान-ओराग्य संपन्न होने से कर्मविपाकप्रभव भावोंको छोड़ देता है ३५७ २०१ से २०२ रामी जीव सम्यग्दृष्टि क्यो नहीं होला इसका सयुक्तिक समाधान २०३ अपने एक शाश्वत अविकार शायक पदमें स्थिर होमेका उपदेश २०४ आत्माके एक ज्ञायक स्वभाव पदका आलम्बन ही मोक्षका कारण है। आत्माका परमार्थ पद अभेद है ज्ञान में जो भेद हैं वे कर्मके क्षयोपशम के निमिससे हैं । २०५ ज्ञानस्वभायमय पद ज्ञानसे ही प्राप्त होता है । ज्ञानगुणसे रहित लोक ज्ञानस्वरूप पदको प्राप्त नहीं कर सकते। २. जापान में जी रमा करने व तृप्त रहने में इत्तम सुखका लाभ २०७ ज्ञानी परद्रव्यको क्यों नहीं ग्रहण करता है? २०५ से २०६ परिग्रह के त्यागका परमार्थ विधान २१० से २१३ ज्ञानीके अज्ञानमय भाव रुप इच्छाके नहीं होने के कारण धर्म, अधर्म, आहार, पानका परिग्रह नहीं है। ३७४ २१४ ज्ञानी सर्वच निरासम्ब निश्चित ज्ञायक भावरूप है इसका सकारण समर्थन २१५ से २१७ उत्पन्न उदयका भोग उपभोग ज्ञानीके वियोगबुद्धिसे होता है । अनागत उदय की ज्ञानी बाञ्छा नहीं करता, वह जानता है कि वेदकदेवभाव समय-समयपर नष्ट हो जाते हैं। एक वस्तुविषयक वेदक वेध भाष युगपत् हो ही नहीं सकते, इसलिए उसके बंध और उपभोगके निमित्त भूत संसार-देह-सम्बन्धी राग नहीं होता। ३५० २१८ से २१६ जानी कोंके बीच पड़ा हुआ भी कर्मोंसे लिप्त नहीं होता, जैसेकि सुत्रर्ण कीचड़ में पड़ा हुआ भी कीचड़ में लिप्त नहीं होता, अज्ञानी कर्भरजसे लिप्त होता है, जैसे कीचड़में पड़ा हुआ लोहा कीचड़से लिप्त हो जाता है।। २२० से २२३ ज्ञान स्वभावको छोड़कर अमानसे परिणत हुआ जीव अज्ञानी होता है इसका दृष्टान्तपूर्वक समर्थन २२४ से २२७ कर्मफल की इच्छा करने वाला कर्मसे लिप्त होता है, बिना बांछा कर्म करे तो लिप्त नहीं होता इसका दृष्टांतपूर्णक स्पष्टीकरण २२८ सम्यग्दृष्टि आत्मा स्वरूपमें निःशंक होने के कारण इहलोक, परलोक, वेदना, अरमा, अगुप्ति, मरण और आकस्मिक इस प्रकार सातों मोसे विमुक्त रहता है २२६ से २३६ निःशंफित, निःकाशित, निविचिकित्सा, अमूडदृष्टि, उपगृहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना-सम्यग्दर्शन के इन आठ अंगोंका निश्चयनयकी प्रधानता से दिग्दर्शन -बंध अधिकार २३७ से २४१ उपयोगमें रागादिकका करना ही बंधवा कारण है इसका सदष्टान्त कथन २४२ से २४६ सम्यग्दृष्टि उपयोग में रागादिक नहीं करता और न रागारिक का स्वामी होता है । इस कारण सम्यग्दृष्टि के बंध नहीं होता, इसका सदृष्टान्त धन २४७ ज्ञानी और अज्ञानीका परिचय २४८ से २५८ किसी को जीवित करनका, मारनेका, दुःखी-सुखो करने का अध्यक्सान प्रगट अशान है, मिध्वाभाव है, इसका सयुक्तिक विवरण ३६७ Y08 ४२७ ४३२ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया सं २५६ से २६४ २९.५ २६६ से २६७ २५० से २६ अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करने वाला न होनेसे मिथ्या है। मिष्टि जीव कियागमं विधमान व ज्ञायमान संबंधित अध्यवसानसे अपनी आत्माको अनेक अवस्थारूप कर डालता २०० जिनके उक्त तीनों ही प्रकार के अज्ञानरूप अध्यवत्तान नहीं है, वे शुभ अशुभ किसी कर्मसे लिप्त नहीं होते इसका विवरण विषय उक्त अगातमय अध्यवसान हो बन्धका कारण है अपना अध्यवसान भाव हो वन्धका कारण है, अन्य कोई भी आश्रयभूत वस्तु बन्धका कारण नहीं २७१ अध्यवसानके अर्थका नामले स्पष्टीकरण ३ २७२ निषेध प्रति समस्त व्यवहारनयका निषेध हो जाता है। २७३ केवल व्यवहारका आलम्बन अभव्य भी करता है, पर मदार्थस्वरूपको नहीं होने से व्रत समिति गुप्ति पालकर और ग्यारह अंग पढ़कर भी वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है, उसे मोल नहीं है · २०४ का ज्ञान होनेपर भी अभव्य जीव सहजात्मस्वरूप था नहीं होने से गुणविकास नहीं कर पा अभव्यको धर्म था भोगके निमित्त है, के निमित नहीं है रत्नत्रयविषयक व्यवहार और निश्चयका स्वरूप २७५ २७६ से २७७ २७५ से २५० २८१ से २५२ २०३ से २०७ रागादिक भावोंका निमित्त परद्रव्य है, आत्मा नहीं आत्मा रामादिकका कर्ता किस रीति है उसका कथन द्रव्य और भाव में निमित्त मिसिकताका उदाहरण देते हुए आत्माके विकारा. कर्तुत्वा समर्थन e-मोक्ष अधिकार २० से २१० जो जीव बन्धका तो छेद नहीं करता परन्तु मात्र बंधके स्वरूपको जानकर ही सन्तुष्ट होता है, वह मोक्ष प्राप्त नहीं करता। मोक्ष तो नही होता है। २११ से बन्धकी चिन्ता करने पर भी बन्ध नहीं छूटता वैसे ही मात्र कर्मविषयक चिन्तन से ही बंध नहीं हटता २६२ से २६३ बन्धस्वभाव व आत्मस्वभावको जानकर बन्धसे विरक्त होनेसे हो सकने वाले वन्धके छेदन से ही मोक्ष होता है २४ कर्मबंधनेकर करण प्रज्ञारूप शरत्र ही है २६५ प्रारम्भ पृष्ठ सं प्रज्ञारूप करणसे आत्मा और बन्ध दोनोंको पृथक करके प्रज्ञासे हो आत्माको ग्रहण करने और प्रज्ञासे ही बंधको वनेका उपदेश २१६ जैसे प्रज्ञाके द्वारा से विभक्त किया, वैसे ही प्रज्ञा द्वारा ही आत्मा ग्रहण करना चाहिये २६७ से २१६ आरमाको प्रज्ञा द्वारा किस प्रकार पहण करना चाहिये इसका सामान्य विधिव विशेष विधिसे कथन चिन्मयभावको ही स्व मानने वाला अन्य भावको कभी स्वीकार नहीं कर सकता ( ५० ) ४४४ '४५१ ४५४ ४५८ ४६४ ४६६ ४६८ ४६६ ४७२ ૪૭૪ ४७७ ४५० YEY ४६२ ४६५ ४१६ ४६६ ५०३ ५०४ ५०६ ५१२ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा सं० विष्य प्रारम्भ पृष्ठ सं० ३०१ से ३०३ परद्रव्यको ग्रहण करने याला अपराधी है, अत: बह बन्धनमें पड़ता है, परदयको ग्रहण करनेका अपराध न करनेवाला बन्धन में नहीं पड़ता ३.४ से ३०५ शुद्ध सहजात्मस्वरूप की दृष्टि से हटना अपराध है, स्वरूपाराधना के बलसे निरपराय हुआ आत्मा निःशंक व जिवन्ध होता है ५१७ ३०६ से ३०७ प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण से रहित अप्रतिक्रमणादिस्वरूप तीसरी अबस्थासे आत्मा निोप होता है। इस सहज स्वरूपकी उपलब्धि के बिना द्रव्यप्रतिक्रमणादिसे भी मोक्षमार्ग नहीं मिलता ५११. २० -सर्गविशुद्ध जल शादिगार ३०८ से ३११ आत्माके अकत वका सयुक्तिक सोदाहरण आख्यान ५२७ ३१२ से ३१३ आत्मा प्रकृतिका परस्पर निमित्त से बन्ध और बन्धका मूल कारण जीवका अज्ञानभान ३१४ से २१५ जब तक आत्मा प्रवृति के निमित्तसे उत्पन्न होना और नष्ट होना न छोड़े तब तक अज्ञानी, मिथ्यावृष्टि, असंयत है। छोड़नेपर झाता द्रष्टा संयमी होता है। ३१६ कतत्वकी तरह भाक्तृत्व भी आत्माको स्वभाव नहीं है, जीव अज्ञानसे ही भोक्ता होता है। ३१७ जरो मीठे दुग्धको पीते हुए भी सर्व निर्विष नहीं होते, इसी प्रकार भली भांति शास्त्रोंको पढ़कर भी अभव्यजीव प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता, अतः वह भोवता ही है ५३८ ३१८ शानी कर्मफलका भोक्सा नहीं है वह तो कर्मफलका मात्र ज्ञाता है। ३१६ से ३२० जानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता द्रष्टा है इसका दृष्टान्तपूर्वक कथन ३२१ से ३२३ जो आत्माको संसारका कता मानते हैं उनको भी लौकिक पुरुषों की भांति नित्यकतृत्व का प्रसंग आनेसे मोक्ष नहीं होता ३२४ से ३२७ जो व्यवहारभाषाको ही निश्यप मानकर आत्माको परद्रव्यका फर्ता मानते हैं, वे भिध्यादष्टि हैं। मानीजन निश्चयसे जानते हैं कि परमाणमाज भी मेरा नहीं है। जो तथ्यसे अपरिचित हैं वे ही परद्रयके विषय में कत्त्व का आशय रखते हैं ३२८ से ३३१ अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) ही अपने भाबकर्मका कर्ता है, इसका युक्तिपूर्वक कथन ५५३ ३३२ से ३४४ आत्माका कतत्व और आतृत्व जिस तरह है उस तरह शंका समाधानपूर्वक स्थाद्वाद द्वारा सिद्ध करना । से ३४८ जो कर्मको करनेवाला है मोगने वाला वही है अथवा दूसरा ही है, इन दोनों एकान्तों का युक्तिपूर्वक निषेध मे ३५५ कां-वभ फा तथा भोक्ता-भोग्य का भेद-अभेद जिस प्रकार है, उसी प्रकार से नपके विभागले दृष्टान्त द्वारा वर्णन । ३५६ से ३६५ निश्चय और व्यवहारके कथनकी नडियाके दृष्टान्तसे स्पष्टीकरण ३६६ से ३७१ ज्ञान और अंग सर्वथा भिन्न हैं, ऐसा जानने के कारण सम्पदृष्टिको विषयों में, कमोंमें, कायोंमें राग-द्वेष नहीं होता। राग-द्वेषको खान अज्ञानभाव है। ३७२ अन्य द्रव्य अन्य वयमें कुछ भी गणोत्पाय नहीं कर सकता ५५८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्य ६११ ६१५ गावा सं. प्रारम्भ पृष्ठ सं० ३७३ से ३८२ स्पर्श आदि पुद्गलके परिणाम आत्माको प्रेरणा नहीं करते कि तुम हमको ग्रहण करो और अात्मा भी अपने स्थानसे छूटकर उनमें नहीं जाता, परन्तु अज्ञानी जीव व था राग-द्वेष करके विषयोंका निग्रह अनुग्रह भाव करता है ३८३ से ३८६ प्रतिक्रमण, प्रत्यास्थान और आलोचना का परमार्थ स्वरूप ३८७ से ३६६ कृत-कारित-अनुमोदनास, मन वचन कायसे, अतीत वर्तमान और अनागत कर्मके त्याग को ४१-४६ मंगों द्वारा कथन करके कर्मचेतना के त्यागका विधान तथा १४८ प्रकृतियोंके त्यागना यन करके कर्मफलचेतनाके त्यागका विधान ३१० से ४०४ जानकी समरस अायोंसे मिलतामा नपारगानीकी ज्ञानरूपताका कचन से ४०७ अमुर्तीक आत्मा के पुद्गलमय येह नहीं है, फिर अन्य द्रव्य का ग्रहण त्याग कैसा? ४०० से ४१० पराश्रित होनेसे देहलिग मोक्षमार्ग नहीं है। आत्नावित होनेसे सभ्यम्दचन ज्ञान-चारिन ही मोक्षमार्ग है ४११ चूंकि द्रव्पलिंग ही मोक्षमार्ग नहीं है, अतः समस्त लिगका ममत्व स्वाग करके आरमाको दर्शन-ज्ञान-चारित्र में लगाने की प्रेरणा ४१२ भव्य जीवको सम्यग्दर्शगजानचारित्ररूपा मोक्षमार्ग में स्थापन करनेका, उसीका ध्यान करनेका, उसीको अनुभव करनेका तथा उसी में निरन्तर बिहार करनेका उपदेश ४१३ जो द्रव्यलिंगों में ही ममत्व करते हैं उन्होंने समयसारको नहीं. जाना है । ४१४ व्यबहारनय मुनि और श्रावक के लिंगको मोक्षमागं कहता है, निश्चयनय किसी भी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता ४१५ जो इस समयप्राभृतको पढ़कर अर्थ और तस्व से जानकर इस ही के अर्थभूत परमब्रह्म-स्वरूप में रिघत होता है वह उत्तम सुखमय होता है। प्रारम्भिक ५ गाथावों के नामसंज्ञ व धातुसंज्ञ प्रकाशित होनेसे रह गये हैं उनका विवरण गाथा १-नामसंज्ञ-सम्वमिद्ध, धुन, अदल, अगोवम, गइ, पत्त, समयपाहुड, इम, ओ, मुथ केवलिभणिय । धातुसंश-वंद स्तुती, वञ्च व्यक्तायां वाचि । गाथा २-नामसंज्ञ -जीव, चरित्तदसणणाणट्ठि उ, त, हि ससमग्र पुग्गलकम्मपदेसठिय, त, परसमय । धातुसंज-माण अवबोधने । गाश ३-नामसज - एयणि न्छयगअ, सभा, सव्वस्थ, सुंदर, लोय, बंधकहा, एयत्त, त, विसंवादिणी । यात्रुश हो ससायां। गाथा ४ - नामसंश-सुदपरिचिणुभूदा, सव्व, वि, कामभोगबंधकहा, एयन, उवलंभ, णावरि, ण, सुलह, वित्त । धातसंह- मज भोगे, बंध बंधने । __ गाथा ५-नामसंज्ञ--त, एयत्तविहन, अम्प, सविहव, जदि, पमाण, छल, ण। धातुमंज-दरस दर्शनाया, घुक्क भ्रश ने, घस गवेषणे, गह ग्रहणे । नोट---प्राकृतपदविवरण संस्कृतपदविवरण के साथ दिये गये। केवल २-१ जगह अन्तर भायेगाजही संस्कृतपद द्विवचनकी जगह प्राकृतपद बहवसन आता है। सो वहां प्राकृत पद के साथ विभक्ति अलग-अलग दी गई है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ क्या सुधारें प्रष्ठ पंक्ति ३२५-२ ३२८-१ ३३५-१ ४४४-१ अदाक्ष शुद्ध पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध चतुर्दशासी-गप्तदशानी प्र-११ भावा-नालोकांता-भावानालोकांता एयत्तस्लुवन भी----यत्तस्रावलं भो १४-३ प्रतिष्ठित । -प्रतिष्ठितं. ज्ञानिना-शानिमा २१-१ गुपलभमान:--मुपलभमान: परमार्थ प्रतिसादकत्व-परमार्थप्रतिशतकस्य २५-१ ज्ञानवेराम्य-ज्ञानवैराग्याभ्यां प्रेतनेतपर- चेतनेतर अनरमा-अनात्मा २५-१४ सर्भज्ञान-सर्व ज्ञान स्थानीय परम---स्थानीयपरम ५२-१ निर्जयनिर्जरकोभयं -निय निर्जरकोभयं अतोह- अतोह वर्तमान- वर्तमान अत:- अतः सुखिनःखितान करोमि ततोबंध निमित्ता--तो बंधनिमित्ता नात्मात्मात्मना-नारमानात्मना साताध्यव- मर्चवाध्यव पद्गलद्रव्यश्च---पुद्गलद्रव्यं च पुणा य--पुणो य रपि कथमपि-अवि कथमपि ६७-३ निकावरक्षाचा--निकायरक्षा चा इन्दिमे-इंदिये ज्ञानी भी-ज्ञानी भि मान माया-भानमाया ८१-११ तस्तु-तैस्तु सष्विप्यवस्था-सर्वास्वप्यवस्थास १२८-८ तथासति तथा सति पर्याप्तापर्याप्ता-पर्याप्तापर्याप्ता १३७-७ निमित्तक-निमित्तनैमित्तिक वर्णा दिमान.-वर्णादिमान १३८-२ गुगस्तु-गुणास्तु वतं-बर्त १४४-२ द्विधाकनणं--द्विधाकरण जानिबद्धा-जीवनिबद्धा कुर्वाणः-कुर्वाणः १७५-१० २६३ बंध तथा आत्मा के स्वभाव ततोऽयमात्म-ततोऽयमात्मा पद्य को जानकर स्वलक्षण से किलजानी-किलाजानी २०२८ हुला बुध, हुआ जो, जुदे--- जुद्धे २२०-२ निपतितरभसा-निपतति रभसा मतो खल्वात्मा-मतो न खल्वात्मा २२६-३ बन्धों से-बन्धों का एवमिह--एवमिह २२८-४ करता-करना चव-व २२८-१४ तेहूंनास्मि-तेऽहं नास्मि वस्तु-बस्तु २३२-१ मुपेत्यनित्य-भुपेत्य नित्य परिणम - परिणाम २४५-११ अनन्य उनसे-अनत्य है उनसे शुभाशुभ प्रवृत्ति-शुभाशुभप्रवृत्ति २८१-१ कारण भावो-कारणभावो करेणु कृष्टिनी-करेणुकुट्टिनी २७५-८ भवेत्तामिथ्या - भवेत्ताबन्मिय्या संसंग-संसर्ग २७६-१. निदिचनम:किर—निश्चिनुमः । किंव पक्ट्ठति-पवति २२८-२ जिन समयसे--जिनसमयसे ततो---ततो हेत्वभावे ३२०-१२ त्यौ-यौं ४६५-१ ४७२-२ ४७४-१३ ४७७-७ ४८३-६ ४५६-४ ४८६-१ ४५८-१० ४६३-४ ४६६-२ ४९८-४ ४६८-५ ५०२-१ ५०३-४ ५०३-४ ..--. ५.२४-३ ५२५-६ ५२६-१ ५६१-१४, १६ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध शुद्ध आश्रय-आशय चेतयितुनिमिनकेन – चेतयिनि भित्तन लादि पर-लादिपर पूर्वकृत–पूर्वकृतं पास ण याणाए-यागंण यागए धम्माधम्म -प्राधम्म मध्वसानं.. मध्यवतान स्व -स्वरूप गृहीतु- गृहीत विहार्षा - बिहार्षी पृष्ठ पंक्ति १३८व पंज पर ६७ कलण लिखना गाथा टीका ५५२-१३ के अन्त में ४० चुतकुम्भाभिधानेषि कुम्भोधतमयो न चेत ५१२-२ जीवो वार्णादिमज्जीवजलपने पि न तन्मयः ।। ८० ।। २३०वं पेज पर १२५ माथा टीका के अन्त में ६५वां कलश लिखें-- ६३१-२ स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभता परिणामशक्तिः । ६४३-१ तस्यां स्थितारा स करोति भावं यं स्वस्व तस्यैव भवेत्स। ६४५-५ वर्ता ॥६५ १५२-५ अपनी बातचीत अयि आत्मन ! तु क्या है ? विचार ! ज्ञानमय पदार्थ !! तेरा इन दृश्यों के साथ क्या कोई सम्बन्ध है यथार्थ? नहीं, नहीं, कुछ भी सम्बन्ध नहीं ! क्यों नही? यों कि 'कोई विसीका कुछ भी परिणमन कर नहीं सकता" में ज्ञानमय आत्मा हे , स्वयं है, इसीलिय अनादिसे है, मैं किसी दिन हुआ होऊ, पहिले नया यह बात नहीं। न या तो फिर हो भी नहीं सकता। फिर ध्यान दे---इस नर जन्भसे पहिले तू था ही ! क्या था? अनंतकाल तो निगोदिया था। वहां क्या बीती? एक सेकिण्ड में २३ बार पंदा हुआ और मरा। जीभ, नाक, आंख, कान, मन तो था ही नहीं और था शरीर । ज्ञानकी ओरसे देखो तो जड़सा रहा; महासंक्लेश! न कुछसे बुरी दशा । सुयोग हुआ तब उस दुर्दशासे निकला । पृथ्वी हुबा तो खोदा गया, जूटा गया, साड़ा गया, सुरंग कोड़ा गया। जल भी तो तू हुआ, तब औटाया गया, बिलोरा गया, गर्म आग पर डाला गया। अग्नि हुआ, तब पानीसे, राखरो, घुलसे, बुझाया गया, सुदेश गया । वायु हुआ, तव पंखोंसे, बिजलियोंसे ताड़ा गया, रबर आदिमें रोका गया। पेड़, फल, पत्र जब काटा, छेदा, भूना, सुखाया गया। कीड़े भी तुम्हीं बने और मच्छर, मक्खी, बि आदि भी! बताओ कौन रक्षा कर सका ! रक्षा तो दूर रही, दवाइयां डाल डाल कर मारा गया, पत्थरोंसे, जूतोंसे, खरोंसे दबोचा व मारा गया । बल, घोड़े, कुते आदि भी तो तू हुआ । कैसे दुःख भोगे ? भूखे प्यासे रहे, ठंडों मरे, ममियों मरे, ऊपरसे चाबुक लगे, मारे गये। गूकर मारे जाते हैं चलते फिरतोंको छुरी भोंककर । कहीं तो ज़िन्दा ही आग में भूने जाते हैं। यह दूसरों की कथा नहीं, तेरी है। यह दशा क्यों हुई? मोह बढ़ाये; कषाय किये; खाने, पीने, विषयों की धुन रही; नाना कर्म वांधे; मिथ्याव, अन्याय, अभश्यसेवन किये। बड़ी कठिनाईसे यह मनुष्य जन्म मिला तब यहां भी मोहराग द्वेष विषय कषायकी ही बात रही। तब...जैसे मनुष्य हए, न हुए बराबर है। कभी ऐसा भी हुआ कि तूने देव होकर या राजा, सम्राट् , महान् धन-पति होकर अनेक संपदा पाई परन्तु वह सभी संपदायें थीं तो असार और कलेशकी कारण !! इतने पर भी उन्हें छोड वर मरना हो तो पड़ा! अबतो पाया ही क्या ? ने कूछ । म पूछमें व्यर्थलालसा | सर्व हानि कर रहे हो ? आरमन ! स्वभावसे ज्ञान-मय है, प्रम है, स्वतन्त्र है, सिद्ध परमात्मा की जाति का है । क्या कर रहा ? उठ, चल, अपने स्वरूपमें बस 1 अकेला है, अकेला ही पुण्य-पाप करता, अकेला ही पुण्य-पाप भोगता, अकेला ही शुद्ध स्वरूपकी भावना करता, अकेला ही मुक्त हो जाता। देख ! चेत! पर पर ही है, परमें निजबुद्धि वरना ही दुःख है, स्वयं में आत्मबुद्धि करना सुख है, हित है, परम अमृत है । वह तू ही तो स्वयं है । परकी आशा तज, अपने में मग्न होने की घून रख । सोच तो यही सोच-परमात्माका स्वरूप...उसकी भक्ति में रह । लोगोंको मोच, तो उनका जैसे हित हो उस तरह सोच । बोल तो यही बोल-शद्धात्माका गुण गान...इसकी स्तुतिमें रह । लोगों में बोल, तो हित, मित, प्रिय वचन बोल । कर, तो ऐसाकर जिसमें किसी प्राणीका अहित न हो, घात न हो। अपनी चर्या धार्मिक बनाओ । तू शुद्ध चैतन्य स्वभावी है; सहजमावका अनुभव कर । जप, जप:-"शुद्धचिद्रूपोऽहम्" शिवमस्तु Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ परमात्म आरती ॐ जय जय अधिकारी। जय जय अविकारी, स्वामी-जय जय अविकारी । हितकारी भयहारी, शाश्वत स्वविहारी । ॐ " ." |टेक । काम क्रोध मद लोभ न माया, समरस सुखधारी । स्वामी सम० ध्यान तुम्हारा पावन, सकल क्लेशहारी । ॐ जय""" ॥१॥ हे स्वभावमय जिन तुमि चीना, भव संतति टारी। स्वामी भव० तुब भूलत भव भटकत, सहत विपति भारी। ॐ जय ॥२॥ परसंबंध बंध दुख कारण, करत अहित भारी । स्वामी करत" परम ब्रह्मका दर्शन, चहुँगति दुखहारी। ॐ जय ||३|| ज्ञानमूर्ति हे सत्य सनातन, मुनिमन संचारी। स्वामी मुनि निर्विकल्प शिवनायक, शुचिगुण. भंडारी । ॐ जय.. ॥४॥ बसो बसो हे सहज ज्ञानधन, सहज शान्तिचारी। स्वामी सहज टलें टलें सब पातक, परबल बलधारी। ॐ जय ॥५॥ आत्म भक्तिक मेये शाश्वत शरण, सत्य तारणतरण ब्रह्म प्यारे । तेरी भवती में क्षण जाँय सारे ।। टेक ॥ ज्ञानसे ज्ञानमें ज्ञान ही हो, कल्पनाओंका इकदम विलय हो। भ्रान्तिका नाश हो, शान्तिका वास हो, ब्रह्म प्यारे। तेरी' ॥१॥ सर्व गतियोंमें रह गतिसे न्यारे, सर्व भावों में रह उनसे न्यारे। सर्वगत आत्मगत, रत न नाहीं विरत, ब्रह्म प्यारे । तेरी" ॥२॥ सिद्धि जिनने भि अबतक है पाई, तेरा आथय ही उसमें सहाई । मेरे संकटहरण, ज्ञान दर्शन चरण, ब्रह्म प्यारे । तेरी ॥३॥ देह कर्मादि सब जगसे न्यारे, गण व पर्ययके भेदोंसे पारे। नित्य अन्तः अचल, गुप्त ज्ञायक अमल, ब्रह्म प्यारे। तेरी ||४|| आपका आप ही प्रेय तू है, सर्व श्रेयोंमें नित श्रेय तू है । सहजानन्दी प्रभो, अन्तर्यामी विभो, ब्रह्म प्यारे । तेरी " ॥५॥ ( ५५ ) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 आत्मरमण मैं दर्शनज्ञानस्वरूपी हूँ, मैं सहजानन्द स्वरूपी हूँ ॥ टेक ॥ हूँ ज्ञानमात्र परभावशून्य, हूँ सहज ज्ञानघन स्वयं पूर्णं । हूँ सत्य सहज आनन्दधाम, मैं सहजानन्द० । मैं दर्शन ० ॥ १ ॥ हूं खुदका हो कता भोक्ता, परमें मेरा कुछ काम नहीं || परका न प्रवेश न कार्य यहाँ, मैं सहजानन्द० | मैं दर्शन० ||२|| आऊ उतरू' रमलूँ निजमें, निजकी निजमें दुविधा ही क्या || निज अनुभव रस से सहजतृप्त, मैं सहजानन्द० । मैं दर्शन० ॥ ३ ॥ मंगल तंत्र ॐ नमः शुद्धाय ॐ शुद्ध चिदस्मि ज्ञानमात्र हूं, मेरे स्वरूपमें अन्यका प्रवेश नहीं, अत: निर्भर हूं। मैं ज्ञानघन हूं, मेरे स्वरूप में अपूर्णता नहीं, अतः कृतार्थ हूं । मैं सहज आनन्दमय हूँ, मेरे स्वरूपमें कष्ट नहीं, अतः स्वयंतृप्त हूं । ॐ नमः शूद्राय ॐ शुद्ध चिदस्मि । 5 आत्म कीर्तन फ्र हूं स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतम राम ॥ टेक ॥ मैं वह हूं जो हैं भगवान, जो में हूँ वह हैं अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति सुख ज्ञान निधान || किन्तु आश वश खोया ज्ञान, बना भिखारी भगवान । वितान ॥१॥ निपट अजान ॥ २॥ दुख की खान ॥ नहि लेश निदान || ३ || सुख दुख दाता कोइ न आन, मोह राग रुष निजको निज परको पर जान, फिर दुखका जिन शिव ईश्वर ब्रह्मा राम, विष्णु बुद्ध राग त्यागि पहुँच निज धाम्र, आकुलताका हरि जिसके नाम ॥ फिर क्या काम ॥४॥ होता स्वयं जगत परिणाम, मैं जगका करता क्या काम ||दूर हटो परकृत परिणाम, 'सहजानन्द' रहूँ अभिराम ॥ ५ ॥ ( ५६ ) T Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपाद-श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः समयसारः पूर्व-रंग पूज्यपाद-श्रीमदमृतचन्द्रसूरिकृता यात्मख्यातिः नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे ।।१।। अनन्तधर्मरगस्तत्त्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूतिनित्यमेव प्रकाशताम् ।।२।। परपरिणतिहेतोर्मोहनाम्नानुभावादविरतमनुभाव्यच्याप्तिकल्माषितायाः । मम परमविशुद्धिः शुचिन्मात्रमूर्तेमवतु समयसारख्याख्ययवानुभूतेः ॥३॥ अध्यात्मयोगी न्यायतीर्घ पूज्य श्री गुरुवर्य श्रीमत्सहजानन्दकृत चतुर्दशाङ्गी टोका टीकागत प्रथम मंगलाचरणका अर्थ-स्वानुभवसे प्रकाशमान, चैतन्यस्वभावमय, शुद्ध सत्तास्वरूप, सर्वभावोंको एक ही समय में जानने वाले अथवा सर्व भावान्तरोंको हटाने थाले समयसारके लिये नमस्कार हो । भावार्थ-द्रव्यकर्म भावकर्म नोकर्मसे रहित केवल चित्प्रकाशमय प्रात्माको समयसार कहते हैं । समयसार कार्यसमयसार प्रभुको भी कहते हैं और समयसार अध्यात्मोपदेशके लक्ष्यभूत परमब्रह्मस्वरूपको भी कहते हैं। सो इष्ट प्रभुको व इष्ट तस्वको समयसार' शब्द कहकर नमस्कार किया गया है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i समयसार प्रसंगविवरण -- पूज्य श्री आचार्य कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित समयप्राभृत ग्रन्थराजको आत्मख्याति नामक टीका रचते समय पूज्य श्री अमृतचन्द्र जी सूरिने अपने इष्टको समयसारके नामसे इस कारण नमस्कार किया है कि इष्ट देवका सामान्यस्वरूप शुद्ध प्रात्मा है । सो प्रभु द्रव्यतः शुद्ध ग्रन्तः सहज चैतन्यस्वरूप है ही और पर्यायतः भी शुद्ध प्रभु हैं । जो द्रव्यतः सहजस्वरूप है, उसकी आराधनासे ही प्रभु प्रभु हुए हैं। इसी अनादि अनन्त ग्रहेतुक अन्तः सहजस्वरुपकी श्राराधना के लिये यह ग्रन्थीपदेश है । अतः समयसार के लिये यहाँ सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) स्वानुभव से प्रकाशमान इस विशेषणसे यह सिद्ध हो गया कि श्रात्मा तथा ज्ञान मीमांसकसम्मत जैसा सर्वथा परोक्ष नहीं, किन्तु वह स्वानुभव से स्वमें स्वयं स्वको जानता है । ( २ ) इसी विशेष से सिद्ध है कि ज्ञान नैयायिकसम्मत जैसा स्वयं अपनेको नहीं जानता ऐसा नहीं, किन्तु ज्ञान स्वसंवेद्य है । ( ३ ) चित्स्वभाव इस विशेषण से सिद्ध हुआ निँयायिक-मीमांसकादिसम्मत जैसा गुरगुणीमें सर्वथा भेद नहीं, किन्तु वस्तु गुणमय है, श्रात्मा चेतन्यस्वभावमय है । ( ४ ) भावाय इस विशेषण से शून्यवादसम्मत सर्वथा प्रभाववादका निराकरण हुआ, क्योंकि आत्मा सद्भुत है । (५) सर्वभावान्तरच्छिदे इस विशेषण से सर्वजता की सिद्धि हुई, मीमांसकसम्मत असर्वज्ञताका एकान्त नहीं । ( ६ ) इसी विशेषण से सिद्ध है कि श्रात्मस्वरूप सर्वविकारोंसे परे है । सिद्धान्त - ( १ ) परमशुद्धचित्स्वरूप आत्मा शुद्धनयात्मक ज्ञानानुभूतिसे ज्ञातव्य है । (२) ज्ञान स्वसम्वेद्य है । (३) गुण गुणीमें भेद नहीं है । (४) श्रात्मा चैतन्यात्मक स्वास्तित्व से समवेत है । (५) आत्मा सर्व परपदार्थों का ज्ञाता है | ( इनकी दृष्टियाँ क्रमसे निम्नांकित हैं) दृष्टि - १ - शुद्धनय (४९) । २ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । ३-परमशुद्ध निश्चयनय (४४) । ४ - प्रन्वयव्याथिकनय (२७) । ५ - स्वाभाविक उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५ ) । प्रयोग – सहजसिद्ध अन्तस्तस्वकी अर्थात् समयसारकी उपासनासे हो आत्मा सदा के लिये सकल संकटों से मुक्त होता है । अतः समस्त परपदार्थो का ख्याल छोड़कर भवनेको सहजसिद्ध चैतन्यमात्र प्रन्तस्तत्त्वरूप सहज अनुभवना चाहिये, ॐ शुद्धं चिदस्मि । यह प्रायोगिक प्रन्तस्तस्वभक्ति हो परमार्थतः समयसारके लिये नमस्कार है || १|| टीकागत द्वितीय मंगलाचरणका अर्थ - अनन्तधर्मात्मक, प्रत्यगात्मा के तत्त्वको अव लोकन करने वाली तथा दर्शाने वाली अनेकान्तमयो मूर्ति नित्य ही प्रकाशमान होनो । मावार्थ -- जिसमें अनेक ग्रंत (धर्म) हैं, ऐसा जो ज्ञान तथा वचन उस रूप मूर्ति नित्य ही प्रकाशरूप हो । वह मति ऐसी है कि जिसमें अनन्त धर्म हैं और कैसी है ? प्रत्यक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग सजातीय विजातीय परद्रव्योंसे भिन्न, परद्रव्यके गुणपर्यायोंसे भिन्न तथा परद्रव्यके निमित्तसे हुए अपने विकारोंसे कथंचित् भिन्न एकाकार ऐसा जो प्रात्मा उसके तत्वको देखती है अर्थात अवलोकन करती है । यहाँ सरस्वतीको मूर्तिको आशीर्वचनरूप नमस्कार किया है । जो लोकमें सरस्वतीकी मुति प्रसिद्ध है, लोकको प्रायः उसका भाव विदित नहीं है, इसलिये उसका यथार्थ वर्णन किया है । जो सम्यग्ज्ञान है, वह सरस्वतीको सत्यार्थ मूर्ति है । उसमें भी सम्पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञान है जिसमें सब पदार्थ प्रत्यक्ष प्रतिभासित होते हैं, वही अनन्त धर्मोसहित मात्मतत्त्वको प्रत्यक्ष देखता है और उसीके अनुसार श्रुतज्ञान है, वह परोक्ष देखता है, इसलिये यह भी उसीकी मूर्ति है तथा द्रव्यश्रुत वचनरूप है सो यह भी उसीको मूर्ति है, क्योंकि वचनों द्वारा अनेक धर्म वाले प्रात्माको यह बतलाती है । इस तरह सब पदार्थोके तत्त्वको जताने वाली जाए तथा बनना अनेकांतमयो सरस्वतीको मूर्ति है । इसी कारण सरस्वतीके नाम वाणी, भारती, शारदा, वाग्देवी आदि बहुतसे कहे जाते हैं । यह अनन्त धर्मोको स्यात्पदसे एक धर्मी में अविरोधरूप साधती है, इसलिये सत्यार्थ है। आत्माका जो अनन्तधर्मा विशेषण दिया है, उसमें अनन्त धर्म कौन-कौन हैं ? वस्तुमें सत्त्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व प्रदे शवत्व, चेत. नत्व, अचेतनत्व, मूर्तिमत्त्व, अमूर्तिमत्त्व इत्यादि धर्म तो गुण हैं और उन गुगोंका तीनों कालोंमें समय समयवती परिणमन होना पर्याय हैं, वे अनन्त है तथा एकत्व, अनेकत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व, भिन्नत्व, अभिन्नत्व, शुद्धत्व, अशुद्धत्व प्रादि अनेक धर्म हैं, वे सामान्यरूप तो बचनगोचर हैं और विशेषरूप बचनके अविषय हैं, ऐसे वे अनन्त हैं सो ज्ञानगम्य हैं । ऐसा होनेपर प्रात्मा भी वस्तु है, उसमें भी अपने धर्म अनन्त हैं । उसमें से चेतनत्व असाधारण है, यह दूसरे अचेतनद्रव्यमें नहीं है और सजातीय जीवद्रव्य अनन्त हैं, उनमें भी चेतनत्व है तो भी निजस्वरूपसे जुदा-जुदा मत् हैं। क्योंकि प्रत्येक द्रव्यके प्रदेश भिन्न-भिन्न हैं, इसलिए किसीका प्रदेश किसी में नहीं मिलता । यह चेतनत्व अपने अनन्तधर्मों में व्यापक है, इस कारण इसीको आत्माका तत्त्व कहा है । उसको यह सरस्वतीको मूर्ति देखती है और दिखाती है। इसलिये इस सरस्वतीको आशीर्वादरूप वचन कहा है-यह सदा प्रकाशरूप रहे । इसीसे सब प्राणियोंका कल्धारण होता है। प्रसंगविवरण-समयसार तक पहुच हो, एतदर्थ समयसारका, स्त्रका अध्यका यावश्यक है । समयसारका व समस्त तत्वोंका परिज्ञान श्रुत (पागम) के अध्ययनसे होता है । वह श्रुतदेवता अनेकान्तमयी मूर्ति है उसके नित्य प्रकट प्रकाशमान होनेकी भावना इस कारण की गई है कि अनेकान्तात्मक शास्त्रोपदेश जिन जीवोंको उपलब्ध होगा वे अपना कल्याण कर सकेंगे । तथ्यप्रकाश----(१) सर्व परवस्तुवोंसे भिन्न, नैमित्तिक परभावोंसे भिन्न व अपने ही Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स्वरूपमें तन्मय ग्रात्मा प्रत्यगात्मा कहलाता है । ( २ ) प्रत्यगात्मा भी अनन्तधर्मात्मक है जैसे कि सभी पदार्थ अनन्तधर्मात्मक होते हैं । ( ३ ) अनन्त धर्मोमें अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशवत्त्व, प्रमेयत्व आदि साधारण गुण हैं । चेतनत्व असाधारण गुण हैं । अमूतत्व प्रादि अनेक साधारणासाधारण गुरण हैं । इन गुणोंके परिणमनरूप गुरगपर्यायें हैं । आकाररूप परिणाम न द्रव्यपर्यायें हैं। इन सबके अतिरिक्त एकत्व, अनेकत्व आदि अनेक धर्म हैं । इन सबमें तादात्म्यसमवेत अनन्तधर्मात्मक आत्मवस्तु है । ( ४ ) ग्रनन्तधर्मात्मक वस्तुका प्रतिपादन करने वाली द्रव्यवाणी अनेकान्तमयी मूर्ति है । सिद्धान्त - ( १ ) प्रत्यगात्मा प्रथवा श्रात्मा अनन्तधर्मात्मक है । ( २ ) आत्मा साधारण गुण, असाधारणगुण व पर्याय सामान्य आदि अनंत धर्मोसे अभिन्न स्वभाव वाला है । ( ३ ) आगम में अनन्तधर्मात्मक वस्तुका भेदविधिसे भी परिचय कराया है । ( ४ ) आगम में व्यवहारी जनोंके प्रतिबोधनार्थं भेदविधिसे भी प्रतिपादन है । ( ५ ) आगम में लौकिक जनोंको प्रभिप्राय, निमित्त व प्रयोजन बतानेके लिये एक वस्तुका दूसरी वस्तुमें कर्तृत्व आदि बतानेकी भाषासे याने उपचार भाषासे भी वन है । दृष्टि - १ - प्रमाणसिद्ध । २ - श्रन्वयव्याधिकनय (२७) | ३ - व्यवहारनय (५०६१) । ४ - व्यवहार (६२-१०२ ) । ५ -उपचार (१०३-१५२ ) । प्रयोग --- श्रात्मा अनन्तधर्मात्मक है उसे नय व प्रमाणसे भली प्रकार परखकर परसे विभक्त व अपने में तन्मय प्रत्यगात्माक तथ्यका ज्ञान सतत बनाये रहना चाहिये, यही जैनशासन के अध्ययनका प्रयोजन व फल है । ४ टीकागत प्रतिज्ञापक छन्दका अर्थ- शुद्ध चैतन्यमात्र मूर्ति होनेपर भी मेरी परिणति परपरिपतिका निमित्तभूत जो मोहनीय नामक कर्म है उसके अनुभाव ( उदयविपाक ) से अतुभाव्य ( रागादि परिणाम ) की व्याप्तिसे निरन्तर कल्माषित ( मलीन) है, सो समयसारकी व्याख्या ही से मेरी इस अनुभूतिकी परमविशुद्धि होवे । भावार्थ --- टीकाकार पूज्य श्री अमृतचन्द्रजी सूरि कहते हैं कि मैं परमशुद्धद्रव्याथिक दृष्टिसे शुद्ध चैतन्यमात्र विकार श्रानन्दमय हूं, परन्तु द्रव्य कोई परिणमे बिना रहता नहीं, मैं भी परिणाम रहा हूं, लेकिन मोहनीय नामक कर्मके उदयविपाकका निमित्त पाकर रागादि भावरूप मलिन परिणम रहा हूं । अब मैं सहज शुद्ध प्रात्मद्रव्यका निरूपण करने वाले समयसार ग्रन्थराजकी व्याख्या कर रहा हूँ सो इस व्याख्या करनेका मेरा प्रयोजन यहीं है कि रागादि- मलिन अनुभूति दूर होवे और शुद्ध ज्ञानानन्दस्वभाव सहज श्रात्मतत्वकी अनुभूति प्रतीति चर्यारूप मेरी परमविशुद्धि होवे । प्रसंगविवरण - टीकाकार श्री सूरिजी समयसारकी व्याख्या करेंगे सो व्याख्या करने Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i पूर्वं रंग वंदित्सद्धि धुवमचलमणो गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहु मिणमो सुलीभयिं ॥१॥ अथ सूत्रावतार: वंदन करि सिद्धोंको, ध्रुव अचल अनूप जिन सुगति पाई । समयप्राभृत कहूंगा, यह श्रुतकेवलिप्रणीत श्रहो ॥१॥ वदित्वा सर्वसिद्धान् ध्रुवमचलामनुपमा गति प्राप्तान् । वक्ष्यामि समयप्राभृतमिदं अहो केवलिभणितम् । 'वंदित्' इत्यादि । अथ प्रथमत एव स्वभावभावभूततया अवत्वमवलंबमानामनादिभावांतरपरपरिवृत्तिविश्रान्तिवशेन चलत्वमुपगता मखिलोपमानविलक्षणाद्भुतमाहात्म्यत्वेनाविद्य मानोपम्यामपवर्गसंज्ञिक गतिमापन्नान् भगवतः सर्वसिद्धान् सिद्धत्वेन साध्यस्यात्मनः प्रतिच्छं प्रकृतिशब्द--- सर्व सिद्ध, भुत्र, चल, उपमा, गति, प्र-आप्त, सम्-अय, प्राभृत इदम, अहो. केवल भणित। मूलघातु वदि अभिवादनस्तुत्योः पिधुगतो, चल कम्पन, गम्लु गो, अ से पहिले व्याख्याका सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन व शक्यानुष्ठान परख लेना श्रावश्यक है । इस छन्द में इन्हीं चारोंका प्रकाश है । सम्बन्ध - समयसारको व्याख्या करना है सो व्याख्यान व्याख्येय सम्बन्ध प्रकट है। अभिधेय – समयसारोक्त शुद्धात्मस्वरूप है। प्रयोजन --- समयसारको चर्चा व आराधना के बलसे परमविशुद्धि (निर्मलता ) प्राप्त करना है । शक्यानुष्ठानयाते किया जा सकने योग्य कार्य है हो । तथ्यप्रकाश - ( १ ) जीवके विकारका निमित्तकारण पुद्गलकर्मविपाक है, स्वयं जीव नहीं, यदि यह उपादान जीव अपने विकारका खुद निमित्त कारण हो जाय तो विकार कभी नष्ट हो ही नहीं सकेगा, जीव विकारका नित्यकर्ता हो जायेगा । ( २ ) यह आत्मा सहज चैतन्यमात्रमूर्ति है याने अविकारस्वरूप है | सिद्धान्त - ( १ ) विकार नैमित्तिक भाव है । ( २ ) आत्मा सहज शाश्वत चैतन्यमात्र मूर्ति है । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । २- परमशुद्ध प्रभेदविपयो अंतिम व्यवहारनय नामक द्रव्यार्थिकनय (१५), परमभावग्राहक द्रव्यार्थियनय (३०) | प्रयोग - जैसे कि व्याख्याकार पूज्य श्री सूरि जी ने व्याख्या के कार्यका प्रयोजन अपनी परिणाम विशुद्धि निश्चित की है इसी प्रकार हम भी समयसार व आत्मख्याति व अन्य ग्रन्थों के स्वाध्याय का प्रयोजन अपने परिणामकी विशुद्धि निश्चित करें याने सहजशुद्ध अन्तस्तत्त्वको दृष्टिका पौरुप करके निर्मलता प्राप्त करें । टीकागत उत्थानिकाका अर्थ- अब सूत्रका अवतार होता है अर्थात् पूज्य श्री कुन्द Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार दस्थानीयान् भाव द्रव्यस्तवाभ्यां स्वात्मनि परात्मनि च निधायानादिनिधनश्रुतप्रकाशितत्वेन निखिलार्थसार्थसाक्षात्कारिकवलिपपीतत्वेन श्रुतकेवलिभिः स्वयमनुभवद्भिरभिहितत्वेन च लम्भने, बच परिभाषणं, अय गनी, शु श्रवणे, भण शब्दार्थ । पदविवरण-बंदित्वा-अन्नमाप्तिकी क्रिया । सर्वसिद्धान्-द्वितीया बहुवचन', अनमानिकी क्रियाका कर्म। ध्रुवां, अचला, अनुपमाहितीया एकवचन, गतिका विशेषण । गति-हितीया एकवचन । प्राप्तान-द्वितीया बहुवचन, सिद्धोंका विशेषण। वक्ष्यामिकुन्दाचार्य जो कुछ वर्णन करना हृदयमें रख रहे हैं उसमें से मंगलाचरण रूप तथा प्रतिज्ञासंकल्परूप प्रथम गाया प्रकट होती है। मैं [ध्र वां] ध्र व अचलां] अचल और [अनुपमा] अनुपम [गति गतिको [प्राप्ता] प्राप्त हुए [सर्वसिद्धान्] सभी सिद्धोंको वंदित्या] नमस्कार कर, [अहो] हे भव्यो, [श्रुतकेवलिभरिंगतं] श्रुत केवलियों द्वारा कहे हुए [इदं] इस [समयप्रामृतं] समयसार नामक प्राभृतको [वक्ष्यामि] कहंगा । तात्पर्य-सिद्धभगवान होनेका प्रोग्राम रखते हुए प्राचार्य सिद्धभगवंतको नमस्कार करके सिद्ध होने के उपायभूत आराध्य समयप्रतिपादक समयप्राभृतका कथन करेंगे । टीकार्थ---यहाँ अथ शब्द मंगलके अर्थको सूचित करता है । और प्रथमत एव (ग्रंथकी पादिमें) सब सिद्धोंको भाव-द्रव्यस्तुतिसे अपने प्रात्मामें और परके आत्मामें स्थापन कर इस समय नामक प्राभृतका (हम) भाववचन और द्रव्यवचन द्वारा परिभाषण प्रारम्भ करते हैं, इस प्रकार श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं । वे सिद्धभगवान् सिद्ध नामसे साध्य जो प्रात्मा उसके प्रतिच्छन्दके स्थानीय आदर्श हैं । जिनका स्वरूप संसारी भव्य जीव चितवन कर, उनके समान अपने स्वरूपका ध्यान कर उन्हीं के समान हो जाते हैं। और चारों गतियोंसे विलक्षण जो पंचमगति मोक्ष, उसे पा लेते हैं। वह पंचमगति स्वभावसे उत्पन्न हुई है, इसलिये ध्रुवरूपका अवलम्बन करती है, इस विशेषणसे सिद्ध हुआ कि चारों गतियां परनिमित्तसे होती हैं, इसलिये ध्र व नहीं है, विनश्वर हैं, इसलिये सिद्ध दशाका चारों गतियोंसे पुथपना प्रसिद्ध हुप्रा । वह गति अनादिकालसे अन्य भावके निमित्तसे हुए परमें भ्रमणको विश्रांति (प्रभाव) के वशसे अचल दशाको प्राप्त हुई है, इस विशेषणसे चारों गतियोंमें परनिमित्तसे जो भ्रमण था उसका व्यवच्छेद हुन । जगतमें समस्त जो उपमायोग्य पदार्थ हैं, उनसे विलक्षण है~~-अद्भुत माहात्म्यके कारण जो किसीकी उपमा नहीं पा सकती । इस विशेषणसे चारों गतियों में किसी से समानता भी पायी जाती है इसका निराकरण हुया । वह अपवर्गरूप है, धर्म अर्थ और काम इस पिवर्गमें न होनेसे वह मोक्षगति अपवर्ग कही गई है । ऐसी पंचम गतिको सिद्धभगवान् प्राप्त हुए हैं । कैसा है समयप्राभृत ? अनादिनिधन परमागम शब्द-ब्रह्म द्वारा प्रकाशित होनेसे तथा सब पदार्थोंके समूहके साक्षात् करने वाले केवली भगवान् सर्वज्ञके द्वारा प्रणीत Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग प्रमाणतामुपगतस्यास्य समयप्रकाशकस्य प्राभृतालयस्याहत्प्रवचनावयवस्य स्वपरयोरनादिमोहप्रहारणाय भाववाचा द्रव्यवाचा च परिभाषणमुपक्रम्यते ॥१॥ भविष्यत् क्रिया उत्तम पुरुष एकवचन । समयप्रभृतं-कर्मकारक द्वितीया एकवचन । अहो--अव्यय । इद-- कर्मविशेषण। श्रुनकेवलिभणितं-कर्मविशेषण द्वितीया एकवचन ।। होनेसे और केवलियोंके निकटवर्ती साक्षात् सुनने वाले और स्वयं अनुभव करने वाले ऐसे श्रुतकेवली गणधर देवोंके द्वारा कहे जानेसे प्रमाणताको प्रास हुआ है, तथा समय अर्थात् सर्व पदार्थं अथवा जोब पदार्थका प्रकाशक है । और अरहंत भगवान्के परमागमका अवयव (अंश) है । ऐसे समयप्राभृतका अनादिकालसे उत्पन्न हुए अपने और परके मोह--अज्ञान मिथ्यात्वके नाश होने के लिये मैं परिभाषण (व्याख्यान) करूगा । भावार्थ--यहाँपर गाथासूत्र में प्राचार्य ने "वक्ष्यामि" क्रिया कही है, उसका अर्थ टोकाकारने "वच परिभापरणे' धातुसे परिभाषण लेकर किया है । उसका प्राशय ऐसा सूचित होता है कि जो चौदह पूर्व में ज्ञानप्रवाद नामा छठे पूर्वके बारह 'वस्तु' अधिकार हैं, उनमें भी एकएक बीस-बीस प्रामृत विकार है, उसमें दसवें वस्तुमें समय नामक जो प्राभूत है, उसका परिभाषण प्राचार्य करते हैं । सूत्रोंकी दस जातियां कही गई हैं, उनमें एक परिभाषा जाति भी है । जो अधिकारको यथास्थान सूचना दे वह परिभाषा कही जाती है। इस समयनामा प्राभृतके मूल सूत्रोंका ज्ञान तो पहले बड़े प्राचार्योंको था और उसके अर्थका ज्ञान प्राचार्योंकी परिपाटोके अनुसार श्री कुन्दकुन्दाचार्यको था। इसलिये उन्होंने सभयप्राभृतके परिभाषासूत्र रचे हैं । वे उस प्राभृतके अर्थको हो सूचित करते हैं, ऐसा जानना । मंगलके लिये सिद्धोंको जो नमस्कार किया और उनका 'सर्व' ऐसा विशेषण दिया, इससे ये सिद्ध अनन्त हैं, ऐसा अभिप्राय दिखलाया और 'शुद्ध आत्मा एक ही है, ऐसा अन्य प्राशयका व्यवच्छेद किया । संसारीके शुद्ध प्रात्मा साध्य है, वह शृद्धाला साक्षात् सिद्ध है, उनको नमस्कार करना उचित ही है । श्रुतकेवलो शब्दके अर्थ में श्रुत तो अनादिनिधन प्रवाहरूप प्रागम है और केवली शब्द से सर्वज्ञ तथा परमागमके जानने वाले श्रुतकेवली हैं, उनसे समयप्राभृतको उत्पत्ति कही गई है । इससे ग्रंथको प्रामाणिकता दिखलाई, और अपनी बुद्धिसे कल्पित होनेका निषेध किया गया है । अन्यवादो छदास्थ (अल्पज्ञानी) अपनी बुद्धिसे पदार्थका स्वरूप अन्य प्रकारसे कहकर विवाद करते हैं, उनकी असत्यार्थता बतलाई है । इस ग्रन्थका अभिधेय तो शुद्ध प्रात्माका स्वरूप है, उसके वाचक इस ग्रन्धमें शब्द हैं, उनका वाच्यवाचक रूप सम्बन्ध है और शुद्धात्मा के स्वरूपकी प्राप्ति होना प्रयोजन है । शक्यानुष्ठान तो है ही।। प्रसङ्गविवरण--- शुद्धात्मा होना साध्य है, और द्रव्यकर्म भावकर्म व नोकर्म (देह) से रहित शुद्धात्मा सिद्ध भगवान होना सहजसिद्ध शुद्धात्मतत्त्व समयसारको उपासनासे हो Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार तत्र तावत्समय एवाभिधीयते-- जीवो चरित्तदंमणणाणहिउ तं हि मममयं जाण । पुग्गलकम्मपदेमट्टियं च तं जाण परसमयं ॥२॥ दर्शन ज्ञान भ्ररितमें, सुस्थित जीवोंको स्वसमय जानो। पाधिक मायाके, रुचियोंको परसमय जानो ॥२॥ जीवः चरित्रदर्शनहानस्थितः तं हि स्वममयं जानीहि । पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितं च त जानीहि परममयम् । योऽयं नित्यमेव परिणामात्मनि स्वभावेऽवतिष्ठमानत्वात् उत्पादव्ययध्रौव्य क्यानुभूतिलक्षरण्या सत्तयानुस्यूतश्चैतन्यस्वरूपत्वान्नित्योदित विशदहशिज्ञप्तिज्योतिरनंतधर्माधिरूढेक(मत्वादुद्योतमानद्रव्यत्व: क्रमाक्रमप्रवृत्तविचित्रभावस्वभावत्वादुत्संगितगुणपर्याय: स्वपराकारावभासनसमर्थत्वादुपात्तवैश्वरूप्यक रूपः प्रतिविशिष्टावगाहगतिस्थितिवर्तनानिमितत्वरूपित्वाभावाद प्रकृतिशब्द--जीव. चरित्र, दर्शन, ज्ञान, स्थित, नत्, स्त्र. समय, पुद्गल, कर्म, प्रदेश, पर, समय । मूलधातु-~चर चरणे, हागर प्रक्ष, ज्ञा अवता धनें, को गतिाननी, जय ती । पदविवरण--जीवः-प्रथमा एकवचन । चरित्रदर्शनज्ञानस्थितः प्रथमा एक कर्तृ विशेषण । तं-दि० ० । स्वसमयं-द्वितीया एकवचन, कर्मकारक | जानीहि-ज्ञा धातु लोट् लकारका मध्यम पुरुष एकवचन । पुद्गल कर्मप्रदेशस्थित-दिनीया एकशक्य है । अतः शुद्धात्मतत्त्वप्रतिपादक समयसार ग्रन्थकी रचनाके प्रारम्भमें पूज्य श्री कुन्द. चुन्दाचार्यने सिद्धभगवानका वन्दन किया है । तथ्यप्रकाश--(१) स्वाभाविक स्थिति ध्रुव हुमा करती है । (२) उपाधिरहित केवल की स्थिति अचल हुआ करती है । (३) सिद्धदशा गतिरहित स्थिति है, अतः सिद्धको उपमा देनेको अन्य कुछ है ही नहीं, हाँ यही कहा जा सकता है कि सिद्धदशा तो सिद्धदशाके हो समान है । (४) भावस्तुतिसे भक्तके पात्मामें प्रभुका स्थापन होता है । (५) द्रव्यस्तुतिसे दूसरे प्रात्मा भी अपने में प्रभुका स्थापन करते हैं । (६) समयसारकी प्रामाणिकताके ३ चिह्न निर्देशित हैं--(क) अनादिनिधन परम्परागत आगमसे इसका प्राकट्य है । (ख) सकल पदार्थ का साक्षात्कार करने वाले प्रभुकी दिव्यध्वनिसे प्रागम निकला है । (ग) स्वयं अनुभव करने वाले श्रुतकेवलियोंने इसे बताया है । (७) इस रखनाका प्रयोजन मोहविध्वंस है। सिद्धान्त-(१) सिद्धदशा कभी भी मिटती नहीं । (२) प्रभुस्तबनादिमें प्रात्मा अपने ही ज्ञान का परिणमन कर रहा है। दृष्टि- १- सादिनित्य पर्यायाथिक नय (३६)। २- कारककारनिभेदक सद्भूतव्यवहार (७२)। प्रयोग-सिद्ध भगवंतको अभिवन्दनाके समय अपनेमें यह ग्राशय दृढ़ करना चाहिये कि मुझे सिद्धभगवान होना हैं ।।१।। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग साधारणचिद्रूपतास्वभावसद्भावाच्चाकाशधर्माधर्मकालपुद्गलेभ्यो भिन्नोऽत्यंत मनंतद्रध्यसकरेऽपि स्वरूपादप्रच्यवनात् टंकोत्कीर्णचित्स्वभावो जीवो नाम पदार्थः स समयः, समयत एकत्वेन युगपज्जानाति गच्छति चेति निरुक्तेः । अयं खलु यदा सकलभावस्वभावभासनसमर्थविद्यासम. त्पाद कविवेकज्योतिरुद्गमनात्समस्तपरद्रव्यात्प्रच्युत्य दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपा मतत्वैकस्वगत त्वेन माईते तदा दर्शनशानवारित्रस्थितत्वात्स्वमेकत्वेन युगप जानन गच्छश्च स्वसमय वचन कर्मविशेषण । - तत् शब्दका पुल्लिगमें हिनीया विभक्तिका शववचन । हि-अव्यय । त्र-व्यय । परममयं---द्वितीया विभक्तिका एकवचन, कर्मकारक। प्रथम गाथामें समयके प्राभृत कहनेकी प्रतिज्ञा की थी वहाँ यह जिज्ञासा हुई कि समय क्या है, इसलिये प्रथम ही समयका स्वरूप कहते हैं--हे भव्य, जो [जीवः] जीव [चरित्र. दर्शनज्ञानस्थितः] दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें स्थित हो रहा है [तं] उसे [हि] निश्चयसे [स्वसमयं] स्वसमय [जानीहि] जानो । [च] और जो जीव [पुद्गलकमंप्रदेशस्थितं] पुद्गलकर्मके प्रदेशोंमें स्थित है [२] उसे [परसमयं] परसमय [जानीहि] जानो । तात्पर्य-स्वभावमे स्थित ओ म है। परमानों स्थित जीव परसमय है। स्दसमय व परसमय दोनों अवस्थावोंमें प्यापक प्रत्यागात्मा समय है। टीकार्थ-जो यह जीव नामक पदार्थ है वह हो समय है । क्योंकि समय शब्दका ऐसा अर्थ है----'सम्' तो उपसर्ग और 'प्रय गती' धातु है उसका गमन अर्थ भी है तथा ज्ञान अर्थ भी है, 'सम्' का अर्थ एक साथ है। इसलिए एक कालमें ही जानना और परिणमन करना ये दो क्रियायें जिसमें हों वह समय है। यह जीव पदार्थ एक कालमें ही परिणमन करता है और जानता भी है इसलिए यही समय है। इस तरह दो क्रियायें एक काल में होती हैं । वह समय नामक जीव नित्य ही परिणमन स्वभावमें रहनेसे उत्पाद व्यय धौध्यकी एकतारूप-अनुभूति लक्षण वाली सत्तासे युक्त है । वह चतन्यस्वरूपी होनेसे नित्य उद्योतरूप निर्मल दर्शनज्ञान-ज्योतिस्वरूप है--चैतन्यका परिणमन दर्शनज्ञानस्वरूप है । अनंत धर्मोंमें रहने वाला जो एक धर्मी उससे उसका द्रव्यस्थ प्रकट हुप्रा है, क्योंकि अनंतधोको एकता ही द्रव्यत्य है । क्रमरूप और अक्रमरूप प्रवृत्त हुए जो अनेक भाव उस स्वभावसे युक्त होनेसे उसने गुणपर्यायों को अंगीकार किया है। पर्याय तो क्रमवर्ती हैं और गुण सहवर्ती होते है और सवतीको अकमवर्ती भी कहते हैं। अपने और अन्य द्रव्योंके प्राकारके प्रकाशन करने में समर्थ होनेसे उसने समस्त रूपको झलकाने वाली एकरूपता पा ली है अर्थात् जिसमें अनेक वस्तुणोंका प्राकार झलकता है, ऐसे एक मानके आकाररूप है । पृथक्-पृथक् जो अवमाहन, गति, स्थिति और वर्तनाको हेतुता तथा रूपित्व (द्रव्योंके गुण) के प्रभावसे और असाधारण चैतन्यरूप स्वभाव के सद्भावसे--प्राकाश, धर्म, अधर्म, काल और पुद्गल-इन पाँच द्रव्योंसे भिन्न है, वह अनंत Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समयसार इति । यदा त्वनाद्यविद्याकंदलीमूलकंदायमानमोहानुवृत्तितंत्रतया दृशिज्ञप्तिस्वभावनियतवृत्तिरूपादात्मतत्त्वात्प्रच्युत्य परद्रव्यप्रत्ययमोहरागद्वेषादिभावकत्वगतत्वेन वर्तते तदा पुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वात्पर मेकत्वेन युगपन्जानम गच्छेपन गरसमय इति प्रतीयते । एवं किल समयस्य वैविध्यमुद्धावति ।। २ ॥ अन्य द्रव्योंसे अत्यन्त एकक्षेत्रावगाहरूप होनेपर भी अपने स्वरूपसे न छूटनेसे टकोत्कीर्ण चैतन्यस्वभावरूप है, ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है। जब यह सब पदार्थों के स्वभावके प्रकाशने में समर्थ ऐसे केवलज्ञानको उत्पन्न करने वाली भेदज्ञानज्योतिके उदय होनेसे सब परद्रव्योंसे पृथक् होकर दर्शन-ज्ञान में निश्चित प्रवृत्तिरूप प्रात्मतत्वसे एकत्वरूप होकर प्रवृत्ति करता है, तब दर्शन-ज्ञान-चारित्रमें स्थिर होनेसे अपने स्वरूपको एकत्वरूपसे एक कालमें जानता तथा परिणमन करता हुआ स्वसमय कहलाता है । और जब यह अनादि अविद्यारूप मूल वाले कंदके समान मोहके उदय के अनुसार प्रवृत्तिकी प्राधीनतासे दर्शन-ज्ञान स्वभावमें निश्चित बृत्तिरूप प्रात्मस्वरूपसे छूट परद्रव्य के निमित्तसे उत्पन्न मोह, रागद्वेषादि भावोंमें एक रूप हो प्रवृत्त होता है, तब पौद्गलिक कार्मण प्रदेशोंमें स्थित होनेसे परद्रव्यको अपनेसे अभिन्न, एक कालमें जानता है तथा रागादिरूप परिणमन करता है, अतः परसमय ऐसी प्रतीति होती है । इस तरह इस जीव नामक पदार्थके स्वसमयं और परसमय-~ऐसे दो भेद प्रकट होते हैं । भावार्थ-जीव नामक वस्तुको पदार्थ कहा है । वह इस प्रकार है कि पद तो 'जीव' ऐसे अक्षर समूह रूप है और इस पदसे जो द्रव्यपर्यायरूप अनेकांतस्वरूप निश्चित किया जाय, वह उसका अर्थ है । ऐसा पदार्थ उत्पाद-व्यय-धोव्यमयी सत्ता स्वरूप है। दर्शनज्ञानमय चेतनास्वरूप है, अनन्तधर्मस्वरूप द्रव्य है (और जो द्रव्य है, वह वस्तु है, गुण-पर्यायवान है) वह स्व-परप्रकाशक ज्ञान अनेकाकाररूप एक है, आकाशादिकसे भिन्न असाधारण चैतन्यगुणस्वरूप है और यद्यपि वह अन्य द्रव्योंसे एक क्षेत्रावगाहरूप स्थित है तो भी अपने स्वरूपको नहीं छोड़ता। ऐसा जीव नामक पदार्थ समय है । वह जब अपने स्वभावमें स्थित होता है, तब तो स्वसमय है और जब पौद्गलिक कर्मप्रदेशों में स्थित होता हुमा परस्वभाव -- रागद्वेष-मोह-स्वरूप परिणमन करता है तब परसमय है । ऐसे इस जीवके द्विविधता पाती है । प्रसङ्गविवरण---समयसारके परिभाषण में पहिले समयसार शब्दका वाच्य बताना चाहिये । सो समयसार शब्द द्वारा वाच्य अनादि अनन्त अहेतुक चैतन्यस्वरूपको एकदम कसे समझाया जा सकता है सो पर्यायमुखेन पहिले समय याने आत्माको, स्वसमय व परसमयके लक्षणको बताया गया है ताकि प्रासानीसे यह बात समझो जा सके कि जो स्वसमय ब परसमयमें रहने वाला एकस्वरूप है वह समय है। तथ्यप्रकाश-(१) उत्पादध्ययधोव्ययुक्त होने से जीव सत् है, पदार्थ है, इस कथनसे A Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- पूर्व रंग अर्थतद् बाध्यते-- एयत्तणिच्छयगयो समयो सव्वस्थ सुदरो लोए। बंधकहा एयत्ते तेण विसंवादिणी होई ॥३॥ सुन्दर शिव सत्य यहां एक स्वरूपी विशुद्ध चित् तत्त्वम् । किन्तु मृषा बन्धकथा, प्रात्मविसंवावकारिणी बनती ॥३॥ एक बनिश्चयगतः समयः गर्वत्र सुन्दरो लोके। बंधकर्थकत्वे तेन विसंवादिनी भवति ।।३।। समयशब्देनात्र सामान्येन सर्व एवार्थोऽभिधीयते । समयत एकोभावेन स्वगुणपर्यायान गच्छतीति निरुक्तेः । ततः सर्वत्रापि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवद्रव्यात्मनि लोके ये यावंतः केचनाप्यर्थास्ते सर्व एव स्वकीयद्रव्यांतर्मग्नानंतस्वधर्मचक्रवुम्बिनोपि परस्परमचुम्बिनोऽयंतप्रत्या सत्तावपि नित्यमेव स्वरूपादपतंतः पररूपेणापरिणमनादविनष्टानंतव्यक्तित्वाट्टोत्कीर्णा इव प्रकृतिशब्द- एकत्व, निश्चय, गत, समय, सर्व, सुन्दर, लोक, बन्ध, कथा, तद विसं वादिनी । नयात-चिज चयने, गम्ल गती, बन्ध बन्धने, बद संदेशवचने । पदविवरण--एकत्वनिश्चयगत:-प्रथमा एकवचन, कर्तृ विशेषण । समयः-कर्ता 1 सर्वत्र अध्यय । सुंदर:-प्रथमा एकवचा | लोक-सप्तमी एकवचन । नास्तिकवाद निराकृत हुआ । (२) जीव उत्पादव्यय वाला भी है, इस अंशसे सांख्यादिका अपरिणामवाद निराकृत हुमा । (३) जीव ध्रौव्ययुक्त भी है, इस अंशसे क्षरिणकैकान्त निरा. कृत हुना । (४) जीव दर्शनज्ञानस्वरूप है, न कि सांख्यादिसम्मत जैसा ज्ञानशून्य ! (५) जीव अनन्तधर्मा है, न कि क्षणिकवादसम्मत निरंश स्त्र लक्षणमात्र । (६) जीव गुणपर्यायवान है, म कि सांख्यादिसम्मत जैसा निर्गुण । (७) जीव विश्वरूपैकरूप है, इससे पराप्रकाशकवाद व मस्वसंवेदवादका निराकरण हुना। () जीव पुद्गलादिसे भिन्न है इस कथनसे मात्र बाह्य वस्तुका ही सत्त्व माननेकी मान्यताका निरास हुआ । (६) निरुपाधिस्वभाव में उपयुक्त जोव स्वसमय है । (१०) औपाधिक भावों में उपयुक्त जीव परसमय है । सिद्धान्त-(१) जीव उत्पादत्ययध्रौव्ययुक्त है । (२) जीव अनन्तधर्मा है । (३) जीव गुणपर्यायवान है। (४) निरुपाधिस्वभावोपयोगी स्वसमय है । (५) औपाधिकभावोपयोगी पर. समय है। दृष्टि-१- उत्पादव्ययसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२५)। २- भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२६) । ३- अन्वयद्रव्याथिकनय (२७) । ४- शुद्धनिश्चयनय (४६) । ५- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-परसमयको कष्टमय व अपवित्र जानकर परसमयतासे उपेक्षा करना और स्वसमयको अानन्दमय व पवित्र जानकर स्वसमयताकी प्राप्तिके आधारभूत समयसार सहज परमात्मतस्वकी उपासना करना अर्थात् स्वभावमें स्वतत्त्वका अनुभव करना ॥२।। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समयसार निष्यंतः समस्त विरुद्धाविरुद्धकार्यहेतुतया शश्वदेव विश्वमनुगृह्णन्तो नियतमेकत्वनिश्चयगतत्वेनैव सौन्दर्यमाद्यंत प्रकारान्तरेण सर्वसंकरादिदोषापत्तेः । एवमेकत्वे सर्वार्थानां प्रतिष्ठिते सति एकवचन । तेन तृतीया एकवचन । विसं बन्धकथा -- कर्ताांकारक प्रथमा एकवचन | एकत्वे सप्तमी वादित प्रथमा एकवचन कर्तृ विशेषण । भवति क्रिया । अब यह द्वैविध्य बाधित किया जाता है अर्थात् समयको द्विविधता ठीक नहीं है, क्योंकि वह बाधासहित है | वास्तव में समयका एकत्व होना हो प्रयोजनीय है । समयके एकल्ब से ही यह जीव शोभा पा सकता है [ एकत्वनिश्चयगतः ] एकत्वके निश्चयको प्राप्त [ समय: ] समय [ सर्वत्रलोके] सब लोकमें [सुंदरः ] सुंदर है [तेन ] इसलिए [ एकत्वे ] एकत्वमें [बंधकथा ] दूसरेके साथ बंधकी कथा [विसम्बादिनी] विसम्वाद कराने वाली | भवति ] है । तात्पर्य - बन्धनमें संकट हैं, सहजशुद्ध प्रन्तस्तत्त्वमें पवित्रता व शान्ति है । टीकार्थ - - यहां समय शब्दसे सामान्यतया सभी पदार्थ कहे जाते हैं, क्योंकि समय शब्दका अक्षरार्थं ऐसा है कि 'समय' अर्थात् एकीभाव से अपने गुणपर्यायोंको प्राप्त हुआ जो परिणमन करे, वह समय है । इसलिए सब ही धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीवद्रव्य स्वरूप लोक में जो कुछ पदार्थ हैं, वे सभी यद्यपि अपने द्रव्यमें अंतमग्न हुए अपने अनन्त धर्मोका स्पर्श करते हैं तो भी परस्पर में एक दूसरेका स्पर्श नहीं करते और प्रत्यन्त निकट एक क्षेत्रावगाहरूप स्थित हैं तो भी सदाकाल निश्चयसे अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होते तथा समस्त विरुद्ध कार्य और अविरुद्ध कार्यमें हेतुपनासे सदा विश्वका उपकार करते हैं, परन्तु निश्चयसे एकत्वके निश्चयको प्राप्त होनेसे ही सुन्दरता पाते हैं, क्योंकि जो अन्य प्रकार हो जायें तो संकर व्यतिकर आदि सभी दोष उसमें आा जावें । इस तरह सब पदार्थोका भिन्न भिन्न एकत्व सिद्ध होनेपर जीव नामक समयको बंधको कथासे विसंवादकी श्रापत्ति होती है । क्योंकि बंधकथाका मूल पुद्गल कर्मके प्रदेशोंमें स्थित होना जिसका मूल है, ऐसी परसमयतासे मंदा हुई परसमय स्वसमयरूप द्विविधता जीवके श्राती है । अतः समयका एकत्व होना ही मुसिद्ध होता है । भावार्थ - - निश्चय से सब पदार्थ अपने अपने स्वभाव में ठहरते हुए शोभा पाते हैं । परन्तु जीव नामक पदार्थकी अनादिकाल से पुद्गल कर्मके साथ बंध अवस्था है, उससे इस जीव में विसंवाद खड़ा होता है, इसलिए शोभा नहीं पाता । श्रतः एकत्व होना ही अच्छा है, उसी से यह जीव शोभा पा सकता है । प्रसंगविवरण -- प्रनन्तरपूर्व की गाथा में स्वसमय और परसमय ऐसे दो प्रकार बताये गये हैं, किन्तु यह ग्रात्मवस्तुका सहजभाव नहीं है । सहज चैतन्यस्वभाव के परिचयको सुगमता Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग जोबाह्वयस्य समयस्य बंधकथाया एवं विसंवादापत्तिः । कुतस्तन्मूलपुद्गलकर्मप्रदेशस्थितत्वमूलपरसमयोत्यादितमेतस्य वैविध्य । अतः समयस्यैकत्वमेवावतिष्ठते ।।३।। के लिये ही स्व समय परसमयका निर्देश किया गया है। पवित्रता व हित सहज चैतन्यस्वभाव के आश्रयसे ही है। अतः द्विविधताके उपयोग से हटकर निज सहज एकत्र मे पाना आवश्यक ही है सो इस एकत्वको बताने के लिये इस गाथाका अवतार हुना है। तथ्यप्रकाश--१-एक ही क्षेत्रमें लोकमें अनेक पदार्थ हैं अथवा बद्ध पदार्थ हैं तो भी सब केवल अपने अपने स्वरूपमें ही तन्मय हैं, समस्त परसे भिन्न हैं। २-कोई भी पदार्थ किसी भी पररूपसे नहीं परिहारतः इसी कारण सबको अपनी अपनी सत्ता कायम है । ३-औपाधिक भावोंके भाव व अभावके कारण प्रारमवस्तुमें द्विविधता पाई है, किन्तु प्रात्मस्वरूपमें द्विविधता नहीं है 1 सिद्धान्त---१-निमित्तनैमित्तिक योग होनेपर भी वस्तुस्वातंत्र्य अमिट है । ९-यात्मस्वरूप सहज चैतन्यमात्र एकत्वको प्राप्त है। दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकन्य (२४), स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८), परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६), २-परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । प्रयोग--पर जीवोंको ओर दृष्टि दें तो इस तरहको परख बनायें कि सभी जीवों में एकेन्द्रिय आदि सब अवस्थावोंमें अन्तः सहजसिद्ध चैतन्यस्वरूप सतत प्रकाशमान है। अपने आपपर दृष्टि दें तो समस्त औपाधिक भावोंसे दूर रहने के स्वभाव वाले सहज चैतन्यस्वरूपमात्र अपनेको निरखें। अब यह एकत्व असुलभतारूपसे बताया जाता है {सर्वस्य अपि] सब ही लोकोंके [कामभोगबंधकथा] काम-भोग-विषयक बंधकी कथा तो [श्रुतपरिचितानुभूता] सुनने में आ गई है, परिचयमें मा गई है और अनुभव में भी पायी हुई है इसलिए सुलभ है। [नवरि] किन्तु केवल [विभक्तस्य] पर व परभावसे भिन्न [एकत्वस्य उपलभः] अात्माके एकत्वका लाभ, उसको कभी न सुना, न परिचयमें आया और न अनुभवमें पाया इसलिए [न सुलभः] मुलभ नहीं है । तात्पर्य-प्रात्माका हितमय एकत्वस्वरूप ही सुना जावे, परिचित किया जावे अनुभवा जावे ताकि यह एकत्व मूलभ हो जाये । टीकार्थ---- यद्यपि इस समस्त जीवलोकको कामभोगविषयक कथा एकत्वके विरुद्ध होनेसे अत्यन्त दिसम्बाद करने वाली है...अात्माका अत्यंत बुरा करने वाली है, तो भी वह अनन्तबार पहले सुनने में पाई है, अनन्तबार परिचय में पाई है और अनन्त बार अनुभव में भी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ समयसार तथतदसुलभन्वेन विभाव्यते मुदपरिचिदाणुभूदा सब्बस्स वि कामभोगबंधकहा । एयत्तस्सुवलंभी गवरि ण सुलहो विहत्तस्म ॥४॥ जानी सुनी अनुभबी, जीवोंने कामभोगबंधकथा । इससे विविक्त यह निज, एक स्वभायी न ज्ञात हुमा ॥४॥ श्रुतपरिचितानुभूना मर्वस्यापि कामभोगबंधकथा। एकत्वस्योपलंभः नवरि न सुलभो बिभक्तस्य ॥४॥ इह सकलस्यापि जीतला संसाचोड निमोनियात्रारतद्रव्यक्षेत्रकालभवभावपरावतः समुपक्रांतभ्रांतेरेकच्छत्रीकृतविश्वतया महता मोहग्रहेग गोरिव वाह्यमानस्य प्रसभोज्ज भिततृष्णातकत्वेन व्यक्तांतथिस्योत्तम्योत्तम्य मृगतृष्णायमानं विषयग्राममुपरुन्धानस्य परस्परमाचार्यत्वमाचरतोऽनंतशः श्रुतपूर्वानंतशः परिचितपूर्वानंतशोऽनुभूतपूर्वा चैकत्वविरुद्धत्वे प्रकृतिशब्द----श्रुता, परिचिता, अनुभूता, सर्व, अपि, काम, भोग बन्ध, कथा, एकत्द, उपलम्भ, नबरि, न, गुलभ, विभक्त । मुलधातु---श्रु श्रवाणे, चित् चेतने, भू सत्तायां, कमि कामनायां, भुज भोगे, हुन्नभप प्राप्तौ । पदविवरण- श्रुतपरिचितानुभूता-प्रथमा एकवचन, स्त्रीलिङ्ग । सर्वस्य-षष्ठी एक आ चुकी है । यह जोवलोक संसाररूपी चक्रके मध्य में स्थित है, जो निरन्तर अनन्त बार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव व भावरूप परावर्तन करनेसे भ्रमण करता रहता है, समस्त लोकको एकछत्र राज्य से वश करने वाले बलवान मोहरूपी पिशाचसे बैलकी भांति जोता जाता है, वेग से बढ़ी हुई तृष्णारूपी रोगके संतापसे जिसके अन्तरंगमें क्षोभ और पीड़ा हुई है, मृगको तृष्णा के समान भ्रान्त-संतप्त होकर इन्द्रियोंके विषयोंकी ओर दौड़ता है । इतना ही नहीं, परस्पर प्राचार्यत्व भी करता है अर्थात दूसरेको भी कहकर अंगीकार कराता है। इसलिए काम-भोग को कथा तो सबको सुलभ है। परंतु निर्मल भेदविज्ञान रूपी प्रकाशसे स्पष्ट दिखाई देने वाला भिन्न यात्माका जो एकत्व है, वह यद्यपि सदा प्रकट रूपसे अंतरंगमें प्रकाशमान है, तो भी वह कपायोंके साथ एकरूप सरीखा हो रहा है, इसलिए उसका अत्यंत तिरोभाव हो रहा है --- आच्छादित है। इस कारण अपनेमें अनात्मज्ञता होनेसे, न अपनेको स्वयं भी जाना और दूसरे अात्माके जानने वालोंको संगति सेवा भी नहीं की, इसलिए वह एकत्व न कभी सुनने में माया, न परिचयमें पाया और न कभी अनुभव में ही आया। इस कारण भिन्न आत्माके एकत्वकी सुलभता नहीं है। भावार्थ- इस लोकमें सभी जीव संसाररूप चक्रपर चढ़े पांच परावर्तनरूप भ्रमण करते हैं । वहाँपर मोहक के उदयरूप पिशाचसे जोते जाते हैं, इसो कारणसे विषयोंकी तृष्णा रूप दाहसे पीड़ित होते हैं । उसमें भी उस दाहकी शान्तिका उपाय इन्द्रियोंके रूपादि विषयों Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. पूर्वरंग नात्यंतविसंवादिन्यपि कामभोगानुबद्धा कथा । इदं तु नित्यव्यक्ततयोतः प्रकाशमानमपि कषायचक्रेण सकीक्रियमाणत्वादत्यंततिरोभूतं सत्स्वस्यानात्मज्ञतया परेषामात्मज्ञानामनुपासनाच्च न कदाचिदपि श्रुतपूर्वं न कदाचिदपि परिचितपूर्वं न कदाचिदप्यनुभूतपूर्वं च निर्मलविदेकालोकविविक्तं केवलमेकत्वं । अत एकत्वस्य न सुलभत्वम् ||४|| बञ्चन । अपि-अव्यय । कामभोगबंधकथा - प्रथमा एकवचन कर्ता । एकत्वस्य षष्ठी एकवचन । उपलभःप्र० ए० | नवरि-अव्यय । न-अव्यय । सुलभः प्र० ए० कर्तृ विशेषण | विभक्तस्य षष्ठी विभक्ति एक० । को जानकर उनकी और दौड़ते हैं । और परस्पर में भी विषयोंका ही उपदेश करते हैं । इसलिये काम ( विषयोंकी इच्छा ) तथा भोग ( उनका भोगना) इन दोनों की कथा तो अनन्त बार सुनो, परिचय और अनुभवमें आई, इस कारण सुलभ है। किन्तु सब परद्रव्योंसे भिन्न चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने ग्रात्माकी कथाका न तो स्वयमेत्र कभी ज्ञान हुआ और जिनके हुमा, उनकी न कभी सेवा की, इसलिए इसकी कथा न कभी सुनो, और न वह कभी परिar र अनुभव में ही भाई । इस कारण श्रात्माके एकत्वका पाना सुलभ नहीं है, दुर्लभ है । प्रसंगविवरण -- जिस समयसारका, आत्माके एकत्वका लक्ष्य रखना है वह दुर्लभ क्यों रहा यह बताना इस कारण श्रावश्यक है ताकि एकत्वको श्रोमल कराने वाले अपराधको मेटा जावे | इस उद्देश्यसे इस गाथा का अवतार हुआ है । तथ्यप्रकाश - - ( १ ) यह मोहो सारे विश्वपर एकछत्र राज्य चाहता है, इस कारण कोल्हू के बैलकी तरह विकल्प बोझोंको ढोता फिरता है । (२) इच्छावोंके वेगसे तृष्णा उठने के कारण इस जीवको अन्तर में दुःख प्रकट हो रहा है । ( ३ ) यह जीव तृष्णामहारोगसे पोड़ित होनेसे विषयसाधनों को हापटा मारकर पकड़े हुए है । ( ४ ) विकल्प द्वारा कषायके साथ अपने एकत्वको मिला देनेसे मोहोको एकत्वका ज्ञान असुलभ है । सिद्धान्त - ( १ ) जीवलोक में संसारी श्रज्ञानी जीवोंका संग्रह होता है । ( २ ) यह जीव तृष्णाकी वेदना न सही जानेसे विषयसाधनों को रोकता है। दृष्टि - १ - अशुद्ध अपरसंग्रहनय नामक द्रव्यार्थिकनय ( ८ ) । २- परकर्तृत्वव्यव हार (१२६ ) | प्रयोग --- कामभोगबन्धकी दशा कष्टकारिणी है इस कारण पञ्च इन्द्रियके विषयोंसे हटने के लिए आनन्दनिधान सहज अन्तस्तत्त्वको चर्चा सुनने व इस एकत्वको अनुभबनेके लिये यह प्रयत्न हो -- ज्ञानसे ज्ञानमें ज्ञान हो हो । इस अभ्यास से निज सहज एकत्वस्वरूपकी सुलभता हो जावेगी ||४|| इस हो कारण अब भिन्न आत्माका एकतव दिखलाया जाता है -- [तं] उस [ एकस्वविभक्तं ] एकत्वविभक्त प्रात्माको [ ग्रहं ] मैं [ श्रात्मनः ] श्रात्मा [स्वविभवेन ] निज Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ श्रत एवं तदुपदर्श्यते समयसार तं एयत्तविहत्तं दाहं अपणो सविहवे । जदि दाज्ज पमाणं चुक्किज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥५॥ आत्मविभव के द्वारा उस एकत्वविभक्तको लखाऊँ । यदि लख जावे मानो, न लखे तो दोष मत गहना ॥ ५॥ तत्वविभक्तं हमात्मनः स्वविभवेन । यदि दर्शयेयं प्रमाणं स्वलेयं छल न गृहीतव्यम् ||५|| इह किल सकलोद्भासिस्यात्पद मुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा समस्त विपक्षक्षोदक्षमातिनिस्तुषयुक्तवलंबनजन्मः निर्मलविज्ञानघनांत निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्वानुशासन जन्मा प्रकृतिशब्द -- तत् एकत्वविभक्त, आत्मने, स्व, विभव, यदि, प्रमाण, छल, न मूलधातु-दि। सितायां । प्र मा माने । स्खल संचलने । गृह ग्रहणं । वैभव द्वारा [ दर्शये ] दिखलाता हूं, [ यदि ] जो मैं [ दर्शायेये ] दिखलाऊँ तो उसे [ प्रमाणं ] प्रमाण ( स्वीकार करना [ स्खलेयं ] और जो कहींपर चूक जाऊँ तो [छलं] चल [न] नहीं [गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना | भ तात्पर्य --- प्राचार्यदेव अपने वैभवसे एकत्वविभक्त अन्तस्तत्त्वको बता रहे हैं उसे भक्ति से सुनना व ग्रहण करना चाहिये । ~ टीकार्थ - प्राचार्य कहते कि जो कुछ मेरे श्रात्माका निज वैभव है उस सबसे मैं इस एकत्वविभक्त आत्माको दिखलाने के लिये उद्यत हुन हूं । मेरे आत्माके निज वैभवका जन्म, इस लोकमें प्रकट समस्त वस्तुओं को प्रकाश करने वाला श्रौर स्यात् पदसे चिह्नित शब्द ब्रह्म प्ररहंत के परमागमकी उपासना से हुआ है । (यहाँ 'स्यात्' इस पदका तो कथंचित् अर्थ है अर्थात् किसी प्रकार से कहना और सामान्यधर्मसे वचनगोचर सब धर्मो का नाम आता है तथा वचनके अगोचर जो कोई विशेष धर्म है उनका अनुमान कराता है। इस तरह वह सब वस्तुग्रोंका प्रकाशक है । इस कारण सर्वव्यापी कहा जाता है और इसीसे अरहंत के परमागमको शब्दब्रह्म कहते हैं । उसकी उपासना के द्वारा मेरा ज्ञान वैभव उत्पन्न हुआ है) तथा जिसका जन्म समस्त विपक्ष — अन्यवादियों द्वारा ग्रहण किये गये सर्वथा एकांतरूप नयपक्ष के निराकरण में समर्थ प्रतिमिस्तुष (सुस्पष्ट ) निर्बाधयुक्ति के अवलंबन से है। निर्मल विज्ञानघन आत्मामें अंतनिमग्न परमगुरु सर्वज्ञ देव, अपरगुरु गाधरादिकसे लेकर हमारे गुरूपर्यंतके प्रसादसे प्राप्त हुए शुद्धात्मस्वके अनुग्रहपूर्वक उपदेशसे जिसका जन्म है। निरन्तर भरते हुए प्रास्वाद में आये और सुन्दर आनन्दसे मिले हुए प्रचुर ज्ञानस्वरूप श्रात्मा स्वसम्वेदनसे जिसका जन्म है, ऐसा जो कुछ मेरे ज्ञानका वैभव है, उस समस्त वैभवसे उस एकत्वविभक्त प्रात्माका स्वरूप दिख Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - पूर्व रंग अनवरतस्यंदिसुन्दरानन्दमुद्रितामंदसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वोविभवस्तेन समस्तेनाप्ययं तमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बद्धव्यवसायोस्मि । किंतु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभव प्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यं । यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैभवितव्यम् ॥५॥ पदविवरण-त-द्वितीया एकवचन । एकत्वविभवत--द्वि० ए० । दर्शये-णिजन्तु लट् लकार उत्तम पुरुष एकवचन । अहं-प्रथमा ए० । स्वविभवेन-४० ए० । यदि-अध्यय । दर्शयेयं-लिड. लकार उत्तम पुरुष एकवचन । प्रमाण-प्र० ए० । स्खलेय-लिङ् लकार उत्तम० एक० । छल-प्र० ए० । गृहीतव्यम्-प्रथमा एकवचन, क्रिया ॥५॥ लाता हूं । यदि दिखला दं तो स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण करना, यदि चूक जाऊँ तो छल (दोष) ग्रहण करने में जागरूक नहीं रहना । भावार्थ-प्राचार्य आगमका अध्ययन, युक्तिका अवलम्बन, पगपर गुरुका उपदेश पाना और स्वसंवेदन---इन चार उपायोंसे उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके वैभवसे एकत्वविभक्त शुद्ध प्रात्माका स्वरूप दिखलाते हैं । उसे सुनकर हे श्रोतामो, अपने स्त्रसम्वेदन प्रत्यक्षसे प्रमाण करना, कहीं समझमें न आवे तो छल न मानना । प्रात्मस्वरूपके जाननेका अमोघ उपाय अनुभव है, इसोसे शुद्ध स्वरूपका निश्चय करना । प्रसंगविवरण-प्रात्माका एकत्व लोगोंको असुलभ है यह बात अनन्तर पूर्व माथामें कही गई थी । सो एकत्वका लाभ असुलभ तो है, किन्तु प्रत्यावश्यक है । एकत्वके लाभ बिना मोक्षमार्ग मिलता ही नहीं है, इसी कारण आचार्यदेव उस एकत्वको दिखानेका इस गाथामें संकल्प कर रहे हैं और लोगोंको एकत्व समझने की उमंग दिला रहे हैं। तथ्यप्रकाश-(१) ग्रन्थकार आचार्यदेवने आगम शास्त्रोंका विपुल अध्ययन मनन किया था । (२) दर्शनशास्त्रके प्रकाण्ड विद्वान होनेसे निस्तुष युक्तियोंसे तत्त्वसिद्धिको ग्रन्थकारमें पूर्ण क्षमता थी। (३) ज्ञाननिधान पर अपर गुरुकी विनय सेवाके प्रसादसे ग्रन्थकारको शुद्धात्मतत्त्वका अनुशासन मिला था । (४) प्राचार्यदेवने स्वयं स्वसंवेदन प्राप्त किया था। (५) महोपदेश सुननेपर भी श्रोता अपने अनुभवप्रत्यक्षसे परीक्षा करके प्रमाण किया करता है। सिद्धान्त-(१) स्वानुभवप्रत्य. से प्रमाण माननेकी बात सही होनेपर भी स्वपरो. पग्रहका व्यबहार (कथन) चलता ही है उसका उद्देश्य निमित्त व प्रयोजनको दिखाना मात्र दृष्टि-१- असंश्लिष्ट स्वजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२४) । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समयसार कोऽसौ शुद्ध प्रात्मेति चेत् णवि होदि अप्पमत्तो णो पमत्तो जाणो दु जो भावो। एवं भणंति सुद्ध णाश्रो जो सो उ सो वेव ॥६॥ नहिं रागी न विरागी, केवल चैतन्यमात्र शायक यह । निनाम शुद्ध यह ओ, ज्ञात हुमा वह वही शाश्वत ॥६॥ नापि भवल्याप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः । एवं भणंति शुद्धं ज्ञातो यः स तु स चैव ॥६।। यो हि नाम स्वतः सिद्धत्वेनानादिरनंतो नित्योद्योतो विशदज्योनियिक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबंधपर्यायनिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गल सममेकत्वेपि द्रव्यस्वभावनिरूपण्या दुरंतकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्तमानानां पुण्यपापनिवर्तकांनामुपात्तवैश्वरूप्यागां शुभाशुभभावानां स्वभावेनापरिणमनात्प्रमत्तोऽप्रमत्तश्च न भवत्येष एवाशेषद्रव्यांतर __नामसंज्ञ--ण, वि, अप्पमत्त, ण, पमत्त, जाणअ, दु. ज, भाव, एवं , सुद्ध, गाअ, ज, त, उ, त, चेष । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, भण' कथने । प्रकृतिशम्व-न, अपि, अप्रमत्त न, ज्ञायक, तु, यत्, भाव, एवं, शुद्ध, ज्ञात, यत्, तत्, तु, तत्, च, एव । मूलधातु---मदी मोहने, ज्ञा अबबोधने, भू सत्तायां शुध शोचे, भण वाचि । पदविवरण--न-अव्यय, अपि-अव्यय । भवति-लट् प्रथम पुरुष एकवचन । अप्रमत्तः-प्रथमा एक० । न प्रयोग--ग्रागम अभ्यास, दार्शनिक बोध, सविनय गुरुसेवा और तत्त्वमननको प्रतिदिन साधना करते हुए सत्याग्रह (स्वभावदृष्टि) व असहयोग (परभावोंसे उपेक्षा) से अपने में अपने सहजस्वरूपके अनुभवनेका पौरुष करना ।।५।। ___ अब ऐसा शुद्ध प्रात्मा कौन है कि जिसका स्वरूप जानना चाहिये ? ऐसे प्रश्नका उत्तररूप गाथा सूत्र कहते हैं--[तु यः] अहो जो [ज्ञाएकः भावः] ज्ञायक भाष है वह [अप्रमत्तः अपि] अप्रमत्त भी [न] नहीं है और [न प्रमत्तः] न प्रमत्त ही है [एवं] इस तरह [शुद्ध] उसे शुद्ध [भरगति ] कहते हैं [च यः] और जो [जातः] ज्ञायक रूपसे ज्ञात हुप्रा [सः] बह [स एव तु] वही है, अन्य कोई नहीं । तात्पर्य-अन्तस्तत्त्व स्वसम्वेद्य सहज प्रतिभासस्वरूप है। टोकार्थ---जो एक जायक भाव है, वह अपने प्रापसे ही सिद्ध होनेसे (किसीसे उत्पन्न नहीं होनेसे) अनादिसत्तारूप है और कभी विनाशको प्राम न होनेसे अनन्त है, नित्य उद्योत रूप है, स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है । वह संसारको अवस्थामें अनादिबंधपर्यायको निरूपणा (अपेक्षा) से दूध जलकी तरह कर्मरूप पुद्गलद्रव्य सहित होनेपर भी द्रव्यके स्वभावको अपेक्षा से देखा जाय, तब तो जिसका मिटना कठिन है, ऐसे कषायोंके उदयकी विचित्रतासे प्रवृत्त Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग १६ भावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्येत । न चास्य ज्ञेयनिष्ठत्वेन ज्ञायकत्वप्रसिद्धः दाह्यनिष्कनिष्ठदहमस्येवाशुद्धत्वं यतो हि तस्यामवस्थायां झायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् हायक एव ॥६॥ अव्यय । प्रमत्त:-प्रथमा एकः । ज्ञायक:-प्र० ए० तु-अव्यय । य:-प्र० एक भाग:-प्र० एकः । एवंअव्यय । भणंति--लट्-अन्यपुरुष बहुवचन | शुद्धं-द्वितीया एक० । ज्ञात:--प्र० ए० | य:-प्र० ए० । सःप्र० ए० । तु-अव्यय । सः-प्र० ए० । च-अव्यय । एव-अव्यय ।।६।। हुए पुण्य-पाएके उत्पन्न करने वाले समस्त अनेकरूप शुभ अशुभ भावके स्वभावसे परिणमन नहीं करता (ज्ञायकभावसे जड़े भावरूप नहीं होता)। इसलिए यह जायकभाष प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है । यही समस्त अन्य द्रव्योंके भावोंसे भिन्न रूपमें सेवित हुआ 'शुद्ध' ऐसा कहा जाता है । और ज्ञेयाकार होनेसे इसका ज्ञायकत्व प्रसिद्ध है तथा दाहने योग्य दाह्म इंधन में रहने वाली अग्निकी तरह ज्ञेयनिष्ठताके कारण ज्ञायकपना प्रसिद्ध होनेसे उस ज्ञेय के द्वारा की हुई भी इस प्रात्माके प्रशुद्धता नहीं है, क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्थामें भी ज्ञायकभाव द्वारा जाना गया जो अपना ज्ञायकत्व, वही स्वरूप प्रकाशनकी (जाननेको) अवस्थामें भी शायकरूप ही है शेयरूप नहीं हुमा । क्योंकि प्रभेद विवक्षासे कर्ता तो स्वयं ज्ञायक और कर्म जिसको जाना याने अपना आप ये दोनों एक स्वयं ही है, अन्य नहीं है । जैसे दीपक घटपटादिको प्रकाशित करता है, उनके प्रकाशनेकी अवस्था में भी दीपक ही है, वही अपनी ज्योति रूप लौ के प्रकाशनेको अवस्थामें भी दीपक ही है, कुछ दूसरा नहीं है। भावार्थ-प्रशुद्धता परद्रव्यके संयोगसे आती है। वहाँ भी कोई द्रव्य अन्य द्रव्यरूप नहीं होता, कुछ परद्रव्यके निमित्तसे अवस्था मलिन हो जाती है । सो द्रव्यदृष्टि से हो द्रव्य जो है वह ही है और उसको अवस्था पुद्गल कर्मके निमित्तसे मलिन है, वह पर्याय है। उसकी दृष्टिसे देखा जाय तब मलिन ही दीखता है। और द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय, तब ज्ञायकत्व तो जायकत्व ही है, कुछ जड़त्व नहीं हुआ, यह तथ्य द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतासे निरखिये । जो प्रमत्त अप्रमत्तका भेद है, वह तो परद्रव्यके संयोगवियोगजनित पर्याय है । यह अशुद्धता द्रव्यदृष्टिमें गौण है, द्रव्यदृष्टि शुद्ध है, इसलिये प्रात्मा ज्ञायक है, इस कारण उसे प्रमत्त व अप्रमत्त नहीं कहा जाता । 'ज्ञायक' ऐसा नाम भी यद्यपि ज्ञेयके जाननेसे कहा जाता है, क्योंकि ज्ञेयका प्रतिबिम्ब जब झलकता है तब वैसा ही अनुभवमें प्राता है, सो यह भी अशुद्धता इसके नहीं कही जा सकती, क्योंकि वहाँ ज्ञेयाकारसदृश ज्ञान ज्ञानमें प्रतिभासित हुआ, ऐसा अपना अपने से अभेदरूप अनुभव हुआ तब उस जाननेरूप क्रियाका कर्ता स्वयं ही है और जिसको जाना सो कर्म भी स्वयं ही है। ऐसे एक ज्ञायकत्व मार प्राप शुद्ध है-यह शुद्धनयका विषय है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- - - - - - समयसार दर्शनज्ञानचारित्रयत्त्वेनास्याशुद्धत्वमिति चेत् ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित दसणं णाणं । णवि णाणं ण चरितं दंसणं जाणगों सुद्धो ॥७॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, ज्ञायकके सध्यवहारनय कहता। शुद्धस्य शुद्ध लखता, नहिं दर्शन आदि भेव वहां ॥७॥ व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चरित्रं दर्शनं ज्ञानम् । नापि ज्ञानं न चरित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ।।७।। प्रास्ता तावद् बंधप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं, दर्शनज्ञानचारित्राण्येव न विद्यते; यतोह्यनंतधर्मण्येकस्मिन् धर्मिण्यनिष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधविधायिभिः कश्चिद्धमैस्तमनुशा नामसंज्ञ--ववहार, णाणि, चरित्त, सण, णाण, णवि, णाण, ण, चरित्त, ण, दसण, जाणग, सुद्ध । धातुसंज्ञ-उव-दिस प्रेक्षणे दाने च, दंस दर्शनायां, जाण अवबोधने, सुज्झ नर्मल्ये । प्रकृतिशब-व्यवहार, ज्ञानिन्, चरित्र, दर्शन, ज्ञान, न, अपि, ज्ञान, न चरित्र, न, दर्शन ज्ञायक, शुद्ध । मूलधातु-हर हरणे । मेदाप तम्या प्रशुद्ध द्रमाथिकनयके विषय है । शुद्ध द्रव्यको दृष्टि में यह भी पर्यायाथिक ही है इसलिये व्यवहारनय ही है-ऐसा आशय जानना । जिनमतका कथन स्याद्वादरूप है, इससे शुद्धता और प्रशुद्धता दोनों वस्तुके धर्म जानना । अशुद्धनयको सर्वथा असत्यार्थ हो न समझना । जो वस्तुधर्म है, वह वस्तुका सत्त्व है, वह प्रयोजनवश ही हुआ भेद है । निर्विकल्प समाधि पानेके लिये शुद्धनयका प्रधान उपदेश है। अशुद्धनयको प्रसत्यार्थ कहनेसे ऐसा नहीं समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं, आकाशके फूल की तरह असत् है । ऐसे सर्वचा एकान्त समझनेसे मिश्यात्व पाता है। इसलिये स्याद्वादका शरए लेकर शुद्धनयका आलंबन करना चाहिये, स्वरूपको प्राप्ति होनेके पश्चात् शुद्धनयका भो अवलंबन नहीं रहता । प्रसंगविवरण-अनंतर पूर्व गाथामें प्रतिज्ञापन किया था कि उस एकत्वको मैं दिखाऊँगा सो इस गाथा उसी एकत्वको चर्चा की गई है । तथ्यप्रकाश--(१) यह शायकभाव (प्रात्माका सहज एकत्व स्वरूप) स्वतःसिद्ध प्रनादिनिधन है। (२) यह ज्ञायंकभाव नित्य अंतः प्रकाशमान है । (३) यह ज्ञायकभाव स्पष्ट प्रति भासस्वरूप है । (४) संसारावस्थामें शुभ अशुभ भाव प्रतिफलित होनेपर भी यह उन भावों रूप स्वभावसे नहीं परिणमता है । (५) समस्त पर व परभावोंसे भिन्न यह ज्ञायक है यही इसको शुद्धता है । (६) अन्तरङ्ग हयाकार होनेपर भी ज्ञेय पदार्थोंसे इस झायकका कुछ सम्बन्ध नहीं, कुछ कारकपना नहीं, किन्तु ज्ञायक ही अपनेमें अपने ज्ञानकर्मरूप परिणमता रहता है। (७) भेद किया जानेके कारण गुरगोंका निरखना भी अशुद्ध द्रव्याथिकनय है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग २१ सत सूरीणां धर्मधर्मिणां स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेपैव ज्ञानिना दर्शनं ज्ञानं चारिश्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानं तपर्यायतयैकं किञ्चिन्मिलितास्वादमभेदमेकस्वभावमनुभवतां न दर्शनं न ज्ञानं न चारित्रं ज्ञायक एवैकः शुद्धः ॥७॥ दिश देशने । पदविवरण — व्यवहारेण तृतीया विभक्ति एकवचन, करणकारक उपदिश्यते कर्मवाच्यकिया लट्लकार अन्य पुरुष एकवचन । ज्ञानिनः षष्ठी एक० । चरित्र - प्र० ए० । दर्शनं प्र० एक० । ज्ञान- प्र० एक० न-अव्यय । अपि अव्यय । ज्ञानं प्र० एक० । न-- अव्यय । चरित्र - प्र० ए० । न- अव्यय । दर्शन - प्र० एक० । ज्ञायक:- प्र० एक० शुद्धः प्रथमा विभक्ति एक सिद्धांत - ( १ ) ग्रात्मा शुभ प्रशुभ भावोंरूप स्वभावसे नहीं परिणमता । ( २ ) समस्त परपदार्थ व परपदार्थोंका निमित्त पाकर होने वाले विकार ( परभाव ) इनसे भिन्न है यह आत्मस्वरूप, यही इसकी द्रव्यशुद्धि है । ( ३ ) ग्रात्मा अपने में अपनी वृत्तिको करता रहता है । दृष्टि-- १ - उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१) । २ - परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय (३०) । ३ - कारककार किभेदक सद्भूतव्यवहारनय (७३) प्रयोग - पर्यायतः शुभ अशुभ भावरूप परिणति हो वहाँ भी पर्यायकी बातको मौरा करके द्रव्यदृष्टिी मुख्यतासे अपने को अपने में सहज ज्ञानज्योतिमात्र अनुभव करना || ६ || प्रश्न- - क्या श्रात्मा के दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीन भावोंसे प्रशुद्धता या सकती है ? उत्तर - - [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ चरित्रं दर्शनं ज्ञानं ] चारित्र, दर्शन, ज्ञान -- तीन भाव [ व्यवहारेण] व्यवहार द्वारा [ उपदिश्यते] कहे जाते हैं । निश्चयनयसे [ज्ञानं श्रपि न] ज्ञान भी नहीं है। [ चरित्रं न ] चारित्र भी नहीं है और [दर्शनं न ] दर्शन भी नहीं है । ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः ] ज्ञायक हो है, इसलिये [ शुद्धः ] शुद्ध कहा गया है । - ये तात्पर्य -- सहजसिद्ध ज्ञायक ग्रात्माका अनुभवपूर्ण परिचय प्रभेददृष्टि से हाँ हाँ पाता है, क्योंकि आत्मा अभेदरूप है । टीकार्थ- - इस ज्ञायक ग्राम के बंधपर्यायके निमित्तसे अशुद्धता तो दूर ही रही, इसके दर्शन - ज्ञान चारित्र भी नहीं है । क्योंकि निश्चयनयसे ग्रनन्तधर्मा जो एक धर्मी वस्तु उसको जिसने नहीं जाना, ऐसे निकटवर्ती शिष्य जनको उस अनंतधर्मस्वरूप धर्मके बतलाने वाले स्वगत कितने ही धर्मों द्वारा शिष्य जनोंको उपदेश करते हुए प्राचार्योंका ऐसा कथन है कि धर्म और धर्मीका यद्यपि स्वभावसे प्रभेद है तो भी नामसे भेद होनेके कारण व्यवहारमात्रसे ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । परन्तु परमार्थसे देखा जाय तो एक द्रव्यके द्वारा पिये गए अनन्त पर्यायी रूपतासे एकमेक मिले हुए प्रभेदस्वभाव वस्तुको अनुभव करने वाले Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ तहि परमार्थ एवैको वक्तव्य इति चेत्- समयसार जह सिक्कमज्जो अज्जमा विताउ हेडं । तह ववहारेण विद्या परमत्थुवएसणमसक्कं ॥ ८ ॥ तो भी श्रनार्थ जैसे, श्रनार्यभाषा बिना नहीं समझे । व्यवहार विना प्राणी, परमार्थोपदेश नहिं समझें ॥८॥ यथा नापि शक्योऽनायनार्यभाषां विना तु ग्राहयितुम् । तथा व्यवहारेण विना परमार्थोपदेशन मशक्यम् । यथा खलु म्लेच्छः स्वस्तीत्यभिहिते सति तथाविधवाच्यवाचक संबंधावबोध बहिष्कृतत्वान्न किंचदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेपितचक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव तदेतद्भाषासंबंधैकार्थज्ञेनान्येन तेनैव वा म्लेच्छभाषां समुपादाय स्वस्तिपदस्याविनाशो भवतो भवत्वित्यभिधेयं प्रतिपाद्यते तदा सद्य एवोद्यदमंदानंदमयाश्रु झलझलल्लोचनपात्रस्तत्प्रतिपद्यत - नामसंज्ञ --जह, गवि, सक्क, अणज्ञ्ज, अणञ्जभास, विणा, उ, तह, ववहार, विणा परमत्थुवएसण, अक्रु । धातुसंज्ञ— सक्क सामर्थ्यं गाह स्थापनाग्रहणप्रवेसेसु । प्रकृतिशब्द -- यथा न अपि शक्य अनार्य, अनार्यभाषा, विना तु, तथा, व्यवहार, विना, परमार्थोपदेशन अशक्य । मूलधातु शक्लृ - समर्थे, पंडित पुरुषों की दृष्टिमें दर्शन भी नहीं, ज्ञान भी नहीं और चारित्र भी नहीं, किन्तु एकमात्र शुद्ध ज्ञायक भाव ही है । भावार्थ -- इस शुद्ध ग्रात्मा के कर्मबंध के निमित्तसे प्रशुद्धता भाती है, यह बात तो दूर ही रहे, इसके तो दर्शन, ज्ञान, चारित्रका भी भेद नहीं है। फिर भी व्यवहारी जन धर्मोंको ही समझते हैं, धर्मीको नहीं जानते, इसलिये वस्तुके कुछ असाधारण घर्मोको उपदेश में लेकर प्रभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोके नामरूप भेदको उत्पन्न करके ऐसा उपदेश करते हैं कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । प्रभेदमें भेद करनेसे इसको व्यवहार कहा गया है । परमार्थते विचारा जाय तो अनन्त पर्यायोंको एक द्रव्य अभेदरूप पिये हुए बैठा है, इस कारण भेद नहीं है । यद्यपि पर्याय भी द्रव्यका ही भेद है, ग्रवस्तु नहीं है, तथापि यहाँ द्रव्यदृष्टिसे अभेदको प्रधान मानकर उपदेश है । प्रभेददृष्टिमें भेदको गोरा करनेसे ही अभेद अच्छी तरह ज्ञात हो सकता है, इस कारण भेदको गौण करके व्यवहार कहा है । तात्पर्य यह है कि भेददृष्टि में निर्विकल्प दशा नही होती और सरागीके जब तक रागादिक दूर नहीं होते, तब तक विकल्प बना रहता है । इस कारण भेदको गोरा करके प्रभेदरूप निविकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होनेके बाद तो भेदाभेदरूप वस्तुका ज्ञाता हो जाता है वहाँ नयका अबलम्बन हो नहीं रहता । 3 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग एव । तथा किल लोकोप्पात्मेत्यभिहिते सति यथावस्थितात्मस्वरूपपरिज्ञानबहिष्कृतत्वान्न किचिदपि प्रतिपद्यमानो मेष इवानिमेषोन्मेषितचक्षुः प्रेक्षत एव । यदा तु स एव व्यवहारपरमार्थपपप्रस्थापितसम्यग्बोधमहारथरथिनान्येन तेनैव वा व्यवहारपथमास्थाय दर्शनज्ञानचारित्राण्यतशक्तुं योग्यः शक्यः तं । उप-दिश देशने । पदविवरण-यथा--अव्यय । न अध्यय । अपि--अव्यय । शक्तूं योग्यः शक्यः--प्रथमा विभक्ति एकवचन । अनार्थ:--न आर्यः इति अनार्यः प्र० ए० । अनार्यभाषां--अनार्यस्य प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाथामें शुद्ध प्रात्माका वर्णन किया गया था और बताया गया था कि वह प्रभेद ज्ञायकमात्र है वह प्रमत्त ब अप्रमत्त भी नहीं है, वहां कोई भेद ही नहीं है । इसपर यह शंका उठना प्रासंगिक है कि प्रात्मामें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है या प्रात्मा ज्ञानदर्शनचारित्र वाला है इतनी भेदरूप अशुद्धता तो होती ही है । इसके उत्तर में इस गाथाका अवतार हुम्रा है। तथ्यप्रकाश-(१) आत्मस्वरूपमें बन्धप्रत्ययक अशुद्धता नहीं। (२) प्रात्मस्वरूप में वस्तुतः गुणभेद नहीं । (३) अभेद ग्रातमवस्तुका परिचय करानेके लिये भेदविधिसे वर्णन करनेका व्यवहार आवश्यक हो जाता है । (४) परमार्थतः अभेद एकस्वभाव अन्तस्तत्त्वका अनुभव करने वालोंके तो मात्र शुद्ध ज्ञायकभाव हो है । सिद्धान्त-(१) प्रात्मस्वरूप अविकार है ! (२) आत्मस्वरूप एक अभेद है। (३) आत्मस्वरूपके ज्ञापन के लिये भेदविधिका व्यवहार है। दृष्टि---१- अखण्ड परमशुद्ध निश्चयनय (४४)। २- शुद्धनय (४६), ३-- भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक प्रतिपादकव्यवहार (८२)। प्रयोग- अपने अापके ध्यानमें ज्ञान दर्शन आदि गुणोंका चिन्तन न करके मात्र ज्ञानस्वरूपको ही ज्ञानमें लेना ।।७।। भेदव्यवहार है तो एक परमार्थका ही उपदेश करना चाहिए ? उसके उत्तरमें गाथा सूत्र कहते हैं---[यथा] जैसे [अनार्यः] म्लेच्छ पुरुष [अनार्यभाषां विना तु] म्लेच्छ भाषाके बिना तो [ग्राहयितु] वस्तुस्वरूप ग्रहण कराये जानेको [अपि न शक्यः] शक्य नहीं है [तथा] उसी तरह [व्यवहारेण विना] व्यवहारके बिना [परमार्थोपदेशनं] परमार्थका उपदेश करना भी [अशक्यम्] शक्य समर्थ नहीं है । ___ तात्पर्य-उपदेश व स्वाध्यायसे तत्त्व सुनकर यह भीतर मनन करना है कि यह सब प्रतिपादन अभेद चतन्यस्वरूपको समझके लिये है। टोकार्थ-जैसे कोई म्लेच्छ, किसी ब्राह्मणके द्वारा 'स्वस्ति हो' ऐसा शब्द कहे जानेपर उस प्रकारके उस शब्दके वाच्यवाचकसम्बंधके शानसे शून्य होनेसे उसका अर्थ कुछ भी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ समयसार तोत्यात्मेत्यात्मपदस्याभिधेयं प्रतिपाटाते तदा सद्य एवोझदमंदानंदान्तःसुन्दरबंधुरबोधतरंगस्तत्प्रतिपद्यत एव । एवं म्लेच्छस्थानीयत्वाज्जगतो व्यवहारनयोऽपि म्लेच्छभाषास्थानीयत्वेन परमार्थप्रतिपादकत्वादुपन्यसनीयोऽथ च ब्राह्मणो न म्लेच्छितव्य इति वचनाद्व्यवहारनयो नानुसर्तव्यः ॥८॥ भाषा अनार्यषा तां । विना-अव्यय । तु-अव्यय । ग्राहयितु-गृहन्तं प्रेरयितुं । 'तथा--अव्यय । व्यवहारेण-त० ए० । विना-अव्यय । परमार्थोपदेशन-प्र० ए० । अशक्य--शक्तं योग्यम् शक्यं, न शव अशक्यम्--प्रथमा एकवचन ।।। न समझता हुमा ब्राह्मणके सामने मेढेकी तरह टकटकी लगाकर देखता ही रहा कि इसने क्या कहा है ? तब उस ब्राह्मणकी भाषा तथा म्लेच्छकी भाषा-इन दोनोंका अर्थ जानने वाले अन्य किसी पुरुषने उसे म्लेच्छ भाषामें समझाया कि 'स्वस्ति' शब्दका अर्थ है 'तेरा कल्याण हो ।' उस समय उत्पन्न हुए अत्यन्त प्रानन्दके प्रांसुरोंसे उस म्लेच्छके नेत्र भर पाये, इस तरह वह म्लेच्छ उस 'स्वस्ति' शब्दका अर्थ समझ ही लेता है । उसो तरह व्यवहारी जन भी 'आत्मा' ऐसा शब्द कहे जानेपर यथावस्थित प्रात्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित होनेके कारण कुछ भी नहीं समझता हुमा मैंढेको तरह टकटको लगाकर देखता ही रहता है। और जब कोई व्यव. हार परमार्थ मार्गपर सम्यग्ज्ञान रूप महारथको चलाने वाले सारथोके समान प्राचार्य या अन्य कोई विद्वान् व्यवहारमार्गको दर्तकर 'दर्शन ज्ञान चारित्र रूप जो सदा परिणमन करे, वह पात्मा है ऐसा प्रात्मा शब्दका अर्थ कहता है तब उसी समय उत्पन्न हुए अत्यंत प्रानन्द वाले हृदय में सुन्दर ज्ञानरूप तरंगोंसे प्रमुदित वह उस आत्मशब्दका अर्थ अच्छी तरह समझ जाता है । इस प्रकार यहाँ जगतके म्लेच्छस्थानीयपना होनेसे और व्यवहारनयके म्लेच्छ भाषाके तुल्य होने से व्यवहार परमार्थका कहने वाला होनेसे उपदेश करने योग्य है । और ब्राह्मणको म्लेच्छित पाचरण करना योग्य नहीं है, इस वचनसे निश्चय करें कि व्यवहारनय परमार्थदर्शीके अनुसरण करने योग्य नहीं है। भावार्थ-शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप बस्तु है, इस तथ्यको लोक जानते नहीं, किन्तु अशुद्धनयको ही जानते हैं, क्योंकि इसका विषय भेदरूप अनेक प्रकार है, इसलिये व्यवहारके द्वारा ही शुद्धनयरूप परमार्थको समझ सकते हैं । इस कारण व्यवहारनयका परमार्थोपदेशक होनेसे उपदेश किया जाता है । सो व्यवहारोपदेशमें प्राचार्य व्यवहारका पालंबन नहीं कराते हैं, किन्तु व्यवहारका पालंबन छुड़ाकर परमार्थमें पहुंचाते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानीके (प्रातमाके) ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है यह उपदेश व्यवहारसे ही है, परमार्थसे तो वह शुद्ध ज्ञायक ही है । इस Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग कथं व्यवहारस्य परमार्थ प्रतिपादकत्वमिति चेत् - जो हि सुएणहिगच्छइ अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध। तं सुयकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पईवयरा ॥६॥ जो सुयणाणं सव्वं जाणइ सुयकेवलि तमाहु जिणा। गाणं अप्पा सव्वं जमा सुयकेवली तह्मा ॥१०॥ (जुम्म) जो श्रुतवेदित केवल, शुद्ध निजात्मा हि जानता होवे । ज्ञानी ऋषिधर उसको, निश्चयश्रुतकेवली कहते ॥६।। जो सब श्रतको जाने, उसको श्रुतकेवली प्रकट कहते । क्योंकि सकल श्रुतका जो, शान है सो प्रात्मा ही है ॥१०॥ यो हि श्रुसेनाभिगच्छति आत्मानमिमं तु केवलं शुद्धम् । तं श्रुतकेवलिनमृषयो भणंति लोकप्रदीपकराः ॥॥ यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति श्रुतकेवलिनं तमाहुजिनाः । ज्ञानमात्मा सर्व यस्माच्छ्त केवली तस्मात् ॥१०॥ यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलोति तावत्परमार्थों यः श्रुतज्ञानं सर्व जानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः । तदत्र सर्वमेव तावत् ज्ञानं निरूप्यमाणं किमात्मा किमनात्मा ? न तावदनातमा समस्तस्याप्यनात्मनश्चेतनेतपरपदार्थपंचतयस्य ज्ञानतादात्म्यानुपपत्तेः । ततो गत्यंतराभावात् ज्ञानमात्मेत्यायात्यत: श्रुतज्ञानमप्यात्मैव स्यात् । एवं सति य नामसंज्ञ----ज, हि, सुय, अप्प, इम, तु, केवल, सुद्ध, त, सुयकेवलि, इसि, लोयप्पईवयर, ज, सुयगाण, सम्व, सुयकेवलि, त, जिण, णाण, अप्प, सध्व, ज, सुयकेवलि, त । पातुसंज्ञ-अभि-गच्छ गती, भण व्यक्तायां वाचि, जाण अवबोधने । प्रकृतिशब्द-यत्, हि, श्रुत, आत्मन, इदम्, तु, केवल, शुद्ध, तत्, श्रुत केवलिन्, ऋषि, लोकप्रदीपकर, यत्, श्रुतज्ञान, सर्व, श्रुतकेलिन, तत्, जिन, ज्ञान, आत्मन्, सर्व यत्, तथ्यके प्रतिपादनपर यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि फिर तो व्यवहार कहा ही क्यों जाता, सिर्फ परमार्थ ही कहा जाना चाहिये । इसके समाधान के लिये इस गाथाका अवतार हुआ है। तथ्यप्रकाश--(१) भेदविधिसे प्रतिपादनरूपरूप व्यवहारके बिना अभेद स्वतत्त्वके अपरिचित जोवोंको यह परमार्थ नहीं समझाया जा सकता । (२) प्रभेद ज्ञायकस्वरूपसे अपरिचित यह जीव अनादिसे है, प्रतः व्यवहारनय व व्यवहार इस जीवका उपकारी है, हस्तावलम्बनरूप है । (३) परमार्थ अन्तस्तत्त्वका दर्शन अनुभव करने वाले पवित्र मातमावोंको व्यवहारनय व व्यवहार अनुसरणीय (प्रयोजनवान) नहीं है।। सिद्धान्त-(१) भेदविधिसे सहज तत्त्वका प्रतिपादन अनुसरणीय व्यवहार है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ समयसार श्रात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीत्यायाति स तु परमार्थं एव । एवं ज्ञानज्ञानिनौ भेदेन व्यपदिशता व्यवहारेणापि परमार्थमात्रमेव प्रतिपाद्यते न किंचिदप्यतिरिक्तं । श्रथ च यः श्रुतेन केवलं शुद्धमात्मानं जानाति स श्रुतकेवलीति परमार्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वाद्यः श्रुतज्ञानं सर्वं जानाति स श्रुतकेवलीति व्यवहारः परमार्थप्रतिपादकत्वेनात्मानं प्रतिष्ठापयति ॥ १०॥ श्रुतकेवलिम् तत् । मूलधातु-- श्रवणे | अभिगम्लृ गतौ, अत सातत्यगमने ब्रूत्र व्यक्तायां वाचि, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण - यः - प्रथमा ए० । हि-अव्यय । श्रुतेन तृ० ए० । अभिगच्छति लट् अन्य० एक० । आत्मानं द्वि० ए० । इमम् द्वि० एकवचन । तु अव्यय । केवल द्वि० ए० । शुद्ध द्वि० ए० । तं द्वितीया एक० कर्मकारक । श्रुतकेवलिनं द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । भणति लट् वर्तमान, अन्य पुरुष बहु० । (२) व्यवहार परमार्थके प्रतिबोधका प्रयोजक है । (३) परमभावदर्शी पुरुषोंको व्यवहारनय व व्यवहार अनुसरणीय नहीं होता । दृष्टि - १ - अनुपचरित परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार व उपचारित परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार (६६०७०) २ - भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्य प्रतिपादक व्यवहार (८०) । ३ - शुद्धमय (४६) । प्रयोग – हम अपने आत्माकी सहजशक्तियोंसे अपने श्रात्मस्वरूपका परिचय करके शक्तिभेदके विकल्पको त्यागकर अपने में विश्राम करें और चिब्रह्मप्रकाशका अनुभव करें ||८|| अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? उसके उत्तर में गाथा सूत्र कहते हैं - [ यः ] जो जीव [हि] निश्चयतः [श्रुतेन ] श्रुतज्ञान से [तु इमं ] इस अनुभव गोचर [ केवलं शुद्ध ] केवल एक शुद्ध [ श्रात्मानं ] श्रात्माको [ श्रभिगच्छति ] सम्मुख हुना जानता है [तं] उसे [लोकप्रदीपकराः ] लोकको प्रकाश करने वाले [ ऋषयः ] ऋषीश्वर [ श्रुतकेवलिनं] श्रुतकेवली [भरति ] कहते हैं। [यः ] जो जीव [ सर्व ] सब [ श्रुतज्ञानं ] श्रुतज्ञान को [ जानाति ] जानता है [तं] उसे [जिना:] जिनदेव [ श्रुतकेबलिनं ] श्रुतके वली [श्राहुः] कहते हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [ सर्व ज्ञानं ] सब ज्ञान [ श्रात्मा] श्रात्मा ही है [ तस्मात् ] इस कारण [ श्रुतकेवली ] वह श्रुतकेवली है । तात्पर्य - परमार्थतः आत्मा क्या जानता है इसका प्रतिपादन बाह्य ज्ञेयोंके निर्देशसे हो पाता है । टीकार्थ - जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध आत्माको जानता है वह श्रुतकेवलो है, यह तो परमार्थ है, और जो सब श्रुतज्ञानको जानता है वह श्रुतकेवली है यह व्यवहार है । अब यहाँ विचारये कि यहां निरूपण किया जाने वाला सब ही ज्ञान श्रात्मा है कि अनात्मा ? उनमें से अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि जड़रूप अनात्मा श्राकाशादि पांच द्रव्य हैं उनका Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग कुतो व्यवहारनयो नानुसतव्य इति चेत् - ववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु मुद्धणो । भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्टी हवइ जीवो ॥११॥ व्यवहार प्रसूतार्य रु, भूतार्थ शुद्धनय कहा गया है । भूतार्य प्राधयी ही, सम्यग्दृष्टी पुरुष होता ।।११।। व्यवहारोऽभूतार्थो भूतार्थो दर्शितस्तु शुद्धनयः । भूतार्थमाश्रितः खलु सम्यग्दृष्टिर्भवति जीवः ॥११॥ व्यवहारनयो हि सर्व एवाभूतार्थत्वादभूतमर्थं प्रद्योतयति । शुद्धनय एक एव भूतार्थस्वाद् भूतमर्थं प्रद्योतयति । तथाहि-यथा प्रबलपंकसंवलनतिरोहितसह्जकाच्छभावस्य पयसोऽनुभवितारः पुरुषाः पंकपयसोविवेकमकुर्वन्तो बह्वोऽनच्छमेव तदनुभवति । केचित्तु स्वकरविकीर्णकतकनिपातमात्रोपजनितपंकपयसोविवेकतया स्वपुरुषाकाराविर्भावितसहजैकाच्छभावत्वादच्छमेव लोकप्रदीपकरा:-प्रथमा० एक० कर्ताकारक । यः-प्रथमा एकवचन सर्वनाम कर्ता । श्रुतज्ञान-द्वितीया। एक० कर्मः । सर्व-द्वि० ए० कर्मविशेषण । जानाति-लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन । श्रुतकेवलिनद्वि० एकवचन । तं-द्वि० ए० कर्म । आहुः-लट् वर्तमान अन्य० बहुवचन। जिना:-प्रथमा बहु० । ज्ञान-प्र० ए. । आत्मा--प्र० एक० । सर्व-प्र० ए० । यस्मात्-पंचमी० एक० । श्रुतकेवली-प्रथमा० एक० कर्ताकारक । तस्मात्-पंचमी विभक्ति एकवचन ॥६-१०।। ज्ञानके साथ तादात्म्य नहीं है । इसलिए अन्य उपायका अभाव होनेसे ज्ञान प्रात्मा ही है ऐसा लुथ्य सिद्ध होता । श्रु तज्ञान भी आत्मा ही है ऐसा होनेपर यह सिद्ध हुमा कि जो प्रात्माको जानता है वह श्रु तकेवली है और वही परमार्थ है । इस तरह ज्ञान और ज्ञानोको भेदसे कहने वाले व्यवहारसे भी परमार्थमात्र ही कहा जाता है, उससे अधिक कुछ भी नहीं । अथवा जो श्रु तज्ञानसे केवल शुद्ध प्रात्माको जानता है वह श्रु त केवली है, इस परमार्थका निश्चयनयके द्वारा कहना अशक्य है, इसलिए जो समस्त श्रु तज्ञानको जानता है, वह व तकेवली हैं, ऐसा बताने वाला व्यवहारनय परमार्थका प्रतिपादक होनेके कारण अपनेको प्रतिष्ठित कराता है । भावार्थ-जो द्वादशाङ्गके जाननरूप परिणत मात्र आत्माको जानता है, वह श्रतकेवली है यह तो परमार्थका कथन है और वही सब द्वादशाङ्ग शास्त्रज्ञानको जानता है यह कहना व्यवहारकथन है । वस्तुविषयक ज्ञान आत्मा है ऐसा जिसने ज्ञानको जाना उसने पात्मा को हो जाना यही परमार्थ है । इस प्रकार ज्ञान और ज्ञानीके भेद कहने वाले व्यवहारने भी परमार्थ हो कहा, अन्य कुछ नहीं कहा। यहाँ ऐसा है कि परमार्थ का विषय तो कथंचित वचनगोचर नहीं भी है; इसलिए व्यवहारनय ही परमार्थ प्रात्माका प्रतिपादन करता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार तदनुभवंति । तथा प्रबलकर्मसंवलनतिरोहितसहजकज्ञायकस्यात्मनोऽनुभवितारः पुरुषा प्रात्मकर्मणोविवेकमकुर्वन्तो व्यवहारबिमोहितहृदयाः प्रद्योतमानभाववैश्वरूप्यं तमनुभदंति । भूतार्थदशिनस्तु स्वमतिनिपातितशुद्धनधानुबोधमात्रोपजनितात्मकर्मविवेकतयां स्वपुरुषाकारानि वित __ नामसंज्ञ--बबहार, अभूयत्य, भूयंत्थ, देसिद, हु, सुद्धणय, भूयस्थ, अस्सिद, खलु, सम्माइट्टि जीव । धातुसंज्ञ-वि-अव हर हरणे, भव सत्तायां, सुज्भ नर्मल्ये, ने प्रापणे, अस्स आश्रयणे, हव सत्तायां, जीव प्रागधारणे, समअंच पूजायां । प्रकृतिशब्द-व्यवहार, अभूतार्थ, भूतार्थ, देशित, खलु, शुद्धनग, भूतार्थ, आश्रित, खलु, सम्यग्दृष्टि, जीव । मूलधातु-वि-अब-इ हरणे । भू सत्तायां । आ-विज्ञ सेवायां । पदविष प्रसंगविधरण- अनन्तर पूर्व गाथामें कहा गया था कि व्यवहारके बिना परमार्थका समझाया जाना अशक्य है, अतः व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक है । सो यहाँ उसके विवरण की जिज्ञासाका समाधान है कि व्यवहार परमार्थका प्रतिपादक कैसे है ? तथ्यप्रकाश-(१) परमार्थतः प्रात्मा अपनेको (जेयाकारपरिणत अपनेको) ही जानता है. । (२) परमार्थतः प्रात्मा किसे जानता है यह सीधा कहना अशक्य है सो प्रात्मा जिस समय जिस वस्तुके विषयमें जानकारी कर रहा है उस वस्तुको जानता है यों कहकर समझाया जाता है । (३) अन्य दृष्टान्तसे इस तथ्यको समझे जैसे घटको जानने वाला प्रात्मा परमार्थसे क्या जान रहा है ? परमार्थसे वह घटके विषयके ज्ञानरूपसे परिणत मात्र (शुद्ध) अपने प्रात्मा को जान रहा है, किन्तु परमार्थतः वह किसे जान रहा है यह सीधा कहना अशक्य है सो वह घटको जान रहा है यों कहकर समझाया जाता है । (४) परवस्तुको जाननेकी बात कहना व्यवहार है और उस प्रकारके ज्ञानसे परिणत मात्र (शुद्ध) प्रात्माको जानना यह परमार्थ है । (५) इस प्रकरणमें दृष्टान्त श्रुतकेवलोका दिया है जो द्वादशाङ्ग श्रुतको जानता है वह श्रुतकेवली परमार्थसे किसको जानता है ? वह परमार्थसे द्वादशांग श्रुतके विषयके ज्ञानसे परिणत मात्र (शुद्ध) पास्माको जानता है, किन्तु परमार्थतः यह किसे जानता यह सीधा कहना अशक्य है सो वह द्वादशाङ्ग श्रतको जानता है यों व्यवहारसे समझाया जाता है । (६) अन्तर्दृष्टिसे व्यवहार व परमार्थ देखिये-- तकेवली द्वादशाङ्गधुत ज्ञानको जानता है । यहाँ ज्ञान ज्ञानीका भेद किया वह व्यवहार है, भेद न कर प्रात्मा ही लक्षित हो वह परमार्थ है । (७) अन्तर्दृष्टि का दूसरा दृष्टान्त-घटज्ञानी व्यवहारसे घटज्ञानको जानता है, परमार्थतः वहां प्रात्माको जानता है । यहां शान ज्ञानीका भेद किया वह व्यवहार है, भेद न कर वहां प्रात्मा हो लक्षित हो वह परमार्थ है। सिद्धान्त-(१) परमार्थतः प्रात्मा प्रात्माको जानता है। (२) व्यवहारतः प्रात्मा परवस्तुको जानता है Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पूर्व रंग सहजै कज्ञायकस्वभावत्वात् प्रद्योतमानकज्ञायकभावं तमनुभवति । तदत्र ये भूतार्थमाश्रयंति त एव सम्यक् पश्यंतः सम्यग्दृष्टयो भवंति न पुनरन्ये कतकस्थानीयत्वाच्छुद्धनयस्यातः प्रत्यगात्मदर्शिभिर्व्यवहारयो नानुसर्त्तव्यः । श्रथ च केषांचित्कदाचित्सोपि प्रयोजनवान् । यतः रण - व्यवहारः प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्ताकारक, अभूतार्थ: प्रथमा विभक्ति एकवचन कर्तृविशेषण, भूतार्थ: प्रथमा एक०, देशितः- प्रथमा एकवचन दन्त क्रिया खलु-अव्यय, शुद्धयः--प्रथमा० एक०, भूतार्थ- द्वितीया एकवचन, आश्रितः प्रथमा एकवचन, खलु -अध्यय, सम्यग्दृष्टिः प्रथमा विभक्ति एकवचन, भवति लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन, जीवः प्रथमा विभक्ति एकवचन ॥११॥ दृष्टि - १ - कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २ - स्वाभाविक उपचरित स्वभाव व्यवहार, परकर्तृत्व व्यवहार (१०५, १२६) । प्रयोग - व्यवहारसे अपनी सर्व कलायें जानकर अन्तर्दृष्टिसे परमार्थ सहज ज्ञानमात्र अपने आत्माको अनुभवना चाहिये ॥६- १० ॥ अब प्रश्न उठता है कि पहले कहा था कि व्यवहारको अंगीकार नहीं करना, परन्तु जब यह परमार्थका कहने वाला है तो ऐसे व्यवहारको क्यों नहीं अंगीकार करना चाहिये ? इसके उत्तर में गाथासूत्र कहते हैं -- [ व्यवहारः ] व्यवहारनय [ श्रभूतार्थः] प्रभूतार्थ है [तु] और [ शुद्धयः] शुद्धनय [ भूतार्थः ] भूतार्थ है ऐसा [दशितः ] ऋषीश्वरोंने दिखलाया है । [भूतार्थं ] भूतार्थके [ श्राश्रितः] माश्रयको प्राप्त [जोवः ] जीव [ खलु ] निश्चयतः [ सम्य] सम्यग्दृष्टि [भवति ] है । तात्पर्य - सहज स्वयं सिद्ध अन्तस्तत्व भूतार्थ है, अन्य सब प्रभूतार्थ है । टीकार्थ – समस्त व्यवहारनय प्रभूतार्थं होनेसे प्रभूतार्थको प्रकट करता है और केवल शुद्धtय ही भूतार्थ होनेके कारण सहज सत्यभूत अर्थको प्रकट करता है। जैसे प्रबल कीचड़ के मिलने से जिसका निर्मल स्वभाव श्राच्छादित हो गया है, ऐसे जलके प्रनुभव करने वाले बहुत से पुरुष तो ऐसे हैं कि जल और कीचड़का भेद न करके उस मैंले जलका ही अनुभव करते हैं और कोई पुरुष अपने हाथसे निर्मली औषधि डालकर कर्दम और जलको भिन्न-भिन्न करने से जिसमें अपना पुरुषाकार दिखलाई दे ऐसे स्वाभाविक निर्मल स्वभावरूप जलको पोनेका अनुभव करते हैं । उसी प्रकार प्रबल कर्मके संयोग होनेसे जिसका स्वाभाविक एक ज्ञायकभाव आच्छादित हो गया है, ऐसे आत्मा के अनुभव करने वाले पुरुष श्रात्मा और कर्मका भेद न करके व्यवहार में विमोहितचित्त होते हुए, जिसके भावोंका अनेकरूपपना प्रकट है ऐसे अशुद्ध श्रात्माका ही अनुभव करते हैं और शुद्धनयके देखने वाले जीव अपनी बुद्धिसे प्रयुक्त शुद्धनयके अनुसार ज्ञानमात्रसे उत्पन्न हुए श्रात्मा और कर्मकी विवेक-बुद्धिसे अपने पुरुषाकाररूप स्वरूप Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार सुद्धो सुद्धादेसो णायब्बो परमभावदरिसीहि । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमे हिदा भावे ॥१२॥ शुद्ध शुद्धदेशक नय--को जानो परमभावदर्शी गण । जो अपरममावस्थित, उनको व्यवहारवेशन है ॥१२॥ शुद्धः शुद्धादेशो ज्ञातव्यः परमभावशिभिः । व्यवहारदेशिताः पुनर्ये त्वपरमे स्थिता भावे ।।१२॥ ये खलु पर्यंतपाकोत्तीर्णजात्यकात्तस्वरस्थानीयं परमं भावमनुभवंति, तेषां प्रथमद्वितीयाद्यनेकपाकपरम्परापत्त्यमान कार्तस्वरानुभवस्थानीयपरमभावानुभवनशून्यत्वाच्छुद्धद्रव्यादेशितया __ नामसंज्ञ--- सुद्ध, सुद्धादेस, णायब्व, परमभावरिसि, वबहारदेसिद, पुण, ज, दु, अपरम, भाव, से प्रकट हुए स्वाभाविक एक ज्ञायकभावपनेसे जिसमें एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान है ऐसे शुद्ध प्रात्माका अनुभव करते हैं । इसलिए जो पुरुष शुद्धनयका प्राश्रय करते हैं वे ही सम्यक् अवलोकन करते हुए सम्यग्दृष्टि हैं और जो प्रशुद्धनयका सर्वथा प्राश्रय करते हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, क्योंकि शुद्धनय निर्मली द्रव्यके समान है। इस कारण कर्मसे भिन्न प्रात्माको जो देखनाः चाहते हैं उन्हें व्यवहारनय अंगीकार नहीं करना चाहिये । भावार्थ---यहाँ व्यवहारनयको अभूतार्थ और शुद्धनयको भूतार्थ कहा है । जो सहज अस्तित्वमय है उसे भूतार्थ कहते हैं और जो सहज नहीं है, किन्तु औपाधिक है उसे अभूतार्थ कहते हैं । इसका अभिप्राय यह है कि शुद्धनयका विषय सहज अभेद एकाकाररूप नित्य द्रव्य है इसकी दृष्टि में भेद नहीं दीखता । इसलिये इसकी दृष्टि में वह प्रभूतार्थ अविद्यमान-असत्यार्थ ही कहना चाहिये । यहाँ ऐसा समझिये कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है, प्रयोजनके बसे नयको मुख्य गौण करके कहती है । भेदरूप व्यवहारका पक्ष तो प्राणियोंको अनादिकालसे है हो और उसका उपदेश भी बहुधा सभो परस्परमें करते हैं, किन्तु आगममें व्यवहारका उपदेश शुद्धनय का सहायक जानकर किया है। चूंकि शुद्धनयका पक्ष इस जीवने कभी नहीं ग्रहण किया तथा उसका उपदेश भी कहीं कहीं है, इसलिये भगवंतोने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर इसीका उपदेश मुख्यतासे दिया है कि शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है, इमीका पाश्रय करनेसे सम्यग्दृष्टि हो सकता है, इसके जाने बिना व्यवहारमें जब तक मग्न है तब तक आत्माका ज्ञान श्रद्धानरूप निश्चयसम्यक्त्व नहीं हो सकता ।। प्रसङ्गविवरण-- शुद्ध शायकस्वरूप प्रातमा परमार्थ है उसको समझानेके लिये भेदविधिसे प्रतिपादन करने वाला व्यवहार प्रयोजनबान है, किन्तु परमभावदर्शी पुरुषोंको व्यवहारनय प्रयोजनवान नहीं, प्रतः व्यवहारनयका अनुसरण नहीं करना चाहिये यह प्रसंग इस Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग समुद्योतितास्खलितकस्वभावकभावः शुद्धनय एवोपरितनैकप्रतिरिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । ये तु प्रथम द्वितीयाधनेकपाकपरंपरापच्यमानकार्तस्वरस्थानीयमपरमं भावमनुभवति हिर । धातुसंज्ञ-सुज्झ नैमल्ये, दिस प्रेक्षणे, दरिस दर्शनायां, ट्ठा गतिनिवृत्ती । प्रकृतिशब्द - शुद्ध, शुद्धा. स्थल तक चल रहा है । सो उसी विषयमें यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि व्यवहारनयका मनुसरण क्यों नहीं करना चाहिये । इसके हो उत्तरमें इस गाथाका अवतार हुआ है। तथ्यप्रकाश-(१) जो सहज शाश्वत सत् (भूत) अर्थ है वह भूतार्थ है । (२) जो सहज शाश्वत सत् (भूत) अर्थ नहीं वह अभूतार्थ है । (३) अभूतार्थ मिथ्या नहीं, किन्तु सहज शाश्वत स्वभाव अनुभूयमान होनेपर अभूतार्थ मिथ्या है । (४) उपाधिसंसर्ग, बन्धन, क्षणिक भाव, विकार, गुणभेद, कारककारकिभेद, गुणगुणिभेद, उपचार--ये सब अभूतार्थ हैं। (५) प्रभूतार्थ से हटकर भूतार्थका प्राश्रय करनेके लिये प्रथम कदम भेदविज्ञान है, द्वितीय कदम शुद्धनयका पालम्बन है। __ सिद्धान्त--(१) सहज शाश्वत अभेद चैतन्यस्वभाव भूतार्थ है । (२) गुणगुणिभेद, कारककारकिभेद, गुणभेद, क्षरिणकभाव, विकार, उपाधिबन्धन, उपचार आदि ये सब अभूतार्थ हैं। दृष्टि--१- शुद्धनय, परमशुद्धनिश्चयनय भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकप्रतिपादक (४४, ४६, ८०) । २-- गुणगुणि बोधक परमशुद्ध सद्भूतव्यवहार (६६), कारककारकिभेदकसद्भूतव्यवहार (७३), भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकप्रतिपादकव्यवहार, उपचरित परमशुद्धसद्भूतव्यवहार, भेदकल्पनासापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (८२, ७०, २६), सत्तागीणोत्पादव्ययग्राहकनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय (३७), उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४), परसम्बन्धव्यवहार {१२५), उपचार (१०३ से १५१) आदि । प्रयोग---परमशुद्धनिश्चयनय अथवा शुद्धनय भूतार्थको विषय करते हैं शेष सभी नय प्रभूतार्थको विषय करते हैं, किन्तु वस्तुका परिचय कराते हैं । सो वस्तुपरिचयके लिये सर्व नयोंका उपयोग कर भूतार्थसम्मुख होते हुए सर्वनयोंका परित्याग करके एक शुद्ध नथका मालम्बन लेकर भूतार्थ सहज अन्तस्तत्वको अनुभवना चाहिये ॥११॥ अब कहते हैं कि यह व्यवहारनय भी किसी किसीको, किसी काल में प्रयोजनवान् है, सर्वथा निषेध्य करने योग्य नहीं है, इसलिये इसका उपदेश है--[परममावशिभिः] जो शुद्धनय तक पहुंचकर श्रद्धावान हुए तया पूर्ण ज्ञानचारित्रवान हो गये उनको तो [शुद्धादेशः] शुद्ध ज्ञायकमात्र आत्माका उपदेश करने वाला [शुद्धः] शुद्धनय [जातव्यः] जानने योग्य है Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ समयसार तेषां पर्यन्तपाकोत्तीर्णजात्यकार्तस्वरस्थानीय परमभावानुभवनशून्यत्वादशुद्धद्रव्यादेशितयोपशितप्रतिविशिष्टकभावानेकभावो व्यवहारनयो विचित्रवर्णमालिकास्थानीयत्वात्परिज्ञायमानस्तदात्वे प्रयोजनवान्, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात् । उक्तं च--जइ जिणमयं पवजह देश, परमभावदर्शिन, व्यवहारदेशित. पुनस्, यत, तु, अपरम, स्थित, भाव । मूलधातु --- शिर् अवलोकने, [पुनः] और [ये तु] जो जीव [ अपरमे भावे] अपरमभाव में अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र के पूर्ण जाचको नहीं पहुंच मागे मी पादापा, नणा साधक अवस्था हो [स्थिताः] ठहरे हुए हैं वे [व्यवहारदेशिताः] व्यवहार द्वारा उपदेश करने योग्य हैं । तात्पर्य-प्राक् पदवीमें व्यवहारलयका उपदेश प्रयोजनवान् है ! . टोकार्थ- जो पुरुष अन्तिम पाकसे उतरे हुए शुद्ध सोनेके समान वस्तुके उत्कृष्ट प्रसाधारण भावका अनुभव करते हैं उनको प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकोंको परम्परासे पच्यमान (पकाये जाते हुए) अशुद्ध सुवर्णके समान अपरमभावका अर्थात् अनुत्कृष्ट मध्यम भावका अनु. भव नहीं होता। इस कारण शुद्धद्रव्यका ही कहने वाला होनेसे जिसने प्रचलित प्रखंड एकस्वभावरूप एक भाव प्रकट किया है, ऐसा शुद्धनय ही उपरितन एक शुद्ध सुवर्णावस्थाके समान जाना हुमा प्रयोजनवान् है । परन्तु जो पुरुष प्रथम द्वितीय आदि अनेक पाकोंको परम्परासे पच्यमान अशुद्ध सुवर्णके समान बस्तुके अनुत्कृष्ट मध्यम भावका अनुभव करते हैं उनको अन्तिम पाकसे उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान वस्तुके उत्कृष्ट भावका अनुभव न होनेसे उस कालमें जाना हुया व्यवहारनय ही प्रयोजनवान है । (क्योंकि व्यवहारनय अशुद्ध द्रव्यको कहने वाला होनेसे भिन्न-भिन्न एक एकभावस्वरूप अनेकभाव दिखलाता है तथा वह विचित्र अनेक वर्णमालाके समान है। इस तरह अपने-अपने समयमें दोनों ही नय कार्यकारी हैं) क्योंकि तीर्थ और तीर्थके फलकी ऐसी हो व्यवस्थिति है । (जिससे तरा जावे वह तीर्थ है, ऐसा तो व्यवहार धर्म है और जो पार होना वह व्यवहारधर्मका पल है नथवा अपने स्वरूप का पाना वह तीर्थफल है)। ऐसा ही दूसरी जगह भी 'जइ जिणमयं' इत्यादि गाथामें कहा है । अर्थ-यदि तुम जैनधर्मका प्रवर्तन चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयोंको मत छोड़ो, क्योंकि एक व्यवहारनयके बिना तो तीर्थ याने व्यवहारमार्गका नाश हो जायगा चिह्नित जिनेन्द्र भगवानके वचनमे जो पुरुष रमण करते हैं---प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं, वे पुरुष स्वयं मिथ्यात्व-कर्मके उदयका वमन करते हुए इस उत्कृष्ट परमज्योतिस्वरूप सनातन सर्वथा एकांतरूप कुनयके पक्षसे खंडित नहीं होने वाले समयसारको निरखते हैं । भावार्थ--जिनवचन स्यावादरूप हैं, जहाँ दो नयोंके विषयका विरोध है, जैसे जो । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग तामा ववहाररिंगच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णे उण तच्चं । उभयनयविरोधध्वंसिनि स्थात्पदांके, जिनवचसि रमते ये स्वयं वांतमोहाः । सपदि समयसारं ते परं दिशि देशने, ष्ठा गतिनिवृत्तौ। पदविवरण-शुद्धः-प्रथमा एक । शुद्धादेश:-प्रथमा एक० । ज्ञातव्यःऔर दूसरे निश्चयके किना तस्य (स्तु का नाश हो जायगा। भावार्य--लोकमें सोनेके सोलह ताय प्रसिद्ध हैं उनमें पन्द्रह ताव तक तो परसंयोग की कालिमा रहती है, अत: तब तक उसे अशुद्ध कहते हैं और फिर ताव देते-देते जब अंतिम तावसे उतरे, तब सोलहवान शुद्ध सुवर्ण कहलाता है । जिन जीवोंको सोलहवान वाले सोने का ज्ञान, श्रद्धान तथा उसकी प्राप्ति हुई है उनको पंद्रहवान तकका सोना कुछ प्रयोजनवान् नहीं है । और जिनको सोलहवान वाले शुद्ध सुवर्णकी प्राप्ति जब तक नहीं हुई तब तक पंद्रहवान तकका भी प्रयोजनीय है। उसी तरह यह जीव पदार्थ पुद्गलके संयोगसे अशुद्धअनेकरूप हो रहा है । सो जिनको सब परद्रव्योंसे भिन्न एक ज्ञायकतामाका ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरूप प्राप्ति हो गई है उनको तो दूगलसंयोगजनित अनेकरूपताको कहने वाला अशुद्धनय कुछ प्रयोजनवान् नहीं है, और जब तक शुद्धभावको प्राप्ति नहीं हुई है तब तक जितना प्रशद्धनयका कथन है उतना यथापदवी प्रयोजनवान है । अतः जिरवचनोंका सुनना, धारण करना तथा जिनवचनके कहने वाले श्री जिनगुरुकी भक्ति, जिनबिंबका दर्शन इत्यादि व्यवहार मार्गमें प्रवृत्त होना प्रयाजनवान है । और जिसके श्रद्धान और ज्ञान तो हुआ, पर साक्षात्रा न हुई, तब तक परद्रव्यका प्रालंबन छोड़नेरूप अणुव्रत और महाब्रतका ग्रहण, समिति, गुप्ति, पंचपरमेष्ठीके ध्यानरूप प्रवर्तन तथा उसी प्रकार प्रवर्तन करने वालोंकी संगति करना और विशेष जाननेके लिए शास्त्रोंका अभ्यास करना इत्यादि व्यवहारमार्गमें स्वयं प्रवर्तन करना तथा अन्यको प्रवृत्त करना आदि सब व्यवहारनयका उपदेश अंगीकार करना प्रयोजनवान् है । व्यवहारनयको शुद्धनयके समक्ष प्रसत्यार्थ कहा गया है, यदि कोई उसे सर्वथा असत्यार्थ जानकर छोड़ दे तो वह शुभोपयोगरूप व्यवहारको ही छोड़ देगा और चूंकि शुद्धोपयोगकी साक्षात प्राप्ति हुई नहीं, इसलिये उल्टा अशुभोपयोगमें ही आकर भ्रष्ट होकर यथाकथंचित् स्वेच्छारूप प्रवृत्ति करेगा तब नरकादिगति तथा परम्परासे निगोदको प्राप्त होकर संसारमें ही भ्रमण करेगा । इस कारण साक्षात् शुद्धनयका विषय जो शुद्ध प्रात्मा है उसकी प्राप्ति जब तक न ' हो तब तक व्यवहार भो प्रयोजनवान है । ऐसा स्याद्वादशासन में श्री गुरुओंका उपदेश है। ... इसी अर्थका कलशरूप काव्य टीकाकार कहते हैं- "उभय" इत्यादि । प्रर्थ-निश्चय व्यवहाररूप दो नयोंमें विषयके भेदसे होने वाले परस्परके विरोधको दूर करने वाले स्याल्पदसे Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ज्योतिरुच्चरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षत एव ॥४॥ व्ययहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदच्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलंबः । तदपि परममर्थ चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमंतः पश्यतां प्रथमा एकवचन, कृदन्त क्रिया, परमभावदशिभिः-तृतीया बहु० कर्ताकारक । व्यवहारदेशिताः-प्रथमा चिह्नित जिनेन्द्र भगवानके वजनमें जो पुरुष रमण करते हैं—प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं, वे पुरुष स्वयं मिथ्यात्वकर्मके उदयका वमन करते हुए इस उत्कृष्ट परमज्योतिस्वरूप सनातन, पतंग एकांत मुदपके पाशे मंडित होने वाले समयसारको निरखते हैं । भावार्थ:-जिनवचन स्याद्वादरूप है, वहाँ दो नयोंके विषयका विरोध है, जैसे जो सद्रूप है वह असद्रूप नहीं होता, जो एक है वह अनेक नहीं होता, नित्य है वह अनित्य नहीं होता, भेदरूप है वह अभेदरूप नहीं होता, शुद्ध है वह अशुद्ध नहीं होता इत्यादि नयों के विषयों में विरोध है, वहां जिनवचन कथंचित् विवक्षासे सत्-प्रसद्रूप, एक-अनेकरूप, नित्यअनित्यरूप, भेद-अभेदरूप, शुद्ध-अशुद्धरूप जिस प्रकार विद्यमान वस्तु है, उसी प्रकार कहकर विरोध मिटा देता है, झूठी कल्पना नहीं करता । इसलिये द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक दोनों नयों में प्रयोजनके वश शुद्ध द्रध्याथिकको मुख्यकर निश्चयनय कहता है और प्रशुद्ध द्रव्याथिकरूप पर्यायाधिकको गौणकर व्यवहारनय कहता है । इस प्रकार जिनवचनमें जो पुरुष रमण करते हैं, वे इस शुद्ध आत्माको यथार्थ पाते हैं, अन्य सर्वथा एकांतवादी वस्तुतथ्यको नहीं पाते । अब कहते हैं कि व्यवहारनयको कथञ्चित् प्रयोजनवान कहा है तो भी यह कुछ वस्तुभूत नहीं है। "व्यवहरण" इत्यादि । प्रर्थ-यद्यपि इस प्रथम पदवीमें याने जब तक शुद्ध स्वरूपकी प्राप्ति न हुई हो तब तकको स्थितिमें जिन्होंने अपना पैर रखा है, ऐसे पुरुषोंके लिये व्यवहारनयको हस्तावलम्बतुल्य कहा है तो भी जो पुरुष चैतन्यचमत्कारमात्र, परद्रव्यभावोंसे रहित शुद्धनयके विषयभूत परम प्रर्थको अंतरंगमें अवलोकन करते हैं, उसका श्रद्धान करते हैं तथा उस स्वरूपमें लोनतारूप चारित्रभावको प्राप्त होते हैं, उनके लिये यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है अर्थात शुद्धस्त्ररूपका ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राचरण होने के पश्चात् प्रशुद्ध नय कुछ भी प्रयोजनभूत नहीं है । प्रब आगेके कलशमें निश्चयसम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं - "एकत्ये" इत्यादि । अर्थशुद्धनयसे एकत्वमें नियस, अपने गुण पर्यायों में व्यापक, पूर्ण ज्ञानधन, अन्य द्रव्योंसे पृथक इस प्रात्माका जो दर्शन है यह हो नियमसे सभ्यग्दर्शन है और यह प्रात्मा उतने ही मात्र है । इस नव तत्त्वकी परिपाटीको छोड़कर हमको तो एक यह प्रात्मा हो प्राप्त होगी। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ पूर्व रंग नैष किंचित् ॥५॥ एकत्वे नियतस्य शुद्धनयतो व्याप्तुर्यदस्यात्मनः । पूर्णज्ञानधनस्य दर्शनमिह द्रव्यांतरेभ्यः पृथक् ।। सम्यग्दर्शनमेतदेव नियमादात्मा च तावानयं। तन्मुक्त्वा नवतत्त्वसंततिबहु०, पुन:-अव्यय, ये-प्रथमा बहु०, तु-अव्यथ, अपरमे-सप्तमी एक०, स्थिताः-प्रथमा बहु०, भावे भावार्थ-अपनी सभी स्वाभाविक तथा नैमित्तिक अवस्थारूप गुणपर्यायभेदों में व्याप कर रहने वाला यह प्रात्मा शुद्धनयके द्वारा एकत्वमें निश्चित किया गया है-- शुद्धनयसे ज्ञायकमात्र एक प्राकार दिखलाया गया है, उसको सब अन्य द्रव्यों और अन्य द्रव्योंके भावों से पृथक् देखना और श्रद्धान करना सो नियमसे सम्यग्दर्शन है । शुद्धनयका विषयभूत प्रात्मा पूर्ण ज्ञानघन है सब लोकालोकका जाननहार ज्ञानस्वरूप है, ऐसे आत्माका श्रद्धानरूप जो सम्यग्दर्शन है वह कुछ प्रात्मासे भिन्न पदार्थ नहीं है, प्रात्माका ही परिणाम है । इसलिए प्रात्मा ही है । इस कारण जो सम्यग्दर्शन है बह प्रात्मा है, अन्य नहीं है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नय श्रुतप्रमाणके अंश हैं, इसलिए शुद्धनय भी श्रुतप्रमाणका ही अंश हुआ । श्रुतप्रमाण है वह परोक्ष प्रमाण है, क्योंकि श्रुतप्रमाणने वस्तुको प्रागमसे जाना है । यह शुद्धनय भी सब द्रव्योंसे भिन्न प्रात्माकी सब पर्यायोंमें व्यास पूर्णचंतन्य केवलज्ञानरूप सब लोकालोकके जानने वाले असाधारण चैतन्यधर्मको परोक्ष दिखलाता है, उसको यह व्यवहारी छमस्य अल्पज्ञानी जीव प्रागमसे प्रमाण मानकर सानुभव प्रात्माका श्रद्धान करे, वही श्रद्धान निश्चयसम्यग्दर्शन है । जब तक व्यवहारनयके विषयभूत जीवादिक भेदरूप तत्त्वोंका ही श्रद्धान रहता है तब तक निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं होता । इसलिए प्राचार्य कहते हैं कि इन तत्त्वोंकी संतति याने परिपाटीको छोड़कर शुद्धनयका विषयभूत एक यह प्रात्मा ही हमको प्राप्त होमो, हम अन्य कुछ नहीं चाहते । यह वीतरागता पानेकी प्रार्थना है, कुछ नयपक्ष नहीं है । सर्वथा नयोंका पक्षपात मिथ्यात्व है । जैसे प्रात्मा चैतन्य है मात्र इतना ही आत्माको माने तो चैतन्यमात्र तो नास्तिकके अतिरिक्त सभी मत वाले प्रात्माको मानते हैं, यदि इतने ही श्रद्धानको सम्यक्त्व पहा लाय तो सभीके सम्यक्त्व सिद्ध हो जायगा । सो ऐसा नहीं, तो क्या है ? सर्वज्ञको वाणी में जैसा पूर्ण प्रात्माका स्वरूप कहा है वैसा श्रद्धान होनेसे निश्चयसम्यक्त्व होता है । प्रब प्रागेके वक्तव्यकी उत्थानिकारूप कलश कहते हैं, 'अतः' इत्यादि । अर्थ-अब शुद्धनयके प्राधीन वह भिन्न प्रात्मज्योति प्रगट होती है जो नवतत्त्वमें प्राप्त होनेपर भी अपने एकत्वको नहीं छोड़ती। भावार्थ-नवतत्त्वोंमें प्राप्त हुमा प्रात्मा भनेकरूप दीखता है। वास्तवमें यदि इसका भिन्न स्वरूप विचारा जाय तो यह अपनी चैतन्यचमत्कारमात्र ज्योतिको नहीं छोड़ता। प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व यह बताया था कि किन्हींको कभी व्यवहारनय भी Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार मिमामात्मायमेकोस्तु नः ॥६॥ अतः शुद्धनयायसं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतत्त्वगतत्वेपि यदेकत्वं न मुंचति ।।७।। सप्तमी एकवचन ॥१२॥ प्रयोजनवान है । इसके विवरण के साथ अब यह निश्चित किया जा रहा है कि जिनशासन में दोनों ही नप अपनी-अपनी भूमिकामें उपयोगी हैं । __ तथ्यप्रकाश-(१) जो सहज शुद्ध चिन्मात्र परमभावके अनुभवी हैं उनको शुद्धादेशक शुद्धनय ही ज्ञातव्य है । (२) जो जब तक परमभाव में स्थित नहीं हो सकते हैं उनको तब तक व्यवहारोपदेश उपकारी है । (३) शुद्धनय एकत्वविभक्त शुद्धद्रव्यका आदेश करता है । (४) व्यवहारनय गुणगुणीभेदरूप, नानागुणरूप, पर्यायभेदरूप अशुद्ध (भदरूप अथवा मलिन) द्रव्यका आदेश करता है । (५) व्यवहारनयके उच्छेदसे तीर्थका (प्रात्मलाभोपायका) उच्छेद हो जायगा । (६) निश्चयनयके उच्छेदसे तीर्शफलका (प्रात्मनाभका! उच्छेद हो जायगा। (७) स्याद्वादरूप जिनवचनका जो सादर अभ्यास करते हैं वे यथाशीघ्र प्रखंड समयसार (सहज परमात्मतत्व) का अवलोकन कर लेते हैं । (८) प्राक् पदवीमें व्यवहारनय उपादेय है । (६) चैतन्यचमत्कारमात्र परम भावके अनुभवने वालोंको व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजक नहीं है । (१०) ज्ञानमात्र ज्ञानघन अन्तस्तस्वका दर्शन सम्यग्दर्शन है । (११) सहज परमात्मतत्त्व शुद्धनयसे ज्ञातव्य है सिद्धान्त--(१) शुद्धनयका विषय नयपक्षस पातकान्त अनुभाव्य समयसार है। (२) समस्त शास्त्र तत्व के प्रतिपादक हैं, अतः सभी व्यवहाररूप हैं, सो व्यवहारनयके उच्छेद से मोक्षमार्ग व उसके उपायका विनाश हो जायगा । (३) निश्चयनय परमार्थज्ञानरूप है सो निश्चयनयके उस्छेदसे आत्मोपलब्धिका उच्छेद हो जायगा । दृष्टि-१-- शुद्धनय (४६) । २- व्यवहार (६२ से १०२) । ३- परमशुद्धनिश्चयनयादि (४४ से ४६ तक). प्रयोग-व्यवहारनय व निश्चयनयसे आत्मविज्ञान करके सर्व नयपक्षको गौण कर : शुद्धनयसे प्रखंड एकत्वविभक्त समयसारको ध्यान में रखे रहना चाहिये ।।१२।। अब शुद्धनयसे जानना ही सम्यक्त्व है, ऐसा सूत्रकार कहते हैं---[भूतार्थन अभिगताः] भूतार्थनयसे ज्ञात [जीवाजीयो] जीय, अजीव [ध] और [पुण्यपापं] पुण्य, पाप [च] तथा [प्रास्रवसंवरनिर्जराः] प्रास्रव, संवर, निर्जरा [बंधः] बंध [च] और [मोक्षः] भोक्ष [सम्यक्त्वं] यह नवतत्त्व सम्यक्त्व है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवाय पुरापावं च । प्रासवसंबर णिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मतं ॥ १३॥ भूतार्थतया सुविदित जीव प्रजीथ श्रर पुण्यपापात्र । संवर निर्जर अन्धन, मोक्ष हि सम्यक्त्वके साधक ॥१३॥ भूतार्थेनाभिगता जीवाजीवौ च पुण्यपापं च । आस्रवसंवरनिर्जरा बंधों मोक्षश्च सम्यक्त्वम् ॥ १३॥ ३७ अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं संपद्यंत एवामीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीव पुण्यपापास्रवसंवर निर्जराबंध मोक्षलक्षगेषु नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतना भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणायाः, संपद्यमानत्वात् । तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापं । श्रस्राव्यास्रावको भयमास्रवः संवार्य संवारकोभयं संवरः, निर्जयंनिर्जरकोभयं निर्जरा, बंध्यबंधकोभयं बंधः, मोच्यमोचकोभयं मोक्षः । स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रव सं बरनिर्जराबंधमोक्षानुपपत्तेः । तदुभयं च नामसंज्ञ -- भूयत्य, अभिगद, जीवाजीव, य, पुण्णपाव, च, आसवसंवर णिज्जर, बंध, मोक्ख, य, तात्पर्य - एकत्वको अभिमुखता लाकर नवतत्त्वोंका जानना सम्यक्त्वको संपादित करता ही है । टोकार्थ - जो जीवादि नौ तत्थ हैं वे भूतार्थनयसे जाने हुए सम्यग्दर्शन ही हैं, क्योंकि तीर्थ ( व्यवहारधर्म) की प्रवृत्तिके लिये प्रभूतार्थनयसे कहे जाने वाले जो जीव, प्रजोव, पुण्य, पाप, श्रस्रव संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले जीवादि नवतत्त्व हैं उनमें एकत्व प्रगट करने वाले भूतार्थनयसे एकत्व प्राप्त कर शुद्धनयसे स्थापित किए गए श्रात्माकी ख्याति लक्षण वाली अनुभूतिकी प्राप्ति होती है, क्योंकि शुद्धनयसे नवतत्त्वको जाननेसे आत्माकी अनुभूति होती है । वहाँ विकारी होने योग्य और विकार करने वाला ये दोनों पुण्य भी हैं और पाप भी हैं तथा साध्य व आस्रावक ( मालव करने वाले ) ये दोनों ग्रासव है: संवार्य ( संवररूप होने योग्य) व संवारक ( संवर कने वाले) ये दोनों संवर हैं, निर्जरने योग्य व निर्जरा करने बाले - ये दोनों निर्जरा हैं; बंधने योग्य व बंधन करने वाले ये दोनों बंध हैं और मोक्ष होने योग्य व मोक्ष करने वाले ये दोनों मोक्ष हैं। क्योंकि एकके ही अपने श्राप पुण्य, पाप, शासक, संबर, निर्जरा, बंत्र और मोक्षकी उपपत्ति (सिद्धि) नहीं बनती। वे दोनों जीव और प्रजोत्र हैं । इनको बाह्यदृष्टिसे देखा जाय तब जीव पुद्गलकी अनादिबंधपर्यायको प्राप्त करके उनका एकत्व अनुभव किये जानेपर तो ये नौ भूतार्थं हैं— सत्यार्थ हैं तथा एक जीवद्रव्यके ही स्वभाव को लेकर अनुभव किये जाने पर ये प्रभूलार्थ हैं--असत्यार्थ हैं । जीवके एकाकार स्वरूपमें ये Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ गार जीवाजीवाविति । बहिष्टया नवतत्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबंधपर्यायमुपेत्यैकत्वनानुभूय. मानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमीषु नवतत्त्वेषु भूतार्थनयेन को जोव एवं प्रद्योतते । तथांतर्दष्टया झायको भावो जीवो जीवस्य विकारहेतुरजोवः । केवला जीवविकाराश्च पुण्यपापाखवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणाः, केवला जीवविकारहेतवः पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षा इति । नवतत्त्वान्य मून्यपि जीवद्रव्यस्वभाव. सम्मत । धातुसंज्ञ-- अभि-गम गतौ, बंध बंधने । प्रकृतिशब्द-भूतार्थ अभिगत, जीवाजीव, च, पुण्यपाग, नहीं हैं । इसलिए इन तत्त्वोंमें भूतार्थनयसे जीव एकरूप ही प्रकाशमान है । उसी तरह अंतदृष्टिसे देखा जाय तब ज्ञायकभाव जीब है और जोक्के विकारका कारण अजीव है, और केवल जीवविकार पुण्य, पाप, आम्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष लक्षण वाले हैं व जीवविकारके कारणरूप केवल अजीव पुण्य, पाप, प्रास्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष ये नवतत्त्व जोवस्वभाव को छोड़कर स्वपरनिमित्तक एक द्रव्यपर्यायरूपसे अनुभव किए जानेपर भूतार्थ हैं तथा सब कालमें नहीं चिगते एक जीवद्रव्य के स्वभावको अनुभव करनेपर ये अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इसलिए इन नौ तत्त्वों में भूतार्थन यसे देखा जाय तब जीव तो एकरूप ही प्रकाशमान है । ऐसे यह जीवतत्त्व एकत्वरूपसे प्रकट प्रकाशमान हुमा शुद्धनयसे अनुभव किया जाता है। यह अनुभवन ही प्रात्मख्याति है-आत्माका ही प्रकाश है, जो प्रात्मख्याति है वहीं सम्यग्दर्शन है । इस प्रकार यह सब कथन निर्दोष है, बाधारहित है। भावार्थ-इन नवतत्त्वोंमें शुद्धनयसे देखा जाय तो जीव ही एक चतन्यचमत्कारमात्र प्रकाशरूप प्रकट हो रहा है । इसके अतिरिक्त जुदे-जुदे नवतत्त्व कुछ दिखाई नहीं देते । जब तक इस तरह जीवतत्त्वका जानना नहीं है, तब तक व्यवहारदृष्टि में होकर पृथक् पृथक नवतत्त्वोंका मानना है याने जीव पुद्गलको बंधपर्यायल्प दृष्टिसे ये पदार्थ भिन्न-भिन्न दीखते हैं और जब शुद्धनय से जीव पुद्गलका निज स्वरूप जुदा-जुदा देखा जाय, तब ये पुण्य पाप आदि सात तत्त्व चुछ भी वस्तु नहीं दीखती, वे निमित्तनैमित्तिक भादसे हुए थे सो निमित्तनैमित्तिक भाव जब मिट गया तब जीव पुद्गल जुदे जुदे होनेसे दूसरा कोई पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकता । वस्तु तो द्रव्य है और द्रव्यका निजभाव द्रव्यके हो साथ रहता है तथा निमित्तनैमित्तिक भावका प्रभाव ही होता है, इसलिए शुद्धनयसे जीवको जाननेसे ही सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है। जब तक भिन्न-भिन्न नव ही पदार्थोको जाने, और शुद्धनयसे प्रातमाको नहीं जाने तब तक पर्यायबुद्धि होनेसे सम्यक्त्व नहीं होता है। अब यहाँ इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं "चिरं" इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वं रंग ३६ पोह्य स्वपरप्रत्ययैकद्रव्यपर्यायत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि अथ च सकलकालमेवास्खलंतमेकं जीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि । ततोऽमोष्वपि नवतस्त्वेषु भूतार्थनयेने को जीव एव प्रद्योतते । एवमसावेकत्वेन द्योतमानः शुद्धनयत्वेनानुभूयत एव । या त्वनुभूतिः सात्मख्यातिरेवात्मख्या तिस्तु सम्यग्दर्शनमेवेति समस्तमेवं निरवद्यं । च आवसंवरनिर्जरा, बन्ध, मोक्ष, सम्यक्त्व । मूलघातु-अभि गम्लु गती, पुण्य-पुत्र पवने, पाप-पा रक्षणे, नो तत्वोंमें बहुत कालसे छुपी हुई यह श्रात्मज्योति शुद्धनयसे प्रकट की गई है । जैसे कि वर्णों (रंगों ) के समूह में छुपे हुए एकाकार सुवर्णको प्रकट किया जाता है । अब हे भव्य जीवो, सदा अन्य द्रव्योंसे तथा उनके निमित्तसे हुए नैमित्तिक भावोंसे भिन्न एकरूप देखो जो हर एक पर्याय में एकरूप चिचमत्कारमात्र उद्योतमान है । भावार्थ - - यह श्रात्मा सब अवस्थाओं में नानारूप दीखता था, उसे शुद्धनयने एक चैतन्यचमत्कार मात्र दिखलाया है सो अब सदा एकाकार ही अनुभवन करो । पर्यायबुद्धिका एकांत मत रखो | टीकार्थ - ब जैसे नवतत्त्वोंमें एक जीवका ही जानना भूतार्थं कहा है, उसी तरह एकत्वसे प्रकाशमान श्रात्मा के अधिगम के उपाय जो प्रमाण, नय और निक्षेप हैं, वे भी निश्चय से प्रभूतार्थं हैं, उनमें भी एक प्रात्मा हो भूतार्थ है, क्योंकि ज्ञेय और वचन के भेदोंसे वे प्रमाणादि श्रनेक भेदरूप होते हैं । उनमें से प्रमाण दो प्रकार है - परोक्ष और प्रत्यक्ष । उपात्त अर्थात् इन्द्रिय और मन, अनुपात्त अर्थात् प्रकाश उपदेशादि इन दोनों परद्वारोंसे प्रवर्तमान ज्ञानको परोक्ष कहते हैं तथा जो श्रात्माके प्रतिनियतपनेसे प्रवर्तमान हो वह प्रत्यक्ष है अर्थात् प्रमाण ज्ञान है और वह पाँच प्रकारका है— मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान । उनमेंसे मति और श्रुत-- ये दो ज्ञान परोक्ष हैं, अवधि, मनःपर्यय - ये दो विकल प्रत्यक्ष हैं और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । ये दोनों तरहके हो प्रमाण याने ये सब भेद प्रमाता, प्रमाण और प्रमेयके भेदका अनुभव करनेपर तो भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और जिसमें सब भेद गौण हो गये हैं, ऐसे एक जीवके स्वभावका अनुभव करनेपर प्रभुतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । नय दो प्रकार के हैं- द्रव्यार्थिक मोर पर्यायार्थिक । उनमेंसे जो द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तु को द्रव्यत्वी मुख्यतासे अनुभव कराता वह द्रव्याधिकनय है और पर्यायकी मुख्यतासे अनुभव कराता वह पर्यायार्थिकनय है । ये दोनों ही नय द्रव्य और पर्यायको भेदरूप अनुभव करनेपर भूतार्थं हैं, सत्यार्थ हैं और द्रव्य तथा पर्याय इन दोनोंसे अनालीढ (स्वाद न लिये गये) शुद्ध वस्तुमात्र जीवके स्वभाव चैतन्यमात्रका अनुभव करनेपर वे भेदरूप नय प्रभूतायें हैं, असत्यार्थं Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार 'चिरमिति नवतस्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे ! अथ सततविविवतं दृश्यतामेकरूप प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥८॥ प्रथैवमेकत्वेन द्योतमानस्यात्मनोऽधिगमोपायाः प्रमाणनयनिक्षेपाः ये ते खल्वभूतार्थास्तेष्वप्ययमेक एव भूतार्थः । प्रमाणं तावत्परोक्षं प्रत्यक्षं च । तत्रोपात्तानुपात्तपरद्वारेण प्रवर्तमानं परोक्षं, केवलात्मप्रतिनियतत्वेन प्रवर्तमान प्रत्यक्षं च, तदुभयमपि प्रमातृप्रमाणप्रमेयभेदस्यानुभूयमानतायां भूतार्थमथ च व्युदस्तसमस्तभेदैकजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । नयस्तु द्रव्याथिकः पर्यायाथिकश्च । तत्र द्रव्यपर्यायात्मके वस्तुनि द्रव्यं मुख्यतयानुभावयतीति पाति रक्षति शुभात् इति पापं, मुख्लु मोक्षणे । पदविवरण---भूतार्थेन-तृतीया वि० एक०, अभिगताः-प्रथमा हैं । निक्षेप भी नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे चार तरहका है । जिसमें वह गुण तो न हो, किन्तु व्यवहारके लिये उसको संज्ञा करना वह नामनिक्षेप है; अन्य वस्तुमें अन्यको प्रतिनिधिरूप स्थापना करना कि यह वही है यह स्थापनानिक्षेप है; वर्तमान पर्यायसे अन्यका याने अतीत व भविष्य पर्यायोंका वर्तमानमें आरोप करना द्रध्यनिक्षेप है, और वर्तमान पर्याय रूप वस्तुको वर्तमान में कहना यह भावनिक्षेप है । ये चारों ही निक्षेप अपने-अपने लक्षण भेदसे भिन्न-भिन्न विलक्षण रूप अनुभव किये जानेपर भूतार्थ हैं, सत्यार्थी हैं और भिन्न लक्षणसे रहित एक अपने चैतन्य लक्षणरूप जीवस्वभावका अनुभव किये जानेपर चारों ही अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। इस तरह इन प्रमाण, नय और निक्षेपोंमें भूतापिनेसे एक जीव ही प्रकाशमान भावार्थ-इन प्रमाण, नय और निक्षेपोंका विस्तारसे व्याख्यान तद्विषयक ग्रंथों में से जामना । इन्हींसे द्रव्यपर्यायस्वरूप वस्तुकी सिद्धि होती है । ये साधक अवस्थामें तो सत्यार्थ ही हैं, क्योंकि ये ज्ञान के हो विशेष हैं, इनके बिना वस्तुको यथाकचित् (एकान्तरूपसे) साधा जाय तब विपरीत हो जाता है । अवस्थानुसार व्यवहारके प्रभावकी तीन पदवियों हैं। प्रथम अवस्थामें प्रमाण प्रादिसे यथार्था वस्तुको जानकर ज्ञान और श्रद्धानकी सिद्धि करना । ज्ञान पौर श्रद्धान सिद्ध होनेके बाद प्रमाणादिकसे श्रद्धान करनेका कुछ प्रयोजन नहीं है। किन्तु प्रब यहाँ दूसरी अवस्थामें प्रमाणादिके पालम्बनसे विशेष ज्ञान होता है और राग, द्वेष, मोह, कर्मका सर्वथा अभावरूप यथाख्यात चारित्र प्रकट होता है, इसीसे केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है, केवलज्ञान होनेके बाद प्रमाणादिकका ग्रालंबन नहीं रहता। उसके बाद तीसरी साक्षात् सिद्ध अवस्था है । वहाँपर भी कुछ मालम्बन नहीं है इस कारण सिद्ध अवस्थामें भी प्रमाण-नयनिक्षेपका प्रभाव ही है । इसी अर्शका कलशरूप "उदयति" इत्यादि श्लोक कहते हैं । अर्थ--इन सर भेदोंका Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग द्रव्याथिकः, पर्यायं मुख्यतयानुभावयतीति पर्यायाथिकः, तदुभयमपि द्रव्यपर्याययोः पर्यायेणानुभूयमानतायां भूतार्थ । अथ च द्रव्यपर्यायानालीढशुद्धवस्तु मात्रजीवस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । निक्षेपस्तु नाम, स्थापना, द्रव्यं, भावश्च । तत्रातद्गुरणे वस्तुनि संज्ञाकरणं नाम । सोऽयमित्यन्यत्र प्रतिनिधिव्यवस्थापन स्थापना। वर्तमानतत्पर्यायादन्यद्रव्यं, वर्तमानततार्यायो भावस्तच्चतुष्टयं स्वस्व लक्षणवलक्षण्येनानुभूयमानतायां भूतार्थं । अथ च निविलक्षणस्वलक्षणकबहुवचन, जीवाजीवौ-प्रथमा द्विवचन, च-अव्यय, पुण्यपाप-प्रथमा एक०, च--अव्यय, आरू संयरनिर्जराःनाश करने वाले शुद्धनयके विषयभूत चैतन्यचमत्कारमात्र तेजपुंज प्रात्माके अनुभव में प्रानेपर नयोंकी लक्ष्मी उदयको प्राप्त नहीं होती, प्रमाण प्रस्तको प्राप्त हो जाता है और निक्षेपोंका समूह भी कहाँ चला जाता है यह हम नहीं जानते है इससे अधिक क्या कहे कि द्वैत ही प्रतिभासित नहीं होता अर्थात् यहाँ भेदको अत्यंत गौण कर कहा है कि शुद्ध एकाकार चिन्मात्रके अनुभव होनेपर प्रमाणन यादिक भेदकी तो बात क्या है, द्वैत ही प्रतिभासित नहीं है । ___ इस विषयमें विज्ञानाद्वैतवादी तथा वेदांतीका मत है कि परमार्थमें (असलमें) तो अद्वैत का ही अनुभव हुअा, यही हमारा मत है, तुमने विशेष क्या कहा ? इसका उत्तर यह है कि तुम्हारे मतमें सर्वथा अद्वैत मानते हैं । यदि सर्वथा अद्वैत ही माना जाय तो बाह्य बस्तुका अभाव ही हो जाय, किन्तु ऐसा प्रभाव प्रत्यक्षविरुद्ध है। जिनशासनमें नयविवक्षा है, वह बाह्य वस्तुका लोप नहीं करती । शुद्ध अनुभवसे विकल्प नष्ट हो जाता है, तब आत्मा परमानन्दको प्राप्त हो जाता है, इसलिये अनुभव करानेको ऐसा कहा गया है। यदि बाह्य वस्तुका लोप किया जाये तो प्रात्माका भी लोप हो जानेसे शून्यवादका प्रसंग आ सकता है । इसलिये मुखसे कहनेसे ही वस्तुस्वरूपकी सिद्धि नहीं हो जाती और वस्तुस्वरूपको यथार्थ श्रद्धाके बिना जो शुद्ध अनुभव भी किया जाय वह भी मिथ्यारूप है। ऐसा होनेसे शून्यवादका प्रसंग प्राता है तब अाकाशके फूलके समान अनुभव असत् हो जायगा ।। अब शुद्धनयका उदय होता है उसकी सूचनारूप श्लोक कहते हैं--'पात्मस्वभावं' इत्यादि । अर्थ-परभावसे भिन्न, परिपूर्ण, प्रादि-अन्तरहित, एक, संकल्पविकल्पजालशुन्य प्रात्मस्वभावको प्रकट करता हुआ अब शुद्धनय उदयरूप (उदीयमान) होता है । भावार्थशुद्धनय प्रात्माको परद्रव्य, परद्रव्यके भाव तथा परद्रव्यके निमित्तसे हुए अपने विभाव सब तरहके परभावोंसे भिन्न प्रकट करता है । शुद्धनय समस्त रूपसे पूर्ण सब लोकालोकके जानने वाले स्वभावको प्रकट करता है, क्योंकि ज्ञानमें भेद कर्मसंयोगसे है, शुद्धनयमें कर्म गौण हैं । शुद्धनय प्रादिग्रंत रहित (कुछ प्रादि लेकर किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ और न कभी किसोसे Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ समयसार वस्वभावस्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । श्रथैवममीषु प्रमाणनयनिक्षेपेषु भूतार्थत्वेनैको जोव एव प्रद्योतते ||१३|| उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं क्वचिदपि च न विद्यो याति निक्षेपचक्रं । किमपरमभिदध्मो घानि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ ६ ॥ आत्मस्वभावं परभावभिन्न मापूर्ण माद्यंत विमुक्तमेकम् | विलीन संकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोभ्युदेति ॥ १०॥ प्रथमा विभक्ति बहुवचन, बन्धः - प्रथमा एक०, मोक्षः- प्रथमा एक०, च-अव्यय, सम्यक्त्वम् प्रथमा विभक्ति एकवचन ||१३|| नष्ट होगा ) ऐसे पारिणामिक भावको प्रकट करता है। शुद्धनय एक, ( द्वैत भावोंसे रहित ) एकाकार तथा जिसमें समस्त संकल्प-विकल्पों के समूहका विलय ( नाश) हो गया है, ऐसे श्रात्मस्वभावको प्रकट करता है । द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म आदि पुद्गलद्रव्यों में अपनी कल्पना करनेको संकल्प और ज्ञेयोंके भेदसे ज्ञान में भेदोंकी प्रतीतिको विकल्प कहते हैं । प्रसंग विवरण - अनन्तर पूर्वं गाथा में शुद्धनयका आदेश दिया गया है उसी शुद्धनय के प्रयोगको इस गाथा में झांकी है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) नमतत्त्व श्रादिका विविध प्रकाशन तीर्थप्रवृत्तिके लिये है । ( २ ) एकत्वप्रकाशक भूतार्थन यसे नवतत्वोंके मूल स्रोत में विलीन हो जानेसे शुद्ध ज्ञायकस्वभाव श्रात्मतत्वकी अनुभूति होती है । (३) जीव और कर्मविषयक अस्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्षमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है, इसी कारण भूतार्थनयसे निरखने पर ये तस्वभेद कुछ भी नहीं रहते । ( ४ ) वस्तुके प्रधिगम के उपायभूत प्रमाण नय निक्षेप उनके भेद प्रभेद तीर्थप्रवृत्तिके लिये हैं । (५) शुद्ध वस्तुमात्र जीवस्वभावका अनुभव होनेपर प्रमाण नय निक्षेप श्रादि विकल्प कुछ भी नहीं रहते । सिद्धान्त - ( १ ) भूतार्थका श्राश्रय सम्यक्त्वका कारण है । (२) व्यवहारका अनुसरण तीर्थप्रवृत्तिका कारण है । दृष्टि - १ - परमभावग्राहक द्रव्यार्थिकनय ( ३० ) । २ - भेदकल्पना सापेक्ष श्रशुद्ध द्रव्याथिक, भेदकानासापेक्ष अशुद्ध द्वध्यार्थिक प्रतिपादक व्यवहार (२६, ६२ ) । प्रयोग-व्यवहारनय व निश्चयनयसे श्रात्माके गुरण पर्याय तत्त्वोंको जानकर उनका मूल स्रोत जो सहज चैतन्य है उसपर दृष्टि देकर परमविश्राम पायें ॥१३॥ ra fafone शुद्धनकी गाथासूत्रसे कहते हैं-- (यः) जो नय (आत्मानं ) श्रात्माको (अस्पृष्टं ) बंधरहित भोर परके स्पर्शरहित (अनन्यं) अन्यत्वरहित ( नियतं ) चलाचलता Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणमणयं णियदं । अलिशमसंजुनं हे सुद्धायं वियागाहि ॥१४॥ जो लखता अपनेको, अबद्ध अस्पृष्ट अनन्य व नियमित । अधिशेष असंयोगी, उसकों ही शुद्धनय जानो ॥१४॥ यः पश्यति आत्मानं अबद्धस्पृष्टमनन्यकं नियतं 1 अविशेषमसंयुक्त तं शुद्धनयं विजानीहि ॥१४॥ या खल्वबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः स शुद्धनयः सात्वनुभूतिरात्मवेत्यात्मक एव प्रद्योतते । कथं यथोदितस्यात्मनोनुभूतिरिति चेद्बद्धस्पृष्टत्वादीनामभूतार्थत्वात्तथाहि--यथा स्खलु बिसिनीपत्रस्य सलिलनिमग्नस्य सलिलस्पृष्टत्वपर्यायेणानुभूयमानतायां सलिलस्पृष्टत्वं भूतार्धमप्येकांतत: सलिलास्पृश्यं बिसिनीपत्रस्वभावमुपेत्यानुभूयमान नामसंझ -ज, अप्प, अबद्धपुढ, अणणय, णियद, अविसेस, असंजुस, त सुद्धणय । धातुसंज्ञ---पास दर्शने, बंध बंधने, जाण अवबोधने । प्रकृतिवाद यत्, आनन्, अबद्धस्पष्ट, अनन्यक, नियत, अविशेष, रहित (अविशेष) विशेषरहित (संयुक्त) अन्यसे संयोगरहित—ऐसे पांच भावरूप (पश्यति) अवलोकन करता है (तं) उसे (शुद्धनयं) शुद्धनय (विजानीहि) जानो। तात्पर्य --सहजसिद्ध केवल अन्तस्तत्त्वका अवलोकनहार ज्ञान शुद्धनय (नयपक्षसे दूर) -." टीकार्थ--निश्चयसे जो प्रबद्ध, अस्पृष्ट, अनन्य, नियत, प्रविशेष, प्रसंयुक्त---मात्मा का अनुभव है वह शुद्धनय है । और वह अनुभूति निश्चयसे प्रात्मा ही है । ऐसा प्रात्म। ही एक प्रकाशमान है अर्थात शुद्धनय, प्रात्माकी अनुभूति या प्रात्मा इन सबका एक ही अभिप्राय है । यहाँ शिष्य पूछता है कि आपने जैसा कहा है, वैसे प्रात्माको अनुभूति कैसे हो सकती है ? इसका समाधान--जो बद्धस्पृष्टत्व आदि पाच भाव हैं उनमें प्रभूतार्थता है, असत्यार्थता है, इसलिये शुद्धनयात्मक ही प्रात्माकी अनुभूति है। इसी बातको दृष्टान्तसे प्रकट करते हैं-- जैसे कमलिनीका पत्र जलमें डूबा हुमा है उसका अल-स्पर्शनरूप अवस्थासे अनुभव किये जाने पर जल-स्पर्शरूप दशा भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी वास्तव में जलके स्पर्शनयोग्य नहीं, ऐसे कलिनीपत्रस्वभावको लेकर अनुभव किये जानेपर जल-स्पर्शरूप दशा अभूतार्थ है, मसत्यार्थ है । उसी तरह प्रात्माके अनादि पुद्गलकमसे बद्धस्पृष्टत्वरूप अवस्थासे अनुभव किये जानेपर बस्पृष्टत्व भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी वास्तवमें जो पुद्गलके स्पर्श योग्य नहीं, ऐसे प्रात्मस्वभावको लेकर अनुभव किये जानेपर बद्धस्पृष्टत्व असत्यार्थ है । और जैसे मिट्टीका कुण्डो, घट, कलश, खप्पर आदि पर्यायभेदोंका अनुभव करनेपर अन्यत्व सत्यार्थ है तो भी सब पर्यायों Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ समयसार तायामभूतार्थं । तथात्मनोनादिबद्धस्पृष्टत्वययिणानुमततायत्वं भूतार्थमप्येकांततः पुद्गलास्पृश्यमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च मृत्तिकायाः करककरीरकर्क - कपालादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलंतमेकं मृत्तिकास्वभावमुपे - स्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । तथात्मनो नारकादिपर्यायेणानुभूयमानतायामन्यत्वं भूतार्थमपि सर्वतोप्यस्खलनमेकमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थं । यथा च वारिधेर्वृद्धिहानिपर्यायेखानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्थमपि नित्यव्यवस्थितं वारिधिस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामअसंयुक्त तत्, शुद्धाय । मूलधातु-दृशिर् अवलोकने, णीञ् प्रापणे । पदविवरण- यः प्रथमा एकवचन के भेदरूप नहीं होते हुए एक मिट्टी के स्वभावका अनुभव करनेपर यह पर्यायभेद प्रभूतार्थ है, . असत्यार्थ है । उसी तरह आत्माको नारक आदि पर्यायभेदोंके रूपमें अनुभवनेपर पर्यायोंका अन्यत्व सत्यार्थ है, तो भी सब पर्यायभेदोंमें ग्रचल एक चैतन्याकार आत्मस्वभाव को लेकर अनुभव करनेवर अन्यत्व अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । जैसे समुद्रको वृद्धि हानि श्रवस्थारूप अनुभव करनेसे नियतता भूतार्थ है तो भो नित्य स्थिर समुद्रस्वभावको अनुभवनेपर अनियतता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसी तरह ग्रात्माका वृद्धि हानि पर्यायभेदोंरूप अनुभव करनेपर श्रनियतता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी नित्य व्यवस्थित निश्चल ग्रात्मा के स्वभावका अनुभव करनेपर अनियतता अभूतार्थं है, असत्यार्थ है । जैसे सुवर्णका चिकना, भारी और पीला आदि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता सत्यार्थ है तो भी जिसमें सब विशेष विलय हो गये हैं, ऐसे सुवर्णस्वभावको लेकर अनुभव करनेसे विशेषता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसी तरह श्रात्माका ज्ञान, दर्शन यादि गुणरूप भेदोंसे अनुभव करनेपर विशेषता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी जिसमें सब विशेष विलय हो गये हैं, ऐसे चैतन्यमात्र प्रात्मस्वभाव को लेकर अनुभव करनेपर विशेषता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । जैसे श्रग्निके निमित्तसे उत्पन्न उष्णता से मिले हुए जलकी तप्तरूप अवस्थाका अनुभव करनेपर जलमें उष्णताको संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी वास्तव में शीतल स्वभावको लेकर जलका अनुभव करनेपर उष्णताकी संयुक्तता अभूतार्थ है, असत्यार्थ है । उसी तरह कर्म निमित्तक मोहसंयुक्ततारूप अवस्था द्वारा श्रात्मा का अनुभव करनेपर संयुक्तता भूतार्थ है, सत्यार्थ है तो भी वास्तव में आत्मबोधका बीजरूप चैतन्यस्वभाव को लेकर अनुभव करनेपर मोहसंयुक्तता प्रभूतार्थ है, असत्यार्थ है । भावार्थ - श्रात्मा पाँच तरहसे अनेक रूप दीखता है - ( १ ) श्रनादिकालसे कर्म पुगलके सम्बन्धसे बंधा हुआ व कर्मपुदगल से स्पर्श वाला दीखता है । ( २ ) वह कर्मके निमित्तसे हुए नर नारकादिपर्यायोंमें भिन्न-भिन्न स्वरूप दीखता है । ( ३ ) शक्तिके प्रविभागप्रतिच्छेद Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ४५ भूतार्थी तथात्मनो वृद्धिहान पर्यायणानुभूयमानतायामनियतत्वं भूतार्शमपि नित्यव्यवस्थितमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ । यथा च कांचनस्य स्निग्धपीतगुरुत्वादिपर्यायणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्तविशेष कांचनस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायाम. भूतार्थी तथात्मनो ज्ञानदर्शनादिपर्यायेणानुभूयमानतायां विशेषत्वं भूतार्थमपि प्रत्यस्तमितसमस्त. विशेषमात्मस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायमभूतार्थ । यथा चापां सप्ताचि:प्रत्ययोऽण्यसमाहितत्वकर्ताकारक, पश्यति-लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन, आत्मान-द्वितीया एक० कर्मकारक, अबद्धरपुष्टं(अंश) घटते भी हैं, बढ़ते भी हैं, यह वस्तुका स्वभाव है, इसलिए वह नित्य नियत एकरूप नहीं दीखता । (४) वह दर्शन ज्ञान प्रादि अनेक गुणोंसे विशेषरूप दीखता है। (५) वह कर्म के निमित्तसे उत्पन्न हुए मोह रागद्वेषादिक परिणामसहित सुख दुःख स्वरूप दीखता है । यह सब प्रशुद्ध द्रव्यार्थिकरूप व्यवहारनयका विषय है। उस दृष्टि से देखा जाय तो यह सब ही सत्यार्थ है, परन्तु प्रात्माका एकस्वभाव नयसे ग्रहण नहीं होता और एकस्वभावके जाने बिना यथार्थ प्रात्माको कोई कैसे जान सके, इस कारण दूसरे नयको--इसके प्रतिपक्षी शुद्ध द्रव्याथिकको ग्रहण कर एक असाधारण ज्ञायकमात्र आत्माका भाव लेकर शुद्धनयकी दृष्टि से सब परद्रव्योंसे भिन्न, सब पर्यायोंमें एकाकार, हानि-वृद्धिसे रहित, विशेषोंसे रहित, नैमित्तिक भावोंसे रहित देखा जाय तब सभी (पाँच) भावों द्वारा अनेकरूपता है वह अभूतार्थ है, प्रसत्यार्थ है । यहाँ ऐसा जानना कि वस्तुका स्वरूप जो अनन्तधर्मात्मक है, वह स्याद्वादसे यथार्थ सिद्ध होता है । प्रात्मा भी अनन्तधर्मा है, उसके कितने ही धर्म तो स्वाभाविक हैं और कितने ही पुद्गलके संयोगसे उत्पन्न हैं । जो कर्मके संयोगसे होते हैं, उनसे तो आत्माके संसारकी प्रवृत्ति होती है, और तत्सम्बन्धी सुख-दुःखादिक होते हैं उनको यह भोगता है । इस प्रात्माके अनादि अज्ञानसे पर्यायबुद्धि है, अनादि अनन्त एक प्रात्माका ज्ञान नहीं है । उसको बतलाने वाला सर्वज्ञका नागम है । उसमें शुद्ध द्रव्याथिकन प्रसे यह बतलाया गया है कि अात्माका एक असाधारण चैतन्यभाव है-जो कि प्रखंड है, नित्य है, अनादिनिधन है । इसीके जाननेसे पर्यायबुद्धिका पक्षपात मिट जाता है । परद्रव्योंसे तथा उनके भावोंसे अथवा उनके निमित्तसे हुए अपने विभावोंसे पृथक् अपने प्रात्माको जानकर इसका अनुभव करें, तब परद्रव्यके भाव. स्वरूप परिणमन नहीं होता । उस समय कर्म नहीं बंध से तथा संसारसे निवृत्ति हो जाती है । इसलिए पर्यायाथिकरूप व्यवहारनयको गौण करके अभूतार्थ (प्रसत्यार्थ) कहकर, शुद्धनिश्चयनयको सत्यार्थ कहकर पालम्बन दिया है । वस्तुस्वरूपकी प्राप्ति होने के बाद उसका भी प्राल. बन नहीं रहता । इस कथनसे ऐसा नहीं समझ लेना कि शुद्धनयको जो सत्यार्थ कहा है, इस Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ समयसार पर्यायणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः शीतमास्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थ तथात्मनः कर्मप्रत्ययमोहसमाहितत्यपर्यायणानुभूयमानतायां संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः स्वयंबोधबीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम् ॥१४॥ द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण, अनन्यक-द्वि० ए० कर्मविशेषण, नियतं-द्वि० ए० कर्मविशेषण, अविशेषकारण अशुद्धनय सर्वथा असत्यार्थ ही है। ऐसा माननेसे वे एकांत मत वाले जो कि संसारकोसर्वथा अवस्तु मानते हैं उनका सर्वथा एकान्त पक्ष प्रा जायगा, तब मिथ्यात्व प्रा जायगा - और उस समय इस शुद्धनयका भी पालम्बन उन एकांतियोंकी तरह मिथ्यादर्शन हो जायगा। इसलिए सभी नयोंका कथंचित् रीतिसे श्रद्धान करनेपर सम्यग्दर्शन होता है। इस प्रकार स्या. द्वादको समझकर जिनमतका सेवन करना; मुख्य गोण कथन सुनकर सर्वथा एकांत पक्ष न पकड़ लेना । इसी प्रकार इस गाथासूत्रका व्याख्यान टीकाकारने किया है कि प्रात्मा व्यवहार. नयको दृष्टिमें जो बद्धस्पृष्ट प्रादि रूप दिखता है, यह इस दृष्टि में तो सत्यार्थ ही है, परंतु शुद्धनयकी दृष्टि में बद्धस्पृष्ट आदि रूप असत्यार्थ है । इस कथन में स्याद्वाद बतलाया गया है, उसे जानना । जो ये नय हैं वे श्रुतज्ञान प्रमाणके अंश हैं । वह श्रुतशान वस्तुको परोक्ष बतलाता है सो ये नय भी परोक्ष ही बतलाते हैं : शुद्ध दाहालका विषय बद्धस्पृष्टत्वादि पांच भावोंसे रहित प्रात्मा चैतन्यशक्तिमात्र है, वह शक्ति तो परोक्ष प्रात्मामें है ही और उसकी घ्यक्तियां कर्मसंयोगसे मति, श्रुत प्रादि ज्ञानरूप हैं, वे कथंचित् अनुभवगोचर हैं सो वे प्रत्यक्ष रूप भी कहलाती हैं तथा सम्पूर्ण ज्ञान केवलज्ञान यद्यपि छमस्यके (अल्पज्ञानीके) प्रत्यक्ष नहीं है तो भी यह शुद्धनय प्रात्माके केवलज्ञानरूपको परोक्ष बतलाता है। जब तक जीव इस नय को नहीं जानता तब तक प्रात्माके पूर्ण रूपका ज्ञान श्रद्धान नहीं होता । इसलिए श्रीगुरुने इस शुद्धनयको प्रकट कर दिखलाया है कि बद्धस्पृष्टत्व प्रादि पांच भाथोंसे रहित पूर्ण ज्ञानघनस्वभाव पात्माको जानकर श्रद्धान करना, पर्यायबुद्धि नहीं करना । यहाँ इस शुद्धनयको मुख्य करके कलशरूप काव्य "न हि विवधति" इत्यादि कहते हैं। प्रर्थ - टीकाकार यहाँ उपदेश करते हैं कि दुम उस सम्यकस्वभावका अनुभव करो जिसमें ये बद्धस्पृष्ट आदि भार प्रकटपनेसे इस स्वभावके ऊपर तरते हैं तो भी प्रतिष्ठा नहीं पाते । क्योंकि द्रव्यस्वभाव नित्य है, एकरूप है और ये भाव प्रनित्य हैं, अनेकरूप हैं । पर्याय द्रव्यस्वभाव में प्रवेश नहीं करता है, वह ऊपर हो रहता है। यह शुद्धस्वभाव सब अवस्थामोंमें प्रकाशमान है । ऐसे स्वभावका मोहरहित होकर अनुभव करो, क्योंकि मोहकर्मके उदयसे उत्पन्न मिथ्यास्वरूप प्रशान जब तक रहता है तब तक यह अनुभव यथार्थ नहीं होता । अतः Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमो स्फुटमुपरि तरंतोप्येत्य यत्र प्रतिष्ठा । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंतात् जगदपगतमोहीभूय सम्यकस्वभाव ।।११।। भूतं भांतमभूतमेव रभसान्निभिद्य बंध सुधी. यद्युतः किल कोप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । प्रात्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तीयमास्ते न वं नित्य कर्मकलंक पंपिकालो देवः (वयं ६५६. ।।१२।। द्वितीया एक कर्मविशेषण, असंयुक्त -द्वि० ए० कर्मविशेषण, तं-द्वि० ए०, शुद्धनयं--द्वितीया एक०, विजाशुद्धनयके विषयरूप प्रात्माका अनुभव करो, यह उपदेश है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य "भूतं" इत्यादि कहते हैं। प्रर्श--यदि कोई सुबुद्धि सम्यग्दृष्टि भूत (पहले हुग्रा), भांत (वर्तमान) और प्रभूत (पागामी होने वाला) ऐसे तीनों कालके कर्मोके बंधको अपने प्रात्मासे तत्काल पृथक् करके तथा उस कर्मके उदय के निमित्तसे उत्पन्न हुए मिथ्यात्वरूप प्रज्ञानको अपने बल (पुरुषार्थ) से पृथक कर अन्तरंगमें अभ्यास करे तो देखता है कि यह प्रात्मा, अपने अनुभवसे हो जानने योग्य प्रगट महिमामय, व्यक्त, अनुभवगोचर, निश्चल, शाश्वत (नित्य) और कर्म-कलंक कर्दमसे रहित स्वयं स्तुति करने योग्य देव विराजमान हो रहा है । भावार्थ-शुद्धन यकी दृष्टि से देखा जाय तो सब कर्मों से रहित चैतन्यमात्र देव अविनाशी प्रात्मा अन्तरंगमें स्वयं विराजमान है । पर्यायबुद्धि बहिरात्मा इसको बाहर ढूंढ़ता है सो बड़ा प्रशान है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व यह कहा जा रहा था कि शुद्धनय अथवा भूतार्थनयसे मात्मतत्वका ज्ञान सम्यवत्वको सम्पादित करता है सो यहाँ उसी शुद्धनयका विवरण दिया गया है । तथ्यनकाश---(१) प्रात्मस्वभाव न किसी पदार्थसे बंधा हुप्रा है और न किसी पदार्थ से छुमा हुमा है । (२) प्रात्मस्वभाव नर नारक तिर्यच आदि किसी भी प्राकार पर्यायरूप नहीं है । (३) प्रात्मस्वभाव नित्य चैतन्यरूप व्यवस्थित है। (४) अात्मस्वभाव गुणभेदसे भी परे प्रखण्ड चिन्मात्र है.। (५) प्रात्मस्वभाव प्रविकार है। सिद्धान्त--(१) पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे पृथक् सत् होने के कारण प्रात्मा वस्तुत: प्रबद्ध व अस्पृष्ट है । (२) प्रात्मा परमभावस्वरूप होनेसे स्वतः निराकार है। (३) प्रात्मा शाश्वत चिन्मात्र है । (४) प्रात्म। गुणपर्यायस्वभावसे अभिन्न है। (५) प्रात्मा स्वयं विकार रूप परिणमनेका निमित्त न हो सकनेसे स्वरूपतः अविकार है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ समयसार प्रात्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुवा । प्रात्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्र कंपमेकोस्ति नित्यमबबोधघनः समंतात् ।।१३।। नीहि-वि-जानीहि-लोट् आज्ञार्थ मध्यम पुरुष एकवचन ॥१४॥ दृष्टि--१- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६): २-परमभावग्राहक द्रव्यार्थिवनय (३०) । ३-- उत्पादव्ययगौणसत्ताग्राहक द्रव्याथिकनय (२२)। ४- भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२३) । ५-- उपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१)। प्रयोग - उपाधिका निमित्त पाकर होने वाले विभावोंसे पृथक तथा प्रतिबोधके लिये किये जाने वाले भेदविकल्पोंसे परे शुद्ध शायकस्वभावमय प्रात्माकी शुद्धनयके प्रालम्बनसे उपासना करना चाहिये ।।१४॥ __ शुद्धनपके विषयभत प्रात्माकी जो अनुभति है, वही ज्ञानको अनभात है, ऐसा मागे को गाथाको उत्थानिकारूप काव्य कहते हैं 'प्रात्मानुभूति' इत्यादि । अर्थ—इस प्रकार जो पूर्वकथित शुद्धनय स्वरूप प्रात्माजी अनुभूति है, वही इस सालो अनुभूति है, ऐसा अच्छी तरह जानकर तथा आत्मामें आत्माको निश्चल स्थापित करके सदा सब तरफ ज्ञानघन एक प्रात्या ही है, इस प्रकार देखना चाहिये । भावार्थ-पहिले सम्यग्दर्शनको प्रधान मानकर आत्मतत्त्व कहा गया था, अब ज्ञानको मुख्य करके कहते हैं कि यह शुद्धनयके विषयस्वरूप आत्माकी अनुभूति है वही सम्यग्ज्ञान है । अब इसीको गायासे स्पष्ट करते हैं (यः) जो (प्रात्मानं) प्रात्माको (प्रबद्धस्पृष्टं) प्रबद्धस्पृष्ट (अनन्यं) अनन्य (अविशेष) अविशेष तथा पूर्वगाथामें कथित नियत और असंयुक्त (पश्यति) देखता है वह (अपदेशसूत्रमध्य) द्रव्यश्रुत और भावश्रुत रूप अथवा शब्दसमयसे वाच्य व ज्ञानसमयसे परिच्छेद्य (सर्व जिनशासन) समस्त जिनशासनको (पश्यत्ति) देखता है । तात्पर्य-जिनशासनका उद्देश्य सहज सिद्ध केवल अन्तस्तत्वको प्रसिद्ध करना है। टीकार्थ-प्रबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त--ऐसे पाँच भावरूप आत्माको जो यह अनुभूति है, वही निश्चयसे समस्त जिनशासनको अनुभूति है। क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं प्रात्मा ही है, इसलिये जो यह ज्ञानको अनुभूति है बही प्रात्माको अनुभूति है । किन्तु सामान्यज्ञानाकार तो प्रकट होने और विशेष ज्ञेयाकार ज्ञानके आच्छादित होनेसे इस विधिसे ज्ञानमात्र ही अनुभवमें आनेपर भी जो अज्ञानी है व ज्ञेयों (पदार्थों) में प्रासक्त हैं, उनको वह नहीं रुचता । वह इस प्रकार है-जैसे अज्ञानी व्यञ्जनलोभी लोकोंको अनेक तरहके शाक प्रादि भोजनोंके सम्बन्धसे उत्पन्न सामान्य लवएका तिरोभाव (प्रप्रकटता) तथा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૨ पूर्व रंग जो परसदियां बद्धपुठ्ठे श्रारणमविसेसं । पदेससुत्तमज्यं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥ १५॥ जो लखता अपनेको, श्रबद्ध प्रस्पृष्ट अनन्य विशेष । मध्यान्त आदि अपगत, वह लघुता सर्व जिनशासन ||१५|| यः पश्यति आत्मानं अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम् । अपदेशसूत्रमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम् ॥१५॥ स्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्यासंयुक्तस्य चात्मनोनुभूतिः सा खल्वखिलस्य जिनशासनस्यानुगतः श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात्ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः, किन्तु तदानीं सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदने । तथाहि नामसंज्ञ – ज, अप्प, अबद्धपुट्ट, अण्ण, अविसेस, अपदेसमुत्तमज्भु, जिणसासण, सव्व । धातुसंज्ञ पास दर्शने, सास शासने । प्रकृतिशब्द-यत्. आत्मन्, अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, अविशेष, अपदेशसूत्रमध्य, जिनविशेष व्यञ्जनमिश्रितका श्राविर्भाव ( प्रकटता ) रूपसे आ रहा लवण स्वादमें आता है । परन्तु अन्य के संयोग से उत्पन्न सामान्यके श्राविर्भाव तथा विशेष के तिरोभावसे एकाकार प्रभेदरूप लवका स्वाद नहीं श्राता । श्रौर जब परमार्थसे देखा जाय तब जो विशेषके भाविर्भाव से अनुभव में श्राया क्षार रसरूप लवण है, वही सामान्यके श्राविर्भाव से अनुभव में आया हुआ क्षार रसरूप लवर है । उसी तरह प्रबुद्ध ज्ञेयलुब्धोंको प्रनेकाकार ज्ञेयोंके ग्राकारोंकी मिश्रतासे जिसमें सामान्य का तिरोभाव और विशेषका घाविर्भाव ऐसे भावसे अनुभव में आ रहा ज्ञान विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप स्वादमें श्राता है, परन्तु ग्रन्य ज्ञेयाकारके संयोगसे रहित सामान्यका प्राविर्भाव और विशेषका तिरोभाव ऐसा एकाकार प्रभेदरूप ज्ञानमात्र अनुभवमें प्राता हुआ स्वादमें नहीं श्राता । और परमार्थसे विचारा जाय तब जो विशेष के प्राविर्भावसे ज्ञान अनुभव में आता है, वही सामान्यके श्राविर्भाव से ज्ञानियोंके और ज्ञेयमें अनासक्तों के अनुभवमें श्राता है । जैसे लवकी डली अन्य द्रव्योंके संयोगके प्रभावसे केवल लवणमात्र धनुभव किये जानेपर एक लवण रस सर्वतः क्षाररूपसे स्वादमें आता है, उसी तरह आत्मा भी परद्रव्यों के संयोग से भिन्न केवल एक भावसे अनुभव किये जानेपर सब तरफसे एक विज्ञानघन रूप होने के कारण ज्ञानरूपसे स्वाद में प्राता है । भावार्थ - यहाँ ज्ञानको अनुभूतिको श्रात्मानुभूति कहा गया है। अज्ञानी जन इन्द्रियज्ञानके विषयों में ही लुब्ध हो रहे हैं, अतः विविध ज्ञेयोंके प्रतिफलन से अनेकाकार हुए ज्ञानका ही शेयों में प्राकर्षित होते हुए प्रास्वादन करते हैं, ज्ञेयोंसे भिन्न सामान्य ज्ञानमात्रका आस्वाद नहीं लेते। और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयोंमें प्रासक्त नहीं हैं, वे ज्ञेयोंसे भिन्न एकाकार ज्ञानको ही Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार यथा विचित्रव्यंजनसंयोगोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं लवणं लोकानामबुद्धानां व्यंजनलुब्धानां स्वदते न पुनरभ्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्यातिर्भावेनापि । तथा विचित्रशेयाकारकरंबितत्वोपजातसामान्य विशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं ज्ञानमबद्धानां ज्ञेयलुब्धानां स्वदते न पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यां । अथ च यदेव विशेषाविर्भावनानुभूयमानं ज्ञानं तदेव सामान्याविर्भावनाप्यलुब्धबुद्धानां । यथा संघवखि. शासन, सर्व । मूलधातु---दृशिर् दर्शने, बधि बन्धने, स्पुश स्पर्शने । पदविवरण - यः-पुल्लिग प्रथमा एक० कर्ताकारक, पश्यति--लट् वर्तमान अन्य पुरुष एकवचन, आत्मान-द्वितीया विभक्ति एकवचन कर्मकारक, आस्वाद लेते हैं, जैसे कि व्यजनों (भोजनों) से जुदी सिर्फ लवणकी डलीका प्रास्वाद लेनेसे क्षारमात्र स्वाद जिस भांति प्राता है, उसी भाँति ग्रास्वाद लेते हैं। चूंकि ज्ञान है, वही आत्मा है और आत्मा है वही ज्ञान है, सो इस तरह गुणगुणीको अभेददृष्टि में पाया हुप्रा जो सब परद्रव्योंसे भिन्न, अपने सहज पर्यायोंमें एकरूप, निश्चल, अपने गुणों में एकरूप, पर निमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने ज्ञानका जो अनुभव है वही आत्मानुभव है। यही अनुभव भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभव है । शुद्धनयसे इसमें कुछ भेद नहीं है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं----'अखंडित' इत्यादि । अर्थ-वह उत्कृष्ट तेज प्रकाशरूप हमें होवे, जो सदा काल चैतन्यके परिणमनसे भरा हुआ है । जैसे लवणकी इली एक क्षाररसकी लीसाका आलम्बन करती है, उसी भाँति जो तेज एक ज्ञानरसस्वरूपको पालम्बन करता है । जो कि तेज अखंडित है--- याने शेयोंके आकारसे खंडित नहीं होता; अना. कुल है अर्थात् जिसमें कर्मके निमित्तसे हुए रागादिकोंसे उत्पन्न प्राकुलता नहीं है; अविनाशी है; जो अंतरंगमें तो चैतन्यभावसे देदीप्यमान अनुभव में प्राता है और बाह्यमें वचनकायको क्रियासे प्रकट देदीप्यमान है, जो सदा सहज अानन्दविलासमय है, जिसे किसीने रचा नहीं है और सदैव जिसका बिलास उदयरूप है; एकरूप प्रतिभासमान है, ऐसा चैतन्यतेज हमारे उपयोगमें रहे। प्रसंगविवरण-...अनन्तरपूर्व यह कहा गया था कि शुद्धनयालिमका जो ज्ञानानुभूति है वही मास्मानुभूति है, अब उसीके समर्थन में कहते हैं कि जो ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रात्माको देखता है वह भावश्रुतज्ञानरूप सर्व जिनशासनको देखता है अर्थात् द्रव्यश्रुतके द्वारा वाच्य व भावश्रुत के द्वारा ज्ञेय जैनशासन के निष्कर्षरूप प्रादिमध्यान्तरहित समयसारको देखता है । तथ्यप्रकाश--(१) जिनशासन भावच नरूप है, भावभु तज्ञानरूप है, ज्ञानको अनुमति प्रात्मानुभूति है, अत: प्रात्मदर्शन सर्वजिनशासनका दर्शन है । (२) सर्वत्र जीव ज्ञानका ही Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ५१ स्योन्यद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोप्येकलवरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदसे तथात्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानखेन स्वदते ||१५|| अखंडितमनाकुलं ज्वलदनं तमंतर्बहिः परममस्तु नः सहजमुद्विलासं सदा । चिदुच्छलनिर्भर सकलकालमालंबते यदेकरसमुल्लसल्लवर्णा खित्यलीलायितं ॥ १४ ॥ एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिनभीप्सुभिः साध्यशन कमायेन द्विषैकः प्रमुपास्यतां ॥ १५ ॥ अस्पृष्ट- द्वितीया एक कर्मविशेषण, अनन्यं द्वितीया एक कर्मविशेषण, अविशेष- द्वितीया एक० कर्मविशेषण अपदेश सूत्रमध्यं द्वितीया एक०, द्वितीय क्रियाके कर्मका विशेषण, पश्यति लट् वर्तमान अन्य पुरुष एक०, जिनशासनं द्वितीया एक कर्मकारक ||१५|| स्वाद लेता है, परन्तु इस तथ्यका अज्ञान होनेसे परज्ञेयमें प्रासक्त होकर, लुब्ध होकर मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञेयाभिमुखरूपसे ज्ञानको स्वादता है, ज्ञानाभिमुखरूपसे ज्ञानको नहीं स्वादता । (३) जैसे नमकीन पकोड़ी खाने वाला नमकका स्वाद ले रहा है, परन्तु प्रबुद्ध जन पकोड़ीका श्रासक्त होकर पकोड़ीका ही स्वाद मानता हुआ नमकको स्वादता है, नमकका स्वाद मानता नमकको नहीं स्वादता है । (४) कोई केवल नमककी डलोको ही स्वादे तो वहाँ भ्रमको गुंजाइश नहीं, मात्र नमकका ही स्वाद अनुभवा जाता है ऐसे ही कोई केवल ज्ञानस्वरूपको ही जाने अनुभवे तो वहां भ्रमकी गुंजाइश नहीं, मात्र ज्ञानका ही स्वाद अनुभवा जाता है । सिद्धांत - (१) आत्मा ज्ञानस्वरूप है वह जाननका ही कर्ता है चाहे विकल्परूप जानन का कर्ता रहे, चाहे विकार जाननका कर्ता रहे । (२) अविकार मात्र ज्ञाता समयसारका द्रष्टा है । दृष्टि - १ - कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहारनय (७३) । २- शुद्धनय ( ४९ ) । प्रयोग - स्वाद तो सदा ज्ञानका ही लिया जा रहा, किन्तु परपदार्थों में, विषयों में सुख पानेका भ्रम होनेसे ज्ञेयोंकी प्रोर ही झुककर ज्ञानका स्वाद लिया जा रहा है अर्थात् ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका स्वाद लिया जा रहा है यह प्रक्रिया अनर्थकारी है । अतः इस तथ्यको जानकर सर्व परज्ञेयोंकी उपेक्षा करके अथवा परका ख्याल छोड़ करके मात्र ज्ञानस्वरूपका ज्ञान रखकर केवल ज्ञानका ही स्वाद लो ||१५|| अब अगली गाथाकी उत्थानिकारूप "एष ज्ञान" इत्यादि श्लोक कहते हैं । अर्थ-पूर्वकथित ज्ञानस्वरूप जो नित्य श्रात्मा है उसकी सिद्धिके इच्छुक पुरुषोंके द्वारा साध्य साधक भावके भेदसे दो तरह का होनेपर भी एकरूप ही सेवनीय है, उसे सेवन करो अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र साधक भाव है यही गाथामें कहते हैं 577-39 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ..-.... समयसार दसणणाणचरित्तागि सेविदव्वाणि साहणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिरिणवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो ॥१६॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, पालो सेयो सदा हि साधुजनो। किन्तु तीनों हि समझो, निश्चयसे एक प्रात्मा ही ॥१६॥ दर्शनज्ञानचरित्राणि सेवितव्यानि साधुना नित्यं । तानि पुनर्जानीहि श्रीण्यप्यात्मानमेव निश्चयतः ॥१६।। येनैव हि भावेमात्मा साध्यः साधनं च स्यात्तेनैवायं नित्यमुपास्य इति स्वयमाकूय परेषां व्यवहारेरण साधुना दर्शनज्ञानचारित्राणि नित्यमुपास्यानीति प्रतिपाद्यते । तानि पुनस्त्रीण्यपि परमार्थेनात्मक एव वस्त्वंतराभावाद् यथा देवदत्तस्य कस्यचिद् ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं च नामसंज्ञ--दसणणाणचरित्त, सेविदब्ब, साहु, णिच्चं, त, पुण, ति, वि, अप्प, चेव, णिच्छयदो। धातुसंज्ञ-सेव सेवायां, साह साधने नृतीयगणी, जाण अवबोधने । प्रकृतिशब्द -- दर्शनशानचरित्र, सेवितव्य, __ [साधुना] साधु पुरुषोंको [दर्शनज्ञानचरित्रारिण] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [नित्यं] निरन्तर [सेवितव्यानि] सेवन करने योग्य हैं [पुनः] और [तानि त्रीणि अपि] उन तीनोंको ही [निश्चयतः] निश्चयनयसे [प्रात्मानं एवं] एक आत्मा ही [जानीहि] जानो। तात्पर्य-अनुरूप भेदोपासना व अभेदोपासन से अपने प्रात्माकी सेवा करनी चाहिये । टोकार्थ--यह प्रात्मा जिस भावसे साध्य तथा साधन हो उसी भावसे नित्य सेवने योग्य है, ऐसा स्वयं विचार करके, दूसरोंके लिए व्यवहारनयसे ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि साधु पुरुषोंको दर्शन, ज्ञान, चारित्र सदा सेवने योग्य हैं, किन्तु परमार्थसे देखा जाय, तो ये तीनों एक आत्मा हो हैं, क्योंकि ये अन्य वस्तु नहीं हैं, आत्माके ही पर्याय हैं । जैसे किसी देवदत्त नामक पुरुषके ज्ञान, श्रद्धान और आचरण हैं, वे उसके स्वभावको उल्लंघन नहीं करते, इसलिए वे देवदत्त पुरुष ही हैं, अन्य वस्तु नहीं हैं, उसी प्रकार प्रात्मामें भी प्रात्माके ज्ञान, श्रद्धान और प्राचरण पात्माके स्वभावको नहीं उल्लंघन करते, इस कारण ये आत्मा ही हैं, अन्य वस्तु नहीं हैं । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है, यह अपने आप ही प्रसिद्ध होता है । भावार्थ--दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों प्रात्माके ही पर्याय हैं, कुछ जुदी वस्तु नहीं हैं, इसलिये साधु पुरुषोंको एक प्रात्माका ही सेवन करना चाहिये, यह निश्चय है भौर व्यवहारसे अन्यको भी सव्यवहार निश्चयका उपदेश करना चाहिये । अब इसी अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं--"वशंन" इत्यादि । अर्थ---यह आत्मा प्रमारणदृष्टिसे देखा जाय तब एक कालमें मेचक याने अनेक अवस्थारूप भी है और प्रमेचक याने एक अवस्थारूप भी है। क्योंकि भेददृष्टिसे इसके दर्शन, ज्ञान, चारित्र ऐसी तीनरूपता है और Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग देवदत्तस्य स्वभावानतिक्रमाद्देवदत्त एव न वस्त्वंतरं । तथात्मन्ययात्मनो ज्ञानं श्रद्धानमनुचरणं चात्मस्वभावानतिक्रमादात्मैव न वस्त्वंतर, तत प्रात्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव साधु, नित्यं, तत्, पुनस्, त्रि, अपि, आत्मन्, च, एव, निश्चयतः । मूलधासु-शिर् दर्शने, ज्ञा अवबोधने, चर गत्यर्थः, साध संसिद्धी । पदविवरण-दर्शनज्ञानचरित्राणि-प्रथमा बहुवचन कर्मवाच्य में कर्म। सेवितव्यानि-प्रथमा बहुवचन, कृदन्त क्रिया । साधुना-तृतीया एक०, कर्मवाच्य में कर्ता। नित्य-अव्यय । तानिस्वयं परमार्थ एकरूप ही है । आगे कहते हैं-"दर्शन" इत्यादि । अर्थ---व्यवहारदृष्टि से देखा जाय तब प्रात्मा एक है तो भी तीन स्वभावरूप होनेसे अनेकाकार है; क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणमता है । भावार्थ---शुद्ध द्रव्याधिकनवसे प्रारमा एक है; इस नयको मुख्यतामें कहा जाय, तब पर्यायाथिकनय गौण हो जाता है । सो एकको तीनरूप परिणामता कहना यही व्यवहार हुप्रा, ऐसे व्यवहारनयसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र परिणाम होमेसे मात्माको मेचक कहा है । अब परमार्थनयसे कहते हैं 'परमार्थेन" इत्यादि । अर्थ-परमार्थदृष्टिसे देखा जाय तब प्रकट जायकज्योतिमात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि इसका शुद्ध द्रव्याथिकनयसे सभी अन्य द्रव्य के स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे हुए विभावोंको दूर करनेरूप स्वभाव है । अतः अमेचक है, अर्थात् शुद्ध एकाकार है । यहाँ प्रमाणनयसे मेचक अमेचक कहा सो इस चिन्ताको मेट जैसे साध्यको सिद्धि हो वैसे करना यह "प्रात्मनः" इस काव्यमें कहते हैं । मर्थ-यह प्रात्मा मेचक है, भेदरूप अने. काकार है तथा अमेचक है, अभेदरूप एकाकार है, ऐसी चिन्ताको छोड़ो । साध्य पात्माकी सिद्धि तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीनों भावोंसे ही होती है दूसरी तरह नहीं, यह नियम है। मावार्थ-प्रात्मस्वभावकी सिद्धि शुद्ध द्रध्याथिकनयसे होती है । ऐसा जो शुद्ध स्वभाव साध्य है, वह पर्यायाथिकस्वरूप व्यवहारनयसे ही साधा जाता है, इसलिये ऐसा कहा गया है कि भेदाभेदकी कथनीसे क्या, जिस तरह साध्यको सिद्धि हो बैसे करना । व्यवहारी जन भेद द्वारा ही तथ्य समझते हैं । इस कारण दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों परिणामरूप हो प्रात्मा है, इस तरह भेदको प्रधानतासे अभेदकी सिद्धि करनेके लिये कहा गया है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व जिस शुद्ध प्रात्माके दर्शनका आदेश था उसकी दृष्टि व उपासना किस प्रकार करना चाहिये, इस उत्सुकताको पूर्ति इस गाथासे हो जाती है । तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मा ही साध्य है और प्रात्मा ही साधन है अर्थात् शुद्धास्मोप. लब्धि साध्य है और शुद्धात्मानुवृत्ति साधन है । (२) निश्चयनयसे आत्मा सेवने योग्य है । (३) व्यवहारमयसे दर्शन, ज्ञान व चारित्र सेवने योग्य है । (४) परमार्थतः दर्शन, ज्ञान, Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ समयसार प्रद्योतते । स किलदर्शनज्ञान चारिस्त्रित्वादेकत्वतः स्वयं । मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमाणत: ॥१६॥ दर्शनज्ञान चारिस्त्रिभिः परिणतत्वतः । एकोपि त्रिस्वभावत्वाद् व्यवहारेए मेचकः ॥१७॥ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः । सर्वभावांतरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक: ॥१॥ प्रात्मनश्चितयवालं मेचकामेचकत्वयोः । दर्शनशानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥१६॥१६॥ द्वितीया बहु० कर्मकारक । पुनः--अव्यय । जानीहि-लोट् मध्यम एक० । श्रीणि-द्वितीया बहु० । अपिअव्यय । आत्मानं-द्वि० ए० । च-अव्यय । एव-अव्यय । निश्चयत्तः-हेत्वार्थे तस् अव्यय ॥१६॥ चारित्र यह सब एक पातमा ही है । (५) दर्शनशानचारित्ररूप परिणमता हुमा आत्मा वस्तुतः एक है, सो प्रात्मा मेचकामेचक है। (६) दर्शनज्ञान चारित्ररूप परिणत होनेसे प्रात्मा मेचक है । (७) ज्ञानज्योतिर्मात्र होनेसे प्रास्मा अमेत्रक है। (८) सहजात्मोपलब्धिका सुगम उपाय सम्यग्दर्शन, सभ्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप परिणमना है । सिद्धान्त--(१) वस्तुतः प्रात्मा ही साध्य है । प्रात्मा ही साधन है 1 (२) प्रात्मा मेचकामेचक है । (३) आत्मा मेचक है । (४) प्रात्मा अमेचक है। दृष्टि-१-कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २-प्रमाणसिद्ध । ३-सत्तासापेक्षनानात्मक पर्यायाधिक (६०)। ४-परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । प्रयोग-आत्माका परिचय करके, प्रात्मतत्त्वका श्रद्धान करके, प्रातमाके सानुभव ज्ञान द्वारा प्रात्मामें रमण करके सहज प्रानंदमय ज्ञायकभावरूप अपनेको अनुभवना चाहिये ॥१६॥ अब इसी रत्नत्रयको दो गाथानों में दृष्टान्त द्वारा व्यक्त करते हैं-[यथा नाम] जैसे [कोपि] कोई [अर्याथिकः पुरुषः] धन का चाहने वाला पुरुष [राजानं] राजाको [ज्ञात्वा] जानकर [श्रद्दधाति] श्रद्धान करता है [ततः] उसके बाद [२] उसको [प्रयत्नेन अनुचरति] अच्छी तरह सेवा करता है [एवं हि] इसी तरह [मोक्षकामेन] मोक्षको चाहने वाला [जीवराजः] जीवरूप राजाको [शातयः] जाने [पुनः च] और फिर [तथैव] उसी तरह [श्रद्धातभ्यः] श्रद्धान करे [तु च स एव] उसके बाद [अनुचरितव्यः] उसका अनुचरण करे अर्थात् तन्मय हो जाये । तात्पर्य--भेदोपासनाकी विधि प्रात्मतत्त्वका ज्ञान, श्रद्धान, आचरण है। टीकार्थ-निश्चयसे जैसे कोई धनको चाहने वाला पुरुष प्रयत्नसे पहले तो राजाको जानता है पश्चात् उसीका श्रद्धान करता है उसके पश्चात् उसीका सेवन करता है उसी तरह DOCUM M Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ पूर्व रंग जह गाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सदहदि । तो तं अणुचरदि पुणो यत्यत्वीय पयते ॥ १७॥ एवं हि जीवराया यादव्वो तह य सहदव्वो । रिव्वय पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण ॥१॥ (युगलम् ) ज्यों कोई पुरुष धनका, इच्छुक नृपको सु जानकर माने । सेवा भि करे उसकी उसके अनुकुल यत्नोंसे ॥१७॥ क्षति पुगणे, गुळात देशको सही जातो । मानो व भजो उसको, स्वभावसद्भाव यत्नोंसे ॥१८॥ यथा नाम कोपि पुरुषो राजानं ज्ञात्वा श्रद्दधाति । ततस्तमनुचरति पुनरर्थार्थिक प्रयत्नेन ||१ एवं हि जीवराजो ज्ञातव्यस्तथैव श्रद्धातव्यः | अमुचरितव्यरच पुनः न चैव तु मोक्षकामेन || १८ || rer fह freeyosisoर्थी प्रयत्नेन प्रथममेव राजानं जानोते ततस्तमेव श्रद्धत्ते तत स्तमेवानुचरति । तथात्मना मोक्षार्थिना प्रथममेवात्मा ज्ञातव्यः ततः स एव श्रद्धातव्यः ततः स एवानुचरितव्यश्च साध्यसिद्धेान्यथोपपत्यनुपपत्तिभ्यां । तत्र यदात्मनोनुभूयमानानेकभावसंकरेपि परमविवेक कौशलेनाय महमनुभूतिरित्यात्मज्ञानेन संगच्छमानमेव तथेतिप्रत्ययलक्षणं नामसंज्ञ-जह, णाम, क, वि, पुरिस, राय, तो त, पुणो, अत्थस्थि, पयत्त, एवं हि, जीवराय, तह, य, य, पुणो, त, चेव, दु, मोक्खकाम । धातुसंज -जाण अवबोधने, सद्-दह कारणे, अनुचर गतौ काम इच्छायां । प्रकृतिशब्द - यथा, नामन् किम् अपि पुरुष, राजन्, तत् तत् पुनर्, अर्थार्थिक प्रयत्न, एवं, मोक्षको चाहने वाला पहले तो आत्माको जाने, श्रनन्तर उसीका श्रद्धान करे उसके पश्चात् उसीका श्रनुचरण करे, क्योंकि निष्कर्म प्रवस्थारूप प्रभेद शुद्धस्वरूप साध्यकी इसी प्रकार उपपत्ति ( सिद्धि ) है अन्यथा श्रनुपपत्ति है । जिस समय आत्मा के अनुभवमें आये हुए अनेक पर्यायरूप भेदभावोंसे मिश्रितता होनेपर भी परम भेदज्ञानकी प्रवीणतासे जो यह अनुभूति है कि "यही मैं हूं" ऐसे श्रात्मज्ञानसे युक्त होता हुआ यह प्रात्मा जैसा जाना वैसा ही है, ऐसी प्रतीतिस्वरूप श्रद्धान प्रकट होता है उसी समय समस्त अन्य भावोंसे भेद होनेके कारण निःशंक ही ठहरने में समर्थ होनेसे उदीयमान हुआ आत्माका आचरण आत्माको साधता है । इस तरह तो साध्य श्रात्माकी सिद्धिको तथोपपत्ति प्रसिद्ध है । परन्तु जिस समय ऐसा अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा बाल गोपाल तक सदाकाल स्वयं ही अनुभव में आता भो अनादिबंध के वश से परद्रव्यों सहित एकत्वका निश्चय कर प्रशानी के "यह मैं हूं" ऐसा अनुभूतिरूप आत्मज्ञान नहीं प्रकट होता, उसके प्रभाव से अज्ञात गधेके सींग के समान श्रद्धानका भो उदय नहीं होता । उस Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार श्रद्धानमुत्प्लबते तदा समस्तभावान्तरविवेकेन निःशङ्कमेव स्यातुं शक्यत्वादात्मानुचरणमुत्प्लवमानमात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धेस्तथोपपत्तिः । यदात्वाबालगोपालमेव सकलकालमेव स्वयमेवानुभूयमानेपि अगवत्यनुभूत्यात्मन्यात्मन्यनापिबंधवशात् परैः सममेकत्वाध्यवसायेन विमूहस्यायमहमनुभूतिरित्यात्मज्ञानं नोप्लवते तदभावादज्ञातखरशृङ्गश्रद्धानसमानत्वाच्छ्यानमपि नोत्प्लवते तदा समस्तभावांतराविवेकेत निःशङ्कमेव स्थातुमशक्यत्वादात्मानुचाननुत्प्लवमानं नात्मानं साधयतीति साध्यसिद्धरत्यथानपपत्तिः । हि जीवराज, तथा, एब, च, पुनर, तत च, एव, तु, मोक्षकाम । मूलधातु-श्रत्-डधान धारणपोषगयोः। अनु-चर गत्यर्थः । ज्ञा अवबोधने । मुच प्रमोचने मोदे च । कमु कान्ती, कान्तिरिच्छा । पदविवरण-यथा-अव्यय । नाम-प्रथमा एक० । क:-प्र० एक० । अपि-अव्यय । पुरुषः-प्रथमा एक० कर्ताकारक । राजन-सीमा एक हजासमीकी क्रिया, श्रद्धाति-थत् दधाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष ए०। समय समस्त अन्य भावोंसे भेद न होनेके कारण निःशंक प्रात्मामें ही ठहरनेको असामर्थ्य से मात्माका अाचरण न होनाझप परिणमन आत्माको नहीं साध सकता। इस तरह साध्य प्रास्माकी सिद्धिकी अन्यथानुपपत्ति प्रसिद्ध है। भावार्थ-साध्य अात्माको सिद्धि दर्शनज्ञानचारित्रसे ही है, अन्य प्रकार नहीं है। क्योंकि पहले तो मात्माको जाने कि "यह मैं हूं" उसके अनन्तर , इसकी प्रतीतिरूप श्रद्धान होता है । बिना जाने श्रद्धान किसका हो ? फिर समस्त अन्य भावोंसे भेद करके अपने में स्थिर होवे ऐसे प्रात्माकी सिद्धि है । जब जानेगा नहीं तब श्रद्धान भी नहीं हो सकेगा । तब स्थिरता किसमें कर सकता है ? इसलिये दूसरी तरह सिद्धि नहीं है, ऐसा निश्चय है । अब इसीको दृढ़ करनेके लिये कलशरूप काव्य कहते हैं-"कथमपि" इत्यादि । पर्थ-किसी भी प्रकार तीनपनेको प्राक्ष होनेपर भी एकरूपतासे च्युत न हुई, निर्मल उदयको प्राप्त हुई, अनंत चैतन्य चिह्न वाली इस पात्मज्योतिको हम निरन्तर अनुभवते हैं, क्योंकि अन्य प्रकारसे साध्य पातमाको सिद्धि कभी नहीं होती किसी तरह नहीं होती। भावार्थ-- आचार्य कहते हैं कि जिसके किसी तरह पर्यायदृष्टिसे तीनपना प्राप्त है तो भी शुद्धद्रव्यदृष्टिसे एकरूपता नहीं छूटी है तथा अनन्त चैतन्यस्वरूप निर्मल उदयको प्राप्त है ऐसी प्रात्मज्योतिका हम निरन्तर अनुभव करते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तर पूर्व गाथामें कहा गया था कि व्यवहारसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र सेवनीय है, निश्चयसे प्रात्मा सेवनीय है उसी कथनका प्रेक्टिकल रूपमें यहाँ विवरण किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) मोक्षमार्ग पाने के लिये प्रथम प्रात्माका कुछ परिचय प्रावश्यक है। काewanaR -74 - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग कथमपि समुपात्तत्रित्वमप्यकताया अपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्दच्छम् ।। सततमनुभवामोऽनंतचतन्यचिह्न न खलु न खलु यस्मादन्यथा साध्यसिद्धिः ।।२०।।१७-१।। ननु ज्ञानतादात्म्यादात्मा ज्ञान नित्यमुपास्त एव कुतस्तदुपास्यत्वेनानुशास्यत इति चेत्तन, यतो न खल्वात्मा झानतादात्म्येषि क्षणमपि ज्ञानमुपास्ते स्वयंबुद्ध-बोधितबुद्धत्वकारणपूर्वकत्वेन ज्ञानस्योत्पत्तेः । तहि तत्कारणात्यूर्वमज्ञान एवात्मा, नित्यमेवाप्रतिबुद्धत्वादेवमेतत् । तहि कियंतं कालमयमप्रतिबुद्धो भवतीत्यभिधीयतां-- ततः हेत्वर्थ पंचम्यां तस्-अव्यय । तं-द्वितीया एक० , अनुचरति-अनु-घरति-अन्य पुरुष एक० क्रिया। पुन:-अव्यय । अर्थाथिक:-प्रथमा एक कर्तृ विशेषण । प्रयत्नेन-तृतीया एकः । एवं अध्यय । जीवराजःप्रथमा एक० कर्मवाच्यमें कर्म । ज्ञातव्य:-प्रथमा एक कृदन्त किया। तथा च-अव्यय । श्रदधातव्यःप्रथमा ए० कृदन्त क्रिया । अनुचरितव्य:-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। स:-प्रथमा एक० कर्मवाच्य में कर्म । तु-अव्यय । मोक्षकामेन-तृतीया एक०, कर्मवाच्य में कर्ता या कर्तृ विशेषण । (२) प्रात्मपरिचयके बाद आत्माका अनुभवपूर्वक श्रद्धान होता है। (३) सानुभव' श्रद्धानके साथ हो ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है । (४) प्रात्माका श्रद्धान ज्ञान होनेपर प्रात्माके अनुरूप माचरण होता है । (५) आत्माके श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणसे सहजपरमात्मतत्त्वकी सिद्धि होती है । (६) प्रात्माके श्रद्धान, ज्ञान, प्राचरणके न होनेपर सहजपरमात्मतत्त्व. द्धि कभी नहीं होतो। सिद्धान्त--(१) शुद्धात्मा निर्विकार स्वसंवेदनज्ञानसे ज्ञातव्य है । (२) सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान, सम्यक्चारित्रकी एकता मोक्षमार्ग है। दृष्टि--१-शुद्धनय (४६)। २- एवंभूतनय (४३) । प्रयोग-आत्माको व्यवहारनयसे (मुरणादिपरिचयसे) पहिचानकर सहजज्ञानानन्दस्वभाव शुद्ध मन्तस्तत्वका श्रद्धान कर निविकल्प स्वसंवेदन समाधिसे निरन्तर अनुभव करना ॥१७-१८॥ प्रश्न-प्रात्मा तो ज्ञानसे तादात्म्यस्वरूप है, जुदा नहीं है, इसलिये अात्मा ज्ञानका नित्य सेवन करता ही है, फिर ज्ञानकी ही उपासना करनेकी शिक्षा क्यों दी जाती है ? समाधान--यह कहना ठीक नहीं, यद्यपि प्रात्मा ज्ञानसे तादात्म्यरूप है तो भी यह एक क्षणमात्र भी ज्ञान की उपासना नहीं करता । इसके ज्ञानको उत्पत्ति स्वयं ही जाननेसे अथवा दूसरेके बतलानेसे होती है; क्योंकि या तो काललब्धि प्राये तब प्राप ही जान लेता है या कोई जनावे तब जान सकेगा । प्रश्न-यदि इस तरह है तो जाननेके कारण के पहले आत्मा अज्ञानी ही है, क्योंकि सदा ही इसके अप्रतिबुद्धपना है ? उत्तर--यह बात ऐसे ही है कि वह प्रशानी ही Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कम्मे गोकम्ममि य अहमिदि अहकं च कम्म णोकम्मं । जा एसा खलु बुद्धी अप्पडिबुद्धो हवदि ताव ॥१६॥ विधि विभाव देहोंमें, 'यह मैं मैं यह' की एकता जब तक । जिसको मतिमें रहती, अज्ञानी जीव है तब तक ॥१६॥ कर्मणि नोकर्मणि चाहमित्यहकं च कर्म नोकर्म । याजदेषा वलु बुद्धिर पनिटो गति जावत् । या स्पर्शरसगंधवर्णादिभाषेषु पृथु बुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधेषु घटोयमिति घटे व स्पर्शरसगंधवर्णादिभावाः पृथबुध्नोदराद्याकारपरिणतपुद्गलस्कंधाश्चामी इति वस्त्वभेदेनानुभूतिस्तया कर्मणि मोहादिष्वंतरंगेषु, नोकमरिण शरीरादिषु बहिरंगेषु चातमतिरस्कारिषु नामसंज्ञ कम्भ, कोकम्म, य, अम्ह, इदि, अम्ह, च, कम्म, णोकम्म, ज, एत, खलु, बुद्धि, अप्पडिबुद्ध, ताव । धातुसंज्ञ बुझ अवगमने, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द--- कर्मन्, नोकर्मन्, च, अस्मत्, इति, है। तो फिर यह प्रात्मा कितने समय तक अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) रहता है ? उसके स्वयं एकरूप गाथासूत्र कहते हैं--- यावत्] जब तक इस प्रात्माके [कर्मरिण] ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म व भावकर्ममें [धा] और [नोकर्मरिण] शरीर आदि नोकर्ममें [अहं कर्म नोकर्म] मैं कर्म नोकर्म हूं [च इति ग्रहक और ये कर्म नोकर्म मैं हूँ [एषा खलु] ऐसी निश्चयसे [मतिः] बुद्धि है [तायत्] तब तक [अप्रतिबुद्धः] यह प्रात्मा अप्रतिबुद्ध याने अज्ञानी [भवति] है ।। तात्पर्य-विकार व शरीरमें प्रात्मत्वका अनुभवन होना अज्ञान है। टोकार्थ-- जैसे स्पर्श, रस, गंध और वर्ण आदि भावोंमें चौड़ा नीचे अवगाहरूप उदर ग्रादिके प्राकार परिणत हुए पुद्गलके स्कंधोंमें यह घट है ऐसा और घटमें स्पर्श, रस, गंध पौर वर्णादि भाव हैं तथा पृथुबुध्नोदर प्रादिके प्राकार परिणत पुद्गल स्कंध हैं, ऐसा वस्तुके अभेदसे अनुभव है, उसी तरह कर्म--मोह आदि अंतरंग परिणाम और नोकर्म-शरोर प्रादि वाह्य वस्तुयें सब पुद्गल के परिणाम हैं जो कि प्रातमाके तिरस्कार करने वाले हैं, उनमें ये कर्म नोकर्म 'मैं हूँ' तथा मोहादिक अंतरंग और शरीरादि बहिरंग कर्म आत्माके तिरस्कार करने वाले पुद्गल परिणाम मुझ आत्मामें हैं, इस प्रकार वस्तुके प्रभेदसे जब तक अनुभूति है तब तक प्रात्मा अप्रतिबुद्ध है, अज्ञानी है। और जब किसी समय जैसे रूपी दर्पणके प्राकार को प्रतिभास वारने वाली स्वच्छता ही है तया उष्णता और ज्वाला अग्निकी है, उसी तरह प्ररूपी प्रात्माकी अपने परके जानने वाली ज्ञातृता (ज्ञातापना) ही है और कर्म नोकर्म पुद्गल के ही हैं, ऐसी अपने प्राप ही अथवा दूसरेके उपदेशसे भेदविज्ञानमूलक अनुभूति उत्पन्न हो Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग पुद्गलपरिणामेष्वमित्यात्मनि च कर्ममोहादयोऽन्तरंगा नोकर्मशरीरादयो बहिरंगाश्चात्मतिरस्कारिणः पुद्गलपरिणामा अमी इति वस्त्व भेदेन पावंतं कालमनुभूतिस्तावंतं कालमात्मा भवत्यप्रतिवुद्धः । यदा कदाचिद्यथा रूपिणो दपरणस्थ स्वपराकारावभासिनी स्वच्छतब वह रौष्ण्यं अहक, च, कर्मन्, नोकर्मन्, यावत्, एतत्, खलु, बुद्धि, अप्रतिबुद्ध, तावत् ! मूलधातु-टकृत करणे, बुध अवगमने, भु सत्तायां । पदविवरण-कर्मणि-सप्तमी एकवचन | नोकर्मणि-सप्तमी एक । च-अव्यय । अहं-प्रथमा एक० । इति-अव्यय । अहङ्क-प्रथमा एक० । कर्म-प्रथमा एक० । नोकर्म--प्रथमा एक० । जायगी तब ही यह प्रात्मा प्रतिबुद्ध (शानी) होगा। भावार्थ--जन तक जीव ऐसा जानता है कि जैसे स्पर्श आदिक पुद्गलमें हैं और पुद्गल स्पादिमें है उसी तरह जीवमें फर्म नोकर्म हैं और कर्म नोकर्ममें जीव है तब तक तो वह अज्ञानी है और जब यह जान ले कि प्रात्मा तो ज्ञानस्वरूप ही है और कर्म नोकर्म • पुद्गल ही हैं तभी यह ज्ञानी होता है। जैसे दर्पणमें अग्निकी ज्वाला दीखती हो, वहाँ ऐसा जाने कि ज्वाला तो अग्निमें ही है, दर्पणमें नहीं बैठी, जो दर्पणमें दीख रही है वह दर्पणकी ‘स्वच्छता ही है । इसी तरह कर्म नोकर्म अपने आत्मामें नहीं बैठे, आत्माके ज्ञान की स्वच्छता ऐसी है जिसमें ज्ञेयका प्रतिभास होता है । इस प्रकार कर्म नोकर्म ज्ञेय हैं, वे मात्र प्रतिभामित होते हैं, ऐसा अनुभव स्वयमेव हो अथवा उपदेशसे हो तब हो ज्ञानी होता है । .. अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं "कथमपि" इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष प्रापसे ही अथवा परके उपदेशसे किसी तरह भेदविज्ञानमूलक अविचल निश्चल अपने प्रात्मा की अनुभूतिको प्राप्त करते हैं, वे ही पुरुष दर्पणकी तरह अपने मात्मामें प्रतिबिम्बित हुए अनंत भावोंके स्वभावोंसे निरन्तर विकाररहित होते हैं । भावार्थ-ज्ञान में प्रतिफलित ज्ञेयाकारों ज्ञानी विकृत नहीं बनते। प्रसङ्गविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञानमय प्रात्माकी उपासनाके प्रकरणमें यह प्रश्न हुमा था कि आत्मा तो ज्ञानमय है ही उसको उपासनाका उपदेश बेकार है उसके उत्तर में कहा था कि प्रात्मा ज्ञानमय तो है, किन्तु उसका ज्ञान न होनेसे अज्ञानी है, अतः उसे ज्ञान की उपासनाका उपदेश किया जाता है । इसपर यह प्रश्न हुना कि फिर यह कितने समय तक अज्ञानी रहता है । इस प्रश्नका उत्तर इस गाथामें दिया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) अज्ञानीको घटमें घटाकारादिके अभेदकी भाँति विभाव व देह में "मैं हूँ" की अभेदसे अनुभूति रहती है । (२) ज्ञानीको दर्पण और जिसका दर्पणमें प्रतिबिम्ब हमा, ऐसे अग्निकी उष्णता व ज्वालाके भेदकी तरह, अपनी ज्ञातृता (ज्ञातापन) व पुदुमलोंकी देहादिदशाका भेद ज्ञात रहता है और इस भेदविज्ञानके परिणाममें अपनेको ज्ञानमात्र अनुभ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ज्वाला च तथा नीरूपस्यात्मनः स्वपराकारावभासिनी ज्ञातृत्व, पुद्गलानां कर्म नोकर्म चेति स्वतःपरतो वा भेदविज्ञानमूलानुभूतिरुत्पत्स्यते तदेव प्रतिबुद्धो भविष्यति । कथमपि हि लभते भेदविज्ञान मूलामचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतो वा। प्रतिफलननिमग्नानन्तभावस्वभावमकुरबदविकाराः संततं स्युस्त एव ॥२१॥१६॥ यावत्--अव्यय । एषा-प्रथमा एक स्त्रीलिङ्ग । खल-अव्यय । बुद्धि:-प्रथमा एक० । अप्रतिबुद्ध:--प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । तावत्-अभ्यय । बत! है। सिद्धान्त-(१) ज्ञानी सहज अन्तस्तत्त्व में प्रात्मत्व मानता है । (२) प्रशानी परपदार्थ व विभाव में प्रात्मत्व मानता है । दृष्टि-१- परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय, शुद्धनय (३०, ४६)। २- संश्लिटविजात्युपचरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२५)। प्रयोग—परपदार्थ व परभावोंसे भिन्न मात्माको अविकार चैतन्यस्वरूप निरखकर अपने सहज प्रानन्दका अनुभव करते हुए परम विश्राम पावें ।।१६।। अब शिष्य प्रश्न करता है कि यह अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) किस तरह पहचाना जा सकता है उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं-[यः] जो पुरुष [अन्यत् यत् परद्रव्यं] अपनेसे अन्य जो परद्रव्य [सचित्ताचित्तमिश्रं वा] सचित्त स्त्री-पुत्रादिक, अचित्त धनधान्यादिक, मिश्र ग्रामनगरादिक- इस राबको ऐसा समझे कि [अहं एतत्] मैं यह हूँ [एतत् प्रह] यह सब द्रव्य मैं हूं [एतस्य अहं] मैं इसका हूं [एतत् मम अस्ति] यह मेरा है [एतत् मम पूर्व प्रासीत् यह मेरा पूर्वमें था [एतस्य अहमपि पूर्व प्रासं] इसका मैं भी पहले था [पुनः] तथा [एतत् मम भविष्यति] यह सब मेरा होगा [अहमपि एतस्य भविष्यामि] मैं भी इसका प्रागामी होऊँगा [एतत्त असद्भूतं] ऐसा भूठा [प्रात्मविकल्प] अात्मविकल्प करता है वह [संमूढः] मूढ़ है [तु] किन्तु जो पुरुष [भूतार्थ] परमार्थ वस्तुस्वरूपको [जानन] जानता हुआ [तं] ऐसे झूठे विकल्पको [न करोति] नहीं करता है वह [असंमूढः] मूढ़ नहीं है, ज्ञानी है। तात्पर्य--परमें व परभावमें प्रात्मत्वका अनुभबन करने वाला अज्ञानी है व सहजसिद्ध चैतन्यमात्र अन्तस्तत्त्वमें प्रात्मत्वका अनुभवन करने वाला ज्ञानी है। टोकार्थ-जैसे कोई पुरुष ईंधन और अग्निको मिला हुमा देखकर ऐसा झूठा विकल्प करता है कि अग्नि ईंधन है तथा इंधन अग्नि है, अग्निका इंधन पहले था, ईधनको अग्नि पहले थी, अग्निका ईधन आगामी होगा, ईधन की अग्नि प्रागामी होगी, इस तरह ईंधनमें ही Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग मनु कथमयमप्रतिबुद्धो लक्ष्येत अहमेदं एदमेहं अहमेदस्सेव होमि मम एदं। अरणं जं परदव्वं सच्चित्ताचित्तमिस्स वा ॥२०॥ आसि मम पुब्वमेदं एदस्स ग्रहंपि आसि पुब्वं हि । होहिदि पुणोवि मझ एयस्स अहंपि होस्सामि ॥२१॥ एयं तु यसंभूदं यादवियप्पं करेंदि संमूढो । भूदत्यं जाणंतो ण करेदि दुतं असंमूढो ॥२२॥ (त्रिकलम) ता में जो कुछ दिसता, सजीध निर्जीव मिश्र वा वस्तु । मैं यह यह मैं मैं हूं, इसका यह सब तथा मेरा ॥२०॥ यह पहले मेरा था, इसका मैं था भि पूर्व समयोंमें । मैं होऊंगा इसका यह सब होगा तथा मेरा ।।२१।। ऐसा असत्य प्रपना, करता मानन विकल्प यह मोही । किन्तु नहि भ्रान्ति करता, भूतात्मिज्ञ निर्मोही ॥२२॥ अहमेतदेतदहमहमेतस्यवास्मि मर्मतत् । अन्यद्यत्परद्रव्यं सन्निनाचित्तमिथं वा ॥२०॥ आसीन्मम पूर्वमेतद् एतस्याहमप्यासं पूर्व हि । भविष्यति पुनरपि मम एतस्याहमपि भविष्यामि ।।२१॥ एतत्त्वसद्भूतमात्मविकल्पं करोति संमूढः । भूतार्थं जानन करोति तमसंमूढः ॥२२॥ यथाग्निरिधनमस्तीधनमग्निरस्त्यग्नेरिधनमस्तीधनस्याग्निरस्त्यग्नेरिधनं पूर्वमासीदिधनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरिधनं पुनर्भविष्यतींधनस्याग्निः पुनर्भविष्यतीतोंधन एवासद्भूताग्निविक नामसंज्ञ---अम्ह, एत, अम्ह, अम्ह, एत, एव, अम्ह, एत, अग्ण, ज, परदब्ध, सच्चित्ताचितमिरस, वा, अम्ह, पुवं, एत, एत, अम्ह, पि, पुब्बं , हिपुणो, बि, अम्ह, एत, अम्ह, पि, एत, तु, असंभूद, आदवियप्प, संमूढ, भूदत्य, जाणंत, ण, दु, त, असं मूढ । धातुसंज्ञ---हो सत्तायां, हब प्राप्ती, अस सत्तायां, कर अग्निका विकल्प करता है वह झूठा है । इसीसे अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) पहचाना जा सकता है । उसी तरह (दान्तिमें देखिये) कोई परद्रध्यमें असत्यार्थ यात्मविकल्प करे कि मैं यह परद्रव्य हूं और यह परद्रव्य मैं हूं, मेरा यह परद्रव्य है, इस पर द्रव्यका मैं हूं, मेरा यह पहले था, इसका मैं पहले था, मेरा यह फिर होगा, इसका मैं फिर होऊँगा, ऐसे भूठे विकल्पसे अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) पहचाना जाता है । तथा अग्नि ईंधन नहीं है, ईधन अग्नि नहीं है, अग्नि अग्नि ही है, ईंधन इंधन ही है, अग्निका ईंधन नहीं है, ईंधनकी अग्नि नहीं है, अग्निको पग्नि है, ईंधनका ईंधन है, अग्निका ईंधन पहले हुआ नहीं, ईधनकी अग्नि पहले हुई नहीं, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ समयसार रूपत्वेनाप्रतिबुद्धः कश्चिल्लक्ष्येत तथाहमेतदस्म्येतदहमस्ति ममैतदस्त्येतस्याहमस्मि ममैतत्पूर्वमासीदेतस्याहं पूर्वमासं ममैतत्पुनर्भविष्यत्येतस्याहं पुनर्भविष्यामीति परद्रव्य एवासभूतात्मनिक पत्वेनाप्रतिबुद्धो लक्ष्येतात्मा। नाग्निरिधनमस्ति नेधनमग्निरस्त्यग्निरनिरस्तोंधमिधनमस्ति नाग्नेरिवनमस्ति धनस्याग्निरस्त्यग्नेरग्निरस्तीधनस्यधनमस्ति नाग्नेरिंधनं पूर्वमासीन्नेधनस्याग्निः पूर्वमासीदग्नेरग्निः पूर्वमासीदिधनस्य धनं पूर्वमासीन्नाग्नेरिंधनं पुनर्भविष्यति धनस्याकरणें । प्रातिपदिक---अस्मद, एतत्, एतत्, अस्मद, अस्मद, एतत्, अन्यत्, यत्, परद्रव्य, सचित्ताचित्तमिथ, वा, अस्मद, पूर्व, एतत्, एतत्, अस्मद् अपि, पूर्व, हि, पुनर्, अपि, अस्मद्, एतत्, अस्मद, अपि, एवं, तु, असद्भूत, आत्मविकल्प, संमूढ, भूतार्थ, जानत्, न, तु तत् असंमूढ । मूलधातु-भु सत्तायां हु, गतो, अस् भुवि, डुकुन करणे, मुह वैचित्ये वंचित्यमविवेकः, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-अहं-प्रथमा एक । एतत्-प्रथमा एक०। एतत्-प्रथमा एक० | अहं-प्रथमा एक०। अहं-प्रथमा एक० | एतस्य-षष्ठी एक० । एव-अव्यय । भवामि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० क्रिया । मम-एकवचन । परद्रव्य-प्रथमा एक । सचिताचित्तामिश्र-प्रथमा एक० । वा-अव्यय । आसीत्-भूत लुङ, अन्य पुरुष एका० क्रिया । मम-षष्ठी एक० । अग्निको अग्नि पहले थी, ईंधनका ईधन पहले था तथा अग्निका ईंधन अागामी नहीं होगा, ईधनकी अग्नि अागामो नहीं होगी, अग्निकी अग्नि ही आगामी कालमें होगी, ईंधनका ईंधन हो अागामो होगा। इस तरह कसौके भारत में ही सत्यार्थ अग्निका विकल्प जिस प्रकार हो जाता है, उसी तरह मैं यह परद्रव्य नहीं हूं, तथा यह परद्रव्य मुझ स्वरूप नही है, मैं तो मैं ही हूं, परद्रव्य परद्रव्य ही है तथा मेरा यह परद्रव्य नहीं है, इस परद्रव्यका मैं नहीं हूं, अपना ही मैं हूं, परद्रव्यका परद्रव्य है तथा इस परद्रव्य का मैं पहले नहीं था, यह परद्रव्य मेरा पहले नहीं था, अपना मैं ही पूर्वमें था, परद्रव्यका परद्रव्य पहले था तथा यह परद्रव्य मेरा आगामी न होगा, उसका मैं अागामी न होऊँगा, मैं अपना ही अागामी होऊँगा, इस (परद्रव्य) का यह (परद्रव्य) अागामी होगा। ऐसा जो स्वद्रव्यमें ही सत्यार्थ प्रात्मविकल्प होता है, यही प्रतिबुद्ध ज्ञानीका लक्षण है, इसीसे ज्ञानी पहचाना जाता है । भावार्थ- जो परद्रव्यमें प्रात्माका विकल्प करता है, वह तो अज्ञानी है । और जो अपने प्रात्माको हो अपना मानता है वह ज्ञानी है। ऐसा अग्नि ईंधनके दृष्टान्तसे हढ़ निर्णय किया है। __ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं- 'त्यजतु इत्यादि । अर्थ हे लोकके जीवो, अनादि संसारसे लेकर अब तक अनुभव किए मोहको अब तो छोड़ो और रसिक जनोंको रुचने वाला उदीयमान जो ज्ञान है उसे प्रास्वादन करो, क्योंकि इस लोकमें प्रात्मा है वह परद्रव्यके साथ किसी समयमें प्रगट रीतिसे एकत्वको किसी प्रकार प्राप्त नहीं होता। इसलिए मात्मा एक है, वह अन्य द्रव्यके साथ एकरूप नहीं होता। भावार्थ--प्रात्मा परद्रव्यके साथ किसी प्रकार किसी कालमें एकताको प्राप्त नहीं होता 1 इसलिए प्राचार्यने ऐसी प्रेरणा की है कि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ग्निः पुनर्भविष्यत्यग्नेरग्निः पुनर्भविष्यतीधनस्य धनं पुनर्भविष्यतीति कस्यचिदग्नावेव सदभूताग्नि विकल्पवन्नाहमेतदस्यि जबलस्त्यहाहात्म्येतदेतदरित न भमंजपत्ति नैतस्याहमस्मि ममाहमस्म्येतस्यैतदस्ति न ममैतत्पूर्वमासीनतस्याहं पूर्वमासं ममाहं पूर्वमासमेतस्यैतत्पूर्वमासीन ममतत्पुनर्भविष्यति नैतस्याहं पुनर्भविष्यामि ममाहं पुनर्भविष्याम्येतस्यैतत्पुनर्भविष्यतीति स्वद्रव्य एव सद्भूतात्मविकल्पस्य प्रतिबुद्धलक्षणस्य भावात् । त्यजतु जगदिदानी मोहमाजन्मलीढं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् । इह कथमपि नात्मात्नात्मना साकमेकः किल कलयति काले क्वापि तादाम्त्यवृत्ति ।।२२॥२०-२१-२२।। पूर्व-प्रथमा एक० अथवा अव्यय । एतत्-प्रथमा एक० । एतस्य-षष्ठी एक० । अहं-प्रथमा एक० । अपिअव्यय । आसम्-भूते लुङ उत्तम एक० क्रिया । भविष्यति-लट भविष्यत् अन्य एकत्रिया. पुनः अव्यय । मम-षष्ठी एकः । भविष्यामि-भविष्यत् लट उत्तम पुरुष एक० किया । एतत्-प्रथमा एक० । तु--अव्यय । असद्भूतं-द्वितीया एक० कर्मविशेषण | आत्मविकल्प-द्वितीया एक कर्मकारक । करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । संमूढः-प्रथमा एकवचन। भूतार्थ--द्वितीया एकवचन । जानन्-प्रथमा विभक्ति एकवचन वादन्त । न-अव्यय । करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। तु-अव्यय । तं--वि० ए० कर्म । असमूढः-प्रथमा एकवचन कर्ता ।।२०-२१-२२॥ अनादिसे लगा हुआ जो परद्रव्यसे मोह है उस एकपनेके मोहको अब छोड़ो और ज्ञानका नास्वादन करो। मोह वृथा है, मिथ्या है, दुःख का कारण है। ऐसा भेदविज्ञान करना है । प्रसंगविवरण-मनन्तर पूर्व बताया गया था कि यह प्रात्मा कब तक अज्ञानी रहता है । अब उसीके विषयमें बताना है कि वह कैसे पहिचाना जाता है कि यह अज्ञानी है, इसका विवरण इन तीन गाथावोंमें बताया गया है । तथ्यप्रकाश---(१) जो परद्रव्यमें ऐसा विश्वास रखता है कि "मैं यह हूं या यह मैं है" वह जीव अज्ञानी है । (२) जो परद्रव्यमें ऐसा विश्वास रखता है "मेरा यह है या इसका मैं हूँ" वह अज्ञानी है । (३) जो परद्रव्यमें ऐसा विश्वास रखता है कि मेरा यह पहिले था या इसका मैं पहिले था" वह अज्ञानी है । (४) जो परद्रव्यमें ऐसा विश्वास रखता है कि मेरा यह फिर होगा या इसका मैं फिर होऊँगा वह अज्ञानी है। सिद्धान्त----उक्त चार बातें मिथ्या हैं जिनकी दृष्टियां उपचारसम्बंधी निम्नलिखित हैं । दृष्टि---१- द्रव्ये द्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१०६)। २, ३, ४- परसम्बन्धव्यवहार (१३५) । प्रयोग- तथ्यप्रकाशमें बताये गये उपचारको मिथ्या जानकर अपने में परद्रव्यके विषयमें ऐसा निर्णय करना चाहिये कि मैं यह नहीं हूं, यह मैं नहीं है, मेरा यह नहीं है, इसका मैं नहीं हूं, मेरा यह नहीं था, इसका मैं नहीं था, मेरा यह कभी नहीं होगा, इसका मैं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयतार अथाप्रतिबुद्धबोधनाय व्यवसाय अण्णाणमोहिदमदी मज्झमिणं भणदि पुग्गलं दव्वं । बद्धमबद्ध च तहा जीवो बहुभावसंजुत्तो ॥२३॥ सब्बगहुणाणदिट्ठो जीवों उपयोगलक्खणो णिच्चं । कह सो पुग्गलदब्बी-भूदो जं भणसि मज्झमिणं ॥२४॥ जदि सों पुग्गलदबी-भूदो जीवत्तमागदं इदरं । तो सत्तो वुत्तु जे मझमिणं पुग्गलं दध्वं ॥२५॥ अज्ञानमुग्धयुद्धी, जीव बना विविधभावसंयोगी। इससे कहता तन सुत, नारी भवनावि मेरे हैं ॥२३॥ सर्वज्ञज्ञानमें यह, मलका चित् नित्य ज्ञानदर्शनमय । बह पुद्गल क्यों होगा, फिर क्यों कहता कि यह मेरा ॥२४॥ यदि जीक बने पुद्गल, पुद्गल बन जाय जीव जो कमाई । तो कहना बन सकता, पुद्गल मेरा न पर ऐसा ॥२५॥ अज्ञानमोहितमतिर्ममेदं भणति पुद्गलं द्रव्यं । बद्धमबद्धं च तथा जीवो बहुभावसंयुक्तः ॥२३॥ सर्वज्ञशानदृष्टो जीब उपयोगलक्षणो नित्यं । कथं स पुद्गलद्रध्यीभूतो यद्भणसि ममेदं ॥२४॥ यदि स पुद्गलद्रव्यीभूतो जीवत्वमागतमितरत् । तहि शक्तो वक्तुं यन्ममेदं पुद्गलं द्रव्यं ॥२५॥ नामसंज- अष्णाणमोहिदमदि, अम्ह, इम, पुग्गल, दव्य, बद्ध, अबद्ध, च, तहा, जीव, बहुभावसंजुत्त, सवण्हणाणदिट्ट, जीव, उपओगलक्खण णिच्च, कह, त, पुग्गलदवीभूद, ज, अम्ह, इम जदि, त, पुग्गलदब्बीभूद, ज, अम्ह, इम, जदि, त, पुग्गलदव्वीभूद, जीवत्त आगद, इदर, तो, सत्त, जे, अम्ह, इम, पुग्गल, दव्व । धातुसंज-भण कथने, बु व्यक्तायां वाचि, सक्क सामर्थ्ये । प्रातिपदिक-अज्ञानमोहितमति, अस्मद, कभी नहीं होऊँगा । ऐसे परिपूर्ण निर्णयके साथ सर्व परसे उपेक्षा करें और अपनेमें परमविश्राम करें ॥२०-२१-२२।। अब अप्रतिबुद्धकं समझानेके लिये उद्यम करते हैं--[अज्ञानमोहितमतिः] प्रशानसे जिसकी मति मोहित है ऐसा [जीवः जीव [मरगति] कहता है कि [इदं] यह [बद्धव प्रबद्ध] शरीरादि बद्धद्रव्य, धनधान्यादि प्रबद्ध परद्रव्य [मम] मेरा है सो वह जीव [बहुभावसंयुक्तः] मोह रागद्वेषादि बहुत भावोंसे सहित है। परन्तु [जीवः] जीव पदार्थ तो [ सर्वज्ञज्ञानदृष्टः] सर्वज्ञके ज्ञान में देखा गया [नित्यं] नित्य [उपयोगलक्षरण: उपयोग लक्षण वाला है [सः] वह [पुद्गलद्रव्योभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप [कथं] कैसे हो सकता है ? [यता Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग युगपदनेकविधस्य बंधनोपाधेः सन्निधानेन प्रधावितानामस्वभावभावानां संयोगवशाद्विचित्रोपाश्रयोपरक्तः स्फटिकोपल इवात्यंततिरोहितस्वभावभावतया अस्तमितसमस्तविवेकज्योतिमहता स्वयमज्ञानेन विमोहितहृदयो भेदमकृत्वा तानेवास्वभावभावान् स्वीकुर्वाणः पुद्गलद्रव्यं भमेदमित्यनुभवति किलाप्रतिबुद्धो जीवः । प्रथायमेव प्रतिबोध्यते रे दुरात्मन्, प्रात्मपंसन्, जहीहि जहीहि परमाधिवेकघस्मरसतृणान्यवहारित्वं । दूरनिरस्तसमस्तसंदेहविपर्यासानध्यवसाइदम्, पुद्गल, द्रव्य, बद्ध, अबद्ध, च, तथा, जीव, बहुभावसंयुक्त, सर्वज्ञज्ञानहष्ट, जीय, उपयोगलक्षण, नित्य, कथं, तत. पुद्गलद्रध्यीभूत, यत्, अस्मद्, इदम्, यदि, लत्, पुद्गलद्र व्यीभूत, जीवत्व, आगत, इतर तर्हि-अभ्यय, शक्त, यत्, अस्मद, इदम्, पुद्गल, द्रश्य । मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, मुह वैचित्ये, भग शब्दार्थः, दृशिर प्रेक्षणे, अक्ल-शक्ती, वच परिभाषणं। पद विवरण-अज्ञानमोहितमतिः-प्रथमा एवावचन जो [मरणसि] तू कहता है कि [इदं मम] यह पुद्गलद्रव्य मेरा है । [यदि ] यदि [सः] जीवद्रव्य [पुद्गलद्रव्योभूतः] पुद्गलद्रव्यरूप हो जाय और [इतरत्] पुद्गलद्रव्य भी [जीवत्वं] जोवपनेको [प्रागतं] प्राप्त हो जाय । कदाचित् भी ऐसा हो सके [तत् ] तो [वक्तु शक्तः] तुम कह सकते हो [यत्] कि [इवं पुद्गलद्रव्यं ] यह पुद्गलद्रव्य [मम] मेरा है, किन्तु ऐसा हो ही नहीं सकता । तात्पर्य-स्व प्रात्माका लक्षण व परका लक्षण विज्ञात होते ही अज्ञान दूर हो जाता टीकार्थ-- एक साथ अनेक प्रकारको बन्धनोपाधिके सन्निधानसे वेगपूर्वक बहते हुए अस्वभाव भावोके संयोगवश अज्ञानी जीव, विचित्र प्राश्रयसे उपरक्त स्फटिक पाषाणकी तरह स्वभावभाव अत्यन्त तिरोहित होनेसे जिसकी समस्त भेदविज्ञानज्योति प्रस्त हो गई ऐमा स्वयं प्रज्ञान से विमुख हृदय होकर जो अपने स्वभाव नहीं हैं, ऐसे विभावोंको करता हुआ वह पुद्मलद्रव्यको अपना मानता है । ऐसे अज्ञानीको समझाते हैं कि रे दुरात्मन् ! प्रात्माका घातक ! तू परम अविवेव से जैसे तृणासहित सुन्दर पाहारको हाथी प्रादि पशु खाते हैं उसी तरहके खाने का स्वभाव छोड़ छोड़ । जो सर्वज्ञके जानसे प्रकट किया नित्य उपयोग स्वभावरूप जीवद्रव्य वह कैसे पुद्गलरूप हो सकता जिससे कि तू "यह पुद्गल मेरा है" ऐसा अनुभव करता है । कैसा है सर्वज्ञका ज्ञान जिसने समस्त संदेह विपर्यय अनध्यवसाय दूर कर दिये हैं समस्त वस्तुके प्रकाशनेको एक अद्वितीय ज्योति है । ऐसे ज्ञानसे दिखलाया गया है। और कदाचित् किसो प्रकार जैसे लवण तो जलरूप तथा जल लदरणरूप हो जाता है उसी प्रकार जीवदव्य तो पुद्गल हो जाय तथा पुद्गलद्रव्य जीवरूप हो जाय तो तेरी "पुद्गलद्रव्य मेरा है" मी अनुभूति बन जाय, किन्तु ऐसा तो किसी तरह भी द्रव्यस्वभाव बदल नहीं सकता। यही दृष्टांतसे अच्छी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार येन विश्वकज्योतिषा सर्वज्ञज्ञानेन स्फुटीकृतं किल नित्योपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं । तत्कथं पुद्गलद्रव्यीभूतं येन पुद्गलद्रव्यं ममेदमित्यनुभवसि । यतो यदि कथंचनापि जीवद्रव्यं पुदगलद्रव्यीभूतं स्यात् । पुद्गलद्रव्यश्च जीवद्रध्योभूतं स्यात् तदैव लवणस्योदकमिव ममेट गुदगलद्रव्यमित्यनु• भूतिः किल घटेत तत्तु न कथंचनापि स्यात् । तथाहि-यथा मारवलक्षणं लवणमुदकीभवत् द्रवत्वलक्षणमुदकं च ल बणीभवत् क्षारत्वद्वत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नित्योपयोगकर्तृ विशेषण । मम-षष्ठी एक० । इदम्-प्रथमा एक० । भणति-लट् अन्य पुरुष एक० । पुद्गल-प्रथमा एकवचन । द्रव्यम्-प्रथमा एक । बढ़-प्रथमा एक। अबद्ध-प्रथमा एक० । च-अव्यय । तथा-अव्यय । जीवः-प्रथमा एकवचन कर्ता। बहुभावसंयुक्त:-कर्तृ विशेषग । सर्वज्ञज्ञानहाष्टः-प्रथमा एकवचन । जीव:प्रथमा एकवचत । उपयोगलक्षण:-प्रथमा एकवचन । नित्यं--प्रथमा एकवचन या अव्यय । कथं अव्यय । तरह बतलाते हैं जैसे क्षारस्वभाव वाला लबरण तो जलरूप हुप्रा दीखता है और द्रबत्वलक्षण वाला जल लवणरूप हुमा देखा जाता है, क्योंकि लवणका क्षारपना तथा जलका द्रवपना इन दोनोंके साथ रहने में अविरोध है इसमें कोई बाधा नहीं है । उसी तरह नित्य उपयोगलक्षण वाला जीवद्रव्य तो पुद्गलद्रव्य हुप्रा देखने में नहीं पाता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षण वाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्यरूप हुआ नहीं दीखता, क्योंकि प्रकाश तथा अन्धकार---इन दोनोंकी तरह उपयोग तथा अनुपयोगके एक साथ रहनेका विरोध है, जड़ चेतन--ये दोनों किसी समय भी एक नहीं हो सकते । इसलिए तू सब तरहसे प्रसन्न हो अर्थात् अपना चित्त उज्ज्वल कर सावधान हो, अपने हो द्रवरको अपने अनुभवरूप कर, ऐसा श्री गुरुनोंका उपदेश है । यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको प्रपना मानता है उसको उपदेश देकर सावधान किया है कि सर्वजने ऐसो देखा है कि जड़ और चेतनद्रव्य ये दोनों सर्वधा पृथक्-पृथक हैं कदानित किसी प्रकारसे भी एकरूप नहीं होते। इस कारण हे अज्ञानी, तू परद्रव्पको एकरूपसे मानना छोड़ दे, ऐसा वृथा माननेसे कुछ लाभ नहीं है । अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-'अयि' इत्यादि । अर्थ-हे भाई, तू किसी तरह भी महान कष्टसे अथवा मरणावस्थाको प्राप्त हुआ भी तत्त्वोंका कौतुहली हुमा इस शरीगदि मूर्तद्रव्यका एक मुहूर्त (४५ मिनट) अपनेको पड़ोसी मानकर प्रात्माका अनुभव कर, जिससे कि अपने प्रात्माको विलासरूप सर्व परद्रव्योंसे पृथक् देखकर इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यके साथ एकस्वके मोहको शीघ्र ही छोड़ सके । भावार्थ--यदि यह प्रात्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्धस्वरूपका अनुभव करे, उसमें लीन होवे और परीषह (कष्ट) पानेपर भी विचलित न हो तो पातियाकर्मका नाश कर केवलज्ञान उत्पन्न करके मोक्षको प्राप्त हो लेगा। प्रात्मानुभवका ऐसा माहात्म्य है, तब Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग लक्षणं जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्योभयननित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवद् उपयोगानुपयोगयोः प्रकाशतमसोरिक सहवृत्तिविरोधादनुभूयते । तत्सर्वथा प्रसीद विबुध्यस्व, स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव । प्रपि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन अनुभव भव मूर्तेः पाश्ववर्ती मुहूर्त । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्या साकमेकत्वमोहं ।।२३।।२३-२४-२५।। स:-प्रथमा एक० । पुद्गलद्रव्योभूत:-प्रथमा एक 01 जीवत्वं--प्रथमा एक । आगत-प्रथमा एक० कृदन्त आ-मत, इतरत्-प्रथमा एक । तहि--अव्यय । शक्त:-प्रथमा एक० कृदन्त । वक्तुं-प्रयोजने अव्यय कृदन्त । यत्-प्रथमा एक० या अव्यय । मम-पष्ठी एक । इदं- प्रथमा एक० । पुद्गलं--प्रथमा एक० । द्रव्यम्-- प्रथमा एक०॥२३-२४-२२॥ मिथ्यात्वका नाश करना व सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो बहुत ही सुगम है । प्रसंगवियर--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अज्ञानी जीवका परिचय क्या है ? प्रब यहाँ उस अज्ञानी जीवको समझानेके लिये उद्यम हो रहा है । तथ्यप्रकाश-(१) निमित्तका सविधान होनेपर अस्वभावभाव त्वरित होते हैं । (२) स्वभावभाव तिरोहित होनेसे विवेकज्योति अस्त हो जाती है। (३) विवेकज्योतिरहित अज्ञानी भेदज्ञान न होनेसे अस्वभावभाव (विकारभाव) को स्वीकार कर लेता है याने मान्यता में अपने कर लेता है । (४) ज्ञानी जानता है कि कोई द्रव्य अन्य द्रव्यरूप कभी नहीं हो सकता है, अतः अपनेको ज्ञानस्वरूप ही स्वीकार करता है । सिद्धान्त – (१) निमित्तसानिध्यमें उपादान तदनुरूप परिणमन करता है । (२) अपने को ज्ञानमात्र अनुभव कर लेनेपर निमित्त और नैमित्तिक भाव विघटने लगते हैं । दृष्टि- १-उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २-उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४५)। प्रयोग – अपना सर्वस्व ज्ञानस्वरूप, उपयोग निरखकर उसीके प्रति अभिमुख रहे, कल्याण के लिये जो होना होता है वह स्वयं होगा ॥२३-२४-२५।। अब अप्रतिबुद्ध कहता है कि [यदि] जो [ीयः] जीव है वह [शरीरं न] शरीर नहीं है तो तिथंकराचार्यसंस्तुतिः] तीर्थकर व प्राचार्योकी स्तुति [सर्वापि] मब हो [मिभ्या भवति] मिश्या हो जाती है [तेन तु] इसलिए हम समझते हैं कि [प्रात्मा] प्रात्मा [बेहः चैव] यह देह ही [मबति] है। तात्पर्य--अज्ञानी जीव दिखने वाले परमौदारिक शरीरको ही भगवान समझता है । टोकार्थ---यदि जो आत्मा है वह ही पुद्गलद्रव्यस्वरूप शरीर न हो तो तीर्थंकरों व प्राचार्योकी जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या होजायगी । वह स्तुति इस तरह है Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. समयसार प्रथाहाप्रतिबुद्धः-- जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंधुदी चेव । सव्वावि हवदि मिच्छा तेण दु श्रादा हदि देहो ॥२६॥ यदि जीव देह नहि है, तो जो प्रभु प्रार्यकी स्तुती को है। वह सर्व झूठ होगा, इससे हि तन प्रात्मा जचता ॥१६॥ यदि जीवो न शरीरं तीर्थंकराचार्यसंस्तुतिश्चैत्र । सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देहः ॥२६।। यदि य एवात्मा लदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवेत्तदा-क्रांतयव स्नपयंति ये दश दिशो घाम्ना निरुन्धति ये धामोदाममहस्विनां जनमनो मुणति रूपेण ये । दिव्यन ध्वनिना सुखं ___ नामसंज्ञ--- जदि, जीव, ण, सरीर, तित्थयरायरियसंथुदि, च, एव, सव्वा, वि, मिच्छा तेण, दु, अत्त, देह । धातसंज्ञ-हव सत्तायां, दिह बदौ । प्रातिपदिक-यदि, जीव, न, शरीर तीर्थंकराचार्यसंस्तति, च, एक, सर्वा, अपि, मिथ्या, तत्, तु, आत्मन्, देह । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, तृप्लवनतरणयोः, ष्टुन स्तुती, भू सत्तायां, दिह उपचये। पदविवरण-यदि-अव्यय । जीव:-प्रथमा एकवचन । न-अव्यय। 'कात्येव' इत्यादि । अर्थ---जो अपने शरीरकी कांतिसे दसों दिशाओंको स्नान कराते हैंनिर्मल करते हैं, जो अपने तेजसे उत्कृष्ट तेज वाले सूर्यादिकके तेजको भी छिपा देते हैं, जो अपने रूपसे लोकोंका मन हर लेते हैं ऐसे दिव्यध्वनि (वाणी) द्वारा भव्योंके कानों में साक्षात् सुख अमृत बरसाते हुए तथा एक हजार पाठ लक्षणोंको धारण करने वाले वे तीर्थंकर सूरि (मोक्षमार्गोपदेशक) वंदने योग्य हैं । इत्यादिक तीर्थङ्करोंकी स्तुति है वह सभी मिथ्या ठहरेगी। इसलिये हमारे तो यही एकान्नसे निश्चय है कि प्रात्मा है वह शरीर हो है पुद्गल द्रव्य हो है । ऐसा अप्रतिबुद्धने कहा । उसको प्राचार्य उत्तर देते हैं कि इस तरह नहीं है, अभी तूने नविभाग नहीं समझा है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व कुलक गाथानोंमें अप्रतिबुद्ध जोवको भेदविज्ञानका प्रति. बोध कराया गया था उसको सुनकर यहां अप्रतिबुद्ध पुरुष अपने मनकी घुली छुपी बात स्पष्ट कह रहा है। तथ्यप्रकाश-(१) स्तवमग्रन्थोंमें स्तुति देहकी स्तुति करते हुए भी पाती है सो उसमे भी प्रयोजन निमित्तनैमित्तिक भाव द्वारा प्रात्मगुणोंको ही बतानेका है, ऐसी स्तुति औपचारिक स्तुति कहलाती हैं । (२) प्रौपचारिक स्तुतिकी वचनभाषाका अर्थ कोई सीधा उपादानभाषामें लगाये तो वह मिथ्या होता है । सिद्धान्त---(१) उपचारस्तवनादिमें प्रयोजन व निमित्तका परिचय होता है । (२) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग श्रवणयोः साक्षात्क्षरतोऽमृते वेद्यास्तेऽष्टसहस्रलक्षणधरास्तीर्थेश्वराः सूरयः ॥२४॥ इत्यादिका तीर्थङ्कराचार्यस्तुतिः समस्तापि मिथ्या स्यात् । ततो य एवात्मा तदेव शरीर पुद्गलद्रव्यम् । इति ममैकान्तिको प्रतिपत्तिः ॥२६॥ शरीरं-प्रथमा एक० । तीर्थकराचार्यसंस्तुति:-प्रथमा एक । च-अव्यय । एक अव्यय । सर्वा-प्रथमा ए० । अपि-अव्यय । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । मिथ्या--अव्यय । तेन-तृतीया एक० । तुअन्यय । आत्मा-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमाल लद अन्य पुरुष एक क्रिया। देह:-प्र० एकवचन ।।२६॥ देहादि संश्लिष्ट पदार्थके स्तवनसे प्रभुस्तवन मान लेना मिथ्या है। दृष्टि---- १-परकर्तृत्व व्यवहारादि परसम्बंधपर्यन्तव्यवहार (१२६-१३५) । (२) संश्लिष्टविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२५)।। प्रयोग-प्रभुके देहातिशय आदिको जानकर प्रभुके गुणोंको निर्मलतापर दृष्टि जाना चाहिये कि धन्य है प्रभुत्वविकासको जिसका निमित्त पाकर देहादिमें भी अलौकिक अतिशय हो जाता है । उपचारस्तबनोंमें इस प्रकार प्रभुत्वविकासपर ही दृष्टि होनी चाहिये ॥२६॥ वह नयविभाग कैसा है उसको गाथा द्वारा बतलाते हैं---[ध्यपहारनयः] व्यवहारनय तो [भाषते] ऐसा कहता है कि [जीवः च देहः] जीव और देह [एकः खलु] एक ही [भवति] है [च] और [निश्चयनयस्य] निश्चयनयका मत है कि [जीवः देहः तु] जीव और देह-~-ये दोनों [कदापि] कभी [एकार्थः] एक पदार्थ [न] नहीं हो सकते ।। तात्पर्य-व्यवहारनयके दर्शन में जीव और देह एक है, किन्तु निश्चयनयके दर्शनमें जीव और देह कभी भी एक नहीं हो सकते । क्योंकि प्रभु व देह व्यवहारमें एकक्षेत्रावगाही है, परन्तु सत्त्व, स्वरूप अलग-होनेसे वे दोनों एक वस्तु नहीं । टोकार्थ-जैसे इस लोकमें सुवर्ण और चांदीको गलाकर मिलानेसे एक पिंडका व्यवहार होता है, उसी तरह अात्माके और शरीरके परस्पर एक जगह रहनेको अवस्था होनेसे एकत्व का व्यवहार होता है । इस प्रकार व्यवहारमात्रसे हो प्रात्मा पोर शरीरका एकत्व है, परन्तु निश्चयसे एकत्व नहीं है; क्योंकि पीले स्वभाव वाला सोना है और सफेद स्वभाव वाली चांदो है, उनको जब निश्चयसे विधारा जाय तब अत्यन्त भिन्नता होनेसे एक पदार्थको प्रसिद्धि है, इसलिये अनेकरूपता ही है । उसी तरह प्रात्मा और शरीर उपयोग तथा अनुपयोग स्वभाव वाले हैं । उन दोनोंके अत्यंत भिन्नपना होनेसे एक पदार्थपनेको प्राप्ति नहीं है, इसलिये अनेकता ही है । ऐसा यह प्रकट नयविभाग है । इस कारण व्यवहारनयसे ही शरीरकी स्तुति करनेसे मात्माको स्तुति हो सकती है। भावार्थ-व्यवहारनय तो प्रात्मा और शरीरको एक कहता है और निश्चयनय एक Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार नवं नविभागानभिज्ञोऽसि क्वहारणयों भासदि जीवो देहो य हवदि खलु इक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदावि एकहो ॥२७॥ ___ व्यवहारनय बताता, जीव तथा देह एक ही समझो। निश्चयमें नहि कबहूँ, जीव तथा देह इक वस्तू ॥२७॥ व्यवहारनयो भाषते जीवो देहश्च भवति खल्वेकः । न तु निश्चयस्य जीवो देहश्च कदाप्येकार्थः ॥२७॥ इह खलु परस्परावगाढावस्थायामात्म शरीरयोः समात्तितावस्थायां कनककलधौतयोरे. कस्कंधव्यवहारवद्व्यवहारमात्रेणवनत्वं न पुननिश्चयतः । निश्चयतो ह्यात्मशरीरयोरुपयोमानुपयोगस्वभावयोः कनककलधौतयोः पीतपांडुरत्वादिस्वभावयोरिवात्यंतच्यतिरिक्तत्वेनैकार्थत्वानु नामसंज्ञ-यवहारणय, जीव, देह, य, खलु, इक्क, ण, दु, णिच्छ्य, जीय, देह, य, कदा, वि, एकनु । घातुसंज–ने प्रापणे, भास व्यक्तायां वाचि, हव सत्तायां, जीव प्राणधारणे । प्रकृतिशब्द-व्यवहारनय, जीव, देह, च, खलु, एक, न, तु, निश्चय, जीव, देह, च, कदा, अपि, एकार्थ । मूलधातु-वि-अब-हुा हरणे, भाष व्यक्तायां वाचि, भू सत्तायां, ऋ गतिप्रापणयोः । पदविवरण-व्यवहारनय-प्रथमा एक कर्ता। भाषते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। जीव:-प्रथमा एक० । देहः-प्रथमा एक०। च-अव्यय । भवति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । खलु-अव्यय । एकः-प्रथमा एक० । न-अध्यय । तु-अव्यय । एक द्रव्यसत्त्वको निरखनेके कारण उन्हें भिन्न-भिन्न कहता है, इसलिये व्यवहारनयसे ही शरीर का स्तवन करके आत्माका स्तवन माना जाता है, निश्चयसे नहीं। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें अज्ञानीका विचार दिखाया था कि जीव और देह एक है । अब उसके समाधान में कहा जा रहा है कि जीव और देहको एक कहना व्यवहार मात्रसे है, परमार्थसे तो जीव और देह कभी भी एक पदार्थ नहीं हो सकते। तथ्यप्रकाश---(१) सिद्धान्त ग्रन्थों में जीवकी संयोगी पर्यायोंका वर्णन है, वहाँ भी सिर्फ देहमें ही जीवका ध्यबहार नहीं, किन्तु उस समावर्तित अवस्थामें जीवका निर्देश है । (.) मात्र जीवस्वभावको निरखनेपर जीव देहसे तो भिन्न प्रकट सिद्ध है ही, किन्तु विकारभावसे भी यह जीव भिन्न है। . सिद्धान्त-(१) देहको प्रात्मा कहना उपचार है । (२) देहको देह व प्रात्माको आत्मा कहना यथार्थ व्यवहार है । दृष्टि- १-द्रव्येद्रव्योपचारक प्रसद्भूतव्यवहार (१०६)। - अनेक अपरसंग्रहभेदक व्यवहारनय (११)। प्रयोग–अपने आत्माको देहसे भिन्न जानकर, देहका ख्याल छोड़कर ज्ञानमात्र प्रात्म Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ७१ पपत्तेः नानात्वमेवेत्येवं हि किल नयविभागः ततो व्यवहारनयेनैव शरोरस्तवनेनात्मस्तवनं मुपपन्तं ॥। २७।। निश्चयस्य षष्ठी एक० जीवः प्रथमा एक० । देहः प्रथमा एक० च अव्यय । कदा- अव्यय । अपि-अव्यय । एकार्थः प्रथमा एकवचन ॥ २७॥ स्वरूपमें विश्राम करना चाहिये ||२७|| यही बात भागेको गाथामें स्पष्ट करते हैं -- [ जीवात् श्रन्यं ] जीवसे भिन्न [ इमं पुद गलमयं देहं ] इस पुद्गलमय देहकी [ स्तुत्वा ] स्तुति करके [ मुनिः] साधु [ खलु मन्यते ] निश्चयतः ऐसा मानता है कि [मया] मैंने [केवली भगवान् ] केवली भगवान्की [स्तुतः ] स्तुति की ओर [ वंदितः ] वन्दना की । तात्पर्य - - देहको स्तुति करनेपर प्रभुकी ही स्तुति होना प्रज्ञानी मानता है । टीकार्थ - - जैसे चांदी के गुण श्वेतपनेके नामसे सुवर्णको भी श्वेत कहते हैं सो परमार्थ से विचारा जाय तब सुवरका स्वभाव सफेद नहीं है, पोला है, तो भी व्यवहारमात्र से हो स्वर्ण श्वेत है, ऐसा कहा जाता है । उसी तरहसे शुक्ल रक्तपना प्रादिक शरीरके गुण हैं, उनके स्तवन से परमार्थं से शुक्लपना आदि तीर्थंकर केवली पुरुषका स्वभाव न होनेपर भी तीर्थङ्कर केबलो पुरुषका व्यवहारमात्र से ही तीर्थंङ्कर केवली पुरुष शुक्ललोहित है, ऐसा स्तवन होता है । परन्तु निश्चयनयसे शरीरका स्तवन करनेसे आत्माका स्तवन नहीं बन सकता । प्रश्न - व्यवहारनयको तो असत्यार्थं कहा है और शरीर जड़ है सो व्यवहारका श्राश्रय करके जड़की स्तुति करनेका क्या फल है ? उत्तर- व्यवहारनय सर्वथा असत्यार्थ नहीं है निश्चयको प्रधान कर ग्रसत्यार्थ कहा है, छद्यस्थ (अल्पज्ञानी) को अपना परका श्रात्मा साक्षात् दोखता नहीं है शरीर ही दीखता है, उसकी शान्तरूप मुद्राको देख अपने भी शांतभाव हो जाते हैं । अतः ऐसा उपकार जान शरीरके श्राश्रयसे भी स्तुति करता है, शांतमुद्रा देख अन्तरंग में वीतराग भावका निश्चय होता है यह भी तो उपकार है । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें प्रासंगिक स्तुतिके विषय में बताया गया था कि प्रतिबुद्ध व्यवहार व निश्चयका विभाग नहीं जानता। उसके सम्बन्ध में यहाँ व्यवहारस्तुति का विभाग बताया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) प्रभुकी निर्मलता के प्रतिशयसे वह देह भो निर्मल हो गया है, निमित्तप्रदर्शनार्थं व प्रयोजनवश प्रभुस्तवन के लिये देहके गुणोंका स्तवन किया जाता है । (२) निश्चयनयसे आत्मा के स्तवन से ही ग्रात्माका स्तवन माना जाता है । सिद्धान्त --- (१) निमित्तका प्रसाद बतानेके लिये अन्य द्रव्यके नैमित्तिक अतिशयकी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तथाहि समयसार इमां जीवादो देहं पुग्गलमयं थुणित्तु मुणी | दिहु संधुदो बंदिदो मए केवली भयवं ||२८|| चित्से प्यारे भौतिक, तनको स्तुति कर भले मुनी माने । श्री मगवत्केवलिको मैंने युति धन्वना को है ।। २६ ।। इममन्यं जीवाद्देहं पुद्गलमयं स्तुत्वा मुनिः । मन्यते खलु संस्तुतो वंदितो भया केवली भगवान् ||२८|| यथा कलधौत गुणस्य पांडुरत्वस्य व्यपदेशेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि कार्तस्वरस्य व्यवहारमात्रेणैव पांडुरं कात्तंस्वरमित्यस्ति व्यपदेश: । तथा शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेः स्तवनेन परमार्थतोऽतत्स्वभावस्यापि तीयंकरके व लिपुरुषस्य व्यवहारमात्रेणैव शुक्ललोहितस्तीर्थकरकेवलिपुरुष इत्यस्ति स्तवनं । निश्चयनयेन तु शरीरस्तवनेनात्मस्तवनमनुपपन्नमेव ॥ २८ ॥ नामसंश- इम, अण्ण, जीव, देह, पुग्गलमय, मुणि, हु, संधुद, बंदिद, अम्ह, केवलि, भगवंत । धातुसं-त्युण स्तुतौ, बंद स्तुती, मन्त्र अवबांधने । प्रकृतिशब्द — इदम् अन्य, जीव, देह, पुद्गलमय, मुनि, खलु, संस्तुत, वंदित, अस्मद् केवलिन्, भगवत् । मूलघातुष्टुत्र, स्तुती, मन-ज्ञाने दिवादि । पदविवरणइमं द्वितीया एक० । अन्यं द्वि० ए० । जीवात् पंचमी एक० । देहं द्वि० एक० पुद्गलमयं द्वितीया ए० । स्तुत्वा असमाप्तिकी क्रिया । मुनिः - प्रथमा एक० । मन्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । खलु - अव्यय । संस्तुतः - प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । वंदितः - प्रथमा एक० क्रिया कृदन्त । मया - तृतीया एक० कर्मवाच्ये कर्ता, केवली - प्रथमा एक० भगवान् प्रथमा ए० कर्मवाच्य में कर्म ॥२८ प्रशंसा बताई जाती है । (२) परमार्थतः खुदके गुणकी प्रशंसासे उसको प्रशंसा होती है । दृष्टि - १ - संश्लिष्ट विजात्यस भूतव्यवहार ( १२५ ) २ - शुद्ध निश्चयतय ( ४६ ) । प्रयोग - देसे प्रत्यन्त भिन्न ज्ञानमात्र प्रभुको निरखकर प्रभुसमान अपने स्वभावको निरखें ||२८|| ऊपरकी बात को माथासे कहते हैं - [ तत् ] वह स्तवन युज्यते ] ठीक नहीं है [हि] क्योंकि [शरीरगुणाः] शरीरके गुण भवंति ] नहीं है । [ यः ] जो [केवलिगुरगान् ] केवलीके गुणोंकी [स] वही [ तत्त्वं ] परमार्थसे [केवलिनं] केवलीको [ स्तोति ] स्तुति करता है । तात्पर्य ---- वास्तव में प्रभु परमात्मा के गुणोंके स्तवनसे ही प्रभु परमात्माको स्तुति बनती है । [निश्चये ] निश्चय में [न [केवलिनः ] केवलीके [न [स्तौति ] स्तुति करता है। टोकार्थ --- जैसे सुधरा में चीिके सफेद गुरणका अभाव होनेके कारण निश्चय से सफेदपने के नामसे सोनेका नाम नहीं बनता, सुवर्णके गुरण जो पीतपना आदि हैं उनके ही नामसे सुव Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग तथाहि सं णिच्छये | जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति कवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं कवलि थुणदि ॥२६॥ यह न सही निश्चयसे, होते तनके न केवलीमें गुरण । जो प्रभुके गुण कहता, वही प्रभूका स्तवन करता ॥२६॥ तनिश्चये न युज्यते न शरीरगुणा हि भवंति केवलिनः । केबलिगुणान् स्तौति यः स तत्त्व केवलिन स्तौति । ___ यथा कार्तस्वरस्य कलधौतगुणस्य पाडुरत्वस्याभावान्न निश्चयतस्तन्यपदेशेन व्यपदेश। कार्तस्वरगुरणस्य व्यपदेशेनैव कार्तस्वरस्य व्यपदेशात, तथा तीर्थकरकेवलिपुरुषस्य शरीरगुणस्य शुक्ललोहितत्वादेरभावान्न निश्चयतस्तत्स्तवनेन स्तवनं, तीर्थङ्करकेवलिपुरुषगुणस्य सवनेनैव तीर्थङ्करकेवलिपुरुषगुणस्य स्तवनात ||२६॥ नामसंज्ञ--त, णिच्छय, ण, ण, सरीरगुण, हि. केवलि, कवलिगुण ज, त, तच्च, केवलि । धातुसंज्ञ-जुज योगे, हो सत्तायां, स्थूण स्तुतौ। प्रकृतिशब्द-तत्, निश्चय. न, न, शरीरगुण, हि, केबलिन, केवलिगुण, यत, तत् तत्व, कबलिन् । मूलधातु----युजिर योगे रुधादि, टुज स्तुतौ, भू सत्ताय त्तायां । पवविवरण-सत्-प्रथमा एकः । निश्चये-सप्तमी एक० । न-अव्यय । युज्यते-वर्तमान लट् कर्मवाच्य अन्य पुरुष एक० । न-अव्यय। शरीरगुणा:-प्रथमा ब्रहु । हि-अव्यय । भवंति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । केवलिनः-पष्ठी एक० । केवलिगुणान्--द्वितीया बहु । स्तौति--अन्य पुरुष एक० क्रिया। य:-प्रथमा एक० कर्ता । स:-प्रथमा एक कर्ता । तस्त्र--अव्यय । केवलिन--द्वि० ए० । स्तौति-अन्य पुरुष एक क्रिया ॥२६।। का नाम होता है 1 उसी तरह तीर्थंकर केवली पुरुषमें शरीरके शुक्ल रक्तता आदि गुणोंका प्रभाव होनेसे निश्चयतः शरीरके गणोके स्तवन करनेसे तीर्थंकर केवली पुरुषका स्तवन नहीं होता । तीर्थंकर केवली पुरुषके गुणोंके स्तवन करनेसे ही केवलीका स्तवन होता है। प्रसंगविवरण-प्रकरणमें यह कहा गया था कि देहके स्तवनसे प्रात्माका स्तवन अप्रतिबुद्ध मानता है, क्योंकि वह नयविभागको नहीं जानता । उसमें से व्यवहारनयका विभाग तो अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था । अब निश्चयनयका विभाग बता रहे हैं । तथ्यप्रकाश---(१) निश्चयसे देहके गुणोंके स्तवनसे तीर्थकर केवली प्रभुके गुणोंका स्तवन नहीं बनता, क्योंकि देहके गुण तीर्थङ्कर केवली प्रभुमें नहीं हैं । (२) तीर्थङ्कर केवली प्रभुके गुणके स्तवनसे ही तीर्थङ्कर केवली प्रभुकी स्तुति परमार्थतः है । सिद्धान्त-(१) किसी द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अन्य द्रव्यमें नहीं होते । (२) किसी द्रव्यको प्रशंसा उस ही के गुणोंके कथनसे है। दृष्टि- १-परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२९)। २-स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिक Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ समयसार कशं शरीरस्तवने तदधिष्ठातृत्वादात्मनो निश्चयेन स्तवनं न युज्यत इति चेत् - णयरम्मि वरिणदे जह ण वि रगणो वण्णणा कदा होदि । देहगुणे थुव्वंते ण केवलिगुणा थुदा होति ॥३०॥ नगरीके वर्णनमें, ज्यौं राजाको न वर्णना होती। तन गुणके धरनमें, त्यों नहि प्रभूको स्तुती होती ॥३०॥ नगरे वणिते यथा नापि राज्ञो वर्णना कृता भवति । देहगुणे स्तूयमाने न केवलिगुणाः स्तुता भवति ॥३०॥ सयहि-त्राकारकरिताबरमुपयनराजनिगीर्णभूमितलं । पिवतीव हि नगरमिदं परिखायलयेन पातालं ॥२५॥ इति नगरे वणितेपि राज्ञः तदधिष्ठातृत्वेपि प्राकारोपवनपरिखादिमत्त्वाभावाद्वर्णनं न स्यात् । तथैव--नित्यमविकारसुस्थितसर्वागमपूर्वसहजलावण्यं । प्रक्षोभ नामसंज्ञ-णयर, वण्णिद, जह, ण, नि, राय, वणणा, कदा, देहगुण, थुब्बत ण, केलिगुण, थुद । धातुसंज-वण्ण वर्णने, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द -नगर, वर्णित, यथा, न, अपि, राजन्, वर्णनत्र , कृता, देहगुण, स्तूयमान, न केवलिगुण, स्तुत। मूलधातु-वर्ण-वर्णने, राज दीप्ती, भू सत्तायां, ष्टुन स्तुती । नय (२८)। प्रयोग--प्रभुके गुणोंके स्तवनसे प्रभुका ध्यान बनाकर शुद्ध पर्यायको स्रोतमें मग्न कर सहजात्मस्वरूपका ध्यान करना चाहिये ॥२६॥ अब जिज्ञासा होती है कि प्रात्मा तो शरीरका अधिष्ठाता है, इसलिये शरीरको स्तुति करनेसे प्रात्माका स्तवन निश्चयसे क्यों ठीक नहीं है ? इसका समाधानरूप गाथा दृष्टांतसहित कहते हैं--[यथा] जैसे [नगरे] नगरका [रिणते] वर्णन करनेपर [राजः वर्सना] राजाका वर्णन [नापि कृता] किया नहीं [भवति] होता उसी तरह [देहगुणे स्तूयमाने] देहके गुरणों का स्तवन होनेपर किवलिगुरणाः] केवलीके गुण [स्तुता न] स्तवनरूप किये नहीं [भवन्ति] होते। तात्पर्य--नगरीका वर्णन होनेपर राजाका वर्णन न होने की तरह देहके गणोंका वर्णन होनेपर परमात्माका वर्णन नहीं हो पाता। इसो नर्थका टीकामें काव्य कहा गया है--'प्राकार' इतयादि । अर्थ-यह नगर ऐसा है कि जिसने कोट (परकोटा) से माकाशको ग्रस लिया है अर्थात् इसका कोट बहुत ऊंचा है। बगीचोंको पंक्तियोंसे जिसने भूमितलको निगल लिया है अर्थात् चारों भोरके बामोंसे पृथ्वो ढक गई है 1 कोटके चारों तरफ खाईके धेरैसे मानो पातालको पी रहा है अर्थात् खाई बहुत गहरी है। लोग ऐसे नगरका वर्णन करते हैं सो यद्यपि इसका अधिष्ठाता राजा है तो भी कोट, बाग, -- - - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग मिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं परं जयति ।। २६॥ इति शरीरे स्तूयमानेपि तीर्थङ्करकेवलिपुरुषस्य तद. धिष्ठातृत्वेपि सुस्थितसर्वांगत्वलावण्यादिगुणाभावात्स्तवनं न स्यात् ॥३०॥ पदविवरण–नगरे-सप्तमी एक० । वणिते-सप्तमी एकः । यथा--अव्यय । न--अध्यय । अपि-अध्यय । राज्ञः-पष्ठी एक० । वर्णना-प्रथमा एक० । कृता-प्र० ए० । अपि-अव्यय । भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक० । देहगुणे-सप्तमी एक० । स्तूयमाने-सप्तमी एकनअव्यय । केवलिगुणा:-प्रथमा बहु० | स्तुता:प्रथमा बहु । भवंति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० ॥३०॥ खाई आदि बाला राजा नहीं है, इसलिये ऐसे नगरके वर्णनसे राजाका वर्णन नहीं हो सकता। उसी तरह तीर्थङ्करका स्तवन शरीरको स्तुति करनेसे नहीं हो सकता है । इसी अर्थको काव्य में कहते हैं -- "नित्य' इत्यादि । अर्थ-अच्छी तरह सुखरूप सर्वाम जिसमें प्रविकार स्थित है, अपूर्व स्वाभाविक लावण्य है जिसमें याने जो सबको प्रिय लगता है, जो समुद्र की तरह क्षोभरहित है, ऐसा जिनेन्द्ररूप सदा जयवंत हो। इस प्रकार शरीरकी स्तुति की, सी यद्यपि तीर्थङ्कर केवली पुरुषके शरीरका अधिष्ठातापना है तो भी सुस्थित सर्वांगपना लावण्यपना आत्मा का गुरण नहीं है, इसलिये तीर्थकर केवली पुरुषके इन गुणोंका अभाव होनेसे शरीरको स्तुति द्वारा उनको स्तुति नहीं हो सकतो । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि निश्वयतः शरीरको स्तुतिसे प्रभुको स्तुति नहीं होती, उसीका विवरण इस गाथामें है । तथ्यप्रकाश-(१) परमात्माकी विशेषता समझानेके लिये शरीरको विशेषता बतानेमें परमात्माके शरीरका अधिष्ठातृत्व सम्बन्ध सूचित होता है । (२) परमौदारिक शरीरका अधिठातृत्व होनेपर भो शरीरका गुण परमात्मामें न होनेसे शारीरस्तवनसे परमात्मस्तवन नहीं होता । सिद्धान्त-(१) एकसे सम्बंधित विजातीय पदार्थकी विशेषतासे उस एककी विशेषता बताना उपवारभाषाको विधि है । (२) किसी एक पदार्थका गुण किसी अन्य पदार्थमें संक्रान्त नहीं होता। दृष्टि- १-परसम्बन्धव्यवहार (१३५) । २--परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६) । प्रयोग-—शरीरकी विशेषतानोंको शरीरमें परिसमाप्त जानकर उसका ख्याल छोड़कर अपनेको चैतन्यात्मक स्वरूपमें तन्मय अनुभवना चाहिये ॥३०॥ अब जिस तरह तीर्थङ्कर केवलौकी निश्चय स्तुति हो सकती है उसी रीतिसे कहते हैं जसमें भी पहले ज्ञेय ज्ञायकके संकरदोषका परिहार करके स्तुति करते हैं-[यः जो [इन्दि. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ समयसार निश्चयस्तुतिमाह तत्र ज्ञेयज्ञायकसंकरदोष परिहारेण तावत् जो इन्दिये जिणित्ता गाणसहावाधियं मुन्दि यादं । तं खलु जिदिदियं ते भांति जे विच्छिदा साहू || ३१ ॥ जो जीति इन्द्रियोंको ज्ञानस्वभावी हि प्रापको माने । नियत जितेन्द्रिय उसको परम कुशल साधुजन कहते ॥३१॥ यः इन्द्रियाणि जित्वा ज्ञानस्वभावाधिक जानात्यात्मानं । तं खलु जितेन्द्रियं ते भगति ये निश्चिताः साधवः । यः खलु निरवधिबंधपर्यायवशेन प्रत्यस्तमितसमस्तस्वारविभागानि निर्मलभेदाभ्यासकौशलोपब्यांतःस्फुटातिसुक्ष्मचित्स्व भावाष्टभबलेन शरीरपरिणामापन्नानि द्रव्येन्द्रियाणि प्रतिविशिष्टस्वस्वविषयव्यवसायितया खंडशः श्राकर्षन्ति प्रतीयमानाखंडेकचिच्छक्तितया भावेन्द्रियाणि नामसंज्ञ ज, इंदिय, णाणसहावाधिय, अत्त, त, खलु, जिंदिदिय, त ज णिच्छिद साहु | धातुसंज्ञ -- जिण जये. कुण जाने, भण कथने । प्रकृतिशब्द-यत्, इन्द्रिय ज्ञानस्वभावाधिक, आत्मन् तत् खलु, जितेन्द्रिय, तत् यत् निश्चित साधु । मूलधातु- इदि परमैश्वर्य, जि-जये, मन ज्ञाने, अत सातत्यगमने, पारिण] इन्द्रियों [जिल्ला ] जीतकर [जळगावधिक ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्यसे अधिक [ श्रात्मानं ] श्रात्माको [ जानाति ] जानता है [ तं खलु ] उसको नियमसे [ये निश्चिताः साधवः ] जो निश्चयनय में स्थित साधुजन हैं [ते] वे [जितेन्द्रियं ] जितेन्द्रिय ऐसा [ भांति ] कहते हैं । तात्पर्य — जो सहज ज्ञानस्वभावमय आत्माको अनुभव कर इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त कर लेते हैं वे जितेन्द्रिय कहलाते हैं । टीकार्थ- जो मुनि द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय तथा इन्द्रियके विषयोंके पदार्थ इन तीनोंको ही असे पृथक कर सब अन्य द्रव्योंसे भिन्न अपने आत्माका अनुभव करता है, वह निश्चयसे जितेन्द्रिय है । कैसी हैं द्रव्येन्द्रियाँ ? अनादि अमर्यादरूप बंधपर्यायके वशसे जिनसे समस्त स्वपरका विभाग नष्ट हो गया है और जो शरीर परिणामको प्राप्त हुई हैं अर्थात् ग्रात्मा से ऐसे एक हो रही है कि भेद नहीं दिखता, उनको तो निर्मल भेदके अभ्यासकी प्रबलता से प्राप्त अन्तरंग प्रकट प्रति गुक्ष्म चैतन्यस्वभाव के अवलम्बनसे अपने से पृथक् किया है, यही द्रव्येन्द्रियोंका जीतना हुआ। कैसी हैं भावेन्द्रिय ? पृथक-पृथक विशेषको लिये हुए जो अपने विषय उनमें व्यापार करनेके कारण जो विषयोंको खंडखंड ग्रहण करती हैं अर्थात् ज्ञानको खंडखंडरूप जानती हैं, उनको प्रतीतिमें श्राती हुई प्रखंड एक चैतन्यशक्तिसे अपनेसे भिन्न Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ग्राह्यग्राहकलक्षणसम्बन्धप्रत्यासत्तिवशेन सह संविदा परस्परमेकीभूतानिव चिच्छुक्तेः स्वयमेवानुभूयमानासंगतया भावेन्द्रियावगृह्यमाणान् स्पर्शादीनिन्द्रियाश्चि सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेनेकवे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षो. भण-शब्दार्थः, साध-ससिद्धौ । पदविवरण-य:-प्रथमा एक० पुं० कर्ता। इन्द्रियाणि-द्वितीया बहु० । असमाप्तिकी क्रियाका कर्म । जित्वा-असमाप्तिकी क्रिया। ज्ञानस्वभावाधिक-द्वितीया एकः । मन्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । आत्मान-द्वितीया एक० । तं-द्वितीया एक० । खलु-अव्यय । जितेन्द्रिय-द्वितीया जानती है, यही भावेन्द्रियोंका जीतना हुआ । इंद्रियोंके विषयभूत पदार्थ कैसे हैं ? ग्राह्यग्राहकलक्षण सम्बन्धकी निकटताके वशसे अपने सम्वेदन (अनुभव) के साथ परस्पर मानो एक सरीखे हो गये हों ऐसे दीखते हैं, उनको अपनी चैतन्यशक्तिके अपने आप अनुभवमें प्राता हुपा जो प्रसंगपना---एकत्व उसके द्वारा भावेन्द्रियसे ग्रहण किये हुए स्पर्शादिक पदार्थोंको अपनेसे पृथक् किया है। यही विषयभूत पदार्थोका जीतना हुया । इस प्रकार इन्द्रियज्ञानके और विषयभूत पदार्थोके ज्ञेयज्ञायकका संकरनामक दोष प्राता था, उसके दूर होनेसे प्रात्मा एकपने में टंकोत्कीर्णबत् निश्चल स्थित समस्त पदार्थोंके ऊपर तैरता, जानता हुया भी उनरूप नहीं होता, प्रत्यक्ष उद्योतपनेसे नित्य ही अन्तरंगमें प्रकाशमान, अविनश्वर, माप ही से सिद्ध और परमार्थरूप ऐसे भगवान ज्ञानस्वभावके द्वारा सब अन्य द्रव्योंसे अतिरिक्त परमार्थतः जो जानता है वह जितेन्द्रिय जिन है, इस प्रकार एक निश्चयस्तुति तो यह हुई । भावार्थ-प्रज्ञान में ज्ञेय तो इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ और ज्ञायक आप प्रात्मा इन दोनोंका अनुभव विषयोंकी प्रासक्ततासे एकसा होता था, सो जब जेय व ज्ञायकको भेदज्ञानसे भिन्नता जानी तब ज्ञेयज्ञायकसंकर दोष दूर हुआ, ऐसा जानना । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि देहकी स्तुतिसे प्रभुको स्तुति नहीं, किन्तु प्रभुके गुणों की स्तुतिसे प्रभुको स्तुति होती है । उसी प्रसंगसे सम्बंधित प्रथम निश्चयस्तुति इस गाथामें की गई है। तथ्यप्रकाश-(१) सम्यक्त्व हुए बाद मोक्षमार्गको प्रगति प्रथम कदम इन्द्रियविजय का बताया गया है । (२) इन्द्रियविषयोपभोगमें अन्तरंग बहिरंग साधन कुल ३ होते हैं--- द्रव्येन्द्रिय, भावेन्द्रिय व विषयसंग; सो इन तीनोंके विजयमें इन्द्रियविजय है (३) द्रव्येन्द्रियाँ स्थूल, भौतिक (शारीरिक) हैं उनका विजय अन्तःप्रकाशमान सूक्ष्म चैतन्यस्वभावके अवलम्बन . से होता है । (४) भावेन्द्रियाँ खण्डखण्ड जाननरूप हैं उनका विजय प्रखण्ड एक चित् शक्तिके अवलम्बनसे होता है। (२) विषयभूत पदार्थ संग कहलाते हैं उनका विजय असंग चैतन्यमान अन्तस्तत्त्वके अनुभवसे होता है । (६) यहाँ शेय है विषयभूत पदार्थ और प्रासंगिक जायक है Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार द्योततया नित्यमेत्रांत : प्रकाशमानेनानपायिना स्वतः सिद्धेन परभार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन सर्वेभ्यो द्रव्यांतरेभ्यः परमार्थतोतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेन्द्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः ||३१|| ७८ एक । ते पुं० प्रथमा बहु० । भणति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । ये - प्रथमा बहु० पुं० | निश्चिता:प्रथमा बहु कर्तृ विशेषण । साधवः - प्रथमा बहु० कर्ता ||३१|| द्रव्येन्द्रिय व भावेन्द्रिय उन तीनोंका जो सहज ज्ञायकस्वरूप जीवके साथ सांकर्य है, सम्बन्ध है उस दोषको दूर किया गया होनेसे ज्ञेयज्ञायकसंकरदोषका परिहार हो जाता है । सिद्धान्त - ( १ ) भूतार्थके आश्रयसे उपाधियोंका परिहार होता है । श्राश्रयसे एकत्वविभक्त श्रन्तस्तत्त्वका प्रकाश होता है । (२) शुद्धनयके दृष्टि - १ - शुद्धभावना शुद्ध किन ( ) २ (४६ ) + प्रयोग - विषयभूत पदार्थ द्रव्येन्द्रिय व भावेन्द्रियके लगावसे हटकर सहजसिद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वरूप अपनेको अनुभवना चाहिये ||३१|| अब भाव्य भावक संकरदोष दूर कर स्तुति कहते हैं-- [ यः तु] जो मुनि [ मोहं] मोह को [जिल्वा ] जीतकर [ श्रात्मानं ] अपने आत्माको [ज्ञानस्वभावाधिकं ] ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्य द्रव्यभावोंसे अधिक [ जानाति ] जानता है [ तं साधु] उस मुनिको [ परमार्थविज्ञायकाः ] परमार्थके जानने वाले [जितमोहं] जितमोह ऐसा [विदन्ति ] जानते हैं । तात्पर्य - जो सहजज्ञानस्वभावमय श्रात्माको अनुभव कर मोहको जीत लेते हैं वे जितमोह कहलाते हैं । टीकार्थ -- जो मुनि फल देनेकी सामर्थ्यं प्रकट उदयरूप होकर भावकरूपसे प्रगट हुए भी मोहकर्मको तदनुकूल परिणत श्रात्मा भाव्यके व्यावर्तन से तिरस्कार करके ( पृथक् करके) जिसमें समस्त भाव्यभावक संकरदोष दूर हो गया है, उसके रूपसे एकत्व होनेपर interfaत् निश्चल, समस्त लोकके ऊपर तैरता प्रत्यक्ष उद्योतरूपसे नित्य ही अन्तरंग में प्रकाशमान, अविनाशी और आपसे ही सिद्ध हुआ परमार्थरूप भगवान् ऐसा वह ज्ञानस्वभाव, उसके द्वारा अन्य द्रव्य के स्वभावसे होने वाले सत्र हो अन्य भावोंसे परमार्थतः अतिरिक्त ऐसे ज्ञानस्वरूप आत्माको अनुभव करता है वह निश्चयतः जितमोह जिन है । इस प्रकार यह द्वितीय निश्चयस्तुति हुई । इस ही प्रकार मोहके पदको बदलकर उसकी जगह राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नौकर्म, मन, वचन, काय-- ये ग्यारह तो इस सूत्र द्वारा और श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन - ये पांच इन्द्रियसूत्र द्वारा ऐसे सोलह पद पलटने से सोलह Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ar मान्यसायकसंकरदोषपरिहारेण - पूर्व रंग जो मोहं तु जिणित्ता गाणसहावाधियं मुगइ श्रदं । तं जिदमोहं साहुं परमदृवियागया विंति ॥ ३२ ॥ ७६ जो जोति मोह सारे, ज्ञानस्वभावो हि श्रापको माने । 'जितमोह साधु उसको, परमार्थग साधुजन कहते ॥ ३२ ॥ मोहंजनाला तं जितमहं साधु परमार्थविज्ञायका विन्दन्ति ||३२|| I यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भय भावकत्वेन भवंतमपि दूरतएव तदनुवृत्तेरात्मनो भाग्यस्य व्यावर्त्तनेन हठान्मोहं व्यक्कृत्योपरत समस्त भाव्यभावकसं करदोषत्वेनैकत्वे टंकोत्कीर्ण विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवांतःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतः नामसंज्ञ – ज, मोह, तु, गाणसहावाधिय, अत्त, त, जिदमोह, साहू, परमदृवियाणय। धातुसंज्ञजिण जये, मुण ज्ञाने, विद ज्ञाने । प्रकृतिशब्द यत्, मोह, तु, ज्ञानस्वभावाधिक, आत्मन् तत् जितमोह, साधु, परमार्थविज्ञायक । मूलधारा - मुह वैचित्ये, जिजये, मन-ज्ञाने, अत- सातत्यगमने साध-संसिद्धी, विलु लाभे । पदविवरण - यः प्रथमा एक० पुं० कर्ता । मोह द्वितीया एक असमाप्तिको क्रियाका कर्म । सु-अव्यय । जिल्ला - असमाप्तिकी क्रिया । ज्ञानस्वभावाधिकं द्वितीया एक० कर्मविशेषण । मन्यते - वर्तमान सूत्र पृथक्-पृथक् व्याख्यानरूप करने चाहिये और इसी उपदेशसे अन्य भी विचार लेने चाहियें। भावार्थ -- जो अपने श्रात्माको जो भावक मोहके अनुसार प्रवर्तन से भाव्यरूप हुआ, उसे भेदज्ञानके बलसे पृथक् अनुभव करता है, वह जितमोह जिन है । इस तरह भाव्यभावक भाव के संकरदोषको दूर कर दूसरी निश्चयस्तुति हुई । यहाँ ऐसा प्राशय है कि जो श्रेणी चढ़नेपर मोहका उदय अनुभव में न रहकर अपने बलसे उपशमादि कर ग्रात्माको अनुभव करता है, उसको जितमोह कहा है । यहाँपर मोहको जीता है, उसका नाश हुआ मत जानना । प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि ज्ञेधजायकभावसंकरदोष दूर कर प्रभु जितेन्द्रिय बने यह प्रथम निश्चयस्तुति है । अब उससे हो सम्बन्धित द्वितीय निश्चयस्तुति यहाँ कही जा रही है ! -- तथ्यप्रकाश - - ( १ ) फलदानसमर्थन से उघड़कर भावकरूपसे हुआ मोह है और उसके अनुरूप प्रवृत्ति होनेसे श्रात्मा भाग्य है इस कथनसे निमित्तनैमित्तिक भावका सही स्वरूप प्रसिद्ध हुआ है । ( २ ) भाव्य और भावकसे पृथक् शुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्वका संचेतन करना मोहपर विजय करना कहलाता है । सिद्धान्त - ( १ ) भावकका निमित्त पाकर प्रात्मा विभाव्य होता है । ( २ ) मोहसे विविक्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व का संचेतन करना मोहका परभाव है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार सिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यांतरस्वभावभावेभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः । एवमेव च मोहपर परिवर्तनेन रागद्वेषलोधमानमागालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायमूत्राण्येकादश पञ्चानां श्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणामिद्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्यातत्वाद्व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ॥३२॥ लट् अन्य पुरुष एक० । आत्मानं-द्वितीया एक० कर्ता । त-द्वितीया एक० । जितमोहं-द्वितीया एक० कमविशेषण । साधं-द्वितीया एक० कर्म । परमार्थविज्ञायका:-प्रथमा बहुवचन कर्ता या कर्तृ विशेषण । विदतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया ॥३२॥ दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) । २-उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध ध्याथिकनय (२४अ)। प्रयोग-विकारभावको नैमित्तिक प्रतएव अस्वाभाविक जानकर उससे अत्यंत उपेक्षा करके अपनेको ज्ञानमात्र अनुभवना चाहिये ।।३२॥ प्रागे भाव्यभावकभावके प्रभाव द्वारा निश्चयस्तुति कहते हैं - [जितमोहस्य तु सापोः] जिसने मोहको जीत लिया है ऐसे साधुके [यदा] जिस समय [मोहः क्षीणः] मोह क्षीण याने नष्ट [भवेत्] होता है [तवा] उस समय [निश्चयविद्भिः] निश्चयके जानने वाले [खनु] निश्चयसे [सः] उस साधुको [क्षीणमोहः] क्षोणमोह ऐसे नामसे [भव्यते] कहते हैं। तात्पर्य--जितमोह साधुके निर्विकल्प समाधिबलसे जब मोह समूल नष्ट हो जाता है तब उसे क्षीणमोह कहते हैं । टीकार्थ--इस निश्चयस्तुति में पूर्वोक्त विधान द्वारा प्रात्मासे मोहका तिरस्कार कर जैसा कहा, बैसे ज्ञानस्वभाव द्वारा अन्य द्रव्यसे अधिक प्रात्माका अनुभव करनेसे जितमोह हुया, उसके जिस समय अपने स्वभावभावकी भावनाका अच्छी तरह अवलम्बन करनेसे मोह की संतानका ऐसा अत्यंत विनाश हो जाता है कि फिर उसका उदय नहीं होता, ऐसा भावकरूप मोह जिस समय क्षोण होता है, उस समय याने भावकमोहका क्षय होनेपर आत्माके विभावरूप भाव्यभावका भी प्रभाव हो जाता है उस समय भाव्यभावकभावके प्रभावसे एकत्व होनेपर टङ्कोत्कीएंवत् निश्चल परमात्माको प्राप्त हुमा क्षीणमोह जिन' ऐसा कहा जाता है अर्थात् साधु पहले अपने बलसे उपशमभाव द्वारा मोहको जीते, पोछे जिस समय अपनी बड़ी मामय से मोहका सत्तामें से नाश कर ज्ञानस्वरूप परमात्माको प्राप्त होता है तब 'क्षीण मोह Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग प्रय भाज्यभावकभावाभावेन---- जिदमोहस्स दु जड्या खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तझ्या हु खीणमोहो भरणदि सो णिच्छयविदूहि ॥३३॥ मोहजयी साधुके, ज्यौं हि सकल मोह क्षीण हो जाता। त्यौं हि परमार्थ ज्ञायक, कहते हैं क्षीणमोह उन्हें ॥३३॥ जितमोहस्य तु यदा क्षीणो मोहो भवेत्साधोः । तदा खलु क्षीणमोहो भण्यते स निश्चयविद्भिः ॥३३॥ इह खलु पूर्वप्रक्रांतेन विधानेनातमनो मोहं न्यस्कृत्य यथोदितज्ञानस्वभावानतिरिक्तात्म. संचेतनेन जितमोहस्य सतो यदा स्वभावभावभावनासौष्ठवावष्टंभात्तत्संतानात्यंतविनाशेन पुनरप्रादुर्भावाय भावकः क्षीणो मोहः स्यात्तदा स एव भाव्यभावकभावाभावेनैकत्वे टंकोत्कीर्णपरमात्मानमवासः क्षीणमोह जिन इति तृतीया निश्चयस्तुतिः। एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमान मायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुरिणरसनस्पर्शन सूत्रारिण षोडश ध्यास्ये नामसंज्ञ-जिदमोह, हु, जइया, खीण, मोह, साहु, तइया, हु, खीणमोह, त, णिच्चयविदु। धातु संज्ञ-क्खि क्षये, हव सत्तायां तृतीयगणे, भण कथने, विद ज्ञाने। प्रकृतिशब्द -जितमोह, तु, यदा, क्षीण, मोह, साधु, तदा, खलु, क्षीणमोह, तत्, निश्चय वित् । मूलधातु-जि जये, क्षि क्षये, मुह-वैचित्ये, लिन' कहा जाता है। यहाँ भी जैसे पूर्व कहा था, उसी तरह मोह पदको पलटकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पशन-ये पद रखकर सोलह सूत्र पढ़ना और व्याख्यान करना तथा इसी प्रकार उपदेश कर अन्य भी विचारना । अब इस निश्चय व्यवहाररूप स्तुतिके अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-- 'एकत्वं' इत्यादि । अर्थ-शरीर और प्रात्माका व्यवहारनयसे एकत्व है, किन्तु निश्चयनयने एकत्व नहीं है। इसी कारण शरीरके स्तवनसे प्रात्मा-पुरुषका स्तवन व्यवहारनयसे हुमा कहा जाता है, किन्तु निश्चयनयसे नहीं । निश्चयसे तो चैतन्यके स्तवनसे ही चैतन्यका स्सवन होता है । यह चैतन्यका स्तवन तो जितेन्द्रिय, जितमोह, क्षीणमोह कहनेसे होता है । इस प्रकार यह सिद्ध हुना कि जो प्रज्ञानीने तीर्थकरके स्तवनका प्रश्न किया था, उसका यह नयविभाग द्वारा उत्तर दिया । उसके बलसे प्रात्मा और शरीरका एकत्व निश्चयसे नहीं है। अब फिर इसी अर्थके जाननेसे भेदज्ञानकी सिद्धि होती है, ऐसा पर्थरूप काव्य कहते हैं--'इति परिचित' इत्यादि । अर्थ-इस तरह जिसने वस्तुके पार्थस्वरूपका परिचय किया __ है, ऐसे मुनिजनोंके द्वारा प्रात्मा और शरीरके एकत्वके नयविभागकी युक्ति द्वारा अत्यन्त Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समथसार यानि । प्रनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि । इत्यप्रतिबुद्धोक्तिनिरासः । एकत्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयाम्नुःस्तोत्रं व्यवहारतोस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्त्वतः । स्तोत्रं निश्चयतश्चितो भवति चित्स्तुत्यैव सैवं भवे नातस्तीर्थंकरस्तवोत्तरवलादेकत्वमात्मांगयोः ॥२७॥ इति परिचिततत्त्वात्मकायकतायां नयविभजनयत्यात्यंतमच्छादितायां । अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरसरभसकृष्टः प्रस्फुटन्नेक एव ।।२८।। ।।३३॥ सत्तायां, साध संसिद्धौ, भण-शब्दार्थ: । पदविवरण--- जितमोहस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । यदा-अव्यय । क्षीणः-प्रथमा एक० । मोहः-प्रथमा एक० । साधो:-षष्ठी. एक० । तदा-अव्यय । खलु-अव्यय । क्षीणमोहःप्रथमा एक० । भण्यते–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० भादकर्मलिङ । सः-प्रथमा एक कर्मवाच्यमें कर्म।। निश्चयविद्भिः-तृतीया बहुवचन कर्मवाच्य में कर्ता ॥३३।। उच्छदित किये जानेपर निजरसके वेग द्वारा खेंचा हुअा एकस्वरूप होकर वह ज्ञान ययार्थरूप । में किस पुरुषके प्रकट नहीं होता अर्थात् अवश्य प्रगट होता ही है । भावार्थ-निश्चय व्यवहारनयके विभागसे प्रात्माका और परका अत्यन्त भेद जो | दिखलाया है, उसको जानकर ऐसा कौन पुरुष है कि जिसके भेदज्ञान नहीं होगा ? क्योंकि ज्ञान अपने स्वरससे आप अपना स्वरूप जानता है । इस प्रकार मप्रतिबुद्धने जो ऐसा कहा था कि हमें तो यह निश्चय है कि जो देह है वही प्रात्मा है, उसका निराकरण (समाधान) किया। प्रसंगविवरण– अनन्तरपूर्व गाथामें निश्चयस्तुतिके प्रकरणमें भाव्यभावकसकर दोष दूर करने वाली द्वितीय निश्चयस्तुति की गई थी अब भाव्यभावकभावके अभावसे होने वाले क्षीरगमोहत्वकी उत्कृष्टता बताने वाली तृतीय निश्चयस्तुति की जा रही है। तथ्यप्रकाश-१-परमात्मपदके लाभके लिये अनिवारित ४ पौरुषोंका इस निश्चय स्तुतिके प्रकरणमें वर्णन हुअा है- (१) जितेन्द्रिय होना, (२) मोहका तिरस्कार होना, (३) जितमोह होना और (४) क्षीणमोह होना ! २–यहाँ क्षीणमोह होनेका उपाय स्वभावभावकी निरन्तर हढ़ भावना होना बताया गया है ।। ३–जानमें प्रात्मा व देहकी एकता पूर्णतया नष्ट होनेपर ज्ञान मात्र जाननरूपसे बर्तता हुमा प्रकट व प्रगत होता ही है । सिद्धान्त—(१) स्वभावभावको भावनाका निमित्त पाकर भावक मोहकर्म कर्मत्वरहित हो जाता है । (.) आत्मा व देहादि परभाव में एकत्वबुद्धिके पूर्णतया नष्ट होनेपर जाननमात्र बर्तता हुआ ज्ञान विलसित होता है । दृष्टि- १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ ब)। २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग एवमयमनादिमोह संतान निरूपितात्मशरीरं कत्वसंस्कारतयात्यन्तमप्रतिबुद्धपि प्रसभोजम्भिततत्वज्ञान ज्योतिर्नेत्रविकारीव प्रकटोद्घाटितपटलष्टसितिप्रतिबुद्धः साक्षात् द्रष्टारं स्वं स्वयंमेव हि विज्ञाय श्रद्धाय च तं चैवानुचरितकामः स्वात्मारामय्यास्यान्यदव्यासाप्रत्याख्यानं किं स्यादिति पृच्छनित्यं वाच्यः--- सव्वे भावे जम्हा पच्चक्खाई परेति णादणं । तह्मा पच्चक्खाणं गाणं यिमा सुव्वं ||३४|| ८३ चूंकि सफल मावोंको, पर हैं यह जानि त्यागना होता । इस कारण निश्चयसे, प्रत्याख्यान ज्ञानको जानो || ३४|| सर्वान् भावान् यस्मात्प्रत्याख्याति परानिति ज्ञात्वा । तस्मात्प्रत्याख्यानं ज्ञानं नियमात् ज्ञातव्यं ||३४|| यतो हि द्रव्यांतरस्वभावभाविनोऽन्यान खिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाव्याप्यत्तया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे ततो य एव पूर्व जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे न नामसंज्ञ-- सब्व, भाव, ज, पर, इति, त, पञ्चकवाण, पाण, नियम । धातुसंज— पडि आ वखा कथने तृतीयगणे उपसर्गादर्थान्तरम, जाण अवबोधने, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक सर्वे, भाव, यत्, पर इति, तत् प्रत्याख्यान, ज्ञान, नियम । मूलधातु - प्रति आख्या प्रकथने उपसर्गादर्थं परिवर्तनम् नि यम परिवे द्रव्यार्थिकनय ( २४ प्र ) । प्रयोग --- इन्द्रियविजय व मोहविजय करनेके लिये एकमात्र चैतन्यस्वभावकी आराधना का पौरुष करना चाहिये ||३३|| अनादिकालीन मोहसंतानसे निरूपित अप्रतिबुद्ध था, सो अब तत्त्वकिसी पुरुषके नेत्र में विकार जैसेका तैसा दीखने लगा ) प्रतिबुद्ध हुआ तब माक्षात् आगे कहते हैं कि इस तरह यह अज्ञानी जीव किये गये आत्मा और शरीरके एकत्वके संस्कारसे अत्यन्त ज्ञान स्वरूप ज्योति प्रकट होनेसे नेत्रके विकारकी तरह (जैसे या तत्र वर्णादिक अन्यथा दीखते थे, जब विकार मिट गया तब अच्छी तरह उघड़ गया है पटलरूप आवरण कर्म जिसका ऐसा देखने वाला अपने को अपनेसे ही जान श्रद्धान कर उसके आवरण करनेका इच्छुक हुआ पूछता है कि इस आत्मारामके अन्य द्रव्यों का प्रत्याख्यात ( त्यागना ) क्या है, उसका समाधान प्राचार्य करते हैं--- [ यस्मात् ] जिस कारण [सर्वान् भावात् ] अपने सिवाय सभी पदार्थ [परान्] पर [तस्मात् ] इस कारण [ज्ञानं ] प्रत्याख्यान है । हैं [इति ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर [ प्रत्याख्याति ] त्यागता है पर हैं यह जानना ही [नियमात् ] निश्चयसे [ प्रत्याख्यानं ] तात्पर्य- अपने ज्ञानमें त्यागरूप अवस्था ही प्रत्याख्यान है ज्ञानका जाननरूप ही -- Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ समयसार पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रयत्ततकर्तृ स्वव्यपदेशत्वेपि ने, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण — सर्वान् द्वितीया बहुवचन पुल्लिंग कर्मविशेषण, भावान् द्वितीया बहुवचन कर्म, यस्मात् हेत्वर्थे पंचमी एक०, प्रत्याख्याति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, परान् द्वि० रहने, ग्रहणविकल्पका परिहार हो जावे, ऐसे ज्ञानको निश्चयसे प्रत्याख्यान कहते हैं । E टोकार्थ — जिस कारण यह ज्ञाता द्रव्य भगवान् श्रात्मा अन्य द्रव्य के स्वभावसे हुए श्रन्यमको अपने भावये उदास होनेसे पररूप जानकर त्यागता हैं, इस कारण जिसने पहले जाना है, वही पीछे त्याग करता है, दूसरा तो कोई त्यागने वाला नहीं है, ऐसे त्यागभाव श्रात्मामें ही निश्चित करके, त्यागके समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभाव की उपाधिमात्र प्रवृत्त त्यागके कर्तृत्वका नाम होनेपर भी परमार्थसे देखा जाय तब परभाव के त्याग के कर्तृका नाम अपनेको नहीं है, स्वयं तो इस नामसे रहित ज्ञानस्वभावसे नहीं छूटा है, इसलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही हैं, ऐसा अनुभव करना चाहिये । भावार्थ --- आत्माको परभावके त्यागका कर्तृत्व है, वह नाममात्र है । आप तो ज्ञानस्वभाव है । परद्रव्यको पर जानो, फिर परभावका ग्रहण नहीं किया, यही त्याग है । ऐसा स्थिर हुमा ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञानके सिवाय कुछ भी दूसरा भाव नहीं है । प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व प्रकरण में श्रज्ञानीको आत्मस्वरूपका प्रतिबोध किया है तब वह स्वयंको जानकर व श्रद्धान कर स्वयंके प्राचरणरूप हो रहना चाहता है सो यह अन्य द्रव्योंके त्याग बिना नहीं बनता है सो वह जानना चाहता है कि अन्य द्रव्योंका प्रत्याख्यान क्या है ? उसके ही समाधान में इस गाथाका अवतार हुआ है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) नैमित्तिक भाव ज्ञाता भगवान श्रात्माके स्वभाव में व्याप्य न हो सकनेसे परभाव हैं । ( २ ) पर व परभावको पररूप दृढ़ता से जान लेना ही प्रत्याख्यान है, क्योंकि आत्मा परपदार्थको न ग्रहण करता है, न त्यागता है । ( ३ ) जिस परपदार्थ के विषय में यह जीव लगावको कल्पना करता है उसका तो ग्रहण करनेमें नाम लिया जाता है और जब उस पदार्थके विषय में लगावको कल्पना नहीं रहती तब उसका त्याग करनेमें नाम लिया जाता है । सिद्धान्त - ( १ ) यह जीव परद्रव्यको न ग्रहण करता है, न त्यागता है । (२) आत्मस्वभाव में व्याप्य नहीं होनेसे विकार परभाव हैं, पोद्गलिक हैं । दृष्टि - १ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२६) । २ - विवक्षितैकदेश शुद्धनिश्चयनय ( ४८ ) । A Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ८५ परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात्प्रत्यास्थानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम् ॥३४॥ बहु०, इति-अव्यय, ज्ञात्वा-असमाप्ति की क्रिया, तस्मात्-हेत्वर्थे पंचमी एक०, प्रत्याख्यान-प्रथमा एक०, ज्ञान-प्रथमा एक०, नियमात्-पंचमी एक०, ज्ञातव्यं-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया ॥३४॥ ___ प्रयोग में केवल ज्ञानमात्र हूं, इसी स्वरूपमें जाननका कार्य किया करता हूं, अन्य कुछ नहीं, ऐसी ज्ञानवृत्ति बनानी चाहिये । ३४।। आगे पूछते हैं कि ज्ञाताके प्रत्याख्यानको ज्ञान ही कहा गया है इसका दृष्टान्त क्या है ? उसके उत्तररूप दृष्टान्त दान्तिको गाथा द्वारा व्यक्त कर कहते हैं- [यथा नाम] जैसे लोकमें [कोपि पुरुषः] कोई पुरुष [परद्रव्यं इति ज्ञात्वा] परवस्तुको कि यह परवस्तु है ऐसा जान करके [त्यजलि] परवस्तुको त्यागता है [तथा] उसी तरह [शानी] ज्ञानो [ सर्वान] सब [परमावाद] परद्रव्योंके भावोंको ज्ञात्वा] ये परभाव हैं, ऐसा जानकर [विमुञ्चति] उनको छोड़ता है। ___ तात्पर्य-परद्रव्यमें परत्वके जाननपूर्वक ही परपरिहार होनेके दृष्टांतसे ज्ञाताके वास्तविक प्रत्याख्यानका समर्थन किया गया है। टोकार्थ-जैसे कोई पुरुष धोबीके घर दुसरेका वस्त्र लाकर उसे भ्रमसे अपना समझ प्रोढ़कर सो गया। उसके पश्चात् दूसरेने उस वस्त्रका पल्ला पकड़ खींचकर उघाड़कर नंगा किया और कहा कि "तू शीघ्र जाग सावधान हो, मेरा वस्त्र बदले में भा गया है, सो मेरा मुझे दे" ऐसा बारम्बार वचन कहा । सो सुनता हया उस वस्त्रके सब चिह्न देख परीक्षा कर ऐसा जाना कि "वह वस्त्र तो दूसरेका ही है" ऐसा जानकर ज्ञानी हुआ उस दूसरेके कपड़ेको शीघ्र ही त्यागता है । उसी तरह ज्ञानी भी भ्रमसे परद्रध्यके भावोंको ग्रहण कर अपने जान प्रातमामें एकरूप मानकर सोता है, बेखबर हुमा प्राप ही से प्रशानी हो रहा है। सो जब श्रीगुरुके द्वारा परभावका भेदज्ञान कराके एक प्रात्मभाव रूप कराया गया "तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा एक ज्ञानमात्र है, ऐसे बारम्बार प्रागमके वाक्य सुनता हुआ समस्त चिह्नोंसे अच्छी तरह परीक्षा करके निश्चित ये सब परभाव हैं । ऐसा जानकर ज्ञानी सब परभावोंको तत्काल छोड़ देता है। ___ भावार्थ--जब तक परवस्तुको भूलकर अपनी जानता है, तब तक ही ममत्व रहता है और जब यथार्थज्ञान हो जानेसे परको पराई जाने, तब दूसरेकी वस्तुसे ममत्व नहीं रहता। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं 'अवतरति' इति । प्रर्थ- यह परभावके त्यागके दृष्टान्तको दृष्टि जिस तरह पुरानी न पड़े, उस तरह अत्यन्त वेगसे जब तक प्रवृत्तिको Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टान्त इत्यत प्राह जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिणंति जाणिदु चयदि । तह सव्वे परभावे णाऊण विमुचदे णाणी ॥२५।। जसे कोई पुरुष पर, वस्तको पर हि जानकर नजना ! त्यौँ सब परभावोंको, पर जानत विज्ञ है तजता ॥३५॥ यथा नाम कोपि पुरुषः परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति । तथा सर्वान पर भावान् ज्ञात्वा विमुचति ज्ञानी । यथा हि कश्चित्पुरुषः संभ्रांत्या रजकात्परकीयं चीवरमादायात्मीयप्रतिपल्या परिघाय शयानः स्वयमज्ञानी सन्नन्येन तदंचलमालंब्य बलान्नग्नीक्रियमाणो भक्षु प्रतिबुध्यस्वार्पय परिवतितमेतद्वस्त्रं मामकमित्यसकृद्वाक्यं शृण्वन्नखिलश्चिन्है: सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेतत्परकीयमिति ज्ञात्वा ज्ञानी सन्मुंचति तच्चीवरमचिरात् तथा ज्ञातापि संभ्रांत्या परकीयान्भावानादायात्मीय नामसंझ-जह, णाम, क, वि, पुरिस, परदन्व, इम, इति तह, सब्द, परभाव, णाणि । धातुसंज्ञजाण अवबोधने, च्चय त्यागे, विन्मुच त्यागे तृतीयगणे । प्रातिपदिक-यथा, नामन्, किम्, अपि, पुरुष, परअध्य, इदम्, इति, तथा, सर्व, परभाव, ज्ञानिन् । मूलधातु- गतौ, ज्ञा अवबोधने, त्यज हानौ वि-मुच्लू मोक्षणे । पदविवरण-यथा अव्यय, नाम-प्रथमा एक. या अव्यय, क:-प्रथमा एक०, अपि-अव्यय, प्राप्त न हो; उसके पहले हो तत्काल सक्ल अन्य भावोंसे रहित प्राप ही यह अनुभूति प्रकट हो जाती है। भावार्थ-- यह परभावके त्यागका दृष्टान्त कहा, उसपर दृष्टि पड़े, उससे पहले सब अन्य भावोंसे रहित अपने स्वरूपका अनुभव तो तत्काल हो ही जाता है, क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जब वस्तुको परको जान ली, तब उसके पश्चात् ममत्व नहीं रहता। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञानका प्रत्याख्यान बताया गया था, अब उसी विषयको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं। तथ्यप्रकाश-(१) परकीयभावोंमें प्रात्मीय प्रतिपत्ति होना व्यामोह है । (२) प्रात्मा के सनातन असाधारण चिह्नसे भिन्न नैमित्तिक चिह्न परभाव हैं। सिद्धान्त-१-- अन्य वस्तुमें आत्माका प्रारोपण करना उपचार है, मिथ्या है। (२) प्रात्माके असाधारण शाश्वत गुणोंसे प्रतिमाका परिचय पाना समीचीन उपाय है । दृष्टि-(१) संश्लिष्ट विजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार व असंश्लिष्ट विजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२३, १२५) । २- अभेद परमशुद्ध निश्चयनय, सभेद परमशुद्धनिश्चयनय (४४, ४५) । प्रयोग-संश्लिष्ट व प्रसंश्लिष्ट सब पर व परभावोंसे विविक्त सहजपरमात्मतत्वका - - - - -. . Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ पूर्व रंग प्रतिपत्त्यात्मन्यध्यास्य शयानः स्वयमज्ञानी सन् गुरुणा परभावविवेकं कृत्वकौक्रियमाणो मक्षु प्रतिबुध्यस्वैकः स्वम्व समाधिमान्छौताह शृण्वन्नखिलश्चिन्हैः सुष्ठु परीक्ष्य निश्चितमेते परभावा इति ज्ञात्वा ज्ञानी सन् मुंचति सर्वान्परभावानचिरात् । अवतरति न यावद् वृतिमत्यंतवेगादनवमपरभावत्यागदृष्टांतहतिः । झटिति सकलभावरन्यदीयविमुक्ता स्वयमियमनुभूतिस्तावदाविर्वभूव ।।२६॥३५॥ पुरुषः-प्रथमा एक० कर्ता, परतव्यम्-प्रथमा एक० इदम्-प्रथमा एक०, इति-अव्यय ज्ञात्या-असमाप्तिकी किया, त्यजति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, तथा-अव्यय, सर्वान-द्वितीया बहु०, परभावान-हि० बहु०, ज्ञात्वा-असमाप्तिकी क्रिया, विमुंचति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, ज्ञानी--प्रथमा एकo कर्ता ॥३५॥ भेदविधिमें ज्ञान दर्शनादि गुणोंरूप व अभेदविधिमें चैतन्यस्वरूपमात्र अपनेमें अपनेको अनुभवना चाहिये ॥२५॥ आगे इस अनुभूतिसे परभाबका भेदज्ञान किस तरह हुग्रा, ऐसी माशंका करके प्रथम भावक जो मोहकर्मके उदयरूप भाव, उनके भेदज्ञानका प्रकार कहते हैं- [बुध्यते] जो ऐसा जाने कि [मोहः मम कोपि नास्ति] मोह मेरा कोई भी सम्बन्धी नहीं [एकः उपयोग एवं महं] एक उपयोग ही मैं हूं [तं] ऐसे जाननेको [समयस्य] सिद्धान्तके अथवा स्व-परस्वरूप के [विज्ञायकाः] जानने वाले [मोहनिर्मत्वं] मोहसे निर्ममत्व [विति] समझते हैं, कहते तात्पर्य - मोहशून्य उपयोगमात्र अंतस्तत्त्वके जाननहारको मोहनिर्मम कहते हैं । टीकार्थ-मैं सत्यार्थरूपसे ऐसा जानता हूं कि यह मोह है, वह मेरा कुछ भी नहीं लगता है । निश्चयसे इस मेरे अनुभवमें फल देनेकी सामर्थ्य द्वारा प्रकट होकर भावकरूप हुए पुद्गलद्रव्य परमार्थसे परके भावके भावसे भाव्य नहीं कर सकते। यहां यह समझना कि स्वयमेव सब वस्तुओंके प्रकाश करने में चतुर विकासरूप हुई और जिसमें निरंतर हमेशा प्रताप सम्पदा पायी जाती है, ऐसी चैतन्यशक्ति, उस मात्र स्वभावभाव द्वारा भगवान प्रात्माको हो जाना जाता है कि मैं परमार्थसे एक चित्शक्तिमात्र हूं । इस कारण यद्यपि सब द्रव्योंके परस्पर साधारण एक क्षेत्रावगाह होनेसे मेरा पात्मा जड़के साथ श्रीखण्डकी तरह एकमेक हो रहा है तो भी श्रीखण्डकी तरह स्पष्ट स्वदमान स्वादभेदके कारण मोहके प्रति में निर्मम ही हूं, क्योंकि यह मात्मा सदाकाल ही अपने एकरूपताको प्रास हुमा अपने स्वभावरूप समय महलमें विराज रहा है । इस तरह भावकभावरूप भोहके उदयसे भेदज्ञान हुमा जानना ।। भावार्थ-मोहकर्म जड़ पुद्गल द्रव्य है, इसका उदित कलुष (मलिन) भाव भी पुद् Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अथ कथमनुभूते। परमावविधेको भूत इत्याशंक्य भावकभावविवेकप्रकारमाह णत्थि मम को वि मोहो बुज्झदि उवभोग एव अहमिक्को। तं मोहणिम्ममत्तं समयस्स. वियाण्या विति ॥ ३६ ॥ मोह न मेरा कुछ है, मैं तो उपयोगमात्र एकाको । __ यों जाने उसको मुनि, मोहनिर्ममत्व कहते हैं ॥३६॥ नास्ति मम कोपि मोहो बुध्यते उपयोग एवाड्मेकः । तं मोइनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायकाः विदंति ॥३६॥ इस खलु फलबानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकेन सता पुद्गल द्रव्येगाभिनित्य॑मानष्टंकोस्कीणेकज्ञायकस्वभावभावस्य परमार्थतः परभावेन भावयितुमशक्यत्वात्कतमोपि न मम मोहोस्ति किंचतत्स्वयमेव च विश्वप्रकाशचंचुरविकस्वरानवरतप्रतापसंपदा चिच्छक्तिमात्रेण स्वभावभावेन भगवानात्मवावबुध्यते । यत्किलाहं खल्वेकः ततः समस्तद्रव्याणां परस्परसाधारणावगाहस्य निवारयितुमशक्यत्वान्मज्जितावस्थायामपि दधिखंडावस्थायामिव परिस्फुटस्वदमानस्वादभेदतया मोहं प्रति निर्ममत्वोस्मि । सर्वदेवात्मकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् । इतीत्थं भावकभावविवेको भूतः । नामसंज्ञ....ण, अम्ह, क, वि, मोह, उवओग, एव, अम्ह, इक्क, त, मोहणिम्ममत्त, समय, वियाणय । धातुसंज्ञ--अस सत्तायां, बुज्झ अवगमने, विद ज्ञाने, बि-जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-न, अस्मद, किम्, अपि, मोह, उपयोग, एव, तत्, मोहनिर्ममत्व, समय, विज्ञायक । मूलधातु--अस भुवि, मुह वैचित्ये, बुध अवगमने, उप-युजिर योगे, विद ज्ञाने । परविवरण-न-अव्यय । अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकगलका विकार है, यही भावकका भाव है । जब यह चैतन्यके उपयोगके अनुभव में प्राता है, तब उपयोग भी बिकारी हुमा रागादिरूप मलिन दोखता है । और जब इसका भेदज्ञान होवे कि चैतन्यकी शक्तिको व्यक्ति तो ज्ञानदर्शनोपयोग मात्र है तथा यह कलुषता रागद्वेष मोहरूप है, और वह कलुषता द्रव्यकर्मरूप जड़ पुद्गलद्रव्यकी है, ऐसा भेदज्ञान हो जाय तब भावकभाव जो द्रव्यकर्मरूप मोहके भाव उनसे भेद प्रवश्य हो सकता है और प्रात्मा भी अपने चैतन्यके अनुभवरूप होगा। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं 'सर्वतः' इत्यादि । पर्थ-~-मैं सर्वांग अपने निजरसरूप चतन्यके परिणमनसे पूर्ण भाव वाले एक अपने पापको यहाँ स्वयं अनुभवता हूं, इसी कारण यह मोह मेरा कुछ भी नहीं लगता अर्थात् इसका और मेरा कुछ भी नाता नहीं है । मैं तो शुद्ध चैतन्यका समूहरूप तेज पुंजका निधि हूं। इस तरह अान्तरिक भावकभावका अनुभव करे । इसी प्रकार गाथामें जो मोहपद है, उसे पलटकर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन-ये सोलह पृथक् Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहेक । नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥ एवमेव च मोहपदपरिवर्त्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुरिणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्माप्यूह्यानि ।।३६।। बचन क्रिया । मम-षष्ठी एक । कः-पुल्लिग प्रथमा एक० । अपि अव्यय । मोह:-प्रथमा एक० । बुध्यतेवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक दिवादि क्रिया । उपयोग:-प्रथमा एकः । एष-अव्यय । अहं-प्रथमा एका० । एक:--प्रथमा एक० । तं-द्वितीया एक० । मोहनिर्ममत्व-द्वितीया एक० । समयस्य-ठी ए७ । विज्ञायकाःप्रथमा बहु० कर्ता या कर्तु विशेषण । विदन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ।।३६॥ पुथक सोलह गाथा सूत्रों द्वारा व्याख्यान करम' और इसी जस्ले शो पायी विकार लेना। प्रसंगविवरण—इस स्थल में निश्चयस्तुतिसे सम्बंधित परभावके विवेककी बात चल रही थी । अनन्तरपूर्व गाथामें दृष्टान्तपूर्वक परभावविवेकके परिणामको बात कही थी । अब इस गाथामें परभावसे विवेक करनेके याने जुदा होनेके उपायके निर्देशनमें भावभावके विवेक की रीति बताई गई है। तथ्यप्रकाश-(१) द्रव्यमोह उपादानतया भावक पुद्गलद्रव्यके द्वारा रचा गया है । (२) भावमोह भावक पुद्गलद्रव्य के द्रव्य मोहका प्रतिफलन होनेसे नैमित्तिक है । (३) द्रव्यमोह तो उपादानतया प्रकट परभाव हैं । (४) भावमोह नैमित्तिक होनेसे परभाव है । (५) प्रत्येक पदार्थ सदाकाल ही अपने आपके स्वरूप में ही रहा करता है। सिद्धान्त – (१) जीवदशा व पुद्गलदशामें परस्पर निमित्तनमित्तिक भाव होनेसे द्रव्यमोह भी नैमित्तिक है व भावमोह भी नैमित्तिक है । (२) निमित्त व नैमित्तिकका परिचय दोनोंको परभाव जानकर उनका अपोहन करके शुद्ध द्रव्यका उपादान करनेके लिये है । दृष्टि-१- उपाधिस्सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २- विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८)। प्रयोग-द्रव्यमोह, भावमोह व भावमोहके प्राश्ररभूत विषयसंग इन सबसे विभक्त चितशक्ति मात्र मैं सहज परमात्मतत्त्व हूं, ऐसी अन्तः पाराधना रहनी चाहिये ।।३६॥ प्रागे ज्ञेयभावसे भेदशान करनेकी रीति बतलाते हैं- [बुध्यते] ऐसा जाने कि [धर्मादयः] ये धर्म मादि द्रव्य [मम न सन्ति] मेरे कुछ भी नहीं लगते [अहं] मैं तो [एक उपयोग एव] एक उपयोग ही हूं [२] ऐसा जाननेको [समयस्य विज्ञायकाः] सिद्धान्त व स्वपरसमयरूप समयके जानने वाले [धर्मनिर्ममत्वं] धर्मद्रव्यसे निर्ममत्व [विन्दन्ति ] कहते हैं । तात्पर्य --अपनेको धर्मादि द्रव्यों से अत्यन्त विविक्त परखकर एक उपयोगमात्र अन्त Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अथ शेयभावविवेकप्रकारमाह---- णत्थिं मम धम्म श्रादी बुज्झदि उवयोग एक अहमिक्को । तं धम्मणिम्ममत्तं समयस्स वियाणया विति ॥ ३७॥ धर्मावि पर न मेरे, मैं तो उपयोगमात्र एकाकी । यों जाने उसको मुनि, धर्मनिर्ममत्व कहते हैं ॥३७॥ न सन्ति मम धर्मादयो बुध्यते उपयोग एवाहमेक: 1 तं धर्मनिर्ममत्वं समयस्य विज्ञायका विदन्ति ॥३७॥ अमूनि हि धर्माधर्माकाशकालपुद्गलजीवांतरारिए स्वरसविम्भितानिवारितप्रसरविश्व. घस्मरप्रचंडचिन्मात्रशक्तिकवलिततयात्यंतमंतर्मग्नानीवात्मनि प्रकाशमानानि टंकोत्कीर्णे कशायकस्वभावत्वेन तत्वतोंतस्तत्वस्य तदतिरिक्तस्वभावतया तत्त्वतो बहिस्तत्त्वरूपतां परित्यक्तुमशक्यत्वान्न नाम मम संति । किंचतत्स्वयमेव च नित्यमेवोपयुक्तस्तत्त्वत एवैकमनाकुलमात्मानं नामसंज्ञ- ण, अम्ह, धम्मआदि, उवओग, अम्ह, इबक, त, धम्मणिम्ममत्त, समय, वियाणय । धातुसंज- जस्स सत्तायां, बुज्झ अवगमने, विद ज्ञाने। प्रातिपविक–न, अस्मद, एक, तत्, धर्मनिर्ममत्व, समय, विज्ञायक ! मूलधातुअस भुवि, बुध अवगमने, विद ज्ञाने। पदविवरण--न-अव्यय अस्ति-वर्तस्त्तत्त्वके जाननहारको धर्मद्र व्यादिनिर्मम कहते हैं। टीकार्थ-अपने निजरससे प्रकट और निवारण नहीं किया जाय ऐसा जिसका फैलाव है तथा समस्त पदापोंके ग्रसनेका जिसका स्वभाव है, ऐसी प्रचंड चिन्मात्रशक्तिके द्वारा ग्रासीभूत होनेसे प्रत्यन्त निमग्नकी तरह प्रात्मामें प्रकाशमान. जो धर्म, अधर्म, प्राकाश, काल, पुद्गल व अन्य जीर ये समस्त परद्रव्य मेरे कुछ नहीं है। क्योंकि टंकोत्कोरणं एक ज्ञायक स्वभावरूपसे परमार्थतः अन्तरंग तत्त्व तो मैं हूं और वे परद्रव्य उस मेरे स्वभावसे भिन्न होनेके कारण परमार्थसे बाह्य तत्त्वरूप छोड़नेको असमर्थ हैं। यहां ऐसा समझना कि यह प्रात्मा चैतन्यमें आप ही उपयुक्त हुमा परमार्थसे निराकुल एक प्रात्माको ही अनुभवता हुमा भगवान मात्मा ही जाना जाता है कि में प्रकट निश्चयसे एक ही हूं। इस कारण शेयज्ञायकभावमात्र से उपजात परद्रव्योंसे परस्पर मिलन होनेपर भी प्रकट स्वादमें माते हुए स्वभावभेदके कारण धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल व अन्य जीवोंके प्रति में निर्मम हूं। क्योंकि सदाकाल ही अपने एकत्वमें प्राप्त होनेसे पदार्थोकी ऐसी ही व्यवस्था है कि अपने स्वभावको कोई नहीं छोड़ता । ऐसा यों शेयभावोंसे भेदज्ञान हुआ। __यहाँपर इसी अर्थका कलशरूप काय कहते हैं---'इति सति' इत्यादि । अर्थ - इस तरह पूर्वकथित रीतिसे भावकभावोंसे और शेयभावोंसे भेदज्ञान होनेपर सभी अन्य भावोंसे जन Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग कलयन् भगवानात्मैव वाबुध्यते । यत्किलाहं खल्वेकः ततः संवेद्यसंवेदकभावमात्रोपजातेतरेतरसंबलनेपि परिस्फुटस्वदमानस्वभावभेदतया धर्माधर्माकाशका पुद्गलजीवांतराणि प्रति निर्ममत्वोस्मि । सर्वदेवात्मैकत्वगतत्वेन समयस्यैवमेव स्थितत्वात् इतीत्थं शेयभावविवेको भूतः । इति सति सह सर्वेरन्यभावविवेके स्वयम्यमुपयोगो विभ्रदात्मानमेकं । प्रकटितपरमार्थेर्दर्शनज्ञानवृत्तैः कृतपरिणतिरात्माराम एवं प्रवृत्तः ||३१|| ||३७ ६१ मान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, सम-षष्ठी एक०, धर्मादयः प्रयमा बहु०, बुध्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया दिवादिगणे, उपयोगः- प्रथमा ए०, एव-अव्यय, अहं प्रथमा एक०, एक:- प्रथमा एक०, तं - द्वितीया. ए०, धर्मनिर्ममत्वं द्वि० एक०, समयस्थ- पष्ठी एक०, विज्ञायकाः- प्रथमा बहु०, विदन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया ॥ ३७ ॥ भिन्नता हुई, तब यह उपयोग स्वयं ही अपने एक प्रात्माको ही धारता हुआ, जिनका परमार्थ प्रकट हुआ है, ऐसे जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र उनरूप जिसने परिणमन किया है ऐसा होना हुआ अपने आत्मा रूपी बाग ( क्रीड़ावन) में प्रवृत्ति करता है, अन्य जगह नहीं जाता | भावार्थ -- सब परद्रव्योंसे तथा उनसे उत्पन्न हुए भावोंसे जब भेद जाना, तब उपयोगको रमने के लिए अपना आत्मा ही रहा, दूसरा स्थान नहीं रहा । इस तरह दर्शन, ज्ञान और चारित्र से एकरूप हुआ ज्ञानी आत्मामें ही रमण करता है, अन्यत्र नहीं । प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व गाथा में भावकभाव के विवेकका प्रकार बताया था, ब निश्चयस्तुति के प्रकरणसे सम्बंधित ज्ञेयभावके विवेकका प्रकार बताया जा रहा है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) एक धर्मद्रव्य, एक अधमंद्रव्य, एक श्राकाशद्रव्य, प्रसंख्यात कालद्रव्य, अनंत पुद्गलद्रव्य व अनंत जीवांतर इनका एक ज्ञाता जीवके साथ मात्र क्षेत्रज्ञायक संबंध है । (२) ज्ञाता अन्तस्तत्व है, ज्ञेय बहिस्तत्व है । (३) प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वरूपके एकत्व में प्राप्त है, अतः किसी भी पदार्थका दूसरा कुछ भी सम्बंधी नहीं है । सिद्धान्त -- ( १ ) ज्ञाताका ज्ञेयोंके साथ ज्ञेयशायक सम्बंध है । ( २ ) प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूपके एकत्वमें प्राप्त है अन्य सबसे विभक्त है । दृष्टि - १ - स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहार (ee ) । २- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय, परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय ( २८, २६) । प्रयोग – मुझ ज्योतिस्वरूपका स्वभाव है कि जो सत् है तद्विषयक जानन परिणमन चलता है, किन्तु बाह्य ज्ञेयसे मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं और तद्विषयक प्रतिभास भी भोपाधिक है, मैं प्रतिभासमानस्वभावी हैं, अतः मैं अपने में अपना जानन बर्तता हुआ रहूं ऐसा प्रन्तः पौरुष करना चाहिये ||३७|| Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अथवं दर्शनशानचारित्रपरिणतस्यास्यात्मनः कोहक स्थरूपसंचेतनं भवतीत्यावेदयन्नुपसंहरति अहमिक्को खलु सुद्धों दसणणाणमइयो सदारूबी। दि अस्थि मा किंचिति अग परमाणुमित्तंपि ॥३॥ मैं एक शुद्ध चिन्मय, शुचि दर्शनशासमय प्ररूपी हूं। अन्य परमाणु तक भी, मेरा कुछ भी नहीं होता ॥३॥ अहमेक; खन्नु शुद्धो दर्शनज्ञानमयः सदाऽरूपी। नाप्यस्ति मम किंचिदप्यन्यत्परमाणुमात्रमपि ॥३८॥ यो हि नामानादिमोहोन्मत्ततयात्यंतमप्रतिबुद्धः सन् निविणेन गुरुणानवरतं प्रतिबोध्यमानः कथं चनापि प्रतिबुध्य निजकरतल विन्यस्तविस्मृतचामीकरावलोकनन्यायेन परमेश्वरमात्मानं ज्ञात्वा श्रद्धायानुचर्य च सभ्यगेकात्माराभो भूतः स खल्वहमात्मात्मप्रत्यक्षं चिन्मात्र ज्योतिः । समस्तक्रमाक्रमप्रवर्तमानव्यावहारिकभावैश्चिन्मात्राकारेणाभिद्यमानत्वादेको नारकादिजीवविशेषाजीवपुण्यपापास्त्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षलक्षणव्यावहारिकनवतत्वेभ्यष्टकोत्कीर्णेकज्ञा. नामसंज्ञ-अम्ह, इक्क, खलु, सुद्ध, दसणणाणम इअ, सदा, अरूवि, ण, बि, अम्ह, किचि, वि, अण्ण, परमाणु मित्त, पि । धातुसंज्ञ-सुज्झ शौचे, अस सत्तायां, दंस दर्शनायां । प्रातिपदिक-अस्मद्, एक, खलु, स्वयं नहीं परिणमनेके कारण वास्तव में सदा ही अरूपो हूँ। ऐसे सबसे पृथक् स्वरूपका अनुभव करता हुग्रा में प्रताप सहित हूं। ऐसे प्रताप रूप हुए मुझमें बाह्य अनेक प्रकार स्वरूपकी सम्पदासे समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं तो भी परमाणु-मात्र द्रव्य भी मुझे प्रात्मीय रूप नहीं प्रतिभासित होता जिससे कि मेरे भावकरूपसे तथा ज्ञेयरूपसे मुझसे एक होकर फिर मोह उत्पन्न करे । क्योंकि मेरे निज रससे ही ऐसा महान् ज्ञान प्रकट हुआ है, जिसने मोहको मूलसे उखाड़ कर दूर किया है, जो फिर उसका अंकुर न उपजे ऐसा नाश किया है। भावार्थ-- यह प्रात्मा अनादिकाल से लेकर मोहके उदयसे अज्ञानी था, सो श्रीगुरुके उपदेशसे और अपनी अच्छी होनहारसे ज्ञानी हुमा, अपने स्वरूपको परमार्थ से जाना कि मैं एक है, शुद्ध हूँ, अरूपी हूँ, दर्शन ज्ञानमय हूँ। ऐसा अन्तस्तत्त्व जाननेसे मोहका समूल नाश हुआ, भावकभावसे और ज्ञेयभावसे भेदज्ञान हुअा, स्वरूपसम्पदा अनुभबमें आई, तब फिर मोह क्यों उत्पन्न होगा? अब जिस प्रात्माका अनुभव हुमा, उसकी महिमा प्राचार्य कहकर आशीर्वाद देते हैं कि ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रात्मामें समस्त लोक मग्न होवे 'मज्जंतु' इत्यादि । प्रर्थ—यह ज्ञानसमुद्र भगवान् प्रात्मा विभ्रमरूप चादरको शक्तिसे डुबोकर (दूर कर) पाप सर्वांग प्रकट हुना है सो ग्रन समस्त लोक इसके शांतरसमें एक ही समय अतिशयसे मग्न होवे । जो शांतरस समस्त Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग ६३ यकस्वभावभावनात्यंतविविक्तत्वाच्छुद्धः । चिन्मानतया सामान्य विशेषोपयोगात्मकतानतिक्रमणा. दर्शनज्ञानमयः स्पर्शरसगंधवर्णनिमित्तसंवेदनपरिणतस्वेपि स्पर्शादिरूपेण स्वयमपरिगमनात्परमार्थतः सदैवारूपोति प्रत्यगह स्वरूप संचेतयमानः प्रतपामि । एवं प्रतफ्तश्च मम बहिर्विचित्रशुद्ध, दर्शनज्ञानमय, सदा, अरूपिन्, न, अपि, मम किंचित्, अपि, अन्यत्, परमाणुमात्र, अपि । मूलधातुशुध शोचे, इशिर् प्रेक्षणे, ज्ञा अवबोधने । पद विवरण - अहं-प्रथमा एक० । एक:-प्रथमा एक० । खलुलोक पर्यंत उछल रहा है। ___भावार्थ-~- जैसे समुद्रकी आड़ में कुछ पा जाय तब जल नहीं दिखता और जब पाड़ दूर हो जाय तब प्रकट दीखता हुअा लोकको प्रेरणा योग्य हो जाता है कि इस जलमें सब लोक स्नान करो । उसी तरह यह प्रात्मा विभ्रम द्वारा माच्छादित था, तब इसका रूप नहीं दीखता था, जब विभ्रम दूर हुआ, तब यथार्थ स्वरूप प्रकट हुअा। अब इसके वीतरागविज्ञान रूप शान्तरसमें एक कालमें सब लोक मग्न हो जानो, ऐसी प्राचार्य ने प्रेरणा की है अथवा जक मात्माका अज्ञान दूर हो जाता है, तब केवलगान प्रकट होता है, और तब समस्त लोकमें ठहरे हुए पदार्थ एक ही समय ज्ञान में आकर झलकते हैं, उसको सब लोक देखो। ___ इस ग्रंथका प्राशय ग्नलंकार द्वारा नाटकरूपमें देखनेसे भाव सुगम हो जाता है । जैसे नाटकमें पहले रंगभूमि रचो जाती है, वही देखने वाला नायक तथा सभा होती है और नृत्य करने वाले होते हैं, वे अनेक स्वांग रचते हैं तथा शृङ्गारादिक पाठ रसोंका रूप दिखलाते हैं उस जगह शृङ्गार, हास्य, रौद, करुणा, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत-ये पाठ लौकिक रस हैं । नाटकमें इनका ही अधिकार है । नवमा शान्तरस है, वह लोकोत्तर है । इन रसोंके स्थायीभाव, सात्त्विकभाव, अनुभावविभाव, व्यभिचारीभाव और इनकी दृष्टि प्रादिका विशेष वर्णन रसग्रंथों में है वहाँसे जानना, किन्तु सामान्यपनेसे रसका यह स्वरूप है कि ज्ञानमें जो ज्ञेय पाया उससे ज्ञान तदाकार हो जाय, उसमें पुरुषका भाव लीन हो जाय अन्य ज्ञेयकी इच्छा न रहे वह रस है। सो नृत्य करने वाले नृत्यमें इन आठ रसोंका रूप दिखलाते हैं । इसी प्रकार यहाँ पहले रंगभूमि स्थल कहा, वहाँ नृत्य करने वाले जीव अजीव पदार्थ हैं और दोनोंकी एकरूपता व कर्तृकर्मस्व आदि उनके स्वांग हैं । उनमें परस्पर अनेक रूप होते हैं, वे पाठ रसरूप होकर परिणत होते हैं, यही नृत्य है । वहाँ देखने वाला सम्यग्दृष्टि जीब अजीवके भिन्न स्वरूपको जानता है, वह तो इन सब स्वांगोंको कर्मकृत जानकर शान्त रसभे ही मग्न है और मिथ्यादृष्टि प्राणी जीव अजीवका भेद नहीं जानते, इसलिए इन स्वांगोंको सच्चा जानकर इनमें लीन हो जाते हैं । उनको सम्यग्दृष्टि यथार्थ दिखलाकर, उनका भ्रम मेटकर और शांत. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ समयसार स्वरूपसंपदा विश्वे परिस्फुरत्यपि न किंचनाप्यन्यत्परमाणुमात्रमप्यात्मीयत्वेन प्रतिभाति । यद्भावकत्वेन शेयत्वेन चैकोभूय भूयो मोहमुद्भावयति स्वरसत एवापुनःप्रादुर्भावाय समूलं मोहमन्मूल्य महतो ज्ञानोद्योतस्य प्रस्फुरितत्वात् । मज्जंतु निर्भरममी सममेव लोका आलोकमुच्छलति थांतरसे समस्ताः । प्राप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणी भरेण प्रोन्मान एष भगवानवबोधसिंधुः ।।३२।। ॥३८॥ इति श्रीसमयसारव्याख्यायामात्मख्यातो 'पूर्वरंग:' समाप्तः । अव्यय । शुख:-प्रथमा एक०। दर्शनशानमयः-प्रथमा एक० । सदा-अव्यय । अरूपी-प्रथमा एक० । नअव्यय । अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । मम--षष्ठी एक० 1 किंचित् अव्यय । अन्यत्-प्रथमा एक० । अपि-अव्यय । अन्यत्-प्रथमा एक० । परमाणुमात्र-प्रथमा एकवचन । अपि-अव्यय ॥३८॥ रसमें उन्हें लीन कर सम्यादृष्टि बनाता है। उसकी सूचनारूप रंगभूमिके अन्तमें प्राचार्यने "मज्जंतु' इत्यादि श्लोक जो रचा है, वह अब आगे जीव अजीवके एकत्वका स्वांग वर्णन करेंगे इसकी सूचनारूप है । इस प्रकार यहाँ तक रंगभूमिका वर्णन किया । प्रसंगविवरण-वर्तमान निश्चयस्तुतिके प्रकरण में प्रस्नमें यह सिद्ध किया गया था कि प्रात्माका दर्शन, शान, चारित्रमें परिणत होनेका वर्णन करना सत्य स्तवन है। अब यहाँ यह बता रहे हैं कि दर्शन, ज्ञान, चारित्रमें परिणत हुये प्रात्माको कैसा स्वरूपसंचेतन होता है । तथ्यप्रकाश-(१) मोहीमत जीव अत्यन्त प्रतिबुद्ध होता है । (२) अन्तस्तत्त्व तो मदा अन्तः है, उसकी सुध होना ही आत्मलाभ है । (३) अनन्तगुणपर्यायात्मकता विदित होने पर भी प्रात्मा चैतन्यमात्र स्वरूपमें अभेद होनेसे एक है । (४) ज्ञायकस्वभाषमात्र होनेसे अनेक विध पर्याय व पुण्य-पापादि तत्वोंसे निराला होनेके कारण भात्मा शुद्ध है । (५) सामान्यविशेषात्मक प्रतिभासस्वरूप होनेसे पारमा दर्शनज्ञानमय है । (६) रूपी पदार्थ भी शेय हों तो भी कभी भी रूपादिरूप न होनेसे प्रात्मा प्ररूपी है । (५) जानोको कुछ भी अन्य द्रव्य प्रात्मीय रूपसे विदित ही नहीं होता सो कोई भी अन्य द्रव्य भावकरूपसे या ज्ञेयरूपसे एकरूप हो ही नहीं सकता, अतः मोहकी उत्पत्ति असंभव है। सिद्धान्त-(१) प्रात्मा स्वकीयचैतन्यस्वरूपमें अभेद होनेसे प्रखण्ड एक है । (२) मात्मा सर्वविकल्पोंसे विविक्त होनेसे शुद्ध है। सृष्टि-१- परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । २- शुद्धनय (४६) । प्रयोग-अपनेको अरूपी व एक निरखकर सर्व विकल्पोंसे परे होकर शुद्ध प्रतिभास. मात्र अनुभवना चाहिये ॥३८॥ इस प्रकार समयसारथ्याच्या पात्मख्यातिमें 'पूर्व रंग' समाप्त हुआ। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीनाजीनाधिकार अथ जीवाजीवावेकोभूती प्रविशतः। जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदानासंसारनिबद्धबंधनविधिध्वंसाद्विशुद्ध स्फुटत् । मात्माराममनंतधाममहसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनातलं विलसति ज्ञानं मनो ह्लादयत् ।।३३॥ अप्पाणमयागंता मूढा दु पर पवाद्रिणो केई । जीवं अन्झवसाणं कम्मं च तहा परूविति ॥३६॥ अवरे अझवसाणे-सु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । मगणंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवोत्ति ॥४०॥ कम्मम्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छति । तिब्बत्तणमंदत्तणगुणोहिं जो सो हबदि जीवो ॥४१॥ जीवो कम्म उहयं दोरिणवि खलु केवि जीवमिच्छति । अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छति ॥४२॥ एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति दुम्मेहा । ते ण परमहवाई णिच्छयवाईहिं णिट्टिा ॥४३॥ मात्मा न जानि मोही, बहुतेरे परको प्रात्मा कहते । अध्यवसान तथा विधि को प्रातमरूपमें लखते ॥३६॥ नामसंज्ञ-अप्प, अयाणंत, मूढ, दु, परप्पबादि, केई, जीव, अज्झवसाण, कम्म, च, सहा, अवर, अज्भवसाण, तिश्चमंदाणुभागग, जीव, तहा, अवर, पोकम्म, च, अबि, जीव, इत्ति, कम्म, उदय, जीव, कम्माणुभाग, तिब्वत्तणमंदत्तणगुण, ज, त, जीव, जीव, कम्म, उह्य, दु, वि, खलु, क, वि, जीब, अवर, मागे जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य ये दोनों एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं । इस के प्रारंभमें मंगलका अभिप्राय लेकर प्राचार्य शानकी प्रशंसा करते हैं कि जो सब वस्तुओंका जानने वाला यह ज्ञान है, वह जीव अजीवके सब स्वांगोंको अच्छी प्रकार पहचानता है, ऐसा सम्यग्ज्ञान प्रकट होता है । इसीके अर्थरूप श्लोक कहते हैं- 'जीवाजी' इत्यादि । अर्थ-ज्ञान है वह मनको प्रानंदरूप करता हुमा प्रगट होता है । वह जीव अजीवके स्वांगको देखने वाले महान् पुरुषोंको जीव अजीवका भेद देखने वालो बड़ी उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि से भिन्न द्रव्यको प्रतीति कराता है, अनादि संसारसे जिनका बंधन दृढ़ बँधा हुआ है, ऐसे '- - - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कइ अध्यवसानोंमें, जीव कहें तीवमंदफलततिको। कोई प्रात्मा माने, इन नाना रूप देहोंको ॥४०॥ कोई फर्मोदयको, जीव कहें कर्मपाक सुत-बुखको । तीन मंद अंशों में, जो नाना अनुभवा जाता ॥४१॥ जीव फर्म दोनोंको, मिला हुआ कोई जीवको जाने । अष्टकम संयोग हि, कितने ही जीतको मानें ॥४२॥ ऐसे नाना दुर्मति, परतत्त्वोंको हि प्रारमा कहते । वे न परमार्थवादी, ऐसा तत्वज्ञ दर्शाते ॥४३॥ आत्मानमजानंतो मूढास्तु परात्मवादिनः केचित् । जीवमध्यवसानं कर्म च तथा प्ररूपति ||३|| अपरेऽध्यवसानेषु तीव्रमदानुभागगं जीवं । मन्यते तथाऽपरे नोकर्म चापि जीव इति ॥४०॥ कर्मण उदय जीवमपरे कर्मानुभागमिच्छति । तीव्रत्वमंदस्वगुणाभ्यां य: स भवति जीवः ॥४॥ जीवकर्मोभयं द्वे अपि खलु केचिज्जीवमिच्छति । अपरे संयोगेन तु कर्मणां जीवमिच्छति ॥४२॥ एवंविधा बहुविधाः परमात्मानं वदंति दुर्मेधसः । ते न परमार्थवादिनः निश्चयवादिभिनिर्दिष्टाः ॥४३।। । इह खलु तदसाधारणलक्षणाकलनाक्लीबत्वेनात्यंतविमूढाः संतस्तात्त्विकमात्मानमाजनंतो बहदो बहुधा परमप्यात्मानमिति प्रलपंति । नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसानमेव जीवस्तथाविधाध्यवसानात् अंगारस्येव कादितिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । संजोग, दु, कम्म जीव, एवं विह, बहुविह, पर, अप्प, दुम्मेह, त, ण, परमटुवादि, णिच्छयवादि, णिट्ठि । धातुसंज्ञ-मुझ मोहे, प-रूव घटनायां, मन्न अवबोधने तृतीयगणे, इच्छ इच्छायां, हर सत्तायां, वद व्यतायां वाचि । प्रकृतिशब्द-आत्मन्, अजानत्, मूढ, तु, परात्मवादिन, केचित् अन्तः प्रथमा बहु० अव्यय, ज्ञानावरणादि कर्मोके नाशसे विशुद्ध हुआ है, स्फुट हुमा है, जैसे फूलकी कली खिलती है, उस तरह विकाशरूप है। जिसके रमनेका क्रीडावन आत्मा ही है अर्थात् जिसमें अनंत ज्ञेयों (पदार्थों) के आकार पाकर झलकते हैं तो भी आप अपने स्वरूपमें ही रमता है, जिसका प्रकाश अनंत है, प्रत्यक्ष तेज द्वारा नित्य उदयरूप है धीर है, उदात्त है, इसीसे अनाकुल है सब इच्छाप्रोसे रहित निराकुल है। यहाँ धोर, उदात्त, अनाकुल ये तीन विशेषण शांतरूप नत्यके प्राभूषण जानने चाहिये । ऐसा ज्ञान विलास करता है । भावार्थ-यही ज्ञानकी महिमा कही । जीव अजीव एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं, उनको यह ज्ञान हो भिन्न जानता है । जैसे कोई नृत्यमें स्वांग धारण कर सो जाय उसे यथार्थ जो आने उसको स्वांग करने वाला नमस्कार कर अपना जैसाका तैसा रूप कर लेता है उसी तरह यहां भी जानना ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टि पुरुषोंके होता है, मिथ्यादृष्टि यह भेद नहीं जानता। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार अनाद्यनंतपूर्वापरीभूत ावयकसंसरणक्रियारूपेण क्रीडतक्रमव जीवः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । तीनमंदानुभवभिद्यमानदुरंतरागरसनिर्भराध्यवसानसंतान एवं जीवस्तहोरिक्तस्यान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित । नवपुराणावस्थादिभावेन प्रवर्तमानं जीव, अध्यवसान, कर्मन्, च, तथा, अपर, अध्यवसान, तीनन्दानुभागग, जीव, तथा, अपर, नोकर्मन्, च, अपि, जीव, इति, कर्मन्, उदय, जीव, अपर, कर्मानुभाग, तीव्रत्वमंदत्वगुण, यत्. तत्, जीव, जीवकर्मोभय, द्वि, अपि, खलु, केचित्, जीव, अपर, संयोग. तु, कर्मन्, जीव एवं विध, बहुविध, पर, आत्मन्, दुर्मेधस्, तत, न. परमार्थवादिन्. निश्चयवादिन, निदिष्ट । मूलधातु--वद संदेशवचने चुरादिगण, अधि-अव वित्र बंधने, अनु-भाज पृथक्कर्मणि चुरादिगणे, इषु इच्छायां, मन ज्ञाने, वद व्यक्तायां वाचि । पदविवरण --आत्मानं आगे जोव अजीवका एकरूपक स्वांगका वर्णन करते हैं:- [प्रात्मानं अजानंतः] प्रात्माको न जानते हुए [परत्मवादिनः] परको आत्मा कहने वाले [केचित मूढाः तु] कोई मोही अज्ञानी तो [अध्यवसानं] अध्यवसानको तथा च] और कोई अज्ञानी [कर्म] कर्मको [जीवं प्ररूपयंति] जीव कहते हैं। [अपरे] अन्य कोई अध्यवसानेषु] प्रध्यवसानोंमें ] तीवमंदानुभागगं] तीव्रमंद अनुभागगतको [जीवं मन्यते] जीव मानते हैं। ] तथा [ और [परे] अन्य कोई [नोकर्म अपि च] नोकर्मको [जीव इति] जीव मानते हैं [अपरे] अन्य कोई [कर्मरण उदयं] कर्मके उदयको [जीवं] जीव मानते हैं, कोई [कर्मानुभाग] कर्मके अनुभागको ] यः] जो कि [तीवत्वमंदत्वगुणाभ्या] तीनमंद रूप गुणोंसे भेदको प्राप्त होता [सः] बह [जीयः भवति] जीव है [इच्छंति] ऐसा इष्ट करते हैं [केचित् ] कोई [जीवकर्मोमयं] जीव और कर्म [ अपि] दोनों मिले हुएको [खलु] ही [जीवं इच्छति] जोव मानते हैं [तु] और [अपरे] अन्य कोई [कमरणां संयोगेन] कर्मोंके संयोगसे हो [जीवं इच्छति] जीव मानते हैं । [एवंविधाः] इस प्रकारके तथा [बहुविधाः] अन्य भी बहुत प्रकारके [दुर्मेधसः] दुर्बुद्धि मिथ्यादृष्टि [परं] परको [प्रात्मानं] अात्मा [वदंति] कहते हैं [ते न परमार्थवादिनः] वे परमार्थ याने (सत्यार्थ कहनेवाले नहीं हैं ऐसा [निश्चयवादिभिः] निश्चय तत्वके वादियोंने [निर्दिष्टाः] कहा है। तात्पर्य- अज्ञानी जीव अध्यवसान, भावकर्म, अध्यवसानसंतति, शरोर, शुभाशुभभाव, सुख-दुःखादि कर्मविपाक, प्रात्मकर्मोभय व कर्मसंयोगको जीव कहते हैं, किन्तु परमार्थतः ये कोई भी जीव नहीं हैं। टीकार्थ---इस जगतमें प्रात्माका असाधारण लक्षण न जाननेके कारण असमर्थ होनेसे प्रत्यन्त विसूढ़ होते हुए परमार्थभूत आत्माको न जानने वाले बहुतेरे अज्ञानी जन बहुत प्रकार से परको ही प्रात्मा इस प्रकार कहते हैं । कोई तो ऐसा कहते हैं कि स्वाभाविक स्वयमेव हुये Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार नोकमव जीव: शरीरादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । विश्वमपि पुण्यपापरूपेणाक्रामन् कर्मविपाक एव जीवः शुभाशुभभावादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । सातासातरूपेणाभित्र्याप्तसमस्ततीव्रमंदत्वगुणाभ्यां भिद्यमानः कर्मानुभव एव जीवः द्वितीया एक० । अजानन्त:--प्रथमा बहु । मूढाः-प्र० बहु० । तु-अव्यय । परात्मवादिनः-प्रथमा बहु । केचित्-अध्यय तथा अन्तः प्रथमा बहुबचन । जीवं-द्वि० ए० । अध्यवसान-द्वितीया ए० । कर्म-द्वि० ए०। च-अव्यय । तथा-अव्यय । प्ररूपयन्ति-वर्तमान लट अन्य पुरुष बहवचन चरादिगण किया। अपरे-प्रथमा बहु० । अध्यबसानेषु-सप्तमी बहु०। तीब्रमन्दानुभागगं-दि० ए०1 जीव-द्वि० ए०। मन्यते--वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । तथा अव्यय । अपरे-प्रथमा बहु । नोकर्म-द्वि० ए० । जीवः-प्रथमा एक० । रागद्वेषसे मलिन अध्यवसान अर्थात् प्राशयरूप विभाव परिणाम ही जीव है, क्योंकि जैसे कालिमासे अलग अंगार दिखाई नहीं देता है वैसे अध्यवसानसे अलग अन्य कोई जीव दीखता नहीं । कोई कहते हैं कि पूर्व पश्चात् अनादिसे लेकर और भागामी अनंतकाल तक अवयव रूप एक भ्रमण क्रियारूपसे कोटा करता हना नई ही जगह है, सबोंकि इससे भिन्न कुछ अन्य जीव देखने में नहीं पाता । कोई कहते हैं कि तीन मंद अनुभवसे भेदरूप हुया और जिसका अंत दूर है ऐसे रागरूप रससे भरी जो अध्यवसानको संतान (परिपाटी) है वही जीव है, क्योंकि इससे अन्य कोई जुदा जीव देखने में वही पाता। कोई कहते हैं कि नवीन और पुरानी अवस्था इत्यादि भावसे प्रवर्तमान जो नोकर्म वही जीव है, क्योंकि इस शरीरसे अन्य भिन्न कुछ जीव देखनेमें नहीं आता। कोई ऐसा कहते हैं कि समस्त लोकको पुण्यपाप रूपसे व्याप्त कर्मका विपाक ही जीव है, क्योंकि शुभाशुभभावसे अन्य भिन्न कोई जीव देखने में नहीं पाता । कोई कहते हैं कि साता असातारूपसे व्याप्त समस्त तीन-मंदत्व गुग्गोंसे भेदरूप हुमा जो कर्मका अनुभव बही जीव है क्योंकि सुख-दुःखसे अन्य भिन्न कोई जीव देखने में नहीं आता कोई कहते हैं कि श्रीखण्डकी तरह दो रूप मिला जो प्रात्मा और कर्म ये दोनों मिले हो जीव हैं क्योंकि समस्त रूपसे कमसे भिन्न कोई जीव देखने में नहीं पाता है। कोई कहते हैं कि प्रयोजनभूत क्रियामें समर्थ कर्मसंयोग ही जोब है, क्योंकि कर्मके संयोगसे भिन्न कोई जीव देखने में नहीं प्राता जैसे कि पाठ काठके टुकड़े मिलकर खाट हुई, तब अर्थक्रिया में समर्थ हुई सो पाठ काठके संयोगसे अलग कोई खाट नहीं इसी तरह यहां भी जानना ऐसा मानते हैं । इस प्रकार पाठ प्रकार तो ये कहे और अन्य भी अनेक प्रकार परको जो आत्मा कहते हैं वे दुबुद्धि हैं, उनको परमार्थ से जानने वाले उन्हें सत्यार्थवादी नहीं कहते । भावार्थ-जीव अजीव दोनों ही अनादिकालसे एक क्षेत्रावगाह संयोगरूप मिल रहे हैं और अनादिसे ही पुद्गलके संयोगसे जीवकी विकार सहित अनेक अवस्थाएं हो रही हैं । यदि परमार्थदृष्टि से देखा जाय तब जीव तो अपने चैतन्य आदि भावको नहीं छोड़ता और Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजोवाधिकार सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयमेव जीवः कातय॑तः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुपलभ्यमानत्वादिति केचित् । प्रक्रिया समर्थःकर्मसंयोग एव जीवः कर्मसंयोगातखट्वाया इवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिक्तत्वेनान्यस्यानुइति-अव्यय । कर्मण:-षष्ठी एकवचन । उदयं-द्वि० ए० । जीव-द्वि० एफ० । अपरे-प्रथमा बहु । कर्मानुभाम-द्वितीया बहु० । इच्छन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । तीव्रत्वमंदत्वगुणाभ्यां-तृतीया द्विवचन । य:-प्रथमा एक० । स:-प्रथमा एकवचन । भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक०। जीव:जीवकर्मोभयं-प्रथमा एक० । द्वे-द्वितीया द्वि: । अपि-अय्यय । खलु-अ० । केचित्-अ० अंतः प्रथमा बहु० । जीचं-द्वितीया एक०। इच्छन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । अपरे-प्रथमा बहुः । संयोगेनतृतीया एक० । कर्मणां-षष्ठी बहु । जीवं-द्वितीया एक० । एवंविधा:-प्रथमा ब० । बहुविधा:-प्रथमा पुद्गल अपने मूर्तिक जड़त्व प्रादिको नहीं छोड़ता। लेकिन जो परमार्थको नहीं जानते हैं, वे संयोगजन्य भांवोंको ही जीव कहते हैं। परमार्थसे जीवका स्वरूप पुद्गलसे भिन्न सर्वज्ञको धोखता है तथा सर्वज्ञको परंपराके प्रागमसे जाना जाता है। जिनके मतमें सर्वज्ञ नहीं माना '' गया है, वे ही अपनी बुद्धिसे अनेक कल्पना करके कहते हैं। प्रसंगविवरण--सर्ववर्णनीयस्वरूप तथा अधिकारस्वरूप १३वों गाथामें जीवाजीव, पुण्य, प,प, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्षकी चर्चा की गई थी । अतः पूर्वरंगके बाद इनका वर्णन आवश्यक है, सो उनमेंसे प्रथम क्रमप्राप्त जीव व अजीवका इस अधिकारमें वर्णन किया जा रहा है, इसी कारण इस अधिकारका नाम जीवाजोवाधिकार है। तथ्यप्रकाश-१-वेदान्तादिसम्मत जैसा नैसगिक रागद्वेष कलुषित अध्यवसान जीव नहीं है । २-मीमांसकादिसम्मत जैसा संसरणक्रियाविलसित कर्म जीव नहीं है । ३-सांख्यादिसम्मत जैसा अध्यवसानसंतान जीव नहीं है । ४-बैशेषिकादिसम्मत जैसा नवीन नवीन दशामें प्रवर्तमान शरीर ही जीव हो ऐसा नहीं है । ५-बौद्धादिसम्मत जैसा क्षणिक शुभ अशुभभाव ही जोव हो, ऐसा नहीं है । ६-योगादिसम्मत जसा सुख दुःख मात्र ही जीव हो ऐसा नहीं है । ७- नैयायिकादिसम्मत जैसा प्रात्मकर्मोभय जीव हो ऐसा नहीं है । ८-चार्वाकादि सम्मत जैसा कर्मादिके संयोगमात्र जीव हो ऐसा नहीं है ।। सिद्धान्त–१, परद्रव्यमें जीवत्वका आरोप करमा उपचार है। २ – नैमित्तिक भावों में जीवत्वका प्रारोप करना भी उपचार है। दृष्टि-५-द्रव्ये द्रध्योपचारक व्यवहार (१०६), संश्लिष्टविजात्युपचरित असद्भूत व्यवहार (१२५) । २- उपाषिज उपचरित स्वभावव्यवहार (१०३)। प्रयोग---परद्रव्योंसे व परभावोंसे उपयोग हटा करके अपने में पूर्णविश्राम कर स्वयं Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार पलभ्यमानत्वादिति केचित् एवमेव प्रकारा इतरेपि बहुप्रकाराः परमात्मेति व्यपदिशति दुर्मेधसः किंतु न ते परमार्थवादिभिः परमार्थवादिनः इति निदिश्यन्ते ।।३६-४०-४१-४२-४३॥ ब० । परं-हिए | आत्मान-द्विका । वन्ति-वर्तमान अन्य० ब० । दुर्मेधसः-प्रथमा ब० । ते-प्रथमा ब० । न-अव्यय । परमार्थवादिनः-प्रथमा ब० । निश्चयवादिनः-तृ० ब० । निर्दिष्टा:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया क्तान्त ।।३६-४०-४१-४२-४३।।। अपनेको अनुभवना चाहिये ।।३६-४०-४१-४२.४३।। ऐसा कहने वाले सत्यार्थवादी नहीं हैं, सो क्यो नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं[एते] ये पूर्व कहे हुए अध्यवसान प्रादिक [सर्व भावाः] सभी भाव [पुद्गलद्रव्यपरिणाम . निष्पन्नाः] पुद्गलद्रव्य के परिणमनसे उत्पन्न हुए हैं ऐसा [केवलिजिनैः] केवलो सर्वजिनदेवने [भरिणताः] कहा है मो [ते जीवाः] वे जीव हैं [इति कथं उच्यते] ऐसा कैसे कह सकते हैं ? अर्थात् नहीं कह सकते ।। तात्पर्य- पूर्वोक्त गावामें अज्ञानीसम्मत जीव कुछ तो उपादानतया पौद्बालिक हैं, कुछ निमित्ततया पौगलिक हैं। टीकार्थ--चुंकि ये अध्यवसानादिक भाव सब पदार्थोंको साक्षात् देखने वाले भगवान वीतराग सर्वज्ञ अरहतदेवके द्वारा "पुद्गलद्रव्यपरिणामजन्य" कहे गये प्रतः चैतन्यभावसे शुन्य पुद्गलद्रव्यसे भिन्न रूपसे कहे गये चैतन्यस्वभावमय जीव द्रव्य होनेको सम.र्थ नहीं हैं इस कारण निश्चयसे प्रागम, युक्ति और स्वानुभव इन तीनों द्वारा बाधित होनेसे जो इ7 अध्यकसानादिकों को जीव कहते हैं वे परमार्थवादी याने सत्यार्थवादी नहीं है। ये सजीव नहीं है, ऐसा जो सर्वजका वचन है वह तो पागम है और यह स्वानुभवभित युक्ति है, क्या, सो कहते हैं- स्वयमेव उत्पन्न हुमा रागद्वेषसे मलिन अध्यवसान निश्चयतः जीव ना ही है, क्योंकि जैसे सुवर्ण कालिमासे पृथक् है, उसी प्रकार चित्स्वभाव रूप ऐसे अध्यवसानसे भिन्न जीव भेद विज्ञानियों को प्रतिभासित होता है, वे स्वयं प्रत्यक्ष चैतन्य भावको पृथक् अनुभव करते हैं ।।१।। अनाद्यनंत पूर्वापरीभूत एक संसरणक्रियारूप क्रीडा करता हुमा कर्म है वह जीव नहीं है क्योंकि कर्मसे पृथक् अन्य चतन्यस्वभावरूप जीव भेदविज्ञानियोंको प्राप्त है , वे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥२॥ तीवमंद अनुभव से भेदरूप हुआ दुरंत राग-रससे भरी अध्यवसानको संतान भी जीव नहीं है, क्योंकि उस संतानसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वरूप ज व भेदविज्ञानियोंको स्वयमेव प्राप्त है, वे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।।३।। नई पुरानी प्रवस्त्रादिक भेदसे प्रवृत्त हमा जो नोकर्म है वह भो जीव नहीं है, क्योंकि शरीरसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदविज्ञानियोंको स्वयंमेव प्राप्त है, वे स्वयं पाप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥४॥ समस्त जगतको Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौवाजीवाधिकार १० एए सब्वे भावा पुग्गलदब्बपरिणामणिप्पण्णा । केवलिजिणेहिं भणिया कह ते जीवो ति बुच्चंति ॥४४॥ ऐसे नाना दुर्मति, परतत्वोंको हि प्रात्मा कहते । वे न परमार्थवादी, ऐसा तत्वज्ञ दर्शाते ॥४४।। एते स भावाः पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्ना: । केवलिजिनर्भणिताः कथं ते जीव इत्युच्यते ।।४।। यतः एतेऽध्यवसानादयः समस्ता एव भावा भगवद्भिविश्वसाक्षिभिरहद्भिः पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेन प्रज्ञप्ताः संतश्चंतन्यशून्यात्पुद्गलद्रव्यादतिरिक्तत्वेन प्रज्ञाप्यमानं चैतन्यस्वभावं जीवद्रव्यं भवितुं नोत्सहते ततो न खल्वांगमयुक्तिस्वानुभव धितपक्षत्वात् तदात्मवादिनः परमार्थवादिनः एतदेव सर्वज्ञवचनं तावदागमः । इयं तु स्वानुभवभिता युक्तिः न खलु नैसर्गिकरागद्वेषकल्माषितमध्यवसाने जीवस्तथाविधाध्यवसानातकातस्बरस्येव श्यामिकायाः अतिरिक्तत्वे नामसंश-एत, सब्द, भाव, पुग्गलदव्वपरिणामणिप्पण, केवलिजिण, भणिय, कह, त, जीव इत्ति। पातुसंश-भण कथने, वच्च व्यक्तायां वाचि । प्रकृतिशम्द-एतत्, सर्ब, भाव, पुदगलद्रव्यपरिणामनिष्पन्न, केवलिजिन, भणित, कथं, तत्, जीव, इति । मूलधातु-जि जये, भण व्यक्तायां वाचि, वच परिभाषणे। पुण्य-पापरूपसे व्यापता कर्मका विपाक भी जीव नहीं है। क्योंकि शुभाशुभभावसे अन्य पृथक् चैतन्यस्वभावरूप जीव भेदविज्ञानियोंको स्वयमेव प्राप्त है, वे स्वयं आप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥५॥ साता प्रसातो रूपसे व्याप्त समस्त तीव्रमंदतारूप गुणसे भेदरूप हुआ कर्मका अनुभव भी जीव नहीं है; क्योंकि सुख-दुःखसे पृथक् अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवको भेदविज्ञानियोंको स्वयं प्राप्ति होती है, वे स्वयं पाप प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ॥६॥ श्रीखंडकी तरह दो स्वरूप मिले प्रात्मा और कर्म दोनों ही जीव नहीं हैं, क्योंकि कर्मसे पूर्णरूपतः भिन्न अन्य चैतन्यस्वरूप जीव भेदशानियोंको स्वयं प्राप्त है, वे स्वयं प्रत्यक्ष भाप अनुभव करते हैं ॥७॥ अर्थक्रियामें समर्थ कर्मका संयोग भी जीव नहीं है, क्योंकि 'जैसे पाठ काठके टुकड़ोंरूप खाटपर सोने वाला पुरुष अन्य है। उसी प्रकार कर्मसंयोगसे भिन्न अन्य चैतन्यस्वभावरूप जीवकी भेदशानियोंको स्वयं प्राप्ति है, वे स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं ।८। भावार्थ-चैतन्यस्वभावरूप जीव सब परभावोंसे भिन्न भेदज्ञानियोंके अनुभवमोचर है, इस कारण अज्ञानी जिस प्रकार मानते हैं, उस प्रकार नहीं है। अब यहाँपर पुद्गलसे भिन्न जो मात्माकी उपलब्धि उसको भन्यथा ग्रहण करने वाला पाने पुद्गलको ही मात्मा जानने वाला जो पुरुष है, उसको समभावसे ही उपदेश करना चाहिए, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार नान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकः स्वयमुपलभ्यभानत्वात् । न खलु सातासातरूपेणाभिव्याप्तसमस्ततीव्रमंदत्वगुणाभ्यां भिधमानः कर्मानुभावो जीवः सुखदुःखातिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खलु मज्जितावदुभयात्मकत्वादात्मकर्मोभयं जीवः कात्स्य॑तः कर्मणोतिरिक्तत्वेनान्यस्य चित्स्वभावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वात् । न खल्वर्थक्रियासमर्थः कर्मसंयोगो जीवः कर्मसंयोगात्खदवाशायिनः पुरुषस्येवाष्टकाष्ठसंयोगादतिरिपदविवरण-एते--प्रथमा ब० । सर्वप्रथमा ब० । भावा:-प्रथमा ब. कर्मवाच्ये कर्म । पुद्गलद्रव्यपरिणामनिष्पन्ना-प्रथमा बहु । केवलिजिनः तृतीया ब० कर्मवाच्यमें कर्ता । भणिता:-प्रथमा ब० कर्मवाच्य में ऐसा काव्यमें कहते हैं 'विरम' इत्यादि । अर्थ-हे भव्य, तुझे निष्प्रयोजन कोलाहल करने से क्या लाभ है, उस कोलाहलसे तू विरक्त हो और एक चैतन्यमात्र बस्तुको एकान्तमें स्वयं निश्चय लीन होकर छः महीना अभ्यास कर देख तो कि जिसका तेज प्रताप-प्रकाश पुद्गलसे भिन्न है ऐसे प्रात्माकी अपने हृदयसरोवरमे प्राप्ति होती है या नहीं। भावार्थ--यदि अपने स्वरूपका अभ्यास करे तो उसकी प्राप्ति अवश्य होती है, हाँ पर वस्तुको प्राप्ति नहीं हो सकती । अपना स्वरूप तो विद्यमान ही है परन्तु भूल रहा है सो चेत कर देखे तो पास ही है । यहाँ छह महीने का अभ्यास कहा सो ऐसा नहीं समझना कि इतना ही समय लगेगा, इसका होना तो अन्तर्मुहूर्समात्रमें ही है परन्तु शिष्यको बहुत कठिन मालूम पड़े तब उसको समझाया है कि यदि बहुत काल भी समझने में लगेगा तो छह महीनेसे अधिक नहीं लगेगा। इसलिए अन्य निष्प्रयोजन कोलाहलको छोड़ इसमें लगनेसे शीघ्र स्वरूपको प्राप्ति होगी, ऐसा उपदेश किया है। _प्रसंगधिवरण-प्रनन्तरपूर्व ५ गाथावोंमें प्रशजनसम्मत जीवके परिचयका निर्देश किया था और अन्त में कहा था कि ऐसा कहने वाले याने परको प्रात्मा कहने वाले परमार्थवादी नहीं है । सो उसी तथ्यका इस गाथामें वर्णन है कि पूर्वोक्त परात्मवादी किस कारणसे परमार्थवादी नहीं है। तथ्यप्रकाश-१-पूर्वगायोक्त ८ प्रकारका परात्मवाद परमार्थवाद नहीं है यह प्रागम से सिद्ध है। २-पूर्वगाथोक्त ८ प्रकारका परात्मवाद युक्ति और अनुभवसे अथवा स्वानुभव. गर्भित युक्तिसे भी सिद्ध नहीं होता। ३-स्वानुभवगभित युक्ति यह है कि-उन कल्पित ८ प्रकारोंसे अन्य चित्स्वभावमात्र अन्तस्तत्व भेदविज्ञानियों द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हुआ है । ४-यहाँ प्रात्मोपलब्धिके अर्थ छह माह तक भी पुरुषार्य करनेका जो उपदेश किया है उसका कारण यह है कि अनंतानुबन्धी कषाय सम्यक्त्वघातक है और उस कषायका संस्कार छह Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १०३ क्तत्वेनान्यस्य चित्स्वमावस्य विवेचकैः स्वयमुपलभ्यमानत्वादिति । इह खलु पुद्गलभिन्नात्मोपलब्धि प्रति विप्रतिपश्नः साम्नवमनुशास्यः । विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन, स्वयमपि निभृतः सन पश्य पण्मासमेकं । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलादिन्नधाम्नो, ननु किमनुपलब्धि ति किंचोपलब्धिः ।।१४।। ॥४४॥ क्रिया क्तान्त कृदन्त । कथं-अन्यय । ते-प्रथमा ब० ! जीव:-प्रथमा एकवचन । इति-अव्यय। उच्यतेवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन भावकर्मप्रक्रिया कर्मवाच्यमें क्रिया ॥४४॥ माहसे अधिक व भव भवान्तर तक भी रहता है, लेकिन जो अन्तस्तत्त्वकी दृष्टिका मास अनवरत बनावे तो उसे ज्यादासे ज्यादा छह महीनेके अन्दर हो प्रात्मोपलब्धि हो जायगी, जल्दीसे जल्दी अन्तमुहूर्त में हो जायगी । सिद्धांत-१-अध्यबसान, भावकर्म, अध्यवसानसंतति, शुभाशुभभाव, जीवमें हुए सुख दुःखादि ये पुढेगलकर्मोपाधिका निमित्त पाकर होनेसे पौद्गलिक हैं । २- प्रात्मकर्मोभय आत्मा व कर्म इन दोनोंको सम्मिश्रण माननेसे पौद्गलिक हैं। ३-शरीर व कर्मसंयोग स्वयं पाप ही उपादानतया पौलिक हैं । दृष्टि-१-विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८) । २-संश्लिष्ट स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२७) । ३-कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३)। प्रयोग---सहज एकत्व विभक्त अन्तस्तत्त्व चित्स्वभावके अतिरिक्त सभी भावोंको पर. भाव निरखकर उनका ख्याल भी छोड़कर चित्स्वभावमात्र अपनेको अपने में पा लेवे ऐसा परम विश्राम लेना चाहिये ।।४४।। __ अब शिष्य पूछता है कि इन अध्यबसानादिक भावोंको तो जीव नहीं बतलाया, अन्य चैतन्यस्वभावको जीव कहा सो ये भाव भी तो चैतन्यसे ही सम्बन्ध रखने वाले मालूम होते हैं, चैतन्य के बिना जड़के तो होते नहीं, इनको पुद्गलके कैसे कहा ? ऐसा पूछा जानेपर उत्तर रूप माथासूत्र कहते हैं--[अष्टविधमपि च] पाठों ही तरहके [कर्म] कर्म [सबं] सब [पुद्गलमयं] पुद्गलस्वरूप हैं, ऐसा [जिनाः] जिन भगवान् सर्वशदेव [विन्दन्ति कहते हैं। [यस्य विपच्यमानस्य] जिस पनकर उदयमें अाने वाले कर्मका [फलं] फल [सत्] प्रसिद्ध [दुःखं] दुःख है [इति उच्यते] ऐसा कहा गया है । - तात्पर्य-पाठों ही प्रकारके कर्म पौद्गलिक हैं और जब वे उदयमें पाते हैं तब उनका फल दुःख ही होता है । टीकार्थ--प्रध्यवसान प्रादि समस्त भावोंके उत्पन्न करने वाले पाठ प्रकारके जो Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ समयसार कथं चिदन्वयत्वप्रतिभासेप्यध्यबसानादयः पुद्गलस्वभावा इति चेत् अविहं पि य कम्मं सव्वं पुग्गलमयं जिणा विति । जस्स फलं तं वुच्चइ दुक्खं ति विपच्चमाणस्स ॥४५॥ पाठों ही कर्मोको, पुद्गलमय ही जिनेन्द्र बतलाते । जिनके कि उदयका फल, सारा दुखरूप कहलाता ॥४५।। अष्टविधपि च कर्म सर्व पुद्गलमयं जिना विदंति । यस्य फलं तदुच्यते दुःखमिति विपच्यमानस्य ।।४।। अध्यवसानादिभावनिर्वतंकमष्टविधमपि च कर्म समस्तमेव पुद्गलमयमिति किल सकलज्ञज्ञप्तिः, तस्य तु यद्विपाककाष्ठामधिरूढस्य फलत्वेनाभिलप्यते तदनाकुलत्वलक्षणसौख्याख्यात्म नामसंज्ञ-अट्टविह, पि, य, कम्म, सव्व, पुमगलमय, जिण, ज, फल, त, दुक्ख, इति, विपच्चमाण । धातुसंज्ञ-विद शाने, बच्च व्यक्तायां वात्रि । प्रकृतिशब्द - अष्टबिध, अपि, च, कर्मन, सर्व, पुद्गलमय, जिन, यत्, फल, तत्, दुःख, इति, विपच्यमान। मूलधातु--विद ज्ञाने, बच परिभाषणे, डुपचष् पाके। पदविवरण–अष्टविध-द्वि० एक०, अपि-अय्यय, च-अ०, कर्म-द्वि० एक पुत... हिक, मृगलमज्ञानावरणादि कर्म हैं, वे सभी पुद्गलमय हैं, ऐसा सर्वज्ञदेवका वचन है । विपाकको पराकाष्ठा को प्राप्त कर्मका फलरूपसे जो कहा जाता है वह कर्मफल अनाकुलतास्वरूप सुखनासक मात्माके स्वभावसे विलक्षण है, पाकुलतामय है, इसलिए दुःख है । उस दुःखमें ही प्राकुलतास्वरूप अध्यवसान प्रादिक भाव समाविष्ट हो जाते हैं, इसलिए वे यद्यपि चतन्यसे सम्बंध होने का भ्रम उत्पन्न करते हैं, तो भी वे प्रात्माके स्वभाव नहीं हैं, किन्तु पुद्गलस्वभाव ही हैं। भावार्थ-- यह आत्मा कर्मका उदय पानेपर दुःखरूप परिणमन करता है और जो दुःखरूप भाव है वह मध्यवसान है, इसलिए दुःखरूप भावमें चेतनके सम्बंध काभ्रम बन जाता है । परमार्थसे दुःखस्वरूप भाव चेतन नहीं है, कर्मजन्य है, इस कारण जड़ ही है। प्रसंगविवरग–अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि अध्यवसान आदि भाव सब पुद्गलकर्मनिष्पन्न हैं सो उसपर यह आशंका होती है कि अध्यवसान आदि भावोंका तो चेतन में अन्वय दिखता याने शुभाशुभ भाव, सुख-दुःख भाव प्रादि चेतन में ही पाये जाते, फिर इनको पुद्गलस्वभाष क्यों कहा गया है ? इम्रो प्रश्नका इस गाथामें समाधान किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) जिस समय नवीन कर्मवर्गणाबोंका बंध होता है उसी समय उन कर्मवर्गणावोंमें प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, प्रदेशबंध व अनुभागबंध चारों बन्ध पड़ जाते हैं। (२) पूर्वबद्ध कर्मका जब अनुभाग उदित होता है तब उसका जो फल है वह दुःखरूप ही है । (३) अध्यवसानादि भाव दुःखरूप कर्मफल ही हैं और कर्म हैं पुद्गलमय, प्रतः अध्यबसानादि Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -------- - जीवाजीवाधिकार १०५ स्वभावविलक्षणत्वात्किल दुःखं, तदंतःपातिन एव किलाकुलत्वलक्षणा अध्यवसानादिभावाः । ततो न ते चिदन्वयत्वविभ्रमेप्यात्मस्वभावाः किंतु पुद्गलस्वभावाः ॥४५।। द्वि० एकo, जिना:-प्रथमा बहुवचन कर्ता, विदन्ति-वर्तमान अन्य पुरुप बहु० किया, यस्य-पप्ठी एकरू, फल-प्रथमा एक, उच्यते-वर्तमान अन्य पुरुष एक०, भाषकर्मप्रक्रिया किया, दुःखं-प्रथमा एक, इतिअ०, विपच्यमानस्य-षष्ठी एकवचन ।।४।। भाव पुद्गलस्वभाव कहे गये हैं। सिद्वान्त--(१) अध्यवसान प्रादि भाव कर्मफल हैं, पुद्गलस्वभाव हैं, जीव नहीं हैं । (२) कर्मोदयका निमित्त पाकर जीवमें दुःखरूप परिणमन होता है । दृष्टि-१- विवक्षितकदेशशुद्धनिश्चयनय (४३) । २-- उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रध्याथिकनय (२४)। प्रयोग-----कर्म व कर्मप्रतिफलनसे रहित चतन्यस्वभावमाय अपनेको निरखकर चैतन्यस्वभावमात्र अपनेको अनुभवमा चाहिये ।।४५।। यदि अध्यवसानादि भाव पुद्गलस्वभाव हैं तो सर्वज्ञके पागम में इनको जीवके भान कसे कहा ? उसके उत्तर में गाधासूत्र कहते हैं--[एते सर्वे] ये सब [अध्यवसानादयः भावाः] अध्यबसानादिक भाव [जीवाः] जीव हैं ऐसा [जिनधरैः] जिनबरदेवने [उपदेशः यरिणतः] जो उपदेश वणित किया है वह [व्यवहारस्य दर्शनं] व्यवहारका मत है । तात्पर्य--अध्यवसान पादिक भावोंको जीव दयवहारसे कहा गया है। टीकार्थ---ये सब अध्यवसानादिक भाव 'जीव हैं। ऐसा जो भगवान् सर्वनदेवने कहा है, वह अभूतार्थरूप व्यवहारका मत है । व्यवहार व्यवहारी जीवोंको परमार्थका कहने वाला है जैसे कि म्लेच्छ भाषा म्लेच्छोको वस्तुस्वरूप बतलाती है, इस कारण अपरमार्थभूत होनेपर भी धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति करनेके लिये व्यवहारका वर्णन होना न्याययुक्त है । क्योंकि व्यवहारके बिना जीवका शरीरसे परमार्थतः भेद देखनेसे त्रस स्थावर जीवोंका घात निःशंकरूपसे करना ठहरेगा । जैसे भस्मक मर्दन करने में हिंसाका प्रभाव है, उसी प्रकार उनके मारने में भी हिंसा नहीं सिद्ध होगी, किन्तु हिंसाका अभाव ठहरेगा तब उनके घात होने से बंधका भी प्रभाव ठह रेगा। उसी प्रकार बध्यमान रागी द्वेषी मोही जीव ही तो छुड़ाने योग्य है सो व्यवहारके बिना परमार्थतः रागद्वेष मोहसे भिन्न जीवको दिखलानेपर मोक्षके उपायका ग्रहण न होने से मोक्षका भो अभाव ठहरेगा । इसलिये जिनेन्द्र देवने व्यवहारका उपदेश किया है। भावार्थ:-~ग्रहमा स्वयं सहज अपने ही सत्वके कारण जिस स्वभावरूप है उस स्वभावमात्र देना परमार्थनय है. वह तो जीवको शरीर और राग द्वेप मोहसे भिन्न दिखाता Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार पद्यध्यवसानादयः पुद्गलस्वभावास्तदा कशं जीवत्वेन सूचिता इति चेत् – ववहारस्स दरीसणामुवएसो परिणदों जिणवरेहिं । जीवा एदे सब्बे अज्झवसाणादयो भावा ॥४६॥ ये प्रध्यवसानादिक, जीव कहे कहीं ग्रन्थमें वह सब । व्यवहारका हि दर्शन, जिनवरका पूर्व वरिणत है ॥४६॥ व्यवहारस्य दर्शनमुपदेशो वणितो जिनवरैः . ना हो सध्ययमानायो भावा. ।।६।। सर्वे एवैतेऽध्यवसानादयो भावाः जीवा इति यद्भगवद्भिः सकलजः प्रज्ञप्तं तदभूतार्थस्यापि व्यवहारस्यापि दर्शनं । व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेव म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकत्वादपरमार्थोपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य नामसंज्ञ-बबहार, दरीमण, उवएस, वणिद, जिणवर, जीव, एत, सव्व, अज्झवसाणादि, भाव । धातुसंज.... दरिस दर्शनाया, वग्ण वर्णने । प्रकृतिशब्द-- व्यवहार, दर्शन, उपदेश, वणित, जिनवर, जीव, एतत्, सर्व, अध्यवसानादि, भाव । मूलधातु --शिर् प्रेक्षण, वर्ण वर्णने, वर्ण स्तुतौ। पदविवरण व्यवहै । यदि इसीका एकांत किया जाय तब शरीर तथा राग, द्वेष, मोह पुद्गलमय ठहरेंगे, तब पुद्गलके घातसे हिंसा नहीं हो सकती और राग, द्वेष, मोहसे बंध नहीं हो सकता । इस प्रकार परमार्थसे संसार मोक्ष दोनोंका अभाव हो जाएगा । ऐसा एकांतरूप वस्तुका स्वरूप नहीं है । अवस्तुका श्रद्धान, ज्ञान और प्राचरण मिथ्या अवस्तुरूप ही है, इसलिये व्यवहारका उपदेश न्यायप्राप्त है । इस प्रकार स्थाद्वादसे दोनों नयोंका विरोध मेटकर श्रद्धान करना सम्यक्त्व है। प्रसंगबिधरण--अनन्तरपूर्व गाथामें अध्यवसानादिभावोंको पुद्गलस्वभाव बताया गया था । सो उस विषय में यह प्राशंका होना प्राकृतिक है कि यदि अध्यवसानादि भाव पुद्गलस्वभाव हैं तो उन्हें सिद्धान्त ग्रन्थोंमें जोवरूपसे क्यों बताया गया है, इसी प्राशङ्काका समाधान इस गाथामें किया गया है । तथ्यप्रकाश--(१) अध्यवसानादिक भाव अभूतार्थ हैं अर्थात् स्वयं सहज भूत (सत्) अर्थ (वस्तु) नहीं है । (२) प्रभूतार्थ होनेपर भी अध्यवसानादिको जीवरूपसे व्यवहुत करना तीर्थप्रवृत्तिके लिये न्याययुक्त है। (३) व्यवहार न माना जाय तो जीदोंकी हिंसा निःशक होकर की जाने लगेगी, क्योंकि व्यवहार माना नहीं और पारमार्थका ही एकान्त किया और परमार्थसे तो जीव शरीरसे भिन्न ही है, फिर शरीरपर शरत्र चलानेमें क्या बुरा माना जायगा। (४) व्यवहार बिना तो जीवके कर्मबंध के अभावका भी प्रसंग होगा, क्योंकि जीव तो रागद्वेष मोहसे भिन्न है यह परमार्थं कान्त बन गया, फिर रागद्वेषमोहमूलक बन्ध कैसे होगा? Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार परमार्थतो भेददर्शनातत्रसस्थावराणां भस्मन इव निःशङ्कमुपमर्दनेन हिंसाऽभावाद्भवत्येव बंध. स्याभावः । तथा रक्तो द्विष्टो विमूछो जीवो बध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येव मोक्षस्याभावः ।।४।। हारस्य-पाठी एकवचन । दर्शन-प्रथमा एकवचन । उपदेश:-प्रथमा एक० । वणित:-प्रथमा एक० कृदंत किया। जिनवरैः-तृतीया ब० कर्मवाच्य में कर्ता । जीवा:-प्रथमा ब०। एते-प्रथमा ब.। सर्वप्रथमा ब० ॥ अध्यवसानादयः-प्रथमा ब० । भावा:-प्रथमा बहुवचन ॥४६॥ (५) व्यवहार माने बिना मोक्षके अभात्रका प्रसंग होगा, क्योंकि परमार्थ कान्तमें जीवके बन्ध हो नहीं तो अबद्धको मोक्षोपायको आवश्यकता नहीं, न उपाय बनेगा। (६) जैनागममें व्यवहारोपदेश न्याय्य है। सिद्धान्त-(१) निमित्त पाकर उपादान में होने वाले नैमित्तिक भावोंको प्रोध उपादानरूप पदार्थ कह देना व्यवहारका अभिमत है ।। दृष्टि-१- स्वजातिपर्याये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भूत व्यवहार (१२०)। प्रयोग- औपाधिकभाव प्रोध उपादानभूत मुझ अात्मामें व्याप्य नहीं है, औपाधिक भावोंसे मैं परे हूं, निस्वभाव मात्र हूं. ऐसी अन्तः आराधना करनी चाहिये ।। ४६।। अब शिष्य पूछना है कि यह व्यवहार किस दृष्टान्तसे प्रवृत्त हुआ ? उसका उत्तर कहते हैं; जैसे [बलसमुदयस्य] सेनाके समूहको [राजा खलु निर्गतः] राजा ही निकला [ इत्येष प्रादेशः ऐसा यह पादेश [ध्यवहारेण तु उच्यते] व्यवहारसे कहा जाता है । [त] उस सेनामें तो वास्तवमें [एकः] एक [राजा निर्गतः] ही राजा निकला है [एवमेव च] इसी तरह [अध्यवसानाद्यन्यभावामां] इन मध्यवसान प्रादि अन्य भावोंको [सूत्र] परमागममें [जीव इति] ये जीव है, ऐसा [व्यवहारः कृतः] व्यवहार किया गया है [तत्र निश्चितः] वहाँ निश्चयसे विचारा जाय तो उन भावोंमें [जीवः एकः] जीव तो एक ही है । तात्पर्य--जीवके विपरिमामनोंको जीव कहना व्यवहार है, परमार्थसे तो एक नायकस्वभावमात्र ही जीव है । टीकार्थ—जैसे कहा जाता है कि यह रामा पाँच योजनके फैलावमें निकल रहा है, वहाँ निश्चय से विचारा जाय तो एक राजाको पाँच योजनमें व्यापना असम्भव है, तो भी व्यवहारी (अज्ञानी) जनोंका सेनाके समुदायमें राजा कहनेका व्यवहार है । परमार्थसे तो राजा एक ही है, सेना राजा नहीं। उसी तरह यह जीव सब रागके स्थानोंको व्यापकर प्रवृत्त हो रहा है, वहां निश्चयसे विचारा जाय तो एक जोनका समस्त रागनामको व्यापकर रहना अशक्य है तो भी व्यवहारो लोकोंका अध्यवसानादिक अन्य भावोंमें 'ये जीव हैं। ऐसा व्यवहार Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार प्रथ केन दृष्टांतेन प्रवृत्तो व्यवहार इति चेत्: - राया हु णिग्गदोत्ति य एसो बलसमुदयस्स श्रादेसो। ववहारेण दु उच्चदि तत्थेक्को णिग्गदो राया ॥४७॥ एमेव य वबहारो अज्झवसाणादिगणभावाणं । जीवो ति कदो सुत्ते तत्थेक्को णिच्छिदो जीवो ॥४८॥ बलसमुवयको राजा, इतना विस्तृत चला हुमा कहना । व्यवहारमात्र चर्चा, निश्चयसे एक वर नृप है ॥४७॥ त्यों ही जहँ जीब कहा, अध्यवसानादि अन्य भावोंको । व्यवहारमात्र चर्चा, निश्चित बहें जीव एक हि है ॥४८॥ राजा खलु निर्गत इति चेष बलसमुदयस्यादेश: । व्यवहारेण तुच्यते नटको चिनो गाजा ॥४॥ एवमेव च व्यवहारोध्यवसानाद्यन्यभावानां । जीव इति कृत: सूत्र तत्रैको निश्चितो जीवः ।।४।। यथेष राजा पंच योजनान्यभिव्याप्य मिष्क्रामतीत्येकस्य पंचयोजनान्यभिव्याप्तमशक्यस्वाद्व्यवहारिणा बलसमुदाये राजेति व्यवहारः । परमार्थतस्त्वेक एव राजा । तथैष जीवः नामसंझ-राय, हु, णिग्गद, इत्ति, य, एत, बलसमुदय, आदेस, बबहार, दा, तत्प, एक, णिग्गद, राय, एमेव, य, बबहार, अज्मवसाणादिअष्णभाव, जीव. कद, सुत्त, तत्थ, एक्क, णिन्छिद, जीव । धातुसंह-आ-दिस प्रेक्षण, बच्च व्यक्तायां वाचि । प्रकृतिशबद-राजन्, खलु, मिर्गत. इति, एतत्, बलसमुदय, आदेश, व्यवहार, तु, तत्र, एक, निर्गत, राजन्, एवं, एव, च, व्यवहार, अध्यवसानधन्यभाव, जीव, इति, कृत, सूत्र, तत्र, एक, निश्चित, जीव । मूलधातु -राज दीप्ती, निस्-गम्लु गतो. डुकृत्र करणे, प्रवर्तता है, परमार्थसे तो जीय एक ही है, अध्यवसान आदि भाव जोव नहीं हैं। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रध्यवसानादि भावोंको जीव व्यवहारसे कहा गया है। सो अब उसी विषयका स्पष्टीकरण इन दो गाथावोंमें दृष्टान्तपूर्वक किया गया है। तथ्यप्रकाश---(१) सेनासमूह राजासम्बंधित होनेसे और उसमें राजाका सद्भाव होने से सेनासमूहमें राजाका व्यपदेश होता है कि राजा पांच योजनमें फैलकर जा रहा है । (२) सेनासमूहमें राजाका व्यवहार होनेपर भी वास्तवमें तो राजा एक है और अपने ही एक व्यक्ति के प्रमाण हैं । (३) अध्यवसानादि भाव (रागादि भाव) जोवसम्बंधित होनेसे व अध्यवसानादि भावका उस समय जीव प्राधार होनेसे अध्यवसानादि परभावोंमें जीवका व्यपदेश होता है कि अध्यवसानादि भाव जीव हैं । (४) अध्यबसानादि भावोंमें जोवका व्यवहार होनेपर भी परमार्थसे तो जीव एक ज्ञायकस्वभाव है और वह अपने स्वरूपमात्र है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जीजीवाधिकार समग्रे रागग्राममभिव्याप्य प्रवर्तत इत्येकस्य समग्नं रागग्राममभिव्याप्तुमशक्यत्वाद्व्यवहारिणामध्यवसानादिष्वन्यभावेषु जीव इति व्यवहारः । परमार्थतस्त्वेक एव जीव: ।। ४७-४८|| सूत्र वेष्टने, निस्-चित्र त्यने। पदविवरण- राजा-प्रथमा एक० । खलु-अ० । निर्गत:-प्रथमा एक. कृदंत क्रिया । इति--0 एष:-प्रथमा एक० । बलसमध्यस्य-सष्ठी एक क०। तु-अ० । उच्यते-भावकर्म त-अ० । प्रक्रिया वर्तमान अन्य पुसष एक० तत्र-अ०। एक:-प्रथमा एक० । निर्गत:-प्रथमा एक०। राज एक० । एवं-ब० । एव- अ व्यवहार:-प्रथमा एक०। अध्यवसानाद्यन्यभावाना-षष्टी ब। जीव:प्रथमा एक० । इति-अ० । कृतः-प्रथमा एकवचन कृदंत क्रिया कर्मवाच्य में । सुत्रे-सप्तमी एक० । तंत्रअ० । निश्चित:-प्रथमा एकवचन । जीव:--प्रथमा एक० ।।४७-४८॥ सिद्धान्त--(१) द्रव्यको औपाधिक पर्यायोंमें द्रव्यका व्यवहार ईषत् प्रयोजनके लिये है । (२) शाश्वत स्वभावमय वस्तु वह एक ही शाश्वत है । दृष्टि---१- स्वजातिपर्याये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भत व्यवहार (१२०) । २परमशुद्धनिश्चयनय (४४)। प्रयोग- अपनेको समस्त विपरिणमनोंसे विविक्त निरखकर केवल चित्स्वभावमात्र अनुभवना चाहिये ॥४७-४८।। अब शिष्य पूछता है कि ये अध्यवसानादिक भाव हैं, वे जीव नहीं हैं तो एक टंकोत्कीर्ण परमार्थ स्वरूप जीव कैसा है, उसका क्या लक्षण है ? इसका उत्तर कहते हैं-हे भव्य तू [जीयं] जीवको [अरसं] रसरहित [अरूपं] रूपरहित [अगंध] गंधरहित [अव्यक्तं इन्द्रियोंके अगोचर [चेतनागुणं] चेतनागुण वाला [प्रशब्दं] शब्दरहित [अलिंगग्रहणं] किसी चिह्न कर जिसका ग्रहण नहीं होता ऐसा व [मनिदिष्टसंस्थानं] जिसका आकार कुछ कहने में महीं पाता, ऐसा [जानीहि] जानो। तात्पर्य-परमार्थतः जीव रूपरसगन्धस्पर्शशब्दशून्य है, अव्यक्त, स्वयं निराकार व चैतन्यगुण वाला है। टीकार्थ-जो (जीव) निश्चयसे पुद्गलद्रव्यसे भिन्न होनेसे उसमें रस गुण विद्यमान नहीं हैं इस कारण अरस है ।।१।। पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे भी भिन्न होनेसे स्वयं रसगुरग नहीं है इस कारण भी अरस है ॥२॥ परमार्थसे पुद्गलद्रव्यका स्वामित्व भी इसके नहीं है, इसलिये द्रव्येन्द्रियके पालम्बनसे पाप रसरूप परिणमन नहीं करता इस कारण भी परस है ॥३॥ अपने स्वभावकी दृष्टिसे देखा जाय तो क्षायोपमिक भावका भी इसके प्रभाव है, इसलिये भावेन्द्रियके अवलंबनसे भी इसके रसरूप परिणामका प्रभाव है, इस कारण भी मरस है ।।४।। इसका सम्वेदन परिणाम तो एक ही है, वह सकल विषयोंके विशेषोंमें साधारण है, उस स्व. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार यद्यवे सहि किलक्षणोऽसावेकष्टकोत्कीरणः परमार्थजीव इति पृष्टः प्राह असायमगंधं अध्यक्तं चेदणागुणामसद्द । जाण अलिंगरगहणं जीवमणिदिसंठाणं ॥४६॥ अरस अरूप अगंधी, अव्यक्त प्रशन्द चेतनापुरणमय । मिलानहरण पर स्वयं असंस्थान जीवको जानो ॥४६॥ अरसमरूपमगंधमव्यक्तं चेतनागुणमशब्दं । जानीहि अलिंगग्रहणं जीवनिर्दिष्टसंस्थान ॥४६॥ यः खलु पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरसगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुरणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरसगुणत्वात् परमार्थतः पुद्गलद्र व्यस्वामित्वाभावात् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनारसनात् स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलंबेनारसनात्, सकलसाधारणकसम्वेदनपरिणामस्वभावत्वाकेवलरसवेदनापरिणामापन्नत्वेनारसनात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादातम्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिगातत्वेपि स्वयं रसरूपेणापरिणमनाचारसः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानरूपगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुरणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमरूपगुणतवात् परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावात् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनारूपणात्, स्वभावतः सायोपशमिकभावाभावाद्धावेन्द्रियावलम्बेनारूपणात्सकल नामसंक–अरस, अरूव, अगंध, अश्वत्त, चेदणागुणा, असद्द, अलिंगरगहण, जीव, अणिदिवसंठाण । भावसे केवल एक रसवेदना परिणामकी प्रप्ति रूप नहीं है, इस कारण भी प्ररस है ॥५॥ इसके समस्त ही ज्ञेयोंका ज्ञान होता है, परन्तु ज्ञेय ज्ञायकके एकरूप होनेका निषेध ही है, इसलिये रसके ज्ञानरूप परिणमनेपर भी प्राप रसरूप नहीं होता, इस कारण भी अरस है ।।६। इस प्रकार छः प्रकारसे रसके निषेधसे जीव परस है । (इसी तरह अरूप, अगंध, अस्पर्श, अशब्द--इन चारों विशेषणोंका छह-छह हेतुओं द्वारा निषेध किया है सो इसी उक्त रीतिसे जान लेना, विशेष यह है कि शब्द पर्याय है सो शब्दके साथ पर्याय कहना)। अब अनिर्दिष्टसंस्थानको कहते हैं। पुद्गलद्रव्यसे रचे हुए संस्थान (प्राकार) से ही जीवका संस्थान कहा नहीं जा सकता इस कारण, अपने नियत स्वभावसे नियत संस्थानरूप मनन्त शरीरों में बर्तता है इस कारण, संस्थान नामकर्मका विषाक (फल) पुद्गलद्रव्यमें ही है इस कारण, भिन्न-भिन्न प्राकाररूप परिणत जो समस्त वस्तु, उनके स्वरूपसे तदाकार हुए अपने स्वभावरूप सम्वेदनको सामर्थ्य होनेपर भी स्वयं समस्त लोकके संबलनसे शून्य हुई जो प्रपनी निर्मल ज्ञानमात्र अनुभूति उस अनुभूतिसे किसी भी प्राकाररूप नही है, इस कारण जीय अनिर्दिष्टसंस्थान है । ऐसे चार हेतुप्रोसे संस्थानका निषेध कहा । अब अव्यक्त विशेषण को सिद्ध करते हैं--छह द्रव्य स्वरूप लोक है, वह ज्ञेय है, व्यस्त है, ऐसे समस्त ज्ञेयसे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १११ साधारणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलरूपवेदनापरिणामापन्नत्वेनारूपणात्, सकलज्ञेयज्ञा. यकतादात्म्यस्य निषेधाद्रूपपरिच्छेदपरिणतत्वेपि स्वयं रूपरूपेणापरिणमनाच्चारूपः । तथा पुदगलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानगंधगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुरणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वमगंधगुणत्वात् परमाथतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनागंधनात्, स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भायेन्द्रियावलम्बेनागंधनात सकलसाधारणकसम्वेदनपरिणामस्वभावत्वात्केवलगंधवेदनापरिणामापन्नत्वेनागंधना सकलयशासकलादासस्य निवागवार छेन्परिणतत्वेपि स्वयं गंधरूपेणापरिणमनाच्चागंधः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविधमानस्पर्शगुणत्वात् पुद्गलद्रव्यगुणेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमस्पर्शगुणत्वात् परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावाद् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेनास्पर्शनात स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद् भावेन्द्रियावलम्बनास्पर्शनात्सकलसाधाररणकसंवेदनपरिणामस्वभावत्वात् केवलस्पर्शवेदनापरिणामापन्नत्वेनास्पर्शनात सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्थ निषेधात् स्पर्शपरिच्छेदपरिणसत्वेपि स्वयं स्पर्शरूपेणापरिणमनाच्चास्पर्शः । तथा पुद्गलद्रव्यादन्यत्वेनाविद्यमानशब्दपर्यायत्वात् पुद्गलद्रव्यपर्यायेभ्यो भिन्नत्वेन स्वयमशब्दपर्यायधातुसंज–रस आस्वादनाक्रंदनयोः, सद्द आह्वाने, जाण अवबोधने, मगह ग्रहणे, सम् हा गतिनिवृत्तौ तृतीय अन्य होनेके कारण, कषायका समूह जो भावकभाव है व व्यक्त है उससे अन्य होनेके कारण, चित्सामान्यमें चैतन्यकी सब व्यक्तियो अन्तर्भूत होनेके कारण, क्षणिक व्यक्तिमात्र न होनेके कारण, व्यक्त व प्रध्यक्त और दोनों मिले हुए मिश्र भाव इसके प्रतिभासमें पाते हैं तो भी केवल व्यक्त भावकी ही नहीं स्पर्शता इस कारण और पाप ही बाह्य आभ्यंतर प्रकट अनुभूयमान है तो भी व्यक्तभावसे उदासीन (दूरवर्ती) प्रद्योतमान है, इस कारण जीव अव्यक्त कहा जाता है ।।६।। इस तरह छः हेतुओं द्वारा अव्यक्त सिद्ध किया। इसी प्रकार रस, रूप, गंध, स्पर्श, शब्द, संस्थान व व्यक्तपनाका प्रभाव स्वरूप होनेपर भी स्वसंवेदनके बलसे पाप प्रत्यक्षगोचर होनेसे अनुमेय मात्रके प्रभावसे प्रलिंगग्रहण कहा जाता है। अपने अनुभवमें पाये, ऐसे चेतनागुरण द्वारा सदा अंतरंगमें प्रकाशमान है, इस कारण चेतनागुण वाला है । जो चेतनागुण समस्त विप्रतिपत्तियोंका (जीवको अन्य प्रकार माननेका) निषेध करने वाला है, जिसने अपना सर्वस्व भेदज्ञानी जीवोंको सौंप दिया है, जो समस्त लोकालोकको प्रासीभूत कर मत्यन्त सुखी हो उस तरह सदा किंचिामात्र भी चलायमान नहीं होनेसे अन्य द्रव्यसे साधारण नहीं है, इस. लिये असाधारण स्वभावभूत है। ऐसे स्वयं अनुभूयमान चैतन्य गुणके द्वारा निस्य हो अंत:प्रकाशमान होनेसे चेतनागुरण वाला है । ऐसा यह भगवान् निर्मल प्रकाश वाला जीव इस लोक मैं टंकोत्कीर्ण भिन्न ज्योतिस्वरूप विराजमान है। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार त्वाल परमार्थतः पुद्गलद्रव्यस्वामित्वाभावात् द्रव्येन्द्रियावष्टंभेन शब्दाश्रवणात् स्वभावतः क्षायोपशमिकभावाभावाद्भावेन्द्रियावलम्बन शब्दाश्रवणात् सकलसाधारणकसंवेदनपरिणामस्व. भावत्वात् केवलशब्दवेदनापरिणामापनत्वेन शब्दाश्रवणात् सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छन्दपरिच्छेदपरिणतत्वेपि स्वयं शब्दरूपेणापरिणामनाच्च। शब्दः । द्रव्यांतरारब्ध शरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात् नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानंतशरीरवतित्वात्संस्थान - नामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमानत्वात् प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणलसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलि. ससहज सम्वेदनशक्तित्वेपि स्वयमखिललोकसंवलनशुन्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यंतमसंस्थानगणे । प्रातिपदिक- अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुण, अशब्द, अलिंगग्रहण, जीव, अनिदिष्टसंस्थान । मूलधातु-रस आस्वादनस्नेहनयोः, रूप रूपक्रियायां, चिती संज्ञाने, शब्द भाषणे, लिगि चित्री अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहकर इसके अनुभवकी प्रेरणा करते हैं । 'सकल' इत्यादि । अर्थ-हे भव्य प्रात्मायो ! चिच्छक्तिसे रहित अन्य सकल भावोंको मूलसे शीघ्र छोड़कर और अच्छी प्रकार अपने चिच्छक्तिमात्र भावको अवगाहन करके समस्त पदार्थसमूह रूप लोकके ऊपर प्रवर्त रहे एकमात्र अविनाशी प्रात्माका पात्मामें ही अभ्यास करो, उसका साक्षात् अनुभव करो । भावार्थ-एक चैतन्यशक्तिमात्र प्रास्मामें ही उपयुक्त होगी । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थल में यह बताते चले आ रहे थे कि अध्यवसानादिक भाव (रागादिक भाव) पुद्गलस्वभाव हैं, ये जीव नहीं हैं । सो यहाँ यह जिज्ञासा होनी प्राकतिक ही है कि फिर वास्तवमें किस लक्षण वाला जीव है याने जीवका यथार्थस्वरूप क्या है ? इसके समाधान में इस गाथाका अवतार हुअा है । तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलद्रव्यसे भिन्न होनेके कारण, पुद्गलद्रव्यके गुणोंसे व पर्यायों से भिन्न होनेके कारण, पुद्गल द्रव्येन्द्रियका स्वामी न होने के कारण, स्वभावतः भावेन्द्रियसे छूना प्रादि न होनेके कारण, सर्वसंवेदनस्वभाव होनेसे केवल स्पर्शज्ञान प्रादि किसी ज्ञानपरिगाममय होकर न छूने आदिके कारण, स्पर्श प्रादिको जानकर भी उससे तन्मय न होनेके कारण जीव स्पर्शादिरहित व शब्दादिरहित है । (२) यद्यपि जीवका संसारदशामें शरीरप्रमाण श्राकार है, मुस्तदशामें घट-बढ़का कारणभूत कर्म न रहनेसे कुछ न्यून घरमशरीरके प्रमारए प्राकारं है, तथापि जीवका स्वयं सहज निरपेक्ष कोई प्राकार नहीं है । (३) प्रात्मा स्वसंवेदनप्रत्यक्षगम्य है वह अनुमानादि प्रमाणसे ग्रहणमें नहीं आता । (४) प्रात्मा चैतन्यस्वभावमय है । • सिद्धांत-(१) प्रात्मा परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नहीं है । (२) प्रात्मा जयप्रमाणातीत निर्विकल्पस्वसम्वेदनसे गम्य है । (३) आत्मा चैतन्यस्वभावमात्र है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व रंग वाच्चानिर्दिष्टसंस्थानः । षट्वयात्मकलोकाद् ज्ञेयाव्यक्तादन्यत्वाकषायचक्राद्भावकाव्यक्तादयत्वाच्चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्तित्वात् क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात् व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रति. भासेपि व्यक्तास्पर्शत्वात् स्वयमेव हि बहिरंतः स्फुटमनुभूयमानत्वेपि व्यक्तोपेक्षोन प्रद्योत माल - त्वाच्चाव्यक्तः। रसरूपगंधस्पर्शशब्दसंस्थानव्यक्तत्वाभावेपि स्वसंवेदनबलेन नित्यमात्म प्रत्यक्षत्वे सत्यनुमेयमानत्वाभावालिंगग्रहणः। समस्तविप्रतिपत्तिप्रमाधिना विवेचकजनसमपितसर्वस्वेन सकलमपि लोकालोकं कवलीकृत्यात्यंतसाहित्यमंधेरेरणेव सकलकालमेव मनागप्यविचलितानन्धसाधारणतया स्वभावभूतेन स्वयमनुभूयमानेन चेतनागुरणेन नित्यमेवांतःप्रकाशमानत्वात् चेतनागुणश्च स खलु भगवानमलालोक इहैकष्टोत्कीर्णः प्रत्यग्ज्योतिर्जीवः ॥४६॥ सकलमपि विहायाह्नाय चिच्छतिरिक्त स्फुटतरमवगाह्य स्वं च चिच्छक्तिमात्र । इममुगरि चरतं चारु विश्वस्य साक्षात् कल यतु परमात्मात्मानमात्मन्यनंत ।।३।। चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयं । अंतोतिरिक्ताः सर्वेपि भावाः पौद्गलिका अमी ।।३६।। करणे, ग्रह उपादाने, जीव प्राणधारणे, सं-ठा गतिनिवृत्ती उपसर्गादर्थपरिवतनम् । पदविवरण ...अरसद्वितीया एक० कर्मविशेषण, अगन्ध-द्वि० एक० कर्मविशेषण, अरूप-द्वि० एक० कर्मबिशेषण, अव्यक्तं-द्वि० एक० कर्मविशेषण, चेतनागुणं- द्वित: कर्मगिरणा, कवि ए. मिमिषा, जानोहि-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया, अलिंगाहणं-द्वि० ए० कर्मविशेषण, जीव-द्वि० ए० कर्म, अंतरिटसंस्थानं-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण ॥४६।। दृष्टि-५- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६) । २-- शुखनय (४६) । ३. परम भावग्राहक द्रव्याथिकनय (३०) । प्रयोग—अपने पापको सर्व ज्ञेयोंसे परे सहज चैतन्यस्वभावमात्र अनुभवना चाहिये ॥४६॥ ___ अब चिच्छक्तिसे अन्य जो भाव हैं वे सब पुद्गलद्रव्यसम्बन्धी है, ऐसी पागेके गाथा की सूचनिका रूप काव्य कहते हैं-'चिच्छति' इत्यादि । अर्थ-चैतन्यशक्तिसे व्यास जिसका सर्वस्वसार है ऐसा यह जीव इतना है, और इस चिक्तिसे शून्य जो भाव हैं वे सभी पुद्गलजन्य हैं, सो पुद्गलके ही हैं । ऐसे इन भावोंका व्याख्यान छह गाथात्रोंमें करते हैं [जीवस्य] जीवके [वर्ण:] रूप [नास्ति नहीं है [गंधः अपि न] गंध भी नहीं है, [रसा अपि न] रस भी नहीं है [५] और [स्पर्शः अपि न] स्पर्श भी नहीं है, [रूपं अपि न] रूप भी नहीं है [शरीरं म] शरीर भी नहीं है [संस्थानं अपि म] संस्थान भी नहीं हैं [संहननं न] संहनन भी नहीं है । [जीवस्य] तथा जीवके [रागः न अस्ति] राग भी नहीं है [द्वषः अपि न] द्वेष भी नहीं है. [मोहः एव] मोह भी [न विध] विद्यमान नहीं है [प्रत्ययाः . नो] प्रास्रक भी नहीं हैं Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार जीवस्स पत्थि वण्णो णवि गंधो णवि रसो णवि य फासो । पनि कण पटरी गा हि संसार मा महणणं ॥ ५० ॥ जीवरस णस्थि रागो णवि दोसो गोव विज्जदे मोहो। णो पच्चयाण कम्मं णोकम्मं चावि से पत्थि ॥ ५१ ॥ जीवस्स णत्थि वग्गो गा वग्गणा गोव फड्ढया केई । णो अझप्पट्टाणा गोव य अणुभायठाणाणि ॥ ५२ ॥ जीवस्स णस्थि केई जोयट्ठाणा गा बंधठाणा वा। णेव य उदयटाणा ण मग्गणठाणया केई ॥ ५३ ॥ णो ठिदिबंधाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा । णेव विसोहिट्ठाणा णो संजमलद्धिठाणा वा ॥ ५४ ॥ गणेव य जीवठाणा गण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स । जेण दु एदे सब्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा ॥ ५५ ॥ नहिं घर्ण जीवका है, न गंध न रस न कोई सपरस है। रूप न देह न कोई, संस्थान न संहनन इसका ॥५०॥ नामसंज्ञ-जीव, ण, अत्थि, वण, ण, वि, गंध, रस, य, फास रूव, सरीर, संठाण, संहणण, जीव, ण, अस्थि, राग, दोस, मोह, णो, पच्चय, कम्म, णोफम्म च, अपि, त, दग्ग, वग्गणा, फड्ढय, अज्झरपढाण, अणुभायठाण, जोयट्ठाण, बंधटाण, उदयट्ठाण, मरगणद्वाण, ठिदिबंधट्ठाण, संकि सठाण विसोहिट्ठाण, संजमलद्धिट्ठाण, जीवट्टाण, गुणट्ठाण, ज, दु, एत, सब, युग्गलदव्व, परिणाम । धातुसंज्ञ---अस [कर्म न] कर्म भी नहीं हैं |च नोकर्म अपि] और नोकर्म भी तस्य नास्ति] उसके नहीं हैं [जीवस्य] जीबके [बर्गः नास्ति] वर्ग नहीं हैं [वर्गरणा न] वर्गरणा नहीं हैं [कानिचित् स्पर्धकानि] कोई स्पर्धक भी [न एव] नहीं हैं [जीवस्य जीवके [कानिचित् योगस्यानानि] कोई योगस्थान भी [न संति] नहीं हैं [चा] अथवा [बंधस्थानानि] बंधस्थान भी [4] नहीं हैं [च और [उदयस्थानानि] उदयस्थान भी न एब] नहीं हैं [कानिचित् मार्गरणास्थानानि] कोई मार्गणास्थान भी [न] नहीं हैं [जीवस्य] जीवके [स्थितिबंधस्थानानि नो] स्थितिबंधस्थान भी नहीं हैं [वा] अथवा [संक्लेशस्थानामि] संक्लेशस्थान भी [२] नहीं हैं [विशुद्धिस्थानानि] विशुद्धिस्थान भी [न एवं] नहीं हैं [वा] अथवा [संयमलन्धिस्थानानि] संयमलब्धिस्थान भी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार नहि राग जीवका है, न दोष नहिं मोह वर्तता इसमें । कर्म नहीं नहि आस्रव, नहि हैं नोकर्म भी इसका ॥ ५१ ॥ नहि वर्ग जीवके हैं, न वर्गणा नाहि वर्गगात्रज भी । श्रध्यात्मस्थान नहीं, अनुभागस्थान भी नहि है ॥ ५२ ॥ योगस्थान न कोई, बन्धस्थान भी जीव हि हैं । उदयस्थान नहीं हैं, न मार्गरणास्थान भी कोई ।। ५३ ।। स्थितिबन्धस्यान नहीं, संक्लेशस्थान भी नहीं इसके | कोइ विशुद्धिस्थान न संयमलब्धिके स्थान नहीं ॥५४॥ जीवस्थान न कोई नहीं गुणस्थान जीवके होते। क्योंकि ये भाव सारे होते परिणाम पुद्गलके ॥ ५५ ॥ . जीवस्य नास्ति वर्णो नापि गंधो नापि रसो नापि च स्पर्शः । नापि रूपं न शरीरं नापि संस्थानं न संहननं । जीवस्य नास्ति रागो नापि द्वेषो नैव विद्यते मोहः । नो प्रत्यया न कर्म नोकर्म चापि तस्य नास्ति ||११|| जीवस्य नास्ति वर्गो न वर्गेणा नैव स्पर्द्धकानि कानिचित् । नो अध्यात्मस्थानानि नैव चानुभागस्थानानि । जीवस्य न संति कानिचिद्योगस्थानानि न बंधस्थानानि वा नैव चोदयस्थानानि न मार्गणास्थानानि कानिचित् नो स्थितिबंधस्थानानि जीवस्य न संक्लेशस्थानानि वा । नैत्र विशुद्धिस्थानानि नो संयमलब्धिस्थानानि वा । नैव च जीवस्थानानि न गुणस्थानानि वा संति जीवस्य । येन त्वेते सर्वे पुद्गलद्रव्यस्य परिणामाः ।। ५५|| यः कृष्णो हरितः पोतो रक्तः श्वेतो वर्णः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिसाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यः सुरभिरसुरभिर्वा गंध: स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गल - सत्तायां, विज्ज सत्तायां, भग्ग अन्वेषणे । प्रकृतिशब्द- जीव, न, वर्ण, न, अपि गंध, न, अपि, रस, न अपि च, स्पर्श, न, अपि, रूप, व, शरीर, न, अपि, संस्थान, न, संहनन, जीव, न, राग, न, अपि, दोष, न एव, मोह, नो, प्रत्यय, न, कर्मन्, नोकर्मन् व, अपि तत्, न जीव, न, वर्ग, न, वर्गणा न. एव, स्पर्द्धक, ११५ [नो ] नहीं हैं [च] और [जीवस्य ] जीवके [ जीवस्थानानि ] जीवस्थान भी [व] नहीं हैं। [वा ] अथवा [ गुरपस्यानानि ] गुणस्थान भी [न संति] नहीं हैं [ येन तु ] क्योंकि [ एते सर्वे ] ये सभी [ पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यके [ परिखामा: ] परिणाम हैं । तात्पर्य - - वर्ण से लेकर गुणस्थानपर्यन्त ये उक्त भाव जीवके नहीं हैं, क्योंकि ये पुगलद्रव्य के परिणाम हैं । टीकार्थ- जो काला, हरा, पीला, लाल और सफेद बर ( रंग ) हैं वे सभी जीवके नहीं हैं क्योंकि पुद्गलद्रव्य के परिणमनमय होनेके कारण ये वर्णं श्रात्माकी अनुभूतिसे भिन्न हैं |१| सुगंध, दुर्गन्ध भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि ये पुद्गल परिणाममय हैं, इसलिये श्रात्माकी अनुभूति से भिन्न हैं |२| कटुक, कषैला, तिक्त (चरा), खट्टा और मीठा ये सब रस भी जीवके "L Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार द्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यः कटुकः कषायः तिक्तोऽम्लो मधुरो वा रसः स । सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यः स्निग्धो रूक्षः । शीतः उष्णो गुरुलधुर्म दुः कठिनो वा स्पर्शः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वेसत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यत्सार्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यदौदारिक बैंक्रियिकमाहारकं तैजसं कार्मरणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यत्समचतुरस्र न्यग्रोधपरिमंडलं स्वाति कुब्ज वामन हुंडं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुत्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यदृचर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्द्धनाराचं कीलिका प्रसंप्राभासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुदगलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यतुभूतेभिन्नस्वात् । यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्ययरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभि लत्वात् । यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोहः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे किम्, नो, अपारस्पान, न, ५१, मा. ६५., नी, न, पिइ, योगस्थान, न, बंधस्थान, वा, न, एव, च, उदयस्थान, न, मार्गणास्थान, किम्, नो, स्थितिबंधस्थान, जीव, न, संवलेशस्थान, वा, न, एव, विशुद्विस्थान, नो, संयमलब्धिस्थान, वा, न, एव, जीवस्थान, ना, गुणस्थान, च, जीव, यत्, तु, एतत्, सर्व, पुद्गलद्रव्य, परिणाम । मूलधातु-वर्ण वर्णने, रस आस्वादनस्नेहनयोः, स्पृश संस्पर्शने, विद सत्तायां दिवादि, बन्ध बन्धने, अयादि, मग अन्वेषणे, क्लिश उपतापे तुदादि, शुध शौचे दिवादि, संन्यम उपरमे भ्वादि । पदविवरण- जीवस्य-षष्ठी एक० । न-अव्यय । अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । वर्ण:-प्रथमा एक० । न-अव्यय । अपि अव्यय। गन्ध:-प्रथमा एक० । न-अ० । अपिनहीं हैं, क्योंकि...'३ । चिकना, रूखा, ठंडा, गर्म, भारी, हल्का, कोमल और कठोर-ये सब स्पर्श भी जीवके नहीं हैं क्योंकि । ४ । स्पर्शादि सामान्य परिणाममात्र रूप भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि..."। ५ । प्रौदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कामण शरीर ये जीव के नहीं हैं, क्योंकि०। ६ । समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुंडक—ये सब संस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि । ७ । वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलक और असंप्राप्तासपाटिका संहनन ये भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि.."। ८ । प्रीतिरूप राग भी जीवका नहीं है, क्योंकि....। ६ । प्रीतिरूप द्वेष भो जोवका नहीं है, क्योंकि० । १० । यथार्थ तत्त्वको प्राप्ति रूप मोह भी जीवका नहीं है, क्योंकि..."। ११ । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगस्वरूप प्रत्यय (प्रास्रव) भी जोवके नहीं हैं, क्योंकि..। १२ । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायु. नाम, गोत्र, पोर अन्तरायस्वरूप कर्म भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि० । १३ । छह पर्याप्तियोंसहित शरीर- ! योग्य वस्तुरूप (पुद्गलस्कंध) नोकर्म भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि । १४ । कर्मके रसको शक्ति Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार ११७ सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । ये मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षरणाः प्रत्ययास्ते सर्वेपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्त्वे सत्यनुभूते भिन्नत्वात् । यद् ज्ञानावरणीयदर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीयायुर्नामगोत्रांत रायरूपं कर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्य वस्तुरूपं नोकर्म तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य. परिणाममयत्वे सत्यनुभूते भिन्नत्वात् । यः शक्तिसमूहलक्षण वर्गः स सर्वोपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभूत भिन्नत्वात् । या वर्गसमूहलक्षणा वर्गरणा सा सर्वापि नास्ति जीवस्थ पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूते मिन्नत्वात् । यानि मंदतोव्ररसकर्मदल विशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्द्धकानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि स्वपकत्वाभ्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तत्व लक्षणान्यध्यात्मस्था नानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्त्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि कायवाङ्मनो वर्गणापरिस्पंदल क्षरणानि योगस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूते भिन्नत्वात् । अव्यय | रसः - प्रथमा एक० । न अव्यय । अपि- अ० । च-अ० | स्पर्शः - प्रथमा एक० । न-अ० अपिअव्यय । रूपं प्रथमा एक० । न, शरीरं प्रथमा एक० 1 न, अपि, संस्थानं प्र० ए० । न संहननं प्र० ए० । जीवस्य षष्ठी एक० | न रागः- प्र० एक० न अपि द्वेषः - प्र० एक० 1 न, एव, अस्ति, विद्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० | मोह:- प्र० ए० । नो अव्यय । प्रत्ययः - प्रथमा बहु० । न कर्म- प्रथमा एक० । तोकर्म - प्रथमा एक० । च, अपि तस्य षष्ठी एक० न अस्ति, जीवस्य षष्ठी एक० । न, अस्ति, वर्ग:- प्र० एक० । न, वर्गणा - प्र० एक० न. एव, स्पर्द्धकानि - प्रथमा बहु० । कानिचित् - अव्यय अंतः प्रथमा बहु० । ---- के अविभागप्रतिच्छेदों का समूहरूप वर्ग भो जीवका नहीं है, क्योंकि । १५ । वर्गीका समूहरूप वर्गणा भी जीवकी नहीं है, क्योंकि ० " ० । १६ । मंद तीन रसरूप कर्मके समूहके विशिष्ट वर्गीकी वर्गण के स्थापनरूप स्पर्धक जीवके नहीं हैं, क्योंकि| १७ | स्वपरके एकत्व का अध्यास ( मिथ्या श्रारोप) होनेपर विशुद्ध चैतन्य परिणामसे भिन्न लक्षण वाले अध्यात्मस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि । १८ । पृथक्-पृथक् विशेषरूप प्रकृतियों के रसरूप जिनका लक्षण है ऐसे अनुभागस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि । १६ । काय, वचन, मनोरूप वर्गेणा का चलना जिनका लक्षण है, ऐसे योगस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि | २० | भिन्न भिन्न विशेषोंको लिये प्रकृतियों का परिणाम जिनका लक्षण हैं, ऐसे बंबस्थान भी जीवके नहीं हैं क्योंकि० । २१ । ग्रपने फलके उत्पन्न करनेमें समर्थ कर्मको अवस्था जिनका स्वरूप है, 'उदयस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि० । २२ । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयंसार यानि प्रतिबिशिष्ट प्रकृतिपरिणामलक्षणानि बन्धस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुन गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि स्वफलसंपादनसमर्थकर्मावस्थालक्षणान्युदय. स्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि मतीन्द्रिय काययोगवेदकषायज्ञानसंयमदर्शनले श्याभव्यसम्यक्त्वसंशाहारलक्षणानि भागणास्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि तविशिष्टप्रकृतिकालांतरसहत्वलक्षणानि स्थितिबंवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुमयपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थांनानिमानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्ननो, अध्यात्मस्थानानि-प्रथमा बहु० । न, एव. च, अनुभागस्थानानि-प्र० बहु । जीवस्य-षष्ठी एक० । न, सन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । कानिचित्, योगस्थानानि-प्रथमा बहु० । न, बन्धस्थानानिप्रथमा बहु० । वा-अव्यय । न, एव, च, उदयस्थानानि-प्रथमा बहु० । न, मार्गणास्थानानि-प्रथमा बहु । ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और पाहार जिनका स्वरूप है, ऐसे मार्गणास्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि...। २३ । भिन्न-भिन्न बिशेषोंको लिये प्रकृतियोंका कालान्तरमें साथ रहना जिनका लक्षण है, ऐसे स्थितिबंधके स्थान भी जीवके नहीं है, क्योंकि "। २४ । कषायके विपाककी उत्कृष्टता जिनका लक्षण है, ऐसे संक्लेशस्थान भी जीव के नहीं हैं, क्योंकि । २५ । कषायके विपाककी मंदता जिनका लक्षण है, ऐसे विशुद्धिस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि....। २६ । चारित्रमोहके उदयकी क्रमसे निवृत्ति जिनका लक्षण है, ऐसे संयमलब्धिस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि..."। २७ । पर्याप्त, अपर्याप्त, दादर, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञी प्रसंज्ञी, पञ्चेन्द्रिय जिनका लक्षण है, ऐसे जीवस्यान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि..."। २८ । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सभ्यम्मिश्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, प्रपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष:सांपराय, उपशांतमोह, क्षोणमोह, सयोगकेवली और प्रयोगकेवली जिनका लक्षण है, ऐसे सब गुणस्थान भी जीवके नहीं हैं, क्योंकि०"। २६ । इस प्रकार ये सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं वे सब जीवके नहीं हैं । जीव तो परमार्थसे चैतन्यशक्तिमात्र है। अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं.---'वांद्या' इत्यादि । अर्थ-वर्णादिक अथवा राग मोहादिक उक्त सभी भाव इस पुरुष (प्रात्मा) से भिन्न है, इसी कारण अन्तः परमार्थतः देखने वालेको ये सब नहीं दीखते केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेद प्रात्मा ही दीखता है । भावार्थ-~-परमार्थनय अभेदरूप है, इसलिये उस दृष्टिसे देखनेपर भेद नहीं दीखता, उस नयकी दृष्टि में चैतन्यमात्र पुरुष (आत्मा) ही दीखता है, इस कारण वे वर्णादिक तथा Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ स्वात् । यानि कषायविपाकानुद्रकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद् गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि चारित्रमोहविक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयम लब्धिस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभितत्वात् । यानि पर्याप्ता पर्याप्तवाद र सूक्ष्मै केन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसंज्ञ्य संज्ञिपंचेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । यानि मिथ्यादृष्टिसासादन सम्यग्दृष्टि सम्यग्मिध्यादृष्ट्य संयतसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतप्रमत्तसंयताप्रमत्त संयता पूर्वकरगोपशमकक्षपकानिवृत्तिवादरसपियोपशमकक्षपक सूक्ष्म सौपरायोपशमकक्षपको शांत कषायक्षीणकषाय सयोग के बल्य योग केवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । वर्णाद्या वा राममोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवांतस्तत्यतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युद्धं ष्टमेकं परं स्यात् ||३७|| ।।५०-५१ - ५२-५३-५४-५५॥ जीवाजीवाधिकार कानिचित् नो स्थितिबन्धस्थानानि प्रथमा बहु० । जीवस्य षष्ठी एक० । न, संक्लेशस्थानानि - प्रथमा बहु०, न, एव विशुद्धिस्थानानि प्र० ब० । नो, संयमलब्धिस्थानानि - प्र० ब० । न, नो, एव, च, जीवस्थानानि - प्र० ब० 1 न, गुणस्थानानि प्र० बहु० । वा, संति, जीवस्य येन-तृतीया एक० हेत्वर्थे तु एते सर्व प्र० ब० । पुद्गल द्रव्यस्य षष्ठी एक० । परिणामाः प्रथमा बहुवचन ।। ५०-५१-५२-५३-५४-५५ ।। रागादिक पुरुषसे भिन्न ही हैं । (वर्णको आदि लेकर गुणस्थानपर्यंत भावोंका स्वरूप विशेषतया यदि जानना हो तो गोम्मटसार आदि ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये ) | प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि आत्मा चेतनागुणभय है, चिच्छक्तिव्यात सर्वस्वसार है और इससे अतिरिक्त भाव सब पौगलिक हैं । सो इसी विषयको निषेधविवरण के साथ इन छह गाथाओं में कहा जा रहा है । तथ्यप्रकाश--- ( १ ) चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य भावोंमें कुछ भाव तो ऐसे हैं जो पुद्गलके हो परिणमन हैं, इस कारण वे अन्य भाव पौद्गलिक हैं । (२) चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य भावों में कुछ भाव ऐसे हैं जो कर्मपुद्गल विपाकके प्रतिफलन हैं, इस कारण वे अन्य भाव पौद्गलिक हैं । ( ३ ) चैतन्यस्वभाव के अतिरिक्त अन्य भावों में कुछ भाव ऐसे हैं जो पुद्गलकर्मदशाका निमित्त पाकर श्रात्मा के गुणोंके विकृत परिणमन हैं, इस कारण वे अन्य भाव भी पौद्गलिक कहे गये हैं । ( ४ ) समस्त अन्य भावोंसे प्रात्माभिभव न होने देनेका तथा अन्य भावोंके दूर होनेका तथा ग्रन्थ भावके कारणोंके दूर हो जानेका साधन केवल निज सहज अन्तस्तस्वका दर्शन है । सिद्धान्त --- ( १ ) पुद्गलद्रव्यके परिणमनोंका आत्मामें नास्तित्व है । ( २ ) पुद्गलकर्मविपाके सानिध्य में उपयोग में वह विपाक प्रतिफलित होता है । ( ३ ) श्रात्मा के शुद्ध ज्ञायक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܐ समयसार ननु वर्णादयो यथमी न संति जीवस्य तथा तंत्रांतरे कथं संतीति प्रज्ञाप्यते इति चेत्ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वरणमादीया | ठाताभावादु केई मिच्छययस्स ॥५६॥ भाव व्यवहारसे ये वर्णादिक गुणस्थान तक सारे । बतलाये किन्तु निश्चय नयसे नहिं जीव के कोई ।। ५६ ।। araहारेण त्वेते जीवस्य भवंति वर्णाद्याः । गुणस्थानांता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य ॥ ५६ ॥ इह हि व्यवहारनयः किल पर्यार्याश्रितत्वाज्जीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्ध बंधपर्यायस्य कुसुंभरक्तस्य कार्पासिकवासस इवोपाधिकं भावमालंब्योल्लवमानः परभाव परस्य विदघाति । निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्थ स्वाभाविकं भावमवलंब्योत्प्लवमानः पर नामसंज्ञ- यवहार, दु, एत, जीव, वण्णमादीय, गुणठाणंत, भाव, ण, दु, केई, णिच्छयणय । धातुसंज्ञ--- हव सत्तायां, ने प्रापणे । प्रकृतिशब्द व्यवहार, तु, एतत्, जीव, वर्णाद्य, गुणस्थानान्त, भाव, न, सु, fr. निश्चयनय । मूलधातु-वि अव हुत्र हरणे भ्वादि, भुसत्तायां णीञ प्रापणे । पदविवरण- व्यवहा स्वभावकी दृष्टि व उमंग होने की घटना में विकार पुद्गलस्वामिक विदित होते हैं । दृष्टि - १ -परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याणि i (२०) २ - उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार (१०३ प्र ) । ३ - विवक्षितक देश शुद्ध निश्चयनय ( ४ ) | प्रयोग -- निमित्त व नैमित्तिक अन्य भावोंसे हटकर शुद्ध ज्ञायकस्वभावमय अन्तस्तत्त्व में निःशङ्क प्राराम लेना चाहिये ।। ५०-५१-५२-५३-५४-५५ ।। अब शिष्य पूछता है कि वर्णादिक भाव जो कहे गये हैं वे यदि जीवके नहीं हैं तो अन्य सिद्धान्त ग्रन्थों में 'ये जीवके हैं' ऐसा क्यों कहा गया ? उसका उत्तर गाथामें कहते हैं[ एते ] ये [ वर्णाचा: गुरणस्थानाताः भाषाः ] वरणं आदि गुणस्थानपर्यन्त भाव [ व्यवहारेण सु] व्यवहारनयसे तो [ जीवस्य भवंति ] जीवके होते हैं, इसलिये सूत्रमें कहे हैं, [तु] परंतु [निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके मतसे [ केचित् न ] उनमें से कोई भी भाव जीवके नहीं है । तात्पर्य - वर्णादि गुणस्थानपर्यन्त भाव निश्चयनयसे जीवके नहीं, ये व्यवहारनयसे जीवके कहे गये हैं । टीकार्थ -- यहाँपर व्यवहारनय, पर्यायाश्रित होनेसे पुद्गलके संयोगवश अनादिकाल से प्रसिद्ध जिसकी बंधपर्याय है ऐसे जीवके 'कुसुम्भके लाल रंगसे रंगे हुए रुईके वस्त्रकी भांति' श्रोपाधिक वर्णादिभावोंको श्रालम्बन कर प्रवृत्त होता है, इसलिये वह व्यवहारनय दूसरे के भावों को दूसरोंका कहता है । किंतु निश्चयनय द्रव्यके आश्रय होनेसे केवल एक जीवके स्वाभा far भावको अवलम्बन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावोंको परके कहता है, निषेध करता है, इसलिये वर्ण आदि गुरणस्थानपर्यंत भाव व्यवहारनयसे जीवके हैं, निश्चयनयसे नहीं हैं, Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जीबाजीवाधिकार १२१ भावं परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति । ततो व्यवहारेण वदियो गुणस्थानांता भावा जीवस्य संति निश्चयेन तु न संतीति युक्ता प्रज्ञप्तिः ॥५६॥ रेण-तृतीया एक० । तु-अव्यय । एते-प्र० बहु । जीवस्य-षष्ठी एक० । भवन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । वर्णाद्या:-प्र० ब० । गुणस्थानान्ता:-प्र० ब० । भावा:-प्रद० । न, तु, केचित्-अव्यय । अन्त:-प्र० ब०, निश्चयनयस्य -षष्ठी एक० ।।५६॥ इस प्रकार भगवानका कथन स्याद्वादसहित युक्तिपूर्ण है । प्रसंगविबरण---अनन्तरपूर्व गाथावोंमें बताया था कि वर्णादिक व अध्यवसानादिक पौद्गलिक हैं वे जीवके नहीं हैं तो इसपर एक प्राशङ्का होना प्राकृतिक है कि यदि ये वर्णादि भाव जीवके नहीं है तो सिद्धान्त ग्रन्थोंमें जीवके वे भाव हैं ऐसा क्यों वर्णन मिलता है ? इस प्राशङ्काके समाधान में इस गाथाका अवतार हुआ है। तथ्यप्रकाश-(१) व्यवहारनय पर्यायदर्शक व भेददर्शक है । (२) निमित्तके परिण. मनोंको सम्बंधवश उपादानके कहनेका व्यवहार होता है । (३) निश्चयनय एक द्रव्यका दर्शक है । (४) जो निश्चयनय एक द्रध्यमें उसके पर्याय व गुणोंको दिखाता है वह भेदविधिकी मोर से व्यवहारनय बन जाता है । सिद्धान्त --(१) पर्ण स्थान हा ना क मारि जीवके उपचारसे कहे जाते हैं । (२) अध्यवसान गुणस्थान संयमस्थान आदि जीवके व्यवहारनयसे है । (३) शुद्धनय से जीवके वर्णादिक अध्यवसानादिक कोई भी चित्स्वभावातिरिक्त भाव नहीं हैं। दृष्टि-१- एकद्रव्यपर्याये अन्यद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१२१)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३- शुद्धनय (४६)। प्रयोग-पद्गलकर्मका निमित्त पाकर होने वाले विकारोंको कर्ममें थोपकर अपनेको शुद्ध चित्स्वभावमात्र अनुभवना चाहिये ।।५६।। ये वर्णादिक निश्चयसे जीवके क्यों नहीं हैं ? इस प्रश्नका उत्तर कहते हैं;-[एतैः व संबन्धः] इन वर्णादिक भावोंके साथ जीवका सम्बन्ध [क्षीरोदकं यथेव] जल और दूधके एकत्रावगाहरूप सम्बन्धसदृश [ज्ञातव्यः] जानना [च] और [तानि] वे [तस्य तु न भवति] उस जीवके नहीं हैं [यस्मात] क्योंकि जीव [उपयोगगुणाधिकः] उपयोग मुणके कारण इनसे अधिक है । तात्पर्य ---ज्ञानमय प्रात्मा ज्ञानरहित सब पदार्थोंसे निराला है। टोकार्य-जैसे जलसे मिला हुआ दूध जलके साथ परस्पर प्रधगाह स्वरूप संबंध होने पर भी अपने स्वलक्षणभूत क्षीरत्व गुणमें व्याप्त होनेके कारण दूध जलसे पृथक् प्रतीत होता है इस कारण जैसे अग्निका उष्णता गुण के साथ तादात्म्यसंबन्ध है, उस प्रकार दुधका जलके Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ समयसार कुतो जीवस्य वरदियो निश्चयेन न संतीति चेत् - एएहिं य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदब्बो । ण य हुँति तस्स ताणि दु उपयोगगुणाधिगो जम्हा ॥३७॥ भारतरवत् जामो, बहस सम्बन्ध बहिन भावोंसे । किन्तु नहिं जीयके थे, यह तो उपयोगमय न्यारा ॥५७। एतश्च सम्बंधो यथैव क्षीरोदकं ज्ञातव्यः । न च भवन्ति तस्य तानि, तूपयोगगुणाधिको यस्मात् ॥५७।। यथा खलु सलिलमिश्रितस्य क्षीरस्य सलिलेन सह परसरावगाहलक्षणे संबंधे सत्यपि स्वलक्षणभूतक्षीरत्व गुणव्याप्यतया सलिलादधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षरणसंबंधाभावान्न निश्चयेन सलिलमस्ति । तथा वर्णादिपुद्गलद्रव्यपरिणाममिश्रितस्या नामसंज-एत, य, संबंध, जह, एव, खीरोदय, व, य, त, त, दु, उवओगगुणाधिग, ज । धातुसंशसम्-बंध बंधने, मुण ज्ञाने, हो सत्तायां। प्रातिपदिक-एतत्, च, सम्बंध, यथा, एब, क्षीरोदक, ज्ञातव्य, साथ सम्बन्ध न होनेसे निश्चयसे दूधका जल नहीं है। उसी प्रकार वर्णादिक पुद्गलद्रव्यके परिणामोंसे मिला हुअा अात्मा पुद्गलद्रव्य के साथ परस्पर अवगाह स्वरूप संबंध होनेपर भी अपने लक्षणस्वरूप उपयोग गुणसे व्याप्त होनेके कारण सब द्रव्योंसे भिन्न प्रतीत होता है, इस कारण जैसे अग्निका और उष्णता गुणके साथ तादात्म्य स्वरूप संम्बन्ध है, उस प्रकार मात्माका वर्णादिकोंके साथ तादात्म्य संबन्ध नहीं है। इसलिये निश्चयनयसे ये वर्णादिक पुद्गलपरिणाम हैं, जीवके नहीं हैं। प्रसंगविवरण-पनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि वर्ण प्रादिकसे लेकर गुणस्थानपर्यन्त भाव निश्चयनयसे जीवके नहीं हैं, सो अब उसी विषय में जिज्ञासा हुई है कि वर्णादिक भाव निश्चयनयसे जीवके क्यों नहीं हैं, इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें दिया गया है। तथ्यप्रकाश-१-दूध और जलका मोटे रूपसे परस्पर अवगाह तो है, किन्तु संबन्ध संयोग सम्बन्ध है, तादात्म्य नहीं। २-अग्नि और उष्ण गुरणका सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध है । ३-संयोगसंबंध सम्बन्धो पदार्थ भिन्न-भिन्न हुमा करते हैं । ४-वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, संस्थान, संहनन मादि जिनका उपादान पुद्गल है उनका व जीवका वर्तमान संबंध परस्पर भवगाह होने पर भी मात्र संयोग संबंध है ५-भिन्नताका परिचय असाधारण मुरणसे होता है । -गुणस्थान, संयमस्थान, अध्यवसान प्रादि जिनका उपादान जीव है उन भावोंका जीव के साथ क्षणिक तादात्म्य संबंध तो है, किन्तु नैमित्तिक (पोद्गलिक) होनेसे, तुरन्त हट Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार स्थात्मनः पुद्गलद्रव्येण सह परस्परावगाहलक्षणे संबंधे सत्यपि स्वलक्षणभूतोपयोगगुणव्याप्य. तया सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वात् अग्नेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसंबंधाभावान निश्चय येन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः जीवस्य संति ।।५७।। न, च, तत्, तु, उपयोगगुणाधिक, यत् । मूलपातु-सन्-बन्ध पल्पने, जा अपयोधर्म, भू सत्ताबा, युजिर योगे । पदविवरण---एतैः-तृतीया बहुवचन, च-अव्यय, सम्बन्धः-प्रथमा एक०, यथा-अव्यय, एव-अव्यय, क्षीरोदक-प्रथमा एक०, ज्ञातभ्यः-प्रथमा एक कृदन्त क्रिया, च-अव्यय, भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन, तस्य-षष्ठी एक०, तानि-प्रथमा बहुवचन, तु-अव्यय, उपयोगुणाधिक:-प्रथमा एक०, यस्मात्हेत्वर्थे पंचमी एकवचन ॥५७।। जानेसे इनका भी संबंध संयोग संबंध कहलाता है। ५-वर्णादिकसे तो उपयोग अत्यन्त निराला है। ८-अध्ययसानादिकोसे भी उपयोगस्वरूप प्रात्मा बिल्कूल विलक्षण है । ६संयोग संबंधमें एकको दूसरेका बताना प्रकट उपचार बाला व्यवहार है । १०-क्षणिक तादा. त्म्यमें विभावको अशुद्ध निश्चयन यसे जीवका जो कहा है वह असद्भूतव्यवहार वाले द्रव्यकर्म बंधकी अपेक्षा तारतम्य बताने के लिए कहा है। वस्तुतः परमशुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा तो यह अशुद्धनिश्चयनय भी व्यवहार ही है । ११-शाश्वत सहज तादात्म्य सम्बन्धमें ही वास्तविक स्वरूप जाना जाता है । १२-जीव उपयोगमय है, जीवका उपयोगके साथ शाश्वत सहज तादात्म्य संबंध है । १३-प्रात्माको वर्णादिसे व रागादिसे भिन्नताका परिचय प्रात्माफे उपयोग गुणके जाननेसे हो जाता है अर्थात् प्रात्मा उपयोगस्वरूप हैं और वर्णादिक व रागादिक जड़ स्वरूप है । १४-पारमाका उपयोगले तादात्म्य संबंध है, जैसे अग्निका उष्णतासे तादात्म्य संबंध है । १५-तादात्म्य तो शाश्वत रहता है, अतः उसके साथ संबन्ध शब्द तुक मिलानेके लिए लगाया जाता है । वस्तुतः तादात्म्य कोई संबंध नहीं है, वह तो तन्मय है । १६वर्णादिकका व अध्यवसानादिका, गुणस्यान पर्यन्त इन सब भावोंका जीवके साथ शाश्वत सहज तादात्म्य संबंध नहीं है, प्रतः ये सब भाव जीवके नहीं हैं। सिद्धान्त--१--आत्मा उपयोग (चैतन्य) स्वरूप है । २- शरीरको प्रात्मा कहना उपचार है, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्य के साथ संयोग सम्बन्ध ही हो सकता है । ३-नैमित्तिक भावोंका उपादानके साथ अशुद्धिकालमें क्षणिक तादात्म्य रहता है। दृष्टि--१- परमशुद्ध निश्चयनय (४४) । २- एकजातिद्रव्ये अन्य जातिद्रव्योपधारक असद्भूत व्यवहार (१०६)। ३- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्यापिकनय (५३) । प्रयोग---पानीसे दूधकी भिन्नताकी तरह शरीरको आत्मासे भिन्न निरखकर ज्ञानमात्र अन्तःस्वरूपमें उपयोग करना ।।५७॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कथं तहि व्यबहारोऽविरोधक इति चेत्--- पंथे मुस्पतं परिष्द्गा लोगा भगांति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई ॥५८॥ तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिवण्णं । जीवस्स एस वणगे जिणेहिं चवहारदो उत्तो॥५६॥ गंधरसफासरूवा देहो संठागामाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति ॥६०॥ (त्रिकलम्) पथमें लुटते पथिकों को देख कहें लोग लोकव्यवहारी। यह पथ लुटता निश्चय से न कोइ मार्ग लुटता है ॥५॥ कर्म नोकर्म वर्णो-को जोर्यकक्षेत्रावगाही लखि । यह वर्ण जीवका है, ऐसा व्यवहारसे हि कहा ॥५६॥ रूप रस गंध व फरस, शरीर संस्थान प्रादि इन सबको। निश्चयस्वरूपदर्शी, कहते व्यवहारचर्चा यह ॥६०॥ पथि मुध्यमाणं दृष्ट्वा लोका भणंति व्यवहारिणः । मुप्यते एष पंथा न च पंथा मुख्यते कश्चित् ॥५॥ तथा जीवे कर्मणां नोकर्मणां च दृष्ट्वा वर्ण । जीवस्यप वर्णो जिनर्व्यवहारत उक्तः ॥५६॥ गंधरसस्पर्शरूपाणि देहः संस्थानं आदयः ये च । सर्व व्यवहारस्य च निश्चयदृष्टारो व्यपदिशति ॥६॥ यथा पथि प्रस्थितं कंचित्सार्थ मुष्यमाणमवलोक्य तात्स्थ्यात्तदुपचारेण मुष्यत एष पंधा इति व्यवहारिणां व्यपदेशेपि न निश्चयतो विशिष्टाकाशदेशलक्षणः कश्चिदपि पंचा मुध्येत । तथा जीवे बंधपर्यायेरगावस्थितं कर्मणो नोकर्मणो वा वर्णमुत्प्रेक्ष्य तास्थ्यात्तदुपचारेण नामसंश-पंथ, मुस्संत, लोग, यवहारि, एत, पंथ, ण, य, पंथ, कोई, तह, जीव, कम्म, णोकम्म, च, वष्ण, जीव, एत, वण, जिण, ववहारदो, उत्त, गंधरसफासरूव, देह, संठाणमाइय, ज, य, सन्व, . ववहार, य, णिच्छयदष्हु । धातुसंज्ञ- पास दर्शने, भण कथने, मुस चौर्ये स्पर्श, वच्च व्यक्तायां वाचि । यहाँ जिज्ञासा होती है कि व्यवहारनय फिर प्रविरोधक कैसे रहा ? उसका उत्तर दृष्टान्त द्वारा तीन गाथाओंमें कहते हैं-[पथि मुष्यमारणं] जैसे मार्गमें स्थित हुएको लुटा हुअा [दृष्ट्वा] देखकर [व्यवहारिणः] व्यवहारी [लोकाः] जन [भरपंति] कहते हैं कि [एष पंथा] यह मार्ग [मुष्यते] लुटता है, वहाँ परमार्थसे विचारा जाय तो [कश्चित् पंयाः] कोई मार्ग इन च मुष्यते] नहीं लुटता, पहुंचे हुए लोक ही लुटते हैं [तया] उसी तरह [जीवे] जीवमें [कर्मणां नोकर्मणां च] कर्मोका और नोकर्नीका [वणं] वर्ण [दृष्ट्वा] देखकर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १२५ जीवस्यैष वर्ण इति व्यवहारतोऽहद्दवानां प्रज्ञापनेपि न निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणाधिकस्य जीवस्य कश्चिदपि वर्णोस्ति । एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननरामद्वेषप्रातिपदिक-पथिन्, लोक, व्यवहारिन्, एतत्, पथिन्, न च पथिन्, कश्चित्, तथा, जीव, कर्मन्, नोकर्मन्, वर्ण, जीव, कर्मन्, नोकर्मन्, वर्ण, जीव, एतत्, वर्ण, जिन, व्यवहारतः, उक्त, गंधरसस्पर्शरूप, देह, संस्थान, आदि, यत्, च, सर्व, व्यवहार, च निश्चयद्रष्ट । मुलधातु.. .मुष स्तेये अयादि, दृशिर् अवलोकने, भण शब्दार्थः पथि गती चुरादि । पद विवरण-पथि-सप्तमी एकबचन, मुष्यमाणं-द्वितीया एक० असमाप्तिकी क्रियाके कर्मका विशेषण, दृष्ट्वा असमाप्तिकी क्रिया, लोका:-प्रथमा ब०, भणति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष [जीवस्य] जीवका [एषः वर्णः] यह वर्ण है ऐसा [जिनः] जिनदेवने [व्यवहारतः] व्यय. हारसे [उक्तः] कहा है [एवं] इस प्रकार [गंधरसस्पर्शरूपारिण] गंध, रस, स्पर्श और रूप [देहः संस्थानादयः] देह संस्थान प्रादिक [ये च सर्वे] जो हैं वे सभी [व्यवहारस्य व्यवहारके मतमें हैं, [निश्चयद्रष्टारः] ऐसा निश्चयनयके देखने वाले [व्यपविशति] कहते हैं । तात्पर्य-निश्चयसे जीव अमूर्त है, फिर भी देहादिके रूपादिको देखकर इस जीवका ऐसा रूप है यो व्यवहारसे कहा गया है। टोकार्थ--जैसे मार्ग में प्रस्थित किसी धनिकको लुटता हुआ देखकर धनिकको मागमें स्थिति होनेसे उपचारसे कहा जाता है कि यह मार्ग लुटता है, तथापि निश्चयसे देखा जाय, तो जो प्राकाशके विशेष प्रदेशोंरूप मार्ग है वह तो कोई लुटता नहीं है । उसी प्रकार जीवमें बंधपर्यायसे अवस्थित जो कर्मका और नोकर्मका वणं है उसे देखकर जीवमें स्थित होनेसे उपचारसे जीवका यह वर्ग है, ऐसे व्यवहारसे भगवान परहंत देव प्रज्ञापन करते हैं, प्रकट करते हैं, तो भी निश्चयसे जीव नित्य ही अमूर्तस्वभाव है और उपयोग गुणके कारण अन्य द्रव्यसे अधिक है याने भिन्न है, इसलिये उसके कोई वर्ण नहीं है। इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग द्वेष, मोह, प्रत्यय, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, प्रध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान-ये सभी व्यवहारसे जीवके हैं ऐसा परहंत देवोंका प्रज्ञापन होनेपर भी निश्चयसे नित्य ही अमूर्त स्व. भाव वाले व उपयोग गुणके कारण अन्यसे भिन्न जीवके ये सब नहीं हैं, क्योंकि इन वर्णादि भावोंके और जीवके तादात्म्यलक्षण सम्बंधका प्रभाव है । मावार्थ-ये जो वर्णसे लेकर गुणस्थानपर्यन्त भाव कहे हैं, वे सिद्धान्तमें जीवके कहे हैं, सो व्यवहारनयसे कहे गये हैं, निश्चयनयसे तो जीवके नहीं हैं। क्योंकि जीव तो परमार्थतः उपयोगस्वरूप है । जहाँ पहले व्यवहारनपको असत्यार्थ कहा था वहाँ ऐसा नहीं समझना कि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ समयसार मोहप्रत्ययकर्मनोकमवर्गवर्गणास्पर्द्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवबहुवचन, व्यवहारिणः--प्रथमा बहु० कर्तृ विशेषण, मुध्यते-कर्मवाच्य क्रिया वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक०, कश्चित्-अव्यय अन्तः प्रथमा एक०, तथा अव्यय, जीवे-सप्तमी एक०, कर्मणां-षष्ठी एक०, नोकर्माषष्ठी एक०, वर्ण-द्वि० ए०, जीवस्य-षष्ठी एकवचन, एष:-प्रथमा एक०, जिन:-तृतीया बहुवचन, व्यववह सवैया असत्यार्थ है, किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना । क्योंकि जब एफ द्रव्यको उसको भिन्न-भिन्न पर्यायोंसे प्रभेदरूप मसाधारण गुणमात्रको प्रधानरूपसे कहा जाय, तब परस्पर द्रव्योंका निमित्तनैमित्तिक भाव तथा निमित्तसे हुए पर्याय ये सब गौण हो जाते हैं, वे एक प्रभेदद्रव्यको दृष्टि में प्रतिभासित नहीं होते। इसलिये वे सब उस द्रव्यमें नहीं हैं, इस प्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है । जब यह देखा जाय कि ये उस द्रव्यमें हैं तो व्यवहारनयसे यह जान सकते हैं, ऐसा नयविभाग है । यहाँ शुद्ध द्रव्यको दृष्टिसे कथन है, इसलिये ऐसा सिव किया है कि ये सब भाव सिद्धान्तमें व्यवहारनयसे जीवके कहे हैं । यदि निमित्तनैमित्तिकमाव की दृष्टि से देखा जाय तो वह व्यवहार कदाचित् सत्यार्थ कहा जा सकता है । यदि सर्वषा असत्यार्थ ही कहें तो सब व्यवहारका लोप हो जायगा, और ऐसा होनेसे परमार्थका भो लोप हो जायगा । इसलिये जिनेन्द्रदेवका उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्याज्ञान है, सर्वथा एकांत करना मिथ्यात्व है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व प्रकरणमें यह बताते चले पा रहे हैं कि सिद्धान्तमें व्यवहारनयसे तो वर्णादिक जीवके कहे गये हैं, किन्तु निश्चयसे जीवके नहीं हैं । सो यहां यह जिज्ञासा हुई कि फिर व्यवहार निश्चयका अविरोधक कैसे रहा ? इसके उत्तरमें ये तीन गाथायें कही गई हैं। तथ्यप्रकाश- (१) एक द्रव्यके द्रव्य गुण पर्यायमें दूसरे द्रव्यके द्रव्य गुण पर्यायका आरोग किसी न किसी सम्बन्धके होनेके कारण हुआ करता है । (२) व्यवहारतः निर्णय यह है कि मार्गमें जाने ठहरने वाला धनिक मुसाफिर लुटेरों द्वारा लूट लिया जाता है सो उस मार्गमें ही न जाया जावे इस शिक्षाको देनेके लिये यों ही कहा जाता है कि यह मार्ग लुटता है या यह मार्ग लूट लेता है । (३) निश्चयतः निर्णय यह है कि मार्ग तो उस जगहके प्राकाशप्रदेश है, क्या वह प्राकाशका हिस्सा (मार्ग) लुटता है या लूटता है ? न लुट सकता है, न लूट सकता है । (४) व्यवहारतः निर्णय यह है कि जीवके माथ बन्धपर्यायसे प्रवस्थित कर्म नोकर्मके वर्णको देखते हैं सो तीर्थप्रवृत्तिके लिये दृश्यमान नर, पशु आदिको जीव बताया जाता है जिससे यह प्रसिद्ध होता है कि वर्णादिक जीवके हैं । (५) निश्चयतः निर्णय यह है Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १२७ तो वानां प्रज्ञापतेपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न संति तादात्म्यलक्षरण संबंधाभावात् ।।५८-५६-६० ।। हारतः - पंत्रम्यां तसल अध्यय उक्तः प्रथमा एक. कृदंत, गंधरसस्पर्शरूपाणि- प्रथमा बहु०, देहः - प्रथमा एक०, संस्थान - प्रथमा एक०, आदयः - प्रथमा बहु०, ये प्रथमा बहु०, सर्वे - प्रथमा बहु०, व्यवहारस्य - पष्ठी एक०, निश्चयद्रष्टारः - प्रथमा ब०, व्यपदिशति-वि-अप दिशंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० ।। ५६-६० ।। कि वर्णादिक तो पुद्गल के प्राश्रित हैं वे जीवके नहीं हैं । सिद्धान्त - ( १ ) एक जातिके पदार्थ के प्राधार में अन्य जातिके आधेय पदार्थका आरोप करना आरोपक अभूतव्यवहार है । ( २ ) जिस विभाग पर्यायका जो उपादान है उसको उसमें ही बताना प्रयोजक व्यवहार है । दृष्टि - १ - एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४०) । २ - अशुद्ध निश्चयनय, अशुद्धपर्यायविषयी व्यवहारनय (४७, ५२ ) । प्रयोग - किसी भी उपचार कथनसे उसके प्रयोजनमात्रको जानकर आगे प्रगतिके लिये निश्चयनयका प्राश्रय करके सर्वविकल्पातिक्रान्त श्रन्तस्तत्त्वको अनुभवना चाहिये ||१८० ५६ ६०॥ यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्य सम्बंध क्यों नहीं है ? उसका उत्तर कहते हैं - [रादयः ] जो वर्णं प्रादिक हैं ये [संसारस्थानां जीवानां] संसारमें स्थित atric [भ] उस भव में [ भवन्ति ] होते हैं [ संसारप्रमुक्तानां ] किन्तु संसारसे छूट गए या मुक्त हुए जीवों [ खलु ] निश्चय से [वरपदयः केचित् ] वर्णादिक कोई भी [ न संति ] नहीं हैं । इसलिये तादात्म्य सम्बंध भी नहीं है । तात्पर्य- केवल संसारदशा में देहादि में वर्णादि होते हैं मुक्तदशामें नहीं होते, अतः सदा न होनेसे जीवका वर्णादिसे तादात्म्य सिद्ध नहीं होता । टीकार्थ-नो निश्चय से सब प्रवस्थानों में जिस स्वरूपसे व्याप्त हो और जिस स्वरूपकी व्याप्तिसे रहित न हो, उस वस्तु के साथ उन भावोंका तादात्म्य सम्बंध होता है । इसलिए सब ही श्रवस्थाओं में वर्णादिरूपसे व्याप्त हुए और वर्णादिकको व्याप्तिसे शून्य न हुए पुद्गल द्रव्यका वर्णादिक भावोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । श्रीर संसार - अवस्था में कथंचित् वर्णादि स्वरूपसे हुए तथा वर्णादि स्वरूपकी व्याप्तिसे शून्य न हुए जीवका मोक्ष अवस्था में सर्वथा वर्णादि स्वरूपकी व्याप्तिसे शून्य होनेके कारण तथा वर्णादि स्वरूपसे व्याप्त न होने के कारण वर्णादि भावोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध किसी प्रकार भी नहीं है । भावार्थ -- जो वस्तु जिन भावोंसे सब अवस्थामों में व्याप्त हो उस वस्तुका उन भावों Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ समयसार कुतो जीवस्य वविमिः सह तादात्म्पलक्षणः सम्बन्धो नास्तीति चेत्-- तत्थभवे जीवाणं संसारत्याण होति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णतिय हु वण्णादो केई ॥६॥ संसारी जीवोंके, भवमें ही वर्ण प्रादि व्यवहृत हैं । संसारप्रमुक्तोंके, नहि वे वर्णादि होते हैं ॥१॥ तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवंति वर्णादयः । संसारप्रमुक्तानां न संति क्लु वर्णादयः केचित् ।।६।। यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति यदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । ततः सर्बाष्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तम्य नामसंज-तत्थ, भव, जीव, संसारत्य, वण्णादि, संसारपमुक्क, ण, हु, वष्णादि केई । धातुसंशसम्-सर गती, ट्ठा गतिनिवृत्ती, हो सत्तायां, प-मुच त्यागे, अस सत्तायां । प्रातिपदिक--- तत्र, भव, जीव, संसारस्थ, वर्णादि, संसारप्रमुक्त, न, खलु, वर्णादि, केचित् । मूलधातु-भू सत्तायां, जीव प्राणधारणे, मुच। के साथ तादात्म्य सम्बन्ध कहा जाता है । सो वर्णादिक तो पुद्गलकी सब अवस्थानोंमें व्याप्त है और वर्णादिमा पुगतने साथ तादात्म्य है और जीवको संसार-प्रवस्थामें तो वर्णादिक किसी तरह कह सकते हैं, परन्तु मोक्ष अवस्थामें सर्वथा ही नहीं। इसलिए जीवका वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, ऐसा न्याय प्रात है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व कथन में बताया था कि वर्णादिक जीवके नहीं है, क्योंकि वर्णादिकके साथ जीवका तादात्म्य नहीं है । सो अब यहाँ प्रश्न होता है कि जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य संबंध किस कारपसे नहीं है उसके उत्तरमें यह गाथा कही है । तथ्यप्रकाश--१-किसी भी एक पदार्थका तादात्म्य उसके साथ है जो उस पदार्थको सब अवस्थानोंमें रहे ही रहे । २-वर्णादिक पुद्गलमें सदा रहते ही हैं अतः वर्णादिक पुद्गलके हैं । ३–रागादिक पुद्गलकर्मके विपाकका निमित्त होनेपर ही होता है, पुद्गलविपाक का निमित्त हुए बिना नहीं होता, तथा रागादिक कर्मविपाकका ही प्रतिफलन है अतः रागा. दिक भी पौद्गलिक हैं । ४-यद्यपि संसारी जीवके साथ वर्णादिकका (पुद्गल का) संयोग सम्बंध है तो भी संसारसे मुक्त हुए जीवोंमें तो वर्णादिकके संयोगसंबंधका भी अवकाश नहीं, अतः वस्तुत: जीवके साथ वर्णादिकका तादात्म्य संबंध नहीं। सिद्धान्त-(१) त्रिकाल तादात्म्य वाले गुणसे हो वस्तुका सही परिचय होता है। (२) नैमित्तिकभावसे उपादानभूत द्रव्य अवस्था में मलिन हो जाता है तथापि नैमित्तिकभावके साथ उपादानद्रव्यका तादाम्य नहीं है, उसका तो अधिकारी नियंता उपाधिभूत अन्य द्रव्य है । दृष्टि--(१) प्रखण्ड परमशुद्ध निश्चयनय व सभेद परमशुद्धनिश्चयनय (४४-४५) । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १२६ भवतो वर्णाधात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधः स्यात् । संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णद्यात्मकत्वध्यातिशून्यस्य भवतों वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्पाभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह सादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो न कथंबनापि स्यात् ।।६१।।। प्रमोचने, स गतौ । पदविवरण-तर-अव्यय । भवे-सप्तमी एक० । जीवाना-षष्ठी बहुः । संसारस्थानांषष्ठी बहु० । भवन्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । वर्णादयः-प्रथमा बहु० । संसारप्रमुक्तानां षष्ठी बहुवचन । न--अव्यय । अस्ति-वर्तमान लान पुरुष एसागर : ब-या। वर्गाद भरमा बहु० । केचित-अव्यय अन्त: प्रथमा बहुवचन ॥६॥ (२) उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय व विविक्षितकदेश शुद्धनिश्चयनय (२४-४८)। प्रयोग-संसार अवस्थामें संयोगसम्बद्ध शरीरके वर्मादिक देखकर संदेह नहीं करना, भब भी संसार अवस्थामें भी अपनेको प्रमूर्त ही निरखकर अबद्ध अस्पृष्ट चैतन्यस्वभावमय मनुभवना चाहिये ॥६॥ अब जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य ही है, ऐसा मिथ्या अभिप्राय करने में जो दोष है उसे अगली गाथामें कहते हैं:---[यविह च] यदि तुम [इति मन्यसे] ऐसा मानोगे कि' एते सर्वे भावाः] ये वदिक सब भाव [जीवा हि एवं] जीव ही हैं [तु ते] तो तेरे मतमें [जीवस्य च अजोवस्य] जोव और अजीवका [कश्चित्] कोई [विशेषः] भेद [नास्ति] वहीं रहता। तात्पर्य--प्रजीव तो वणोदिमान ही है और अब जीवको भी वर्णादिमान मानोगे तो फिर जीव व अजीवमें कुछ फर्क न रहा। टीकार्थ-जैसे वर्णादिक भाव अनुक्रमसे प्रगट होने (उपजने वाली प्रौर छिपने (नाश होने) वाली उन उन व्यक्तियों (पर्यायों) के द्वारा पुद्गल द्रव्यको मन्वय रूप प्राप्त हुए पुद्गल द्रध्यके ही तादात्म्यस्वरूपको विस्तृत करते हैं, उसी प्रकार वर्णादिक भाव क्रमसे भावित प्राविर्भावतिरोभाव वाली पर्यायोंसे जीयके अन्वयको प्राप्त होते हुए जीवके वर्णादिकके साथ तादात्म्य स्वरूपको विस्तारते हैं ऐसा जिसका अभिप्राय है, उसके अन्य शेष द्रव्योंसे असाधारण वर्णादिस्वरूप जो पुद्गल द्रव्यका लक्षण है उसको जीवका अङ्गीकार करनेसे जीव और पुद्गलमें अविशेषका प्रसंग होगा । ऐसा होनेसे पुद्गलसे भिन्न जीवद्रव्यका अभाव हो जायगा तब जीव द्रव्यका ही प्रभाव हो जायगा । भावार्थ-जैसे वर्णादि पुद्गलद्रव्य के साथ तादात्म्यस्वरूप हैं, उसी प्रकार जीवके साथ भी तादात्म्यस्वरूप हो जाय तो जीव व पुद्गलमें कुछ भी भेद न रहेगा, और ऐसा हो जाय तो जीवका भी प्रभाव हो जायगा । यह महादोष किसीको भी इष्ट नहीं है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० समयसार जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुरभिनिवेशे दोषश्चायं - जीवो चैव हि एदे सब्वे भावाति मरणा से जदि हि । जीवाजीवरस य गत्थि विसेसो दु दे कोई || ६२॥ यदि ऐसा मानोगे, ये सब वर्णादि जीव होते हैं । तो फिर अन्तर न रहा, जीव अरु अजीव द्रव्योंमें ॥६२॥ जीवश्चैव ते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि । जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित् ॥ ६२ ॥ यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भाव तिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभि: पुगलद्रव्यमनुगच्छंतः मुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयति । तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भावि ताविर्भाव तिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छंतो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयंतीति नामसंश- जीव, च, एव, हि. एत, सव्व, भाव, इति, जदि, हि, जीव अजीव, य, ण, विसेस, टु, इति, कोई । धातुसंज्ञ - मन्न अवगमने, अस सत्तायां । प्रातिपदिक जीव, च, एव, हि, एतत् सर्व, भाव, यदि, हि, जीव, अजीब, च, न, विशेष, तु, तत्, कश्चित् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, मन ज्ञाने, शिष सर्वोपयोगे । पददिवरण- जीवः प्रथमा एक० च - अव्यय एव अध्यय । हि-अव्यय । एते - प्रथमा बहु० । सर्वे - प्रथमा बहु० । भावाः प्रथमा बहु० । इति-अव्यय । मन्यसे - वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० १ प्रसंग विवरण — श्रनन्तरपूर्व गाथा में बताया था कि जीवका वर्णादिकके साथ तादारम्य संबंध किस कारण से नहीं है, उस कारणके सुननेके बाद भी यदि कोई जीवका वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्धका ही दुराग्रह करे तो क्या दोष होता है उस दोष, प्रापत्ति, विडम्बनाका इस गाथामें कथन किया है । तथ्य प्रकाश - - ( १ ) वर्णादिक भाव निरन्तर नवीन नवीन पर्यायोंसे जिस द्रव्य में श्रन्वय रूप से संतानरूपसे होते ही रहे उसके साथ वर्णादिकका तादात्म्य है वह है पुद्गलद्रव्य । (२) यदि वर्णादिक भावोंको उक्त प्रकारसे जीवमें अन्वित मान लिये जावें तो वह जीव नहीं रहा पुद्गल ही रहा, क्योंकि वर्णादिकसे व्याप्त पुद्गल ही होता । (३) जीव तो विशुद्ध चैतन्यचमत्कारमान है उसका प्रतिषेध किया ही नहीं जा सकता, इस कारण जीवको वर्णादिव्याप्त माननेका दुराग्रह करनेमें विडम्बना व दोष होता है । सिद्धान्त --- ( १ ) जो भाव अपनी निरन्तर व्यक्तियोंसे (पर्यायोंसे) सदा जिसमें अन्वित रहता है उस भावकी उस द्रव्यमें तन्मयता है । (२) एक द्रव्यके लक्षणको अन्य द्रव्य में स्वीकार करनेपर दोनों ही द्रव्योंका प्रभाव हो जाता है, किन्तु संयोग सम्बन्ध दिखानेको उपचारसे कह दिया जाता है । दृष्टि - १ - परमशुद्ध निश्चयनय (४४-४५) । २- एकजातिद्रव्ये अन्यजातिगुणोपचारक व्यवहार (१११) । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १३१ यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गल लक्षणस्य जीवेन स्वीकरणाजीवपुद्गलयोर विशेष प्रसक्तो सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः ।।६२।। यदि - अव्यय | हि-अव्यय । जीवस्य षष्ठी एक । अजीवस्य षष्ठी एक० । च-अव्यय । न-अव्यय । अस्ति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । विशेषः - प्रथमा एक० तु अव्यय । ते षष्ठी एकवचन । कश्चित् अव्यय अन्तः प्रथमा एकवचन ।। ६२॥ प्रयोग - अपने श्रात्मा व वर्णादिक भावोंको बिल्कुल पृथक् निरखकर अपने चैतन्यचमत्कार मात्र स्वरूप में उपयोगको लीन करनेका भावपौरुष करना चाहिये ॥६२॥ संसार अवस्था में हो जीवका वर्णादिकसे तादात्म्य है, ऐसा अभिप्राय होनेपर भी यही दोष आता है, ऐसा कहते हैं - [ ] अब यदि [ तत्र ] तुम्हारे मतमें [ संसारस्थानां terri] संसार में स्थित जीवोंके ही [वर्णादयः ] बदिक तादात्म्यस्वरूपसे [ भवन्ति ] हैं [तस्मात् ] तो इसी कारण [ संसारस्थाः जीवाः ] संसार में स्थित जीव [ रूपित्वं प्रापन्नाः ] रूपीपनेको प्राप्त हो गए । [ एवं ] ऐसा होनेपर [ तथा लक्षगेन ] पुद्गलके लक्षण के समान atest लक्षण होनेसे [मूढमते ] हे मूढ़ बुद्धि [पुगलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्य ही [ जीवः ] जीव सिद्ध हुआ [च निर्धार ] और निर्वाणको [ उपगतोषि] प्राप्त हुआ भी [ पुद्गलः ] पुद्गल हो [जीवत्वं ] जीवपनेको [ प्राप्तः ] प्राप्त हुप्रा । तात्पर्य - संसारदशामें ही सही, जीवका लक्षण रूपी श्री निर्वाण होनेपर कहा जायगा कि पुद्गलका निर्माण हुथा, टीकार्थ- जिसके मत में संसार अवस्था में जोवका वर्णादि भावोंके साथ तादात्म्य माननेपर वह पुद्गल कहलाया पुद्गल ही जीव बन गया । सम्बंध है, ऐसा अभिप्राय है, उसके संसार अवस्थाके समय वह जीव रूपित्व दशाको प्रवश्य प्राप्त होता है । और रूपित्व किसी द्रव्यका श्रसाधारण (ग्रन्य द्रव्योंसे पृथक् कराने वाला) लक्षण है । इस कारण रूपित्व लक्षण मात्र से जो कुछ लक्ष्यमाण है वही जीव है और रूपित्व से लक्ष्यमारण पुद्गलद्रव्य ही है । इस प्रकार पुद्गलद्रव्य ही स्वयं जीव सिद्ध होता है अन्य कोई नहीं । ऐसा होनेपर मोक्ष श्रवस्था में भी पुद्गलद्रव्य हो भाप जोव होता है । क्योंकि जो द्रव्य है, वह नित्य अपने लक्षणसे लक्षित है, यह सभी अवस्थाओं में अविनाशस्वभाव है इसलिये अनादिनिधन है, इस कारण पुद्गल ही जीव है, इससे भिन्न कोई जीव नहीं है । ऐसा होनेसे संसारदशा में ही जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य मानने वाले के मत में भी पुद्गलोंसे भिन्न जीव का अभाव होनेसे जीवका प्रभाव ही सिद्ध हुआ । इसलिये यह निश्चित हुआ. कि जो वर्णादिक भाव हैं, वे जीव नहीं हैं । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार संसारावस्थायामेव जीवस्य वर्णारितादात्म्यमित्यभिनिवेशेष्ययमेव बोषः श्रह संसारत्थाणं जीवाणं तुझ होति वण्णादी । तम्हा संसारत्था जीवा रूवित्तमावण्णा ॥६३॥ एवं पुग्गलदव्वं जीवो तहलक्खणेण मूढमदी । णिवाणमुवगदो वि य जीवत्तं पुग्गलो पत्तो ॥६४॥ (युगलं) यदि भवस्य जीवोंके, होते वर्णादि भाव मानोगे। तो भवस्थ जीवोंके, कपिपना प्राप्त हो जावेगा ॥३॥ ऐसे इस लक्षपसे, पुद्गलद्रव्य ही जीव हो जाता । मोक्ष पाफर मि पुद्गल-के जीवपना प्रसक्त हुमा ॥६४॥ अथ संसारस्थानां जीवानां तव भाति वर्णादयः । तस्मात्संसारस्था जीवा रूपित्वमापन्नाः ॥६॥ एवं पुद्गलद्रव्यं जीवस्तथालक्षणेन मूढमते । निर्वाणमुपगतोपि च जीवत्वं पुद्गलः प्राप्तः ॥६४॥ ___ यस्य तु संसारावस्याचा जीवस्य वादिरापात्म्यमस्तीत्यभिनिवेशस्तस्य तदानीं स जीवो रूपित्वमवश्यमवाप्नोति । रूपित्वं च शेषद्रव्यासाधारणं कस्यचिद् द्रव्यस्य लक्षणमस्ति । ततो रूपित्वेन लक्ष्यमारणं यत्किचिद्भवति स जीवो भवति । रूपित्वेन लक्ष्यमाणं पुद्गलद्रव्यमेष नामसंश- अह, संसारस्थ, जीव, तुम्ह, वण्णादि, त, संसारत्थ, जीव, रूवित्त, आवष्ण, एवं, पुगल. दव, जीव, तहलक्खण, मूढमदि, णिवाण, उपगद, वि, य, जीवत्त, पुग्गल, पत्त । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, जीव प्राणधारण । प्रातिपदिक- संसारस्थ, जीव, युष्मद, वर्णादि, तत्, संसारस्थ, जीव, रूपित्व, आपन्न, एवं, पुद्गलद्रव्य, जीव तिथक्षण, मूढमति, निर्वाण, उपगत, अपि, च, जीवत्व, पुद्गल, प्राप्त । मूलधातु-. ष्टा गतिनिवृत्ती, जीवाणधारणे, लक्ष दर्शनाङ्कनयोः, लक्ष आलोचने, प्र-आप्लु व्याप्ती । भावार्थ- जो कोई वीदि भावोंसे जीवकी संसार अवस्थामें भी तादात्म्य सम्बन्ध मानता है, उसके मतमें भी जीवका अभाव ही प्रसक्त होता है, क्योंकि वर्णादिक तो मूर्तिमान द्रव्यके लक्षण हैं, ऐसा मूर्तिमान तो पुद्गलद्रव्य ही है, यदि वर्णादिक रूप जीव माना जाय, तब जीव भी पुद्गल ही ठहरेगा और जब जीव मुक्त होगा, तब वहाँ भी पुद्गल हो ठहरेगा, तब पुद्गलसे भिन्न तो जीव सिद्ध नहीं होगा। इस प्रकार जीवका प्रभाव बन बैठेगा । इसलिये वर्णादिक जीवके नहीं हैं, ऐसा ही निश्चय करना। प्रसंगविवरणअनन्तरपूर्व गाथामें कहा था कि जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य माननेका दुराग्रह करनेपर जीव व पुद्गल दोनों द्रव्योंका प्रभाव हो जाएगा | इस पर्चापर यदि कोई यह माने कि जीवका संसार-प्रवस्थामें ही वर्णादिके साथ तादात्म्य है तो ऐसा माननेपर क्या दोष आता है उस दोषका इन दो गाथानों में वर्णन किया गया है । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार १३३ भवति । एवं पुद्गलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति न पुनरितरः कतरोपि । तथा च सति मोक्षावस्थायामपि नित्यस्वलक्षणलक्षितस्य द्रव्यस्य सर्वास्वप्यवस्थास्वनपायित्वादनादिनिधनत्वेन पुगलद्रव्यमेव स्वयं जीवो भवति न पुनरितरः कतरोधि । तथा च सति तस्यापि पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावात् भवत्येव जीवाभावः । एवमेतत् स्थितं यद्वदियो भावा न जीव इति ।। ६३-६४।। पदविवरण अथ - अव्यय । संसारस्थानां षष्ठी एक० । जीवानां पष्टी बहु० । तव षष्ठी एक० । भवंति - वर्तमान अन्य पुरुष बहु० । वर्णादयः - प्रथमा बहु० । तस्मात् पंचमी एक० । संसारस्था:- प्रथमा बहु० । जीवाः - प्रथमा बहु० । रूपित्वं द्वितीया एक० । आपन्ना: प्रथमा बहु० । एवं अव्यय । पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक० । जीवः - प्रथमा एक. । तथालक्षणेन-तृतीया एक० मूढमते संबोधने एक० । निर्वाणं द्वि० ए० । उपगतः श्रथमा एक अपव्यय च-अध्यय । जोवत्वं द्वि० ए० । पुद्गलः प्रथमा एक० । प्राप्तःप्रथमा एकवचन ।। ६३-६४ ।। तथ्यप्रकाश - ( १ ) जीवका संसारावस्था में ही वर्णादिका तादात्म्य कोई माने तो . संसार अवस्था में तो जीवको रूपी मानना ही पड़ेगा । ( २ ) जिसे रूपो माना हो वह पुद्गल ही कहा जायगा यो संसारदशा में दुराग्रहीके मतमें जीव पुद्गल हो रहा। ( ३ ) संसारदशामें . जिसे (जीवको) पुद्गल माना तो अब यदि उसका निर्वाण माना जायगा तो श्ररूपी होने से यही कहना पड़ेगा कि पुद्गल ही जीव बन गया । ( ४ ) अथवा जो पुद्गल था वह शुद्ध हो गया तो यही कहना होगा कि पुद्गल शुद्ध हो गया, फिर तो कोष में से जीवका नाम ही निकल जाना चाहिये । (५) जीवका वर्णादिके साथ किसी भी अवस्थामें तादात्म्य माना ही नहीं जा सकता । सिद्धान्त - - ( १ ) मात्र संयुक्तसमवेत सम्बन्धसे वर्णादिकको जीवके बतानेकी रूढ़ि है । (२) श्रात्माका चैतन्यस्वभावके ही साथ शाश्वत तादात्म्य है । दृष्टि - १ - एकजातिद्रव्ये अन्यजातिगुणोपचारक असद्भूत व्यवहार ( ११२ ) । २ - परमशुद्ध निश्चयन (४४, ४५ ) । प्रयोग — अपने आपको इस समय भी अविकार चैतन्यमात्र स्वरूपमें निरखकर चैतव्यमात्र अनुभवना जिसकी दृढ़ता के प्रतापसे अविकार पर्यायमय हो जाय ।।६३-६४॥ आगे इसी अर्थको विशेष रूपसे करते हैं-- [ एकं च] एकेन्द्रिय [1] द्वीन्द्रिय [रिण च] श्रीन्द्रिय [ चत्वारि ] चतुरिन्द्रिय [च पञ्चेन्द्रियाणि] और पंचेन्द्रिय [ जीवाः ] जीव तथा [वादरपर्याप्ततराः] वादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त ये सब जो जीव हैं वे [नामकर्मणः ] सब ऐसी ही तामकमंकी [ प्रकृतयः ] प्रकृतियां हैं [ एताभिः च ] इन प्रकृतियोंसे हो [करणभूताभिः ] Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार SHES एक्कं च दोण्णि तिण्णि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा। वादरपज्जत्तिदरा पयडीयो मामकम्मरमा । एदाहि य. णिवत्ता जीवहाणाउ करणभूदाहिं । पयडीहिं पुग्गलमईहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ॥६६ ॥ (युग्मम) • एक दो तीन चौ पं.चेन्द्रिय वादर व सूक्ष्म पर्याप्ती । अन्य अपर्याप्तादिक, हैं ये नामकर्मको प्रकृति ॥६॥ पौद्गल कर्मप्रकृतिसे, जोवस्थानादि ये रचित होते । फिर इन पौद्गलमावों-को कैसे जीव कह सकते ॥६६॥ एकच द्वे त्रीणि च चत्वारि च पंचेन्द्रियाणि जीवा: । वादरपर्याप्ततराः प्रकृतयो नामकर्मण: ।।६५।। एताभिश्च निर्वृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः । प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भव्यते जीवः । निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव न त्वन्यत् । तथा जीवस्थानानि वादर सूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतु:पंचेन्द्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुद्गल एव न तु जीवः । नामकर्मप्रकृतीनां पुद्गलमयत्वं चागमप्रसिद्ध दृश्यमानशरीराकारादिमूर्त्तकार्यानुमेयं च ।। नामसंज-एक्क, च, दु, ति, य, चउ, पंच, इंदिय, जीव, वादरपज्जत्तिदर, पडि, णामकम्म, एत, य, णिवत्त, जीवट्ठाण, करणभूदा, पडि, पुग्गलमई, ता, कथं, जीव । धातुसंज्ञ---पूर पालनपूरमयोः, गल स्रवणे, भण कथने । प्रातिपदिक-एक, च, द्वि, त्रि, च, चतुर् च, पंचन, इन्द्रिय, जीव, वादरपर्याप्तेतर, प्रकृति, नामकर्मन्, एतत्, निवृत्त जीवस्थान, करणभूत, प्रकृति, पुद्गलमयी, तत्, कथं, जीव। करणस्वरूप होकर [जीवस्थानानि] जीवसमास [निर्वृतानि] रचे गये हैं [ताभिः] उन [पुद्गलमयीभिः] पुद्गलमय [प्रकृतिभिः] प्रकृतियोंसे रचे हुएको [जीवः] जीव [कथं] कैसे मिन्यते] कहा जा सकता है। तात्पर्य-एकेन्द्रियादिक वादरादिक प्रकृतियोंसे रचे हुए जीवस्थानोंको निश्चयत: जीव कहा नहीं जा सकता । टीकार्थ-निश्चयनयसे कर्म और करणमें अभेदभाव होनेसे जो जिससे किया जाय वह वही है, ऐसा होनेपर जैसे सुवर्णका पत्र सुवर्णसे किया हुआ सुवर्ण हो है, अन्य कुछ नहीं उसी प्रकार जीवस्थान वादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिया, पर्याप्त, अपर्याप्त नामको पुद्गलमयी नामकमकी प्रकृतियोंसे किये गये होनेसे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं तथा नामकर्मको प्रकृतियोंकी पुद्गलमयता मागममें प्रसिद्ध है और जो प्रत्यक्ष देखनेमें Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार एवं गंधरसस्पर्शरूपशरीरसंस्थानसंहननान्यपि पुद्गलमयनामकर्मप्रकृतिनिवृत्तल्वे सति तदव्यति. रेकाज्जीवस्थानरेवोक्तानि । ततो न वदियो जोव इति निश्चयसिद्धान्तः । . निर्वत्यते येन यदा किंचित्तदेव तत्स्यान्न कथंचनान्यत् । रुक्मेण निर्वृत्तमिहासिकोशं पश्यति रुक्मं न कथंचनासि ॥३८॥ मूलधातु-निस्-वृतु वर्तने, परि-आप्ल व्याप्ती, इदि परमैश्वर्य, भण शब्दार्थः । पदविवरण एक-प्रथमा एक० । द्वे-प्रथमा द्वि० । त्रीणि-प्रथमा बहुः । चत्वारि-प्रथमा बहु० । पंच-प्रथमा बहु० । इन्द्रियाणि-- प्रथमा बहु० । जीवा:-प्रथमा बहु० । बादरपर्याप्तेतरा:-प्रथमा बहु । प्रकृतयः-प्रथमा ब० । नामकर्मण:षष्ठी एक० । एताभिः-सृतीया बहु० स्त्रीलिंग । निर्वृत्तानि-प्रथमा बहु० । जीवस्थानानि-प्रथमा बहु । भाने वाले शरीर प्रादि मूर्तिकभाव हैं वे पुद्गल कर्मप्रकृतियों के कार्य होनेके कारण अनुमान प्रमाणसे भी सिद्ध हैं । इसी प्रकार गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन-ये भी नामकमकी प्रकृतियों द्वारा किए गये होने पर उस पुद्गलसे अभेदरूप हैं इसी कारण जीवस्थानों की तरह इन्हें भी पुगलमय ही कहने चाहिए । इस कारण ये वर्णादिक जोय नहीं हैं, ऐसा निश्चयनयका सिद्धान्त है। यहाँ इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं—निर्वयते इत्यादि । अर्थ-जिस वस्तुसे जो पर्याय निष्पन्न होती है वह पर्याय उस वस्तुरूप ही है कुछ अन्य वस्तु नहीं है । जैसे यहाँ सोनेसे रचे गये खड़ाके (तलवारके) म्यानको लोग सोना ही देखते हैं, खड्गको तो सोनारूप किसी तरह भी नहीं देखते । भावार्थ--पुद्गलप्रकृतियोंसे रचे गये वर्णादिक भाष पुद्गल ही हैं जोव नहीं हैं। प्रब दूसरा काव्य कहते हैं--वर्णादि इत्यादि । अर्थ--वर्णादिक गुणस्थानपर्यन्त सभी भावोंको एक पुद्गलका ही निर्माए जानो जानो, इसलिये ये भाव पुद्गल ही होवो आत्मा नहीं, क्योंकि प्रात्मा तो विज्ञानधन है, ज्ञानका पिण्ड है, इस कारण पुद्गलसे अन्य है। प्रसंगविवरण- अनंतरपूर्व प्रकरणमें यह बताया गया था कि वर्णादिक भाव पुद्गलभय हैं जीवके स्वरूप नहीं, जीवके नहीं । अब इसी तथ्यकी युक्तिपूर्वक सिद्धिका इनदो गाथावों कपन है। तथ्यप्रकाश-(१) निश्चयसे कर्तादिको भांति कर्म व करण भी अभिन्न होते हैं । (२) जो जिसके द्वारा किया जाय वह वही निश्चयसे है । (३) सुवर्णके द्वारा सुवर्णाभूषण जो भी बना वह सुवर्ण ही है, इसी भांति सर्व पदार्थोसे यही तथ्य है । (४) वादर, सूक्ष्म, एके. न्द्रिय, प्रादि, पर्याप्त, अपर्याप्त इत्यादि नामकी नामकर्मप्रकृतियां पुद्गलमयी ही हैं उनके द्वारा दादर सूक्ष्म प्रादि भव बनते हैं सो ये वादर प्रादि भी पुद्गल ही हैं । (५) नामकर्म Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार वर्णादिसामग्र्यमिदं विदंतु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य । ततोस्त्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानधनस्ततोन्यः ॥३६॥ ॥६५-६६॥ करणभूताभिः-तृतीया बहु० । प्रकृतिभिः-तृतीया बहु० । पुद्गलमयीभिः-तृतीया बहु । ताभि:-प्रथमा : बहु । कथं-अव्यय । भण्यते-भावकर्मप्रक्रिया कर्मवाच्य वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवः-प्रथमा । एकवचन ।। ६५-६६॥ प्रकृतियोंका कार्य शरीराकार आदि मूर्त हैं इससे जान जाता है कि नामकर्मप्रकृतियां भी मूर्त हैं, प्रचेतन हैं । (६) चैतन्यस्वभावके अतिरिक्त अन्य जितने भी भाव हैं, विभाव हैं वे सब भोपाधिक हैं, पोद्गलिक हैं । (७) वस्तुतः वर्णादिक भाव जीव नहीं हैं। सिद्धान्त-(१) निश्चयसे कर्ता कर्म करण आदि कारक एक ही द्रव्यके होते हैं उन्हें भेद करके समझाया जाता है । (२) पुद्गलकार्यकर कार्य का पीलया है। दृष्टि--- १-- कारकारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २-- अशुद्ध निश्चयनय (४५-४७म)। प्रयोग-प्रपनेको पञ्चेन्द्रियादि किसी भी पर्यायमात्र अनुभव नहीं करके इन समस्त द्रव्यभावपर्यायोंसे पृथक् चैतन्यमान अनुभव करनेका भावपौरुष करना ॥६५-६६॥ .. अब कहते हैं कि इस ज्ञानधन प्रात्माके अतिरिक्त अन्य भावोंको जीव कहना सो सब ही व्यवहारमात्र है--[2] जो [पर्याप्तापर्याप्ताः] पर्याप्त, अपर्याप्त सूक्ष्माः च वावरा] सूक्ष्म, वादर [ये च एव आदि जो [देहस्य] देहको [जीवसंज्ञाः] जीवसंज्ञाएँ कहीं हैं वे सभी [सूत्रे] सूत्रमें [व्यवहारतः] व्यवहारनयसे [उक्ताः] कही गई हैं। तात्पर्य-पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर, सूक्ष्म प्रादि देहकी जोवसंज्ञायें व्यवहारनयसे कही गई हैं। टीकार्थ--वादर, सूक्ष्म, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, पर्याप्त, अपर्याप्त ऐसे शरीरको संज्ञावोंको सूत्रमें जीवसंज्ञा द्वारा जो कहा है वह परको प्रसिद्धिसे घृत के घड़ेकी तरह व्यवहार है । यह व्यवहार ईषत् प्रयोजनके लिये ही है । उसको दृष्टान्त द्वार स्पष्ट कहते हैं--जैसे कोई पुरुष ऐसा था कि जिसने जन्मसे लेकर घीका ही घड़ा देखा. या, धृतसे खाली भिन्न घट नहीं देखा, उसको समझानेके लिए ऐसा कहते हैं कि यह जो धृतका घट है, वह मिट्टीमय है, धृतमय नहीं है, ऐसे उस पुरुषके घटकी प्रसिद्धिसे समझाने वाला भी घृतका घट कहता है, ऐसा व्यवहार है । उसी प्रकार इस अज्ञानी प्राणीके प्रनादि संसारखे लेकर अशुद्ध जीव ही प्रसिद्ध है, शुट जीवको नहीं जानता, उसको शुद्ध जीवका सान करानेके लिए ऐसा सूत्र में कहा है कि जो यह वर्णादिमान जीव कहा जाता है, वह ज्ञानमय है, वर्णादि Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेषमन्यद्व्यवहारमार्श - जीवाजीवाधिकार १३७ पज्जत्तापज्जर जे सुहुमा वादराय जे चेव । देहस्स जीवसण्णा सुत्ते वबहारदो उत्ता ॥६७॥ पर्याप्त प्रपर्याप्तक, सूक्ष्म तथा वादरादि जो भि कही । देहकी जीवसंज्ञा, यह सब व्यवहारसे जानो ॥६७॥ पर्याप्ता पर्याप्ता ये सूक्ष्मा वादराश्च ये चैव । देहस्य जीवसंज्ञाः सूत्रे व्यवहारतः उक्ताः ॥ ६७ ॥ यत्किल वादरसूक्ष्मैकेन्द्रियद्वित्रिचतुः पंचेन्द्रियपर्याप्त पर्याप्ता इति शरीरस्य संज्ञाः सूत्रे जीवसंज्ञात्वेनोक्ताः प्रयोजनार्थः परप्रसिद्ध्या घृतघटवव्यवहारः । यथा हि कस्यचिदाजून्मप्रसिद्ध केघृतकुम्भस्य तदितरकुंभानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं घृतकुंभः स मृण्मयो न घृतमय इति ...नामसंज्ञ-पज्जतापज्जत, ज, सुहुम, वादर, य, ज, च, एव, देह, जीवसण्णा, सुत्त, वबहारदो उत्त । धातुसंज्ञ - दिह वृद्धी, वच्च व्यक्तायां वाचि । प्रातिपदिक-पर्याप्तापर्याप्त यत्, सूक्ष्म, बादर, च, I भय नहीं है । इस प्रकार उम्र अज्ञानी प्राणीके वर्णादिमान प्रसिद्ध है सो उस प्रसिद्धिसे जीव में वर्गादिमान् होनेका व्यवहार सूत्रमें किया है । अब इसी का कलशरूप काव्य कहते हैं--घृतकुम्भा इत्यादि । अर्थ - यह घृतका कुम्भ है, ऐसा कहनेपर भी जीव वर्णादिमान नहीं है, ज्ञानघन ही है । भावार्थ -- जिसने पहले घटको मृत्तिकाका नहीं जाना और घृतके भरे घटको लोक घृतका घट कहते हैं ऐसा सुना वहाँ उसने यही जाना कि घट घृतका ही कहा जाता है। उसको समझाने के लिए मृत्तिकाका घट जानने वाला मृत्तिकाका घट कहकर समझाता है। । उसी प्रकार ज्ञानस्वरूप आत्माको तो जिसने जाना नहीं और वर्णादिकके सम्बन्धरूप हो जीव जाना, उसको समझानेके लिये कहा जाता है कि यह जो वर्णादिमान् जीव है । सो वह ज्ञानघन है, वर्णादिमय नहीं है । प्रसंगविवरण -- धनन्तरपूर्वं गाथा में बताया गया था कि वादर, गुक्ष्म, पर्यात, र्याप्त प्रादि सब पुद्गलमयी नामक प्रकृतियों द्वारा रची गई हैं, इस कारण वे सब पौगलिक हैं । इस चर्चा पर एक प्रश्न होना प्राकृतिक है कि फिर आगम में पर्याप्त, अपर्याप्त, वादर, सूक्ष्म आदि देहोंमें जीवका व्यपदेश क्यों किया गया है। इसी प्रश्नका उत्तर इस गाथा में दिया गया है । - तथ्यप्रकाश - (१) वादर, सूक्ष्म श्रादि शरीरकी संज्ञावोंको जीवसंज्ञारूपसे आगममें कहने का प्रथमं प्रयोजन यह है कि साधारण लोग जीवको समझ जायें और उनकी हिंसा से も Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ समयसार तत्प्रसिद्ध्या कुम्भे घृतकुम्भव्यवहारः तथास्याजानिनो लोकस्यासंसारप्रसिद्धाशुद्धजीवस्य शूद्धजीवानभिज्ञस्य प्रबोधनाय योऽयं वर्णादिमान जीवः स ज्ञानमयो न वर्णादिमयः इति तत्प्रसि ध्या जीवे वर्णादिमद्व्यवहारः ॥६७।। यत्, च, एव, देह, जीवसंज्ञा, सूत्र, व्यवहारतः, उक्त । मूलधातु परि-आप्ल व्याप्ती, दिह उपचये, सूत्र वेष्टने, वि-अव हुत्र हरणे, वच परिभाषणे । पदविवरण • पर्याप्तापर्याप्ता:--प्रथमा बहु०। ये-प्रथमा बहु० । सूक्ष्मा:-प्रथमा बहु० । च–अव्यय । ये-प्रथमा बहु० । न अव्यय । एव-अव्यय । देहस्य-षष्ठी एक० । जीवसंज्ञा:-प्रथमा बहु० । सूत्र-सप्तमी एक० । उक्ताः-प्रथमा बहुवचन कृदन्त ।।६७।। बच जावें (२) वादर प्रादिको जीव कहनेका द्वितीय प्रयोजन यह है कि साधारण जनोंको यथार्थ जीव समझाते समय पहिले तो इन्हें जीव कहकर बताना ही पड़ेगा कि ये वस्तुतः जीव महीं हैं । (३) वर्णादिक भाव पुद्गलाश्रित होनेसे ये कोइ भी भाव जीव नहीं हैं। ___ सिद्धान्त--(१) देहोंकी जीवसंज्ञा उपचारसे है । (२) जीव तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है उसके वर्णादिक नहीं होते, वर्णादिक पौद्गलिक है। दृष्टि-- १- संश्लिष्टविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२५)। २- विवक्षितैकदेषाशुढनिश्चयनय (४८)। प्रयोग-वस्तुतः प्रात्माको देहसे मरयन्त पृथक् जानकर चैतन्यस्वभावमात्र अन्तस्तरव में ज्ञातृत्वमय परमविश्राम करनेका पौरुष करना ॥६७॥ अब कहते हैं कि जैसे वर्णादिकभाव जीव नहीं हैं, उसा प्रकार यह भी सिद्ध हुमा कि रागादिक भाव भी जीव नहीं हैं--यानि इमानि] जो ये [गुणस्थानानि] गुणस्थान हैं वे [मोहनकर्मणः उदयात् तु] मोहकर्मके उदयसे होते हैं ऐसे [बरिणतानि] सर्वशके आगममें वर्णन किये गये हैं [तानि] वे [जीवाः] जीव [क] कैसे [भवन्ति] हो सकते हैं [यानि] जो कि [नित्यं] हमेशा [अचेतनानि] अनेतन [उक्तानि] कहे गये हैं। तात्पर्य--उपयोगमें प्रतिफलित ये विकार मोहकर्मके विपाक हैं, अचेतन हैं वे जीव कैसे हो सकते हैं। ___टोकार्थ--मिथ्यादृष्टि प्रादि गुणस्थान पुद्गलरूप मोहकर्मकी प्रकृतिके उदयपूर्वक होने से नित्य ही प्रचेतन हैं, क्योंकि जैसा कारण होता है, उसीके अनुसार कार्य होता है। जैसे को से जो होते हैं, ये जो ही हैं, इस न्यायसे वे पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं । यहाँ गुणस्थानों की नित्य प्रचेतनता प्रागमसे सिद्ध है और चैतन्यस्वभावसे व्याप्त प्रात्मासे भिन्नपनेसे वे गुणस्थानादि भेदज्ञानी पुरुषोंके द्वारा स्वयं उपलभ्यमान हैं, इस हेतुसे सिद्ध करना । अर्थात् चैत. न्यमात्र प्रात्माके अनुभवसे ये बाह्य हैं, इसलिये अचेतन ही हैं । इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह, ANSAR Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार एसपि स्थितमेव यत्रागादयो भावा न जीवा इति मोहम्मदा दुवfष्णया जे इमे गुणट्ठाणा । ते कह हवंति जीवा जे णिच्चमचेदणा उत्ता ॥ ६८ ॥ १३६ जो भि गुणस्थान कहे, होते सब मोहकर्मके कारण । उन सब अचेतनोंको, फिर कैसे जीव कह सकते ॥ ६८ ॥ मोहनकर्मण उदयास्तु वर्णितानि यानीमानि गुणस्थानानि तानि कथं भवति जीवा यानि नित्यमचेतनान्युक्तानि । मिथ्यादृष्ट्यादीनि गुणस्थानानि हि पोद्गलिकमोहकर्म प्रकृतिविपाकपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात् कारणानुविधायीनि कार्याणीति कृत्वा यवपूर्वका यवा यवा एवेति न्यायेन पुद्· गल एव न तु जीवः । गुणस्थानानां नित्यमचेतनत्वं चागमाच्चैतन्यस्वभावव्याप्तस्यात्मनोतिरि कत्वेन विवेचकः स्वयमुपलभ्यमानत्वाच्च प्रसाध्यं । एवं रागद्वेषमोहप्रत्यय कर्मनो कर्मव व गंणास्पर्द्धकाध्यात्म स्थानानुभागस्यानयोगस्थान बंधस्थानोदयस्थानमार्गेरणास्थान स्थितिबंध स्थान संक्लेश नामसंज्ञ - मोहणकम्म, उदय, दु, वण्णिय, ज, इम, गुणट्ठाण, त, कह, जीव, ज, णिच्चं, अचेदण, उत्त । धातुसंज्ञ - उद्-अय गती, वण्ण वर्णने, हव सत्तायां । प्रातिपदिक - मोहनकर्मन्, उदय, तु, वर्णित, प्रत्यय, कर्म, नौकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान संयमलब्धिस्थान --ये सभी पुद्गलकर्मपूर्वक होनेसे नित्य प्रचेतन होने के कारण पुद्गल ही हैं, जीव नहीं हैं, ऐसा स्वयं (अपने श्राप ) सिद्ध हुआ, इसलिये रागादिक भाव जीव नहीं हैं, ऐसा सिद्ध हुआ । मावार्थ- पुद्गल कर्मके उदयका निमित्त पाकर हुए चैतन्यके विकार भी पुगल हो हैं, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनयको दृष्टिमें चैतन्य प्रभेदरूप है और इसके परिणाम भी स्वाभा विक शुद्ध ज्ञान दर्शन हैं । इस कारण परनिमित्तसे होने वाले विकार चैतन्यसरीखे दोखते हैं, तो भी चैतन्यकी सर्व अवस्थाओं में व्यापक नहीं हैं । इसलिये वे स्वभाव चैतन्यशून्य (जड़) हैं इस तरह जो जड़ है वह पुद्गल है, ऐसा निश्चय हुभा । यहाँ पूछते हैं कि यदि वर्णादिक और रागादिक जीव नहीं हैं तो जीव नया है ? उसका उत्तररूप श्लोक कहते हैं-- अनाद्यनंत इत्यादि । अर्थ- श्रनादि अनन्त, अचल, स्पष्ट स्वसंवेद्य चैतन्य जो अत्यन्त प्रकाशमान हो रहा है, वह स्वयं ही जीव है । अब चेतनत्व ही जीवका लक्षण है ऐसा काव्य द्वारा कहते हैं-- वर्णाद्यः इत्यादि । - चूंकि वर्णादिसे सहित तथा वर्णादिसे रहित यों अजीव पदार्थ दो प्रकारके हैं याने धर्म, धर्म, आकाश और काल — ये चार प्रजीव तो वर्णादि भावसे रहित हैं और पुद्गल वर्णादि Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० समयसार स्थान विशुद्धिस्थान संयम लब्धिस्थानान्यपि पुद्गलकर्मपूर्वकत्वे सति नित्यमचेतनत्वात्पुद्गल एव न तु जीव इति स्वयमायातं । ततो रागादयो भावा न जीव इति सिद्धं । तहि को जीव इति वेत् । श्रनाद्यनंतमचलं स्वसंवेद्यमिदं स्फुटं । जीवः स्वयं तु चैतन्यमुच्चैश्चकच कायते ॥४१॥ वर्णाः सहितस्तथा विरहितो द्वेधास्त्यजीवो यतो नामूर्त्तत्वमुपास्य पश्यति जगज्जीवस्य तत्त्वं ततः । इत्यालोच्य विवेचकः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा । व्यक्तं व्यंजित जीवतत्त्वमवलं यत् इदम्, गुणस्थान, तत्, कथं, जीव, यत्, नित्यं, अचेतन, उक्त मूलधातु-मुह वैचित्ये, वर्ण वर्णने, सत्तायां, अचिती संज्ञाने । पदविधरण षष्ठी एकवचन । उदयात्-पंचमी एक० | तु अव्यय । वणितानि - सहिल है, इसलिये मूर्तिकपनेको ग्रहण करके लोक जीवके यथार्थस्वरूपको नहीं देख सकतें, क्योंकि इसमें प्रतिव्याप्ति दोष आता है । वर्णादिकसे रागादिका भी ग्रहण होता, सो यदि रागादिको जीवका लक्षण कहा जाय तो उनकी व्याप्ति पुद्गलसे ही है, जीबको सब प्रव स्थाश्रमें रागादिककी व्याप्ति नहीं, इसलिये श्रव्याप्ति दोष आता है । इस प्रकार भेदज्ञानी पुरुषोंने परीक्षा कर प्रतिमाप्ति, प्रयादिदोषरहित वेतन ही जोवका लक्षण कहा है। वही ठीक है । उसीने जीवका यथार्थस्वरूप प्रकट किया है । और वह जीब कभी चलाचल नहीं है, सदा मौजूद है । इसलिये जगत् इसी लक्षणको अवलम्बन करे, इससे यथार्थ जीवका ग्रहण होता है । I ऐसे लक्षण से जीव तो प्रकट है तो भी अज्ञानी लोकोंको इसका अज्ञान किस तरह रहता है ? उसको प्राचार्य प्राश्चर्य तथा खेदसहित कहते हैं--जीवाद इत्यादि । श्रर्थ - इस प्रकार पूर्वकथित लक्षण के कारण जीवसे अजीव भिन्न हैं । ज्ञानी जन उसे अपने आप प्रकट उदय हुआ अनुभव करते हैं तो भी अज्ञानी जनोंके यह अमर्यादित मोह (अज्ञान) प्रकट फैलता हुआ कैसे प्रत्यन्त नृत्य करता है ? इसका हमको बड़ा अचम्भा है तथा खेद है । अब काव्य द्वारा कहते हैं कि मोह नृत्य करता है तो करे तो भी यह जीव एसा हैअस्मिन् इत्यादि । श्रथं -- इस अनादिकालीन बड़े प्रविवेकरूप नृत्य में वर्णादिमान पुद्गल ही नृत्य करता है. धन्य कोई नहीं है (प्रविवेकनाट्यमें पुद्गल हो अनेक प्रकार दीखता है, जीव तो अनेक प्रकार नहीं है) और यह जीव, रामादिक पुद्गल विकारोंसे विलक्षण शुद्ध चैतन्यस्थायुमय मूर्ति है । भावार्थ-- रागादि चैतन्यविकारको देखकर ऐसा भ्रम नहीं करना कि ये भी चैतन्य ही हैं, क्योंकि यदि ये चैतन्यक) सब अवस्थाश्रोंमें व्याप्त होकर रहें, तब तो ये चैतन्यके कहे जायेंगे, सो ऐसा नहीं है, मोक्षअवस्था में इनका प्रभाव है। तथा इनका अनुभव भी श्राकुलतामय दुःखरूप है । चैतन्यका अनुभव निराकुल है, सो चैतन्य हो जीवका स्वभाव जानना | Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार चैतन्यमालंब्यतां ॥४२॥ जीवादजीवमिति लक्षणतो विभिन्न ज्ञानी जनोनुभवति स्वयमुल्लसंत । मशानिनो निरवधिप्रविजंभितोयं मोहस्तु तत्कथमहो बत नानटोति ॥४३॥ नानट्यतां तथापिअस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाट्ये वर्णादिमानटति पुद्गल एव नान्यः । रागादिपुद्गल विकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ॥४४॥ इत्थं जानककपकलनापाटनं नायित्वा जीवाप्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया । ये-प्रथमा बह० । इमानि-प्रथमा बहु० । गुणस्थानानि-प्रथमा बहू । तानिप्रथमा बहुः । कथं-अव्यय । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । जीवा:-प्रथमा बहु । यानि-प्रथमा प्रब ज्ञाता द्रव्यकी महिमा बताकर प्रथम अधिकारको पूर्ण करते हैं । उसका कलश रूप काव्य कहते हैं-इत्यं इत्यादि । अर्थ—इस प्रकार ज्ञानरूप पारेको चलानेके बारम्बार प्रभ्यासको नचाकर जीव और मजीव दोनों स्पष्ट रूपसे जब तक पृथक् न हुए तब तक यह ज्ञाता द्रव्य प्रात्मा, प्रकट विकास रूप हुई प्रकट चैतन्यमात्र शक्तिसे विश्वको व्यास करके अपने आप वेगके अतिशयसे प्रकाशमान हो गया। इस प्रकार जीव और अजीव दोनों पृथक होकर निकल गये अर्थात् रंगभूमिसे बाहर हो गये। भावार्थ-जीब अजीब दोनोंका अनादिकालीन संयोग है सो प्रशानसे दोनों एक दीखते हैं। जब साधकको लक्षणभेद ज्ञात होता है तब भेदज्ञानके अभ्याससे सम्यग्दृष्टि होने के बाद जब तक केवलज्ञान उत्पत्र नहीं होता, तब तक तो सर्वज्ञके भागमसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान से समस्त वस्तुप्रोंका संक्षेप तथा विस्तारसे परोक्ष ज्ञान होता है, उस ज्ञानस्वरूप मात्माका जो भानुभव होता है, वही इसका प्रकट होता है । और जब घातिया कोंक नाशसे केवलज्ञान प्रकट हो जाता है, तब सब वस्तुओंको साक्षात् प्रत्यक्ष जानता है । ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रात्माका साक्षात अनुभव करता है । वही इसका सर्वतः प्रकट होना है । यही तो जीव अजीवके पृथक होनेकी रीति है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि वादर, पर्याप्त प्रादि देहको संज्ञावोंको जीवकी संज्ञायें आगममें व्यवहारसे बताई गई । निश्चयसे ये सब कुछ भी जीवके नहीं हैं। इस विषयमें यह तो जल्दी समझमें भा जाता है कि वर्ण, रस, गंध मादिक पुद्गल के ही हैं जीवके नहीं, किन्तु यह समझ सुगम नहीं हो पाती कि जीवके विभावपरिणमन रागादिक भाव व संयमस्थान गुणस्थान प्रादिक भाव भी पोद्गलिक हैं । सो यहां इसी विषयको स्पष्ट किया गया है। तथ्यप्रकाश--(१) प्रत्येक गुणस्पान कर्मप्रकृतिविपाकका निमित्त पाकर होते हैं । (२) जो-जो गुणस्थानके काम हैं, ऐसे ही कर्मप्रकृतियोंके अनुभाग हैं, यह तथ्य तब समझमें भाता है जब प्रत्येक गुणस्थानोंमें जो प्रात्मविकासको कमी है उसपर ध्यान किया जाये। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ समयसार जीवो स्फुटविघटनं नैव यावत्प्रयातः । विश्वं व्याप्य प्रसविकसद्ध्यक्तचिन्मात्रशक्त्या झोतृद्रव्यं स्वयमतिरसात्तावदुर्चश्चकाशे ॥४५।। इति जीवाजीवी पृथग्भूत्वा निष्क्रांती ॥६८।। ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातो जीवाजीवप्ररूपकः प्रथमोऽङ्कः ।।१।। बहु । नित्यं-अव्यय प्रथमा एक ० । अचेतनानि-प्रथमा बहु० । उक्तानि-प्रथमा बहु० कृदन्त क्रिया ।।६।। (३) कार्य सब कारणले अनुगार होते हैं. लो पुगतदनिकके ये प्रतिफलनस्वरूप गुणस्थान भी पुद्गल अथवा पौद्गलिक हैं। (४) चेतन वही है जो चेतनागुण व मात्र चेतना. गुणको परिणति हो, सो चैतन्यस्वभावसे व्याप्त आत्मासे अन्य हैं ये गुणस्थान, राग, विशुद्धिस्थान, संयमस्थान प्रादि, अतः ये सब अचेतन हैं । (५) परमार्थतः जीव अचल सनातन स्व. संवेद्य चैतन्यस्वरूप ही है, क्योंकि जो जीवमें निरन्तर एकरूप हो वही जीवस्वरूप है। (६) परमार्थ प्रखण्ड अचल जीवस्वरूपको दृष्टि में यह सारा जगजाल ऐसा लगता है कि यह सारा नाच पुद्गल ही कर रहा है । (७) परमार्थ जीव व शेष अजीब भली-भांति पृथक्-पृथक जात होते ही यह ज्ञाता भगवान प्रात्मा चैतन्यमात्र शक्तिसे स्पष्ट प्रकाशमान होता है। सिद्धान्त--(१) पुद्गलकर्मोदयादिके निमित्तसे होने वाले विकार पोद्गलिक हैं, मात्मा तो केवल चैतन्यचमत्कारमात्र है । (२) प्रात्मा शाश्वत चैतन्यस्वभावसे क्या है, अतः मात्मा चेतन है। दृष्टि-१- विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८), २-परमशुद्धनिश्चयनय (४४-४५)। प्रयोग—अपने परमार्थ सहज चैतन्यस्वरूपको निरखते हुए उपयोगको अन्तः विकारसे परभावोंसे बिरुकुल हटाकर चैतन्यस्वरूपमें लीन होनेका पौरुष करना ॥६॥ ॥ इति जीवाजीवाधिकार समाप्तः ।। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत्तुं कर्माधिकार अथ कर्तृकर्माधिकारः अथ जीवाजीवावेव कत्तं कर्मवेषेण प्रविशत: । एकः कर्ती चिदहमिह में कर्म कोपादयोऽमी, इत्यज्ञानां शमयदभतः कर्तृकर्मप्रवृत्ति । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यंतधीरं साक्षात्कुर्वन्निरुपधि पृथगद्रव्यनिर्भासि विश्वं ॥४६॥ जाव ण वेदि बिसेसंतरं तु यादासवाण दोह्नपि । बाणी तापदु सो कोषादिसु षदे जीवो ॥६॥ कोधादिसु वतस्स तस्म कम्मस्स संचो होदि । जीवस्सेबं बंधो भणिदो खलु सब्बदरसीहिं ॥७०॥ (युग्म) जब तक न लले अन्सर, प्रास्रव प्रात्मस्वरूप दोनोंमें । तब तक वह प्रज्ञानी, क्रोधादिकमें लगा रहता ॥६६॥ क्रोधाविकमें लगा जो, संचय उसके हि कर्मका होता । यो बन्ध जोबका हो, दर्शाया सर्वदर्शीने ॥७०॥ यावन्न वेत्ति विशेषांतरं त्वात्मास्रव योद्वयोरपि । अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः ॥६६॥ कोषादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः संचयो भवति । जीवस्यैवं बंधो भणितः खलु सर्वदशिभिः ।।७०॥ ___ यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसम्बंधयोरात्मज्ञानयोरविशेषाभेदमपश्यन्नविशंकमात्मतया जाने वर्तते तत्र वर्तमान पच ज्ञान क्रियायाः स्वभावभूतत्वेनाप्रतिषिद्धत्वाज्जानाति तथा संयोग नामसंज्ञ-जाव, ण, बिसेसंतर, तु, आदासवाण, दु, पि, अण्णाणि, ताक्दु, त, क्रोधादि, जीव, क्रोधादि, वट्टत, त, कम्म, संचअ, जीव, एवं बंध, भणिद, खलु, सव्वदरिसि । धातुसंज-विद ज्ञाने, वत्त अब जीव, अजीव दोनों का कर्मका वेष धारण करके प्रवेश करते हैं। (जैसे दो पुरुष आपसमें कोई स्वांग रचकर नृत्यके अखाड़ेमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार यहाँ अलंकार जानना । उस स्वांगको जो ज्ञान यथार्थ जान लेता है, उसकी महिमामें काध्य कहते हैंएकः इत्यादि । अर्थ--इस लोकमें मैं चतन्यस्वरूप प्रात्मा तो एक कर्ता हूं और ये क्रोधादिक भाव मेरे कर्म हैं, इस प्रकारको कर्ता कर्मकी प्रवृत्तिको शमन करती हुई ज्ञानज्योति स्फुरायमान होती है । जो ज्ञानज्योति उत्कृष्ट उदात्त है, किसीके आधीन नहीं है, अत्यंत धीर है अर्थात् किसी प्रकारसे प्राकुलतारूप नहीं है, और दूसरेको सहायताके बिना भिन्न-भिन्न द्रव्योंके प्रका Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध संबंधयोरयात्मक्रोधाद्यानवयोः स्वयमज्ञानेन विशेषमजानन् यावभेदं न पश्यति तावदशंकमात्मत्तया क्रोधादौ वर्तते । तत्र वर्तमानश्च क्रोधादिक्रियाणां परभावभूतत्वात्प्रतिषिद्धत्वेपि स्वभावभूतत्वाध्यासात्क्रुध्यति रज्यते मुह्यति चेति । तदत्र योयमात्मा स्वयमज्ञानभवने ज्ञानवर्तने, सम्-चय पतनचयनयोः, हो सत्तायां, भण कथने, दरस दर्शनायां । प्रातिपदिक-यावत्, पि. विशेपान्तर, तु, आत्मास्रव, द्वि, अपि अज्ञानिन्, तावत्, तत्, क्रोधादि, जीय, क्रोधादि, वर्तमान, तत्, कमन्. शित करनेका जिसका स्वभाव है, इसी कारण समस्त लोकालोकको साक्षात् करतो है। भावार्थ-ज्ञानस्वरूप आत्मा परद्रव्य तथा परभावोंके कर्ताकर्मपनेके अज्ञानको दूर कर स्वयं । प्रकट प्रकाशमान होता है। मागे कहते हैं कि यह जीव जब तक यात्रव और आत्माके भेदको नहीं जानता तब तक अज्ञानी हुमा प्रास्रवों में लीन होकर कर्मोका बंध करता है-[जीयः] यह जीव [यावत्] जब तक [प्रात्मारवयोः द्वयोः अपि तु] अात्मा और प्रास्रब इन दोनोंके [विशेषांतरं] भिन्नभिन्न लक्षणको [न वेत्ति] नहीं जानता (तावत्) तब तक (स अज्ञानी) वह अज्ञानी हुअा (क्रोधादिषु) क्रोधादिक प्रास्रवोंमें (वर्तते) प्रवर्तता है । (क्रोधादिषु) क्रोधादिकोंमें (वर्तमानस्य तस्य) वर्तते हुए उसके (कर्मणः) कर्मोंका (संचयः भवति) संचय होता है । (खलु) निश्चयतः (एव) इस प्रकार (जीवस्य) जीवके (बंधः) कोका बंध (सर्वदशिभिः) सर्वज्ञदेवोंने (भरिणतः) कहा है। तात्पर्य---स्वभाव व विभावमें भेदज्ञान न होनेके कारण अज्ञानी जीव विभावमें निःशंक प्रवर्तता है, अतएव उसके कर्मोंका विकट बन्ध होता रहता है। टीकार्थ-जैसे यह मात्मा तादात्म्य सिद्ध सम्बन्ध वाले प्रात्मा और ज्ञानमें भेद नहीं. देखता हुआ ज्ञानमें निःशंक होकर आत्मरूपसे प्रवृत्त होता है । वहाँ प्रवर्तन करने वाले के ज्ञानक्रियारूप प्रवृत्ति स्वभावभूत है, अतः उसका निषेध नहीं है । इसलिये उस ज्ञानक्रियासे । जानता है । अर्थात् जाननमात्र रूपसे परिणमन करता है, उसी प्रकार संघोगसिद्धसम्बन्ध रूप । श्रात्मा और क्रोधादिक पासबमें भी अपने अज्ञानसे विशेष भेद न जानता हुमा जब तक उनके , भेदको नहीं देखता तब तक निःशंक होकर क्रोधादिमें प्रात्मरूपसे प्रवृत्ति करता है। वहाँ । प्रवृत्ति करते हुए उसके जो क्रोधादि किया है वह परभावसे हुई है, इसलिये वे क्रोधादि प्रतिधरूप हैं तो भी उनमें स्वभावका अध्यास होनेके कारण प्राप क्रोध, राग और मोहरूप परिप्णमन करता है । अतः अपने अजानभावसे परिणमन मात्र स्वभावजन्य उदासीन-ज्ञाता-द्रष्टा मात्र अवस्थाका त्याग कर यह अज्ञानी जीव क्रोधादिव्यापाररूप परिणमन करता हुआ प्रतिभासित होता है, इसलिये कर्मोंका कर्ता है । अब यहाँ जो ज्ञानपरिणमनरूप प्रवर्तनेसे पृथक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १४५ भवनमात्रसहजोदासीनावस्थात्यागेन व्याप्रियमाणः प्रतिभाति स कता । यत्तु ज्ञानभवनव्याप्रियमागत्वेभ्यो भिन्न क्रियमाणत्वेनांतरुप्लवमानं प्रतिभाति क्रोधादि तत्कर्म । एवमियमनादिरज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिः । एवमस्यात्मनः स्वयमज्ञानाकर्तृकर्मभावेन क्रोधादिषु वर्तमानस्य संचय, जीव, एवं, बन्ध, खल, सर्वदशिन् । मूलधात -विद ज्ञाने, स गतौ, ऋध क्रोधे दिवादि, वृतु वर्तने, संचित्र चयने स्वादि. ८ मत्तायां, बंध बंधने, भण शब्दार्थः, इशिर प्रेक्षणे | पदविवरण यावत्-अध्ययः । न-अव्यय । वेति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। विशेषान्तर-द्वितीया एक कर्मकारक । तुअव्यय । आत्मासवयोः-पाठी द्विवचन । अपि अव्यय । अज्ञानी-प्रथमा एकः । तावत-अव्यय । स;प्रथमा एक कर्तृ विशेषण । क्रोधादिषु-सप्तमी बहुवचन । वर्तते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीव:किये गये अन्तरंग उत्पन्न क्रोधादिक प्रतिभासित होते हैं, वे उस कर्ताके कर्म हैं । इस प्रकार यह अनादिकालसे हुई इस मात्माकी कर्ताकमकी प्रवृत्ति है । ऐसे अज्ञानभावसे कर्ताकर्मभाव द्वारा क्रोधादिकों में वर्तमान इस जीवके क्रोधादिकको प्रवृत्तिरूप परिणामको निमित्तमात्र कर अपने प्राप हो परिणमता हुअा पुद्गलमय कर्म संचित होता है। इस भांति जीवके और पुद्गलके परस्पर प्रवगाहलक्षण सम्बन्धस्वरूप बंध सिद्ध होता है। और अनेकात्मक होनेपर भी एकसंतानपना होनेसे इतरेतरराश्रयदोषरहित होता हुआ वह बंध कर्ता-कर्मकी प्रवृत्तिका निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्त कारण है। भावार्थ---जैसे ज्ञानी आत्मा अपने आत्मा और ज्ञानको एक जानकर अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमन करता है उसी प्रकार प्रज्ञानी जीव क्रोधादिक भाव व अपने प्रात्माको एक जानकर क्रोधादिरूप परिणमन करता है सो ज्ञानमें और क्रोधादिकमें जब तक भेद नहीं जोनता तब तक इसके कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है । क्रोधादिरूप परिणमन करता हुआ आप तो कर्ता है और वे क्रोधादिक इसके कर्म हैं। अनादि अज्ञानसे यों कर्ताकर्मको प्रवृत्ति है और कर्ताकर्मको प्रवृत्ति से बन्ध है तथा बन्धके निमित्तसे प्रज्ञान है । यो उसको संतान (परम्परा) है । अतः इसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं है । ऐसे जब तक प्रात्मा क्रोधादिक कर्मका कर्ता होकर परिणमन करता है, तब तक कर्ताकर्मको प्रवृत्ति है और तभी तक कर्मका बंध होता प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थनमें जीव और अजीयका निश्चयन यसे वर्णन करके दिखाया था कि ये परस्पर कर्तृकर्मभावसे रहित है । अब उसी कर्तृ कर्मभावरहितपनेका विवरण किया जाना प्रावश्यक है। इसके लिये प्रथम यह जानना आवश्यक है कि प्रज्ञानदशामें स्वयं कर्तृकर्मभावकी कैसी प्रवृत्ति होती है तब यह भी सुगमतासे ज्ञात हो जावेगा कि सम्यज्ञान होनेपर यह कर्तृकर्मभाव यों सुगमतया दूर हो जाता है । सो यहाँ पहिले अज्ञानदशाके Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ समयसार तमेव क्रोधादिवृत्तिरूपं परिणाम निमित्तमात्रोकृत्य स्वयमेव परिणममानं पौद्गलिक कम संचयमुपयाति । एवं जीवपुद्गलयो: परस्परावगाहलक्षणसम्बन्धात्मा बंधः सिद्ध्येत् । सचानेकात्मकैकसंतानत्वेन निरस्तेतरेतराश्रमदोषः कर्तृ कर्मप्रवृत्तिनिमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तं ।।६६-७०।। प्रथमा एकवचन कर्ता । क्रोधादिषु-सप्तमी एक । वर्तमानस्य-षष्ठी एक० । तस्य--पाठी एक० । कर्मण:षष्ठी एक० । संचय:-प्रथमा एकः । भवति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवस्य-चप्ठी एक० । एवंअव्यय । बन्धः-प्रथमा एक० । भणितः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया। खलु-अव्यय । सर्वदर्शिभिः-तृतीया बहुवचन ।। ६९-७० ।। तथ्यको जाननेके लिये जीव और अजीवका कर्ताकर्मके वेशसे प्रवेश कराया गया है। तथ्यप्रकाश- (१) अज्ञानदशामें मूलमें कर्ताकर्मप्रवृत्तिको बुद्धि ऐसी रहती है कि मैं समझदार तो करता हूं व इन क्रोधादिभावों को करता हूं। (२) बाह्य में कर्ताकर्मबुद्धि ऐसी रहती है कि मैं इन घट-पट आदि पदार्थों को करता हूं, पुत्रादिको सुखी करता हूंपादि । (३) बाहरी कितना भी विवेक व प्रयत्न करनेपर भी ज्ञान, वैराग्य व शान्ति तब तक नहीं बनती जब तक प्रात्मस्वरूप और प्रौपाधिक भावोंमें स्व-परका अन्तर ज्ञात न हो जाय । (४) औपाधिक भाव पर हैं यह तब तक विदित नहीं होगा, जब तक ये विकार नैमितिक हैं यह शात न हो जाय । (५) विकारके नैमित्तिकपनेका ज्ञान स्वभावपरिचयके साथ अविनाभावी है। (६) मैं अविकारस्वरूप मात्र जाता हूं ये विभाव कर्मविपाकके प्रतिफलनके जुड़ावसे है, ऐसा ज्ञान होनेपर ही कर्मरसमें उपयोग नहीं जुड़ता।। सिद्धान्त-(१) प्रात्मा और प्रास्रवादिका भेद ज्ञात न होनेसे जो उनमें एकत्वकी बुद्धि है वह मोह है । (२) क्रोधादिक प्रास्रवमें प्रवर्तनका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणार्ये कर्मत्वरूप परिणत हो जाती है। ____ दृष्टि- १- संश्लिष्टस्वजातिविजात्युपचरित प्रसद्भूत व्यवहार (१२७) । २- उपाधि सापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग -- कर्मविपाकके प्रतिफलनसे विलक्षण सहज प्रात्मस्वभावको निरखना व उसमें गुप्त होनेका पौरुष करना ।।६६-७०॥। यहाँ प्रश्न होता है कि इस कर्ताकर्मको प्रवृत्तिका प्रभाव किस कालमें होता है उसका उत्तर कहते हैं--[यदा] जिस समय [अनेन जोवेन] इस जीवके द्वारा [प्रात्मनः] अपना तथैव च] और [प्रास्त्रवाणां] आस्रवोंका [विशेषांतरं भिन्न लक्षण [जातं भवति] विदित हो जाता है [तदा तु] उसी समय [तस्य] उसके [बंधः न] बंध नहीं होता। • तात्पर्य-आत्मस्वभाव और प्रास्रव विकारमें जब ही भेद दृढ़तासे हो जाता तब हो Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाधिकार harsस्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तनिवृत्तिरिति चेत् जहया इमेण जीवेगा अप्पणो आसवाण य तहेव । खादं होदि बिसेसंतरं तु तहया या बंधो से ॥ ७१ ॥ १४७ जब इस श्रात्मा द्वारा श्राश्रय श्रात्मस्वरूप में अन्तर । हो जाता ज्ञात तभी से इसके बंध नहिं होता ||७१ ॥ यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च तथैव । ज्ञातं भवति विशेषांतरं तु तदा न बंधस्तस्य ॥ ७१ ॥ ॥ इह किल स्वभावमात्रं वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा । क्रोधादेर्भवनं क्रोधादिः । अथ ज्ञानस्य यद्भवनं तन्त्र क्रोधादेरपि भवनं यतो यया ज्ञानभवने ज्ञानं भवद्विभाव्यते न तथा क्रोधादिरपि । यत्तु क्रोधादेर्भवनं तन्न ज्ञानस्यापि भवनं यतो यथा नामसंज्ञ जइया, इम, जीव, अप्प, आसव, य, तह, एव, णाद, बिसेसतरं तु, तइया, ण, बंध, त । धातुसंज्ञ -- आसव स्रवणे गतौ च जाण अवबोधने हो सत्तायां बंध बंधने । प्रातिपदिक - यदा इदम्, जीव, आत्मन, आव, च, तथा, एव, ज्ञान, विशेषान्तर, तु, तदा, न, बन्ध, तत् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, अल सातत्यगतौ स्रु गती, ज्ञा अवबोधने, भू सत्तायां, बन्ध बन्धने । पदविवरण — यदा- अव्यय । बन्ध नहीं होता । टोकार्थ - इस लोक में वस्तु अपने स्वभावमात्र है और अपने भावका होना ही स्वभाव है, इसलिये यह सिद्ध हुआ कि ज्ञानका जो होना (परिणमन ) है वह तो प्रात्मा है तथा धादिकका जो होना (परिणमना) है वह क्रोधादिक है । ऐसा होनेसे जो ज्ञानका परिणमन है, वह क्रोधादिका परिणमन नहीं है, क्योंकि जैसे ज्ञान होनेपर ज्ञान ही हुआ मालूम होता है। वैसे क्रोधादिक नहीं मालूम होते । जो क्रोधादिकका परिणमन है, वह ज्ञानका परिणमन नहीं है, क्योंकि क्रोधादिक होनेपर क्रोधादिक हुए ही प्रतीत होते हैं, ज्ञान हुआ मालूम नहीं होता । इस प्रकार क्रोधादिक श्रीर ज्ञान इन दोनोंके निश्चयसे एकवस्तुपना नहीं है | अतः म्रात्मा और श्रावका भेद देखनेसे जिस समय यह आत्मा भेद जानता है, उस समय इसके अनादि • कालसे उत्पन्न हुई परमें कर्ताकर्म की प्रवृत्ति निवृत्त हो जाती हैं । प्रौर उसकी निवृत्ति होनेपर ज्ञानके निमित्तसे होने वाला पुद्गलद्रव्य कर्मका बन्ध भी निवृत्त हो जाता है । ऐसा होनेपर ज्ञानमात्र से ही बंधका निरोध सिद्ध होता है । भावार्थ - क्रोधादिक और ज्ञान पृथक्-पृथक् वस्तु हैं । ज्ञानमें क्रोधादिक नहीं हैं, क्रोधादिकमें ज्ञान नहीं है । इस प्रकार ज्ञानसे ही बंधका. निरोध होता है । प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथायुगल में बताया था कि अज्ञानसे जीवकी परभाव में कर्तृकर्मप्रवृत्ति होती है और इस प्रवृत्तिसे कर्मसंचय होता है जो संसारक्लेशको मूल है। इस Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार क्रोधादिभवने क्रोधादयो भवंतो विभाव्यते न तथा ज्ञानमपि इत्यात्मनः क्रोधादीनां च न खल्वे. कवस्तुत्वं इत्येवमात्मात्मास्रयोविशेषदर्शनेन यदा भेदं जानाति तदास्यानादिरप्यज्ञानजा कर्तृकर्मप्रवृत्तिनिवर्त्तते तन्निवृत्तावज्ञाननिमित्तं पुद्गलद्रव्य कर्मबंधोगि निवर्तते । तथा सति ज्ञानमाश्रादेव बंधनिरोधः सिद्ध्येत् ।।७१।। अनेन-तृतीया एक० । जीवेन-तृतीया एकवचन । आत्मन:-बाठी एक० । आत्रवाण:-पाठी बहुवचन । चअव्यय । तथा अव्यय । एब-अव्यय । ज्ञान प्रथमा एकवचन कृदन्त प्रिया । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । विशेषान्तर-प्रथमा एक० । तु-अव्यय । तदा-अध्यय । न-अध्यय । बधःप्रया एक० । तस्य-पाठी एकवचन ।। ७१ ।।। चर्चाको सुनकर यह जाननेकी उत्सुकता होना प्राकृतिक है कि फिर जीवकी इस कर्तृकर्मप्रवृत्तिको निवृत्ति कब और कैसे होगी, इसी जिज्ञासाका इसमें समाधान किया गया है। तथ्यप्रकाश- (१) वस्तुतः वस्तु स्वस्वभायमात्र है । (२) पोद्गलिक क्रोधप्रकृति में क्रोधविपाक होना उपादानतया परभाव है । (३) क्रोध प्रकृतिविपाकका निमित्त पाकर उपयोग में प्रतिफलित क्रोध औपाधिक परभाव है । (४) यहाँ भावके परिचयसे स्व-परका निर्णय किया गया है । (५) ज्ञानभावमें क्रोधभाव नहीं है, क्रोधभावमें ज्ञानभाव नहीं है । (६) ज्ञान प्रात्मा है, क्रोध प्रास्रव है । (७) प्रात्मा और प्रास्रवमें एकत्वबुद्धि होना प्रज्ञान है । (८) अपने प्रात्माको स्त्र और प्रास्त्रबको पर जान लेना भेदज्ञान है । (६) प्रात्मा और पात्रबमें भेद जानकर आत्माभिमुखताको भावना सहित आत्माका जानना ज्ञान है । (१०) ज्ञान होने पर ज्ञानकी स्थिरतादि माफिक कर्मबन्धका निरोध हो जाता है । सिद्धान्त-(१) वस्तु स्वस्वभावमात्र है । (२) पुद्गलकर्मका विपाक पुद्गल कर्ममें ही है । (३) कर्मविपाकके प्रतिफलनकी अशुद्धता जीवमें है । (४) प्रात्माको कर्मास्रवमय समझना अज्ञान है । (५) अात्माको विभाव प्रास्रवमय समझना अज्ञान है। दृष्टि - १- शुद्धनय (४६)। २- अशुद्ध निश्चयनय (४७)। ३- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। ४- एकजातिद्रव्ये अन्यजातिपर्यायोपचारक असद्भूत व्यवहार (११३) । ५- स्वजातिद्रव्ये स्वजातिपर्यायोपचारक प्रसद्भूत व्यवहार (११४) । प्रयोग---अपनेको सहज ज्ञानस्वभावमात्र निरखते हुए नैमित्तिक विकारोंकी उपेक्षा करके अपनेको ज्ञान मात्र अनुभवनेका उद्यम करना ।१७१।।। अब पूछते है कि ज्ञानमात्रमें हो बंधका निरोध कैसे है ? उसका उत्तर कहते हैं[प्रास्रयाणां च] आस्रवोंके [अशुचित्वं] प्रशुचिपनेको [च विपरीतभावं] और विपरीतपनेको [च दुःखस्य कारणानि इति] ' तथा ये दुःखके कारण हैं, इस तथ्यको [जात्या] जानकर Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जीवाजीवाधिकारः कथं ज्ञानमात्रादेव बंधनिरोध इति चेत् णादूण पासवाणं असुचित्तं च विबरीयभावं च। दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो ॥७२॥ प्रशुचि विपरीत प्रास्रव, दुखके कारण है जानकर ज्ञानी । क्रोधादि प्रास्त्रयोंसे, स्वयं सहज पृथक हो जाता ॥७२॥ ज्ञात्वा आषबाणामशुचित्वं च विपरीतभावं च । दुःखस्य कारणानीति च ततो निवृत्ति करोति जीकः । जले जंबालवत्कनुषत्वेनोपलभ्यमानत्वादशुचयः खल्वालवाः भगवानात्मा तु नित्यमेवातिनिर्मलचिन्मात्रत्वेनोपलभकत्वादत्यंत शुचिरेव जडस्वभावत्वे सति परचेत्यत्वादन्यस्वभावाः खल्वानवाः भगवानात्मा तु नित्यमेव विज्ञानघनस्वभावत्वे सति स्वयं चेतकत्वादनन्यस्वभाव एव । प्राकूलत्वोत्पादकत्वाद् दुःखस्य कारणानि खल्मास्रवाः भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुल नामसंझ--आस्रव, असुचित्त, च, विवरीयभाव, च, दुक्ख, कारण, इति, य, तदो, णियत्ति, जीव । भातुसंश-आ-सव स्रवणे मतो, कुण करणे । प्रातिपदिक—आस्रव, अशुचित्व, च, विपरीतभाव, च, दुःख, [ीवः] यह जोक [ततो निवृत्ति] उससे निवृत्ति [करोति करता है। तात्पर्य - प्रास्रवोंकी मलिनता, विपरीतता व दुःखकारणताको जानकर यह जीव पासवोंसे हट जाता है। टोकार्थ-जैसे जलमें सेवाल मलिन होनेसे जलको मैला दिखलाती है, उसी प्रकार ये प्रास्रव भी कलुषतासे प्राप्यमान हैं; अतः मलिन हैं, किन्तु भगवान (ज्ञानस्वरूप) प्रात्मा सदा अति निर्मल चैतन्यमात्रपनेसे उसका उपलंभक है, इस कारण अत्यंत पवित्र ही है । प्रास्रव जहस्वभाव होनेसे परसे जानने योग्य हैं अर्थात जो जड़ होता है, वह अपनेको तथा परको नहीं जानता, उसको दूसरा ही जानता है, अत: प्रास्रव अन्यस्वभाव है और प्रात्मा सदा हो विज्ञानघनस्वभाव है, इसलिये पाप ज्ञाता है, ज्ञानसे अनन्यस्वभाव है । प्रास्रव दुःखके कारणभूत होनेसे प्रात्माको प्राकुलताके उपजाने वाले हैं और भगवान् प्रात्मा सदा ही निराकुल स्व. भाव है, इस कारण किसीका न तो कार्य है और न किसीका कारण है, इसलिये दुःखका कारण ही नहीं है । इस प्रकार प्रात्मा और प्रास्रवोंका अन्तर दिखने से जिस समय भेद जान लिया, उसी समय वह इन क्रोधादिक भास्रवोंसे निवृत्त हो जाता है । क्योंकि उनसे जब तक निवृत्त नहीं होता, तब तक उस प्रात्माके पारमार्थिक सच्ची भेदज्ञानकी सिद्धि नहीं होती। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि क्रोधादिक प्रास्त्रवोंकी निवृत्तिके अविनाभावी ज्ञानसे अज्ञानजन्य पौगलिक कर्मबंधका निरोध होता है । और क्या ? देखिये प्रात्मा और प्रास्त्रवका जो यह Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० समयसार स्वस्वभावेनाकार्यकारणत्वाद् दुःखस्याकारणमेव । इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य प्रास्त्रवेभ्यो निवर्तते । तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतद्भेदज्ञाना. सिद्धेः । ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बंधनिरोधः सिद्धयेत् । किंच यदिदमात्मास्त्रत्रयोर्भेदज्ञानं तत्किमज्ञानं किंवा ज्ञानं ? यद्यज्ञान तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । जानं चेत् किमानवेष भवनं कि वासदेभ्यो निवत्तं ? अास्त्रकारण, इति, च, ततः, निवृत्ति, जीव । मूलधातु--- ज्ञा अवबोधने, आ-स्त्र, गतौ, अ-शुच्य अभिषचे, नि-वतु । बारणे दिवादि, डुकृत्र करणे । परिवरण--शात्वा-असमाप्तिकी क्रिया । आसवाणां--पष्ठी बहु० । अशु- | भेदज्ञान है वह अज्ञान है कि ज्ञान ? यदि अज्ञान है तो प्रासबसे अभेदज्ञान होनेसे उसका कोई । अन्तर न हुमा, तथा यदि वह ज्ञान है तो प्रास्रवों में प्रवृत्तिरूप है या उनसे निवृत्तिरूप है ? यदि अाम्न वोंमें प्रवर्तता है तो वह शान आत्रवोंसे अभेदरूप अज्ञान ही है इससे भी कोई विशे. पता न हुई और यदि यह ज्ञान प्रास्रवोंसे निवृत्तिरूप है तो ज्ञानसे ही बंध का निरोध क्यों नहीं कह सकते ? सिद्ध हुआ ही कह सकते हैं। ऐसा सिद्ध होनेपर अज्ञान के अंश नियानयका खण्डन हुया । तथा जो प्रात्मा और प्रास्रत्रोंका भेदज्ञान है वह भी प्रास्रवोंसे निवृत्त न हया तो वह ज्ञान ही नहीं है, ऐसा कहनेसे ज्ञान के अंशरूप ज्ञाननयका निराकरण हया। भावार्थ-प्रास्रव अशुचि हैं, जड़ हैं, दुःखके कारण हैं, और प्रात्मा पवित्र है, ज्ञाता है, सुख स्वरूप है । इस प्रकार दोनोंको लक्षणभेदसे भिन्न जानकर आत्मा पानवोंसे निवृत्त होता है और उसके कर्मका बंध नहीं होता । यदि ऐसा जाननेसे भी कोई निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है, प्रज्ञान ही हैं। प्रश्न-अविरतसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व और अनन्नानुबंधी प्रकृतियोंका तो प्रास्रव नहीं होता, परन्तु अन्य प्रकृतियोंका तो प्रास्त्रव व बन्ध होता है, वह ज्ञानी है या अज्ञानी ? समाधान ----सम्यग्दृष्टिके प्रकृतियोंका जो बंध होता है, वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है, सम्यग्दृष्टि होने के पश्चात् परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव है। इस कारण जब तक इसके चारित्रमोहका उदय है तब तक उसके उदयके अनुसार प्रानब बंध होते हैं, उसका स्वामित्व नहीं है । वह अभिप्रायमें निवृत्त होना ही चाहता है, इसलिए ज्ञानी ही कहा जाता है । मिथ्यात्वसम्बन्धी बन्ध ही अनंत संसारका कारण है, यही यहाँ प्रधानतासे विवक्षित है । जो अविरतादिकसे बन्ध होता है, बह अल्पस्थिति अनुभागरूप है, दीर्घ संसारका कारण नहीं है, इसलिए प्रधान नहीं गिना जाता। ज्ञान बंधका कारण नहीं है । जब तक ज्ञानमें मिथ्यास्वका उदय था तब तक अज्ञान कहलाता था, मिथ्यात्व चले जानेके बाद प्रज्ञान नहीं, ज्ञान ही है । इसमें जो कुछ चारित्रमोह सम्बन्धी विकार है, उसका स्वामी ज्ञानी नहीं बनता; इसी कारण ज्ञानीके बंध नहीं है। विकार बन्धरूप है, वह बन्धकी पद्धतिमें है, ज्ञान की पद्धतिमें Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत कर्माधिकार वेषु प्रवृत्तं चेत्तदपि तदभेदज्ञानाल तस्य विशेषः । प्रास्रवेभ्यो निवृत्तं चेतहि कथं न ज्ञानादेव बंधनिरोधः इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानयः । यत्त्वात्मारवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं चित्वं-द्वितीया एकवदन । च–अव्यय । विपरीतभावं-द्वितीया एक० । दुःखस्य-षष्ठी एक० । कारणंद्वितीया एकवचन अथवा उक्त तीनों प्रथमा विभक्ति एकवचन । इति-अव्यय । त-अव्यय । ततः-अव्यय नहीं है। अब यही कलशरूप काव्य में कहते हैं—'परपरिणति' इत्यादि । अर्थ-घरपरिणतिको छोड़ता हुआ, भेदके कथनोंको तोड़ता हुप्रा यह प्रखण्ड तथा अत्यन्त प्रचण्ड ज्ञान यहाँ उदित हना है । अहो ऐसे ज्ञान में परद्रव्यविषयक तथा विकारविषयक कर्ताकर्मप्रवृत्तिका अवकाश कैसे हो सकता है तथा पौद्गलिक कर्मबन्ध भी कैसे हो सकता है ? भावार्थ-कर्मबन्ध तो अज्ञानसे हुए कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे था । अब जब भेदभावको और परपरिणतिको दूर कर एकाकार ज्ञान प्रकट हुना तब भेदरूप कारककी प्रवृत्ति मिट गई, फिर कैसे बन्ध हो सकता है ? नहीं हो सकता।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि जिस समय आत्मा और पासवमें भेदज्ञान हो जाता है, तो ऐसे ज्ञानमात्रसे उस समय बन्धका निरोध हो जाता है । सो यहाँ यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि ज्ञानमात्रसे हो बंधनिरोध कसे हो जाता है, इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें दिया गया है। तथ्यप्रकाश----१-प्रात्मा और प्रास्त्रवमें पारमार्थिक भेदज्ञान होनेपर ज्ञानीका उपयोग क्रोधादिक प्रास्रवोंसे हट जाता है । २- प्रास्रवोंमें (रागादिक भावोंमें) मलीनता होनेसे अपवित्रता है, किन्तु भगवान प्रात्मामें सहज शुद्ध अविकार निर्मल चेतना होनेसे परिपूर्ण पवित्रता है । ३- भगवान प्रात्मा तो स्वयं ज्ञानधन होने के कारण स्वयं ज्ञाता होनेसे अनन्यस्वभाव है चैतन्यस्वभावमय है, किन्तु प्रास्रब जड़स्वभाव है और परके द्वारा (जीवके द्वारा) ज्ञेय हैं अतः अन्यस्वभाव हैं । ४- प्रास्त्रव तो प्राकुलताके उत्पादक होनेसे दुःखके कारण हैं, किन्तु भगवान मात्मा अनामुलस्वभाव होनेसे जाननके सिवाय अन्य कुछ कार्य नहीं करनेसे दुःखका अकारण है। ५-प्रास्रव सौर आत्मामें भेदज्ञान होना प्रास्रवनिवृत्तिका अविनाभावी है, अत: ऐसे ज्ञानमात्रमे अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्मके बन्धका निरोध हो जाता है । ६-जहाँ परपरिणति हट रही हो, भेदवादनहीं हो, अखंड ज्ञानस्वभाव उपयोगमें उदित हो वहाँ कर्ताकर्मप्रवृत्ति नहीं हो सकती और प्रत एव पौद्गलिक कर्मबंध भी नहीं होता। सिद्धान्त-उपयोगकी आत्माके प्रति अभिमुखता पौद्गलिक · कर्मबन्ध निरोधका निमित्त है । २-जीवक्रोध ब अजीवक्रोधमें भिन्न-भिन्न द्रव्याश्रयता है, उसमें सम्बन्ध मानना Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ समयसार भवति तज्ज्ञानमेव न अवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोपि निरस्तः । परपरणतिमुज्झत् खंडयभेदवादानिदमुदितमखंडं ज्ञानमुच्चंडमुच्चैः । ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तेरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबंधः ।।४५|| ।।७२॥ पंचम्यां तसल् । निवृत्ति-द्वितीया एक० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जीवः-प्रथमा एकवचन कर्ता ।।७२।। उपचार है। दृष्टि- १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थि कनय (२४ ब) । २. एकजातिपर्याय अन्यजातिपर्यायोपचारक प्रसद्भूत व्यवहार (१०७)। प्रयोग-विकार भावोंको अशुचि, विपरीत ब दुःखकारण जानकर उनसे उपेक्षा करके अपने पवित्र शान्तिधाम आत्मामें उपयोगको रमानेका पौरुष करना ।।७२।। अब जिज्ञासा होती है कि प्रास्रवोंसे किस तरह निवृत्ति होती है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं-- ज्ञानी विचारता है कि [खलु] निश्चयतः [प्रहं] मैं [एकः] एक हूं [शुद्धः] शुद्ध हूं [निर्ममतः] ममतारहित हूं [ज्ञानदर्शनसमग्रः] ज्ञान दर्शनसे पूर्ण हूं [तस्मिन् स्थितः] ऐसे स्वभावमें स्थित [तश्चितः] उसी चैतन्य अनुभवमें लीन हुआ [एतान] इन [सर्वान] क्रोधादिक सब प्रास्रवोंको [क्षयं] क्षयको [नयामि] प्राप्त कराता हूं। तात्पर्य--अपनेको एक शुद्ध प्रविकार ज्ञानदर्शनधन निरखनेसे इसी स्वभाव में प्रात्मा लोन होता है और तब प्रास्रव दूर हो जाते हैं। टोकार्थ- यह मैं प्रात्मा प्रत्यक्ष अखंड, अनंत, चैतन्यमात्र ज्योतिस्वरूप, अनादि, अनंत नित्य उदयरूप, विज्ञानधन स्वभाव रूपसे तो एक हूं और समस्त कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, अधिकरणस्वरूप जो कारकोंका समूह उसकी प्रक्रियासे उत्तीर्ण याने दूरवर्ती निर्मल चैतन्य अनुभूति मात्ररूपसे शुद्ध हूं । तथा जिनका पुद्गलद्रव्य स्वामी है ऐसे क्रोधादि भावोंको विश्वरूपता (समस्तरूपता) के स्वामित्वसे सदा ही नहीं परिणमनेके कारण उनसे ममतारहित हूं । तथा वस्तुका स्वभाव सामान्यविशेषस्वरूप है और चैतन्यमात्र तेज पुंज भी वस्तु है, इस कारण सामान्यविशेषस्वरूप जो ज्ञानदर्शन उनसे पूर्ण हैं। ऐसा आकाशादि द्रव्य की तरह परमार्थस्वरूप वस्तुविशेष हूं । इस कारण मैं इसी प्रात्मस्वभावमें समस्त परद्रव्यसे प्रवृत्तिकी निवृत्ति करके निश्चल स्थित,हमा समस्त परद्रव्यके निमित्तसे जो विशेष रूप चैतन्य में चंचल कल्लोलें होती थीं, उनके निरोधसे इस चैतन्यस्वरूपको ही अनुभव करता हुअा अपने ही अज्ञानसे प्रात्मामें उत्पन्न होते हुए क्रोधादिक भावोंका क्षय करता हूं ऐसा प्रात्मामें निश्चय कर तथा जैसे बहुत कालका ग्रहण किया जो जहाज था, उसे जिसने छोड़ दिया है, Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १५३ केन विधिनायमात्रवेभ्यो निवर्तत इति चेत् - अहमिक्को खलु सुद्धो णिम्ममयो णाणदंसणसमग्गो। तमि ठिो तच्चित्तो सब्वे एए खयं णोमि ॥ ७३ ॥ मैं एक शुद्ध केवल, निर्ममत सुयुक्त ज्ञानदर्शनसे । इसमें लीन हुमा सब, पात्रय प्रक्षीण करता हूँ ॥७३॥ अहमेकः खलु शुद्धः निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः । तस्मिन स्थितस्तच्चित्तः सनितान क्षयं नयामि ॥७३॥ अहमयमात्मा प्रत्यक्षमक्षुण्णमनंतं चिन्मात्र ज्योतिरनाद्यनंतनित्योदितविज्ञानघनस्वभावभावत्वादेकः । सकलकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः । पुदगलस्वामिकस्य क्रोधादिभाववैश्यरूपस्य स्वस्य स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनानिममतः । चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत एव सामान्यविशेषाभ्या सकलत्वाद् ज्ञानदर्शनसमग्नः । गगनादिवत्पारमाधिको वस्तुविशेषोस्मि तदहमधुनास्मिन्नेवालमनि निखिलपरद्रध्यप्रवृत्तिनिवृत्या निश्चलमवतिष्ठमानः नामसंज्ञ-अम्ह, इक्क, खलु, सुद्ध, णिम्ममा गाणदसणसमग्ग, त, ठिा, तच्चित्त, सन्च, एत, खय । धातुसंज- ट्ठा गति निवृत्ती, विख क्षये, ने प्रापणे । प्रातिपदिक-अरमद, एक, खलु, शुद्ध, निर्ममत, ज्ञानदर्शनसमग्र तत. स्थित, तच्चित्त, सर्व एतत, क्षय । मलधात शुश्च शौचे दिवादि अथवा शन्ध शनी भ्वादि, ष्ठा गतिनिवृत्ती, चिती संज्ञाने भ्वादि, चित संचतने चुरादि, क्षि क्षये, गोत्र प्रापणे भ्वादि । पद. ऐसे समुद्र के भंवरकी तरह शीध्र हो दूर किये हैं समस्त विकल्प जिसने, ऐसा निविकल्प, प्रचलित, निर्मल पात्माका अवलंबन करता या विज्ञानधनभूत यह आत्मा प्रास्रवोंसे निवृत्त होता है। भावार्थ---शुद्धनयसे ज्ञानीने प्रात्माका ऐसा निश्चय किया कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूं, परद्रध्यके प्रति ममतारहित हूं, ज्ञान दर्शनसे पूर्ण वस्तु हूं, सो जब ऐसे अपने स्वरूप में स्थित होनेसे ज्ञानी उसीका अनुभव रूप हो, तब क्रोधादिक प्रास्त्रव क्षयको प्राप्त होते हैं। जैसे समुद्रको भंवरने बहुत कालसे जहाजको पकड़ रक्खा था, पीछे किसी कालमें भेवर पलटती है तब वह जहाजको छोड़ देती है, उसी प्रकार प्रात्मा विकल्पोंको भंवरको उपशान्त करता हमा प्रास्रवोंको छोड़ देता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि ज्ञानमात्रसे ही बन्ध. निरोध होता है । सो इस सम्बन्धमें यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि वह विधि क्या है कि जिससे यह ज्ञाता प्रास्रवोंसे हट जाये । इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें है । तथ्यप्रकाश - (१) प्रत्येक प्रातमा अपने पाप सहज प्रखण्ड अविनाशो चिन्मात्र ज्योतिस्वरूप है । (२) प्रत्येक प्रात्मा सहज त्रिकाल ज्ञानघनस्वभाव है । (३) प्रत्येक पात्मा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ समयसार सकलपरद्रव्यनिमित्तक विशेष चेतन चंचलकल्लोल निरोधेने ममेव चेतयमानः स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् भावानखिलानेव क्षययामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त्त द्दव झगित्यैवोद्वांत समस्त विकल्पोऽकल्पित मचलितममलमात्मानमालंबमानो विज्ञानघनभूतः खल्ययमात्मास्रवेभ्यो निवर्त्तते ॥ ७३ ॥ विवरण--- अहं - प्रथमा एक. कर्तृ विशेषण । शुद्धः प्रथमा एक कर्तृ विशेषण | निर्ममतः प्रथमा एक. कर्तृविशेषण । ज्ञानदर्शनसमग्रः - प्रथमा एक० । तस्मिन् सप्तमी एक० | स्थितः प्रथमा एक० कर्तृविशेषण ! तच्चित्तः प्रथमा एक० कर्तुं विशेषण । सर्वान् द्वितीया बहुवचन । क्षयं द्वितीया एक नयामि वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया ॥७३॥ सहज ग्रविकार केवल चैतन्यानुभवमात्र है । ( ४ ) प्रत्येक श्रात्मा औपाधिक भावोंसे विविक्त सहज स्वसत्वमात्र है । ( ५ ) समस्त परद्रव्यभावोंमें की प्रवृत्ति हटाकर पारमार्थिक सहज हमें ठहरने वाला गाना आत्मा श्रस्रवोंसे अलग हो जाता है । सिद्धान्त - - ( १ ) श्रात्मा सहज प्रखण्ड चिज्ज्योतिस्वरूप है । (२) श्रात्मा सहज विज्ञानघनस्वभाव है । ( ३ ) आत्मद्रव्य सहज स्वसत्त्वमात्र है । ( ४ ) सहजशुद्धात्मभावना के प्रतापसे श्रावनिरोध हो जाता है । दृष्टि - १ - परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । नय ( २३ ) । ३ - उत्पादव्ययगौर सत्ता ग्राहक शुद्ध सापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ब ) | प्रयोग — अपनेको अविकारस्वभाव चिन्मात्र केवल निरखकर अपने में मग्न होने का पोरुष करना || ७३ ॥ आगे पूछते हैं कि ज्ञान होनेका और प्रात्रवोंको निवृत्तिका समान काल कैसे है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं - [ एते ] ये प्रस्रव [ जीवनिबद्धाः ] जीवके साथ निबद्ध हैं [श्रवाः ] ध्रुव हैं [ तथा ] तथा [ श्रनित्था: ] श्रनित्य है [च] और हैं [ दुःखानि ] दुःखरूप हैं [च] श्रीर [दुःखफलाः ] दुःखफल वाले हैं जानकर ज्ञानी पुरुष [तेभ्यः ] उनसे [ निवर्तते ] अलग हो जाता है । [प्रशररणा: ] प्रशरण [ इति ज्ञात्वा ] ऐसा तात्पर्य - आस्रवोंकी प्रसारता जानकर ज्ञानी आस्रवोंसे हट जाता है । टीकार्थल -लाख और वृक्ष इन दोनोंकी तरह बध्य घातक स्वभावरूप होनेसे प्राव जीवके साथ निबद्ध हैं, सो वे अविरुद्धस्वभावपनेका अभाव होनेके कारण अर्थात् जीवगुणके घातकरूप विरुद्ध स्वभाव वाले होनेके कारण जीव हो नहीं हैं । प्रात्रव तो मृगोके वेगकी तरह बढ़ने वाले व फिर घटने वाले होनेके वे कारण श्रव हैं, किन्तु जीव चैतन्यं भावमात्र है सो २- • भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकद्रव्याधिकनय (२२) । ४ - शुद्धभावना Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार कथं झानास्त्रवनिवृत्त्योः नाराकालत्वमिति -- जीवणिबद्धा एए अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफलात्ति य णादूर्ण णिवत्तए तेहिं ॥७४॥ प्रधब अनित्य प्रशरण, उपाधिभव ये विचित्र दुःखमई। दुःखफल जानि प्रास्त्रव से प्रब विनिवृत्त होता है ॥७॥ जावनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च । दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्त्तते तेभ्यः । जतुपादपवद्बध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाज्जोव एव । अपस्माररयवईमानहीयमानत्वादध्र वाः खल्बास्रवाः ध्रुवश्चिन्मात्रो जोव एव । शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जंभमारणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्व. भावो जीव एव । बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मरसंस्कारवत् त्रातुमशक्यत्वादशरणाः ___नामसंज्ञ---जीवणिबद्ध, एत, अध्रुव, अणिश्च, तहा, असरण, य, दुवख, दुक्खफल, इत्ति, य, त। धातुसंज्ञ-बंध बंधने, जाण अवबोधने, नि-वत्त वर्त्तने। प्रातिपदिक-जीवनिबद्ध, एतत्, अध्रुव, अनित्य, ध्र ब है । प्रास्रव तो शीतदाहज्वरके स्वभावकी तरह कमसे उत्पन्न होते हैं इसलिये अनित्य हैं और जीव विज्ञानघन स्वभाव है इस कारण नित्य है । पास्त्रव अशरण हैं, जैसे काम सेवन में वीर्य छूटता है, उस समय अत्यंत कामका संस्कार क्षीण हो जाता है, किसीसे नहीं रोका जाता, उसी प्रकार उदयकाल पानेके बाद आस्रव झड़ जाते हैं, रोके नहीं जा सकते, इसलिये प्रशरए हैं, और जीव अपनी स्वाभाविक चित्शक्ति रूपसे आप ही रक्षारूप है, इसलिये शरणसहित है । प्रास्रव सदा ही पाकुलित स्वभावको लिये हुए हैं, इसलिये दुःखरूप हैं, और जीव सदा ही निराकुल स्वभाव रूप है, इस कारण प्रदुःखरूप है। प्रास्रव प्रागामो कालमें भाकुलताके उत्पन्न कराने वाले पुद्गल परिणाममें कारण हैं, इसलिये वे दुःखफल स्वरूप हैं और जीव समस्त ही पुद्गलपरिणामका कारण नहीं हैं इसलिये दुःख फलस्वरूप नहीं है । ऐसा मानवोंका और जीवका भेदज्ञान होनेसे जिसके कर्मका उदय शिथिल हो गया है ऐसा यह अात्मा जैसे दिशा बादलोंकी रचनाके प्रभाव होनेसे निर्मल हो जाती है उस भाँति प्रमयदि विस्तृत तथा स्वभावसे ही प्रकाशमान हुई चिच्छक्ति रूपसे जैसा जैसा विज्ञानघन स्वभाव होता है वैसा वैसा पासवोंसे निवृत्त होता जाता है तथा जैसा जैसा प्रास्त्रवोंसे निवृत्त होता जाता है वैसा वैसा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है । सो उतना विज्ञानघनस्वभाव होता है जितना कि प्रास्त्रवोंसे सम्यक निवृत्त होता है। तथा उतना प्रास्रवोंसे सम्यक् निवृत्त होता है, जितना कि सम्यक् विज्ञानधनस्वभाव होता है। इस प्रकार ज्ञान और प्रास्रवको Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ समयसार स्वस्वास्रवाः, सारगाः स्वयं गुप्तः सहजचिच्छक्तिर्जीव एव । नित्यमेवा कुलस्वभावत्वाद् दुःखानि खल्वास्रवाः, अदुःखं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव । प्रायत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वाद् दुःखफलाः खल्वास्रवाः अदुःखफल: सकलस्यापि पुद्गल परिणामस्याहेतुव्याज्जीव एव । इति विकल्पानंतरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव निरर्गलप्रसरः सहजविजृम्भमा चिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यो निवर्तते । यथा यथास्रवेभ्यश्च निवर्तने तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञानघनस्वभावो भवति यावत्सम्यगास्रवेभ्यो निवर्तते । तावदात्रवेभ्यश्च निवर्त्तते याव तथा, अशरण, च, दुःख दुःखफल, इति, च, तत्। मूलधातु-जीव प्राणधारणे, निबन्ध बन्धने, ध्रु स्थैर्ये भ्वादि ध्रु ध्रुव गतिस्थैर्ययोः तुदादि, नि-वृतु वर्तने भ्वादि । पवबिबरण जीवनिबद्धाः प्रथमा बहुवचन । निवृत्ति के समकालता है । भावार्थ - आत्मस्वरूप और श्रोपाधिक श्रास्रवमें भेद जान लेनेके बाद जितना अंश जिस-जिस प्रकार आस्रवोंसे निवृत्त होता है उस उस प्रकार उतना अंश विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है । इस ही प्रक्रियामें तो गुणस्थान ऊंचे-ऊंचे होते जाते हैं । और जब समस्त श्रावसे निवृत्त हो जाता है, तब सम्पूर्ण विज्ञानघनस्वभाव श्रात्मा होता है । इस प्रकार raast निवृत्तिका और ज्ञान के होनेका एक काल जानना चाहिये । प्रसंगविवरण -- श्रनन्तरपूर्व गाथामें यह संकेत दिया गया है कि श्रात्मस्वभाव अथवा श्रात्मा तथा श्रास्रव में भेदज्ञान होनेपर ज्ञानघनभूत होता हुआ ग्रात्मा प्रास्रवसे निवृत्त हो जाता है । सो जब इसी सम्बन्ध में यह जिज्ञासा हुई कि ज्ञान और प्रात्रवनिवृत्तिका काल वही एक अर्थात् समाज कैसे है, इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें दिया है । तथ्यप्रकाश - १ - जीव में प्रतिफलित ग्रास्त्रव बध्यघातकस्वभाव होनेसे जीवनिबद्ध कहलाते हैं, किन्तु जीवका स्वभाव मोदक है, घातक नहीं । २- प्रतीव क्षणिकत्वकी (समयसमय में नष्ट होनेकी) अपेक्षा त्रत्रको प्रनव कहा गया है, किन्तु जीव शाश्वत एकस्वरूप 1 ३ - हृद्यस्थके अनुभवनकी अपेक्षा जात्या कुछ ठहरे रहनेपर भी बेगकी घटा बढ़ी होनेसे उतनी भी क्रमसे स्थिरता न होनेसे श्रास्रवको अनित्य कहा गया है, किन्तु जीवस्वभाव समान स्थिर है । ४ - कोई भी विभाव होते हो दूसरे क्षण भी अतः श्रव अशरण है, किन्तु जीव सदा स्वयं स्वयं में है, अतः शरण है । ५- क्रोधादि श्राव का स्वरूप ही दुःखरूप है, जीवका स्वरूप श्रानन्दमय है । ६- श्रास्रवसे नये कर्म बंधते जिनके उदयसे भागे भी दुःख मिलेगा अतः श्रालव दुःखफल वाला है, किन्तु जीव श्रानन्दमय है उससे सदैव आनन्द ही प्रकट होगा । ७ - जीवस्वभाव व प्रास्रव में यथार्थतया भेदविज्ञान होते ही उपयोग में कर्मरस हटता है और स्वभावका विकास होता है। - ज्ञानविकास व आस्रव नहीं रह पाता है, नष्ट हो जाता है Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार सम्यग्विज्ञानघनस्वभावो भवतीति ज्ञानासबनिवृत्त्योः समकालत्वं । इत्येवं विरिचय्य संप्रति परद्रव्यानिवृत्ति परां, स्वं विज्ञान घन स्वभावमभयादास्तिघ्नुबानः परं । अज्ञानोतियतकर्तृकर्मकल. नात् क्लेशान्तिवृत्तः स्वयं, ज्ञानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ।।४८।। ।।७४।। एते-प्रथमा बहु० । अवा:-प्रथमा बहु० । अनित्या:-प्रथमा बहु० । तथा-अव्यय । अशरणा:-प्रथमा बह० । च-अव्यय । दुःखाः-प्रथमा बहु० । दुःखफला:-प्रथमा बहु० । इति-अव्यय । ज्ञात्वा-असमाप्तिकी क्रिया कृदन्त । निवर्तते वर्तमान लट् अन्य पुष एकवचन क्रिया! तेभ्यः-पंचमी बहुवचन ।।७४।। निवृत्ति इन दोनों में परस्पर दोनों ओरसे साध्यसाधकभाव है । ६- ज्ञानविकास तब तक बढ़ता रहता है जब तक पूर्ण प्रास्रवनिवृत्ति हो जाय । १०- प्रास्त्रवनिवृत्ति तब तक होती चली जाती है जब तक पूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रकट हो जाय । सिद्धान्त-१-क्रोधादि यात्रव कर्मविपाकोदय होनेपर जीवमें निबद्ध होनेसे जीवस्वभावसे विरुद्धस्वभाव हैं। २-- क्षणिक कर्मविपाकोदय होने पर हुए जीवविभाव अशरण हैं वे एक क्षणसे अधिक ठहर नहीं सकते । ३-भेदज्ञानातिशयसे कर्मत्व क्षीण होता है । ४- कर्मस्व विघटनसे अात्माकी स्वच्छताका प्रसार होता है । दृष्टि-- --- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (५३)। २- अशुद्ध सूक्ष्मऋजुसूत्रनय नामक पर्यायाधिकनय (३४) 1 ३- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)। ४- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय (२४ अ)। प्रयोग-विषय कषायभावोंको अध्र व, अशरण, दुःखरूप व दुःख फल वाले निरस कर उनसे उपयोगमुख मोड़कर अविकार अात्मस्वरूपमें विश्राम करना चाहिये ।।७४।। अब इसी अर्थ तथा आगेके कथनकी सूचनारूप काव्य कहते हैं-इत्येवं इत्यादि । अर्थ-पहले कही हुई रीतिसे परद्रव्यसे उत्कृष्ट सब प्रकार निवृत्ति कर और विज्ञानधन स्वभावरूप केवल अपने प्रात्याको निःशंक प्रास्तिक्यभावरूप स्थिरीभूत करता हुआ अज्ञानसे हुई कर्ता-कर्मको प्रवृत्तिके अभ्याससे हुए क्लेशोंसे निवृत्त हुप्रा स्व ज्ञानस्वरूप होता हुआ जगतका साक्षी पुराण पुरुष (प्रात्मा) अब यहाँसे प्रकाशमान होता है ।। यहाँ जिज्ञासा होती कि कोई प्रात्मा ज्ञानी हुआ यह कैसे पहचाना जा सकता है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं:--[यः] जो [प्रात्मा] जीव [एन] इस [कर्मणः परिणाम च] कर्मके परिणामको [च तथैव ] और उसी भांति [नोकर्मणः परिणामं] नोकर्मके परिणामको [न करोति] नहीं करता है, परंतु [जानाति] जानता है [सः] वह [ज्ञानो] ज्ञानी [भवति] है। टोकार्थ-वस्तुतः प्रात्मा मोह, राग, द्वेष, सुख दुःख प्रादि स्वरूपसे अन्तरंगमें उत्पत्र Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ कयमात्मा ज्ञानीभूतो लक्ष्यत इति चेत् - समयसार कम्मरस य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं । करेइ एयमादा जो जादि सो हवदि खागी ॥७५॥ कर्म तथा नोकर्मों के परिणामको जीव नहिं करता । यो सत्य मानता जो, यह सम्यग्दृष्टि हो ज्ञानी ।। ७५ ।। कर्मणश्च परिणाम नोकर्मणश्च तथैव परिणाम । न करोत्येनमात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी ॥७५॥ यः खलु मोहरागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणांत रुत्प्लवमानं कर्मणः परिणाम स्पर्शरसगंधव - शब्दबंध संस्थान स्थौल्यसौक्ष्म्यादिरूपेण बहिरुत्प्लवमानं नोकर्मणः परिणामं च समस्तमपि परमार्थतः पुद्गल परिणाम पुद्गलयोरेव घटमृत्तिकयोरिव व्याप्यव्यापकभावसद्भावात् गलद्रव्येण कर्जा स्वतंत्र व्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्कर्मत्वेन क्रियमाणं पुद्गल परिणामात्मनोर्घटकुंभकारयोरिव व्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मत्वासिद्धी न नाम करोत्यात्मा । किंतु परमार्थतः नामसंज्ञ - कम्म, य, परिणाम, णोकम्म य, तह एव परिणाम, ण, एय, अत्त, ज, व, णणि धातुसंज्ञ - कर करणे, जाण अवबोधने, हव सत्तायां । प्रातिपदिक-कर्मन् च, परिणाम, नोकर्मन् च, होने वाले कर्मके परिणामको और स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द, बंध, संस्थान, स्थौल्य, सूक्ष्म आदि रूपसे बाहर उत्पन्न होने वाले नोकर्मके परिणामको नहीं करता है, किन्तु उनके परिण मनोंके ज्ञानरूपसे परिणममान अपनेको हो जानता है, ऐसा जो जानता है वह ज्ञानी है । इसका विवरण इस प्रकार है-ये मोहादिक चे स्पर्शादिक परिणाम परमार्थतः पुद्द गलके ही हैं । सो जैसे घड़ेके और मिट्टी के व्याप्य व्यापकभाव के. सद्भावसे कर्ता कर्मपता है, उसी प्रकार वे पुद्गलद्रव्यसे स्वतंत्र व्यापक कर्ता होकर किये गये हैं और वे श्राप अंतरंग व्याप्य रूप होकर व्याप्त हैं, इस कारण पुद्गलके कर्म हैं । परंतु पुद्गलपरिणाम और आत्माका घट और कुम्हारकी तरह व्याप्यव्यापक रूप नहीं है, इसलिये कर्ताकत्वकी प्रसिद्धि है । इसी कारण कर्म व नोकर्मके परिणामको श्रात्मा नहीं करता । किन्तु परमार्थसे पुद्गलपरिणाम विषयक ज्ञानका और पुद्गलका घट और कुम्हारकी तरह व्याप्यव्यापकभावका प्रभाव है, अतः उन दोनोंमें कर्ता-कर्मत्वको सिद्धि न होनेपर श्रात्मपरिणामके और श्रात्माके es मृतिकाकी तरह व्याप्यव्यापक भावके सद्भावसे श्रात्मद्रव्य कर्ताने श्राप स्वतंत्र व्यापक होकर ज्ञाननामक कर्म किया है, इसलिये वह ज्ञान श्राप ही आत्मासे व्याप्यरूप होकर कर्मरूप हुआ है, इसी कारण पुद्गल परिणामविषयक ज्ञानको कर्म ( कर्मकारक ) रूपसे करते हुए आमाको आप जानता है, ऐसा आत्मा पुद्गलपरिणामरूप कर्म नोकर्मसे अत्यंत भिन्न ज्ञान Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार पुद्गलपरिणामज्ञानपुद्गलयोघंटकुंभकारवव्याप्यव्यापकभावाभावात् कर्तृकर्मस्त्रासिद्धावात्मपरिगामात्मनोघट मृत्तिकयोरिव व्याप्चव्यापकभावसद्भावादात्मद्रव्येण की स्वतंत्रव्यापकेन स्वयं व्याप्यमानत्वात्पुद्गलपरिणामज्ञानं कर्मत्वेन कुर्वन्तमात्मानं जानाति सोत्यंतविविक्तज्ञानोभूतो ज्ञानी स्यात् । न चैवं ज्ञातुः पुद्गलपरिणामो ब्यायः पुद्गलात्मनो यज्ञायकसंबंधव्यवहातथा, एव, परिणाम, न, एतत्, आत्मन्, यत्, तत्, ज्ञानिन् । मूलधातु--डुकृञ करणे, ज्ञा अवबोधने ऋ यादि, भू सत्तायां । पदविवरण --कर्मणः-पष्टी एकवचन । च-अव्यय । परिणाम-द्वितीया एका० । नोकर्मणः-पष्ठी एक । च-अव्यय । तथा-अव्यय । एव-अव्यय । परिणाम-द्वितीया एक० । न-अव्यय । रूप हुमा ज्ञानी ही है, कर्ता नहीं है । ऐसा होनेपर वाही ज्ञाता पुरुषके पुद्गलपरिणाम व्याप्यस्वरूप नहीं हैं क्योंकि पद्गल और आत्माका ज्ञेयज्ञायक संबंध व्यवहारमात्रसे होता हुग्रा भी पुद्गलपरिणाम निमित्तक ज्ञान हो ज्ञाताके व्याप्य है । इसलिये वह ज्ञान हो ज्ञाताका कर्म है। अब इसी अर्थके समर्थनका कलशरूप काव्य कहते हैं- व्याय्य इत्यादि । अर्थ-व्याप्य व्यापकता तत्स्वरूपके ही होती है प्रतत्स्वरूप में नहीं ही होती और व्याप्य व्यापकभावके संभव बिना कर्ताकर्मको स्थिति कुछ भी नहीं है ऐसे उदार कला और परतलो मामी भूत करनेका स्वभाव जिसका है ऐसे ज्ञानस्वरूप प्रकाशके भारसे अज्ञानरूप अंधकारको भेदता हुआ यह प्रात्मा ज्ञानी होकर उस समय कर्तृत्वसे रहित हुआ भासता है । भावार्थ-जो सब अवस्थानों में व्याप्त हो वह तो व्यापक है और जो अवस्थाके विशेष हैं वे व्याप्य हैं । सो द्रव्य तो व्यापक है और पर्याय व्याप्य है। सो द्रव्य पर्याय अभेदरूप ही हैं 1 जो द्रव्यका प्रात्मा है बही पर्यायका आत्मा है, ऐसा व्यापव्यापक भाव तत्स्वरूपमें ही होता है, अतत्स्वरूप में नहीं होता । तथा व्याप्यव्यापक भावके बिना कर्ता-कर्मभाव नहीं होता। इस प्रकार जो जानता है वह पुद्गलके और आत्माके कर्ता-कर्मभावको नहीं करता, तभी ज्ञानी होता है और कर्ता कर्मभावसे रहित होकर ज्ञाता द्रष्टा जगतका साक्षीभूत होता है। प्रसंगबिवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि ज्ञान होने और प्रास्त्रवानिवृत्ति होनेका काल एक कैसे है ? अब उसी विषयमें जिज्ञासा हो रही है कि प्रात्मा ज्ञानी हो गया यह कैसे पहिचाना जाये ? उसीके समाधान में इस गाथाका अवतार हुअा है । तथ्यप्रकाश-१-- कर्ममें जो मोह राग द्वेष आदि प्रकृति व अनुभागका बंध हुआ था वह परिमन कर्मका उपादानदृष्टि से है । २- शरीरमें मोटा पतला रूप प्राकार प्रादिक जो परिणमन है वह परिणमन शरीरका उपादान दृष्टि से है । ३- पद्गलका परिणमन (मोहादि) पुद्गलमें ही व्याप्य हैं अतः पुद्गलपरिणाम (मोहादि) का कर्ता पुद्गलद्रव्य ही है निश्चयतः, प्रात्मा कर्ता नहीं । ४-मोहादिक अनुभाग पुद्गलकर्मके. द्वारा हो व्याप्य होता है अतः मोहा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. समयसार रमात्र सत्यपि पुद्गलपरिणामनिमित्तकस्य ज्ञानस्यैव ज्ञातुर्याप्यत्वात् । व्याप्यव्यापकता तदास्मनि भवेन्नवातदात्मन्यपि, व्याप्यव्यापकभावसंभवमृते का कर्तृकर्मस्थितिः । इत्युद्दामविवेकघस्मरमहो भारेण भिदस्तभो, शानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ।।४६।। ।।७५॥ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एनं-द्वितीया एक० । आत्मा-प्रथमा एक० । यः-प्रथमा एक०। जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । झानी-प्रथमा एकवचन ॥५॥ दिक परिणाम पुद्गलकर्मका कार्य है, प्रात्माका कार्य नहीं । ५-पुद्गल परिणाम (मोहादिक) प्रात्मामें प्रतिफलित होते हैं, ज्ञेय होते हैं, इस कारण मोहादिक परिणामका प्रात्माके साथ ज्ञेय ज्ञायक संबंधका व्यवहार है । ६-पुद्गलपरिणामके शेय होनेपर प्रारमाका कर्म पुद्गल परिणामविषयक ज्ञान है और प्रारमा इस ज्ञानका कर्ता है, क्योंकि तब प्रात्मामें व्याप्य वह ज्ञान ही है। ७- अन्तव्याप्यव्यापकभाव तदात्मकमें ही हुमा करता है अतदात्मकमें नहीं। --अंताप्यव्यापकभावमें ही कर्ताकर्मपना होता । १-पर व परभावोंसे विविक्त ज्ञानज्योतिर्मय सहज अन्तस्तत्वका प्रकाश जगनेपर परकर्तृत्वका भ्रम भारान्धकार नष्ट होकर शाश्वत अलौकिक सहज मानन्दका लाभ होता है । सिद्धान्त-१-- मोह राग द्वेषादि अनुभागका प्रस्फुटन कर्मका परिणाम है । - दृष्टि गत देहाकार प्रादि देहका परिणाम है। ३- कर्मनोकर्मादिविषयक प्रतिफलनविकल्प जीवका परिणाम है । ४-जीवाजीवविषयक यथार्थशान ज्ञानीका परिणाम है। दृष्टि-- १- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५) । २- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७न)। ३-- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५) । ४- सभेद शुद्धनिश्चयनय (४६५) । प्रयोग–अपनेको कर्म नोकर्म (देह) व पाश्रयभूत बाह्य पदार्थ इन समस्त परद्रव्योंके परिण मनसे अलग झानमात्र निरखनेका पौरुष करना ।।७।। प्रब जिज्ञासा होती है कि जो जीय पुद्गल कर्मको जानता है, उसका पुद्गलके साथ कर्ता-कर्मभाव है या नहीं है ? उसका उत्तर कहते हैं---[शानी] ज्ञानी [अनेकविध] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म] पुद्गलद्रव्यके पर्यायरूप कर्मोंको [जानत् अपि] जानता हुअा भी [खलु] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यके पर्यायोंमें [न परिगमति न तो परिणमित होता है न गह्णाति] न ग्रहण करता है [न उस्पद्यते] और न उत्पन्न होता है । तात्पर्य--पुद्गलकर्मसे अलग ही रहता हुमा आत्मा पुद्गलकर्मविषयक ज्ञान ही करता है, अतः पुद्गलकमंके साथ प्रात्माका कर्ता-कर्मभाव नहीं है। • टोकार्थ-चूंकि प्राप्य, विकार्य, निवर्त्य ऐसे व्याप्यलक्षण वाले पुद्गल परिणामको, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार पुगलकर्म जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्ममावः किं भवति किं न भवतीति चेत् णवि परिणमइ ण गिलइ उप्पज्जइ ण परदव्वपजाए। णाणी जाणतो वि हु पुग्गलकम्मं अणेयविहं ॥७६॥ ___ ज्ञानी मुजानता भी, पुद्गल कर्मोके फल अनंतोंको । नहिं परिणमे न पावे, उपजे न परार्थभावोंमें ॥७६॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मानेकविधं ।।७६।। यतो धं प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणाम कर्म पुद्गलद्रव्येरण स्वयमंतव्यपिकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रिय.. मारणं जानन्नपि हि ज्ञानी स्वयमंतापको भूत्वा बहिस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकल नामसंज्ञ -ण, वि, ण, ण, परदब्वपज्जाय, णाणि, जाणत, वि, हु, युगालकम्म, अणेयविह । धातुसंज-परि-नम नम्रीभावे, गिव्ह ग्रहणे तृतीयगणे, उब पज्ज गतौ, जाण अवबोधने। प्रातिपदिक-न, अपि, न, न, परद्रव्यपर्याय, ज्ञानिन्, जानव, अपि, खलु, पुद्गलकर्म, अनेकविध । मूलधातु -परि-णम प्रह्वत्वे शब्दे च, ग्रह उपादाने, ऋयादि, उत्-पद गतौ दिवादि, ज्ञा अवबोधने, पूरी आप्यायने दिवादि, गल जो कि स्वयं अन्तव्यापक होकर आदि-मध्य-अन्तमें व्यापकर पुद्गलपरिणामको ग्रहण करने घाले, पुद्गलपरिणामरूपसे परिणमने वाले और पुद्गलपरिणामरूपसे उत्पन्न होने वाले पुद्गलद्रव्यके ही द्वारा ही किया जाता है, उसको जानता हुआ भी ज्ञानी स्वयं अन्तव्यापक होकर बाह्यस्थित परद्रव्यके परिणामको प्रादि और मध्य अन्तमें व्यापकर उस रूप नहीं परिणमन करता, उसको पाप ग्रहण नहीं करता और उसमें उपजता भी नहीं है जैसे कि मिट्टी घटरूप को ग्रहण करती है, उसरूप परिणमन करती है, और उसको उपजाती है, इस कारण प्राप्य, विकार्य निर्वर्त्य स्वरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यका परिणाम स्वरूप कर्मको नहीं करते हुए मात्र पुद्गलकर्मको जानते हुए भी ज्ञानीका पुद्गलके साथ कर्तृकर्म भाव नहीं है। भावार्थ--पुद्गल कर्मको जीव जानता है तो भी उसका पुद्गलके साथ कर्ताकर्म भाव नहीं है, क्योंकि कर्म तीन प्रकारसे कहा जाता है । जिस परिणामरूप प्राप परिणमे, वह परिणाम विकार्य कर्म है । आप किसीको ग्रहण करे, वह वस्तु प्राप्य कर्म है। किसीको प्राप उत्पन्न करे यह कार्य निर्वयं कर्म है । जीव अपनेसे भिन्न पुद्गल द्रव्यरूप परमार्थसे नहीं परिरगमन करता, क्योंकि आप चेतन है, पुद्गल जड़ है, चेतन जड़प नहीं परिणमन करतः, परमार्थसे पुद्गलको ग्रहण भी नहीं करता, क्योंकि पुद्गल मूर्तिक है पाप प्रमूर्तिक है, तथा परमार्थसे पुद्गलको पाप उत्पन्न भी नहीं करता । क्योंकि चेतन जड़को किस प्रकार उत्पन्न कर सकता है ? इस प्रकार तीनों ही तरहसे पुद्गल जीवका कर्म नहीं है और जीव उसका Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ समयसार शामिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्दच न्याला यानिशा कर्मालाणस्य पुद्गलकर्म जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तु कर्मभावः ।।७६॥ अदने भ्यादि-गल सत्रणे चुरादि । यदविवरण--न-अव्यय । अपि-अव्यय । परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुम्प एकवचन किया। न-अव्यय । गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । न-अव्यय । परद्रव्यपर्याये-सप्तमी एक० । ज्ञानी-प्रथमा एक० । जानन्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । अपि--अव्यय । खलु-अध्यथ । पुद्गलकर्म-प्रथमा एक ० । अनेकविधम्-प्रथमा एकवचन ।।७६।। . कर्ता नहीं है । जीवका स्वभाव ज्ञाता है, वह पाप ज्ञानरूप परिणमन करता हुमा उसको जानता है । ऐसे जानने वालका परके साथ कर्ता-कर्मभाव कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। __ प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा कर्म व नोकर्मके परिणामको नहीं करता, ऐसा जो जानता वह ज्ञानी है । इसपर यह प्रश्न होता है कि पुद्गलवामको जीव जानता तो है, इस कारण तो जीवका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृ कर्मत्य भाव होना ही चाहिये उसके उत्तरमें इस गाथाका अवतार हुप्रा है। तथ्यप्रकाश- (१) अन्तर्व्यापकको कर्ता कहते हैं । (२) अन्ताप्यको कर्म कहते हैं । (३) प्रत्येक कर्म प्राप्य विकार्य और निर्वयं रूपमें होता है । (४) निश्चयतः प्राप्य विकार्य और निर्वयं अभिन्न व्यापक द्वारा अभिन्न व्याप्य हो होते हैं । (५) पुद्गल कारणवर्गरणाके प्रकृति अनुभागरूप परिणमनको वह पुद्गलद्रव्य हो ग्रहण कर रहा है वही पुद्गलद्रव्य उस विकाररूप बन रहा है, वही पुद्गलद्रव्य उस रूपसे अपनेको रच रहा है ! उस पुद्गलपरिणाम । को न जीव ग्रहण कर रहा, न उस विकाररूप बन रहा और न उसरूप अपनेको रच रहा । (६) जीव पुद्गलपरिणामविषयक ज्ञानको ग्रहण कर रहा उस ज्ञानरूप परिणम रहा उसी ज्ञान रूप अपनेको रच रहा सो जीव परद्रध्य पुद्गलकर्मको न ग्रहण कर सकता न कर्मरूप परिणम सकता, न कर्मरूप रचा जा सकता । (७) ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तो भी पुद्गलकर्मको कर नहीं सकता, क्योंकि पुद्गलकर्म जीवके द्वारा न प्राप्य है, न विकार्य है और न निर्वर्त्य है। सिद्धान्त---१-ज्ञानी अनेकविध पुद्गलकर्मका ज्ञाता है । २-ज्ञानी पुद्गलकर्मज्ञेयाकार परिणमित केवल निज आत्माका ज्ञाता है । ३- ज्ञानी पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है । दृष्टि- १- अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५५) । २-- कारककारकिभेदक ! सद्भूतव्यवहार (७३)1 ३- प्रतिषेधक शुद्धनय प्रतिपादक व्यवहार (७०) । प्रयोग - पुगलकर्मका सब कुछ पुद्गलकर्ममें ही होता ऐसा जानकर अपने अकर्ता. स्वभावरूप ज्ञान मात्र निजस्वरूपमें मग्न होनेका पौरुष करना ॥७६॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार स्थपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृ कर्मभावः किं भवति, कि न भवति इति चेत् णवि परिणमदि ण गिलदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए। गाणी जाणतो वि हु सगपरिणाम अणेयविहं ॥७७॥ ज्ञानी सुजानता भो, नाना अपने विभावभावोंको। . नहि परिणमे न पाने, उपजे न परार्थभावों में ॥७॥ नापि परिणति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये । ज्ञानी जानन्नपि खलु स्वकपरिणाममनेकविध ||७७६ यतो यं प्राप्यं विकार्य नित्यं च ब्याप्यलक्षणमात्मारिणामं कर्म प्रात्मना स्वयमंतापकेन भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तं गृलता तथा परिणामता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जाननपि हि ज्ञानी स्वयमंतापको भूत्वा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु नामसंज्ञ- ण, वि, ण, ण, परदवपज्जाय, णाणि, जाणंत, वि, हु, सगपरिणाम, अणेयविह। धातुसंज्ञ - परि-नम नम्रीभावे उपसर्गादर्थ परिवर्तनम, गिव्ह ग्रहणे, उव-पज्ज गतौ । प्रातिपदिक-म, अपि, न, न, परद्रव्यपर्याय, झानिन, जानत, अपि, खल, स्वकपरिणाम. अनेकविध । मलधात-परि-णम प्रदत्वे. ग्रह उपादाने, क्रयादि, उत्-पद गतौ दिवादि, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-न-अव्ययं । अपि-अव्यय । परि अब जिज्ञासा होती है कि अपने परिणामोंको जानता हुअा जो जीव है उसका पुद्गल के साथ कर्ता-कर्मभाव है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं-[ज्ञानी] ज्ञानी [अनेकविधं] अनेक प्रकारके [स्वकपरिणाम] अपने परिणामोंको [जानन् अपि] जानता हुअा भी [खलु] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये] परद्रध्यके पर्यायमें [नापि परिणति] न तो परिणत होता है [न गृलाति] न उसको ग्रहण करता है [न उत्पद्यते] और न उपजता है। तात्पर्य--पुद्गलकर्मोदयक्षयोपशमनिमित्तक आत्मपरिणमनोंको भी ज्ञानी जानता है तो भी ज्ञानीका पुगलकमके साथ कर्ता-कर्मभाव नहीं है। टोकार्थ-जिस कारण प्राप्य, विकार्य और निर्वयं ऐसा व्याप्पलक्षण वाले प्रात्म. परिणामको अपने प्राप स्वयं अन्तर्व्यापक होकर प्रादि, मध्य और अन्तमें व्याप्त कर उन्हींको ग्रहण करते हुए उन्हीं रूप परिणमते हुए, उन्हीं रूप उत्पन्न होते हुए अपने आपके द्वारा किये गये अपने परिणामरूप कर्मको जानता हुअा भी ज्ञानी स्वयं अन्तयापक होकर बाह्य स्थित परद्रव्यके परिणामको 'जैसे मिट्टी कलशको व्याप्त होकर करती है। उस प्रकार आदि, मध्य, अंतमें व्याप्त होकर न तो ग्रहण करता है. - उसरूप परिणमता और न उस प्रकार उपजता हैं। इस कारण प्राप्य, विक्रार्य और निवर्त्य तीन प्रकारके व्याप्य लक्षण वाले परद्रव्यपरिणामरूप कर्मको न करते हुए व अपने परिणामको जानते हुए भी ज्ञानोका पुद्गलके साथ कर्तृ. कर्मभाव नहीं है । भावार्थ स्वपरभेदविज्ञानी पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तक अपने परिणामको Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार १६४ व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य स्वपरिणाम जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः ॥७॥ णमति-वर्तमान लद मध्यम पुरुष एक० । न-अव्यय । गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल । उत्पद्यतेवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । न-अन्यय । परद्रव्यपर्याधे-सप्तमी एक० । शानी-प्रथमा एक० कर्ता। जानन्-प्रथमा एक० कृदन्त । अपि-अव्यय । खलु-अव्यय । स्वकपरिणाम-द्वितीया एक० । अनेकविध-- द्वितीया एकवचन ।।७७|| जानता भी हो तो भी परद्रव्यका, पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि पुद्गलफर्मको जानता भी है । ज्ञानी तो भी पुद्गलकमके साथ जीवका कर्तृकर्मभाव नहीं है। इस विवरणके जाननेके बाद यह जिज्ञासा होती है कि पुद्गलकर्मके साथ क्षयोपशमादिका निमित्त पाकर हुए संकल्प-विकल्प नादि अपने परिणामको तो जीव जानता है फिर तो उस जीवका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृ.। कर्मभाव होना ही चाहिये । इस जिज्ञासाका समाधान करनेके लिये यह गाथा कही गई है। तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलकर्मके क्षयोपशमसे या उदयसे हुए संकल्प-विकल्परूप प्रात्मपरिणामको राग सुख-दुःख आदि आत्मपरिणामको यह जीव जानता है, फिर भी यह पुद्गलकर्मका न कर्ता है, न कर्म है। (२) पुद्गलकर्म तो अपने विपाकोदयादि अवस्थाका कर्ता है, जीवपरिणामका कर्ता नहीं है । (३) कर्मके बन्ध, विपाक प्रादि परिणमन कर्ममें हो व्याप्य, विकार्य व निर्वत्यै हैं । (४) जीबके संकल्प-विकल्प सुखवेदन दुःखवेदन प्रादि परिणाम जीवमें ही व्याप्य, विकार्य व निर्वयं हैं । (५) ज्ञेय ज्ञानमें प्रतिभासित हो यह ज्ञेयके प्रमेयत्व गुणका प्रताप है, ज्ञान ज्ञेयविषयक ज्ञान करे यह शानस्वभावकी वृत्ति है। सिद्धान्त-(१) पुद्गलकर्मविपाकोदयका निमित्त पाकर हुए सुख-दुःखादि जीवपरिरणामको जीव अनुभवता है । (२) जीवके सुख-दुःखादि परिणामके निमित्तभूत कर्मविपाकोदय। का कर्ता पुद्गलकम है । दृष्टि-- १- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) ! २-- सभेद अशुद्ध निश्चयः । नय (४६अ)। प्रयोग-पुद्गल कर्मसे भिन्न, पुद्गल कर्मनिमित्तक विकारविभावोंको मात्र जानकर उस ज्ञेयविकल्पसे भी हटकर अपने सहज अविकारस्वरूपमें लीन होनेका पौरुष करना ॥७॥ अब पूछते हैं कि पुद्गलकर्मके फलको जानते हुए जीवका पुद्गलके साथ कर्तृ कमभाव है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं- [ज्ञानी] ज्ञानी [अनंत] अनन्त [पुद्गलकर्मफल] । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १६५ पुद्गलकर्मफलं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति, किं न भवतीति चेत्विपरिणमदि हिदि उप्पज्जदि । परदव्यपज्जाए । गाणी जाणंती विहु पुग्गलकम्मफलमांतं ॥ ७८ ॥ ज्ञानी सुजानता भी पुद्गलकमोंके फल अनन्तोंको । · नहि परिरणमे न पाये, उपजे न परार्थभावों में ॥ ७८ ॥ नापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये। ज्ञानी जानन्नपि खलु पुद्गलकर्मफलमनंतं ॥७८॥ यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं कर्म पुद्मलद्रव्येण स्वयमंतव्यपिकेन भूत्यादिमध्यांतेषु व्याप्य तद्गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं जाननपि हि ज्ञानी स्वयंमंतर्व्यापको भूतवा बहिःस्थस्य परद्रव्यस्य परिणामं नामसंज्ञ - ण, वि, ण, प, परदव्वपज्जाय, पाणि, जाणंत, वि. हु, पुग्गलकम्मफल, अनंत । धातुसंज्ञ-परि-नमनश्रीभावे, गिरह ग्रहणे, उव-पज्ज गती । प्रातिपदिक—न, अपि न नः परद्रव्यपर्याय, ज्ञानिन, जानत् अपि, खलु पुद्गलकर्मफल, अनन्त । मूलधातु परिणम प्रह्नत्वे ग्रह उपादाने क्रयादि, उत्-पद गतो दिवादि, ज्ञा अवबोधने, फल निष्पत्तौ भ्वादि । पविवरण- न-अव्यय । अपि-अव्यय । परिपुद्गलकर्मके फलोंको [ जानन् अपि ] जानता हुआ भी [ खलु] निश्चयसे [परद्रव्यपर्याये ] परद्रव्यके पर्याय में [नापि ] न तो [ परिणमति ] परिणमन करता है [ न गृह्णाति ] न उसमें कुछ ग्रहण करता तथा [न उत्पद्यते ] न उसमें उपजता है । तात्पर्य - प्रात्मा पुद्गलकर्मके फलको जानता है तो भी उसका पुद्गलकर्मके साथ कर्ता कर्मभाव नहीं है । टोकार्थ -- जिस कारण प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसे जिसका लक्षण व्याप्य है ऐसा तीन प्रकारका सुखदुःखादिरूप पुद्गलकर्मका फल जो कि स्वयं अंतर्व्यापिक होकर, प्रादि मध्य अंत में व्याप्त होकर ग्रहण करते हुए, उसी प्रकार परिणमन करते हुए तथा उसी प्रकार उत्पन्न होते हुए पुद्गल द्रव्यके द्वारा क्रियमाणको जानता हुआ भी ज्ञानी, आप अंतर्व्यापक होकर बाह्य स्थित परद्रव्यके परिणामको मिट्टी मोर घड़ेकी भांति श्रादि, मध्य और अन्त में व्याप्त कर नहीं ग्रहण करता, उस प्रकार परिणमन भी नहीं करता तथा उस प्रकार उत्पन्न भी नहीं होता ? इस कारण प्राप्य विकार्य घोर निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्यके परिणामरूप कर्मको नहीं करते हुए, मात्र सुख-दुःखरूप कर्मके फलको जानते हुए भी ज्ञानीका पुदगलके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । भावार्थ- नैमित्तिक भावको जानता हुमा भी जीव न निमित्तका कर्ता है और न निमित्तका कर्म ( कार्य ) है । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि जीव कर्मविपाकादिनिमित्तक Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ समयसार मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वारणस्य सुखदुःखादिरूपं पुद्गलकर्मफलं जानतोपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः ॥७८॥ णमति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न अध्यय । गृह्णाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । उत्पद्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । न-अव्यय । परद्रव्यपर्याय - सप्तमी एक ज्ञानी-प्रथमा एक० कर्ता । जानन् - प्रथमा एक० कृदन्त । अपि अव्यय । खलु अव्यय । पुद्गलकर्मफल- द्वितीया एकवचन | अनन्तं द्वितीया एकवचन || ७८ ॥ अपने परिणामको जानता हुआ भी पुद्गलकर्मका न कर्ता है, न कर्म है । इस विवरणके जानने के बाद यह जिज्ञासा होती है कि जब पुद्गलकर्मके फलको जीव जानता है, अनुभवता है तब उस जीवका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृकर्मभाव क्यों नहीं होता ? इस जिज्ञासा के समाधान में यह गाथा आई है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) सुख - दुःखादिरूप पुद्गलकर्मविपाक पुद्गलमें ही प्राप्य, विकार्य, निर्वत्य है । (२) सुख-दुःखादिरूप पुद्गलकर्मविपाकका सान्निध्य पाकर जो तदनुरूप प्रतिफलन उपयोग में हुआ वह प्रतिफलन जीवमें व्याप्य विकार्य व निर्वत्यं है । (३) पुद्गलकर्मफलका जाननहार होकर भी जीव पुद्गलकर्मका न कर्ता है न भोक्ता है । सिद्धान्त - - ( १ ) जीव पुद्गलकर्मफलका जाननहार है । ( २ ) जीव पुद्गल कर्मफलविषयक ज्ञेयाकार परिणत मात्र अपने को जानता है । ( ३ ) जीव पुद्गलकर्मका न कर्ता है, न भोक्ता है । दृष्टि - १- अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार ( १०५ ) । २- कारककारकि भेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । प्रतिषेधक शुद्धनय ( ४६८ ) । प्रयोग - कर्मफलको कर्ममें अन्तर्व्याप्य निरखकर उसके प्रतिफलनसे प्रभावित न होकर अपने अविकार सहज ज्ञानस्वभाव में परमविश्राम करनेका पौरुष करना ॥७८॥ अब यहाँ पूछते हैं कि जीवके परिणामको तथा अपने परिणामको और अपने परिगामके फलको नहीं जानने वाले पुद्गलद्रव्यका जीवके साथ कर्तृकर्मभाव है या नहीं उसका उत्तर कहते हैं [ पुद्गलयं श्रपि ] पुद्गल द्रव्य भी [परद्रव्यपर्याये] परद्रव्यके पर्याय में [तथा ] उस प्रकार [नापि ] नहीं [ परिणामति] परिणमन करता है, [ न गृह्णाति ] उसको ग्रहण भी नहीं करता और [न उत्पद्यते ] न उत्पन्न होता है, किन्तु [ स्वर्क: भावः ] अपने भावोंसे हो [ परिणमति ] परिरणमन करता है । तात्पर्य -- जैसे जीवका पुद्गल के साथ कर्तृकर्मभाव नहीं, इसी प्रकार पुद्गलद्रव्यका Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माधिकार १६७ जीवपरिणामं स्वपरिरणामं स्वपरिणामफलं वाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य सह जीवेन कर्तृकर्ममावः किं भवति किं न भवतीति चेत्- विपरिणमदि गिहृदि उत्पज्जदि ग परदव्वपज्जाए । पुग्गलदव्वं पि तहा परिणामह सएहिं भावेहिं ॥ ७६ ॥ पुद्गलकर्म भी तथा परिणमता है स्वकीय भावों में । नहि परिणमे न पावे, उपजे न परार्थभावोंमें ॥७६॥ मापि परिणमति न गृह्णात्युत्पद्यते न परद्रव्यपर्याये | पुद्गलद्रव्यमपि तथा परिणमति स्वकैर्भावैः ॥७९॥ यतो जीवपरिणामं स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं वाप्यजानत् पुद्गलद्रव्यं स्वयमंतप भूत्वा परद्रव्यस्य परिणामं मृत्तिकाकलशमिवादिमध्यांतेषु व्याप्य न तं गृह्णाति न तथा परिणमति न तथोत्पद्यते च । किंतु प्राप्यं विकार्यं निर्वत्यं च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वय नामसंज्ञण, वि, ण, ण, परदम्बपज्जाय, पुग्गलदव्य, पि, तहा, सय, भाव। धातुसंज्ञ-परि-नम नत्रीभावे, गिन्ह ग्रहणे, उव-पज्जगत। नि, अनि न व्यर्थ्याय, पगलद्रव्य, अपि, तथा, स्वक, भाव । मूलधातु परिणम प्रहृत्वे, ग्रह उपादाने, उत्-पद गती, बृ गतौ स्वादि, परि-अय भी जीवके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । 3 टीकार्थ -- जिस कारण जीवके परिणामको अपने परिणामको तथा अपने परिणाम के फलको न जानता हुआ पुद्गलद्रव्य परद्रव्य (जीव ) के परिणामरूप कर्मको मृत्तिका कलशकी तरह भाप अंतयपिक होकर श्रादि, मध्य और अन्तमें व्याप्त कर नहीं ग्रहण करता उसो प्रकार परिणमन भी नहीं करता है तथा उत्पन्न भी नहीं होता है, परन्तु प्राप्य विकार्य श्रीर निर्वत्र्यरूप व्याप्यलक्षण अपने स्वभावरूप कर्मको अन्तव्यपक होकर आदि, मध्य और अन्त में व्याप्य उसीको ग्रहण करता है, उसी प्रकार परिणत होता है तथा उसी प्रकार उपजता है । इस कारण प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्यरूप व्याप्यलक्षण परद्रव्य (जीव ) के परिणामस्वरूप कर्मको न करते हुए जीवके परिणामको अपने परिणामको तथा अपने परिणामके फलको नहीं जानते हुए पुद्गलद्रव्यका जीवके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । भावार्थ -- यदि कोई माने कि पुद्गल जड़ है वह किसीको जानता नहीं, यतः उसका जीवके किन्तु यह बात नहीं है । परमार्थसे परद्रव्यके साथ किसीके कर्तृ कर्मभाव नहीं है । साथ कर्तृकर्मभाव हो जायगा, अब इस अर्थका काव्य कहते हैं-- ज्ञानी इत्यादि । श्रर्थ -- ज्ञानी तो अपनी और पर की दोनोंकी परिगातिको जानता हुआ प्रवृत्त होता है तथा पुद्द्मलद्रव्य अपनी और परकी दोनों ही परितियोंको नहीं जानता हुआ प्रवृत्त होता है । वे दोनों परस्पर अन्तरंग व्याप्य व्यापक भावको प्राप्त होने में असमर्थ हैं, क्योंकि दोनों भिन्न द्रव्य हैं सदाकाल उसमें अत्यन्त भेद है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ समयसार मंतापकं भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणति तथैवोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं परद्रयपरिणाम कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणाम स्वपरिरणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः । ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणति पुद्गलश्चाप्यजानन्, व्याप्तृव्याप्यत्व मंतः कलयितुमसही नित्यमत्यंतभेदात् । अज्ञानात्क कर्मभ्रमतिरनयो ति तावन्न यावत्, विज्ञानाश्चिश्चकास्ति क्रकचवददयं भेदमु. त्पाद्य सदा ॥५०॥ ॥६!! गतौ भ्वादि, पूरी अप्यायने दिवादि, गल अपने भ्वादि । पदविवरण-न-अव्यय । अपि-अव्यय । परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न-अव्यय | गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न-अव्यय । परद्रव्यपर्याये-सप्तमी एक० । पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक० अपि-अव्यय । तथा-अव्यय । परिणमति, स्व:-तृतीया बहुवचन स्वार्थे कः। भाव:-तृतीया बहुवचन-७१।। अतः इनके कर्तृ कर्मभाव मानना भ्रमबुद्धि है । सो जब तक इन दोनोंमें करोतकी तरह निर्दय होकर उसी समय भेदको उपजाकर भेदज्ञान प्रकाश वाला ज्ञान प्रकाशित नहीं होता, यह भ्रमबुद्धि तभी तक है। भावार्थ-भेदज्ञान होनेके बाद पुद्गल और जीवके कर्तृकर्मभावको बुद्धि नहीं रहती, क्योंकि भेदज्ञान नहीं होने तक ही अज्ञानसे कर्तृकर्मभावकी बुद्धि रहती है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थल में जीव जीवके ही विषयमें यह बताया गया था कि जीव पुद्गलकर्मको, पुद्गलकर्मफलको व अपने परिणामको जानता है तो भी उसका पुद्गलकर्मके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । इस विवरणके सुनने के बाद यह जिज्ञासा होती है कि जीवपरिणामको, अपने परिणमनकों और अपने विपाकको न जान सकने वाले पुद्गलद्रव्य का जीव के साथ कर्तृकर्मभाव है या नहीं ? इसके समाधान में यह गाथा दी गई है । तथ्यप्रकाश-(१) पुद्गलकर्म अचेतन है वह न जीवके परिणामको जान सकता है, न अपने (पुद्गलकर्मके) परिणमनको जान सकता है, न अपने (कर्मके) बिपाकको जान सकता है। (२) पुदगलकम अपने परिणमन में ब अपने अनुभागमें ही अन्तापक है वह जीवके परिणामको न ग्रहण कर सकता, न जीवपरिणामरूप परिणम सकता है, न जीवपरिणामरूपसे उत्पन्न हो सकता है । (२) पुद्गलद्रव्य जीवपरिणामका कर्ता नहीं है । सिद्धान्त-(१) पुद्गलकार्मागस्कन्ध अपने ही प्रकृतिस्थिति प्रदेश अनुभागरूप में वर्तता है । (२) जीव संसारदशामें कर्मदशानुरूप अपने उपयोगके परिणमनस्म परिणमता है । (३) पुद्गलद्रव्य जीवके परिणामका न कर्ता है, न भोक्ता है। दृष्टि-- १- सभेद अशुद्ध निश्चयनय (४७५) । २- सभेद प्रशुद्ध निश्चयनय Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १६६ .. जीवपुद्गलपरिणामयोरन्योन्यनिमित्तमानत्वमस्ति तथापि न तयोः कर्तृकर्मभाव इत्याह जीवपरिणामहेदु कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ ॥८॥ गणवि कुब्वइ कम्मगुणे जीवो कम्मं तहेव जीवगुणे । अण्णोरणणिमित्तेण दु परिणाम जाण दोहम्पि ॥८१॥ एएण कारणेण दु कत्ता आदा सणए भावेण । पुग्गलकम्मकयाणं ण दु कत्तो सवभावामां ॥२॥ जीवविभावनि कारण, पुद्गल कमत्वरूप परिणमते । पुद्गलविधिके कारण, तथा यहां जीव परिणमता ॥५०॥ जीव नहि कर्मके गुण, करता नहि जीव कमके गुरणको । मान्योन्यनिमित्तोंसे, उनके परिणाम होते हैं ॥१॥ इस कारणसे पात्मा, कर्ता होता स्वकीय मायोंका । नहि कर्ता यह पुदगल, कर्मविहित सर्वभावोंका ॥२॥ जीवपरिणामहेतु कर्मत्वं पुद्गला: परिणमंति । पुद्गल कर्मनिमित्तं तथैव जीवोपि परिणमति । नापि करोति कर्मगुणान् जीवः कर्म तथैव जीवगुणान् । अन्योन्यनिमित्तेन तु परिणाम जानीहि द्वयोरपि । एतेन कारणेन तु कर्ता आत्मा स्वकेन भावेन । पुद्गलकर्मकृतानां न तु कर्ता सर्वभावानां । यतो जीवपरिणाम निमित्तीकृत्य पुद्गलाः कर्मक्षेन परिणमंति पुद्गलकर्म निमित्तीकृत्य जीवोपि परिणमतीति जोवपुद्गलपरिणामयोरितरेतरहेतुत्वोपन्यासेपि जीवपुद्गलयोः परस्परं नामसंज- जीवपरिणामहेदु, कम्मत्त, पुग्गल, पुग्गलकम्मणिमित्त, तह, एव, जीव, वि, ण, वि, कम्मगुण, जीव, कम्म, तह, एव, जीवगुण, अण्णोणणिमित्त, दु, परिणाम, दु, वि, एत, कारण, दु, कत्तु, अत्त, सय, भाव, पुग्गलकम्मकय, ण, दु, कत्तु, सव्वभाव । धातुसंज्ञ-परि-नम नम्रीभावे, कुव्व करणे, जाण अवबोधने । प्रकृतिशम्द---जीवपरिणामहेतु, कर्मत्व, पुद्गल, पुद्गलकर्मनिमित्त, तथा, एव, जीव, अपि, न, अपि, कर्मगुण, जीव, कर्मन्, तथा, एक, जीवगुण, अन्योन्यनिमित्त, तु, परिणाम, द्वि, अपि, एतत्, (४७) । ३- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। प्रयोग--अपने हो परिणमनसे परिणमने वाले पुद्गलकर्मके प्रतिफलनमें रंच भी लगाव न रखकर अपने अविकार सहज ज्ञानस्वरूप में स्वत्व अनुभवनेका पौरुष करना ॥७९॥ अब कहते हैं कि जीवके परिणाममें और पुद्गलके परिणाममें परस्पर निमित्तमात्रता है तो भी उन दोनों में कर्तृकर्मत्व नहीं है-[पुद्गलाः] पुद्गल [जीवपरिणामहेतु] जीवके परिणामका निमित्त पाकर [कर्मत्यं] कर्मत्वरूप [परिणमंति] परिणमन करते हैं [तया एवं] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार व्याप्यच्यापकभावाभावाज्जीवस्य पुद्गलपरिणामानां पुद्गलकर्मणोपि जीवपरिणामानां कर्तृ कर्मस्वासिद्धौ निमित्तनैमित्तिकभावमांत्रस्याप्रतिपिद्धत्वादितस्तरनिमित्तमात्रीभवनेनैव योरपि परिणामः । ततः कारणान्मृत्तिकया कलशस्येव स्वेन भावेन स्वस्य भावस्थ करणजिनीवः स्वभावकारण, तु, कर्तृ, आत्मन्, स्वक, भाव, पुद्गलकर्मकृत, न, तु, कर्तृ सर्वभाव । मूलधातु - जीव प्राणधारणे, परिणम प्रवत्वे. नि-त्रिमिदा स्नेहने भ्वादि, नि-जिमिदा स्नेहने दिवादि, अत सातत्यगमने। पदविवरण जीवपरिणामहेतु-द्वितीया एक ० । कर्मत्व-द्वि० ए० । पुद्गला:-प्रथमा बहु० कर्ता । 'परिणमन्तिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । पुद्गलकर्मनिमित-द्वितीया एक० । तथा अव्यय । गव-अव्यय । जीव:उसी प्रकार [जीवः अपि] जीव भी [पुद्गलकर्मनिमित्तं पुद्गलकर्मका निमित्त पाकर [परिणमति] परिणमन करता है । तो भी [जीवः] जीव [कर्मगुणान] कर्मके गुणोंको [नापि] नहीं [करोति] करता [तथैव] उसी भांति [कर्म] कर्म [जीवपुरणान्] जीवके गुणों को नहीं करता। [तु] किंतु [द्वयोरपि] इन दोनोंके [अन्योन्यनिमित्तेन] परस्पर निमित्तमात्रसे [परिणाम] परिणाम [जानीहि] जानो [एतेन कारणेन तु] इसी कारणसे [स्वकेन भावेन] अपने भावोंसे [प्रात्मा] आत्मा [फर्ता] कर्ता कहा जाता है [तु] परंतु [पुद्गलकमंकृताना] पुद्गल कर्म द्वारा किये गये [सर्वभावानां] समस्त हो भावोंका [कर्ता न] कर्ता नहीं है । तात्पर्य-जीवभाव व पुद्गलकर्म में परस्पर निमित्तनैमित्तिकभाव तो है, किन्तु उनमें परस्पर कर्तृकर्मभात्र रंच भी नहीं है । टोकार्थ-जिस कारण जीवपरिणामको निमित्तमात्र करके पुद्गल कर्मभावसे परिण__णमन करते हैं और पुद्गलकर्मको निमित्तमात्र कर जीव भी परिणमन करता है। ऐसे जोव के परिणामका तथा पुद्गलके परिणामका परस्पर हेतुत्वका स्थापन होनेपर भी जीव और पुद्गलके परसार व्याप्यव्यापक भावके अभावसे जीवके तो पुद्गलपरिणामोंका और पुद्गलकर्मके जीवपरिणामोंका कर्तृकर्मपनेकी प्रसिद्धि होनेपर निमित्तनैमित्तिक भावमात्रका निषेध नहीं है, क्योंकि परस्पर निमित्तमात्र होनेसे ही दोनोंका परिणाम है। इस कारण मृत्तिकाके कलशकी तरह अपने भाव द्वारा अपने भावके करनेसे जीव अपने भावका कर्ता सदा काल होता है । तथा मृत्तिका जैसे कपड़ेकी कर्ता नहीं है, वैसे ही जीव अपने भाव द्वारा परके भावोंके करनेकी असमर्थतासे पुद्गलके भावोंका तो कर्ता कभी नहीं है ऐसा निश्चय है। भावार्थ-जीव और पुद्गलके परिणामोंकी परस्परनिमित्तमात्रता है तो भी उनमें परस्पर कर्तृकर्मभाव नहीं है । पुद्गलकर्मविपाकके निमित्तसे जो जीवके भाव हुए उन आवोंका कर्ता तो जीवको अज्ञान दशामें कदाचित कह भी सकते हैं, लेकिन जीव परभावका कर्ता कभी नहीं हो सकता। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १७१ स्य कर्ता कदाचित्स्यात् । मृत्तिकया · वसनस्येव स्वेन भावेन परभावस्य कर्तु मशक्यत्वात्पुद्गल. भावानां तु कर्ता न कदाचिदपि स्यादिति निश्चयः । ततःस्थितमेतञ्जीवस्य स्वपरिणामैरेय सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्च ।।८०.८२।। प्रशास' जनन दर्ता : अभि-जनम ! परिणालि वर्तमान अन्य पूरुप एक० । करोति-वर्तमात लट् अन्य पुरुष एक० । कर्मगुणान्-द्वितीया बह० । जीव:-प्रथमा एकल । कर्म-प्रथमा एक० । जीवगुणान-द्वितीया बहु । अन्योन्यनिमितेन-तृतीया एक० । तु, परिणाम-द्वितीया एक० । जानीहिन्लोद आजा मध्यम पुरष एक । यो:-पाठी द्विवचन । एतेन-तृतीया एक० । कारणेन-तृ० एक० । कर्ता-प्रथमा एक । आमाप्रथमा एक । स्वत्रेन-तृतीया एक० । भावेन-तृतीया एक० । पुद्गलकर्मकृताना-पाठी बहु ! कर्ताप्रथमा एक० । सर्वभावानां-पप्ठी बहुवचन ।। ८०-८२ ॥ प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व स्थलमें जीवका व पुद्गलकर्मका परस्पर कर्तृ कर्मभाव होता ही नहीं है इसका भले प्रकार सबिवरण वर्णन किया। इसके सुनने पर यह जिज्ञासा होती कि किसी भी पदार्थमें परसम्पर्क बिना विकार ही नहीं होता, यदि परसंग बिना विकार होने लगे तो विकार स्वभाव बन बैठेगा फिर तो विकार कभी नष्ट भी न होगा, संसार ही सदा रहेगा, मुक्ति भी न हो सकेगो । तो विकार कैसे होता इसका समाधान इन ३ गाथाबों में किया ग" है। तथ्यप्रकाश--- १- जीवके कषायभाव व योगका निमित्त पाकर पुदगल काणिवर्गणायें कर्मरूप परिणम जाती हैं । २--पद्गल कर्मोदयका निमित्त पाकर जीव विभावपरिणाम रूप परिणम जाता है । ३–जीवविभाव व कर्मत्वपरिणाममें निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी परस्पर कर्तृकमत्व बिल्कुल नहीं है । ४- जीव अपने परिणाममें ही व्यापक है अतः जीव अपने परिणामका ही कर्ता भोक्ता है। सिद्धान्त-१- पुद्गल कर्मप्रकृतिके विपाकोदयसे जीव विकाररूप परिणमता है। २-जीवविभाव उस समय जीवमें ही व्याप्य है अतः जीवविभाव जीवका वर्म है । ३- कर्मत्व उस समय कार्माण वर्गणामें ही व्याप्य है, अतः कर्मत्व पुद्गलकार्माणवर्गणाका कर्म है । दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याधिकनय (२४) । २- अशुद्ध निश्चरनय (४७) । ३- कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३अ)। प्रयोग--विकारोंको नैमित्तिक जानते हुए अस्वरूप जानकर तथा निमित्ताधीन न जानते हुए अपनी भूल पहिचानकर प्रज्ञान हटाकर अविकार सहजज्ञानस्वरूप में रमनेका पौरुष करना ।। ८०-८२ ।। उपर्युक्त हेतुसे यह सिद्ध हुआ कि जीवका अपने परिणामोंके ही साथ कर्तृकर्मभाव Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ समयसार च्छियणस्स एवं यादा अप्पाणमेव हि करेदि । वेदयदि पुणो तं चैव जाण यत्ता दु अत्ताणं ॥ ८३ ॥ निश्चयनयदर्शन में श्रात्मा करता है आत्माको हो । अपने ही श्रात्मा अशुभता भयो जान निश्चयनयस्यैवमात्मानेव हि करोति । वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानं ||३|| यथोत्तरंग निस्त रंगावस्थयोः समीरसंचरणासंचररणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोव्यप्यव्यापकभावाभावात्कर्ता कर्मत्वासिद्धौ पारावार एव स्वयंमंतर्व्यापका भूत्वादिमध्यांतेषूत्तरंगनिस्तरंगावस्थे व्याध्योत्तरंग निस्तरंग स्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरंग निस्तरंग स्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभाति न पुनरन्यत् । तथा ससंसार निः संसारावस्थयोः नामसंज्ञ - च्छिणय, एवं, अत्त, अप्प, एव, हि, पुणो, त, च, एव, अत्त, दु, अत्त । धातुसंज्ञकर करणे, वेद वेदने, जाण अवबोधने : प्रातिपदिक निश्चयनय, एवं आत्मन्, आत्मन् एव हि पनर् भोभोग्यभाव है, यह अब आगेकी गाथा में कह रहे हैं - [ निश्चयनयस्य ] निश्वयनय के मतमें [एवं ] इस प्रकार [ श्रात्मा] श्रात्मा [ श्रात्मानं एव हि ] अपने को ही [ करोति ] करता है [तु पुनः ] और फिर [ श्रात्मा] वह श्रात्मा [तं चैव श्रात्मानं] अपनेको हो [ वेदयते ] भोगता है ऐसा तू [जानीहि ] जान । तात्पर्य - - वस्तुत: आत्मा अपने परिणमनका ही करता है और अपने परिणमनको हो भोगता है । टोकार्थ जैसे पत्रनके चलने और न चलनेका निमित्त पाकर तरंगों का उठना श्रीर विलय होना रूप दो अवस्था होनेपर भी पवन और समुद्र के व्याप्यव्यापकभाव के अभाव से कर्ताकर्मपकी प्रसिद्धि होनेपर समुद्र ही श्राप उन अवस्थायोंमें अंतयनिक होकर प्रादि, मध्य और अंत में उन अवस्थाओं में व्याप्त होकर उत्तरंगनिस्वरंग रूप अपने एकको हो करता हुआ प्रतिभासित होता है, किसी दूसरेको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता थोर जैसे कि वही समुद्र उस पवन और समुद्रके भाव्यभावक भावके प्रभाव से परभावको पररूपसे अनुभव करने के सामर्थ्य से उत्तरंग निस्तरंगस्वरूप अपने को ही अनुभवता हुआ प्रतिभासित होता है, अन्य को प्रभवता हुआ प्रतिभासित नहीं होता । उसी प्रकार पुद्गलकर्मके उदयके होने व न होने का निमित्त पाकर जीवको ससंसार और निःसंसार ये दो अवस्था होनेपर भी पुद्गलकर्म और जीवके व्याप्यव्यापकभाव के प्रभाव से कर्ता कर्मरूपकी प्रसिद्धि होनेपर जीव ही आप अंतव्यपक Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार पुद्गलकर्मविपाकसंभवासंभवनिमित्तयोरपि पुद्गल कर्मजीवयोव्याप्यव्यापकभावाभावात्कत कर्मस्वासिद्धौ जीव एव स्वयमतव्यापको भूत्वादिमध्यांतेषु ससंसारनिःसंसारावस्थे व्याप्य ससंसारं निःसंसारं वात्मान कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभातु मा पुनरन्यत् । तथायमेव च भाव्यतत् च एव, आत्मन्, आत्मन् । मुलधातु.. निस्-चि इये, अत सातत्यगतौ, डुकृञ् करणे, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि। पदविवरण --निश्चयनयश्य-षष्ठी एक० । एवं-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एकवचन । आत्मानं-द्वितीया एक० । एउया । हिसारय । सरोसिना लाइ अन्य पुरुष एक० । वेदयतेहोकर प्रादि, मध्य और अन्त में ससंसार निःसंसार अवस्थामें व्याप्त होकर ससंसार निःसंसार रूप प्रात्माको करता हुअा अपने एकको ही करता हुप्रा प्रतिभासित होो, अन्यको करता हुमा प्रतिभासित मत होयो । उसी प्रकार यह जीव भाव्यभावकभावके प्रभावसे परभावको परके द्वारा अनुभव करनेकी असामर्थ्य होनेसे ससंसार निःसंसार रूप एक अपनेको ही अनुभवता हुप्रा प्रतिभासित होओ, अन्यको करता हुवा प्रतिभासित मत होनो । भावार्य-प्रात्माकी ससंसार निःसंसार अवस्था परद्रव्य पुद्गल कर्मक सद्भाव व प्रभावके निमित्तसे है, वहाँ उन अवस्थारूप प्राप ही यह प्रात्मा परिणमन करता है इसलिये प्रात्मा अपना ही कर्ता भोक्ता है, निमित्तमात्र जो पुद्गलकर्म है, उसका कर्ता भोक्ता नहीं है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व तीन गाथावों में बताया था कि जोवपरिणाम व पुद्गल कर्ममें परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव होनेपर भी उनमें कर्तृकर्मत्व व भोवतृभोग्यत्व नहीं है । इस विवरणको सुनकर यह जिज्ञासा होती है तो फिर निश्चयसे प्रारमा किसे करता है व किसे भोगता है, इसका समाधान इस गाथामें किया गया है । तथ्यप्रकाश-- १- निमित्तनैमित्तिकमें व्याप्यव्यापकभाव नहीं होता । २- उपादान उपादेयमें ही व्याप्यव्यापक भाव होता है । ३- निमित्तसान्निध्य में होने वाला नैमित्तिक निमित्तका प्रभाव होनेपर हट जाता है । ४-- जोवकी शुद्ध व अशुद्ध अवस्थायें जीवमें व्याप्प हैं अतः जीवको परिणतियोंका जीव ही कर्ता है व जीव ही भोक्ता है। ___ सिद्धान्त----१-जीववी ससंसार अवस्था पुद्गलकर्मविपाकसंभवनिमित्तक है । २-जीव को निःसंसार अवस्था पुद्गलकर्मविपाकासंभवनिमित्तक है । ३--जीवको अवस्था जीवमें अन्तर्याप्य होनेसे जीव अपनी अवस्थाका ही कर्ता भोक्ता है। दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । २-उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्या. थिकनय (२४प्र)। ३-कारककारकिभेदक सद्भुतव्यवहारनय (७३), कारक कारकिभेदक प्रशुद्ध सद्भूतव्यवहारनय (७३ प्र) । प्रयोग--विकारोंको नैमित्तिक जानकर उनसे उपेक्षा करके अपनी शुद्ध परिणतिके Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ समयसार भावकभावाभावात् परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वात्ससंसारं निःसंसार वात्मानमनुभवन्नास्मानमेकमेवानुभवन् प्रतिभातु मा पुनरन्यत् ।।८३।। वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । पुन:-अव्यय । तं-द्वितीया एक । च-अव्यय । एव-अव्यय । जानीहिआज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक । आत्मा-प्रथमा एक । तु-अव्यय । आत्मानं-द्वितीया एकवचन ।।३।। अर्थ सहजशुद्ध स्वभावमें दृष्टि रखना चाहिये ।।३।। प्रब व्यवहारको दिखलाते हैं:-[तु व्यवहारस्य] परंतु व्यवहारनयके दर्शनमें [पात्मा] प्रात्मा [नेकविध] अनेक प्रकारके [पुद्गलकर्म] पुदगल कर्मको [करोति ] करता है [पुनः] और फिर [तदेष] उस ही [अनेकविध] अनेक प्रकारके ]पुद्गलकम] पुद्गलकर्म को वेदयते] भोगता है। तात्पर्य-निमित्तनैमित्तिकभाव होने के कारण प्रात्मा व्यवहारनयसे पुद्गलकर्मको करता है व पुद्गल कर्मको भोगता है। ___टोकार्थ-जैसे अन्ताप्यव्यापकभावसे मिट्टी घड़ेको करती है तथा भाव्यभावकभाव से मिट्टी घड़ेको भोगती है तो भी बाह्य व्याप्यव्यापकभावसे कलश होनेके अनुकूल व्यापारको अपने हस्तादिकसे करने वाला तथा कलशमें भरे जलके उपयोगसे हुए तृप्तिभावको भाव्यभावक भावसे अनुभव करने वाला कुम्हार इस कलशको बनाता तथा भोगता है, ऐसा लोकोंका अनादिसे प्रसिद्ध व्यवहार रहा है। उसी प्रकार अन्तप्प्यापकभावसे पुद्गलद्रव्य पोद्गलिक कर्मको करता है और भाव्यभावक भावसे पुद्गल द्रव्य ही उस कर्मको अनुभवता (भोगता) है तो भी बाह्य व्यायव्यापकभावसे अज्ञानसे पुद्गल कर्मके होनेके अनुकूल अपने रागादि परिजामको करता हुमा और पुद्गलकर्मके उदय होने से उत्पन्न विषयोंकी समीपतामें होने वाली अपनो सुखदुःखरूप परिणतिको भाव्यभावकभावसे अनुभव करने वाला जीव पुद्गलकर्मको करता है और भोगता है । ऐसा अज्ञानी लोकोंका प्रनादिसंसारसे व्यवहार प्रसिद्ध है। ___ भावार्थ--- परमार्थसे पुद्गलकर्मको पुद्गलद्रव्य ही करता है और पुद्गलकर्मके होने के अनुकूल अपने रागादिपरिणामोंको जीव करता है, उसके इस निमित्तनैमित्तिकभावको देखकर मज्ञानी जीवको यह भ्रम हो जाता है कि जोव ही पुद्गल कर्मको करता है । सो यह अनादि प्रज्ञानसे प्रसिद्ध व्यवहार है। और जब तक जीव व पुद्गलका भेदज्ञान नहीं है, तब तक जीवको जीव व पुद्गलको प्रवृत्ति एक सरीखी दीखती है, श्रीगुरु महाराज दोनोंमें भेदज्ञान कराके परमार्थ जीवका स्वरूप दिखलाकर अज्ञानीके प्रतिभासको व्यवहार कहते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि निश्चयनय के सिद्धान्त में प्रात्मा अपने प्रात्माको ही करता है व. अपने प्रात्माको ही भोगता है । इस कथनपर यह Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ कर्तृकर्माधिकार अथ ध्यवहारं वर्शयति - ववहारस्स दु श्रादा पुग्गलकम करदि गायावह । तं चेव पुणों वेयइ पुग्गलकम्म अणेयविहं ॥४॥ व्यवहारके मतोंमें, कर्ता यह जोध विविध कर्मोंका । भोक्ता भी नानाविध, उन ही पौद्गलिक कर्मोंका ॥४॥ व्यवहारस्थ त्वात्मा पुद्गलकर्म करोति नैकविधं । तच्चत्र पुनवेदयते पुद्गलकमनिकविध ॥१४॥ यथांताप्यव्यापकभावेन मृत्तिकया कलशे क्रियमाणे भाच्यभावकभावेन मृत्तिकर्यवानु. भूयमाने च बहिव्ययित्यापकभावेन कलशसंभवानुकूल व्यापारं कुर्वाणः कलशकृततोयोपयोगजां तृप्ति भाव्यभावकभावनानुभवंश्च कुलालः कलशं करोत्यनुभवति चेति लोकानामनादिरूढोस्ति तावद्ध्यवहारः तयांताप्यव्यापकभावेन पुद्गलद्रव्येण कर्मणि क्रियमारणे भाव्यभावकभावेन पुद्गलद्रव्येणैवानुभूयमाने च बहियाप्यव्यापकभावेनाज्ञानात्पुद्गलकर्मसंभवानुकूलं परिणाम नामसंज्ञ-बबहार, दु, अत्त, पुग्गलकम्म, णेयविह, त, च, एब, पुणो, पुगलकम्म, अणेयविह । धातुसंजकर करणे, वेद वेदने । प्रातिपदिक-व्यवहार, तु, आत्मन्, पुद्गलकर्मन्, न, एकविध, तत्, च, एव, पुनः पुद्गलकर्मन्, अनेकविध । मूलधातु---दि-अव हुन हरणे भ्वादि, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, विध विधाने तुदादि । पदविवरण-व्यवहारस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एक० कर्ता । करोतिजिज्ञासा हुई कि तब फिर व्यवहारनयके सिद्धान्त में आत्मा किसको करता है व किसको भोगता है ? इसके समाधान में यह गाथा पाई है । तथ्यप्रकाश- १- अन्तव्ययिव्यापकभावसे पुद्गलकर्म उसी पुद्गलकार्माणध्यके द्वारा किये जाते हैं । २-- अन्तर्भाव्यभावकभावसे पुद्गलकर्मविपाक उसी पुद्गल कार्माणद्रव्य के द्वारा अनुभूयमान होता है। ३- बहिव्याप्यव्यापकभावसे पुद्गलकर्मसंभवानुकूल जीवपरिणाम होनेसे अज्ञानी जीवमें पुद्गलकर्म करनेका आरोप होता है । ४- बहिर्भाव्यभावकभावसे पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तक सुखदुःखपरिणामका अनुभव होनेसे अज्ञानी जीवमें पुद्गलकर्म के भोगनेका प्रारोप होता है। . __ सिद्धान्त--(१) पुद्गलकालबके निमित्तभूत जोवपरिणाममें (जीवमें) पुद्गलकर्मकर्तृत्वका प्रारोप होता है । (२) पुद्गलकर्मविपाकनिमित्तज मुख-दुःख परिणतिको अनुभवने वाले जीवमें पुद्गलकर्मभोक्तृत्वका आरोप होता है । दृष्टि--- १- परकर्तृत्व असद्भूतव्यवहार (१२६) । २- परभोक्तृत्व असद्भूतव्यवहार (१२८ अ)। प्रयोग---जीव पुद्गलकर्मको करता है, भोगता है, इस कथनमें निमित्त बतानेका Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कुर्वाणः पुद्गलकर्मविपाकसंपादितविषयसनिधिप्रधावितां सुखदुःखपरिणति भाव्यभावकभावेनानु. भवंश्च जोवः पुद्गलकर्म करोत्यनुभवति चेत्यज्ञानिनामासंसारप्रसिद्धोस्ति तावद्व्यवहारः ।।४।। वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । अनेकविध-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । पुदगलकर्म-द्वितीया एक० कर्म । तत्-द्वितीया एक० । च-अव्यय । एवं-अव्यय । वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । पुद्गलकर्म-द्वि० एक० । अनेकविध-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण ।।८४11 . प्रयोजनमात्र जानकर निमित्तनैमित्तिक भावसे उपेक्षा कर अपने प्रात्मस्वरूप में उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।।८४॥ अब इस उक्त व्यवहारको दूषित करते हैं:-[यदि] यदि [मात्मा] प्रात्मा [इदं] इस [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्मको [करोति ] करे [च और [तत् एवं] उसी को [वेदयते भोगे सो [सः] वह [विक्रियाव्यतिरिक्तः] आत्मा दो क्रियासे अभिन्न [प्रसजति] प्रसक्त होता है सो यह [जिनावमतं] जिनदेवका अवमत है याने जिनमतसे अलग है। तात्पर्य-प्रात्मा अपने परिणामको तो करता भोगता है ही, अब यदि यह मान लिया जाय कि प्रात्मा पुद्गलकर्मको भी करता है व पुद्गलकर्मको भी भोगता है तो यह जिनमत नहीं किन्तु पूर्ण मिथ्या है । . टीकार्थ-निश्चयतः यही सारी ही क्रिया परिणामस्वरूप होनेके कारण परिणामसे कुछ भिन्न वस्तु नहीं है और परिणाम भी परिणाम तथा परिणामी द्रव्य दोनोंकी अभिन्नवस्तुता होनेसे परिणामीसे पृथक नहीं है । इस प्रकार किया और क्रियावानकी अभिन्नता है । ऐसी वस्तुको मर्यादा होनेपर जैसे जीव व्याप्यव्यापकभावसे अपने परिणामको करता है और भाव्यभावकभावसे उसी अपने परिणामको अनुभवता है, भोगता है, उसी तरह व्याप्यव्यापक भावसे पुद्गलकर्मको भी करे तथा भाध्यभावकभावसे पुद्गलकर्मका ही अनुभव करे, भोगे तो अपनी प्रौर परकी मिली दो क्रियानोंका प्रभेद सिद्ध हुमा। ऐसा होनेपर अपने और परखे भेदका अभाव हुआ । इस प्रकार अनेकद्रव्यस्वरूप एक आत्माको अनुभवने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । परन्तु ऐसा वस्तुस्वरूप जिनदेवने नहीं कहा है, इसलिये जिनदेवके भतके बाहर है। भावार्थ-जो पुरुष एक द्रव्यको दो द्रव्योंकी क्रियानोंका कर्ता मानता है, यह मिथ्याष्टि है, क्योंकि दो द्रव्योंकी क्रिया एक द्रव्यसे मानना यह जिनदेवका मत नहीं है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जीव पुद्गलकर्मको करता है व भोगता है यह व्यबहारनयका मत है । अब उस व्यवहारको दूषण देनेके लिये यह माथा प्राई है। तथ्यप्रकाश--(१) परिणति क्रिया पर्यायसे भिन्न नहीं है । (२) पर्याय पर्यायवान Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार प्रथनं वूषयति जदि पुग्गलकम्ममिणं कुब्वदि तं चेव वेदयदि आदा। दो किरियावदिरित्तो पसज्जए सो जिणावमदं ॥८॥ यदि प्रास्मा करता है, पर भोगता पौद्गलिक कर्मोको। सो बोनों हि क्रियानों से सन्मयता प्रसस्त हुई ॥५॥ यदि पुद्गलकर्मेदं करोति तच्चैव वेदयते आत्मा । द्वित्रियाऽऽव्यतिरिक्तः प्रसजति स जिनावमतं ।।८ इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न नाम परिणामतोस्ति भिन्ना, परिणामोपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा कियावतो न भिन्नेति क्रियाकोरव्यतिरिक्ततायां वस्तुस्थित्या प्रतपत्यां यथा व्याप्यव्यापकभावेन स्वपरिणामं करोति, भाव्यभावकभायेन तमेवानुभवति च जीवस्तया व्याप्यव्यापकभावेन पुद्गलकर्मापि यदि कुर्यात भाव्यभावकभावेन तदेवानुभवेच्च ततो यं स्व. परसमवेतक्रियाद्वयाव्यतिरिक्ततायां प्रसजंत्यां स्वपरयो परस्परनिभागप्रत्तास्तम्जादने कामना मात्मानमनुभवन्मिध्यादृष्टितया सर्वशायमतः स्यात् ॥५॥ नामसंकजदि, पगलकम्म, इम, त, च, एव, अत्त, दोकिरियावदिरित, त, जिणावमद । धातुः संश-कुल्य करणे, वेद वेदने, प-सज्ज समवाये । प्रातिपविक-यदि, पुद्गलकर्मन्, इदम्, तत्, च, एव, आत्मन्, द्विक्रियाऽऽव्यतिरिक्त, तत्, जिनावमत । मूलधातु-विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, रिचिर विरे. चने धादि, रिच वियोजनसम्पर्चनयोः, प्र-षच समवाये । पबविवरण-यदि-अध्यय। पुद्गलकर्म-द्वितीया एकवचन । इदम्-द्वितीया एक० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । तत्-द्वितीया एक० । चअव्यय ! एव-अव्यय । वेदयते-वर्तमान लद् अन्य पुरुष एक० । आत्मा-प्रथमा एक० कर्ता । द्विक्रियाऽव्यतिरिक्त:-प्रथमा एक० । प्रसजति-वर्तमान लट् अन्य पु० एक० । स:-प्रथमा एक० । जिनावमत-प्रथमा एकवचन ।।८५॥ (द्रव्य) से भिन्न नहीं है । (३) किया क्रियागान (द्रव्य) से भिन्न नहीं है । (४) जीव अपनी हो क्रिया कर सकता है । (५) यदि जीय अपनेको भी करे, भोगे तथा पुद्गलकमको भी करे, भोगे तो यह जीव है या कर्म है यह विभाग ही न बन सकेगा और न यों कोई सत् रह सकेगा । (६) व्यवहारसे जीव पुद्गलकर्मको करता, भोगता है इसका अर्थ उपादानरूपसे नहीं है, किन्तु इससे मात्र निमित्तनमित्तिक भाव ही समझकर वस्तुत: जीवको मकर्ता निरखना। सिद्धान्त-(१) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको परिगति नहीं कर सकता । (२.) निमित्त बसाने के लिये एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यका कर्तृत्व प्रारोपित होता है। दृष्टि- १- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६) । २- परकर्तृत्व अनुपचारित प्रसद्भूतव्यबहार (१२९)। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ समयसार कुतो द्विक्रियानुभावी मिथ्यादृष्टिरिति चेत् जमा दु अत्तभावं पुग्गलभावं च दोवि कुब्बति । तेण दु मिच्छादिही दोकिरियावादिणो हुति ॥८६॥ चूकि उक्त मतहटमें, प्रात्माने स्वपरभाव कर डाला। सो दोकिरियावादी, मिथ्यादृष्टो हि होते थे ॥८६॥ यस्मात्त्वात्मभानं पुद्गलभावं च द्वापि कुर्वति। तेन तु मिथ्यादृष्टयो द्विक्रियावादिनो भवति ॥८६॥ यतः किलात्मपरिणामं पुद्गलपरिणामं च कुर्वतमात्मानं मन्यते द्विक्रियावादिनस्ततस्ते मिथ्यादृष्टय एवेति सिद्धांतः । मा चैकद्रव्येण द्रव्यद्वयपरिणामः क्रियमाणः प्रतिभातु । यधा किल मुलालः कलशसंभवानुकूलमात्मव्यापारपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति न पुनः कलशकरणाहकारनिर्भरोपि स्वव्यापारानुरूपं मृत्तिकायाः कलशपरिणामं मृत्तिकायाः अव्यतिरिक्तं मृत्तिकायाः प्रव्यतिरिक्तया परिण नामसंश-ज, दु, अत्तभाव पुग्गल भाव, च, दु, वि, त, दु, मिच्छादिवि, दोकिरियावादिण् । धातुसंश-कुव्व करणे, हो सत्तायां । प्रातिपरिक-यत्, तु, आत्मभाव, पुद्गलभाव, च, द्वि, अपि, तत्, तु, प्रयोग-पुद्गलकर्मके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे निराला प्रपना अन्तस्तत्त्व निरखकर इस निजमें ही शानदृत्ति बनाये रहनेका पौरुष करना ॥८॥ यहाँ प्रश्न उठता है कि दो क्रियानोंका अनुभव करने वाला पुरुष मिथ्यादृष्टि कैसे हो सकता है ? उसका समाधान करते हैं-[यस्मात तु] जिस कारण [प्रात्मभावं] प्रात्माके भावको [च] और [पुमलभावं] पुद्गलके भावको [द्वौ अपि] दोनों ही को प्रात्मा [कुर्वन्ति] करते हैं ऐसा कहते हैं [तेन तु] इसी कारण [द्विक्रियावादिनः] दो क्रियायोको एकके ही कहने वाले [मिथ्यादृष्टयः] मिथ्यादृष्टि ही [भवंति] हैं। टीकार्य-चूंकि द्विक्रियावादी प्रात्मा और पुद्गल दोनोंके परिणामोंका कर्ता प्रात्मा को मानते हैं, इस कारण वे मिथ्यादृष्टि हो हैं, ऐसा सिद्धान्त है । सो एक द्रव्यके द्वारा दोनों द्रव्योंका परिणमन किया जा रहा है, ऐसा मुझे प्रतिभासित मत होवे । जैसे कुम्हारके घड़े के होनेके अनुकूल अपना व्यापाररूप हस्ताद्रिक क्रिया तथा इच्छारूप परिणाम अपनेसे अभिन्न सया अपनेसे अभिन्नपरिणतिमात्रक्रियासे किये हुएको करता हुआ प्रतिभासित होता है और घट बनानेके अहंकारसे सहित होनेपर भी स्वव्यापारके अनुकूल मिट्टीसे अभेदरूप तथा मिट्टीसे मभिन्न मृत्तिकापरिणतिमात्र क्रिया द्वारा किये हुए मिट्टोके घटपरिणामको करता हुआ नहीं मालूम होता । उसी प्रकार प्रात्मा भी प्रज्ञानसे पुद्गलकर्मके अनुकूल अपनेसे अभिन्न, अपनेसे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार तिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाणः प्रतिभाति । तथात्मापि पुद्गलकमंपरिणामानुकूलमज्ञानादात्मपरिणाममात्मनोऽव्यतिरिक्तमात्मनोऽव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमारणं कुर्वाणः प्रतिभातु मा पुनः पुद्गलपरिणामकरणाहकारानभरोपि स्वपरिणाभानुरूप पुद्गलस्य मिथ्या दृष्टि, द्विक्रियावादिन् । मूलधातु- डुकृत्र करणे, वद व्यक्तायां याचि भ्यादि, बद संदेशवचने चुरादि, दृशिर् प्रेक्षणे, भू सत्तायां । पदविवरण-~-यस्मात्-हेत्वर्थे पंचमी एकवचन । तु-अव्यय । अभिन्न अपनी परिणतिमात्र क्रियासे किये हुए प्रात्मपरिणामको करता हुआ प्रतिभासित होवे, परन्तु पुद्गलपरिणामके करनेके अहंकारसे युक्त होनेपर भी स्वपरिणामके अनुकूल, पुदगलसे अभिन्न तथा पुद्गलसे अभिन्न पुद्गलकी परिणतिमात्र क्रियासे किये हुए पुदगलके परिणामको करता हुअा अात्मा मत प्रतिभासो।। भावार्थ-प्रात्मा अपने ही परिणामको करता हुप्रा प्रतिभासित होवे, पुद्गलके परिणामको करता हुप्रा प्रतिभासित नहीं होवे । प्रात्मा और पुद्गल इन दोनोंकी क्रियायें एक अात्माको हो मानने वाला मिथ्यादृष्टि है । यदि जड़ और चेतनको एक क्रिया हो जाय, तो सर्वद्रव्य पलटनेसे सबका लोप हो जायगा, यह बड़ा भारी दोष है। अब इसी प्रर्थके समर्थनका कलशरूप काव्य कहते हैं-यः परिणमति इत्यादि । अर्थ--जो परिणमन करता है, वह कर्ता है और उसका परिणाम कर्म है तथा परिणति किया है । ये तीनों ही वस्तुत्वसे भिन्न नहीं हैं। भावार्थ - द्रव्यरष्टिसे परिणाम और परि. णामीमें अभेद है तथा पर्यायदृष्टिसे भेद है । वहाँ भेवदृष्टिसे तो कर्ता कर्म भोर क्रिया ये तीन कहे गये हैं और अभेददृष्टि से वास्तव में यह कहा गया है कि कर्ता, कर्म और क्रिया---ये तीनों हो एक द्रव्यको अवस्थायें हैं, वे प्रदेशभेदरूप भिन्न वस्तु नहीं हैं। __ और भी कहते हैं--एकः इत्यादि । अर्थ--वस्तु अकेली ही सदा परिणमन करती है, एकके ही परिणाम होते हैं अर्थात एक अवस्थासे अन्य अवस्था होती है । तथा एकको ही परिणति (क्रिया) होती है। यों वस्तु अनेकरूप हुई तो भी वह एक ही वस्तु है, भेद नहीं है । भावार्थ-एक बस्तुको अनेक पर्याय होती हैं, उनको परिणाम भी कहते हैं, अवस्था भी कहते हैं । वे संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजनादिकसे भिन्न-भिन्न प्रतिभास रूप हैं, तो भी एक बस्तु ही हैं, भिन्न नहीं हैं, ऐसा भेदाभेदस्वरूप ही वस्तुका स्वभाव है । फिर कहते हैं--नोमो इत्यादि । प्रर्य--दो द्रव्य एक होकर परिणमन नहीं करते और दो द्रध्यका एक परिणाम भी नहीं होता तथा दो द्रव्यकी एक परिणति (क्रिया) भी नहीं होती । क्योंकि जो अनेक द्रव्य हैं, वे अनेक ही हैं, एक नहीं होते । भावार्ष-दो वस्तुयें सर्वथा भिन्न हो हैं, प्रदेशभेदरूप ही हैं, दोनों एकरूप होकर नहीं परिणमन करती, एक Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० समयसार परिणामं पुद्गलादब्यतिरिक्तं पुद्गलादव्यतिरिक्तया परिणतिमात्रया क्रियया क्रियमाणं कुर्वाण प्रतिभातु । यः परिणमति स कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया सा श्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ।।५१।। एक: परिणमति सदा परिणामो जायते सदैकस्य । एकस्य परिणतिः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ॥५२।। नोभी परिणमत: खलु परिणामो नोभयोः प्रजायेत । आत्मभावं-द्वितीया एक० । पुद्गलभाव-द्वितीया एक० । च-अव्यय । द्वी-द्वितीया द्विवचन । अपि-अव्यय । कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । तेन-हेत्यर्थे तृतीया एक० । तु-अव्यय । मिथ्यादृष्टयःपरिणामको भी नहीं उपजातीं और एक क्रिया भी उनकी नहीं होती, ऐसा नियम है । यदि दो द्रव्य एकरूप होकर परिणमन करें तो सब द्रव्योंका लोप हो जायगा । अब इसी अर्थको दृढ़ करते हैं- नकस्य इतयादि । अर्थ- एक द्रव्यके दो कर्ता नहीं होते, एक द्रव्यके दो कर्म नहीं होते और एक द्रव्यको दो क्रियायें भी नहीं होती, क्योंकि एक प्रद अनेक द्रज्यस्य नहीं होता। भावार्य--प्रत्येक द्रव्य अकेला ही अपने आपमें अपनी परिरगति करता है। प्रब अज्ञानविलय व बन्धविलयको भावना करते हैं--प्रासंसारत इत्यादि । अर्थइस जगतमें मोही अज्ञानी जीवोंका यह "मैं परद्रव्यको करता हूं" ऐसा परद्रव्यके कर्तृत्वका अहंकार रूप अत्यन्त दुनिवार प्रज्ञानांधकार अनादि संसारसे लेकर चला पाया है। यदि पर. मार्थ अभेद नयके ग्रहणसे वह एक बार भी नष्ट हो जाय तो शानधन प्रात्माको फिर कैसे बंध हो सकता है ? भावार्थ- अज्ञान तो अनादिका हो है, परन्तु परमार्थनयके ग्रहणसे यदि दर्शनमोहका नाश कर एक बार यथार्थ ज्ञान होकर क्षायिकसम्यक्त्व उत्पन्न हो जाय तो फिर मिथ्यात्व नहीं पा सकता तब उस मिथ्यात्वका बंध भी नहीं हो सकता और मिथ्यात्व गये बाद संसार-बंधन कसे रह सकता है ? उसका तो मोक्ष ही होगा। और भी कहते हैं--प्रात्म इत्यादि । अर्थ-मात्मा तो पपने भावोंको ही करता है और परद्रध्य परके भावोंको करता है । क्योंकि अपने भाव तो अपने ही हैं तथा परभाव परके ही हैं। भावार्थ-प्रात्माका परमें कर्तृत्व नहीं, फिर भी परमें कर्तृत्व माने तो वह प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि एक द्रव्यको दो क्रियावोंका अनुभव करना बताना मिथ्यात्व है । अब उसी सम्बन्धमें पूछा गया कि दो क्रियावोंका अनुभव करने वाला बताना मिथ्यादृष्टि क्यों है ? इसका समाधान इस माथामें दिया गया है। तभ्यप्रकाश-(१) कोई द्रव्य अपना भी परिणमन करे व दूसरेका भो परिणमन करे ऐसी मान्यता मिथ्यात्व है, क्योंकि ऐसा कभी भी होता नहीं । (२) जो पदार्थ परिणमता Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार उभयोर्न परिगातिः स्यादनेक्रमनेकमेव सदा ।।५३।। नकस्य हि कर्तारौं द्वौ स्तो द्वे कर्मणो न चकस्य । नेकस्य च क्रिये द्वे एकमनेकं यतो न स्यात् ।।१४।। प्रासंसारत एवं धावति परं कुर्वेमित्युच्चकैः, दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः। तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकसमें ब्रजेत, किमानधनाय धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥१५॥ आत्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः । प्रात्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥५६।। 11६॥ प्रथमा बहु० । द्विक्रियावादिनः-प्रथमा बहु० । भवन्ति-वर्तमान लट् अन्य प.० बहुवचन ॥८६॥ है वह कर्ता है । (३) जो परिणमन होता है वह कर्म है । (४) परिणति ही किया है। (५) कर्ता, कर्म व क्रिया---ये तीनों ही वस्तुपनेसे भिन्न नहीं है । (६) एक परिणमन दो द्रव्योंका नहीं होता। (७) एक द्रव्य दो का ६.रणमन नहीं करता। (८) जिनको स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावमय अंतःस्वरूपकी श्रद्धा है उनके परकर्तृत्वका अहंकार नहीं रहता । (E) जिनके अहंकार नहीं है, उनके संसारबंधन नहीं है । सिद्धान्त--(१) प्रत्येक द्रव्य अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे ही है । (२) प्रत्येक द्रव्यका कर्तृ कर्मत्व स्वयं अपने अपनेमें ही है। दृष्टि--- १- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८)। २- कारककारकिभेदक सद्भून. व्यवहार (७३), कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३)। प्रयोग--न तो परमें कुछ किया जा सकता है और न परके द्वारा मुझमें कुछ किया जा सकता है, ऐसे अत्यन्त भिन्न समस्त परद्रव्योंसे लगाव मूलतः नष्ट करके अपनेमें ही मात्र ज्ञानवृत्तिसे वर्तते रहनेका पौरुष करना ॥८६॥ शंका:--परद्रव्यका कर्तृकर्मत्व मानने वाला मिथ्या दृष्टि है यह कहा है। वहां यह ज्ञातव्य है कि मिथ्यात्वादिभाव किसके कहें ? यदि जीवके परिणाम कहे जायें तो पहले रागादि भावोंको पुद्गलके परिणाम कहा था, उस कथनसे यहाँ विरोध पाता है। यदि पुद्गलके परिणाम हे आयें तो जीवका कुछ प्रयोजन नहीं, फिर उसका फल जीव क्यों पावे ? अब इस जिज्ञासाका समाधान करते हैं----[पुनः] और [मिथ्यास्त्र] जो मिथ्यात्व कहा गया था वह [द्विविध] दो प्रकारका है [जीवं अजीवं] एक जीव मिथ्यात्व, एक अजीव मिथ्यात्व [तथैव] और उसी प्रकार [प्रज्ञान] प्रज्ञान [प्रविरतिः] अविरति [योगः] योग [मोहः] मोह पोर [क्रोधाधाः] क्रोधादि कषाय [इमे भावाः] ये सभी भाव जीव अजीवफे भेदसे दो-दो प्रकारके हैं। तात्पर्य--कर्मप्रकृतियोंके मिथ्यात्व आदि नाम हैं और उन-उन प्रकृतियोंके उदयके जो जीवमें प्रतिफलित विकार हैं उनके भी ये ही नाम हैं, अतः मिथ्यात्व प्रादि दो-दो प्रकार के हो गये। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ समयसार मिच्छत्तं पुण दुविहं जीवमजीवं तहेव अण्णाणं। अविरदि जोगो मोहो कोहादीया इमे भावा ॥८७॥ मिथ्यात्व दो तरहका, जीव अह मजीवरूप होता है। अजान मोह प्रविरति, क्रोधादि योग भी दो दो ॥७॥ मिथ्यात्वं पु नहि विधं जीवो जीवस्तथैवाज्ञानं । अविरति योगो मोहः क्रोधाद्या इमे भावाः ।।७।। मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो हि भावाः ते तु प्रत्येक मयूरमुकुरंदवज्जीवाजीवाभ्यां भाव्यमानत्वाज्जोवाजीवौ । तथाहि--यथा नीलकृष्णहरितपीतादयो भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेन मयूरेण भाध्यमानाः मयूर एव । यथा च नीलकृष्णहरितपीतादयो भावाः स्वच्छसाविकारमात्रेण मुकुरदेन भाव्यमाना मुकुरंद एव । तथा मिथ्यादर्शनमशानमविरतिरित्यादयो नामसंश. मिच्छत्त, पण, दुविह, जीव, अजीव, तह, एव, अण्णाण, अविरदि, जोग, मोह, कोहादीअ, इम, भाव। धातुसंश-भव सत्तायां । प्रकृतिशम्द -मिथ्यात्व, पुनर्, द्विविध, जीव, अजीय, तथा, एव, अज्ञान, अविरति, योग, मोह, इदम्, भाव । मूलधातु-विध विधाने, युजिर् योगे रुधादि, मुह वैचित्ये, टोकार्थ-मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादिक जो भाव हैं वे प्रत्येक पृथक-पृथक् मयुर और दर्पएको भांति जीव अजीवके द्वारा हुवाये गये हैं, इसलिये जीव भी हैं और अजीष भी हैं । जैसे मयूरके नीले, काले, हरे, पीले प्रादि वर्ण रूप भाव मयूरके निज स्वभावसे भाये हुए मयूर ही हैं। और, जैसे दर्पणमें उन वों के प्रतिबिम्ब दिखते हैं, वे दर्पणको स्वच्छता (निर्मलता) के विकार मात्रसे भाये हुए दर्पण ही है । उसी प्रकार मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान, प्रविरति इत्यादिक भाव अपने अजीवके द्रष्यस्वभावसे (प्रजीवरूपसे) भाये हुए अजीव ही हैं तथा वे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति प्रादि भाव चैतन्यके विकारमात्रसे (जीवसे) भाये हुए जीव ही हैं। भावार्थ-पुद्गलकर्मके विपाकके निमित्तसे जीव विभावरूप परिणमन करते हैं सो वहाँ वे जो चेतनके विकार हैं, वे जीव ही हैं और जो पुद्गल मिथ्यात्वादिक कर्मरूप परिणमन करते हैं, वे पुद्गलके परमाणु हैं तथा उनका विपाक उदयरूप होकर बे स्वादरूप होते हैं, वे मिथ्यात्वादि अजीव हैं । ऐसे मिथ्यात्वादि भाव जीव अजीवके भेदसे दो प्रकारके हैं--(१) जीव मिथ्यात्वादि, (.) अजीव मिथ्यात्वादि । जो मिथ्यात्वादि कर्मकी प्रकृतियां हैं, वे पुगलद्रव्यके परमाणु हैं, अजीवमिथ्यात्व हैं उनका उदय हो तर उपयोगस्वरूप जीवके उपयोगकी स्वच्छताके कारण जिसके उदयका स्वाद प्राये, तब उसीके प्राकार उपयोग हो जाता है। पौर तब अज्ञानी जीवको उसका भेदज्ञान नहीं होता, सो वह उस स्वादको ही अपना भाव जानता है । जब इसका भेदज्ञान ऐसा हो जाय कि जीवभावको जीव जानें और अजीवभावको अजीव जानें, तभी मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान होता है । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १८३ भावाः स्वद्रव्यस्वभावत्वेनाजोवेन भाव्यमाना अजोव एव । तथैव च मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादयो भावाश्चैतन्यविकारमात्रेण जीवेन भाव्यमाना जीव एव ।।८७) ऋध क्रोधे दिवादि । पदविवरण-मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । पन:-अव्यय । द्विविध-प्रथमा एक । जीव:प्रथमा एक अजीव:-प्रथमा एक० । तथा-अव्यय । एक-अव्यय। अज्ञान-प्रथमा एक० । अविरतिःप्रथमा एक० । योग:-प्रथमा एक । मोहः-प्रथमा एक० । क्रोधाद्या:--प्रथमा बहुवचन । इमे-प्रथमा बहु० । भावा:-प्रथमा बहुवचन ।।७।। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कभी फर्ता हो ही नहीं सकता। इससे अनन्तरपूर्व स्थलमें कहा गया था कि पुद्गलकर्मका व जीवपरिणामका परस्पर निमित्तनैमित्तिक भातमात्र है। इन तथ्योंको स्पष्ट करनेके लिये दोनों द्रव्योंका स्वतंत्र-स्वतंत्र अनुरूप परिणाम बताने वाली यह गाथा पाई है। तथ्यप्रकाश--(१) पोद्गलिकमिथ्यात्व प्रादि प्रकृति उदयका निमितमात्र पाकर जीव में जो मिथ्यात्व भाव प्रादि होता है वह जीवमिथ्यात्व मादि है जो कि पोद्गलिक मिथ्यास्वादिसे भिन्न है । (२) जीवके मिथ्यात्वभाव आदिका निमित्तमात्र पाकर पौद्गलिक कार्माणवर्गणावों में जो मिथ्यात्वप्रकृतिरूप प्रादि कर्मत्व होता है वह पौद्गलक मिथ्यात्व शादि है जो कि जीव मिथ्यात्व आदिसे भिन्न है जैसे कि मनुष्यमुखका सामना पाकर दर्पणमें जो मुखाकार स्वच्छताविकार है वह फोटो दर्पणमुख है जो कि मनुष्यमुखसे भिन्न है । (३) पुद्. गलकर्ममें जो प्रकृति स्थिति प्रदेश अनुभाग है उसका कर्ता व उपादान स्वामी पुद्गल कर्म है। (४) जीवमें जो मिथ्यात्व कषाय विकल्पभाव होता है उसका कर्ता व उपादान जीव है। सिद्धान्त-- (१) मिथ्यात्व प्रादि पुद्गलकर्मप्रकृतियों का कर्ता पुद्गलकार्माणस्कंध है। (२) मिथ्यात्व आदि पुद्गलकर्मप्रकृतियोंकी उद्भूतिका निमित्त जीवपरिणाम है । (३) मिध्यात्वादि विभावोंका कर्ता संसारी जीव है । (४) मिथ्यात्वादि विभावोंको उद्भतिका निमित्त मिथ्यात्वादि कर्मप्रकृतियोंका विपाकोदय है। दृष्टि- १- कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३५) । २- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । ३- कारककारकिभेदक प्रशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३) । उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय (२४)। प्रयोग-कर्मविकारोंको कर्ममें और जीवविकारोंको जीवमें निरखकर पराधीनता र कायरताका भाव हटाना चाहिये और निमित्तनैमित्तिक भाव परखकर अपनेको अविकार चैत. न्यस्वभावमात्र अङ्गीकार करना चाहिये ॥८७।। यहाँ पूछते हैं कि मिथ्यात्वादिक जीव अजीव कहे हैं वे कौन हैं, उसको उत्तर कहते हैं- [मिथ्यात्वं] जो मिथ्यात्व [योगः] योग [अविरतिः] अविरति [प्रमानं] प्रज्ञान Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ समयसार काविह जीवाजीवाविति चेत् पुग्गलकम्म मिच्छं जोगो अविरदि प्रणाणमज्जीवं । उवयोगो अण्णाणं अविरइ मिच्छंच जीवोदु ॥८॥ पौगलिक कर्म मिथ्या, अविरति प्रज्ञान योग निश्चेतन । मिथ्या अविरति प्रज्ञा-न योग उपयोगमय चेतन ॥५॥ पुद्गलकर्म मिथ्यात्वं योगोऽविरतिरज्ञानमजीवः । उपयोगोऽज्ञानमविरतिमिथ्यात्वं च जीवस्तु ।।८८|| यः खलु मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरित्यादिरजीवस्तदमूर्ताच्चैतन्यपरिणामावन्यत् मूतं नामसंज्ञ-पुग्गलकम्म, मिच्छ, जोग, अविरदि, अण्णाण, अज्जीव, उवओग, अण्णाण, अविरदि, मिच्छ, च, जीव, दु। धातुसंश----जीव प्राणधारणे । प्रातिपदिक--पुद्गलकर्मन् मिथ्यात्व, योग, अविरति, अज्ञान, अजीव, उपयोग, अज्ञान, अविरति, मिथ्यात्व, च, जीव, तु । मूलधातु-पूरी आप्यायने, गल अदने, कृत्र करणे, युजिर योगे, अ-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण–पुद्गलकर्म-प्रथमा एक० । मिथ्यात्व-प्रथमा एक० । योग:-प्रथमा एक० । अविरति:-प्रथमा एक० । अज्ञान-प्रथमा एक । अजीव:-प्रयमा एक० । [आजीवः] अजीव है वह तो [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म है [च] और जो [अज्ञान] अज्ञान [प्रकि. रतिः प्रविरति [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [जीवः] जीव है [तु] सो [उपयोगः] उपयोग है । तात्पर्य-मिथ्यात्वादिक कर्मप्रकृतियाँ तो अजीव हैं और उन प्रकृतियोंके विपाकका सान्निध्य पाकर उपयोगमें जो उस विपाकका प्रतिफलन व विकल्प होता है वह जीव (जीवविकार) है। ___टोकार्थ-जो निश्चयसे मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान, प्रदिरति इत्यादि अजीव हैं वे प्रमूर्तिक चैतन्यके परिणामसे पन्य मूर्तिक पुद्गलकर्म हैं और जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि जीव हैं वे मूर्तिक पुद्गलकर्मसे अन्य चैतन्यपरिणामके विकार हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि मिथ्यात्व प्रादि जीव व मजीव दोनोंरूप हैं, इसपर यह जिज्ञासा हुई कि वे जीव अजीवरूप कौन-कौन हैं ? इसके समाधानमें यह गाया प्राई है । सध्यप्रकाश--(१) मिथ्यात्वप्रकृति, अनन्तानुबंधी क्रोधादि १२ चारित्रमोहनीयप्रकतियाँ, ज्ञानावरण व शरीर मङ्गोपाङ्गादि नामकर्म प्रादि ये सब अजीव द्रध्यप्रत्यय हैं । (२) मिथ्यात्वभाव, हिंसादि पापभाव, प्रज्ञान व भावयोग ये सब जोवरूप भावप्रत्यय है। (३) द्रव्यप्रत्यय जीवसे पृथक् हैं । (४) माधप्रत्यय पुद्गलकर्मसे पृथक् हैं । सिवान्त-(१) द्रव्यप्रत्यय उपादानरूप पौद्गलिक हैं । (२) भावप्रत्यय उपादानतया जीवरूप हैं। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार पुद्गलकर्म, यस्तु मिथ्यादर्शनमशानमविरतिरित्यादि जीवः स मूर्तात्पुद्गलकर्मणोऽन्यश्चतन्यपरिणामस्य विकारः॥१८॥ उपयोगः-प्रथमा , अज्ञान- मगाएन : अदिनिः- एमा एक० । मिथ्यात्व-प्रथमा एकवचन । च-अव्यय । जीवः-प्रथमा एकवचन । तु-अव्यय ८८ प्रयोग-प्रकृतिसे, प्रकृतिनिमित्तक प्रभावसे भिन्न पुरुषतत्व (आत्मतत्व) को आपा निरखकर इस ही अन्तस्तत्त्वमें रमनेका पौरुष करना ॥८॥ प्रश्न-जीव मिथ्यात्वादिक भाव चैतन्यपरिणामका विकार किस कारण है ? उत्तर[मोहयुक्तस्य अनादिसे मोहयुक्त उपयोगस्य उपयोगके [अनादयः] अनादिसे लेकर [त्रयः परिणामाः] तीन परिणाम हैं वे [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [प्रज्ञान] प्रज्ञान [च अविरतिभावः] और अविरतिभाव ये तीन [ज्ञातव्यः] जानना चाहिये । टोकार्थ-निश्चयसे समस्त वस्तुमोका स्वरसपरिणमनसे स्वभावभूत स्वरूपपरिणमन में समर्थता होनेपर भी उपयोगका अनादिसे ही. अन्य वस्तुभूत मोहयुक्त होनेसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति ऐसे तीन प्रकारका परिणामविकार है । और वह स्फटिकमणिकी स्वच्छतामें परके डंकसे परिणामविकार हुएकी भांति परसे भी होता । हुमा देखा गया है । जैसे स्फटिककी स्वच्छतामें अपना स्वरूप उज्ज्वलतारूप परिणामकी सामर्थ्य होनेपर भी किसी समय काला, हरा, पीला जो तमाल, केर, सुवर्णपात्र समीपवर्ती भाश्रयकी युक्ततासे नोला, हरा, पीला ऐसा तीन प्रकार परिणामका विकार दीखता है, उसी प्रकार प्रात्माके (उपयोगके) अनादि मिथ्यादर्शन, अज्ञान, प्रविरति स्वभावरूप अन्य वस्तुभूत मोहकी युक्तता होनेसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, प्रविरति ऐसे तीन प्रकार परिणामविकार निरख लेना चाहिये । भावार्थ --प्रात्माके उपयोग में ये तीन प्रकारके परिणाम विकार मनादि कर्मके निमित्तसे हैं । कहीं ऐसा नहीं है कि पहले प्रात्मा शुद्ध ही था, अब यह नवीन ही अशुद्ध हुअा हो । ऐसा हो तो सिद्धोंको भी फिरसे अशुद्ध होना चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माधामें बताया गया था कि मिथ्यात्वादि पुद्गलकर्मरूप हैं और उपयोगरूप याने जीवरूप भी हैं । इस कथनपर यह प्रश्न हो जाता है कि चैतन्यस्वरूप जीवके ये मिथ्यात्वादि विकार कैसे हो गये ? इसका उसर इस गाथामें है। __ तथ्यप्रकाश-(१) सभी पदार्थों की भांति उपयोग (जीव) भो स्वरूपपरिणमनमें समर्थ होनेसे परिणमता रहता है । (२) इस उपयोग (जीव) का अनादिवस्त्वन्तरभूत मोहसे युक्तपना होनेसे निमित्तनैमित्तिक योगवश वस्त्वंतरभूत विपाकके अनुरूप मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरतिरूप परिणामता रहता है। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ समयसार मिथ्यादर्शनादिश्चैतन्यपरिणामस्य विकारः कुत इति चेत् योगस्स थाई परिणामा तिष्णुि मोहजुत्तस्स । मिच्छत्तं श्रां अविरदिभावो य गायत्रो !! उपयोग मोहयुक्त, अनादिसे तीन परिणमन वर्ते । मिथ्या अज्ञान तथा अविरति इन तोनको जानो ॥८६॥ उपयोगस्थानादयः परिणामास्त्रयो मोहयुक्तस्य । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतिभावश्च ज्ञातव्यः ॥५६॥ उपयोगस्य हि स्वरसत एवं समस्त वस्तुस्वभावभूतस्वरूप परिणामसमर्थत्वे सत्यनादिव - स्त्वं तर भूत मोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारः । स तु तस्य स्फटिकस्वच्छताया इव परतोगि प्रभवन् दृष्टः । यथा हि स्फटिकस्वच्छतायाः स्वरूपपरिणामस मर्थत्वे सति कदाचिन्नीलहरित पीततमालकदलीकांचनपानोपाश्रययुक्तत्वान्नीलो हरितः पीत इति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टस्तथोपयोगस्यानादिमिथ्यादर्शनाज्ञान। विरतिस्वभाववस्त्वं तर भूतमोहयुक्तत्वान्मिथ्यादर्शनमज्ञानमविरतिरिति त्रिविधः परिणामविकारो दृष्टव्यः ॥८६॥ नामसंज्ञ – उवओग, अणाइ, परिणाम, ति, मोहजुत्त, मिच्छत्त, अण्णाण, अविरदिभाव, ये धातुसंज्ञ-जु मिश्रणे, जाण अवबोधने । प्रकृतिशब्द- उपयोग, अनादि, परिणाम, त्रि. मोहयुक्त, मिध्यात्व, अज्ञान, अविरतिभाव, च, ज्ञातव्य । मूलधातु – उप- युजिर् योगे, मुह वैचित्ये ज्ञा अवबोधने । पदचिवरन- उपयोगस्य - षष्ठी एकवचन । अनादयः - प्रथमा बहु० । परिणामाः- प्रथमा बहुवचन । श्रयः - प्रथमा बहु० । मोहयुक्तस्य षष्ठी एक० । मिध्यात्वं प्रथमा एक० | अज्ञानं प्रथमा एक० । अविरतिभावः - प्रथमा एक० च - अव्यय । ज्ञातव्यः - प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया ॥८॥ सिद्धान्त - ( १ ) उपयोग (जीव ) स्वयं सहज चैतन्यस्वरूपमात्र है । ( २ ) स्वयं सहज चैतन्यस्वरूपका स्वभाव स्वभावविकासरूप परिमते रहने का है । (३) उपाधिसम्पर्क में जीव विकाररूप परिणमता है | दृष्टि - १ - परमशुद्ध निश्चयनय (४४), शुद्धनय (४९) । २- शुद्धनिश्वयनय ( ४६ ) । ३- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याणिकनय (५३) प्रयोग - मोहनीय कर्मविपाकके प्रतिफलन में श्रात्मत्वबुद्धि होनेसे संसारसंकटोंकी पर परा चलती है और ये प्रतिफलन मेरे स्वरूप नहीं, ऐसा दृढ़ निर्णय रखकर कर्मरससे हटकर अधिकार सहज चैतन्यस्वरूप में उपयुक्त होनेका पौरुष करना ||६|| अब आत्माके इन तीन प्रकारके परिणामविकारोंका कर्तृत्व दिखलाते हैं-- [ एतेषु च ] मिष्यात्व अज्ञान, अविरति इन तीनोंके प्रनादिसे निमित्तभूत होनेपर [ शुद्धः ] यद्यपि शुद्धनय से एक शुद्ध [ निरंजन: ] निरञ्जन [ उपयोगः ] उपयोग यांने आत्मा है तो भी [एतेषु ] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार श्रथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारस्य कर्तृत्वं दर्शयति एए योगो तिविहो सुद्धो जिणो भावो । जं सो करेदि भावं उपयोगी तस्स सो कत्ता ॥६०॥ १८७ शुद्ध निरंजन भी यह उन तीनोंके प्रयोग होनेपर । जिन भावोंको करता, कर्ता उपयोग उनका है ॥६॥ नामसंज्ञ--- एत, य, उवओोग, तिविह, सुद्ध, णिरंजण, भाव, ज, स, भाव एतेषु श्रोपयोगस्त्रिविधः वृद्धो निरंजनो भावः । यं स करोति भावमुपयोगस्तस्य स कर्ता ||६|| श्रथैव मयमनाविवस्त्वंतरभूत मोहयुक्तत्वादात्मन्युत्प्लवमानेषु मिथ्यादर्शन ज्ञानाविरतिभापरिणामविकारेषु त्रिष्वेतेषु निमित्तभूतेषु परमार्थतः शुद्धनिरंजनानादिनिधन वस्तु सर्वस्व उवओग, त, त, कतार । धातुसंज्ञ सुक नैमंल्ये, कर करणे । प्रकृतिशब्द- एतत् न, उपयोग, त्रिविध शुद्ध, निरंजन, भाव, यत्, तत्, भाव, उपयोग, तत् तत् कर्तृ । मूलधातु — शुध शौचे दिवादि, निर अज्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु जुहोत्यादि विध विधाने, डुकृञ् करणे, उप-युजिर् योगे । पद विवरण- एतेषु सप्तमी बहु०, च-अव्यय, मिथ्यात्व अज्ञान, प्रविरति इन तीनोंके निमित्तभूत होनेपर ! [ त्रिविधः भाथ: ] मिथ्यादर्शन, अज्ञान, श्रविरति इस तरह तीन प्रकार परिणाम वाला होता है । [सः ] सो वह भ्रात्मा [यं ] इन तीनों में से जिस [भावं] भावको [ करोति ] स्वयं करता है [ तस्य ] उसीका [सः ] वह [कर्ता ] कर्ता [ भवति ] होता है । टीकार्थ व पूर्वोक्त प्रकारसे अनादि प्रत्यवस्तुभूत मोहसहित होनेसे प्रारभा में उत्पन हुए जो मिध्यादन, प्रज्ञान, प्रविरति भावरूप तीन परिणाम विकार उनके निमित्तभूत होनेपर, यद्यपि श्रात्माका स्वभाव परमार्थसे देखा जाय तो शुद्ध, निरंजन, एक अनादिनिधन वस्तुका सर्वस्वभूत चैतन्यभावरूपसे एक प्रकार है, तो भी अशुद्ध सांजन अनेक भावपतेको प्राप्त हुमा तीन प्रकार होकर प्राप प्रज्ञानी हुआ कर्तृस्वको प्राप्त होता हुआ विकार रूप परिणामसे जिस जिस भावको आप करता है, उस उस भावका उपयोग निश्वयसे कर्ता होता है । भावार्थ-- पहले कहा था कि जो परिणमता है, वह कर्ता है सो यहाँ अज्ञानरूप हो कर उपयोगसे जिस रूप परिणमन करता है, उसीका कर्ता कहा जाता है । शुद्ध द्रव्याकिनम से श्रात्मा कर्ता नहीं है । यहाँ उपयोगको कर्ता कहा, उपयोग और प्रारमा एक ही वस्तु है, इसलिये आत्माको हो कर्ता जानना । प्रसंगविवरण -- प्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि मोहयुक्त उपयोगके तीन प्रकारके विकृत परिणाम होते हैं उन्होंने विषयमें इस गावामें बताया गया है कि उनका निश्वयसे कर्ता कौन है ? Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. - - . - .. - -- -- . - - - १८५ समयसार भूतचिन्मात्रभावत्वेनेकविधोप्यशुद्धसांजनानेकभावत्वमापद्यमानस्त्रिविधो भूत्वा स्वयमज्ञानीभूतः कर्तृत्वमुपढौकमानो बिकारेण परिणभ्य यं यं भावनात्मनः करोति तस्य तस्य किलोपयोगः कर्ता स्यात् ॥६॥ उपयोग:-प्रथमा एकवचन, त्रिविधः-प्रथमा एक०, शुद्धः-प्रथमा एक०, निरंजन:-प्रथमा एक०, भावः-- प्रथमा एक०, यं-द्वितीया एक०, स:-प्रथमाएर, करोनि-गईमा लट् वन्य दुहब एक, भावं-द्वितीया एक० कर्म, उपयोगः-प्रथमा एक० कर्ता, तस्य-षष्ठी एक०, स:-प्रथमा ए०, कर्ता--प्रथमा एकवचन ॥६०॥ तथ्यप्रकाश--(१) उदयागत मिथ्यादर्शन अानावरण व चारित्रमोह द्रव्यप्रत्ययका निमित्त होनेपर जीव त्रिविध विकृत होता है । (२) परमार्थसे जीव शुद्ध निरञ्जन अनादिनिधन चिन्मात्र वस्तु है। (३) विकारोंसे परिणम परिणम कर जिस-जिस भावको प्रात्मा करता है प्रात्मा उस उस भावका कर्ता होता है । सिद्धान्त-(५) प्रात्मा मोहयुक्तदशामें अपने विकाररूप परिणमता है सो उस परिणामका कर्ता है । (२) आत्मा परमार्थसे शुद्ध चिन्मात्र वस्तु है ।। दृष्टि - १- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) । २- शुद्धनय (१६८।। प्रयोग-सर्व परसंगको बाह्य तत्त्व जानकर उससे विविक्त शुद्ध चैतन्यस्वरूप अपने को अनुभवनेका पौरुष करना । प्रागे प्रात्माके तीन प्रकारके परिणामविकारका कर्तापना होनेपर पुद्गलद्रव्य प्राप ही कर्मत्व रूप होकर परिणमन करता है, ऐसा कहते हैं- [प्रात्मा] आत्मा [यं मावं] जिस भावको [करोति] करता है [तस्प मावस्य] उस भावका [कर्ता] कर्ता [सः] वह [भवति] होता है [तस्मिन्] उसके कर्ता होनेपर [पुद्गलद्रव्य] पुद्गलद्रव्य [स्वयं] अपने पाप [कर्मत्वं] कर्मरूप [परिणमते] परिणमन करता है। तात्पर्य-प्रात्मा जिस विभावको करता है उस विभावका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणम जाता है । . टोकार्थ-आत्मा निश्चयसे पाप हो उस प्रकार परिणमन कर प्रगटरूपसे जिस भाव को करता है उसका यह कर्ता होता है, जैसे मंत्र साधने वाला पुरुष जिस प्रकारके ध्यानरूपभायसे स्वयं परिणमन करता है, उसी ध्यानका कर्ता होता है और समस्त उस साधकके साधने योग्य भावकी अनुकूलतासे उस ध्यानभावके निमित्तमात्र होनेपर उस साधकके बिना ही अन्य सादिककी विषकी व्याप्ति स्वयमेव मिट जाती है, स्त्री जन विडम्बनारूप हो जाती है और बंधन खुल जाते हैं इश्यादि कार्य मंत्रके ध्यानको सामर्थ्यसे हो जाते हैं । उसी प्रकार यह मात्मा प्रज्ञानसे मिध्यादर्शनादिभावसे परिणमन करता हमा मिथ्यादर्शनादिभावका कर्ता होता Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ कर्तृकर्माधिकारः अथात्मनस्त्रिविधपरिणामविकारकर्तृत्वे सति पुगलद्रव्यं स्वत एव कर्मत्वेन परिणमतीत्याह जं कुणइ भावमादा कत्ता सोहोदि तस्स भावस्स । कम्मत्तं परिणमदे तह्मि सयं पुग्गलं दव्वं ॥१॥ जीव जो भाव करता, होता उस मायका वही कर्ता । उसके होते पुद्गल, स्वयं कर्मरूप परिणमता ॥१॥ यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य भावस्य । कर्मस्वं परिणमते तस्मिन् स्वयं पुद्गलद्रव्यं ||१|| प्रात्मा ह्यात्मना तथापरिणमनेन यं भावं किल करोति तस्यायं कर्ता स्यात्सायकवत् तस्मिन्निमित्ते सति पुद्गलद्रव्यं कर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते । तथाहि--यथा साधकः किल तथाविधध्यानभावेनात्मना परिणममानो ध्यानस्य कर्ता स्यात् । तस्मिस्तु ध्यानभावे सकलसाध्यभावानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सति साधकं कर्तारमन्तरेणापि स्वयमेव बोध्यंते विषव्या नामसंज-ज, भाव, अत्त, कतार, ल, त, भाव, कम्मत्त, त, सर्य, पुग्गल, दव्व । धातुसंश- कुण' करणे, हो सत्तायां, परि-नम नम्रीभावे । प्रकृतिशग्द-यत्, भाव, आत्मन्, कर्त, तत्, तत्, भाव, कर्मत्य, तत्, स्वयं, पुद्गल, द्रव्य । मूलधातु- डुकृञ् करणे, भू सत्तायां, परिणम प्रह्वत्वे, पूरी आप्यायने दिवादि व चुरादि, गल स्रवणे चुरादि । पदविवरण--द्वितीया एक० कर्मविशेषण, करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया, भाव-द्वितीया एक कर्म, आत्मा-प्रथमा एक०, कर्ता-प्रथमा एक०, स:-प्र० ए०, है, तब उस मिथ्यादर्शनादिभावके अपनी अनुकूलतासे निमित्तमात्र होनेपर प्रात्मा कर्ताके बिना पुद्गलद्रव्य पाप हो मोहनीयादि कर्मरूपसे परिमन करता है । भावार्थ---प्रात्मा जब प्रज्ञान रूप परिणम करता है, तब किसीसे ममत्व करता है, किसीसे राग करता है, किसीसे द्वेष करता है, उन भावोंका पाप कर्ता होता है । उस विकारभावके निमित्तमात्र होनेपर पुद्गलद्रव्य आप अपने भावसे कर्मरूप होकर परिणमन करता है । यहाँ यद्यपि परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है । तो भी कर्ता दोनों अपने-अपने भावके हैं, यह निश्चय है । प्रसंगधिदरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया है कि प्रात्मा त्रिविध परिणाम विकारका कर्ता है । सो इस सम्बन्ध में यह जिज्ञासा होती है कि इस स्थितिसे बिगाड़ और क्या होता है उसका समाधान इस गाथामें है । तथ्यप्रकाश-(१) यह जीव जिस परिणामसे परिणमता है उसी भावका कर्ता होता है । (२) जीवके विभावपरिगमनका निमित्त पाकर पुद्गलद्रव्य स्वयमेव कर्मरूपसे परिणमता है । (३) पुद्गलद्रव्यका कर्मरूप परिणमन मात्र उस पुद्गलद्रव्यमें अन्य द्रव्य (जीव) का परिएमन लिये बिना उसीके परिणमनसे होता है यह स्वयं परिणमनेका अर्थ है । (४) विकार Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार प्यो, विडंब्यते योषितो, ध्वंस्यंते बंधास्तथायमज्ञानादात्मा मिथ्यादर्शनादिभावनात्मना परिणममानो मिथ्यादर्शनादिभावस्य कर्ता स्यात् । तस्मिस्तु मिथ्यादर्शनादी भावे स्वानुकूलतया निमित्तमात्रीभूते सत्यात्मानं कर्तारमंतरेणापि पुद्गलद्रव्यं मोहनीयादिकर्मत्वेन स्वयमेव परिणमते ॥१॥ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० त्रिया, तस्य-षष्ठी एकवचन, भावस्य-षष्ठी एक०, कमत्व-प्र० ए० अथवा अव्यय क्रियाविशेषण यथा स्यात्तथा, परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया, तस्मिन्सप्तमी एक०, स्वयं-अव्यय, पद्गलं--प्र० ए०, द्रव्यम्-प्रथमा एकवचन ।। ६१ ॥ रूप परिणमन उपाधिसम्पर्क बिना सम्भव नहीं है। सिद्धान्त---(१) द्रध्यप्रत्ययके सन्निधानमें प्रात्मा अपने विकारभावसे परिणमता है । (२) मारमाके विकारभावके सन्निधानमें पुद्गलकार्माणद्रव्य अपने कर्मत्वरूप विकारसे परिणमता है । (३) परिणमन सबका अपने स्वयंमें स्वयंके लिये स्वयंसे स्वयंको परिणतिसे होता है। दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। ३- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३), कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३)। प्रयोग-जीव और कमका प्रोपाधिक परिणमन होनेसे परभावपना जानकर उससे मुक्त होनेकी सुगमतापर उत्साह बढ़ाना और उनसे मुक्त होनेके एकमात्र साधनभूत सहज चैतन्यस्वरूपमें रत होकर तुप्त होना ।।१। अज्ञानसे ही कर्म होता है ऐसा अब तात्पर्य कहते हैं--[प्रज्ञानमयः] अज्ञानमय [सः जीवः] वह जीव [परं] परको [आत्मानं कुर्वन] प्रापरूप करता है [च] और [प्रात्मानं प्रपि] अपनेको [परं] पररूप [कुर्यन] करता हुमा [कर्मणां] कोका [कारकः] कर्ता [भवति] होता है। तात्पर्य-स्व व परमें एकत्यको अवस्था रखने वाला अज्ञानी है और कर्मका कर्ता है। टीकार्य--यह प्रात्मा प्रज्ञानसे परके और अपने विशेषका भेदज्ञान न होनेपर अन्य को तो अपने करता है, और अपनेको अन्यके करता है, इस प्रकार स्वयं अज्ञानी हुमा कर्मोका कर्ता होता है । जैसे शीत उष्णका अनुभव करानेमें समर्थ जो पुद्गल परिणामकी शीत उष्ण अवस्था है वह पुद्गलसे भिन्न होनेसे प्रात्मासे नित्य ही अत्यंत भिन्न है, वैसे उस प्रकारका अनुभच करानेमें समर्थ जो रागद्वेष सुखदुःखादिरूप पुद्गल परिणामकी अवस्था वह पुद्गलको प्रभिन्नताके कारण प्रात्मासे नित्य हो अत्यन्त भिन्न है। तथा उस पौगलिककर्मविपाकके Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतृकर्माधिकार १६१ अज्ञानावेव कर्मप्रभवतीति तात्पर्यमाह-- परमप्पाणं कुव्वं अप्पाणं पि य परं करितो सो। अण्णाणामो जीवो कम्माणं कारगो होदि ॥२॥ परको अपना करता, अपनेको भि पररूप यह करता। अज्ञानमयी प्रात्मा, सो कर्ता होय फर्मोका ॥६२६॥ परमात्मानं कुर्वन्नात्मानमपि च परं कुर्वन् सः । अज्ञानमयो जीवः कर्मणां कारको भवति ।।२।। अयं किलाज्ञानेनात्मा परात्मनोः परस्परविशेषानिज्ञाने सति परमात्मानं कुर्वन्नात्मानं च परं कुर्वन्स्वयमज्ञानमयोभूतः कर्मणां कर्ता प्रतिभाति । तथाहि-तथाविधानुभवसंपादनसम याः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया: शोतोरणानुभवसंपादनसमर्थायाः शीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्त. निमित्तं तथाविधानुभवस्य धात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवात्यंतभिन्नस्याज्ञानात्परस्परवि नामसंज्ञ- पर, अप्प, कुम्वन्त, अप्प, पि, य, करिन्त, त, अण्णाणमय, जीब. कम्म कारग। धातुसंत---कृत्व करणे, कर करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशम्ब-पर, आत्मन्, अपि, च, पर, तत, अज्ञानमय, जीव, कर्मन, कारक । मुलधात-अत सातत्यगमने, उकृत्र करणे, जीव प्राणधारणे, भ्वादि, सत्तायां। पदविवरण-पर-द्वितीया एक० । आत्मानं-द्वितीया एक० । कुर्वन्-प्रथमा एकवचन कृदन्त । आत्मानंनिमित्तसे हुए उस प्रकारके रागद्वेषादिकके अनुभव का आत्मासे अभिन्नताके कारण पगलसे नित्य ही अत्यन्त भिन्नता है, तो भी उस पुद्गल परिणामरूप रागद्वेषादिकका और उसके अनुभवका प्रज्ञानसे परस्पर भेदशान न होनेसे एकत्वके निश्चयसे यद्यपि जिस प्रकार शीत उष्णरूपसे प्रात्मा परिणमन करने में असमर्थ है, उसी प्रकार रागद्वेष सुख-दुःखादिरूप भी अपने पाप परिणमन करनेमें असमर्थ है तो भी रागद्वेषादिक पुद्गल परिणामको अवस्थाको उसके अनुभत्रका निमित्तमात्र होनेसे अज्ञानस्वरूप रागद्वेषादिरूप परिणमन करता हुना अपने ज्ञान की प्रज्ञानताको प्रकट करता पाप अज्ञानी हुप्रा 'यह मैं रागी हूं' इत्यादि विधानकर ज्ञानविरुद्ध रागादिककर्मका कर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ-रागद्वेष सुख-दुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है, अतः यह उदयविपाक पद्गलकर्मसे अभिन्न है, प्रात्मासे प्रत्यन्त भिन्न है। प्रात्माको अज्ञानसे इसका भेदज्ञान नहीं है, इसलिए ऐसा जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है, क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छता ऐसी ही है कि रागद्वेषादिका विपाक (स्वाद) शीत उष्णकी तरह ज्ञान में प्रतिबिम्बित होता है तब ऐसा मालूम होता है कि मानो ये ज्ञान ही हैं। इस कारण ऐसे अज्ञानसे इस अज्ञानी जीवके इनका कर्तृत्व भी पाया। क्योंकि इसके ऐसी मान्यता हुई कि मैं रागी हूं, द्वेषी हूं, Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ समयसार शेषानिर्शाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णारूपेणवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपे. णाज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्स्वयमज्ञानमयीभूत एषोहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणो (ज्ञानविरुद्धस्य) कर्ता प्रतिभाति ॥२॥ द्वितीया एक० । अपि-अव्यय । च-अव्यय । परं-द्वितीया एक० । कुर्वन्-प्रथमा एक० कृदन्त । सः-प्रथमा एक । अज्ञानमयः-प्रथमा एक० । जीवः--प्रथमा एक ० कर्ता । कर्मणां-षष्ठी बहु० । कारक:-प्रथमा ए। भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥१२॥ क्रोधी हूं, मानी हूं इत्यादि । इस प्रकार वह परका कर्ता होता है । प्रसंगविवरण ----यजन्तरपूर्व गाथामें जलाया था कि प्रात्माके जोवपरिणाम विकार कर्मका कर्तृत्व होनेपर पुद्गलकार्मा द्रव्य स्वयं कर्मरूपसे परिणमता है। इसी विषयका मौलिक तात्पर्य यह है कि प्रज्ञानसे कर्मका प्रभव होता है यही इस गायामें स्पष्ट किया है। तथ्यप्रकाश-१--परको मात्मरूप व आत्माको पररूप मानना अज्ञान है । २-अज्ञान से प्रात्मा मैं रागो द्वेषी हूं आदि विधिसे भावकमका कर्ता है । ३- रागद्वेषप्रकृतिरूप पुद्गलपरिणाम प्रात्मासे अत्यन्त भिन्न है । ४- रागद्वेषप्रकृतिरूप पुदगलपरिणाम पुद्गलसे अभिन्न है । ५- रागद्वेषप्रकृतिविपाकनिमित्तक रागद्वेषभावानुभव पुद्गलसे अत्यन्त भिन्न है । ६रागद्वेषप्रकृतिविपाकनिमित्तक रागद्वेषभावानुभव उस समय जीवसे अभिन्न है। ७- जीव प्रज्ञानात्मक रागद्वेषत्रिपाकरूपसे परिणम नहीं सकता, किन्तु उसरूपसे अपना परिणमना मानना, यह अज्ञानमय भाव है। सिद्धान्त- १- परको प्रात्मा माननेकी मान्यताका कर्तृत्व प्रज्ञानी जीवमें है। २- रागद्वेषप्रकृतिविपाकोदय होनेपर जीवमें रागद्वेषभावानुभवन होता है। दृष्टि- १- कारककारकिभेदक अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३), अशुद्ध निश्चयनय (४७)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग - विपरीतमान्यतासे ही विकारोंका प्रादुर्भाव जानकर यथार्थ ज्ञानबलसे विप. रीत मान्यता समाप्त करके अपनेमें कृतार्थताका प्रभ्युदय करना ॥२॥ अब कहते हैं कि ज्ञानसे कम नहीं उत्पन्न होता-~[जीवः] जीव [प्रात्मानं] अपनेको [परं] पररूप [प्रकुर्वन्] नहीं करता हुमा [च] और [परं] परको [प्रास्मानं अपि] अपने रूप भी [मकुर्वन्] नहीं करता हुआ [सः] वह [ज्ञानमयः] ज्ञानमय जीवः] जीव [कर्मरणां] कर्मों का [प्रकारक:] करने वाला नहीं [भवति] है। तात्पर्य-कर्मविपाकको प्रापा न माननेवाला ज्ञानी जीव कर्मका कर्ता नहीं होता है । टीकार्थ- यह जीव ज्ञानसे परका और अपना परस्पर भेदशान होनेसे परको तो Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार ज्ञानात न कर्म प्रभवतीत्याह--- परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो। सो णाणमश्रो जीवो कम्माणमकारयो होदि ॥१३॥ परको निज नहिं करता, अपनेको म पररूप करता यह । संज्ञानमयी प्रात्मा, कर्ता होता न कोका ६३॥ परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन् । स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारका भवति ॥३॥ अयं किल ज्ञानादात्मा परामनोः परस्परविशेषनिनि सति परमात्मानमकुर्वन्नात्मानं च परमकुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति । तथाहि-तथाविधानुभवसंपादनसमथायाः रागद्वेषसुखदुःखादिरूपायाः पुद्गलपरिणामावस्थायाः शीतोष्णानुभवसंपादनसमर्थायाः प्रशीतोष्णायाः पुद्गलपरिणामावस्थाया इव पुद्गलादभिन्नत्वेनात्मनो नित्यमेवात्यंतभिन्नायास्त नामसंज्ञ-पर, अप्प, अकुठवंत, अप्प, पि, य, पर, अकुञ्छत, त, णाणमा, जीव, कम्म, अकार। धातुसंज्ञ-कुव्व करणे, हो ससायां। प्रकृतिशम्द-पर, आत्मन्, आत्मन्, अपि, च, पर, तत्, ज्ञानमय, जीव, कर्मन्, अकारक । मूलधातु-अत सातत्यगमने, डुकृञ् करणे, ज्ञा अवबोधने, जीव प्राणधारणे, भू प्रात्मरूप नहीं करता हुआ और अपनेको पररूप नहीं करता हुग्रा पाप ज्ञानी हुअा कौका प्रकर्ता प्रतिभासित होता है । उसोको स्पष्ट करते हैं---जैसे शीत उरण अनुभव कराने में समर्थ शीत उष्णस्वरूप पुद्गलपरिणामकी अवस्था पुद्गलसे प्रभिन्न होनेके कारण प्रात्मासे नित्य ही अत्यंत भिन्न है, उसी प्रकार रागद्वेष सुख दुःखादिरूप अनुभव कराने में समर्थ राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप पुद्गलपरिणामको अवस्था पुद्गलसे भिन्न होनेके कारण प्रात्मासे नित्य हो, प्रत्यंत भिन्न है, तथा ऐसी पुद्गलविपाक अवस्थाके मिमित्तसे हुमा उस प्रकारका अनुभव प्रातमासे अभिन्नताके कारण पुद्गलसे अत्यंत सदा ही भिन्न है। ऐसी दोनोंकी भिन्नताके ज्ञानसे परस्पर विशेषका भेदज्ञान होनेपर नानात्वके विवेकसे, जैसे शीत उष्ण रूप प्रात्मा स्वयं परिणमनमें असमर्थ है, उसी प्रकार राग-द्वेष सुख-दुःखादिरूप भी स्वयं परिणमन करने में असमर्थ है । इस प्रकार प्रशानस्वरूप जो राग-द्वेष-सुख-दुःखादिक उन रूपसे न परिगमन करता, ज्ञानके ज्ञानत्वको प्रकट करता, ज्ञानमय हुप्रा ज्ञानी ऐसा जानता है कि "यह मैं रागद्वेषादिक को जानता ही हूं और ये पुद्गल रागरूप होते हैं । इत्यादि विधानसे सर्व ही ज्ञानविरुद्ध रागाविककर्मका अकर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ-~-जब ज्ञानी राग-द्वेष सुख-दुःख अवस्थाको ज्ञानसे भिन्न जानता है कि 'जैसे पुद्गलकी शीत उष्ण अवस्था तद्विषयक ज्ञानसे भिन्न है, उसी प्रकार रागद्वेषादिक भी तद्विष. यक ज्ञानसे भिन्न हैं ऐसा भेदज्ञान हो तब अपनेको ज्ञाता जाने व रागादिको पुद्गलको Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार निमित्तनशाविधानुभवस्थ चात्मनोऽभिन्नत्वेन पुद्गलान्नित्यमेवास्यंतभिन्नस्य ज्ञानात्परस्परधिशेषनिर्माने सति मानास्वविवेकाच्छोतोष्णरूपेणेवारमना परिमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञामात्मना मनागप्यपरिणममानो ज्ञानस्य शानत्वं प्रकटीकुर्वन् स्वयं ज्ञानमयीभूतः एषोहं जानाम्येव, रज्यते तु पुद्गल इत्यादिविधिना समग्रस्यापि रागादेः कर्मणो ज्ञान विरुद्धस्याको प्रतिभाति ॥३॥ ससायां । पदविवरण-पर-द्वितीया एकवचम । मात्मानं-द्वितीया एकवचन । अकुर्वन्-अ-कुर्वन्-प्रषमा एक० कृदंत । सः-प्रथमा एकवचन । शासमय:-प्रथमा एक०। जीव:-प्रथमा एक कर्ता । कर्मणा-षष्ठी बहु । अकारक:-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ॥३॥ जाने । ऐसा होनेपर इनका कर्ता मात्मा नही होता जाता ही रहता है, क्योंकि ज्ञानी जानता है कि जैसे शीत-उष्ण अवस्था पुद्गलकी है वह मात्माकी नहीं, ऐसे ही रागादि अनुभाग दशा पुद्गलकमंकी है वह प्रात्माकी नहीं है, प्रात्माकी दशा तो तद्विषयक अनुभव है जो कि पुत्गलसे बिल्कुल जुदा है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि प्रज्ञानसे कर्मका प्रभव होता है। अब उसीके प्रतिपक्षमें कहते हैं कि यथार्थ ज्ञान होनेसे कर्मका प्रभव नहीं होता है। तव्यप्रकारा--१- स्वपरका यथार्थ ज्ञान होनेसे प्रात्मा परको प्रापा नहीं मानता तथा प्रात्माको पररूप नहीं मानता है यही मूसमें ज्ञानमय भाव है। २.- प्रात्मा स्वयं रागद्वेषादि विपाकरूप परिणम तो सकता ही नहीं था प्रब भेदज्ञान होनेसे प्रज्ञानात्मक रागद्वेषादिरूपसे रंच भी नहीं परिणमता । --गानीके यह स्पष्ट निर्णय है कि यह मैं तो मात्र जानता ही हूं, कर्मप्रतिफलन हो उसे भी मात्र जानता हूं, मूलतः रागस्प तो पुद्गल हैं । ४-मैं मात्र जानन भावका ही करने वाला हूं इस हा निर्णयके कारण ज्ञानी समस्त रागादि परभावोंका प्रकर्ता है। सिद्धान्त-1-प्रात्मा स्वद्रव्य क्षेत्रकालभाव से है। .. प्रात्मा पुद्गलकर्मादि समरत परपदापोंके द्रव्य क्षेत्र-काल-भावसे नहीं है । ३- स्वपरके यथार्थ ज्ञान और ज्ञानभायना करने घाला ज्ञानी मशानमय कर्मका प्रकर्ता है। हि-१- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२९)। ३- शुदभावनापेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग---परको पर निजको निज जानकर ज्ञान मात्र अन्तस्तत्त्वमें रत होकर कृतकृत्य होनेका पौरुष करमा ॥६॥ पब कहते हैं कि कैसे प्रशानसे कम उत्पन्न होता है ? [एषः] यह [विविधः] तीन Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ कर्तृकर्माधिकार जयमशानात्कर्म प्रभवतीति चेत् तिविहो गसुवोगो अप्पवियप्पं करेइ कोहोहं। कत्ता तस्सुवोगस्स होइ सो अत्तभावस्स ॥४॥ उपयोग त्रिविध यह हो, क्रोष हूँ यो स्वविकल्प करता है। सो उस प्रात्ममावमय, होता उपयोगका कर्ता ॥१४॥ त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति क्रोधोहं । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥४॥ एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिध्यादर्शनासानाविरतिरूपस्त्रिविषः सविकारश्चैतन्य - परिणामः परात्मनोरविशेषदर्शनेनाविशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या व समस्तं मेदमपह नुत्य भाव्यभावकभावापन्नयोश्चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्येनानुभवनात्क्रोधोहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । ततोयमारमा क्रोधोहमिति भ्रांत्या सविकारेण चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सवि. नामसंमतिविह, एत, उवओग, अप्पवियप्प, कोह, अम्ह, कत्तार, त, उबओग, त, अत्तभाव । धातुसंज्ञ--उव-जुंज योगे, कर करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशब-विविध, एतत्, उपयोग आत्मविकल्प, क्रोध, अस्मद्, कहूं , तत्, उपयोग, तत्, आत्मभाव । मूलपातु--विध विधाने, उप-युजिर योगे, डुकृश् प्रकारका [उपयोगः] उपयोग [मात्मविकल्प] अपनेों तिकरूप [करोति करता है कि [अहं क्रोधः] मैं क्रोधस्वरूप हूं, [सः] सो वह [तस्य] उस [उपयोगस्य] उपयोगरूप [भारममावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता [भवति होता है। तात्पर्य-प्रज्ञानी जीव क्रोधादिस्वरूप अपनेको मानता है, अतः वह क्रोधादिस्प अपने उपयोगका कर्ता होता है। टीकार्थ-बास्तवमें यह सामान्यतः मझानरूप मिथ्यादर्शन प्रशान और प्रविरतिरूप तीन प्रकारका सविकार चैतन्य परिणाम पर और प्रात्माको प्रभेदश्रद्धासे, अभेदज्ञानसे और प्रभेदरूप रतिसे सब भेदको प्रोझल कर भाव्यभावकभाको प्राप्त हुए चेतन प्रवेतन दोनोंको समान अनुभव करनेसे 'मैं क्रोध हूं' ऐसा प्रसद्भूत प्रात्मविकल्प उत्पन्न करता है याने वह क्रोधको ही अपना जानता है। इस कारण यह प्रास्मा 'मैं क्रोध हूं' ऐसी भ्रांतिसे विकार सहित चैतन्य परिणामसे परिणमन करता हुमा, उस विकारसहित चतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है । इसी प्रकार कोष पदके परिवर्तनसे मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, राय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन, इन सोलह सूत्रों याख्यान करना चाहिये । और इसी उपदेशसे अन्य भी विचार लेना चाहिये । भावार्थ--मिध्यादर्शन, अशान मौर अविरति ऐसे विविध विकारसहित चैतन्यपरिणाम अपना पौर परका भेद न जानकर मैं क्रोधी हूं, मैं मानी हूं इत्यादि मानता है ऐसा Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ समयसार कारचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । एवमेव च क्रोधपदपरिवर्तनेन मानमायालोभमोहरागद्वेषकर्मनोकर्ममनोवचनकायनोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयान्यनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ९४|| करणे, क्रुम क्रोधे, भू सत्तायां । पदविवरण–त्रिविधः-प्रथमा एकः । एषः प्रथमा एक० । उपयोग:-प्रथमा एकवचन ! आत्मविकल्प-द्वितीया एकः। करोति दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन। क्रोधः-प्रथमा एक० । अहं-पथमा एक० । कर्ता-प्रथमा एक० । तस्य-षष्ठी एक० । उपयोगस्य-षष्ठी एक० । भवतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० । आत्मभावस्य-षष्ठी एकवचन ।।१४।। माननेसे अपने विकार सहित चैतन्य परिणामका यह अज्ञानी जीव कर्ता होता है और वह अशानभाव कम होता है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाधामें बताया गया था कि अज्ञानसे कर्म (भावकर्म) का प्रभव होता है और ज्ञानसे कर्मका प्रभव नहीं होता । सो अब यहां यह पूछा गया कि प्रज्ञान से कर्म कैसे उत्पन्न होते हैं इसीके समाधान में यह गाथा पाई है । तथ्यप्रकाश--(१) सर्वज्ञता न होने तक जो भी सोपाधि सविकार चैतन्यपरिणाम है वह सब सामान्यसे अज्ञानरूप है । (२) सम्यक्त्व न होने तक मिथ्याज्ञानरूप प्रज्ञान है । (३) मिथ्याज्ञानी याने प्रबल अज्ञानी अज्ञानसे भाव्य अपनेको और भावक कर्मविपाकरस क्रोधादि को एक साधाररूपसे अनुभव करके 'मैं क्रोध प्रादि हूं" ऐसा विकल्प बनाता है सो वह सविकार चैतन्यपरिणामरूप भावकर्मका कर्ता होता है । सिद्धान्त-(१) जीव अज्ञानसे अज्ञानमय भावकर्मका कर्ता है । (२) अज्ञानदशामें भी पर्याय एक प्रवक्तव्य है उसका व्यवहारसे मिथ्यादर्शन, अज्ञान, प्रबिरतिरूप तीन प्रकारों में वर्णन होता है। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- सभेद प्रशुद्धनिश्चयनय (४७), उपचरित अशुद्ध सद्भूतव्यवहार (७५)। प्रयोग–अपने प्रविकार चित्स्वरूप और कर्मरसमें प्रभेदबुद्धिसे ही सर्वसंकट होना जानकर अविकार चित्स्वरूपमें हो पात्मत्व स्वीकार कर इस अन्तःस्वरूप में मग्न होनेका पुरुषार्थ करना ॥१४॥ अज्ञानी धर्मद्रव्य प्रादि अन्य द्रव्यों में भी कैसा प्रात्मविकल्प करता है:-[एष] यह [त्रिविधः] तीन प्रकारका [उपयोगः] - उपयोग [धर्मादिकं] धर्म प्रादिक द्रव्यरूप [मात्मर्षि कल्पं] अात्मविकल्प [करोति] करता है याने उनको अपने जानता है [सः] सो बह [सस्य] उस [उपयोगस्य] उपयोगरूप [प्रात्मभावस्य] अपने भावका [कर्ता] कर्ता [भवति होता है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्माधिकार तिविहों सुवयोगो अपविययं करेदि धम्माई | कत्ता तस्सुवोगस्स होदि सो त्तभावस्स ||६|| १६७ उपयोग विविध ग्रह हो, धर्मादिक हूँ विकल्प यों करता । सो उस आत्मभावमय होता उपयोगका कर्ता ॥ ६५ ॥ त्रिविध एष उपयोग आत्मविकल्पं करोति धर्मादिकं । कर्ता तस्योपयोगस्य भवति स आत्मभावस्य ॥६५॥ एष खलु सामान्येनाज्ञानरूपो मिथ्यादर्शनाज्ञानाविरतिरूप स्त्रिविधः सविकारश्चेतन्यपरिणामः परस्परम विशेष दर्शनेना विशेषज्ञानेनाविशेषविरत्या व समस्तं भेदमपहनुत्य यज्ञायकभावापन्नयोः परात्मनोः सामानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोऽहमधर्मोऽहमाकाशमहं कालोऽहं पुद्ग लोऽहं जीवांतरममित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । ततोऽयमात्म धर्मोऽहमधर्मोहमाकाशमहं नामसंज्ञ - तिविह, एत, उवओग, अप्पवियप्प, धम्मादि, कतार, त, अत्तभाव । धातुसंज्ञ उबउज्ज योगे, कर करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द- - त्रिविध, एतत्, उपयोग, आत्मविकल्प, धर्मादिक, कर्तृ, तत्, उपयोग, तत्, आत्मभाव । मूलधातु-- धृत्र धारणे भ्वादि, उप-युजिर् योगे । पदविवरण – त्रिविध:प्रथमा एक० । एषः - प्र० ए० । उपयोग:- प्र० ए० । आत्मविकल्पं द्वितीया एकवचन । करोति-वर्तमान टीकार्थ - सामान्यसे मिथ्यादर्शन, प्रज्ञान, प्रविरतिरूप तीन प्रकारका प्रज्ञानरूप सविकार चैतन्यपरिणाम ही परके और अपने परस्पर अविशेष दर्शन से, अविशेष ज्ञानसे और श्रविशेष चारित्र से समस्त भेदोंको लोप करके शेयज्ञायकभावको प्राप्त धर्मादि द्रव्योंके अपने और उनके एक समान आधारके अनुभव करनेसे ऐसा मानता है कि मैं धर्मद्रव्य हूं, मैं प्रधर्मद्रव्य हूँ, मैं श्राकाशद्रव्य हूं, मैं कालद्रव्य हूं, मैं पुद्गलद्रव्य हूं, मैं ग्रन्य जो भी हूं, ऐसे भ्रमसे उपाधिसहित अपने चैतन्यपरिणाम से परिगमन करता हुआ उस उपाधिसहित चैतन्यपरिणमनरूप अपने भावका कर्ता होता है । इस कारण यह निर्णय रहा कि कर्तृत्वका मूल प्रज्ञान है । भावार्थ - यह आत्मा अज्ञानसे धर्मादि द्रव्य में भी भ्रापा मानता है । अतः उस अपने अज्ञानरूप चैतन्यपरिणामका स्वयं ही कर्ता होता है प्रश्न - पुद्गल और अन्य जीव सो प्रवृत्ति में दीखते हैं, उनमें तो अज्ञानसे प्रापा मानना ठीक है, परन्तु धर्मद्रव्य, श्रधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, कालद्रव्य तो देखने में भो नहीं पाते, उनमें भाषा मानना कैसे कहा ? उत्तर-यह धर्मास्तिकाय है ऐसा ज्ञानविकल्प भी उपचारसे धर्मास्तिकाय है सो इस विकल्पके करनेके समय यज्ञानी शुद्धात्मस्वरूपको भूल जाता है, सो उस विकल्पके करनेपर मैं धर्मास्तिकाय हूं ऐसा एकाकार होना यही धर्मद्रव्यको अपना करना कहलाता है। ऐसा ही अधर्मादिद्रव्यमें भी । समझना । प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्वं गाथामें भाव्यभावकविधिसे वरको प्रातमत्व स्वीकारने Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० समयसार कालोऽहं पुद्गलोऽहं जीवांतरमहमिति भ्रांत्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन तस्य सोपाधिचैतन्यपरिणामरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानं ॥६५॥ लट् अन्य पुरुष एक । धर्मादिक-द्वितीया एक० । कर्ता-प्रथमा एक० । तस्य-षष्ठी एकः । उपयोगस्यषष्ठी एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । सः-प्र० ए० । आत्मभावस्य-पप्ठी एकवचन ॥६५॥ वाले अज्ञानसे भावकर्मप्रभवकी बात बताई थी, अब ज्ञेयज्ञायकविधिसे परको प्रात्मत्व स्वी. कारने वाले प्रज्ञानसे भावकर्मप्रभवकी बात इस गाथामें कही गई । समप्रकाश - (१) मिथ्याज्ञानरूप अज्ञानसे जीव ज्ञेय परपदार्थको व शायक अपने प्रापको समान आधाररूपसे अनुभव करके परज्ञेयाकारमें यह मैं हूं इस विकल्पको करता है। (२) अज्ञानसे यह जीव परद्रव्य ज्ञानविकल्पको स्वयं प्रापा मानकर प्राशनी सोपाधि चैतन्यपरिणामरूप प्रात्मभावका कर्ता होता है । _सिद्धान्त-(१) अज्ञानी परपरिच्छित्तिविकल्पमें स्वत्व अनुभव कर सोपाधिचैतन्यपरिणामरूप भावकर्मका कर्ता होता है । (२) मस्तिकाचादि-पारच्छितिरूप विकल्पमें धर्मास्तिकायादिका आरोप होता है । दृष्टि-- १- अशुद्धनिश्चयनय (४५)। २- एकजातिपर्याये अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१२१)। प्रयोग- झेयोंसे पृथक् शेयाकारपरिच्छित्तिरूप विकल्पसे विविक्त ज्ञानमय एक ज्ञायक भावमें दृष्टि रखकर ज्ञेयज्ञायकसकरता दूर कर परमविश्राम अनुभवना चाहिये ।।६५|| यहाँ कर्तृत्वका मूल कारण प्रज्ञान है, इसीके समर्थन में कहते हैं---[एवं ] ऐसे पूर्वकथित रीतिसे [मंदबुद्धिः] अज्ञानी [प्रशानमान] प्रज्ञान भावसे [पराणि द्रव्याणि] परद्रव्योंको [प्रात्मानं] अपनेरूप [करोति] करता है [अपि च] और [प्रात्मानं] अपनेको परं करोति] पररूप करता है। तात्पर्य यह मंदबुद्धि मिथ्यादृष्टि जीव परको प्रारमरूप व आत्माको पररूप प्रज्ञानके कारण मानता है। टीकार्थ-यह प्रात्मा मैं क्रोध हूं, मैं धर्मद्रव्य हूं इत्यादि पूर्वोक्त प्रकारसे परद्रव्योंको प्रात्मरूप करता है और अपनेको परद्रव्यरूप करता है, ऐसा यह प्रात्मा यद्यपि समस्त वस्तुके सम्बन्धसे रहित अमर्यादरूप शुद्ध चैतन्य धातुमय है तो भी अज्ञानसे सविकार सोपाधिरूप किये अपने चैतन्य परिणामरूपसे उस प्रकारका अपने परिणामका कर्ता प्रतिभासित होता है । इस प्रकार प्रात्माके भूताविष्ट पुरुषकी भांति तथा ध्यानाविष्ट पुरुषकी भांति कर्तापनेका मूल प्रज्ञान प्रतिष्ठित हुअा। यही अब स्पष्ट करते हैं-भूताविष्ट पुरुष (अपने शरीरमें भूतप्रवेश किया Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ দক্ষদাঁধিকাৰ १६८ एवं पराणि दव्वाणि अप्पयं कुणादि मंदबुद्धीयो। अप्पाणं अवि य परं करेइ अण्णाणभावेण ॥६६॥ __ यों मंदबुद्धि करता, परद्रव्योंको हि प्रारमा अपना ।। अपनेको भी परमय, करता प्रशानमावोंसे ॥७७॥ एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मंदबुद्धिस्तु । आत्मानमपि च परं करोति अशानभावेन 1॥६६॥ यत्तिल क्रोधोऽहमित्यादिवद्धोऽहमित्यादिवच्च परद्रव्याग्यात्मीकरोत्यात्मानमपि पर. द्रव्यीकरोत्यवमात्मा, तदयमशेषवस्तुसंबंधविधुरनिरवधिविशुद्धचैतन्यधातुमयोप्यज्ञानादेव सविकारसोपाधीकृतचैतन्यपरिणामतया तथाविधस्यात्मभावस्थ कर्ता प्रतिभातीत्यात्मनो भूताविष्टध्यानाविष्टस्येव प्रतिष्ठितं करतगूलमज्ञा दयाह- जानु तानियोऽज्ञानाद्भूतात्मानावेकीकुर्वनमानुषोचितविशिष्टचेष्टावष्टंभनिर्भरभयंकरारंभगंभीरामानुषव्यवहारतया तथाविधस्थ - नामसंश-एवं, पर, दव, अप्पय, मंदबुद्धि, अप्प, अवि, य, पर, अण्णाणभाव। पातुसंश-कुण करणे, कर करणे । प्रकृतिशब्द-एवं, पर, द्रव्य, आत्मन्, मंदबुद्धि, आत्मन्, अपि, च, पर, अज्ञानभाव। दुमा) अज्ञान से भूतको और अपने को एकरूप करता हुप्रा जैसी मनुष्यके योग्य चेष्टा न हो, वैसी चेष्टाके आलम्बन रूप अत्यन्त भयकारी प्रारंभसे भरा अमानुष व्यवहारसे उस प्रकार चेष्टारूप भावका कर्ता प्रतिभासित होता है, उसी प्रकार यह आत्मा भी अज्ञानसे ही पर और प्रात्माको भाव्य-भावकरूप एक करता हुमा निर्विकार अनुभूतिमात्र भावकके अयोग्य अनेक प्रकार भाव्यरूप क्रोधादि विकारसे मिले चैतन्यके विकार सहित परिणामसे उस प्रकारके भाव का कर्ता प्रतिभासित होता है । तथा जैसे किसी अपरोक्षक प्राचार्यके उपदेशसे भैसेका ध्यान करने वाला कोई भोला पुरुष प्रज्ञानसे भैसेको और अपनेको एकरूप करता हुआ अपनेमें गगनस्पर्शी सोंग वाले महान् भैंसापनेके अध्याससे मनुष्यके योग्य छोटी कुटोके द्वारसे निकलनेसे च्युत रहा उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। उसी प्रकार यह प्रात्मा भी मज्ञानखे ज्ञेयज्ञायकरूप पर और प्रात्माको एकरूप करता हुअा अात्मामें परद्रव्यके अध्याससे (निश्चयसे) मनके विषयरूप दिये धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और अन्य जीवद्रव्य शुद्ध चैतन्यधातु रुकी होनेसे तथा इंद्रियोंके विषयरूप किये गये रूपी पदार्थोके द्वारा अपना केवल (एक) ज्ञान ढका गया होनेसे तथा मृतक शरीरमें परम अमृतरूप विज्ञानघन प्रात्माके मूछित होने से उस प्रकारके भावका कर्ता प्रतिभासित होता है। ___ भावार्थ--यह आत्मा अज्ञानसे अचेतनकर्मरूप भावकके क्रोधादि भावको चेतनभावक के साथ याने अपने से एकरूप मानता है और धर्मादिद्रव्य ज्ञेयरूप हैं, उनको भी शायकके साय Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारं भावस्य का प्रतिभाति । तथायमात्माप्यज्ञानादेव भाव्यभावको परात्मानावेकीकुर्वन्नविकारानुभूतिमात्रभावकानुमितविचित्रभाव्यक्रोधादिविकारकरंवितचैतन्यपरिणामविकारतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । यथा चापरीक्षकाचार्यादेशेन मुग्धः कश्चिन्महिषध्यानाविष्टोऽज्ञानान्म. हिषात्मानावेकीकुर्वन्नात्मन्यभ्र कषविषाणमहामहिषत्वाध्यासात्प्रच्युतमानुषोचितापवरकद्वारविनिमूलधातु-त्रु गती द्रवणे, डुकुन्न करणे, बुध अवगमने भ्वादि व दिवादि। पदविवरण-एवं-अव्यय । पराणि-द्वितीया बहुवचन । व्याणि-द्वितीया बहुवचन । आत्मानं-द्वि० एक०। करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । मंदबुद्धिः-प्रथमा एकः । तु-अव्यय । आत्मान-द्वि० एक० । अपि अध्यय । च-अव्यय । यांने अपने से एकरूप मानता है । अतः वह सांवकार और सोपाधिक चैतन्यपरिणामका कर्ता होता है । यहाँ क्रोधादिकसे एक माननेका तो भूताविष्ट पुरुषका दृष्टांत है और धर्मादि अन्य द्रव्यसे एकता माननेका ध्यानाविष्ट पुरुषका दृष्टांत है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुग्ममें यह बताया गया था कि अज्ञानसे जीव भाव्यभावकविषयक अभेदबुद्धिसे भावकर्मका कर्ता है और परशेयज्ञायकविषयक अभेदबुद्धिसे सावकर्मका कर्ता है । इस विवरणके बाद इस गाथामें निर्णय पुष्ट किया गया है कि कर्तृत्वका मूल अज्ञान ही है। तथ्यप्रकाश-१ असे भूताविष्ट पुरुष भूत और अपनेको एक करता हुआ अमानुषीय नटपट चेष्टा करता है इसी प्रकार कर्मविपाकाक्रान्त जीव कमरस और अपनेको एक करता हुमा स्वभावानुचित क्रोधादिविकार विकल्प करता है । २-जैसे महिषध्यानाविष्ट पुरुष विकल्प में भैसा और अपनेको एक करता हुआ महाविषाणपनेके अध्याससे कैसे मनुष्योचित छोटे द्वार से निकलू ऐसा विकल्पविमूढ होकर अस द्विकल्प करता है इसी प्रकार परज्ञेयध्यानाविष्ट जीव परज्ञेय व ज्ञायकरूप अपनेको एक करता हुआ परद्रव्यके अध्याससे मूच्छित होकर पररूपातमविकल्पविमूढ होकर प्रसद्विकल्प करता है । सिद्धान्त - १- परभावोंको व परद्रव्योंको प्रात्मरूप मानना मिथ्या है, केवल किसी सम्पर्कके कारण परद्रव्यों को प्रात्मरूप मानना मिथ्या है, केवल किसी सम्पर्कके कारण परद्रव्योंको ५ परभावोंको आत्मरूप कहना रूढ़ हो गया है । २- वस्तुत: आत्मा परद्रव्यों द परभावोसे विविक्त केबल चेतनामात्र है। दृष्टि -१- उपाधिज उपचरित प्रतिफलन व्यवहार (१०४), उपाधिज उपचरित स्व. स्वभावव्यवहार (१०३), एकजातिद्रव्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१०६), स्वजातिद्रव्ये स्वजातिद्रव्योपचारक असद्भूतव्यवहार (१०६अ)। २- परमशुद्धनिश्चयनय (४४), शुद्धनय (४६) । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार २०१ स्सरणतया तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति । तथायमात्माप्यज्ञानाद ज्ञेयज्ञायको परात्मानावेकोकुर्वन्नात्मनि परद्रव्याध्यासान्नोइंद्रियविषयीकृतधर्माधर्माकाशकालपुद्गलनीवांतरनिरुद्धशुद्धचैतन्यधातुतया तथेन्द्रियविषयीकृतरूपिपदार्थतिरोहितकेवलबोधतया मृतककलेवरमूछितपरमामृतविज्ञानधनतया च तथाविधस्य भावस्य कर्ता प्रतिभाति ॥६६|| पर-द्वितीया एक० । करोति-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक० किया । अज्ञानभावेन-तृतीया एकवचन करणकारक ॥६६॥ प्रयोग - परमशान्ति पानेके लिये परद्रव्योंसे अत्यन्त भिन्न अपने चैतन्यस्वरूपमात्र अपनेको अनुभवना चाहिये ॥६६॥ अब कहते हैं कि इसी कारणसे यह ठीक रहा कि शानसे कर्तृत्वका नाश होता है[एतेन तु] इस पूर्वकथित कारणसे [निश्चयविद्धिः] निश्चयके जानने वाले ज्ञानियोंके द्वारा [स प्रात्मा] वह प्रोत्मा [कर्ता परिकथितः] कर्ता कहा गया है [एवं खलु] इस प्रकार निश्चयसे [यः] जो [जानाति] जानता है [सः] वह ज्ञानी हुमा [सर्वकर्तृत्वं] सब कर्तृत्व को [मुचति] छोड़ देता है। तात्पर्य-परद्रव्यभावके कयापिकल्पको अमानलीला रामझ लेनेवर अखबुद्धि हट जाती है। . टीकार्य—जिस कारणसे यह प्रात्मा प्रज्ञानसे परके और आत्माके एकत्वका विकल्प करता है, उस कारणसे निश्चयसे कर्ता प्रतिभासित होता है, ऐसा जो जानता है, वह समस्त कर्तृत्वको छोड़ देता है, इस कारण वह प्रकर्ता प्रतिभासित होता है । यही स्पष्ट कहते हैंइस जगतमें यह प्रात्मा अशानी हुआ प्रशानसे अनादि संसारसे लगाकर पुद्गल कर्मरस और अपने भावके मिले हुए प्रास्वादका स्वाद लेनेसे जिसकी अपने भिन्न अनुभवकी शक्ति मुद्रित हो गई है, ऐसा अनादिकालसे हो है, इस कारण वह परको और अपनेको एकरूप जानता है। इसी कारण मैं क्रोध हूं इत्यादिक विकल्प अपनेमें करता है, इसलिए निर्विकल्प रूप अकृत्रिम अपने विज्ञानधनस्वभावसे भ्रष्ट हुमा बारम्बार अनेक विकल्पोंसे परिणमन करता हुया कर्ता प्रतिभासित होता है। और जब ज्ञानी हो जाय, तब सम्यग्ज्ञानसे उस सम्यग्ज्ञानको प्रादि लेकर प्रसिद्ध हुमा जो पुद्गलकर्मके स्वादसे अपना भिन्न स्वाद, उसके मास्वादनसे जिसकी भेदके अनुभवको शक्ति प्रकट हो गई है, तब ऐसा जानता है कि अनादिनिधन निरंतर स्वादमें प्राता हुआ समस्त अन्य रसके स्वादोंसे विलक्षण, अत्यन्त मधुर एक चैतन्यरस स्वरूप तो यह मात्मा है, और कषाय इससे भिन्न रस हैं, कषैले हैं, बेस्वाद हैं, उनसे युक्त एकत्वका जो विकल्प करना है; वह अज्ञानसे है । इस प्रकार परको और आत्माको पृथक्-पृथक् नानारूपसे Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ समयसार ततः स्थितमेतद् ज्ञानानश्यति कर्तृत्वं--- एदेण दु सो कत्ता यादा णिच्छयविदूहि परिकहिदो। एवं खलु जो जाणदि सो मुचदि सव्वकत्तित्तं ॥१७॥ इस प्रात्माको कर्ता, होना अज्ञानमें बताया है । ऐसा हि जानता जो, वह सब कर्तृत्वको तजता ॥६॥ एतेन तु स कत्मिा निश्चयविद्भिः परिकथितः । एवं खलु यो जानाति स मुंचति सर्व कर्तृत्वं ||१७|| येनायमज्ञानापरात्मनोरेकत्वविकल्पमात्मनः करोति तेनात्मा निश्चयतः कर्ता प्रतिभाति । यस्त्वं जानाति स समस्तं वतृत्वभुत्सृजति, ततः स खल्बकर्ता प्रतिभाति । तथाहिइहायमात्मा किल ज्ञानी सन्नज्ञानादासंसारप्रमिद्धेन मिलितस्त्रादस्वादनेन मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिरनादित एव स्यात् ततः परात्मानावेकरवेन जानाति ततः क्रोधोहमित्यादिविकल्पमात्मनः करोति ततो निर्विकल्पादकृतकादेकस्माद्विज्ञानघनात्प्रभ्रष्टो बारम्बारमनेकविकल्पः परिणमन् कर्ता प्रतिभाति । ज्ञानी तु सन् ज्ञानात्तदादिप्रसिद्ध्यता प्रत्येक स्वादस्वादनेनोन्मुद्रितभेदसंवेदनशक्तिः स्यात् । नामसंज्ञ-एत, दु, कत्तार, अत्त, पिछयचिदु, परिकहिद, एवं, खलु, ज, जाण अवोधने, त, सव्वकत्तित्त । धातुसंज्ञ-विद झाने, परि-कह वाक्य प्रबन्धे, जाण अवबोधने, मुंच त्यागे। प्रकृतिशय--- जानता है । इसलिए प्रकृत्रिम, नित्य, एक ज्ञान ही मैं हूं और कृत्रिम, अनित्य, अनेक जो ये क्रोधादिक हैं, वे मैं नहीं हैं ऐसा जाने तब क्रोधादिक मैं हं' इत्यादिक विकल्प अपनेमें किषिमात्र भी नहीं करता । इस कारण समस्त ही कर्तृत्वको छोड़ता हुआ सदा ही उदासीन वीत. राम अवस्था स्वरूप होकर ज्ञायक ही रहता है, इसीलिए निर्विकल्पस्वरूप प्रकृत्रिम नित्य कए विज्ञानधन हुअा अत्यन्त प्रकर्ता प्रतिभासित होता है। भावार्थ-यदि कोई परद्रव्यके भावोंके अपने कर्तृत्वको प्रज्ञान जान ले सब पाप विकल्पमें भी उसका कर्ता क्यों बने ? मज्ञानी रहना हो तो परद्रव्यूका कर्ता बने । इसलिए ज्ञान होनेके बाद परद्रध्यका कर्तृत्व नहीं रहता। अब इसी अर्थका कलशरूप काथ्य कहते हैं--अज्ञान इत्यादि । अर्थ- जो पुरुष निश्चयसे स्वयं ज्ञानस्वरूप हुआ भी अज्ञानसे तृप सहित मिले हुये अन्नादिक सुन्दर श्राहारको खाने वाले हस्ती प्रादि तिर्यञ्चके समान होता है, वह शिस्वरिनी (श्रीखण्ड) को पीकर उसके दही मीठेके मिले हुए खट्टे मीठे रसकी प्रत्यन्त इसछासे उसके रसभेदको न जानकर दूध के लिये गायको दुहता है। भावार्थ-जैसे कोई पुरुष शिखरिनको पीकर उसके स्वादको प्रतिइच्छासे रसके ज्ञान बिना ऐसा जानता है कि यह गायके दूधमें स्वाद है, अत: प्रतिलुन्ध हुआ गायको दुहता है, Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार सतोऽनादिनिधनानवरतस्वदमाननिखिलरसांतरविविक्तात्यंतमधुरचैतन्य फरसोऽयमात्मा भिन्नरसाः कषायास्तैः सह यदेकत्व विकल्पकरणं तदज्ञानादित्येवं नानात्वेन परात्मानौ जानाति । सतोऽकृतकमेकं ज्ञानमेवाहं न पुनः कृतकोऽनेक: क्रोधादिरपीति कोधोहमित्यादिविकल्पमात्मनो मनागपि न करोति तत: समस्तमपि कर्तुत्वमपास्यति । ततो नित्यमेवोदासीनावस्यो जानन एवास्ते । ततो निर्विकल्पोऽकृतक एको विज्ञानधनो भूतोऽल्यंतमकर्ता प्रतिभाति । अज्ञानतस्तु सतृणाम्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः । पोरुवा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या मां दोग्घि दुग्धमिव नूनमसौ रसाला ।। ५७।। अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावति पातुं मृगा, एतत्, तु, तत्, कर्तृ, आत्मन्, निश्चयषिद्, परिकषित, एवं, खस्नु, यत्, तत्, सर्वकर्तृत्व । मूलधातु- डुकृत्र कारपे, अत सातत्यगमने, निस्-चित्र चयने, विद शाने श्रदादि, परि-कप वाक्यप्रबंधे चुरादि, ज्ञा अवबोधने, उसी प्रकार अज्ञानी पुरुष अपना और पुद्गलकर्मविपाकका भेद न जानकर रागादि भावमें एकाकाररूपसे प्रवृत्त होता है और इसी चोटसे विषयोंमें स्वाद जानकर पुदगलकमको अतिलुब्ध होकर ग्रहण करता है, अपने ज्ञानका और पुद्गलकर्मका स्वाद पृथक् नहीं अनुभव करता ! वह हाथोकी भांति घासमें मिले हुए मिष्ट अन्नका एक स्वाद लेता है। अब कहते हैं कि अज्ञानसे ही जीव पुद्गलकर्मका कर्ता होता है-प्रमानान्मृग इत्यादि । अर्थ-ये जीव निश्चयसे शुद्ध एक शानमय हैं, तो भी वे प्रशानके कारण पानसे सरंगित समुद्रकी भांति विकल्पसमूहके करनेसे व्याकुल होकर परम्पके कर्तारूप होते है। देखो प्रज्ञानसे ही मृग बालूको जल जानकर पीनेको दोड़ते हैं और देखो पानसे हो लोक अंधकारमें रस्सीमें सका निश्चय कर भयसे भागते हैं । भावार्थ---प्रज्ञानसे क्या नहीं होता ? मृग तो बालूको जल जानकर पीनेको दोलता है और खेद-खिन्न होता है, मनुष्य लोक अंधेरेमें रस्सीको सर्प मान डरकर भागते हैं, उसी प्रकार यह प्रात्मा, जैसे वायुसे समुद्र क्षोभरूप हो जाता है, वैसे प्रशानसे अनेक विकल्पोंसे क्षोमरूप होता है । सो ऐसे हो. देखिये-- यद्यपि प्रात्मा परमार्षसे सुद्ध मानधन है तो भी प्रशानसे का होता है। अब कहते हैं कि ज्ञान होनेपर यह जीव कर्ता नहीं होता-जाना इत्यादि । अर्थसो पुरुष ज्ञानसे भेदज्ञानको कला द्वारा परको तथा प्रात्माका विशेष मेद जानता है, वह पुरुष दूध जल मिले हुएको भेदकर दूध ग्रहण करने वाले हंसकी तरह है, अचल चैतन्यधातुको सदा माश्रय करता हुआ जानता ही है, और कुछ भी नहीं करता । मावार्थ --जो निजको निज बपरको पर जानता है, वह ज्ञाता हो है, कर्ता नहीं है। अब बताते हैं कि जो कुछ जाना जाता है, वह ज्ञानसे ही जाना जाता है ---शामायण Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अज्ञानात्तमसि द्रवति भुजगाध्यासेन रज्जो जनाः । प्रज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरंगान्धिवत, शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कीभवत्याकुलाः ॥५८॥ ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोयों, जानाति हंस इव वापयसोविशेषं । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानाति एम. हि करोति न किंघनापि ॥५६॥ ज्ञानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्यशैत्यव्यवस्था, ज्ञानादेवोल्लसति लवणस्वादभेदमुछ्नु मोक्षणे तुदादि । पदविवरण-एतेन-तृतीया एक० । तु-अव्यय । सः-प्रथमा एक० । कर्ता-प्रथमा एक० । आत्मा-प्रथमा एक० । निश्चयविद्भिः-भृतीया बहु० कर्मवाच्ये कर्ता । एवं-अव्यय । खलु-अव्यय । इत्यादि । अर्थ-जैसे अग्नि और जलकी उष्णता सौर शीतलताको व्यवस्था ज्ञानसे ही जानी जाती है; लवण तथा व्यंजनके स्वादका भेद ज्ञानसे ही जाना जाता है । उसी प्रकार अपने रस से विकासरूप हुआ जो नित्य चैतन्यधातु उसका तथा क्रोधादिक भावोंका भेद भी ज्ञानसे ही जाना जाता है । म गैह कर्तृको मनमो दूर नासा हुमा प्रकट होता है । ___अब कहते हैं कि आत्मा अपने भावका ही कर्ता है....प्रज्ञानं इत्यादि । अर्थ—इस प्रकार प्रज्ञानरूप तथा ज्ञानरूप भी प्रात्माको ही करता हुमा आत्मा प्रकट रूपसे अपने हो। भावका कर्ता है, वह परभावका कर्ता तो कभी नहीं है। अब पामेको गाथाको सूचनिकारूप श्लोक कहते हैं- प्रात्मा इत्यादि । अर्थ-प्रारमा ज्ञानस्वरूप है, वह स्वयं ज्ञान ही है, वह ज्ञानसे अन्य किसको करता है ? किसीको नहीं करता । तब परभावका कर्ता प्रात्मा है ऐसा मानना तथा कहना व्यवहारी जीवोंका मोह (अज्ञान) है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि यह निर्णय हुधा कि अज्ञानसे कर्मका प्रभव होता है । अब यहां यह निर्णय इस गाथामें दिया है कि ज्ञानसे कर्तृत्व नष्ट हो. जाता है। सभ्यप्रकाश–१- पर और प्रात्माका एकत्व नहीं है, किन्तु प्राणी अज्ञानसे पर व प्रात्माके एकत्यका विकल्प करता है, इसीसे प्रात्मा कर्ता कहलाता है । २- जो अज्ञानसे होने वाले विकल्प कर्तृत्वके तथ्यको जानता है वह ज्ञानी है, वह कर्तृत्वको छोड़ देता है । ३-पर पौर प्रात्माको एकमेक जाननेका कारण ज्ञेयमिश्रित ज्ञानका स्वाद लेनेसे भेदज्ञानकी शक्तिका मुद्रित हो जाना है । ४--पर पोर पात्माको एफरूपसे जाननेके कारण अज्ञानी जीव "मैं क्रोध हूं" इत्यादिरूप प्रात्मविकल्प करता है। ५- विकारोंमें प्रात्मविकल्प करनेसे निर्विकल्प विज्ञानधन स्वरूपसे भ्रट होता हुआ यह प्रशानी बारबार अनेक विकल्पोंसे परिणमता हुआ का कहा जाता है। - स्वभाष परभावका भेद मानने वाला ज्ञानी परतस्वसे भिन्न अपना स्वादभेदसंवेदन शक्तिवाला होता है । ७-मैं तो एक चैतन्यरस हूं, कषायें भिन्नरस हैं, भेद. शानमें ऐसा स्पष्ट ज्ञान रहता है। ८-- सहजसिद्ध ज्ञानमात्र अपनेको स्वीकारने वाला तथा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ----- -- कर्तृकर्माधिकार २०५ व्युदासः । ज्ञानादेव स्वरसविक्रसन्नित्यचैतन्यधातोः, क्रोधादेश्च प्रभवति भिदा भिंदती कनभावं ।।६०। प्रज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमंजसा । स्यातकर्तात्मभावस्य परभावस्य न क्वचित् ॥६१॥ प्रात्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किं । परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिगा ।।६२॥ ॥१७॥ ...."-." य:-प्रथमा एक० | जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । स:-प्रथमा एक० | मुंचति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सर्वकर्तृत्व-द्वितीया एकवचन ।। ६७।। अपने में कृतक अनेक विकाररूपोंको निषेधने वाला ज्ञानी क्रोधादिरूप प्रात्मविकल्पको रंच भी नहीं करता है अतः वह अकर्ता है । ६-- आत्मा स्वयं ज्ञानमात्र है, वह भान सिवाय अन्य कुछ नहीं करता है। सिद्धान्त-१-समस्त परद्रव्यों व परभावोंसे विविक्त यह आत्मा चैतन्यकरस है। २-अविकार सहजज्ञानस्वभावके आश्रयसे समस्त कर्मतब कलंक दूर हो जाता है। दृष्टि----१-परमशुद्धनिश्चयनय (४४)। २-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यायिकनय (२४ब)। प्रयोग-चैतन्य रसमात्र आत्मामें स्थपरके प्रज्ञानसे ही परात्म विकल्प होता है ऐसा जानकर अपने प्रकर्तृ स्वभाव चैतन्यस्वरूपमें रत होकर निराकुल होना चाहिये ।।६७॥ अब यही कहते हैं कि व्यवहारी ऐसा कहते हैं:-[प्रात्मा] प्रात्मा [व्यवहारेरण] व्यवहारसे [घटपटरथान द्रव्याणि] बट पट रथ इन वस्तुओंको [च और [करणानि] इंद्रियादिक करणपदार्योंको [च] और [कर्माणि] ज्ञानावरणादिक तथा क्रोधादिक द्रव्यकर्म, भावकोंको [घ इह] तथा इस लोकमें [विविधानि] अनेक प्रकारके [नोकर्माणि] शरीरादि नोकोको [करोति] करता है। तात्पर्य—व्यवहारसे ही यह कहा जाता है कि जीव परद्रव्य व परभावको करता है । टोकार्थ-जिस कारण व्यवहारी जीवोंको यह प्रात्मा अपने विकल्प और व्यापार इन दोनोंके द्वारा घट प्रादि परद्रव्य स्वरूप बाहकमको करता हुमा प्रतिभासित होता है, इस कारण उसी प्रकार क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप समस्त अंतरंग कर्मको भी करता है। क्योंकि दोनों परद्रव्यस्वरूप हैं, परत्वको दृष्टिसे इनमें भेद नहीं । सो यह व्यवहारी जीयोंका अज्ञान है । भावार्थ- घट पट कर्म नोकर्म प्रादि परद्रव्योंका कर्ता अपनेको मानना यह तो व्यवहारी जनों का अज्ञान है। प्रसंगविवरण-~अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि निश्चयसे यह प्रात्मा जानता हो है, परद्रव्यको व परभावको करता नहीं है । इस विवरणपर यह जिज्ञासा होती है कि घट Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ नथा हि समयसार हारेण दु यादा करेदि धडपडरथाणि दव्वाणि । करण यि कम्माण य खोकम्माणीह विविहाणि ॥६८॥ व्यवहारमात्रसे यह प्रात्मा करता घटावि द्रव्योंको । करणोंको कर्मोंको नोकर्मीको बताया है ||८|| व्यवहारेण त्वात्मा करोति घटपटरथान् द्रव्याणि । करणानि च कर्माणि च नोकर्माणीह विविधानि ॥६८॥ araहारिणां हि यतो यथायमात्मात्मविकरूपव्यापाराभ्यां घटादिपरद्रव्यात्मकं बहिःकर्म कुर्वन् प्रतिभाति ततस्तथा क्रोधादिपरद्रव्यात्मकं च समस्तमंतःकर्माणि करोत्यविशेषादित्यस्ति व्यामोहः ॥६८॥ करना !! ६८ ॥ नामसंज्ञ - बवहार, दु, अत्त, धडपडरथ, दव्व, करण, य, कम्म, य, शोकम्म, इह, विविह । धातुसंश- कर करणे । प्रकृतिशब्द-व्यवहार, तु, आत्मन्, घटपटरथ, करण, च, कर्मन, च, नोकर्मन् इह, विविध मूलधातु-वि-अवन्त्र हरणे, घट संघाते चुरादि, पट गतौ भ्वादि । पदविवरण- व्यवहारेणतृतीया एक० । तु-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एक० 1 करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । घट पटरथाणि द्वितीया बहु० । द्रव्याणि द्वितीया बहु० कर्मकारक । करणाणि द्वितीया बहु० । च- अव्यय । कर्माणि द्वि० बहु० । च-- अ० । नोकर्माणि द्रि० बहु० । हह-अव्यय । विविधानि द्वितीया बहुवचन ॥१६८ || पट आदिको करनेका प्ररूपण किस प्रकार है इसके समाधान में यह गाथा आई है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) श्रात्मा घटपट श्रादि परद्रव्योंको करता है यह उपचार से कहा जाता है । ( २ ) इस उपचार में यद्यपि निमित्तनैमित्तिक परम्परा है तो भी निश्चयदृष्टिसे मिथ्या है। ( ३) आत्मा कर्म नोकर्म व इन्द्रियोंको करता है यह कथन भी उपचारसे है । ( ४ ) आत्माकी कर्म में निमित्तता, नोकर्मादिमें निमित्तनिमित्तता आदि सम्बन्ध होनेपर भी जीवसे प्रत्यन्त भिन्न द्रव्य होनेसे निश्चयसे यह उपचारकथन मिथ्या है । सिद्धान्त -- ( १ ) आत्मा घटपट आदि परद्रव्यको करता है यह उपचार कथन है । (२) आत्मा कर्म नोकर्मको करता है यह भी उपचार कथन है । दृष्टि - १ - प्रसंश्लिष्टविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार (१२६) । २ - संश्लिष्ट विजात्थुपचरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२५) । प्रयोग - श्रात्मा परभावका कर्ता है इस वार्ताको मोहनेष्टामात्र जानकर इस प्रज्ञानको छोड़कर प्रकारण कार्य अविकार सहज ज्ञानस्वरूपमें रुचि करके संकष्टमुक्तिका पीरुष यह व्यवहारका मानता परमार्थदृष्टिमें सत्यार्थ नहीं है - [ यदि ] यदि [सः ] वह Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ कर्तृ कर्माधिकार स न सन् जदि सो परदव्वाणि य करिज्ज णियमेण तम्मयो छोज । जमा गण तम्मयो तेण सो ण तेसिं हवदि कत्ता ॥६६ यदि वह परद्रव्योंको, करता तो तन्मयो हि हो जाता । च कि नहीं तन्मय ग्रह, इससे परफा नहीं कर्ता ॥६६ यदि स परद्रयाणि च कुर्यानियमेन तन्मयो भवेत् । यस्मान्न तन्मयस्तेन स ग तेषां भवति कर्ता । यदि खल्वयमात्मा परमात्मकं कर्म कुर्मदा नियाविण धिभावान्यथानुपपत्ते नामसंज्ञ- जदि, न, परदव्य, य, णियम, तम्मअ, ज, ण, तम्म, त, त, ण, त, कतार । धातुसंश- कर करणे, हो मत्तायां, हब सत्तायां । प्रकृतिशग्द----यदि, तत्, परद्रव्य, च. नियम, तन्मय, यत, न, तन्मय, तत्, तत्, न, सत्, कहूँ । मूलधातु-त्रु गती, कृ करणे, भू सत्तायां। पदविवरण -- यदिअव्यय । स:-प्रथमा एकवचन । परद्रव्याणि-द्वितीया बहु० । च-अव्यय । कुर्यात्-विधि लिङ अन्य पुरुष मात्मा [परद्रव्यारिण] परद्रव्योंको [कुर्यात् ] करे [च] तो [नियमेन] नियमसे वह आत्मा उन परद्रव्योंसे [तन्मयः] तन्मय [भवेत् ] हो जाय [यस्मात] परन्तु [तन्मयः न] प्रात्मा तन्मय नहीं होता [तेन] इसी कारण [सः] वह [तेषां] उनका [कर्ता] कर्ता [न भवति] नहीं है। __ तात्पर्य—मात्मा परद्रव्योंसे पृथक् अपनी सत्तामाश्रमें है, अतः वह परद्रव्योंका कर्ता कैसे हो सकता है ? टीकार्थ- यदि वास्तव में यह अात्मा परद्रव्यस्वरूप कर्मको करे, तो परिणाम-परिणामभावको अन्यथा अप्राप्ति होनेसे नियमसे नन्मय हो जाय, किन्तु अन्य द्रव्यको अन्य द्रव्य में तन्मयता होनेपर अन्य द्रव्य के नाशकी आपत्तिका प्रसंग मानेसे तन्मय है ही नहीं । इसलिये व्याप्यव्यापकभावसे तो उस द्रव्यका कर्ता आत्मा नहीं है । भावार्थ-यदि प्रात्मा अन्य द्रव्य का कर्ता होवे, तो पृथक्-पृथक द्रव्य क्यों रहें ? फिर तो एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप हो जावेगा, यों अन्य व्यका नाश हो जायगा यह बड़ा दोष प्राता जैसा कि है ही नहीं । इसलिये अन्य द्रव्यका कर्ता अन्य द्रव्यको कहना सत्यार्थ नहीं है निश्चयसे तो यही है कि प्रात्मा मात्र अपने गुणों में ही परिणाम सकता है, अन्य के गुणोंमें नहीं । प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा परद्रव्यको करता है यह कथन व्यवहारसे है । अब इसी विषयमें इस गाथामें कहा है कि ऐसा व्यवहारकथन सत्यार्थ नहीं है। सध्यप्रकाश---(१) यदि प्रात्मा परद्रव्यको करे तो प्रात्मा परद्रव्यमय हो जायगा यह Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ समयसार नियमेन तन्मयः स्यात् न च द्रव्यांतरमयत्वे द्रव्योच्छेदापत्तेस्तन्मयोस्ति । ततो व्याप्यध्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति ॥६६॥ एकवचन किया। नियमेन-तृतीया एक० । तन्मय:-प्रथमा एक० । भवेत्-विधि लिड अन्य पुरुष एक० क्रिया । यस्मात्-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । न-अध्यय । तन्मयः-प्र० ए० । तेन-सृतीया एक० । स:-प्रथमा एक० । न-अव्यय । तेषा-षष्ठी बहु । भवति-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। कर्ता-प्रथमा एकवचन | - -- -- --... -- -- -- -- : दोष प्राता है । (२) कोई भी द्रव्य अन्यद्रव्यमय नहीं है । (३) यदि कोई द्रव्य अन्यद्रव्यमय हो जाय तो द्रव्यका ही उच्छेद जायगा । (४) एक द्रध्यका अन्य द्रव्यके साथ व्याप्यध्यापक भाव नहीं है, इस कारण कोई भी द्रव्य अन्ध द्रव्यका कर्ता नहीं होता। . सिद्धान्त-(१) प्रत्येक द्रव्य अपने ही परिणामरूपसे परिणमता है । (२) प्रात्मा उपादानरूपसे परद्रव्योंका कर्ता नहीं है। दृष्टि--१-- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यापिकनय (२८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२६)। प्रयोग–अपनेको समस्त परसे भिन्न अतन्मय निहारकर अपने ज्ञानस्वरूपमें ही उपयोग रखनेका पौरुष करना ।।६।। अब कहते हैं कि प्रात्मा व्याप्य-व्यापक भावसे तो परका कर्ता है ही नहीं, और निमित्तनैमित्तिक भावसे भी पता नहीं है.-[जीयः] जीव [घटं] घड़ेको [न करोति] नहीं करता [एय] और [पटं] पटको भी [न] नहीं करता [शेषकारिण] शेष [द्रव्यारिण] द्रव्यों को भी (नेव) नहीं करता (योगोपयोगी च) किन्तु जीवके योग और उपयोग दोनों (उत्पादको) घटादिक के उत्पन्नकरने वाले निमित्त हैं (सयोः) सो उन दोनोंका याने योग और उपयोगका यह जीव (कर्ता) कर्ता (भवति) है। तात्पर्य—जीव घट-पटादिक करनेका निमित्त भी नहीं है, किन्तु जीवका योग व उपयोग घटादिकके होनेका निमित्त हो सकता है। टीकार्य-वास्तवमें घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप जो कर्म हैं उनको यह प्रात्मा व्याप्यव्यापकभावसे नहीं करता । क्योंकि यदि ऐसे करे तो उनसे तन्मयताका प्रसंग मा जायगा । तथा यह प्रात्मा घट-पटादिको निमित्तनैमित्तिकभावसे भी नहीं करता, क्योंकि ऐसे करे तो सदा सब अवस्थानों में कर्तृत्वका प्रसंग मा जायगा । तब इन कर्मोको कोन करता है, सो कहते हैं । इस प्रारमाके अनित्य योग और उपयोग ये दोनों जो कि सब अवस्थानों में ध्यापक नहीं हैं, वे उन घटादिकके तथा क्रोधादि परद्रध्यस्वरूप कर्मोक निमित्तमात्रसे कर्ता Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २०६ निमित्तनमित्तकभावेनापि न कर्तास्ति जीवो गा करेदि घडं गोव पडं गेव सेसगे दव्ये। जोगुवयोगा उप्पादगा य तमि हबदि कत्ता ॥१०॥ न निमितरूपमें भी, प्रात्मा करता घटादि द्रव्योंको । योगोपयोग कारण, उनका ही जीय कर्ता है ॥१०॥ जीवो न करोति घटं नैव पट नैव शेषकानि द्रव्याणि । योगोपयोगावुत्पादकों च तयोर्भवति का ।।१०।। __ यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगाद व्यायव्यापकभावेन तावन्न करोति नित्यकर्तृत्वानुषंगानिमित्त नैमित्तिकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनि नामसंज्ञ--जीव, पण, घड, ण, एव, पड, सेसग, दव, जोगुवओग, उप्पादग, य, त, कत्तार । धातुसंझ---कर करणे, जव-उंज योगे, हब सत्तायां । प्रकृतिशब्द-जीव, न, घर, न, एव, पट. न, एव, शेषक, द्रव्य, योगोपयोग, उत्पादक, च, तत्, कर्तृ । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, डुकृञ् करणे, घट संघाते, पट गती, शिष असर्वोपयोगे चुरादि, द्रु गती, मुजिर योगे, उत्-पद गती चुरादि दिवादि णिच् कृदन्त, भू सत्तायां । पदविवरण- जीव:--प्रथमा एक० । न-अव्यय । करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कहे जाते हैं । योग तो आत्माके प्रदेशोंका चलनरूप व्यापार है और उपयोग प्रात्माके चैतन्य का रागादि विकाररूप परिणाम है । सो कदाचित् प्रशानसे इन दोनोंको करनेसे इनका प्रात्मा को भी कर्ता कहा जावे, तो भी वह परद्रध्यस्वरूप कर्मका तो कर्ता कभी भी नहीं है। भावार्थ-प्रात्माके योग, उपयोग, घटादि तथा क्रोधादिकके निमित्त हैं, सो योग उपयोगको तो उनका निमित्तकर्ता कहा जा सकता है, परन्तु प्रात्माको उनका निमित्तकर्ता भी नहीं कहा जा सकता ! तथा प्रात्मा योग उपयोगका कर्ता संसार अवस्थामें प्रशानसे हैं । तात्पर्य यह है कि द्रव्यदृष्टिसे तो कोई द्रव्य अन्य किसी द्रव्यका कर्ता नहीं है, परन्तु पर्यायदृष्टि से किसी द्रव्यका पर्याय किसी समय किसी अन्य द्रव्यके पर्याय के लिये निमित्त होता है । इस अपेक्षासे अन्यके परिणाम अन्य के परिणामके निमित्तकर्ता कहे जाते हैं, परन्तु परमार्थसे द्रव्य अपने परिणामका कर्ता है, किसीके परिणामका अन्य द्रव्य कर्ता कभी हो ही नहीं सकता। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा घट पट आदिको कर्म नोकर्म प्रादिको करता है यह जो व्यवहार है वह सत्यार्थ नहीं है क्योंकि प्रात्मा उपादान रूपसे किसी भी परद्रव्यको नहीं करता । अब इसी विषयमें इस गाधामें बताया है कि वास्तव में तो प्रात्मा घटादिक व क्रोधादिक पद्रव्यात्मक परिणामका निमित्तनमित्तिकभावसे भी कर्ता नहीं है, किन्तु ग्राः के योग उपयोग ही उनके निमित्तरूपसे कर्ता हैं। तथ्यप्रकाश-~~-१-यदि घटादिक व क्रोधादिक परद्रव्यपरिणामका प्रात्मा उपादानरूपसे Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० समयसार त्यौ योगोपयोगावेच तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ योगोपयोगयोस्त्वात्मविकल्पव्यापारयोः कदाचिद. ज्ञानेन करणादारमापि कर्तास्तु तथापि न परद्रव्यात्मकर्मकर्ता स्यात् ।।१०।। घट-द्वितीया एकवचन । न-अव्यय । एय-अव्यय । शेषकानि-द्वितीया बहु० । द्रव्याणि-द्वि० बहु । योगोपयोगौ-प्रथमा द्विवचन । उत्पादको-प्रथमा द्विवचन । च-अव्यय। तेषां-पष्ठी बहु० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कर्ता-प्रथमा एकवचन ।।१०।। कर्ता होता तो प्रारमा घटादिमय व क्रोधादिमय हो जाता यह प्रसंगदोष पाता । २-प्रात्मा यदि घटादिक व क्रोधादिक परद्रव्यपरिणामका निमित्तरूपसे पता होता तो सदैव उनका कर्ता रहनेका प्रसंगदोष माता । ३-मात्माके योग उपयोग हो घटादि व क्रोधादि परद्रव्यात्मकपरिणामके निमित्तपनेसे कर्ता हैं याने योगोपयोगका निमित्त पाकर पुद्गलस्कंध स्वयं घटादि व कर्मादिरूप परिणाम जाते हैं। ४-प्रात्मा प्रज्ञानसे वैसे विकल्प व व्यापार रूप परिणमता है, अतः प्रात्मा योग (व्यापार) व उपयोग (विकल्प) का कदाचित् कर्ता है । ५-प्रात्मद्रव्य परद्रव्यात्मक परिणामका कर्ता न उपादानरूपसे है और न निमित्तरूपसे है । सिद्धान्त-१-मात्मा किसी भी परद्रव्यभावका कर्ता नहीं । २-प्रात्माके विकल्प व व्यापारका निमित्त पाकर घटादिक व कर्मादिक परद्रव्यपरिणाम होता है ।। दृष्टि--१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय । प्रयोग-ज्ञानमात्र एक झायकस्वभाव में मात्मद्रव्य किसी भी परद्रव्यपरिणामका न तो उपादानरूपसे कर्ता हूं और न निमित्तरूपसे कर्ता हूं, मैं तो अकर्तृस्वभाव ध्र व सहजज्ञान स्वभावमें रमकर कृतार्थ होऊंगा ऐसा ज्ञानप्रयोग करना चाहिये ।।१०॥ अब कहते हैं कि ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है:--[पुद्गलद्रव्यारण] पुद्गल द्रव्योंके [परिणामाः] परिणाम ये जो [ज्ञानावरणानि] ज्ञानाबरणादिक [मवंति] हैं [तानि] उनको [प्रात्मा] प्रात्मा [न करोति] नहीं करता, ऐसा [यः] जो [जानाति] जानता है [सः] वह [जानी] जानी [भवति है। तात्पर्य-ज्ञानीको दृढ़ श्रद्धा है कि मात्मा जानन सिवाय अन्य कुछ किसीका नहीं करता, सो वह कमैको भी जान रहा है, करता नहीं । टीकार्थ-वास्तवमें जो पुद्गलद्रव्यके परिणाम गोरसमें व्याप्त दही दूध मोठा खट्टा परिणाम की भांति पुद्गलद्रव्यसे व्याप्त होनेसे ज्ञानावरणादिक हैं उनको निकट बैठा गोरसा. क्षकी तरह शानी कुछ भी नहीं करता है। किन्तु जैसे वह गोरसाध्यक्ष गोरसके दर्शनको ने परिणामसे व्यापकर मात्र देखता ही है, उसी प्रकार ज्ञानी पुद्गलपरिणामनिमित्तक को ज्ञानको जो कि अपने व्याप्यरूपसे हुमा उसको व्यापकर जानता ही है। इस प्रकार Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ कर्तृकर्माधिकार जानो शानस्यैव कर्ता स्यात्ः-- जे पुग्गलदव्वाणं परिणामा होति णाणावरणा । ण करेदि ताणि श्रादा जो जाणदि सो हवदि ण णी ॥१०१॥ जो पुद्गल द्रव्योंके, ज्ञानावरणादि कर्म बनते हैं। उनको न जोय करता, यो जो जाने वही ज्ञानी ३१०१॥ ये पुद्गलद्रव्याणां परिणामा भवंति शानावरणानि । न करोति तान्यात्मा यो जानाति स भवति ज्ञानी। ये खलु पुद्गलद्रव्याणां परिणामा गोरसच्याप्तदधिदुग्धमधुराम्लपरिणामवत्पुद्गलद्रव्य व्याप्तत्वेन भवतो ज्ञानावरणामि भवंति तानि तटस्थगोरसाध्यक्ष इव न नाम करोति जानो किंतु यथा स गोरसाध्यक्षस्तद्दर्शनमात्मध्याप्तत्वेन प्रभवव्याप्य पश्यत्येव तथा पुद्गलद्रव्यपरिणामनिमित्तं ज्ञानमारमच्याप्यत्वेन प्रभवव्याप्य जानात्येव ज्ञानी ज्ञानस्यैव कर्ता स्यात् । एवमेव १ ___ नामसंश-ज, पुग्गलदव्य, परिणाम, णाणावरण, ण, त, अन्न, ज, त, गाणि । घातुसंज्ञ- हो सत्तायां, कर करणे, जाण अवबोधने, हव सत्तायां । प्रातिपदिक- यत्, पुद्गलद्रव्य, परिणाम, झानावरण, न, तत्, आत्मन्, यत्, तत्, शानिन् । मूलपातु-पूरी आप्यायने, गल स्रवणे चुरादि, द्रु गती, परि-णम प्रत्ये, भू सत्तायां, शा अवबोधने, आ-वृन आवरणे चुरादि, डुकृञ् करणे, अत सातत्यगतौ । पदविवरणये-प्रथमा बहु० । पुदगलद्रव्याणां--षष्ठी बहु० । परिणामाः-प्रथमा बहु० । भवन्ति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष ज्ञानी ज्ञानका हो कर्ता होता है। इसी प्रकार ज्ञानावरण पदके स्थानमें कर्मसूत्रके विभागकी स्थापनासे दर्शनावरण, वेदनोय, मोहनोय, प्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय इनके सात सूत्रोंसे और उनके साथ मोह, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, प्राण, रसन और स्पर्शन ये सोलह सूत्र व्याख्यानके योग्य हैं । तथा इसी रीतिसे अन्य __ भी विचार किये जाने योग्य हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि प्रात्मा परद्रव्यात्मक परि. णामका न उपादानरूपसे कता है और न निमित्तरूपसे कर्ता है। इस विवरणपर जिज्ञासा हुई कि फिर मात्मा वास्तव में किसका कर्ता है इसका समाधान इस गाथामें किया है । तथ्यप्रकारा-१--पुद्गलस्कन्धों के ज्ञानावरगादिक परिणमन पुद्गलस्कंधों में व्याप्यरूप से होते हैं । २-उन ज्ञानावरणादिक कर्मपरिणामको प्रात्मा करता नहीं, किन्तु मात्र जानता है । ३-वह पुद्गलद्रव्यपरिणामविषयक ज्ञान प्रात्मामें व्याप्यरूपसे होता है, अतः ज्ञानी ज्ञान का ही कर्ता है। सिद्धान्त---१-पुद्गलद्रव्यों के परिणाम ज्ञानावरणादिक पुद्गलद्रव्योंमें ही व्या हैं । २-पुद्गलद्रव्योंसे विविक्त होनेसे उनके परिणामका प्रात्मा कर्ता नहीं है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ज्ञानावरणपदपरिवर्तनेन कमंसूत्रस्य विभागेनोपन्यासाद्दर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुन मगोत्रांतरायसूत्रः सप्तभिः सह मोहरागद्वेषक्रोधमानमायालोभनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि ।।१०१॥ बहु । ज्ञानावरणानि-प्रथमा बहु० । न-अव्यय । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । तानिद्वितीया बहु० । आत्मा-प्रथमा एक० । यः-प्र० ए० । जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक ० । स:-प्रथमा एक० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । ज्ञानी-प्रथमा एकवचन ।।१०१॥ दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । प्रयोग-पुद्गलोंके परिणामको पुद्गलोंमें ही जानकर व अपने ज्ञानपरिणामको अपने में ही जानकर एकत्वविभक्त निज ज्ञायक स्वरूपका पाश्रय लेकर सहज आनन्दका अनुभवन करना ।।१०१॥ अब कहते हैं कि अज्ञानी भी परद्रव्यके भावका कर्ता नहीं है:-(प्रात्मा) प्रात्मा (घ) जिस (शुभं शुभ शगुन ( गोगावलो करोति) करता है (खलु) वास्तव में (सः) वह (तस्य) उस भावका (कर्ता) कर्ता होता है (तत्) वह भाव (तस्य) उसका (कर्म) कर्म (भवति) होता है (तु स प्रात्मा) और वहीं प्रात्मा (तस्य) उस भावरूप कर्मका (वेदक:) भोक्ता होता है। तात्पर्य--प्रात्मा अपने ही भावका कर्ता होता है व अपने ही भावका भोक्ता होता है। टीकार्य—इस लोकमें प्रात्मा अनादिकालसे अज्ञानसे पर और प्रात्माके एकत्वके निश्चयसे तीन मंद स्वादरूप पुद्गल कर्मकी दोनों दशाओंसे स्वयं प्रचलित विज्ञानघनरूप एक स्वादरूप प्रात्माके होनेपर भी स्वादको भेदरूप करता हुआ शुभ तथा अशुभ अज्ञानरूप भाव को अज्ञानी करता है । वह आत्मा उस समय उस भावसे तन्मय होनेसे उस भावके व्यापकताके कारण उस भावका कर्ता होता है । तथा वह भाव भी उस समय उस प्रात्माको तन्मयतासे उस आत्माका व्याप्य होता है, इसलिये उसका कर्म होता है । वहो पात्मा उस समय उस भावको तन्मयतासे उस भावका भावक होनेके कारण उसका अनुभव करने वाला होता है। वह भान भी उस समय उस आत्माके तन्मयपनेसे आत्माके भावने योग्य होनेके कारण अनूभवने योग्य (भोगने योग्य) होता है । इस प्रकार अज्ञानी भी परभावका की नहीं है। भावार्थ---अज्ञानी भी अपने प्रशानभावरूप शुभाशुभभावोंका ही प्रज्ञान अवस्थामें कर्ता भोक्ता है, परद्रव्यके भाबका कर्ता भोक्ता नहीं है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी ज्ञानका ही कर्ता है। अब इसी संदर्भसे सम्बन्धित यह तथ्य इस गाथामें बताया है कि वास्तवमें प्रज्ञानो जीव भी Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २१३ प्रज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात्-- जं भावं सुहमसुहं करेदि अादा स तस्स खलु कता । तं तस्स होदि कम्मं सो तस्स दु वेदगो थप्पा ॥१२॥ जिस भाव शुभाशुभको, करता उसका है आत्मा कर्ता । असा गाम रही है, ना नात्मा भोमता उसको ॥१०॥ ये भावं शुभमशुभं करोत्यात्मा स तस्य खलु कर्ता । तत्तस्य भवति कर्म स तस्य तु वेदक आत्मा ।।१०२।। ___ इह खल्वनादेरज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेन पुद्गलकर्मविपाकदशाभ्यां मंदतीवस्वादाभ्यामचलितविज्ञानघनकस्वादस्याप्यात्मन: स्वादं भिदानः शुभमशुभं वा योयं भावमज्ञानरूपमास्मा करोति स प्रात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्थ व्यापकत्वाद् भवति कर्ता स भावोऽपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो व्याप्यत्वाद् भवति कर्म । स एव च प्रात्मा तदा तन्मयत्वेन तस्य भावस्य भावकत्वाभवत्यनुभविता, स भावोपि च तदा तन्मयत्वेन तस्यात्मनो भाव्यत्वात् भवत्यनुभाव्यः । एवमज्ञानी चापि परभावस्य न कर्ता स्यात् ॥१०२॥ नामसंज्ञ... ज, भाव, सुह, असुह, अत्त, तत, खलु, कत्तार, त, दु, वेदग, अप्प। धातुसंज्ञ - कर करणे, हो सत्तायां, वेद वेदने । प्रकृतिशब्द-यत्, भाव, शुभ, अशुभ, आत्मन्, तत्, खलु, कर्तृ, तत्, कर्मन्, तत्, तु, वेदक, आत्मन् । मूलधातु--शुभ शोभार्थे तुदावि, शुभ दीप्ती भ्वादि, विद चेतनाख्याननिवासेषु चरादि । पविवरण-य-द्वितीया एकवचन । भावं-द्वि० एक० कर्मकारक । शुभ-द्वि० ए. कर्मविशेषण । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । आत्मा-प्रथमा एक० कर्ताकारक । सः-प्रथमा एक० । तस्म-पष्ठी एकवचन । खलु-अव्यय । कर्ता-प्रथमा एकः । तत्-प्रथमा एक० । तस्य-षष्ठी एकः । भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक० । कर्म-प्र० ए० स:-प्र० ए० । तस्य-पष्ठी एक० । सु-अव्यय । वेदक:-प्र० ए० । आत्मा-प्रथमा एकवचन कर्ताकारक ।।१०२॥ परभावका कर्ता नहीं होता। तश्यप्रकाश-१- प्रजानी जीव पर और प्रात्मामें एकत्वका प्रध्यास करता है वह भी प्रशुद्धोपादान जीवका परिणाम है। २- अज्ञानी पुद्गलकर्मविपाकदशामें शुभ अशुभ विकल्परूपसे स्वादके भेद करता है वह भी अशुद्धोपादान जीवका परिणाम है और यह भी प्रशानरूप भाव है । ३- अज्ञानीके अज्ञानरूप भाव व्याप्य है सो वह अज्ञानरूप भावका ही कर्ता है और उस ही का भोक्ता है । ४- अज्ञानी भी परद्रव्यके परिणमनका कर्ता नहीं है। सिद्धान्त-१- अज्ञानी जीव अपने प्रज्ञानरूप भावका ही कर्ता है । कर्मादि अन्य द्रव्यके परिणमनका कर्ता नहीं । २- अज्ञानी जीव अपने अज्ञानरूप भावका भोक्ता है, कर्मादि अन्य द्रव्यके परिणामका भोक्ता नहीं । दृष्टि---१-- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार न च परभावः केनापि कत पार्यत जो जह्मि गुणे दवे सो अण्णमि दु ण संकमदि दब्बे । सो अण्णमसंकेतो कह तं परिणामए दव्वं ॥१०३॥ जो जिस व्रव्य व गुणमें. वह नहि परवष्यमें पलट सकता। परमें मिलता न हुआ, कैसे पर परिणमा सकता ॥१०३॥ यो यस्मिन् गुणे द्रव्ये सोन्यस्मिस्तु न संक्रामति द्रव्ये । सोन्यदसंक्रांतः कथं तत्परिणामयति द्रव्यं ।।१०।। ___ इह किल यो यावान् कश्चिद्वस्तुविशेषो यस्मिन् यावति कस्मिश्चिच्चिदात्मन्यचिदात्मनि वा द्रव्ये गुणे च स्वरसत एवानादित एव वृत्तः स खल्वचलितस्य वस्तुस्थितिसी. म्नो भेत्तुमशक्यत्वात्तस्मिन्नेव वर्तते न पुनः द्रव्यांतरं गुणान्तरं वा संक्रामेत । द्रव्यांतरं गुणा नामसंज्ञ-ज, ज, गुण, दव, त, अण्ण, दु, ण, दव्व, त, अण्ण, असंकत, कह, त, दव्ध । पातुसंज्ञ--- सम्-क्कम पादविक्षेपे, परि-नम नम्रीभावे प्रेरणार्थे । प्रकृतिशय-यत्, यत्, गुण, द्रव्य, तत्, अन्य, तु, न, द्रव्य, तत्, अन्यदसंकान्त, कथं, तत्, द्रव्य । मूलधातु-क्रम पादविक्षेपे भ्वादि । पदविवरण-य:-प्रथमा प्रयोग --- निमित्तनैमित्तिक भावके प्रसंग में भी वस्तुस्वातंत्र्य जानकर अन्त स्वभावदृष्टि करके निरुपाधिस्वातंत्र्यका प्रादर करके विशुद्ध चिरप्रकाशमात्र अपनेको अनुभवना ॥१२॥ अब कहते हैं कि परभाव किसीके द्वारा भी नहीं किया जा सकता--[मः] जो द्रव्य [यस्मिन् ] जिस अपने [द्रव्ये] द्रव्यस्वभावमें [गुणे] तथा अपने जिस गुणमें वर्तता है [सः] वह [अन्यस्मिन् तु] अन्य [द्रव्ये] द्रध्यमें तथा गुणमें न संकामति] संक्रमण नहीं करता याने पलटकर अन्यमें नहीं मिल जाता [सः] वह [अन्यसंक्रान्तः] अन्यमें नहीं मिलता हुअा वस्तुविशेष [तत् द्रव्यं] उस अन्य द्रव्यको [कथं] कैसे [परिणामयति] परिणमा सकता है, अर्थात् कभी नहीं परिणामा सकता। ___तात्पर्य-जब एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप, गुणरूप हो ही नहीं सकता तब मन्य द्रव्यको परिणमानेकी चर्चा ही नहीं उठ सकती। टोकार्थ- इस लोकमें जो कोई वस्तुविशेष अपने चेतनस्वरूप तथा प्रचेतनस्वरूप द्रव्य में तथा अपने गुरगमें, अपने निजरसमें ही मनादिसे वर्तता है, वह वास्तवमें अपनी प्रचलित वस्तुस्थितिकी मर्यादाको भेदनेके लिये असमर्थ होनेके कारण अपने ही द्रव्य गुणमें रहते हैं । द्रध्यांतर तथा गुणांतररूप संक्रमण नहीं करता हुआ वह अन्य वस्तुविशेषको कैसे परिममन करा सकता अर्थात् कभी नहीं परिणमन करा सकता। इसी कारण परभाव किसीके भी द्वारा नहीं किया जा सकता । भावार्थ-जो द्रव्यस्वभाव है, उसे कोई भी नहीं पलट सकता, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार १.१५ न्तरं वाऽसंक्रामंश्च कथं त्वन्यं वस्तुविशेषं परिणामयेत् । अतः परभावः केनापि न कसु पार्येत ॥१०३॥ एकवचन | यस्मिन् सप्तमी एक० । द्रव्ये सप्तमी एक० स:- प्रथमा एक० | अन्यस्मिन् सप्तमी एक० । तु - अव्यय । न-अव्यय । संक्रामति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । द्रव्ये - सप्तमी एक० । सः - प्रथमा एक० । अन्यदसंक्रान्तः प्रथमा एक० । कथं अव्यय । तत् प्र० ए० द्रव्यम् प्रथमा एकवचन 11१०३|| यह वस्तुकी मर्यादा है । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि अज्ञानी भी परभावका कर्ता नहीं होता । सो अब इसी विषयको इस गाथा में युक्तिपूर्वक पुष्ट किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने द्रव्य व गुणमें ही बर्तते हैं । (२) प्रत्येक पदार्थ की स्वरूपसीमा भेदी नहीं जा सकती । ( ३ ) कोई भी पदार्थ किसी अन्य द्रव्यरूप व अन्य गुणरूप नहीं हो सकता । ( ४ ) जब कोई पदार्थ किसी अन्य द्रव्यरूप व अन्य गुणरूप हो ही नहीं सकता तो कोई भी पदार्थ किसी अन्यको परिणमा हो क्या सकेगा ? सिद्धान्त - ( १ ) कोई भी पदार्थ समस्त अन्य पदार्थके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप नहीं हो सकता । ( २ ) कोई भी पदार्थ अपने स्वरूपमय ही सदा रहेगा । परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याधिकनय ( २ ) । २- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्या दृष्टि- १थिकनय ( २८ ) । . प्रयोग - मैं किसी अन्यके द्रव्यगुणरूप नहीं हो सकता, अन्य कोई भी मेरे द्रव्यगुणरूप नहीं हो सकता, फिर मेरा किसी अन्यसे सम्बन्ध ही क्या है ? ऐसे परसे अत्यन्त विविक्त निज प्रात्मतत्वको निरखते रहना चाहिये ।। १०३ ।। - प्रश्न – किस कारण आत्मा निश्चयतः पुद्गलकर्मीका कर्ता है ? उत्तर- [ आत्मा ] धामा [गलमये कर्मणि] पुद्गलमय कर्ममें [ द्रव्यगुणस्य च ] द्रव्यका तथा गुणका कुछ भी [ न करोति ] नहीं करता [तस्मिन् ] उसमें याने पुद्गलमय कर्ममें [ तदुभयं ] उन दोनों को [ अकुर्वन्] नहीं करता हुआ [तस्य ] उसका [ स कर्ता] यह कर्ता [ कथं ] कैसे हो सकता है ? तात्पर्य - आत्मा पौड्गलिककर्ममें न द्रव्यका कुछ करता न गुरणका कुछ करता, अतः श्रात्माको पौद्गलिककर्मका कर्ता कहनेकी कुछ भी गुंजाइश नहीं । टीकार्थ - जैसे मृत्तिकामय कलशनामक कर्म जहाँ कि मृत्तिकाद्रव्य और मृत्तिकागुण अपने निजरसके द्वारा हो वर्तमान है, उसमें कुम्हार अपने द्रव्यस्वरूपको तथा अपने गुरणको नहीं मिला पाता, क्योंकि किसी द्रव्यका अन्य व्यरूप परिवर्तनका निषेध वस्तुस्थिति से ही Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ समयसार अतः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलफर्मणामकर्ता---- दव्वगुणस्स य ादा ण कुगदि पुग्गलमयह्मि कम्ममि । तं उभयमकुब्वंतो तसि कहं तस्स सो कत्ता ॥ १०४ ॥ पुद्गलायर कलोंमें, भारला ह य मुख कभी करता। उनको करता न हुआ. कर्ता हो कर्मका कैसे ? द्रव्यगुणस्य वात्मा न करोति पुगलमये कर्मणि । तदुभयमकुर्वस्तस्मिन्कथं तस्य स कर्ता ।। १०४॥ ___यथा खलु मृण्मये कलशे कर्मणि मृदध्यमृद्गुणमोः स्वरसत एवं वर्तमाने द्रव्यगुगांतरसंक्रमस्य वस्तुस्थित्यैव निषिद्धत्वादात्मानमात्मगुणं वा नाधत्ते स कलशकारः द्रव्यांतरसंक्रममंतरेणान्यस्य बस्तुनः परिणामयितुमशक्यत्वात् तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानो न तत्त्वस्तस्य कर्ता प्रतिभाति । तथा पुद्गलमये ज्ञानावरणादौ कमरिण पुद्गलद्रव्यपुद्गलगुणयोः स्वरसत एव __मामसंज्ञ-दव्वगुण, य, अत्त, ण, पुग्गलमय, कम्म, त, उभय, अकुव्वंत, त, कह, त, त, कतार । धातुसंज्ञ-पुर पालनपुरणयोः, गल स्रवणे. कुण करणे, कुख करणे। प्रातिपदिक-द्रव्यगुण, च, आत्मन, न, पुद्गलमय, कर्मन, तत्, उभय, अकुर्वत्, तत्, कथं, तत्, कार्नु । मूलधातु-पूरी आप्यायने, गल स्रवणे, है । अन्य द्रव्यरूप हुए बिना अन्य वस्तुका परिणमन कराये जानेकी असमर्थतासे उन द्रव्योंको तथा गुणोंको अन्यमें नहीं धारता हुआ परमार्थसे उस मृत्तिकामय कलशनामक कर्मका निश्चय से कुम्भकार कर्ता नहीं प्रतिभासित होता । उसो प्रकार पुद्गलमय ज्ञानावरणादि कर्म जो कि पुद्गलद्रव्य और पुद्गलके गुणोंमें अपने रससे ही वर्तमान हैं, उनमें आत्मा अपने द्रव्यस्वभाव को और अपने गुणको निश्चयसे नहीं धारण कर सकता । क्योंकि अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें तथा अन्य व्यका अन्य द्रव्यके गुणों में संक्रमण होनेको असमर्थता है । इस प्रकार अन्य द्रव्यका अन्य द्रव्यमें संक्रमणके बिना अन्य वस्तुको परिणमानेकी असमर्थता होनेसे उन द्रव्य और गुण दोनोंको उस अन्य में नहीं रखता हुअा अात्मा उस अन्य पुद्गलद्रव्य का कैसे कर्ता हो सकता है, कभी नहीं हो सकता। इस कारण यह निश्चय हुमा कि प्रात्मा पुद्गलकर्मोका अकर्ता है । प्रसंगवियरस-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि कोई भी द्रव्य किसी भी पर के परिणमनको नहीं कर सकता । सो अब इस कथनसे अपना प्रायोजनिक निश्चय बताया है इस माथामें कि इस कारण यह ठोक रहा कि आत्मा पुद्गलकोका अकर्ता है । तथ्यप्रकाश-(१) निमित्तभूत वस्तु उपादानमें अपना द्रव्य, गुण, क्रिया, प्रभाव कुछ भी नहीं डालता । (२) प्रभावका अर्थ है-भाव याने होना, प्र याने प्रकृष्टरूपसे होना सो यह भाव प्रभाव पादानका परिणमन है । (३) निमित्तभूत वस्तुके सानिध्यमें उपादान अपनेमें प्रभाव उत्पन्न कर लेता। (४) चूंकि यह प्रभाव निमित्तभूत वस्तुके सानिध्य बिना Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कतृ कर्माधिकार २१७ वर्तमाने द्रव्य गुणांतरसंक्रमस्य विधातुमशस्यत्वादात्मद्रव्यमात्मगुरणं वात्मा न खल्वाधत्ते । द्रव्यातरसंक्रममंतरेणान्यस्य वस्तुनः परिणामयितुमशक्यत्वात्तदुभयं तु तस्मिन्ननादधानः कथं नु तत्त्वतस्तस्य कर्ता प्रतिभायात् । ततः स्थितः खल्वात्मा पुद्गलकर्मणामकर्ता ॥१०४।। डुकृत्र करणे । पदविवरण-द्रव्य गुणस्य-पष्टी एकवचन । च-अव्यय । आत्मा-प्रथमा एक० । न-अव्यय । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। पुद्गलमये-सप्तमी एक० ! कर्मणि-सप्तमी एक० । तत् द्वितीया एक०। उभयं-द्वि० एकः । अकुर्वन-प्रथमा एक० कृदन्त। तस्मिन्-सप्तमी एक० । कथअव्यय । तस्य-षष्ठी एक० । स:-प्रथमा एक० । कर्ता-प्रथम एकवचन ॥१०॥ नहीं होता, इस कारण यह प्रभाव नैमित्तिक है। (५) निश्चयतः जो अन्यमें अपना द्रव्य, गुरण, क्रिया कुछ नहीं डाल सकता वह अन्यका कर्ता कसे कहा जा सकता है ? (६) प्रात्मा अपना गुण व क्रिया कुछ भी पुद्गलकर्ममें नहीं डाल पाता, इस कारण निश्वयतः आत्मा पुद्गलकर्मोंका अकर्ता है । सिद्धान्त-(१) निमित्तभूत वस्तुका नात्य, क्षेत्र, काल. भाव कुछ भी उपादान में नहीं पहुंचता । (२) निश्चयतः किसी भी पर्यायका, उस पर्यायका स्रोतभूत वस्तु स्वयं होता है । दृष्टि- १- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२६)। २- शुद्धनिश्चयनय (४६), अशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-परके द्रव्य गुण प्रादिसे रहित सहजसिद्ध चित्प्रकाशमय अन्तस्तत्त्वमें दृष्टि रखकर अपनेको निर्विकल्प अनुभवनेका पौरुष करना चाहिये ।। १०४ ॥ अब कहते हैं कि इसके सिवाय जो अन्य निमित्तनमित्तकादिभाव हैं उनको देख कुछ .. अन्य प्रकारसे कहना वह उपचार है-[जीवे] जीवके [हेतुभूते निमित्तरूप होनेपर होने वाले [बंधस्य तु] कर्मबन्धके [परिणामं] परिणामको [दृष्ट्वा ] देखकर [जीवेन] जीवके द्वारा [कर्म कृतं कर्म किया गया यह [उपचारेरण] उपचारमात्रसे [भव्यते] कहा जाता है। तात्पर्य-जीवके रागद्वेषविभावका निमित्त पाकर पौद्गलिक कर्ममें कर्मत्व परिणमन होता है, उस विषयमें अज्ञानी जीव कहता है कि जीवने कर्म किये हैं सो ऐसा कर्तापनकी बात कहना उपचारमात्र है। टोकार्थ-- इस लोक में प्रात्मा निश्चयतः स्वभावसे पुद्गलकर्मका निमित्तभूत नहीं है, तो भी अनादि अज्ञानसे उसका निमित्तरूप हुआ जो अज्ञान भाव, उस रूपसे परिणमन करने से पुद्गलकर्मका निमित्तरूप होनेपर पौद्गलिककर्मके उत्पन्न होनेसे पुद्गलकर्मको प्रात्माने किया, ऐसा विकल्प होता है, वह विकल्प निर्विकल्प विज्ञानधनस्वभावसे भ्रष्ट और विकल्पोंमें तत्पर अज्ञानियोंके होता है । वह विकल्प उपचार ही है, परमार्थ नहीं है। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २१५ प्रतोन्यस्तूपचार: समयसार जीवसि दुभूदे बंधस्स दु परिसदूण परिणामं । जीवेण कदं कम्मं भणादि उवयारमत्ते || १०५॥ जीवहेतु होनेपर, विधिके बन्धपरिणामको लख कर । जीव कर्म करता है, ऐसा उपचारमात्र कहा ।। १०५ ।। जीवे हेतुभूते बंधस्य तु दृष्ट्वा परिणामं । जीवन कृतं कर्म भव्यते उपचारमात्रेण ।। १०५ ॥ इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तनिमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति संपद्यमानत्वात् पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निवि नामसंज्ञ - जीव, हेदुभूद, बंध, दु, परिणाम, जीव, कद, कम्म, उवयारमत्त। धातुसंज्ञ-पास दर्शने, भण कथने । प्रकृतिशब्द- जीव हेतुभूत, बन्ध, तु, परिणाम, जीव, कृत, कर्मन, उपचारमात्र । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, बन्ध बन्धने, दृशिर् प्रेक्षणे, डुकृञ करणे, भण शब्दार्थे, उप-चर गत्यर्थे भक्षणेपि स्वादि, चर संशये चुरादि । पदविवरण- जीवे सप्तमी एकवचन । हेतुभूते स० ए० । बंघस्य षष्ठी एक० । तुअव्यय । दृष्ट्वा -- असमाप्तिकी क्रिया । परिणामं द्वि० एक० । जीयेन तृतीया एकवचन कर्मवाच्ये कर्ता । प्रसंग विवरण - अनंतरपूर्व गाषा में बताया गया था कि यह निश्चित हुआ कि आत्मा पुद्गलकमका कर्ता है । अब इस गाथा में बताया कि इससे विपरीत कहना याने जीवने कर्म किया यह कहना उपचारमात्र है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) पौद्गलिक कार्याणवर्गणामें कर्मत्व होनेका निमित्तभूत प्रशुद्धोपादान आत्मा है । (२) श्रात्मा कर्मत्वका निमित्तभूत स्वभावसे नहीं है । (३) अज्ञानभाव से परिणम रहा हो म्रात्मा कर्मत्वका निमित्तभूत है । ( ४ ) कर्मत्वका निमित्तभूत होनेसे जीवको कर्मका कर्ता कहा जाता है यह उपचारसे कहा जाता है। ( ५ ) विज्ञानघन भ्रष्ट विकल्पक बहिरात्मा ही परकतृत्वका विकल्प होता है । ( ६ ) निमित्तनैमित्तिक भावके कारण निमित्तको नैमित्तिककार्यका कर्ता कहना उपचारसे ही है, उपचार ही है, परमार्थ नहीं है । सिद्धान्त -- (१) निमित्तत्व बतानेके प्रयोजनवश निमित्तमें कर्तृत्वका आरोप किया जाता है । (२) वास्तविक विधि तो उसी द्रव्यका सब कुछ उसी द्रव्य में बताने की होती है । दृष्टि - १- परकर्तृत्व प्रसद्भूतव्यवहार ( १२९ ) । २- भखण्ड परमशुद्धनिश्वयनय, शक्तिबोधक परमशुद्ध निश्चयनय, शुद्धनिश्चयनय, सभेद शुद्ध निश्चयनय, प्रशुद्धनिश्चयलय, सभेद अशुद्ध निश्चयनय, विवक्षितक देश शुद्ध निश्चयनय, शुद्धनय (४४, ४५, ४६, ४६८, ४७, ४७८, ४८, ४९ ) । प्रयोग — एकका दूसरेके साथ सम्बन्ध नहीं, प्रभाव नहीं, सब अपने-अपने स्वरूपा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '-.. - कतृ कमाधिकार कल्पविज्ञानघनभ्रष्टानां विकरूपराए परेषामरिक विकासः । वार एव न तु परमार्थः ।।१०५॥ कर्म-प्रथमा एक० कर्मवाच्य कर्मकारक । भण्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्ये क्रिया । उपचारमात्रेण-तृतीया एकवचन ॥१०॥ स्तित्वमें हैं, ऐसा निरखकर अपने ही स्वरूपमें रमणका पौरुष करना ।। १०५ ।। वह उपचार कैसे है सो दृष्टांत द्वारा कहते हैं- योधः] योद्धापोंके द्वारा [युद्ध कृते] युद्ध किये जानेपर [लोकः] लोक [इति जल्पते] ऐसा कहते हैं कि [राज्ञा कृतं] राजाने युद्ध किया सो यह [व्यवहारेण] व्यवहारसे कहना है [तथा] उसी प्रकार [ज्ञानावरणावि ज्ञानाबरणादि कर्म [जीवेन कृतं] जीवके द्वारा किया गया, ऐसा कहना व्यवहारसे टोकार्थ--जैसे युद्ध परिणामसे स्वयं परिणमन करने वाले योद्धानों द्वारा किए गए युद्धके होने पर युद्ध परिणामसे स्वयं नहीं परिणत हुए राजाको लोक कहते हैं कि युद्ध राजाने किया। यह कथन उपचार है, परमार्थ नहीं है। उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मपरिणामसे स्वयं परिणमन करने वाले पुद्गलद्रव्यके द्वारा किए गए ज्ञानावरणादि कर्मके होनेपर ज्ञानावरणादि कर्म परिणामसे स्वयं नहीं परिणमन करने वाले प्रात्माके सम्बन्धमें कहते हैं कि यह । ज्ञानाबरणादि कर्म प्रात्माके द्वारा किया गया, यह कथन उपचार है, परमार्थ नहीं है । भावार्थ-जैसे योद्धा युद्ध करे; वहाँ पर संबंधवश राजाने युद्ध किया, यह उपचारसे कही जाता है, वैसे पुद्गलकर्म स्वयं कर्मरूप परिणमता है, वहाँ निमित्तसम्बन्धवश पुद्गलकर्मको जीवने किया, ऐसा उपचारसे कहा जाता है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जीवके द्वारा कर्म किया गया यह कथन उपचारमात्र है । अब इस गाथामें इसी विषयको उदाहरणपूर्वक स्पष्ट किया है । तथ्यप्रकाश-(१) युद्ध तो योद्धा ही कर रहे हैं, किन्तु जो युद्ध नहीं कर रहा ऐसे रागके प्रति उपचार किया जाता है कि राजाने युद्ध किया । (२) ज्ञानावरणादिकर्मपरिणाम से तो स्वयं पुद्गलद्रव्य हो परिणाम रहा है, किन्तु जो कर्मपरिणामसे नहीं परिणाम रहा, ऐसे जीवके प्रति उपचार किया जाता है कि जीवने ज्ञानावरणादि कर्म किये । (३) यह उपचार इस कारण परमार्थ नहीं कि एक द्रव्यको बाल दूसरे द्रव्यमें लगाई गई । (४) यह उपचार निमित्तनैमित्तिक भावकी याद दिलाकर निमित्तभूत विकल्प व व्यापार तथा नैमित्तिक कर्म. बन्धन दोनोंसे हटनेको शिक्षा दिला सकता है । (५) कर्मने जीवविकार किये यह उपचार भी निमित्तनैमित्तिक भावको याद दिलाकर निमित्तभूत कर्मसे व नैमित्तिक विभावसे हटनेकी Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कथं इति चेत्--- जोधेहि कदे जुदे रापण कदंति जंपदे लोगो। तह ववहारेण कदं गाणावरणादि जीवेण ॥१०६॥ योद्धावि युद्ध करते, करता नृप युद्ध यह कहे जनता । व्यवहारसे किये स्यौं, ज्ञानावरगादि प्रात्माने ॥१०६।। योधः कृते युद्ध राज्ञा कृतमिति जल्पते लोकः । तथा व्यवहारेण कृतं ज्ञानावरणादि जीवेन ॥१०६।। यथा युद्धपरिणामेन स्वयं परिणममानैः योधैः कृते युद्धे युद्धपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्य राज्ञो राज्ञा किल कृतं युद्धमित्युपचारो न तु परमार्थः । तथा ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयं परिणममानेन पुद्गलद्रव्येण कृते ज्ञानावरणादिकर्मणि ज्ञानावरणादिकर्मपरिणामेन स्वयमपरिणममानस्यात्मनः किलात्मना कृतं ज्ञानाबरणादिकत्युपचारो न परमार्थः ।।१०।। नामसंज्ञ... जोध, कद, जुद्ध, राय, कद, इति, लोग. तह, बबहार, कद, गाणावरणादि. जीव । धातुसंज्ञ-- जुज्झ संप्रहारे, जप व्यक्तायां वाचि । प्रकृतिशव - योध, कृत, युद्ध, राजन, कृत, इति, लोक, तथा, व्यवहार, कृत, ज्ञानावरणावि, जीव । मूलधातु-युध संप्रहारे दिवादि, राज दीप्ती स्वादि, जल्प व्यक्तायां वाचि मानसे च भ्वादि, लोक दर्शने भ्वादि, लोक भाषार्थ चुरादि । पदविवरण ---यो]:-तृतीधा बहु० । कृते-सप्तमी एकवचन कुदन्न । युद्धे-सप्तमी एक०। राज्ञा-तृ० ए० । कृत-प्रथमा एक कृदन्त । इति-अव्यय । जल्पते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। लोक:--प्रथमा एमा० । तथा-अव्यय । व्यवहारेण-त० ए० । कृत-प्रथमा एक० 1 ज्ञानाचरणादि-प्रथमा एक० । जीवेन-तृतीया एकत्रचन ॥१०॥ शिक्षा दिला सकता है। सिद्धान्त-(१) कार्यमें जो निमित्त हो उसे कार्यका कर्ता कहना उपचार है । दृष्टि-१- परकर्तृत्व अनुपचारित असद्भूतव्यवहार (१२६) ! प्रयोग-जीवने ज्ञानावरणादि कर्म किये, इस उपचारकथन में यह तथ्य निहार करके कि जीवके विकल्प व व्यापारका निमित्त पाकर यह सब कर्मबोझ बन गया सो प्रब निविल्प निष्क्रिय ज्ञायकस्वभावकी दृष्टि करना ताकि अपनेको परमविश्राम मिले और निकटकालमें सदाके लिये कर्ममुक्त होकर संसार-संकटसे, छुटकारा मिले ॥१०६।। ___ अब ऐसा निश्चय हुमा कि-[आत्मा] प्रात्मा [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रध्यको [उत्पायति उत्पन्न करता है [च] पोर [करोति] करता है मध्नाति] बांधता है [परिणामयति] परिण मता है [१] तथा [गृह्णाति] ग्रहण करता है ऐसा [व्यवहारनयस्य व्यवहारनयका [वक्तव्यं] वचन है। तात्पर्य-प्रात्मा अपने भावको ही करता है, फिर निमित्तनैमित्तिक भाव दिखनेसे Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार प्रत एतस्थितं उप्पादेदि करेदि य बंधदि परिणामएदि गिण्हदि य । आदा पुग्गलदबं ववहारणयस्स बत्तब्वं ॥१०७|| व्यवहारसे बताया, ज्ञानावरणादि कर्मको प्रात्मा । गहे करे अरु बांधे, उपजावे वा परिणमावे ॥१०७॥ उत्पादयति करोति च बध्नाति परिणामयति गृह्णाति च । आत्मा पुद्गल द्रव्यं व्यवहारनयस्य वक्तव्यं । अयं खल्वात्मा न गृह्णाति न परिणामयति नोत्पादयति न करोति न बध्नाति व्याप्यव्यापकभावाभावात् प्राप्यं विकार्य निर्वयं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म । यत्तु व्याप्यव्यापकभावा ___ नामसंज्ञ य, य, अत्त, पुग्गलदव्व, बवहारणय, वत्तव्य। धातुसंज्ञ---उत्-पद गती, कर करणे, बंध बंधने, परि-नम नम्रीभावे प्रेरणा, गिण्ह ग्रहणे । प्रकृतिशब्द . च, त्र आत्मन्, पुद्गलद्रव्य, व्यवहारनय, वक्तव्य । मूलधातु-उत्-पद गती दिवादि चुरादि, डुका करणे, बन्ध बन्धने, परिणम प्रह्वस्वे, ग्रह उपालोग कहने लगते हैं कि जीवने पुद्गलकर्मको ग्रहण किया, परिणमाया, उत्पन्न किया, बाँधा प्रादि, सो यह उपचारमात्र ही है । टोकार्थ--यह प्रात्मा निश्चयसे व्याप्य-व्यापकभावके प्रभावसे प्राप्य, विकार्य और निर्वयं पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मको न प्रहार करता, । परिवार है, ग उजार है, न करता है और न बांधता है । व्याप्य-व्यापक भावके प्रभाव होनेपर भी प्राप्य, विकार्य और निर्वयं ऐसे तीन प्रकारके पुद्गलद्रव्यात्मक कर्मको यह प्रात्मा ग्रहण करता है, उपजाता है, करता है और पौधता है। ऐसा जो विकल्प होता है, वह प्रकट उपचार है । भावार्थ---व्याय-व्यापक भावके बिना जीवको कर्मका कर्ता कहना वह उपचार है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें उदाहरणपूर्वक यह बताया गया था कि जीवके द्वारा कर्म किया गया यह कथन उपचारसे किस प्रकार है ? अब इस गाथामें उस विवरणके निष्कर्षमें आगमणित सिद्धान्त स्थापित किया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) आत्मा पुद्गलद्रव्यको करता है यह व्यवहारनयका वचन है । (२) यहाँ करता है यह सामान्य वचन है जिसका विश्लेषण करनेपर कि क्या-क्या कैसे-कैसे करता है, चार क्रियायें प्राती हैं । (३) उत्पादयति अर्थात् जोव कर्मको प्रकृतिरूपसे उत्पन्न करता है । (४) बध्नाति अर्थात् जीव कर्ममें स्थितिबन्ध करता है । (५) परिणमयति अर्थात् जीव कर्मको अनुभागरूपमें परिणमाता है । (६) गृह्णाति अर्थात् जीव सर्वात्मप्रदेशोंसे कर्मप्रदेशोंको याने कर्म परमाणुवोंको ग्रहण करता है। (७) उपादानदृष्टि से निरखनेपर यह सब कथन उपचार वाला व्यवहार बनता है । () घटनादृष्टिसे, निमित्तनैमित्तिकदृष्टिसे निरखने Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भावेपि प्राप्यं विकार्यं निर्वर्यं च पुद्गलद्रव्यात्मकं कर्म गृह्णाति परिणामयत्युत्पादयति करोति बध्नाति चात्मेति विकल्पः स किलोपचारः ।। १०७ ।। समयसार दाने । पदविवरण उत्पादयति करोति, बध्नाति, परिणामयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । आत्मा-प्रथमा एकवचन | पुद्गलद्रव्यं द्वितीया एक० । व्यवहारनयस्य पृष्ठी एक० । वक्तव्यं प्रथमा एक. वचन कूदन्त । पर ग्रागमका यह सिद्धान्त वाला व्यवहार बनता है "प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ।” सिद्धान्त - ( १ ) निमित्तत्व होनेसे आत्मा पुद्गलद्रव्यको करता है यह उपचार किया जाता है । ( २ ) आत्माके योग उपयोगका निमित्त पाकर पुद्गल कामरणवर्गरायें कर्मरूप परिरामती है । दृष्टि - १ - परकर्तृत्व अनुपचरित श्रसद्भूतव्यवहार ( १२ ) । २ - उपाधिसापेक्ष शुद्ध विनय (२) । प्रयोग — वीतरागस्वसंवेदनज्ञानबलसे अविकार ज्ञानस्वभावका अनुभव करके अपने को निर्भर रहने देनेका पोरुष करना ।। १०७ ।। यहाँ होता है कि यह उपचार किस तरहसे है, उसका उत्तर दृष्टांत द्वारा देते हैं - [ यथा ] जैसे [राजा] राजा [दोषगुरगोत्पादकः ] प्रजाके दोष और गुणोंका उत्पन्न करने वाला है [इति] ऐसा [ व्यवहारात् ] व्यवहारसे [प्रापितः ] कहा है [तया ] उसी प्रकार [जोषः ] जीव [ द्रव्यगुणोत्पादक : ] पुद्गल द्रव्य में द्रव्य गुणका उत्पादक है, ऐसा [ व्यवहारात् ] व्यवहारसे [भरितः ] कहा गया है । टीकार्थ -- जैसे प्रजाके व्याप्यव्यापक भावसे स्वभावसे ही उत्पन्न जो गुण और दोष उनमें राजाके व्याप्यव्यापकभावका प्रभाव है तो भी लोक कहते हैं कि गुण दोषका उपजाने वाला राजा है, ऐसा उपचार (व्यवहार) है, उसी प्रकार पुद्गलद्रव्यके व्याप्य व्यापक भावसे ही उत्पन्न गुण, दोषोंमें जीवके व्याप्यव्यापकभावका प्रभाव है तो भी उन गुण दोषोंका उपजाने वाला जीव है, ऐसा उपचार है । भावार्थ- जैसे लोकमें कहते हैं कि जैसा राजा हो, वैसी ही प्रजा होती है, ऐसा कहकर गुण, दोषका कर्ता राजाको कहा जाता है, उसी प्रकार जैसा जीवका विभाव हो उसके अनुसार कर्मबंध होता है ऐसा जानकर पुदगल द्रव्यके गुण दका कर्ता जीवको कहते हैं । जब परमार्थदृष्टिसे विचारो तो यह उपचार है । प्रसंगविवररण – अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि जो कर्मको करता है, बाँधता है आदि कथन व्यवहारनयका वचन है। अब इसी कथनको इस गाथा में उदाहरणपूर्वक प्रसिद्ध किया गया है । तथ्यप्रकाश -- १ - जिस पुरुष में गुण व दोष उत्पन्न होते हैं उस पुरुष में हो वे गुण व Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथमिति चेत् ककर्माधिकार जह राया ववहारा दोसगुगुप्पादगोत्ति आलविदो । तह जीवों ववहारा दव्वगुगुप्पादगो भणिदो ॥१०८॥ व्यवहार बताया, राजा प्रजाके दोष गुरण करता । २२३ व्यवहार कि श्रात्मा, पुद्गलके द्रव्ध गुण करता ॥१०८॥ यथा राजा व्यवहाराद्दोषगुणोत्पादक इत्यालापितः । तथा जीवो व्यवहाराद् द्रव्यगुणोत्पादको मणिनः । यथा लोकस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेऽपि तदुत्पादको राजेत्युपचारः । तथा पुद्गलद्रव्यस्य व्याप्यव्यापकभावेन स्वभावत एवोत्पद्यमानेषु गुणदोषेषु व्याप्यव्यापकभावाभावेपि तदुत्पादको जीव इत्युपचारः । जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैत्र, कस्तहि तत्कुरुत इत्यभिशंकयैव । एवहि तोव्ररयमोहनिबर्हणाय, संकीर्त्यते वरत पुद्गलकर्म कर्तृ ।। ६३ ।। ।। १०८ ।। नामसंक्ष-जह, राय, ववहार, दोसगुरगुप्पादग, इत्ति, आलविद, तह, जीव, ववहार, दश्वगुरगुप्पादग, भणिद धातुसंज्ञ-आ-लव व्यक्तायां वाचि, भण कथने । प्रकृतिशब्द- यथा राजन्, व्यवहार, दोपगुणोत्पादक, इति, आलपित, तथा, जीव, व्यवहार, द्रव्यगुणोत्पादक, भणित मूलधातु-- राजू दीप्ती, विअव हृत्र हरणे, दुष कृत्ये दिवादि, आ-लप व्यक्तायां वाचि भ्वादि भण शब्दार्थ: । पदविवरण- यथाअव्यय । राजा - प्रथमा एक० व्यवहारात् - पंचमी एकवचन । दोषगुणोत्पादक:- प्रथमा एक० । इतिमध्यय । आलपितः प्रथमा एक० कृदंत कर्मवाच्ये क्रिया । तथा अव्यय । जीवः प्रथमा एकवचन । व्यव हारात् - पंचमी एक० | द्रव्यगुणोत्पादकः - प्रथमा एक० । भणितः प्रथमा एकवचन कर्मवाच्ये क्रिया ॥१०॥ दोष व्याप्य हैं । २- राजाकी नीति के अनुसार प्रजालोक भी अपनी प्रवृत्ति बना लेते हैं, इस रीतिको निरखकर यह उपचार किया जाता है कि राजा लोगोंके गुण दोषका उत्पादक है । ३ - जिन पुद्गलद्रव्यों में शुभकर्मत्व मशुभकर्मत्व उत्पन्न होते हैं वे कर्मत्व उन पुद्गलद्रक्ष्यों में ही व्याप्य हैं । ४ - जीवके शुभ अशुभभाव के अनुसार मुद्गल कार्मारणद्रव्य भी अपने में शुभ अशुभ कर्म बना लेते हैं सो इस निमित्तनैमिसिकभावको निरखकर यह उपचार किया जाता है कि जीव पुद्गलकर्मीका उत्पादक है । सिद्धान्त - १० जीव पुद्गलद्रव्य में शुभाशुभकर्मत्व उत्पन्न करता है यह व्यवहारसे कहा गया है । २- जीवके शुभाशुभ परिणामका निमित्त पाकर पौलिक कामों में पुण्यपाप प्रकृतिस्वपरिगमन होता है । दृष्टि - १- परकर्तृत्व अनुपचरित प्रसद्भूतव्यवहार ( १२६ ) । २ - उपाधिसापेक्ष द्धद्रव्याथिक (२४) । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४. समयसार सामगणपच्चया खलु चउरो अण्णंति बंधकतारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्या ॥१०॥ तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो दुलेरमवियप्पो। मिच्छादिट्टीयादी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥११०॥ एदे अचेदणा खल्लु पुग्गलकम्मुदयसंभवा जमा । ते जदि करंति कम्मं णवि तसिं वेदगो श्रादा ॥१११॥ गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुब्बंति पच्चया जमा । तमा जीवोऽकत्ता गणणा य कुब्वंति कम्माणि ॥११२॥ सामान्यतया प्रत्यय, चार कहे गये बन्धके कर्ता। मिथ्यात्व तशा अविरति, कषाय अरु योगको जानो ॥१०॥ उनके फिर भैद कहे, जीव गुणस्थानरूप हैं तेरह । मिथ्यादृष्टी आदिक, केवलज्ञानी सयोगी तक ॥११०॥ पुद्गलकर्म उदयसे, उत्पन्न हुए अतः अचेतन ये। वे यदि कर्म करें तो, उनका वेबक नहीं आत्मा ॥१११॥ चुकि गुणस्थानक ये, आस्रव करते हैं कर्मको इससे । .. जीव अकर्ता निश्चित, ये आस्रव कर्मको करते ॥११२॥ नामसंज्ञ सामग्णपच्चय, खलु, चउ, बंधकत्तार, मिच्छत्त, अविरमण, कमायजोग, य, बोअब्व, त, णो, वि, य, इम, भणिद, भेद, दु, तेरसवियण, मिच्छादिट्ठी आदि, जाव, सजागि, चरमंत, एत, अचेदण, प्रयोग -अपने शुभाशुभविकारोंके निमित्तसे यह पुण्यपापमय संसारविडम्बना बन रही है, अतः संसारविडम्बनासे निवृत्त होने के लिये अविकार ज्ञानस्वभावकी उपासनाका परमपौरुष करना ॥१०८।।। __ अब जिज्ञासा होती है कि पुद्गल कर्मका कर्ता यदि जीव नहीं है तो कौन है, इस का काव्य कहते हैं-जीवः इत्यादि । अर्थ-यदि पुद्गल कर्मको जीव नहीं करता तो उस पुद्गलकमको कौन करता है ? ऐसी आशंका करके अब तीन वेग वाले मोहका याने कर्तृकर्मत्वविषयक प्रज्ञानका नाश करनेको पुद्गलकका कर्ता बताया जा रहा है, सो हे ज्ञान के इच्छुक पुरुषो तुम सुनो। . अब पुद्गलकर्मका कर्ता कौन है सो सुनिये-- [चत्वारः] चार [सामान्यप्रत्ययाः] सा Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २२५ सामान्यप्रत्ययाः खलु चत्वारो भव्यते बंधकर्तारः । मिथ्यात्वमविरमणं कषाययोगी च बोद्धव्याः ॥१०६॥ तेषां पुनरपि चायं भणितो भेदस्तु त्रयोदशविकल्पः । मिथ्यादृष्टघादिर्यावत्सयोगिन श्रमांतम् ॥ ११०॥ एते अचेतनाः खलु पुद्गलकर्मोदय संभवा यस्मात् । ते यदि कुर्वति कर्म नापि तेषां वेदक आत्मा ||११|| गुणसंशितास्तु एते कर्म कुर्वति प्रत्यया यस्मात् । तस्माज्जीवोऽकर्ता गुणाश्च कुर्वति कर्माणि ॥ ११२ ॥ पुद्गलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेकं कर्तृ, तद्विशेषाः मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा बन्धस्य सामान्यहेतुतया चत्वारः कर्तारः त एव विकल्प्यमाना मिथ्यादृष्ट्या दिसयोग केवल्यंतास्त्रयोदश कर्तारः । अर्थते पुद्गलकर्मविपाक विकल्पत्वादत्यतमचेतनाः संतस्त्रयोदश कर्तारः खलु, पुग्गलकम्मुदयसंभव, ज, त, जदि, कम्म, ण, वि. त, वेदग, अत्त, गुणसणिद, दु, एत, कम्म, पच्चय, जत, जीव, अकतार, गुण, य, कम्म । धातुसंज्ञ –भण कथने, बुज्झ अवगमने, कर करणे, कुब्ब करणे, कुव्व करणं । प्रकृतिशब्द - सामान्यप्रत्यय, खलु, चतुर्, बन्धकर्तृ, मिथ्यात्व, अविरमण, कषाययोग, तत्, पुनर् अपि च, इदम्, भेद, तु, त्रयोदशविकल्प, मिथ्यादृष्ट्यादि. यावत् सयोगिन् चरमान्त एतत् अनेसन, खलु पुद्गलकर्मोदयसंभव, यत्, तत्, यदि, कर्मन् न, अपि तत्, वेदक, आत्मन् गुणसंज्ञित, तु, मान्य प्रत्यय [ख] वास्तव में [ बंधकर्तारः ] बंधके कर्ता [मण्यन्ते ] कहे गये हैं वे [ मिथ्यात्वं ] मिथ्यात्व [ श्रविरम ] श्रविरमण [च] प्रौर [रुषाययोगी] कषाय योग [ बोद्धव्याः ] जानने चाहिये [च पुनः ] और फिर [तेषां अपि ] उनका भी [ त्रयोदशविकल्पः ] तेरह प्रकारका [अ] यह [ मेदः ] भेद [कथितः ] कहा गया है जो कि [मिथ्यादृष्ट्यादिः ] मिथ्यादृष्टिको श्रादि लेकर [ सयोगिचरमांतः यावत् ] सयोग केवली तक है। [ एते] ये [ खलु] निश्चय से [ प्रतनाः ] अचेतन हैं [ यस्मात् ] क्योंकि [ पुद्गलकर्मोदय संभवाः] पुद्गलकर्मके उदयसे हुए हैं [ यदि ] यदि [ते] a [ कर्म] कर्मको [ कुन्ति] करते हैं तो करें [तु] किन्तु [तेषां बेब : ] उनका भोक्ता [f] भी [ श्रात्मा न] प्रात्मा नहीं होता [यस्मात् ] क्योंकि [ गुणसंज्ञिताः ] गुरण नाम वाले [ एते प्रत्ययाः ] ये प्रत्यय [ कर्म कुर्वसि] कर्मको करते हैं [तस्मात् ] इस कारण [जीव: ] जीव तो [अकर्ता ] कर्मका कर्ता नहीं है [व] और [ गुणाः ] ये गुरा ही [कर्माणि ] कमको [ कुर्बति ] करते हैं । तात्पर्य - श्रात्मा निमित्ततः भी पोद्गलिक कर्मोंका कर्ता नहीं, किन्तु पुद्गलमय सामान्य प्रत्यय व उनके विशेष प्रयोदश गुणस्थान ये पौगलिक कर्मो के निमित्ततः कर्ता हैं । टोकार्थ - निश्चयसे पुद्गलकर्मका एक पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है । उस पुद्गल द्रव्यके मिथ्यात्व प्रविरति कषाय और योग ये चार बंधके सामान्यहेतु होनेसे बंधके कर्ता हैं । वे हो मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर सयोगकेवली तक भेदरूप हुए तेरह कर्ता हैं । अब ये पुद्गलकर्मfarea. भेद होनेसे प्रत्यंत प्रवेतन होते हुए केवल ये १३ गुणस्थान पुद्गलकर्मके कर्ता होकर व्याप्यव्यापकभाव से कुछ भी पुद्गलकर्मको करें तो करें, जीवका इसमें क्या आया ? कुछ भी Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २२६ समयसार केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किंचनापि पुद्गलकमं कुर्यस्तदा कुयु रेव कि जीवस्यात्रापतितं । प्रथापं तर्कः पुद्गलमयमिथ्यात्वादोन वेदयमानो जीवः स्वयमेव मिथ्यादृष्टिभूत्वा पुद्गलकम करोति स किलाविवेको यतो खल्वात्मा भाच्यभावकभावाभावात् पुद्गलद्रव्यमयमिथ्यास्वादिवेदकोपि कथं पुनः पुद्गल कर्मणः कर्ता नाम । अर्थतदायातं यत: पुद्गलद्रव्यमयानां चतुर्णा एतत्, कर्मन, प्रत्यय, यत्, तत्, जीव, अकर्त, गुण, च, कर्मन् । मूलधातु-सम्-अण शब्दार्थे भ्वादि, प्राणने दिवादि, प्रति-अप गतौ भ्वादि, युजिर योगे, बुध अवबोधने, चिती संज्ञाने, पूरी आप्यायने, गल स्रवणे, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि । पदविवरण सामान्यप्रत्ययाः-प्रथमा बहु० । खलु-अध्यय । चत्वारःप्रथमा बहुवचन । भण्यन्ते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन कर्मवाच्ये क्रिया । बन्धकर्तार:-प्रथमा बहु० । मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । अविरमणं-प्रथमा एकः । कषाययोगो-प्रथमा द्विवचन । च-अव्यय । बोद्धव्या:-- प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया । तेषां-षष्ठी बहु । पुन:-अव्यय । अपि-अव्यय । च-अव्यय । अयं--प्रथमा एक० । भणित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त कर्मवाच्य क्रिया। भेदः-प्रथमा एक० । तु-अव्यय । त्रयोदशविकल्प:-प्रथमा एक० । मिथ्यादृष्ट्यादि:-प्र० ए०। यावत्-अध्यय । सयोगिनः--षष्ठी एक० । चरमान्त:महीं अथवा यहां यह तर्क है कि पुद्गलमय मिध्यात्वादिका वेदन करता हुअा जीव स्वयं ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गल कर्मको करता है। यह तर्क बिल्कुल प्रज्ञान है, क्योंकि मात्मा भाव्यभावक भावके प्रभावसे मिथ्यात्वादि पुद्गलकर्मीका भोक्ता भी निश्चयसे नहीं है तो पुद्गलकमका कर्ता कैसे हो सकता है ? इसलिये यह सिद्ध हुआ कि पुद्गल द्रव्यमय सामान्य पार प्रत्यय व उनके विशेष भेदरूप तेरह प्रत्यय जो कि गुण शब्दसे कहे गये हैं वे हो केवल कोको करते हैं। इस कारण जीव पुद्गलकमौका प्रकर्ता है और वे गुरणस्थान ही उनके कर्ता हैं. दयोंकि वे गुण पुद्गलद्रव्यमय ही हैं। इससे पुद्गलकमका पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है यह सिद्ध हुआ। मावार्थ-'अन्य द्रध्यका अन्य द्रव्य कर्ता कभी नहीं होता' इस न्यायसे प्रात्मद्रव्य पुद्गलद्रव्य कर्मका कर्ता नहीं है, बंधके कर्ता लो योगकषायादिकसे उत्पन्न हुए गुणस्थान हैं । वे वास्तवमें प्रचेतन पुद्गलमय हैं । इसलिए वे पुद्गलकमके कर्ता हैं, जीवको कर्ता मानना प्रज्ञान है। प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि जीव कर्मद्रव्यगुणोत्पादक है यह उपचारसे कहा गया, निश्चयनः जीव पुद्गलकर्मको कुछ नहीं करता। इस विवरणपर जिज्ञासा होती है कि फिर पुगलकर्मको करता कौन है ? इसके समाधान में ये ४ गाचार्य पाई है। तध्यप्रकाश-(१) पुद्गलकमका पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है । (२) मिध्यात्व, प्रविरति, कषाय व योग-~~ये ४ पुद्गलकर्मके प्रकार हैं, अतः ये चार पुद्गलकर्मके कर्ता हैं । (३) मिथ्यात्वका भेद प्रथम गुणस्थान, अधिरतिके भेद १ से ५ गुणस्थान, कषायके भेद १ से १० Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २२७ सामान्यप्रत्ययानां विकल्पास्त्रयोदश विशेषप्रत्यया गुणशब्दवाच्याः केवला एव कुर्वति कर्माणि । ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो गुणा एव तत्कारस्ते तु पुद्गलद्रव्यमेव । ततः स्थितं पुद्गलकर्मणः पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ ।। १०६.११२ ।। प्रथमा एकवचन । एते-प्रथमा बहुवचन । अचेतना:-प्रथमा बहु० । खलु-अव्यय । पुदगलकर्मोदयसंभवा: ह०। यस्मात-पंचमी एकवचन । ते-प्रथमा बनु । यदि-अव्यय । कुर्वन्ति-धर्तमान लट अन्य पुरुष बहु । कर्म-द्वितीया एक० कर्मकारक । न-अव्यय । अपि अन्य । तेषां-षष्ठी बहुवचन । वेदक:प्र० ए० । आत्मा-प्र०२०। गुणसंशिताः-प्रथमा बहु । तु-अव्यय । एते-प्र० बहु० । कर्म-द्वि० एक०। कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । प्रत्यया:-प्र० बहु । यस्मात्-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । तस्मात्पंचमी एक० । जीव:-१० ए० । अकर्ता-प्र० एक० । गुणा:-प्र० बहु । च-अध्यय। कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । कर्माणि-द्वितीया बहुवचन कर्मकारक ।। १०६-११२ ।।। गुणस्थान ब पोमके भेद १ से १३ गुणास्थान हैं, अतः ये १३ गुणस्थान पुद्गलकमके कर्ता हैं । (४) मिथ्यात्वसे सयोगकेवली पर्यंत १३ गुणस्थान पुगलकर्मके विपाकरूप हैं । (५) ये तेरह गुणस्थान पुद्गलकर्मको व्याप्यव्यापकभावसे करते हैं । (६) जीवके परिणामरूप १३ गुणस्थान पुद्गलकर्मविपाकरूप १३ गुणस्थानोंसे अन्य हैं इन दोनों में परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव है । (७) मिथ्यादृष्टि जीव अपने मिथ्यात्व परिणामको करता है व भोगता है । मिथ्या. दृष्टि जीव पुद्गलमय मिथ्यात्वको नहीं करता व नहीं भोगता । सिद्धान्त-~(१) पुद्गलकर्मका व पौगलिक गुणस्थानोंका पुद्गलद्रव्यके साथ व्याप्यव्यापक भाव होनेसे पुग़लद्रव्य ही कर्ता है । (२) जीवगुणस्थानोंका जीवद्रव्यमें व्याप्यव्यापकभाष होनेसे जीवद्रव्य ही कर्ता है। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-पुद्गलकर्मविपाकके प्रतिफलनोंमें राग होनेसे संसारक्लेशविडम्बना जानकर ज्ञानाकारस्वरूप विशुद्ध निज चैतन्यरसके स्वादमें लगना चाहिये । इससे राग मिटेगा प्रतिफलन कर्मसम्बन्ध मिटेगा, कैवल्य प्रकट होगा ।। १०६-११२ ॥ अब कहते हैं कि जोव और उन प्रत्ययोंका एकत्व भी नहीं है-[मया] जैसे [जीवस्य] जोयके [उपयोगः अनम्या] उपयोग एकरूप है [तषा] उसी प्रकार [यदि] यदि [ोषोपि] क्रोध भी [अनन्यः] एकरूप हो जाय तो [एवं] इस तरह [जीवस्य जीव [प] और [अजीवस्य] अजीवके [अनन्यावं] एकत्य [आपन] प्राप्त हुमा [एवं चह] ऐसा होनेसे इस लोकमें [यः तु] जो [जीवः] जीव है [स एव] वहो [नियमतः] नियमसे [तमा] वैसा ही [अजीयः] अजीव हुमा [एक ऐसे दोनोंके एकत्व होनेमें [अयं दोषः] यह दोष प्राप्त हुआ । [प्रत्ययनोकर्मकर्मणां] इसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म-कर्म इनमें भी यही दोष जानना। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ समयसार न च जीवप्रत्यययोरेकर जह जीवस्स अणण्णुवोगो कोहो वि तह जदि अणण्णो। जीवस्साजीवस्स य एवमणण्यातमावण्णं ॥ ११३ ॥ एवमिह जो दु जीवो सो चेव दुणियमदोतहाजीवो। अयमेयत्ते दोसों पच्चयणोकम्मकम्माणं ॥ ११४ ॥ अह दे अण्णो कोहो अण्णुव श्रोगप्पगो हवदि चेदा । जह कोहो तह पञ्चय कम्मं शोकम्ममवि अणणं ॥ ११५ ॥ ज्यौ आत्मासे तन्मय, उपयोग तथैव ऋवेष हो तन्मय । जीव व अजीयको फिर, अभिन्नता प्राप्त होगी ॥११३॥ इस तरह जीव जो है, वही नियमसे अजीव होवेगा । एकत्त्व दोष यह ही, आस्त्रय नोकर्म कर्मोमें ॥११४॥ उपयोगमयी आत्मा, यदि है अन्य हि व अन्य क्रोधादिक । कर्म नोकर्म प्रत्यय, तो तद्वत् मिन्न आत्मासे ॥११५॥ न्य उपयोग के भोग तथ सान्या; : माजी परमानन्यत्वमापन्नं ॥ ११३।। एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमतस्तथाजीवः । अयमेकत्वे दोष: प्रत्ययनोकर्मकर्मणां ।। ११४ ॥ अथ ते अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता । यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत् । यदि यथा जीवस्य तन्मयत्वाज्जीवादनन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोप्यनन्य एवेति प्रतिपत्तिस्तदा चिद्रूपजडयोरनन्यस्वाज्जीवस्योपयोगमयत्ववज्जडक्रोधमयत्वापत्तिः । तथा सति नामसंज्ञ-जह, जीव, अणण्णुवओग, कोह, बि, तह, जाद, अण्ण, जीव, अजीव, य, अणण्णत्त, आवष्ण, एवं, इह, जो, दु, जीव, त, च, एव, दु, णियमदो, तह, अजीव, इत, एयत्त. दोस, पच्चयणोकम्मकम्म, अह, तुम्ह, अण्ण, कोह, अवओगपग्ग, चेद, जह, कोह, तह, पच्चय, कम्म, गोकम्म, अवि, अण्ण ! धातुसंज- आ-वाण घटनायां, हर सत्तायां, चेत करणावबोधनयोः । प्रकृतिशब-यथा, जीव, अनन्य, जीव, अजीव, च, एवं, अन्यत्व, आपन्न, एवं, इह, यत्, तु, जीव, तत्, च, एव, तु, नियमतः, तथा, अजीव, [प्रथ] अब इस दोषके भयसे [ते] तेरे मतमें [क्रोधः] क्रोध [अन्यः] अन्य है और [उपयोगात्मकः] उपयोगस्वरूप [चेतयिता] प्रात्मा (अन्यः) अन्य (भवति) है तो (यथा क्रोधः) जैसे क्रोध (अन्यः) आत्मासे अभ्य है (तथा) उसी प्रकार (प्रत्ययाः) प्रत्यय (कर्म) कर्म (नोकर्म अपि) और नोकर्म ये भी (अन्यत्) प्रात्मासे अन्य ही हैं, ऐसा निश्चय करो । तात्पर्य-क्रोध, प्रत्यय व शरीर ये सभी प्रात्मासे भिन्न हैं । टीकार्य -- जैसे जीवके साथ तन्मयतासे जीवसे उपयोग अनन्य (एकरूप) है, उसी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नु कर्माविकार तु य एव जीवः स एवाजोव इति द्रव्यांतरलुप्तिः । एवं प्रत्ययनोकर्मकर्मणामपि जीवादनन्यत्व__ प्रतिपत्तावयमेव दोषः । अथैत दोषभयादन्य एवोपयोगात्मा जोवोऽन्य एव जडस्वभावः क्रोधः इदम्, एकत्व, दोष, प्रत्ययनोकर्मकर्मन्, अथ, युष्मद, अन्य, क्रोध, अन्य, उपयोग, चेतायत, यथा, क्रोध, तथा. प्रत्यय, कर्म, नोकर्मन, अपि, अन्यत् । मूलधातु-जीव प्राणधारणे, उप-युजिर् योगे, ऋध क्रोधे, आपद गतौ । पदविवरण- -- यथा-अव्यय । जीवस्य-षष्ठी एक० । अनन्यः-प्रथमा एकवचन । उपयोग:-प्र. ए० । क्रोध:-प्र० ए० अपि-अध्यय । तथा अव्यय । यदि-अध्यय। अनन्यः-प्र० एक०। जीवस्य-षष्ठी एक० अजीवस्य-षष्ठी एक० । च-अव्यय । एवं-अव्यय । अनन्यत्वप्रथमा एक.० । आपन्न-प्रथमा एक कृदंत किया । एवं-अव्यय । इह-अव्यय । य:-प्रथमा एकः । तु-अव्यय । जीव:-प्रथमा एकवचन । स:प्रथमा एकः । एव-अव्यय । तु-अव्यय । नियमत:-अव्यय पंचम्यां तसल् । तथा अव्यय । अजीव:-भ्रथमा प्रकार जड़ क्रोध भी अनन्य ही है, ऐसी प्रतीति हो जाय तो चिद्रूपको और जड़की अनन्यतासे जीवके उपयोगमयताकी तरह जड़ क्रोधमय होनेको भी प्राप्ति दई । ऐमा होनेपर जो जीव है, वही अजीव है, इस प्रकार द्रव्यान्तरका लोप हो गया । इसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म और कर्मों को भी जीवके साथ एकत्वकी प्रतीतिमें यही दोष पाता है । इस दोषके भयसे यदि ऐसा माना जाय कि उपयोगस्वरूप जीव तो अन्य है और जड़स्वरूप क्रोध अन्य है तो जैसे उपयोगस्वरूप जीवसे जड़स्वभाव क्रोध अन्य है, उसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म और कर्म भी अन्य ही हैं, क्योंकि अंसी जड़स्वभाव क्रोध है, उसी प्रकार प्रत्यय नोकर्म, कर्म ये भी जड़ हैं, इनमें विशेषता नहीं है । इस प्रकार जीव और प्रत्ययमें एकत्व नहीं है। भावार्थ - मिथ्यात्वादि मानव तो जड़स्वभाव हैं और जीव चैतन्यस्वभाव है । यदि जड़ और चेतन एक हो जायें तो भिन्न द्रव्यका ही लोप हो जाय यह बड़ा भारी दोष आता है । इसलिये प्रास्त्रव और आत्मामें एकत्व नहीं है, यह निश्चय नयका सिद्धान्त है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथावोंमें इस तथ्यका निर्देश किया गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, कषाययोगरूप तथा उनके भेदरूप १३ गुणस्थान--ये सब द्रव्यप्रत्यय बताये गये और ऐसे ही भावरूप जीवपरिणाम भी है । अब इन तीन गाथावोंमें इस विवरणसे सम्बं. धित यह बात कही गई है कि जीव और प्रत्ययोंमें एकत्व नहीं है, अभेद नहीं है । तथ्यप्रकाश-१- जीवसे उपयोग अभिन्न है । अतः जीव उपयोगमय है । २- यदि जड़ क्रोध भी जीवसे अभिन्न हो जाये तो जीव जड़ क्रोधमय हो जावेगा । ३- यदि जोद उपयोगभयकी तरह जड़क्रोधमय हो जाय तब तो जो ही जीव है वही अगीय है, द्रव्यान्तर न रहेगा, कौनसा न रहे, फल यह होगा कि दोनों ही न रहे यह महादोष है - जैसे जड़स्वभावी क्रोध उपयोगात्मक जीवसे अन्य है, ऐसे हो प्रत्यय, कर्म, नोकर्म भी उपयोगात्मक जीव से अन्य ही हैं। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार - - --- इत्यभ्युपगमः तहि यथोपयोगात्मनो जीवादन्यो जडस्वभावः क्रोधः तथा प्रत्ययनोकर्मकाण्यप्यन्यान्येव जडस्वभावत्वाविशेषान्नास्ति जीवप्रत्यययोरेकत्वं ।। ११३-११५ ॥ एकः । अयं-प्रथमा एकः । एकत्ते...सप्तमी एक० । दोषः-प्रथमा ए० । प्रत्ययनोकर्मकर्मणा-पष्ठी बहु । अथ-अव्यय । ते-पाटी एक० । अन्यः-प्रथमा एक० । क्रोधः-प्रथमा एक० । अन्य:-प्रथमा एक० । उपयोगात्मक:-प्रथमा एक । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । चेतयिता-प्रथमा एकवचन । यथाअव्यय । क्रोधः-प्र० ए० । तथा अव्यय । प्रत्यया:-प्र० बहु० । कर्म, नोकर्म-प्रथमा एक० । अपि-अव्यय । अन्यत्-प्रथमा एकवचन ।। ११३-११५ ।। सिद्धान्त-१- जीव द्रव्यकर्मोंका कर्ता भोक्ता उपचारसे है । २- जीव भावकाँका कर्ता निश्चयनयाभिमुख व्यवहारसे है । दृष्टि-१- परकर्तृत्व अनुपचरित असद्भूतव्यवहार (१२६) । २-- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-शुद्ध शान्त रहने के लिये जड़क्रोधादिसे ब जड़क्रोधादिके प्रतिफलनसे विविक्त चैतन्यमात्र उपयोगस्वरूप अन्तस्तत्त्वमें अधिष्ठित होना चाहिये ।। ११३-११५ ।।। अब सांख्यमतानुयायी शिष्यके प्रति पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वभावपना सिद्ध करते हैं--(यदि पुद्गलद्रव्यं) यदि पुद्गलद्रव्य (जीवे) जीवमें (स्वयं) स्वयं (न बद्ध) नहीं बंधा (कर्मभावेन) कर्मभावसे (स्वयं) स्वयं (न परिणमते) नहीं परिणमन करता है (इ तथा) ऐसा मानो तो यह पुद्गलद्रव्य (अपरिणामि) अपरिणामो (भवति) प्रसक्त होता है (1) और (कामरगवर्गगासु) कार्माणवणाबोंके (कर्मभावेन) कर्मभावसे (अपरिणममानासु) नहीं परिणमनेपर (संसारस्य) संसारका (अभाव:) प्रभाव (प्रसजति) ठहरेगा (या) अथवा (सांख्यसमयः) सांस्य मतका प्रसंग प्रायेगा । (जीयः) यदि जीव हो (पुद्गलद्रध्यागि) पुद्गलद्रव्योंको (कर्मभायेन) कर्मभावसे (परिणामयति) परिणमन कराता है ऐसा माना जाय तो (स्वयं अपरिणममानानि) पाप ही परिणमन न करते (तानि) उन पुद्गलद्रव्योंको (चेतयिता) यह चेतन जीव (कथं नु) कैसे (परिणामयति) परिणमा सकता है, यह प्रश्न हो सकता है (अथ) अथवा (पुद्गलद्रव्य) पुद्गलद्रव्य (स्वयमेव हि) पाप ही (कर्ममावेन) कर्मभावसे (परिगमते) परिणमता है, ऐसा माना जाय तो (जोवः) जीव (कर्म) कर्मरूप पुद्गलको (कर्मत्व) कर्म रूपसे (परिणामयति) परिणमाता है (इति) ऐसा कहना (मिथ्या) भूठ हो जाता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि (पुद्गलद्रव्य) पुद्गलद्रव्य (कर्मपरिणत) कर्मरूप परिणत हुअा (नियमात चत्र) नियमसे ही (कम) कर्मरूप (भवति) होता है (तथा) ऐसा होनेपर (तच्चय) वह पुद्गल द्रव्य ही (ज्ञानावरणादिपरिणत) ज्ञानावरणादिरूप परिणत (तत्) पुद्गलद्रव्यको (तत् चय) Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार अथ पुद्गलद्रव्यस्य परिणामस्वभात्वं साधयति सांख्यमतानुयायिशिष्यं प्रति-जीवेा सयं बद्ध सयं परिणमदि कम्मभावेण । जड़ पुग्गलदव्वमियां परिणामी तदा होदि ॥ ११६॥ कम्मइयवग्गणासु य परिणमंतीसु कम्मभावेगा । संसारम्स प्रभाव पसज्ज दे संखसमय वा ॥ ११७ ॥ जीवो परिणामयदे पुग्गलदव्वाणि कम्मभावेण । ते सयमपरिणमते कहं णु परिणामयदि चेदा ॥ ११८ ॥ हयमेव हि परिणमदि कम्मभावेण पुग्गलं दव्वं । जीवो परिणामयदे कम्मं कम्मत्तमिदि मिच्छा ॥ ११६॥ शियमा कम्मपरिणदं कम्मं चि य होदि पुग्गलं दव्वं । तह तं गाणावरणाइपरिषद मुसु तच्येव ॥ १२०॥ t जीव में स्वयं न बँधा, न वह स्वयं कर्मरूप परिणमता । पुद्गल यदि यह मानो, कर्म अपरिणाम होवेगा ॥ ११६ ॥ ये कर्मवायें, यदि न परिणमे फर्मभावसे तो । भवका प्रभाव होगा, सांख्य समयको प्रसक्ति भी होगी ॥११७॥ यदि जीव परिणामाचे, पुद्गलको कर्मभावरूपोंमें । स्वयं परिरणमतेको, कैसे यह परिणमा देगा ॥ ११८ ॥ २३१ नामसंज्ञ - जीव, ण, सयं बद्ध, ण, सयं, कम्मभाव, जइ, पुग्गलदव्व, इम, अपरिणामि, तदा, कम्म इयवग्गणा, य, अपरिणमंती, कम्मभाव, संसार, अभाव, संखसमअ, वा, जीव, पुग्गलदव्य, कम्मभाव, त, सयं, अपरिणमंत, कहं, णु चेदा, अह, सयं, एव हि कम्मभाव, पुग्गल, दव्व, जीव, कम्म, कम्मत्त, इदि, मिच्छा, नियम, कम्मपरिणद, कम्म, त्रि, य, पुग्गल, दब, तह, त, णाणावरणादि, परिषद, त, च, एव । ज्ञानावरणादि ही हैं, ऐसा ( जानीत ) जानो । तात्पर्य - जीवविभाव तो निमित्तमात्र है। कर्मरूप परिणत तो पुद्गलकर्मावर्गणायें ही होती हैं । टीकार्थ - यदि पुद्गलद्रव्य जीव में श्राप परिणमन करता है तो पुद्गलद्रव्य अपरिणामी ही प्रभाव हो जायगा । यदि कोई ऐसा तर्क करे कि नहीं बँधा हुआ कर्मभावसे स्वयमेव नहीं सिद्ध हो जायगा । ऐसा होनेपर संसारका जीव पुद्गलद्रव्यको कर्मभावसे परिलमाता Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ समयसार यदि यह पुद्गल वस्तु स्वयं हि परिणमे कर्मभावोंसे । सो जीव परिणामाता, पुद्गलको कर्म यह मिथ्या ॥ ११६ ॥ कर्मरूप परिरणत हो, पुद्गल ही कर्मरूप होता है । सो वह पुद्गल वस्तू ज्ञानावरणादिपरिणत है ॥ १२० ॥ T जीवे न स्वयं बद्धं न स्वयं परिणमते कर्मभावेन । यदि पुद्गलद्रव्यमिदमपरिणामि तदा भवति ।। ११६ ।। कार्मणवर्गेणासु चापरिणममानासु कर्मभावेन । संसारस्याभाव: प्रसज्यते सांख्यसमयो वा ।। ११७ ।। जीव: परिणामयति पुद्गलद्रव्याणि कर्मभावेन । तानि स्त्रयमपरिणममानानि कथं नु परिणामयति चेतयिता । अथ स्वयमेव हि परिणमते कर्मभावेन पुद्गलद्रव्यं । जीवः परिणामयति कर्म कर्मत्वमिति मिथ्या ।। ११६ ।। नियमात्कर्मपरिणतं कर्म चैव भवति पुद्गलद्रव्यं । तथा तद्ज्ञानावरणादिपरिणतं जानीत तच्चैव ॥ १२० ॥३ यदि पुद्गलद्रव्यं जीवे स्वयमबद्ध सत्कर्मभावेन स्वयमेव न परिरणमेत तदा तदपरिणाम्येव स्यात् । तथा सति संसाराभाव: 1 अथ जीव: पुद्गलद्रव्यं कर्मभावेन परिणामयति ततो न संसाराभावः इति तर्कः ? कि स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा जीवः पुद्गलद्रव्यं कर्मभातुसंज्ञ-बंध बंधने, परि-नमनत्रीभावे हो सत्तायां, प-सज्ज समवाये, मुण जाने । प्रकृतिशब्द - जीव, न, स्वयं बद्ध, न, स्वयं, कर्मभाव, वदि, गुद्गलद्रव्य, इदं अपरिणामिन्, तदा कार्माणवर्गणा, च. अपरिमाना, कर्मभाव, संसार, अभाव, सांख्यसमय, वा, जीव, पुद्गलद्रव्य, कर्मभाव, तत् स्वयं अपरिणममान, कथं, नु, चेतयितृ । मूलघातु-जीव प्राणधारणे, बन्ध बन्धने, परिणम प्रहृत्वे, पूरी आप्यायने, गल स्रवणे, द्रु गतौ भू सत्तायां सम्-सृ गतौ भ्वादि । पदविवरण - जीवे सप्तमी एकवचन | न अव्यय | स्वयं-अव्यय । बद्धं प्रथमा एक० कृदन्त । न-अव्यय । स्वयं-अव्यय । परिणमते वर्तमान लट् अन्य पुरुष है, इसलिये संसारका प्रभाव नहीं हो सकता, उसके समाधानमें प्रश्न है कि यदि जीव पुद्गलको परिणमित कराता है तो वह स्वयं अपरिमितको परिमित कराता है या स्वयं परिण मितको परिणमित कराता है ? यदि इनमें से पहला पक्ष लिया जाय तो स्वयं श्रपरिमितको कोई नहीं परिणमा सुकता, क्योंकि स्वयं अपरिमितको परके द्वारा परिणमानेकी सामर्थ्य नहीं होती | स्वतः शक्ति जिसमें नहीं होती, वह परके द्वारा भी नहीं पा सकती । यदि स्वयं परिमित पुद्गलद्रव्यको जीव कर्मभावसे परिमाता है, ऐसा दूसरा पक्ष लिया जाय तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अपने ग्राप परिणमित हुए को ग्रन्य परिणामानेवालेको आवश्यकता ही नहीं, क्योंकि वस्तुको शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करती। इसलिये पुद्गलद्रव्य परिणामस्वभाव स्वयमेत्र होवे | ऐसा होनेपर जैसे कलशरूप परिणत हुई मिट्टी अपने आप कलश हो है, उसी भाँति जडस्वभाव ज्ञानावर आदि कर्मरूप परिणत हुमा पुद्गलद्रव्य हो भाप ज्ञानावरण प्रादि कर्म ही है । इस प्रकार पुद्गल द्रव्यका परिणामस्वभावपना सिद्ध हुआ । अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-स्थिते इत्यादि । अर्थ - इस प्रकार पुगल द्रव्यको परिणमनशक्ति स्वभावभूत निर्विघ्न सिद्ध हुई । उसके सिद्ध होनेपर पुद्गलद्रव्य Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार २३३ भावेन परिणामयेत् ? न तावत्तत्स्वयमपरिणममानं परेण परिणामयितुं पार्येत । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते । स्वयं परिणाममानं तु न परं परिणमयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते । ततः पगलद्रव्यं परिणामस्वभावं स्वयमेवास्तु । तथा सति कलशपरिणता मृत्तिका स्वयं कलश इव जडस्वभाबं ज्ञानावरणादिकमेपरिणतं तदेव स्वयं ज्ञानावरएक क्रिया । कर्मभावेन-तृतीया एक० । यदि-अन्यय । पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक० । इद-प्र० ए० । अपरिणामि-प्र०० एक० नपंसकलिङ्ग। तदा-अध्यय। भवति-वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन। कार्माणवर्गणासु-सप्तमी वहु० । च-अव्यय । अपरिणममानासु-सप्तमी बहु०। कर्मभावेन-तृतीया एक० । संसारस्य-षष्ठी एक० । अभाव:-प्र० ए० । प्रसजति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सांख्यसमय:प्र० ए० 1 वा-अव्यय । जीवः-प्र० ए० । परिणामयति-वर्तमाम लट् अन्य पुरुष एक. णित किया। पुद्गलद्रव्याणि-द्वितीया एक ० 1 कर्मभावेन-तृ० ए० १ तानि-द्वि० बहु० । अपरिणममानानि-द्वि० ए० । कथंअव्यय । तु-अव्यय । परिणामप्रति-वर्तमान अन्य ० एक० । चेतयिता-प्र० ए० । परिणमते-वर्तमान लट् अपने जिस भावको करता है, उसका वह पुद्गलद्रव्य ही कर्ता है। भावार्थ-सब द्रव्योंका परिणाम स्वभावतः सिद्ध है, इसलिये प्रत्येक द्रव्य अपने भावका पाप ही कर्ता है ! अतः पुद्गल भी जिस भावको अपने में करता है, उसका वही कर्ता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथात्रयमें यह निर्णय दिया गया था कि जीव और द्रव्यप्रत्यय ये भिन्न भिन्न हैं इनमें एकत्व नहीं । सो इसकी पुष्टि तब ही हो सकती है जब यह सिद्ध हो कि जीव अपने में अपने परिणमनेका स्वभाव रखता है और प्रजीव कर्म पुद्गलद्रव्य अपनेके खुदमें परिणमनेका स्वभाव रखता है। इन दो निर्णयोंमें प्रथम पुद्गलद्रव्यका परिणाम स्वभावत्व इन पाँच माथानोंमें सिद्ध किया है। तथ्यप्रकाश--१- पुद्गलद्रव्यको जीवमें स्वयं बद्ध व कर्मभावसे स्वयं परिणत न माननेपर पुद्गलद्रव्य अपरिणामि बन बैठेगा । २- यदि पुद्गलद्रव्यकर्मको अपरिणामी माना जायगा तो संसारके प्रभावका प्रसंग हो जायगा । ३- कर्मरूपसे प्रपरिणत पुद्गलद्रव्यको जीव परिणमा देगा ऐसा यों नहीं हो सकता कि जो परिणम न सके उसे निमित्तरूपसे भी कोई परिणमा नहीं सकता। ४- यदि स्वयं परिणामते पुद्गलकमको जीव परिणमा देगा यह माना जाय तो जब पुद्गल परिणम रहा तो इसमें दूसरेकी अपेक्षा नहीं, दूसरा निमित्तमात्र हो होता । ५- पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणामस्वभाव है वह ज्ञानावरणादि कर्मरूप हो जाता है । ६- निमित्तनैमित्तिकभाव व वस्तुस्वातंत्र्य इन दोनोंका एक साथ होने में विरोध नहीं है। सिद्धान्त-१-पुद्गलद्रव्य कर्मरूपसे अकेला परिणमता है दूसरेको लेकर नहीं । २जीवपरिणाम व कर्मपरिणामका परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्तृकर्मत्वसंबंध नहीं। दृष्टि --- १-प्रशुद्धनिश्चयनय (४७) । २-उपाधिसरपेक्ष प्रसुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ शादिकर्म स्यात् । इति सिद्धं पुद्गलद्रव्यस्य परिरणामस्वभावत्वं । स्थितेत्यविध्ना खलु पुद्गल - स्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः तस्यां स्थितायां स करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥ ६४ ॥ ।। ११६ - १२० । समयसार अन्य पुरुष एक् । कर्मभावेन तृ० ए० पुद्गल प्र० ए० । द्रव्यम् - प्र० ए० । जीवः - प्र० ए० । कर्म द्वि० एक० | कर्मत्वं द्वि० ए० या क्रियाविशेषण अव्यय । इति-अव्यय । मिथ्या - अ० । नियमात् - पंत्रमी एक० । कर्मपरिणतं कर्म - प्र० ए० । भवति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ११६-१२० ।। प्रयोग -- पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणमनस्वभाव है किन्तु जीव उसे करता नही है, ऐसा जानकर पुद्गलसे करनेका पौरुष करना ।। ११६-१२० ॥ उसको जीवपरिणाम निमित्तमात्र है, भिन्न निज परमात्मतत्वको उपासना ] अब जीवद्रव्यका परिणामित्व सिद्ध करते हैं- सांख्यमतानुयायी शिष्यसे प्राचार्यं कहते हैं कि हे भाई [ब] तेरी बुद्धि में [ यदि ] यदि [ एष जीवः ] यह जीव [ कर्मरिण ] कर्म में [ स्वयं ] स्वयं [ बद्धः न ] बँधा नहीं है और [ क्रोधादिभिः ] क्रोधादि भाव से [ स्वयं ] स्वयं [न परिणमति ] नहीं परिणमता [ तवा ] तो [ अपरिणामी] वह जीव परिणामी [भवति ] प्रसक्त होता है [ जोवे ] और जीवके [ क्रोधादिभिः भावः क्रोधादि भावों द्वारा [ स्वयं अपरिणममाने] स्वयं परिणत न होनेपर [ संसारस्य अभाव: ] संसारका प्रभाव [ प्रस जयते] प्रसक्त हो जायगा [वा ] प्रथवा [ सांख्यसमयः ] सांख्यमत प्रसक्त हो जावेगा । यदि कोई कहे कि [ पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म जो [क्रोधः ] क्रोध है वह [जीवं ] जीवको [ क्रोधत्वं ] क्रोधभावरूप [परिमयति ] परिणामाता है तो [ स्वयं अपरिणममानं ] स्वयं न परिणत हुए [तं] जीवको [ ऋोषः ] क्रोधकर्म [ कथं नु ] कैसे [ परिणामयति ] परिणमा सकता है ? [ अथ ] यदि [ से एषा बुद्धिः ] तेरी ऐसी समझ है कि [ श्रात्मा] आत्मा [ स्वयं ] अपने आप [ क्रोधभावेन ] क्रोधभाव से [ परिणमते ] परिणमन करता है तो [ क्रोधः ] पुद्गलकर्मरूप क्रोध [जोध ] जीवको [ क्रोधस्वं ] क्रोधभावरूप [ परिणामयति ] परिणमाता है [ इति मिथ्या ] ऐसा कहना मिथ्या ठहरता है । इसलिये यह सिद्धान्त है कि [ क्रोधोपयुक्तः ] क्रोध में उपयुक्त अर्थात् जिसका उपयोग क्रोधाकाररूप परिणमता है, ऐसा [आत्मा] श्रात्मा [ क्रोधः ] क्रोध ही है [ मानोषयुक्तः ] मानसे उपयुक्त होता हुआ [मानः ] मान ही है, [ माउबजुसो ] मायासे उपयुक्त [ माया ] माया ही है [च] और [ लोभोपयुक्तः ] लोभसे उपयुक्त होता हुआ [ लोभः ] लोभ ही [भवति ] है । टीकार्थ- जीव कर्ममें स्वयं नहीं बँधा हुआ क्रोधादि भावसे आप नहीं परिणमे तो वह जीव वास्तव में अपरिणामी ही सिद्ध होगा । ऐसा होनेपर संसारका प्रभाव प्राता है अथवा Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार सयं वद्धो कम्मे ण सयं परिणामदि कोहमादीहिं । जइ एस तुज्झ जीवो अपरिणामी तदा होदी ॥१२१॥ परिणामंतहि सयं जीवे कोहादिपहिं भावेहिं । संसारस अभावोपज्जदे संखरामयो वा ॥ १२२॥ पुग्गलकम्मं कोहो जीवं परिणाम एदि कोहत्तं । तं सयमपरिणतं कहंगु परिणामयदि कोहो ॥ १२३॥ अह सयमप्पा परिणमदि कोहभावेण एस दे बुद्धी । कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा ॥ १२४॥ कोहुवजुत्तोकोहो मागुवजुत्तो यमाणमेवादा | माउजुत्तो माया लोहुवजुत्तो हवदि लोहो ॥ १२५ ॥ कमोंमें स्वयं न बँधा, न वह स्वयं कोषरूप परिरणमता । आत्मा यदि यह मानो, जीव अपरिणामि होवेगा ॥ १२१ ॥ यह जीव स्वयं क्रोधादिक भाषोंसे न परिणामे तब तो । rest अभाव होगा, सांख्यसमयकी प्रसक्ति भी होगी ॥ १२२ ॥ जीवस्य परिणामित्वं साधयति २३५ नामसंज्ञण, सयं बद्ध, कम्म, ण, सयं, कोहमादि, जइ एत, तुम्ह, जीव, अप्परिणामि, तदा, अपरिणमंत, सयं, जीव, कोहादिअ, भाव, संसार, अभाव, संखसमअ, वा, पुग्गलकम्म, कोह, जीव, कोहत्त, त सयं, अपरिणमंत, कहूं, गु, कोह, अह, सयं, अप्प, कोहभाव, एत, तुम्ह, बुद्धि, कोह, जीव, कोहत्त. इदि, मिच्छा, कोहुवजुत, कोह, माणुवजुत्त, य, माण, एव, अत्त, माउबजुत्त, माया, लोहुवजुत्त, लोह । कोई ऐसा तर्क करे कि पुद्गलकर्म क्रोधादिक ही जीवको क्रोधादिक भावसे परिणामाते हैं इस लिये संसारका प्रभाव नहीं हो सकता। ऐसा कहने में दो पक्ष पृष्टव्य हैं कि पुद्गलकर्म क्रोधादिक अपने आप अपरिणमते जीवको परिणमाते हैं या परिणमतेको परिणमाते हैं ? प्रथम तो जो आप नहीं परिणमता हो, उसमें परके द्वारा कुछ भी परिणमन नहीं कराया जा सकता है क्योंकि आपमें जो शक्ति नहीं, वह परके द्वारा नहीं की जा सकती तथा जो स्वयं परिणमता हो, वह अन्य परिणमाने वाले की अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि वस्तुकी शक्तियाँ परकी प्रपेक्षा नहीं करती। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीव परिणमन स्वभाव वाला स्वयमेव है । ऐसा होनेपर जैसे कोई मंत्रसाधक गरुडका ध्यान करता हुआ याने उस गरुड भावरूप परिणत Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार क्रोधादिकर्म प्रद्गल, जीवको कर्मरूप परिसमावे। स्वयं अपरिगमतेको, कैसे विधि परिणमा देगा ॥१२३॥ यदि यह आत्मा वस्तू, स्वयं हि परिणमे क्रोधभावोंसे । तो कर्म परिणमाता, आत्माको कर्म यह मिथ्या ॥१२४॥ क्रोधोपयुक्त प्रास्मा, क्रोध तथा मान मान उपयोगी । मायोपयुक्त माया, लोभ तथा लोम उपयोगो ॥१२॥ न स्वयं बद्धः कर्मणि न स्वयं परिणमते क्रोधादिभिः । यद्येषः तब जीरोऽपरिणामी तदा भवति ।।१२।। अपरिणममाने स्वयं जीवे क्रोधादिभिः भावः । संसारस्यामावः प्रसज्यते सांस्यसमयो वा ।।१२२|| पुद्गलकर्म क्रोधो जी परिणामयति क्रोधत्वं । तं स्वयमपरिणममानं कथं नु परिणामयति क्रोधः ॥१२३॥ अथ स्वयमात्मा परिणमते क्रोधमाधेन एषा ते बुद्धिः । क्रोधः परिणामयति जीवं क्रोधवमिति मिथ्या। क्रोधोपयुक्तः क्रोधो मानोपयुक्तश्च मान एवात्मा । मायोपयुक्तो माया लोभोपयुक्तो भवति लोभः ।।१२।। यदि कर्मणि स्वयमबद्धः सन् जीवः क्रोधादिभावेन स्वयमेव न परिणमेत तदा ‘स किलापरिणाऐव स्यात् 1 तथा सति संसाराभावः । अथ पुद्गल कर्मक्रोधादि जोवं क्रोधादिभा. वेन परिणामयति ततो न संसाराभाव इति तर्कः । कि स्वयमपरिणममानं परिणममानं वा धातुसंझ--परि-नम नम्रीभावे, हो सत्तायां, प-सज्ज समवाये, हव सत्तायां । प्रकृतिशब्द-न, स्वयं, बद्ध, कर्मन, न, स्वयं, क्रोधादि, यदि, एतत्, युष्मद, जीव, अपरिणामिन्, तदा, अपरिणममान, स्वयं, जीव, क्रोधादि. भाव, संसार, अभाव, सांख्यसमय, वा, पुद्गलकर्मन्, क्रोध, जीव, क्रोधत्व, तत्, स्वयं, अपरिणममान, कथं, नु, क्रोध, अथ, स्वयं, आत्मन्, क्रोधभाव, एतत्, युष्मद्, बुद्धि, क्रोध, जीव, क्रोधत्व, इति, मिथ्या, क्रोधोपयुक्त, श्रोध, मानोपयुक्त, च, मान, एव, आत्मन्, मायोपयुक्त, माया, लोभोपयुक्त, लोभ । हुप्रा गरुड ही है, उसी भाँति यह जीवात्मा अज्ञानस्वभाव क्रोधादिरूप परिणत उपयोगरूप हमा स्वयमेव क्रोधादिक ही होता है । इस प्रकार जोवका परिणामस्वभाव होना सिद्ध हुप्रा । भावार्थ-जीव परिणामस्वभाव है । जब अपना उपयोग क्रोधादिरूप परिणमता है, तब स्वयं क्रोधादिरूप ही होता है। अब इस प्रर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं स्थितेति- इत्यादि । अर्थ-- इस प्रकार जीवके अपने स्वभावसे ही हुई परिणमनशक्ति निर्विघ्न सिद्ध हुई। उसके सिद्ध होनेसे यह जीव अपने जिस भाव को करता है उसीका वह कर्ता होता है । प्रसंग विवरण-अनन्तरपूर्व गाया पंचकमें पुद्गलद्रव्यका स्वयं परिणामित्व बताया गया था। अब इस गाथा पंचकमें जीवका स्वयं परिणामित्व बताया गया है । सध्यप्रकाश-१- जीवको कर्ममें स्वयं बद्ध व क्रोधादिभावसे परिणत न माननेपर जीव अपरिणामी बन बैठेगा । २- यदि जीवको अपरिणामो माना जायगा तो संसारके प्रभाव Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार पुद्गलकर्म क्रोधादि जीवं क्रोधादिभावेन परिणामयेत् ? न तावत्स्वयमपरिणममानः परे। परिणामयितुं पार्येत, न हि स्वतोऽसती शक्ति: कर्तु मन्येन पार्यते । स्वयं परिणममानस्तु न पर परिणमयितारमपेक्षेत । न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते । ततो जीवः परिणामस्वभावः स्वयमेवास्तु तथा सति गरुडध्यानपरिणतः साधक: स्वयं गरुड इवाज्ञानम्बभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः स्यादिति सिद्धं जीवस्य परिणामस्वभावत्वं ।।१२१-१२५ ॥ मूलधातु- बन्ध बन्धन, परिणम प्रवत्वे, अध शोधने, भू सत्तायां, स-स गती, प्रज् सङ्ग, मम्-अयं गतो, पूरी आप्यायने, गल रूबणे, बुध अवबोधने, उप-यूजिर योगे, मान पूजायां भ्बादि चुरादि, लुभ गाध्ये दिवादि, लभ विमोहने तदादि । पविवरण- स्वय-अव्यय । बद्धः-प्रथमा एक० । कम परिणमते-बर्तमान लद अन्य परुष एकवचन क्रिया। क्रोधादिभिः-तृतीया बढ०। यदि-अन्य प्र० ए०। तब-पष्टी एक० | जीवः, अपरिणामी-प्र० ए० । तदा--अव्यय । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । अपरिणममाने, जोबे-सप्तमी एक० । क्रोधादिभिः-तृतीया बहु । भावै:-तृ० ब० । संसारस्य-वाटी एक० | अभाव:-प्र०ए०। प्रसज्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । सांख्यसमय:-प्र० ए । वा-अव्यय । पुद्गलकम, श्रोध:-प्र० ए० । जीव-द्वितीया एकः । परिणामयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन णित किया । बोधत्वं-प्र० ए. या क्रियाविशेषण क्रोधत्वं यथा स्यात्तथा । तं-द्वि० ए०] अपरिणममानं-द्वि० एक० । कथं, नु-अव्यय । परिणामयति-वर्त लट् अन्य ० एक० । क्रोधः-प्रथमा एक० | अथ--अन्यय । आत्मा-प्र० ए० । परिणमते-बर्तमान ० अन्य ० एक । क्रोधभावेन-तृ० ए० । एपा-प्र० ए. स्त्रीलिङ्ग । ते-पष्ठी एक० | बुद्धिः, क्रोध:-म० ए० परिणामयति-वर्तमान० अन्य- एक० । जीव-द्विल एक० कर्मकारक । क्रोधत्वंद्वि० ए० या क्रियाविशेषण ऋोधत्वं यथा स्यात्तथा । शोधोपयुक्तः, क्रोधः, मानोपयूक्त:-प्र० ए० । च-अव्यय । मानः-प्र- ए.। एब-अव्यय । आत्मा, मायोपयूक्तः, माया, लोभोपयूक्त:प्र. एक । भवति-वर्तमान लट् अन्य एक० । लोभ:-प्रथमा एकवचन ॥ १२१-१२५ ।। का प्रसंग मा जावेगा । ३- न परिणमते हुए जीवको क्रोधादि प्रकृतिकर्म परिणमा देगा ऐसा यों नहीं हो सकता कि जो परिणाम न सके उसे निमित्तरूपसे भी कोई परिणमा नहीं सकता ४-यदि स्वयं परिणमते जीवको क्रोधादिकर्म परिणमा देगा यह माना जाय तो जब जीव परिरणम रहा तो इसमें दूसरेकी अपेक्षाकी जरूरत नहीं, दूसरा निमित्तमात्र हो होता । ५- जीव परिणामस्वभाव स्वयं है वह अज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोग होता हुआ स्वयं क्रोधादि हो जाता है । ६- निमित्तनैमित्तिक भाव व वस्तुस्वातंत्र्य दोनोंका एक साथ होने में विरोध नहीं है। सिद्धांत--१-जीव क्रोधादिपरिणतोपयोग अकेला होता है दूसरेको लेकर नहीं । २क्रोधादिकमप्रकृतिका विपाकोदय होनेपर अशुद्धोपादान जीव स्वयं विकाररूप परिणम जाता है । दृष्टि-१-- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग-आत्मा स्वयं परिणामस्वभाव है उसको क्रोधादिकम निमित्तमात्र है, किन्तु Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ तथाहि- समयसार जं कुदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स कम्मस्स | गाणिस्स स गाणमय अण्णामी अगाणिस्स ।। १२६ ॥ आत्मा जो भाव करे, होता यह उस भावका कर्ता । ज्ञानमय भाव बुधका प्रज्ञानमय हि अबुधका है ॥ १२६ ॥ यं करोति भावमात्मा कर्ता स भवति तस्य कर्मणः । ज्ञानितः स ज्ञानमयोऽज्ञानमयोऽज्ञानिनः ।। १२६ ।। एवममात्मा स्वयमेव परिणामस्वभावोपि यमेव भावमात्मनः करोति तस्यैव कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापचेत । स तु ज्ञानिनः सम्यकूपर विवेकेनात्यंतोदित विविक्तात्मख्या t नामसंज्ञ – ज, भाव, अत्त, अत्त, कतार, त, त कम्म, णाणि त. पाणमअ, अण्णाणमअ, अणाणि । धातुसंज्ञ-कुण करणे, हो सत्तायां । प्रकृतिशब्द-यत्. भाव, आत्मन् कर्तुं तत् तत् कर्मन, ज्ञानिनु, तत् ज्ञानमय, अज्ञानमय, अज्ञानिन् । मूलधातु- डुकृन्न करणे, थत सातत्यगमने सत्तायां ज्ञा अवबोधने । पदविवरण ---- द्वितीया एकवचन । करोति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । भावं द्वि० एक० क्रोधादिकर्म जीव परिणामको करता नहीं, प्रतः कायरताका कोई प्रसंग नहीं ऐसा जानकर अपने ग्रविकार सहज ज्ञानमात्र स्वरूपको निरखकर निजस्वरूपमें ही दृष्टि रखनेका पौरुष करना । ।। १२१-१२५ । अब उक्त अर्थको लेकर भावोंका बिशेषकर कर्ता कहते हैं: - [ श्रात्मा] आत्मा [ यं भri] fre भावnt [करोति ] करता है [तस्य कर्मणः ] उस भावरूप कर्मका [सः ] वह [कर्ता ] कर्ता [भवति ] होता है । वहाँ [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके तो [सः ] वह भाव [ ज्ञानमय: ] ज्ञानमय है और [ प्रज्ञानिनः ] अज्ञानीके [ अज्ञानमयः ] अज्ञानमय है । टीकार्थ - - इस प्रकार यह श्रात्मा स्वयमेव परिणमनस्वभाव वाला होनेपर भो जिस भावको अपने करता है, कर्मत्वको प्राप्त हुए उस भावका ही कर्तापना प्राप्त होता है । सो वह भाव ज्ञानका ज्ञानमय ही है, क्योंकि उसको अच्छी प्रकारसे स्व-परका भेदज्ञान हो गया है, जिससे सब परद्रव्य भावोंसे भिन्न आत्माकी ख्याति प्रत्यन्त उदित हो गई है | परंतु अज्ञानी के प्रज्ञानमय भाव ही है, क्योंकि उसके भली-भाँति स्वपरके भेदज्ञानका प्रभाव होनेसे भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत प्रस्त हो गई है । भावार्थ- ज्ञानीके तो अपना परका भेदज्ञान हो गया है इसलिये ज्ञानीके तो अपने ज्ञानमय भावका ही कर्तृस्व है, किन्तु अज्ञानीके अपना पर का भेदज्ञान नहीं है इस कारण अज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व है । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथापंचक में जीवको परिणामी सिद्ध करते हुए प्रसिद्ध किया था कि जीव अपने जिस भावको करता है उसीका कर्ता होता है । सो उसी स्वकर्तृत्व Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २३६ तित्वात् ज्ञानभय एव स्यात् । अज्ञानिनस्तु सम्यकस्वपरविवेकाभावेनात्यंतप्रत्यस्तमितविविक्तारमख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात् ।।१२६।। कर्मकारक। आत्मा-प्रथमा एकवचन कतकारक । कर्ता, स:-प्र० ए० । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया । तस्य, कर्मणः, ज्ञानिन:-षष्ठी एकवचन । सः, ज्ञानमयः, अज्ञानमय:-प्र० ए० । अज्ञानिम:षष्ठी एकवचन ।। १२६ ।। का स्पष्टीकरण इस गाथामें किया है। तथ्यप्रकाश-१-यात्मा अपने जिस भावको करता है उस कर्मका (जीवपरिणामका) कर्ता होता है। २-ज्ञानीके स्वपरविवेक होने के कारण दृष्टि में सर्वपरविविक्त आत्माको ख्याति होनेसे ज्ञानमय ही भाव होता है । ३-प्रज्ञानीके सही स्वपरविवेक न होनेके कारण विविक्त प्रात्माकी ख्याति (प्रतीति) न होनेसे अज्ञानमय ही भाव होता है । सिद्धान्त-१-स्वपरविवेकपूर्वक स्वभावदृष्टि होनेसे ज्ञानीके ज्ञानमय भाव होते हैं। २-स्वपरविवेक न होनेके कारण स्व दृष्टि मस्त मानेको सम्मानीले ज्ञानमय भाव होते हैं । दृष्टि-- अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६ब) । २-प्रशुदनिश्चयनय (४७) । प्रयोग-ज्ञानमयभावको स्वभावभाव व निराकुल जानकर उसकी कारणभूत अवि. कारज्ञानस्वभाव दृष्टि रखनेका पौरुष करना ।।१२६॥ ज्ञानमय भावसे क्या होता है और प्रज्ञानमय भावसे क्या होता है, अब यह कहते हैं—[अज्ञानिनः] अज्ञानीका [प्रज्ञानमयः] अज्ञानमय [भावः] भाव है [तेन] इस कारण [कर्मारिण] प्रज्ञानी कर्मोको [करोति] करता है [तु] और [ज्ञानिनः] ज्ञानोके [ज्ञानमयः] ज्ञानमय भाव होता है [तस्मात्त ] इसलिये वह ज्ञानी [कर्माणि] कोको [न] नहीं [करोति] करता। टीकार्थ-प्रज्ञानीके अच्छी प्रकार स्वपरका भेदज्ञान न होनेसे विविक्त आत्माको ख्याति अत्यंत अस्त हो जानेके कारण अज्ञानमय हो भाव होता है । उस अज्ञानमय भावके होनेपर प्रात्माके और परके एकात्वका अध्यास होनेसे ज्ञानमात्र अपने आत्मस्वरूपसे भ्रष्ट हुआ परद्रव्यस्वरूप राग द्वेषके साथ एक होकर अहंकारमें प्रवृत्त हुआ अज्ञानी ऐसा मानता है कि 'मैं रागी हूं, द्वेषी हूँ' इस प्रकार बह रागी द्वेषी होता है । उस रामादि स्वरूप प्रज्ञानमय भाव से अज्ञानी हुा परद्रव्यस्वरूप जो राग-द्वेष उन रूप अपनेको करता हुमा कर्मोको करता है । और ज्ञानीके अच्छी तरह अपना परका भेदशान हो गया है इसलिये जिसके भिन्न प्रात्मा को प्रकटता—'ख्याति' प्रत्यंत उदित हो गई है, उस भावके कारण ज्ञानमय ही भाव होता है। उस भावके होनेपर अपने व परको भिन्नपनेका शान भेदज्ञान होनेसे ज्ञानमात्र अपने Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार २४० fr ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह अण्णाम भावो णाणियो कुरादि तेा कम्माणि । गाम गाणिस्स दुण कुदि ता दु कम्माणि ॥ १२७ ॥ भाव अज्ञानमय है, अज्ञानीको सुकर्मका कर्ता । ज्ञानमय भाव बुधका, सो नहिं वह कर्मका कर्ता ॥ १२७॥ अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि । ज्ञानमयो ज्ञानितस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि ॥ १३७॥ अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यंत प्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्माद ! ज्ञानमय एव भावः स्यात् तस्मिंस्तु सतिं स्वपरयोरेकत्वाभ्यासेन ज्ञानमात्रात्स्वस्मात्प्रभ्रष्टः परारागद्वेषाभ्यां सममेकीभूय प्रथलिताहंकारः स्वयं किलैषोहं रज्ये रुष्यामीति रज्यते रुष्यति च तस्मादज्ञानमयभावादज्ञानी परी रागद्वेषावात्मानं कुर्वन् करोति कर्माणि । ज्ञानिनस्तु नाम- अण्णा पाणमअ, पाणि, दु, ण, त, दु, कम्म बातुसंज्ञ- कुण करणे । प्रकृतिशब्द – अज्ञानमय, भाव, अज्ञानिन, तत् कर्मन् ज्ञानमय, ज्ञानिन् तु न तत् श्रात्मस्वरूप में ठहरा हुआ वह ज्ञानी परद्रव्यस्त्ररूप राग-द्वेषोंसे पृथग्भूत हो जानेके कारण अपने रससे हो पर में अहंकार निवृत्त हो गया है, ऐसा हुआ निश्चयसे केवल जानता ही है, राग-द्वेषरूप नहीं होता। इसलिये ज्ञानमय भावसे शानो हुआ परद्रव्यस्वरूप जो राग-द्वेष उन रूप श्रात्मा को नहीं करता हुआ कमको नहीं करता है। भावार्थ - इस आत्माके क्रोधादिक मोहकी प्रकृतिका उदय भानेपर उसका अपने उपयोग में रागद्वेषरूप मलिन स्वाद श्राता है, सो मोही जीव भेदज्ञानके बिना अज्ञानी हुआ ऐसा मानता है कि यह रागद्वेषमय मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है, यही मैं हूं, इस प्रकार अज्ञानरूप श्रहंकारसे आच्छन हुआ प्राणी कर्मोंको बांधता है । इस प्रकार अज्ञानमय भावसे कर्मबंध होता है और जब ऐसा है कि ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग तो मेरा स्वरूप है, 'वह मैं हूं' तथा रागद्वेष हैं वे कर्मके रस हैं, मेरे स्वरूप नहीं हैं, ऐसा भेदज्ञान होनेपर ज्ञानी होता है, अपनेको रागद्वेष भावरूप नहीं करता, केवल ज्ञाता ही रहता है, तब कर्मको नहीं करता । तब प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि ज्ञानीके ज्ञानमय भाव होता है धौर प्रशानोके भज्ञानमय भाव होता है । अब इस गाथामें उससे संबंधित इस जिज्ञासाका समाधान किया गया है कि अज्ञानमयभावसे क्या होता है और ज्ञानमयभावसे क्या होता है ? तथ्यप्रकाश - १ - प्रज्ञानीके सम्यक् स्वपरविवेक नहीं होता है । २- स्वपर विवेक न होनेसे एकत्वविभक्त ग्रात्माकी दृष्टि नहीं बनती । ३- एकत्वविभक्त भ्रात्माको दृष्टि न होनेसे Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहुं कर्माधिकार सम्यकस्वपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्याधस्माद् ज्ञानमय एव भावः स्यात् तस्मिस्तु सति स्वपरयो नात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे स्वस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव न रज्यते न च रुष्यति तस्माद् ज्ञानमयभावाद् ज्ञानी परी रागद्वेषापात्मानमकुर्वन्न करोति कर्मारिण। ज्ञानमय एव भाव: कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरत्यः । अज्ञानमयः सर्वः कुतोयमशानिनो नान्यः ॥६६॥ ॥ १२७ ॥ तु, कर्मन् । मूलपातु-ज्ञा अवबोधने, डुकृा करणे। पदविवरण–अज्ञानमयः, भाव:-प्रथमा एकवचन । अशानिनः-षष्ठी एक० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। तेन-तृतीया एक० । कर्माणिद्वितीया बहु० । ज्ञानमय:-प्र० ए०। ज्ञानिन:-षष्ठी एकवचन । तु, न-अव्यय । करोति-वर्तमान अन्य एकवचन । तस्मात्-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । तु-अव्यय । कर्माणि-द्वितीया बहुवचन ।।१२७॥ मशानमय भाव होता है । ४-- अशा गमाव होनेपर पत्यानरपसका प्रध्यास होता है । ५-स्वपरमें एकत्वका प्रध्यास होनेसे ज्ञानमात्र स्वसे भ्रष्ट रहता है । ६-शानमात्र स्वसे भ्रष्ट रहनेसे परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषके साथ एकरूप अनुभव होता है । ७- रागद्वेष प्रकृति में एकरूप अनुभव होनेसे अहंकार विकल्प बनता है। ८- अहंकार विकल्प बननेसे अज्ञानी अपने प्रात्मा को परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषमय करता हुमा कौको करता है। - ज्ञानोके सम्यक् स्व-पर विवेक होता है । १०- स्व-परविवेक होनेसे एकत्वविभक्त प्रात्माकी दृष्टि रहती है। ११-- एकत्वविभक्त प्रात्माकी दृष्टि रहनेसे ज्ञानमय भाव होता है । १२- ज्ञानमय भाव होनेपर स्वपरकी भिन्नताका बोध संस्कृत रहता है । १३- स्वपरको भिन्नताका बोध संस्कृत रहनेसे ज्ञानमात्र स्वमें ठहरना होता है। १४- ज्ञानमात्र स्वमें ठहरना होनेसे परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषसे पृथक् रहनेसे स्वरसतः ही उनमें अहंकार नहीं होता है, अहंकार निवृत्त हो जाता है । १६परद्रव्यस्वरूप राग द्वेषमें अहंकार नष्ट हो जानेसे ज्ञानी मात्र जानता ही है वह रागद्वेषरूप अपनेको नहीं कर सकता । १७- रागद्वेषरूप न होनेसे ज्ञानी कोको नहीं करता है। सिदान्त-१- भज्ञानीके प्रज्ञानमय भाव होता है। २- प्रशानमयभावका निमित्त पाकर पुद्गलकारिणद्रव्यमें कर्मत्वका प्रास्रव होता है। ३- ज्ञानीके ज्ञानमयभाव होता है । ४-मानमयभावका निमित्त पाकर कार्माणद्रम्पमें संवरत्व होता है। दृष्टि-१-अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । ३-शुद्धनिश्चयनय (१६), प्रपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६ब)। ४- शुढभावनापेक्ष शुदध्यापिक नय (२४ब)। प्रयोग--ज्ञानमय भाव होनेपर बन्धन नहीं होता तथा भव-भयके संचित कर्म भी प्रमना कर्मस्त्र तज देते हैं यह जानकर अविकार ज्ञानस्वरूपकी उपासनारूप ज्ञानमय भावना Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ समयसार णाणमया भावानो णायामश्रो चेन जायदे भालो। जम्हा तम्हा णाणिस्स सब्बे भावा हु णाणमया ॥१२८॥ अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायए भावो। जम्हा तम्हा भावा अण्णाणमया अणाणिस्स ॥१२६॥ ज्ञानमय भावसे तो, ज्ञान परिणाम हो जनित होता। इस कारण ज्ञानीके, सारे परिणाम ज्ञानमय ही हैं ॥१२॥ भाव अज्ञानमयसे, होता अज्ञानभाव इस कारण । अज्ञानी आत्माके, भावहि अज्ञानमय होते ॥१२६॥ ज्ञानमयाद्भावाद् ज्ञानमयश्चैव जायते भावः । यस्मात्तस्माज्ज्ञानिनः सर्वे भावाः खलु ज्ञानमया: ॥१२८।। अज्ञानमयाद्भावादज्ञानश्चैव जायते भावः । यस्मात्तस्माद्भावादज्ञानमया अज्ञानिनः ॥१२॥ यतो ज्ञानमयाभावाद्यः कश्चनापि भावो भवति स सर्वोप्यज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो. ऽज्ञानमय एव स्यात् ततः सर्व एवाज्ञानमया प्रज्ञानिनो भावाः । यतश्च ज्ञानमयाद्भावाद्यः नामसंज्ञ-णाणमझ, भाव, णाणमत्र, च, एव, भाव, ज, त, णाणि, सब्ब, भाव, दु, णाणमम, अण्णाणमअ.भाव, अध्णाणि, च, एव, भाव, ज, त, भाव, अण्णाणम, अणाणि ।। पातसंश-जा प्रादुर्भावे । प्रकृतिशब्द-ज्ञानमय, भाव, ज्ञानमय, च, एव, भाव, यत्, तत्, शानिन्, सर्व, भाव, खलु, शानमय अज्ञानमय, भाव, अज्ञान, च, एव, भाव, यत्, तत्, भाव, अज्ञानमय, अशानिन् । मूलधातु-जनी प्रादुर्भाव दिवादि, ज्ञा अवबोधने। पदविधरण-ज्ञानमयात्, भावात्-पंचमी एकवचन । ज्ञानमयः-प्रथमा एकवचनः । ही करना चाहिये ।।१२७।। अब अगली गाथाके अर्थको सूचनाका काव्य कहते हैं-ज्ञानमय इत्यादि । पर्थज्ञानीके तो ज्ञानमय ही भाव होते हैं अन्य नहीं होता यह क्यों ? पोर अज्ञानीके अज्ञानमय ही सब पाव होते हैं अन्य नहीं यह कैसे ? इसी प्रश्नको उत्तररूप गाथा कहते हैं-[यस्मात्] जिस कारण [ज्ञानमयात भायात् च] ज्ञानमय भावसे [ज्ञानमय एव] ज्ञानमय ही [भावः] भाव [जायते] उत्पन्न होता है । [तस्मात् ] इस कारण [जानिनः] ज्ञानीके [खल] निश्चय से [सर्वे मावाः] सब भाव [ज्ञानमयाः] ज्ञानमय हैं । और [यस्मात्] जिस कारण [महानमयात् भावात् च] अज्ञानमय भावसे [अज्ञान एव] अज्ञानमय ही [भायः] भाव [जायते) उत्पन्न होता है [तस्मात्] इस कारण [प्रज्ञानिनः] अज्ञानीके [अज्ञानमयाः] अज्ञानमय ही [मावाः] भाव उत्पन्न होते हैं। तात्पर्य-ज्ञानीके ज्ञानमय भाव होते हैं और प्रशानीके प्रज्ञानमय भाव होते हैं। टीकार्थ-जिस कारण निश्चयसे अज्ञानमय भावसे जो कुछ भाव होता है, वह सभी Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कत कर्माधिकार २४३ कश्चनापि भावो भवति स सर्वोपि ज्ञानमयत्वमनतिवर्तमानो ज्ञानमय एव स्यात् ततः सर्वे एव शानमया शानिनो भावाः । ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ताः सर्वे भावा भवंति हि । सर्वोप्यज्ञाननिर्वृत्ता भवत्यज्ञानिनस्तु ते ॥६७।। ।। १२८-१२६ ॥ च, एव-अव्यय । जायते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भाव:-प्र० ए०। यस्मात्, तस्मात्पंचमी एक० । शानिनः-षष्ठी ए० । सर्वे-प्र० बहु । भावा:-प्र० बहु० । खलु-अव्यय । ज्ञानमया:-प्रथमा बहु० । अज्ञानमयात्, भावात्-पंचमी एक० । अज्ञान:-प्रथमा ए० । जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । भाव:-प्र० एक० । यस्मात्, तस्मात्-पंचमी एकवचन। भावाः, अज्ञानमया:-प्रथमा बहु० । अज्ञानिनःषष्ठी एकवचन ।। १२८-१२६ ।। अज्ञानमयपनेको उल्लंघन नहीं करता हुआ अज्ञानमय ही होता है; इसलिए अज्ञानीके सभी भाब प्रज्ञानमय हैं । और जिस कारण ज्ञानमयभावसे जो कुछ भाव होता है, वह सभी ज्ञानमयपनेको नहीं उल्लंघन करता हुआ ज्ञानमय ही होता है, इसलिये ज्ञानीके सभी भाव ज्ञानमय हैं । अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-ज्ञानिनो इत्यादि । अर्थ-ज्ञानीके सभी भाव ज्ञानसे रचे हुए होते हैं और प्रज्ञानीके सभी भाव प्रज्ञानसे रचे हुए होते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि अज्ञानीके अज्ञानमय भाव होता है और इससे वह कर्मको करता है तथा ज्ञानीके ज्ञानमय भाव होता है और इससे यह कर्म को नहीं करता। अब इस गाथामें बताया है कि ज्ञानीके ज्ञानमय हो भाव क्यों होता है और मज्ञानीके प्रज्ञानमय हो भाव क्यों होता है ? तथ्यप्रकाश---१- प्रशानमय भावसे बो कुछ भी भाव होता है वह सब प्रज्ञानमयता का उल्लंघन न करनेसे प्रज्ञानमय ही भाव होता है । २- ज्ञानमयभाधसे जो कुछ भी भाव होता है वह सब ज्ञानमयताका उल्लंघन न करनेसे ज्ञानमय ही होता है। सिद्धान्त-१- अज्ञानमय परभावको प्रात्मा मानने वाले विकल्पसे प्रज्ञानमय भाष ही प्रकट होता है । २- ज्ञानघन अन्तस्तत्त्वको दृष्टि वालेके ज्ञानसंस्कृत ही भाव होता। दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- शुद्धनिश्चयनय, अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६, ४६ब)। प्रयोग-मूलमें अविकार ज्ञानस्वभावका पालम्बन होनेसे ज्ञानमय भाव प्रकट होता है सो अपना उपयोग अविकार ज्ञानस्वभावको दृष्टि में रखनेका पौरुष करना ॥ १२८-१२६ ॥ अब इस उक्त गाथार्थको ही दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं-- [यथा] जैसे [कनकमयात भावात्] सुवर्णमय भावसे [कुडलादयः भावाः] सुवर्णमय कुंडलादिक भाव जायते] उत्पन्न होते हैं [तु] और [अपोमयात् भावात्] लोहमय भावसे [कटकावयः] लोहमयी कड़े इत्या Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ समयसार अचैतदेव दृष्टांतेन समर्थयते - कणयमया भावादो जायते कुंडलादयो भावा । अयमयया भावादो जह जायते तु कडयादी ॥१३०॥ अण्णाणमया भावा अणाणिणो बहुबिहा वि जायते । गाणिस्स दुणाणमया सवे भावा तहा होति ॥१३१॥ (युग्मम्) स्वर्णमयी पासासे होते उत्पन्न कुण्डलादि विविध । सोहमायो स्वसे, होते उत्पन्न लोहमयी ॥१३०॥ अज्ञानी आत्माके, होते अज्ञानभाव नानाविध । शानी आत्माके तो, मानमयी माव ही होते ॥१३॥ कनकमयाद्भावाजायते कुंडलादयो भावाः। अयोमयकाद्भावाराथा जायते तु कटकादयः ॥ १३० ।। अज्ञानमयाद्भावादशानिनो बहुविधा अपि जायते । ज्ञानिनस्तु शानमया सर्व भावास्तथा भवंति ।। १३१ ॥ यया खलु पुद्गलस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सूख्यपि कारणानुविधायित्वारकार्याणां जांबूनदमयाद्धावाज्जांबूनदजातिमनतिवर्तमानाजांबूनदकुंडलाय एव भावा भवेयुर्मः पुनः भागावस्वलयामा माहामाडाबान लालायसजातिमनतिवसंमानाः कालायसवलयादयः नामसंक-कणयमअ, माव, कुंडलादि, भाष, अयमयय, भाव, जह, तु, कडयादि, अण्णाणमय, भाव, अणाणि, बहुविह, वि, णाणि, पाणमअ, सव्व, भाव, सह । पातुसंजा प्रादुभधि, हो मत्ताया। प्रतिशबकणयमय, भाव, कुण्डलादि, भाव, अयोमयक, भाव, यथा, तु, कटकादि, अज्ञानमय, भाव, दिक भाव उत्पन्न होते हैं [सया] उसी प्रकार [अनानिमः] प्रशानीके [महानमयात् भागात्] पज्ञानमय भावसे [बहुविधा प्रषि अनेक तरहके [प्रज्ञानमया: भावाः] अज्ञानमय भाव [आयते] उत्पन्न होते हैं [] परन्तु [मानिनः] शानोके [स] सभी [शानमयाः भावाः] ज्ञानमय भाव [भमंति] होते है। तात्पर्य-प्रजानीके शुभाशुभ भावोंमें पारमबुद्धि होरेसे प्रज्ञानमयभाव होते, ज्ञानोके सहजशानस्वरूप में मातमबुद्धि होनेसे ज्ञानमयभाव होते। ____टोकार्य-जैसे कि पुद्गलद्रव्य स्वयं परिणामस्वभावी होनेपर भी जैसा कारण हो, उस स्वरूप कार्य होते हैं, प्रतः सुवर्णमय भावसे सुवर्णजातिका उल्लंघन न करने वाले होनेसे सुवर्णमय ही कुंडल मादिक भाव होते हैं, सुवर्णसे लोहमयी कड़ा प्रादिक भाव नहीं होते। पौर लोहमय भावसे लोहकी जातिको उल्लंघन.न करने वाले लोहमय कड़े प्रादिक भाव होते हैं, लोहसे सुवर्णमय कुण्डल धादिक भाव नहीं होते, उसी प्रकार जीवके स्वयं परिणामस्व Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार २४५ एव भवेयुनं पुनर्जाम्बूनदकुंडलादयः । तथा जीवस्य स्वयं परिणामस्वभावत्वे सत्यपि कारणानु'विधायित्वादेव कार्याणां अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भाबादज्ञानजातिमनतिवर्तमाना विविधा प्रप्यअज्ञानिन्, बहुविध, अपि, ज्ञानिन्, तु, ज्ञानमय, सर्व, भाव, तथा । मूलधातु-कुडि रक्षणे चुरादि, कटी गतौ (स्वार्थकः) जनी प्रादुर्भावे दिवादि, ज्ञा अवबोधने । पद विवरण-कनकमयात्, भावात्-पंचमी एकः । जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । कुण्डलादयः, भावा:-प्रथमा बहु० । अयोमयकात्-पंचमी एक० ! भावात्-पं० एक० । यथा-अव्यय । जायंते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । कटकादय:भावरूप होनेपर भी 'जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। इस न्यायसे अज्ञानीके स्वयमेव प्रज्ञानमय भावसे प्रज्ञानको जातिको नहीं उल्लंघन करने वाले अनेक प्रकारके अज्ञानमय ही भाव होते हैं, ज्ञानमय भाव नहीं होते, और ज्ञानीके ज्ञानकी जातिको नहीं उल्लंघन करने वाले सब ज्ञानमय ही भाव होते हैं, अज्ञानमय नहीं होते। भावार्थ-जैसा कारण हो, वैसा ही कार्य होता है, इस न्यायसे जैसे लोहसे लोहमय वस्तुयें होती हैं, और सुवर्णसे सुवर्णमय आभूषण होते हैं उसी प्रकार अज्ञानीके अज्ञानसे प्रज्ञानमय भाव होते हैं और ज्ञानीके ज्ञानसे ज्ञानमय ही भाव होते हैं । अज्ञानमयभाव तो क्रोधादिफ हैं और ज्ञानमयभाव क्षमा आदिक हैं । यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टिके चारित्रमोहके उदयसे क्रोधादिक भी प्रवर्तते हैं तथापि उस ज्ञानी की उनमें प्रात्मबुद्धि नहीं है, वह इन्हें परके निमित्तसे हुई उपाधि मानता है, सो उसके वे क्रोधादि कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं, जानी भागामी ऐसा बंध नहीं करता कि जिससे संसारका भ्रमण बढ़े । और प्राप उद्यमी होकर उनरूप परिणमन भी नहीं करता है; उदयको जबरदस्तीसे परिणमता है, इसलिए वहाँ भी ज्ञानमें ही अपना स्वामित्व माननेसे उन क्रोधादिभावोंका भी अन्य ज्ञेयके समान ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुगलमें कहा गया था ज्ञानमय भावसे ज्ञानमय हो भाव होते और प्रज्ञानमय भावसे अज्ञानमय ही भाव होते हैं ! अब इस गाया युगलमें इसी तथ्यको दृष्टांत द्वारा समर्थित किया गया है । __तथ्यप्रकाश-१-जीव स्वयं परिणामस्वभाव है सो जीवको परिणमता तो रहना है ही । २-कार्य उपादान कारणका अनुविधान किया करते हैं याने जैसा कारण होता है वैसा कार्य होता है । ३- अज्ञानीके स्वयं अज्ञानमय भाव हैं सो अज्ञानमय कारणसे अज्ञानमय ही भाव होगा । ४-ज्ञानीक स्वयं ज्ञानमय भाव हैं सो ज्ञानमय कारणसे ज्ञानमय ही भाव होगा । सिद्धान्त-१- जिस काल सहजज्ञानस्वभावकी दृष्टि, प्रतीति, रुचि है उस काल यह मात्मा ज्ञानमय भाव वाला है। २- जिस काल रागादि प्रकृति विपाक प्रतिफलन में प्रात्मस्वकी Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ समयसार ज्ञानमया एवं भावा भवेयुर्न पुनर्ज्ञानमयाः ज्ञानिनश्व स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुर्न पुनरज्ञानमयाः ।। १३०-१३१।। श्रावयामशाली व्याप्य भूमिकां । द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानामेति हेतुतां ॥६८॥ प्र० बहु० । अज्ञानमयात् भावात् पंचमी एक० अव्यय । ज्ञानिनः षष्ठी एक० । ज्ञानमयाः सर्वे पुरुष एकवचन क्रिया ।। १३०-१३१ ।। अज्ञानिनः षष्ठी एक० । बहुविधा: - प्र० बहु० । अपिभावाः प्रथमा बहुवचन । भवन्ति वर्तमान लट् अन्य दृष्टि, प्रतीति व रुवि है उस काल यह आत्मा अज्ञानमयभाव वाला है । दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४६), अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अशुद्ध निश्चय नय (४७) । え प्रयोग — अविकार सहज शुद्ध प्रात्मत्वकी उपलब्धि बिना ही संसार संकट है, अतः अविकार सहजशुद्ध अंतस्तत्त्व में ग्रात्मत्वका अनुभव करनेका पौरुष करना ।। १३०-१३१ ।। अब अगली गाथाकी सूचनाके अर्थ श्लोक कहते हैं--अज्ञान इत्यादि । श्रज्ञानी अज्ञानमय भावको भूमिकाको व्याप्त कर आगामी द्रव्यकर्मके निमित्तभूत भावोंकी हेतुताको प्राप्त होता है । इसी अर्थको पाँच गाथाओं द्वारा कहते हैं- [जीवानां] जीवोंके [या] जो [ श्रतस्योपलब्धिः ] श्रन्यथास्वरूपका जानना है [स: ] वह [ प्रज्ञानस्य ] अज्ञानका [ उदयः ] उदय है [] और [ जीवस्य ] जीवके [ अश्रद्धानत्वं ] जो तत्वका अश्रद्धान है वह [ मिथ्यास्थस्य ] मिथ्यात्वका [ उदयः ] उदय है [तु] और [जीवानां ] जीवोंके [ यत् ] जो [ प्रवि i] त्यागभाव [मवेत् ] है [असंयमस्य ] वह असंयमका [ उदयः ] उदय है [तु] मोर [जीवानां] जीवोंके [थः] जो [कसुषोपयोगः ] मलिन याने जानपनेकी स्वच्छता से रहित उपयोग है [ सः ] वह [ कषायोदयः] कषायका उदय है [तु यः ] और जो [जीवानां] जीवों के [ शोभनः] शुभरूप [ या ] श्रथवा [ अशोभनः ] अशुभरूप [ कर्तव्यः ] प्रवृत्तिरूप [ था ] प्रया [विरतिभावः ] निवृत्तिरूप [चेोत्साहः ] मन वचन कायकी चेष्टाका उत्साह है [सं] उसे [ योगोदय ] योगका उदय [जानीहि ] जानो । [ एतेषु ] इनके [ हेतुभूतेषु ] हेतुभूत होनेपर [ यत्त] जो [कर्मवर्गणागतं ] कार्मरणवग्रहागत पुद्गलद्रव्य [ ज्ञानावरणादिभावः प्रष्टविधं ] ज्ञानावरण प्रादि भावोंसे प्राठ प्रकार [परिणमते ] परिणमन करता है [ तत्] वह [कार्मरणवर्गणागतं ] कार्मणवर्गेणागत पुद्गलद्रव्य [ यवा ] जब [ खलु] वास्तव में [जीवनिबद्ध' ] जीव में निबद्ध होता है [ तदा तु] उस समय [ परिणामभावानां] उन श्रज्ञानादिक - परिणाम भावोंका [ हेतुः ] कारण [जीवः ] जी [भवति ] होता है । तात्पर्य - प्रकृति विपाक, कर्मासव व कर्मबन्ध, तथा जीवविभाव प्रपने अपने उपादान Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार अण्णाणस्स स उदय जं जीवाणं तच्चय्वलद्वी । मिच्छत्तस्स दु उदो जीवस्स असहाणत्तं ॥ १३२ ॥ उदय संजमस्सदु जं जीवाणं हवेह अविरमणं । जो दु कलुसोवोगो जीवाणं सो कसाउद ॥ १३३॥ तं जाण जोगउदयं जो जीवाणं तु चिउच्छा हो । सोहण सोहगां वा काव्वो विरदिभावो वा ॥ १३४॥ एदेसु हेदुभूदेसु कम्मइयवग्गणागयं जं तु । परिणाम अहिं गाया। वरणादिभावेहिं ॥ १३५ ॥ तं खलु जीवद्धि कम्मयवग्गणमयं जया । तहया दु होदि हेदू जीवो परिणामभावाणं ॥ १३६ ॥ श्रज्ञानका उदय वह, जो जीवोंको न तत्त्व उपलब्धी । मिथ्यात्वका उदय जो, जीवोंके प्रश्रद्धानपना ॥ १३२ ॥ उदय असंयमका यह, जो जीवोंको न पापसे विरती । उदय कषायोंका यह, कलुषित उपयोगका होना ॥१३३॥ २४७ नामसंज्ञ – अण्णाण, त, उदय, ज, जीव, अतच्चउवलद्धि, मिच्छत्त, दु, उदअ, जीव, असहाणत, उदय, असंजम, दु, ज, जीव, अविरमण, ज, दु, कलुसोवओग, जीव, त, कसाउद, त, जोगउदअ, ज, जीव, तु, चिट्टउच्छाह, सोहण, असोहण, व. कायन्य, विरदिभाव, वा, एत, हेदुनद, कम्मइयबम्गण्णगअ ज, तु, अट्ठविह, गाणावरणादिभाव, त, खलु जीवणिबद्ध, कम्मइयवस्गणागअ, जझ्या, तुझ्या, दु, हेदु, जीव, परिणामभाव । धातुसंज्ञ-उद्-अय गतौ, सद् दह धारणे, उब-उज्ज योगे कस तनूकरणे, उत् साह साधने, परि-नम नम्रीभावे, हो सत्तायां । प्रकृतिशम्य अज्ञान, तत्, उदय, यत्, जीव, अतत्त्वोपलब्धि, मिथ्यात्व, तु, उदय, जीव, अश्रद्दधानत्व, उदय, असंयम, तु, यत्, जीव, अविरमण, यत्, तु, कलुषोपयोरा, में होते हैं, उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावमात्र बना है । टोकार्थ - प्रयथार्थं वस्तुस्वरूपकी उपलब्धिसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ अज्ञानका उदय है । और नवीन कर्मो के हेतुभूत मिथ्यात्व असंयम, कषाय, योगोदय ये अज्ञानमय चार भाव हैं । उनमें से जो तत्त्वके प्रश्रद्धानरूपसे ज्ञानमें प्रास्वादका श्रना वह तो मिथ्यात्वकां उदय है; जो अत्याग भावसे ज्ञान में प्रास्वादरूप प्राये वह असंयमका उदय है; जो मलिन उपयोगपनेसे ज्ञानमें प्रास्वादरूप प्राये, वह कषायका उदय है, और जो शुभाशुभप्रवृत्तिनिवृत्तिरूप Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ समयसार योग उदय यह जानो, जो चेष्टोत्साह होय जीवोंके । शुभ हो तथा अशुभ हो, हेय उपादेय अथवा हो ॥१३४॥ इनके निमित्त होने पर पुद्गल कर्मवर्गरणागत जो । परिषमता पाठ तरह, ज्ञानावरणादि भावोंसे ॥१३५।। कारिणवणागल, वह कर्म जीवनिबद्ध होता जब । तब हो कारण होता, जीव विपरिणामभावोंका ॥१३६॥ अशानस्य स उदयो या जीवानामतत्वोपलब्धिः । मिथ्यात्वस्य तूदयो जीवस्याश्रद्दधानत्वं ।।१३२॥ उदयोऽसंयमस्य तु यज्जीवानां भवेदविरमणं । यस्तु कलुषोपयोगो जीवानां सः कषायोदयः ॥१३३!! तं जानीहि योगोदयं यो जीवानां तु चेष्टोत्साहः । शोभनोऽशोभनो वा कर्तव्यो विरतिभावो वा ।।१३४।। एतेषु हेतुभूतेषु कार्मणवर्गणागतं यत्तु । परिणमतेष्टविध ज्ञानावरणादिभावः ॥१३॥ तत्खलु जीवनिबद्ध कार्मणवर्गणागतं यदा । तदा तु भवति हेतु वः परिणमभावानां ।।१३६॥ . प्रतत्वोपलब्धिरूपेण जाले म्बदमानो प्रज्ञानोदयः । मिथ्यात्वासंयमकषाययोगोदया: कर्महेतवस्तन्मयाश्चत्वारों भावाः । तत्वाश्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिथ्यात्वोदयः अविरमणजीव, तत्, कषायोदय, तत्, योगोदय, यत्, जीव, तु, चेष्टोत्साह, शोभन, अशोभन, बा, कर्तव्य, विरतिभाव, वा, एतत्, हेतुभूत, कार्मणवर्गणागत, यत्, तु, अष्टविध, ज्ञानावरणादिभाव, तत्, स्खलु, जीवनिबद्ध, कार्मणवर्गणागत, यदा, तदा, तु, हेतु, जीव, परिणामभाव । मूलधातु-शा अवबोधने, डुलभष् प्राप्ती भ्वादि, अ-सम-यम संयमने, अ-वि-रमु रमणे, नि-बध बन्धने, चेण्ट चेष्टायां स्वादि, षह मर्षणे चुरादि, पह धक्यर्थे चक्यर्थस्तृप्तिः दिवादि, शुभ शोभार्थे तुदादि । पदविवरण–अज्ञानस्य-षष्ठी एक० । सः, उदयःप्रथमा एकवचन । या-प्रथमा एक स्त्रीलिङ्ग । जीवाना-षष्ठी बहु० । अतत्वोपलब्धिः -प्रथमा एकवचन । मिथ्यात्वस्य-षष्ठी एक० । तु-अन्यय । उदय:-प्रथमा एकवचन । जीवस्य-षष्ठी एक० । अश्रद्दधानत्वं, उदयः-प्रथमा एक० । असंयमस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । यत्-प्रथमा एक० । जीयाना-षष्ठी बहुवचन । व्यापाररूपसे ज्ञान में स्वादरूप होता है, यह योगका उदय है । इन पोद्गलिक मिथ्यात्वादिके उदयस्वरूप चारों भावोंके हेतुभूत होनेपर कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि भावोंसे पष्ट प्रकार जो स्वयमेव परिणमता है। वह कर्मवर्गणागत ज्ञानावरणादिक कर्म जब जीवमें निबद्ध होता है, तब जीव स्वयमेव अपने अज्ञानभावसे पर और प्रात्माके एकत्वका निश्चय कर प्रज्ञानमय अतस्वश्रद्धानादिक अपने परिणामस्वरूप भावोंका कारण होता है। भावा--- यहाँ प्रज्ञानभावके भेदरूप जो मिथ्यात्व, अविरत, कषाय, योगरूप परिणाम कहे गये हैं, वे पुदगलके परिणाम हैं और उनका स्वाद अश्रद्धानादिकरूपसे ज्ञानमें माता है ये विभाव ज्ञानावरणादि प्रागामी कर्मबंधके कारण है अर्थात् जीव उन मिथ्यात्वादि भावोंके उदय होनेका निमित पाकर अपने प्रज्ञानभावसे अतत्त्वश्रद्धानादि भावोंके रूपमें परिणमन करता है, सो उव अपने प्रज्ञानरूप भावोंका उपादान कारण यह जीव होता है, निमित्तकारण कर्मविपाक होता है। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २४६ रूपेण ज्ञाने स्वदमानोऽसंयमोदयः कलुषोपयोगरूपेण ज्ञाने स्वदमानः कषायोदयः शुभाशुभ प्रवृसिनिवृत्तिव्यापाररूपेण ज्ञाने स्वदमानो योगोदयः । अथैतेषु पौद्गलिकेषु मिथ्यात्वाद्युदयेषु हेतुभूतेषु यत्पुद्गलद्रव्यं कर्मवर्गणागतं ज्ञानावरणादिभावरष्टधा स्वयमेद परिणमते तत्खलु कर्मवर्गणागतं जीवनिबद्धं यदा स्यात्तदा जीवः स्वयमेवाज्ञानावरात्मनोरेकट्वाध्यासेनाज्ञानमयानां तत्त्वाश्रद्धानादीनां स्वस्य परिणामभावानां हेतुर्भवति ॥ १३२-१३६ ॥ भवेत्-विधि लिङ अन्य परुष एक क्रिया । अविरमणं, यः-प्रथमा एक०। त-अव्यय । कलुषोपयोग:प्र० ए० । जीवानां-षष्ठी बह० । सः, कषायोदयः-प्र० ए०। सं-द्वितीया एकवचन । जानीहि-आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष एक० 1 योगोदर्य-द्वितीया एकवचन कर्मकारक । य:-प्रथमा एकवचन । जीवाना-षष्ठी बहु । तु-अव्यय । चेष्टोत्साहः-प्रथमा एक० । शोभन:, अशोभन:--प्र० ए० । वा-अव्यय । कर्तव्यः-कृदंत प्रथमा एक० क्रिया । विरतिभाव:-प्रथमा एक० । वा--अव्यय । एतेषु-सप्तमी बहु० । हेतुभूतेषु-सप्तमी बहु० । कार्मणवर्गणागतं, यत्-प्रथमा एक० । तु-अव्यय । परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । अष्टविध-क्रियाविशेषणं यथा स्यात्तथा । ज्ञानावरणादिभाव:-तृतीया बहुः । तत्-प्र० ए० । स्खलुअव्यय । जीवनिबद्धं, कार्मणवर्गणमा ए माण | अति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । हेतुः, जीव:-प्र० ए० । परिणामभावाना-षष्ठी बहुवचन ॥ १३२-१३६ ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुगल में बताया गया था कि प्रशानमयभावसे प्रज्ञानभयभाव होते हैं । अब इसी तथ्यका विशेषतासे वर्णन इस गाथापञ्चकमें किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-जीवोंको जो तस्वकी उपलब्धि नहीं हो रही है वह प्रज्ञानके उदय का प्रतिफल है । २- जीवोंको जो यथार्थ श्रद्धान नहीं हो रहा है वह मिथ्यात्वके उदयका प्रतिफल है । ३- जीवोंको जो पापोंसे विरति नहीं हो रही है वह प्रसयमके उदयका प्रतिफल है । ४- जीवोंको जो चेष्टामें उत्साह हो रहा है वह योगके उदयका प्रतिफल है। ५- इन द्रव्यप्रत्ययोंका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादि पाठ प्रकाररूप परिगम जाता है । ६- वह बद्ध कर्म जब जीवनिबद्ध याने उदयमें प्राकर प्रतिफलित होता है तब यह प्रशानी जीव प्रशानमय परिणामोंका हेतु होता है । ७- उदयागत द्रव्यप्रत्यय (कर्म) जीवविभावका तथा नवीन कर्मत्वका दोनोंका निमित्त है । - जीवविभाष द्रव्यप्रत्ययोंके निमितत्वका निमित्त है। सिद्धान्त-१- उदित ध्यप्रत्ययका निमित्त पाकर नवीन कार्मासवर्गणामों में कर्मत्व पाता है । २- जीवविभाव परिणामोंका निमित्त पाकर प्रध्यप्रत्यय नवीन कोके मासवका निमित्त हो जाता है। दृष्टि--१, २- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्धद्रव्याथिकानय (२४) । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० समयसार पुद्गलद्रव्यात्पृथग्भूत एव जीवस्य परिणामः-- जीवस्स दु कम्मेण य सह परिणामा हु होति रागादी। एवं जीवो कम्मं च दोवि रागादिमावण्णा ॥१३७॥ एकस्स दु परिणामो जायदि जीवस्स रागमादीहिं । ता कम्मोदयहेहि विणा जीवस्स परिणामो ॥१३८॥ जीवके राग आविक, विधिके परिणाम साथ हो तो। यो जीव कर्म दो के, रागादि प्रसक्त होवेंगे ॥१३७।। इन राग आदिसे पवि, होता परिणाम जीव एकहि का। तो उत्थागत विधिसे, जीवपरिणाम पृथक ही है ॥१३॥ जीवस्य तु कर्मणा च सह परिणामाः खलु भवंति रागादयः । एवं जीवः कर्म च द्वे अपि रागादित्वमापन्ने । एकस्प तु परिणामो जायते जीवस्य रागादिभिः । तत्कर्मोदयहेतुभिविना जीवस्य परिणामः । यदि जीवस्य तन्निमित्तभूतविपध्यमानपुद्गलकर्मणा सहैव रागाधशानपरिणामो भय नामसंश-जीव, दु, कम्म, य, सह, परिणाम, रागादि, एवं, जीव, कम्म, च, दो, वि, रागादि, मावष्ण, दु, परिणाम, जीव, रागमादि, त, कम्मोदयहेदु, विणा, जीव, परिणाम । धातुसंज्ञ-हो सत्तायां, जा प्रादुर्भावे । प्रकृतिशब-जीव, तु, कर्मन्, च, सह, परिणाम, रागादि, एवं, जीव, फर्मन्, च, द्वि, अपि, रागादित्व, आपन्न, एक, तु, परिणाम, जीव, रागादि, तत् कर्मोदयहेतु, विना, जीव, परिणाम । मूलधातुजीव प्राणधारणे, परि-णम प्रबत्वे, भू सत्तायां, रंज रागे भ्वादि दिवादि, जनी प्रादुर्भाव । पदविवरण प्रयोग-जीव अपनी स्वभावदृष्टि तजकर रागादिरूपसे परिणमता है तब द्रव्यप्रत्यय नवीनकर्मके पालवका निमित्त होता है । अतः अपने अविकार ज्ञानस्वभावमय प्रात्माको दृष्टि का पौरुष करना ताकि द्रध्यप्रत्यय नवीनकर्मास्रवका निमित्त न हो सके ।।१३२-१३६॥ प्रद जीवका परिणाम पुद्गलद्रव्यसे पृथक् ही है इसका युक्तिपूर्वक समर्थन करते हैंतु जीवस्य] यदि ऐसा माना जाय कि जीवके [रागावयः] रागादिक [परिणामाः] परिणाम [ख] वास्तवमें [कर्मणा घ सह कर्मके साथ होते हैं [एवं] इस प्रकार तो [जीवः च कर्म] जोष और कर्म [ अपि] ये दोनों ही [रागादिस्वं प्रापन्ने] रागादि परिणामको प्राप्त हो पड़ते हैं । [] परन्तु [रागादिभिः] रागादिकोंसे [परिणामः] परिणमन तो [एकस्य जोयस्य] एक जीवका ही [जायते] उत्पन्न होता है [तत्] वह [कर्मोक्ष्यहेतु विना] कर्मके उदयरूप निमित्त कारणसे पृथक् [जीवस्य परिणामः] जीवका ही परिणाम है। तात्पर्य---जीवका परिणमन जीवमें, पुद्गलकमका परिणमन पुद्गलकर्ममें है, कोई भी परिणमन दोनोंका एक नहीं है । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २५१ तीति वितकः तदा जीवपुद्गलकर्मणोः सहभूतसुधारिद्रयोरिव द्वयोरपि रागाद्यज्ञानपरिणामाजीवस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय 1 कर्मणा-तृतीया एक० । च-अव्यय । सह-अव्यय । परिणामाः-प्रथमा बहुवचन । खलु-अव्यय । भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । रागादयः-प्र० बहु । एवं-अव्यय । मीवः-प्रथमा एक० । कर्म-प्रथमा एक० । च-अध्यय । द्वे-प्रथमा द्विवचन । अपि-अव्यय । रागादित्वंद्वितीया एक० । आपन्ने-प्रथमा द्विवचन । एकस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । परिणामः-प्रथमा एक० । टोकार्थ-यदि जीवका रागादि प्रज्ञान परिणाम अपने निमित्तभूत उदयमें पाये हुए पुद्गलकर्मके साथ ही होता है, यह तर्क किया जाय तो हल्दी और फिटकरीको भौति याने जैसे रंगमें हल्दी और फिटकरी साथ डालनेसे उन दोनोंका एक रंगस्वरूप परिणाम होता है वैसे ही जीव और पुद्गलकर्म दोनोंके ही रागादि प्रशानपरिणामका प्रसंग पा जायगा {किन्तु ऐसा तथ्य नहीं है) । यदि रागादि प्रज्ञानपरिणाम एक जीवके ही माना जाय तो इस मन्तव्यसे ही यह सिद्ध हुना कि पुद्गलकर्मका उदय जो कि जीवके रागादि प्रज्ञान परिणामोंका कारण है, उससे पृथग्भूत ही जीवका परिणाम है । मावार्थ- यदि माना जाय कि जीव और कर्म मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं तो जीव और कर्म इन दोनोंके रागानिककी प्राप्तिमा जायगी, किन्तु ऐसा नहीं है। इसलिये पुद्गलकमका उदय जोयफे प्रज्ञानरूप रागादि परिणामोंको निमित्त है । उस निमित्तसे भिन्न ही जीवका परिणाम है। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथापंचकमें जीवपरिणाम व कर्मपरिणामके निमितनैमित्तिक भावका निर्देश किया है । सो इससे कहीं यह नहीं समझना कि उनमें कर्तृकर्मत्व हो या वे एकरूप हों । इसी तथ्यको इन दो गाथावोंमें दर्शाया गया है कि जीवके परिणाम पुद्गलद्रव्यसे पृथग्भूत ही हैं। तथ्यप्रकाश--(१) जीवका परिणाम जीवमें अकेले में जीके पोलेके परिणमनसे ही होता है । (२) यदि जीवके रागादि परिणाम तन्निमित्तभूत उदित फर्मके साथ हों तो जीव और पुद्गल दोनों में ही रागादि प्रज्ञानपरिणाम हो बैठनेका दोष पावेगा। (३) जब जीवमें अकेले के परिणामसे ही जीव विभाव होता है तब स्पष्ट सिद्ध है कि निमिसभूत पुद्गलकमविपाकसे भिन्न ही जीवविभाव है। सिद्धान्त-१- जीव उपचारसे द्रव्यकर्मका कर्ता है। २-- पशुसोपादान जीव भाष. कर्मका कर्ता है। दृष्टि-१- परकर्तृत्व अनुपचरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२१)। २- पशुद्धनिश्णय. नय (४७)। प्रयोग- अपने विभावपरिणामको कर्मपरिणामसे भिन्न समझकर और कर्मपरिणाम Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ समयसार पत्तिः । अथ चैकस्यैव जीवस्य भवति रागाद्यज्ञानपरिणामः ततः पुद्गलकर्मविपाकाद्धेतोः पृथभूतो जीवस्य परिणामः ।। १३७.१३५ ।। जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवस्य-षष्ठी एक०। रागादिभिः-तृतीया बहुः । तत्-अन्ययार्थे हेतो । कर्मोदयहेतुभिः-तृतीया बहु । विना-अव्यय । जीवस्य-षष्ठी एकवचन । परिणामः-प्रथमा एकवचन ।। १३७-१३८ ।। का निमित्त होनेपर भी अपनी स्वभावदृष्टिके अभावसे अपनी निर्बलताके कारण हुए जानकर अपनी स्वभावदृष्टिको प्रबल बनावें ताकि कर्मफल अव्यक्त होकर निकल जावें और संसारबन्धनसे बध जावें ॥ १३४-१३८ । अब कहते हैं कि पुद्गलद्रव्यका परिणाम जीवसे पृथक ही है:-[यदि] यदि जीवेन सह चैव जीवके साथ हो [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणामः] कर्मरूप परिणाम होता है, तो [एवं] इस प्रकार [पुगलजीवो द्वौ अपि] पुद्गल और जीव दोनों [खलु ही [कर्मत्वं प्रापन्नौ] कर्मत्वको प्राप्त हो जावेंगे [तु] परंतु [कर्मभावेन] कर्मरूपसे [परिणामः] परिणाम [एकस्य] एक [पुद्गलद्रव्यस्य] पुद्गलद्रव्यका होता है [तत्] इसलिये [जीवमावहे. तुभिः धिना] जीवभाव निमित्तकारणसे पृथक् [कर्मणः] कर्मका [परिणामः] परिणाम है। सात्पर्य-कर्मपरिणमन जीबसे पृथक ही है जैसे कि जीवपरिणाम पौद्गलिक कर्म से पृथक है। टीकार्थ-यदि पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणाम उसके निमित्तभून रागादि अज्ञान परिणाम रूप परिणत जीवके साथ ही होता है, इस प्रकार तर्क उपस्थित किया जाय तो जैसे मिली हुई हल्दी और फिटकरी दोनोंका साथ ही लाल रंगका परिणाम होता है, उसी प्रकार पुद्गलद्रव्य और जीव दोनोंके ही कर्मपरिणामकी प्राप्तिका प्रसंग पा जायगा, किन्तु एक पुद्गलद्रव्यके ही कर्मत्व परिणाम होता है । इस कारण कर्मबन्धके निमित्तभूत जीवके रागादिस्वरूप प्रज्ञानपरिणामसे पृथक् ही पुद्गलकर्मका परिणाम है।। भावार्ष-पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणाम होना यदि पुद्गल व जीव दोनोंका ही माना बाय तो दोनोंके ही कर्मपरिणामका प्रसंग आ जायगा, किन्तु जीवका अजानरूप रागादि- परिणाम कर्मका निमित्तमात्र है । इस कारण पुद्गलकमका परिणाम जीवसे पृथक ही है। प्रसंगविवरस-मनन्तरपूर्व गाथायुगल में बताया गया था कि जीवका परिणाम पुद्गलद्रव्यसे पृथग्भूत है । प्रब: इन दो गाथावो में बताया है कि पुद्गलद्रव्यका परिणाम जीव से पृथग्भूत है। ... तथ्यप्रकाश-१-पुदुमलद्रव्यका परिणमन पुद्गलद्रव्यमें पुद्गलद्रव्यके अकेलेके परिण• Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ कर्तृकर्माधिकार जीवात्पृथग्भूत एव पुद्गलद्रव्यस्य परिणामः जइ जीवेण सहच्चिय पुग्गलदब्बस्स कम्मपरिणामो। एवं पुग्गलजीवा हु दोवि कम्मत्तमावण्णा ॥१३॥ एकस्स दु परिणामो पुग्गलदब्बस्स कम्मभावेण । ता जीवभावहेदूहि विणा कम्मस्स परिणामो ॥१४०॥ कर्मपरिणाम पुद्गलका यदि जीषके साथ हो तो। यों कर्म जीव हा के, कर्मत्व प्रस होयेगा ॥१३६॥ इस कर्मभावसे यदि, होता परिणाम एक पुगलका । तो जीवभावसे यह, कर्मपरिणाम पृषक ही है ॥१४॥ यदि जीवेन सह चैव पुद्गलद्रव्यस्य कर्मपरिणामः । एवं पुद्गलजीवी खलु द्वाबपि कर्मत्वमापन्नी ॥१३।। एकस्य तु परिणामः पुद्गलद्रव्यस्य कर्मभावेन । तज्जीवभावहेतु भिविना कर्मणः परिणामः ॥१४०।। यदि पुद्गलद्रव्यस्य तन्निमित्तभूतरागाधज्ञानपरिणामपरिणतजीवेन सहैव कर्मपरिणामो भवतीति वितर्कः तदा पुद्गलद्रव्यजीवयोः सहभूतहरिद्रासुधयोरिव द्वयोरपि कर्मपरिणामापत्तिः। नामसंज्ञ--जइ, जीव, सह, च, एव, पुग्गलदव, कम्मपरिणाम, एवं, पुम्गलजीव, दु, दु, वि, कम्मत्त, आवण्ण, एक, दु, परिणाम, पुग्गलदव्य, कम्मभाव, त, जीवभावहेतु, विणा, कम्म, परिणाम ! धातुसंज-जीव प्राणधारणे, दव प्राप्ती, पूर पालनपुरणयोः, गल स्रवणे । प्रकृतिशम्ब-यदि, जीव, सह, च, एव, पुद्गलद्रव्य, कर्मपरिणाम, एवं, पुद्गलजीव, खलु, द्वि, अपि, कर्मत्व, आपन, एक, तु, परिणाम, पुद्गलद्रव्य, कर्मभाव, तत्, जीवभावहेतु, विना, कर्मन्, परिणाम । मूलपातु-जीव प्राणधारणे, पुरी आप्यायने, गल स्रवणे, बा-पद गसौ दिवादि । पदविवरण-यदि--अव्यय । जीवेन-तृतीया एक० । सहअव्यय । पुद्गलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । कर्मयरिमामः-प्रथमा एकः । एवं अव्यय । पुदगलजीवी-प्रथमा द्विवचन । खलु-अव्यय । हौ-प्रथमा द्विवचन । अपि-अध्यय । कर्मत्व-द्वितीया एक० । आपन्नी-प्र० वि०। मनसे ही होता है । २- यदि पुद्गलद्रव्यका कर्भपरिणाम तनिमित्तभूत रागादि प्रज्ञानपरिणाम परिणत जीवके साथ ही हो तो पुद्गलद्रव्य और जीव दोनों में ही फर्मपरिणाम हो बैठनेका दोष पाता है । ३-जब पुद्गलद्रव्यमें पुद्गलश्यके परिणमनले ही कर्मपरिणाम होता है तब स्पष्ट सिद्ध है कि निमित्तभूत जीवपरिणाममे भिन्न ही पुद्गलद्वन्यपरिणाम है। सिद्धान्त--१-पुदुलकर्म उपचारसे जीवपरिणामका कर्ता है । २-कार्माणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य कर्मत्वपरिणामका कर्ता है । दृष्टि-- १- परकर्तृत्व अनुप्रचरित असद्भूतव्यवहार (१२५) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ समयसार अथ चैकस्यैव पुद्गलद्रव्यस्य भवति कर्मत्वपरिणामः ततो रागादिजीवाज्ञानपरिणामाद्धेतोः पूष. ग्भूत एवं पुद्गलकर्मणः परिणामः ।। १३६-१४० ।। एकस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । परिणामः-प्रथमा एक० । पुदगलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । कर्मभावेन-तृक एक० । तत्-अव्ययभावे । जीवभावहेतुभिः-१० बहु० । विना-अव्यय । कर्मणः-षष्ठी एक० । परिणाम:प्रथमा एकवचन ।। १३६-१४०॥ प्रयोग-पगलकर्मविपाक पुद्गलकर्मका परिणाम है उससे भिन्न अपनेको ज्ञानाकार मात्र निरखकर ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें रमनेका पौरुष करना ॥१३६-१४०।। अब पूछते हैं कि प्रात्मामें कर्म बद्धस्पृष्ट है कि प्रबद्धस्पृष्ट ? उसका उत्तर नविभाग से कहते हैं--[जीवे] जीवमें [कर्म] कर्म [बद्ध] बंधा हुआ है [च] तथा [स्पृष्टं] छुपा हुआ है [इति] ऐसा [व्यवहारनयमणिस] व्यवहारनयका वचन है [तु] और [जीवे] जीवमें [कर्म] कर्म [मबद्धस्पृष्टं] अबद्धस्पृष्ट [भवति] है अर्थात् न बैंधा है, न छुपा है ऐसा [शुद्धनयस्य] कथन शुद्धनयका है। - तात्पर्य–व्ययहारनयसे जीवमें कर्म वक्षस्पृष्ट ज्ञात होता है, किन्तु शुद्धनयसे प्रबद्धस्पृष्ट जात होता है। ____टोकार्थ-जीव और पुद्गलकर्मको एक बंधपर्यायरूपसे देखनेपर उस समय भिन्नताका प्रभाव होनेसे जीवमें कर्म बंधे हैं और छुए हैं ऐसा कहना तो व्यवहारनयका पक्ष है और जीव तथा पुद्गलकर्म के अनेकद्रव्यपना होनेसे अत्यन्त भिन्नता है, अतः जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट नहीं है, ऐसा कथन निश्चयनयका पक्ष है । भावार्थ-निश्चयनय तो एक द्रव्यको देखता है सो उसके मतसे कोई भी पदार्थ बदस्पुष्ट नहीं है, व्यवहारनय घटनाको भी निरखता है सो व्यवहारनयसे वद्धस्पृष्ट है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुगलमें बताया गया था कि पुद्गलद्रव्यका परिणाम जीवसे पृथग्भूत है । इस वर्णनपर जिज्ञासा हुई कि तो क्या कर्म प्रात्मामें बद्धस्पृष्ट है या अपदस्पृट है इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है । सभ्यप्रकाश-१- संसारबशामें जीव और पुद्गलकर्मका एकबन्धपर्यायपनो है । २बन्धावस्थामें जीव और पुद्गलकमकी भिन्नता विदित नहीं होती। ३- जीवमें कर्म बद्ध है व स्पृष्ट है यह व्यवहारनयका सिद्धान्त है । ४- जीव और पुद्गलकर्म ये भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं, प्रतः जीवमें कर्म प्रवद्धस्ट है यह निश्चयनयका सिद्धान्त है । ५- घटना व वस्तुगतताको दृष्टिसे दोनों अपनी-अपनी दृष्टि में तथ्यभूत हैं । ६- बद्धाबद्धादिविकल्परूप शुद्धात्मस्वरूप नहीं Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार सतः किमात्मनि बद्धस्पृष्टं किमबद्धस्पृष्टं कर्मेति नयविभागेनाह जीवे कम्म बद्ध पुटुं चेदि ववहारण्यभणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ट हवइ कम्मं ॥१४१॥ छुमा हुअा प्रात्मामें, है कर्म यह व्यवहारनय कहता। जीयमें शुद्धनयसे, न बंधा न छुश्रा है कुछ कर्म !।१४१५ जीके कर्म बद्धं स्पृष्टं चेति व्यवहारनयणितं । शुद्धनयस्य तु जीवे अबद्धस्पृष्ट भवति कर्म ।। १४१ ॥ नीवपुद्गलकर्मणोरेकबंधपर्यायत्वेन तदात्वे व्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्टं कर्मति व्यवहारनयपक्षः । जीवपुद्गलकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यंतव्यतिरेकाजोवेऽबद्धस्युष्टं कर्मेति निश्चयनयपक्षः ।।१४१॥ नामसंज्ञ- जीव, कम्म, बद्ध, पुटु, च, इदि, बवहारणयभणिद, सुद्धणय, दु, जीव, अबद्धपुटु, कम्म । धातुसंश-भण कथने, हब सत्तायां । प्रकृतिशब्द-जीव, कर्मन्, बद्ध, स्पृष्ट, च, इति, व्यवहारनयणित, शुद्धनय, तु, जीव, अबद्धस्पृष्ट, कर्मन् । मूलधातु-स्पृश संस्पर्शने तुदादि, वि-अव हुन हरणे, भण शब्दार्थः, शुध शौचे दिवादि, बंध बन्धने, भू सत्तायां । पद विवरण-जीवे-सप्तमी एक० । कर्म-प्रथमा एक० । बद्धंप्र० ए० । स्पृष्टं-प्र० ए० | च, इति-अध्यय । व्यवहारनयणितं-प्रथमा एक० । शुद्धनयस्य-षष्ठी एक० । तु-अव्यय । जीवे-सप्तमी एकवचन । अबद्धस्पृष्टं-प्र० एकः । भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कर्म-प्रथमा एकवचन ॥१४१।। सिद्धान्त - १- घटनामें जीव कर्मसे बंधा व छुमा हुया है । २- स्वरूपमें जीव कर्म से बँधा छुवा हुअा नहीं है । दृष्टि-१- संश्लिष्ट विजात्युपरिल प्रसद्भूतव्यवहार (१२५) १ २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६म)। प्रयोग---अपनी बद्धस्पृष्ट दशाका परिचय कर दुर्दशाके निमित्तभूत मोहका परिहार कर प्रबद्धस्पृष्ट अन्तस्तत्त्वको निहारकर बद्धाबद्धधिकल्पसे दूर होकर अपने ज्ञानमात्र स्वरूपमें रत होनेका पौरुष करना ।। १४१ ॥ अब बताते हैं कि नयविभाग जाननेसे क्या होता है ?- [जी] जीवमें [कर्म] कर्म [पद्ध] बंधा हुआ है अथवा [अबद्ध] नहीं बंधा हुआ है [एवं तु] इस प्रकार तो [नयपशं] नयपक्ष [जानीहि] जानो [पुनः यः] और जो [पक्षातिकांतः] पक्षसे पृथक् हुमा [भव्यते] कहा जाता है [स: समयसारः] वह समयसार है, निर्विकल्प प्रात्मतत्त्व है। टीकार्य-जीवमें कर्म बंधा हुआ है ऐसा कहना तथा जीवमें कर्म नहीं बंधा हुप्रा है ऐसा कहना ये दोनों ही विकल्प नयपक्ष हैं। जो इस नयपक्षके विकल्पको लांघ जाता है Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ततः किं कम्मं बद्धमबद्ध जीवे एवं तु जाण ण्यपक्खं । पक्खातिक्कतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥१४२॥ बद्ध व प्रबद्ध विधि है, जीवमें नयका पक्ष यह जानो। किन्तु जो पक्षव्यपगत, उसको हो समयसार कहा ॥१४२॥ कर्म बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जानीहि नयपक्षं । पक्षातिक्रांतः पुनर्भण्यते यः स समयसारः ।।१४२॥ य: किल जीये बद्धं कर्मेति यश्च जीवेऽबद्ध कर्मेति विकल्पः स द्वितयोपि हि नयपक्षः । य एवंनमतिक्रामति स एव सकलविकल्पातिक्रांत: स्वयं निर्विकल्पकविज्ञानघनस्वभावो भूत्वा साक्षात्समयसारः संभवति । तत्र यस्तावज्जोवे बद्धं कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्धं कर्मेति एक पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिकामति । यस्तु जोवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पयति सोपि जीवे बद्धं कर्मेत्येक पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिकामति । यः पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन्न विकल्पमतिकामति । ततो य एवं समस्त नामसंक-कम्म, बद्ध, अबद्ध, जीय, एवं, तु, जाण, णयपक्ख, पक्वातिक्कत, पुण, ज, त, समयसार । धातुसंज्ञ-जाण अवबोधने, भण कथने । प्रकृतिशम्ब-कर्मन, बद्ध, अबद्ध, जीव, एवं, तु, नयपक्ष, अर्थात् छोड़ देता है, वही समस्त विकल्पोंसे दूर रहता हुआ स्वयं निर्विकल एक विज्ञानधनस्वभावरूप होकर साक्षात् समयसार हो जाता है। वही जो जीवमें कर्म बंधा है ऐसा विकल्प करता है वह 'जीवमें कर्म नहीं बंधा है' ऐसे एक पक्षको छोड़ता हुआ भी विकल्पको नहीं छोड़ता । और जो जीवमें कर्म नहीं बँधा है, ऐसा विकल्प करता है वह 'जोवमें कर्म बँधा है। ऐसे विकल्परूप एक पक्षको छोड़ता हुअा भी विकल्पको नहीं छोड़ता, और जो 'जीवमें कर्म सँधा भी है तथा नहीं भी बंधा है' ऐसा विकल्प करता है वह उन दोनों ही नयपक्षोंको नहीं छोड़ता हुमा विकल्पको नहीं छोड़ता। इसलिये जो सभी नयपक्षोंको छोड़ता है, वही समस्त विकल्पोंको छोड़ता है तथा वही समयसारको जानता है, अनुभवता है । भावार्यजीव कर्मोंसे बंधा हुमा है तथा नहीं बंधा है, ये दोनों नयपक्ष हैं । उनमें से किसीने तो बंधपक्षको ग्रहण कर लिया, उसने भी विकल्प हो ग्रहण किया; किसीने प्रबंधपक्ष ग्रहण किया, उसने भी विकल्प हो लिया और किसीने दोनों पक्ष लिए, उसने भी पक्षका हो बिकल्प ग्रहण किया। लेकिन जो ऐसे विकल्पोंको छोड़ देता व किसी भी पक्षको नहीं पकड़ता, वही शुद्ध पदार्थका स्वरूप जानकर सहज अविकार समयसारको प्राप्त कर लेता है । नयोंका पक्ष पकड़ना राग है, और रागमें सहज मन्तस्तत्व ज्ञानमें नहीं ठहरता सो सब नयपक्षोंको Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २५७ नयपक्षमतिकामति स एव समस्तं विकल्पमतिकामति । य एवं समस्तं विकल्पमतिकामति स एवं समयसारं विदति । यद्येवं तहि को हि नाम नयपक्षसंन्यासभावनां न नाटयति । य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यं । विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबंति ।।६६।। एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ।।७०।। एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिन्धिदेव ॥७१।। एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोद्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७२।। एकस्य दुष्टो (द्विष्टो) न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातो । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७३॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्कीविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥५४॥ पक्षातिकान्त, पुनस् यत्, तत्, समयसार । मूलधातु-बन्ध बन्धने क्रयादि, पक्ष परिग्रहे भ्वादि सुरादि, छोड़नेपर ही सहजसिद्ध समयसारका परिचय होता है। जिज्ञासा-यदि ऐसा है तो नयपसके त्यागकी भावनाको कौन नहीं नचावेगा? इसका समाधानरूप काव्य कहते हैं-य एव इत्यादि। अर्थ—जो पुरुष नयके पक्षपातको छोड़कर अपने स्थरूपमें गुप्त होते हुए निरन्तर निवास करते हैं, वे ही पुरुष विकल्पके जालसे च्युत व शांत चित्त होते हुए साक्षात् अमृतको पीते हैं । भावार्थ-जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है, तब तक चित्त क्षुब्ध रहता । जब सब नयोंका पक्षपास दूर हो जाता है, तब ही स्वरूपका यथार्थ अनुभव होता है ।। अब तत्त्वज्ञानो होकर स्वरूपको पाता है, इस भावको बतानेके लिये कलशरूप बीस काव्य कहते हैं-एकस्य इत्यादि । प्रर्थ-यह चिन्मात्र जीप कमसे बंधा हुपा है यह एक नयका पक्ष है और दूसरे नयका पक्ष ऐसा है कि कर्मसे नहीं बंधा । इस तरह दो नयोंके दो पक्ष हैं । सो दोनों नयोंका जिसके पक्षपात है, वह तत्त्ववेदी नहीं है और जो तस्ववेदो है, वह पक्षपातसे रहित है, उस पुरुषके उपयोगमें चिन्मात्र आत्मा शाश्वत चिन्मात्र ही है । भावार्थयहाँ शुद्धनयको मुख्यतासे जीवका परिचय कराया जा रहा है सो जीव पदार्थको शुद्ध, नित्य, अभेद, चैतन्यमात्र निरखकर कहते हैं कि जो इस शुदनयका भी पक्षपात करेगा, वह भी उस स्वरूपके स्वादको नहीं पायेगा । अशुद्धनयपक्षमें तो प्रकट प्रशुद्धताका परिषय है, किंतु शुद्धनय का भी पक्षपात करेगा, तो पक्षका राग नहीं मिटेगा, बीतरामता नहीं होगी। इसलिये पक्षपात को छोड़ चिन्मात्रस्वरूपमें लीन होनेपर ही भव्य समयसारको पा सकता है । चैतन्यके परिणाम Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार २५८ एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदो च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु विदेव || ७५|| एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्त ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७६ ॥ । एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७७॥ एकस्य हेतुर्न तथा परत चिति द्वयोविति गाती च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ||७८ || एकस्य कार्यं न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपात । यस्तस्ववेदी च्युत पक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७६ ॥ एकस्य भावो न तथा परस्य अति कम पादविक्षेपे, भण शब्दार्थः । पविबरण-कर्म- प्रथमा एक० । बद्धं, अबद्धं प्रथमा एक० : जीवेपरनिमित्तसे अनेक होते हैं, उन सबको गौण कर शुद्धनय में पहुंचना, फिर शुद्धनयके पको छोड़ शुद्धस्वरूप में प्रवृत्तिरूप चारित्र होनेसे वीतराग दशा होती है । अब बद्ध श्रबद्ध पक्षके छुड़ानेको तरह मोही श्रमोही पक्षको प्रकट कहकर छुड़ाते हैं-एकस्य इत्यादि । अर्थ-जीव मोही है यह एक नयका पक्ष है और दूसरे नयका पक्ष है कि जीव मोही नहीं है । इस तरह ये दोनों ही चैतन्यमें पक्षपात है । जो तत्त्ववेदी है, वह पक्षपातरहित है, उसके ज्ञानमें तो चित् चित् ही है । 1 अब मोही श्रमोही पक्ष छुड़ानेकी भिित रागी अरागी पक्षको प्रकट कहकर छुड़ाते हैं-- एकस्य इत्यादि । श्रर्थं - यह जीव रागी है एक नयका तो ऐसा पक्ष है और दूसरे नय का ऐसा पक्षपात है कि रागी नहीं है । ये दोनों हो चैतन्य में नयके पक्षपात हैं। जो तत्त्ववेदी है, वह पक्षपातरहित है, उसके उपयोगमें तो जो चित् है, वह चित् ही है । I - I अब रागी रागी पक्ष छुड़ानेकी भांति ग्रन्थ पक्षोंको भी प्रकट कहकर छुड़ाते हैंएकस्य दुष्टों इत्यादि । अर्थ- एक नयके तो द्वेषी हैं ऐसा पक्ष है और दूसरे नयके द्वेषी नहीं है ऐसा पक्ष है ऐसे ये चतुभ्यमें दोनों नयोंके दो पक्षपात हैं। तस्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञान में तो चित् चित् ही है। एक नयके कर्ताका पक्ष है, दूसरे नयके कर्ता नहीं ऐसा पक्ष है, ऐसे ये चैतन्यमें दोनों नयोंके दो पक्षपात हैं, किन्तु तत्त्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसको दृष्टिमें तो चित् चित् ही है । एक नयके भोक्ता है, दूसरे नयके भोक्ता नहीं यह पक्ष है । ऐसे चैतन्यमें दो नयोंके दो पक्षपात हैं, किन्तु तववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञान मैं तो चित् चित् ही है । एक नयक मतमें जीव है, दूसरे नयके मसमें जीव है ऐसा नहीं ये चैतन्यमें दोनों नोंके पक्षपात हैं, किन्तु तत्ववेदी पक्षपातरहित है, उसके उपयोग में तो चित् चित् ही है । एक नयके मतमें सूक्ष्म है, दूसरे नयके मत में सूक्ष्म है ऐसा नहीं, ऐसे ये चैतन्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २५.६ चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ||८०|| एकस्य चैको न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव || = १ || एकस्य सांतो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती ! यस्त ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥६२॥ एकस्य निरयो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ८३ ॥ एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ८५॥ एकस्य चेत्यो न तथा परस्य सप्तमी एक । एवं तु अव्यय । जानीहि आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष एक क्रिया । नयपक्षम् - द्वितीया में दोनों नयोंके दो पक्षपात्र हैं, किन्तु तत्ववेदी पक्षपातरहित है उसके ज्ञानमें तो चित् चित् ही है । एक नयके मत में हेतु हैं, दूसरे नयके मत में हेतु नहीं है, ऐसे ये चैतन्यमें दोनों नयोंके दो पक्षपात हैं, किन्तु तस्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञानमें तो चित् चित् हो है । एक नयके मत में यह जीव कार्य है, दूसरे नयके मत में कार्य है ऐसा नहीं ये चैतन्यमें० 1 एक नय के मत में जीव भावरूप है दूसरे नयके मतमें प्रभावरूप है ऐसे ये चैतन्य में एक नयके मत में जीव एक है, दूसरे नयके मत में अनेक हैं ऐसे ये चैतन्यमें ० । एक नयके मत में जीव सांत है, दूसरे नयके मत में अंतसहित नहीं है ऐसे ये चैतन्यमें ० । एक नयके मतमें जीव नित्य है, दूसरे नयके मत में श्रनित्य है ऐसे ये चैतन्य में। एक नयके मत में जीव वाच्य है, दूसरे नयके मत में वचनगोचर नहीं है ऐसे ये चैतन्य में। एक नयके मत में जीव नानारूप है, दूसरे नयके मत में नानारूप नहीं है, ऐसे ये चैतन्यमें एक नयके मत में चेष्य श्रर्थात् जानने योग्य है, दूसरे नयके मत में चेतने योग्य नहीं हैं, ऐसे ये चैतन्य में। एक नथके मतमें जीव दृश्य है दूसरे नयके मत में देखने में नहीं आता, ऐसे ये चैतन्यमें एक नयके मतमें जीव वेद्य ( वेदने योग्य) है दूसरे नयके मत में वेदने में नहीं आता, ऐसे ये चैतम्य में । एक नयके मतमें जीव वर्तमान प्रत्यक्ष है, दूसरे नयके मतमें नहीं, ये दोनों नयोंके चैतन्यमें दो पक्षपात हैं, किन्तु तत्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञानमें तो चित् चित् ही है । अब उक्त कथनोंका उपसंहारात्मक काव्य कहते हैं— स्वेच्छा इत्यादि । श्रर्थ- ज्ञानी इस प्रकार पूर्व कही हुई रीतिसे जिसमें बहुत विकल्पोंके जाल अपने श्राप उठते हैं ऐसी बड़ी नयपक्षकक्षाको लांघकर अन्दर व बाहर जिसमें समतारस ही एक रस है, ऐसे स्वभाव वाले अनुभूतिमात्र प्रात्माके भावरूप श्रपने स्वरूपको प्राप्त होता है । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० समयसार चिति द्वयोविति पक्षपाती ।यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८६॥ एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातो । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८७॥ एकस्य वेद्यो न तया परस्य चिति द्वयोर्दाविति पक्षपातौ । यस्त. स्ववेदी ध्यप्तपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ।।८। एकस्य भातो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८६॥ स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षा । अंतर्हिः समरसैकरसस्वएक० 1 पक्षातिक्रान्त:-प्रथमा एक० । पुन:-अव्यय ! भण्यते-वर्तमान लट् भावकर्मप्रक्रिया अन्य पुरुष एक अब तत्त्ववेदीका अनुभव दिखलाते हैं-~-इंद्रजाल इत्यादि । अर्थ-विपुल चंचल विकल्प तरंगों द्वारा उछलने वाले इस समस्त इन्द्रजालको जिसका स्फुरण ही तत्काल विलीन कर देता है वह चैतन्यमात्र तेजः पुंज मैं हूं। भावार्थ-अविकार सहज चैतन्यका अनुभव हो ऐसा है कि इसके होनेसे समस्त नयोंका विकल्परूप इंद्रजाल उसी समय विलीन हो जाता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाया बताया गया था कि जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट है। यह व्यवहारनयसे कहा गया है, किन्तु शुद्धनयके मतमें जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है । इस विदरणपर यह जिज्ञासा हुई कि इन दोनों नयपक्षोंके विषय में होना क्या चाहिये ? इसका समाधान इस गाथामें दिया है। सम्यप्रकाश-(१) जीवमें कर्म बद्ध है यह व्यवहारनयका पक्ष है । (२) जीवमें कर्म प्रबद्ध है यह निश्चयनयका पक्ष है । (३) जीवमें कर्म बद्ध है ऐसा जिसने विकल्प किया उसने यद्यपि जीवमें कर्म प्रबद्ध है इस विकल्पका अतिक्रमण किया तो भी विकल्पातीत तो न रहा । (४) जीवमें कर्म अबद्ध है ऐसा जिसने विकल्प किया उसने यद्यपि जीवमें कर्मबद्ध है। इस विकल्पका अतिक्रमण किया तो भी विकल्पातीत सो न रहा । (५) जीवमें कर्म बद्ध है। और प्रबद्ध है जिसने ऐसा विकल्प किया उसने दोनों पक्षोंका ही अतिक्रमण न किया सो । विकल्पातीत तो है ही कहाँ ? (५) जो समस्त विकल्पोंका प्रभाव कर दे वह हो निर्विकल्प शानघनस्वभाव होता हा साक्षात् समयसार है। (७) तत्वज्ञानी आत्मा दोनों पक्षपातोंसे रहित है, उसके तो चित् (चेतन) चित् ही है, बद्ध प्रबद्ध मादि नहीं । सिद्धान्त-(१) जीवमें कर्म बद्ध है । (२) जीवमें जीवस्वरूप ही है, कर्म बद्ध नहीं है। (३) जीव निर्विकल्प प्रखण्ड चिन्मात्र है। दृष्टि---१- पराधिकरणत्व असद्भुतव्यवहार (१३४) । २- परमशुद्धनिश्चयनय (४४), प्रतिषेधक शुद्धनय (४६म) । ३- शुद्धनय (४९), परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय (३०), शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (३०प्र)। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृ कर्माधिकार २६१ भावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रं ॥१०॥ इंद्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।११।। ।। १४२ ।। वचन क्रिया । यः, सः-प्रथमा एक० । समयसार:-प्रथमा एकवचन ।। १४२ ॥ प्रयोग--नयोंसे प्रात्मपरिचय करके नयपक्षातिकान्त होकर अभेद अन्तस्तत्वके अभिमुख होनेका सहज अन्तः पौरुष होना ।। १४२ ।। अब पूछते हैं कि पक्षातिकान्त ज्ञानीका क्या स्वरूप है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं-[नयपक्षपारहीनः नयपक्षसे रहित समयप्रतिबद्धः] अपने शुद्धात्मासे प्रतिबद्ध ज्ञानी पुरुष द्वियोरपि] दोनों ही नययोः] लयोंके [भरिंगत] कथनको [कवले] केवल [जानाति तु] जानता ही है [तु] परन्तु [नयपक्षं] नयपक्षको [किछिपि] किञ्चिन्मात्र भी [न गृह्णाति] नहीं ग्रहण करता। तात्पर्य--व्यवहारनयसे गुजरकर निश्चयनयसे जानकर, शुद्धनय द्वारा सर्वनयपक्षसे प्रतीत होकर भव्याला सहज अन्तस्तत्त्वका अनुभव करता है। टीकार्य-जैसे केवली भगवान विश्वसाक्षी होनेसे श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहार निश्चयनयके पक्षरूप दो नयके स्वरूपको केवल जानते ही हैं, परन्तु किसी भी नयके पक्षको. ग्रहण नहीं करते, क्योंकि केवली भगवान निरंतर समुल्लसित स्वाभाविक निर्मल केवलज्ञानस्वभाव हैं, इसलिये नित्य ही स्वयमेव विज्ञानघनस्वरूप हैं, और इसी कारण श्रुतशानको भूमिका से प्रतिकान्त होनेके कारण समस्त नयपक्षोंके परिग्रहसे दूरवर्ती हैं। उसी प्रकार जो श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार निश्चयरूप दोनों नयोंके स्वरूपको क्षयोपशमविजृम्भित श्रुतज्ञानस्वरूप विकल्पोंकी उत्पत्ति होनेपर भी शेयोंके ग्रहण करने में उत्सुकताको निवृत्ति होनेसे केवल जानता है, परन्तु तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिसे ग्रहण किये गये निर्मल नित्य उदित चैतन्यस्वरूप अपने शुद्धात्मा से प्रतिबद्धताके कारण उस स्वरूपके अनुभवनेके समय स्वयमेव केवलोकी तरह विज्ञानघनरूप होनेसे श्रुतज्ञानस्वरूप समस्त अंतरंग और बाह्य प्रक्षरस्वरूप विकल्पकी भूमिकासे प्रतिक्रांत होनेसे समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दुरीभूत होनेके कारण किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता है ! वह मतिश्रुतज्ञानी भी निश्चयसे समस्त विकल्पोंसे दूरवर्ती परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यज्योति, प्रात्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है। भावार्थ--जैसे केवली भगवान सदा नयपक्षोंके साक्षीमात्र हैं, वैसे ध्रुतज्ञानी भी जिस समय समस्त नयपक्षोंसे प्रतिक्रान्त होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भाचका अनुभव करता है, तब नयपक्षका साक्षी मात्र ही है । यदि एक नयका सर्वथा. पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्वसे मिला हमा पक्षका राग हुना तथा प्रयोजनके वशसे एक नयको प्रधान कर ग्रहण करे तो मिथ्यात्वके बिना Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ समयसार पक्षार्तिक्रांतस्य किं स्वरूपमिति चेत् -.. दोण्हवि णयाण भणियं जाणइ णवरिं तु समयपडिबद्धो। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्वपरिहीणो ॥१४३॥ शुद्धात्मतत्त्व ज्ञाता, दोनों नयपक्ष जानता केवल । नहि पक्ष कोइ गहता, वह तो नयपक्ष परिहारी ।।१४३॥ द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः । न तु नयपक्षं गृह्णाति किंचिदपि नयपक्षपरिहीनः ।। यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्यं स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वाच्छु लज्ञानभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति ! या किल ए' शुलज्ञा बसवयनमोर्य हानिध्ययनयपक्षयोः क्षयोपशमविज- मामसंज-दु, वि, णय, भणिय, णार, तु, समयपडिबड, ण, दु, जयपक्ख, किचि, वि, णयपक्लपरिहीण । धातुसंज-ने प्रापणे, भण कथने, जाण अवबोधने, मिण्ह ग्रहणे । प्रकृतिशब्द--द्वि, अपि, नय, भणित, केबलं, तु, समय प्रतिबद्ध, न, तु, नयपक्ष, किचित्, अपि, नयपक्षपरिहीन । मूलधातु-भण शब्दार्थः, शा अवबोधने, ओहाक् त्यागे जुहोत्यादि, ग्रह उपादाने क्रयादि, पक्ष परिग्रहे म्बादि चुरादि । पद विवरणचारित्रमोहके पक्षका राग हुना । हाँ, जब नयपक्षको छोड़कर वस्तुस्वरूपको केवल जानता हो । रहे. तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलीको तरह ज्ञातादृष्टा ही होता है, साक्षीमात्र होता है। अब इस अर्थको मनमें धारण कर तत्त्ववेदी ऐसा अनुभव करता है-चित्स्वभाव इत्यादि । अर्थ-चैला यस्वभावके पुञ्जसे भावित भाव प्रभावस्वरूप एक भावरूप परमार्थरूप से एक अपार समयसारको समस्त बंधकी परिपाटीको दूर करके मैं अनुभवता हूं। भावार्थपरद्रव्यविषयक कर्ताकर्मभावसे बंधको चली आई हुई परिपाटी दूर कर मैं समयसारका अनु. भव करता है, जो कि अपार है अर्थात् जिसके अनन्त ज्ञानादि गुणका पार नहीं है । प्रसंगविबरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि पक्षातिकान्त प्रात्मा समयसार है । सो इसी विषयमें प्रश्न हुमा कि पक्षातिक्रान्तका स्वरूप क्या है ? इसीका समाधान इस गाथामें किया है। तथ्यप्रकाश-(१) केवलज्ञानी प्रभु विश्वके साक्षो मात्र होनेसे श्रुतज्ञानके अंशरूप व्यवहारनय व निश्चयनयका केवल स्वरूप ही जानते हैं, किंतु किसी भी पक्षको ग्रहण नहीं करते । (२) प्रभु सर्वज्ञताके कारण ज्ञानघनभूत हैं, अतः श्रुतज्ञानको भूमिकासे प्रतिक्रान्त होनेसे मयपक्षके परिग्रहसे दूर हैं । (३) श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उठनेपर भी परतत्त्व का परिग्रहण करनेकी उत्सुकता निवृत्त हो जानेसे व्यवहारनय व निश्चयनयका मात्र स्वरूप Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार म्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तीत्सुक्यतया स्वरूपभेदं केवलं जानाति न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञान धनभूतत्वात श्रुतज्ञानात्मकस पस्तांतर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरोभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः। चित्स्वभावभरभावितभावाऽभावभावपरमार्थतयकं । बंधपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमषारं ।।१२।। ।। १४३ ।। द्वयोः-षष्ठी द्विवचन । अपि-अव्यय । नययोः-षष्ठी द्विवचन । भणित-द्वितीया एक० । जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । केवल-अव्ययभावे । समयप्रतिबद्धः-प्रथमा एकवचन । न-अध्यय । तु-अव्यय । नयपक्ष-द्वितीया एक० । गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । किचित्-अव्यय । अन्तः-प्रथमा एकवचन । अपि-अव्यय । नयपक्षपरिहीनः-प्रथमा एकवचन ॥१४३।। ही जानते, किन्तु नयपक्षका परिग्रहण नहीं करते। (४) श्रुतज्ञानी अन्तःप्रकाशमान चिन्मय समयसारमें प्रतिबद्ध होनेसे उसके उपयोगके समय स्वयं ज्ञानधनभूत हैं, अतः समस्त विकल्पभूमिकासे प्रतिक्रांत होनेके कारण समस्त नयपक्ष परिग्रहसे दूर हैं । (५) पक्षातिकान्त दशामें अनुभूतिमात्र प्रात्मख्यातिरूप ज्ञानात्मक ज्योति समयसार है। सिद्धान्त-(१) अन्तस्तत्वाभिमुख अात्मा नयपक्षको ग्रहण नहीं करता । (२) केवलज्ञानी प्रभु विश्वके साक्षीमात्र हैं । दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २- शुद्धनिश्चयनय (४६) । प्रयोग-विकल्पबुद्धिको दूर कर निर्विकल्प चित्स्वभावमय समयसारकी दृष्टिमें बने रहने का पौरुष करना ॥ १४३ ॥ पक्षसे दूरवर्ती ही समयसार है अब यह सिद्ध करते हैं-[यः] जो [सर्वनयपक्षरहितः] सब नयपक्षोंसे रहित है [सः] वही [समयसारः] समयसार [भरिणतः] कहा गया है। [एषः] यह समयसार हो [केवलं] केवल [सम्यग्दर्शनज्ञानं] [इति] ऐसे [व्यपदेशं] नामको [लभते पाता है। टोकार्थ-जो निश्चयसे समस्त नयपक्षसे खण्डित न होनेसे जिसमें समस्त विकल्पोंके व्यापार विलय हो गए हैं, ऐसा समयसार शुद्ध स्वरूप है सो यही एक केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ऐसे नामको पाता है । ये परमार्थसे एक ही हैं, क्योंकि प्रात्मा, प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव प्रात्माका निश्चय कर, पीछे निश्चयसे मात्माको प्रकट प्रसिद्धि होनेके लिए परपदार्थकी ख्याति होनेके कारणभूत इन्द्रिय और मनके द्वारा हुई प्रवृत्तिरूप बुद्धिको गौण कर जिसने मतिज्ञानका स्वरूप प्रारगाके सन्मुख किया है ऐसा होता हमा Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पक्षातिक्रांत एव समयसार इत्यवतिष्ठते समयसार सम्म सगाणं एसो लहदित्ति गावरि ववदेसं । सव्वगायकवरहिदो भणिदो जो सो समयसारो ॥१४४॥ सर्वनयपक्ष अपगत, जोकर कहा । यह ही केवल सम्यग् दर्शन संज्ञान कहलाता ॥ १४४ ॥ सम्यग्दर्शनज्ञानमेष लभते इति केवलं व्यपदेशं । सर्वनयपक्षरहितो भणितो यः स समयसारः ।। १४४ ।। श्रयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शनज्ञानव्यपदेशं किल लभते । यः खल्वखिलन यपक्षाक्षुण्णतया विश्रांत समस्त विकल्प व्यापारः स समयसारः । यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टंभेन ज्ञानस्वभाव - मात्मानं निश्चित्य ततः खल्वात्मख्यातये परख्यातिहेतून खिला एवेन्द्रियानिन्द्रियबुद्धीरधीर्य श्रात्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वः, तथा नानाविधनयपक्षालंबनेनानेक विकल्प राकुलयंती: श्रुतज्ञान नामसंज्ञ – सम्मदंसणणाण, एत, इति णवरि, बजदेस, सव्वणयपक्खरहिद, भणिद, जत, समयतथा नाना प्रकारके नयोंके पक्षोंको अवलम्बन कर अनेक विकल्पोंसे श्राकुलता उत्पन्न कराने वाली श्रुतज्ञानकी बुद्धिको भी गौण कर तथा श्रुतज्ञानको भी श्रात्मतत्व के स्वरूप में सम्मुख करता हुआ अत्यन्त निर्विकल्परूप होकर तत्काल अपने निजरससे ही प्रकट हुआ आदि, मध्य और अन्तके भेदसे रहित श्रनाकुल एक ( केवल ) समस्त पदार्थ समूहरूप लोकके ऊपर तैरतेकी तरह प्रखंड प्रतिभासमय, अविनाशी, अनन्त विज्ञानघन परमात्मस्वरूप समयसारको ही प्रनुभवता हुआ सम्यक् प्रकार देखा जाता है, श्रद्धान किया जाता है, सम्यक् प्रकार जाना जाता है । इस कारण सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसार ही है । भावार्थ – पहले तो भ्रागमज्ञान से श्रात्माको ज्ञानस्वरूप निश्चय करना, पीछे इन्द्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानको भी ज्ञानमात्रमें हो मिलाना तथा श्रुतज्ञानरूप नयोंके विकल्प मेट श्रुतज्ञानको भी निर्विकल्प कर एक ज्ञानमात्रमें मिलाना और प्रखण्ड प्रतिभासका अनुभव करना यही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान नाम पाता है, ये दर्शन ज्ञान आत्मासे कुछ पृथक नहीं है । अब इसी का कलशरूप काव्य कहते हैं - प्राक्रामन् इत्यादि । अर्थ-नयोंके पक्ष बिना fafare भावको प्राप्त हुम्रा जो समय ( श्रागम व आत्मा) का सार सुशोभित होता है, जो कि निश्चित पुरुषों द्वारा स्वयं प्रास्वाद्यमान है अर्थात् उन्होंने अनुभव से जान लिया है। वही यह भगवान्, जिसका विज्ञान ही एक रस है, ऐसा पवित्र पुराण पुरुष है । इसको ज्ञान कहो अथवा दर्शन कहो अथवा कुछ अन्य नामसे कहो, जो कुछ है सो यह एक ही है, मात्र सीर्थप्रवृत्तिके लिये वह अनेक नामोंसे कहा जाता है । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार २६५ बुद्धीरप्यवधीर्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यंतमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवंतमादिमध्यांतविमुक्तमनाकुलमेक केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि तरतमिवाखंडप्रतिभासमयमनंतं विज्ञानधनं परमातमान समयसारं विदानेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च ततः सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव । प्राकामनविकल्पभावमचलं पक्ष यानां बिना, सारो यः समयस्य भाति निभृतेरास्वाद्यमानः स्वयं । विज्ञानकरसः स एष भगवान्घुण्यः पुराण: पुमान, ज्ञान दर्शनमप्ययं किमया यापनकोय ।।६। दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यग्नि जौघारच्युतो, दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजीघं बलात् । विज्ञानकरसस्तदेकर सिनामात्मानमात्मा हरन, सार । धातुसंज्ञ-लभ प्राप्तो, भण कथने । प्रकृतिशब्द-सम्यग्दर्शनज्ञान, एतत्, इति; केवलं, व्यपदेश, सर्वनयपक्षरहित, भणित, यत्, तत्, समयसार । मूलधातु - सम्-अंचु विशेषणे चुरादि, दृशिर प्रेक्षणे, ज्ञा __ अब ज्ञानसे च्युत हुमा यह पाल्भा ज्ञान में ही प्रा मिलता है-दूरं इत्यादि । अर्थअपने विज्ञानघन स्वभावसे च्युत यह प्रात्मा बहुत विकल्पोंके जालके गहन बनमें अत्यंत भ्रमण करता हुआ अब दूरसे ही मुड़कर विवेकरूप निम्न मार्गमें गमनकर जलकी भांति अपने आप अपने विज्ञानघनस्वभाव में आ मिला। कैसा है वह प्रान्मा ? जो विज्ञान रसके हो रसीले हैं उनको एक विज्ञानरसस्वरूप ही है । ऐसा प्रात्मा अपने आत्मस्वभावको अपने में ही समेटता हुमा गतानुगतताको पाता है याने जैसे बाह्य गया था वैसे ही अपने स्वभावमें पा जाता है। भावार्थ---जैसे समुद्रादि जलके निवासमें से जल सूर्यताप आदिके कारण च्युत होकर उड़ा उड़ा फिरा, फिर वह ढोला होकर गिरा तो वह वनमें अनेक जगह भ्रमता है, फिर कोई नीचे मार्गसे बह-बहकर जैसाका तैसा अपने जलके निवासमें आ मिलता है। उसी प्रकार आत्मा भी प्रज्ञान मोहादि अनेक संतापोंसे अपने स्वभावसे च्युत हा भ्रमण करता कोई सुयोग पाकर भेदज्ञान (विवेक) रूप नोचे मार्गसे अपने आप अपनेको लाता हुअा अपने स्वभाव रूप विज्ञानघनमें प्रा मिलता है। अब कर्जा-कर्मके संक्षेप अर्थक कलशरूप श्लोक कहते हैं-विकल्पकः इत्यादि । अर्थ-विकल्प करने वाला हो केवल कर्ता है और विकल्प केवल कर्म है, विकल्पसहितका कर्ताकर्मपना कभी नष्ट नहीं होता । भावार्थ-जब तक विकल्पभाब है, तब तक कर्ताकर्मभाव है । जिस समय विकल्पका प्रभाव होता है उस समय कर्ता-कर्मभावका भी प्रभाव हो जाता है। ___यः करोति इत्यादि । अर्थ-जो करता है वह केवल करता ही है और जो जानता है वह केवल जानता ही है । जो करता है, वह कुछ जानता ही नहीं है और जो जानता है, वह कुछ भी नहीं करता है । ज्ञप्तिः इत्यादि । अर्थ----आननेरूप क्रिया करनेरूप क्रियाके अन्दर नहीं प्रतिभासित Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } २६६ समयसार श्रात्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥ ६४|| विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलं । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति || ६५ ॥ यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेति स तु वेत्ति केवलं । यः करोति न हि वेति स क्वचित् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ॥ ६६ ॥ ज्ञप्तिः करोतों न हि भासतेऽन्तः ज्ञम करोतिश्च न भासनेऽन्तः । ज्ञमिः करोतिश्च ततो विभिन्ने अवबोधने, डुलभष् प्राप्तौ भ्वादि पक्ष परिग्रह रह त्यागे भ्वादि चुरादि, भण शब्दार्थः । पदविवरणहातो और करनेरूप क्रिया जाननेरूप क्रियाक अन्दर नहीं प्रतिभासित होती इसलिय ज्ञमिक्रिया और करोतिक्रिया दोनों भिन्न-भिन्न हैं । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं है । भावार्थ - जिस समय जीव ऐसा परिणाम करता है कि मैं परद्रव्यको करता हूं, उस समय तो उस परिणमन क्रियाका कर्ता हो है ज्ञातामात्रकी स्थिति नहीं है । तथा जिस समय ऐसा परिणमन करता है कि वह परद्रव्यको जानता है उस समय उस जानन क्रियारूप ज्ञाता ही है वहाँ कर्तृत्वभाव नहीं है। प्रश्न- सम्यग्दृष्टिके जब तक चारित्रमोहका उद है तब तक कषायरूप परिणमन होता है, तब तक उसे कर्ता कहें या नहीं ? समाधान - प्रविरतसम्यग्दृष्टि आदिके परद्रव्य के स्वामित्वरूप कर्तृत्बका अभिप्राय नहीं हैं, परन्तु कर्मके उदयकी झांकीका कषायरूप परिणमन है, उसका यह ज्ञाता है, इसलिये प्रज्ञानसम्बन्धी कर्तृत्व अविरत सम्यग्दृष्टिके भी नहीं हैं तथापि निमित्तकी बलाघानता से विभाव परिणमनका फल कुछ होता है, किन्तु वह संसारका कारण नहीं है । जैसे जड़ कटनेके बाद वृक्ष कुछ समय तक हरा रहता है, परन्तु वह हरापन सूखने की ओर ही हैं, ऐसे ही मिथ्यात्वमूल कटने के बाद कुछ राग-द्वेष रहें, किन्तु वे मिटनेकी और ही हैं उतनेका भी स्वामित्व सम्यग्दृष्टिके आशय में नहीं हैं । नौर जितने हैं कर्ता इत्यादि । अर्थ - निश्वयतः कर्ता तो कर्ममें नहीं है और कर्म भी कर्ता में नहीं है । इस प्रकार दोनोंका हो परस्पर अत्यन्त निषेध है तब क्या कर्ता-कर्म की कहीं स्थिति हो सकती है ? नहीं हो सकती । तब वस्तुकी मर्यादा व्यक्तरूप यह सिद्ध हुई कि ज्ञाता तो सदा ज्ञान में ही है और कर्म है वह सदा कर्ममें ही हैं। तो भी महो ! यह मोह ( अज्ञान ) नेपथ्य में क्यों नाचता है ? भावार्थं कर्म तो पुद्गल है, और जीव चेतन है । सो जीव तो पुद्गल में नहीं है और पुद्गल जीवमें नहीं है, तब इन दोनोंके कर्ता-कर्म भाव कैसे बन सकता है ? इससे जोव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, पुद्गलका कर्ता नहीं है और पुद्गलकर्म है, वह कर्म ही है। ऐसे ये दोनों प्रकट भिन्न-भिन्न द्रव्य हैं तो भी अज्ञानीका यह मोह कैसे नाचता है कि मैं तो कर्ता हूँ और यह पुद्गल मेरा कर्म है यह बड़ा अज्ञान है। इस श्रनहोनीपर प्राचार्य ने बत शब्द कहकर खेद प्रकट किया है। अथवा इस तरह मोह नाचे तो नाचो, परन्तु वस्तु Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्तृकर्माधिकार ज्ञाता न कर्तेलि ततः स्थितं च ।।१७।। कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कतरि, दृद्वं विप्रतिषिध्यते यदि सदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति-नेपथ्ये वत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किं ॥६८।। अथवा नानट्यतां तथापि । सम्यग्दर्शनज्ञान-प्रथमा व द्वितीया एकवचन । एतत्-द्वितीया एक० । लभते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक का स्वरूप तो जैसा है वैसा ही रहता है - कर्ता कर्ता इत्यादि । अर्थ-अन्तरंगमें अतिशयसे अपनी चैतन्यशक्तिके समूहके भारसे अत्यंत गम्भीर यह जानज्योतिस्वरूप अन्तस्तत्व ऐसा निश्चल व्यक्तरूप (प्रकट) हुमा कि पहले जैसे अज्ञान में आत्मा कर्ता था उस प्रकार अब कर्ता नहीं होता और इसके प्रज्ञानसे जो पुद्गल कर्मरूप होता था, वह भी अब कर्मरूप नहीं होता, किन्तु ज्ञान तो ज्ञानरूप ही हुप्रा और पुद्गल पुद्गलरूप रहा, ऐसे प्रकट हुमा । भावार्थ--. जब प्रारमा निज सहज अविकार ज्योतिका ज्ञानी होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिण मन करता है, पुद्गम कर्ता नहीं बनता और फिर गुदगल पद्गलरूप ही रहता है, कर्मरूप नहीं परिणमन करता । इस प्रकार प्रात्माका यथार्थ ज्ञान होनेसे दोनों द्रव्योंके परिणामोंमें निमित्तनैमित्तिक भाव नहीं होता, इस प्रकार जीव और अजीव दोनों कर्ता-कर्मके वेषसे पृथक होकर निकल गये। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें पक्षातिक्रान्तका स्वरूप बताया गया था। अब इस गाथामें निश्चित किया गया कि पक्षातिक्रान्त ही समयसार है । तस्य प्रकाश-(१), सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान यह केवल एक प्रात्मा हो है । (२) सर्वनयपक्षोंसे अखण्डित, विकल्पव्यापारशून्य सहजात्मस्वरूप समयसार है। (३) मुमुक्षु, सर्वप्रथम श्रुतज्ञानबलसे अपनेको ज्ञानस्वभावमय निश्चित करता है । (४) उससे फिर मुमुक्षु प्रात्मख्यातिके लिये इन्द्रियज व अनिन्द्रियज ज्ञानोंको परख्यातिका हेतुभूत निश्चित करता है । (५) जिससे कि पश्चात् मुमुक्षु मतिज्ञानतत्वको अपने सहजात्मस्वरूपके प्रभिमुख करता है । (६) तथैव मुमुक्षु ज्ञानमत बुद्धियोंको अनेकपक्षोंके मालम्बनसे अनेक विकल्पों द्वारा प्राकुलित करने वाली प्रवघारित करता है। (७) जिससे कि वह श्रुतज्ञान सत्वको भी प्रात्माभिमुख करता है। (८) मोक्षाभिलाषी प्रात्मा मति श्रुतज्ञानको प्रात्माभिमुख करता हुआ प्रत्यन्त अविकल्प होकर ज्ञानधन समयसारको अनुभवता है । (६.) सूर्य ताप द्वारा समुद्रजल उड़कर बादल बनकर भटक भटककर स्वनम्रतासे नीचे गिरकर निमग्नापथसे बहकर समुद्र में मिलकर स्थरूपस्थ हो जाता है । (१०) मोहताप द्वारा ज्ञानसमुद्रगत उपयोगजल उड़कर प्रज्ञ बनकर भटक भटककर विनयभावसे प्रन्तः प्राकर विवेकपथसे अनुभव में पान र ज्ञानपुंजमें मिलकर स्वरूपस्थ हो जाता है। (११) विकल्पक प्राणी कर्ता कहलाता है । (१२) करणक्रिया में Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ समयसार कर्ता कर्ता भवति न यथा कर्म कर्मापि नैव ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । शानज्योतिज्वलितमपलं व्यक्तमतस्तथोच्चश्चिच्छतीनां निकरभरतोऽत्यंतगंभीरमेतत् ॥६६॥ ॥१४४॥ ॥ इति जीवाजोवो कर्तृकर्मवेषविमुक्तौ निष्क्रांतो ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्याती कर्तृकर्मप्ररूपको द्वितीयोऽकः ॥ २ ॥ श्रिया । इति-अव्यय । केवल-अव्ययभावे । व्यपदेश-द्वितीया एक० । सर्वनयपक्षरहित:-प्रथमा एकवचन । भणित:-प्र० ए० कृदन्त । यः, सः-प्र० ए० । समयसार:-प्रथमा एकल नन ॥१४४।। जाननक्रिया नहीं, जाननक्रिया करणक्रिया नहीं। (१३) सम्याज्ञान प्रकाशमें शानी कर्ता नहीं होता तब कार्माणवर्गणा कर्मरूप नहीं होती। ___ सिद्धान्त-- सम्यक् शानबलसे प्रात्मा प्रात्मामें उपयुक्त होता है । (२) समयसार अविकल्प प्रखण्ड चिन्मात्र अन्तस्तत्त्व है । दृष्टि-१- शुद्धनिश्चयनय (४६), अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय । (४६१), २-प्रखंड परमशुद्धनिश्चयनय (४४)। प्रयोग-सर्वनयपक्षरहित होकर दर्शनज्ञानसामान्यात्मक पात्मतत्त्वको अन्तः अनुभवने का पौरुष करना ॥ १४४ ।। ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारव्याख्या प्रात्मख्याति कर्तृ कर्माधिकार सम्पूर्ण ।।२।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २६६ --- - अथ पुण्यपापाधिकार अर्थकमेव कर्म द्विपात्रीभूय पुण्यपापरूपेण प्रविशति-- तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो, द्वितयतां गतमक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं, स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ॥१०॥ एको दुरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वाबप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥१०१॥ नामसंज्ञ-कम्म, असुह, कुसील, सुहकम्म, च, अवि, सुसील, कह, त, सुसील, ज, संसार । धातुसंज्ञ-जाण अवबोधने, हो सत्तायों, प-विस प्रवेशने । प्रकृतिशब्द - कर्मन्, अशुभ, कुशील, शुभकर्मन, च, अब एक ही कर्म दो पात्ररूप होकर पुण्यपाषरूपसे प्रवेश करता है-तदय इत्यादि । अर्थ-कर्तृकर्माधिकारमें तथ्यबोधके बाद शुभ अशुभके भेदसे द्विरूपताको प्राप्त हुए कर्मके एकत्वको प्राप्त करता हुआ यह अनुभवगोचर सम्यग्मानरूप चंद्रमा स्वयं उदयको प्राप्त होता है । भावार्थ-कर्म एक होकर भी अज्ञानसे दो प्रकारमें दीखता था, उसे ज्ञानने एकरूपमें ही दिखला दिया सो इस ज्ञानने जो मोहरूपी रज लगी हुई थी, उसे दूर कर दी, तब हो यथार्थ ज्ञान हुा । जैसे कि चन्द्रमाके सामने बादल अथवा पालेका समूह प्रादि पा जाय तब यथार्थ प्रकाश नहीं होता, यावरण दूर होनेपर यथार्थ प्रकाश होता है। आगे पुण्यपापके स्वरूपका दृष्टांतरूप काव्य' कहते हैं-एको दूराव इत्यादि । अर्थ--- एक तो मैं ब्राह्मण हूं, इस अभिमानसे मद्यको दूरसे हो छोड़ देता है तथा दूसरा पुत्र 'मैं शूद्र हूं' ऐसा मानकर उस मदिरासे नित्य स्नान करता है, उसे शुद्ध मानता है । विचारा जाय तब दोनों ही शूद्रीके पुत्र हैं, क्योंकि दोनों ही शूद्रीके उदरसे जन्मे हैं, इस कारण साक्षात् शूद्र हैं । वे जातिभेदके भ्रमसे ऐसा पाचरण करते हैं । भावार्थ-किसी शुद्रोके दो पुत्र हुए, उसने दोनोंको नदीके घाटपर पेड़के नीचे छोड़ दिये उनमें एकको ब्राह्मण उठा लाया, एकको शूद्र उठा लाया । अब जो ब्राह्मणके यहाँ पला वह ब्राह्मणपनेके गर्वसे ब्राह्मण जैसा माचरण करता है और जो शूद्रके यहाँ पला वह शूद्र जैसा आचरण करता है वास्तवमें हैं दोनों शुद्र । ऐसे ही कर्म तो पुण्य-पाप दोनों हैं, पर उनमें शुभ अशुभका भेद डाल दिया गया है। अब शुभाशुभ कर्मके स्वभावका वर्णन करते हैं-[प्रशुभं कर्म] अशुभ कर्मको [कुशीलं] पापस्वभाव [अपि च] और [शुभकर्म] शुभकर्मको [सुशोल] पुण्यस्वभाव [जानीय] Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० कम्ममसुहं कुसीलं सुहकाम चावि जाणह सुसीलं । कह तं होदि सुसीलं जं संसारं पवेसेदि ॥१४५॥ है पापकर्म कुत्सित, सुशील है पुण्यकर्म जग जाने । शुभ है सुशील केसा, जो भवमें जीवको डारे ॥१४५॥ . कर्माशुभं कुशील शुभकर्म चापि जानीथ सुशील । कथं तद् भवति सुशीलं यत्संसारं प्रवेशयति ।।१४५।। शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात् शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयत्वे सति स्वभावभेदात् शुभाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात् शुभाशुभ मोक्षबंधमार्माश्रितत्वे सत्याश्रयभेदात चकमपि कर्म किचिच्छभं किंचिदशुभमिति केषांचित्किल पक्षः, स तु सप्रतिपक्षः । तथाहिअपि, सुशील, कथं, तत्, सुशील, यत्, संसार। मूलधातु-अ-शुभ शोभा दुरादि, शील समाधौ भ्वादि, सम्-सु गती, प्र-विश प्रवेशने तुदादि णिजन्त । पविवरण-कर्म-द्वितीया एक० । अशुभं-द्वितीया एक० । जामो । परन्तु परमार्थदृष्टिसे कहते हैं कि [यत्] जो संसारप्राणीको संसारमें ही [प्रवेशयति] प्रवेश कराता है [तत्] वह कर्म [सुशील] शुभ, अच्छा [कथं] कैसे [भवति] हो सकता है ? तात्पर्य-संसारप्रवेशक कर्ममें अच्छा बुराका भेद नहीं मानना वे सब हेय हैं। टीकार्य-कितने ही लोकोंका ऐसा पक्ष है कि कर्म एक होनेपर भी शुभ-अशुभके भेद से दो भेदरूप है, क्योकि (१) शुभ और अशुभ जो जीवके परिणाम हैं, बे उसको निमित्त है उस रूपसे कारणके भेदसे भेद है । (२) शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाममय होनेसे स्वभाव के भेदसे भेद है और (३) कर्मका जो शुभ-अशुभ फल है, उसके रसास्वादके भेदसे भेद है तथा (४) शुभ-अशुभ मोक्ष तथा बंधके मार्गकी प्राश्रितता होनेपर प्रश्रियमें भेदसे भेद है । इस प्रकार इन चारों हेतुअोंसे कोई कर्म शुभ है, कोई कर्म प्रशुभ है, ऐसा किसीका पक्ष है । परन्तु वह पक्ष उसका निषेध करने बाले प्रतिपक्षसे सहित है । अब यही कहते हैं-शुभ ब प्रशुभ जीवका परिणाम केवल अज्ञानमय होनेसे एक ही है, सो उसके एक होनेपर कारणका अभेद होनेसे कर्म भी एक ही है तथा शुभ प्रथवा अशुभ पुद्गलका परिणाम केवल पुद्गलमय होनेसे एक ही है और उसके एक होनेपर स्वभावके अभेदसे कर्म भी एक ही है । शुभ अथवा अशुभ कर्भके फलका रस केवल पुद्गलमय होनेसे एक है और उसके एक होनेपर प्रास्वादके . अभेदसे कर्म भी एक ही है। शुभ अशुभरूप मोक्ष प्रौर बंधका मागं ये दोनों पृथक् हैं, केवल जीवमय तो मोक्षका मार्ग है और केवल पुद्गलमय बंधका मार्ग है अतः वे अनेक हैं, एक नहीं हैं और उनके एक न होनेपर केवल पुद्गलमय बंधमार्गकी प्राश्रितताके कारण प्राश्रयके Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २७१ शुभशुभ वा जोवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति कारणाभेदात् एकं कर्म । शुभोऽशुभो वा पुद्गल परिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकस्तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म । शुभशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलम यत्वादेकस्तनले सत्यनुभवाभेदादेकं कर्म । शुभाशुभ कुशील--द्वितीया एकवचन । शुभकर्म - द्वि० एक० । च--अव्यय अपि अव्यय | जानीथ - वर्तमान लट् मध्यम असे कर्म एक ही है । भावार्थ - कर्म में शुभ-अशुभके भेदका समर्थन पूर्वस्थल में शङ्काकारने चार युक्तियां (१) कारणभेद, ( २ ) स्वभावभेद, (३) अनुभवभेद, ( ४ ) श्राश्रयभेद देकर कहा था उसमें कारणभेद तो बताया था कि शुभबंध शुभपरिणामसे होता व प्रशुभबन्ध शुभ परिणाम से होता है । जैसे जीवका शुभपरिणाम है अरहंतादिमें भक्तिका अनुराग, जीवों में अनुकंपा परिरणाम और मंदकषायसे चित्तको उज्ज्वलता इत्यादि, तथा प्रशुभका हेतु जीवके अशुभ परिणाम हैं - तीव्र क्रोधादिक, अशुभलेश्या, निर्दयता, विषयासक्तता, देव गुरु आदि पूज्य पुरुषों में विनयरूप प्रवृत्ति इत्यादिक, सो इन हेतुस्रोंके भेदसे कर्म शुभाशुभरूपं दो प्रकारके कहे थे । और शुभ अशुभ पुद्गल के परिणाम के भेद से स्वभावका भेद कहा था, शुभद्रव्यकर्म तो सातावेदनीय, शुभप्रायु, शुभनाम शुभगोत्र हैं तथा अशुभ चार घातियाकमं, असातावेदनीय, अशुभश्रायु, अशुभनाम, प्रशुभगोत्र ये हैं, इनके उदयसे प्राणीको इष्ट- अनिष्ट सामग्री मिलती है, ये पुद्गल के स्वभाव हैं, यों इनके भेदसे कर्ममें स्वभावका भेद बताया था। तथा शुभ अशुभ अनुभव के भेदसे भेद बताया था -- शुभका अनुभव तो सुखरूप स्वाद है और अशुभका दुःखरूप स्वाद | तथा शुभाशुभ प्रश्रयके भेदसे भेद बताया था कि शुभका तो माश्रय मोक्षमार्ग है और अशुभका आश्रय बंधमार्ग है । अब इस गाथामें उन भेदोंका निषेधपक्ष कह रहे हैं - शुभ और अशुभ दोनों जीवके परिणाम अज्ञानमय हैं इसलिये दोनोंका एक अज्ञान ही कारण है, इस कारण हेतुके भेदसे कर्म में भेद नहीं है । शुभ-अशुभ ये दोनों पुद्गल के परिणाम हैं इसलिये पुद्गल परिणामरूप स्वभाव भी दोनोंका एक ही है, इस कारण स्वभाव के अभेदसे भी कर्म एक ही है । शुभाशुभ फल सुखदुःखस्वरूप स्वाद भी पुद्गलमय हो है इसलिये स्वाद के अभेद से भी कर्म एक ही है । शंकाकारने शुभ-अशुभ मोक्ष-बंधमार्ग कहे थे, किंतु वहां मोक्षमार्ग तो केवल जीवका ही परिणाम है और बंधमार्ग केवल एक पुद्गलका ही परिणाम है, श्राश्रय भिन्न-भिन्न हैं इसलिये बंधमार्गके श्राश्रयसे भी शुभ व अशुभ कर्म एक ही है । इस प्रकार यहाँ कर्मके शुभाशुभ भेदके पक्षको गौराकर निषेध किया, क्योंकि यहां प्रभेदपक्ष प्रधान है, अतः प्रभेदपक्ष से देखा जाय तो कर्म एक ही है, शुभ अशुभ ऐसे भिन्न दो नहीं हैं ।। १४५ ।। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार मोक्षबंधमागी तु प्रत्येक केयलंजीव पुद्गलमयत्वादनेको तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबंधमा- ।। श्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म । हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदाल हि कर्मभेदः तद्बधमागश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खल बंधहेतुः ॥१०२।। ।।१४५।। चुरुप बहुवचन । कथं--अव्यय । तत्-प्रथमा एकवचन | सुशील-प्रथमा एक० । यत्-प्रथमा एक० । संसारद्रि० ए० | प्रवेशयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन णिजत ।।१४५।। अब इसी अर्थका समर्थक कलशरूप काव्य कहते हैं-हेतु इत्यादि । अर्थ-हेतु, स्वभाव, अनुभव और पाश्रय इन चारोंके सदाकाल हो अभेदसे कर्ममें भेद नहीं है, इसलिये बंधके को प्राश्रय कर कर्म एक ही माना है क्योंकि सभी कर्म याने शभ तथा अशुभकर्म दोनों ही स्वयं निश्चयसे बंधके हो कारण हैं। प्रसंगविवरण-पूर्व कर्तृकर्माधिकारमें जीव व पुद्गलकर्मके संबंधों कर्तृकर्मत्वप्रतिपंध, निमित्तनैमित्तिकभाव आदि कई स्थलोंमें पुद्गलकर्मकी चर्चा आई थी । वही पुद्गलकर्म अब इस पुण्यपापाधिकारमें दो पात्र बन कर प्रवेश करता है। इस गाथामें उन्हीं पुण्यपाप दोनों वेशोंकी समीक्षा की गई है। तथ्यप्रकाश----यद्यपि शुभपरिणामसे पुण्यबंध व अशुभपरिणामसे पाप बंध होनेसे याने कारणभेद होनेसे पुण्य पाप ये भिन्न-भिन्न हैं तथापि शुभ अशुभ दोनों जीवपरिणाम अज्ञानमय होनेसे एक अज्ञानमय है और कारणभेद न होनेसे पुण्य पाप दोनों एक ही हैं। २-यद्यपि पुण्य शुभपुद्गलपरिणाम है, पाप अशुभपुद्गलपरिणाममय है तथापि हैं केवल घुद्गलमय, अतः स्वभावका भेद न होनेसे दोनों एक ही है । ३-यद्यपि पुण्य शुभफलपाक है, पाप अशुभफलपाक है तथापि हैं दोनों पुद्गलमय विकाररूप, अतः अनुभवके अभेदसे दोनों कर्म एक ही हैं । ४- यद्यपि लौकिक जीवोंको ऐसा मालूम होता है कि पुण्य तो मोक्षमार्ग है और पाप बंधमार्ग है, लेकिन ऐसा है नहीं, मोक्षमार्ग तो केवल जीवमय है और बंधमार्ग केवल पुद्गलमय है, ओं पुण्यपाप दोनों केवल पुद्गलमय बन्धमार्गाश्रित है, अत: पाश्रयका अभेद होनेसे पुण्यपाप दोनों कर्म एक ही हैं। सिद्धान्त-(१) प्रकृत्यादिभेदसे पुण्य व पापकर्म में भेद है । (२) दुःखरूपत्व प्रादिकी दृष्टि से पुण्यपाएमें प्रभेद है। दृष्टि---१- बैलक्षण्यनय (२०३) । २- सादृश्यनय (२०२) । प्रयोग-पुण्य-पापकर्मको, पुण्य-पापकर्मके फल सुख-दुःखको, पुण्य-पापके हेतुभूत शुभाशुभभावको विकृतपनेकी दृष्टिसे एक समान जानकर उन सबसे उपेक्षा करके निष्कर्म Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार प्रथोमयं कर्माविशेषेण बंधहेतु साधयति---- सौवण्णिायं पि णियल बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥१४६॥ जैसे सुवर्ण प्रथया, लोहसंफल है जीवको बांये। स्यों कृत फर्म अशुम या, शुभ हो सब जीवको बांधे ॥१४६॥ सौवर्णिकमपि निगल बध्नाति कालायसमपि च यथा पुरुषं । बध्नात्येवं जीवं शुभमशुभं वा कृतं कर्म । । प्राकृत शाब्द--- सौवष्णिय, वि, णियल, कालायस, वि, जह, पुरिस, एवं, जीव, सुह, असुह, वा, कद, कम्म । प्राकृत धातु - बन्ध बन्धने, जीव प्राणाधारणे, सोभ दीप्तौ, करस करणे । प्रकृतिशब्द- सौवणिक, अपि, निगल, कालायस, अपि, यथा, पुरुष, एवं, जीव, शुभ, अशुभ, वा, कृत, कर्म । मूलधातुःवर्ण क्रिया विस्तारगुणवचनेषु चुरादि, नि-गल अदने भ्वादि, बन्ध बन्धने कयादि, पुर अग्रगमने तुदादि, कारणसमयसारके अभिमुख रहनेका पौरुष करना ।। १४५ ॥ ____ अब प्रागे शुभ अशुभ दोनों कर्मोको ही प्रविशेषतासे बंधके कारण साधते हैं[यया] जैसे [कालायसं निगलं] लोहेको बेड़ी [पुरुषं बध्नाति] पुरुषको बांधती है [अपि] और [सौरिणकं] सुवर्णकी बेड़ी [अपि] भी पुरुषको बांधती है [एवं] इसी प्रकार [शुभं वा अशुभं] शुभ तथा अशुभ [कृतं कर्म] किया हुआ कर्म [जीवं] जीवको [अध्नाति] बांधता ही है। तात्पर्य -- पुण्य व फाप दोनों ही कर्म जीवके लिये बन्धन ही हैं। टीकार्थ---शुभ और अशुभ कर्म प्रविशेषरूपसे हो प्रातमाको बांधते हैं, क्योंकि दोनोंमें ही बंधरूपपनेकी अविशेषता है जैसे कि सूवर्णकी बेड़ी और लोहेको बेड़ी में बंधकी अपेक्षा भेद नहीं है। भावार्थ--जैसे किसी कैदीको लोहेकी बेड़ोसे बांधा हो, किसीको सोनेकी वेडीसे बांधा हो बन्धन के क्लेशमें दोनों हैं, ऐसे ही किसीके चाहे पुण्यबन्ध हो, चाहे पापबन्ध हो सांसारिक क्लेशके बन्धनमें दोनों हैं, अतः पुण्य-पाप दोनों बन्धन हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि लोक कहते हैं कि प्रशुभकर्म तो कुशोल है और शुभकर्म सुशील है, किन्तु वह कर्म सुशील कसा कि जो संसारमें प्रवेश करावे याने शुभ अशुभ दोनों ही कर्म कुशील हैं । उसी कुशीलताको बतानेके लिये इस गाषा में बताया है कि शुभ अशुभ दोनों ही कर्म अविशेषतासे बन्धनके ही कारण हैं। तध्यप्रकाश-१-- चाहे किसीके पैरमें सोनेकी बेड़ी पड़ी हो, बन्धन दोनोंका एकसमान है। - चाहे किसीके कृतकर्म शुभ हों, चाहे किसीके कृतकर्म अशुभ हों दोनों ही कर्म जीवके लिये बन्धन ही हैं । ३- जो पुरुष भोगाकांक्षासे रूप सौभाग्य इन्द्रादि पदके लाभको Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ समयसार शुभमशुभं च कर्माविशेषेशीत पुरुषं बध्नाति बंधत्वानियत मांगकालायसनिगलवत् जीव प्राणधारणे, शुभ शोभने, डुकृत्र करणे। पदविवरण-सौवणिक-प्रथमा एकवचन । अपि-अव्यय ।। निगलं-प्रथमा एक० । बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कालायसं-प्रथमा एकवचन । यथा-- अव्यय । पुरुष, जीवं-द्वितीया एकवचन । शुभ, अशुभं-प्रथमा एकवचन कर्तृ विशेषण । वा-अव्यय । कृतप्रथमा एकवचन कृदन्त । कर्म-प्रथमा एकवचन का कारक ।।१४६ ।। इच्छासे व्रत तप आदि करता है वह राख पानेके लिये चंदनबनको जलानेकी तरह व्रतादिक को व्यर्थ नष्ट करता है । ४- जो शुद्धात्मभावनाके साधनके लिये तपश्चरणादिक करता है वह परम्परया मोक्ष प्राप्त कर लेता है ! ५- भले ही ज्ञानी जीवको शेषभवपर्यंत पुण्यकर्म तत्काल बन्धनरूप है तो भी पुण्य व पुण्यफलमें राग न होनेसे एवं चित्स्वभाव उपास्य होनेसे वह ! मोक्ष मार्गी है। सिद्धान्त-१-द्रव्यप्रत्यय नवकर्मास्रवके साक्षात् निमित्तभूत हैं । २-कर्मविपाकोदय । याने वही द्रव्यप्रत्यय जीवविकारका साक्षात् निमित्तभूत है। दृष्टि-१-निमित्तदृष्टि (५३१)। २-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३)। प्रयोग--पुण्य पापके बंधनसे हटनेके लिये बन्धनरहित अविकार सहज ज्ञानस्वरूप मात्र अपनेको मनन करना चाहिये ॥१४६।। __ अब शुभ अशुभ दोनों ही कर्मों का निषेध करते हैं -[तस्मात तु] इस कारण [कुशीलाभ्यो] उन दोनों कुशोलोंसे [रागं] प्रीति [मा कुरुत] मत करो [वा] अथवा [संसर्ग च] संबंध भी [मा] मत करो [हि] क्योंकि [कुशीलसंसर्गरागेरण] कुशीलके संसर्ग और रागसे [विनाशः स्वाधीनः] विनाश होना स्वाधीन है। तात्पर्य-कोई कुशोलोंसे राग व संसर्ग करे तो उसका विनाश होना प्राकृतिक ही है । टीकार्थ-कुश्शील शुभ-अशुभ कर्मके साथ राग और संसर्ग करना दोनों ही निषिद्ध है, क्योंकि ये दोनों ही कर्मबंधके कारण हैं। जैसे कुशील, मनको रमाने वाली अथवा नहीं रमाने वाली कुट्टनी हथिनीके साथ राग और संगति करने वाले हाथोका विनाश अपने प्राप है सो राग व संसर्ग उस हाथीको नहीं करने चाहिये ।। __ प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया था कि पुण्य-पाप दोनों ही कर्मबन्धहेतु हैं । अब इस माथामें उन दोनों ही कर्मोको दूर करनेका उपदेश किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- शुभ (पुण्य), प्रशुभ (पाप) दोनों ही कर्म कुशील हैं । २- बंधके कारणभूत होनेसे दोनों ही कुशील कोंका राग करना व संसर्ग करना निषिद्ध किया गया है । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार ता दु कुसीले हिय रायं मा कुगाह मा व संसग्गं । साधीणो हि विणुसो कसीलसंसग्गरायेण ॥ १४७॥ इससे मत राग करो, नहिं संसर्ग दोनों कुशीलोंसे । स्वाधीन घात निश्चित कुशीलसंसर्ग अनुरतिसे ॥ १४७॥ तस्मात्तु कुशीलाभ्यां रागं मा कुरुल मा वा संसर्ग । स्वाधीनो हि विनाशः कुशील संसर्गरागेण ॥ १४७ ॥ कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसग प्रतिषिद्धौ बंधहेतुत्वात् कुशीलमनोरमामनोरमकरे कुट्टनीरा संसर्ग ||१४|| २७५ अशोभयं कर्म प्रतिषेधयति - प्राकृतशब्द - त, दु, कुसील, राय, मा, संसग्ग, साधीण, हि, विणास, कुशीलसंसम्गराय । प्राकृतधातु - रज्ज रागे, नस्स नाशे । प्रकृतिशब्द- तत्, तु, कुशील, राग, मा, संसर्ग, मा, वा, संसर्ग, स्वाधीन, हि, विनाश, कुशील संसर्गराग । मूलधातु-शील समाधी, रन्ज रागे भ्वादि दिवादि सूत्र, बिसमें दिवादि तुदादि । पदविवरण - तस्मात् - पंचमी एकवचन । तु-अव्यय । कुशीलाभ्यां रागं-द्वितीया एकवचन 1 माअव्यय । कुरुत - आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन । वा-अव्यय । संसर्ग - द्वि० ए० । स्वाधीनः - प्रथमा एक० । विनाशः प्र० ए० कुशीलसंसर्गरागेण तृतीया एकवचन ।। १४७ ॥ सिद्धान्त --- (१) भावकर्ममें राग करनेसे याने दर्शनमोहसे जीव बेसुध होता है । (२) भावकर्म में संसर्ग करना चारित्रमोह है, इससे श्रात्मा क्षुब्ध होता है । दृष्टि-- १- कारककारकि प्रशुद्ध सद्भूतव्यवहार ( ७३ ) । २- कारककारकि शुद्ध सद्भूतव्यवहार (७३श्र ) । प्रयोग -- पुण्य-पाप दोनोंको विकार जानकर इनमें न तो हितबुद्धि रखना और न इनमें लगाव बनाना, इनसे उपेक्षा ही करना ॥ १४७॥ अब दोनों कर्म निषेधको दृष्टान्तसे दृढ़ करते हैं-- [ यथा नाम] जैसे [कोवि] कोई [ पुरुषः ] पुरुष [ कुत्सितशीलं ] खोटे स्वभाव वाले [जनं] किसी पुरुषको [विज्ञाय ] जानकर [तेन समकं ] उसके साथ [ संस] संगति [ च रागकरणं] और राग करना [वर्जयति ] छोड़ देता है [ एवं एव च ] इसी तरह [ स्वभावरताः ] स्वभाव में प्रीति रखने वाले ज्ञानो जीव [कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं ] कर्मप्रकृतियोंके शील स्वभावको [ कुत्सितं ज्ञात्वा | निन्दनीय जानकर [ वर्जयंति ] उससे राग छोड़ देते हैं [च] और [ तत्संसगं] उसकी संगति भी ] परिहरति ] छोड़ देते हैं । तात्पर्य - बुद्धिमान पुरुष विनाशकारी पदार्थसे प्रीति श्रौर सम्बन्ध छोड देते हैं । टोकार्थ -- जैसे कोई चतुर वनका हाथ अपने बन्धन के लिये समीप माने वाली, चंचल Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ समयसार प्रथोमयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टांतेन समर्थयते जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता । वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रायकरणं च ॥१४८॥ एमेव कम्मपयडी सीलसहावं च कुच्छिदं गाउं । वज्जति परिहरति य तम्समग्गं सदावरया ॥१४६॥ (युग्मम) जैसे कोई मानध, कुशीलमय आनकर किसी जनको । तज देता उसके प्रति, संसर्ग व रागका करना ॥१४॥ वैसे ही कर्म प्रकृति को कुत्सितशील जानकर ज्ञानी । तज देते हैं उसका, संसर्ग व रागका करना ॥१४॥ यथा नाम कोऽपि पुरुषः कुत्सितशीलं जनं विज्ञाय । वर्जयति तेन समकं संसग रागकरण च ॥ १४८ ।। एवमेव कर्मप्रकृतिशीलस्वभाव च कुत्सितं ज्ञात्वा । वर्जयंति परिहरति च तत्संसर्ग स्वभावरताः ।। १४६ ।। गया खलु कुशलः कश्चिद्वनहस्ती स्वस्य बंधाय उपसर्पन्ती चटुलमुखी मनोरमाममनोरमां वा करेणुकुट्टिनी तत्त्वत: कुत्सितशोलां विज्ञाय तया सह रागसंसगौ प्रतिषेधयति । तथा प्राकृतान-जह, णाम, क, वि, पुरिस, कृच्छियसील, जण, त, समय, संसग्ग, रायकरण, एमेव, कम्मपडि, सीलसहाय, कुच्छिद, य, तस्संसग्ग, सहावरय । प्राकृतधातु-कुच्छ निन्दायां, वज्ज वर्जने, परि-हर हरणे । प्रकृतिशब्द यथा, नाम, कि, अपि, पुरुष, कुत्सितशील, जन, तत्, समय, संसर्ग, समक, रागकरण, च, एवं, एव, कर्मप्रकृतिशीलस्वभाव, च, कुत्सित, च, तत्संसर्ग, स्वभावरत । मूलधातु पुरअग्रगमने कुत्स अवक्षेपणे चुरादि, शील समाधौ, ज्ञा अवबोधने, वृजी वर्जने अदादि रुधादि चुरादि, परिहुत्र हर बादि । पदविवरण-यथा-अव्यय । नाम--अव्ययार्थे । क:-प्र० ए० । अपि-अव्यय । पुरुषःमुखको लीलारूप करतो मनको रमाने वाली, सुन्दर अथवा प्रसुन्दर कुटिनी हथिनीको बुरी समझकर उसके साथ राग तथा संसर्गके नहीं करता, उसी प्रकार रागरहित ज्ञानी प्रात्मा अपने बन्धके लिये समीप उदय पाती शुभरूप अथवा प्रशुभरूप सभी कर्मप्रकृतियोंको परमार्थ से बुरी आनकर उनके साथ राग और संसर्गको नहीं करता। भावार्थ-~-जैसे हाथोके पकड़ने को कोई जंगल में बड़ा गड्ढा खोदकर उसपर बाँसपंच बिछाकर बांसपंचसे ऊपर बांस व कागजसे झूठी हथिनी बनाकर हथिनी दिखलावे, तब हाथी कामांध हुमा उससे राग तथा संसर्ग कर गड्ढे में पड़ पराधीन होकर दुःख भोगता है, किन्तु (चतुर) हाथी उससे राग, संसर्ग नहीं करता, उसी प्रकार कर्मप्रकृतियोंको अच्छी समभ प्रज्ञानी जन उनसे राग तथा संसर्ग करता है, तब बन्धमें पड़ संसारके दुःख भोगता है, परन्तु ज्ञानी उनसे संसर्ग तथा राग कभी नहीं करता । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २७७ किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्थ बंधाय उपसप्र्पती मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृति तत्त्वत: कुत्सितशीला विज्ञाय तया सह रागसंसगौं प्रतिषेधयति ॥१४८-१४६ ।। प्र० ए० । कुत्सितशील, जन-द्वि० ए० । विज्ञाय-असमाप्तिकी क्रिया। वर्जयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचनं । तेन-तृतीया एक० । समक-अव्यय । संसर्ग, रागकरणं, कर्मप्रकृतिशीलस्वभावं, कुत्सित-द्वितीया एकवचन । ज्ञात्वा असमाप्तिकी क्रिया । वर्जयंति, परिहरति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया। तत्संसर्ग-द्वि० ए० । स्वभावरत:-प्रथमा बहुवचन ।। १४८-१४६ ॥ . प्रसंगविवरण-प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया था कि पुण्य-पाप दोनोंका राग संसर्ग निषिद्ध है । अब इसी तथ्यका दृष्टान्तपूर्वक समर्थन इस गाथायुगलमें किया गया है । __ तथ्यप्रकाश--१-सुशील पुरुष विज्ञात कुशीलके साथ राग व संसर्ग नहीं करता चाहे वह कितना ही मनोरम हो । २- प्रात्मस्वभावचिक पुरुष कुशील शुभ अंशुभ कर्मके साथ राग व संसर्ग नहीं करता, चाहे वह कर्म कितना ही सुहावना हो । ३- शुभ अशुभ सभी कर्मों का सान्निध्य बन्धके लिये ही होता है। .. सिद्धान्त-१- राग व संसर्गका निमित्त पाकर पर वस्तु बन्धनरूप हो जाती है। २-शुभ प्रशभ सभी कर्म कर्मत्व परिणामसे कल्माषित हैं। हलि-१-उपाधिसापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) । २- प्रशद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-सभी कम व कर्मफलोंको स्वभावविरुद्ध जानकर उनसे उपेक्षा करके निष्कर्म सहज ज्ञायकभावमय अन्तस्तत्त्वको दृष्टि बनाये रहनेका पौरुष करना ॥१४८-१४६।। अब कहते हैं कि सभी कर्मका निषेध किया है तो मुनि किसके प्राश्रय मुनिपद पाल सकेंगे ? उसके निर्वाहका काव्य कहते हैं-निषिद्ध इत्यादि । अर्थ---शुभ तथा अशुभ प्राचरणरूप सभी कर्म निषिद्ध होनेपर क्रियाकर्मरहित निवृत्ति अवस्था प्रवृत्ति करते हुए मुनि अशरण नहीं है । निवृत्ति अवस्था होनेपर इन मुनियोंके ज्ञानमें ज्ञान का ही आचरण करना जो हो रहा है वह शरण है । वे मुनि उस ज्ञान में लीन हुए परम अमृतको भोगते हैं। भावार्थ-सब कर्मका त्याग होनेसे ज्ञानका ज्ञानमें रम जाना यह बहुत बड़ा शरण है, उस ज्ञान में लीन होनेसे सब प्राकुलतामोंसे रहित परमानन्दका सभ होता है । इसका स्वाद ज्ञानी ही जानता है । अज्ञानी जीव कर्मको ही सर्वस्व जानकर उसमें लीन हो जाता है, वह ज्ञानानन्दका स्वाद नहीं जानता । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें दृष्टान्तपूर्वक शुभ अशुभ दोनों कर्मोको प्रतिषेध्य बताया गया था। अब इस माथामें सिद्धान्त द्वारा कर्मबन्धहेतुभूत दोनों कोंकी प्रतिषेध्यता सिद्ध की है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ समयसार अयोभय कर्मबंधहेतु प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति रत्तो बंधदि कम्म मुचदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसों तह्मा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥ रागी विधिको बांधे, छोड़ विधिको विराग विज्ञानी।। यह भागवत वचन है, इससे विधिमें न राग करो ॥१५॥ रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते जीवो विरागसम्प्राप्तः । एष जिनोपदेशः तस्मात् कर्मसु मा रज्यस्व ॥१५०|| ___ यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बनीयात विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बंधहेतुं साधयति तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च। कर्म सर्वमपि सर्वविदो यबंधसाधनमुशन्त्यधिशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥१०३।। निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल, प्रवृत्ते नष्कर्ये न खलु मुनयः संत्यशरणा: । सदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं, स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥१०४।। ।।१५०।। प्राकृतशब-रत्त, कम्म, जीव, विरागसंपत्त, एत. जिणोवदेस, त, कम्म, मा । प्राकृतधातु-रज्ज रागे, बंध बंधने, मुंच त्यागे। प्रकृतिशब्द-रक्त, कर्मन्, जीव, विरागसंप्राप्त, एतत्, जिनोपदेश, तत्, कमन्, मा। मूलधातु-रन्ज रागे, बन्ध बन्धने, डुकृञ् करणे, मुचल मोक्षणे तुदादि, सम्-प्र-आपल प्रापणे, जि जये अभिभवे च भ्यादि । पदविवरण-रक्त:-प्रथमा एकवचन । बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कर्म-द्वितीया एक० 1 मुच्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया क्रिया। विरागसंप्राप्तः, एषः, जिनोपदेशः--प्रथमा एकः । तस्मात-पंचमी एकवचन हेत्वर्थे । कर्मसु-सप्तमी बहु० । माअव्यय । रज्यस्व-आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया ।। १५० ॥ तथ्यप्रकाश-(१) जो रागादिमें रक्त है उसके संसारविषयक कर्मबन्धन होता है। (२) जो रागादिसे विरक्त होकर भी कर्मविपाकवश रागी बनता है उसके शरीरविषयक कुछ काल तक कर्मबन्धन होता । (३) जो पूर्णतया विकारसे विरक्त है वह कर्मसे छूट जाता है । (४) शुभ अशुभ दोनों ही कर्म राग उपरागके निमित्तभूत होनेसे बन्धहेतु हैं, प्रतः दोनों हो कर्म प्रतिषेध्य हैं । (५) नैष्कर्म्य अवस्था होनेपर ज्ञानी प्रशरण नहीं होता, किन्तु ज्ञानमें शान समाया होनेसे वह वास्तविक सशरण है और परम अमृत तत्वका अनुभव करता है। सिद्धान्त-(१) रागी जीव कर्म बौधता है यह उपचार कथन है । (२) रागका निमित्त पाकर कार्माणवर्गरणायें कर्मरूप परिणत होती हैं यह अशुद्ध द्रव्याथिकनयका सिद्धान्त है । (३) अशुद्धद्रव्याथिकका प्रतिपादन व्यवहार है, उपचार नहीं । (४) रागरहित जीव कर्मसे शून्य हो जाता है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .....- .-.-. - . पुण्यपापाधिकार २७६ अय ज्ञानं मोक्षहेतुं साधयति--- परमट्टो खनु समयो मुद्धो जो केवली मुणी णाणी। तमि ठिदा सहावे मुणिणो पावंति णिवाणं ॥१५१॥ परमार्थ समय जो यह, शुद्ध तथा केवली मुनी ज्ञानी । इस ही स्वभावमें रत, मुनिजन निर्धारणको पाते ॥१५॥ परमार्थः खलु समयः मुद्धो यः केवली मुनि नी । तस्मिन् स्थिताः स्वभावे मुनयः प्राप्नुवंति निर्वाणं । ज्ञानं हि मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबंधहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः । तत्त सकलकर्मादिजात्यंतरविविक्तचिज जातिमात्रः परमार्थ प्रात्मेति यावत्, स तु युगपदेकीभाव प्राकृतशब्द- परमट्ट, खलु, समय, सुद्ध, केबलि, मुणि, पाणि, त, द्विद, सहाव, मुणि, णित्राण । प्राकृतधातु-आव प्राप्ती, गुण ज्ञाने । प्रकृतिशब्द - परमार्थ, खलु, समय, शुद्ध, यत्, केवलिन, मुनि, ज्ञानिन, तत्, स्थित, स्वभाव, मुनि, निर्वाण । मूलधातु - ऋ गतिप्रापणयोः भ्वादि जुहोत्यादि, सम्-अय दृष्टि-१- परकर्तृत्व अनुपरित प्रसद्भूतव्यवहार (१२६)। २-- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिक प्रतिपादक व्यवहार (७६)। ४- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्धद्रध्याथिकनय (२४अ)। प्रयोग-परभावसे राग होनेको बन्धनका मूल जानकर समर रागादि परभावोंसे उपेक्षा करके रागरहित ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें रति, संतुष्टि व तृप्ति करना चाहिये ॥१५०।। अब ज्ञानको मोक्षका कारण सिद्ध करते हैं--[खलु] निश्चयसे [यः] जो [शुद्धः] शद्ध है केवली] केवली है [मुनिः] मुनि है [शानी] ज्ञानी है [परमार्थः समयः] वह परमार्थ समय है [तस्मिन् स्वभावे] उस स्वभाव में [स्थिताः] स्थित [मुनयः] मुनि [निर्वाणं] मोक्षको [प्राप्नुवंति] प्राप्त होते हैं । तात्पर्य-वास्तव में सहज शुद्ध प्रात्मा ही परमार्थ है उसमें जो उपयुक्त होने हैं वे मोक्ष पाते हैं। ___टोकार्थ-ज्ञान ही मोक्षका कारण है, क्योंकि ज्ञानके ही शुभ अशुभ कर्मबंधको हेतुत्ता न होनेपर मोक्षकी हेतुता ज्ञानके ही बनती है ! यह ज्ञान ही समस्त कर्मोको प्रादि लेकर अन्य पदार्थोंसे भिन्न जात्यंतर चिज्जाति मात्र परमार्थस्वरूप प्रात्मा है, और वह एक ही काल में एकरूप प्रवृत्त ज्ञान और परिणमन मय होनेसे समय है। यही समस्त धर्म तथा धर्मीके ग्रहण करने वाले नयोंके पक्षोंसे न मिलने वाला पृथक् हो ज्ञानत्य रूप असाधारण धर्मरूप होनेसे शुद्ध है । वही एक चैतन्यमात्र वस्तुत्व होनेसे केवली है । वही मननमात्र अर्थात् ज्ञानमात्र भावरूप होनेसे मुनि है और वही स्वयमेव ज्ञानरूप होनेसे ज्ञानी वही अपने ज्ञानस्वरूपके Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० समयसार प्रवृत्तज्ञानगमनमयतया समयः । सकलनयपक्षासंकोण कज्ञानतया शुद्धः । केवलचिन्मात्रवस्तुतया केवली। मननमात्रभावमात्रतया मुनिः । स्वयमेव ज्ञानतया ज्ञानी । स्वस्य ज्ञानस्य भावमात्र. तया स्वभावः स्वतश्चितो भवनमात्रतया सद्भावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तुभेदः ॥१५१ ॥ गतो, शुध शोचे, मनु अवबोधने तनादि, ज्ञा अवबोधने, ष्ठा गतिनिवृत्तौ, प्र-आप्ल प्रापणे, निर् वन संभक्ती । पदविवरण --परमार्थः-प्रथमा एक० । खलु-अव्यय । समयः, शुद्धः, यः, केवली, मुनिः, ज्ञानीप्रथमा एकवचन । तस्मिन्- सप्तमी एक । स्थिताः-प्रथमा बहुवचन । स्वभावे-प्र० एक० । मुनयः-प्रथमा बहु । प्राप्नुवन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । निर्वाणं-द्वितीया एकवचन ।। १५१ ॥ सत्तारूप प्रवर्तनके कारण स्वभाव है तथा अपनी चेतनाका सत्तारूप होनेसे सद्भाव है। ऐसे शब्दोंके भेद होनेपर भी वस्तुभेद नहीं है । भावार्य-मोक्षका उपादान कारण प्रात्मा ही है और प्रात्माका परमार्थसे ज्ञानस्वभाव है, अतः जो ज्ञान है वह मात्मा ही है, प्रारमा है वह ज्ञान ही है, इसलिये ज्ञानको हो मोक्षका कारण कहना युक्त है। प्रसंगविवरण-----अनन्तरपूर्व गाथामें सिद्धान्त द्वारा शुभ अशुभ कर्मको प्रतिषेध्य बता. कर सिद्ध किया था कि शुभ अशुभकर्म दोनों बंधहेतु है । इस विवरणपर यह जिज्ञासा होती है कि तब फिर मोक्षहेतु क्या है ? इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया है। तथ्यप्रकाश-(1) मान ही मोहेद है, क्योंकि मान जान ही रहना, पूर्णतया परसे पृथक् हो जाना मोक्ष है सो बह मोक्ष परविविक्त सहजज्ञानस्वरूपको प्राराधनासे ही हो सकता है। (२) ज्ञान शुभाशुभकर्मके बन्धका हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि स्वरूप व स्वभाव बन्ध के लिये नहीं होता। (३) ज्ञान (ज्ञानमय प्रात्मा) ही परमार्थ है, क्योंकि ज्ञानभाव समस्त कर्मादिसे न्यारा चिज्ज्योतिमात्र वस्तु है। (४) ज्ञान (ज्ञानमय प्रात्मा) ही समय है, क्योंकि यह चेतन पदार्थ ही एक साथ स्वयं जानता व परिणामता है अथवा सम्यक् अय (ज्ञान) शला है अथवा समरसीभावसे शुद्धस्वरूपमें इसका गमन है । (५) यह ज्ञान शुद्ध है, क्योंकि यह केवल चिन्मात्र वस्तु है । (७) यह शान मुनि है, क्योंकि यह ज्ञानभाव मननमात्र भाव है। (८) यह ज्ञान ज्ञानी है, क्योंकि यह स्वयं ज्ञानस्वरूप है। (६) विशुद्ध यह ज्ञान (ज्ञानमय प्रात्मा) अपने भवनमें जाननस्वरूपमें निर्विकल्प स्थित होकर निर्वाणको प्राप्त करता है । सिद्धान्त-(१) शुद्ध चित्स्वभावको आराधनासे कर्ममोक्ष होता है । (२) यह ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व अभेद शुद्ध चिज्ज्योतिमात्र है। दृष्टि-- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय (२४ब) । २- शुद्धनय (४९)। प्रयोग केवल चित्प्रकाशमात्र अन्तस्तत्व में स्थित होनेका पौरुष करना, क्योंकि इस विधिसे ही निर्वाण प्राप्त होता है ।। १५१ ।। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २८१ अथ ज्ञानं विधापयति--- परमट्ठम्हि दु अठिदो जो कुणदि तवं वदं च धारेई । तं सव्वं वालतवं वालवदं विति सव्वण्हू ॥ १५२ ॥ परमार्थ में न ठहरा, जो कोई तप करे व ब्रत धारे । सर्वज्ञ देव कहते, बालतपहि बालबत उसको ॥ १५२ ॥ परमार्थे स्वस्थितः यः करोति तपो व्रतं च धारयति । तत्सर्व वालतपो बालबतं वदन्ति सर्वज्ञाः ।। १५२ ।। ज्ञानमेव मोक्षस्य कारणं विहितं परमार्थंभूतज्ञानशून्यस्याज्ञानकृतयो ततपःकर्मणोः । प्राकृतशब्द-परमट्ठ, दु, अठिद, ज, त५, ३६, त, सक्ष, पालतद, पालमप, सः । गतधातुट्ठा गतिनिवृत्ती, कुण करणे । प्रकृतिशब्द -- परमार्थ, तु, अस्थित, यत्, तपस्', बत, च, तत्, सर्व, वालतरस्, वालवत, सर्वज्ञ । मूलधातु-ऋ गतिप्रापणयोः, ष्ठा गतिनिवृत्तो, डुकृत्र करणे, तप संतापे ऐश्वर्य स्वादि दिवादि, वद व्यक्तायां वाचि स्वादि, ज्ञा अवबोधने क्रयादि। पदविवरण --परमार्थ-सप्तमी एक० । तु अब उस ज्ञानको विधि बतलाते हैं--[परमार्थे तु] ज्ञानस्वरूप प्रात्मा [अस्थितः] अस्थित [यः] जो [तपः करोति] तप करता है [च] और [वतं धारयति] प्रतको धारण करता है [तत्सर्व] उस सब तप प्रतको [सर्वमाः] सर्वज्ञदेव [बालतपः] अज्ञान तप [बालबतं] और प्रज्ञान व्रत [विदंति कहते हैं। टोकार्थ-ज्ञान ही मोक्षका कारण कहा गया है, क्योंकि परमार्थभूत ज्ञानसे शून्य अज्ञानसे किये तप और बतरूप कर्म ये दोनों बंधके कारण हैं, इसलिये बालतप व बालव्रत उन दोनोंका बाल ऐसा नाम कहकर प्रतिषेध किये जानेपर पूर्वकथित ज्ञानके ही मोक्षका कारपना बनता है। भावार्थ-प्रज्ञानमें किये तप व्रत बंधके ही कारण हैं अतः ज्ञानको हो मोक्ष कारणपना बनता है। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि भान ही मोक्षहेतु है। अब इसी ज्ञानकी महिमाको प्रशानदौमत्य बताकर इस माथामें वरिणत किया है। तथ्यप्रकाश-(१) शाम ही मोक्षका कारण है, क्योंकि वह स्वभावतः परविविक्त है। (२) ज्ञानशून्य पुरुषके प्रशानकृत व्रत तप नादि कर्मबन्धके ही कारणभूत हैं । (३) अज्ञानकृत तप प्रत वालतप व वालवत कहलाते हैं । (४) अज्ञानकृत बत तप कर्म मोक्षमार्गमें प्रतिषिद्ध हैं। सिद्धान्त---(१) प्रशानभावसे किये हुए अत तप आदि कर्म कर्मबंधके निमित्तभूत हैं । (२) ज्ञानभावमें प्रज्ञान न होनेसे ज्ञान ही मोक्षहेतु है । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ समयसार बधहेतुत्वाबालव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति तस्यैव मोक्षहेतुत्वात् ॥ १५२ ॥ । अअव्ययस्थितः, यः-प्र० ए० । करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । तपः-द्वितीया एक० । बत-द्वि० ए० । धारयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एका० । तत् सर्व, बालतपः, वालवतं-द्वि० ए० । वदंतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । सर्वज्ञाः-प्रथमा बहुवचन ।। १५२ ॥ दृष्टि--१-- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (५३) । २-- शुद्धनिश्चयनय (४६) । प्रयोग-परमार्थमें न ठहर सकने वाले जीवकी क्रियायें सब दुर्गतिके हेतुभून जानकर परमार्थ सहज ज्ञानस्वरूप में उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।। १५२ ॥ ___ अब ज्ञान और अज्ञान दोनोंको क्रमशः मोक्ष और बंधका हेतु निश्चित करते हैं.... वितनियमाद] व्रत और नियमोंको [धारयंतः] धारण करते हुए [तथा तथा [शीलानि च तपः कुर्वतः] शील और तपको करते हुए भी [ये] जो [परमार्थवाह्याः] परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप प्रात्मासे बाह्य हैं [ते] वे [निर्वाणं] मोक्षको [न] नहीं [विति] पाते । तात्पर्य सहज ज्ञानस्वभावमय अन्तस्तत्त्वसे अपरिचित जन कैसा भी ब्रत नियम तप धारण करें तो भी बे मोक्षको नहीं पाते हैं । टीकार्थ----ज्ञान ही मोक्षका हेतु है, क्योंकि शानका प्रभाव होनेपर स्वयं अज्ञानरूप हुए अज्ञानियोंके अन्तरङ्गमें व्रत, नियम, शील, तप आदि शुभकर्मका सद्भाव होनेपर भी मोक्ष का अभाव है। अज्ञान ही बंधका हेतु है, क्योंकि प्रज्ञानका प्रभाव होनेपर स्वयं ज्ञानरूप हुए ज्ञानियोंके बाह्य व्रत, नियम, शील, तप प्रादि शुभकर्मका असद्भाव होनेपर भी मोक्षका सद्भाव है । भावार्थ-ज्ञान होनेपर ज्ञानीके व्रत नियम शील तपोल्प शुभकर्म बाह्यमें विशेष न होने पर भी मोक्ष होता है । और अज्ञानोके बहुत अधिक बाह्म तप व्रत-नियमकी प्रवृत्ति हो तो भी उनको मोक्ष नहीं है। ... इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-यवेत इत्यादि । अर्थ-जो यह शानस्वरूप आत्मा ध्रुव और निश्चल ज्ञानस्वरूप प्रा शोभायमान होता है, तब ही यह मोक्षका कारण है, क्योंकि प्राप स्वयमेव मोक्षस्वरूप है और इसके सिवाय जो अन्य है वह बन्धका कारण है, क्योंकि वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है । इस कारण ज्ञानस्वरूप अपना होना ही अनुभूति है, इस प्रकार निश्चयसे बन्धमोक्षके हेतुका विधान किया है । भावार्थ-शानात्मक आत्मपदार्थका ज्ञानात्मकपनेसे प्रवर्तना ही मोक्षका हेतु है । प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें ज्ञानको मोक्षहेतुता व प्रज्ञानकी बंधहेतुताका संकेत दिया गया था। अब उसी तथ्यका एक हो इस गाथामें नियमरूप वर्णन किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानशून्य अज्ञानीजन लगनसे व्रतादि कर शुभभाव करें तो भी ज्ञान Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २८३ अथ ज्ञानाजाने मोक्षबंधहेतू नियमयति-- वदणियमाणि घरंता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता। परमवाहिरा जे णिबाणं ते ण विंदति ॥१५३॥ बत नियमोंको धरते, शील तथा तप अनेक करते भी। परमार्थ बाह्य जो हैं, वे नहि निर्धारणको पाते ॥१५३।। प्रतनियमान् धारयंतः सीलानि तथा तपश्च कुर्वन्तः । परमार्थबाह्या ये निर्वाण ते न विदंति ।। १५३ ।। जानमेव मोक्षहेतुस्तदभावे स्वयमज्ञान भूतानामज्ञानिनामन्तव॑तनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मसद्धावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बंधहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां वहि तनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात् । यदेतद् ज्ञानात्मा ध्रुवमचलमाभाति भवन, शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति । अतोऽन्यद्वंधस्य स्वयमपि यतो बंध इति तत्, ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिहि विहितं ।।१०।।1। १५३ ।। प्राकृतशय–वदणियम, सील तहा, तव, च, परमवाहिर, ज, णिब्वाण, त, ण । प्राकृतधातुधर धारणे, कुन्न करणे, विद ज्ञाने। प्रकतिशब्द-ब्रनियम, धारयत्, शील, तथा, तापस्, च, परमार्थबाह्य, यत्, निर्वाण, तत्, न । मूलधातु-नि यम परिवेषरणे चुरादि भ्वादि, शील समाधी, तप संतापे ऐश्वर्ये च, डुकृञ् करणे, विद्ल लाभे तुदादि । पदविवरण-अनियमान्-द्वितीया बहु । धारयंत:-प्रथमा बह० कृदन्त। शीलानि-द्वि० बहः । तथा-अव्यय । तप:-द्वितीया एक०। च-अव्यय। कर्वन्त:-प्रथमा बह। परमार्थबाह्याः, ये-प्रथमा बह० ! निर्वाण-दि० एकः। ते-प्रथमा बह । न-अव्यय । विन्दन्तिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन ॥१५३ ।। का अभाव होनेके कारण उनको मोक्ष नहीं होता । (२) अज्ञानरहित ज्ञानी जीवके बाह्य सुवि. दित हों, ऐसे व्रतादि शुभ क्रियाकांड नहीं तो भी ज्ञानभावके कारण उनको मोक्ष हो जाता है । सिद्धान्त-(१) क्रियाकाण्डमें शान नहीं । (२) ज्ञान में क्रियाकाण्ड नहीं । (३) अज्ञानमय दुर्भावोंको तत्काल रोकनेका बाह्य साधन शुभ क्रियाकाण्ड है । दृष्टि--१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। ३निमित्तदृष्टि (५३)। प्रयोग-~-जिस ज्ञानभायके अभावमें अनेक शुभ क्रियाकाण्ड भी मोक्षसाधन नहीं बनते उस ज्ञानभावमें अपने ज्ञानको उपयुक्त करनेका पौरुष करना ।। १५३ ।। अब फिर भी पुण्यकर्मके पक्षपातीके प्रतिबोधनके लिये कहते हैं-[ये] जो [परमार्थबाहाः] परमार्यसे बाह्य हैं [ते वे जीव [मोक्षहेतु] मोक्षका कारण ज्ञानस्वरूप प्रात्माको [प्रजानंतः] नहीं जानते हुए [संसारगमनहेतु अपि] संसारमें गमनका हेतुभूत होनेपर भी [पुण्यं] पुण्यको [मनानेन] अज्ञानसे [इच्छति] चाहते हैं । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ समयसार अथ पुनरपि पुण्यकर्मपक्षपातिनः प्रतिबोधनायोपक्षिपति परमवाहिरा जे ते अण्णाणेण पुण्णमिच्छंति । संसारगमणहेदु वि मोक्खहे अजाणता ॥१५४॥ परमार्थबाह्य जो हैं, वे नहिं मोक्षके हेतुको जाने । संसारभ्रमण कारण, पुण्यहि अज्ञानसे चाहे ॥१५४।। परमार्थबाह्या यै ते अज्ञानेन पुण्यमिच्छति । संसारगमनहेर्नु अपि मोक्षहेतुम जानतः ।। १५४ ।। इह खलु केचिनिखिलकर्मपक्षक्षयसंभावितात्मलाभं मोक्षमभिलषंतोऽपि तद्धेतुभूतं सम्य. ग्दर्शनज्ञान चारित्रस्वभावपरमार्थभूतशानभवनमात्रमैकाग्यलक्षणं समयसारभूत सामायिक प्रतिज्ञायमाना: प्रतिनिवृतस्यूसतमसंक्लेशपरिणामकर्मतया वर्तमानस्थूलतमविशुद्धपरिणामकारणः प्राकृतशब्द -परमट्ठवाहिर, ज, त, अण्णाण, पुष्ण, संसारगमणहेदु, वि, मोक्खहेतु । प्राकृतधातुजाण अवबोधने, मुंच त्यागे, इच्छ इच्छायां । प्रकृतिशम्व–परमार्थबाह्य, यत्, तत्, अज्ञान, पुण्य, संसारगमनहेतु, अपि, मोक्षहेतु, अपि, मोक्षहेतु, अजानत् । मूलधातु- ऋ गतौ जुहोत्यादि (अर्यते इति अर्थः) ज्ञा अवबोधने, पूत्र पवने क यादि, इषु इच्छायां तुदादि । पदविवरण-परमवाहिरा परमार्थबाह्या: तात्पर्य-प्रशानियोंको मोक्षहेतुभूत अन्सस्तत्वदृष्टि नहीं मिली, प्रतः पुण्यको ही मोक्षका कारण समझकर सेवते हैं । टोकार्थ-इस लोकमें कई एक जीव समस्त कर्मके पक्षका क्षय होनेसे सम्भावित निजस्वरूपके लाभरूप मोक्षको चाहते हुए भी और उस मोक्षके कारणभूत सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्रस्वभाव परमार्थभूत शानके होनेमात्र एकाग्रतालक्षण समयसारभूत सामायिक चारित्रकी प्रतिज्ञा लेकर भी दुरंत कर्मके समूहके पार होनेकी असामर्थ्यसे परमार्थभूत ज्ञानके होनेमात्र जो सामायिक चारित्रस्वरूप प्रात्माका स्वभाव उसको न पाते हुए प्रत्यन्त स्थूल संक्लेश परिणामस्वरूप कर्मसे तो निवृत्त हुए हैं और प्रत्यन्त स्थूल विशुद्ध परिणामस्वरूप कर्म के द्वारा प्रवृत्ति करते हैं, वे कर्मके पनुभवको गुरुता और लघुताकी प्राप्तिमावसे ही संतुष्ट चित्त वाले हुए स्थूल लक्ष्यतारूप स्थूल अनुभवगोचर संक्लेशरूप कर्मकांडको तो छोड़ते हैं, परन्तु समस्त कर्मकांडको मूलसे नहीं उखाड़ते । सो वे स्वयं अपने प्रशानसे केवल प्रशुभकर्म को बंधका कारण मान व्रत, नियम, शील, तप आदिक शुभकर्म बंधके कारणको बंधका कारण नहीं जानते हुए उसको मोक्षका कारण अङ्गीकार करते हैं। भावार्थ-कितने ही जीव प्रधिक संश्लेशपरिणामरूप कर्मको तो बंधका कारण जानकर छोड़ देते हैं और मोटो विशुद्धता परिणाम रूप कमसहित बर्तते हैं। वे बाहरी प्रवृत्तिको ही बंध-मोक्षका कारण जानते हैं तथा सकल फर्मोसे रहित प्रपने स्वरूपको मोक्षका कारण Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २८५ कर्मानुभवगुरुलाघवप्रतिपत्तिमात्रसंतुष्ट चेतसः स्थूल लक्ष्यतया सकलं कर्मकांडमनुन्मूलयंतः स्वयमज्ञानादशुभकर्म केवलं बंधहेतुमध्यास्य च व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मबंधहेतुमप्यजानंतो मोक्षहेतुमभ्युपगच्छति ॥ १५४ ।। प्रथमा बहु० । जे ये-प्रथमा बहु० १ ते ते-प्र० बहु० । अण्णाऐण अज्ञानेन-तृतीया एक० । पुष्णं पुण्यं-द्वि० एक० । इच्छति इच्छन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया। संसारगमणहेर्दू संसारगमनहेतु-द्वितीया एक० । वि अपि-अव्यय । मोक्खहे मोक्षहेतु-द्वितीया एकवचन । अजाणता [अजानन्त:-प्रथमा बहुवचन कृदन्त ।। १५४ ।। नहीं जानते । वे अशुभकर्मको छोड़ अज्ञानसे व्रत, नियम, शीलतपरूप शुभकर्मको ही मोक्षका कारण मान शुभकर्मको ही अङ्गाकार करते हैं । प्रसंगविवरण-प्रवन्तरपूर्व गाथामें यह नियम बता दिया गया था कि ज्ञान मोक्षका हेतु है और अज्ञान बंधका हेतु है । पिर भी पुण्यकार्गो पक्षपाती :ोगोंको हमभाने के लिये इस गाथामें बताया गया है कि अज्ञानी जन पुण्यकर्मको मोक्षका हेतु मानकर मोक्षके लिये पुण्यकर्मको ही चाहते रहते हैं । तथ्यप्रकाश-(१) समस्त कर्मपक्षका क्षय होनेसे जिसमें निजस्वरूपका लाभ होता है वह मोक्ष है । (२) मोक्षका कारण समयसारभूत परमसमरसभावमय सामायिक है । (३) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रस्वभाव परमार्थभूत ज्ञानका सतत होना परमरसभाव है । (४) अज्ञानी जन मोक्षकी चाह करते हुए भी, सामायिकको प्रतिज्ञा करके भी कर्मपक्षका अतिक्रमण न कर पानेसे परमार्थ ज्ञानानुभवमात्र प्रात्मस्वभावरूप सामायिकको प्राप्त नहीं कर पाते । (५) प्रशानी जन मोटे-मोटे संक्लेश परिणाम निवृत्त होनेसे व साधारण विशुद्ध परिणाम होनेसे ही मैंने धर्म कर लिया ऐसा भाव करके संतुष्ट हो जाते हैं। (६) अज्ञानी जन प्रशुभकर्मको तो बंधका कारण समझकर व्रत नियमादि शुभकर्मोको बन्धका कारण न जानकर शुभकर्मोंका ही मोक्षका कारण मानते हैं । (७) अज्ञानी जन "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र. मय अभेद रत्नत्रय मोक्षका कारण है' यह नहीं मान पाते हैं। (८) परमार्थज्ञानस्वभावसे विमुख जीव मज्ञानसे पुण्यको मोक्षहेतु मानकर पुण्यकर्मको ही चाहते हैं। सिद्धांत-(१) समस्त कर्मपक्षके क्षयसे उत्पष्ठ शुद्धात्मभावना कर्मनिर्जराका कारण है । (२) कर्मपक्षको भावना कर्मबन्धका कारण है। दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४व)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। प्रयोग---ज्ञानस्वभावस्थितिरूप धर्मपालनके उद्देश्यसे पापकर्माक्रमणसे बचनेके लिये Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ समयसार अथ परमार्थमोक्षहेतु तेषां दर्शयति जीवादीसदहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । रायादीपरिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो ॥१५५।। जोवादिक तस्योंका, प्रत्यय सम्यक्त्व बोध संज्ञान । रागादि त्याग चारित, यही त्रितय मोक्षका पथ है ॥१५॥ जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं तेषामधिगमो ज्ञानं । रागादिपरिहरणं चरणं एष तु मोक्षपथः ।। १५५ ॥ मोक्षहेतुः किल सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि । तत्र सम्यग्दर्शनं तु जीवादिश्रद्धानस्वभा. वेन ज्ञानस्य भवनं । जोवादिज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं ज्ञानं । रागादिपरिहरणस्वभावेन ___प्राकतशब्द . जीवादीसदहण, सम्मत्त, त, अधिगम, णाण रायादीपरिहरण, चरण, एत, दु, मोखपह । प्राकृतधातु-परि-हर हरणे, सम्-अंच-पूजासंकोचनसंचयेषु, चर गती। प्रकृतिशब्द-जीवादिथद्वान, सम्यक्त्व, तत्, अधिगम, ज्ञान, रागादिपरिहरण, चरण, एतत्, तु, मोक्षपथ । मूलधातु--श्रदशुभकर्मप्रवर्तन करनेपर भी शुभकर्मको अनात्मस्वभाव जानकर उससे उपेक्षा कर शुभाशुभकर्म से हटकर अपने अन्त:प्रकाशमान ज्ञानस्वरूपमें रत होकर सहज संतुष्ट होनेका पौरुष करना ॥ १५४ ।। ___ अब उन जीवोंको परमार्थस्वरूप मोक्षका कारण दिखलाते हैं--[जीवादिश्रद्धानं] जीवादिक पदार्थोंका श्रद्धान तो [सम्यक्त्वं] सम्यक्त्व है और तेषां उन जीवादि पदार्थोंका [अधिगमः] अधिगम [ज्ञानं ज्ञान है तथा [रागादिपरिहरण] रागादिकका त्याग [चरणं] चारित्र है [एष तु] सो यही [मोक्षपथः] मोक्षका मार्ग है। तात्पर्य-निश्चयतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको एकता हो मोक्षमार्ग है । टीकार्थ---मोक्षका कारण निश्चयसे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। उनमें जीवादि. पदार्थोंके यथार्थ श्रद्धान स्वभावसे ज्ञानका होना तो सम्यग्दर्शन है; जीवादिपदार्थोंके ज्ञानस्व. भावसे ज्ञानका होना सम्यग्ज्ञान है; तथा रामादिके त्याग स्वभावसे शानका होना सम्यकचारित्र है। इस कारण ज्ञान ही परमार्थरूपसे मोक्षका कारण है। भावार्थ-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ज्ञानके ही परिणमन हैं। प्रतः ज्ञान को हो मोक्षका कारण कहा है । ज्ञान अभेदविवक्षासे प्रात्मा ही है। . प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व , गाथामें बताया गया था कि पुण्यकर्मके पक्षपाती जन पुण्यकर्मको ही मोक्षहेतु समझकर पुण्यको ही चाहते हैं। इस विवरण पर यह जिज्ञासा हुई कि फिर मोक्षका हेतु क्या है ? इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया है। तथ्यप्रकाश-१- ज्ञान ही परमार्थभूत मोक्षका कारण है । २- मोक्षका कारण जो Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २८७ ज्ञानस्य भवनं चारित्रं । तदेवं सम्यग्दर्शनशानचारित्राण्येकमेव ज्ञानस्य भवनमायातम् । ततो ज्ञान मेव परमार्थमोक्षहेतुः ।।१५५।। डुधात् धारणपोषणयोः जुहोत्यादि, सम्-अंचु विशेषणे चुरादि, अधि-गम्ल गतौ, ज्ञा अवबोधने, रन्ज रागे' गरि-हज हरणे, चर गत्यर्थ: भ्वादि, पथे गतौ भ्वादि, पथि-गती चुरादि । पदविवरण-जीवादीसद्दणं जीवादिश्रद्धानं-प्रथमा एकवचन | सम्मत्तं सम्यक्त्वं-प्र० ए०। तेसि तेषा-षष्ठी बहु । अधिगमो अधिगमः-प्रथमा एक० । णाणं ज्ञानं-प्र० ए० रायादीपरिहरणं रागादिपरिहरण-प्र० ए० | चरणं चरण-प्र. एक० । एसो एष:-प्र० ए० । दुतु-अव्यय । मोक्खपहो मोक्षपथ:-प्रथमा एकवचन ॥१५५॥ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्म चारित्र बताया गया है वह ज्ञानका हो उस प्रकारसे होना है। ३-किन्हीं भी लक्षणोंसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रका लक्षण किया जावे वह सब ज्ञानका उस प्रकारसे होना विदित होगा । ४-जीवादिक तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान होना सम्यग्दर्शन है । ५- भूतार्थ से जाने गये जीव, प्रजीव, पुण्य, पाप; यास्रव, संवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष सम्यमत्व है याने सम्यक्त्व के कारण हैं । ६- भूतार्थाभिगत पदार्थोंका शुद्धात्मासे भिन्न रूपमें सम्यक् अवलोकन होना सम्यग्दर्शन है। - ज्ञानका जीवादिश्रद्धान स्वभावसे होना सम्यग्दर्शन है । ८- जीवादिक पदार्थोका संशय, विपर्यय अनध्यवसायसे रहित यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है । -जीवादिक नाना पदार्थोका शुद्धात्मतत्त्वसे भिन्न रूपमें निश्चय होना सम्यग्ज्ञान है। १०-जीवादिज्ञानस्वभावसे ज्ञानका परिणमना सम्यग्ज्ञान है। ११--जीवादिपदार्थविषयक रागादिका परिहार होना सम्यक्चारित्र है । १२- जीवादिक नाना पदार्थोको शुद्धा. स्मासे भिन्नरूपमें निश्चय करके रागादिविकल्परहितरूप रूपसे निजशुद्धात्मामें अवस्थान होन: सम्यक्चारित्र है । १३-रागादिपरिहरणस्वभावसे ज्ञानका होना सम्यक्चारित्र है। सिद्धान्त-१- जीवादिक पदार्थोंका श्रद्धान सम्यग्दर्शन है यह उपधार कथन है । २- जीवादिश्रद्धान स्वभावसे ज्ञानका (ज्ञानमय प्रात्माका) परिणमना सम्यग्दर्शन है यह निश्चयकथन है । ३-- जीवादिक पदार्थोका ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है, यह उपचार कथन है । ४-- जानका जीवादि ज्ञानस्वभावसे परिणमना सम्यग्ज्ञान है यह निश्चयकथन है । ५-- बाह्यपदार्थोका रा छोड़ना, षटकायके जीवोंकी रक्षा करना प्रादि उपचार कथन है । ६. रागादिपरिहरणस्वभावसे ज्ञानका परिणमना सभ्याचारित्र है, यह निश्चयकथन है ।। दृष्टि-१--अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५५) । २..शुद्धनिश्चयनय (४६) । ३-- अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५७)। ४- शुद्धनिश्चयनय (४६), ५.-अपरिपूर्ण उपचरित स्वभावव्यवहार (१०५५) । ६--शुद्धनिश्चयनय (४६) । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ समयसार · अथ परमार्थमोक्षहेतोरन्यत् कर्म प्रतिषेधयति-- मोत्तण णिच्छयट्टुं ववहारे ण विदुसा पक्ठंति । परमठमस्सिदाण दु जदीण कम्मक्खनो विहियो ॥१५६॥ परमार्थ छोड़ करके, ज्ञानी व्यवहारमें नहीं लगते। क्योंकि परमार्थदशी, मुनिके क्षय कर्मका होता ॥१५६॥ भुक्त्वा निश्चयार्थ व्यवहारे न विद्वांसः प्रवर्तते । परमार्थमाश्रितानां तु यतीना कर्मक्षयो विहितः ।।१५६।। यः खलु परमार्थमोक्षहेतोरतिरिक्तो व्रततपःप्रभृतिशुभकर्मात्मा केषांचिन्मोक्षहेतुः स ! सर्वोऽपि प्रतिषिद्धस्तस्य द्रशान्तरमनभावस्माता निशानभवनस्याभवनात् । परमार्थमोक्ष । प्राकृतशब्द-णिच्छट्ट. वबहार, विदुस, परमट्ट, अस्सिद, दु, जदि, कम्मक्खय. विहिल। प्राकृतधातु-मुंध त्यागे, प-वत्त वर्तने। प्रकृतिशब्द -निश्चयार्थ, ब्यवहार, न, वितस्, परमार्थ, आश्रित, तु, पनि, कर्मक्षय, विहित । मूलधातु---मुच्ल मोक्षणे तुदादि, विद ज्ञाने, प्र-वृतु वर्तने भ्वादि, श्रिञ् सेवायां प्रयोग - सर्वत्र ज्ञानभावको ही मोक्षहेतु जानकर विशुद्ध ज्ञानात्मक स्वमें ही रत हो । कर अपने को सकलसंकट रहित करनेका पौरुष करना ॥१५५|| अब परमार्थरूप मोक्षके कारणसे भिन्न कर्मका निषेध करते हैं-[विद्वांसः] पंडित अल [निश्चयार्थ] निश्चयनयके विषयको [मुक्त्वा] छोड़कर [व्यवहारे व्यवहारमें [न प्रवसंन्ले] प्रवृत्ति नहीं करते हैं [तु] क्योंकि [परमार्थ परमार्थभूत-प्रास्मस्वरूपका [आश्रितानां] प्राश्रय करने वाले [यतीनां] यतीश्वरोंके ही [कर्मक्षयः] कर्मका नाश [विहितः] कहा गया है। तात्पर्य-व्यवहार क्रियामें ही प्रवृत्ति रखनेसे मोक्ष नहीं होता, किन्तु परमार्थ सहज ज्ञानमय अन्तस्तत्वके आश्रयसे ही मोक्ष होता है, तप ब्रत प्रादि तो अशुभसे बचाकर शुद्धताके लिये अवसर देने वाले है। टीकार्थ---परमार्थभूत मोक्षके कारणसे रहित और ब्रत तप प्रादिक शुभकर्मस्वरूप ही किन्हीके मतमें मोक्षका हेत है सो वह सभी निषिद्ध किया गया है, क्योंकि व्रत तप आदि प्रत्यद्रष्यस्वभाव है, उस स्वभावसे ज्ञानका परिणमन नहीं होता तथा परमार्थभूत मोक्षका कारण एक द्रव्यस्वभावरूप होनेके कारण स्वभावसे ही ज्ञानका परिणमन होता है । भावार्थमोक्ष प्रात्माको होता है सो उसका कारण भी आत्माका स्वभाव ही होना चाहिए । जो अन्य द्रव्यका स्वभाव है उससे प्रात्माको मोक्ष कैसे होगा ? इसलिए शुभ कर्म पुद्गलद्रव्यका स्वभाव है वह प्रात्माके मोक्षका कारण नहीं है । ज्ञान प्रात्माका स्वभाव है, वही प्रात्माके परमार्थभुत मोक्षका कारण है। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपावाधिकार २८६ हेतोरेवैकद्रव्यस्वभावत्वात् तत्स्वभावेन ज्ञानभवनस्य भवनात् । वृत्तं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुस्तदेव तत् ॥ १०६ ॥ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्ष हेतुर्न कर्म तत् ॥ १०७॥ मोक्षहेतुतिरोधानाद्बंधत्वात्स्वयमेव च । मोक्ष हेतु तिरोधायिभावत्वात्तनिषिध्यते ॥ १०६ ॥ ॥१५६॥ वाद, क्षिक्ष स्वाति वि-हि गतौ वृद्धौ च भ्वादि । पविवरण- मोत्तॄण मुक्त्वा असमाप्तिकी क्रिया । पिच्छय निश्चयार्थ - द्वितीया एक० । बवहारे व्यवहारे - सप्तमी एक० 1 ण न-अव्यय । विदुसा विद्वांस:प्रथमा बहु० 1 पचति प्रवर्तन्ते वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । परमट्ठ परमार्थ - द्वि० एक० । अस्सिदाण आश्रितानां षष्ठी बहु० । दु तु-अव्यय । जदीण यतीनां षष्ठी बहु० । कम्मक्लओ कर्मक्षयः - प्रथमा ए० । विड़िओ विहितः - प्रथमा एकवचन कृदन्त ।। १५६ ।। 1 अब इसी अर्थ कलश रूप दो श्लोक कहते हैं - वृत्तं इत्यादि । श्रर्थ - ज्ञानस्वभाव से बर्तना ही ज्ञानका होना है और वही मोक्षका कारण हैं क्योंकि ज्ञान ही एक आत्मद्रव्यस्वभाव है । वृत्तं इत्यादि - - कर्मस्वभाव से बर्तना ज्ञानका होना नहीं है, वह (कर्मका बर्तना) मोक्षका कारण नहीं है क्योंकि कर्म अन्यद्रव्यस्वभाव है । भावार्थ - मोक्ष आत्माको होता है इसलिए श्रात्माका स्वभाव हो मोक्षका कारण हो सकता है और चूंकि ज्ञान आत्माका स्वभाव है, अतः वही मोक्षका कारण है । तथा कर्म अन्य ( पुद्गल ) द्रव्यका स्वभाव है इस लिए वह श्रात्मा के मोक्षका कारण नहीं होता, यह युक्ति श्रागम और अनुभवसे सिद्ध है । मोक्षहेतु इत्यादि -- चूंकि कर्मसे मोक्षहेतुका तिरोधान होता है, कर्म स्वयं बंधस्वरूप है, तथा कर्म मोक्षके कारणोंका प्राच्छादक है, अतः इन तीन हेतुधोसे मोक्षमार्ग में कर्मका निषेध किया गया है । प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में परमार्थमोक्षहेतु बताया गया था । अब परमार्थ मोक्ष हेतु के अतिरिक्त जो भी कर्म है उसका निषेध इस गाथा में किया गया है । तथ्य प्रकाश- १ - ज्ञानका ज्ञानरूप रहना ही मोक्षका हेतु है । २- परमार्थ मोक्ष हेतुके सिवाय जितने भी व्रत तप आदि कर्म हैं वे अन्य द्रव्यका स्वभाव होनेसे मोक्ष हेतु नहीं हैं, क्यों कि कर्मक्रिया के स्वभावसे ज्ञानका होना नहीं होता । ३- निश्चय रत्नत्रयात्मक ज्ञानभाव एक निज आत्मद्रव्यका स्वभाव होनेसे मोक्ष हेतु है, क्योंकि आत्मस्वभावसे ज्ञानका होना होता है । सिद्धान्त - १ - परमार्थका श्राश्रण करने वाले यतियोंको मोक्ष होता है । २ - शुद्धोयोगसे पूर्व होने वाले भोपयोग के श्राश्रयभूतके प्रति योग उपयोग करना उपचारसे धर्म है । दृष्टि - १ - उपदानदृष्टि (४६) । २ - प्रतिसामीप्ये तत्त्वोपचारक व्यवहार (१४७ ) | प्रयोग - व्यवहारधमं प्रवर्तन से अशुभोपयोगका निवारण कर परमार्थबोधन अभ्यास Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० समयसार अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधानाकरणं साधयति-- वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो। मिच्छत्तमलोच्छणं तह सम्मत्तं खु गायब्बं ॥१५७॥ वत्थम्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो। अण्णाणमलोच्छण्ण तह णाणं होदि णायव्वं ॥१५८॥ वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलमेलणासत्तो । कसायमलोच्छण्णं तह चारित्तं पि णादब्वं ॥१५६॥ (निकलम) ज्यौं वस्त्र श्वेतरूपक, मलमेलन लिप्त होय ढक जाता। त्यों यह सम्यक्त्व यहां, मिथ्यात्वमलसे ढक जाता ॥१५७॥ ज्यों वस्त्र श्वेतरूपक, मलमेलनलिप्त होय ढक जाता । त्यों जानो ज्ञान यहां, अज्ञानमलसे ढक जाता ॥१५८॥ ज्यों बस्त्र श्वेतरूपक, मलमेलनलिन होय ढक जाता। त्यों आनी चारित यह, कषायमलसे हि ढक जाता ॥१५॥ वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः । मिथ्यात्वमलाबच्छन्नं तथा सायक्वं खलु ज्ञातव्यं । वस्त्रस्य श्वेतगादी बधा नश्यति भलमेलनासक्तः । अज्ञानमलावच्छन्नं तथा ज्ञानं भवति ज्ञातव्यं । वस्त्रस्य श्वेतभावो यथा नश्यति मलमेलनासक्तः । कषायमलावच्छन्नं तथा चारित्रमपि ज्ञातव्यं । ज्ञानस्य सम्यक्त्वं मोक्षहेतुः स्वभावः, परभावेन मिथ्यात्वनाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात् । तिरोधीयते परभावभूतमलावच्छन्नश्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । ज्ञानस्य ज्ञानं मोक्षहेतुः प्राकृतशम्द-वत्थ, से दभाव, जह, मलमेलणासत्त, मिच्छत्तमलोच्छण्ण, तह, सम्मत्त, स्तु, वत्थ, सेदभाव, जह, मलमेलणासत्त, अण्णाणमलोच्छण्ण, तह, णाण, णायव्व, वत्थ, सेदभाव, जह, मलमेलणासत्त, कसायमलोच्छपण, तह, चारित्त, वि, णादव्य । प्राकृतधातु-नरस नाशे, च्छाद संवरणे, जाण अवबोधने, हो सत्तायां, नस्स नाशे, कस तनूकरणे। प्रकृलिशब्द-वस्त्र, श्वेतभाव, यथा, मलमेलनासक्त, मिथ्यात्वमलायच्छन्न, तथा, सम्यक्त्व, खलु, ज्ञातव्य, वस्त्र, श्वेतभाव, यथा, मलमेलनासक्त, अज्ञानमलावस्छन्न, तथा, ज्ञान, ज्ञातव्य, वस्त्र, श्वेतभाव, यथा, मलमेलनासक्त, कषायमलावच्छन्न, चारित्र, अपि, ज्ञातव्य । करके व्यवहारप्रवर्तनको छोड़कर परमार्थ ज्ञानस्वभावका प्राश्रय करनेका पौरुष करना ।।१५।। अब मोक्षके कारणभूत दर्शन, ज्ञान और चारित्रका आच्छादक कर्म है यह बताते हैं- [यया] जैसे [वस्त्रस्य] वस्त्रका [श्वेतभावः] श्वेतपना [भलमेलनासक्तः] मलके मिलनेसे लिप्त होता हुमा [नश्यति नष्ट हो जाता है [तथा] उसी भांति [मिथ्यात्वमलावछन] मिथ्यात्वमलसे व्याप्त हुआ [सम्यक्त्वं] आत्माका सम्यक्त्वगुण [खलु] निश्चयसे Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार २९१ स्वभावः परभावेनाज्ञाननाम्ना कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते परभावभूतमलाबच्छन्न श्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् । ज्ञानस्य चारित्रं सोक्षहेतुः स्वभावः परभावेन कषायनाम्ना मूलधातु-णस नाशे दिवादि, द अपवारणे, मिल लें मिल संगमे तुदादि, मल धार स्वादि, कष हिंसार्थः । पचविवरण – वत्थस्स वस्त्रस्य पष्ठी एक० । सदभावो श्वेतभावः प्रथमा एकवचन । जह यथाअव्यय । णासेदि नश्यति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । मलमेलणासत्तो मलमेलनासक्तः - प्र० ए० । मिच्छत्तमलोच्छण्णं मिध्यात्वमलाबच्छन्नं - प्र० ए० । तह तथा अव्यय सम्मतं सम्यक्त्वं प्र० एक० । खु खलु - अव्यय । णायव्वं ज्ञातव्यं प्र० एक० कृदन्त । वत्थस्स वस्त्रस्य षष्ठी एक० | सेदभावो श्वेतभाव:प्र० ए० । जह यथा - अव्यय । पासेदि नश्यति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । मलमेलणाससो मल-मेलनासक्तः - प्रथमा एकवचन कृष्ण शा० तह तथा अव्यय । गाणं [ ज्ञातव्यं ] श्राच्छादित हो रहा है ऐसा जानना चाहिए। [ थथा ] जैसे [ वस्त्रस्य श्वेतभावः ] वस्त्रका श्वेतपना [ मलमेलनासक्तः ] मलके मेलसे लिप्त होता हुआ [ नश्यति ] नष्ट हो जाता है [ तथा ] उसी प्रकार [ प्रज्ञान मलावच्छन्नं ] प्रज्ञानमलसे व्याप्त हुआ [ज्ञानं] ग्रात्माका ज्ञान भाव [भर्थात ज्ञातव्यं ] श्राच्छादित होता है ऐसा जानना चाहिये तथा [ यथा ] जैसे [ वस्त्रस्य श्वेतभावः ] कपड़ेका श्वेतपना [ मलमेलनासक्तः ] मलके मिलने से व्याप्त होता हुआ [ नश्यति ] नष्ट हो जाता है [ तथा] उसी तरह [ कषायमलाबच्छन्नं] कषायमल से व्याप्त हुआ [ चारित्रं अपि ] प्रात्माका चारित्र भाव भी प्राध्यादित हो जाता है ऐसा [ ज्ञातव्यं ] जानना चाहिये । तात्पर्य - कर्मद्वारा रत्नत्रय तिरोहित होता है अतः कर्मका प्रतिषेध करना बताया है । टीकार्थ - ज्ञानका सम्यक्त्व मोक्षका कारणरूप स्वभाव है, किंतु वह परभावस्वरूप मिथ्यात्व कर्ममैलसे व्याप्त होनेके कारण तिरोभूत हो जाता है जैसे कि परभावभूत मैलसे व्यास सफेद वस्त्रका स्वभावभूत श्वेत स्वभाव तिरोभूत हो जाता है । ज्ञानका ज्ञान मोक्षका काररणरूप स्वभाव है, वह परभावरूप प्रज्ञान नामक कर्मरूपी मलसे व्याप्त होनेसे तिरोहित किया जाता है, जैसे परभावरूप मैल (रंग) से व्याप्त हुआ श्वेत वस्त्रका स्वभावभूत सफेदपन तिरोहित किया जाता है। ज्ञानका चारित्र भी मोक्षका कारणरूप स्वभाव है, वह परभावस्वरूप कषायनामक कर्मरूपी मैलसे व्याप्त होनेसे तिरोहित किया जाता है, जैसे परभावस्वरूप मैल (रंग) से व्याप्त हुन सफेद कपड़ेका स्वभावभूत सफेदपन तिरोहित किया जाता है। इस कारण मोक्षके कारणरूप सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रका तिरोधान करनेसे कर्मका निषेध किया गया है । भावार्थ - सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप ज्ञानके परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गके प्रतिबंधक मिध्यात्व अज्ञान कषायरूपी कर्म हैं । इसलिये कर्मका निषेध श्रागममें बताया गया है । प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्वं गाथा में परमार्थमोक्ष हेतु के प्रतिरिक्त अन्य कर्मके मोक्ष Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कर्ममलेनावच्छन्नत्वात्तिरोधीयते परभावभूतमलावच्छन्न श्वेतवस्त्रस्वभावभूतश्वेतस्वभाववत् ।। अतो मोक्षहेतुतिरोधानकरणात् कम प्रतिषिद्ध ।। १५७-१५६ ।। ज्ञान-प्र० ए० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। णायव्यं ज्ञातव्यं-प्रथमा एकत्रचन कृदन्त । वस्थस्स वस्त्रस्य-षष्ठी एक० । सेदभावो श्वेतभाव:-प्रथमा एकः | जह यथा-अव्यय । णासेदि नश्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । मलमेलणासत्तो मलमेलनासक्तः-प्रथमा एक० । कसायमलोच्छण कषायमलावच्छन्न:-प्रथमा एक । तह तथा-अध्यय। चारितं चारित्र-प्रथमा एक० । पि अपिअव्यय । णादब्वं ज्ञातव्यं-प्रथमा एकवचन कृदन्त ।। १५७.१५६।। हेतुत्वका प्रतिषेध किया था। अब प्रतिषेध्य उन्हीं कर्मोको मोक्ष हेतुतिरोधायिता इस गाथामें प्रसिद्ध की है। तथ्यप्रकाश-१-समस्त कर्म रत्नत्रयस्वरूप मोक्ष हेतुका तिरोधान करते हैं, अतः कर्म प्रतिषेध्य हैं । २. ज्ञानका सम्यक्त्व स्वभाव (सम्यकपना) मोक्ष का हेतु है वह मिथ्यात्व कर्ममल परभावसे तिरोहित है। ३--ज्ञानका ज्ञानस्वभाव मोक्षका हेतु है वह प्रज्ञान (ज्ञानावरण) नामक कर्ममल परभावसे तिरोहित है। ४. ज्ञानका चारित्रस्वभाव मोक्षका हेतु है वह कषाय कर्ममल परभावसे तिरोहित है । ५- ये पौद्गलिक कर्म निमित्तरूपसे मोक्ष हेतुके बाधक हैं मोर इन कर्मों के निमित्तभूत व नैमित्तिकभूत शूभाशुभ कर्म निजमें मोक्ष हेतुके बाधक हैं । ६--शुद्धोपयोगसे पूर्व होने वाले शुभोपयोगके साधनभूत कर्म मोक्षहेतुके परम्परया साधक हैं, साक्षात् बाधक हैं। __सिद्धान्त—(१) पौद्गलिक कर्मविपाक मोक्षहेतुका निमित्तरूपसे बाधक है । (२) शुभाशुभभाव मोक्षहेतुका उपादानतया बाधक है। दृष्टि-१- निमित्तदृष्टि (५३)। २- उपादानदृष्टि (४६ ब) । प्रयोग---पुण्यपापकर्मको व पुण्यपापभावको अलक्षित करके अन्तःप्रकाशमान परमार्थमोक्षहेतुभूत ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ॥ १५७-१५६ ॥ अब कर्म स्वयमेव बंध है, यह सिद्ध करते हैं;-[सः] यह प्रात्मा स्वभावतः [सर्वज्ञानदर्शी] सबका जानने देखने वाला है तो भी [निजेन कर्मरजसा] अपने कर्मरूपो रजसे [अयच्छन्नः] आच्छादित हुमा [संसारसमापन्नः] संसारको प्राप्त होता हुआ [सर्वतः] सब प्रकार से [स] सब बस्तुको [न विजानाति] नहीं जानता। तात्पर्य-ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव होनेपर भी संसारस्थ प्राणी कर्माच्छादित होनेसे सर्वज्ञाता हों हो पाता। टीकार्थ-जिस कारण स्वयमेव ज्ञानरूप होनेसे सब पदार्थोको सामान्य विशेषतासे Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६३ - । पुण्यपापाधिकार अथ कर्मणः स्वयं बंधत्वं साधयति सो सब्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणवच्छण्णो । संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ॥२६०॥ यह सर्वज्ञानदर्शी तो मि निज कमरजसे पाच्छादित । __संसारमें भटक कर, यह सबको जान नहिं सकता ॥१६०॥ स सर्व ज्ञानदर्शी कमरजसा निजेनाबच्छन्नः । संसारसमापन्नी न विजानाति सर्वतः सर्वम् ।। १६० ।। यतः स्वयमेव ज्ञानतया विश्वसामान्य विशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधप्रव नामसंज्ञ-त, सम्वणाणदरिसि, कम्मरय, णिय, अवच्छण्ण, संसारसमावग्ण, ण, सव्वदो, सब्ब । धातुसंझ-दरिस दर्शनाया, अब-छण हिसायां, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-तत्, सर्वज्ञानदर्शिन्, कर्मरजस्, निज, अवच्छन्न, संसारसमापन्न, न, सर्वतः, सई । मूलधातु--इशिर प्रेक्षणे, छद अपबारणे संघरो भ्वादि चुरादि, वि-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण--सो सः-प्रथमा ए० । सव्वणाणदरिसी सर्वज्ञानदर्शी कम्मजाननेके स्वभाव वाला होनेपर भी ज्ञान प्रनादिकालसे अपने पुरुषापराधसे प्रवर्तमान कर्मरूप मलसे आच्छादितपना होनेके कारण परभाव बन्धरूप बंधावस्थामें सब प्रकारके सब ज्ञेयाकाररूप अपने स्वरूपको नहीं जानता हुमा अज्ञानभावसे ही यह प्राप स्थित है । इस कारण निश्चय हुआ कि कर्म स्वयं ही बंधस्वरूप है। इसीलिये स्वयं बंधरूप होनेसे कर्मका प्रतिषेध किया गया है । भावार्थ-यहाँ ज्ञान शब्दसे यात्माका ही ग्रहण किया गया है । सो यह ज्ञान. स्वभावसे तो सबको देखने और जानने वाला है, परन्तु अनादिसे आप अपराधी है, इसलिये बाँधे हुए कर्मोस पाच्छादित है। अत: अपने सम्पूर्ण रूपको नहीं जानता हुआ, प्रज्ञानरूप हुप्रा आप स्थित है, सो पाप तो अपने अज्ञानभावरूप परिणमन करता है और तब कर्म स्वयमेव बन्धरूप हो जाते हैं, इसीलिए कर्मका प्रतिषेध करना बताया है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाधात्रिकमें यह बताया गया था कि शुभकर्म मोक्षहेतुका तिरोधान करते हैं । अब इस गाथामें बताया है कि कर्म स्वयं जीवको बन्धन है। तथ्यप्रकाश--(१) यह ज्ञान (मात्मा) ज्ञानस्वरूप होनेसे स्वयं ही सर्वज्ञता व सर्वदशिताके स्वभाव वाला है । (२) यह जीव अनादिकालसे स्वपुरुषापराधसे चले आये कर्ममल से प्राक्रान्त होनेसे इस संसारदशामें प्रज्ञानभावके कारण सबको नहीं जान सकता है । (३) ग्रज्ञानरूप शुभाशुभकर्म जीवको स्वयं हो बन्धन हैं । (४) शुभाशुभ कर्म स्वयं बन्धरूप होनेसे प्रतिषेध्य हैं। सिद्धान्त---(१) प्रात्मा स्वयं सहज परमज्ञानविकास स्वभाव वाला है। (२) पौद्गलि कर्मविपाकोदयसे यह जीब संसारसमापन्न है । (३) अपने अज्ञानापराघसे यह जीव कलु. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ समयसार तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेन धावस्थायां सर्वसः दर्जनमात्मानमपिलानदज्ञानभावेनैवेदमेवमबतिष्ठते । ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बंधः प्रतः स्वयं बंधत्वात्कर्म प्रतिषिद्धं ॥१६॥ रयेण कर्मरजसा-तृतीया एक० । णियेण निजेन-तृ० एक० । अवच्छण्णो अवच्छन्नः-प्रथमा एक० । संसारसमावग्णो संसारसमापन्न:-प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । विजाणदि विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सव्वदो सर्वत:-अव्यय पंचम्यर्थे । सब्बं सर्व-द्वितीया एक० ।। १६० ।। षित व विकल्पसंकटापन्न है । दृष्टि-- -- परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३- अशुद्धनिश्चननय (४७) । प्रयोग-शुभाशुभभावोंको साक्षात् परमार्थदृष्टिका बाधक जानकर उनसे उपेक्षा करके अबाधस्वभाव शाश्वत अन्तःप्रकाशमान ज्ञानस्वरूपके अभिमुख रहनेका पौरुष करना ।। १६०।। अब कर्मका मोक्ष हेतुतिरोधायीपना दिखलाते हैं--[सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं] सम्यक्त्वको रोकने वाला [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व है ऐसा [जिनवरः] जिनवरदेवोंने [परिकथितं] कहा है [तस्योदयेन] उसके उदयसे [जीवः] यह जीव [मिथ्याष्टिः] मिथ्यादृष्टि हो जाता है [इतिज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये । [झानस्य प्रतिनिबद्ध] ज्ञानको रोकने वाला [अज्ञान] मज्ञान है ऐसा जिनवरैः परिकथितं] जिनवर देवोंने कहा है [तस्पोदयेन] उसके उदयसे [जीवः] यह जीव [अज्ञानी] अज्ञानी [भवति होता है ऐसा [ज्ञातव्यः] जानना चाहिए। [चारित्रप्रतिनिबद्धः] 'चारिश्रको रोकने वाला [कषायः] कषाय है ऐसा [जिनवरैः] जिनेन्द्रदेवोंने [परिकथितः] कहा है [तस्य उत्येन] उसके उदयसे [जीवः] यह जीव प्रचारित्रः] प्रचारित्री [भवति] हो जाता है ऐसा [ज्ञातव्यः] जानना चाहिये । तात्पर्य–मिथ्यात्व प्रज्ञान व कषायके उदयसे जीव मिथ्यादृष्टि प्रज्ञानी व अचारित्री हो जाता है। टोकार्थ-सम्यक्त्व ओकि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसको रोकने वाला प्रज्ञान है, वह स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ज्ञानके अज्ञानपना है; और चारित्र जो कि मोक्षका कारणरूप स्वभाव है उसका प्रतिबंधक कषाय है, वह स्वयं कर्म ही है, उसके उदयसे ही ज्ञान के प्रचारित्रपना है । इस कारण कर्ममें स्वयमेव मोक्ष के कारणभूत सभ्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का तिनायिपना होनेसे कर्मका प्रतिषेध किया गया है। मावार्य-मोक्षके कारणरूप स्वभाव है सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र । इन तीनोंके प्रतिपक्षी कर्म मिथ्यात्व, अज्ञान और कषाय ये तीर इसलिये वे इन तीनोंको प्रकट नहीं होने देते, इस कारण कमका प्रतिषेध किया गया है। अशुभ कर्म मोक्षका हेतु तो क्या है बाधक ही है, परन्तु शुभकर्म भी बंधरूप ही है । इस Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यपापाधिकार ___ अथ कर्मणो मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वं दर्शयति सम्मत्तपडिणिबद्ध मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो मिच्छादिहिति णायब्बो ॥१६१॥ गाणस्म पडिशिवा अण्णा जिगावरहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि गायब्बो ॥१६२॥ चारित्तपडिणिवद्ध कसायं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेगा जीवो अचरित्तो होदि णायब्बो॥१६३॥ (त्रिकलम्) सम्यक्त्वका विरोधक, जिनवरने मिथ्यात्वको बताया। उसके उदयसे प्रात्मा, मिथ्यादृष्टी कहा जाता ॥१६१॥ ज्ञानका प्रतिनिबन्धक, मुनीश प्रज्ञानको बताते हैं । उसके उदयसे प्रात्मा, अज्ञानी वर्तता जानो ॥१६२॥ चारित्रका विरोधक, मुनीन्द्रने है कषाय बतलाया। इसके उदयसे प्रात्मा, हो जाता है प्रचारित्री ॥१६३॥ सम्यक्त्वप्रतिनिबद्धं मिथ्यात्वं जिनवरः परिकथितं । तस्योदयेन जीवो मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः ।।१६१॥ ज्ञानस्य प्रतिनिबद्धं अज्ञानं जिनवरैः परिकथितं । तस्योदयेन जोवोऽज्ञानी भवति ज्ञातव्यः ॥१६२|| चारित्रप्रतिनिबद्धः कषायो जिनवरैः परिकथितः । तस्योदयेन जीवोऽचारित्रो भवति ज्ञातव्यः ॥१६३१ सम्यक्त्वस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबंधक किल मिथ्यात्वं, तत्तु स्वयं कव तदु. दयादेव ज्ञानस्य मिथ्योदृष्टित्वं । ज्ञानस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबंधक किलाज्ञानं, तत्त स्वयं कमैव तदुदयादेव ज्ञानस्याज्ञानत्वं । चारित्रस्य मोक्षहेतोः स्वभावस्य प्रतिबंधक: किल कषायः, स तु स्वयं कमैव तदुदयादेव ज्ञानस्याचारिवत्वं । अतः स्वयं मोक्षहेतुतिरोधायिभावत्वात् कर्म नामसंज्ञ-सम्मत्तपडिणिबद्ध, मिच्छत्त, जिणवर, परिकाहय, तस्स, उदय, जीव, मिच्छादिट्टि, इत्ति, णायब्ब, णाण, पडिणिबद्ध, अण्णाण, जिणवर, परिकहिय, तस्स. उश्य, जीव, अण्णाणि, णादव, चारित्तकारण इसका भी कर्म सामान्यके प्रतिषेधके कथन में प्रतिषेध ही जानना। अब इसी अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं-संन्यस्त इत्यादि । अर्थ- मोक्षके चाहने वालों को यह समस्त कर्म ही त्यागने योग्य हैं। इस तरह समस्त ही कर्मके छोड़नेपर पुण्य व पापकी तो कथा ही क्या है (कर्म सामान्यमें दोनों हो आ जाते हैं)। यों समस्त कर्मोका त्याग होनेपर ज्ञान, सम्यक्त्व प्रादिक अपने स्वभावरूप होनेसे मोक्षका कारण हुमा कर्मरहित अवस्थाले जिसका रस प्रतिबद्ध (उद्धत) है ऐसा अपने प्राप दौड़ आता है । भावार्थ--कर्मके Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रतिषिद्धं । संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मेव मोक्षार्थिना, संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवन्नैष्कर्म्य प्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १०६ ॥ यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य सम्यङ् न सा कर्मज्ञानसमुच्चयोऽपि विहितस्तावन्न काचित्क्षति । कित्वत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बंधाय तन्मोक्षाय विद्ध, कसा, जिणवर, परिकहिय, तस्स, उदय, जीव, अचरित, णादव । धातुसंज्ञ - पडिणि बंध बंधने, परि-कह वाक्यप्रबन्धे, जाण अवबोधने हो सत्तायां । प्रातिपदिक– सम्यक्त्व प्रतिनिबद्ध, मिथ्यात्व दूर होनेपर ज्ञान, स्वयं अपने मोक्षके कारणमय स्वभावरूप हुआ निर्वाध प्रगट होता है । प्रश्न - - - अविरत सम्यग्दृष्टि प्रादिके जब तक कर्मका उदय है, तब तक ज्ञान मोक्षका कैसे हो सकता है तथा कर्म और शान दोनों एक साथ किस तरह रहते हैं ? इसके समाधान में काव्य कहते हैं -- यावत् इत्यादि । अर्थ-- जब तक कर्म उदयको प्राप्त है और ज्ञानके सम्यक् विरतिभाव नहीं है, तब तक कर्म और ज्ञान दोनोंका समुच्चय ( एकत्रीकरण ) भी कहा गया है और तब तक भी इसमें कुछ क्षति नहीं । किन्तु इस आत्मा में श्रवशपने जो कर्म प्रकट होता है वह तो बंधके हो लिये है और मोक्षके लिये एक परम ज्ञान ही निर्णीत है जो कि स्वतः विमुक्त है अर्थात् सदैव परद्रव्यभावोंसे भिन्न है । भावार्थ- - जब तक सम्यग्दृष्टि के संज्वलनकषायका भी उदय है तब तक उसके ज्ञानवारा व कर्मधारा दोनों चलती हैं । कर्म ती अपना कार्य करता ही है और वहीं पर ज्ञान हैं, वह भी अपना कार्य करता है । एक ही श्रात्मामें ज्ञान और कर्म दोनोंके इकट्ठे रहने में भी विरोध नहीं प्राता । जैसे मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञानका परस्पर विरोध है, उस प्रकार कर्मसामान्यके और ज्ञानके विरोध नहीं है । समयसार अब कर्म और ज्ञानका नयविभाग दिखलाते हैं--- मग्नाः इत्यादि । श्रर्थ - कर्मनयके अवलम्बन में तत्पर याने कर्मनयके पक्षपाती तो डूबे हुए हैं हो, क्योंकि वे ज्ञानको नहीं जानते हैं, पर जो परमार्थ ज्ञानको तो जानते नहीं और ज्ञाननयके पक्षपाती हैं वे भी डूबे हुए हैं, क्योंकि वे आवश्यक क्रियाकांडको छोड़कर स्वच्छन्द हो मन्द उद्यमी हैं, किन्तु जो श्राप निरन्तर ज्ञानरूप हुए कर्मको तो करते नहीं तथा प्रभादके वश भी नहीं होते, स्वरूप में उत्साहवान हैं, वे लोकके ऊपर तैरते हैं । भावार्थ - यहां सर्वथा एकान्त अभिप्रायका निषेध किया गया है क्योंकि सर्वथा एकान्तका अभिप्राय होना ही मिथ्यात्व है। परमार्थभूत ज्ञानस्वरूप श्रात्माको तो जानना नहीं और व्यवहार दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप क्रियाकांडके श्राडम्बरको ही मोक्षका कारण जान उसमें ही तत्पर रहना और उसीका पक्षपात करना है, सो कर्मनय है । कर्मनयके पक्षपाती, ज्ञानको तो जानते नहीं हैं और इस कर्मनयमें ही खेदखिन्न हैं वे संसार समुद्रमें मग्न ही हैं । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यापाधिकार स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्त स्वतः ॥११०।। मग्ना: कर्मन यावलम्बनपरा ज्ञानं न जानति ये, माना ज्ञाननयषिणोऽपि यदतिस्वच्छंदमंदोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरंति सततं ज्ञानं भवतः स्वयं, ये कुर्वति न कर्म जातु न नशं याति प्रमादस्य च ।। १११।। भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटजिनवर, परिकथित, तत्, जीव, मिथ्या दृष्टि, इति, ज्ञातव्य, ज्ञान, प्रनिनिबद्ध, अज्ञान, जिनवर, परिकथित तद, उदय, जीव, अज्ञानिन्, ज्ञातव्य, चारित्रप्रतिनिवद, कषाय, जिनदर, परिकथित, तत्, उदय, जीव, अचारित्र, ज्ञातव्य । मूलधातु-प्रति-नि-धन पंधने, नरिथ पाने, शिक्षा, ज्ञा अक्बोधने । पदविवरण-सम्मत्तपद्धिणिबद्ध सम्यक्त्वप्रतिनिबद्ध-प्रथमा एक । मिच्छत्तं मिथ्यात्वं-प्रथमा ए० । जिनवरैः--तृतीया बहु० । परिकहियं परिकथित-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । तस्स तस्य-षष्ठी एक० 1 उदयेण उदयेन-तृतीया एका० । जीवो जीव:-प्रथमा एकवचन । मिच्छादिट्टि मिथ्या दृष्टि:-प्रथमा एक० । इतिअव्यय । णायव्वो ज्ञातव्यः-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। माणस्स झानस्य-षष्ठी एक० । पडिणिबद्ध प्रतिनिबद्धं-प्रथमा एक० कृदन्त । अण्णाणं अज्ञान-प्र० ए० | जिणवरेहि जिनवरैः-तृतीया बहू । परिकहियं किन्तु जो परमार्थभूत प्रात्मस्वरूपको यथार्थ तो जानते नहीं और सर्वथा एकातियोंके उपदेशसे अथवा स्वयमेव कुछ अंतरंगमें ज्ञान का स्वरूप मिथ्या कल्पना करके उसमें पक्षपात करते हैं और व्यवहारदर्शन, ज्ञान और चारित्रके भक्ति कृतिकर्म आदि क्रियाकांडको निरर्थक जान छोड देने वाले स्वच्छन्द मनवाले ज्ञाननयके पक्षपाती हैं वे भी संसार समुद्र में मग्न हैं, क्योंकि मावश्यक क्रियाको छोड़ स्वेच्छाचारी रहते हैं और स्वरूप में मंद उद्यमी रहते हैं । इस कारण जो पक्षपातका अभिप्राय छोड़कर निरंतर ज्ञानस्वरूपमें जब तक न रहा जाय तब तक अशुभकर्मको छोड़ स्वरूपके साधनरूप शुभ कर्मकांडमें प्रवर्तकर निरंतर ज्ञानरूप हुए कर्मकांडको छोड़ते हैं वे ही कर्मका नाश कर संसारसे निवृत्त होते हैं ।। अब पुण्यपापाधिकारको सम्पूर्ण करते हुए प्राचार्य ज्ञानको महिमा बताते हैं---भेदोन्मादं इत्यादि । अर्थ---पी ली है मोहमदिरा जिसने ऐसे तथा भ्रमरसके भारसे शुभाशुभकर्म के भेदके उन्मादको नचाने (प्रकट करने वाले उस सभी कर्मको अपने प्रात्मबलसे मुलोन्मूल करके याने जड़से उखाड़ करके जिसने अज्ञानान्धकारको नष्ट कर दिया है, लीलामात्रसे विकसित परमकला (केवलज्ञान) के साथ क्रोडा प्रारम्भ की है, ऐसी यह ज्ञानज्योति अब वेगपूर्वक प्रकट होती है। भावार्थ-ज्ञानज्योतिके प्रतिबंधक कर्मको जो कि शुभ अशुभ भेदरूप होकर नाच रहा था और ज्ञानको भुला देता था उस कर्मको भेदविज्ञानमयी व अभेदअन्तस्तत्त्वस्पर्शी अपनी शक्तिसे नष्ट करके प्राप अपने सम्पूर्ण रूप सहित यह ज्ञानज्योति प्रकट हुई याने यथार्थ ज्ञानके उपयोगमें अब दो भेष नहीं रहे । क्योंकि कर्म सामान्य रूपसे एक ही है उसने शुभअशुभ दो भेदरूप स्वांग बनाकर रंगभूमिमें प्रवेश किया था। जब उसे ज्ञानने यथार्थ एकरूप Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ समयसार यस्पीतमोहं, मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मोलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि, ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजम्भे भरेण ॥११२।। ॥ १६१-१६३ ॥ इति पुण्यपापरूपेण द्विपात्रीभूतमेकपात्रीभूय कर्म निष्क्रांतम् । इति श्रीमदमृतचं सूरिविचिताया समयसारव्याख्यायामात्मख्याती पुण्यपापप्ररूपकः तृतीयोऽकः ।। ३ ।। परिकथितं-प्र० ए० । तस्स तस्य-षष्ठी एकः । उदयेण उदयेन-तृतीया एक०। जीवो जीव:-प्र० एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । होदि भवति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक० किया। गायत्यो ज्ञातव्यःप्र० ए० कृदन्त किया । चारित्तपडिणिबद्धं चारित्रप्रति निबद्ध-प्र० ए० | कसायं कषायः-प्र० ए. | जिणवरेहि जिनबर:-तृतीया बह । परिकहियं परिकथित-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। तस्स तस्य-षष्ठी एक० । उदयेण उदयेन-तृतीया एक० । जीबो जीवः-प्रथमा एक । अचरित्तो अचरित्र:-प्रथमा एका० । होदि भवति-वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । गायव्यो ज्ञातव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। १६१-१६३ ।। जान लिया तब वह कर्म रंगभूमिसे निकल गया। उसके बाद ज्ञान अपनी शक्तिसे यथार्थ प्रकाशरूप हुमा । इस प्रकार कर्म नृत्यके प्रखाड़ेमें पुण्य पापरूप दो भेषमें बनकर नाचता था, उसे ज्ञानने जब यथार्थ जान लिया कि कर्म एकरूप ही है, तब कर्म एकरूप होकर निकल गया। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कमंको स्वयं बन्धस्वरूप बताया गया था। अब उसके समर्थनमें दिखाया गया है कि कर्म मोक्षहेतुका तिरोधायी है । तथ्यप्रकाश-(१) सम्यक्त्व स्वभावका प्रतिबंधक मिथ्यात्वकर्म है, उसके उदयका निमित्त पाकर ही ज्ञानके (पात्माके) मिथ्यादृष्टित्व होता है । (२) ज्ञानस्वभावका प्रतिबंधक प्रज्ञान (ज्ञानावरण) है उसके उदयसे ही ज्ञानके प्रज्ञानपना होता है। (३) चारित्रस्वभावका प्रतिबंधक कषायकर्म है, उसके उदयसे हो ज्ञानके अपारित्रता होती है । (४) शुभाशुभ कर्म मोक्षहेतुके प्रतिबंधक हैं। सिद्धान्त-(१) मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीवके मिथ्यात्व होता है । (२) ज्ञानावरण के उदयमे जीवके अज्ञान होता है। (३) कषायप्रकृतियोंके उदयसे बीवके प्रचारित्र होता है । दृष्टि-१, २, ३-- उपाधिसापेक्ष मशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । प्रयोग-निमित्तभूत व नैमित्तिकभूत शुभाशुभभावोंको प्रलक्षित कर परमार्थ ज्ञानमात्र भावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ।। १६१-१६३ ।। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्रवाधिकार २६६ अथ आरमनाधिकारः ___अथ प्रविशत्यास्त्रयः। अथ महामदनिर्भरमंथरं समररंगपरागतमास्रबं । प्रयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः ॥ ११३ ।। नामसंझ--मिच्छत्त, अविरमण, कसायजोग, य, सणसण्ण, दु, बहुविहभेय, जीय, तस्स, एव, अणष्णपरिणाम, णाणावरणादीय, त, दु, कम्म, कारण, त, पि, जीवो, य, रागदोषादिभावकर । धातुसंज्ञअवि-रम क्रीडायां, कस तनूकरो, जोय योजनायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-मिथ्यात्व, अविरमण, प्रब प्रानव प्रवेश करता है । सो यहाँ इस स्वांगको यथार्थ जानने वाले सम्यग्ज्ञानकी महिमारूप मंगल करते हैं-अथ इत्यादि । अर्थ--अब समररंगमें आये हुए महामदसे भरे हुए मदोन्मत्त मानवको यह उदार गंभीर महाउदय वाला दुर्जय ज्ञान धनुर्धर जीतता है । भावार्थ--यहां नृत्यके मंचपर सब जगतको जीतकर मत्त हुए साम्रबने प्रवेश किया है । उसको पराजयका वर्णन यहां वोररसको प्रधानतासे किया है कि दुर्जय बोधरूपधनुषधारी ज्ञान पानवको जीतता है । अर्थात् अन्तमुहूर्तमें कर्मका नाश करके यह ज्ञानस्वरूप प्रात्मा केवल. जान उत्पन्न कर लेता है । ऐसो ज्ञानकी सामर्थ्य व महिमा है ।। अब पासवका स्वरूप कहते हैं:-[मिथ्यात्वं अविरमरणं] मिथ्यात्व, अविरति [च कषाययोगौ] और कषाय योग [संज्ञासंज्ञाः तु] ये चार प्रास्रव संज्ञ व प्रसंज्ञ हैं याने चेतना के विकाररूप और जड़-पुद्गलके विकाररूप ऐसे भिन्न-भिन्न हैं। उनमें से [जीधे] जीवमें प्रकट हुए [बहुविधमेवाः] बहुत भेद बाले संज्ञ प्रास्रव है वे [वस्यव अनन्य परिणामाः] उस जीवके हो भभेदरूप परिणाम हैं [तु ते] परन्तु असंझ प्रास्रव [ज्ञानावरणावस्य] भानावरण आदि [कर्मणः] कर्मके बंधनेके [कारणं] कारण [भवंति] हैं [च] और [सेषामपि उन प्रसंज्ञ प्रास्त्रवोंका भी याने असंज्ञ प्रास्रवोंके नवीन कर्मबंधका निमित्तपना होनेका कारण अर्थात् निमित्त भी [रागद्वेषाविमावकरः] रागद्वेष आदि भावोंका करने वाला [जीवः] जीव [भवति होता है। तात्पर्य--कर्मबन्धके निमित्तभूत उदयागत असंज्ञ प्रास्रवको इस निमित्तताका कारण रागद्वेषमोह है अतः राग द्वेष मोह ही पानव है । टोकार्थ---रागद्वेष मोह ही प्रास्रव हैं जो कि अपने परिणामके निमित्तसे हुए हैं सो जड़पना न होनेपर दे चिदाभास है याने उनमें चैतन्यका आभास है क्योंकि मिथ्यात्व, प्रवि Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार तत्रालयस्वरूपमभिदधाति - मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सणसण्णा दु । बहुविहभेया जीवे तस्सेव अणगणपरिणामा ॥१६॥ णाणावरणादीयस्स ते दु कम्मस्स कारणं होति । तेसिपि होदि जीवो य रागदोसादिभावकरो ॥१६५॥ (युगलम) मिथ्यात्व तथा अविरति, कषाय अरु योग चेतनाचेतन । जीवमें विविध प्रत्यय, अभेद परिणाम हैं उसके ॥१६४॥ वे प्रत्यय होते हैं, ज्ञानावरणादि कर्मके कारण। उनका कारण होला, रागद्वषादि भावयुत प्रात्मा ॥१६॥ मिध्यात्वमविरमणं कषाययोगौ च संज्ञासंज्ञास्तु । बहुविधभेदा जीवे तस्यैवानन्यपरिणामाः ।। १६४ ।। ज्ञानावरणाद्यस्य ते तु कर्मण: कारणं भवति । तेषामपि भवति जीव: च रागद्वेषादिभावकरः ॥ १६५ ॥ रागद्वेषमोहा पासवा: इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ताः, प्रजडत्वे सति चिदाभासाः, मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा: पद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मासवरणनिमित्तत्वात्किकषाययोग, च, संज्ञासंज्ञ, तु, बहुविधभेद, जीव, तत्, एव, अनन्यपरिणाम, ज्ञानावरणाच, तत्, तु, कर्मन, कारण, तत्, अपि, जीब, च, रागद्वेषादिभावकर । मूलधातु- रमु कीडायां, भिदिर विदारणे रुधादि, परिणम प्रह्वत्वे, भू सत्तायां, रन्ज रागे । पदविवरण-मिच्छत्तं मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । अविरमणं-प्र० ए० । रति, कषाय और योग पुद्गलके परिणाम ज्ञानावरण प्रादि पुद्गलोंके मानेके निमित्त होनेसे वे प्रकट भासव तो हैं, किन्तु उन प्रसंज्ञ प्रास्रवोंमें ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रागमनके निमित्तपनाके निमित्त हैं. आत्माके अज्ञानमय राग, द्वेष, मोह परिणाम । इस कारण नवीन मिथ्यात्व आदिक कर्मके प्रास्त्रवके निमित्तपनाका निमित्तपना होने से राग द्वेष मोह ही प्रास्रव हैं और वे अज्ञानीके ही होते हैं ऐसा तात्पर्य गाथाके अर्थमें से ही प्राप्त होता है । भावार्थ-ज्ञानावरणादि कर्मों के प्रास्त्रवरणका निमित्त तो मिथ्यात्वादि कर्मके उदयरूप पुद्गलके परिणाम हैं और उन कर्मोके पानेका निमित्त उदयामतकर्म बन जायें उस निमित्तपने का निमित्त जीवके राग द्वेष मोहरूप परिणाम हैं, उनको चिद्विकार भी कहते हैं, वे जीवके अज्ञान अवस्थामें होते हैं। सम्यग्दृष्टिक अज्ञान अवस्था होती नहीं क्योंकि मिथ्यात्वसहित ज्ञानको प्रज्ञान कहते हैं । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी हो गया है इसलिये यहाँ ज्ञान अवस्थामें अज्ञानमय रागादि नहीं हैं । फिर भी प्रविरत सम्यग्दृष्टि प्रादिके चारित्रमोहके उदयसे जो रागादिक होते हैं, उनका यह स्वामी नहीं है, उदयकी बलवत्ता है, उनको ज्ञानो रोगके समान समझकर Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रानवाधिकार लास्रवाः । तेषां तु तदास्रवणनिमित्तत्व निमित्तम् अज्ञानमया प्रात्मपरिणामा रागद्वेष मोहाः । कसायजोगा-प्रथमा बहु० । कषाययोगी-प्र० बहु० । य च-अव्यय । सणसणा संज्ञासंज्ञा:-प्र० बहु० । दु तु-अव्यय । बहुविहभेया बहुविधभेदाः-प्र० बहु० । जीवे-सप्तमी एक० । तस्स तस्य-षष्ठी एक० । एवअध्यथ । अणण्णपरिणामा अनन्यपरिणामा:-प्र. बहु० । णाणावर णादीयस्स ज्ञानावरणावस्य-षष्ठी ए० । मेटना चाहता है । इस अपेक्षासे ज्ञानोके राग नहीं है । मिथ्यात्वसहित जो रागादिक होते हैं, ही प्रज्ञापमस रग देव बोह हैं और वे दातानीके ही हैं, सम्यग्दृष्टिके नहीं हैं । तात्पर्य सम्यग्दृष्टि के बुद्धिपूर्वक प्रास्त्रव बंध नहीं है और जो पहलेके बद्ध कर्म हैं उनका वह ज्ञाता होता है। प्रसंगविवरण-समयसारकी अधिकार गाथामें बताया गया था "भूयत्थेणाभिगया जीवाजीया य पुण्णपावं च, प्रासयसंवरणिज्जर बंधो मोखो य सम्मत्तं" इसके अनुसार जीव अजीव पुण्य पापका अधिकार पूर्ण हो गया। अब प्रास्रबका वर्णन करना क्रमप्राप्त है । सो सर्वप्रथम इस गाथायुगलमें प्रास्रवका स्वरूप कहा गया है अथवा अनन्तरपूर्व अधिकारमें पुण्य पाप कर्मका वर्णन हुआ है, सो उस विषय में यह जिज्ञासा हुई कि पुण्य-पाप कर्मोका यात्रव (प्राना) किस प्रकार होला, जिसकी जानकारीसे यह प्रकाश मिले कि वह योग न बनाया जावे जिससे कि पुण्य पाप कर्मका प्रास्त्रब हो। इस जिज्ञासाका समाधान करनेके लिये यहाँ प्रास्रवका प्रवेश हुमा, जिसमें सर्वप्रथम प्राधका स्वरूप यहां कहा गया है। तथ्यप्रकाश-१-जीवके अज्ञान परिणाम (प्रात्माकी बेसुधी) से जीवमें राग द्वेष मोह भावरूप पासव होते हैं । २- जीवमें होने वाले राग द्वेष मोह भाव जीवकी परिणति होनेसे जड़ नहीं हैं और जीवमें स्वभाव नहीं होनेसे चेतन नहीं, किन्तु चिदाभास हैं । ३- प्रचेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग तो पुद्गलकर्म प्रकृतिरूप हैं। ४- चेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग जीवके परिणाम हैं । ५- उदयप्राप्त अचेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग याने द्रव्यप्रत्यय नवीन ज्ञानावरणादि पुद्गलकमके प्रतिबके निमित्तभूत हैं। ६- द्रव्यप्रत्ययके निमित्तसे होने वाले चेतन मिथ्यात्वादि भाव द्रव्यप्रत्ययमें नवीन कर्मके आस्रवकी निमित्तता आ जावे इस निमित्तताके निमित्त हैं। ७-वास्तव में प्रास्रव जीवके राग द्वेष मोह हैं, क्योंकि ये पुद्गलकर्भास्त्रवणके निमित्तकी निमित्तताके निमित्त हैं । ८-प्रज्ञानमय राग, द्वेष, मोह जीवपरिणाम अज्ञानीके ही होते हैं । सिद्धान्त-१-अचेतन मिथ्यात्व अविरति कषाय योग पुद्गलद्रव्य के अनन्य परिणाम हैं । २-चेतन मिथ्यात्व प्रादि भाव अज्ञानी जीवके अनन्य परिणाम हैं । ३-जीवके बन्धनका कारण उदयांगत द्रव्यप्रत्यय है । ४--वस्तुतः जीवके बंधनका कारण स्वकीय रागादि अज्ञान Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ समयसार तत प्रास्रवणनिमित्तत्व निमित्तत्वादागद्वेषमोहा एवानवाः, ते चाज्ञानिन एव भवतीति अर्थादेवापद्यते ।।१६४.१६५।। ते-प्रथमा बहु० । दु तु-अध्यय । कम्मस्स कर्मण:-पानी एक । कारण-प्रथमा एक० । होति भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। तेसि तेपां-पष्ठी वाहु० । पि अपि-अन्यय । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जीवो जीव:-प्रथमा एकच-अव्यय । रागदोसादिभाबकरो रागद्वेषादिभावकर:-प्रथमा एकवचन ।। १६४.१६५ ।। -- - भाव है। दृष्टि-१- उपादानदृष्टि (४६ब)। २-- उपादानदृष्टि (४६ब)। ३- निमित्तदृष्टि (५३) । ४-उपादानदृष्टि (४६ब)। प्रयोग-कर्मबन्धका मूल कारण अपने रागादिभावोंको जानकर रागादिभावोंसे छुटकारा पाने के लिये रागादिविकारता सहज मानस्वभावमें जाम होगेका पौरुष करना ।।१६५|| ___ अब ज्ञानीके उन अास्रवोंका प्रभाव दिखलाते हैं:---[सम्यग्दृष्टेः] सम्यग्दृष्टिके [आस्रवबंधः] अाम्रब बंध [नास्ति] नहीं है [तु] किंतु [आस्रवनिरोधः] आस्रवका निरोध है [तानि] उनको [अबघ्नन] नहीं बांधता हुना सः] वह [संति] सत्तामें मौजूद [पूर्वनिबद्धानि] पहले बांधे हुए कर्मों को [जानाति मात्र जानता है । टोकार्य-चूंकि वास्तव में ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंसे परस्पर विरोधी प्रज्ञानमय भाव रुक जाते हैं इस कारण प्रास्रवभूत राग, द्वेष, मोह भावोंके निरोधसे ज्ञानी के प्रास्त्रवका निरोध होता ही है । इसलिये ज्ञानी, पासवनिमित्तक ज्ञानावरण आदि पुद्गल कोको नहीं बांधता 1 किन्तु सदा उन कर्मोका अकर्ता होनेसे नवीन कर्मोको नहीं बांधता हुआ पहले बंधे हुए सत्तारूप अवस्थित उन कोको केवल जानता ही है । भावार्थ-ज्ञानी होनेपर अज्ञानरूप राग द्वेष मोह भावोंका निरोध होता है और प्रास्रव के निरोधसे नवीन बंधका निरोध होता है तथा जो पूर्व बंधे हुए सत्तामें स्थित हैं, उनका ज्ञाता ही रहता है कर्ता नहीं होता । यद्यपि अविरत सम्यग्दृष्टि प्रादिके चारित्रमोहका उदय है, पर उसको ऐसा जानना कि यह उदयकी बलवत्ता है, वह अपनी शक्तिके अनुसार उनको रोगरूप जानकर दूर करता ही है इसलिये वे हुए भी अनहुए सरीखे कहे जाते हैं, वहां जो अल्पस्थिति अनुभागरूप बंध होता वह अज्ञानके पक्षमें नहीं गिना जाता, अज्ञान के पक्षमें तो जो मिथ्यात्व व अनंतानुबंधोके निमित्तसे बँधता है, वह गिना जाता है । इस प्रकार ज्ञानीके प्रास्त्रव व बंध नहीं गिना गया। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें प्रास्रवका स्वरूप बताया गया था और यह Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथ शानिनस्तदभावं दर्शयति- श्रावाधिकार ३०३ संवखरोहों । गत्थिदु श्रासवबंधो सम्मादिटटिस्स संते पुव्वणिबद्ध जायदि सो ते थबंधतो ॥१६६॥ श्राव बंध नहीं है, ज्ञानीके किन्तु श्रात्रवनिरुन्धन । वह तो पूर्वनिबद्धों को जाने भव्य नहि बांधे ॥१६६॥ नास्ति त्वास्रवबंध: सम्यग्दृष्टे रास्रवनिरोधः । संति पूर्वनिबद्धानि जानाति स तान्यबध्नन् ॥१६६॥ यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयेर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधिनो अवश्यमेव निरुध्यते । ततोऽज्ञानमयानां भावानां रामद्वेषमोहानां श्रास्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव श्रस्रव नामसंज्ञण, दु, आसवबंध, सम्मादिट्टि, आसवणिरोह, संत, पुर्व्वाणिबद्ध, त, त, अबंधंत । धातुसंश- अस सत्तायां, आ-सव स्रवणे, बंध बंधने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिकन, तु, आसवबन्ध, सम्यदृष्टि, आस्रवनिरोध सत् पूर्वनिबद्ध तत् तत् । मूलधातु - असु भुवि, आ स गतौ, बन्ध बन्धने, निरुधिर आवरणे रुधादि, ज्ञा अवदोधने । पदविवरण - ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । दुतु-अव्यय । आसवबंधी आसवबन्धः - प्रथमा एकवचन | सम्मादिद्विस्स सम्यग्दृष्टे:निष्कर्ष निकला था कि वे मानव प्रज्ञानीके ही होते हैं । अब यहाँ बताया गया कि ज्ञानीके उन प्राeater प्रभाव है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होते हैं । ( २ ) ज्ञानमय भाव व प्रज्ञानमय भाव परस्पर विरोधी भाव है। (३) ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंके द्वारा अज्ञानभाव निरुद्ध हो जाते हैं याने हट जाते है । (४) ज्ञानीके प्रज्ञानमय भाव रागद्वेषमोह हट गये हैं, श्रतः स्वनिरोध है । ज्ञानी श्रास्रवनिमित्तक पुद्गलकर्मों को नहीं बांधता । ( ५ ) कर्ता होनेसे शानी नवीन कर्मोंको बांधता नहीं और पूर्वबद्धकमको मात्र जानता है । (६) गुलस्थानानुसार ज्ञानियोंके मालवनिरोध समझना चाहिये । (७) द्रव्यकर्म, भावकर्म व नोकर्ममें प्रामत्वबुद्धि न होनेसे आत्माका नाम शामी हो जाता है । ( 5 ) अविरत सम्यग्दृष्टि ज्ञानी मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियोंका प्रस्रव निरोधक है। (६) देशसंयमी ज्ञानी ५१ प्रकृतियोंका प्रात्रवनिरोधक है । (१०) प्रमसविरत ज्ञानी ५५ प्रकृतियोंका भ्रात्रवनिरोधक है । ( ११ ) श्रप्रमत्तविरत ज्ञानी ६१ प्रकृतियोंका श्रात्रवनिरोधक है । ( १२ ) श्रपूर्वकरण उपशमक क्षपक ज्ञानी ६२ प्रकृतियों का श्रावनिरोधक है । (१३) श्रनिवृत्तिकरण उपशमक व क्षपक ज्ञानी ६८ प्रकृतियोंका प्रास्त्रनिरोधक है । (१४) सूक्ष्मसाम्पराय उपशमक व क्षपक १०३ प्रकृतियों का प्रस्वतिरो-धक है । ( १५) उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय व सयोगकेवली ११६ याने एक कम सब प्रकृतियोंका प्रादनिरोधक है । (१६) प्रयोगकेवली व सिद्धप्रभु पूर्ण निरास्रव हैं । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ समयसार निरोधः । श्रतो ज्ञानी नालवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बध्नाति नित्यमेवाकर्तृ' त्वात्तानिनवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि ज्ञानस्वभावत्वात्केवलमेव जानाति ॥ १६६॥ । षष्ठी एकवचन | आसवणिरोहो आस्रवनिरोधः प्रथमा एक० । संते सन्ति द्वितीया एकवचन कृदन्त । पुणिबद्धे पूर्व निबद्धानि द्वितीया बहु । जाणदि जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सो सः - प्रथमा एक । ते तानि द्वितीया बहु । अबंधतो अवधनन्- प्रथमा एकदन्त्र ।। १६६ ॥ सिद्धान्त - ( १ ) ज्ञानी जीवके शुद्धभावका निमित्त पाकर कार्याणवर्गणावों में कर्मत्वके श्रावका निरोध हो जाता है। (२) ज्ञानी पूर्वनिबद्ध कर्मोका मात्र जाननहार होता है, भोक्ता नहीं । दृष्टि - १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय ( २४ब ) । २ - प्रभोक्तृनय (१६२) । प्रयोग- - ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व के श्राश्रयसे संसारसंकटमूलकर्मास्त्रका निरोध हो जाता है, अतः सकल विकल्प परिग्रह त्यागकर एक ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वका आलम्बन लेना चाहिये ॥ १६६ ॥ अब राग द्वेष, मोह भावोंके ही पापनेा नियम करते हैं- [जीवन कृतः ] जीव के द्वारा किया गया [रागादियुक्तो भावः ] रागादियुक्त भाव [ बंधको भरिणतः ] नयीन कर्मका बंध करने वाला कहा गया है [तु] परंतु [ रागादिविप्रमुक्तः ] रागादिक भावोंसे रहित भाव [ प्रबंधक: ] बंध करने वाला नहीं है, [ केवलं ] केवल [ शायक: ] जानने वाला ही है । तात्पर्य - प्रज्ञानभाव के कारण जीवमें उमंगसे उठे रागादिकभाव मिध्यात्वादि प्रकृति का बंध करने वाले हैं । टोकार्थ - वास्तव में इस श्रात्मा में राग, द्वेष, मोहके मिलापसे उत्पन्न हुआा भाव (अज्ञान मय ही भाव ) श्रात्माको कम करनेके लिये प्रेरित करता है जैसे कि चुंबक पत्थर के सम्बन्धसे उत्पन्न हुआ भाव लोहेकी सुईको चलाता है, परन्तु उन रागादिकोंके भेदज्ञानसे उत्पन्न हुआ ज्ञानमय भाव स्वभावसे हो आत्माको कर्म करने में अनुत्सुक रखता है जैसे कि चुम्बक पाषाण के संसर्ग बिना सुईका स्वभाव चलने रूप नहीं है इस कारण रागादिकोंसे मिला हुम्रा प्रज्ञानमय भाव ही कर्मके कर्तृत्वमें प्रेरक होने के कारण नवीन बंधका करने वाला है, परन्तु रागादिवसे न मिला हुआ भाव अपने स्वभावका प्रगट करने वाला होनेसे केवल जानने वाला ही है, वह नवोन कर्मका किंचिन्मात्र भी बंध करने वाला नहीं है । भावार्थ – रागादिकके मिलाप से हुआ अज्ञानमय भाव ही कर्म ग्रंथ करने वाला है और रागादिकसे नहीं मिला ज्ञानमय भाव कर्मबंधका करने वाला नहीं है, यह सिद्धान्त रहा 1 प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानीके मालवका प्रभाव Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्रवाधिकार अथ रागद्वषमोहानामानवस्वं नियमयति भावो रागादिजुदो जीवेण कदो दु बंधगो भणिदो। रायादिविप्पमुक्को अबंधगो जाणगो वरिं ॥१६७॥ जीवकृत राग प्रादिक, भाव बताया जिनेन्द्रने बंधक । रागादिमुक्त बन्धक, नहि है वह किन्तु शायक है ॥१६७॥ भावो रागादियुतः जीवेन कृतस्तु बंधको भणितः। रागादिविषमुक्तोऽबंधको ज्ञायको नवरि ।। १६७ ।। इह खलु रागद्वेषमोहसंपर्कजोऽज्ञानमय एव भावः, अयस्कांतोपलसंपर्कज इव कालायससूचों कर्म कर्तुमात्मानं चोदयति । तद्विवेकजस्तु ज्ञानमयः, अयस्कांतोपलविवेकज इव कालायससूचीमकर्मकरणोत्सुक्यमात्मानं स्वभावेनैव स्थापयति । ततो रागादिसंकीर्णोऽझानमय एवं कर्तृत्वे चोदकत्वाबंधकः । तदसंकीर्णस्तु स्वभावोद्भासकत्वात्केवलं ज्ञायक एव, न मनागपि बंधक: ।।१६७॥ नामसंज्ञ-भाव, रागादिजुद, जीब, कद, दु, बंधग, भणिद, रागादिविप्पमुक्क, अबंधग, जाणग, णवरि । धातुसंज्ञ--- भव सत्तायां, जु मिश्ररणे, जीव प्राणधारणे, भण कथने, वि-प-मुंच त्यागे । प्रातिपदिक-भाव, रागादियुत, जीव, कृत, तु, बन्धक, भणित, रामादिविप्रमुक्त, अबंधक, जायक, नवरि । मूलधातुयु मिश्रणे अदादि, डुकुत्र करणे, भण शब्दार्थः, वि-प्र-मुच्ल मोक्षगणे । पदविवरण-भावो भावःप्रथमा एकवचन । रागादिजुदो रागादियुतः-प्रथमा एक० । जीवेण जीवेन-तृतीया एक० । कदो कृतः--प्र० एक कृदंत । दुतु-अव्यय । बंधगो बन्धकः-प्रथमा एक० । भणिदो भणित:-प्रथमा एक० कृदन्त किया। रागादिविप्पमुक्तो रागादिविप्रमुक्त:-प्रथमा एक ० । अबंधगो अबन्धक:-प्र० ए० । जाणगो ज्ञायक:-प्रथमा एक०। पवार नदरि-अव्यय ।। १६७ ।। है । सो अब उसी सम्बन्धमें इस माथामें यह नियमित किया है कि वह पाखवपना रागद्वेष मोहभावोंका ही है। तथ्यप्रकाश-१- रागद्वेषमोहके संपर्कसे उत्पन्न हुआ भाव अज्ञानमय भाव है । २- अज्ञानमय भाव ही आत्माको कर्म करने के लिये प्रेरित करता है। ३- रागद्वेष मोहके विवेकसे (वियोगसे) उत्पन्न हुआ भाव ज्ञानमय भाव है । ४- ज्ञानमय भाव स्वभावसे ही आत्माको कर्म करने में अनुत्सुक रखता है । ५-रागादिसे संकीर्ण प्रज्ञानमय भाव ही कर्तृत्वमें प्रेरक होनेसे बन्धक है । ६- रागादिकसे असंकोरगं ज्ञानमय भाव स्वभावका उद्भासक होनेसे केवल शायक है, बन्धक नहीं है । सिद्धान्त-१-चित्प्रकाशस्वरूप स्वभावभावसे भिन्न अज्ञानमय रागद्वेषमोहभाव कर्मबन्धके मूल निमित्त कारण हैं । २-प्रज्ञानमय भाव भावबन्धन बनाये रहनेके समुचित उपादान कारण हैं। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३०६ / अथ रागाद्यसंकीर्ण मावसंभवं दर्शयति समयसार पक्के फल पडिए जह या फलं बज्झए पुणो विंटे । जीवस्स कम्मभावे पडिए पुणोदयमुबेई ॥१६८॥ ‍ फल पक्क हो पतित फिर, जैसे वह वृत्त में नहीं लगता । कर्मभाव हटनेपर, फिर न जीवके उदित होता ॥१६८॥ पक्व फले पतिते यथा न फलं बध्यते पुनर्वृन्ते । जीवस्य कर्मभावे पतिते न पुनरुदयमुपैति ॥ १६८ ॥ यथा खलु पक्वं फलं वृतात्सकृद्विश्लिष्टं सन्न पुनर्वृन्तसंबंधधमुपैति तथा कर्मोदयजो नामसंज्ञ - पक्क, फल, पडिय, जह, ण, फल, पुणो, विट, जीव, कम्मभाव, पडिय. पण, ग धातुसंज्ञ-पड पलने, बज्भ बंधने, उप-टू गतौ । प्रातिपदिक- पत्रत्र, फल, पतित, यथा न पत्त जीव, कर्मभाव, पतित न पुनस्, उदय। मूलधातु- डुपचष् पाहे भ्वादि फल नियत भ्वादि पल्लू गतौ भ्वादि, पत गतौ चुरादि, बन्ध बन्धने उप- इण गती । पदविवरण पक्के एकत्र तभी एक० । फल फिले - सप्तमी एक० । पडिए पतिते सप्तमी एक० । जह यथा - अव्यय । ण न अव्यय । फलं - प्रथमा . दृष्टि-- १- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (५३) । २- उपादानदृष्टि ( ४६ ब ) | प्रयोग - रागादिसंपृक्त भाव: श्रात्माको बन्धन संकटमें रखने वाला है ऐसा जानकर पौरुष करना ॥१६७॥ अपने रागादिरहित सहन ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका अब रागादिकसे न मिले ज्ञानमय भावका संभव दिखलाते हैं: - [ यथा ] जैसे [क् फले पतिले] पके फलके गिर जानेपर [पुनः ] फिर [ फलं ] वह फल [ [ते] उस डंठल में [न बध्यते ] नहीं बंधता, उसी तरह [ जीवस्य ] जीवके [कर्मभावे ] कर्मभाव के [ पतिते ] झड़ जानेपर [ पुनः] फिर वह [ उदयं] उदयको [न उपैति] प्राप्त नहीं होता । तात्पर्य ---- कर्मोदयज भाव जीवभावसे पृथक् ज्ञात होनेपर फिर कर्मोदय भाव जीवभावरूप नहीं अनुभवा जा सकता । टीकार्थ-- जैसे पका हुआ फल गुच्छेसे एक बार पृथक होता हुआ वह फल फिर गु से सम्बन्धित नहीं होता, उसी प्रकार कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ भाव एक बार भी जोवभात्र से पृथक होता हुआ फिर जीव भावको प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार से मिला हुआ भाव ज्ञानमय ही संभव है । भावार्थ: जीव अज्ञानसे कर्मोदयज भावोंको अपना मान कर उसे जीवभाव बना देता है। यदि स्वलक्षणक परिचयसे प्रास्रव श्री जीवस्वभावका परिचय यथार्थतया प्राप्त कर ले तो फिर कर्मोदयज भाव जीवभावसे नहीं जुड़ सकते ह सब रागादिसे संकीर्ण ज्ञानमयभावका चमत्कार है । अब इस अर्थ का कलशरूप काव्य कहते हैं— भावो इत्यादि । अर्थ-राग मोह Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ধ্বংসাঘিষ্ঠা भावो जीवभावात्मकृतिपिलष्टः सन्, न पुनर्जीवभावमुपैति । एवं ज्ञानमयो रागाद्यसंकीणों भावः संभवति । भावो रागद्वेषमोहविना यो जीवस्य स्याद् ज्ञाननिर्वृत एव । रुधन सर्वान् द्रव्य कर्मास्रोधान एषोऽभावः सर्वभावालवाणां ।।११४।। ।। १६८॥ एक० । बज्झए बध्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भाषकर्मप्रक्रिया विया ! पुणो पुनः- यय । विटे वृन्ते-सप्तमी एक० । जीवस्स जीवस्य-बष्ठी ए। कम्मभावे कर्मभावे-सप्तमी एक ण न-अव्यय । पुण पुन:-अव्यय । उदयं-द्वितीया एक० । उवेई उपैति-वर्तमान लट् अन्य पुष्य एकवचन क्रिया ॥१६॥ रहित ज्ञानके द्वारा ही रचा हा जो जीवका भाव है, वह सब द्रव्यानवों को रोकता हुया तभी भावानवोंका प्रभाव स्वरूप है । भावार्थ- ज्ञानमयभाव भावात्रवोंका प्रभावरूप इस कारण है कि संसारका कारण मिथ्यात्व ही है उस सम्बन्धी रामादिकका अभाव हुमा तो सभी भावाखत्रोंका अभाव हो गया समझना । प्रसंगवियरप- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि रागादिसंकीर्ण भाव बंधक होता है और रागाद्यसंकीर्ण भाव सबंधक होता है । अब यहाँ इस गाथामें उसी रागाद्यसंकीर्ण भाषका सद्भाव बताया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानो जीवके सुख-दुःखादि कर्मभावके निर्जी होनेपर वह कर्म रागद्वेषमोहका प्रभाव होनेसे जीवभावको प्राप्त नहीं होता है । (२). जो. कर्मभाव जोवभावको STप्त नहीं होता वह फिर बन्धको भी प्राप्त नहीं होता है । (३) जो बन्धस्प नहीं हो सकता वह उदयको भी प्राप्त नहीं होता । (४) ज्ञानीके भाव रागाद्यसकोणं होनेसे शुद्ध भाव कहलाते हैं । (५) ज्ञानी जीयके शुद्धभाव होनेसे निर्विकार स्वसंवेदनके बलसे संवरपूर्वक निर्जरा होती है । (२) उस प्रकारके कर्मका बन्धक न होकर उदित विभावका व कर्मभावका निकल जाना मोक्षमार्गसंचालक निर्जरा है। सिद्धान्त-(१) अज्ञान अवस्थामें कर्मभावको जीवभाव माननेकी वृत्ति होनेसे द्रव्यप्रत्यय उसी प्रकारके कर्मके बन्धक होते हैं । (२) लत्वज्ञान होनेपर उदित कर्मभावको जीव. भाव न माना जा सकनेसे, वह कर्मभाव जीवभाव न माना जा सकनेसे जीवभाव नहीं बनता, और तब द्रव्यप्रत्यय उस प्रकारके कर्मके बन्धक नहीं होते । दृष्टि-१- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि एवं निमिसदृष्टि (२०१, ५३म)। २- प्रतिषेधक शुद्धनय {४६)। प्रयोग-कर्मभावसे हटनेके लिये अपने ज्ञानमात्र सहजभावमें श्रात्मत्व स्वीकार कर जानमात्र भावमें रत होनेका पौरुष करना । १६८ ।। अब ज्ञानीके द्रव्यालयका प्रभाव दिखलाते हैं:-[तस्य ज्ञानिनः] उस ज्ञानोके [पूर्व Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ समयसार अय ज्ञानिनो द्रव्याखवाभावं दर्शयति पुढवीपिंडसमागा पुवणिबद्धा दु पच्चया तस्स । कम्मसरीरेण दु ते बद्धा सब्वेपि णाणिस्स ॥१६॥ पूर्वबद्ध सब प्रत्यय, ज्ञानीके पृथ्विपिण्ड सम जानो। ___ बँधे हुये विधिसे वे, बंधे नहीं किन्तु आत्मासे ॥१६॥ पुथ्वीपिंडसमानाः पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययास्तस्य । कर्मशरीरेण तु ते बद्धाः सर्वेऽपि ज्ञानिनः ।। १६६ ।। ये खलु पूर्वमज्ञानेनैव बद्धा मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा द्रव्यास्रवभूता; प्रत्ययाः ते ज्ञानिनो द्रव्यांतरभूता अचेतनपुद्गलपरिणामत्वात् पृथ्वीपिडसमानाः। ते तु सर्वेऽपि स्वभावत __नामसंज्ञ-पुढवीपिंडसमाण, पुदवणिबद्ध, दु. पच्चय, त, कम्मसरीर, दु, त, बद्ध, मन्ने, पि, णाणि । धातुसंज्ञ-प्रति-अय गतौ, बंध बंधने । प्रातिपदिक- पृथ्वीपिण्डसमान, पूर्वनिबद्ध, तु, प्रत्यय. तत्, कर्मशरीर, तु, तत्, बद्ध, सर्व, अपि, ज्ञानिन् । मूलधातु --प्रति-अय गती, बन्ध बन्धने । पदविधरण---पुढवीनिबद्धाः] पहले बँधे हए सपि] सभी [प्रत्ययाः] कर्म [पृथियोपिंडसमानाः] पृथ्वीके पिंड समान हैं [तु] और वे [कर्मशरीरेण] कार्मण शरीरके साथ [बद्धाः] बंधे हुए हैं । तात्पर्य-कर्म व कर्मोदयज भावसे भिन्न प्रात्मस्वरूपको जाननेपर कर्म पृथ्वीपिण्डके समान पुद्गलपिण्ड मात्र ही नजर पाते हैं । ___टोकार्थ----जो पहले अज्ञानसे बांधे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योग रूप द्रव्यास्त्रव. भूत प्रत्यय हैं वे ज्ञानीके अन्य द्रव्यरूप अचेतन पुद्गलद्रव्य के परिणाम होनेसे पृथिवीके पिंड समान हैं । और वे सभी अपने पुद्गलस्वभावसे कार्मरण शरोरसे ही एक होकर बँधे हैं, परन्तु जीवसे नहीं बंधे हैं । इस कारण ज्ञानीके द्रव्यालबका प्रभाव स्वभावसे ही सिद्ध है। ___ भावार्थ-जब प्रात्मा अन्तस्तत्वका ज्ञानी हुप्रा, तब झानीके भावावका तो अभाव हुआ ही और द्रव्यास्रव जो कि मिथ्यात्वादि पुद्गल द्रव्यके परिणाम हैं वे कार्मण शरीरसे स्वयमेव बँध रहे हैं, अन्तः ऐसा ज्ञान होनेसे व आत्माभिमुख परिणमा होनेसे भावासबके बिना वे आगामी कर्मबंधके कारण नहीं हैं, और पुद्गलमय हैं इस कारण अमूर्तिक चतन्यस्वरूप जीवसे स्वयमेव ही भिन्न हैं, ऐसा जानी चानता है। अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं--भावा इत्यादि । अर्थ-भावास्रवके अभावको प्राप्त हुमा ज्ञानी द्रव्यास्त्रबस तो स्वयमेव ही भिन्न है, क्योंकि ज्ञानी तो सदा ज्ञानमय ही एक भाव वाला है, इस कारण निरामय ही है, मात्र एक शायक ही है । भावार्थ-~भावास्रव जो राग द्वेष मोहका लगाव उसका तो ज्ञानीके अभाव हो गया है और जो द्रव्यानव हैं पुद्गलपरिणाम हैं, उनसे तो स्वयं स्वरूपतः भिन्न है, इसलिये शानी निरास्रव ही है । Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षिका ३०९ एव कार्मणशरीरेणव संबद्धा न तु जीवेन, अतः स्वभावसिद्ध एवं द्रव्याखवाभावो ज्ञानिनः । भावाञवाभावमयं प्रपत्रो द्रव्यास्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः । ज्ञानी सदा ज्ञानमयंकभावो निरास्त्रको ज्ञायक एक एव ॥११५।। ।। १६९ ॥ पिंडसमाणा पृथ्वीपिण्डसमाना:-प्रथमा बहु० । पुबणिबद्धा पूर्वनिबद्धाः-प्र० बहु० । दुतु-अव्यय । पच्चया प्रत्यय:-प्र० बहु० । तस्स तस्य-षष्ठी एक कम्मसरीरेण कर्मशरीरेण-तृतीया एक० । दूतू-अव्यय । बद्धा बद्धाः-१० बहु0 1 सब्जे सर्वे-प्र० बहु० । पि अपि-अव्यय । णाणिस्स ज्ञानिन:-षष्ठी एक० ।।१६६।। प्रसंगवियररग--अनन्तरपूर्व गाथामें रागाद्यसंकीर्णभावका सम्भव बताकर ज्ञानीके भावासवाभावका अविनाभावी द्रव्याखवभाव बतलाया है । तथ्यप्रकाश-(१) अज्ञान द्वारा पहिले जो कर्म बंध गये थे उनमें से जो भी ज्ञानी पुरुषके सत्तामें रह रहे वे अचेतन पुद्गलपरिणाम पृथ्वीपिंडके समान पड़े हुए हैं । (२) सत्तामें पड़े हुए पुद्गलकर्म अपना प्रभाव (अनुभागोदय) नहीं कर रहे । (३) जब सत्तामें पड़े हुए कर्म उदयमें पाते हैं तब ज्ञानीके ज्ञानस्वभाबमें लगाव होनेसे संसारस्थितिबंध नहीं कर पाते है । (४) कर्मप्रकृतियाँ कार्माण शरीरसे ही बंधी हुई होती हैं । (५) जीव प्रमुर्तिक है उसके साथ मूर्त पुद्गलकर्म नहीं बंधे हैं, किन्तु कर्मफलका याने विभावका लगाव होनेसे अज्ञानीके निमित्तनैमित्तिक विधिमें पुद्गलकमका एकक्षेत्रावगाह बन्धन बना है। (६) पुद्गलकर्मका एकक्षेत्रावगाह स्थिति अनुभाग वाला बंधन, ज्ञान होनेपर भी राम रहने तक होता है । (७) बीतराम शानीके नवीन कर्मबंधन नहीं होता, मात्र योग रहने तक ईर्यापथ पालव होता है। (८) कर्मका बन्धन कार्माणशरीरसे है। (१) जीवका उपयोग ज्ञानस्वभावके अभिमुख है, इस दृष्टिसे ज्ञानी के द्रव्यास्लवका अभाव है । (१०) सूक्ष्मदृष्टिसे द्रव्यानवका प्रभाव गुणस्थानानुसार जानना । सिद्धान्त-(१) कमंत्वका अभ्युदय कार्माणवर्गणावोंमें हुआ है । (२) वस्तुतः कर्म का बन्धन कार्माणशरोरसे होता है। (३) कर्मका बन्धन जीवके साथ होता है यह कथन फलित कथन है। दृष्टि---१, २-- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। ३- एकजातिद्रव्ये अन्यजातिद्रव्योपचारक प्रसद्भूतव्यवहार (१०६)। प्रयोग--कर्मको कार्मारणशरीरसे बंधा हुआ जानकर उनसे भिन्न अपनेको ज्ञानमात्र निरखकर अपने में उपयुक्त होकर परमविश्राम पानेका पौरुष करना ।।१६६।। अब पूछते हैं कि ज्ञानी निरास्रव किस तरह है ? उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं[यस्मात्] जिस कारण [चतुविधाः] चार प्रकारके प्रास्रव याने मिथ्यात्व, अविरमण, कषाय व योग [शानदर्शनगुणाभ्यां] ज्ञान दर्शन गुणोंके द्वारा [समये समये] समय-समयपर [अनेकमेवं] Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कथं ज्ञानी निरास्त्रवः ? इति चेत-- चहुविह अगणेयमेयं बंधते गागादंसगागुणेटिं। समये समये जमा तेण अबंधोत्ति पाणी दु ॥१७०॥ क्योंकि चारों हि आस्रव, दर्शनज्ञानगुणको विपरिणतिसे । बांधते कर्म नाना, होता ज्ञानी अतः प्रबन्धक ॥ १७० ॥ चतुविधा अनेकभेदं बध्नति ज्ञानदर्शनगुणाभ्यां । समये समये यस्मात् तेनाबंध इसि ज्ञानी तु ॥ १७० ।। ज्ञानी हि तावदास्रवभावभावनाभिप्रायाभावाग्निरासव एव । यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः मामसंज्ञ-बहुविह, अणेयभेय, णागदसणगुण, समय, समय, ज, त, अबंध, इत्ति, पाणि, दु । धातु- । संज्ञ--बंध बंधने, दंस दर्शनायां द्वितीयगणी। प्रातिपदिक-चतुर्विध, अनेकभेद, ज्ञानदर्शनगुण, समय, । समय, यत्, तत्, अबंध, इति. ज्ञानिन्, तु । पद विवरण-चहुविह चतुर्विधा:-प्रथमा बहु० । अणेयभेयं अने- । कभेद-द्वितीया एकवचन । बंधते बध्नन्ति–वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । णाणदसणगुणे हि.. अनेक भेदके कर्मोको [बन्नति बांधते हैं [तेन] इस कारण [झानी तु] ज्ञानी तो [प्रबंधः प्रबंधरूप है [इति] ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य--बुद्धिपूर्वक रागद्वेष मोह न होनेसे ज्ञानीको प्रबंधक कहा गया है। टीकार्थ- ज्ञानी तो प्रास्रवभावकी भावनाके अभिप्रायके प्रभावसे निराक ही है, किन्तु उस ज्ञानीके भी द्रव्यानव प्रति समय अनेक प्रकारके पुद्गलकर्मको बाँधता है, सो उसमें ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है । भावार्थ-अज्ञानमय प्रास्रवभाव न होनेसे जानीके मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियोंका आस्रव तो होता ही नहीं है, और जो कर्म अब भी बंध रहे हैं सो चारित्रकी निर्बलतासे दे रहे हैं । उसमें निमित्त चारित्रमोहनीयका उदय है । वहाँ भी विका. रभावमें राग नहीं है मो साधारण प्रास्रव है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शानोके द्रव्यानवका भी प्रभाव है। इस कथनपर यह जिज्ञासा हुई कि ज्ञानी होनेपर भी प्रागममें दशम गुणस्थान तक बन्ध कहा गया है फिर यहाँ यह कैसे कहा गया कि ज्ञानीके द्रव्यानवका प्रभाव है । इस जिज्ञासाका समाधान इस गाथासे प्रारंभ किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-मास्रवभागोंको भावना (लगाव) का अभिप्राय न होनेसे ज्ञानीको निरास्रव कहा गया है । २-ज्ञानी होनेपर भी द्रव्यप्रत्ययोंके निमित्तसे कुछ प्रकृतियोंका पासव दशम गुणस्थान तक होता रहता, उसमें प्रास्रवभाव भावनाका अभिप्राय कारण नहीं है, उसमें ज्ञानगुणका जघन्य परिणाम अथवा क्षोभ कारण है । ३-जहां रंच भी अव्यक्त भी क्षोभ महीं है वहाँ साम्पारायिक पात्रय नहीं, किन्तु योग रहने तक ईर्यापथ प्रास्त्रव है। ४-यहाँ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ वाधिकार समयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म प्रतिबध्नंति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एवं हेतुः ॥ १७० ॥ 1 1 सूतोवा बहुवचन । ज्ञानदर्शनगुणाभ्यां तृतीया द्विवचन । समये समये - सप्तमी एकवचन । जम्हा यस्मात्पंचमी एक । तेन ते एक अधः-द्रमा एक० इति इति-अव्यय । णाणी ज्ञानी --प्रथमा एक० । दु तु अव्यय ॥ १७० ॥ बुद्धिपूर्वक रागका याने रागमें रागका प्रभाव होनेसे मिथ्यात्वादि ४१ प्रकृतियों का प्राखव न होनेसे निरालव कहा गया है । ५ विवेकपूर्वक पौरुष प्रयत्न करनेके प्रसंग में बुद्धिपूर्वक वृत्तियों का निरीक्षण करके वर्णन होता है । सिद्धान्त - १ - ज्ञानीके शुद्ध ज्ञायकस्वरूपकी भावना होनेसे प्रास्रवभाव भावनानिमित्तक पुद्गलकमका ग्रात्रव निवृत्त हो जाता है । २- ज्ञान होनेपर भी जब तक क्षोभ विकार उठता रहता है तब तक क्षोभनिमित्तक (साधारण) श्रालय होता रहता है । दृष्टि-१ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय ( २४ब ) | २ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिक नय (२४) 1 प्रयोग - बन्धनिवृत्ति के लिये रागादिविकारोंको परभाव जान उनसे उपेक्षा करके अविकार ज्ञानस्वरूपमें आत्मत्वका अनुभव करनेका अन्तः पौरुष करना ॥ १७० ॥ अब पूछते हैं कि ज्ञानगुणका परिणाम बंधका कारण कैसे हैं, उसका उत्तर गाथामें कहते हैं - [ पुनरपि ] फिर भी [ यस्मात् तु] जिस कारण [ ज्ञानगुणः ] ज्ञानगुण [जघन्यात्ज्ञानगुणात् ] जघन्य ज्ञानगुणके कारण [ अन्यत्वं ] अन्य रूप [ परिणमते ] परिणमन करता है [ तेन तु ] इसी कारण [स] वह ज्ञानगुण [अंधको भणितः ] कर्मका बंधन कहा गया है । तात्पर्य - निर्मोह ज्ञानोके भी श्रवशिष्ट रामवश हुए ज्ञानगुणके जघन्यपरिणमन से बंध दशम गुणस्थान तक होता है । टीकार्थं - ज्ञानगुणका जब तक जघन्य भाव है याने क्षयोपशमरूप भाव है, तब तक ज्ञान अंतमुहूर्त विपरिणामी होनेसे बार बार अन्य प्रकार परिणमन करता है। सो वह यथाख्यात चारित्र अवस्थासे नीचे अवश्यंभावी राजका सद्भाव होनेसे बंधका कारण हो है । भावार्थ - क्षायोपशमिकज्ञान एक शेयके ऊपर अंतर्मुहूर्त हो रह पाता है, तदनंतर ग्रन्य ज्ञेयका अवलंबन करता है। इस कारण स्वरूपमें भी अंतमुहूर्त ही ज्ञानका ठहरना हो सकता है । श्रतः सम्यग्दृष्टि चाहे अप्रमत्तदशामें भी हो, उसके जब तक यथाख्यात चारित्र अवस्था नहीं हुई है तब तक अवश्य राग सद्भाव है, और उस रागके सद्भावसे बंध भी होता है । इस कारण ज्ञान गुणका जघन्य भाव बंधका कारण प्रसंगविवरण - धनन्तरपूर्व गाथामें कहा था कि कहा गया है 1. ज्ञानीके जो कुछ भी जहाँ भाव 24 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ समयसार कथं ज्ञानगुणपरिणामो बंधहेतुरिति चेत्-~ जम्हा दु जहण्णादो वाणगुणादो पुणोवि परिणमदि। अण्णात्तं गाणगुणो तेण दुलो बंधगो भणिहो ।।१५७१।। चूकि यह ज्ञानगुण फिर, अघन्य अवबोधसे पुनः नाना । अन्यरूप परिणमता, सो माना ज्ञानको बन्धक ॥१७१।। यस्मात्तु जघन्यात् ज्ञानगुणात् पुनरपि परिणमते। अन्यत्वं ज्ञानगुणः तेन तु स बंधको भणितः ।। १७१ ॥ ज्ञानगुणस्य हि यावज्जघन्यो भावः, तावत् तस्यांतर्मुहूर्तविपरिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतयास्ति परिणामः । स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादबश्यंभाविरागसद्भावात बंधहेतुरेव स्यात् ॥१७१॥ नामसंज्ञ--ज, दु, जहण्ण, गाणगुण, पुणो, वि, अण्णत्त, गाणगुण, त, दु, त, बंधग, भणिद । धातु. संश-परि-णम प्रह्वत्वे, मण कथने । प्रातिपदिक-यत्, तु, जघन्य, ज्ञानगुण, पुनर्, अपि, अन्यत्व, ज्ञान, गुण, तत्, तु, तत्, बंधक, भणित । मूलधातु-परि-णम प्रखत्वे, भण शब्दार्थः । पदविवरण-जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । जहाणादो जघन्यात्-पं० एक०। णाणगुणादो ज्ञानगुणात्-पं० एक० । पुणो पुन:अव्यय । वि अपि-अव्यय । परिणमदि परिणमते-दर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अपणतं अन्यत्वंप्रथमा एक० । णाणगुणो ज्ञानगुण:-प्रथमा एकः । तेण तेन-तृतीया एक० । दुतु-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । बंधगो बंधक:-प्रथमा एक० । भपिदो भणित:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। १७१ ।। होता है उसका कारण कोई ज्ञानगुणपरिणाम है । अब उसीके सम्बन्ध में जिज्ञासा हुई कि कैसे ज्ञानगुणपरिणाम बंधका कारण है ? इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें किया गया है । ज्ञानगुणका यह जघन्यभाव चारित्रमोहके विपाकके निमित्तसे है। सय्यप्रकाश--(१) ज्ञानगुणका जघन्य परिणाम रागादि विकारभावोंसे परिणमनेके कारण होता है । (२) जब तक ज्ञानगुणका जघन्य परिणमन है तब तक वह मन्तमुहूर्त अन्तमुहूर्तमें विपरिणमन करता रहता है । (३) ज्ञानगुणका जघन्य भाव अन्तर्मुहूर्तविपरिणामी होनेसे अन्य-मन्यरूपले परिणाम होता है । (४) ज्ञानगुणका यह जघन्यभाव यथाख्यात चारित्रावस्थासे पहिले तक याने दशम गुणस्थान तक रहता है । (५) ज्ञानगुरणका जघन्यभाष प्रयश्यंभाविरागका सद्भाव होनेसे बन्धका कारण होता है । सिद्धान्त-(१) कषायसहित शानदशा जघन्यज्ञान कहलाता है । (२) ज्ञानका जघन्य भाव पोद्गलिककस्लिवका निमित्त कारण है। हि-१- सभेद अशुद्धनिश्चयनय (४७५)। २- निमित्तत्वदृष्टि (५३) । प्रयोग-ज्ञानगुणकी जघन्यता दूर करनेके लिये अविकार परिपूर्ण सहज ज्ञानस्वभाव में मातमत्व अनुभव करनेका सत्पुरुषार्थ करना ॥१७१॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्रवाधिकार ३१३ एवं सति कथं ज्ञानी निरास्त्रवः इति चेत् दंसणणाणचरित्तं जं परिणमदे जहण्णभावेण । णाणी तेण दु बज्झदि पुग्गलकम्मेण विविहेण ॥१७२॥ दर्शन जान पनि जो, परिणाम है बम्बमाधीस । इससे ज्ञानी बंधता, नाना पौदगलिक कर्मोसे ॥१७२॥ दर्शनज्ञानचारित्रं यत्परिणमते जधन्यभावेन । ज्ञानी तेन तु बध्यते पुद्गलकर्मणा विविधेन ।। १७२ ।। यो हि ज्ञानी स बुद्धिपूर्वकरागद्वेषमोहरूपावभावाभावात निरास्रव एव, किंतु सोऽपि यावज्ज्ञानं सर्वोत्कृष्टभावेन द्रष्टुं ज्ञातुमनुचरितुं वाऽशक्तः सन् जघन्यभावेनंव झानं पश्यति जाना नामसंशदसणणाणचरित्त. ज, जहाणभाव, गाणि, त, दु, पुग्गलकम्म, विविह । धातुसंज्ञ-दंस दर्शनायां, जाण अवबोधने, चर गती, परि-णम प्रह्लत्वे, भव सत्तायां, बंध बंधने । प्रातिपदिक दर्शनशानचारित्र, यत्, जघन्यभाव, ज्ञानिन्, तत्, लु, पुद्गलकर्मन, विविह् । मूलधातु-शिर् प्रेक्षणे, ज्ञा अवबोधने, चर गत्यर्थः भ्वादि, बन्ध बन्धने। पदविवरण · दसणणाणचारित्तं दर्शनज्ञानचारित्र-प्रथमा एक० । जं अब पूछते हैं कि यदि ज्ञानगुमाका जघन्य भाव याने अन्यत्वरूप परिणमन कर्मबंधका कारण है तो फिर वह ज्ञानो निरास्त्रव कैसे रहा उसके उत्तरमें गाथा कहते हैं:--[यत्] क्योंकि [दर्शनशानवारित्रं] दर्शनज्ञानचारित्र [जघन्यभावेन] जघन्यभावसे [परिणमते] परिणमन करता है [तेन तु] इस कारणसे [ज्ञानी] ज्ञानो [विविधेन] अनेक प्रकारके [पुस्गलकर्मरण] पुद्गल कर्मसे [बध्यते] बंधता है । तात्पर्य---सराग अवस्थामें दर्शन ज्ञान चारित्रका जघन्य याने निरन्तर न टिक सके ऐसा परिणमन है, इस कारण वहाँ कर्मबन्ध हो जाता है । टीकार्थ----जो वास्तवमें ज्ञानी है वह बुद्धिपूर्वक राग द्वेष मोहरूप प्रास्रवभावके प्रभाव से निरास्रव ही है। किन्तु वह ज्ञानी जब तक ज्ञानको सर्वोत्कृष्ट भावसे देखनेको, जाननेको, प्राचरण करनेको असमर्थ होता हुया जघन्यभावसे हो ज्ञानको देखता है, जानता है, प्राचरण करता है तब तक उस ज्ञानीके भी ज्ञानके जघन्यभावको अन्यथा अनुपपत्ति होनेसे अनुमीयमान अबुद्धिपूर्वक कर्ममलकलंकका सद्भाव होनेसे पुद्गलकर्मका बन्ध होता है । इस कारण तब तक ज्ञानको देखना, जानना और पाचरण करना, जब तक ज्ञानका जितना पूर्ण भाव है उतना देखा, जाना, पाचरण किया अच्छी तरह न हो जाय । उसके बाद साक्षात् ज्ञानो हुआ सर्वथा निरास्रव हो होता है । भावार्थ--ज्ञानीके बुद्धिपूर्वक अज्ञानमय रागद्वेष मोहका प्रभाव है, इसलिये वह निरास्रव है फिर भी जब तक क्षायोपशमिक ज्ञान है, तब तक दर्शन, ज्ञान, चारित्र जघन्यभावसे परिणमते हैं, अतएव सम्पूर्ण ज्ञानका देखना, जानता, पाचरण होना Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ समयसार त्यनुचरति च तावत्तस्यापि जघन्यभावान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयमानावुद्धिपूर्वककलंकविपाकसद्धा. वात् पुद्गलकर्मबंधः स्यात् । अतस्तावज्ज्ञानं द्रष्टव्यं ज्ञातव्यमनुचरितव्यं च यावज्ज्ञानस्य यावान् पूर्णा भावस्तावान् दृष्टो ज्ञातोऽनुचरितश्च सम्यग्भवति । ततः साक्षात् ज्ञानोभूतः सर्वथा निरानव एव सः । संख्या निजबुधपूर्पर हितं राम राम स्वयं, वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं यत्-प्रथमा एक० । परिणमदे परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जहण्णभावेण जघन्यभावेननहीं होता । सो इस जघन्यभावसे ही ऐसा जाना जा रहा है कि इसके अबुद्धिपूर्वक कर्मकलंक विद्यमान है, उसीसे बन्ध होता है वह चारित्रमोहके उदयसे है, अज्ञानमय भाव नहीं है। इसलिये ऐसा उपदेश है कि जब तक ज्ञान सम्पुर्ण न हो तब तक ज्ञानका ही ध्यान निरन्तर करना याने झानको हो जानना, ज्ञानको ही पाचरना । इसी मार्गसे चारित्रमोहका नाश होता है और केवलज्ञान प्रकट होता है । जब केवलज्ञान प्रकट हो जाता है तब सब तरहसे साक्षात् निराम्रय होता है । यहाँ अबुद्धिपूर्वक रागादिक होनेपर भी बुद्धिपूर्वक रागादिक न होनेसे ज्ञानी को निरानब कहा है । अबुद्धिपूर्वक रागका प्रभाव होने के बाद तो केवलज्ञान ही उत्पन्न होता, तब उसे साक्षात् सर्वप्रकारसे निरानन जानिये । अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-संन्य इत्यादि । प्रर्य-यह प्रात्मा जब ज्ञानी होता है तब अपने बुद्धिपूर्वक सभी रोगको निरंतर दूर करता हुअा और अबुद्धिपूर्वक रागको भी जीतनेके लिये बारंबार अपनी ज्ञानानुभवनरूप शक्तिका स्पर्श करता हुना तथा शामके समस्त पलटनोंको दूर करता हुआ ज्ञानके पूर्ण होता हुप्रा आत्मा शाश्वत निरास्रव होता है। भावार्थ-जब ज्ञानीने समस्त रागको हेय जाना तब उसके मेटनेके लिए उद्यमी होता हो है और जो प्रास्रव हो रहे हैं सो उनमें इसके पानव भावोंको भावनाका अभिप्राय नहीं है । अतः ज्ञानीको निरास्रव कहा गया है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि ज्ञानगुणका जघन्यभाव यथाख्यातचारित्रावस्थासे पहिले तक कर्मबन्धक्रा हेतु है । तो इस कथनपर यह जिज्ञासा होती है कि फिर ज्ञानी निराम्रब कैसे रहा ? इसी जिज्ञासाका समाधान इस गाथामें करते हुए सिद्ध किया है कि ज्ञानी बुद्धिपूर्वक प्रास्त्रवभावका अभाव होनेसे निरास्रव है, किन्तु वहीं जब तक जघन्य ज्ञानरूप रहता है तब तक उसके किन्हीं प्रकृतियोंका प्रास्रव है । तथ्यप्रकाश-१-ज्ञानी बुद्धिपूर्वक रागद्वेषमोहरूप प्रास्रवभाव न होनेसे निरास्त्रव ही है । २-ज्ञानी होकर भी जब तक ज्ञान जघन्य भावरूप में परिणम रहा है तब तक अबुद्धिपूर्वक Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्रवाधिकार स्वशक्ति न । उनिहुदन परिशिगन सकता जाग पूर्णोभवन्नात्मा नित्यनिरामयो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।।११६।। ।। १७२ ॥ सर्वस्यामेव जीवत्या द्रव्यप्रत्ययसंतती । कुतो निरालवो ज्ञानी नित्यमेवेति चेन्मतिः |!११७॥ तृतीया एकः । णाणी ज्ञानी-प्र० ए० । तेण तेन-तृ० एक० । दुतु-अव्यय । बज्झदि वध्यते यतमान लट् अन्य पुराण एक० किया । पुग्गलकम्मेण पुद्गलकर्मणा-तृ० ए० । विविहेण विविधेन-तृतीया एक० ।। १७ ।। कर्मकलकविपाक होनेसे उसके कर्मबन्ध है । ३- ज्ञानीके कुछ काल तक जो कर्मबन्ध है वह संसारस्थितिक कर्मबन्ध नहीं है, तो भी ज्ञानी अयिकार परिपूर्ण सहज ज्ञानभावकी आराधना करके उस हीनताको दूर कर देता है। ४-वीतराग ज्ञानो होनेपर तो वह सर्वथा निराखव सिद्धान्त-१-अविकार सहजसिद्ध चैतन्यभावरूप प्रात्मत्वको भावना होनेसे ज्ञानो निरालब है । २-चारित्रमोहके उदयसे ज्ञानीके भी ज्ञानका क्षोभ परिणाममय अघन्य भाव होता है । ३-ज्ञानी अविकार परिपूर्ण सहज ज्ञानस्वभावको अभेद पाराधनाके बलसे ज्ञानक होनभावको समाप्त कर देता है। दृष्टि---१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब)। २- उपाधिसापेक्ष प्रसुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। ३- उपादान दृष्टि (४६ ब)। प्रयोग-ज्ञानमय प्रात्मस्वरूपका सम्यक् स्वाधीन अनाकुल सहजशुद्ध परिपूर्ण विकास प्राप्त करनेके लिये अविकार, परिपूर्ण सहजानन्दमय अन्तस्तत्त्वमें आत्मत्वको भावना हद बनाना चाहिये ।।१७२।। अब सभी द्रव्यानवकी संततिके जीवित रहनेपर ज्ञानी निरास्रव किस प्रकार है ? ऐसा प्रश्न श्लोकमें करते हैं.-सर्वस्या इत्यादि। अर्थ-सभी द्रन्यास्रवकी संततिके जोत रहनेपर भी ज्ञानी नित्य ही निराखब कैसे रहा यदि ऐसी शङ्का हो तो सुनिये-~~[सम्यादृष्टे:] सम्यादृष्टिके [सर्वे] समस्त [पूर्वनिबद्धाः] पूर्व अज्ञान अवस्थामें बांधे गये [प्रत्ययाः मिथ्या स्वादि प्रास्रव [संति] सत्तारूप हैं वे [उपयोगप्रायोग्यं] उपयोगके प्रयोग करने रूप जैसे हों वैसे [कर्मभावेन कर्मभावसे [अनंति] बन्ध करते हैं। [तु] और [संति] सत्तारूप रहते हुए वे पूर्वबद्ध प्रत्यय उदय प्राये बिना [निरुपभोग्यानि] भोगनेके प्रयोग्य होकर स्थित हैं। [तु] लेकिन [तथा बध्नति] वे उस तरह बँधते हैं [यथा] जैसे कि [ज्ञानावरणादिभावः]. ज्ञानावरणादि भावोंके द्वारा [सप्ताष्टविधानि] सात आठ प्रकार फिर [उपभोग्यानि] भोगने योग्य [भवंति] हो जायें । [तु] और [यथा] जैसे [इह] -स लोकमें [पुरुषस्य] पुरुषक Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार सव्वे पुव्वणिवद्धा दु पच्चया संति सम्मदिहिस्स । उपयोगप्पाअोगं बंधते कम्मभावेण ॥१७३॥ संती दु गिरुखभोज्जा बाला इत्थी जहेब पुरिसस्स । बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स ॥१७४।। होदूण णिरुखभोजा तह बंधदि जह हवंति उवभोज्जा । सत्तट्टविहा भूदा णाणावरणादिभावेहि ॥१७५॥ एदेण कारगोण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो होदि । पासवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा ॥१७६॥ पूर्वबद्ध सब प्रत्यय, ज्ञानीके रह रहे हैं सत्तामें । उपयोगयुक्त यदि हों, तो बांधे कर्मभावोंसे ॥१७॥ सत्तास्थ निरुपभोग्या, वाला स्त्री यथा है मानवके । उपभोग्य हुए बांधे, तरुणी नारी यथा नरको ॥१७॥ वे निरुपभोग्य विधि ज्यौं, पाकसमय भोगयोग्य हो जायें। त्यों ही शानावरणा-दिक पुद्गलकर्मको बांधे ॥१७५।। इस कारणसे सम्यग्-ष्टी आत्मा प्रबंधक कहा है। क्योंकि रागादि नहिं हों, तो प्रत्यय हैं नहीं बन्धक ॥१७६॥ नामसंज्ञ-सब्ब, पुठवणिबद्ध, दु, पच्चय, सम्मदिदि, उवओगप्पाओग्ग, कम्मभाव, दु, णिरुवभोज्ज, बाला, इत्थी, जह, एव, पुरिस, त, उवभोज्ज, तरुणी, इत्थी, जह, पर, णिरुवभोज्ज, तह, जह: उवभोज्ज, [बाला स्त्रो] बालिका स्त्री भोगने योग्य नहीं होती उस प्रकार [निरुपभोग्यानि] उपभोगके अयोग्य [भूत्वा] होकर भी [तानि] वे ही जब [उपभोग्यानि] भोगने योग्य होते हैं तब [बध्नाति] जीवको, पुरुषको बांधते हैं अर्थात् जीव पराधीन हो जाता है, [यथा] जैसे कि [तरुणी स्त्री] बही बाला स्त्री जवान होकर [नरस्य] पुरुषको बाँध लेती है अर्थात् पुरुष उसके प्राधीन हो जाता है यही बँधना है । [एतेन तु कारणोन] इसी कारणसे [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि [प्रबंधकः] प्रबंधक [भरिणतः] कहा गया है क्योंकि [प्रावभावाभावे] प्रास्रवभाव जो राग-द्वेष मोह उनका प्रभाव होनेपर [प्रत्ययाः] मिथ्यात्व आदि प्रत्यय सत्तामें होने पर भी [बंधकाः] आगामी कर्म बंधके करने वाले [न] नहीं [भरिणताः] कहे गये हैं । टीकार्य-जैसे. सत्ता अवस्थामें तत्कालकी विवाहित बाल स्त्रोकी तरह पहिले अनुप Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्रवाधिकार ३१७ सर्वे पूर्वनिबद्धास्तु प्रत्ययाः संनि सम्यग्दृष्ट: । उपयोगप्रायोग्य बनति कर्मभावेन ॥१७३ ।। संति तु निरुपभोग्यानि बाला स्त्री यह पुरुषस्य । बध्नाति तानि उपभोग्यानि तरुणी स्त्री यथा नरस्य । भूत्वा निरुपभोग्यानि तथा बध्नाति यथा भवत्युपभोग्यानि । सप्ताष्टविधानि भूतानि शानावरणादिभावः । एतेन कारणेन तु सम्यग्दृष्टिरबंधको भवति । आस्रवभावाभावे न प्रत्यया बंधका भणिताः ॥ १७६ ।। यतः सदवस्थायां तदात्वपरिणीतबालस्त्रीवत् पूर्वमनुपभोग्यत्वेऽपि विपाकावस्थायां प्राप्तयौवन पूर्वपरिणीतस्त्रीवत् उपभोग्यत्वाद् उपयोगप्रायोग्यं पुद्गलकर्मद्रव्यप्रत्ययाः संतोऽपि कर्मोदयकार्यजीवभावसद्धाबादेव बध्नति ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः संति, संतु, तथापि स तु निरास्तव एवं कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामसत्तविह, भूद, गाणावरणादिभाव, एत, कारण, दु, सम्मादिट्रि, अबंधग, आसवभावाभाव, ग, पच्चय, बंधग, भणिद । धावसंश-णि-बंध बंधने, अस भुवि, मुंज भोगे, बर स्वीकाराच्छादनयो:, भण कथने, आसद सवणे, ही सशाया। प्रतिपदिक ..सतं, पूर्वनिवर, कपर, सम्यग्दृष्टि, उपभोगप्रायोग्य, कर्मभाव, निरुपभोग्य, बाला, स्त्री, यथा, इह, पुरुष, तत्, उपभोग्य, तरुणी, स्त्री, यथा, नर, निरुपभोग्य, तथा, यथा, उपभोग्य, सप्ताष्टविध, भूत, ज्ञानावरणादिभाव, एतत्, कारण, तु, सम्पष्टि, अबन्धक, भणित, आसवभावाभाव, न, प्रत्यय, बन्धक, भणित । मूलपातु-बन्ध बन्धने, अस भुवि, युजिर् योगे, भुज पालनाभ्यवहारयोः रुधादि, ने नये भ्वादि क्र यादि, भू सत्तायां । पदविवरण-सव्वे सर्वे-प्रयमा बहु० । पुन्दभोग्य होनेपर भी विपाक अवस्थामें यौवन अवस्थाको प्राप्त उसी पूर्व परिणीत स्त्रोकी तरह भोगने योग्य होनेसे जैसा प्रात्माका उपयोग विकार सहित हो उसो योग्यताके अनुसार पुद्गल कर्मरूप द्रव्यप्रत्यय सत्तारूप होनेपर भी कर्मके उदयानुसार जीवके भावोंके सद्भावसे ही बंध को प्राप्त होते हैं । इस कारण ज्ञानीके द्रव्यकर्मरूप प्रत्यय (मास्रव) सत्तामें मौजूद हैं तो भी वह ज्ञानी तो निरासक ही है, क्योंकि कर्मके उदयके कार्यरूप राग द्वेष मोह रूप प्रास्त्रवभावके प्रभाव होने पर द्रव्यप्रत्ययोंके बन्धकारापना नहीं है। भावार्थ-सत्तामें मिथ्यात्वादि द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं तो भो वे मागामी कर्मबंधके करने वाले नहीं हैं। क्योंकि बन्ध तो उनका उदय होनेपर ही होता है । और उनकी इस निमित्तताका भी निमित्त जोधके राग द्वेष मोहरूप भाव होते हैं अतः द्रव्यप्रत्ययके उदयके और जीवके भावोंके कार्यकारणभाव निमित्तनैमित्तिकभाव रूप है। सत्तामें विद्यमान द्रव्यकर्म विकारके निमित्त नहीं होते। जैसे विवाहिता बाला विकारका कारण नहीं बनती, वही जब तरुणी होती है तो विकारका कारण बनती है, यदि पुरुष उसके तरुणी होनेके पहिले विरक्त हो जाय तो लो वह तरुणी भी विकारकारक नहीं बनी, ऐसे हो उस विवक्षित कर्मविपाकसे पहिले यह आत्मा ज्ञानी विरक्त हो जाय तो कर्मविपाकका भी जोर नहीं रहता इस तरह अपेक्षासे सम्यग्दृष्टि हुए बाद चारित्रमोहका उदयरूप परिणाम होनेपर भी शानी हो कहा गया है । और शुद्धस्वरूपमें लीन रहनेके अभ्याससे समाधिबलसे केवलज्ञान प्रकट होनेसे साक्षात् Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार बंब हेतुत्वात् । विजहति नहि सत्ता प्रत्ययो: पूर्वबद्धा: समयमनुसरंतो यद्यपि द्रव्यरूपाः । तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवरति न जातु ज्ञानिन: कर्मबंधः ।।११।। रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो णिबद्धा पूर्वनिबद्धा:-प्रथमा बहु० । दुतु-अन्यय । संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । सम्मादिदिस्म सम्यग्दृष्ट:-षष्ठी एक० । उवओगप्पाउम्ग उपभोगप्रायोग्य-क्रियाविशेषण यथा स्यात्तथा, बंधते बध्नन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । कम्मभावेण कर्मभावेन-तृतीया एक० । संति-प्रथमा बहु० कृदंत, दु तु-अव्यय । णिरुव भोज्जा निरुपभोग्यानि-प्र० बहु० । वाला-प्रथमा एक० । इत्थी स्त्री-प्रथमा एक० । जह यथा-अव्यय । परस्स नरस्य-षष्ठी एकः । होगुण भूत्वा-असमाप्तिकी क्रिया । निरुवभोज्जा निरुपभोग्यानि-प्र. बहु० । तह तथा अव्यय । बंधदि बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य बहु० जह यथा--अव्यय । शानी होता है तब सा दिवालव हो गाया है। अब इस अर्थका कलगरूप काव्य कहते हैं-विजहति इत्यादि । अर्थ.....यद्यपि अपने अपने समयमें उदय पाने वाले पूर्वबद्ध द्रव्यरूप प्रत्यय अपनी अपनी सत्ताको नहीं छोड़ रहे याने वे हैं तो भी ज्ञानीके समस्त रागद्वेष मोहके प्रभावसे नवीन कर्मका बंध कभी अवतार नहीं घरता । भावार्थ-राग द्वेष मोह भावोंके बिना सत्तामें रहने वाले द्रव्यास्रव बंधका कारण नहीं है । यहां सर्वत्र बताये गये राग द्वेष मोहके प्रभावसे बुद्धिपूर्वक होने वाले रागादिका अभाव समझना । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञान के जघन्य भावसे अनुमीयमान अबुद्धिपूर्वक कमंकलंकविपाक होनेसे दशम गुणस्थान तक ज्ञानी नाना पुद्गलकमसे बंधता है । सो इस कथनपर प्रश्न हग्रा कि जब द्रव्य प्रत्ययसंतति पाई जा रही है तो फिर ज्ञानीको निरालव कैसे कहा जा सकता है ? इस प्रश्नका समाधान इस गाथाचतुष्कमें किया गया है। तध्यप्रकाश--१. बद्धकर्म जब सत्तामें रह रहे हैं तब वे कर्म उपभोग्य नहीं हैं। २-जब वे कर्म उदयमें आते हैं तब ज्ञानीके उसके अनुभागरसमें राग न होनेसे अज्ञानमय राग द्वेष मोहरूप प्रास्रव भाव नहीं है । ३-प्रज्ञानमय राग द्वेष मोहरूप प्रास्रवभावके प्रभाव से ज्ञानीके द्रव्यप्रत्यय प्रायोग्य नवकर्मके प्रास्त्रंबके हेतु नहीं हो पाते । ४. जैसे बाला स्त्री अनुपभोग्य है वह जब युवती होगी उससे पहिले पुरुष यदि विरक्त हो तब वह कभी भी उपभोग्य न हो सकी, ऐसे ही जब कर्म सदवस्य है तब अनुपभोग्य हैं, वे जब बिपाकोदयमें प्रावेंगे उससे पहिले ही यह जीव यदि ज्ञानमय व विराग हो जाय तो वे कभी भी उपभोग्य न हो सके । ५-प्रबुद्धिपूर्वक (अव्यक्त) उपभोगको यहाँ उपभोग नहीं माना है। सिद्धान्त-१- अविकार सहज शुद्ध ज्ञानस्वभावकी उपासनामें कर्म अनुपभोग्य हो जाते हैं । २.द्रव्यप्रत्ययोंको निमित्तत्वका निमित्त अध्यवसान न मिलनेसे वे द्रव्यप्रत्यय बन्धक Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवाधिकार ३१६ यदसंभवः । तत एव न बंधोऽस्य, ते हि बंधस्य कारणं ॥११६।। ॥ १७३-१७६ ।। हवंति भवन्ति-वर्तमानः अन्य. बहु । उपभोज्जा उपभोग्यानि-प्र. बह । सत्तविहा सप्ताष्ट्रविशतिप्रथमा बहु० । भूदा भूतानि-प्रथमा बहु० । णाणावरणादिभावेहि ज्ञानावरणादिभावै:-तृ० बहू । एदेण एतेन-तृ० एक०। कारणेण कारणेन-तृ एक० । दु तु-अव्यय । सम्मादिट्ठी सम्यादृष्टि:-प्रथमा एक० । अबंधगो अबन्धकः-प्रथमा एक० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल ! आसव भावाभावे आस्रवभावाभावे-सप्तमी एक । ण न-अव्यय । पच्चया प्रत्यया:-प्रथमा बहु० । बन्धगा बन्धका:--प्रथमा बहु० । भणिदा भणिता:-प्रथमा बहुवचन ।। १७३-१७६ ॥ हेतु नहीं होते। दृष्टि --१--स्वभावनय (१७६) । २--उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४५)। प्रयोग-कर्मास्रवणसे निवृत्त होनेके लिये तथा पूर्वबद्धकर्मके विषरससे बचनेके लिये अविकार सहन सिद्ध चित्प्रकाशमात्र अन्तस्तत्व में उपयोग देना व दिये रहना ॥१७३-१७६।। अब इसी अर्थको दृढ़ करनेके लिए गाथाकी उत्थानिका रूप श्लोक कहते हैं;---राग इत्यादि । अर्थ-चूँकि ज्ञानीके राग द्वेष मोहका होना असंभव है प्रत: ज्ञानीके बंध नहीं है क्योंकि रागद्वेषमोह ही बंधके कारण हैं। भावार्थ---ज्ञानीके मोह तो है ही नहीं, जो कर्मविपाकवश रागद्वेष होते हैं वे अभिप्रायपूर्वक नहीं, अतः ४१ प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, शेष बन्ध भी विशेष नहीं होता और जो दशम गुरणस्थानसे ऊपरके ज्ञानी हैं उनके किंचिन्मात्र भी बन्ध महीं है, सिर्फ योग रहने तक ई-पथ प्रास्रव होता है-[रागः] राग [षः] द्वेष [च मोहः] और मोह प्रिास्त्रवाः] ये प्रास्रव [सम्यग्दृष्टेः] सम्यग्दृष्टिके [न संति नहीं हैं [तस्मात् ] इसलिये [मानवमाधन विना] पासवभावके बिना [प्रत्ययाः] द्रव्यप्रत्यय [हतकः] कर्मबन्धका कारण [न भवंति नहीं हैं [चतुर्विकल्पः] मिथ्यात्व प्रादि चार प्रकारका [हेतुः] हेतु [अष्टविकल्पस्य] पाठ प्रकारके कर्मके बंधनेका [कारणं भरिणतं] कारण कहा गया है [] और [तेषामपि उन चार प्रकारके हेतुनोंके भी [रागादयः] जीवके रागादिकभाव कारण हैं सो सम्यग्दृष्टिके [तेषां प्रभावे] उन रागादिक भावोंका प्रभाव होनेपर [न बध्यते] कर्म नहीं बँधते हैं। तात्पर्य-सम्यम्हष्टि के अज्ञानमय रागद्वेष मोहका प्रभाव होनेसे संसारविषयक बन्ध नहीं होता। ___टीकार्थ--सम्यग्दृष्टिके रागद्वेष मोह नहीं हैं; अन्यथा सम्यग्दृष्टिपना नहीं बन सकता। रागद्वेष मोहका प्रभाव होनेपर उस सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मबंधके कारणपनेको नहीं धारण करते । क्योंकि द्रव्यप्रत्ययोंके पुद्गलकर्मबंधका कारणपना रोगादिहेतुक ही है, इसलिये Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- समयसार रागो दोसो मोहो य आसवा पत्थि सम्मदिहिस्स । नहा शापान भावेगा निमा हेदू ण पच्चया होति ॥१७७।। हेदू चदुब्बियप्पो अबियपस्स कारणं भणिदं । तेसि पि य रागादी तेसिमभावे रण बझति ॥१७॥ रति प्रति मोह प्रारब, संज्ञानीके न होंय इस कारण । आत्रयभावके बिना, प्रत्यय बन्धक नहीं होते ॥ १७७ ।। मिथ्यादि चार प्रत्यय, होते हैं प्रष्ट कर्मके कारण । प्रत्यय भि रागहेतुक, रागादि बिना न विधि बांधे ॥१७८।। रागो द्वेषो मोहश्च आस्वा न संति सम्यग्दृष्टेः । तस्मादास्रवभावेन विना हेतवो न प्रत्यया भवंति ।।१७७॥ हेतुश्चतुर्विकल्पः अष्टविकल्पस्य कारणं भणितं | तेषामपि च रागादयस्तेषामभावे न बध्यते ॥१७८।। रागद्वेषमोहा न संति सम्यग्दृष्टेः सम्यग्दृष्टित्वान्यथानुपपत्तेः । तदभावे न तस्य द्रव्यप्रत्यया: पुद्गलकर्महेतुत्वं बिभ्रति द्रव्य प्रत्ययानां पुद्गलकमहेतुत्वस्य रागादिहेतुत्वात् । ततो नामसंज-राग, दोष, मोह, य, आसव, ण, अस्थि, सम्मादिद्वि, त, आसवभाव, विणा, हेदू, ण, पच्चय, हेदु, चदुवियप्प, अट्टवियप्प, कारण, भणिद, त, पि, य, रागादि, त, अभाव, ण। धातुसंश-रज्ज रागे, दुस वैकृत्ये अप्रीतौ च, अस सत्तायां, हो सत्तायां, भण कथने, बन्ध बन्धने । प्रातिपदिक-राग, द्वेष, कारणके कारणका प्रभाव होनेपर कार्यका प्रभाव प्रसिद्ध होनेसे ज्ञानीके बन्ध नहीं है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टि, रागद्वेषमोहके प्रभाव बिना नहीं हो सकता ऐसा जो अविनाभाव नियम यहां कहा है सो वह मिथ्यात्वसम्बन्धी रागादिकोंका प्रभाव जानना इस प्रायोगिक प्रक्रियामें उन्हींको रागादि माना गया है । सम्यग्दृष्टि होनेके बाद कुछ चारित्रमोह सम्बन्धी राग रहता है सो वहाँपर नहीं गिना, यह गौण है इसलिये उन भावासयोंके बिना द्रध्यात्रव बंधक कारण नहीं हैं, कारणका कारण न हो तो कार्यका भी अभाव हो जाता है यह सुप्रसिद्ध है । इस दृष्टिसे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी ही है इसके बन्ध नहीं है । यहाँ सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी कहनेको अपेक्षा यह है कि प्रथम तो जिसके ज्ञान, हो वही ज्ञानी कहलाता है सो सामान्यज्ञानकी अपेक्षा तो सभी जीव ज्ञानी हैं और सम्यग्ज्ञान मिथ्याज्ञानकी अपेक्षा देखा जाय तो सम्यग्दृष्टिके सम्य. ज्ञान है उसकी अपेक्षा ज्ञानी है, किन्तु मिथ्यादृष्टि के सम्यग्ज्ञान नहीं, अतः वह प्रज्ञानी है । यदि सम्पूर्ण ज्ञानकी अपेक्षा ज्ञानी कहा जाय तो केवली भगवान ज्ञानी हैं, क्योंकि जब तक सर्वज्ञ न हो तब तक पौयिक प्रज्ञानभाष बारहवें गुरणस्थान तक सिद्धान्तमें कहा है । इस तरह तथ्य विधिनिषेध अपेक्षासे निर्बाध सिद्ध होते हैं सर्वथा एकांतसे कुछ भी नहीं सधेगा। सो Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्रवाधिकार हेतुमदभावस्य प्रसिद्धत्वात् ज्ञानिनो नास्ति वन्धः । अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधचिह्नमेकायमेव कलयंति सदैव ये ते । रागादिमुक्तमनसः सततं भवतः पश्यंति बंधविधुरं समयस्य सारं ॥१२०॥ । मोह, च, आत्रव, न, सम्यग्दृष्टि, तत्, आसवभाव, विना, हेतु, न, प्रत्यय, हेतु, चतुर्विकल्प, अष्टविकल्प, कारण, भणित, तत्, अपि, च, रागादि, तत्, अभाव, न । मूलधातुः-रन्ज रागे, द्विष अप्रीतो अदादि, मुह वचित्ये दिवादि, अस भुवि, भू सत्तायां, भण शब्दार्थः, बन्ध बन्धने । पदविवरण-रागो रागः-प्रधमा एक० । दोसो द्वेषः-प्र० एक० । मोहो मोह:-प्र० एक० । य च-अव्यय । आसवा आस्रवाः-प्रथमा बहु० । जहाँ जैसे ज्ञानीकी विवक्षा हो उस प्रकारका प्रबंधक समझना। अब शुद्धनयका माहात्म्य कहते हैं-अध्यास्य इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष उन्नत ज्ञान चिह्न वाले शुद्धनयको अङ्गीकार कर निरन्तर एकाग्रपने का अभ्यास करते हैं वे पुरुष रागादि से मुक्त चित्त वाले होते हुए बन्धसे रहित अपने शुद्ध प्रात्मस्वरूपको देखते हैं । भावार्थ-यहाँ शुद्धनयसे एकाग्र होनेका संदेश दिया गया है । सो साक्षात् शुद्धनयका होना तो केवलजान होनेपर होता है और श्रुतज्ञानके अंशरूप शुद्धनयके द्वारा शुद्धस्वरूपका श्रद्धान करना तथा ध्यान कर एकान होना यह यहाँ सम्भव है । सो यह परोक्ष अनुभव है । एक देश शुद्ध होने की अपेक्षा व्यवहारसे यह प्रत्यक्ष कहा गया है। ___ अब कहते हैं कि जो इससे चिग जाते हैं वे कर्मोको बाँधते हैं--प्रच्युस्य इत्यादि। अर्थ-- जो पुरुष शुद्धनयसे छूटकर फिर रागादिकके योगको प्राप्त होते हैं वे ज्ञानको छोड़कर जिस कर्मबंधने पूर्वबद्ध द्रव्यास्रबोके द्वारा अनेक प्रकारके विकल्पोंका जाल कर रक्खा है ऐसे कर्मबन्धको धारण करते हैं । भावार्य- ज्ञानी होनेके बाद भी शुद्धनयसे याने शुद्धताकी प्रतीति से चिा जाय तो वह रागादिके सम्बन्धसे द्रव्यास्त्रवके अनुसार अनेक प्रकारके कर्मोको बांधता है । यहाँ मिथ्यात्व सम्बन्धी रागादिकसे बन्ध होनेको प्रधानता की है और उपयोगकी अपेक्षा को गोरण रखा है । ज्ञानी अन्य ज्ञेयोंमें उपयुक्त होवे तो भी मिथ्यात्वके बिना जितना रागका अंश है वह ज्ञानीके अभिप्रायपूर्वक नहीं है, इसलिए उस स्थितिमें हुआ अल्पबन्ध संसारका कारण नहीं है । चारित्रमोहके रागसे कुछ बन्ध होता है वह अज्ञानके पक्षमें नहीं गिना, परंतु बन्ध अवश्य है सो उसीके मेटनेको शुद्धनयसे न छूटनेका और शुद्धोपयोगमें लोन होनेका सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको उपदेश है । प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथाचतुष्कमें बताया गया था कि भावास्रवका अभाव होनेसे द्रव्यप्रत्यय बन्धके हेतु (पासव के हेतु) नहीं होते । इसी प्रर्थका समर्थन इस गाथायुग्म में किया गया है । तथ्यप्रकाश-१..अविरत सम्यग्दृष्टि के अनंतानुबंधोकषायसम्बन्धी राग द्वेष मोह नहीं Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ समयसार प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु, रागादियोगमुपयाति विमुक्तबोधाः । ते कर्मबन्धमिह विभ्रति . पूर्वबद्धद्रव्यास्रवः कृतविचित्रविकल्पालं ॥१२१।। ।।१७७-१७८।। ण न-अव्यय । अस्थि संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । सम्मदिदिरग सम्यग्दृष्टे:-षष्ठी एक । तम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । आसवभावण आस्रवभावेन-तृतीया ए० । विणा बिना-अव्यय । हेदू हेतवः- . प्रथमा बहु० । ण न-अन्यय । पच्च या प्रत्यया:-प्र० बहु० । हाँति भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । हेदू हेतवः प्रथमा बहु० । चदूवियपो चतुर्विकल्प:-प्रथमा एकवचन । अट्ठवियप्पस्स अष्टविकल्पस्य-षष्ठी । एक० । कारणं-प्रथमा एक० । भणिदं भणितं-प्रथमा एक० कृदन्त किया । तेसि तेषां-षष्ठी बहु । पि अपि-अव्यय । य च--अव्यय । रागादी रागादयः-प्रथमा बहु । तेसिं तेषां-पष्टी बहु० । अभावे-सप्तमी एक० । ण न--अव्यय । बझंति बध्यन्ते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष वहुवचन भावकर्मप्रक्रिया क्रिया ।।१७७ १७॥ हैं अन्यथा सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता था। २.-देशसंयत सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधी अप्रत्यास्यानावरण सम्बन्धी रागद्वेषमोह नहीं हैं । ३. प्रमतविरत सम्यग्दृष्टिके प्रनंतानुबन्धी अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण सम्बन्धी राग द्वेष मोह नहीं है । ४-अप्रमत्तविरत सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यानर व प्रत्याख्यानावरण संबंधी तथा संज्वलनतीद्रोदयजनित राग द्वेष मोह नहीं है । ५--श्रेणिगत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें तत्तद्योग्य स्थूल संज्वलन रागादि नहीं है । १ --सूक्ष्मसाम्परायमें सूक्ष्मसंज्वलन लोभ आदि कोई भी राग नहीं है । ७-द्रध्यप्रत्यय द्रव्यास्रवका निमित्त बने इसका निमित्त भावास्रव होता है । -ज्ञानीके गुणस्थानानुसार राग द्वेष मोह नहीं है अतः उसके द्रव्य प्रत्यय दव्यास्रवके हेतु नहीं होते, अतः ज्ञानीके बन्ध नहीं कहा गया । ६-ज्ञानीके संसारस्थिति वाला कर्मबन्ध न होनेसे सरागदशामें हुए अल्पबंधको यहाँ बन्ध नहीं कहा गया । सिद्धान्त-१-ज्ञानीके सहजसिद्ध ज्ञानस्वभावको भावना होनेसे अज्ञानमय भावात्रव नहीं होते। २--द्रव्यप्रत्यय नवीनकर्मबन्धके निमित्तभूत हैं । दृष्टि-----शानिय (१९४) । २-निमित्तदृष्टि (५३ अ)। प्रयोग-सर्व विरुद्धतावोंको संकटोंको दूर करनेके लिये सर्वविकारोंको परभाव जानकर उनका लगाव छोड़कर अपने अविकार चैतन्यस्वरूपके अभिमुख रहनेका प्रवर्तन करना १७७-१७८ ॥ अब इसी अर्थका समर्थन दृष्टांत पूर्वक करते हैं:- [यथा] जैसे [पुरुषेरण] पुरुषके द्वारा [गृहीतः] ग्रहण किया गया [पाहारः] आहार [स उवराग्निसंयुक्तः] वह उदराग्निसे युक्त हुआ [अनेकविध] अनेक प्रकार [मांसवसारुधिरादीन] मांस वसा रुधिर आदि [मायाद] भावों रूप [परिणमति] परिणमता है [तथा तु ज्ञानिनः] उसी प्रकार ज्ञानीके [पूर्व बद्धाः] Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ मानवाधिकार जह पुरिसेणाहारो गहिरो परिणमइ सो अणेयविहं । मंसवसारुहिरादी भावे उयरग्गिसंजुत्तो ॥१७॥ तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियपं । बज्झते कम्मं ते णयपरिहीणा उ ते जीवा ॥१८०॥ (युगलम्) ज्यौं नर गृहीत भोजन, होकर जठराग्नियुक्त नानाविध । मांस वसा रुधिरादिक, रसभावारूप परिणमता ॥१७६॥ त्यो ज्ञानीके पहिले, बद्ध द्वा लो अनेक प्रत्याय हैं। विविध कर्म यदि बाँधे, जानो वे शुद्धनयच्युत हैं ॥१०॥ यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधं । मांसवसारुधिरादीन भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।।१७६।। तथा ज्ञानिमस्तु पूर्व बद्धा ये प्रत्यया बहुविकल्पं । बध्नति कर्म ते नयपरिहोनास्तु ते जीवाः ।।१८०॥ ___ यदा तु शुद्धनयात परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात् पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात् ज्ञानावरणादिभाव: पुद्गलकर्मबंध परिणामयंति । न चैतदप्रसिद्धं पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः परिणामकरणस्य दर्शनात् । इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति वस्तदत्यागात् तस्यागाद् नामसंज्ञ -जह, पुरिस, आहार, गहिम, त, अणेयविह, मंसवसागहिरादि, भाव, उयरग्गिसंजुत्त, तह, पाणि, दु, पुथ्व, ज, बद्ध, पच्चय, बहुवियप्प, कम्म, त, णयपरिहीण, उ, त, जीव । धातुसंज्ञ—गह ग्रहणे, परि-णम अर्पणे, जु मिश्रणे, बन्ध बन्धने । प्रातिपदिक-यथा, पुरुष, आहार, गृहीत, तत्, अनेकविध, मांस, बसारुधिरादि, भाव, उदराग्निसंयुक्त, तथा, ज्ञानिन्, तु, पूर्व, यत्, बद्ध, प्रत्यय, बहुविकल्प, कर्मन्, तत्पूर्व बँधे [ये] जो [प्रत्ययाः] द्रव्यप्रत्यय [ते] वे [बहुविकल्पं] बहुत भेदों वाले [कर्म] कर्म को [बध्नति] बांधते हैं। [] वे [जीवाः] जीव [तु नयपरिहीनाः] शुद्धनयसे रहित हैं। तात्पर्य--पुरुषगृहीत पाहारके नाना परिणमनकी तरह पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्ययसे गृहीत कर्मके प्रकृति प्रदेश प्रादि नाना बंधरूप परिणमन हो जाते हैं। टीकार्थ-जिस समय ज्ञानी शुद्धनयसे छूट जाता है उस समय उसक रागादि भावोंके सद्भावसे पूर्व बंधे हुए द्रव्यप्रत्यय अपने हेतुत्वके हेतुका सद्भाव होनेसे कार्यभावका होना अनिवार्य होने के कारण ज्ञानावरणादि भावोंसे पुद्गलकर्मको बंधरूप परिणमाते हैं। और यह बात अप्रसिद्ध नहीं है । पुरुष द्वारा ग्रहण किया गया आहार भी उदराग्निसे रस, रुधिर, मांस आदि भावोंसे परिणमन करना देखने में आता है । भावार्थ-- ज्ञानी भी जब शुद्धनयसे छूटता तब रागादिरूप होता हुमा कर्मोको बांधता है । क्योंकि रागादिभाव द्रव्याखवके निमित्त के निमित्त होते हैं तब वे द्रव्यप्रत्यय अवश्य कर्मबन्धके कारणभूत होते हैं। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ समयसार बंध एव हि ॥१२॥ धीरोदारमहिन्यनादिनिधने बोधे निबध्नन् धृति, त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणां । तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य नियंबहिः, पूर्ण शाननयपरिहीन, तु, तत् जीव । मुलधातु -ग्रह उपादाने ऋ यादि, परि-णम प्रसत्वे, बन्ध बन्धने । पद विवरणजह यथा-अव्यय । पुरिसेण पुरुषेण-तृतीया एक । आहारो आहार:-प्रथमा एक० । गहिओ गृहीत:-प्र० एक० । परिणमदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक०। सो स:-प्र० एक० । अणेय विहं अनेकविधंक्रियाविशेषण अव्ययरूपे, मंसवसारुहिरादी मांसक्सारुधिरादीन-द्वि० बहु० । भावे भावान्-द्वि० बहु०। उपररिंगसंजुत्तो उदराग्निसंयुक्त:--प्र० ए० | तह तथा--अव्यय । पाणिस्स ज्ञानिन:-षष्ठी एक० । दुतु-अ० । पुच्वं पूर्व-क्रियाविशेषण अव्ययरूपे, जे ये-प्र० बहु० । बद्धा बद्धाः-प्रथमा बहु० । पच्चया प्रत्यया:-प्रथमा यहाँ इसी अर्थका तात्पर्य कहते हैं। इद इत्यादि । अर्थ-यहाँ पहले कथनका यही तात्पर्य है कि शुद्धनय त्यागने योग्य नहीं है, क्योंकि उस शुद्धनयका त्याग न होनेसे तो कर्म का बन्ध नहीं होता और उसके त्यागसे कर्मका बन्ध होता ही है। फिर उस शुद्ध नयके हो ग्रहणको दृढ़ करते हुए काव्य कहते हैं - धीरो इत्यादि । अर्थ-चलाचलपनेसे रहित, सर्व पदार्थों में विस्तार युक्त, महिमावान, अनादिनिधन, कर्मों को मूलसे नाश करने वाला शुद्ध नय धर्मात्मा पुरुषोंके द्वारा कभी छोड़ने योग्य नहीं है, क्योंकि शुद्धनयमें स्थित पुरुष बाहर निकलते हुए अपने ज्ञानको व्यक्तिविशेषोंको तत्काल समेटकर सम्पूर्ण ज्ञानधनका समूह स्वरूप, निश्चल शांतरूप, ज्ञानमय प्रतापके पुत्रको अवलोकते अर्थात् अनुभवते हैं । भावार्थ-~-शुद्धनय समस्त ज्ञानके विशेषोंको गौणकर तथा समस्त परनिमित्तसे हुए । भावोंको गौण कर चिन्मात्र अन्तस्तत्वको शुद्ध नित्य प्रभेद एक स्वरूप ग्रहण करता है । सो ऐसे सहज शुद्ध विन्मात्र अपने प्रात्माको जो अनुभव कर एकाग्र स्थित हैं वे ही समस्त कर्मों के समूहसे विविक्त अविकार ज्ञानमूर्ति स्वरूप अपने प्रात्माको देखते हैं । प्राध्यात्मिक शुद्धनय में अन्तर्मुहूर्त ठहरनेसे शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति होकर केवलझान उत्पन्न होता है । सो इसको अवलंबन कर जब तक केवलज्ञान न उत्पन्न हो तब तक फिर इससे छूटना नहीं, ऐसा प्राचार्य देवका उपदेश है। अब प्रास्रव का अधिकार पूर्ण हो रहा है। यहाँ रंगभूमिमें प्रास्रवका स्वांग बना था उसको ज्ञानने यथार्थ जान स्वांगको हटवा दिया और श्राप सहज विशुद्ध प्रगट हमा इस प्रकार ज्ञानकी महिमा काव्य द्वारा कहते हैं... रागादिना इत्यादि । अर्थ-रागादिक प्रास्रवोंके झट सर्वतः दूर होनेसे नित्य उद्योत रूप किसी परम वस्तुको अंतरंगमें अवलोकन करने वाले पुरुषका प्रचल, अतुल यह ज्ञान प्रति विस्ताररूप फैलता हुमा अपने निज रसके प्रवाहसे सब लोक पर्यंत अन्य, भावोंको अंतर्मग्न करता हुआ उदय रूप प्रगट हुमा। भावार्थ- शुद्धनयके अवलंबनसे जो पुरुष अंतरंगमें चैतन्यमात्र अन्तस्तत्त्वको एकाग्र Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ प्रास्त्रवाधिकार धनोधमेकम य मंति शांतं मह.. समादीनांगिति विगमात् सर्वतोप्यास्रवारणा, निस्योद्योतं किमपि परमं वस्तु संपश्यतोऽतः । स्फारस्फारः स्वरसविसरः प्लाश्यत्सर्वभावा-नालोकांतादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ।।१२४।। इति प्रास्रवो निष्क्रांतः ।। १७६-१८० ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्याती __आलवारूपकः चतुर्थोऽङ्कः ।।४।। बहु० । बहुवियप्पं बहुविकल्प-द्वितीया एकवचन कर्मविशेषण । बज्झते बध्नन्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । कम्मं कर्म-द्वितीया एकवचन कर्मकारक । ते-प्रथमा बहु० । णयपरिहीणा नयपरिहीना:-प्र० बहु । उ तु-अव्यय । ते-प्रथमा बहु० । जीवा जीवाः-प्रथमा बहुवचन.।। १७६-१८० ।। अनुभवते हैं उनके सब रागादिक प्रास्रव भाव दूर हो जाते हैं तब सब पदार्थोको जानने वाला केवलज्ञान प्रगट होता है । इस प्रकार प्रास्रवका स्वांग रंगभूमिमें बना था उसका ज्ञानने यथार्थस्वरूप जान लिया तब वह निकल गया। प्रसंगविवरण--अनंतरपूर्व गाथायुग्ममें कहा था कि भावास्रवके बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्धके हेतु नहीं है, हाँ जब शुद्धनयसे च्युत हो प्रात्मा रागादियोगको प्राप्त होता है तब वह कर्मबंधका बोझ करने लगता है । इसी प्रर्थका समर्थन इस गाथायुग्म में उदाहरणपूर्वक किया है। तथ्यप्रकाश-१-प्रखण्ड सहजसिद्ध अन्तस्तत्वका नयपक्षपातरहित होकर निरखना शुद्धनय कहलाता है। २-जब प्रान्मा शुद्धनयमें उपयुक्त है तब उसे प्रवन्धक कहा है । ३-जब ज्ञानी शुद्धनयसे रहित हो जाता है तब वहाँ रागादिकके होनेसे उदित द्रव्यप्रत्ययके निमित्तसे कार्माणवर्गणा ज्ञानावरणादि कर्म रूपसे परिणमने लगते हैं। ३-जैसे पुरुषगृहीत पाहार जठराग्नि द्वारा रसादिरूपसे परिणम जाता है वैसे ही शुदनय-परिहीन जीवके योग द्वारा गृहीत कार्माणवर्गणा स्कन्ध रागादिभावके द्वारा ज्ञानावरणादिरूपसे परिणम जाते हैं। सिद्धान्त--१- शुद्धनयपरिहीन जीबके रामादिभावका निमित्त पाकर द्रव्यप्रत्यय नवीन कर्मबन्धके निमित्त हो जाते हैं । २-शुद्धनयमें उपयुक्त प्रात्माके रागपि भावास्रवके अभावसे बन्ध नहीं होनेके कारण सहज प्रानन्द अभ्युदित होता। दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय, निमित्तदृष्टि (५३, ५३अ)। २-अनोश्वरनय (१८६)। प्रयोग-रागादिभाव विकारको सकलसंकटहेतु बन्धहेतु जानकर उस परभावसे उपेक्षा करके अविकार ज्ञानस्वरूपमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ॥१५६-१८०॥ इस प्रकार श्री अमृतचंदजी सूरि द्वारा विरचित समयसारख्याख्या प्रात्मख्यातिमें मानबका प्ररूपण करने वाला चतुर्थ अङ्क पूर्ण हुमा । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ समयसार अथ संनराधिकार अथ प्रविशति संवरः । प्रासंसारविरोधिसंवरजयकांतावलिप्तात्रवन्यक्कारात्प्रतिलब्ध. नित्यविजय संपादयत्संवरं । ज्यावृत्तं पररूपतो नियमितं सम्यक् स्वरूपे स्फुरज्ज्योतिश्चिन्मयमु. ज्ज्वल निजरसप्राग्भारमुज्जम्भते ॥१२५।। नामसंश---उवओग, कोहादि, ण, को, वि, उवओग, कोह, च, एव, हि, उवओग, ण, खलु, कोह, अट्ठवियप्प, कम्म, णोकम्म, च, अवि, ण, उवओग, य, कम्म, गोकम्म, च, अवि, णो, एयं, तु, अविवरीद, अब रंगभूमिमें संवर प्रवेश करता है। प्रथम हो टोकाकार मंगल के लिये चिन्मय ज्योतिका अनुमोदन करते हैं--आसंसार इत्यादि । अर्थ-प्रनादि संसारसे लेकर अपने विरोधी संघरको जीतकर एकांतपनेसे मदको प्राप्त हुए प्रासबके तिरस्कारसे जिसने नित्य ही जोत पाई है ऐसे संवरको उत्पन्न कराती हुई, परद्रव्य और परद्रव्य के निमित्तसे हुए भावोंसे भिन्ल, अपने यथार्थ स्वरूपमें नियमित, उज्ज्वल, देदीप्यमान, निजरसके ही प्राग्भारसे युक्त चिन्मय ज्योति प्रकट हो सकती है ! महार्थ --सनादिकालसे संकर पासवका विरोधी है, उस संवरको प्रास्रवने जीत लिया था इसलिये मदसे उन्मत्त होकर सारे विश्वपर नृत्य कर रहा था । अब भेदज्ञानके बलसे इस ज्ञानज्योतिने प्रास्रबका तिरस्कार कर संवरको प्राप्त कर विजय पाई । अब सब पररूपोंसे भिन्न अपने स्वरूप में निश्चल होकर यह ज्योति निर्बाध फैल रही है। वहाँ संवरके प्रवेशके प्रारंभमें ही समस्त कर्मोके संवरणके परम उपायरूप भेदविज्ञान को अभिवन्दना करते हैं:--[उपयोगे] उपयोगमें [उपयोगः] उपयोग है [क्रोधादिषु] क्रोध प्रादिकोंमें [कोऽपि उपयोगः] कोई भी उपयोग [नास्ति नहीं है [च] और [हि] निश्चयसे [क्रोधे एव] क्रोधमें ही [क्रोधः] क्रोध है [उपयोगे] उपयोगमें [खलु] निश्चयतः [क्रोधः नास्ति] क्रोध नहीं है, [अष्टविकल्पे कर्मरिण] पाठ प्रकारके झानावरण प्रादि कर्मोंमें [] तथा [मोकर्मणि अपि] शरीर आदि नोकर्मों में भी [उपयोगः नास्ति] उपयोग नहीं है [च] और [उपयोगे] उपयोगमें [कर्म च नोकर्म अपि] कर्म और नोकर्म भी [नो अस्ति नहीं है [एतत्त] ऐसा [मविपरीतं] सत्यार्थ [भानं] ज्ञान [जीवस्य] जीवके [यवा] जिस काल में [ममात] हो जाता है [तवा] उस कालमें [उपयोगशुओत्मा] केवल उपयोग स्वरूप Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवराधिकार ३२७ तत्रादावेव सकलकर्मसंवरणस्य परमोपायं भेदविज्ञानमभिनंदति उपयोगे उपभोगो कोहादिसु णत्थि कोवि उवयोगो। कोहे कोहो चेव हि उवोगे णत्थि खलु कोहो ॥१८१॥ अट्ठबियप्पे कम्मे पोकम्मे चावि गस्थि उपयोगो। उवयोगह्मि य कम्मं णोकम्मं चावि णों अस्थि ॥१८२॥ एयं तु अविवरीदं गाणं जइया उ होदि जीवस्स । तइया ए किंचि कुबदि भावं उवोगसुद्धप्पा ॥१८३॥ (त्रिकलम्) उपयोगमें उपयोग, क्रोधादिमें उपयोग नहिं कोई । क्रोधादिमें क्रोधादि,, उपयोगमें क्रोधादि नहीं ॥११॥ कर्म नोकर्ममें नहि, होता उपयोग शुद्ध परमात्मा । उपयोगमें न होते, कर्म व नोकर्म भी कोई ॥१२॥ यह यथार्थ सत्प्रज्ञा, होती जब इस सुभव्य प्रात्माके । तब परभाव न करता, केवल उपयोग शुद्धात्मा ॥१३॥ उपयोगे उपयोगः क्रोधादिषु नास्ति कोप्युपयोगः । क्रोधे क्रोधश्चय हि उपयोगे नास्ति खलु क्रोधः ।।१८१॥ अष्टविकल्पे कर्मणि नोकधि चापि नास्त्युपयोगः । उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नौ अस्ति ।।१५।। एतत्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य । तदा न किंचित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा ॥१८३॥ न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति द्वयोभिन्न प्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेस्तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसंबंधोऽपि नास्त्येव, ततः स्वरूपप्रतिष्ठितत्वलक्षण एवाधाराधेयसंबंधोऽवतिष्ठते । तेन ज्ञानं णाण, जया, उ, जीव, तइया, ण, किचि, भाव, उबओग, सुद्धप्पा । धातुसंज्ञ-अस सत्तायां, हो सत्तायां, कुव्व करणे, सुज्झ नैमल्ये । प्रातिपदिक- उपयोग, क्रोधादि, न, किम्, अपि, उपयोग, क्रोष, च, एव, हि, शुद्धात्मा [किंचित् भावं] उपयोगके सिवाय अन्य कुछ भी भाव [न करोति नहीं करता। तात्पर्य-चतन्यमात्र आत्मामें चेतना ही पाया जाता, क्रोधनादिक नहीं ऐसा जानने वाला ज्ञानी चेतने के सिवाय वस्तुतः अन्य कुछ नहीं करता। टोकार्थ--वास्तवमें एक द्रव्यका दूसरा द्रव्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि दोनोंका भिन्न भिन्न प्रदेश होनेसे एक सत्त्व नहीं बनता और सत्त्वके एक न होनेसे उसके साथ प्राधाराधेय सम्बन्ध भी नहीं है । इस कारण द्रव्यका अपने स्वरूप में ही प्रतिष्ठारूप माधाराधेय सम्बन्ध ठहरता है, इसलिए ज्ञान जाननक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है, क्योंकि जाननपना याने जाननक्रिया ज्ञानसे अभिन्न स्वरूप होनेके कारण ज्ञान में ही है और क्रोधादिफ हैं वे क्रोध Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- - - --- ३२८ समयसार जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं । जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात् ज्ञाने एव स्यात् । क्रोधादोनि क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, कुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्क्रोधादिष्वेव स्युः, न पुनः क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मरिण वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा संति परस्परमत्यंत स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसंबंधशून्यत्वात् । न च यथा जानस्य जानत्तास्वरूपं तथा क्रुध्यत्तादिरपि, क्रोधादीनां च यथा क्रुध्यत्तादिस्वरूपं तथा जानत्तापि कथंचनापि व्यवस्थापयितुं शक्येत, जानत्तायाः क्रध्यत्तादेश्च स्वभावभेदेनोद्भासमानत्वात् स्वभावभेदाच्च वस्तुभेद एवेति नास्ति ज्ञानाज्ञानयोराधाराधेयत्वं । किं च यदा किलैकमेवाकाशं स्वबुद्धिमधिरोप्याधाराउपयोग, न, खलु, क्रोध, अष्टविकल्प, कर्मन्, नोकर्मन, च, अपि, न, उपयोग, च, कर्मन्, नोकर्मन्, च, अपि, नो, एवं, तु, अविपरीत, शान, बदा, तु, जीव, तदा, न, किचित्, भाव, उपयोग, शुद्धात्मन् । मूलधातुउप-युजिर योगे, अस भुवि, भू सत्तायां, क्रुध-क्रोधे दिवादि, डुकृञ् करणे, शुध शौचे दिवादि । पवियरण - उवओगे उपयोगे-सप्तमी एकवचन । उवओगो उपयोग:--प्रथमा एकवचन । कोहादिसु क्रोधादिषुसप्तमी एक० । ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । को क:-प्र० ए० । वि अपिप्रादि क्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित हैं, क्योंकि क्रोधनादिरूप क्रिया क्रोधादिकसे अभिन्नप्रदेशी होनेके कारण क्रोषनादि रूप क्रिया क्रोधादिमें हो है तथा क्रोधादिकमें अथवा कर्म नोकर्ममें ज्ञान नहीं है और ज्ञानमें क्रोधादिक अथवा कर्म नोकर्म नहीं है, क्योंकि ज्ञानका तथा कोषायिक और कर्म नोकर्मका प्रापसमें स्वरूपका अत्यन्त विपरीतपना है उनका स्वरूप एक नहीं है । इसलिए परमार्थरूप प्राधाराधेय सम्बन्धका शून्यपना है। तथा ज्ञानका जैसे जाननक्रियारूप जानपना स्वरूप है वैसे ही क्रोधनादि रूप क्रियापना स्वरूप बन जाय व क्रोधादिक का कोयत्व प्राविक क्रियापना जैसे स्वरूप है उस तरह जानन क्रिया स्वरूप बन जाय यह किसी तरहसे भी स्थापन नहीं किया जा सकता है। क्योंकि जाननक्रिया और क्रोधनादि क्रिया स्वभावभेदसे भिन्न-भिन्न ही प्रकट प्रतिभासमान हैं, और स्वभावके भेदसे ही वस्तुका भेद है यह नियम है । इस कारण जानका और प्रज्ञानस्वरूप क्रोधादिकका प्राधाराधेय भाव नहीं है । मोर क्या ? देखिये जैसे एक ही आकाशद्रव्यको अपनी बुद्धिमें स्थापित करके जब प्राधाराधेयभाव निरखा जाता है तब आकाशके सिवाय अन्य द्रव्योंका अधिकरणरूप प्रारोपका निरोध होनेसे बुद्धिको भिन्न प्राधारको अपेक्षा नहीं रहती । और भिन्न प्राधारको अपेक्षा न रहनेपर एक ही माकाशको एक प्राकाशमें ही प्रतिष्ठित निरखने वालेको प्राकाशका प्राधार अन्य द्रव्य नहीं प्रतिभात होता है । इसी तरह जब एक ही ज्ञानको अपनी बुद्धिमें स्थापित कर प्राधाराधेय भाक निरखा जाता है तब शेष अन्य द्रव्योंका अधिरोप करनेके निरोधसे ही मुसिको भिन्न प्राधारकी अपेक्षा नहीं रहती। भिन्न प्राधारको अपेक्षा बुद्धिमें न रहनेपर एक Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवराधिकार ३२६ धेयभावो विभाव्यते तदा शेषद्रध्यांतराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चैकमाकाशमेवैकस्मिन्नाकाश एव प्रतिष्ठित विभावयतो न पराधाराधेयत्वं प्रतिभाति । एवं यदैकमेव ज्ञानं स्वबुद्धिमधिरोग्याधाराधेयभावो विभाध्यते तदा शेषद्रव्यान्तराधिरोपनिरोधादेव बुद्धेर्न भिन्नाधिकरणापेक्षा प्रभवति । तदप्रभवे चंकं ज्ञानमेवैकस्मिन् ज्ञान एवं प्रतिष्ठितं विभावयतो न पराधागधेयत्वं प्रतिभाति । ततो ज्ञानमेव जाने एद, क्रोधादय एव क्रोधादिष्वेवेति अव्यय । उवओगो उपयोगः-प्रथमा एक० । कोहे क्रोधे-सप्तमी एका । कोहो अोधः-प्रथमा एक० । च अव्यय । हि-अव्यय । उवओगे उपयोगे-सप्तमी एक० णस्थि, खलु-अव्यय । कोहो क्रोधःप्र० ए० । अढवियप्पे 'अष्टविकल्पे-स० एक० 1 कम्मे कर्मणि-सप्तमी एक० । णोकम्मे नोकर्मणि-सप्तमी एक० । च, अपि, ण, अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । उवओगो उपयोग:--प्र० ए०। उवओगम्हि उपयोगे-सप्तमी एक. , , करम -२० एक। दिम गोलो-अव्यय । अस्थि, एवं ज्ञान ही ज्ञानमें प्रतिष्ठित निरखने वालेको अन्यका अन्यमें आधाराधेय भाव प्रतिभासित नहीं होता । इसलिए ज्ञान हो ज्ञान में ही है और क्रोधादिक हो क्रोधादिकमें ही है। इस प्रकार शानका और क्रोधादिक व कर्म नोकर्मका भेदज्ञान अच्छी तरह सिद्ध हुआ। भावार्थ-उपयोग तो चेतनका परिणमन होनेसे ज्ञानस्वरूप है और क्रोधादिक भावकर्म, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म ये सब पुद्गलद्रव्यके ही परिणाम होनेसे जड़ हैं, इनमें और ज्ञान में प्रदेशाभेद होनेसे अत्यन्त भेद है । इसी कारण उपयोगमें तो क्रोधादिक, कर्म, नोकर्म नहीं हैं और क्रोधादिक कर्म, नोकर्ममें उपयोग नहीं है । सो इनमें परमार्थस्वरूप प्राधाराधेय भाव नहीं हो सकता है। अपना अपना प्राधाराधेय भाव अपने अपनेमें है। इस भेदको जानना ही भेदविज्ञान है यह अच्छी तरह सिद्ध हुना। __ अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं--- चद्रूप्यं इत्यादि । अर्थ-चैतन्यरूपको धारण करता हुप्रा शान और जरूपको धारण करती हुअा राग इन दोनोंका जो अशानदशामें एकत्व दिखता था उसको अन्तरंगमें अनुभव के अभ्यासरूप बलसे अच्छी तरह विदारणके द्वारा सब प्रकार विभाग करके यह निर्मल भेदज्ञान उदयको प्राप्त होता है इस कारण हे सत्पुरुषो ! तुम इस भेदज्ञानको प्राप्त करके दूसरेसे याने रागादिभावोंसे रहित होते हुए एक शुद्ध ज्ञानघनके समूहका प्राश्रय कर उसमें लोन होकर मुदित होभो । भावार्थ-ज्ञान तो चेतनास्वरूप है और रागादिकपुद्गल के विकार होनेसे जड़ हैं सो. दोनों प्रशानसे एकरूप विदित होते हैं । सो जब भेदविज्ञान प्रकट हो जाता है तब ज्ञानका और रागादिकका भिन्नपना प्रकट होता है तब यह ज्ञानी ऐसा जानता है कि ज्ञानका स्वभाव Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार साधु सिद्धं भेदविज्ञान । चद्रूप्यं जहरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयोरंतरणदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञान मुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यासिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना संतो द्वितीयच्युताः ।।१२६॥ एवमिदं भेदविज्ञानं यदा ज्ञानस्य बंपरीत्यकणिकामप्यनासादयवि. चलितमवतिष्ठते तदा शुद्धोपयोगमयात्मत्वेन ज्ञान ज्ञानमेव केवलं सन्न किंचनापि रागद्वेष मोह. एतत्-प्र० एक० । तु, अविवरीदं अविपरीत-प्र० एक० । जइया, यदा-अव्यय । दु तु-अव्यय । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्यिा । जीवरस जीवस्य--षष्ठी एक० । तइया तदा-अव्यय । ण तो जाननेमात्र ही है और ज्ञान में जो रागादिकको कलुषता व प्राकुलतारूप संकल्प विकल्प प्रतिभासित होते हैं ये सब पुद्गलके विकार हैं, जड़ हैं। यह भेदविज्ञान सब विभाव भावोंके मेटनेका कारण होता है और प्रात्मामें परमसंवरभावको प्राप्त करता है । इसलिये सत्पुरुषोंसे कहते हैं कि भेदविज्ञान पाकर रागादिकोंसे रहित होकर शुद्ध ज्ञानधन प्रात्माका प्राश्रय लेकर शाश्वत सहज प्रानन्दको प्राप्त हो । ऐसा यह भेदविज्ञान, जिस समय ज्ञानको रागादिविकाररूप विपरीतपनेकी करिणका को नहीं प्राप्त करता हुआ अविचलित ठहरता है, उस समय वह ज्ञान शुद्धोपयोगमयात्मकता से ज्ञान रूप ही केवल हुआ किचिन्मात्र मी राग द्वेष मोह भावको नहीं रचता। उस भेदविज्ञानसे शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है और शुद्धात्माकी प्राप्तिसे राग-द्वेष-मोहस्वरूप प्रास्रवभावों का प्रभावस्वरूप संवर होता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व प्रास्रवाधिकार पूर्ण होकर पासव निष्क्रान्त हो गया था । अब क्रमप्राप्त संवरतत्त्वका प्रवेश हुमा है, सो इसमें सर्वप्रथम समस्तकर्मके संवरण (प्रास्रवनिरोध) का परमोपायरूप भेदविज्ञान दर्शाया है। तध्यप्रकाश---१-एक द्रव्यका दूसरा द्रव्य कुछ भी नहीं लगता, क्या प्रत्येकके प्रदेश समस्त अन्यसे अत्यन्त भिन्न हैं । २-उपयोगमें याने उपयोगस्वरूप प्रात्मद्रव्यमें क्रोधादि कर्म नहीं हैं, क्रोधादिकर्मों में उपयोग नहीं है । ३-गुणमुख्यतासे कथन करनेपर ज्ञान में क्रोध नहीं है, क्रोधमें ज्ञान नहीं है । ४-ज्ञानमें ज्ञान हो है अथवा प्रात्मामें प्रात्मा ही है । ५-क्रोधमें क्रोध ही है अथवा कर्ममें कर्म हो है । सिद्धान्त---१-जीव अपने स्वरूपमें तन्मय है, पुद्गल अपने स्वरूपमें तन्मय है । २-प्रात्मद्रव्यमें कर्म, नोकर्म, विभाष कुछ भी नहीं है। दृष्टि--१-स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याधिकनय (२८)। २-परद्रव्यादिग्राहक द्रध्याथिकनय (२६) Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघराधिकार रूपं भावमारचयति । ततो भेदविज्ञानाच्छुद्धात्मोपलंभः प्रभवति । शुद्धात्मोपलंभात रागद्वेषमोहाभावलक्षणः संवरः प्रभवति ॥१८१.१८३।। न-अव्यय 1 किचि किचित्-अध्यय अन्तः किं-प्र० ए० । कुदि करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । भावं-द्वितीया एक० ! उवओगसुद्धप्पा उपयोगसुद्धात्मा-प्रथमा एकवचन कर्ताकारक ।।१८१-१८३।। प्रयोग-~ज्ञानस्वरूप प्रात्मामें ज्ञानस्वरूपको ही निरखकर मानवनिरोधके वातावरण में अपनेको निराकुल अनुभवना ॥१८१-१८३॥ __अब प्रश्न होता है कि भेदविज्ञानसे ही कैसे शुद्धात्माकी प्राप्ति होती है ? इसका उत्तर गाथामें कहते हैं- [यथा] जैसे [कनकं] सुवर्ण [अग्नितप्तं अपि] अग्निसे तप्त हुना भी [तं] अपने [कनकभावं] सुवर्णपनेको [न परित्यजति] नहीं छोड़ता [तथा] उसी तरह [ज्ञानी ज्ञानी [कर्मोदयतप्तस्तु] कर्मोंके उदयसे तप्त हुअा भी [ज्ञानिवं] ज्ञानीपनेके स्वभाव को [न जहाति] नहीं छोड़ता [एवं] इस तरह [ज्ञानी] ज्ञानी [जानाति ] जानता है । और [अज्ञानी] अज्ञानी [अज्ञानतमोऽवच्छन्नः] अज्ञानरूप अंधकारसे व्याप्त होता हुआ [प्रात्मस्वभावं] अात्माके स्वभावको [प्रजानन्] नहीं जानता हुआ [रागभेव] रागको ही [प्रात्मानं] मात्मा [मनुते] मानता है । तात्पर्य-परभादसे भिन्न अन्तस्तत्त्वका दर्शी आत्मा कर्मविपाकसे संतप्त होनेपर भी ज्ञातापनको नहीं छोड़ता 1 टोकार्थ---जिसके यथोदित भेदविज्ञान है, वही उस भेदज्ञानके सद्धावसे ज्ञानी होता हुपा ऐसा जानता है। जैसे प्रचंड अग्निसे तपाया हुग्रा भी सुवर्ण अपने सुवर्णपनेको नहीं छोड़ता उसी तरह तीव्र कर्मके उदयसे घिरा हुआ भी ज्ञानी अपने ज्ञानपनेको नहीं छोड़ता, क्योंकि जो जिसका स्वभाव है वह हजारों कारण मिलनेपर भी अपने स्वभावको छोड़ने के लिये असमर्थ है । क्योंकि उसके छोड़नेपर उस स्वभाव मात्र वस्तुका ही प्रभाव हो जायगा, परन्तु वस्तुका प्रभाव होता नहीं, क्योंकि सत्ताका नाश होना असंभव है। ऐसा जानता हुना जानी कर्मोसे व्याप्त हुना भी रागरूप, द्वेषरूप और मोहरूप नहीं होता। किन्तु वह तो एक शुद्ध प्रात्माको ही प्राप्त करता है। परंतु जिसके यथोदित भेदविज्ञान नहीं है, वह उस भेदविज्ञान के प्रभावसे अज्ञानी हुमा अज्ञानरूप अंधकारसे आच्छादित होनेके कारण चैतन्यचमत्कार मात्र आत्माके स्वभावको नहीं जानता हुअा रागस्वरूप हो प्रात्माको मानता हुअा रागी होता है, द्वेषी होता है, मोही होता है, परंतु शुद्ध प्रात्माको कभी नहीं पाता। इससे सिद्ध हुमा कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध आत्माको प्राप्ति है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ समयसार कथं भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभ ? इति चेत् जह कायमग्गितवियं पि कणयहावं ण तं परिच्चयइ । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी उणाणितं ॥१८४॥ एवं जाणइ गाणी अण्णाणी मुणदि रायमेवादं । अण्णाणतमोच्छण्णो श्रादसहावं अयाणंतो ॥१७॥ ज्यौं अग्निता काश्चन,, कांचन परिणामको नहीं तजता । त्यौं कर्मोदयपीडित, जानी भी ज्ञान नहि तजता ॥१८४॥ ज्ञानी सुजानता यों, अज्ञानी रागको हि निज माने । प्रज्ञान प्रध श्रावृत्त, वह आत्मस्वभाव नहि जाने ॥१८५॥ यथा कनकमग्नितप्तमपि कनकभावं न तं परित्यजति । तथा कर्मोदयतातो न जहाति ज्ञानी तु ज्ञानित्वं । एवं जानाति ज्ञानी अज्ञानी जानाति रागमेवात्मानं । अज्ञानतमोऽवच्छन्दः आत्मस्वभाबमजानन् । यतो यस्येव यथोदितं भेदांवज्ञानमस्ति स एव तत्सद्धावाज् ज्ञानी सन्ने जानाति । यथा प्रचंडपावक प्रतसमपि सुवर्ण न सुवर्णत्वमपोहति तथा प्रचंडकर्मविपाकोपष्टन्धमपि ज्ञानं न ज्ञानत्वमपोहति, कारणसहस्रणापि स्वभावस्यापोढुमशक्यत्वात् । तदपोहे तन्मात्रस्य वस्तुन नामसंज्ञ--जह, कणय, अग्गितवियं, पि, कणयहाव, ण, त, तह, कम्मोदयतविद, ण, णाणि, उ, पाणित, एवं, णाणि, अग्णाणि, राय, एव, आद, अण्णाणतसोच्छण, आदसहान, अयाणंत । धातुसंज्ञ. . तव तपने तृतीयगणे, परि-च्चय त्यागे तृतीयगणे, उद-अय गती, जहा त्यागे, जाण अवबोधने, मृण ज्ञाने । प्रातिपदिक-यथा, कानक, अग्नितप्त, अपि, कनकभाव, न, तत्, तथा, कर्मोदयतप्त, न, ज्ञानिन्, तु, ज्ञानित्व, भावार्थ:-प्रात्मस्वभाव व पोषाधिक भावमें भेदविज्ञान होनेसे प्रात्मा जब ज्ञानी होता है तब कर्मके उदयसे संतप्त हुप्रा भी अपने ज्ञानस्वभावसे नहीं चिगता। यदि कोई पदार्थ स्वभावसे घिग जाय तो वस्तुका ही नाश हो जायगा ऐसा न्याय है। इसलिये कर्मके उदयके समय ज्ञानी रागी, द्वेषी, मोही . नहीं होता। और जिसके भेदविज्ञान नहीं है वह अज्ञानी हना रागी, द्वेषी, मोही होता है। इसलिये यह पूर्ण निश्चित है कि भेदविज्ञानसे ही शुद्ध प्रात्माकी प्राप्ति होती है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथायुग्ममें यह निष्कर्ष निकला था कि भेदविज्ञानसे ही शुद्धात्माकी उपलब्धि होती है । सों उसी सम्बन्धमें इस माथायुग्ममें इस जिज्ञासाका समाधान बताया है कि कैसे भेदविज्ञानसे शुद्धात्माकी उपलब्धि होती हैं। तथ्यप्रकाश-५-शानी कर्मविपाकसे पाच्छन्न होकर भी ज्ञानोपनको नहीं छोड़ता । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतराधिकार ३३३ एवोच्छेदात् । नचास्ति वस्तुच्छेदः सतो नाशासंभवात् एवं जानंश्च कर्माक्रांतोऽपि न रज्यते न द्वेष्टि न मुह्यति किन्तु शुद्धमात्मानमेवोपलभते । यस्य तु यथोदितं भेदविज्ञानं नास्ति स तदभावादज्ञानी समज्ञानतमसाच्छन्नतया चैतन्यचमत्कार मात्रमात्म स्वभावजानन् रागमेवात्मानं मन्यमानो रज्यते द्वेष्टि मुह्यति च न जातु शुद्धमात्मानमुपलभते । ततो भेदविज्ञानादेव शुद्धात्मोपलंभः ।। १५४-१८५ ।। एवं ज्ञानिन् अज्ञानिन, राग, एव, आत्मन्, अज्ञानतमोवच्छश, आत्मस्वभाव, अजानत् । सूलधातु-तप संतापे भ्वादि, तप ऐश्वर्ये दिवादि, परित्यज हानौ भ्वादि, ओहाक् त्यागे जुहोत्यादि, ज्ञा अवबोधने, मनु अवबोधने । पaविवरण - जह यथा - अव्यय । कणयं कनकं प्रथमा एक० । अग्गितवियं अग्नितप्तं प्र० ए० । पि अपि - अव्यय । कणयहावं कनकभाव - द्वि० ए० । ण न-अव्यय । तं द्वि० ए० । परिचयइ परित्यजतिवर्तमान लट अन्य पुरुष एक० तद् तथा अव्यय । कम्मोदयतविदो कर्मोदयतप्तः प्रथमा एक्र० ३ ण न जहदि जहाति वर्तमान अन्य० एक० | पाणी ज्ञानी- प्र० ए० । दु तु णाणितं ज्ञानित्वं द्वि० ए० । एवं, जादि जानाति वर्तमान० अन्य० एक० । गाणी ज्ञानी - प्र० ए० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । मुणदि मनुते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । रायं रागं द्वि० एक० एवं अव्यय । आदं आत्मानं द्वि० ए० । अण्णाणतोच्ण्णो अज्ञानतमोऽयच्छत्र - प्र० एक० । आदसहावं आत्मस्वभाव - द्वि० ए० । अजाणतो अजानन् - प्रथमा एकवचन कृदन्त ।।१८४ - १८५ ॥ २ - ज्ञानीका ज्ञानोपन न छूटनेका कारण अविकार सहजज्ञानस्वभाव में प्रात्मत्वकी दृढ़ प्रतीति है । ३ - ज्ञानी जीवमें कर्मविपाक प्रतिफलित होनेपर भी कर्मरसमें उपयुक्त नहीं होता, किन्तु प्रपने ज्ञानभाव में हो उपयुक्त होता है । ४- प्रज्ञानी ही निज सहजस्वरूपको न जानता हुआ प्रतिफलित कर्मानुभागको थापा मानता हुआ राग द्वेष आदि frकल्परूप परिणमता है । ५- अज्ञानी के भेदविज्ञान न होनेसे शुद्धात्मस्वरूपकी उपलब्धि नहीं है । ६--ज्ञानीके भेदविज्ञान होनेसे शुद्धात्मस्वरूपकी उपलब्धि है । सिद्धान्त -- १ - ज्ञानी रागादि परिहरणशील होनेसे शुद्धात्मस्वरूपका संवेदन करता है । २ - प्रज्ञानी रागादिपरिग्रहणशील होनेसे रागादिविभावरूप अपनेको परिणमाता है । दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४६) । २ - प्रशुद्ध निश्चयनय (४७) । प्रयोग - श्रोपाधिक प्रतिफलन कुछ भी हुआ करे उससे शानाकारमात्र स्वको अनुभवनेका पौरुष करना ।। १६४-१८५ ॥ अपना प्रयोजन न जानकर - [ शुरू तु] शुद्ध शुद्ध हो [आत्मानं ] ग्रात्मा प्रश्न -- शुद्ध आत्माकी प्राप्ति हो संबर कैसे होता है ? उत्तर -- आत्माको [विज्ञान]] जानता हुआ [ जीव: ] जोब [ शुद्ध ं चैव ] को [ लभते ] प्राप्त करता [तु] प्रोर [ श्रशुद्ध आत्मानं ] अशुद्ध प्रात्माको [ जानद] जानता हुना [मशुद्धमेव ] प्रशुद्ध आत्माको ही [ लभते ] प्राप्त करता है । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ समयसार कथं शुद्धात्मोपलंभादेव संबर ? इति चेत् सुद्धं तु वियाणंतो सुद्ध चेवप्पयं लहदि जीवो। जाणतो दु असुद्ध असुद्धमेवप्पयं लहइ ॥१८६॥ शुद्धात्मसत्त्व ज्ञाता, शुद्ध हि आत्मस्वरूपको पाता। जाने प्रशुद्ध प्रात्मा, जो वह पावे अशुद्धात्मा ॥१८६॥ शुद्धं तु विजानन् शुद्ध चैवात्मानं लभते जीवः । जानरत्वशुद्धमशुद्धमेयात्मानं लभते ॥ १८६ ।। यो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते स ज्ञानमयाद् भावात् ज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्य प्रकर्मास्त्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्य निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । यो हि नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते सोऽज्ञानमयाद्भावादज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यग्रकर्मास्त्रवणगिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । अतः शुद्धात्मोपलंभादेव संबरः । यदि कथम नामसंश-सुद्ध, तु, वियागत, सुद्ध, ,, एव, अ५५, जोग, जाणत, दु, असुद्ध, असुद्ध, एब, अप्पय । धातुसंज्ञ- जाण अवबोधने, लभ प्राप्ती, सुज्झ नैर्मल्ये । प्रातिपदिकः . शुद्ध, तु, विजानत, शुद्ध, च, एव, अप्पय, जीव, जानत्, दु, अशुद्ध, एव, अप्पय । मूलधातु-ज्ञा अवबोधने, डुलभष प्राप्तौ भ्वादि, शुध शोचे। तात्पर्य - उपयोगमें सहज अविकार चैतन्यस्वरूप प्रानेसे उपयोग तो तुरंत ही शुद्धात्माका लाभ है, पर्यायतः श्री शीघ्र शुद्धात्मत्वका लाभ होगा। टीकार्थ--जो पुरुष सदा ही अविच्छेदरूप धारावाही ज्ञानसे शुद्ध प्रात्माको पाता हुआ स्थित है वह पुरुष "ज्ञानमय भावसे ज्ञानमय ही भाव होते हैं" ऐसे न्याय कर आगामी कर्मके प्रास्रवके निमित्तभूत राग, द्वेष, मोहको संतान (परिपाटी) के निरोधसे शुद्ध प्रात्माको ही पाता है । और जो जीव नित्य ही प्रज्ञानसे अशुद्ध आत्माको पाता हुमा स्थित है वह जीव 'प्रज्ञानमय भावसे अज्ञानमय ही भाव होता है' इस न्यायसे प्रागामी कर्मके प्रास्रवके निमित्तभूत राग-द्वेष-मोहकी संतानका निरोध न होनेसे अशुद्ध प्रात्माको हो पाता है। इस कारण शुद्ध प्रात्माको प्राप्तिसे ही संवर होता है। भावार्थ-जो पुरुष प्रखंड धारावाही ज्ञानसे शुद्ध प्रात्माका अनुभव करता है उसके प्रास्रवका निरोध हो जाता है सो वह तो शुद्ध प्रात्मत्वको हो पाता है और जो अज्ञानसे प्रशुद्ध प्रात्माको अनुभव करता है वह अशुद्ध विकृत प्रात्माको हो पाता है, क्योंकि उसके प्रास्त्रव नहीं रुकते, उपयोग कलुषित रहता। अब इस अर्थका कलशरूप काब्य कहते हैं-यदि इत्यादि । अर्थ-~-यदि प्रात्मा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ संवराधिकार पिधारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः । शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमामा परपरिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥ १२७।। ।। १८६ ।। 1 पद विवरण- सुद्धं युद्ध - द्वितीया एकवचन । तु-अव्यय । वियागतो विजानन् - प्रथमा एक० कृदन्त । सुद्धं शुद्ध द्वितीया एक । च एव, अप्पयं आत्मानं द्वितीया एकवचन | लहूदि लभते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवो जीवः - प्रथमा एक० । जाणतो जानन्- प्र० ए० । दु तु-अव्यय । असुद्ध अशुद्ध द्वि० ए० । असुद्ध अशुद्ध द्वितीया एक एव अव्यय । अप्पयं आत्मानं द्वितीया एक० । लहइ लभते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। १०६ ।। किसी भी प्रकार धारावाही ज्ञानसे निश्चल शुद्ध आत्माको प्राप्त हुआ रहता है तो वह आत्मा उदय होते हुए आत्मा रूप क्रीड़ावन वाले अपने आत्माको परपरिणति रूप राग, द्वेष, मोहके निरोधसे शुद्ध को ही पाता है। भावार्थ -- एक प्रवाहरूप ज्ञानको वाराबाही ज्ञान कहते हैं । इसकी दो रोतियाँ हैं -- ( १ ) मिथ्याज्ञान बीचमें न आये ऐसा सम्यग्ज्ञान धारावाही ज्ञान है और ( २ ) जब तक उपयोग एक शेयमें उपयुक्त रहे तब तक धारावाही ज्ञान कहा जाता है, यह अंतर्मुहूर्त ही रह पाता है, योजना हो वहीं वैसा धारावाही ज्ञानका अर्थ जानना | प्रथम रीति वाले धारावाही ज्ञानसे प्रतीतिरूप शुद्धात्मत्व की प्राप्ति है । द्वितीय रीति वाले धारावाही ज्ञानसे क्षपकश्रेणिस्थ योगियोंको व्यक्त निर्मल शुद्धात्मत्व की प्राप्ति होती है । प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथायुग्म में भेदविज्ञान से शुद्धात्माकी उपलब्धि होती है। यह बताते हुए यह दर्शाया गया था कि शुद्धात्माकी उपलब्धिसे ही संवर होता है । सो प्रब इस गाथा में यही युक्तिसहित बताया गया है कि कैसे शुद्धात्माकी उपलब्धिसे ही संवर होता है । तथ्यप्रकाश - १ - निरंतर धारावाही ज्ञानसे सहजशुद्ध ज्ञानस्वभावमें उपयोग रखने वाला भव्य शुद्धात्माको प्राप्त करता है । २- सहजज्ञानस्वभावमें उपयोग रखने वाले ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है । ३ - ज्ञानमयभावसे ज्ञानमयभाव ही होनेके कारण नवोनकर्मास्रव का निमित्तभूत रागद्वेषमोहसंतान दूर हो जाता है । ४- सविकार आत्मा में ही नित्य उपयोग रखने वाला अज्ञानी अशुद्धात्मा को ही प्राप्त होता है । ५ - सविकार अपने को प्रात्मसर्वस्व मानने वाले अज्ञानी अज्ञानमय ही भाव होता है । ६ - प्रज्ञानमयभावसे प्रज्ञानमय ही भाव होनेके कारण नवीनकर्मास्रवणका निमित्तभूत रागद्वेषमोहसंतान पुष्ट होता रहता है । ७-प्रशुद्धात्माकी उपलब्धिसे अशुद्ध बने रहने की संतति चलती रहती है । ८- शुद्धात्मा की उपलब्धिसे संवरतत्त्व प्रकट होता है, शुद्ध पर्यायकी संतति बनती रहती 1 सिद्धांत --- १ - सहजज्ञानस्वभाव के उपयोगसे ज्ञानमयपरिणमन होता है । २ - विकृत Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार केन प्रकारेण संवरो भवतीति चेत् अप्पाणमप्पणा रुधिऊण दोपुण्णपावजोएसु । दसणणाणमि ठिदो इच्छाविर यो य अण्णमि ॥१८७॥ जो सव्वसंगमुक्को झायदि अप्पाणमप्पणो अप्पा। णवि कम्मं णोकम्मं चेदा चेयेइ एयत्तं ॥१८८।। अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमश्रो अणण्णमयो । लहइ अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ॥१८६॥ (त्रिकलम्) प्रात्माको प्रात्माके, द्वारा रोकि अघ पुण्य योगोंको। दर्शनज्ञानावस्थित, परमें वाञ्छारहित होकर ॥१८७॥ ओ सगको ताज, आत्मा श्रात्मीय प्रापको ध्याता। कर्म नोकर्मको नहि, ध्याचे चिन्ते स्वकीय केवलता ॥१८॥ वह दर्शन ज्ञानमयो, अनन्य आत्मीय ध्यानको करता। कर्म प्रविमुक्त आत्मा, को पाता शीघ्र अपने में ॥१८६॥ आत्मानमात्मना रुन्ध्वा द्विपुण्यपापयोगयोः । दर्शनज्ञाने स्थितः इच्छा विरतश्चान्यस्मिन् ॥१७॥ यः सर्वसंगमुक्तो ध्यायत्यात्मानमात्मन आत्मा। नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चेतयत्येकत्वं ॥१५॥ आत्मानं ध्यायन् दर्शनज्ञानमयोऽनन्यमयः । लभतेऽचिरेणास्मानमेव स कर्मप्रविमुक्तं ॥१८६।। यो हि नाम रागद्वेषमोहमूले शुभाशुभयोगे प्रवर्तमानं, दृढतरभेदविज्ञानावष्टंभेन आत्मानं प्रात्मनैवात्यंत रुम्वा शुद्धदर्शनज्ञानात्मन्यात्मद्रव्ये सुष्ठु प्रतिष्ठितं कृत्वा समस्तपरद्रव्ये नामसंज्ञ-अप, अप्प, दोपुण्णपापजोय, दसणणाण, ठिद, इच्छाविरअ, य, अण्ण, ज, सव्वसंगमुक्क, अप्प, अप्प, अप्प, ण, वि, कम्म, गोकम्म, एयत्त, अप्प, झायंत, दंसणणाणमअ, अणण्णमअ, अचिर, अप्प, अपनेको अपना स्वरूपसर्वस्व माननेके उपयोगसे अज्ञानमय परिणमन होता है । दृष्टि-१-ज्ञाननय (१६४) । २-प्रशुद्धनिश्चयनय (४७) । प्रयोग--सर्व विकारसंकट नष्ट करनेके लिये अपने सहजसिद्ध अविकार चित्प्रकाशरूप अपनेको प्रापा अनुभवनेका पौरुष करना ।।१८६॥ अब यह संवर किस तरहसे होता है ? यह बताते हैं-[यः] जो [प्रात्मा] जीव [प्रास्मान] प्रास्माको [आत्मना] प्रात्माके द्वारा [विपुण्यपापयोगयोः] दो पुण्यपाप योगोसे [बन्ध्या] रोककर दर्शनशान] दर्शनशानमें [स्थितः] ठहरा हुमा {अन्यस्मिन् इच्छाविरतः] Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३७ संराधिकार छापरिहारेण समस्त संगविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्प्रकंपः सन् मनागपि कर्मनोकमणोरसंस्पर्शन आत्मीयमात्मानमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते स खल्वेकवचेतनेनात्यंतविविक्तं चैतन्यचमत्कार मात्र मात्मानं ध्यायन् शुद्धदर्शनज्ञानमयमात्मद्रव्यमवाप्तः शुद्धात्मोपलभे सति समस्त परद्रव्यमयत्वमतिक्रांतः सन् अचिरेणैव सकलकर्म विमुक्तमात्मानमएव त कम्मदविमुक्त | धातुसंज्ञ-रुध रोधने, ट्ठा गतिनिवृत्ती, ज्भा ध्याने, चेत स्मृत्यां, लभ प्राप्ती । प्रातिपदिक - आत्मन् द्विपुण्यपापयोग दर्शनज्ञान, स्थित इच्छाविरत, च, अन्य यत् सर्व संगमुक्त, कमन् नोकर्मन् चेतयितृ एकत्व, ध्यायत्, दर्शनज्ञानमय, अनन्यमय, अचिर, कर्मप्रविमुक्त: मूलधातु -- रुधिर आवरणे ष्ठा गतिनिवृत्तौ ध्यं चिन्तायां चिति संज्ञाने स्वादि, चित संचेतने चुरादि, डुलभय् प्राप्ती । ग्रन्य वस्तुमें इच्छारहित [च] और [सर्वसंगमुक्तः ] सब परिग्रहसे रहित हुप्रा [आत्मना ] ग्रात्मा द्वारा [आत्मानं ] श्रात्माको [ ध्यायति] ध्याता है तथा [कर्म नोकर्स] कर्म नोकर्मको [न अपि ] नहीं ध्याता और आप [ चेतयिता ] तनहार होता हुआ [ एकत्वं ] एकत्वको [[चितयति ] विचारता है [स] वह जीव [ श्रनन्यमयः ] श्रनन्यमय होकर [ आत्मानं ध्यायन् ] आत्माका ध्यान करता हुआ [ श्रचिरेण ] थोड़े समय में [ एव] ही [ कर्मप्रविमुक्तं ] कर्मरहित [ श्रात्मानं ] आत्माको [ लभते] प्राप्त करता है । तात्पर्य - श्रात्माका श्रात्मामें एकाग्र ध्यान करने वाला पुरुष प्रत्पकालमें कर्मरहित हो जाता है । टोकार्थ - राग द्वेष मोहरूप मूल बाले शुभाशुभ योगों में प्रवर्तमान अपने श्रात्माको जो जीव हट्लर भेदविज्ञानके बलसे आपसे ही प्रत्यन्त रोककर शुद्ध ज्ञानदर्शनात्मक श्रात्मद्रव्य में अच्छी तरह ठहराकर समस्त परद्रव्योंकी इच्छा के परिहारसे समस्तसंगरहित होकर नित्य ही निश्चल हुआ किचिन्मात्र भी कर्मको नहीं स्पर्श करके अपने श्रात्माको आत्माके द्वारा हो ध्याता हुआ स्वयं चेतने वाला होनेसे श्रपने चेतनारूप एकत्वको ही अनुभवता है वह जीव निश्चयसे एकत्वको चेतने से परद्रव्यसे प्रत्यन्त भिन्न चैतन्य चमत्कारमात्र अपने भात्माको ध्याता हुआ, शुद्ध दर्शनज्ञानमय प्रात्मद्रव्यको प्राप्त हुआ शुद्धात्माका उपलम्भ होने पर समस्त परद्रव्यमयता से प्रतिक्रान्त होता हुआ अल्प समय में ही सब कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है । यह संवरका प्रकार है । भावार्थ - जो भव्य जीव रागद्वेषमोहमिश्रित शुभ अशुभ मन, वचन, कायके योगों से अपने आत्माको भेदज्ञानबल से चलित न होने दे, पश्चात् शुद्ध दर्शनज्ञानमय अपने स्वरूप में अपनेको निश्चल करे और फिर समस्त बाह्य श्राभ्यन्तर परिग्रहोंसे रहित होकर कर्म Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार वाप्नोति । एष संवरप्रकार: ।। निजमहिम रताना भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्वो. पलंभः । अचलितमखिलान्यद्रव्यदूरे स्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः ॥२२८॥ ।। १८५.१८६ ।। पदविवरण- -अप्पाणं आत्मान-द्वितीया एक० । अप्पणा आत्मना-तृतीया एकवचन । रुभिऊण रुन्च्चाअसमाप्तिकी क्रिया। दोपृष्णपापजोगम-सप्तमी बहु० । द्विपुण्यपापयोगयो:-सप्तमी द्विवचन । दसणणाणम्हि दर्शनज्ञाने-सातमी एक० । ठिदो स्थित:-प्रथमा एक । इच्छाविरओ इच्छाविरत:-प्र० एक० । य च-अध्यय । अण्णम्हि अन्यस्मिन्-सप्तमी एक० । जो य:-प्र० ए०। सब्बसंगमुक्को सर्वसंगमुक्त:-प्रथमा एक० । मायदि ध्यायनि-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक क्रिया । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एकवचन । अपणो आत्मनः-पाठी एक० । अया आत्मा-प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । अपि-अव्यय । कम्म कर्मद्वि० ० । किम्म नोकर्म-द्वि० एक० । चेदा चेतयिता-प्र० ए० । चेयेइ चेतयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । एयत्तं एकत्वं- हिए । अप्पागं आत्मानं-द्वितीया एक०। झायतो ध्यायन्-प्रथमा एक० कृदन्त । दसणणाणमओ दर्शनज्ञानमय:-प्रथमा एक० । अणण्णमओ अनन्यमयः-प्रथमा ए० । लहइ लभतेवर्तमान अन्य एक प्रिया । अचिरेण-तृ० एक० । अप्पाणं आत्मानं-द्वि० ए० । एव-अव्यय । सो सःप्रथमा एक० । कम्मविष्पमुक्कं कर्मविप्रमुवतं-द्वितीया एकवचन ।। १८७-१८६ ॥ नोकर्मसे अत्यन्त विविक्त अपने स्वरूप में एकाग्न होकर ध्यान करता हुआ रहे वह अन्तरात्मा थोड़े समय में ही सर्व कर्मोसे पृथक् हो जाता है । सम्बरको विधि यही है । __ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहत हैं-निज इत्यादि । अर्थ-भेदविज्ञानको शक्तिसे अपने स्वरूपकी महिमामें लीन पुरुषोंको नियमसे शुद्धतत्त्वकी प्राप्ति होती है और उस शुद्धतत्वकी प्राप्ति होनेपर समस्त अन्य द्रव्योंसे दूर प्रचलित स्थित पुरुषोंका अक्षय कर्ममोक्ष होता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि कसे शुद्धात्माके उपलम्भसे सम्बर होता है । अब उसी सम्वरका प्रायोगिक प्रकार इस गाथात्रिकलमें कहा गया है । तथ्यप्रकाश-(१) यह जीव रागद्वेषमोहमूलक शुभ अशुभ योगमें प्रवर्तता चला पाया है । (५) दृढ़तर भेदविज्ञानसे प्रात्मशक्ति द्वारा शुभाशभयोगका प्रवर्तन निरुद्ध हो जाता है । (३) दृढ़तरभेदविज्ञानसे शुभाशुभयोगका निरोध कर यह आत्मा शुद्ध चेतनामात्र अन्तस्तत्त्व में प्रतिष्ठित हो जाता है । (४) सहजस्वरूपमें प्रतिष्ठित मात्मा निःसंग व निष्प्रकम्प हो जाता है । (५) स्वरूपप्रतिष्ठित, निःसङ्ग, निष्कम्प प्रात्मा परतत्व से विविक्तता होनेसे चैतन्य. चमत्कारमात्र प्रात्माका ध्यान करता हुआ शुद्धात्माको प्राप्त हुआ है । (६) शुद्धात्माको प्राप्त प्रात्मा सर्वपरभावसे पृथक् होकर शीघ्र ही अपनेको कर्मविमुक्त कर लेता है ।। सिद्धान्त--(१) शुद्धात्माकी उपलब्धि से योगनिरोध होनेसे कर्माका संवर होता है । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवराधिकार केन क्रमेण संबरो भवतीति चेत् - तेसिं हेऊ भणिदा अझवसाणाणि सम्बदरसीहि । मिच्छत्तं अण्णाणं अविरयभावो य जोगो य ॥१६॥ हेयभावे णियमा जायदि णाणिस्स पासवगिरोहो । अासवभावेण विणा जायदि कम्मस्स वि गिरोहो ॥११॥ कम्मस्साभावेण य णोकम्माणं पि जायइ गिरोहो । णोकम्मगिरोहेण य संसारगिरोहणं होई ॥१६२॥ (त्रिकलम्) उनके हेतु बताये, ये अध्यवसान सर्वदर्शीने । मिथ्यात्व योग अविरति, प्रज्ञान कषायमय परिणत ॥१६॥ हेतु विना ज्ञानीके, अवश्य प्रास्रवनिरोध हो जाता । प्रास्रवभाव विना क-मौका भि निरोध हो जाता ॥१६॥ कर्मनिरोध हुमा तब, नोकोका निरोध हो जाता। नोकर्मके हकेसे, संसारनिरोध हो जाता ॥१६॥ तेषां हेतब: भणिताः अध्यबसानानि सर्वदशिभिः । मिथ्यात्वमज्ञानमविरतभावश्च. योगश्च ॥१६॥ हेत्वभावे नियमाज्जायते ज्ञानिनः आस्रवनिरोधः । आत्रवभावेन बिना जायते कर्मणोऽपि निरोधः ।।१६१।। कर्मणोऽभावेन च नोकर्मणामपि जायते निरोधः । नोकर्मनिरोधेन च संसारनिरोधनं भवति ।।१९।। संति तावज्जीवस्य, प्रात्मकमकत्वाध्यासमूलानि मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानि अध्यवसानानि । तानि रागद्वेषमोहलक्षणस्यासवभावस्य हेतवः । प्रास्रवभावः कर्महेतुः । कर्म नामसंज्ञ-त, हेउ, भणिद, अज्भवसाण, सञ्चदरिसि, मिच्छत्त. अण्णाण, अविरयभाव, य, जोग, य, हेअभाव, णियम, णाणि, आसवणिरोह, आसवभाव, विणा, कम्म, वि, गिरोह, कम्म, अभाव, य, (२) विशुद्धदर्शनज्ञानसामान्यात्मक शाश्वत प्रत्तस्तत्व में अभेद उपयुक्त वीतराग प्रात्मा सर्वकर्मोंसे विप्रमुक्त हो जाता है । दृष्टि-१- स्वभावनय (१७६) । २- पुरुषकारनय (१८३)। प्रयोग-मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको रोककर ज्ञानस्वभावमें प्रतिष्ठित होकर अपने में मग्न होनेका पौरुष करना।। १८७.१८६ ।। प्रागे संवरका क्रम बतलाते हैं-[तेषां] पूर्वोक्त राग-द्वेष-मोहरूप प्रास्रयोंके [हेतयः] हेतु [मिथ्यात्वं] मिथ्यात्व [अज्ञान] प्रज्ञान [अविरतभावः] अविरति भाव [च योगः] मौर Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० समयसार नोकमहेतुः । नोकर्म संसारहेतुः, इति ततो नित्यमेवायमात्मा, प्रात्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन | मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति । ततो रागद्वेषमोहरूपमास्रवभावं भावयति । ततः कर्म आस्रवति, ततो नोक्रम भवति, ततः संसारः प्रभवति । यदा तु प्रात्मकर्मणोर्मेंदविज्ञानेन शुद्धं चतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिश्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानां अध्यबसानानां प्रास्रवभावहेतूनां भवत्यभावः। तदभावे रागद्वेषमोहरूपासवभावस्य भवत्यभावः, तदभावे भवति कर्माभावः, तदभावे नोकर्माभावः, तदभावे च भवति संसाराभावः । णोकम्म, पि, गिरोह, गोकम्मणिरोह, य, संसारविरोहण । धातुसंज्ञ-भण कथने, जा प्रादुर्भाव, हो । सत्तायां । प्रातिपदिक - तत्. हेतु, भणित, अध्यवसान, सर्वदर्शिन्, मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरतभाव, च, योग, च, हेत्वभाव, नियम, ज्ञानिन्, आस्रवनिरोध, आस्रवभाव, विना, कर्मन्, अपि, निरोध, कर्मन्, अभाव, योग ये चार [अध्ययसानानि] अध्यवसान [सर्वदशिभिः] सर्वज्ञदेवोंने [भरिणताः] कहे है सो [ज्ञानिनः] ज्ञानीके [हेत्यभावे] इन हेतुघोंका प्रभाव होनेसे [नियमात्] नियमसे [आस्रबनिरोधः] अास्रवका निरोध [जायते] होता है [च] और [प्रास्त्रवभावेन विना] पासवभाव । के बिना [कर्मणः अपि] कर्मका भी [निरोधः निरोध जायते होता है [च और [कर्मणः प्रभावेन] कर्मके प्रभावसे [नोकर्मणां अपि] नोकर्मों का भी [निरोध] निरोध [जायते होता है [५] तथा [नोकर्मनिरोधेन ] नोकर्मके निरोध होनेसे [संसारनिरोधनं ] संसारका निरोध [भति] होता है। तात्पर्य-ज्ञानीके अध्यवसान नहीं होनेसे प्रास्त्रव कर्म व नोकर्मके निरोधपूर्वक संसार का निरोध हो जाता है। ___टोकार्थ--प्रात्मा और कर्मके एकत्यके अध्यासमूलक मिथ्यात्व, अज्ञान, प्रविरति, योगस्वरूप अध्यवसान मोही जीवके विद्यमान हैं ही, वे अध्यवसान राग-द्वेष-मोहस्वरूप प्रानव भावके कारणभूत हैं, प्रास्त्रवभाव कर्मका कारण है, कर्म नोकर्मका कारण है और नोकर्म संसार का कारण है। इस कारण आत्मा नित्य ही आत्मा और कर्मके एकत्वके अध्याससे प्रात्माको मिथ्यात्व अज्ञान अविरति योगमय मानता है । उस अध्याससे राग-द्वेष-मोहरूप प्रास्त्रव भावों को भाता है उससे कर्मका प्रास्रव होता है, कर्मसे नोकर्म होता है और नोकर्मसे संसार प्रगट होता है। परंतु जिस समय यह प्रात्मा, पारमा और कर्मके भेदज्ञानसे शुद्ध चैतन्य चमत्कार मात्र प्रात्माको अपने में पाता है उस समय मिथ्यात्व अज्ञान प्रविरति योगस्वरूप, प्रास्रवभावों के कारणभूत अध्यवसानोंका इसके प्रभाव होता है, मिथ्यात्व प्रादिका प्रभाव होनेसे राग-द्वेष मोहरूप पासत्र भावका अभाव होता है, राग-द्वेष-मोहका प्रभाव होनेसे कर्मका प्रभाव होता Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबराधिकार ३४१ इत्येष संवरक्रमः ।। संपद्यते संवर एष साक्षात् शद्धात्मतत्वस्य किलोपलंभात् । स भेदविज्ञानत एव तस्मात्तभेदविज्ञानमतीव भाव्यं ।।१२६॥ भावयेभेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया। तावच, नोकर्मन्, अपि, निरोध, नोकर्मनिरोध, च, संसारनिरोधन । मूलधातु-भण शब्दार्थः, भ्वादि, जनी प्रादुर्भावे दिवादि, भू सत्तायां। पद विवरण-तेसि तेषां-षष्ठी बहु । हेऊ हेतवः-प्रथमा बहु० । भणिया भणितः-प्रथमा बहु०॥ अज्झवसाणाणि अध्यवसानानि-प्रथमा वहु । सव्वदरिसीहि सर्वशिभि:-तृतीया बहु० । मिच्छत्तं मिथ्यात्व-प्रथमा एक० । अण्णाणं अज्ञान-प्र० एक० । अविरयभावो अविरतिभावः-प्र० है, कर्मका अभाव होनेपर नोकर्मका अभाव होता है और नोवर्मका प्रभाव होनेसे संसारका प्रभाव होता है । ऐसा यह संवरका अनुक्रम है । भावार्थ---जब तक प्रात्मा और कर्म में एकत्वकी मान्यता है, उनमें भेदविज्ञान नहीं तब तक मिथ्यास्व, अज्ञान, अविरति और योगरूप अध्यवसान इसके विद्यमान हैं, उनसे राग द्वेष-मोहरूप प्रास्रवभाव होता है, प्रास्रवभावसे कर्म बंधते हैं, कर्मसे नोकर्म याने शरीरादिक प्रेगट होते हैं और नोकर्मसे संसार है । लेकिन जिस समय प्रात्माको प्रात्मा और कर्मका भेदविज्ञान हो जाता है तब उसे शुद्ध प्रात्माको प्राप्ति होती है, उसके होनेसे मिथ्यात्वादि प्रध्यवसानका प्रभाव होता है, अध्यवसानका अभाव होनेसे राग-द्वेष-मोहरूप प्रास्त्रकका अभाव होता है, मानवके प्रभावसे कम नहीं बंधता, कर्मके प्रभावसे नोकर्म नहीं प्रगट होता और नोकमके अभावसे संसारका प्रभाव होता है । यही संवरका तरीका है। अब संवरके कारणभूत भेदविज्ञानको भावनाका उपदेश करते हैं- संपद्यते इत्यादि । मर्थ-शुद्धात्मतत्त्वको प्राप्तिसे साक्षात् संवर होता हो है। शुद्धात्मतत्वकी प्राप्ति आत्मा और कर्मके भेदविज्ञानसे होती है इस कारण भेदविज्ञानको विशेष रूपसे भाना चाहिये ।। अब कहते हैं कि भेदविज्ञान कब तक भाना चाहिये ? भावये इत्यादि । अर्थ-इस भेदविज्ञानको प्रखण्ड प्रवाहरूपसे तब तक भावे जब तक कि ज्ञान परभावोंसे छूटकर अपने ज्ञानस्वरूपमें ही प्रतिष्ठित नहीं हो जाता है। भावार्थ-ज्ञानका ज्ञानमें ठहरना दो प्रकारसे जानना । (१) मिथ्यात्वका अभाव होकर सम्यग्ज्ञान हो और उसके बाद मिथ्यात्व नहीं हो । (२) शुद्धोपयोगरूप होकर ज्ञान ज्ञानरूप ही ठहरे, अन्य विकाररूप नहीं परिणमे । सो दोनों ही प्रकारसे जब तक ज्ञान ज्ञानमें न ठहर जाय तब तक भेदविज्ञानकी निरंतर भावना रखनी चाहिये । अब भेदविज्ञानकी महिमा कहते हैं- भेद इत्यादि । अर्थ-निश्चयतः जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञानसे ही हुए हैं और जो कोई कर्मसे बँधे हैं वे इसो भेदविज्ञानके प्रभाव Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " - - - ३४२ समयसार द्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञान ज्ञाने प्रतिष्ठते ।।१३०।। भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥१३१॥ भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्ध तत्त्वोपलंभात् । एक । य च-अव्यय । जोगो योग:-प्रथमा एक० । य च-अव्यय । हेअभावे हेत्वभावे-सप्तमी एक। णियमा नियमात्-पंचमी एक० । जायद जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । गाणिस्स ज्ञानिनःषष्ठी एक० । आसवणिरोहो आनवनिरोधः-प्र० ए० | आसबभावण आस्रवभावेन-तृतीया एक० । विणा बिना-अव्यय । जायइ जायते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। कम्मस्स कर्मण:-षष्ठी एकः । वि अपि-अव्यय । णिरोहो निरोधः-प्रथमा एकवचन । कम्मरस कर्मणः-षष्ठी एक० । अभावेण अभावेनतृतीया एक० । य च-अव्यय । पोकम्माणं नोकर्मणां-पप्ठी बहु । पि अपि-अव्यय । जायइ जायते-- से बंधे हैं। भावार्थ---मात्मा और कमकी एकताके माननेसे ही संसारनिमित्तक कर्मबन्धन है। इस कारण कर्मबन्धका मूल भेदविज्ञानका प्रभाव ही है । जो बंधे हैं घे भेदविज्ञानके अभावसे बँधे हैं और जो सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञानके होनेपर ही हुए हैं। इस कारण भेदविज्ञान ही मोक्षका मूल कारण है । अब संवरका अधिकार पूर्ण करते समय संदरके होनेसे होने वाली ज्ञानकी महिमा बताते हैं-भेदज्ञानो इत्यादि । अर्थ-भेदविज्ञान का प्रवर्तन करनेसे शुद्ध तत्त्वकी प्राप्ति हुई, उस शुद्ध तत्त्वको प्राप्तिसे रागके समूहका प्रलय हुमा, रागके समूहका प्रलय करनेसे कर्मोका सम्बर हुमा तथा कर्मोका सम्बर होनेसे परम संतोषको धारण करता हुमा निर्मल प्रकाशरूप रागादिकी कलुषतासे रहित एक नित्य उद्योतरूप यह ज्ञान निश्चल उदयको प्राप्त हुना है । इस प्रकार रंगभूमिमें सम्बरका स्वांग हुमा था उसको मानने जान लिया सो नृत्य कर वह रंगभूमिसे निकल गया । __ प्रसंगविवरस्य ...अनन्तरपूर्व गाथात्रिकल में किस प्रकारसे सम्बर होता है यह बताया गया था । अब इस गाथात्रिकलमें उस सम्वरके होनेका क्रम बताया गया है। तथ्यप्रकाश--(१) अात्मा और कर्म में एकत्वका अध्यास होनेसे जीव अपनेको मिथ्यात्व अज्ञान प्रविरति व योगरूप मानता है जिससे ये अध्यवसान होते हैं । (२) मध्यवसान होनेसे रागद्वेष मोहरूप प्रास्रवभाव होने हैं । (३) प्रास्रवभाव होनेसे कर्मबन्ध होता है । (४) बद्धकर्मविपाक शरीररचनाका कारण है । (५) शरीरसे संसार प्रकट होता है । (६) प्रात्मा और कर्मका भेदविज्ञान होनेसे शुद्ध चैतन्य मात्र प्रात्माको उपलब्धि होती है । (७) शुद्ध चैतन्यचमत्कारमात्र प्रात्माकी उपलब्धि होते ही अध्यवसानोंका प्रभाव होता है । (८) अध्यवसानोंका अभाव होनेसे प्रास्त्रवभावका प्रभाव होता है । (8) आस्रवभावका प्रभाव होनेपर Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवसार ३४३ रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेण । विभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं ज्ञानं ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ।।१३।। इति संवरो निष्क्रांतः ।। १६.०.१६२ ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारख्याख्यायामात्मख्यातो संवरप्ररूपकः पञ्चमोऽकः ॥५॥ वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णिरोहो निरोधः-प्र० ए० । णोकम्मणिरोहेप नोकर्मनिरोधेनतृतीया एक० । य च-अव्यय । संसारणिरोहणं संसारनिरोधन-प्रथमा एकवचन । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। १६०-१९२॥ कर्मका प्रभाव होता है । (१०) कर्मका प्रभाव होनेपर शरीरका प्रभाव होता है । (११) शरीरका अभाव होनेपर संसारका प्रभाव होता है । (१२) भावानवका निरोध सम्बर है। (१३) संवर तस्व पानेपर सकलसंकट दूर हो जाते हैं । सिद्धान्त-(१) प्रात्माके शुद्ध भावसे शुद्ध परिगतिका सन्तान बनना स्वयंका कार्य है । (२) प्रात्माके शुद्ध भावके निमित्तसे पौद्गलिक कर्मोंका सम्बर होता है । दृष्टि-१- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)। प्रयोग-प्रात्मा व कर्ममें याने आत्माके साथ विभाव द्रव्यकर्म शरीर व क्रियामें अभेदरूप अपनेको अनुभवना सर्व विडम्बनामोंका मूल जानकर स्वपरकत्वाध्यास दूर करने के लिये भेदविज्ञान करना और परभावसे उपेक्षा करके अपने ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ॥ १६०-१६२ ।। इस प्रकार सहजानन्दसप्तदशाङ्गी टीका श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार तथा श्रीमद् अमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारव्याख्या प्रात्मख्यातिका संवरतत्त्वप्ररूपक पञ्चम अङ्क समाप्त हुप्रा । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ समयमा अथ निर्जराधिकार अथ प्रविशति निर्जरारागाद्यास्रवरोधतो निजधुरां धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूराग्निरुधन स्थितः । प्रारबद्धं तु तदेव दग्धुमधुना व्याजम्भते निर्जरा ज्ञानज्योतिरपावृतं न हि यतो रागादिभिर्मछति । उवभोगमिदियेहिं दवाणमचेदणाणमिदतणं । जं कुणदि सम्मदिट्ठी तं सब्बं णिजरणिमित्तं ॥१६॥ उपभोग इन्द्रियोंके, द्वारा चेतन अचेतनोंके जो। करता सम्यादृष्टी, बह सब है निर्जरा हेतु ॥१६३॥ उपभोगमिद्रियैः द्रव्याणामचेतनानामितरेषां । यत्करोति सम्यग्दृष्टि: तत्सर्वं निर्जरानिमित्तं ।।१६।। विरागस्योपभोगो निर्जराये एव । य एव रागादिभावानां सद्भावेन मिथ्यादृष्टे रचेतना नामसंज-उवभोग, इंदिय, दव्व, अचेदण, इदर, ज, सम्मदिदि, त, सव्व, णिज्जरणिमित्त । धातुसंज-इव प्राप्तौ, कुण करणे, जर बयोहानी झरणे च । प्रातिपदिक - उपभोग, इन्द्रिय, द्रव्य, अचेतन, अब निर्जरा प्रवेश करती है-रागाद्या इत्यादि । अर्थ-रागादिक प्रास्रवोंके रोकने से अपनी सामर्थ्य द्वारा आगामी सब हो कर्मोको मूलमें दूर ही से रोकता हुना परमसंबर ठहर रहा था, अब इस संवरके होने के पहले बँधे हुए कमौको जलानेके लिये निर्जरारूप अग्नि फैलती है जिससे कि ज्ञानज्योति निरावरण होती हुई फिर रागादिभावोंसे भूछित नहीं होती। भावार्थ-संवर होनेपर नवीन कर्म तो बँधते नहीं और जो पहले बँधे हुए थे वे झड़ रहे, तब ज्ञानका प्रावरण दूर होनेसे ज्ञान ऐसा विशुद्ध हो जाता है कि फिर वह ज्ञान रागा. दिरूप नहीं परिणमता, सदैव विशुद्ध प्रकाशरूप ही रहता है । अब निर्जराका स्वरूप कहते हैं-[सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि जीव [यत्] जो [इंद्रियः] इंद्रियोंसे [अचेतनानां] अचेतन और [इलरेषां] अन्य चेतन [प्रध्यारणां] द्रव्योंका [उपभोगं] उपभोग [करोति] करता है [तत् सवं] वह सब [निर्जरानिमित्तं] निर्जराका निमित्त है। तात्पर्य-कर्मोदयरूप निर्जरगके समय प्राप्त उपभोगके प्राश्रय हुए रागमें राग न होने के कारण ज्ञानोके संसारनिमित्तक कर्मबन्ध न होनेसे वह उपभोग निर्जराका हो निमित्त Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३४५ न्यद्रव्योपभोगो बंधनिमित्तमेव स्यात्, स एव रागादिभावानामभावेन सम्यग्दृष्टेनिर्जरानिमित्तमेव इतर, यत्, सम्यग्दृष्टि, तत्, सर्व, निर्जरानिमिन । मूलधातु-- इदि परमैश्वर्य, त्रिति सजाने, डुकृञ् करणे, दृशिरप्रेक्षणे। पदविवरण-उवभोग उपभोग-द्वितीया एकवचन कर्मकारक । इंदियेहिं इन्द्रियः-तृतीया बहु० । दवाणं द्रव्याणाम्-षष्टी बहु० । अत्रेदणाणं अचेतनाना--पष्टी बहु । इदराणां इतरेषां-पष्टी रहा। टोका-विरागीका उपयोग निर्जराके लिए ही होता है । मिथ्याष्टिका जो ही चेतन अचेतनद्रव्यको उपभोग रागादिभावोंका सद्भाव होनेसे बंधका निमित्त ही होता है, वही उपभोग रागादिभावोंके प्रभावसे सम्यग्दृष्टिके निर्जराका निमित्त हो होता है ! इस कथनसे द्रव्य. मिर्जराका स्वरूप बताया गया है। भावार्थ----सम्यग्दृष्टि ज्ञानी है और ज्ञानीके अज्ञानमय राग द्वेष मोहका प्रभाव है; इस कारण विरागीके जो इंद्रियोंसे भोग होता है उस भोगकी सामग्रीको यह ऐसा जानता है कि ये परद्रव्य हैं, मेरा इनका कुछ सम्बन्ध नहीं है । परन्तु कर्मके उदयके निमित्तसे हुई यह चारित्रमोहके उदयको पीड़ा बलहीन होनेसे जब तक सही नहीं जाती तब तक जैसे रोगी रोगको प्रच्छा नहीं जानता, परन्तु पोड़ा नहीं सही जानेसे पौषधि प्रादिसे इलाज करता है उसी तरह विषयरूप भोग अपभोग सामग्रीसे, यह कभी इलाज करता है । तब भी कर्मके उदय से तथा भोगोपभोगको सामग्रीसे ज्ञानीको राग द्वेष मोह नहीं है। कर्मका उदय होता है वह अपना रस देकर झड़ जाता है उदय पानेके बाद उस द्रव्यकर्मको सत्ता नहीं रहती निर्जरा ही है सम्यग्दृष्टि उदय में आये हुए कर्मरसको जानता है और फलको भी भोगता है, किन्तु राग द्वेष मोहके बिना भोगता है इस कारण कर्मका प्रास्रव नहीं होता, प्रास्रवके बिना विरागी सम्यग्दृष्टिके आगामी बंध नहीं होता। और जब प्रागामी बंध नहीं हुआ तब केवल निर्जरा ही हुई। इस कारण सम्यग्दृष्टि विरागीका भोगोपभोग निर्जराका ही निमित्त कहा गया है। तथा लक्षण भी यही है कि पूर्व द्रध्यकर्म उदयमें पाकर झड़ जाबें यही द्रव्यनिर्जरा है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व अधिकार, क्रमानुसार संवराधिकार पूर्ण हो गया । अब क्रमप्राप्त निर्जराधिकार प्राया है। संवरपूर्वक निर्जरा मोक्षमार्गको प्रयोजनभूत है सो संवर के बाद निर्जराका वर्णन किया है । सो द्रव्यनिर्जरा व भावनिर्जरा इन दो प्रकारको निर्जराओं में से इस गाथामें द्रव्यनिर्जराका स्वरूप निर्दिष्ट किया गया है। . तथ्यप्रकाश-१-विरागका उपभोग निर्जराके लिये ही होता है, क्योंकि उस उपभोग में ज्ञानीको राग नही है, अतः उदयागत द्रव्यप्रत्यय नवीन कर्मबन्धके निमितभूत नहीं होते। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स्यात् । एतेन द्रव्यनिर्जरास्वरूपमावेदितं ॥१६३॥ बहु । जं यत्-द्वितीया एकवचन । कुदि करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुप एक क्रिया । सम्मदिट्ठी सम्यदृष्टि:-प्रथमा एकवचन कर्ताकारक । तं तत्-प्रथमा एकवचन । सव्वं सर्व-प्रथमा एक० ! णिज्ज रणिमित्तं निर्जरानिमित्त-प्रथमा एकवचन ।। १६३ ।।। २-नवीन कर्मबन्धका कारण न बनकर उदयागत द्रव्यप्रत्ययका निकल जाना द्रव्यनिर्जरा है । ३-उपभोगमें राग होनेसे मिथ्यादृष्टिका उपभोग कर्मबंधका निमित्त होता है । ५-निर्जरा होना व बन्धका न होना गुणस्थान के अनुसार समझना । ४--मिथ्या दृष्टिके निर्जरा गजस्नान वत् बंध कराती हुई होती है। सिद्धान्त-१-- उदयामत द्रव्यप्रत्ययके निमित्तसे चेतन प्रचेतन द्रव्योंका उपभोग होता है । २- समस्त परभावसे विरक्त होनेसे झानीके कर्मनिर्जरण होता है । ३- अज्ञानीके रागादिभाव होने के कारण कर्मबन्ध होता है । दृष्टि-- १- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । २- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४८) । उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। प्रयोग-~-बन्धहेतुभूत रागादिसे दूर होनेके लिये निज सहज ज्ञानज्योतिमें उपयोगको स्थिर करनेका पौरुष करना ॥१६३।। अञ्च भावनिर्जराका स्वरूप कहते हैं-[द्रव्ये उपभुज्यमाने] द्रव्यकर्मके व वस्तुके भोगे जानेपर [सुखं वा दुःखं] सुख अथवा दुःख [नियमात्] नियमसे [जायते] उत्पन्न होता है। [था] और [जवीरवं] उदय में आये हुए [तत् सुखदुःखं] उस सुख दुःखको [वेदयते] अनुभव करता है [प्रथ] फिर वह सुख दुःखरूप भाव [निर्जरां याति] निर्जराको प्राप्त होता है । तात्पर्य-ज्ञानीके सुख दुःख पाता है, किन्तु उसमें लगाव न होनेसे वह भाव मागे को बंधनका कारण न बनकर निर्जीर्ण हो जाता है। टोकार्थ-परद्रव्यके भोगनेमें मानेपर. तन्निमित्तक सुखरूप प्रथवा दुःखरूप भाव नियमसे उदय होते हैं, क्योंकि वह वेदना साता तथा असाता इन दोनों भावोंका अतिक्रमण नहीं करती। सो यह सुख दुःखरूप भाव जिस समय अनुभवा जाता है उस समय मिथ्यादृष्टि के तो रागादिभावोंके होनेसे आगामी कर्मबन्धका निमित्त होकर झड़ता हुना भी निर्जरारूप नहीं होना हुआ बन्ध हो कहना चाहिये । और सम्यग्दृष्टिके उस सुख दुःखके अनुभवसे रागादि भाबोंका प्रभाव होनेसे प्रोगामी बधका निमित्त न होनेसे केवल निर्जरा रूप ही होता है सो निर्जरारूप हुप्रा निर्जरा ही कहना चाहिये, बन्ध नहीं कहा जा सकता । भावार्थ--द्रव्यकर्मको Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३४७ अथ मावनिर्जरास्वरूपमावेदयति दब्वे उवभुजंन णियमा जायदि सुहं वा दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अह णिज्जरं जादि ॥१६॥ व्रव्य उपभोग करते, सुख अरु दुःख उत्पन्न होता है । उस उदीर्ण सुख दुःखको, वेदत हो कर्म झड़ जाता ॥१६४॥ द्रव्ये उपभुज्यमाने नियमाजाबले सुई वा दुवा । तत्सुखदुःखमु दीर्ण वेदयते अथ निर्जरा याति ।।१६४।। उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये तन्निमित्तः सातासाताविकल्लानतिक्रमणेन वेदनायाः सुखरूपो दुःखरूनो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति । स तु यदा वेद्यते तदा मिथ्यादृष्टे रामादिभावानां सद्भावन बनिमित्तं भूत्वा निर्जीयमारगोप्यनिर्जीर्णः सन् बंध एवं स्यात् । सम्यग्दृष्टेस्तु रागादिभावानामभावेन बंधनिमित्तमभूत्वा केवलमेव निर्जीयमाणो निर्जीर्णः सन्नि नामसंज्ञ. दब्बा, उवभुजंत, णियम, सुह, वा, दुःख, वा. त. सुहवस उदिण्ण, अह, णिज्जर । धातुसंज्ञ-दव प्राप्ती, उब-भुज भक्षरणे भोगे च, जा प्रादुर्भावे, बेद वेदने, जा गतौ । प्रातिपदिक · द्रव्य, उपभुज्यमान, नियम, सुख, वा, दुःख, बा, तत्, सुखदुःख, उदीर्ण, अथ, निर्जरा । मूलधातु-उप-भुज पालनाभ्यवहारयोः, जनी प्रादुर्भावे दिवादि, विद चेतनास्याननिवासेषु चुरादि, या प्रापणे अदादि । पदविवरण-दब्वे द्रव्ये-सप्तमी एका० । उब भुज्जते उपभुज्यमाने-सप्तमी एक० । णियमा नियमानु-पंचमी एक० । स्थिति पूर्ण होनेपर या पहिले उदय पानेपर मुम्ब दुःख भाव नियमसे उत्पन्न होते हैं उनको अनुभव करते हुए मिथ्पादृष्टि के तो रागादिक निमित्तका सद्भाव होनेसे मागामी कर्मका बंद करके निर्जरा होती है सो वह निर्जरा किस कामको, गिनती में भी नहीं, वहाँ तो बन्ध ही किया गया । और सम्यग्दृष्टिके सुख दुःख भोगनेपर भी उसमें रागादिकभाव नहीं होते, इरालिये अागामी बन्ध भी नहीं होता । केवल निर्जरा ही हुई । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें द्रव्यनिर्जराका स्वरूप बताया गया था । अब इस गाथामें द्रव्यनिर्जराका निमित्तभूत व कार्यभूत भावनिर्जराका स्वरूप कहा है । तथ्यप्रकाश - (१) परद्रव्य का उपभोग होनेपर साता या असातारूप वेदन होता है । (२) साता असाताके वेदनके समय उसमें रागभाव (व्यामोह) होनेसे उपभोग बन्धका निमित्त होता है । (३) उदय भी निर्जरा है इस निर्जराके होते हुए भी रागादिभाव होनेसे अज्ञानीके कर्मबन्ध होता है, अतः वह निर्जरा नहीं है। (४) सातोदय व असालोदयसे सुख दु:ख होने पर स्वसंबेदन बलसे उत्पन्न परमार्थ प्रानन्दकी प्रतीति रखने वाला ज्ञानी उस कर्मफलको मात्र जानता ही है, यह भावनिर्जरा है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ समयसार I जैव स्यात् । तद् ज्ञानस्यैव सामर्थ्य विरागस्यैव वा किल । यस्कोऽपि कर्मभिः कर्म भुजानोऽपि न बध्यते ।। १३४ ।। ।। १६४ ।। जायदि जायते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । सुखं प्रथमा एक वा अव्यय । दुक्खं दुःख-प्रथमा एक० | वा अध्यय । तं तत् सुदुक्खं सुखदुःख उदिष्णं उदीर्ण-प्रथमा एकवचन या द्वितीया एकवचन । वेद वेद्यते या वेदयते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । अह अथ - अव्यय । णिज्जरं निर्जरां द्वितीया एक० | जादि याति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचम् ।। १६४ ।। सिद्धान्त - ( १ ) कर्म रससे विविक्त शुद्ध ज्ञानमात्र के अनुभव से विभावनिर्जरण होता है । (२) विभावनिर्जरण होनेपर द्रव्यनिर्भरा होता हो है । दृष्टि - १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ब ) । २ - उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक (२४) । प्रयोग - कर्मोदयज सातासावाविकल्पसंकट से दूर होनेके लिये प्रतिफलित कर्मरसको परभाव जानकर उससे विमुख होकर अपने सहज ज्ञानरसका स्वाद लेनेका पौरुष करना ।। १३४।। अब भागेके कथनको सूचनाका कलश कहते हैं-तज्ज्ञान इत्यादि । अर्थ- वास्तव में वह सामर्थ्य ज्ञान अथवा वैराग्यकी है कि कोई कर्मको भोगता हुआ भी कर्मसे नहीं बँधता | सो अब उस ज्ञानको सामर्थ्य दिखलाते हैं - [ यथा] जैसे [वैद्यः] वैद्य [ पुरुषः ] पुरुष [ विषं उपभुजानः ] farst भोगता हुआ भी [ मरणं] मरणको [न उपयाति ] नहीं प्राप्त होता [तथा ] उसी तरह [ज्ञानी ] ज्ञानी [पुद्गलकर्मणः ] पुद्गल कर्मके [ उदयं ] उदयको [भुक्ते ] भोगता है तो भी [नैव बध्यते ] बंधता नहीं है । तात्पर्य - अविकार अन्तस्तत्व के ज्ञान होनेके सामर्थ्य से कर्मफलभोग में उपेक्षा होनेके कारण ज्ञानी के संसारबन्धक बन्ध नहीं होता । टोकार्थ -- जैसे कोई वैद्य, दूसरेके मरणका कारणभूत विषको भोगता हुआ भी श्रव्यर्थं विद्याकी सामर्थ्य से विषकी मारणशक्तिके निरुद्ध हो जानेसे विषसे मरणको प्राप्त नहीं होता, उसी तरह प्रज्ञानियोंको रागादि भावों के सद्भावसे बंधके कारणभूत पुद्गलकर्मके उदय को भोगता हुआ भी ज्ञानी ज्ञानकी अमोध सामर्थ्य से रागादिभावों के प्रभाव होनेपर कर्मके उदय की आगामी बंध करने वाली शक्ति निरुद्ध हो जानेसे आगामी कर्मोसे नहीं बंधता । विद्याकी सामर्थ्य से विषकी मारणमक्तिका उससे नहीं मरता, उसी तरह शामीके ज्ञान हटा देता है । इस कारण उसके कर्मका भावार्थ - जैसे कोई वैद्य पुरुष अपनी प्रभाव करता है सो वह उस विषको खानेपर भी की सामर्थ्य से कर्मके उदयको बंध करने रूप शक्तिको Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ निर्जराधिकार मथ ज्ञानसामर्थ्य दर्शयति जह विसमुवमुज्जंतो वेजो पुरिसो ण मरणमुवयादि। पुग्गलकम्मस्सुदयं तह भुजदि णेव वज्झए णाणी ॥१६॥ जैसे विष उपभोगी, वैद्य पुरुष मरणको नहीं पाता। पुस्गल कर्म उवयको, भोगे नहि विज्ञ जन बंधता ॥१६॥ यथा विषमुपभुंजानो वैद्यः पुरुषो न मरणमुपयाति । पुद्गलकर्मण उदयं तथा भुक्ते नैव बध्यते ज्ञानी। यथा कश्चिद्विषवैद्यः परेषां मरणकारणं विषमुप जानोऽपि अमोघविद्यासामर्थ्येन निरु. बतच्छक्तित्वान्न म्रियते, तथा अज्ञानिनां रोगादिभावसद्भावेन बंधकारणं पुद्गलकर्मोदयमुप . जानोऽपि अमोघज्ञानसामर्थ्यात् रागादिभावानामभावे सति निरुद्धतच्छक्तित्वात् न बध्यते हानी ।। १६ नामसंज्ञ—जह, विस, उपभुज्जत, वेज्ज, पुरिस, ण, मरण, पुग्गलकम्म, उदय, तह, ण, एव, णाणि। धातुसंज्ञ-उव-भुज भक्षणे भोगे च, उव-जा प्रापणे, भुंज भोगे, बझ बंधने । प्रातिपविकयथा, विष, उपभुज्यमान, वैद्य, पुरुष, न, मरण, पुद्गलकर्मन्, उदय, तथा, न, एब, शानिन् । मूलधातु प्रापणे, उत-अय गतो, भज भोगे, बंध बंधने । पद विवरण-जह यथा--अव्यय । विसं विषं-द्वितीया एकवचन । उवभुज्जतो उप जान:-प्रथमा एक० कर्तृ विशेषण । वेज्जो वैद्य:-प्रथमा ए० । पुरिसो पुरुषःप्रथमा एक कर्ताकारक । ण न-अव्यय । मरण-द्वि० ए० कर्मकारक । उवयादि उपयाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । पुग्गलकम्मस्स पुद्गलकर्मण:-षष्ठी एक० । उदयं-द्वि० एक० । तह तथा अव्यय । भुंजदि भुंक्ते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । न, एव, बज्झए बध्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एकवचन ॥१६५।। उदय भोगनेमें प्राता है तो भी प्रागामी बंध नहीं करता। यह सम्यग्ज्ञानकी सामर्थ्य है ।। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें भावनिर्जराका स्वरूप बताते हुए ज्ञान व वैराग्य के बलकी महिमा दिखाई थी। अब इस गाथामें उसी ज्ञानका सामर्थ्य दिखाया गया है ।। तथ्यप्रकाश----१--तत्त्वज्ञानी शुभ अशुभ कर्मफलको भोगता हुआ भी ज्ञानमय प्रतीति के कारण कर्मसे नहीं बँधता है। २-प्रज्ञानी जीव शुभ प्रशुभ कर्मफलमें प्रासक्त होनेके कारण कर्मसे बँधता है। ३.ज्ञानस्वभावको दृष्टिके कारण द्रव्यप्रत्ययको कर्मबंधनिमित्तत्वशक्ति निरुद्ध हो जाती है, अतः ज्ञानी कर्मसे नहीं बंधता । सिद्धान्त -१.. सहजशुद्ध अविकार ज्ञानस्वभावमें प्रात्मत्वकी भावनासे पौद्गलिक कोका निर्जरण हो जाता है । २- उपभोगमें रागादिभावके प्रभावसे कर्मबन्ध नहीं होता। दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब)। २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ३५० प्रय पैराग्यसामर्थ्य दर्शयति जह मज्जं पिक्माणो अरदिभावेण मज्जदि ण पुरिसो। दवभोगे अरदो णाणी वि ण वज्झदि तहेव ॥१६६॥ परति भाबसे जैसे, मदिरा पीता पुरुष नहीं मदता। द्रव्यभोगमें तैसे, विरक्त ज्ञानी नहीं बँधता ॥१६॥ यथा मद्यं पिबन् अरतिभावेन माद्यति न पुरुषः । द्रव्योपभोगे अरतो ज्ञान्यपि न बध्यते तथैव ।।१६६ यथा कश्चित्पुरुषो मैग्यं प्रति प्रवृत्ततीव्रारतिभाव: सन् मैरेयं पिवन्नपि तीवारतिभावसामर्थ्यान्न माद्यति तथा रागादिभावानामभावेन सर्वद्रव्योपभोगं प्रति प्रवृत्ततीव्रविरागभावः नामसंज्ञ-जह, मज्ज, पित्रमाण, अरदिभाव, ण, पुरिन, दवभोग, अरद, पाणि, वि. ण, तह, एत्र । धातुसंज–पी पाने, मम गवे, वज्झ बंधने । प्रातिपदिकः- यथा, मद्य, पिवमान, अरतिभाव, न, पुरुष, द्रव्योपभोग, अरत, ज्ञानिन्, अपि, न, तथा, एव । मूलधातु-पा पान भ्वादि, मदी हर्षे दिवादि, बन्ध बन्धने । पदविवरण-जह यथा-अव्यय । मज्ज मर्य-द्वितीया एक० । पिवमाणो पिबन्-प्रथमा एक. द्रव्याथिकनय (२४अ)। योग--बंध से छुटकारा पाने के लिए वर्तमान कर्मफलका ज्ञातामात्र रहकर निविकल्प अधिकारस्वभाव अन्तस्तत्त्वकी आराधना करना ॥१६॥ अब वैराग्यको सामर्थ्य दिखलाने हैं---[यथा] जैसे [पुरुषं] कोई पुरुष [मद्य] मदिराको [अरतिमावेन] अप्रीतिसे [पिवन] पीता हुमा [न माद्यति] मतवाला नहीं होता [तर्थब] उसी तरह [जानी अपि] ज्ञानी भी द्रव्योपभोगे] द्रव्य के उपभोगमें [परतः] विरक्त होता हुमा [न बध्यते] कर्मोसे नहीं बनता। तात्पर्य--कर्मोदयवश उपभोग होनेपर भी मूल विरक्तिके कारण ज्ञानी बँधता नहीं टीफार्थ---जैसे कोई पुरुष मदिराके तीव्र अप्रीतिभाव वाला होता हुमा मदिरा (शराब) को पीता हुआ भो तीन अरतिभावके सामर्थ्यसे मतवाला नहीं होता, उसी तरह ज्ञानी भी रागादिभावोंके प्रभावसे सब द्रव्योंके उपभोगके प्रति तीन विरागभाव में वर्तता हुमा विषयोंको भोगता हुमा भी तीन विरागभावको सामर्थ्यसे कर्मोंसे नहीं बंधता। अब कलशरूप काव्यमें उत्थानिका कहते हैं--नाश्नुते इत्यादि । अर्थ-~-यह पुरुष, विषयोंको सेवता हुनर भी विषय से वनेके निजफलको नहीं पाता, क्योंकि वह ज्ञान वैभव तथा विरागताके बलसे विषयोंकर सेवने बाला होनेपर भी सेवने वाला नहीं है । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार सन् विषयानुप जानोऽपि तीव्रविरागभावसामान्न बध्यते ज्ञानी ॥ नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य वा। ज्ञानवैभवविरागतावलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥१३५।। कृदंत । अरदिभाव अरतिभावे-उतीमा : महाशि-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक० किया। ण न-अव्यय। पुरिसो पूरुषः-प्रथमा एक० कर्ताकारक। दबुबभोगे द्रव्योपभोगे-सप्तमी एक० ।। अरदो अरत:-प्र०ए० पाणी ज्ञानी-ग्र० एक० । वि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । बज्झदि बध्यते-वर्तमान लन अन्य पुरुष एक० क्रिया। तह तथा अव्यय । एव-अव्यय ।। १६६ ॥ भावार्थ--- ज्ञान और विरागताका ऐसा अद्भुत बल है कि इंद्रियोंसे विषयोंका सेवन करने पर भी उनका सेवने वाला नहीं कहा जाता। क्योंकि विषयसेवनका निजफल संसार व संसारभ्रमण है । लेकिन ज्ञानी वैरागीके मिथ्यात्वका प्रभाव होनेसे संसारका भ्रमणरूप फल नहीं होता। प्रसंगविवरण-उपान्त्यपूर्व गाथामें ज्ञान और वैराग्यके सामर्थ्यका संकेत था जिसमें ज्ञानसामर्थ्यका वर्णन अनन्तरपूर्व गाथामें किया गया है। अब इस गाथामें वैराग्यका सामर्थ्य बताया गया है। तथ्यप्रकाश-१- उपभोगके प्रति तीव्र विरागता होनेके कारण ज्ञानी विषयोंको भोगता हुअा भी बँधता नहीं है । २- रागमें राग न होनेसे ज्ञानीके उपभोगमें भी राग नहीं होता, मात्र भोगना पड़ने की बात होती है । ३- भोगमद्यका प्रतिपक्षभूत हर्षविषादादिविकल्पशुन्य योग औषधिका समायोग होनेसे विरागताके कारण भोगमद्यका उपभोग ज्ञानीको बेसुध नहीं कर सकता है । __सिद्धान्त-१-- सहजशुद्ध अविकार स्वभावकी भावना होनेपर द्रव्योपभोगमें परति होनेसे कर्मबन्ध नहीं होता । २- जितने अंशमें ज्ञानी राग नहीं करता उतने अंशमें वह कर्मसे नहीं बंधता । ३- पूर्ण वीतराग होनेपर कमसे रंच भी नहीं बैधता । दृष्टि---१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब) । २.. अपूर्ण शुद्ध निश्चयनय (४६५)। ३--उपाध्यभावापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग-सर्वदुःखमुक्ति के लिये कर्मानुभागके प्रतिफलनमें राग न करके अविकार ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पोग करना ।।१६।।। ___ अब उक्त प्रर्थको दृष्टांत द्वारा दिखलाते हैं--[कश्चित्] कोई तो [सेवमानोपि विषयोंको सेवता हुआ भी [न सेयते नहीं सेवन करता है और [असेवमानोपि] कोई नहीं Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ समयसार अर्थतदेव दर्शयति-- सेवंतोवि ण सेवइ असेवमाणोवि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्सवि ण य पायरणोत्ति सो होई ॥१६॥ सेता हुआ न सेवे, कोइ नही सते भी सेवक है। परजन कार्य निरत भी, प्राकरणिक भी नहीं होता ॥१७॥ सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति । यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिक: । तथा सम्यग्दृष्टि: पूर्वसश्चितकर्मोदयसंपन्नान विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावादसेवक एव । मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामित्या नामसंज्ञः - सेवंत, चि, ण, असेवमाण, वि, सेवग, कोई, पगरणचेढा, क. वि, ण, य, पायरण, इत्ति, त । धातुसंज्ञ-सेव सेवायां, प.कर करणे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-सेबमान, अपि, असेवमान, अपि, सेवक, कश्चित्, प्रकरणचेष्टा, किम्, अपि, न, च, प्राकरण, इति, त । मूलधातु-सेव सेवायां, भू सत्तायां । पदविवरण- सेवंतो सेवमानः-प्रथमा एक० । वि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । सेवइ सेवते-वर्तमान लट् सेवता हुमा भी [सेवकः] सेवने वाला कहा जाता है [कस्यापि] जैसे किसी पुरुषके [प्रकरणचेष्टा अपि किसी कार्यके करनेकी चेष्टा तो है [घ सः] किन्तु वह [प्रापरणः] कार्य करने वाला स्वामी हो [इति न भवति] ऐसा नहीं है । टीकार्थ-जैसे कोई पुरुष किसी कार्यकी प्रकरणनि यामें व्याप्रियमाण होकर भी याने उस सम्बंधी सब क्रियानोंको करता हुआ भी उस कार्यका स्वामी नहीं है । किन्तु दूसरा कोई पुरुष उस प्रकरण में व्याप्रियमाण न होकर भी याने उस कार्य सम्बंधी क्रियाको नहीं करता हुप्रा भी उस कार्यका स्वामीपन होनेसे उस प्रकरणका करने वाला कहा जाता है । उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी पूर्वसंचित कोंके उदयसे प्राप्त हुए इन्द्रियोंके विषयोंको सेवता हुआ भी रागा. दिक भावोंका अभाव होनेके कारणसे विषयसेवनके फलके स्वामीपन का प्रभाव होनेसे प्रसेवक ही है । किन्तु, मिथ्यादृष्टि विषयोंको नहीं सेवता हुना भी रागादिभावोंका सद्भाव होनेके कारण विषय सेबनेके फलका स्वामी. होनेसे विषयोंका सेवक ही है। __ भावार्थ-जैसे कोई व्यापारी स्वयं कार्य न करके नोकरके द्वारा कारखानेका कार्य कराता है, तो वह स्वयं कार्य न करता हुआ भी स्वामित्वके कारण दूकान सम्बंधी हानि-लाभ का फ़ल हर्ष विषाद पाता है । किन्तु नौकर स्वामित्वबुद्धि प्रभावमें व्यापार करता हुमा भी Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार त्सेवक एव । सम्यग्दृष्टेभवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमय स्थान्यरूपाप्तिमुक्त्या । यस्माद् ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।।१३६।। ।। १६७ ।। अन्य पुरुष एक० । असेवमाणो असेवमान:-प्रथमा एक । वि अपि-अव्यय । सेवगो सेवक:-प्रथमा एक । कोई कश्चित्-अव्यय अन्त:-प्रथमा एकवचन । पगरणचेट्टा प्रकरणचेष्टा-प्र० एक० । कस्स कस्य-षष्ठी एकवि अपि-अव्यय। णन-अव्यय । वि अपि-अव्यया पायरणो प्राकरण:-प्रथमा एक हत्ति इतिअव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । होई भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। १९७ ॥ उसके हानि-लाभका जिम्मेदार नहीं है । ऐसे ही सम्यग्दृष्टिको कर्मविपाकवश सुख दुःख भोगना पड़ता, पर उसका स्वामी न बननेसे भोगका फल संसारबन्धन उसके नहीं होता। अब इसी प्रर्थके समर्थन में कलशरूप काव्य कहते हैं---सभ्य इत्यादि । अर्थ—सम्यदृष्टिके नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है। क्योंकि यह सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूपका ग्रहण और परके त्यागकी विधिसे अपना वस्तुत्व उपयोगमें रखने के लिये भिन्न-भिन्न स्व व परको परमार्थ से जानकर अपने स्वरूपमें ठहरता है और पररूप समस्त रागयोगसे विराम लेता है । महा यह अद्भुत रौति ज्ञान वैराग्यकी शक्तिके बिना नहीं होती। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि वैराग्यका ऐसा सामथ्र्य है कि ज्ञानी विषयोंको उपभोगता हुअा भी प्रतिभावके कारण कर्मसे नहीं बँधता है । अब इसी तथ्यका विधिनिषेधरूपसे समर्थन इस गाथामें किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) तत्त्वज्ञानी चारित्रमोहोदय विपाकवश विषयोंको सेवता हुया भी उसका स्वामी न बननेसे सेवक नहीं है । (२) अज्ञानी जीव विषयसाधन न मिलनेपर विषयों को न सेवता हुया भी रामादिसद्भावके कारण सेवक है । (३) ज्ञानी विषयसेवनका व विषयसेवनफलका अपनेको स्वामो न माननेसे वह प्राकरणिक नहीं है । (४) अज्ञानी जीव बिषयसेवनका व विषयसेवनफलका प्रपनेको स्वामी माननेसे प्राकरणिक है । (५) प्राकरणिक जीव कर्मसे बँधता है । (६) अप्राकरणिक जीव कर्मसे नहीं बंधता । सिद्धान्त-(१) अविकार सहज ज्ञानमय स्वका संवेदन करने वाला ज्ञानी ज्ञानरस का स्वाद लेनेसे प्रबन्धक है । (२) अपनेको विकारस्वरूप समझने वाला अज्ञानी कमरसका स्वाद माननेसे बन्धक है। दृष्टि-१- ज्ञाननय (१६४) । २- कर्तृनय (१८९)। प्रयोग--अपनेको सहज प्रानन्दमय अनुभबनेके लिये उपयोगमें प्रतिफलित कर्मरस Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ समयसार सम्यग्दृष्टिः सामान्येन स्वपरावेवं तावज्जानाति - उदयविवागो विविहो कम्मागां वा जिणवरेहिं । दु ते मम सहावा जाणगभावो दु अहमिक्को ॥१६८॥ उदयविपाक विधि है, कर्मोंके श्री मुनीश दर्शाये । वे हि स्वभाव मेरे, मैं तो हूँ एक ज्ञायक सत् ॥१६८॥ उदयविपाको विविधः कर्मणां वणितो जिनवरैः । न तु ते मम स्वभावः ज्ञायकभावस्त्वमेकः ॥ १६८ ॥ ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः । एप टंकोत्कोकज्ञाय J नामसंज्ञ उदयविवाग, विविह, कम्म, वणिज, जिनवर, ण, दु, त, अम्ह सहाय जाणगभाव, दु, अम्ह, इक्क | धातुसंज्ञ -वष्ण वर्णने । प्रातिपदिक- उदयविपाक, विविध, कर्मन् वणित, जिनवर, न, तु, अस्मद् स्वभाव, ज्ञायकभाव, तु अस्मद, एक मूलधातु - वि पचप पाके, वर्ण वर्णने पदविवरण -उदविवागो उदयविपाकः - प्रथमा एकवचन । कम्माण कर्मणाम् षष्ठी बहु० । वणिओं वर्णितः प्र० एक० । उपयोग हटाकर निज सहज ज्ञानस्वरूपमें उपयोग करनेका पोरुष करना ।। १६७ ॥ अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि वास्तव में सामान्यसे अपनेको श्रौर परको ऐसा जानता है: - [ कर्मणां ] कर्मीका [ उदयविपाकः ] उदयविपाक [जिनवर ] जिनेश्वर देवोंने [ विविधः ] अनेक तरहका [रिणतः ] कहा है [ते] वे [ मम स्वभावाः ] मेरे स्वभाव [ न तु ] नहीं हैं [तु श्रहं ] किन्तु मैं [ एक: ] एक [ ज्ञायकभावः ] मात्र ज्ञायकस्वभावस्वरूप हूं । तात्पर्य - कर्मोदयविपाकज भाव मेरे स्वभाव नहीं, मैं तो सहज ज्ञानस्वभावमात्र हूं ज्ञानो ऐसा जानता है । टीकार्थ- जो कर्मके उदय के विपाकसे उत्पन्न हुए स्वभाव नहीं है । मैं तो यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर टंकोटकी प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया स्वामी न माननेसे प्राकरणिक नहीं है । अब इस गाथा में कि वह कौनसा ज्ञान है जिससे कि ज्ञानी परभावका स्वामी तथ्य प्रकाश. जीव में नाना प्रकारके विभाव कर्मोदयविपाकसे उत्पन्न होते हैं । २- कर्मोदयवि नाव आत्मा पाव नहीं है । ३ श्रात्मा तो वस्तुतः एक ज्ञायक मात्र है । ४ - ज्ञानी स्वभाव व परभावमें स्पष्ट भेद समझता है | सिद्धान्त - १ - रागद्वेषादिविभाव कर्मविपाकोदयका निमित्त पाकर ही होते हैं । भाव स्व २- परभाव मेरे स्वभाव नहीं है । ३- मैं तो एक प्रखंड चिद्रूप हूं । S अनेक प्रकारके भाव हैं वे मेरे एक ज्ञायकभावस्वभाव हूँ। था कि ज्ञानी परभावका अपनेको उसीके सम्बन्ध में यह बतलाया है नहीं बनता है । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार कभावस्वभावोऽहं ॥१६८।। जिणवरेहि जिनवर:-तृतीया बहु० । न, तु, मझ मम-षष्ठी एका० ! सहावा स्वभावा:-प्रथमा बहु० । जाणगभावो ज्ञायक्रभाव:-प्र० ए० । तु-अव्यय । अहं-प्र० ए० । इबको एक:-प्रथमा एकवचन ।। १६८॥ दृष्टि -- १-उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २-परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथि. कनय (२६) । ३- प्रखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । प्रयोग—कर्मोदयविपाप्रभव रागद्वेषादि विभावोंको परभाव जानकर उनसे उपेक्षा करके निरपेक्ष सहज ज्ञायकस्वभाव स्वमें स्वतत्त्वकी दृष्टि बनाये रखनेका पौरुष करना ।।१६८।। अब कहते हैं कि सम्याटष्टि अपने को पीर परको विशेषरूपसे इस प्रकार जानता है[रागः] राग [पुद्गलकर्म] पुद्गलकर्म है [तस्थ] उसका [विपाकोवयः] विपाकोदय एष] यह [भवति ] है सो [एषः] यह [मम भावः] मेरा भाव [न] नहीं है, क्योंकि [खलु] निश्चयसे [ग्रहं तु] मैं तो [एकः] एक [ज्ञायकभावः] ज्ञार्यकभावस्वरूप हूं। तात्पर्य—राग प्रकृतिके 'उदयका प्रतिफलन यह विभाव राम है वह मेरा स्वभाव नहीं है । __टोकार्थ- वास्तव में रागनामक पुद्गलकर्म है, उस पुद्गलकर्मके उदयके विपाकसे उत्पन्न यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर रागरूप भाव है यह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप हूं। इसी प्रकार राग इस पदके परिवर्तन द्वारा द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन ये सोलह सूत्र व्याख्यान किये जाना चाहिये और इसी रीति से अन्य भी विचार किये जाने चाहिये । इस तरह सम्यग्दृष्टि अपनेको जानता हुमा और रागको छोड़ता हा नियमसे ज्ञान व वैराग्यसे सम्पन्न होता है ! भावार्थ-जैसे सामने स्थित बालकका प्रतिबिम्ब दर्पणमें पड़े तो वह दर्पण में प्राया फोटो दागका स्वभाव नहीं, इसी प्रकार रागादिप्रकृति के विपाकोदयका प्रतिफलन उपयोगमें आया है सो वह जीवका स्वभाव नहीं है। प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें सामान्यतया यह बताया गया था कि सम्यग्दृष्टि स्व व परको किस तरह जानता है। अब इस गाथामें बताया है कि उसी स्व-परको विशेषतया ज्ञानी कैसा जानता है । तथ्यप्रकाश--१- राग आदि नामको पुद्गलकर्मप्रकृतियाँ हैं, उनके उदयसे जीव में राग आदि भाष प्रतिफलित होते हैं । २- रागादिप्रकृति के उदयसे जीवमें रागादिभाव होते हैं। ३- रागादिभाव प्रात्मा के स्वभाब नहीं हैं, अयोंकि वे प्रोपाधिक भाव हैं ! ४- प्रात्माका Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार सम्यग्दृष्टिविशेषेण तु स्वपरावेवं तावज्जानाति पुग्गलकम्मं रागो तस्स विवागोदनो हबदि एसो। ण दु एस मज्भ भावो जाणगभावो हु अहमिक्को ॥१६॥ रागप्रकृति पुद्गल है, राग विभाव है उदयफल उसका । वह भाव नहीं मेरा, मैं तो है एक ज्ञायक सत् ॥१६॥ पुद्गलकमं रागस्तस्य विपाकोदयो भवति एषः । मल्वेष मम भावः ज्ञायकभावः खल्बहमेकः ।। १९६॥ अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकम, तदुदयविपाकप्रभवोयं रागरूपो भावः, न पुनर्मम स्वभावः । एष टंकोत्कीरण कज्ञायकभावस्वभावोहं । एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुरिगरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्युह्यानि । एवं च सम्यग्दृष्टिः स्वं जानन राग मुंचंश्च नियमाज्ज्ञानवैराग्यसंपन्नो भवति ॥१९॥ नामसंज--पुम्गलकम्म, राग, त, विधामोदय, एत, ण, दु, एत, अम्ह, भाव, जाणगभाव, दु, अम्ह, इक्क । धातुसंज्ञ-हव सत्तायां, रज्ज रागे । प्रातिपदिक-पुद्गलकर्मनू, राग, लत्, विपाकोदय, एतत्, न, तु, एतत्, अस्मद, भाव, ज्ञायकभाव, तु, अस्मद्, एक । मूलधातु-वि-हुपचष पाके, भू सत्तायां । पदविवरण-पुग्गलकामं पुद्गलकर्म-प्रथमा एकवचन । यो सम-प्रथम) एका । सस्त तस्य षष्ठी एक० । हदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । एसो एषः-प्र० ए० । ण न-अव्यय । दु तु-अव्यय । एस एप:-प्र० ए० । मझ मम-षष्ठी एक० । भावो भावः-प्र० ए० । जाणगभावो ज्ञायकभावः-प्र० ए०। हु खलु-अव्यय । अहं-प्रथमा एक० । इक्को एक:-प्रथमा एकवचन ॥ १६ ॥ तो एक सहज ज्ञायकभाव स्वभाव है, क्योंकि यह प्रात्माका निरपेक्ष निरुपाधि शाश्वत सहज भाव है । ५-ज्ञानी अपनेको ज्ञायकस्वभावमात्र जानता हुप्रा रागादि परभावको छोड़ता हुआ ज्ञानवृत्तिरूप परिणमता रहता है । ६- ज्ञानी अात्मा ज्ञानमात्र स्वको जाननेसे ज्ञान सम्पन्न है व रागादि परभावको छोड़नेसे वैराग्यसंपन्न है । सिद्धान्त-१-रागप्रकृतिके उदयका निमित्त पाकर जीवमें रागभाव होता है । २-जीवका स्वभाव शाश्वत ज्ञायकभाव है। दृष्टि-१-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकन य (२४)। २-अखण्ड परमशुद्ध निश्चय. नय (४४)। प्रयोग–अध्र व, प्रशरण, दुःखरूप, दुःखफल वाले, भिन्न, प्रसार परभावोंसे मत्यन्त उपेक्षा करके निज सहज एक झायकस्वभावमय अन्तस्तस्वकी उपासना करना ।।१६६॥ अब औपाधिक भावोंकी परभावता जाननेका फल बताते हैं--[एवं इस तरह Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार एवं सम्मादिट्टी अप्पाणं मुणदि जाण्यसहावं । उदयं कम्मविवागं य मुयदि तच्चं बियाणंतो ॥२०॥ यों सुदृष्टि प्रात्माको, जाने ज्ञायकस्वभावमय पूरा । कर्मविपाक उदयको तजता, वह तत्वका ज्ञाता ॥२०॥ एवं सम्यग्दृष्टि: आत्मानं जानाति ज्ञायकस्वभावें । उदयं कर्मविपाक च मुंचति तत्त्वं विजानन् ।।२०।। एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विविच्य टकोत्कीरण कज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तस्वं विजानंश्च स्वपरभावो. नामसंज्ञ-एवं सम्मादिदि, अप्प, जाणयसहाव, उदय, कम्मविवाग, य, तच्च, वियाणत । धातुसंश--मुण ज्ञाने, मुंच त्यागे, वि जाण अवबोधने । प्रातिपदिक -- एवं, सम्यग्दृष्टि, आत्मन्, ज्ञायकस्वभाव, सिम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि [प्रात्मानं] अपनेको [शायकस्वभावं] नायकस्वभाव जानाति] जानता है |] और [तत्त्वं] वस्तुके यथार्थ स्वरूपको [विजानन्] जानता हुमा [कर्मविपार्फ] कर्मविपाकरूप [उदयं] उदयको [मुञ्चति] छोड़ता है। तापर्य-ज्ञानी अपनेको ज्ञायकस्वभावं जानता और विकारको परभाव जानकर छोड़ देता है। टीकार्य--इस प्रकार सम्यग्दृष्टि, सामान्य तथा विशेषसे सभो परस्वभावरूप भावोंसे भिन्न होकर टंकोल्कीर्ण एक ज्ञायकभाव स्वभावरूप प्रात्माके तत्वको अच्छी तरह जानता है और अ प्रकार तत्त्वको अच्छी तरह जानता हुश्रा स्वभावका ग्रहण और परभावका त्याग तारा तिष्पाद्य अपने वस्तुपनेको फैलाता हुमा कर्मके उदयके विपाकसे उत्पन्न हुए सब भायों को छड़ता है । इस कारण यह सम्यग्दृष्टि नियमसे ज्ञान व वैराग्यसे सम्पन्न होता है। भावार्थ--जब अपनेको तो ज्ञायक भावस्वरूप सहजानन्दमय जाने और कर्मके उदय से हर भावोंको परभावस्वरूप प्राकुलतामय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोंसे विरक्त होनाये दोनों होते ही हैं । यह तथ्य अनुभवगोचर है और यही सम्यग्दृष्टिका परिचय है। अब कहते हैं कि यदि कोई अपनेको ज्ञानी माने और परद्रव्योंमें आसक्त हो तो वहथा ही सम्यग्दृष्टिपनेका अभिमान करता है-सम्यग्दृष्टि इत्यादि। अर्थ- यह मैं स्वयं सयग्दृष्टि हूं मेरे कभी भी कर्मका बंध नहीं होता; ऐसा मानकर जिनका मुख गर्वसहित ऊंचा ल्ला है तथा हर्ष सहित रोमांचरूप हुमा है वे जीव महाव्रतादि आवरण करे तथा वचन बहार आहारको क्रियामें सावधानीसे प्रवर्तनेकी उत्कृष्टताका भी अवलंबन करें तो भी पापी मध्यादृष्टि ही हैं, क्योंकि प्रात्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेके कारण सम्यक्त्वसे शून्य Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ समयसार पादानापोहन निष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुंचति ।। तसोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्याभ्यां संपन्नो भवति । सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बंधो न मे उदय, कर्मविपाक, च, तत्त्व, विजानत् । मूलधातु- ज्ञा अवबोधने, मुच मोक्षणे, वि-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण एवं-अव्यय । सम्मादिट्टी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एकवचन कर्ताकारक । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया हैं । भावार्थ----परद्रव्यसे तो रम हो और अपनेको माने कोई सम्यग्दृष्टि तो उसके सम्यक्त्व कैसे कहा जा सकता, वह तो व्रत समिति पाले तो भी स्वपरका यथार्थ ज्ञान न होनेसे मिथ्यात्वपापसे युक्त ही है। जब तक यथाल्यात चारित्र न हो तब तक चारित्रमोह होनेसे बंध तो होता ही है । ज्ञान होने मात्रसे तो बंधसे छूटना नहीं होता, ज्ञान होनेके बाद उसी में लोन होनेरूप शुद्धोपयोगरूप चारित्र हो तो बंधन कटता है । इसलिये राग होनेपर बंधका न होना मानकर स्वच्छंद होना तो मिथ्यादृष्टि का चिन्ह ही है । प्रभुने सिद्धांतमें मिथ्यात्वको पाप कहा है। यहां मिथ्यात्व सहित अनंतानुबंधोके रागको प्रधान करके अज्ञानी कहा है, क्योंकि अपने और परके ज्ञान श्रद्धानके बिना परद्रव्यमें तथा उसके निमित्तसे हुए भावोंमें प्रात्मबुद्धि हो तथा राग द्वेष हो तब समझना कि इसके भेदज्ञान नहीं हुआ। मुनिभेष लेकर कोई व्रतसमिति भी पाले वहां पर जीवोंकी रक्षासे तथा शरीर संबंधी यत्नसे प्रवर्तनेसे, अपने शुभभाव होनेसे याने परद्रव्य संबंधी भावों से अपना मोक्ष होना माने और पर जीवोंका धत होना, ! प्रयत्नाचाररूप प्रवर्तना योगकी अशुभ क्रिया होना इत्यादि परद्रव्योंकी क्रियासे हो अपने में बंध माने तब तक भी समझना कि इसके स्त्र और परका ज्ञान नहीं हमा, क्योंकि बंध मोक्ष तो अपने भावोंसे था, परद्रव्य तो प्राश्रयमात्र था उसमें विपर्यय माना, यों कोई परद्रयसे हो भला बुरा मानकर रागद्वेष करे तब तक सम्यग्दृष्टि नहीं है। किन्तु जिसको निज सल्लस्वरूप का अनुभव हुग्रा और कुछ काल तक चारित्रमोहके रागादिक भी रहे तथा उनसे प्रति परद्रव्य सम्बन्धी शुभाशुभ क्रिया प्रवृत्ति भी रहे तो भी वह ज्ञानी ऐसा मानता है कि यह कर्म का जोर है इससे निवृत्त होनेसे ही मेरा भला है, उनको रोगके समान जानता है व पी सही नहीं जाती सो उनका इलाज करनेमें प्रवर्तता है तो भी इसके उनसे राग नहीं का जा सकता, क्योंकि जो रागको रोग माने उसके राग कैसा ? उसके मेटनेका ही उपाय कता है सो मेटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है । अध्यात्मपौरुषके प्राणमें मिथ्यात्वसहित रागको ही राग कहा गया है वह सम्यग्दृष्टिके नहीं हैं और जिसके मित्व. सहित राग है वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । अज्ञानी मनुष्य था तो व्यवहारको सर्वथा छोकर भ्रष्ट हो जाता है अथवा निश्चयको अच्छी तरह नहीं जानकर व्यवहारसे ही मोक्ष मानता है Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३५४. स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरंतु । श्रालंबंता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्संति सम्यवत्वरिक्ताः ।। १३७|| || २०० ॥ एक कर्मकारक । मुवि जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया जाणायसहावं ज्ञायकस्वभावद्वितीया एक कर्मविशेषण । उदयं द्वितीया एकवचन । कम्मविचार्ग कर्मविपाक - द्वितीया एक० 1 मुअदि मुंचति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । तचं तत्त्वं द्वितीया एक० । विवाणतो विजानन्तः - प्रथमा बहुवचन ।।१६६ ।। वह परमार्थतत्त्वमें मूड है । स्वाद्वादय द्वारा सत्यार्थ समोसे ही सम्यक्त्वका लाभ होगा | प्रसंगविवरण --- प्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सम्यग्दृष्टि स्वव परको विशेषतया कैसा जानता है ? अब इस गाथा में उसी तथ्यका प्रायोजनिक विधिसे वर्णन किया गया है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) सम्यग्दृष्टि अपने आपको कर्मविपाकज भावोंसे निराला निरखता है । (२) सम्यग्दृष्टि भिन्न-भिन्न रूपसे क्रोध, मान श्रादि कर्मविपाकज भावोंसे अपनेको निराला निरखता है । (३) सम्यग्दृष्टि अपना सर्वस्व शाश्वत एक ज्ञायकस्वभावको अनुभवता है । ( ४ ) सम्यग्दृष्टि अपने स्वभावका उपादान करके तथा परभावोंका परिहार करके अपनी वास्तविकता को प्रकट करता है । (५) सम्यग्दृष्टि निज सहज ज्ञानस्वभाव के ग्रहण से ज्ञानसम्पन्न है व कर्मोंदयविपाकप्रभव भावोंको त्याग देनेसे वैराग्यसम्पन्न है । सिद्धान्त -- ( १ ) सम्यग्दृष्टि अपने ज्ञायकस्वभावरूप अपनेको जाननेकी परिणतिसे परिणमता है । ( २ ) कर्मविपाकोदय कर्मका परिणमन है । ( ३ ) कर्मविपाकोदयविषयक परि ज्ञान आत्माका परिणमन है । दृष्टि —-१- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) २ - अशुद्ध निश्चयनय (४७) । ३ - उपादानदृष्टि (४६) । प्रयोग - कर्मोदयविपाकप्रभव भावकी अपवित्रता दूर करनेके लिये मन, वचन, काय की वृत्तिका निरोध करके नित्यानन्दैकस्वभाव सहज परमात्मतत्वमें उपयोग रमानेका पौरुष करना || २०० || सम्यग्दृष्टि रागो कैसे नहीं होता ? यदि ऐसा पूछें तो सुनिये - [ खलु ] निश्चय से [यस्य ] जिस जीवके [ रागादीनां ] रागादिकोंका [परमाणुमात्रमपि ] लेशमात्र भी [तु विद्यते ] • मौजूद है तो [सः ] वह जीव [सर्वागमधरोपि] सर्व श्रागमको पढ़ा हुआ होनेपर भी [श्रात्मानं Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कथं रागी न भवति सम्यग्दृष्टिरिति चेत् परमाणुमित्तयं पि हु रायादीणं तु विजदे जस्स । णवि सो जाणदि अप्पाणयं तु सब्वागमधरोवि ॥२०१॥ अप्पाणमयाणतो अणप्पयं चावि सो अयाणतो। कह होदि सम्मदिही जीवाजीवे प्रयाणतो ॥२०२॥ (युग्मम) परमाणुमात्र भी हो, जिसके रागादिभावको मात्रा । वह सर्वागमधर भी, आत्माको जान नहिं सकता ॥२०१॥ प्रात्माको नहि जाने, तथा अनत्मा भि जो नहीं जाने। जीवाजीव न जाने, यह सम्यग्दृष्टि कैसे हो ॥२०२॥ परमाणुमात्रकमपि खलु रागादी मां तु विद्यते यस्य । नापि स जानात्यात्मानं तु सर्वागमधरोऽपि ॥२०॥ आत्मानमजानन् अनात्मानं चापि सोऽजानन् । कथं भवति सम्यग्दृष्टिर्जीवाजीवावजानन् ।।२०२।। यस्य रागादीनामज्ञानमयानां भावानां लेशतोऽपि विद्यते सद्भावः, भवतु स श्रुतकेवलि. कल्पोऽपि तथापि ज्ञानमयभावानामभावेन न जानात्यात्मानं । यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनास्मानमपि न जानाति स्वरूपपररूपसत्ताऽसत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात् । ततो य नामसंज्ञ-परमाणुमित्तय, पि, हु, रायादि, तु, ज, ण, वि, त, अप, तु, सवागमधर, वि, अप्प, अयाणंत, अणप्प, च, अवि, त, अयाणंत, कह, सम्मदिदि. जीवाजीव, अयाणंत । धातुसंज्ञ · विज्ज सत्तायां, तु] अात्माको [नापि] नहीं [जानाति ] जानता [च] और [प्रात्मानं] आत्माको [ग्रजानन्] नहीं जानता हुआ [अनात्मानं अपि] परको भी [प्रजानन् ] नहीं जानता हुमा [जीवाजीवौ] इस तरह जीव और अजीव दोनों पदाथोंको भी [अजानन] नहीं जानता हुमा [सः] वह [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि [कथं भवति] कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता। टोकार्थ-जिस जीवके अज्ञानमय रागादिक भावोंका लेशमात्र है वह जीव प्रायः श्रुतकेवलोके समान होनेपर भी ज्ञानमय भावके अभावके कारण प्रात्माको नहीं जानता । और जो अपने मात्माको नहीं जानता है वह अनात्मा (पर) को भी नहीं जानता । क्योंकि स्वरूपके सत्व और परस्वरूपके असत्त्वसे एक वस्तु निश्चयमें आता है । इस कारण जो आत्मा और अनात्मा दोनोंको नहीं, जानता है वह जीव अजीव वस्तुको ही नहीं जानता तथा जो जीव अजीवको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । इस कारण रागी शानके अमावसे सम्यग्दृष्टि नहीं है। तात्पर्य जो परद्रव्य व परभावोंसे विविक्त चित्प्रकाशमात्र स्वको नहीं जानता बह Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार प्रात्मानात्मनो न जानाति स जीवाजीवो न जानाति । वस्तु जीवाजीवा न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति । ततो रागो ज्ञानाभावान्न भवति सम्याष्टिः। प्रासंसारा प्रतिपदममी जाण अवबोधने, हो सतायां । प्रातिपदिक-परमाणुमात्रक, अपि, खलु, रागादि, तु, यत्, न, अपि, तत्, आत्मन्, तु, सर्वागमधर, अपि, आत्मन्. अजानत्, अनात्मन्, च, अपि, तत्, अजानत् । मूलधातु दिद सत्तायां, ज्ञा अबबोधने, भू सत्तायां । पविवरण-परभाशुमित्तयं परमाणुमात्रक-प्रथमा एकवचन । पि अपि-अव्यय । हु खलु-अव्यय । रायादीणं रागादीनां--पष्ठी बहु । तु-अव्यय । विज्जदे विद्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । जस्स यस्य-षष्ठी एक० । ण न-अव्यय । बि अपि-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । जाणदि जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अप्पाणयं आत्मानं-द्वितीया ए.। तु-अव्यय । सम्यग्दृष्टि नहीं है। भावार्थ--यहाँ रागीका अर्थ लेना है अज्ञानमय रागद्वेष मोहभाव वाला । अज्ञानमय मायने मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीसे हुए रामादिक । मिथ्यात्वके अभाव में चारित्रमोहके उदयका जो राग है वह प्रज्ञानमय राग नहीं हैं । क्योंकि ज्ञानीके उस रागके साथ राग नहीं है, ज्ञानी तो कर्मोदयसे जो राग हुमा है उसको मेटना चाहता है । ज्ञानीके चाहे वह अवती भी है उसके जो रागका लेशमात्र भी नहीं कहा सो रागमें राग लेशमात्र भी नहीं यह जानना । ज्ञानीके प्रशुभ राग तो अत्यन्त गौण है, परन्तु शुभ राग होता है उस शुभ रागको अच्छा समझ लेशमात्र भी उस रागसे राग करे तो सर्वशास्त्र भी पढ़ लिये हों, मुनि भी हो, व्यवहारचारित्र भी पाले तो भी ऐसा समझना चाहिये कि इसने अपने प्रात्माका परमार्थस्वरूप नहीं जाना, कर्मोदयजनितभावको ही अच्छा समझा है उसीसे अपना मोक्ष होना मान रक्खा है। ऐसे मानने वाला जीव अज्ञानी ही है । इसने स्व व परके परमार्थरूपको नहीं जाना सो मोव अजीव पदार्थका भी परमार्थरूप नहीं जाना और जिसने जीव अजीवको ही नहीं जाना यह कैसा सम्यग्दृष्टि ? ____ अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं-~-~आ संसारा इत्यादि । प्रर्थ-हे अन्ध प्राणियो ! प्रनादि संसारसे ये रागी जीव प्रतिपदमें नित्य मत्त होकर जिस पदमें सोये हुए हैं उस पदको तुम अपद समझो, अपद समझो (यहाँ दो बार अपद कहने से प्रति करुणाभाव सूचित होता है) जहाँ चैतन्यधातु शुद्ध है शुद्ध है अपने स्वाभाविक रसके समूहसे स्थायीभावपनेको प्राप्त होता है यह तुम्हारा पद है । सो इस तरफ प्राप्रो इस तरफ आमो यहां निवास करो । भावार्थ-ये प्राणी अनादि कालसे विकारभावको ही अपना हितकारी मानकर उनको ही अपना स्वभाव मानकर उन्हीं में रम रहे हैं। उनको श्री गुरु करुणा करके संबोधन कर रहे हैं कि हे अंधे प्राणियो! तुम जिस पदमें सोये हो, रम रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है तुम्हारा पद तो Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार रागिणो नित्यमनाःसुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः । एततेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्य. धातुः शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।१३।।।। २०१.२०२॥ सम्वानमयो मबागमधर:-प्र० ए० । वि अपि-अव्यय । अपाणं आत्मानं-द्वितीया एक० । अयाणतो अजानन्-प्रथमा एकः । अणापयं अनात्मानं-द्वि० एक । त्र-अव्यय । अवि अमि-अव्यय । सो स:-प्र० एक० । अयाणतो अजानन्-प्रथमा एक० । कह कथ-अव्यय । होदि भवति-पर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । सम्मक्ट्रिी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । जीवाजीवे-प्रथमा बह०। जीवाजीवी-प्रथमा दियचन । अयाणतो . अजानन्त:--प्रथमा बहुवचन ॥ २०१-२०२ ।। चैतन्यस्वरूपमय है उसको प्राप्त होनो याने पर 4 परभावसे विविक्त शुद्ध चैतन्यरूप अपने भाबका प्राश्रय करो। प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथावोंमें यह प्रसिद्ध किया गया था कि रागी पुरुष याने औपाधिक भावोंमें लगा रखने वाला पुरुष सम्यादृष्टि नहीं होता है । सो अब इस गाथा. युगल में यह दर्शाया गया है कि रागी पुरुष सम्यग्दृष्टि कैसे नहीं होता है। . तथ्यप्रकाश---१-जिसके रागादि अज्ञानमय भावोंका यदि रंच भी सद्भाव हो तो वह ज्ञानमय भावके नहीं होनेसे प्रात्माको नहीं जानता है । २-जो मात्माको प्रात्मरूपसे नहीं आनता वह अनात्माको अनात्मरूपसे नहीं जान पाता। ३-किसी भी एक वस्तुका निश्चय स्वरूपसे सत्त्व और पररूपसे असत्त्व के निर्णयसे होता है। ४-जो आत्मा अनात्माको नहीं नहीं जानता है वह आस्रवादिक तत्त्वोंको भी नहीं जानता । ५-जो मोक्षमार्गके प्रयोजनभूत तत्त्वोंको नहीं जानता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं । ६..परभावमें अनुरक्त जीव ज्ञानमयस्वरूपका ज्ञान श्रद्धान न होने सम्यग्दृष्टि नहीं है। सिद्धान्त---१--ग्रज्ञानभय रागादि भावको आत्मस्वरूप मानने वाला अज्ञानी है। २-- अात्माको स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावसे यात्मरूप समझने वाला ज्ञानी ही परद्रव्यको परद्रव्य रूपसे समझ सकता है। दृष्टि-- १--अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २--स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय व परद्रव्यादिग्राहक द्रध्याथिकन य (२८, २९) । प्रयोग—संसारसंकटसे छूटने के मार्गमें चलनेके लिये अपनेको औपाधिक भावोंसे विविक्त ज्ञानमात्र अनुभवनेका पौरुप करना ॥२०१०-२०२।। यदि जानना चाहो कि प्रात्माका स्वपद कहाँ है ? सो सुनिये----[आत्मनि] मात्मामें [अपदानि] अपदरूप [द्रव्यभावान्] द्रव्य भावरूप सभी भावोंको [मुक्त्या ] छोड़कर [नियतं] Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार किनाम तत्पदं ? इत्याह श्रादमि दव्वभाव अपदे मोत्तण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं उवलभंतं सहावेण ॥२०॥ निजमें अपद द्रव्यमा-बोंको तजि भाव ग्रहण कर अपना । नियत एक यह शाश्वत, स्वभाबसे लभ्यमान तथा ॥२०३।। आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मृवस्था गृहाण तथा नियतं । स्थिरभेकमिमं भावमुपत्र भ्वमानं स्वभावेन । इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभाषेनोपलभ्यमाना:, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षरिशकाः, व्यभिचारिणो भावाः ते सर्वेऽपि स्त्रयमस्थायित्वेन स्थानः रकानं भदिशुमशचकादमदाः । यस्तु तत्स्वभावेनोलभ्यमानो नियतत्वावस्थः, एक: नित्यः, अन्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः । ततः सर्वानेवास्थाषिभावान् मुक्त्वा स्यायिभावभूतं, परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञान नामसंज्ञ... अत्त, दव्वभाव, अपद, तह, णियदे, थिर, एन, इम, भाव, उबलभंत, महान ! धातु संज - मुंच त्यागे. गिगह ग्रहणे. उब-लभ प्राप्तौ । प्रातिपदिक -आत्मन्, द्रव्य भाव, अपद, तथा, नियत, निश्चित [स्थिरं] स्थिर [एकं] एक [तथा] व [स्वभावेन ] स्वभावसे ही उपलभ्यमाने] ग्रहण किये जाने वाले [इमं इस प्रत्यक्ष अनुभवगोचर [भावं] चैतन्यमात्र भावको हे भव्य ! तू [गृहारए] ग्रहण कर । वहीं तेरा पद है । तात्पर्य--प्रोपाधिक आकार विकारोंसे विमुख होकर अपने स्थिर नियत एक चैतन्यस्वभावको ग्रहण करो। ____टोकार्थ-वास्तव में इस भगवान् अात्मामें जो द्रव्यभावरूप बहुत भावोंमें से प्रात्माचे स्वभावसे रहित रूपसे उपलभ्यमान, अनिश्चित अवस्थारूप, अनेक, क्षणिक व्यभिचारी भाव हैं, वे सभी स्वयं अस्थायी होनेसे टहरने वाले प्रात्माके ठहरनेका स्थान होने के लिये अशक्य होनेके कारण अपदस्वरूप हैं और जो भाव अात्मस्वभावसे ग्रहणमं प्राने वाला, निश्चित अवस्थारूप एक, नित्य अव्यभिचारी है ऐसा एक चतन्यमात्र ज्ञान भाव स्वयं स्थायी भावस्वरूप होने के कारण स्थित होने वाले प्रात्माके ठहरनेका स्थान होने से पदभूत हैं । इस कारण सभी अस्थायी भावों को छोड़कर स्थायीभूत परमार्थरसरूपसे स्वादमें प्राता हुअा यह शान ही एक प्रास्वादन करने योग्य है । भावार्थ--पूर्व प्रकरणमें जो वर्णादिक गुणस्थानांत भाव कहे थे वे सभी ग्रात्मामें अनि यत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं वे प्रात्माके पद नहीं हैं । किन्तु यह जो स्वसंवे Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ समयसार मेकमेवेदं स्वाद्यं । एकमेव हि तत्स्वाद्यं विषदामपदं पदं। अपदान्येव भासते पदान्यन्यानि यत्पुर: ।। १३६।। एक्ज्ञायकभावनिर्भरमहास्वाद समासादयन स्वाद द्वंद्वमयं विधातुमसहः स्वा स्थिर, एक, इदम्, भाव, उपलभ्यमान, स्वभाव । मूलधातु-मुच्ल मोक्षरणे ग्रह उपादाने, डुलभष प्राप्तौ । पदविवरण-आदम्हि आत्मनि-सप्तमी एकवचन । दबभावे द्रव्यभावान-द्वितीया बहुवचन । अपदे अपदनस्वरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है, स्थाय भाव है । अतः वह ज्ञानमात्र भाव आत्माका पद है सो ज्ञानियोंके यही एक स्वाद लेने योग्य है । अब इस अर्थको कलशमें कहते हैं—एकमेव इत्यादि । अर्थ-वही एक पद प्रास्वादने योग्य है जो आपदावोंका पद नहीं है अर्थात् जिस पदमें कोई भी प्रापदा नहीं रह सकती तथा जिसके मागे अन्य सभी पद प्रपद प्रतिभासित होते हैं। भावार्थ---एक ज्ञान ही प्रात्मा का परमार्थ पद है इसमें कुछ भी प्रापदा नहीं है इसके आगे अन्य सभी पद आपदा स्वरूप (माकुलतामय) होनेसे अपद हैं। अब बताते हैं कि ज्ञानी मातमा ज्ञान का अनुभव लिए सरन करता है-एकज्ञायक इत्यादि । अर्थ- एक शायकमात्र भावसे भरे हुए ज्ञानके महास्वादको लेता हुअा यह प्रात्माके अनुभव (प्रास्वाद) के प्रभावसे विवश प्रात्मा विशेषके उदयको गौण करता हुआ सामान्यको ग्रहण करता हुआ समस्त ज्ञानको एकत्वको प्राप्त कराता है । भावार्थ-एकस्वरूप सहज ज्ञानके रसीले स्वादके सामने अन्य रस फीके हैं । ज्ञानके विशेष ज्ञेयके विकल्पसे होते हैं । सो जब ज्ञानसामान्यका स्वाद लिया जाता है याने अनुभव किया जाता है तब सब ज्ञानके भेद गौण हो जाते हैं एक ज्ञान ही स्वयं ज्ञेयरूप हो जाता है। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अज्ञानमय राग वाला जीव ज्ञानमय निज प्रात्मपदको न जाननेसे सम्यग्दृष्टि नहीं है । अब इस गाथामें उस ज्ञानमात्र निज पदको बताया गया है व उसको ग्रहण करनेका उपदेश किया गया है। तथ्यप्रकाश--१- प्रात्मामें गुण व द्रव्यव्यञ्जन पर्यायें हैं व अनेकों गुणव्यञ्जन पर्याय है । २- जो भाव प्रात्माके स्वभावरूप नहीं, किन्तु प्रौपाधिक हैं वे अस्थायी भाव हैं । ३-जो भाव प्रात्मामें नियत नहीं, किन्तु अनियत दशावोंरूप हैं वे अस्थायी भाव हैं | ४- जो अनेक रूप होते रहते हैं, एकरूप नहीं ये भाव अस्थायी भाव हैं। ५.-- जो भाव क्षणविनश्वर हैं शाश्वत नहीं वे भाव अस्थायी भाव हैं । ६-- जो कभी हुए, कभी न हुए याने व्यभिचारी हैं अव्यभिचारी नहीं याने शाश्वत सहज नहीं वे सब प्रस्थायी भाव हैं । ७-अस्थायी भाव प्रात्मा मेंबाश्वत स्थान न पानेके कारण अपद है । ८- स्वभावरूप, नियत, एक, शाश्वत, अव्यभि. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरविकार ३६५ यस्तुवृत्ति विदन् । प्रात्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं सामान्यं कलयत्किलंष सकलं ज्ञानं नयत्येकतां ॥१४०।। ।। २०३ ।। धानि-वि० बहु० । मोत्तूण मुक्त्वा-असमाप्तिकी क्रिया। गिव्ह गृहाण-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एक० । तह तथा-अव्यय । णियदं नियत-द्वि० एक० । विरं स्थिरं-द्वि० एक। एक-द्वि० ए० । इम-द्वि० ए० । भाव-द्वि० ए० । उवलन्भंतं उपलभ्यमानं-दि० एक ० १ सहावेण स्वभावेन-तृतीया एकवचन ।। २०३ ।। घारी ज्ञानमात्रभाव पात्मामें अनवरत प्रात्ममय होनेसे प्रात्माका पदभूत है । ६- अनुभवमें एक ज्ञानमात्र भाव होनेपर रंच भी कोई विपत्ति नहीं है। १०- एक ज्ञानमात्रभावके समक्ष अन्य परिणमन सब अपद व विपन्न प्रतिभासित होते हैं। सिद्धान्त-१- प्रात्मा अखण्ड शाश्वत ज्ञानमात्र है। २- प्रात्मामें उठे विभाव प्रात्माके पद नहीं हैं। दृष्टि-~१- प्रखण्ड परमशुद्धनिश्चयनय (४४) । २- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६.प्र)। प्रयोग- सर्व विपदावोंको सदाके लिये नष्ट कर शाश्वत प्रानन्दमय होने के लिये अपने प्रापके शाश्वत अविकार ज्ञानमात्र स्वभावको ही उपयोगमें ग्रहण करने व ग्रहण किये रहनेका पौरुष करना ।। २०३ ॥ एक स्थायी सहजज्ञानभाव क्या है ?--- [प्राभिनिबोधिकधुताधिमनःपर्ययकेवलं च मतिज्ञान श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान [तत् एकमेव पदं भवति] वह सब एक ज्ञान ही पद है [एषः सः परमार्थः] यह वह परमार्थ है [यं लब्ध्वा] जिसको पाकर मात्मा [निवृति] मोक्षपदको [याति] प्राप्त होता है । तात्पर्य-सहज ज्ञानस्वभावके प्राश्रयसे ही मुक्तिका लाभ होता है । टोकार्थ-वास्तबमें प्रात्मा परम पदार्थ है और वह ज्ञान ही है, वह प्रात्मा एक ही पदार्थ है इस कारण ज्ञान भी एक पदको ही प्राप्त है, और जो यह ज्ञाननामक एक पद है वह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है । मतिज्ञानादिक जो ज्ञानके भेद हैं वे इस ज्ञाननामक एक पदको भेदरूप नहीं करते, किन्तु वे मतिज्ञानादिक भेद भी एक ज्ञाननामक पदका ही अभिनन्दन करते हैं । यही कहते हैं--जैसे इस लोकमें घनपटलोंसे, बादलोंसे पाच्छादित तथा उन बादलोंके दूर होनेके अनुसार प्रगटपना धारण करने वाले सूर्यके जो प्रकाशके होनाधिक भेद हैं वे उसके प्रकाशरूप सामान्य स्वभावको नहीं भेदते, उसी प्रकार कर्मसमूहोंके उदयसे आच्छादित तथा उस कर्मके विघटनके अनुसार प्रगटपनेको प्राप्त हुए ज्ञान के हीनाधिक भेद प्रात्माके सामान्य ज्ञानस्वभावको नहीं भेदते, बल्कि वे भेद अात्माके ज्ञानसामान्यका अभिनंदन Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार तयाहि आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं । सो एसो परमट्ठो जं लहिदु णिव्वुदि जादि ॥१०४॥ भति श्रुत अवधि मनःप-र्यय केवल सर्वज्ञान एक हि पद । वह यह परमार्थ जिसे, पाकर निर्धारण मिलता है ॥२०४॥ अभिनिबोधिक थुतावधिमनःपर्ययकवलं च तद्भवत्येकमेब पदं । स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृति याति । प्रात्मा किल परमार्थः तत्तु ज्ञानं, प्रात्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पर्द, पदेतत्तु ज्ञान नामक पदं स एप परमायः साक्षामोसोपायः . भिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकपदमिह भिदंति । कि तु तेऽपोदमेवक पदमभिनंदति । तथाहि-यथात्र सवितुर्घनपटलाबगुठि. तस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतः प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभाव भिदंति । नामसंज्ञ- आभिणिसुदाहिमणकेवल, च, त, एक्क, एव, पद, त, एत, परमट्ट, ज, णिन्दुदि । धातुसंश-हो सत्तायां, लभ प्रापणे, जा गतौ । प्रातिपदिक-आभिनिबोधिकश्रुतावधिमन पर्वय केबल, च, तत्, हो करते हैं । इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर हो गये हैं ऐसे प्रात्माके स्वभावभूत एक ज्ञान को ही मालम्बन करना चाहिये । उस ज्ञानके पालम्बनसे ही निज पद की प्राप्ति होती है, उसी से भ्रमका नाश होता है, उसीसे प्रात्माका लाभ होता है और अनात्माके परिहारकी सिद्धि होती है । ऐसा होनेपर कर्मके उदयकी मूर्छा नहीं होती, राग द्वेष मोह नहीं उत्पन्न होते, रागद्वेष मोहके बिना फिर कर्मका प्रास्रव नहीं होता, मानव न होनेसे फिर कर्मबंध नहीं होता, और जो पहले कर्म बाँधे थे वे उपभुक्त होते हुए निर्जराको प्राप्त होते हैं और तब सब कर्मोंका प्रभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है । भावार्थ--ज्ञान में भेद कर्मोके विघटन (क्षयोपशमादि) के अनुसार होते हैं सो वे ज्ञानविकासभेद कुछ ज्ञानसामान्यको अज्ञानरूप नहीं करते, बल्कि ज्ञानस्वरूपको ही प्रगट करते हैं । इसलिए भेदोंको गौरण कर एक ज्ञानसामान्यका पालम्बन करके प्रात्माका ध्यान करना। इसीसे सब सिद्धि होती है । अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं-अच्छाच्छाः इत्यादि । अर्थ-समस्त पदार्थों के समूहरूप रसके पोनेके बहुत बोझसे मानो मतवाले हुए अनुभवमें आये हुए ज्ञानके भेद निर्मल से निर्मल अपने पाप उछलते हैं-वह यह भगवान अद्भुतनिधि वाला चैतन्यरूप समुद्र उठती हुई लहरोंसे अभिन्न रस हुग्रा एक होनेपर भी अनेकरूप हुमा दोलायमान प्रवर्तता है । भावार्य-जैसे बहुत रत्नोंसे भरा समुद्र सामान्यदृष्टि से देखो तो एक जलसे भरा है तो भी Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३६७ तथाऽस्मनः कर्मपटलोदयावगुंठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिद्युः, किं तु प्रत्युतमभिनंदेयुः। ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्वभावभूतं शानभेवैकमालम्व्यं । तदालंबनादेव भवति पदप्रातिः, नश्यति भ्रांतिः, भवत्यात्मलाभः, सिद्धत्यनात्मपरिहारः, न कम मूर्द्धति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवंते, न पुनः कर्म प्रास्रवति, न पुनः कर्म एन, एय, भय, जना रत, गार्ग, पद गिई। मूलधातु-भू सत्तायां, या प्रापणे। पदविवरणआभिणिसुदोहिमणकेबलं आभिनिबोधिक श्रुतावधिमनःपर्यय केवल-प्रथमा एकवचन । च-अव्यय । तं, तत्प्रथमा एक० । होदि भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एक्कं एक-प्रथमा एक० । एव-अव्यय ! पदंउसमें निर्मल छोटी बड़ी अनेक लहरें उठती हैं वे सब तरंगें एक जलरूप ही हैं उसी तरह यह प्रात्मा ज्ञानसमुद्र है सो एक ही है इसमें अनेक गुण हैं और कर्मके निमित्तसे ज्ञान के अनेक भेद अपने पाप व्यक्तिरूप होकर प्रगट होते हैं सो उन सब ज्ञान व्यक्तियोंको एक ज्ञानरूप ही जानना, खंड खंड रूप नहीं । । अब और क्या ?-क्लिश्यता इत्यादि । अर्थ- कोई जीव दुष्करतर क्रियाबोंसे तथा मोक्षसे परान्मुख कर्मोंसे स्वयमेव मनचाहा भले ही क्लेश करें और कोई मोक्षके सन्मुख याने कथंचित जिनाज्ञामें कहे गये ऐसे महावत तथा तपके भारसे बहुत काल तक मग्न (पीड़ित) हुए भी क्रियावोंसे भले ही क्लेश करें, किन्तु साक्षात् मोक्षस्वरूप तो यह निरामयपदभूत तथा अपनेसे ही प्राप वेदने योग्य ज्ञानपद है इसे ज्ञान गुणके बिना किसी तरहके कष्ट से भी वे प्राप्त करनेके लिये समर्थ नहीं हैं । भावार्थ - ज्ञानस्वभावको प्राप्ति ज्ञानवृत्तिसे हो हो सकती है, बाह्य प्राचरण तो अशुभसे हटाकर ज्ञानवृत्तिसे रहनेका मौका देते हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शाश्वत एकस्वरूप होनेसे ज्ञानमात्र स्वभाव ही मात्र एक प्रात्माका पद है। अब इस गाथामें उसी ज्ञानकत्वका समर्थन किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- अपना प्रात्मा अपना परम पदार्थ है । २- ज्ञानस्वरूप होनेसे सब द्रव्योंमें पाने पदार्थोंमें भी परम पदार्थ है । ३- अपने पाप आत्मा एक ही पदार्थ है और ज्ञानस्वभाव ही प्रात्मपदार्थका एकमात्र पद है। ४-- प्रात्माका जो एक शाश्वत ज्ञानमात्र पद है उसका प्राश्रय ही वास्तवमें मोक्षमार्म है । ५- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान ये ज्ञानगुणको पर्यायें प्रास्माके शाश्वत ज्ञानमात्र पदका भेदन नहीं करते, किन्तु एक ज्ञानमात्र पदको ही प्रसिद्ध करते हैं। ६-अभेद अात्मस्वभावभूत एक शानमात्र सहजभावका मालम्बन करनेसे मात्मपदको प्राप्ति होती है । ७- प्रात्मपदकी प्राप्ति होते ही Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार वागते, प्राबलं कपर निर्यने, कुरणकर्माभायात् साक्षान्मोक्षो भवति ॥ अच्छाच्छा स्वयमुच्छलंति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पोताखिलभावमंडलरसप्राग्भारमत्ता इव । यस्याभिः न्नरस: स एष भगवानेकोप्यनेकीभवन यल्गस्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ॥१४१।। किंध---क्लिश्यता स्वयमेव दुष्करतरर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिपयंतां च परे महावततपोभारेप भग्नाश्चिरं । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमते न हि ।।१४२॥ ॥ २०४ ॥ प्रथमा एक० । सो सः-प्र० ए० । एसो एषः-प्र० ए० । परमट्टो परमार्थ:-प्र० ए.। जयं-द्वितीया एक। लहिदुं लब्ध्वा-असमाप्तिकी क्रिया । णिबुदि निर्वृति-द्वि० एक० । जादि याति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। २०४।। प्रात्मभ्रान्ति नष्ट होती है । ८-- प्रात्मम्रान्ति नष्ट होते ही प्रात्मलाभ होता है । - प्रात्मलाभ होते ही अनात्मतत्वका परिहार होता है । १०- अनात्मतत्त्वका परिहार होते हो कर्मोदय मूर्छा नहीं कर पाते हैं। ११- कर्मोदयमूर्छा नष्ट होते ही राग द्वेष मोह नहीं होते। १२- रागादिका प्रभाव होनेपर फिर कर्मका प्रास्त्रब नहीं होता । १३- कर्मास्रव न होनेपर कर्मबन्ध नहीं होता। १४- कर्मानवका व कर्मबन्धका प्रभाव होनेपर प्रारबद्ध कर्म भुगकर निर्जीर्ण हो जाते हैं । १५- पाखवाभाव, बन्धाभाव , निर्जरा हो होकर समस्त कर्मका प्रभाव होते ही साक्षात् मोक्ष हो जाता है । १६- इस स्वसंवेद्य शाश्वत ज्ञानमात्र प्रात्मपदके पाये बिना कोई कितने ही कठोर व्रत तप आदि करे तो भी उसका मोक्ष असम्भव है। वह सब चेष्टा क्लेशमात्र है। सिद्धान्त-१- मति श्रुत अवधि मनःपर्ययज्ञान प्रात्माके एकदेश शुद्ध विभाव गुणव्यञ्जन पर्याय हैं । २- केवलज्ञान प्रात्माका स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याय है । ३- शाश्वत ज्ञानमात्र सहज भाव प्रात्माका शाश्वत प्रात्मभूत स्वभाव है। दृष्टि-१- उपादानदृष्टि (४६ब) । २- सभेद शुदनिश्चयनय (४६५) । ३- प्रखंड परमशुद्धनिश्चयनयं (४४)। प्रयोग-निविकल्प निराकुल प्रात्मानुभव पानेके लिये व्यक्तरूप मतिज्ञान श्रुतशान पवधिज्ञान प्रादि शानपर्यायोंके स्रोतभूत एक ज्ञानमात्रस्वभावका उपयोग करने व बनाये रहने का पौरुष करना । २०४॥ अब ज्ञानलाभ का उपदेश करते हैं-हे भव्य [यवि] यदि तुम [कर्मपरिमोक्षं] कर्म का सब तरफसे मोक्ष करना [इच्छसि] चाहते हो [९] तो [तत् एतद नियतं] उस. इस Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार णाणगुणेण विहीणा एयं तु पयं वहूवि ण लहंति । तं गिरह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ॥२०॥ ज्ञानगुरणहीन आत्मा, इस पदको प्राप्त कर नहीं सकते। सो यह नियत गहो पद, यदि चाहो कर्मसे मुक्ति ॥२०॥ ज्ञानगुणेन विहीना एतत्तु पदं बह्वोऽपि न लभते । तद्गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षं ॥२०५।। यतो हि सकलेनापि कर्मणा कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात् ज्ञानस्यानुपलंमः । केवलेन ज्ञानेनैव ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनाद् ज्ञानस्योपलंभः । ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञान नामसंज–णाणगुण, विहीण, एत, तु, पय, बहु, वि, ण, त, णियद, एत, जदि, कम्मपरिमोरख । धातुसंश-लभ प्राप्ती, गिण्ह ग्रहणे, इच्छ इच्छायां । प्रातिपदिक-ज्ञानगुण, बिहीन, एतत्, तु, पद बहु, अपि, न, तत्, नियत, एतत्, यदि, कर्मपरिमोक्ष । मूलधातु-डुलभष प्राप्तौ, ग्रह उपादाने, इषु इच्छायां। पवविवरण---णाणगुरणेण ज्ञानगुणेन-तृतीया एकवचन । विहीणा बिहीना:-प्रथमा बहुवचन । एयं एतत्निश्चित ज्ञानको [गृहाण] ग्रहण कर। क्योंकि [ज्ञानगुणेन विहीनाः] ज्ञान गुणसे रहित [बहवः अपि] अनेकों पुरुष भी [एतत् पवं] इस ज्ञानस्वरूप पदको [न लभते] नहीं प्राप्त करते । तापर्य-ज्ञानसे शानमें सहजज्ञानस्वरूपका अनुभव किये बिना इस केवल ज्ञानस्वरूप पदको प्राप्त नहीं किया जा सकता। टोकार्थ- जिस कारण समस्त भी कर्मों द्वारा कर्मों में ज्ञानका प्रकाशन न होनेके कारण जानका पाना नहीं होता, केवल एक ज्ञान द्वारा ही ज्ञानमें ज्ञानका प्रकाशन होनेके कारण ज्ञानसे ही ज्ञानका पाना होता है। इस कारण ज्ञानशून्य बहुतसे प्राणी अनेक प्रकारके कोंके करनेपर भी इस ज्ञानके पदको प्राप्त नहीं करते और इस पदको न पाते हुए वे कर्मोसे नहीं छूटते । इस कारण कर्ममोक्षके अभिलाषी भव्यको तो केवल एक ज्ञान के प्रबलम्बन द्वारा नियत इसी एक पदको प्राप्त करना चाहिये। भावार्य- ज्ञानसे ही मोक्ष होता है कम करनेसे नहीं। इस कारण मोक्षार्थीको ज्ञानका ही ध्यान करना चाहिये । अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं--पवमिदं इत्यादि । अर्थ--यह ज्ञानमय पद कर्म करनेसे तो दुष्प्राप्य है और स्वाभाविक ज्ञानकी कलासे सुलभ है । इस कारण अपने निज ज्ञान की कलाके बलसे इस ज्ञानको ग्रहण करनेके लिये सब जगत् अभ्यासका यत्न करो। भावार्थयहाँ समस्त कर्मकाण्डके पक्षसे छुड़ाकर ज्ञानके अभ्यास करनेका उपदेश किया है । यहाँ ज्ञान की कक्षा कहनेसे ऐसा सूचित होता है कि जब तक पूर्णकला प्रकट न हो तब तक जो ज्ञान है Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० समयसार शून्या नेदमुपलभंते । इदमनुपलभमानाश्च न कर्मभिविप्रमुच्यते ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञाना. वष्टंभेन नियतमेवेदमेक पदमुपलभनीयं ।। पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाकारकालयितुं या तो मान ।।३।। ।। २०५ ।। द्वितीया एकवचन । पयं पद-द्वितीया एक० । वह बहवः-प्रथमा बहु० । वि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । लहंति लभते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । तं तद्-द्वितीया एक० । गिह गृहाण-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एक० । णियदं नियत-द्वि० ए० । एदं एतत्-द्वितीया एक० । जदि यदि-अव्यय । इच्छशि-वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एकवचन । कम्मपरिमोक्खं कर्मपरिमोक्ष-द्वितीया एकवचन ।।२०५|| वह हीन कलास्वरूप है भतिज्ञानादिरूप है। उस ज्ञानको कलाके अभ्याससे पूर्णकला याने । केवलज्ञानस्वरूप कला प्रकट होती है। प्रसंगविवरण--मनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जिसका लाभ पाकर हो । मोक्ष प्राप्त होता है उस सहज ज्ञानमात्र आत्मपदका आलंबन लेना चाहिये । अब इस गाथामें उसो तथ्यका व्यतिरेक सम्बन्ध पूर्वक समर्थन करके इस ज्ञानपदके ग्रहणका अनुरोध किया है । तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानकी उपलब्धि केवल ज्ञानके ज्ञान में ही ज्ञान के प्रकाशनसे होतो है । (२) समस्त कर्मों (क्रियावों) द्वारा भी कर्ममें ज्ञानका प्रकाश असम्भव है, अतः कर्मसे जानकी उपलब्धि नहीं होती । (३) ज्ञानशून्य क्रियाकाण्डके पक्षपाती अनेक कर्मोको करके भी इस ज्ञानपदको प्राप्त नहीं कर पाते । (४) शाश्वत ज्ञानमात्र आत्मपदको न पाने वाले कर्मोंसे नहीं छूट सकते । (५) कर्मसे मोक्ष चाहने वाले पुरुषोंको केवल ज्ञानके मालम्बन द्वारा इस एक नियत ज्ञानमात्र प्रात्मपदका पालम्बन लेना चाहिये । (६) यह सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपद सहजज्ञानकला द्वारा सुलभ है । (७) कल्याण चाहने वाले जीवोंको निज ज्ञानकलाके बलसे एक नियत अपने सहज ज्ञानस्वभावका उपयोग करनेका प्रयत्न करना चाहिये । सिद्धान्त-(१) ज्ञानगुणरहित याने अज्ञानी जीव ज्ञानमात्र इस प्रात्मपदको न प्राप्त कर अपद विकारोंमें ही रमते हैं। (२) एक सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपदका आलम्बन होनेपर कर्ममोक्ष होता है। दृष्टि—१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)। प्रयोग-समस्त कर्मविपदावोंसे मुक्तिका लाभ लेनेके लिये नियत शाश्वत एक सहज ज्ञानमात्र स्वभावको दृष्टि प्रतीति अनुभूति बनाये रहनेका पौरुष करमा ॥ २०५ ।। __और क्या ? [एतस्मिन् हे भव्य जीव इस ज्ञानमें [नित्यं] सदा [रतः भव] चिसे लीन होमो और [एतस्मिन] इसीमें [नित्यं] हमेशा [संतुष्टः] भव संतुष्ट होप्रो और [एतेन] इसी Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार किच एदसि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदमि । एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तम सोक्खं ॥२०६॥ इस ज्ञानमें सदा रत, होमो संतुष्ट नित्य इस ही में। इससे हि तृप्त होतो, सुख तेरे उत्तम हि होगा ॥२०६॥ एतस्मिन् रतो नित्यं संतुली अल निल लिमय . एन मात्र हप्तो भविष्यति तबोत्तम सौख्यं ।। २०६॥ एतावानेव सत्य प्रात्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमु. _पहि । एतावत्येव सत्याशीः, यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणेव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यभनुभवनीयं यावदेव ज्ञानमिति निपिचत्य ज्ञानमात्रेणेव नित्यमेव तृप्तिमुप॑हि । नामसंज्ञ-एत, रद, णिचं, संतुट्ट, णिच्चं, एत, एत, तित्त, तुम्ह, उत्तम, सोक्स । धावसंश-हो सत्तायां, तुस संतोष, तिप्प तातो। प्रातिपदिक -एतत्, रत, नित्यं, संतुष्ट, नित्यं, एतत्, तृप्त, युष्मद, उत्तम, सौख्य । मूलधातु-रमु क्रीडायां भ्वादि, सम्-तुष प्रीतौ दिवादि, भू सत्तायां, तृप् प्रीणने दिवादि। पथविवरण--एदम्हि एतस्मिन्--सप्तमी एक० । रदो रत:-प्रथमा एक० कृदन्त । णिच्चं नित्यं-अव्यय । से [मृप्तः भव] तृप्त होमो, अन्य कुछ इच्छा न रहे; ऐसे अनुभवसे [तव] तेरे [उत्तमं सुखं] उत्तम सुख [भविष्यति] होगा। तात्पर्य-रुचिपूर्वक याने हितश्रद्धासहित सहज ज्ञानस्वरूपमें मग्न होकर तृप्त रहने में ही उत्तम शान्ति है। टीकार्थ- हे भव्य, इतना ही सत्य मात्मा है जितना यह ज्ञान है, ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र प्रात्मामें ही निरंतर प्रोतिको प्राप्त होतो। इतना ही सत्य प्राशीष है, जितना यह ज्ञान है ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही नित्य संतोषको प्राप्त होगी। इतना ही सत्यार्थ अनुभव करने योग्य है, जितना यह ज्ञान है ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही नित्य तृप्तिको प्राप्त होगी । इस प्रकार नित्य ही प्रात्मामें रत, प्रात्मामें संतुष्ट, प्रात्मा तृप्त हुए तेरे वचनातीत नित्य उत्तम सुख होगा, और उस सुखको उसी समय तुम स्वयमेव ही देखोगे, दूसरों को मत पूछो । भावार्थ-ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना, इसी में संतुष्ट रहना और इसीसे तृप्स होना यह परम ज्ञानवृत्ति है । इसीसे वर्तमानमें मानन्दरूप होता है और उसके बाद ही ___ सम्पूर्ण ज्ञानानन्दस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। अब ज्ञानीको महिमा बताते हैं—अचित्य इत्यादि । अर्थ-जिस कारण यह चैतन्य__ मात्र चिंतामणि वाला अचिन्त्यशक्तिमान ज्ञानी, स्वयमेव प्राप देव है । इस कारण ज्ञानीके Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ समयसार अर्थवं तव तन्नित्यमेवात्मरतस्य, प्रात्मसंतुष्टस्य, प्रात्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भर्भावध्यति । तत्त तरक्षण एवं त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः ।। अचित्यशक्तिः स्वयमेव देवश्मित्माधितामणि रेष यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्थ परिनहेण ॥१४४॥ ॥ २०६ ।। संतुट्टो संतुष्ट:-प्रथमा एक० । होहि भव-आज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० । णिचं नित्य-अव्यय । एदम्हि । : एतस्मिन-सप्तमी एक० । एदेग एतेन तृतीया एक० । होहि भव-आज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० । तितो तृप्तः-प्रथमा एक०। होहदि भविष्यति-भविष्यत् लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । तुह तव-षष्ठी एक०।। उत्तम-प्रथमा एक० । सोक्खं सौख्यं-प्रथमा एकवचन ।। २०६ ।। सब प्रयोजन सिद्ध हैं, ज्ञानी अन्यके परिग्रहणसे क्या करेगा ? भावार्थ--यह ज्ञान मूर्ति आत्मा अनन्त शक्तिधारक सर्वार्थसिद्धस्वरूप स्वयं देव है । फिर ज्ञानीके अन्य परिग्रहले सेवन करने से क्या साध्य है ? कुछ भी नहीं। : प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानगुणसे रहित जीव सहज , ज्ञानमय प्रात्मपद नहीं पाते, अतः मोक्षके इच्छुक प्रात्मा इस सहज ज्ञान मात्र भावको ग्रहण ! करें । अब इस गाथामें बताया है कि सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपदको ग्रहण कर इसीमें रत होमो, : संतुष्ट होवो व तृप्त होमो। तथ्यप्रकाश-(१) जितना यह ज्ञानमात्र भाव है इतना ही यह सत्य आत्मा है अतः इस सहज ज्ञानमात्र भावमें ही नित्य रुचि करो। (२) जितना यह ज्ञानमात्र है इतना ही सत्य प्राशीष है, अतः ज्ञानमात्रभावके द्वारा इस ज्ञानमात्रमें ही सदा संतुष्ट रहो । (३) जितना यह भानमात्र भाव है इतना ही सत्य अनुभवनेके योग्य है, अत: ज्ञानमात्र भावके ही द्वारा नित्य तृप्त रहो । (४) प्रात्मरत प्रात्मसंतुष्ट प्रात्मतृप्त आत्मामें अलौकिक प्रानन्द स्वयं प्राप्त होता है । (५) जो सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपदमें रमते हैं उनके सवार्थ सिद्ध हैं, उन्हें अन्य पदार्थ के परिग्रहणका कुछ प्रयोजन नहीं रहता ।। सिद्धान्त - (१) सहजज्ञानस्वभावमें रमने वाले मानी स्वतंत्र सहज प्रानन्दका अनुभव करते हैं। (२) भात्मपदसे अनभिज्ञ अज्ञानी जीव ही कर्मरसविषयक विकल्पमें रमण कर प्राकुलताका अनुभव करते हैं । _ष्टि--१-- अनीश्वरनय (१८६)। २- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-परमार्थ आनन्द पानेके लिये सहज ज्ञानस्वभावमात्र अन्तस्तत्त्वमें रमने व तृप्त रहनेका पौरुष करना ।।' २०६ ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३७३ कुतो ज्ञानी न परं गृह्णातीति चेत् को णाम भणिज बुहो परदब्वं मम इमं हवदि दब्बं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणतो ॥२०७।। कौन सुधी है ऐसा, जो परद्रव्यको कह उठे मेरा । प्रात्मपरिग्रह प्रात्मा, निश्चयसे जानता भी यह ॥२०७॥ को नाम भरणेद बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यं । आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् ।।२०७।। यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भावः स तस्य स्वः । स तस्य स्वामीति खरतर नामसंश-क, णाम, बुह, परदव्व, अम्ह, इम, दव, अप्प, अप्प, परिमह, तु, णियदं, वियाणंत । पातुसंश-भण कथने, हब सत्तायां, वि-जाण अवबोधने । प्रातिपक्कि-किम्, नामन्, बुध, परद्रव्य, अस्मद्, इदम्, द्रव्य, आत्मन, आत्मन्, परिग्रह, तु, नियत, विजानत् । मूलधातु-भण शब्दार्थ, बुध अवगमने, भू सत्तायां, परि-गृह ग्रहणे, वि-ज्ञा अवबोधने ऋयादि । पदविवरण-को कः-प्रथमा एकवचन । णाम नामप्रथमा एक० । भणिज्ज भणेत-लिङ अन्य पुरुष एक० क्रिया। परदवं परद्रव्य-प्रथमा एक०। मम अब पूछते हैं कि. ज्ञानी परद्रव्यको क्यों नहीं ग्रहण करता? उत्तर-[श्रात्मानंत] अपने प्रात्माको हो [नियतं] निश्चित रूपसे [मात्मनः परिग्रह] अपना परिग्रह [विजानन्] जानता हुमा [कः नाम बुधः] ऐसा कोन सानो पडित है ? जो [इवं परद्रव्य] यह परद्रव्य [ममतव्यं] मेरा द्रव्य [भवति] है [भरणेत्] ऐसा कहे। तात्पर्य-ज्ञानी पुरुष परद्रव्यमें स्वत्वकी कल्पना नहीं करता। टोकार्थ-चूंकि ज्ञानी "जो जिसका निजभाव है वही उसका स्व है, और उसी स्वभाव रूप द्रव्यका वह स्वामी है" ऐसे सूक्ष्म तोक्षण तत्त्वदृष्टिके प्रवलंबनसे प्रात्माका परिग्रह अपने प्रात्मस्वभावको ही जानता है, इस कारण "यह मेरा स्व नहीं, मैं इसका स्वामी नहीं" यह जानकर परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता । मावार्थ-विवेकी मनुष्य परवस्तुको प्रपनी नहीं जानता हुअा उसको ग्रहण नहीं करता उसी तरह परमार्थज्ञानी अपने स्वभावको ही अपना धन जानता है परके भावको अपना नहीं जानता, इस कारण ज्ञानी परको ग्रहण नहीं करता। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सहजज्ञानमात्र प्रात्मपदमें रमने, संतुष्ट होने व तृप्त होनेपर उत्तम आनंद प्राप्त होता है, फिर उसे अन्य पदार्थका परिग्रह करनेको प्रावश्यकता नहीं होती। अब इस गाथामें बताया है कि शानो परपदार्थको ग्रहण वगों नहीं करता ? तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानीके यह दृढ़ निर्णय है कि जिसका जो निजभाव है वही Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ समयसार तत्त्वदृष्ट्यवष्टंभाद् श्रात्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन विजानाति । ततो न ममेदं स्वं नाह मस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णाति ॥ २०७॥ षष्ठी एक । इमं इदं प्र० ए० । हवदि भवति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । दव्वं द्रव्यं-प्रथमा एक० । अप्पानं आत्मानं द्वितीया एक० । अप्पणी आत्मनः षष्ठी एक० । परिग्गहं परिग्रह - द्वितीया एकबचन । तु अव्यय | वियदं नियतं - अव्यय यथा स्यात्तथा । विद्याणतो विजानन्- प्रथमा एकवचन ॥२०७॥ उसका स्व है और वही उस स्वका स्वामी है । ( २ ) स्व व स्वामित्वका प्रभेदपरिचय होनेसे आनी अपना परिग्रह अपने आपको ही जानता है । ( ३ ) शानोका परद्रव्यके बारेमें भी अपने प्रयोगके लिये दृढ़ निर्णय है कि यह (परद्रव्य) मेरा स्व नहीं है और न मैं इसका (परद्रव्यका ) स्वामी | ( ४ ) अपने स्वरूपको ही अपना सर्वस्व माननेके कारण ज्ञानी जीव परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता । सिद्धान्त --- १- परद्रव्यका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव मुझमें होना असम्भव होनेसे परद्रव्य मेरा कुछ नहीं है । २- श्रात्माका सर्वस्व यह स्वयं श्रात्मा है । दृष्टि - १ - प्रतिषेधक शुद्धमय ( ४९८ ) । २- उपादानदृष्टि ( ४९ ब ) ! प्रयोग - दुःखके हेतुभूत भ्रमभावको दूर करनेके लिये परद्रव्यको अपने से भिन्न निरखना व अपने आपके सर्वस्वभूत ज्ञानमात्र भावको ही उपयोग में लेना ।। २०७ ।। इस कारण मैं भी परद्रव्यका ग्रहण नहीं करता हूं - [य] यदि [ परिग्रहः] परिग्रह [म] मेरा हो [ततः ] तो [ श्रहं ] मैं [ प्रजीवतां] प्रजीवपनेको [ गच्छेयं ] प्राप्त हो जाऊँगा [तु यस्मात्] तो चूंकि [श्रहं] मैं [ज्ञाता एवं ] ज्ञाता ही हूं [तस्माद् ] इस कारण [ परिग्रहः ] कुछ भी परिग्रह [ सम] मेरा [न] नहीं है । तात्पर्य - मैं वह हूं जो मेरेसे तन्मय है । बाह्य परिग्रह मेरेसे अत्यन्त भिन्न है, अतः स्वस्वरूपातिरिक्त कुछ भी मेरा नहीं है । टीकार्थ -- यदि मैं अजीव परद्रव्यको ग्रहण करू तो यह अजीव मेरा स्व अवश्य हो जाय और मैं भी उस श्रजीवका अवश्य स्वामी ठहरू । परन्तु प्रजीवका जो स्वामी है वह निश्चयसे प्रजीव हो होता है इस तरह मेरे विवशपतेसे अजीपना था पड़ेगा । किन्तु मेरा तो एक ज्ञायकभाव ही स्व है, उसीका मैं स्वामी हूं, इस कारण मेरे अजोवपना मत होश्रो, मैं तो ज्ञाता ही होऊंगा परद्रव्यको नहीं ग्रहण करूंगा यह मेरा निश्चय है । भावार्थ -- वस्तुतः जीव में तन्मय तो जीवस्वरूप ही है उसीसे जीवका स्वस्थामोसम्बंध है । और प्रजीवके स्वरूपके साथ प्रजीवका स्वस्वामीसम्बन्ध है । इस कारण यदि अजीव परिग्रह जीवका माना 1 8 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३७५ अतोहमपि न तत् परिगृह्णामि मझ परिग्गहो जइ तदो अहमजीवदं तु गच्छेज । णादेव अहं जमा तमा ण परिग्गहो मज्झ ॥२०॥ अन्य पारग्रह मेरा, यदि हो मुझमें अजोधपन होगा। ज्ञाता हो मैं इससे, कोई परिग्रह नहीं मेरा ॥२०॥ मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयं । ज्ञातवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ।। २०८ ॥ ___ यदि परद्रध्यमजीवमहं परिगृह्णीयां तदावश्यमेवाजोवो ममासौ स्व: स्यात् । प्रहमप्यवध्यमेवाजीवस्यामुष्य स्वामी स्यां । अजीवस्य तु यः स्वामी, स किलीजीव एव । एवमबशेनापि नामसंज्ञ-अम्ह, परिग्गह, जइ, तदो, अम्ह, अजीवद, तु, णादा, एव, अम्ह, ज, त, ण, परिग्गह, अम्ह । धातुसंज्ञ---गच्छ गतो, परि ग्गह ग्रहणे । प्रातिपदिक-अस्मद, परिग्रह, यदि, ततः, अस्मद्, अजीवता, तु, ज्ञातृ, एव, अस्मद्, यत्, तत्, न, परिग्रह, अस्मद् । मूलधातु-गम्ल' गतौ, परि-गृह ग्रहणे । परबिवरण- मम मज्झ-षष्ठी एक० । परिगहो परिग्रहः-प्रश्रमा एकवचन । बई यदि-अव्यय । तदो तत:जाए तो जीव अजीवपनेको प्राप्त हो जाय यह आपत्ति प्रावेगी। अतः परमार्थसे जीवके अजीवका परिग्रह मानना मिथ्याबुद्धि है । ज्ञानीके मिथ्याबुद्धि नहीं होती। ज्ञानीकी दृढ़ प्रास्था है कि परद्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है, मैं तो मात्र ज्ञाता हूं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शानी परद्रव्यको क्यों नहीं ग्रहण करता । इसका कारण जानकर अब इस गाथामें कहा है कि इस कारण मैं भी परद्रव्य को ग्रहण नहीं करता। तथ्यप्रकाश--(१) पदार्थ मात्र अपने स्वरूपको ही ग्रहण करता है । (२) यदि मैं प्रचेतन परद्रव्यको ग्रहण कर लूं तो वह परद्रव्य मेरा स्व बन जायगा और मैं भी उस अचे. तन परद्रव्यका स्वामी बन बैठूगा यह दोष आता है। (३) चूंकि अचेतनका स्वामी अचेतन ही होता है और मैं बन बैठा अचेतन परद्रव्यका स्वामी तो मैं भी अचेतन हो जाऊँगा यह दोष आता है । (४) अन्य जीव भी मेरा स्व नहीं है, क्योंकि अन्य जीव मेरा स्व हो जाय तो मैं अन्यरूप हो जाऊंगा मेरी सत्ता न रहेगी यह दोष माता है । (५) मैं अचेतन परद्रव्य हो ही नहीं सकता, क्योंकि एक ज्ञायकभाव ही मेरा है, इस ज्ञायकभावका मैं स्वामी हैं। (६) मैं. अन्य जीवरूप हो ही नहीं सकता, क्योंकि मैं निज चैतन्यस्वरूपास्तित्वसे सन्मय हूं, मन्य जीव अपने अपने चैतन्यस्वरूपास्तित्वसे तन्मय हैं । (७) चूंकि मैं ज्ञाता हो रहता हूं अन्य द्रव्यरूप नहीं होला,. इस कारण मैं किसी भी परद्रव्यको नहीं ग्रहण करता। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ समयसार माजीवत्वमापद्येत । मम तु एको ज्ञायक एव भावः यः स्व:, अस्यैवाहं स्वामी, ततो माभून्ममाजीवत्वं ज्ञातैवाहं भविष्यामि न परद्रव्यं परिगृह्णामि श्रयं च मे निश्चयः ।। २०८ ।। अहं - प्र० ए० 1 अजीवदं अजीवतां - द्वितीया ए० । तु-अव्यय | गच्छेज्ज गच्छेयं लिङ उत्तम पुरुष एक० । गादा ज्ञाता - प्र० ए० । एव-अव्यय । अहं प्रथमा एक० । जम्हा यस्मात् पंचमी एक० । तम्हा तस्मात्पंचमी एक. | ण न-अव्यय । परिग्गहो परिग्रहः- प्र० ए० । मज्झ मम षष्ठी एकवचन ॥२०८॥ सिद्धान्त - ( १ ) मैं अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे हूं । (२) मैं परद्रव्यके क्षेत्र, काल, भावसे नहीं हूं । दृष्टि - १ - स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय ( २८ ) । २ परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याचिकनय ( २८ ) । प्रयोग में प्रचेतन नहीं हूं, अन्य द्रव्यरूप नहीं हूं, मैं ज्ञानमात्र हूं, अतः मैं मात्र शाता ही रहूँगा, मैं किसी भी परद्रव्यको ग्रहण न करूंगा ऐसा अपना दृढ़ निर्णय रखकर परद्रव्यके विकल्पसे भी हटकर अपनेमें ज्ञानमात्र रहकर परमविश्राम पानेका पौरुष करना ।। २०८ ॥ अब ज्ञानीका आत्मशौर्य बतलाते हैं - [ छतां वा ] छिद जावे [भिद्यतां वा ] अथवा भिद जावे [नीयतां वा ] अथवा कोई ले जावे [ अथवा ] अथवा [ विप्रलयं यातु ] नष्ट हो जावे [ यस्मात् तस्मात् ] चाहे जिस तरहसे [गच्छतु] चला जावे, [ तथापि ] तो भी [ खलु ] वास्तव में [परिग्रहः] परद्रव्य परिग्रह [ मम] मेरा [न] नहीं है । तात्पर्य- - समस्त परपदार्थ भिन्न सत्तावाले हैं, इस कारण परद्रव्यकी कुछ भी परिगति हो वह मेरा कुछ नहीं है । टीकार्थ -- परद्रव्य चाहे छिद जावे या भिद जावे या कोई ले जावे, या नाशको प्राप्त हो जावे, या जिस तिस प्रकार याने कैसे ही चला जावे तो भी मैं परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता, क्योंकि परद्रव्य मेरा स्व नहीं है और न मैं परद्रव्यका स्वामी हूं, परद्रव्य हो परद्रव्य का स्व है, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्वामी है, मैं हो मेरा स्व है, मैं ही मेरा स्वामी हूं ऐसा मैं जानता हूं । भावार्थ - प्रत्येक द्रव्य अपनी अपनी सत्ता में है, मैं भी मात्र प्रपने सत्त्वसे हूं तब मेरा मेरे सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है ऐसा ज्ञानी जानता है, श्रतः ज्ञानीके समस्त परद्रव्यसे उपेक्षा है, इसी कारण ज्ञानीके परद्रव्य परिग्रह नहीं होता । अब इसी अर्थको इत्थं इत्यादेि कलश में कहते हैं— इस प्रकार सम्मान्य से समस्त परिग्रहको छोड़ कर स्व व परके अविवेक के कारणभूत अज्ञानको छोड़नेके लिये मन वाला : Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ निर्जराधिकार छिजदु वा भिज्जदु वा णिज्जदुवा अहव जादु विप्पलयं । जह्मा तमा गच्छदु तहवि हु ण परिग्गहो मझ ॥ २०६ ॥ छिदो भिदो ले जावो, विनशो अथवा जहां तहां जायो। तो भी निश्चयसे कुछ, कोइ परिग्रह नहीं मेरा ॥२०६॥ छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयं । यस्मात्तस्माद् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम । छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वा विप्रलयं यातु वा यतस्ततो गच्छतु वा तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि । यतो न परद्रव्यं मम स्वं नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य नामसंज्ञ-वा, वा, वा, अहव, विप्पलय, ज, त, तह, वि, हु, ण, परिगह, अम्ह । धातुसंश-च्छिद छेदने, भिंद विदारगणे, ने प्रापणे, जा गती, गच्छ गतौ । प्रातिपदिक-वा, वा, वा, अथवा, विप्रलय, यत्, वत्, तथा, अपि, खलु, न, परिग्रह, अस्मद् मूलषातु-छिदिर् द्वेधीकरणे रुधादि, भिदिर् विदारणे. रुधादि, णी प्रापणे स्वादि, या प्रापणे अदादि, गम्ल गतौ । पदविवरण-छिज्जदु छिद्यता-कर्मवाच्य होता हुआ यह ज्ञानी फिर उसी परिग्रहको विशेषरूपसे छोड़नेके लिये प्रवृत्त हुमा है। भावार्थ-- परद्रव्यको निज स्वरूपसे जाननेका कारण प्रज्ञान है सो अज्ञानको मूलसे मिटानेकी ठानने वाले इस ज्ञानीने सामान्यसे सर्व परद्रव्यको हटा दिया अब नाम ले लेकर विशेषरूपसे परिग्रहको छोड़नेके लिये प्रवृत्त हुआ है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि यदि मैं परद्रव्यका परिग्रहण करूं तो मैं परद्रव्य अजीवरूप ही हो जाऊंगा, किन्तु ऐसा होता ही नहीं, मैं तो ज्ञाता हूं सो परिग्रह मेरा नहीं है। इस तथ्यके जाने बिना जीव दुःखी ही रहता है सो इस तथ्यका और दृढ़ निश्चय करना और दृढ़ प्रतिज्ञ होना प्रावश्यक है, इसी कारण इस गाथा द्वारा सामान्यतया अपरिग्रहता दिखाकर विरक्तिको दृढ़ किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- ज्ञानी अपने को भायक स्वभावमात्र समझता है इस कारण सहज हो समस्त इसके परद्रव्यसे उपेक्षा रहती है । २- इन बाह्य परद्रव्योंको प्रायः पांच हालतें देखी जाती हैं उन्हींका यहाँ संकेत है। ३- किसी परपदार्थके दो या अनेक दक हो जाते हैं जो कि मोहीको अनिष्ट है। ४-किसी परद्रव्यमें अनेक छिद्र हो जाते हैं जिससे वह सारहीन हो जाता है जो कि मोहोको अनिष्ट है ! ५- किसी परपदार्थको कोई उठाकर ले जाता है जिसका वियोग मोहीको अनिष्ट है । ६- कोई परद्रव्य नष्ट हो जाता है याने भस्म यादिके रूपमें पूरा बदल जाता है जो कि मोहीको अनिष्ट है । ७- कोई परपदार्थ जिस किसी भी प्रकार अन्यत्र माना जाता है जो कि मोहोको अनिष्ट है । ८-ज्ञानी परद्रव्यका कुछ भी हो, परद्रव्यसे सगाव ही Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स्व, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं अहमेव मम स्वामीति जानामि ॥ इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेक हेतुं । अज्ञान मुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।।१४५।। ।। २०६ ।। लोट् अन्य पुरुष एकवचन । वा-यगर ! भिज्ज भिद्यतांवर अकोट म गुरुल एकवचन । णिज्जदु नौयतां-कर्मवाच्य लट् अन्य पुरुष एक० । अहव अथवा-अव्यय । जादु यातु-लोट् अन्य पुरुष एकवचन । विप्पलयं विप्रलय-द्वितीया एकवचन । जम्हा यस्मात-पंचमी एक० । तम्हा तस्मात्-पं० एक० । गच्छदु गच्छतु-आज्ञार्थ लोट् अन्य पुरुष एकः । तह तथा--अव्यय । वि अपि-अव्यय । हु खलु-अव्यय । ण नअव्यय । परिग्गहो परिग्रहः-प्रथमा एक० । माझ मम-षष्ठी एकवचन ।। २०६ ।। नहीं रखता, अतः ज्ञानी अपरिग्रही है । - ज्ञानीका दृढ़ निश्चय है कि मेरा मात्र में ही सर्बस्व हूं और मैं अपने इस स्वरूपसर्वस्वका ही स्वामी हूं। सिद्धान्त-१-ज्ञानी स्नमें तन्मय अखण्ड ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्वको ही प्रापा मानता है। २-परद्रव्यमें या किसी भी द्रव्यमें जो भी परिणति होती है वह उस हो के परिणामसे होती है, कहीं उस रूप अन्य द्रव्य नहीं परिणम जाता है। दृष्टि-१- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २-- स्वद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय, परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८, २९) । प्रयोग---समस्त परद्रव्योंको अपनेसे अत्यन्त भिन्न मानकर उनकी कुछ भी परिणति हो उससे हर्ष विषाद न मानकर अपने सहज ज्ञानस्वभावमें ही रमकर तृप्त होना चाहिये ॥२०६।। अब बतलाते हैं कि ज्ञानीके धर्मका अर्थात् पुण्यका भी परिग्रह नहीं है---[अनिच्छः] इच्छारहित प्रात्मा [अपरिग्रहः] परिग्रहरहित [भरिणतः] कहा गया है [च] और [रणारणी] शानी [धम्म] धर्म अर्थात् पुण्यको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है [सेन] इस कारण [सः] वह [धर्मस्य] धर्मका याने पुण्यका [अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं हैं [तु] वह तो [ज्ञायकः]. मात्र ज्ञायक [भवति] होता है। तात्पर्य-ज्ञानी द्रव्यपुण्यको तो उपादानतया भी अत्यन्त भिन्न जानता है और भावपुण्यको औपाधिक होनेके कारण अपनेसे भिन्न जानता है सो वह ज्ञातामात्र है, पुण्यका भी परिग्रही नहीं है। टोकार्थ-इच्छा परिग्रह है । जिसके इच्छा नहीं है, उसके परिग्रह नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और प्रज्ञानमय भाव ज्ञानीके होता नहीं है, शानीके ज्ञानमय ही भाव Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार अपरिगहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे धम्म । अपरिगहो दु धम्मस्स जाणगो तेण सो होई ॥२१॥ निर्वाञ्छक अपरिग्रह, कहा है ज्ञानी न चाहता पुण्य । इससे पुण्यपरिग्रह-विरहित ज्ञायक पुरुष होता ॥२१०॥ अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्म । अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।।२१०।। __ इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । झानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति, ततो ज्ञानी अज्ञानमय नामसंज्ञ-अपरिग्गह, अणिच्छ, भणिद, णाणि, य, ण, धम्म, अपरिग्गह, दु, धम्म, जाणग, त, त । धातुसंज्ञ- परि-गिण्ह ग्रहणे, भण कथने, इच्छ इच्छायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-अपरिग्रह, अनिच्छ, भणित, ज्ञानिन्, च, न, धर्म, अपरिग्रह, तु, धर्म, ज्ञायक, तत्, तत् । मूलधातु-परि-ग्रह प्रहयो, भण शब्दार्थः, इषु इच्छायां, भू सत्तायां । पदविवरण-अपरिग्गहो अपरिग्रहः-प्रथमा एक० । अणिच्छो अनिच्छ:-प्रथमा एकवचन । भणिदो भणित:-प्रथमा एक० । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । य चहोता है, अतः ज्ञानी अज्ञानमय भावरूप इच्छाके प्रभावसे धर्म (पुण्य) को नहीं चाहता है । इस कारण ज्ञानीके धर्मपरिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके होनेसे यह धर्मका केवल झायक ही होता है । भावार्थ---ज्ञानीने सहज ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्वका अनुभव करके प्रलोकिक आनन्द पाया है, अतः अज्ञानमय भाव न होनेसे इच्छाका भी परिग्रह नहीं है, तो भी जब तक पूर्ण निरास्रव नहीं हुप्रा तब तक पुण्यका भी. . प्रास्त्रव होता है, किन्तु पुण्यका स्वामित्व न होनेसे परिग्रह नहीं है वह तो ज्ञानस्वरूपको ही अपना सर्वस्व स्वीकार करता है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सामान्य रूपसे बताया था कि परपदार्थ किसी भी अवस्थाको प्राप्त होतो वह मेरा कुछ भी परिग्रह नहीं है । अब इस ही अपरिग्रहताके प्राशयको विशेष रूपसे कहना है सो वह विशेषरूप चार प्रकार में प्रसिद्ध है---(१) पुण्य, (२) पाप, (३) भोजन, (४) पान (पीना) । उसमें से प्रथम पुण्य परिग्रहके विषयमें अपरिग्रहताको स्पष्ट इस गाथामें किया है। __तथ्यप्रकाश-- (१) इच्छाकी इच्छा प्रज्ञानमय भाव है वह अविकार ज्ञानस्वभावके अनुभवका अलौकिक आनन्द पाने वालेके याने ज्ञानीके नहीं होता । (२) अज्ञानमय इच्छा जिसके नहीं है अगत्या पुण्यभाव होनेपर भी वह पुण्यभाव या पुण्यकर्मको भी नहीं चाहता, शुभोपयोगरूप धर्मको नहीं चाहता । (३) ज्ञानी पुण्यभाव होनेपर भी पुण्यभाव को नहीं चाहता, अत: उसके पुण्यका भी परिग्रह नहीं है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स्य भावस्य इच्छाया अभावाद् धर्म नेच्छति । तेन ज्ञानिनो धर्मपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यै. कस्य ज्ञायकभावस्य भावाद् धर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।। २१० ।। अव्यय । ण न-अव्यय । इच्छदे इच्छति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । धम्म धर्म-द्वितीया एकवचन । अपरिगहो अपरिग्रहः-प्रथमा एक० । दु तु, धम्मस्स धर्मस्य-पष्ठी एक० । जाणगो ज्ञायक:-प्रथमा एकवचन । तेण तेन-तृतीया एक० । सो स:-प्रथमा एक० । होई भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २१० ।। सिद्धान्त-(१) सम्यक्त्वघातक प्रकृतियोंका उपशमादि होनेसे ज्ञानोके मज्ञानमय भाव न होनेसे स... भार ई. होता है। (3) जानी र ज्ञानवृत्तिरूप परिणमता है । दृष्टि-१- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २--शुद्धनिश्चयनय (४६)। प्रयोग- पुण्यभाव होनेपर भी उसे अपना स्वरूप न जानकर उससे परे अविकार शानस्वरूप में उपयुक्त होनेका पौरुष करना चाहिये ।। २१० ।। अब ज्ञानीके पापका परिग्रह नहीं है यह बताते हैं-[अनिच्छः] धुच्छारहित पुरुष [अपरिग्रहः] अपरिग्रह [मरिणतः] कहा गया है । [1] और [ज्ञानी] ज्ञानी [अधर्म] अधर्म याने पापको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है । तेन] इस कारण [सः] वह अधर्मस्य] अधर्मका [अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं है, किन्तु [जायकः] अधर्मका ज्ञायक ही [भवति होता तात्पर्य पापभावको कमरस जानने वाले ज्ञानीको पापभावसे रंच भी लगाव नहीं है, प्रत्युत विरक्ति ही है, इस कारण असातादि पापकर्म रस भी प्रतिफलित हो तब भी ज्ञानी के अधर्मका परिग्रह नहीं है । टीकार्य-इच्छा परिग्रह है। उसके परिग्रह नहीं जिसके इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है। किन्तु अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं है, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव है। इस कारण ज्ञानी प्रज्ञानमय भावरूप इच्छाका अभाव होनेसे अधर्मको पापको नहीं चाहता है, इस कारण ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायक भावका सद्भाव होनेसे यह अधर्मका केवल ज्ञायक ही है। और इसी प्रकार प्रधर्मपदके परिवर्तनसे राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनके सोलह सूत्र लगा लेना चाहिये । भावार्थ-ज्ञानीको अपने सहज स्वरूपकी अनुभूति हुई है तब उसको कभी बाह्य प्रवृत्ति भी हो तो भी ज्ञानमय भावको न छोड़कर होती है, अतः जब चारित्रमोहको बलबत्तासे, प्रसंयम भाव होता है तब उसे औपाधिक विकार जानकर उससे उपेक्षाभाव रखता Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदि अधम्म । अपरिग्गहो यधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि ॥२११॥ निर्वाञ्छक अपरिग्रह, कहा है ज्ञानी न चाहता पाप । इससे पापपरिग्रह-विरहित ज्ञायक पुरुष होता ॥२११॥ अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्म। अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।। २११ ।। इच्छा परिग्रहः, तस्य परिग्रहो नास्ति यस् च्छा नास्ति, इच्छा त्वज्ञानमयो भावः । प्रज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी प्रज्ञानमयस्थ भावस्य इच्छाया अभावादधर्मं नेच्छति । तेन ज्ञानिनोऽधर्मपरिग्रहो नास्ति, ज्ञानमयस्यकस्य शायकभावस्य भावादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् । एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानभायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुणिरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । प्रनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि ॥ २११ ।। नामसंज- अपरिम्गह, अणिच्छ, भणिद, पाणि, य, ण, अधम्म, अपरिग्गह, अधम्म, जाणग, त, त। चातुसंज-भण कथने, इच्छ इच्छायां, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-अपरिग्रह, अनिच्छ, भणित, ज्ञानिन्, च, 'न, इच्छति, अधर्म, अपरिग्रह, अधम्म, शायक, तत्, तत् । मूलधातु--भण शब्दार्थः, इषु इच्छायां, भू सत्तायां । पदविवरण-अपरिगाहो अपरिग्रह:-प्रथमा एकवचन । अणिच्छो अनिच्छ: प्रथमा एकवचन। भणिदो भणित:-प्रथमा एक० कृदन्त । णाणी ज्ञानी-प्र० एक०। य च-अव्यय । पन-अध्यय । इच्छदि इच्छति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । अधम्म अधर्म-द्वितीया एक० । अपरिगहो अपरिग्रह:-प्र०ए०। अधम्मस्स अधर्मस्य-षष्ठी एक० । जाणगो ज्ञायक:-प्र० ए० । तेण तेन-तृतीया एकवचन । सो स:-प्रथमा एक० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २११ ॥ है इस कारण ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है । प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानोके पुण्यका परिग्रह नहीं है तब यह भी जिज्ञासा हुई कि किसी ज्ञानीके कभी विषय में प्रवृत्ति हो तो पापबन्ध तो होता ही है तब क्या उसके पापका परिग्रह है उसके समाधान में इस माथाका अवतार हुआ है। तथ्यप्रकाश-१-प्रोपाधिक भावोंमें रुचि होना प्रज्ञान मय भाव है । २-यद्यपि प्रौपा‘धिक भाव भी प्रज्ञानभाव है, तो भी ज्ञानीकी उससे उपेक्षा और ज्ञानमात्र अन्तस्तत्व में प्रतीति होनेसे उसे अज्ञानमय भाव नहीं कहा गया है । ३-पापकर्म व पापभावमें किञ्चिन्मात्र भी हित विश्वास न होनेसे और हितमय शाश्वत चैतन्यस्वरूपकी प्रतीति होनेसे ज्ञानीके अधर्म का परिग्रह नहीं है । ४-भोगादिकी हितास्थासहित इच्छा ही संसारवर्द्धक इच्छा है। सिद्धान्त-१-पापभाव औपाधिक भाव होनेसे उसका स्वामी ज्ञाता द्रव्य नहीं है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ समयसार अपरिग्गहो feat भागदो गाणी यच्छिदे असणं । परिग्गहो दु असणस जागो तेा सो होदि ॥ २१२ ॥ निर्वाञ्छक अपरिग्रह कहा है ज्ञानी न चाहता भुक्ति इससे भुक्तिपरिग्रहविरहित ज्ञायक पुरुष होता ॥ २१२ ॥ अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति अशनं । अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति ।। २१ । इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः । अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोस्ति । ततो ज्ञानी प्रज्ञानमयस्य नामसंज्ञ -- अपरिग्गह, अणिच्छ, भणिद, णाणि, य, ण, असण, अपरिग्मह, दु, असण, जाणग, त त । धातुसंज्ञ भण कथने, इच्छ इच्छायां अस भक्षणक्षेपणयो:, जाण अवबोधने, हो सत्तायां । प्राति पदिक अपरिग्रह, अनिच्छ, भणित, ज्ञानिन् च, न, अशन, अपरिग्रह, तु, अशन, ज्ञायक, तत् तत् । मूलधातु — नत्र - परिग्रह उपादाने क्यादि, इषु इच्छायां तुदादि, भण शब्दार्थः, अश भोजने यादि, ज्ञा २ - ज्ञानमय एक ज्ञायकभाव दृष्टिमें होनेसे ज्ञानी ज्ञायक ही रहता है । दृष्टि - १ -प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । २ - शुद्ध नय ( १६८ ) । ; प्रयोग - पापविपाकरस भी उपयोग में झलके तब भी उसे परप्रतिफलन जानकर उससे उपेक्षा कर अपने निष्पाप ज्ञानस्वरूपमें ही उपयुक्त होनेका पौरुष करना ||२११ ।। श्र ज्ञानके भोजनका परिग्रह नहीं है यह बताते हैं [ अनिच्छः ] इच्छारहित पुरुष [ अपरिग्रहः] अपरिग्रहो [भशितः] कहा गया है [च] और [ज्ञानी] ज्ञानी [प्रशनं . ]... भोजनको [न] नहीं [ इच्छसि ] चाहता है । [तेन ] इस कारण [ स ] वह [ अशनस्य ] भोजन का [ अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं है [तु] किन्तु वह [ज्ञायकः ] भोजनका ज्ञायक ही [ भवति ] होता है । तात्पर्य - साताके उदयवश क्षुधा होनेपर भी क्षुधा रोगको इच्छा न होनेसे क्षुषा रोगकी प्रौषधिभूत भोजन की कामना न होनेसे ज्ञानीके भोजनका परिग्रह नहीं है । टोकार्थ- -इच्छा परिग्रह है। उसके परिग्रह नहीं है, जिसके इच्छा नहीं है । इच्छा तो प्रज्ञानमय भाव है । अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता । ज्ञानीके ज्ञानमय हो भाव होता है । इस कारण ज्ञानी श्रज्ञानमय भावरूप इच्छाका प्रभाव होनेसे भोजनको नहीं चाहता है, मतः ज्ञानीके प्रशन (भोजन) का परिग्रह नहीं है, किन्तु मात्र ज्ञानमय एक ज्ञायक भावके होनेसे प्रशन (भोजन) का केवल शायक ही होता है । भावार्थ-ज्ञानीके न क्षुवा रोगको इच्छा है और न श्रास्थामें क्षुधाकी चिकित्साकी इच्छा है अतः ज्ञानी प्रशनका अपरिग्रही है । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...ram 'निर्जराधिकार भावस्य इच्छाया अभावादशनं नेच्छति तेन ज्ञानिनोऽशनपरिग्न हो नास्ति ज्ञानमयस्यै कस्य ज्ञायकभावस्य भावादशनस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।।२१२।। अवबोधने यादि, भू सत्तायां । पदविवरण- अपरिगहो अपरिग्रहः-प्रथमा एक० । अणिच्छो अनिच्छ:प्रथमा एक० । भणिदो भणित:-प्रथमा एक० कृदन्त । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । य च-अव्यय । ण न ५। इच्छदे इच्छति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन त्रिया। असणं अदानं-द्वितीया एकवचन । अपरिग्मही अपरिग्रह:-प्र० ए० 1 दु तु-अव्यय । असणस्स अशनस्य षष्ठी एक० । जाणगो ज्ञायक:-प्रथमा एक० । तेण तेन-तृ० एक० । सो सः-प्र० ए० । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ।।२१२|| प्रसंगविवरण-ज्ञानीके अपरिग्रहत्व बतानेका यह स्थल चल रहा है। यहाँ धर्म अधर्मका परिग्रह बताकर ज्ञानीके प्रशन परिग्रहका प्रतिषेध करनेके लिये यह गाथा माई है। तथ्यप्रकाश-१-क्षुधाको औपाधिक विकार जाननेके कारण ज्ञानीको क्षुधाकी इच्छा नहीं है । २-क्षुघाकी चिकित्सारूप भोजनको प्रात्माका प्रकृत्य जानने से उसकी भी अन्तः इच्छा नहीं है । ३-ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्त्वमय अपनी प्रतीति होनेसे ज्ञानी भोजनका अपरिग्रही है। सिद्धान्त--१-सातावेदनीयके तीन व मंद दिपाकोदयके निमित्तसे क्षुधावेदना होती है। २-चारित्रमोहके उदयसे भोजन ग्रहण करनेको इच्छा होती है । ३-ज्ञानी क्षुधा व भोजनेच्छाको प्रोपाधिक (पोद्गलिक) जानकर उससे विविक्त विशुद्ध चैतन्यस्वभावमात्र अपने को जानता है। __दृष्टि--- १-उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । २- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्धद्रव्याथिकनय (५३) । ३-विवक्षितकदेशशुद्धनिश्चयनय (४८) । प्रयोग-क्षुधा, इच्छा आदि औपाधिक भावोंको प्रात्माका प्रकृत्य जानकर उन परभावोंसे विविक्त अविकार ज्ञानस्वभावकी दृष्टि से तृप्त होनेका पोष करना ॥२१२।। प्रब ज्ञानीके पानपरिग्रहत्वका प्रतिषेध करते हैं--[अमिछः] इच्छारहित पुरुष [अपरिग्रहः] परिग्रहित [भरिणतः] कहा गया है। [4] प्रौर [शामी] ज्ञानी पुरुष [पान] कुछ पीनेको [न] नहीं [इच्छति] चाहता है। [तेल] इस कारण [सः] वह [पानस्य] पानका [अपरिग्रहः] परिग्रही नहीं है [तु] किन्तु वह [ज्ञायकः] पानका शायक ही [भवति] होता है। तात्पर्य-ज्ञानीके पुण्य, पाप व भोजनको इच्छा न होनेकी तरह पानकी भी इच्छा नहीं है । अतः ज्ञानी पानका भी परिग्रही नहीं है । टोकार्थ----इच्छा परिग्रह है, उसके परिग्रह नहीं जिसके इच्छा नहीं है । इच्छा तो Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसाः अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णिच्छदे पाणं । अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि ॥२१३॥ निर्वाञ्छक अपरिग्रह, कहा है ज्ञानी न चाहता पान । इससे पानपरिग्रह विरहित ज्ञायक पुरुष होता ॥२१३॥ अपरिग्रहों अनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छनि पानं । अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकरतेन स भवति ॥२१३|| इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्र हो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः । अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । ज्ञानिनो ज्ञानमय एच भावोऽस्ति । ततो ज्ञान्यज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया प्रभावात् पानं नेच्छति । तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यकस्य ज्ञायकभावस्य भावात् केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात् ।। २१३ ।। नामसंज्ञ-पाण, पाण, शेष पूर्वगाथावत् । धातुसंज्ञ-पा पाने, शेष पूर्वगाथावत् । प्रातिपदिकपान, पान, शेष पूर्वगाथावत् । मूलधातु-पा पाने शेष पूर्वगाथावत् । पदविवरणह-पाणं पानं-द्वितीया एक० ! पाणस्स पानस्य-षष्ठी एकवचन । शेष पूर्वगाथावत् ।।२१३।। अज्ञानमयभाव है, अज्ञानमयभाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय हो भाव होता है । इस कारण ज्ञानी अज्ञानमय भावरूप इच्छाका अभाव होनेसे पानको नहीं चाहता, अतः ज्ञानीके पानपरिग्रह नहीं है । यह ज्ञानी तो मात्र ज्ञानमय एक ज्ञायक भावके सद्धावसे केवल ज्ञायक हो है । भावार्थ-ज्ञानीके पान आदि किसी भी विकारकी कामना न होनेसे वह पान आदि सर्व परिग्रहसे रहित है। प्रसंगविवरण--ज्ञानीके अपरिग्रहत्व के स्थलमें पुण्य, पाप, प्रशनका अपरिग्रहत्व बत. लाकर अब पानका अपरिग्रहत्व इस गाथामें बताया है । तथ्यप्रकाश--(१) असातावेदनीयके तीव्रतर तीन मंद मंदतर विपाकोदयके निमित्तसे तृषावेदना होती है। (२) वोन्ति राय कर्मके उदयसे प्रशक्तिके कारण वेदना असह्य हो जाती है । (३) चारित्रमोहके उदयसे जल आदि ग्रहण करनेको इच्छा होती है । (४) क्षुधा, असाता व पानेच्छा प्रादि विकारोंको भोपाधिक अस्वभावभाव जाननेसे ज्ञानीको इनको इच्छा नहीं है । (५) अज्ञानमय इच्छाके अभावसे ज्ञानीके इन किन्हीं भी विकारोंका परिग्रह नहीं है वह तो मात्र जायक है । सिद्धान्त--(१) ज्ञानीके बहिस्तत्वके प्रति इच्छा, मूर्छा नहीं है। (२) ज्ञानी दर्पणमें बिम्बकी तरह उपयोगमें प्रतिफलित कमरसका ग्रहण करने वाला नहीं है, वह तो ज्ञानमात्र है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३८५ एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णिच्छदे गाणी । जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वस्थ ॥२१४॥ इत्यादिक नानाविध, सब भावोंको न चाहता ज्ञानी । किन्सु नियत है ज्ञायक, सब प्रों में निरालम्बी ॥२१४॥ एवमादिकांस्तु विविधान् सर्वान भावांश्च नेच्छति ज्ञानी । ज्ञायकभावो नियतः निरालंबस्तु सर्वत्र ॥२१४॥ एवमादयोऽन्येऽपि बहुप्रकारा; परद्रव्यस्य ये स्वभावास्तान सर्वानव नेच्छति ज्ञानी 1 तेन जानिनः सर्वेषामपि परद्रव्यभावानां परिग्रहो नास्ति इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यंतनिष्परिग्रहत्वं । नामसंज्ञ- एवं, आदिम, दु, विविह, सव्व, भाव, य, ण, इच्छदे, णाणि, जाणगभाव, गिय द, गीरासंब, दु, सव्वत्थ । धातुसंश–इच्छ इच्छायां, जाणं अवोधने । प्रातिपदिक-एवं, आदिक, तु, विविध, दृष्टि-- शुमभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय (२४ ब)। २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्या__ थिकनय (58), स्वयादिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८)। प्रयोग-पुण्य, पाप, प्रशमेच्छा, पानेच्छा आदि सर्व विभावोंका रंच भी राग न कर अविकार ज्ञानस्वभावमें रमकर संतुष्ट होनेका पौरुष करना ।। २१३ ।। अब कहते हैं कि ज्ञानी अन्य भी सर्चपरभावोंको नहीं चाहता है-[एवमादिकान तु] इस प्रकार याने पूर्वोक्त प्रकार इत्यादिक [विविधान्] नाना प्रकारके [सर्वान् भावान् ] समस्त भावोंको [ज्ञानो] ज्ञानी [न इच्छति] नहीं चाहता है । [तु] क्योंकि ज्ञानी [नियतः] नियत [शायकभायः] ज्ञायकभावस्वरूप है, अतः [सर्वत्र] सबमें [निरालम्बः] निरालम्ब है । तात्पर्य - ज्ञानी वस्तुस्वातंत्र्यके परिचयके बलसे किसी भी परद्रव्यको नहीं चाहता । वह तो सर्व परपदार्थों के विकल्पसे भी हटकर ज्ञातामात्र रहता है । टोकार्थ-ऐसे पूर्वोक्त भावोंको प्रादि लेकर अन्य भी बहुत प्रकारके जो परद्रव्यके स्थभाव हैं उनको सबको ही ज्ञानी नहीं चाहता है इस कारण ज्ञानीके समस्त ही परद्रव्यभावोंका परिग्रह नहीं है। इस प्रकार ज्ञानियोंका अत्यन्त निष्परिग्रहपना सिद्ध हुया । अब इस प्रकार यह समस्त परभावके परिग्रहसे शून्यपना होनेसे उगल दिया है समस्त प्रज्ञान जिसने ऐसा यह समस्त वस्तुबोंमें अत्यन्त निरालम्ब होकर प्रतिनियत टंकोल्कीर्ण एक ज्ञायक भाव होता हुअा अपने प्रात्माको साक्षात् विज्ञानघन अनुभवता है । भावार्थ-ज्ञानी समस्त परभावोंको औपाधिक व हेय जान लेनेके कारण किसीको भी प्राम करनेकी चाह नहीं करता, मात्र प्राक् पदवीमें उदयागत कर्ममलको अनासक्त होता हुआ भोगता है। अब इसी अर्थको इस कलशमें कहते हैं--"पूर्वबद्ध" इत्यादि । अर्थ-पूर्वबद्ध निज Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ समयसार अथैवमयमशेषभावांतरपरिग्रहशून्यत्वादुद्वतिसमस्साशानः सर्वत्राप्यत्यंतनिरालंबो भूत्वा प्रतिनियतटकोकोकज्ञायकभावः सन् साक्षाद्विशानधनमात्मानमनुभवति ॥ पूर्वबद्धनिजकर्मविपाका. ज्ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवस्वथ प रागवियोगान्नूनमेति न परिग्रहभाव ।।१४६॥ ।। २१४ ।। सर्व, भाव, च, न, शानिन्, ज्ञायकभाव, नियत, निरालम्ब, तु, सर्वत्र । मूलधातु--इषु इच्छाया तुदादि । पदविवरण--एवं-अव्यय । आदिए आदिकान-द्वितीया बह० । दु तु--अश्यय । विविहे विविधान्-द्वितीया बहु० । सब्बे सर्वान्-द्वितीया बहु०। यम-अव्यय । ण न-अव्यय । इच्छदे इच्छति-वर्तमान लट् अन्य घुरुष एकवचन क्रिया। णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । जाणगभावो शायकभाव:-प्रथमा एक० । मियदो। नियत:-प्र० ए० । णीरालंबो निरालम्बः-प्रथमा एक० । दुतु-अध्यय । सब्वस्थ सर्वत्र-अव्यय ॥ २१४ ।। कर्मविपाकसे झानीके यदि उपभोग होता है तो होगो । अब यहाँ रागका वियोग होनेसे निश्चयसे वह उपभोग परिग्रह भावको प्राप्त नहीं होता। भावार्थ---पूर्वबद्ध कर्मोका विपाको. दय होनेपर उपभोगसामग्री प्राप्त होती है सो वहाँ प्रज्ञानी तो उसे अज्ञानमय रागभावसे भोगता . है, अतः प्रजानीके उपभोगका परिग्रह है, किन्तु शानी प्रशानमय राग न होनेसे वह उपभोगता हुप्रा भी परिग्रही नहीं, किन्तु शायक है । प्रसंगविवरण-- अनंतरपूर्व ४ गाथाघों में बताया गया था कि ज्ञानी जीव धर्म (पुण्य), अधर्म (पाप), प्रशन व पानको नहीं चाहता है, अतः ज्ञानीके उनका परिग्रह नहीं । अब इस गाथामें उसी कथनका उपसंहार करते हुए कहा है कि ऐसे ही जो और परभाव हैं उन सबको भी ज्ञानी नहीं चाहता है वह सर्वत्र निरालम्ब है और मात्र ज्ञायक है । तथ्यप्रकाश-(१) पुण्य पाप भोजन पानको न चाहनेकी भांति ज्ञानी विषयकवाय प्रादिक सभी परभावोंको नहीं चाहता है। (२) परद्रव्यभावोंको न चाहनेसे ज्ञानीके उनका परिग्रह नहीं है। (३) ज्ञानीके मात्र ज्ञानमय भाव बर्तनेसे अन्य किसीको स्वीकार नहीं करता है, अत: वह निष्परिग्रह है। (४) ज्ञानो समस्त परभावपरिग्रहशून्य होनेसे समस्त प्रज्ञानका वमन कर चुका है । (५) ज्ञानी किसी परभावको स्वीकार न करनेसे समस्त अन्य पदार्थोका पालम्बन सज देता है । (६) शानो सिर्फ जाननहार रहनेसे अपनेको साक्षात विज्ञानधन अनुभवता है। सिद्धांत--(१) प्रात्मद्रव समस्त पर व परभावोंसे रहित है । (२) ज्ञानी भावान्तरों का शायकमात्र होमेसे सर्व भावान्तरोंके मालम्बनसे रहित है। हटि-१- शून्पनय (१७३)। २- प्रकर्तृनय (१९०), प्रभोक्तृनय (१९२) । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३८७ उप्पण्णोदयभोगो वियोगबुद्धीए तस्स सो णिच्च । कंखामणामयस्स य उदयस्स ण कुब्बए णाणी ॥२१५॥ वर्तमान भोगोंमें, वियोगमतिसे प्रवृत्ति है जिसकी। भावी भोगोंको बह, ज्ञानी कांक्षा नहीं करता ॥२१॥ उत्पन्नोदयभोगो वियोगबुद्धया तस्य स नित्यं । कांक्षामनागतस्य चोदयस्य न करोति ज्ञानी ॥२१|| कर्मोदयोपभोगस्तावदतीतः प्रत्युत्पन्नोऽनागतो वा स्यात् । तत्रातीतस्तावदतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं विति । अनागतस्तु प्राकांक्ष्यमाण एव परिग्रहभाव विभृयात् । प्रत्युत्पन्नस्तु मामसंश-उप्पण्णोदयभोग, विओगबुद्धि, त, त, णिच्चं, कंखा, अणागय, च, उदय, ण, णापि । पासुसंझ-कंख वांछाया, कुश्य करणे। प्रातिपदिक-उत्पश्नोदयभोग, वियोगबुद्धि, तत्, तत्, नित्यं, कांक्षा, अनागत, च, उदय, ण, णाणि । मूलधातु-कांक्षि कांक्षायो भ्वादि, उतु अय गती, डुकृत्र करणे । पवविवरण-उप्पण्णोदयभोगो उत्पन्नोदयभोग:-प्रथमा एक० । विओगबुद्धीए वियोगबुद्धधा-तृतीया एक० । प्रयोग-निराकुल रहने के लिये समस्त भावान्तरोंका पालम्बन सजना और मात्र सबका जाननहार रहना ।। २१४ ।।। अब झानीके तीनों काल विषयक परिग्रह नहीं है ऐसा बताते हैं--[उत्पन्नोदय भोगः] वर्तमान कालमें उत्पन्न हुमा उदयका भोग लक्ष्य र मानो नि] हमेगा नियोगसुध्या] वियोगको बुद्धिसे प्रवर्तता है [च] पौर [अनागतस्य उदयस्य] अागामो कालमें होने वाले उदयको [सः बह [ज्ञानी] ज्ञानी [कांक्षां] इच्छों [न करोति नहीं करता इस कारण ज्ञानीके त्रिकालविषयक उपभोगका भी परिग्रह नहीं है। तात्पर्य--ज्ञानीके उपभोगमें आस्था नहीं, किन्तु अरतिभाव है इस कारण ज्ञानीके किसी भी पर व परभावका परिग्रह नहीं है। टीकार्थ---कर्मोदयका उपभोग अतीत, वर्तमान और प्रागामी कालविषयक होता है। उनमेंसे प्रतीत कालका तो उपभोग बीत चुकनेके कारण वह परिग्रह भावको धारण नहीं करता और अनागत कालका उपभोग प्राकक्ष्यिमाण हुमा ही परिग्रहभावको धारण करेगा, तथा वर्तमानका उपभोग रागबुद्धिसे प्रवर्तमान होता हुधा ही परिग्रहभावको धारण करेगा, किन्तु ज्ञानीके वर्तमानका उपभोग रागबुद्धिसे प्रवर्तमान नहीं दिखता, क्योंकि शानीके प्रज्ञानमयभावरूप रागबुद्धिका प्रभाव है । केवल वियोगबुद्धिसे ही प्रवर्तमान होता हा वह उपभोग निश्चयसे परिबह नहीं है । इस कारण वर्तमान कामके उपयका उपभोग शानो परिग्रह नहीं होता और अनामो कर्मके उपयका उपभोग इ मा होता ही नहीं है क्योंकि ज्ञानीके Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ समयसार सकिल गया प्रवर्तमान एव तथा स्यात् । न च प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागबुद्ध्या प्रवर्तमानो दृष्टो ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्य रागबुद्धेरभावात् । वियोगबुद्ध्यैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात् । ततः प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् । अनागतस्तु स किल ज्ञानिनो न कांक्षित एवं ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्याकांक्षाया श्रभावात् । ततोऽनागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ।। २१५ ।। तस्स तस्य षष्ठी एक० । सो सः - प्रथमा एक० णिच्च नित्यं - अव्यय । कलां कांक्षां द्वितीया एक० । अणागयस्स अनागतस्य षष्ठी एक० । य च अव्यय । उदयस्स उदयस्य षष्ठी एक० । ण न-अव्यय । कुए करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णाणी ज्ञानी - प्रथमा एकवचन ।। २१५ ॥ अज्ञानमय भावरूप बांछाका अभाव है इस कारण अनाप्त कर्मके उदयका उपभोग भी ज्ञानीक परिग्रह नहीं है । भावार्थ - प्रतीत उपभोग तो बीत हो चुका, ज्ञानी उसका स्मरण ही नहीं करता, अनागतकी वांछा नहीं करता और वर्तमानके भोग में राग नहीं करता, वह तो उप भोगको हेय जानता उसमें राग किस तरह हो सकता है ? अतः ज्ञानीके तीनों ही कालके कर्म के उदयका उपभोग परिग्रह नहीं है । कदाचित् ज्ञानी वर्तमान में उपभोग के कारण जो मिलाता है सो पोड़ा न सही जा सकने के कारण रोगीकी तरह उसका इलाज करता है सो यह चारित्रमोहोदयज निर्बलताका दोष है । प्रसंगविवरण - श्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी किसी भी परद्रव्य व परभावको नहीं चाहता । अब इस गाथा में इस हो तथ्यका सयुक्तिक निरूपण किया गया है । तथ्य प्रकाश - - ( १ ) स्वसंवेदनजन्य अलोकिक आनन्द पाने वाला ज्ञानी प्रतीत उपभोग का स्मरण भी नहीं करता है । ( २ ) स्वसम्वेदनकी धुन रखने वाला ज्ञानी भावी उपभोगकी कल्पना भी नहीं करता है । (३) शुद्ध ज्ञानानन्दानुभवको ही सार जानने वाला ज्ञानी वर्तमान उपभोग से हटने का हो श्राशय रखता है । ( ४ ) वर्तमान उपभोग में भी अज्ञानमय राग न होनेसे ज्ञानीका वर्तमान उपभोग भी परिग्रह नहीं है । (५) जिस ज्ञानीके वर्तमान उपभोग भी परिग्रह नहीं उसके प्रतीत व भावी उपभोगके परिग्रहपनेकी सम्भावना ही क्या है ? (६) किसी भी परद्रव्यका आलम्बन जहाँ नहीं है वह परिणाम स्वसंवेदनज्ञानरूप हो जाता है। (७) सहज ज्ञानस्वभाव में आत्मत्व की प्रतीति रखने वाले ज्ञानोका चित्त वैषयिकसुखानन्दकी वासना से रहित होता है । (=) शुद्ध ज्ञानमात्र श्रात्मतत्त्वको भावना से संतुष्ट ज्ञानी ही अभेद परमार्थ ज्ञानस्वरूपका अनुभव करता है । (६) प्रभेद परमार्थ ज्ञानस्वरूप ही सहज परमात्मतत्व है । (१०) सहज परमात्मतत्वका अनुभवी हो परमात्मपदस्वरूप मोक्षको प्राप्त होता है । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार कुतोऽनागतमुदयं ज्ञानी नाकक्षितीति चेत्-- जो वेददि वेदिजदि समए समए विणस्सदे उहयं । तं जाणगो दु णाणी उभयपि ण कंखइ कयावि ॥२१६॥ जो वेदक वैद्य उभय, समय समय विमष्ट हो जाता। सोमानी ज्ञायक बन, न चाहता उमय भायोंको ॥२१६॥ यो वेदयते. वेद्यते समये समये विनश्यत्युभयं । तज्ज्ञायकस्तु ज्ञानी, उभयमपि न कांक्षति कदाचित् ।।२१६॥ ___ज्ञानी हि तावद् ध्र वत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णेकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यो तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्न प्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिको भवतः । तत्र यो भावः कांक्ष्यमारणं वेधभावं वेदयते स याबद्भवति तावत्कांक्ष्यमाणो वेद्यो भावो विनश्यति । तस्मिन् विनष्टे वेदको भाव: कि वेदयते ? यदि कांक्ष्यमाणवेधभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा नामसंश-ज, समय, समय, उहय, त, जाणग, दु, पाणि, उभय, पि, ण, कया, वि। धातुसंज्ञ-.. वेद वेदने, वि-नस्स नाशे, कख वांछायां । प्रातिपदिक-यत्, समय, समय, उभय, तत्, ज्ञायक, तु, ज्ञानिन्, सिद्धान्त--(१) ज्ञानीके अपने सहजात्मस्वरूपकी भावनासे प्रकट हुए स्वतन्त्र मानन्द के विलासका अनुभव है । (२) स्वसम्वेदक ज्ञानी सुख-दुःखादि उपभोगका साक्षी ही है । दृष्टि--१- अनीश्वरनय (१८६) । २- प्रभोक्तृनय (१६२)। प्रयोग-उपभोगविकल्पसे रहित शुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र अपनेको अनुभव करके अपनेमें संतुष्ट रहनेका पौरुष करना ॥२१५।। अब ज्ञानी अनागत कर्मोदय उपभोगको क्यों बांछा नहीं करता ? इसका विवरण करते हैं--[यः] जो विवयते] अनुभव करने वाला भाव है याने वेदकभाव है और जो [वेद्यते] अनुभव किया जाने योग्य भाव है अर्थात् वेद्यभाव है [उभयं] ये दोनों ही [समये समये] समय [विनश्यति] नष्ट हो जाते हैं। [तत्] सो [जानी] ज्ञानी [शायकः सु] दोनों भावोंका ज्ञायक हो रहता है [उभयमपि] इन दोनों ही भावोंको [कदापि] कभी भी [न कांक्षति] ज्ञानी नहीं चाहता। तात्पर्य-वेदकभाव होनेपर वेद्यभाव नष्ट हो जाता है, बेद्यभाव होनेपर पूर्ववेदक भाव नष्ट हो जाता है सो वेधभाव कभी अनुभवा ही नहीं जा सकता यह जानकर ज्ञानी दोनोंका मात्र ज्ञाता ही रहता है। टोकार्ष-वास्तवमें ज्ञानी तो अपने स्वभावभावके ध्र धत्वके कारण टंकोत्कीर्ण एक जायकस्वरूप नित्य है और जो वेदने वाला तथा वेदने योग्य ऐसे जो दो वेदक तथा वेद्यभाव Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -- समयसार तद्भवनापूर्व स. विनश्यति कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोत्यस्तं वेदयते तदा तद्धवनात्पूर्व स वेद्यो विनश्यति । किं स वेक्ष्यते ? इति कोक्ष्यमाणभाववेदनानवस्था। तां च उभय, अपि, न, कदा, अपि । मूलघात - विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, वि-णश अदर्शने दिवादि, कां क्षि कांक्षायां स्वादि । पदविवरण-जो यः-प्रथमा एकवचन । वेददि वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। वेदिज्जदि वेद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य क्रिया । समए समए समये समयेसप्तमी एक० । विणस्सदे विनश्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । उहयं उभयं-प्रथमा एक० । हैं वे विभावभावोंके उत्पाद तथा विनाशस्वरूप होनेके कारण क्षणिक हैं । वहाँ जो वेदकभाव आगामी चाहा जाने योग्य बेद्यभावको अनुभव करता सो वह वेदकभाव जब तक बने तब तक वेद्यभाव नष्ट हो जाता है। उसके नष्ट होनेपर बेदकभाव किसका अनुभव करे ? यदि वह वेदकनाव कोक्ष्यमार पंचसापक बाद होने वा अन्य वेद्य भावको बेदन करता है तो उसके होनेसे पहले ही वह बेदकभाव नष्ट हो जाता है सब उस वेद्यभावको कौन देद सकता है ? यदि वेदकभावके बाद होने वाला अन्य वेदकभाव उस वेद्यभावको बेदेगा तो उस वेदकभावके होनेके पहले वह वेधभाव नष्ट हो गया तब वह वेदकभाव कौनसे भावको वेदे ? ऐसा कांक्षमाणभाव अर्थात वेदनेको दाछा में प्राने योग्य भावके वेदनेको अनवस्था है कहीं ठहराव ही नहीं हो पायगा । अतः उस अनावस्थाको जानता हुमा जानी कुछ भी इच्छा नहीं करता। भावार्थ-वेदकभाव और वेद्यभाव इन दोनों में काल भेद है याने जब वेदकभाव होता है तब वेद्यभाव नहीं और जब वेद्यभाव होता है तब वेदकमाव नष्ट हो जाता है । इसलिये ज्ञानी दोनोंको विनाशीक जानकर तथा वेद्यभाव कभी बेदा ही नहीं जा सकता यह जानकर आप जानने वाला ही रहता है । अब इसी अर्थका स्पष्टीकरण करनेके लिये कलशरूप काव्य कहते हैं—वेद्य इत्यादि । अर्थ-वेद्यवेदकभावके चलायमान होनेसे याने समय समयमें नष्ट होते रहनेसे वाछितभाव वेदा ही नहीं जाता। इस कारण झानी कुछ भी प्रागामी भोगोंकी वांछा नहीं करता और सभीसे वैराग्यको प्राप्त होता है । मावार्थ-वैद्यवेदक विभावके कालभेद है इसलिये उन दोनों भावोंके योगको विधि मिलती नहीं सब उपभोगको वांछा शानों क्यों करेगा। प्रसंगबिबरण---अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी भावी उपभोगको नहीं चाहता है । अब इस गाथामें उसका कारण बताया गया कि ज्ञानी आगामी उपभोगको क्यों नहीं चाहता है ?. तथ्यप्रकाश-(१) सुख दुःखादिको भोगने वाला रागादिविकल्प वेदकभाव है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३६१ विनानन् ज्ञानी न किंचिदेव कांक्षति ।। वेद्यवेदकविभावचलत्वाद्वेद्यते न खलु कांक्षितमेव । तेन कांक्षति न किंचन विद्वान् सर्वतोप्यतिविरक्तिमुपैति ।।१४७।। ।। २१६ ॥ तं तद्-अव्ययार्थे । जाणगो ज्ञायकः-प्रथमा एक । दुतु-अव्यय । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । उभयं-- द्वितीया एकवचन । पि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । कंखइ कांक्षति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। कया कदा-अव्यय । ति अपि-अव्यय ।। २१६ ॥ (२) चाहा गया सुख-दुःखादिविषयक भाव वेद्यभाव है। (३) सूक्ष्मपर्याय दृष्टिसे वेदकभाव व वेधभाव प्रतिसमय नष्ट होते रहते हैं । (४) जिस विषयका वेद्यभाव जिस समय हो रहा है उस विषयका वेदकभाव उस समय नहीं है । (५) जिस विषयका वेदकभाय जिस समय हो रहा है उस समय उस विषयका वेद्यभाव नहीं रहता, वह तो पहिले था। (६) वेधभाव व वेदकभावकी विनश्वरताको तथा वेद्यभावके समय तद्विषयक वेदकभावके न हो सकनेके तथ्यको ज्ञानी जानता है, अतः वह उपभोग ही को नहीं चाहता है। (७) उपभोगको न चाहने वाला ज्ञानी उपभोगका परिग्रही नहीं होता । (८) उपभोगका अपरिग्रही सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्वको अनुभवता है । (६) सहज शुद्ध ज्ञानस्वरूप सहज परमात्मतत्त्वका अनुभवी परमात्मपदस्वरूप मोक्षको प्राप्त करता है। सिद्धान्त-(१) वेदकभाव व वेद्यभाव प्रतिसमय नष्ट होते रहते हैं । (२) स्वसंवेदक, ज्ञानी कर्मविपाकवश आपतित उपभोगका मात्र साक्षी है। दृष्टि-१- अशुद्ध सूक्ष्म ऋजुसुत्रनय नामक पर्यायार्थिकनय (३३) । २- प्रभोक्त. नय (१६२)। प्रयोग-विनश्वर विभावोंसे उपेक्षा कर शाश्वत ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त हो सहज मानन्दको अनुभवनेका पौरुष करना ।।२१६॥ अब सभी उपभोगोंसे ज्ञानीके वैराग्य है यह कहते हैं--[बंधोपभोगनिमित्तषु] बंध और उपभोग के निमित्तभूत [संसारदेहविषयेषु] तथा संसारविषयक और देहविषयक [अध्ययसानोदयेषु] अध्यवसानके उदयोंमें [ज्ञानिनः] ज्ञानीके [रागः] राग [नव उत्पद्यते] नहीं उत्पन्न होता। तात्पर्य-ज्ञानी जीवको उपभोगके कारणभूत विकारभावमें राग नहीं रहा इस कारण ज्ञानी भोगकी इच्छा नहीं करता । टोकार्थ- इस लोकमें निश्चयले अध्यवसानके उदय कितने ही तो संसारविषयक हैं और कितने ही शरीरविषयक हैं। उनमेंसे जितने अध्यवसानोदय संसारविषयक हैं उतने तो Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार तथाहि बंधुवभोगणिमित्ते अमवसाणोदरासु गाणिस्स । संसारदेहविसएसु णेब उप्पज्जदे रागो ॥२१७॥ संसारदेहविषयक, जो हैं बन्धोपभोगके कारण । उन सब प्रध्यवसानों-में ज्ञानी राग नहिं करता ॥२१७॥ बंधोपभोगनिमित्तेषु अध्यवसानोदयेषु ज्ञानिनः । संसारदेहविषयेषु नवोत्पद्यते रागः ॥२१७।। इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः कतरेऽपि शरीरविषयाः । तत्र यतरे संसारविषयाः ततरे बंधनिमित्ताः । यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः । यतरे बंधनिमितास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः । यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः । प्रथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः । नानाद्रव्यस्वभावत्वेन टंकोत्कीर्णेकज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रति ___ नामसंज्ञ---बंधुवभोगणिमित्त, अज्झवसाणोदय, णाणि, संसारदेहविसय, ण, एव, राग। धातुसंज्ञ-- उद्-पज्ज गतो । प्रातिपदिक-बन्धोपभोगनिमित्त, . अध्यवसानोदय, ज्ञानिन्, संसारदेहविषय, ण, एव, राम । मूलधातु-उत् पद मती चरादि । पयविवरण-बंधुवभोगणिमित्ते बन्धोपभोगनिमित्तेषु-सप्तमी वे बंधके निमित्तभूत हैं और जितने अध्यवसानोदय शरीरविषयक हैं उतने बे उपभोगके निमित्तभूत हैं। सो जितने बंधके निमित्तभूत हैं उतने तो रागद्वेष मोह प्रादिक हैं और जितने उपभोगके निमित्तभूत है उतने सुख-दुःखादिक हैं । इन सबमें ही ज्ञानीके राग नहीं है, क्योंकि अध्यवसान नाना द्रब्योंका स्वभाव है अतः टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव वाले ज्ञानोके उसका प्रतिषेध है । भावार्थ-संसार देहभोग सम्बन्धी रागद्वेष मोह अध्यवसान हैं और सुख-दुःखादिक भी अध्यवसान हैं वे नाना द्रव्यके स्वभाव है अर्थात् पुद्गल तथा जीवद्रव्यके संयोगरूपसे हुए हैं । ज्ञानी तो अपनेको एक ज्ञायकस्वभाव मानता है, अतः ज्ञानीके अध्यवसानोंका प्रतिषेध है, ज्ञानीके उनमें प्रीति नहीं है । अब इसी अर्थको श्लोकमें कहते हैं-- जानिनो इत्यादि । अर्थ-गमरससे रिक्त होने के कारण कर्म परिग्रहभावको नहीं प्राप्त होता । जैसे कि लोध फिटकरीसे कषायला नहीं किये गये वस्त्र में रंगका लगना अङ्गीकार न हुअा वस्त्रपर बाहर ही लोटता है याने वस्त्र में प्रवेश नहीं करता । भावार्थ--जैसे लोध फिटकरी लगाये बिना वस्त्रपर रंग नहीं चढ़ता उसी तरह ज्ञानोके राग भावके बिना कर्मके उदयका भोग परिग्रहपनेको प्राप्त नहीं होता । पुनः ज्ञानवान इत्यादि । अर्थ--ज्ञानी निजरससे ही समस्त रागरसके त्यागरूप स्व. भाव वाला है, इस कारण कर्मके मध्यमें पड़ा हुग्रा भी वह समस्त कर्मोंसे लिप्त नहीं होता। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३६३ षेधात् ।। ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्मरागरसरिक्ततयति । रंगयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतव हि बहिटुंठतीह ।। १४८|| ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात् सर्वरागरसवर्जनशीलः । लिप्यते सकलकर्मभिरेष कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ॥१४६।। ।। २१७ ।। बहुवचन । अज्झवसाणोदएस अध्यवसानोदयेषु सप्तमी बहु० । णाणिस्स ज्ञानिन:-षष्ठी एफ० | संसारदेहविसासु संसारदेहविषयेषु सप्तमी बहु । पान-अव्यय । एक अध्यय । उप्पज्जदे उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० भावकर्मवाच्य क्रिया । रागो राग:-प्रथमा एकवचन ।। २१७ ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी विषयोपभोगको नहीं चाहता है । अब इस गाथामें उसी विषयका स्पष्टीकरण किया गया है । लथ्यप्रकाश-(१) संसारविषयक रागादिभाव बन्धनके निमित्तभूत होते हैं । (२) शरोरविषयक सुख-दुःखादि भाव उपभोगके निमित्तक होते हैं.। (३) ज्ञानीका न तो रागादि भावमें राग है और न सूख-दुःखादि भाव में राग है। (४) रागादि भाव व सुख-दुःखादि भावमें नानाद्रव्यस्वभावपना है, अतः ये विकार आत्माके नहीं हैं। (५) टङ्कोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभाव एकात्मद्रव्यस्वभाव है, अतः ज्ञायकस्वभाव ही प्रात्माका स्वरूप है । (६) रागरसरिक्त होनेसे ज्ञानीकी क्रिया परिग्रहभावको प्राप्त नहीं है जैसे कि अकषायित (लोध फिट. करीसे नहीं भोगे) वस्त्रमें रंगका योग बाहर ही रहता भोसर पक्का नहीं होता । (७) ज्ञानी स्वरसन: समस्त रागसे निराला रहनेके स्वभाव वाला है, अतः वह कर्ममें पड़कर भी कोंसे लिप्त नहीं होता । (८) स्वसम्वेदन ज्ञान का प्रभाव होनेसे अज्ञानी इन्द्रियविषयों में रागी होता है, अतः वह कर्मरजसे बँध जाता है । सिद्धान्त- १- रागादि विभाव में राग होना मिथ्यात्व है । २- शाश्वत ज्ञानस्वभाव का स्वसम्वेदन होनेसे शानी विभावोंका मात्र साक्षी है । दृष्टि-१- प्रशुदनिश्चयनय (४७) । २- अकतनय व अभोक्तुनय (१९०-१९२) । प्रयोग--विकारोंको नैमित्तिक भाव जानकर उनसे उपेक्षा करके शायकस्वभावमात्र अन्तस्तत्त्वको निरखकर सहज तृप्त रहनेका पौरुष करना ॥ २१७ ।। ____ अब पूर्व गाथोक्त अर्थका दृष्टान्तपूर्वक व्याख्यान करते है--[ज्ञानी] भानी [सर्षद्रव्येषु] समस्त द्रव्योंमें [रागप्रहायकः] रागका त्यागने वाला है अतः वह कर्ममध्यगतः तु] कर्मके मध्यमें प्राप्त हुमा भी [रजसा] कर्मरूपी रजसे [तो लिप्यते] लिप्त नहीं होता [यया] जैसे कि [कर्दममध्ये] कीचड़में पड़ा हुआ [कनकं] सोना । [तु पुनः] किन्तु फिर [प्रज्ञानो] अज्ञानी [सर्वदध्येषु] समस्त द्रव्योंमें [रक्तः] रागी है, अतः [कर्ममध्यगतः] कोंके मध्य में प्राप्त हुमा Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ समयसार णाणी रागप्पजहो सब्बदब्वेसु कम्ममझगदो। णो लिप्पदि रजएण दु कदममज्झे जहा कायं ॥२१८॥ अण्णााणी पुण रत्तो सम्बदब्बेसु कम्ममज्भगदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ॥२१६॥ (युग्मम) सब च्योंमें ज्ञानी, रागप्रमोचन स्वभाव वाला है।। कर्ममध्यगत रजसे, लिप्त न ज्यों कीचमें सोना ॥२१॥ किन्तु प्रजातसेवी, मब हुदों में पास रहता हो। कर्ममध्यगत सबसे, लिप्त यया कोचमें लोहा ॥२१॥ शामी रागप्रहायः सर्वद्रव्येषु कर्ममध्यगतः । नो लिप्यते रजसा तु कर्दममध्ये यथा कनकं ॥२१८।। अज्ञानी पुना रक्तः सर्वद्रव्येषु कर्ममध्यगतः । लिप्यते कर्मरजसा तु कर्दममध्ये यथा लोहं ॥२१६॥ ___यथा खलु कनकं कर्दममध्यगतमपि कर्दमेन न लिप्यते तदलेपस्वभावत्वात् । तथा किल ज्ञानी कर्ममध्यगतोऽपि कर्मणा न लिप्यते सर्वपरद्रव्यकृतरागत्यागशीलत्वे सति तदलेपस्वभाव. नामसंज-णाणि, रागप्पजह, सत्यदव्य, कम्ममझगद, णो, रजय, दु, कद्दममझ, जहा, कणय, अण्णाणि, पुण, रक्त, सन्चदम्ब, कम्मझगद, कम्मरय, दु, कदममज्झ, जहा, लोह । धातुसंज्ञ-जहा त्यागे, लिप लेपने । प्रातिपदिक-ज्ञानिन्, रागप्रहाय, सर्वद्रव्य, कर्ममध्यगत, नो, रजस्, तु, कर्दममध्य, यथा, कनक, अज्ञानिन्, पुनर्, रक्त, सर्वध्य, कर्ममध्यगत, कर्मरजस्, तु, कर्दममध्य, यया, लोह । मूलधातु-. ओहाक त्यागे जुहोत्यादि, लिप उपदेहे तुदादि । पदविवरण–णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । रागप्पजहो [कर्मरजसा] कर्मरजसे [लिप्यते] लिप्त होता है [यथा] जैसे कि [कममध्ये] कीचमें पड़ा हुप्रा [लोहं] लोहा। तात्पर्य-अज्ञानी रागी होनेसे बैंधता है, ज्ञानी विरक्त होनेसे नहीं बँधता । टोकार्थ-..जैसे निश्चयसे सुवर्ण कीचड़के बीच में पड़ा हुआ भी कीचड़से लिप्त नहीं होता, क्योंकि सुवर्णका स्वभाव कर्दमसे न लिपनेके स्वभाव वाला ही है; उसी प्रकार वास्तव में शानी कर्मके बोचमें पड़ा हुमा भी कर्मसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि ज्ञानी सब परद्रव्यगतरागके त्यांगके स्वभावपनेके होनेके कारण कमसे अलिप्तस्वभावी है । तथा जैसे लोहा कर्दमके मध्य पड़ा हुआ कर्दमसे लिप्त हो जाता है, क्योंकि लोहेका स्वभाव कदमसे लिप्त होनेरूप ही है; उसी तरह प्रज्ञानी प्रकटपने कर्मके बीच पड़ा हुआ कर्मसे लिप्त होता है, क्योंकि अज्ञानी सब परद्रव्योंमें किये गये रागका उपादान स्वभाव होनेसे कर्ममें लिप्त होनेके स्वभाव वाला है। भावार्थ-जैसे कीचड़ में पड़े हुए सुवर्णके काई मैल जंग नहीं लगता, पोर लोहेके काई Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ३६५ स्वात् ज्ञान्येव । यथा लोहं कर्दममध्यगतं सत्कर्दमेन लिप्यते तल्लेपस्वभावत्वात् तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यमतः सन् कर्मणा लिप्यते सर्वपरद्रव्यकृत रागोपादानशीलत्वे सति तल्लेपस्वभावत्वात् ।। याहक तागिहास्ति तस्य वसतो यस्य स्वभावो हि यः कतुनष कथंचनापि हि परैरन्यादृशः रागप्रहायः-प्रथमा एक० । सम्बदन्वेसु सर्वद्रव्येषु-सप्तमी बहु० । कम्ममझगदो कर्ममध्यगत:-प्र० ए०। णो नो-अव्यय । लिप्पदि लिप्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० भावकर्मवाच्य क्रिया । रजएण रजसातृतीया एक० । दु तु-अव्यय । कद्दममज्झे कर्दममध्ये-सप्तमी एक०। जहा यथा-अध्यय । कणयं कनकप्रथमा एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एकवचन । पुण पुन:-अव्यय । रत्तो रक्त:-प्रथमा एक ० । सव्व जंग लग जाता है उसी प्रकार ज्ञानी कर्मके मध्यगत है तो भी वह कर्मसे नहीं बँधता । और प्रज्ञानी कर्मसे बंध जाता है । अब इस प्रर्थका और भी स्पष्टीकरण कलशमें कहते हैं-याहक इत्यादि । अर्थ-इस लोकमें निश्चयतः जिस वस्तुका जैसा स्वभाव है उसका वह स्वभाव वैसे ही स्वाधीनपनेसे है । सो वह स्वभाव अन्य किसी के द्वारा अन्य सरीखा कभी नहीं किया जा सकता । अतः झान निरन्तर ज्ञानस्वरूप ही होता है शान कभी प्रज्ञान नहीं होता यह निश्चय है । इस कारण हे ज्ञानी ! तू कर्मोदयजनित उपभोगको भोग, परके अपराधसे उत्पन्न हुआ बंध यहाँ तेरे नहीं है । भावार्थ--वस्तुस्वभावको मेटनेके लिये कोई समर्थ नहीं है वस्तुस्वभाव वस्तुके अपने ही प्राचीन है, इस कारण ज्ञान हुए बाद उसे अज्ञानरूप करनेको कोई समर्थ नहीं है। इसी कारण ज्ञानीसे कहा गया है कि परके किये अपराधसे बंध तेरे नहीं है । उपभोग भोगनेसे बंध की शंका करेगा तो परदन्यसे बुरा होता है ऐसा मिथ्या माननेका प्रसंग पायेगा । वास्तवमें बंध अपने अपराधसे होता है । इस तरह स्वेच्छाचारिता मिटानेका व परद्रव्य से बुरा होता है ऐसो शंका मिटानेका उपदेश किया है। स्वेच्छाचारी व मिथ्याबुद्धि होना अज्ञानभाव है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानोके अध्यवसानोदयोंमें राग उत्पन्न नहीं होता । अब इन दो गाथाम्रोंमें सोदाहरण बतलाया है कि इसी कारण ज्ञानी कर्ममें पड़कर भी कर्मरजसे लिप्त नहीं होता, किन्तु अज्ञानी अध्यक्सानोदयोंमें राग होनेसे कर्मरजसे लिप्त हो जाता। तथ्यप्रकाश-१- निजको निज परको पर जान लेनेसे ज्ञानीको किसी भी परद्रव्यमें राग नहीं रहता। २- सर्व परद्रव्योंसे राग निवृत्त होनेका शील होनेसे ज्ञानी कर्मसे प्रलिप्त है। ३- ज्ञानीका कर्मविपाकवश कर्ममें पड़कर भी कर्मसे न लिपनेका स्वभाव है जैसे कि सुवर्णका कर्दममें पड़कर भी कर्दमसे न लिपनेका स्वभाव है । ४- अज्ञानी कर्ममें व कमरस में Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ..-.- -.- ---. शक्यते । अज्ञानं न कदाचनापि हि भवेत् ज्ञानं भवत्संततं जानिन् मुंव परापराधजनितो नास्तीह बंधस्तव ।।१५०॥ ॥ २१८-२१६ ।।। दव्येसु सर्वद्रव्येषु-सप्तमी बहु० । कम्ममझगदो कर्ममध्यगतः-प्र० एक। लिप्पांद लिप्यते--वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन । कम्मरएण कर्मरजसा-तृतीया एक० । दुतु-अव्यय । कद्दममझे कर्दममध्येसप्तमी एफ० । जहा यथा-अव्यय । लोहं-प्रथमा एकवचन ।। २१८-२१६ ।। राजी होनेके कारण कर्मसे लिपनेके स्वभाव वाला है जैसे कि कर्दममे पड़ा हुप्रा लोहा कर्दमसे लिपनेके स्वभाव वाला है । (५) जीवका बन्धन प्रज्ञानके कारण होता है बाह्य वस्तुके उपभोगके कारण नहीं। सिद्धान्त ---(१) एक द्रव्यके द्वारा दूसरा द्रव्य परिण माया नहीं जा सकता । (२) द्रव्य स्वयंके परिणमनके द्वारा स्वयंको परिणति क्रियासे स्वयंमें परिणमता है। दृष्टि- १- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६)। २- कारककारकिभेदक शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय (७३)। प्रयोग-स्वभाव व परभावमें अभेदबुद्धि न होकर स्वभावमें उपयुक्त होनेपर कर्मलेप नहीं होता है ऐसे निर्णयके बलसे स्वभावके अभिमुख रहनेका पौरुष करना ।। २१८-२१६ ॥ अब पूर्व गाथाके अर्थको दृष्टान्त द्वारा दृढ़ करते हैं—[विविधानि] अनेक प्रकारके [सचिसाचित्तमिश्रितानि] सचित्त अचित्त और मिश्रित द्रिश्यारिणी द्रव्योंको [भुजानस्यापि] भक्षण करते हुए भी [शंखस्य शंखका [श्वेतभावः] सफेदपना [कृष्णकः कतु] काला किया जानेके लिये [नापि शक्यते] रंच भी शक्य नहीं [लथा] उसी तरह [विविधानि] अनेक प्रकारके [सचिसाचित्तमिश्रितानि सनित्त अचित्त और मिश्रित [द्रव्यारिण] द्रव्योंको [भुजानस्यापि] भोगते हुए भी [ज्ञानिनः] ज्ञानीका [ज्ञानं अपि] ज्ञान भी [अज्ञानतां नेतुन शक्यं] अज्ञानपनेको किया जाना शक्य नहीं है । और जैसे [स एवं शंखः] वहो शंख [यदा] जिस समय [तकं श्वेतस्वभावं] अपने उस श्वेतस्वभावको [प्रहाय] छोडकर कृष्णभावं] कृष्णभावको [गच्छत् प्राप्त होवे [तवा] तब [शुक्लत्वं] सफेदपनको [प्रजात्] छोड़ देता है [तथा] उसी तरह [जानी अपि] शानी भी खिलु यवा] निश्चयसे जब [तकं ज्ञानस्वभावं] अपने उस ज्ञानस्वभावको [प्रहाय] छोड़कर [अज्ञानेन परिणतः] अज्ञानरूपसे परिणत होवे [तदा] उस समय [अज्ञानता] प्रज्ञानपनेको [गच्छेत्] प्राप्त होता है । तात्पर्य-मानी किसी भी परद्रव्यके द्वारा प्रज्ञानरूप नहीं हो सकता है । टीकार्थ-जैसे परद्रव्यको भक्षण करते हुए भी शंखका श्वेतपन परद्रव्य के द्वारा काला Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार भुजंतम्सवि विविहे सच्चित्ताचित्तमिस्सिये दव्वे । मुखस्स सेदभावो णवि सक्कदि किएणगो काउं ॥२२०॥ तह णाणिस्स वि विविहे सच्चित्ताचितमिस्सिए दब्वे । भुजंतस्सवि णाणं ण सक्कमणगाणदं णेदु ॥२२१॥ जइया स एव संखो सेदसहावं तयं पजहिदूण । गच्छेज्ज किण्हभावं तइया सुक्कत्तणं पजहे ॥२२२॥ तह णाणी वि हु जइया गाणसहावं तयं पजहिऊण । अण्णाोण परिणदो तइया अण्णाणदं गच्छे ॥२२३॥ मिश्र सचित्त प्रचित्त हि, नाना भोगोंको भोगते भी तो। शंखका श्वेतरूपक, किया नहीं जा सके काला ॥२२०॥ ज्यौं भोक्ता मी नाना, सजीव निर्जीव मिश्र द्रव्योंका। ज्ञानीका ज्ञान कहीं, मावान किया न गा सकता !" २२१॥ जब ही वह शंख कभी, उस श्वेत स्वभावको छोड़ करके । पाचे कालापनको, तब ही शुक्लत्वको तजता ॥२२२॥ त्यौं ज्ञानी भी जब ही, अपने उस ज्ञानभावको तसकर । हो प्रज्ञानविपरिपत, तब ही प्रज्ञानको पाता ।।२२३॥ नामसंज- भुंजत, वि, विविह, सच्चित्ताचितमिस्सिय, दव, संख, सेदभाव, ण, वि, किण्णग, तह, णाणि, वि, विविह, सच्चित्ताचित्तमिस्सिय, दव, भुंजत, वि, गाण, ण, सक्क, अण्णाणद, जइया, स, एव, किया जानेके लिये शक्य नहीं है, क्योंकि परमें परभावस्वरूप करनेका निमित्तपना नहीं होता। उसी तरह परद्रव्यको भोगते हुए भी ज्ञानीका ज्ञान परके द्वारा अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता, क्योंकि दूसरेमें परभावस्वरूप करनेका निमित्तपना नहीं है । इस कारण ज्ञानीके परापराधनिमित्तक बंध नहीं है । और जिस समय वही शंख परद्रव्यको भोगता हो अथबा न भोगता हो, परन्तु अपने श्वेतपनेको छोड़कर स्वयमेव कृष्णभाव स्वरूप परिणमता है उस समय इस शंखका श्वेतभाव अपने द्वारा ही किया गया कृष्णभाव स्वरूप होता है, उसी तरह वही ज्ञानी परद्रव्यको भोगता हो अथवा न भोगता हो, परन्तु जिस समय अपने ज्ञानको छोड़ स्वयमेव प्रज्ञानसे परिणमन करे उस समय इसका ज्ञान अपना ही किया प्रज्ञानरूप होता है। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार भुंजानस्यापि विविधानि चित्ताचित्तमिश्रितानि द्रव्याणि । शंखस्य श्वेतभावो नापि शक्यते कृष्णकः कतु। तथा शानिनोऽजप सचित्तचित्तामा तानि द्रव्याणि । भुंजानरयापि ज्ञानं न शक्यमझानतां नेतु ॥२२॥ यदा म एवं शंखः श्वेतस्वभावं तक प्रहाय । गच्छेत् कृष्णभावं तदा शुक्लत्वं प्रजह्यात् ।।२२२।। तथा ज्ञान्यपि खलु यदा ज्ञानस्वभावं तक प्रहाय । अज्ञानेन परिणतस्तदा अज्ञानतां गच्छेत् ।।२२३।। यथा खलु शंखरूप परद्रव्यमुप जानस्यापि न परेण श्वेतभावः कृष्णीकर्तुं शक्येत पर. स्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः । तथा किल ज्ञानिनः परद्रव्यमुप जानस्यापि न परे। ज्ञानमज्ञानं कतु शक्येत परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपरत्तेः । ततो ज्ञानिनः परापराधनिमितो नास्ति बंधः । यथा च यदा स एव शंखः परद्रव्यमुप जानोऽनुप जानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते तदास्य श्वेतभाव: स्वयंकृतः कृष्णभाव: स्यात् । तथा यदा स संख, सेदसहाव, तय, किण्हभाव, तइया, सुक्कत्तण, तह, गाणि, वि, हु, जइया, गाणसहाव, तय, अण्णाण, परिणद, तइया, अण्णाणद । धातुसंज्ञ भुज भक्षरणे भोगे च, सक्क सामर्थ्य, कर करणे, ने प्रापरणे, प-जहा त्यागे, गच्छ गतौ । प्रातिपदिक-मुंजान, अपि, विविध, सचित्ताचित्तमिश्रित, द्रव्य, शंख, श्वेतभाव, न, अपि, कृष्णक, तथा, शानिन्, अपि, विविध, सचित्ताचितमिश्रित, द्रव्य, भुंजान, अपि, ज्ञान, न, शक्य, इस कारण ज्ञानीके परका किया बन्ध नहीं है अाप हो अज्ञानी बने तब अपने अपराधके कारण से बंध होता है । भावार्थ-जैसे शंख सफेद है वह काले पदार्थको भक्षण करे तो भी काला नहीं होता, जब स्वयं ही कालिमारूप परिणमे तब काला होता है उसी प्रकार ज्ञानी उपभोग करता हुमा भी प्रज्ञानरूप नहीं होता जब वह स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमन करे तब अज्ञानी होता है, तभी प्रज्ञानके कारण बंध करता है। अब इस तथ्यको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-ज्ञानिन् इत्यादि । अर्थ-हे ज्ञानी ! तुझे कुछ भी कर्म करनेके लिये उचित नहीं है तो भी यदि यह कहा जा रहा है कि परद्रव्य मेरा कभी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूं सो यह बड़े खेदकी बात है कि जो तेरा नहीं उसको तू भोगता है सो तू खोटा खाने वाला है.। यदि तू कहे कि परद्रव्यके उपभोगसे बंध नहीं होता ऐसा सिद्धान्तमें कहा इसलिये भोगता है, तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है ? तू ज्ञानरूप हुग्रा अपने स्वरूप में निवास कर तो बंध नहीं है अन्यथा याने यदि भोगने की इच्छा करेगा तो तू निश्चित अपने अपराधसे बन्धको प्राप्त होगा। मावार्थ-परद्रव्यके भोगने वालेको तो लोकमें चोर अन्यायी कहते हैं। सिद्धान्तमें जो उपभोगसे बंध नहीं कहा है वह ऐसे है कि ज्ञानी यदि इच्छाके बिना परकी बरजोरीसे उदयमें प्रायेको भोगे तो उसके बंध नहीं कहा और जो इच्छासे भोगेगा तो पाप स्वयं अपराधी हुआ, तब बंध क्यों न होगा ? अब इसी अर्थका दृढ़ीकरण काव्यमें करते हैं--कर्तारं इत्यादि । अर्थ--कर्म अपने Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुजानोऽनुपभुजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमेत तदास्य ज्ञानं स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनः स्वापराधनिमित्तो बंधः ।। ज्ञानिन् कर्म न जातु कतु मुचितं किंचित्तथाप्युच्यते भुंक्ष्ये हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः । बंध: स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते ज्ञान सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्थापराधाद्ध्वं । अज्ञानता, यदा, तत्, एव, शंख, श्वेतस्वभाव, तक, कृष्णभाव, तदा, शुक्लत्व, तथा, ज्ञानिन्, अपि, खलु, यदा, ज्ञानस्वभाव, तक, अज्ञान, परिणत, तदा, अज्ञानता । मूलषात भुज-भोगे रुधादि, शक सामर्थ्य दिवादि, डुकृञ् करणे, णित्र प्रापणे तुदादि, प्र-ओहाक त्यागे जुहोत्यादि, गम्लु गतौ । पदविवरण- भुजतस्स भुजानस्य-षष्ठी एक० । वि अपि-अव्यय । विविहे विविधान्-द्वि० बहु० । सच्चित्ताचित्तमिस्सिए सचित्ताचित्तमिश्रितानि-द्वितीया बहु० । दवे द्रव्याणि-द्वितीया बहु० । संखस्य शंखस्य-षष्ठी एक० । करने वाले कर्ताको अपने फलके साथ जबरदस्तीसे तो लगता ही नहीं कि मेरे फलको तू भोग । कर्मफलका इच्छुक ही कर्मको करसा हुआ उस कर्मके फलको पाता है। इस कारण जो जीव उपयोगमें ज्ञानरूप हुमा, तथा जिसकी रागको रचना कर्ममें दूर हो गई है ऐसा मुनि कर्मके फलका परित्यागरूप एक स्वभाव होनेसे कर्मको करता हुमा भी कर्मसे नहीं बंधता भावार्थ-कर्म तो कर्ताको जबरदस्तीसे अपने फलके साथ जोड़ता ही नहीं, परंतु जो कर्मको करता हुआ उसके फलकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है। इस कारण जो ज्ञानी ज्ञानरूप होता हुमा कर्मफलपरित्यागरूप भावनासहित होकर कर्मके करनेमें राग न करे तथा उसके फल की आगामी इच्छा न करे वह मुनि कर्मोंसे नहीं बंधता । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्वकी दो गाथावोंमें बताया गया था कि परद्रव्यमें राग न करने वाला कर्मसे लिप्त नहीं होता और परद्रध्यमें राग करने वाला कर्मसे लिप्त हो जाता है । उसी विषय में यहाँ यह बताया गया है कि ऐसा रागमूल अज्ञानपना उपभोगसे नहीं होता किन्तु ज्ञानस्वभावको तजकर अज्ञान परिणमन करनेसे होता है। तथ्यप्रकाश-१-उपभोग्य परद्रव्य जीवका प्रज्ञानपना नहीं कर सकता। २-वियोगबुद्धिसे करना पड़ रहा उपभोग अज्ञानपना नहीं कर सकता। ३.शंखकीट द्वारा खाई जाने वाली मिट्टी श्वेत शंखदेहको काला नहीं कर सकती। -चारित्रमोहविपाकवश करना पड़ रहा उपभोग ज्ञानोको अज्ञानमय नहीं बना सकता । ५-भेदविज्ञान खो देनेपर विकारके लगाव के कारण प्रात्मा ज्ञानको छोड़कर प्रज्ञानरूपं परिणम जाता है। ६-भोगनेकी इच्छा होनेपर ___ "परद्रव्यके उपयोगसे बंध नहीं होता' ऐसी गप्प झाड़नेसे बन्ध नहीं रुकता है। सिद्धान्त-१-कोई द्रव्य अन्यके भावका कर्ता नहीं होता । २-ज्ञानभावको छोड़कर जीव स्वयं ही अज्ञानरूप परिणामता है । Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्वमेव नो योजयेत्. कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कमरणः । ज्ञान संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा, कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः ।। १५२।। ।। २२०-२२३ ।। सेदभाबो श्वेतभात्र---प्रथमा एक । ण न-अन्य ! बि अपि-अव्यय । सक्कदि शक्यते-वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मवाच्य क्रिया । किण्हगो कृष्णक:-प्रथमा एक० ! काउं कर्तु-कृदन्त प्रयोजनार्थे । तह तथा-अव्यय । गाणिस्स ज्ञानिनः-षष्ठी एक० । वि अपि-अव्यय । सच्चित्ताचिमिस्सिए सचित्ताचित्तमिश्रितानि-द्वि० बहु० । दब्बे द्रव्याणि-द्वितीया बहु० । भुंजतस्स भुजानस्य-षष्ठी एक० । वि अपिअव्यय । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक | ण न-अव्यय । सवकं शक्य-प्रथमा एक० । अण्णाणदं अज्ञानतां-द्वि० एकः। रगद नेतं कृदन्त प्रयोजनार्थ । जइया यदा-अन्यय । स स:-प्रथमा एक० ! एव-अध्यय । संखो शख:-प्रथमा एकवचन । सेद सहावं श्वेतस्वभाव-द्वितीया एक० । तयं तक-द्वितीया एकवचन । पहिण प्रहाय-असमाप्तिकी क्रिया । गच्छेन्ज गच्छेत्-विधिलिङ, अन्य पुरुष एकवचन । किण्हभावं कृष्ण भावंद्वितीया एकवचन । तइया तदा-अश्यय । सुक्कत्तणं शुक्लत्व-द्वि० ए० । पजहे प्रजह्यात्-लिह अन्य पुरुष एक क्रिया । तह तथा-अव्यय । णाणी ज्ञानी-प्र० ए० । णाणसहावं ज्ञानस्वभाव-वि० ए० । तयं तक-द्विक ए । पहिण प्रहाय-अव्यय । अण्णाणेण अज्ञानेन-तृ० ए० । परिणदो परिणत:-प्र० ए० । तइया तदाअव्यय । अण्णाणदं अज्ञानतां-द्वि ए० । गच्छेज्ज गच्छेत्-लिङ अन्य पुरुष एकवचन ।।२२०-२२३।।। दृष्टि-१-प्रकर्तृत्वनय (१६०)। २-अशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग-वस्तुतः परद्रव्य का उपभोग किया ही नहीं जा सकता, मात्र मिथ्या विकल्प ही भोगा जा पाता यह तथ्य जानकर भोगनेको इच्छा छोड़कर जानानुभूतिका झानरूप पौरुष करना । २२०-२२३॥ अब पूर्वोक्त गाथार्थको दृष्टांतसे दृढ़ करते हैं:- [यथा] जैसे [इह] इस लोक में [कोपि पुरुषः] कोई पुरुष [वृतिनिमित्तं तु] आजीविकाके लिये [राजानं] राजाको [सेवते] सेवता है [तत्] तो [स राजापि] वह राजा भी उसको [सुखोत्पावकान] सुखके उपजाने वाले [विविधान्] अनेक प्रकारके [भोगान् ] भोगोंको [ददाति] देता है [एवमेव] इसी तरह [जीवपुरुषः] जीव नामक पुरुष [सुखनिमित्तं] सुखके लिये [कर्मरजः] कर्मरूपी रजको [सेयते] सेवता है [तत्] तो [सत्कर्म अपि] वह कर्म भी उसे [सुखोस्पादकान्] सुखके उपजाने वाले [विविधान् भोगान्] अनेक प्रकारके भोगोंको [ददाति] देता है [पुनः] पोर [यथा] जैसे [स एम पुरुषः] वही पुरुष [वृत्तिनिमित्तं] आजीविकाके लिये [राजानं] राजा को [न सेक्ते] नहीं सेवता है [नत/ तो [स राजा अपि] वह राजा भी उसे [सुखोत्पादकान] सुखके उपजाने वाले [विविधार] अनेक प्रकारके [भोगान] भोगोंको न ददाति नहीं देता है [एवमेव] इसी तरह [सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दृष्टि [विषयार्थ] विषयोंके लिये [कर्मरजः] कर्म Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ निर्जराधिकार पुरिसों जह कोवि इह वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं । तो सोवि देदि राया विविहे भोए सुहुप्पाए ॥२२४॥ एमेव जीवपुरिसो कम्मरयं सेवदे सुहणिमित्तं । तो सोबि देइ कम्मो विविहे भोए सुहुप्पाए ॥२२५।। जह पुण सो चिय पुरिसो वित्तिणिमित्तं ण सेवदे रायं । तो सो ण देइ राया विविहे भोए सुहुप्पाए ॥२२६॥ एमेव सम्मदिट्टी विसयत्थं सेवए ण कम्मरयं । तो सो ण देइ कम्मो विविहे भोए सुहुप्पाए ॥२२७॥ (चतुष्कम् ) ___ जैसे यह कोई पुरुष, वृत्तिनिर्मित सेविताहि भूपतिको । तो वह राजा इसको, सुखकारी भोग देता है ॥२२४।। वैसे यह जीव पुरुष, सुखनिमित्त कर्म धूल सेता है। तो यह कर्म भि नाना, सुखकारी भोग देता है ॥२२५॥ जैसे वही पुरुष जब, वृत्तिनिमित्त नहि सेवता नृपको । तो यह राजा भि नहीं, सुखकारी भोग देता है ॥२२६॥ त्यों ही सम्यग्दृष्टी, विषयनिमित कर्म धूल नहि सेता। तो वह कर्म भी नहीं, सुखकारी भोग देता है ॥२२७॥ नामसंज्ञ-पूरिस, जह, क, वि, इह, वित्तिणिमित्त, तु, राय, तो, त, वि, राय, विविह, भोअ, सुहुप्पाद, एमेव, जीवपुरिस, कम्मरय, सुहणिमित्त, तो, त, वि, कम्म, विविह, भोअ, सुहप्पाद, एमेव, सम्मदिट्टि, विसयत्थं, ण, कम्मरय, तो, त, ण, कम्म, विविह, भोअ, सुहुप्पाद । धातुसंज-सेव सेवायां, दद दाने । प्रातिपदिक - पुरुष, यथा, किम्, अपि, इह, वृत्तिनिमित्त, तु, राजन्, तत्, तत्, अपि, राजन्, विविध, रूपो रजको [न सेवते] नहीं सेवता [तत्] तो तत्कर्म अपि] वह कर्म भी उसे [सुखोत्पाकात्] सुखके उपजाने बाले [विविधान् भोगान्] अनेक प्रकारके भोगोंको [न ददाति नहीं देता । तात्पर्य-कर्मफलको इच्छासे कर्मसेवन करनेवालेको नवीन बद्ध कर्म प्रागे भी सुख दुःखादि फल देता है और कर्मफलकी इच्छासे कर्मसेवन करनेवालेको कर्मफल नहीं मिलता। टोकार्थ-- जैसे कोई पुरुष फलके लिये राजाको सेवा करता है तो वह कर्म उसे फल _देता है। मौर जैसे वही पुरुष फलके लिये राजाकी सेवा नहीं करता तो राजा भो उसको Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ समयसार 1 पुरुषो यथा कोपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानं । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् । एवमेव जीवपुरुषः कर्मराजः सेवते सुखनिमित्तं । तत्तदपि ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् । यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानं । तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखो० । एवमेव सम्यग्दृष्टिर्वियार्थ सेवते न कर्मरजः । तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् । यथा कश्चित्पुरुषः फलार्थं राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति । तथा जीवः फलार्थं कर्म सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति । यथा च स एव पुरुषः फलार्थं राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति । तथा सम्यग्दृष्टिः फलार्थं कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्य । तं न फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो भोग सुखोत्पादक, एवं, एव, जीवपुरुष, कर्मरजस्, सुखनिमित्त तत् तत् अपि कर्मन्, विविध भोग, सुखोत्पादक, यथा, पुनर्, तत् एव पुरुष, वृत्तिनिमित्त, न राजन् तत् तत् अपि न राजन् विविध, भोग, सुखोत्पादक, एवं एवं सम्यग्दृष्टि, विषयार्थ, न, कर्मरजस्, तत् तत् न, कर्मन् विविध, भोग सुखोत्पादक । मूलधातु - सेव सेवायां, हुदान, दाने जुहोत्यादि । पदविवरण - पुरियो पुरुषः - प्रथमा ए० । जह यथा-अव्यय । को कः - प्रथमा एक० । वि अपि - अव्यय । इह - अव्यय । वित्तिणिमित्तं वृत्तिनिमित्तंफल नहीं देता । उसी तरह सम्यग्दृष्टि फलके लिये कर्मको नहीं सेवता तो वह कर्म भी उसको फल नहीं देता, यह कहने का तात्पर्य है । भावार्थ- कोई फलकी इच्छा से कर्म करे तो उसका फल मिलता है इच्छा के बिना कर्म करे तो उसका फल नहीं मिलता । ज्ञानीपर पूर्वकर्मविपाकवश कुछ घटना बने तो भी उससे अलग रहता हुआ ज्ञानस्वभावमें ही रुचि रखता है, अतः न अब वैसा कर्मफल मिला और वैसा कर्मबन्ध न होनेसे श्रागे भी कर्मफल न मिलेगा । अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि जिनको फलकी इच्छा नहीं है, वह कर्म क्यों करेगा इसके समाधानमें काव्य कहते हैं—त्यक्तं इत्यादि । श्रर्थ जिसने कर्मका फल छोड़ दिया है और कर्म करता है यह हम विश्वास नहीं करते परंतु यहाँ इतना विशेष है कि ज्ञानीके भी किसी कारण से कुछ कर्म इसके वश बिना या पड़ते हैं उनके श्रानेपर भी यह ज्ञानी निश्चल परमज्ञानस्वभावमें ठहरता हुआ कुछ कर्म करता है या नहीं करता यह कौन जानता है । भावार्थ- ज्ञानी के परवशतासे कर्म श्रा पड़े हैं, उनके होनेपर भी ज्ञानी ज्ञानसे चलायमान नहीं होता, ऐसे परमज्ञानस्वभावमें स्थित हुआ यह ज्ञानी कर्म करता है कि नहीं यह बात कौन जान सकता है, ज्ञानीकी बात ज्ञानी हो जानता है अज्ञानोका सामर्थ्यं ज्ञानोके परिणामको जाननेका नहीं है । यहाँ शानी कहने से अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊपर के सभी ज्ञानी समझना । उनमें से अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा श्राहार विहार करने वाले मुनियोंकी बाह्यक्रिया प्रवर्तती है तो भी अंतरंग मिथ्यात्व के प्रभावसे तथा यथासंभव कषायके प्रभाव से परिणाम Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ४०३ ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥१५३।। सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कतुं क्षमते परं, यदऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रलोक्यमुक्तावनि । समिव निसर्गनिर्भयतया शंको क्रियाविशेषण । तु-अव्यय । सेवए सेवते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक०। रायं राजान--द्वितीया एकः । तो तत्-अव्यय । अवि अपि-अव्यय । देदि ददाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । राया राजाप्रथमा एकवचन । विविहे विविधान्-द्वितीया बहु० । भोए भोगान-द्वि० बहु० । सुहप्पाए सुखोत्पादकान्द्वि० बहु० । एमेव एवमेव-अव्यय । जीवपुरिसो जीबपुरुष:-प्रथमा एकवचन । कम्मरये कर्मरजः-द्वितीया वसे-वर्तमान लट अन्य परुष एका सहणिमित्तं सखनिमित्तं-यथा स्यात्तथा क्रियाविशेषण। सो सः-प्रथमा एक० । वि अपि--अव्यय । देइ ददाति-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक० । कम्मो कर्म-प्रथमा एक० । विविहे विविधान्-द्वितीया बहु० । भोए भोगान्-द्वितीया बहु । सुहुप्पाए सुखोत्पादकान्-द्वि० उज्ज्वल हैं । उनके उजलापनको ज्ञानी ही जानते हैं मिथ्यादृष्टि उनका उजलापनको नहीं जानता । मिथ्यादृष्टि तो बहिरात्मा है बाहरसे ही भला बुरा मानता है, अंतरात्माकी परिणति को मिध्यादृष्टि क्या जान सकता है ? अब इसी अर्थके समर्थन में ज्ञानीके निःशंकित नामक गुणकी सूचनारूप काव्य कहने हैं- सम्यग्दृष्टयः इत्यादि । अर्थ—ऐसा साहस एक सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है कि जिस भय से तीन लोक अपना भार्ग छोड़ देते याने चलायमान हो गये ऐसे बज्रपातके पड़नेपर भी वे स्वभावसे ही निर्भयपना होनेके कारण सब शंकायोंको छोड़कर जिसका ज्ञानरूपो शरीर किसीसे भी बाधित नहीं हो सकता ऐसे अपने प्रात्माको जानते हुए स्वयं ज्ञानमें प्रवृत्त होते हैं, ज्ञानसे व्युत नहीं होते । भावार्थ-वचपातके पड़नेपर भी ज्ञानी प्रपने स्वरूपको निबांध ज्ञानशरीररूप मानता हुमा ज्ञानसे पलायमान नहीं होता, वह ऐसी शंका नहीं रखता कि इस वज्रपातसे मेरा विनाश हो जायगा । पर्यायका विनाश होवे तो उसका विनाशीक स्वभाव है ही । ज्ञानी तो शुभाशुभ कर्मोदयमें भी ज्ञानरूप परिणमते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गायाचतुष्कर्मे यह सिद्ध किया गया था कि ज्ञानदृष्टि छोड़कर यह जीव खुद प्रज्ञानरूप परिणमता है । अब इस गाथाचतुष्को दृष्टान्तपूर्वक उसी निष्कर्षके समर्थन में कहा गया कि सरागपरिणामसे बंध होता है और वीतरामपरिणामसे मोक्ष होता है । तथ्यप्रकाश-(१) विषयसुम्बके निमित्त कर्मबन्ध करनेवाले प्रज्ञानीको वह बद्धकर्म सुखोत्पादक भोगका निमित्त कारण होता है। (२) शुभकर्मके निमित्त सनिदान शुभकर्मका मनुष्ठान करने वाले जीवको भविष्य में वह पापानुबन्धी पुण्य भोगलाभका निमित्त कारण होता है । (३) उदयागत कर्मफलको उपादेयबुद्धिसे न भोगने वाले..ज्ञानीकों अर्थात् विषय Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- ४०४ समयसार विहाय स्वयं जानतः स्वमबध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यते न हि ॥१५४।। ।। २२४.२२७ ॥ बहु० । जह यथा-अव्यय । पुण पुन:-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । चिय चंव-अव्यय । पुरिसो पुरुष:प्रथमा एक०। वित्तिणिमित्तं वृत्तिनिमित्त-क्रियाविशेषण । ण न-अव्यय । सेवदे सेवते, रायं राजानम्द्वि० एक० । सो स:-प्रथमा एक । ण न-अव्यय । सम्मदिवी सम्यग्दृष्टि:-प्र० ए०। विषयत्थं विषयार्थअव्यय । सेवा सेवते, णन, कम्मर कर्मरज:-दि० एसो सःण न. देव ददाति कामो कर्मविविहे विविधान्, भौए भोगान्, सहप्पाए सुखोत्पादकान्-द्वितीया बहुवचन ।। २२४-२२७ ॥ सुखके लिये नहीं सेवने वाले ज्ञानीको वह कर्म विषयसुखोत्पादक शुद्धात्मभावनाविनाशक रागादिभावोंका कारण नहीं बनता । (४) कर्मफलका परित्याग करने वाले ज्ञानीपर कर्मविपाकवश कुछ परिस्थिति पड़नेपर भी वह तो निष्कंप ज्ञानस्वभाव के ही अभिमुख रहता है । सिद्धान्त-(१) कर्मफलसे विरक्त शुद्धात्मभावनापरिणतके कर्मनिर्जरा होती है। (२) परभावरागसे बंधा कर्म उदयकालमें प्राकुलतारूप परभावोपभोगका निमित्त होता है। दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४३)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)। प्रयोग--भोगोपभोगको आकांक्षारहित होकर शुद्ध अन्तस्तत्त्वका लक्ष्य रखकर भी हो रहे कर्मविपाकका मात्र जाननहार रहनेका पौरुष करना ।। २२४-२२७ ।। अब सम्यग्दृष्टिका निःशंकित अंग कहते हैं-[सम्यग्दृष्टयः जीयाः] सम्यग्दृष्टि जीव [निःशंका भति] निःशंक होते हैं तेन] इसी कारण [निर्भयाः] निर्भय हैं और [यस्माद] चूंकि वे [सप्तभयविप्रमुक्ताः] सप्तभयसे रहित हैं [तस्मात् ] इस कारण [निःशंकाः निःशक तात्पर्य--सम्यग्दृष्टि प्रामस्वरूप में निःशंक होनेसे निर्भय है और निर्भय होनेसे निःशंक है। टोकार्थ--- जिस कारण सम्यग्दृष्टि नित्य ही समस्त कर्मोके फलको अभिलाषासे रहित होते हुए पूर्ण निरपेक्षतासे प्रवर्तन करते हैं इस कारण में अत्यंत निःशंक सुदृढ़ निश्चयी होनेसे अत्यन्त निर्भय होते हैं । अब सप्तभयरहितका कलशकायों में वर्णन होगा उनमें इहलोक तथा परलोक संबंधी दो भयोंका निराकरण कहते हैं--लोक इत्यादि । अर्थ--यह चैतन्यस्वरूप लोक हो विविक्त मात्माका शाश्वत एक और सर्वकालमें प्रगट लोक है, क्योंकि मात्र चैतन्यस्वरूप लोकको यह ज्ञानो प्रात्मा स्वयमेव अकेला अवलोकन करता है। यह चैतन्यलोक ही तेरा है और इससे भिन्न दूसरा कोई लोक याने इहलोक या परलोक तेरा नहीं, ऐसा विचारते हुए ज्ञानीके इह Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०५ নিয়ন্তিকা सम्मादिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिमया तेण। सत्तभयविप्पमुक्ता ब्रह्मा तहा दु गिएम्सका ॥२२८॥ सम्यग्दृष्टी प्रात्मा, होते निःशंक हैं अतः निर्भय । कि ये सप्तमयसे, मुक्त इसीसे निशंक कहा ॥२२॥ सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शंका भवंति निर्भयास्तेन । सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ॥२२॥ येन नित्यमेव सम्यग्दृष्यः सकलकर्मफलनिरभिलाषाः संतः, अत्यंतं कर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते तेन नूनमेते अत्यंतनिश्शंकदारुणाध्यवसायाः संतोऽत्यंतनिर्भयाः संभाव्यते ॥ लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः, चिल्लोक स्वयमेव केवलमयं यं लोकयत्येकक: । लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्धीः कुतो, निशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विदति ॥१५५।। एषकैव हि वेदना यदचल ज्ञानं स्वयं वेद्यते, निर्भदोदितवेद्यवेदकबलादेक सदानाकुलः । ___नामसंश-सम्मादिट्ठि, जीव, णिस्संक, णिन्भय, त, सत्तभयविप्पमुक्क, ज, त, दु, णिस्संक । धातुसंश-जीव प्राणधारणे, णिस्-संक शंकायां । प्रातिपदिक-सम्यग्दृष्टि, जीव, निश्शंक, निर्भय, तत्, सप्तलोक तथा परलोकका भय कैसे हो सकता है ? वह ज्ञानी तो स्वयं निःशंक हुमा हमेशा अपने को सहज ज्ञानस्वरूप अनुभवता है । भावार्थ---इस भवमें प्राजीवन अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं, ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे ऐसी चिन्ता रहना तो इस लोकका भय है और परभवमें न मालूम क्या होगा ऐसा भय रहना परलोकका भय है । किन्तु, ज्ञानी ऐसा जानता है कि मेरा लोक तो चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य है जो सदा प्रगट है । सो मेरा लोक तो किसीका बिगाड़ा हुमा नहीं बिगड़ता । ऐसे विचारता हुमा ज्ञानी अपनेको सहज ज्ञानरूप अनुभवता है, उसके इहलोकका भय व परलोकका भय किस तरह हो सकता है ? कभी नहीं होता। प्रब वेदनाके भयका निराकरण करते हैं-एषकेव इत्यादि । अर्थ-भेदरहित उदित वेद्यवेदकके बलसे एक अचल ज्ञानस्वरूप ही स्वयं निराकुल पुरुषों द्वारा सदा वेदा जाता है, अनुभव किया जाता है । भन्यसे प्राई हुई वेदना ज्ञानीके होती ही नहीं है। इस कारण उस ज्ञानीके वेदनाका भय कैसे हो सकता है ? नहीं होता । यह तो निःशंक हुआ अपने सहज ज्ञानभावका सदा अनुभव करता है । भावार्य-सुख दुःखको भोगनेका नाम वेदना है ज्ञानी तो एक अपने सहज ज्ञानमात्रस्वरूपको भोगता है । वह पुद्गलसे प्राई हुई वेदनाको वेदना हो नहीं जानता, इस कारण अन्य द्वारा प्रागत वेदनाका भय ज्ञानीको नहीं है। वह तो सदा निर्भय हुमा सहज ज्ञानका अनुभव करता है । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्धीः कुतो ज्ञानिनो, निश्शंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विंदति ॥१५६।। यत्सनाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिओनं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रात किमस्यापरैः । अस्यात्राणमतो न किचन भवेत्तद्धोः कुतो ज्ञानिनो, निःशंकः सततं भयविप्रमुक्त, यत्, तत्, तु, निश्शंक । मूलपातु-जीव प्राणघारणे, निस्-शकि शंकायां भ्वादि । पदविव रण-सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टिः-प्रथमा एक० । जीवा जीवाः-प्रथमा एक० । णिस्सका निःशंकाः-प्रथमा अब अरक्षाके भयका निराकरण करते हैं—यत् इत्यादि । अर्थ - जो सत्स्वरूप है वह कभी भी नाशको प्राप्त नहीं होता ऐसी नियमसे वस्तुकी मर्यादा है । यह ज्ञान भी (ज्ञानमय आत्मा भो) स्वयं सत्स्वरूप वस्तु है उसका निश्चयसे दूसरेके द्वारा रक्षण कैसा ? इस प्रकार उम ज्ञानको अरक्षा करने वाला कुछ भी नहीं है इस कारण ज्ञानीके अरक्षाका भय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी तो निःशंक होता हुआ अपने सहज ज्ञानस्वरूपका सदा स्वयं अनुभव करता है । भावार्थ--ज्ञानी ऐसा जानता है कि सत् कभी नष्ट नहीं होता, ज्ञान स्वयं सत्स्वरूप है इस कारण ज्ञान स्वयं ही रक्षित है। ज्ञानीके अरक्षाका भय नहीं। वह तो निःशंक रहता हुमा अपने सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है। अब अगुप्तिभयका निराकरण करते हैं-स्यं रूपं इत्यादि । अर्थ-निश्चयतः दस्तुका निजरूप ही वस्तुको परम गुप्ति है, स्वरूप में अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता । और प्रकृत सहजज्ञान ही पुरुषका स्वरूप है । अतः ज्ञानीके कुछ भी अगुप्ति नहीं है, ज्ञानीको अगुप्तिका भय कैसे हो सकता है ज्ञानी तो निःशक हुआ निरंतर स्वयं सहन अपने ज्ञानभावका सदा अनुभव करता है । भावार्थ-जिसमें किसी चोर प्रादिका प्रवेश नहीं हो सके ऐसे गढ़ दुर्गादिकका नाम गुप्ति है, उसमें यह प्राणी निर्भय होकर रहता है। और जो गुप्त प्रदेश न हो, खुला हुअा हो, वहाँ रहनेसे जीवको भय उत्पन्न होता है। ज्ञानी ऐसा जान चुका है कि जो वस्तुका निज स्वरूप है उसमें दूसरी वस्तुका प्रवेश नहीं हो सकता है यही परमगुति है । प्रात्माका स्वरूप ज्ञान है उसमें किसीका प्रवेश नहीं है । इसलिये ज्ञानीको भय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी तो अपने सहज ज्ञानस्वरूपका निःशंक होकर निरंतर अनुभव करता है । अब मरणभयका निराकरण करते हैं--प्राणो इत्यादि । प्रथ-प्राणों के उच्छेद होने को मरण कहते हैं सो आत्माका प्राण निश्चयतः ज्ञान है, वह स्वयमेव शाश्वत है इसका कभी उच्छेद नहीं हो सकता, इस कारण प्रात्माका मरण नहीं है । तब फिर ज्ञानीके मरण का भय कैसे हो ? शानी तो नि:शंक हुमा निरन्तर प्रपने सहज ज्ञानभावका स्वयं सदा अनुभव करता है । भावार्थ-इंद्रियादिक प्राणोंके विनाशको मरण कहते हैं, प्रात्माके इंद्रियादिक प्राप Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ४०७ स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विदति ॥१५७।। स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुमिः स्वरूपे न य-च्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः । अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेतद्धीः कुतो ज्ञानिनो, निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विदति ॥१५८।। प्राणोच्छेदमुदाहरंति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो, ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नो छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किंचन भवेतद्धीः कुतो ज्ञानिनो, नियम; मतमा सान सा - विंदति ॥१६॥ बहु । होति भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । णिन्भया निर्भया:-प्रथमा बहु । तेण तेन-तृतीया एक० । सत्तभयविप्पमुक्का सप्तभयविप्रमुक्ताः-प्र० बहु० । जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । तम्हा तस्मात्-- परमार्थ स्वरूप नहीं हैं । परमार्थत: प्रात्माका ज्ञान ही प्राण है वह ज्ञान प्राण अविनाशी है, अतः प्रात्माके मरण नहीं। इस कारण ज्ञानीको मरणका भय नहीं है । ज्ञानी तो अपने शानस्वरूपका निःशंक होता हुमा निरंतर स्वयं अनुभव करता है । अब प्राकस्मिक भयका निराकरण करते हैं---एफ इत्यादि । अर्थ-ज्ञान एक है, अनादि है, अनंत है, अचल है, और निश्चयतः स्वतः हो सिद्ध है सो जब तक वह है तब तक सदा वही है, इसमें दूसरेका उदय नहीं है, इस कारण इसमें प्राकस्मिक कुछ भी नहीं है । तव ज्ञानीको प्राकस्मिक भय कैसे हो सकता है। ज्ञानी तो निःशंक हुग्रा निरंतर अपने सहज मानस्वभावका सदा अनुभव करता है। भावार्थ-प्रकस्पात् भयानक पदार्थसे प्राणीके भय उत्पन्न होनेको प्राकस्मिक भय कहते हैं । सो आत्माका ज्ञानस्वरूप अविनाशी, अनादि, अनन्त प्रचल, एक है, इसमें दूसरेका प्रवेश नहीं है, अतः प्रात्मामें नवीन अकस्मात् कुछ नहीं होता। ऐसा ज्ञानी जानता है फिर, उसके अकस्मात् भय कैसे हो ? इस लिये ज्ञानी अपने ज्ञानभाव का निःशंक निरंतर अनुभव करता है इस प्रकार सात भय ज्ञानीके नहीं हैं। अब सम्यग्दृष्टिके निःशंकितादि अंगोंका प्रताप काव्य में कहते हैं-टंकोत्कीर्ण इत्यादि । अर्थ-चंकि टंकोत्कीर्णवत् एकस्वभाव निजरससे व्याप्त ज्ञानसर्वस्वको अनुभवने वाले सम्यग्दृष्टि के निःशंकितादि लक्ष्म समस्त कर्मोका हनन करते हैं, इस कारण फिर भी याने कभी भी सभ्यग्दृष्टिके शंकादिदोषकृत कर्मबन्ध लेशमात्र भी नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मको भोगते हुए उसके निश्चित निर्जरा ही होती है । भावार्थ---पूर्वबद्ध भयादि प्रकृतियोंका अनुभाग प्रतिफलित होता है उसे भोगते हुए भी ज्ञानी के शंकादिकृत बन्ध रंच भी नहीं होता, प्रत्युत निर्जरा ही होती है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें यह प्रसिद्ध किया गया था कि सरागपरिणामसे बंध होता है और वीतराग परिणामसे मोक्ष होता है। अब इस गाथामें बताया है कि । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार एकं ज्ञानमनाद्यनंतमचलं सिद्धं किलेतत्स्वतो, यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः । तम्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्धोः कुतो ज्ञानिनो, निशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विदति ॥ १६ ॥ टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः, सम्यग्दृष्टेयदिह सकलं नंति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाकर्मणो नास्ति बंधः, पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरव ॥१६१॥ ॥ २२८ ।। पंचमी एकवचन । दु तु-अव्यय । निस्संका निश्शंकाः-प्रथमा बहुवचन ।। २२८ ।। फलाकांक्षारहित तत्त्वज्ञ प्रात्मा निःश और निर्भय रहते हैं । तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानी कर्मफलाकांक्षारहित होनेसे कर्मनिरपेक्ष रहते हैं । (२) कर्मनिरपेक्ष रहनेसे ज्ञानोको स्वभावाभिमुख रहनेमे निःशङ्क वृत्ति रहती है । (३) प्रात्मविषयमें अत्यन्त निःशत होनेसे ज्ञानी अत्यन्त निर्भय रहते हैं । (४) निज सहज परमात्मतत्त्वको भावनारूप अमृतके स्वादसे तृप्त सम्यग्दृष्टि वोर उपसर्गमें भी प्रविकार सहजस्वरूपकी लगनको नहीं छोड़ते । (५) सप्तभयरहित होनेसे ज्ञानी शुद्धात्मस्वरूप में निष्कम्प नि:शङ्क होते हए स्वरूपसे च्युत नहीं होते । (६) ज्ञानी सहज स्वयं अमर ज्ञानस्वरूपको ही लोक व पर (उत्कृष्ट) लोक माननेके कारण इहलोक परलोकभयसे रहित होते हैं । (७) वस्तुतः ज्ञानस्वरूप यह निज प्रात्मा ही सदा वेदा जाता है अन्य पदार्थ नहीं, इस निर्णयके कारण ज्ञानी वेदनाभयसे रहित होते हैं। (८) अविनाशो निज सत्त्वको देखकर ज्ञानी प्रवाणभयसे रहित होते. हैं। (8) परप्रवेशरहित सहज गुप्त अन्तस्तत्त्वको निरखकर जानो भगुप्तिभयसे रहित होते हैं । (१०) दर्शनज्ञानमय वास्तविक प्राणकी शाश्वतता निरखकर ज्ञानी मरणभयसे रहित होते हैं । (११) अन्य परिणामसे अत्यन्त विविक्त अचल प्रात्मस्वभावको निरखकर ज्ञानी प्राकस्मिक भयसे रहित होते हैं। सिवान्त--(१) सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध निर्दोष सहजपरमात्मतत्त्वकी पाराधना करते हुए निःशङ्क रहते हैं। दृष्टि-१- उपादानदृष्टि (४६ब)। प्रयोग-निर्दोष सहजसि चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वको प्राराधनाके पौरुषके बलसे नि:शङ्क व निर्भय रहना ॥ २२८॥ अब प्रष्ट अङ्गोंमें से प्रथम निःशङ्कित अङ्गका प्रताप कहते हैं- [यः] जो [चियिता] प्रात्मा [कर्मबंधकरान] कर्मबन्धके हेतुभूत मोहके करने वाले [तान् चतुरोपि पादान] मिथ्यात्वादिभावरूप धारों पादोंको [छिनत्ति] काटता है [सः] वह प्रातमा [निःशंकः सम्यग्दृष्टिः Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ निर्जराधिकार जो चत्तारिवि पाए छिददि ते कम्मबंधमोहकरे । सो हिस्संको चेदा सम्मादिठी मुणेयम्बो ॥२२६॥ विधिबंध मोहकारी, मानव चारों हि छेदते हैं जो। सो निशंक आत्मा है, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२२६।। यश्चतुरोपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबंधमोहकराच । स निश्शंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ॥२२६।। यतो हि सभ्याट, टंकीत्कारकज्ञायक मात्र भयल्वेन कमबंधशकाकरमिथ्यात्वादिभावा. नामसंज्ञ-ज, चउ, वि, पाद, त, कम्मबंधमोड़कर, त, णिस्सक, चेदा, सम्मादिदि, मुररोयच । धातुसंज्ञ. . .च्छिद छेदने, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक-यत्, चतुर, अपि, पाद, तत्, कर्मबन्धमोहकर, तत्, निशंक, चेतयितृ, सम्यग्दृष्टि, ज्ञातव्य । मूलधातु --छिदिर् द्वेधीकरणे रुधादि, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण-जो यः-प्रथमा एकवचन । चत्तारि चतुर:-द्वितीया बहु । वि अपि-अव्यय । पाए पादान-द्वितीया निःशङ्क सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये । __ तात्पर्य--संसारविषवृक्षके मूलभूत मिथ्यात्वादि भावोंका घात करनेसे यह ज्ञानी निःशंक है। टोकार्थ—जिस कारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपनेके कारण कर्मबंध को शंकाको करने वाले मिथ्यात्वादि भावोंका प्रभाव होनेसे निःशंक है, इस कारण इसके शंकाकृत बन्ध नहीं है, किन्तु निर्जरा ही है । भावार्थ---सम्यग्दृष्टिके किसी पदवीमें कर्मका उदय प्राता है किंतु उसका स्वामीपनेके अभावसे वह कर्ता नहीं होता इस कारण भयप्रकृतिका उदय प्रानेपर भी शंकाके अभावसे ज्ञानी स्वरूपसे भ्रष्ट नहीं होता, निःशंक रहता है । प्रतएव इसके शंकाकृत बन्ध नहीं होता, किन्तु कर्मोदय रस खिराकर क्षयको प्राप्त हो जाता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय व निःशंक होते हैं । अब इस गाथामें बताया गया है कि सम्यग्दृष्टिको निःशंकताका कारण यह है कि उसने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व योगरूप विकार भावको ज्ञान द्वारा निज शुद्धस्वरूपसे जुदा कर डाला है । तथ्यप्रकाश---(१) सहजात्मा तो निष्कर्म अन्तस्तत्त्व है, किन्तु मिथ्यात्वादि भाव कर्म करने वाले हैं । (२) सहजात्मा तो निर्मोह अन्तस्तत्त्व है, किन्तु मिथ्यात्वादि भाव मोह करने वाले हैं । (३) सहजात्मा तो निर्बाध सहजानन्दमय परमपदार्थ है, किन्तु मिथ्यात्वादि भाव बाधा करने वाले हैं। (४) शुद्ध अन्तस्तत्त्वमें निःशंक होकर ज्ञानी स्वसम्वेदन ज्ञान खड्गसे मिथ्यात्वादि संसारविषवृक्षमूलोंको काट डालता है। (५) शुद्धात्मशंकाकृत बन्ध Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार भावाग्निश्शंकः, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ॥२२॥ बहु० । छिददि छिनत्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । ते तान्-द्वितीया बहु० । कम्मबंधमोहकरे कर्मबन्धमोहक़रान्-द्वितीया बहु० । सो सः-प्रथमा एकवचन । णिस्संको निःशंक:-प्रथमा एक० । चेदा चेतयिता-प्रथमा एक । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । मुणेयब्बो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २२६ ।। सम्यग्दृष्टिके नहीं है । (६) शुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वमें निःशंक निर्भय निष्कम्प ज्ञानीके पूर्वबद्धकर्मनिर्जरा निश्चित है। सिद्धान्त-(१) निरास्रव शुद्ध अन्तस्तत्त्वको भावना परिणत ज्ञानीके पूर्वबद्ध कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं। दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकनय (२४ब)। प्रयोग-निरासव शुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वमें आत्मत्वको अनुभूतिका पौरुष करना ॥ २२६ ॥ प्रागे निःकांक्षित गुण कहते हैं:- [यः चेतयिता] जो आत्मा [कर्मफलेषु] कर्मोंके फलोंमें [तपा] तथा [सर्वधर्मेषु] समस्त वस्तुधर्मोमें [कांक्षां] वांछा [न तु] नहीं करोति] करता है [सः] वह प्रात्मा [निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः] नि:कांक्ष सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य-किसी भी परभावमें व परद्रव्यमें ज्ञानी इच्छा नहीं करता है अतः वह निःकांक्ष है। ___टोकार्थ-जिस कारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक शायक भावपनेसे सब ही कमौके फलोंमें तथा सभी वस्तुके धर्मों में वांछाके प्रभावसे निर्वाचक है, इस कारण इसके कांक्षा (इच्छा) कृत बंध नहीं है किन्तु निर्जरा ही है। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि के कर्मफलमें तथा सब धर्मों में अर्थात् कांच सोना आदि पदार्यों में निन्दा प्रशंसा प्रादिक वचनरूप पुद्गलके परिणमन में प्रथया एकान्तिवादियों द्वारा माने हुए अनेक प्रकारके सर्वथा एकांतरूप व्यवहार धर्मके भेदोंमें वांछा नहीं है । इस कारण ज्ञानीके वांछाकृत बंध नहीं है । वर्तमानको पोड़ा सही नहीं जानेसे उसके मेटनेके इलाजकी वांछा चारित्रमोहके उदयसे है । सो यह उसका पाप कर्ता नहीं होता, कर्मका उदय जानकर उसका ज्ञाता है । इस कारण ज्ञानीके वांछाकृत बंध नहीं है । प्रसंगविवरण-प्रनन्तरपूर्व गाथामें निःशंकित अङ्गवारी सम्यग्दृष्टिका वर्णन किया ।। अब क्रमप्राप्त इस गाथामें क्रमप्राप्त निकांक्षित अङ्गधारीका वर्णन किया है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ निर्जराधिकार ओ हुमण करेदि कसं कम्मफलेसु तह सव्वधम्मेसु । सो णिक्कंखो चेदा सम्मादिट्ठी मुणेयब्बो ॥२३०॥ जो नहिं करता वाञ्छा, कर्मफलों तया सर्व धर्मोमें । यह नि:कांक्ष पुरुष है, सम्यग्दृष्टो उसे जानो ॥२३०॥ यस्तु न करोति कांक्षा कर्मफलेषु तथा सर्वधर्मेषु । स निष्कांक्षश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ॥२३०॥ यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि कर्मफलेषु सर्वेषु वस्तुधर्मेषु घ कांक्षाभावान्निष्काक्षस्ततोऽस्य कांक्षाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ।।२३०॥ नामसंज्ञ-ज, दु, ण, कंख, कम्मफल, तह, सबधम्म, त, णिक्कख, चेदा, सम्मादिडि, मुणेयव्व । धातुसंज्ञ-कर करणे, कंख वांछायां, मुण ज्ञाने । प्रातिपदिक यत्, तु, न, कांक्षा, कर्मफल, तथा, सर्वधर्म, तत्, निष्कांक्ष, चेतयितृ, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु- डुकृत्र करणे, मन ज्ञाने दिवादि । पद विवरणजो यः-प्रथमा एक० । दुतु-अव्यय । ण न-अव्यय । करेदि करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया । कखं कांक्षां-द्वितीया एकवचन । कम्मफलेसु कर्मफलेषु-सप्तमी बहु० । तह तथा अव्यय । संवधम्मेसु सर्वधर्मेषु-सप्तमी बहु० । सो सः-प्रथमा एकः । णिक्कखो निष्कांक्ष:-प्रथमा एक० । चेदा चेतयिता-प्र० एक० । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एकः । मुणेयवो मन्तव्यः-प्रथमा एकवचन ।।२३०।। तथ्यप्रकाश--१-सहजशुद्धात्मभावनाजन्य परम आनन्दमें तृप्त होनेके कारण सम्यग्दृष्टि कूछ भी इच्छा नहीं करता। २-सम्यग्दृष्टि इन्द्रियविषय सुखरूप कर्मफल में वाञ्छा नहीं करता । ३-सम्यग्दृष्टि समस्त बस्तुधर्मोमें वाञ्छा अनुराग नहीं करता । ४-सम्यग्दृष्टि विषयसुखके कारणभूत पुण्यरूप धर्ममें वाञ्छा नहीं करता। ५-सम्यग्दृष्टि इहलोक परलोककी माकांक्षा नहीं करता । ६-सम्यग्दृष्टि समस्त परसमय प्रणीत कुधर्मोमें वाञ्छा नहीं करता । ए-बिषयसुखवाञ्छाकृत बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं है । ८-अनाकांक्ष सम्यग्दृष्टिके पूर्वबद्धकर्म की निर्जरा निश्चित है। सिद्धान्त--१- एक ज्ञायकभावमयताके कारण ज्ञानीके न तो कांक्षा है और न कांक्षाकृत बन्ध है। दृष्टि-१--प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । प्रयोग---प्रविकार सहजात्मतत्त्वकी भावनासे अनाकांक्ष होकर सहजज्ञानानंदके अनुभवसे तृप्त रहना ॥२३०॥ प्रब निर्विचिकितसा गुण कहते हैं- [यः चेतयिता] जो जीव [सर्वेषामेव] सभी [धर्माणां] वस्तुषोंमें [जुगुप्सां] ग्लानि [न करोति] नहीं करता [सः] वह जीव [खलु] निश्चयसे [निर्विचिकित्सः] विचिकित्सादोषरहित [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार जो ण करेदि जुगुप्पं चेदा सब्वेसिमेव धम्माणं । सो खलु णिबिदिगिच्छो सम्मादिट्टी मुणेयन्वो ॥२३१॥ जो नहिं करे जुगुप्सा, समस्त धर्मों व वस्तुधर्मोमें । है वह निविचिकित्सक, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३१॥ यो न करोति जुगुप्सा चयिता सर्वेषामेव धर्माणां । स खलु निबिचिकित्सः सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ।।२३।। यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीण कज्ञायकभावमयत्वेन सर्वेष्वपि दस्तुधर्मेषु जुगुप्साऽभावानिविचिकित्सः ततोऽस्य विचिकित्साकृतो नास्ति बंधः किंतु निर्जरैव ।।२३।। नामसंज्ञ--ज, ण, जूगुप्प, चेदा, सम्ब. एव, धम्म, त, खलु, णिविदिगिच्छ, सम्मादिदि, मुणेयव्य । धातुसंज्ञकर करणे, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक - यत्, न, जुगुप्सा, चेतायत. सर्व, एत्र, धर्म, तत्, खलु, निर्विचिकित्स, सम्यादृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु--डुकृञ् करणे, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण-जो यःप्रथमा एकवचन । ण न-अव्यय । करेदि करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जुगुणं जुगुप्सा-द्वितीया एक० । चेदा चेतयिता-प्रथमा एक० । सम्बेसि सर्वेषां-षष्ठी बहु० । एव-अध्यय । धम्माण धर्माणां-पष्ठी बहः । सो स:-प्रथमा एक० । खलु-अव्यय । णिबिदिगंछो निर्विचिकित्सः-प्रथमा एकः । सम्मादिट्टी सम्यग्दृष्टि:-प्र० ए० । मुणेयव्यो मन्तव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त ॥ २३१ ॥ ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य-जो क्षुधादि दोषोंमें उद्विग्नता व अशुचि पदार्थों में ग्लानि नहीं करता वह निविचिकित्स सम्यग्दृष्टि है। टीकार्थ-जिस कारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपने से सभी वस्तु धर्मों में जुगुप्साके अभावसे निविचिकित्स याने ग्लानिरहित है इस कारण इसके विचिकित्साकृत बंध नहीं है, किन्तु निर्जरा ही होती है । भावार्थ-सम्यग्दृष्टि क्षुवादि कष्टोंमें उद्विग्नता नहीं करता तथा विष्टा आदि मलिन द्रव्योंमें ग्लानि नहीं करता व जुगुप्सानामक कर्मप्रकृतिके उदय में जो भाव आता है वह परभाव है उसका कर्ता नहीं होता है । इस कारण ज्ञानीके जुगुप्साकृत बंध नहीं है । प्रकृति रस (फल) खिराकर निकल जाती है इस कारण निर्जरा ही है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके नि:कांक्षित अंगका वर्णन किया गया था। अब इस गाथामें क्रमप्राप्त निविचिकित्सित अंगका वर्णन किया गया है । तथ्यप्रकाश-१-सहजशुद्धात्मतत्वकी भावना होनेके कारण सम्यग्दृष्टि समस्त वस्तु. धर्मोंमें ग्लानि, निदा, दोष व द्वेष नहीं करता । २-सम्यग्दृष्टि दुर्गन्धादिकमें खेद नहीं मानता । ३-सम्यग्दृष्टि क्षुधा प्रादि वेदनाओंमें म्लान नहीं होता । ४-सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जनोंकी सेवामें ग्लानि निन्दा, दोष व द्वेष दृष्टि नहीं करता । ५ -- परद्रध्यद्वेषनिमित्तक बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ निर्जराधिकार जो हवइ सम्मूढो चेदा सव्वेसु कम्मभावेसु । सो खलु मूढदिट्ठी सम्मादिट्ठी मुणेयव्व ॥ २३२॥ जो समस्त भावों में मूढ न हो सत्य दृष्टि रखता है । वह है अमूहष्टी, सम्यग्दृष्टी उसे जातो ॥२३२॥ यो भवति असंमूढः चेतयिता सर्वेषु कर्मभावेषु । स खलु अमूढदृष्टिः सम्यग्दृष्टिर्ज्ञातव्यः ॥२३२॥ यतो हि सम्यग्दृष्टिः, टंकोत्कीर्शोक ज्ञायक भावमयत्वेन सर्वेष्वषि भावेषु मोहाभावादमूढ नामसंज्ञ—ज, असम्मूढ, चेदा, सव्व, कम्मभाव, त, खलु, अमृढदिट्टि, सम्मादिट्ठि, मुणेव्व । धातुसंज्ञ - हव सत्तायां, मुण ज्ञाने प्रातिपदिक-यत्, असंमूढ, चेतयितृ, सब्व, कम्मभाव, तत्, अमूढदि सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु-भू सत्तायां, मन ज्ञाने । पदविवरण- जो यः प्रथमा एक० । असम्मूढो है । ६ - वीतद्वेष स्वभावानुरत सम्यग्दृष्टि के पूर्वबद्धकर्मकी निर्जरा निश्चित है । सिद्धान्त - १ - कर्मविपाकज भावोंसे पृथक् ज्ञानमात्र अपनेको निरखनेके कारण ज्ञानी के परभावों से म्लानपना नहीं प्राता । दृष्टि-- १ - शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्यार्थिकनय (२४ब ) । प्रयोग - कर्मोदयज परभावोंसे अपनेको पृथक् ज्ञानमात्र निरखकर परभावोंसे म्लान न होकर ज्ञानस्वभाव में रत होनेका पौष करमा ३१ दृष्टि अंग कहते हैं - [ यः ] जो [ चेदा] श्रात्मा [सर्वेषु ] समस्त [ कर्मभा [ सः ] वह ज्ञानो जीव सम्यग्दृष्टि है [ ज्ञातव्यः ] ऐसा बेसु] शुभाशुभ कर्मभावों में [असंमूढः ] मूढ नहीं [व] होता है [ खलु ] निश्चय से [ श्रमूढहष्टिः ] प्रमूढदृष्टि [सम्यग्दृष्टिः ] जानना चाहिये । तात्पर्य - जो प्रात्मा अनात्मभावों में कभी व्यामुग्ध नहीं होता है वह ज्ञानी प्रभूदृष्टि है । टोकार्थ -- निश्चयसे सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपनेसे सब भावोंमें मोह के प्रभाव से श्रदृष्टि है, इस कारण इसके मूढदृष्टिकृत बंध नहीं है, किन्तु निर्जरा ही है । भावार्थ -- सम्यग्दृष्टि सब पदार्थों का स्वरूप यथार्थ जानता है, उनपर रागद्वेष मोह न होनेसे श्रयार्थं दृष्टि नहीं होती और जो चारित्रमोहके उदयसे इष्टानिष्ट भाव उत्पन्न होते हैं उनको उदयकी बलवत्ता जान उनसे विरक्त रहता उन भावोंका कर्ता नहीं होता एवं सहज ज्ञानमात्र श्रन्तस्तस्व के श्रभिमुख रहता है । इस कारण मूढदृष्टिकृत बंध ज्ञानीके नहीं है, किन्तु निर्जरा ही है याने प्रकृति रस खिराकर क्षीण हो जाती है । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ समयसार दृष्टिः ततोऽस्य मुढदृष्टिकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैब ।।२३२॥ असंमूढः-प्रथमा एक० । चेदा चेतयिता-प्रथमा एक० । सव्वेसु सर्वेषु-सप्तमी बहु० । कम्मभायेषु कर्मभावेषु-सप्तमी बहु० । सो सः-प्रथमा एक० 1 अमूडदिट्ठी अमूढदृष्टि:-प्र० एक०। सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:प्रथमा एक० । मुणयन्वो मन्तव्यः-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया ।। २३२ ॥ प्रसंगविधरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके निविचिकित्सित प्रङ्गका वर्णन किया गया था । अब इस गाथामें अमूढदृष्टि अंगका वर्णन किया गया है । तथ्यप्रकाश-१ सम्यग्दृष्टि निजसहजात्मत्वके श्रद्धान ज्ञान आचरणके बलसे शुभाशुभकर्मजनित परिणामों में निर्मोह रहता है । २-सम्यग्दृष्टि बाह्यविषयोंमें अमूह रहता है। ३-सम्यग्दृष्टि परसमयमें मूढ नहीं है । ४-सम्यग्दृष्टिके मूढताकृत बन्ध नहीं है। सिद्धान्त-१-निश्चयरत्नत्रयभावनाके बलसे जीव परभावोंमें मूढ नहीं होता । दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-कर्मविपाकज समस्त भावोंको प्रात्मस्वरूपसे भिन्न जानकर उनमें सर्वथा प्रसम्मूढ रहना ॥२३२।३ अब उपगूहन गुण कहते हैं-[यः] जो जीव [सिद्धभक्तियुक्तः] सिद्धोंको भक्तिसे युक्त हो [तु] और [सर्वधर्मारणां] औपाधिक सब धर्मोका [उपग्रहनकः] गोपने वाला हो [सः] वह [उपगृहनकारी] उपगृहनकारी [सम्पादृष्टिः] सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये। तात्पर्य जो विकारभावोंको प्रकट न होने दे और प्रात्मशक्तिको बढ़ावे वह ज्ञानी स्थितिकरणपालक है। टीकार्य-सम्यग्दृष्टि निश्चयसे टंकोत्कोणं एक ज्ञायक भावपनेसे समस्त प्रात्मशक्तियोंको बढ़ानेसे उपवंहक होता है, इस कारण इसके जीवशक्तिके दुर्बलपनेसे किया गया बंध नहीं है किंतु निर्जरा ही है। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव प्राश्रयभूत पदार्थका त्यागकर विकार भावोंको प्रकट नहीं होने देता और अन्तःप्रकाशमान निज ज्ञायक भावको ही शानमें रखता है, वह सम्यग्दृष्टि उपगृहक है व उपव॑हक है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके अमूढदृष्टि अंगका वर्णन किया गया पा। अब इस गाथामें क्रमप्राप्त उपगृहन अंगका वर्णन किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-सम्यग्दृष्टि शुद्धात्मभावनारूप पारमार्थिक सिद्धिभक्तिसे युक्त है। २- सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वरागादिविभावधर्मोका प्रच्छादक होता है, विनाशक होता है । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ निर्जराधिकार जो सिद्धभत्तिजुत्तो उवगृहणगो दु सम्बधम्माणं । सो उवगृहणकारी सम्मादिट्ठी मुणेयव्वो ॥२३३॥ जो सिद्धभक्तिप्तत्पर, मसिनभावोंको दूर करता है। वह बुध उपगृहक है, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३३॥ यः सिद्धभक्तियुक्तः उपगृहनकस्तु सर्वधर्माणां । स उपगृहनकारी सम्यग्दृष्टिमन्तव्य: ॥२३३॥ __ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कोणे कशापकभावमयत्येन समस्तामातीनामुपहलापुर बृहकः, ततोऽस्य जीवस्य शक्तिदौर्बल्यकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ।।२३३।। नामसंश-ज, सिद्धत्तिजुत्त, उवगृहणग, दु, सव्वधम्म, त, उघगृहणकारि, सम्मादिदि, मुणेयव्व। धातुसंज्ञ-उप-ग्रह संवरणे, भज सेवायां, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक यत्, सिद्धभक्तियुक्त, उपगृहनक, तु, सर्वधर्म, तत्, उपगूहनकारिन्, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु-उप-गुहू संवरणे भ्वादि, भज सेवायां भ्वादि, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण--- जो यः-प्रथमा एक०। निभत्तिजुत्तो सिद्धभक्तियुक्त:-प्रथमा एक० । उवग्रहणगो उपगृहनक:-प्रथमा एकः । दुतु-अव्यय । । व्वधम्माणं सर्वधर्माणां-षष्ठी बहुवचन । सो स:-प्र० ए० । उवगृहणकारी उपगृहनकारी-प्र० ए० । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । मुणेयच्वो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन ।। २३३ ।। ३-सम्यम्दृष्टि समस्त प्रात्मशक्तियोंकी विकासवृद्धि करने वाला होनेसे उपवृहक है । ४-अनुपगृहनकृत बंध सम्यग्दृष्टिके नहीं होता । ५-सम्यग्दृष्टिके शक्तिदौर्बल्यकृत बंध नहीं है । सिद्धान्त -१-शुद्धात्मभावनाके बलसे सम्यग्दृष्टि विकारभावोंका विनाशक होता है । दृष्टि-१-शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ ब)।। प्रयोग–अविकार सहजसिद्ध चैतन्यस्वरूपके प्रवलंबनके बलसे समस्तविकारभावोंसे अलग रहना ॥२३३॥ अब स्थितिकरण गुण कहते हैं:- [यः] जो जीव [उन्मार्ग गच्छंतं] उन्मार्ग चलते हुए [स्वकं अपि अपनी आत्माको भी [मार्ग] मार्गमें [स्थापयति स्थापित करता है [सः चेतयिता] वह शानी [स्थतिकरणयुक्तः] स्थितिकरणगुणसहित [सम्यग्दृष्टिः] सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये। टीकार्थ-सम्यग्दृष्टि निश्चयसे टकोत्कीर्ण एक ज्ञायकस्वभावमयपनेके कारण सम्यग्दर्शन शान चारित्रस्वरूप मोक्षमार्गसे च्युत हुए अपनेको उसी मार्गमें स्थित करनेसे स्थिति. कारी है । इस कारण इसके मार्गच्यवनकृत बंध नहीं है किन्तु निर्जरा ही है । मावार्थ-जो अपने स्वरूपमय मोक्षमार्गसे चिगे हुएको उसी मार्गमें स्थापन करे वह स्थितिकरणगुणयुक्त है। उसके मार्गसे छूट जानेका बंध नहीं होता, मात्र उदय प्राये हुए कर्म रस खिराकर निर्जीर्ण हो Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार उम्मग्गं गच्छंत सगंपि मग्गे ठवेदि जो चेदा। सो ठिदिकरणाजुत्तो सम्मादिछी मुणेयब्बो ॥२३४॥ उन्मार्ग में पतित निज, परको जो मार्गमें लगाता है । वह मार्गस्थापक है, सम्यग्दृष्टो उसे जानो ।।२३४॥ उन्मार्ग गर्छत स्वकमपि मार्ग स्थापयति यश्चेतयिता। स स्थितिकरणयुक्तः सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ।।२३४॥ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कोएँ कज्ञायकभावमयत्वेन मार्गात्प्रच्युतस्यात्मनो मार्गे एवं स्थितिकरणात स्थितिकारी ततोऽस्य मागच्यवनकृतो नास्ति बंधः कि तु निर्जरैव ॥२३४।। नामसंज्ञ-उम्मग, गच्छंत, सग, पि, मग्ग, ज, चेदा, त, ििदकरणाजुत्त, सम्मादिट्टि, मुणेयव्य । धातुसंज्ञ-गच्छ गती, ठ्य स्थापनायां । प्रातिपदिक-- उन्मार्ग, गच्छत्, स्थक, अपि, मार्ग, यत्, चेतायत, तन, स्थितिकरणयुक्त, सम्यग्दृष्टि, मंतब्य । मूलधातु—गम्ल गती, प्ठा गतिनिवृतो णिजंत । पदविवरणउम्मगं उन्मार्ग-द्वितीया एक० । गच्छत-द्वि० ए० । संगं स्वकं-द्वि० ए० । पि अपि-अध्यय । मग्गे मार्गसप्तमी एक० । वेदि स्थापयति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जो य:-प्रथमा एक० । चेदा चेतग्रिना-प्रथमा एक । मो स:-प्रथमा एक० । ठिदिकरणाजुत्तो स्थितिकरणयुक्तः-प्रथमा एक० । सम्मादिट्ठी सम्बष्टि:-प्र० ए० । मुणेयन्वो मन्तव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ॥ २३४ ।। जाते हैं इसलिये निर्जरा ही है । प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टिके उपगहन अंगका वर्णन किया गया था। अब क्रमप्राप्त स्थितिकरण अंगका इस गाथामें वर्णन किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-कर्मविपाकवश मिथ्यात्वरागादिरूप उन्मार्गमें जानेके अवसरमें स्वयं को सभ्यग्दृष्टि अध्यात्मयोग पौरुषसे रत्नत्रयरूप सन्मार्गमें स्थापित करता है। २-उन्मार्गमें जाते हुए परको सम्यग्दृष्टि सद्वचनादिके सहयोगसे सन्मार्गमें स्थापित करता है। ३--मार्गच्यवन कृत बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं है । सिद्धान्त-१--ज्ञानमयताके कारण ज्ञानी अपनेको शिवमार्गमें स्थित रखता है। दृष्टि -१-कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहारनय (७३) । प्रयोग -अपनेको ज्ञानमात्र निरखते हुए अपने रलत्रयमार्गमें स्थित रहने का उपयोग रखना ।।२३४॥ प्रागे वात्सल्य गुरणको गाथा कहते हैं--[यः] जो जीव [मोक्षमार्गे] मोक्षमार्गमें स्थित [त्रयाणां साधूनां] प्राचार्य उपाध्याय साधुवोंका अथवा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तीनों सम्यग् भावोंका [वत्सलत्वं] वात्सल्य [करोति] करता है [सः] वह [वत्सलभावयुतः] वत्सलभावसहित [सम्यग्दृष्टिः सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये । Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार जो कुणदि बच्छलतं तिण्हं साहूण मोक्खमग्गम्मि । सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठी मुणेयब्वो ॥२३५।। मोक्षपथस्थित तीनों, साधन व साधुवों में रति करता । जो बुध वह है वत्सल, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२३५॥ __ यः करोति वत्सलत्वं त्रयाणां साधूनां मोक्षमार्गे । स वात्सल्यभावयुतः सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ||२३५३॥ यतो हि सम्यग्दृष्टिः टंकोत्कीर्णंकज्ञायकभावमयत्वेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां स्वस्मादभेदबुद्ध या सम्यग्दर्शनान्मार्गवत्सलः, ततोऽस्य मार्गानुपलभकृतो नास्ति बंध: किं तु निरव ॥२३॥ नामसंज्ञ-ज, वच्छलत्त, लि, साहु, मोक्खमग्ग, त, वच्छलभावजुद, सम्मादिद्वि, मुणेयव्व । धातुसंज्ञ-कुण करणे, मग अन्वेषणे । प्रातिपदिक यत्, वत्सलत्व, त्रि, साधु, मोक्षमार्ग, तत्, वात्सल्यभावयुत, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधातु-कृत्र करणे, मग अन्वेषणे चुरादि। पवविवरण-जो यः-प्रथमा एक० । कुणदि फरोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । बच्छलत्तं वत्सलत्व-द्वितीया एक० । तिण्हं प्रयाणां-षष्ठी बहु । साहूण साधूनां-षष्ठी बहु० । मोक्खमग्गम्हि मोक्षमार्गे-सप्तमी एक० । सो स:प्रथमा एक० । वच्छलभावजुदो वात्सल्यभावयुतः-प्रथमा एकवचन । सम्मादिट्टी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एकवचन । मुणेयव्यो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २३५ ।। तात्पर्य—सम्यग्दृष्टि पुरुषका रत्नत्रयमें व रत्नत्रयधारी पुरुषोंमें निश्छल वात्सल्य होता है। टोकार्थ --निश्चयसे सम्यग्दृष्टि टंकोत्कोर्ण एक शायकभावमयपनेसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्रभावोंका अपनेसे अभेद बुद्धि द्वारा अच्छी तरह देखनेसे मोक्षमार्गका वत्सल है, अतिप्रीतियुक्त है । इस कारण इसके मार्गको प्रप्राप्तिसे किया गया कर्मबंध नहीं है, किन्तु निर्जरा हो है। भावार्थ---वत्सलपना प्रीतिभावको कहते हैं। जो मोक्षमार्गरूप अपने स्वरूपमें अनुरागी हो उसके मार्गकी अप्राप्ति नहीं और मार्गानुपलम्भकृत कर्मबंध नहीं । कर्म रस (फल) मात्र प्रतिफलित होकर खिर जाता है इसलिए निर्जरा ही है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सम्यग्दृष्टि के स्थितिकरणागका निर्देश किया गया था। अब इस गाथामें क्रमप्राप्त वात्सल्याङ्गका वर्णन किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) सम्यग्दृष्टि मोक्षमार्गसाधक स्वकीय रत्नत्रय धर्मको वत्सलता व भक्ति रखता है । (२) सम्यग्दृष्टि रत्नत्रयके आधारभूत धर्मात्मावोंको वत्सलता व भक्ति करता है । (३) सम्यग्दृष्टि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको अपनेसे अभेदरूप अनुभवनेके कारण भार्गवत्सल है । (४) मार्गानुपलम्भकृत अथवा अवात्सल्यकृत बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं है। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ समयसार विजारहमारूढो मणोरहपहेसु भमइ जो चेदा । सो जिणणाणपहावी सम्मादिट्ठी मुणेयव्बो ॥१३६॥ विद्यारथ प्रारोही, जो हितकर मार्गको प्रकट करता । वह है ज्ञानप्रभावी, सम्यग्दृष्टो उसे जानो ॥ २३६ ।। विद्यारथमारूढः मनोरथपथेषु श्रमति यश्चेतयिता । स जिनज्ञानप्रभावी सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ।। २३६ ।। यतो हि सभ्यग्दृष्टिः टंकोत्कीरोंकज्ञायकभावमयत्वेन ज्ञानस्य समस्त शक्ति र बोधेन प्रभा. बजननात्प्रभावनाकरः ततोस्य ज्ञान प्रभावनाऽप्रकर्षकृतो नास्ति बधः किं तु निर्ज रेल । रुन्धत् नामसंज्ञ-विज्जारह, आस्तु, मणोरहपह, ज, चंदा, जिणणाणपहावि, सम्मादिष्टि, मुगेयन्त्र । धातुसंज्ञ---.भम भ्रमणे । प्रातिपदिकः---विद्यारथ, आरूढ, मनोरथपथ, यत्, चेतायन, तत्, जिमज्ञान प्रभाविन्, सम्यग्दृष्टि, मन्तव्य । मूलधात-भ्रम अनवस्थाने दिवादि । पदविवरण --विजारहं विद्यारथंद्वितीया एकवचन । आरूढो आरूढ:--प्रथमा एक० । मणोरहपहेसु मनोरथपथेषु-सप्तमी बहः । भमई सिद्धान्त-~-(१) जानी अपने में अपने स्वभावपरिणमनको अपनेसे गभेदबुद्धिसे स्वयं देखता है। दृष्टि--१-- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । प्रयोग—अपनेमें प्रात्मत्वकी प्रतीति सहित प्रपने सहजस्वरूपको जानते हुए ज्ञानमात्र अपनेमें अपनी उपासना करना ।। २३५ ।। ___ प्रागे प्रभावना गुण कहते हैं-[यः] जो जीव [विधारथं आरूढः] विद्यारूपी रथ पर प्रारूद हुमा [मनोरथपथेषु] मनोरथके मार्ग में [भ्रमति] भ्रमण करता है [स: चेतयिता] वह ज्ञानी [जिनशामप्रभावो] जिनेश्वरके ज्ञानको प्रभावना करने वाला [सम्यग्दृष्टिः] सम्यदृष्टि है [ज्ञातव्यः ऐसा जानना चाहिये ।। टोकार्य-निश्चयसे चूंकि सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावमयपनेसे ज्ञान की समस्त प्राक्तिके जगानेके द्वारा प्रभावके उपजानेसे प्रभावना करने वाला है, इस कारण इसके ज्ञानको प्रभावनाके प्रप्रकर्षकृत बन्ध नहीं होता, किन्तु निर्जरा हो होती है । भावार्थ--प्रभावना नाम प्रकृष्टरूपसे हुवानेका है, जो अपने ज्ञानको निरंतर अभ्यास से प्रगट करता है, बढ़ाता है उसके प्रभावना अङ्ग होता है, ज्ञानीके ज्ञानविकास वृद्धिगत है उसके अप्रभावनाकृन कर्मका बन्ध नहीं है । जानीको भूमिकामें कर्म रस देकर खिर जाता है इस कारण निर्जरा ही है । यहाँ गाया ऐसा कहा है कि जो विद्यारूपी रथमें प्रात्माको स्थापन करके भ्रमण करता है वह ज्ञानको प्रभावनायुक्त सम्यग्दृष्टि है सो यह निश्चय प्रभावना Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार ४१६ बंध नवमिति निजः संगतोऽष्टाभिरंगः, प्राग्नद्धं तु क्षयमुपायन निर्जरोज्जम्भरगेन । सम्यग्दृष्टि: भ्राम्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जो यः-प्रथमाया। जिणणाणपहावी जिनज्ञानप्रभावी-प्र. है । ब्यवहारमें जिनबिम्बको रथ में विराजमान कर नगर उपवन प्रादिमें बिहार कराके धर्मको प्रभावना की जाती है, निश्चयसे ज्ञानको प्रभाव ना करके धर्मको प्रभावना की जातो है। अब कर्मका नवीन बंध रोककर निर्जरा करने वाले सम्यग्दृष्टि की महिमा कहते हैंरुन्धन इतम्यादि । अर्थ-स्वयमेव अपने निज इसमें मस्त हुना, प्रादि मध्य अन्तरहित सर्वव्यापंक एक प्रवाहरूप धाराबाही ज्ञानरूप होकर नबीन बन्धको रोकता हुना और पहले गंधे हुए कर्मको अपने प्रष्ट अङ्गोंके साथ निर्जराको बढ़वारी द्वारा क्षयको प्राम कराता हुमा सम्यग्दृष्टि जीव प्राकाशके मध्यरूप प्रतिनिर्मल रंगभूमिमें प्रवेश कर नचता है याने विकसित होता है। भावार्थ- सम्यग्दृष्टिके शंकाटिकृत नवीन बन्ध तो होता. ही नहीं और पाठ प्रङ्गोंसाहित होने से निर्जरा वृद्धि गत है उससे पूर्वबद्ध का नाश होता है । इसलिए यह एक प्रवाहरूप ज्ञानरूपी रसको पीकर निर्मल आकाशरूप रङ्गभूमिमें नृत्य करता है याने ज्ञानविलास करता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्वादि अनन्तानुबन्धी कषायके उदयका प्रभाव है तथा अल्पस्थिति अनुभाग लिए मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीके बिना और उसके साथ रहने वाली अन्य प्रकृतियोंके बिना घातिया तथा अघातियानो प्रकृतिका बाध गीगा है मोदी जैसा बन्ध मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी सहित दशामें होता है वैसा नहीं होता। अनन्त संसारका कारण तो मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धो हैं उनका प्रभाव होनेके पश्चात् उनका बन्ध नहीं होता । जब प्रात्मा ज्ञानी हुआ तब अन्य बन्धकी गिनतो क्या ? वृक्षकी जड़ कटनेके बाद हरे पत्ते रहने की क्या अबधि ? इस कारण अध्यात्मशास्त्र में सामान्यपनेसे ज्ञानीका ही प्रधान कथन है । ज्ञानी हुए पश्चात् शेष कर्म सहज ही मिट जायेंगे तथा परम सहज आनन्द भोगेगा । जैसे कि कोई दरिद्र पुरुष झोपड़ी में रहता था उसको भाग्योदय से धनसे पूर्ण बड़े महलको प्राप्ति हुई। उस महलमें बहुत दिनका कूड़ा भरा हुप्रा था । स पुरुषने जब पाकर प्रवेश किया उसी दिन यह तो महलका धनी बन गया । अब कूड़ा मारना रह गया सो वह क्रमसे अपने बल के अनुसार झाड़ता ही है । जब सब कूड़ा झड़ जायगा तब उज्ज्वल हो जायगा । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथा में वात्सल्यभाषयुत सम्यग्दृष्टिका आशय बताया गया था । अब इस गाथामें ज्ञानीको प्रभाबनाङ्गधारकताका वर्णन किया है। तथ्यप्रकाश – (१) ज्ञानकी समस्त शक्तिके जागरणसे सम्यग्दृष्टि धर्मप्रभावक है। (२) ज्ञानी ज्ञानरथपर सारूढ होकर अभीष्ट शिवमार्गमें अर्थात रत्नत्रयमें विहार करता है। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० समयसार स्वयमतिरसादादिमध्यांतमुक्तं ज्ञानं भूत्वा नदति गगनाभोगरंग विगाह्य ।।१६२॥ इति निर्जरा निष्क्रांता ।। २३६ ॥ इति श्रीमबमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातो निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्क ॥ ६ ॥ ए । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्र० ए० । मुणेयव्यो मन्तव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २३६ ।। (३) सम्यग्दृष्टि अन्तस्तत्त्वोपलब्धिरूप विद्यारपपर प्रारूड होकर ख्याति लाभ इच्छा प्रादि चित्सकल्लोलोंको सहजात्मध्यानरूप शस्त्रसे नष्ट कर देता है। (४) अप्रभावनाकृत बन्ध सम्यग्दृष्टिके नहीं है। (५) सम्यग्दृष्टिके पूर्वसंचित कर्मको निश्चित निर्जरा है । (६) शुद्धन्यके प्राश्रयसे उत्पन्न नि:शंकादिष्ट गुण सम्बरपूर्वक भावनिर्जराके उपादान कारणभूत हैं । (७) व्यवहाररत्नत्रय साधक है, निश्चयरलत्रय साध्य है । (८) व्यवहाररत्नत्रयमें स्थित सरागसम्यग्दृष्टिके योग्य प्रवृत्तिरूप भी निःशंकादि अष्ट गुण होते हैं। सिद्धान्त--(१) निश्चयज्ञानप्रभावक गुण द्वारा शानी जो निजशुद्धिके लिये संवरपूर्षिका भावनिर्जरा करता है। दृष्टि-१- कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहारनय (७३)। प्रयोग---ज्ञानरूप रथमें प्रारूद होकर याने ज्ञान में उपयोगको लगाकर सहजानन्दमय जानतत्त्वको प्रभावनासे कृतार्थ होनेका पौरुष करना ।। २३६ ॥ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार व उसकी श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारव्याख्या प्रात्मख्यातिकी सहजानन्दसप्तदशाङ्गी टीकामें निर्जराप्ररूपक छठवां मंक समाप्त हुमा । Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बग्धाधिकार अथ बंधाधिकार अथ प्रविशति बंधः । रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्या प्रमत्तं जगत् कोडतं रसभारनिभरमहानाट्येन बंध धुनत् । प्रानन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्था स्फुटं नाटयद् धीरोदारममाकुलं निरुपविज्ञानं समुन्मज्जति ॥१६३॥ जह णाम कोवि पुरिसो गोहभत्तो दु रेणुवहुलम्मि । ठाणम्मि ठाइदूण य करेइ सत्येहिं वायामं ॥१३७॥ छिंददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीश्रो । सच्चित्ताचित्ताणं करेइ दवाणमुबघायं ॥२३८॥ उवधायं कुवंतस्स तस्स गाणाविहेहिं करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिज हु किंपचयगो दु स्यबंधी ॥२३६॥ जो सो दु गोहभावो तसि गरे तेण तस्स रयबंधो। णिच्छयदो विरुणेयं ण कायचेट्ठाहिं सेसाहिं ॥२४॥ एवं मिच्छादिट्ठी वट्टतो वहुविहासु चिट्ठासु । रायाई उपयोगे कुव्वंतो णिप्पइ रयेण ॥२४॥ नामसंज्ञ-जह, णाम, क, वि, पुरिस, रोहभत्त, दु, रेणुबहुल, ठाण, य, सव्य, वायाम, य, तहा, तालीतलकलिवंसपिडी, सच्चित्ताचित्त, दव, उपघाय, उबघाय, त, माणाविह, करण, णिच्छयदो, किंप अनबन्ध तत्त्व प्रवेश करता है। जैसे कि नृत्यमंचपर कोई स्वांग प्रवेश करता है, उसी प्रकार जीवकी रंगभूमिमें बन्धतत्व प्रवेश करता है। उसमें सर्वप्रथम बंध स्वांग मिटाने वाले सभ्य ज्ञानके अभिनन्दन में मंगलरूप काव्य कहते हैं--रागोद्गार इत्यादि । अर्थ----जो विकाररागके उद्गाररूप महारस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त (मतबाला) करके रसपूर्ण महान् नाटय के द्वारा क्रीड़ा करते हुए बन्धको दूर करता हुअा अानन्दरूपी अमृतका Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार जैसे तल लगाये, कोई पुरुष धूलपूर्ण भूमीमें । स्थित होकर शस्त्रोंसे, नाना व्यायाम करता है ॥२३७॥ ताड़ बांस कदलोको, विछेदता भेदता हि व्यायामी । करता उपघात वहां, सजीव निर्जीव द्रव्योंका ॥२३॥ नानाविध करणोंसे, उपधात कर रहे हुए पुरुषके । चिपटी हुइ धूलीका, किस कारणसे हुमा बन्धन ॥२३॥ तेल लगा उस नरके, इस कारणसे हि धुलिबंध हुआ। निश्चयसे यह जानो, हुआ नहीं कायष्टासे ॥२४०।। पों यह मिथ्यादृष्टी, विविध चेष्टामें वर्तमान हुआ । उपयोगसे रागादि, करता लिपता बंधे रजसे ॥१४॥ यथा नाम कोऽपि पुरुषः स्नेहाभ्यक्तस्तु रेणुबहुले। स्थाने स्थित्वा च करोति शस्त्रैर्व्यायाम ॥२३७।। छिनति भिनत्ति च तथा तालीतल दलीवंशपिंडी: । सचित्ताचित्तानां करोति द्रभ्याणामपघातं ।२३८।। उपघातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणः । निश्चयंतश्चिन्त्यतां किंप्रत्ययकस्तु तस्य रजोबंधः ॥२३६।। यः स तु स्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्य रजोबंध: । निश्चयतो विशेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ।।२४०।। एवं मिथ्याष्टिवर्तमानो वहुविधासु चेष्टासु । रागादीनुपयोगे कुर्वाणो लिप्यते रजसा ।।२४१।। इह खलु यथा कश्चित् पुरुषः स्नेहाभ्यक्तः स्वभावन एव रजोबहुलायर्या भूमौ स्थितः शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाण: अनेक प्रकारकरणैः .सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् र जसा बध्यते । तस्य च्चयग, दु, रयबंध, ज, त, दु, रणेहभाव, त. ठाण, त, त, रय बंध, णिच्छयदो, विष्णेय, ण, कायचेठा, सेसा, एय, मिच्छादिठि, वत, बहुविहा, चिट्ठा, रायाइ, उवओग, कुवंत, रय। धातसंझ-- छा गति. निवृत्ती, कर करणे, छिद छेदने, भिद विदारणे, कुदव करणे, चिन्त चिन्तने, लिप लेपने । प्रातिपदिकयथा, नामन्, किम्, अपि, पुरुष, स्नेहाभ्यक्त, तु, रेणुवहुल, स्थान, च, शस्त्र, व्यायाम, च, तथा, तालीतलनित्य भोजन करने वाला धीर, उदार, 'अनाकुल निरुपाधि ज्ञान अपनी सहज अवस्थाको याने जाननरूप क्रियाको नचाता हुन्ना प्रकट होता है । भावार्थ - बन्धके स्वाङ्गको दूर करने वाला अविकार सहज ज्ञानस्वभावमयका ज्ञात शुद्ध प्रकट हो नृत्य करेगा उसकी महिमा इस काव्य में प्रकट की है । ऐसा सहज प्रानन्दमय. निरुपाधि ज्ञानस्वरूप प्रात्मा सदा प्रकार रहो। अब बन्ध तत्त्वके स्वरूपका विचार करते हैं । यहाँ प्रथम बन्धके कारणको प्रकट करते हैं---[यथा नाम] जैसे [कः अपि पुरुषः].. कोई पुरुष [स्नेहाभ्यक्तः तु] तैलसे अवलिप्त हुमा रेणुबहले] बहुत धूली वाले स्थाने स्थान में [स्थित्वा च] स्थित होकर शस्त्रः ब्यापाम] हथियारोंसे व्यायाम [करोति]. करता है, वहाँ [तालीतलकदलीवंशपिंडोः] ताड़, Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४२३ कतमो बन्धहेतुः ? न तावत्स्वभावत एव रजोबना भूमिः, स्नेहान पक्तानामपि तत्रस्थानां तस्प्रसङ्गात् । न शस्त्रव्यायामकम, स्नेहान भ्यक्तानामपि तस्मात् तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकर. गानि, स्नेहान भिव्यक्तानामपि तस्तत्प्रसंगात् । न सचित्ताचितवस्तूपघात , स्नेहानभिव्यक्तानामपि तस्मिस्तत्वसंगात् । ततो न्यायवलेनैवैतदायातं यत्तस्मिन् पुरुषे स्नेहा भ्यंगकरणं स बंरहेतुः । कदलीवंशपिंडी, सचित्तचित्त, द्रव्य, उपघात, उपधात, कुर्वन्तु, ता. नानाविध, करण, निश्चयतः, किप्रत्ययक, तु, तत्, रजोवन्ध, यत्, तत्, तु, स्नेहभाव, तत् नर, तत्, रजोबन्ध, निश्चयन:, विज्ञेय, न, कायचेष्टा, शेषा, एव, मिच्याइष्टि, वर्तमान, बहुविधा, चेष्टा, रागादि, उपयोग, कुर्वाण, रजस् । मूलधानु - प्ठा तमाल, के.ल, अशोक इत्यादि वृक्षों को [छिनत्ति] छेदता है [च भिनत्ति और भेदता है [तथा] संथः सचित्ताचित्तानां] सचित व अचित्त [द्रव्याणां] द्रव्योंका [उपघातं] उपघात [करोति] करना है। इन प्रकार [नानाविधैः करणः नाना प्रकारके करणों द्वारा [उपघातं कुर्वतः] उपघात करते हुए [तस्य] उस पुरुषके [खलु] वास्तवमें [रजोबंधः तु] रजका बन्ध [किप्रत्ययिकः] किस कारगासे हुया है ? [निश्चयतः] निश्चयसे [चिन्त्यता] विचारिये । [तस्मिन् नरे] उस मनुष्य [य: तु] जो [सः स्नेहभावः] वह सैल प्रादिकी चिकनाहट है [तेन] उससे [तस्य रजोबंधः] उसके धूलिका बन्ध होता है [निश्चयतः विज्ञेयं] यह निश्चयसे जानना चाहिये । [शेषाभिः कायचेष्टामिः] शेष कायकी चेष्टानोंसे [न] धूलिका बंध नहीं है [एवं] इसी प्रकार [बहुविधासु चेष्टासु] बहुत प्रकारकी चेष्टानोंमें [वर्तमानः] वर्तता हुना [मिथ्यादृष्टिः] गिश्यादृष्टि जीव [उपयोगे] अपने उपयोगमें [रामादीन कुरियः] रागादि भावोंको करता हुआ [रजसा] कर्मरूप र जसे [लिप्यते] लिप्त होता है याने बँधता है । तात्पर्य ----मिथ्यात्व राग ग्रादि भावों में परिणत जीवके कर्मका बन्ध होता है। टीकार्थ--इस लोक में निश्चयसे जैसे कोई पुरुष स्नेह (तैल) प्रादिकसे अवलिप्त हुमा स्वभाव से ही बहुत धूलि वालो भूमिमें स्थित हुप्रा शस्त्रोंसे व्यायाम कर्म करता हुअा अनेक प्रकारके शम्त्रोंसे सचित्त प्रचित्त वस्तुओंको काटता हुमा उस भूमिकी धूलिसे लिप्त होता है। यहाँ निर्णय करें कि वहाँ पुरुषके बन्धका कारण इनमें कौन है ? तो पहिले यही देख लीजिये कि जो स्वभावसे ही रजोव्याप्त भूमि है वह बन्धका कारण नहीं है । क्योंकि यदि भूमि ही कारण हो तो उस भूमिपर ठहरे हुए तेल प्रादिसे अनवलिप्त पुरुषोंके भी धूलिके चिपट जानेका प्रसंग या जावेगा । शस्त्रोंसे व्यायाम करना भी उस धूलिसे बँधनेका, लिप जाने का कारण नहीं है । यदि शस्त्रों में व्यायाम करना धूलिसे बंधनेका कारण हो तो जिनके तेल मादि नहीं लगा, उनके भी उस शस्त्राभ्यासके करनेसे रजका बंध होनेका प्रसङ्ग प्रा जायगा । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार एवं मिथ्यावृष्टिरात्मनि रागादीन् कुर्वाणः स्वभावत एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुले लोके कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणोऽनेकप्रकारकरणः सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कमरजसा बध्यते । तस्य कतमो बन्धहेतुः ? न तावतत्स्वभावत्त एव कर्मयोग्यपुद्गलबहुलो लोकः, सिद्धानामपि तत्रस्थानां तत्प्रसंगात् । न कायवाङ्मनःकर्म, यथाख्यातसंयतानामपि तत्प्रसंगात् । नानेकप्रकारकरणानि, गतिनिवृत्तौ, डुकृञ् करणे, छिदिर छेदने, भिदि भेदने, चिति स्मृत्यां, लिप उपदेहे तुदादि । पदविवरणजह यथाअव्यय । णाम नाम-प्रथमा एक० । को क:-प्रथमा एक० । वि अपि-अव्यय । पुरिसो पुरुषःप्र०ए। भत्तो स्नेहाभ्यक्तः-प्रथमा एक । दु लु-अव्यय । रेणुवहुलम्हि रेणुवहुले-सप्तमी एकः । ठाणे स्थाने सप्तमी एक० । ठाइदूण स्थित्वा असमाप्तिकी क्रिया । ये च-अव्यय । करेइ करोति-वर्तमान अनेक प्रकारके करण भी उस रजके बंधनका कारण नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिनके तैल आदि नहीं लगा, उनके भी उन करणों द्वारा रजका बन्ध हो जानेका प्रसङ्ग हो जायगा। तथा सचित्त अचित्त बस्तुओंका उपघात भी उस रजके लगनेका कारण नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा हो तो जिनके तैल आदि नहीं लगा उनके भी सचित्त अचित्तका घात करने से रजका बन्ध हो जानेका प्रसङ्ग आ जायगा । इसलिये न्यायके बलसे यह ही सिद्ध हुमा कि उस पुरुषमें जो तल आदिका मर्दन है वही बन्धका कारण है । ऐसे ही मिथ्यादृष्टि जीव अपने आत्मामें राम आदि भावोंको करता हुआ स्वभावसे ही कर्मके योग्य पुद्गलोंसे भरे हुए लोकमें काय वचन मनको क्रियाको करता हुमा अनेक प्रकारके करणों द्वारा सचित्त अचित्त वस्तुओं का घात करता हुया कर्मरूपी धूलिसे बंधता है। वहाँ विचारिये कि बन्धका कारण कौन है ? वहाँ प्रथम तो यही देखिये कि स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा हुआ लोक बन्धका कारण नहीं है, यदि उनसे बन्ध हो तो लोकमें सिद्धोंके भी बन्धका प्रसङ्ग प्रायेगा। काय वचन मनकी क्रियास्वरूप योग भी बन्धके कारण नहीं हैं, यदि उनसे बन्ध हो तो मन, वचन, कायकी क्रिया वाले यथाख्यातसंयमियोंके भो बन्धका प्रसङ्ग हो जायगा । अनेक प्रकारके करण भी बन्धके कारण नहीं हैं, यदि उनसे बन्ध हो तो केवलज्ञानियोंके भी बन्धका प्रसङ्ग हो जायगर । तथा सचित्त अचित्त वस्तुओं का उपघात भी बन्धका कारण नहीं है, यदि उनसे बंध हो तो समितिमें तत्पर याने यत्नरूप प्रवृत्ति करने वाले साधुवोंके भी सचित्त अचित्त वस्तु के घातसे बन्धका प्रसङ्ग हो जायगा । इस कारण न्यायके बलसे यही सिद्ध हुआ कि जो उपयोगमें रागादिका करना है वह बन्धका कारण है । भावार्थ-यही निश्चयनयको मुख्य दृष्टि से बन्ध होनेके कारणपर विचार किया गया है ! बन्धका यथार्थ कारण विचारनेसे यही सिद्ध हुना कि मिथ्यादृष्टि पुरुष राग, द्वेष, मोह भावोंको अपने उपयोग करता है सो ये रागादिक Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४२५ केवलज्ञानिनामपि तत्प्रसङ्गात् । न सचित्ताचित्तवस्तूपघातः समितितत्पराणामपि तत्प्रसङ्गात् । ततो न्यायबलेनैतदेवायातं यदुपयोगे रागादिकरणं स बंधहेतुः ।। न कर्मबहुलं जगन्न घलनात्मक लट् अन्य पुरुष एका० क्रिया । सत्येहि शस्त्र:-तृतीया बहु० । वायाम व्यायाम-द्वितीया एक । छिदि छिनत्ति, भिंददि भिनत्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । तहा तथा-अव्यय । तालीतलक्रयलिवंसपिडीओ तालीतलकदलीवंशपिण्डी:-द्वितीया बहु० । सच्चित्ताचित्ताण सचित्ताचित्तानां-षष्ठी बहु० । करेइ करोति, दवाणं द्रव्याणां-षष्ठी बहु० । उवधायं उपघात-द्वि० ए० । कुब्बतस्स कुर्वतः--षष्टी एक० । तस्स तस्य-षष्ठी एकवचन । णाणाविहेहि नानाविधः तृतीया बहु । णिच्छयदो निश्चयत:-पंचम्यर्थं अव्यय । किपच्चयमो काययक:-पना एकवन, पुसू-अध्यय रबंधो रजोबन्धः-प्रथमा एक० । जो य:प्रथमा एकवचन । गेहभावो स्नेहभावः तम्हि तस्मिन्-सप्तमी एक० । परे नरे-सप्तमी एक० । तेण तेनतृतीया एक० । तस्स तस्य--षष्ठी एक० । रयबंधो रजोबन्धः-प्र० एक० । णिच्छयदो निश्चयत:-अव्यय । ही बन्धके कारण हैं । परन्तु अन्य जो कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरा लोक, मन बचन कायके योग, अनेक करण और वेतन अचेतनका घात प्रादि हैं ये बंधके कारण नहीं हैं । बयोंकि यदि इनसे बन्ध हो तो सिद्धोंके, यथाख्यातचारित्र वालोंके, केवलज्ञानियोंके तथा समितितत्तर मुनियोंके बन्धका प्रसङ्ग आ जायगा; लेकिन उनके बन्ध नहीं होता । प्रतः बन्धका कारण रागादिक ही हैं यह निश्चय रहा। अब आगे इस अर्थका समर्थक कलश कहते हैं-न कर्म इत्यादि । अर्थ-कर्मबन्धका कारण न तो कर्मयोग्य पुद्गलोंसे बहुत भरा हुमा लोक है, न चलनस्वरूप कर्म याने काय वचन मनकी क्रियारूप योग है, न अनेक प्रकारके करण हैं और न चेतन अचेतनका घात है । किन्तु, उपयोगभूमि याने जीव जो रागादि भावोंके साथ एकताको प्राप्त होता है वही एकमात्र पुरुषोंके बन्धका कारण है । भावार्थ---निश्चयसे मिथ्यात्व रागादिक हो बन्धका कारण है । प्रसंगविबरण--अनन्तरपूर्व गाया तक "भूयत्थेणाभिगया जीवाजीवा य" इत्यादि भधिकारगाथाके अनुसार जीव, अजीव, पुण्य-पापादि सात पदार्थोंकी पीठिकारूप कर्तृ कर्माधिकार, आस्रव, सम्बर, निर्जरा तत्वका वर्णन किया गया था। अब क्रमप्राप्त बन्ध अधिकार प्राया सो उसमें सर्वप्रथम बन्धके सही कारणका विचार इन पांच गाथावोंमें किया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) विस्रसोपचयरूप काणिवर्गरणावोंसे भरे लोकमें रहनेके कारण जीवके वन्ध नहीं होसा, क्योंकि ऐसे लोकमें रहने वाले सिद्धोंके बन्ध नहीं है । (.) मन, वचन, कायकी चेष्टासे जीवके बन्ध नहीं होता, क्योंकि यथाख्यात संयमी ११, १२, १३वें गुणस्थानवर्ती जीवोके चेष्टा होकर भी बन्ध नहीं है । (३) अनेक प्रकारके बाह्य संगसे भी जीवके बन्ध नहीं होता, क्योंकि समवशरण, गन्धकुटी, छत्र, चमर, सिंहासन आदि शोभाके बीच भी केवलज्ञानीके बन्ध नहीं है। (४) सचित्त अचित्त वस्तुके उपघातसे भी जीदके Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ सपयसार कर्म वा, न नैककरणानि वा न चिचिद्धो बंधकृत् । यदैक्यमुपयोगभू समुपयाति रागादिभिः स एव किल केवलं भवति बन्धहेतु गगां ।। १२४।। ।। २३७-२४१ ।। विणेयं विज्ञय-प्र० ए० । ण न-अव्यय । कायचेट्टाहि कायचेष्टाभिः-तृ. बहु० । मेसाहि प्रषाभिः-तृतीया बहु । एवं-अव्यय । मिच्छादिट्ठी मिथ्याष्टि:-प्र० ए० | वट्टन्तो वर्तमानः-प्र० ए० । बहुविहास बहुविधासु-सप्तमी बहु० । चिट्ठासु चेष्टासु-सप्तमी बहु० । गयादी रागादोन्-द्वितीया बहु । उवओगे उपयोगे-सप्तमी एक० । कुबतो कुर्वाण:-प्र० ए० । लिप्पड़ लिप्यते-वतंमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मवाच्यप्रक्रिया क्रिया । रयेण रजसा-तृतीया एकवचन ।। २३७-२४१ ।। बन्ध नहीं है, क्योंकि समितिसे चलते हुए साधुके पदतलसे किसी कुन्य जीवका उपधात होने पर भी साधुके बन्ध नहीं है । (५) बन्ध तो मात्र उपयोग में गादिके करनेसे है । ___सिद्धान्त - (१). परद्रव्यके किसी भी प्रकारके परिणासनसे जीवका परिणाम नहीं होता । (२) कर्मविपाकको प्रात्मीय माननेके f कल्पका निमित पाकर कार्माग्ग यगरणामोंका कर्मत्व परिणमनहर बन्ध होता है । दृष्टि- - परद्रव्पादिग्राहक द्रध्याथिकनय (२६)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग- उपयोगमें रागादिके करनेको हो विपत्तिका मुल जानकर रागादि परभावसे उपयोग हटाकर सहज ज्ञानानन्द स्वभावमें उपयोग लगाना ।। • ३७-२४१ ॥ अब कहते हैं कि सम्यग्दृष्टिके बन्ध क्यों नहीं होता ?---[यथा] जैसे पुन: स चव] फिर वही [नरः] मनुष्य [सर्वस्मिन् स्नेहे अपनीते] समस्त तैलादिक हटा दिये जानेपर [रेणुबहुले] बहुत धूलि वाले [स्याने] स्थानमे [शस्त्रः व्यायाम करोति] शस्त्रोंके द्वारा व्यायाम करता है, [तालोललकदलोवंशपिण्डीः] ताड़. तमाल, केला, बांस आदिके वृक्षको [छिनतिन भिनत्ति] छेदता है और भेदता है [तथा] पोर [सचित्ताचित्तानां] सचित्त अचित्त [द्रच्यारणां] द्रव्योंका [उपघातं करोति] उपधात करता है । [नानाविधैः करणः] नाना प्रकारके करणोंसे [उपघातं कुर्वतः तस्य] उपघात करने वाले उसके [निश्चयतः] निश्चयसे [चिन्त्यता] विचारिये कि [रजोबंधः] धूलिका बन्ध [किप्रत्ययकः न] किस कारणसे नही होता [तस्मिन् नरे] उस पुरुषके [यः] जो [स प्रस्नेहभावः] वह अचिक्कणता है [तेन] उससे [तस्य] उसके [अरजोबंधः] धूलिका प्रबंध है [निश्चयतः] निश्चयसे [विज्ञेयं] यह जानना चाहिये [शेषाभिः कायचेष्टाभिः] शेष कायकी चेष्टाम्रोसे [न] नहीं [एवं] इस प्रकार [सम्यग्दृष्टिः] सम्पाद [बहुविधेषु] बहुत प्रकारके [योगेषु] योगोमें [वर्तमानः] वर्तता हुअा [उपयोगे] उपयोगमें [रागादीन रागादिकोंको [अकुर्वन नहीं करता हुया [रजसा कर्म रजसे [न लिप्यते] लिक्ष Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार जह पुण सो चेव णरो गोहे मब्बमि अवणिये संते । रंगुबहुलम्मि ठाणे करदि सत्थेहिं वायामं ॥२४२॥ छिददि भिंददि य तहा तालीतलकयलिवंसपिंडीयो । सच्चित्ता चित्ताणं करइ दवाणमुवघायं ॥२४३॥ उवधायं कुब्वंतस्स तस्स णाणाविहेहि करणेहिं । णिच्छयदो चिंतिजहु किंपञ्चयगो ण रयबंधो ॥२४४॥ जो सो अणेहभावो तह्मि गरे तेण तस्सऽस्यबधो । णिच्छयदो विष्णेयं ण कायचेट्टाहिं सेमाहिं ॥२४५।। एवं सम्मादिट्ठी वटतो बहुविहेसु जोगेसु । अकरंतो उवोगे रागाइ ण लिप्पइ रयेण ॥२४६॥ जैसे फिर वही पुरुष, समस्त उस तलको अलग करके। उस धूलभरी क्षितिमें, करता श्रम पूर्ण शस्त्रोंसे ॥२४२॥ ताड़ बांस कदलीको, विछेदता मेवता पुरुष धसे । करता उपघात वहां, सजीव निर्जीव द्रव्योंका ॥२४३॥ नानाविध करणोंसे, उपघात कर रहे हुए पुरुषके । निश्चयसे सोचो किस, कारणसे धूलिबन्ध नहीं ।। २४४।। नाममंज्ञ जह, पुण, त, चेव, णर, गेह, सब्व, अवणिय संत, रेणु बहुल, ठाण, सत्थ, वायाम, य, तहा, तालीतलकलिवमपिंडी, सच्चित्ताचित्त, दव्ब, उवधाय, उपघाय, कुब्बत, त, गाणाविह, करण, नही होता याने नहीं बंधता । तात्पर्य-प्रज्ञानमय रागादिके प्रभावसे सम्यादृष्टि के बन्ध नहीं होता। टोकार्थ-जैसे वही पुरुष समस्त तैलाविकके हटा दिय जानेपर स्वभावसे ही बहुत रज वाली भूमिपर उन्हीं शस्त्रोंसे अभ्यास करता हुआ, उन्हीं अनेक तरहके करणोंसे उन्हों सचित्त अचित्त बस्तुनोंको घातता हा धूलिसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि इसके बन्धका हेतुभूत चिकनाईके लेपका अभाव है उसी तरह सम्यग्दृष्टि प्रारमा प्रात्मामें रागादिकको नहीं करता हमा स्वभावसे ही कर्मयोग्य पुद्गलोंसे भरे उसी लोकमें उसी काय वचन मनको क्रियाको करता हुपा उन्हीं अनेक प्रकारके करणोसे उन्हीं सचित प्रचित्त वस्तुओं का घात करता हुमा Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० समयसार तैल नहीं उस नरके, इससे उसके न धूलिबन्ध हुआ। निश्चयसे यह जानो, हुआ न कुछ कायनेष्टासे ॥२४॥ यों यह सम्यग्दृष्टी, विविध भोगोंमें वर्तमान हुआ । उपयोगमें रागादि, करता न न कर्मसे बंधता ॥२४६॥ यथा पुनः स चव नरः स्नेहे सर्वस्मिन्नपनीते सति । रेणुबहुले स्थाने करोति शस्त्रयायाम ॥२४२॥ छिनत्ति भिनत्ति च तथा तालीतलकदलीवंशपिंडीः । सचित्ताचित्तानां करोति द्रव्याणामुपधात ॥२४३॥ उपधातं कुर्वतस्तस्य नानाविधैः करणः । निश्चयतश्चिन्त्यतां किंप्रत्ययको न रजोबन्धः ॥२४४॥ यः सोऽस्नेहभावस्तस्मिन्नरे तेन तस्यारजोबन्ध: । निश्चयतो विज्ञेयं न कायचेष्टाभिः शेषाभिः ॥२४॥ एवं सम्यग्दृष्टिवर्तमानो बहुविधेषु योगेषु । अकुर्वन्नुपयोगे रागादीन् न लिप्यते रजसा ॥२४६।। यथा स एव पुरुषः स्नेहे सर्वस्मिन्न पनीते सति तस्यामेव स्वभावत एव रजोबहुलायां भूमौ तदेव शस्त्रव्यायामकर्म कुर्वाणस्तैरेवानेकप्रकारकरणस्तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् रजसा न बध्यते स्नेहाभ्यंगस्य बंधहेतोरभावात् । तथा सम्यग्दृष्टिः प्रात्मनि रागादीनकुरिणः सन तस्मिन्नेव स्वभावत एवं कर्मयाग्यपुद्गलबहुले लोके तदेव कायवाङ्मनःकर्म कुर्वाणः, तैरे. णिच्छयदो, किंपच्चयग, ण, रयबन्ध, ज, त, अणेहभाव, त, पर, त, त, अरयबंध, णिच्छयदो, विष्णेय, ण, कायचेवा, सेसा, एवं सम्मादिठि, वट्टत, बहुविह, जोग, अकरत, उवओग, रागाइ, ण, रय । धातुसंज-कर करणे, भिंद भेदने, कुन करणे, चिन्त चिन्तने, लिप लेपने । प्रातिपदिक-यथा, पुनस्, तत्, चैव, नर, स्नेह, अपनीत, सर्व, सन्त, रेणुबहुल, स्थान, शस्त्र, व्यायाम, तथा, तालीतलकदलीवंशपिण्डी, कर्मरूप धूलसे नहीं बँधता । क्योंकि इसके बन्धका कारण रामके योगका अभाव है। भावार्थसम्यग्दृष्टि के पूर्वोक्त सब सम्बन्ध होनेपर भी प्रज्ञानमय रागका प्रभाव होनेसे कर्मबन्ध नहीं होता । अब इसी अर्थका कलश कहते हैं--लोकः कर्म इत्यादि । अर्थ-इस कारण कर्मोंसे भरा हुआ लोक हो सो भले हो रहो, मन वचय कायके चलनस्वरूप योग है सो भले ही रहो, पूर्वोक्त करण भी भले रहो और पूर्वकषित चेतन अचेतन का घात भी भले हो, परंतु अहो, यह सम्यग्दृष्टि रागादिकोंको उपयोगभूमिमें नहीं लासा हुमा केवल एक ज्ञानरूप परिणत होता हुआ पूर्वोक्त किसी भी कारणसे निश्चयतः बन्धको प्राप्त नहीं होता । भावार्थ-लोक, योग, करण, चेतन अचेतनका पात--ये बन्धके कारण नहीं बताये गये हैं सो यही ऐसा नहीं समझना कि परजीवकी हिंसासे बन्ध नहीं कहा, इसलिये स्वच्छन्द होकर हिंसा करनी । देखें. भाल कर चलने वाले सम्यग्दृष्टि जीवके पसनेमें अबुद्धिपूर्वक कभी परजीवका घात भी हो जाता है तो भी उससे बन्ध नहीं होता | किन्तु जहांपर बुद्धिपूर्वक जीव मारनेके भाव होंगे तो वहाँ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४२६ वानेकप्रकारकरणः, तान्येव सचित्ताचित्तवस्तूनि निघ्नन् कर्मरजसा न बध्यते रागयोगस्य बन्धहेतोरभावात् ।। लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्दात्मकं कर्म तत्, तान्यस्मिन् करणानि संतु चिदचिद्व्यापादानं चास्तु तत् । रागादीनुपयोगभूमिमनयन् ज्ञानं भवन केवलं, बन्धं नैव कुतोप्युपेत्ययमहो सम्यग्दृगात्मा ध्र वम् ॥१६५।। तथापि न निरर्गलं चरितुभिष्यते ज्ञानिनां तदासचित्ताचित्त, द्रव्य, उपयात, कुर्वन्त, तत्, नानाविध, करण, निश्चयतः, किंप्रत्ययकः, न, रजोबंध, यत्, तत्, अस्नेहभाव, तत्, नर, तत्, अरजोबन्ध, निश्चयतः, विशंय, , कायसः शेषा, एवं, सम्यग्दृष्टि, वर्तमान, बहुविध, योग, अकुर्वन्त, उपयोग, रागादि, न, रजस् । मूलधातु - डुकृत्र करणे, छिदिर छेदने, अपने उपयोगमें रागादिकका सद्भाव होनेसे बन्ध होगा ही। बन्धसे बचनेके लिये ज्ञान व दराग्य चाहिये, फिर लोक, योग प्रादि कुछ भी हो तो भी बन्ध नहीं होता। अध्यात्मकयनमें बुद्धिपूर्वक पौरुष, बन्ध प्रादिका वर्णन होता सो अबुद्धिपूर्वक होने वाला बन्ध यहाँ विवक्षित नहीं है । अब इसी सम्बन्धमें व्यवहारनयको प्रवृत्ति करनेके लिए काव्य कहते है-तथापि इत्यादि । अर्थ-यद्यपि लोक आदि कारणोंसे बन्ध नहीं कहा और रागादिकसे हो बन्ध कहा है तथापि ज्ञानियों को स्वच्छन्द प्रवर्तना योग्य नहीं, क्योंकि निरगल (स्वच्छन्द) प्रवर्तना हो वास्तवमें बन्धका स्थान है । ज्ञानियों के बिना वांछाके कार्य होता है वह बन्धका कारण नहीं, क्योंकि जानाति व करोति ये दोनों क्रियायें क्या निश्चयसे विरुद्ध नहीं हैं ? विरुद्ध हैं। भावार्थ---बाह्य व्यवहार प्रवृत्ति करना बन्धके कारणों में सर्वथा प्रतिषिद्ध है । ज्ञानियोंकी जो अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है वहाँ बन्ध नहीं कहा । इसलिए ज्ञानियों को स्वच्छन्द प्रवर्तना तो कहा ही नहीं है, निरर्गल प्रवर्तना तो बन्धका ही कारण है। जानने और करने में परस्पर विरोध है । जीव ज्ञाता रहे तब तो बन्ध नहीं, यदि कर्ता बने तो अवश्य बन्ध है । ___अब जानने और कहनेके परस्पर विरोधको बतानेके लिये काव्य कहते हैं--जानाति इत्यादि । अर्थ-जो जानता है वह करता नहीं है और जो करता है वह जानता नहीं है। करना तो निश्चयसे कर्मराग है और रागको प्रज्ञानमय अध्यवसाय कहते हैं जो कि मिथ्यादृष्टि के नियमसे होता है, यही अध्यवसाय नियमसे बन्धका कारण है। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व ५ गाथावोंमें बन्धका सही कारण बताया गया था । प्रच इन ५ गाथावोंमें बन्ध न होनेका कारण बताया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) उपयोगमें रागादिकको न करते हुए ज्ञानीके कर्मयोग्यपुद्गलव्याप्त लोकमें रहनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (२) उपयोगमें रागादिकको न करते हुए ज्ञानोके Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार यतनमेव मा किल निरर्गला व्यापृत्तिः । अकामकृतकर्म तन्मतमकार जानिनो द्वयं न हि विरु ध्यते किमु करोति जानाति च ।।१६६॥ जानाति यः स न करोति करोति यन्तु, जानात्ययं न खलु तस्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिच्यादृशः स नियतं स हि बन्धहेतुः ।।१६७।। ।। २४२२४६ ।। भिदिर भेदने, विति ममत्या, लिप उपदेहे। पदविवरण नोट.. इन पांच गाथावोंके प्रायः सभी शब्द पूर्व की पांच गाथावों में है मो उनकी तरह पदविवरण समझ लेखें । मन, वचन, कायकी चेष्टा होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (4) उपयोगमें रागादिकको न करते हुए जानीके अनेक बासंग होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (४) उपयोगमें रागादिक को न करते हुए ज्ञानीके मचित्ताचित्त बस्तुका उपघात होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता । सिद्धान्त – (१) परभावविविक्त शुद्ध ज्ञानमात्र सहजात्मतत्त्वको भावनाका निमित्त पाकर कारणवर्गणावोंमें कर्मत्व नहीं पाता। दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ ब)। प्रयोग-कर्मानुभागमें उपयोग न लगाकर सहज चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग रखना ।। २४५.२४६ ।। __ अब मिथ्याष्टिके प्राशयको बताते हैं--[य:] जो पुरुष [मन्यते] ऐसा मानता है कि [हिनस्मि] मैं पर जीवोंको मारता हूं [च] और [परः सत्त्वैः। परजीवोंके द्वारा में [हिंस्ये] मारा जाता हूं [सः] वह पुरुष [सूढः] मोही है [अज्ञानी] अज्ञानी है [तु अतः] और इससे [विपरीतः] विपरीत अाशाय वाला यथार्थ मानने वाला [ज्ञानी] ज्ञानी है।। तात्पर्य-परके द्वारा अन्य परका घात किया जानेको मान्यता होना निश्चयदृष्टि से मिथ्या भाव है। टीकार्य---मैं परजीवों को मारता हूं और परजीवोंके द्वारा मैं मारा जा रहा हूं, यह प्राशय निश्चित अजान है और जिसके ऐसा अज्ञान है, जिसके ऐमा अध्यवसाय है वह प्रजानी पन होनेके कारण मिथ्या दृष्टि है। और जिसके ऐसा प्राशयरूप अज्ञान नहीं है वह ज्ञानदीपन होनेके कारण सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ-निश्चयनयसे कर्ताका स्वरूप यह है कि स्वयंमें अकेला जिस भावरूप परिणमे उमको उस भावका कर्ता कहते हैं, परमार्थ से कोई किसीका मरण नहीं कर सकता, निमित्ततः प्रायुक्षयसे मरण होता । जो पर प्राणीके द्वारा परका मरण मानता वह अज्ञानी है । निमित्तनमित्तिक भावसे कर्मघटनाको कर्ता कहना व्यवहारनयका वचन है, पाश्रयमासे परप्राणीको कर्ता कहना उपचारवचन है, उसे उस प्रकार मानना सम्यग्ज्ञान है। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -. - - -- बन्धाधिकार जो मण्णदि हिंसामि य हिंमिज्जामि य परेहि सत्तेहिं । मो मूढो अगाणी गाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२७॥ ___ मैं पर जीवोंसे घत, जाता परको व घातता हूँ मैं । यो माने अज्ञानी, इससे विपरीत है ज्ञानी ॥२४७॥ यो मन्यते हिनरिम न दिये च परैः सत्वः । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीत: ॥२४७११ परजीवानहं हिनस्मि परजीवैहिस्य चाहमित्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानिवास्मिथ्याष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञामित्वात्सम्यग्दृष्टि: ।।२४७।। नामसंज्ञ ज, पर, सत्त, न, मुह, अण्णाणि, णाणि, एत्तो, दु वितरीद । धातसंज्ञ मन्न अवबोधने, हिंस हिसायां । प्रातिपदिक यत्, च, पर, सत्त्व, तस्, मुह, अज्ञानिन्, शानिन्, अतः, तु, विपरीत । मूलपातु-- मन ज्ञाने, हिसि हिसायां रुधादि । पदविवरण-जो य:-प्रथमा एकवचन । मगणदि मन्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । हिंसामि हिनस्मि-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक० । य च-अध्यय । हिमिज्जामि हिस्य-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक कर्मवाच्य क्रिया । परेहि परैः, सत्तेहि सत्वैः-तृतीया बहु० । सो सःप्र० ए० । मूढो मूढः-प्र० ए० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । णाणी ज्ञानी-प्र० एक० । एतो अत:अव्यय । दु तु-अव्यय । विवरीदो विपरीत:-प्रथमा एकवचन ॥ २४७ ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्वको पहिली । व बादकी ५ गायावोंसे यह स्पष्ट कर दिया गया था कि उपयोग में रागादि करनेसे अर्थात् प्रज्ञानमय अध्यवसाय करनेसे वन्ध होता है । प्रब इस गाथामें उसी मज्ञानमय अध्यवसायके उदाहरणमें बताया गया है कि हिमाका प्रध्यवसान अज्ञानमय भाव है। तथ्यप्रकाश- (१) मैं दूसरे जोवको घातता हूं, ऐसा अध्यवसाय निश्चित प्रज्ञान है । (२) मैं दूसरे जीवोंके द्वारा घाता जाता हूं, ऐसा अध्यवसाय भो निश्चित प्रज्ञान है । (३) सम्यग्दृष्टिके अज्ञानभाव नहीं होता । सिद्धान्त-(१) कर्मबन्धका निमित्त कारण जीवका अध्यवसाय है। (२) जीव प्रज्ञान से अपने में अपने कष्ट के लिये अपनी प्रज्ञानपरिणतिसे मिथ्या अध्यवसाय करता रहता है । दृष्टि---१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय व निमित्तदृष्टि (२४, ५३)।प्रशुद्धनिश्चयन (४७)। प्रयोग-बन्धके कारणभूत अपने प्रज्ञानमय अध्यवसायको भेदविजानसे दूर करना पौर झानमात्र अपने स्वरूपमें उपयोगको लगाना ।। २४७ ।। प्रश्न- यह अध्यवसान क्यों प्रज्ञान है ? उत्तर- [जीवानां] जीवोंका [मरण] मरण [प्रायुःक्षयेण] आयुकर्मके क्षयसे होता है ऐसा [जिनवरः] जिनेश्वर देवोंने [प्राप्त] Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कथमयमध्यवसायोऽज्ञान ? इति चेत्-- थाउक्स्त्रयेण मरणं जीवाणं जिणवरेहिं पण्णुतं । आउंण हरेसि तुमं कह ते मरणं कयं तेसि ॥२४॥ अाउक्खयेण मरणं जीवाणां जिणावरोहिं पण्णत्तं । अाउं न हरंति तुहं कह ने मरणं कयं तेहिं ॥२४॥ आयुविलयसे मरना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते । प्रायु नहीं तुम हरते, फिर कैसे घात कर सकते ॥२४॥ आयुबिलयसे मरना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते । आयु हो जाती नहि, किमि उनसे घात हो सकता ॥२४॥ आयुःक्षयेण मरणं जीवाना जिनवरैः प्रज्ञप्त। आयुन हरसि त्वं कथं त्वया भरणं कृतं तेषां ।। २४८॥ आयुःक्षयेण मरणं जोवानां जिनवरः प्रज्ञप्तं । आयुर्न हरति तव कथं ते मरणं कृतं तः ॥ २४६ ।। मरणं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मक्षयेणैव तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् स्वायु: नामसंज--आउनस्वय, मरण, जीव, जिणवर, पण्णत्त, आउ, ण, तुम्ह, कह, तुम्ह, मरण, कय, त, आडक्यय, मरण, जीव, जिणवर, पण्णत्त, आउ, ण, तुम्ह, कह, तुम्ह, मरण, कय, त। धातुसंज्ञ-- हर हरणे । प्रातिपदिक - आयुक्षय, मरण, जीव, जिनवर, प्रशप्त, आयुष्, न, युष्मद्, कथं, युष्मद्, मरण, कृत, कहा है सो यह मानना कि मैं परजीवको मारता हूं यह प्रज्ञान है, क्योंकि [तेषां] उन परजीवोंके [आयुः] अायुकर्मको [त्वं न हरसि] तू नहीं हरता स्थिया] तो तूने [मरणं] उनका मरण [कथं कृतं] कैसे किया ? तथा [जीवानां] जीवोंका [मरणं] मरण [प्रायुःक्षयेण] प्रायुकर्मके क्षयसे होता है ऐसा [जिनबरैः] जिनेश्वर देवोंने [प्रजप्तं] कहा है सो मैं परजीवों से मारा जाता हूं यह मानना प्रज्ञान है, क्योंकि परजीव तयतेरे [आयुः] आयुकर्मको [न हति] नहीं हरते, इसलिये [तैः] उनके द्वारा [ते मरण] तेरा मरण [कथं कृतं] कैसे किया गया? तात्पर्य-किसीके द्वारा किसी अन्यका मरण मानना अज्ञान है, क्योंकि मरण तो अपनी-अपनी आयुके क्षयसे ही होता है ।। __टीकार्य-निश्चयसे जीवोंका मरण अपने प्रायुकर्मके क्षयसे ही होता है, क्योंकि प्रायुकर्मक्षयका अभाव होनेपर मरणका हुवाना प्रशस्य है। और अन्यका आयुकर्म अन्यके द्वारा हरा जाना शवय नहीं है, क्योंकि आयुकर्म तो अपने उपभोगसे ही क्षयको प्राप्त होता है । इस कारण कोई अन्य किसी अन्यका मरण किसी प्रकार भी नहीं कर सकता । अतः मैं परजीव Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार : कर्म च नान्येनान्यस्य हतु शक्यं तस्य स्वोपभोगेनैव क्षीयमाणत्वात् । ततो न कथं चनापि, अन्योऽन्यस्य मरणं कुर्यात् । ततो हिनस्मि हिस्ये चेत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं ॥२४८-२४६।। तत्, आयु, क्षय, मरण, जीव, जिनवर, प्रज्ञप्त, आयुष्, न, युष्मद्, कथं, युष्मद्, मरण, कुत, तत् । मूलधातु-हत्र हरणे भ्वादि । पदविवरण-आउखयेण आयु:क्षयेन-तृतीया एक० । मरणं-प्रथमा एक जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहु । जिणवरेहिं जिनवरैः-तृतीया बहु० । पण्णत्तं प्रज्ञप्त-प्रथमा एक० । आउं आयु:-द्वि० ए० । ण न-अव्यय । हरेसि हरसि वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० । तुम त्वं-प्रथमा एक० । कह कथं-अव्यय । ते त्वया-तृ० ए० मरण-प्र० ए० । वयं कृत-प्र० ए. । तेसि तेषां-षष्ठी बहु० । आउपखयेण आयुःक्षयेन-तृ० ए० । मरणं--प्रथमा एक । जीवाणं जीवाना-पाठी बहु । जिणवरेहि जिनबर:-- तृ० बहु० । पण्ण तं प्रज्ञप्त-प्र० ए० । आउं आयु:-द्वि० एक० । ण न अव्यय । हरति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । तुहं तव-षष्ठी एक० । मरण-प्र० ए० । कयं कृतं-प्रथमा एकवचन कृदंत क्रिया। तेहिं तै:-तृतीया बहुवचन ।। २४१-२४६ ।। को मारता हूँ तथा परजीवके द्वारा मैं मारा जाता हूं ऐसा अध्यवसाय याने अभिप्राय करना निश्चयसे अज्ञान है । भावार्थ- जैसी मान्यता हो, उस रूप कार्य न हो, बात न हो वही प्रज्ञान है । न तो परके द्वारा अपना मरण होता और न अपने द्वारा परका मरण होता, फिर भी कोई प्राणी किसीके द्वारा किसी अन्यका मरण मानता है यही प्रज्ञान है । यह कथन निश्चयसे है । पर्यायका व्यय होनेको मरण कहते हैं, वहाँ प्रायुक्षयके निमित्तसे मरण कहना व्यवहारनयसे है । और परजीवोंमें इसने इसको मारा, यह कहना उपचारसे है । यहाँ स्वच्छंदत्ता नहीं समझना, किन्तु जो निश्चयको नहीं जानते उनका प्रज्ञान मेटनेको यह विवरण दिया है ताकि जानें कि हिंसाका भाव करना व्यर्थ है, अनर्थ है । प्रसंगविवरण--प्रनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि हिंसाविषयक अध्यवसान अज्ञानमय भाव है । अब इन दो गायावोंमें बताया है कि यह अध्यवसाय प्रज्ञानरूप क्यों है ? तथ्यप्रकाश---(१) मरण अपने प्रायुकर्मके क्षयसे होता है। (२) प्रायुकर्मका क्षय हए बिना मरण नहीं हो सकता। (३) किसीके प्रायुकर्मका हरण किसी अन्य के द्वारा नहीं हो सकता । (४) आयुकर्म तो अपने उपभोगसे ही क्षीण होता है । (५) अन्य जीवके द्वारा अन्य का मरण किया जाना अशक्य है । (६) उक्त कारणोंसे यह प्रसिद्ध है कि मैं परजीवोंको मारता हूं व परजीवोंके द्वारा में मारा जाता हूं यह अभिप्राय होना निश्चित अज्ञान है। सिद्धान्त-(१) आयुकर्मके क्षयके निमित्तसे देहत्यागरूप मरण होता है । (२) अध्यबसाय जीवका जीवमें स्वयंके अज्ञानभावसे होता है । दृष्टि -१- निमित्तदृष्टि (५३) । २- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७)। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- ४३४ समयसार जीवनाध्यवसायस्थ तद्विपक्षस्य का बार्ता ? इति चेत् जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहि सत्तेहिं । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२५॥ परसे मैं हैं जीवित, परजीवोंको भि में जिलाता है। यों माने अज्ञानी, इससे विपरीत है ज्ञानी ॥२५०॥ यो मन्यते जीवयामि च जीव्ये चापरः सत्त्वः । स मूढोऽज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीतः ।। २५० ।। परजीवानह जीबयामि परजीवीव्ये चाहमित्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं स तु यस्यास्ति नामसंज्ञ-ज, य, पर, सत्त, त, मुढ, अण्णाणि, पाणि, एतो, दु, विवरीद । धातुसज्ञ-मन्न अवबोघने, जीव प्राणधारणे । प्रातिपविक-यत्, च, पर, सत्त्व, तत्, मूड, अज्ञानिन्, ज्ञानिन्, अत:, तु, दिप प्रयोग—किसी जीवके हिंसाविषयक अध्यवसायसे किसी अन्यका मरण नहीं होता, ऐसा जानकर परको मारता हूं या परके द्वारा मैं मारा जाता हूं। इस मिथ्या अध्यवसायको छोड़ना ।। २४८-२४६ ।। प्रश्न-~मरणका अध्यवसाय प्रज्ञान है यह तो जान लिया, परन्तु उस मरका प्रतिपक्षो जो जोनेका अध्यवसाय है उसकी क्या बात है ? उत्तर-[यः] जो जीव [मन्यते] यह मानता है कि [जीवयामि] मैं एरलीलों को जिलाता हूं चि] और [परैः सत्त्वः च] और परजीवोंके द्वारा [जीव्ये] मैं जोवित किया जा रहा हूं [स मूढः] वह मूढ है [अज्ञानी] प्रशानी है [तु] परन्तु [अतः] जो इससे [विपरीतः विपरीत है [ज्ञानी] वह ज्ञानी है याने जो किसीके द्वारा किसी अन्यका जीवन नहीं मानता वह झानी है । तात्पर्य-किसी अन्यके द्वारा किसी अन्यका नीवन मानना भी अजान है, क्योंकि जीवन अपने-अपने आयुकर्मके उदयसे ही होता है। टीकार्थ--परजीवोंको मैं जिलाता हूं और परजीवोंके द्वारा मैं जीवित रहता हूं ऐसा प्राशय निश्चयसे अज्ञान है जिसके यह प्राशय हो वह जीव अमानीपन के कारण मिथ्या दृष्टि है पौर जिसके ऐसा अध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनके कारण सम्यग्दृष्टि है । भावार्थ--ऐसा मानना कि मुझे पर जीव जिलाते हैं और मैं परजीवको जिलाता हूं. यह अज्ञान है । जिसके मशान है वह मिथ्यादृष्टि है, जिसके वस्तुस्वातन्त्र्य व यथार्थ निमित्तनैमित्तिक भावका ज्ञान है वह ज्ञानी सम्यग्दृष्टि है। प्रसंगधिवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें हिंसाविषयक अध्यवसायको अज्ञानपना सिद्ध किया था । अब इस गाथामें हिसाध्यवसायके विषयभूत जीबनाध्यवसायका अज्ञानपना बताया Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार सोऽज्ञानित्वान्मिथ्याष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः ।। २५० ।। रीत । मूलधातु-मन ज्ञाने दिवादि, जीव प्राणधारणे स्वादि । पदविधरण-- जो य-प्रथमा एकवचन । मण्णदि मन्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया । जीवेमि जीवधामि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुप एक णिजत किया । जीविज्जामि जीव्ये-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक कर्मवाच्य क्रिया । च-अव्यय । परेहि परः तृतीया बहु । सत्तेहिं सत्व:-तृ० बहु० । सो स:-प्रथमा एक० । मुढो मूढः- प्रथमा एक० । अणगी अज्ञानी-प्रथमा एक० । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक ! एत्तो अत:-अव्यय । दुतु-अव्यय । विवरीदो विपरीत:-प्रथमा एकवचन ।। २५० ॥ तथ्यप्रकाश--(१) अन्य जीवोंको मैं जिलाता है यह अध्यवसाय अज्ञान है । (२) अन्य जीवोंके द्वारा मैं जिलाया जा रहा हूं यह अध्यवसाय भी अज्ञान है । (३) जिसके मिथ्या अध्यवसाय है वह मिथ्यादृष्टि है । (४) जिसके मिथ्या अध्यवसाय नहीं है वह सम्यग्दृष्टि है । (५) ज्ञानी जीव तो जीवनमरणविषयक अज्ञान व रागद्वेष न रखकर सहजशुदात्मत्वकी भावनासे उत्पन्न परम प्रानन्दके स्वादमें रत रहता है । सिद्धान्त-(१) जीवनाध्यवसाय भी कर्मबन्धका निमित्त कारण है । दृष्टि--१- निमित्तत्वदृष्टि (५३) । प्रयोग–बन्धके कारणभूत इस अज्ञानमय जीवनाध्यबसायको भी छोड़कर निज सहज शुद्धात्मत्वको भावनामें उपयोग लगाना ।। २५० ।। प्रश्न---यह जिलानेका अध्यवसाय प्रज्ञान क्यों है ? उत्तर----[जीवः] जीव [आयुरुदयेन] आयुकर्मके उदयसे [जीवति] जीता है [एवं] ऐसा [सर्थज्ञाः] सर्वज्ञदेव [भरगति] कहते हैं, परन्तु [स्व] लू [आयुः च] परजीबको आयुकर्म [न वदासि] नहीं देता तो त्वया] तुने [तेषां] उन परजीवोंको [जोषितं] जीवित [कथं कृतं कैसे किया ? [च] और [जीवः] जीव [मायुरुदयेन] आयुकर्मके उदयसे [जीवति] जोता है [एवं] ऐसा [सर्वज्ञाः सर्वज्ञदेव [भरपंति] कहते हैं सो हे भाई परजीव [सव प्रायुः] तुझे मायुकर्म [न ददति नहीं देते [नु] तो [तः] उनके द्वारा [तव जीवितं] तेरा जीवन [कथं कृतं कैसे किया गया ? तात्पर्य-प्रायुकर्मके उदयसे ही जीवन होता है, अतः किसी परके द्वारा अन्य परका जीवन मानना अज्ञान है। टोकार्थ--निश्चयत: जोवोंका जीवित रहना अपने श्रायुकर्मके उदयसे ही है, क्योंकि यदि प्रायुके उदयका प्रभाव हो तो उसका जीवित होना अशक्य है । तथा अपना आयुकर्म किसी दूसरेके द्वारा किसी दूसरेको नहीं दिया जा सकता, क्योंकि उस आयुक्रर्मका अपने परि Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कथमयमध्यबसायोऽज्ञानमिति चेत् ? श्राऊदयेण जीवदि जीवो एवं भांति सव्वण्हू । अाउं च ण देसि तुमं कहं तए जीवियं कयं तेसिं ॥२५१॥ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं भणंति सब्बराहू । अाउं च ण दिति तुहं कहं णु ते जीवियं कयं तेहिं ॥२५२॥ (युग्मम्) आयु उक्ष्यसे जोना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते । आयु नहीं तुम येते, कैसे जीवित भि कर सकते ॥२५१॥ प्रायु उदयसे जीना, जीवोंका हो जिनेश यह कहते । आयु न की जा सकती, फिर उनसे जीधना कसे ॥२५२।। आयुरदयेन जीवति जीव एवं भणंति सर्वज्ञा: । आयुश्च न ददासि त्वं कथं त्वया जीवितं कृतं तेषां ।।२५।। आयुरुन्द्रयेन जीवति जीव एवं भणति सर्वज्ञाः । आयुश्च न ददति तुभ्यं कथं नु ते जीवितं कृतं तैः ।।२५२।। जीवितं हि तावज्जीवानां स्वायुःकर्मोदयेनैव, तदभावे तस्य भावयितुमशक्यत्वात् । प्रायुःकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैव उपाय॑माणत्वात् । ततो न कथं. नामसंझ-आऊदय, जीव, एवं, सव्वाहु, आउ, च, ण, तुम्ह, कहं, तुम्ह, जीविय, कय, त, आऊदय, जीव, एवं, सब्वाह, आउ, च, ण, तुम्ह, जीविय, कय, त । धातुसंज्ञ--जीव प्राणधारणे, भण कथने, दा दाने । प्रातिपदिक-आयुरुदय, जीव, एव, सर्वज्ञ, आयुष्, च, ण, युष्मद्, कथं, युष्मद, जीवित, कृत, तत्, भायुरुदय, जीब, एवं, सर्वश, आयुष्, कथं, कथं, तु, युष्मद, जीवित, कृत, तित् । मूलधातु-जीव प्राणणामोसे ही उपजना होता है इस कारण दुसरा दूसरेका जीवन किसी तरह भी नहीं कर सकता। अतः मैं परको जिलाता हूं तथा परके द्वारा मैं जिलाया जाता हूँ ऐसा अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है । भावार्थ-जैसे मरणका अध्यवसाय अज्ञान है ऐसे ही जीवनका अध्य. वसाय भी अज्ञान है। प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि हिंसाध्यवसायका विपक्षभूत जीवनाध्यवसाय भी प्रज्ञान है। अब इन दो गाथानोंमें बताया गया है कि जीवनाध्यवसाय अज्ञानभाव कैसे है ? तय्यप्रकाश-(१) जीवन अपने प्रायुकर्मके उदयसे होता है । (२) आयुकर्मका क्षय हुए बिना जीवन नहीं हो सकता । (३) किसीको प्रायुकर्मका देना अन्य जीवके द्वारा नहीं हो सकता । (४) प्रायुकर्म तो अपने परिणामसे ही अजित होता है । (५) अन्य जीवके द्वारा अन्यका जीवन किया जाना अशक्य है। (६) उक्त कारणोंसे यह सिद्ध है कि मैं परजीवोंको Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दाधिकार चनापि अन्योऽन्यस्य जीवितं कुर्यात् । अतो जीवयामि जीव्ये चेत्यध्यबसायो ध्र वमज्ञानं ।। २५१-२५२ ॥ धारणे, भण शब्दार्थः, इंदाज दाने । पदविवरण-आऊदयेण आयुरुदयेम-तृतीया एक० 1 जीवदि जीवतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जीवो जीवः-प्रथमा एकवचन । एवं अव्यय । भणति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु· । सव्वण्हू सर्वज्ञाः-प्रथमा बहु० । आउं आयु:-द्वितीया एक० । देसि ददासि-वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । तुम त्वं-प्र० ए० । दिति ददति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । तुहं तुभ्यंचतुर्थी एकवचन । ते-षष्ठी एकवचन ।। २५१-२५२ ।। जिलाता हूं या परजीवोंके द्वारा में जिलाया जाता हूं यह अध्यवसाय होना निश्चित अज्ञान सिद्धान्त---(१) आयुकर्मके उदयके निमित्तसे देहसयोग होता है । (२) जीवनाध्यवसायविषयक अज्ञान भाव जीवका जीवमें स्वयं के परिणामसे होता है ! . दृधि ....... निविष्टि (५३२- अनिश्चयनय (४७) । प्रयोग --किसी जीवके जीवनविषयक कर्तृत्वाध्यवसायसे किसी अन्यका जीवन नहीं होता ऐसा जानकर जीवन कर्तृत्वाध्यवसायको छोड़कर सहजशुद्धात्मत्वको भावनामें रत होने का पौरुष करना ।। २५१-२५२ ।। दुःख-सुख करनेके अध्यवसायको भी यही गति है--[यः] जो जीव [इति मन्यते तु] ऐसा मानता है कि मैं [आत्मना] अपने द्वारा [सत्स्वान] परजीवोंको [दुःखितखितान्] दुःखी सुखी [करोमि] करता हूं [स मूढः] वह मूढ याने मोही है, [अज्ञानी] अज्ञानी है [तु] किन्तु जो [अतः] इससे [विपरीतः] विपरीत है वह [ज्ञानो] ज्ञानी है। तात्पर्य--कोई भी जीव अपने भाव करनेके सिवाय अन्य कुछ नहीं कर सकता, किंतु मोही जीव अज्ञानसे ऐसी मान्यता करता है कि मैं अमुक जीवको सुखो या दुःखी करता हूं। ____टीकार्थ—परजीवोंको मैं दुःखी और सुखी करता हूं तथा परजीव मुझे सुखी व दुःखी करते हैं ऐसा अध्यबसाय निश्चयसे अज्ञान है और जिसके ऐसा अज्ञान है यह अमानोपनके कारण मिथ्यादृष्टि है तथा जिसके यह अज्ञान नहीं है वह ज्ञानोपनके कारण सम्यग्दृष्टि है। भावार्थ- मैं परजीवको सुखी-दुःखी करता हूं, यह मानना प्रजान है । जिसके यह मान्यता वह अज्ञानी है तथा जिसके यह विपरीत मान्यता नहीं है वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें यह बताया गया था कि जीवमाध्यवसाय मज्ञानभाव वस है ? अब इस गाथा पराया 18 किस पुल के समयमासको भी यही हालत है याने यह अध्यवसाय भी प्रज्ञान है। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ समयसार दुःखसुखकरणाध्यवसायस्यापि एषव गतिः जो अप्पणा दु मण्णदि दुःखिदसुहिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥२५३॥ ' जो स्वयं इतर जीवों को करता है सुखो दुखी माने । वह मोही अज्ञानी, इससे विपरीत है ज्ञानी ॥२५३॥ य यात्मना तु मन्यते दुःखितसुखितान् करोमि सत्त्वानिति । स मूढोज्ञानी ज्ञान्यतस्तु विपरीत: ।।२५३॥ परजीवानहं दुःखितान् सुखितांश्च करोमि, परजीवःखितः सुखितश्च क्रियेह, इत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं ! स तु यस्यास्ति सोऽज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टिः । यस्य तु नास्ति स ज्ञानित्वात् सम्यग्दृष्टिः ॥ २५३ ।। नामसंज्ञ-ज, अप्प, दु, दुःखिदसुहिद, सत्त, इत्ति, त, मूढ, अण्णाणि, गाणि, एत्तो, दु, विवरीद । घातुसंज्ञ--मन्न अवबोधने, कर करणे । प्रातिपदिक- यत्, आत्मन्, तु, दुःखित सुखित, सत्त्व, इति, तत्, मृट, अज्ञानिन्, शानिन्, अतः, तु, विपरीत । मूलधातु-मन ज्ञाने, डुकृञ् करणे । पदविवरण-जो यःप्रथमा एकवचन । अग्पणा आत्मना-तृतीया एकः । दु तु-अव्यय । मभ्णादि मन्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । दु:खिदसुहिदे दुःखितसुखिते-द्वि० बहु०.। करेमि करोमि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक० किया। सत्ते सत्यान्--द्वि० बहु० । इति-अव्यय । सो सः-प्र० ए० । मूढो मूढः-प्र० एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्र० ए. पाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । एत्तो अत:-पंचम्पर्थे अन्या ! दुमय : दिवरीयो विपरीत:-प्रथमा एकवचन ।। २५३ ॥ तथ्यप्रकाश--(१) परजीवोंको मैं दुःखी करता हूं, यह प्रध्यवसाय प्रज्ञान है । (२) परजीवोंको मैं सुखी करता हूं, यह अध्यवसाय प्रज्ञान है । (३) परजीबोंके द्वारा मैं दुःखी किया जाता हूं, यह अध्यवसाय प्रज्ञान है । (४) परजीवोंके द्वारा मैं सुखी किया जाता हूं, यह अध्यवसाय अज्ञान है । (५) जिसके दुःस्वकर्तृत्वाध्यवसाय है वह अज्ञानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है । (६) जिसके सुखकर्तृत्वाध्यवसाय है वह प्रशानीपनेके कारण मिथ्यादृष्टि है । (७) जिसके दुःखकर्तृत्वाध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है । (८) जिसके सुख कर्तृत्वाध्यवसाय नहीं है वह ज्ञानीपनेके कारण सम्यग्दृष्टि है। सिद्धान्त-(१) दुःखसुखकरणाध्यवसाय भी कर्मबन्धका निमित्त कारण है । दृष्टि- १- निमित्तत्वदृष्टि (५३)।' प्रयोग-बन्धके कारणभूत इस दुःखसुखकरणाध्यवसायको भी छोड़कर निज सहज शुद्धात्मस्वरूपमें उपयोग लगाना ।। २५३ ।। प्रश्न - दुःख सुख देते हुए अध्यवसाय प्रज्ञान कैसे है ? उत्तर- [यदि] यदि [सर्वे Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथमयमध्यवसायोऽज्ञानमिति वेद- बन्धाधिकार कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसु हिदा हवंति जदि सव्वे | कम्मं च ण देसि तुमं दुक्खिदसुहिदा कहं क्या ते ॥ २५४॥ कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुहिदा हवंदि जदि सव्वे | कम्मं चादिति तुहं कदोसि कह दक्खिदो तेहिं ॥ २५५ ॥ कम्मोदएण जीवा दुक्खिदसुदा हवंति जदि सब्वे । कम्मं चणदिति तुहं कह तं सुहिदो कदो तेहिं ॥ २५६ ॥ कर्म उदय से प्राणी, स्वयं हि होते सुखी दुखी उनको । कर्म न दे सकते तुम, सुखी दुःखी फिर किये कैसे ॥ २५४॥ कर्म उदयसे प्रारणी, स्वयं हि होते सुखी दुखो तुमको | कर्म दिया नहिं जाता, उनसे फिर दुख मिले कैसे ।। २५५ || कर्म उदय से प्रारणी, स्वयं हि होते सुखी दुखी तुमको | कर्म दिया नहिं जाता, उनसे फिर सुख मिले कैसे ॥ २५६ ॥ कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवंति यदि सर्वे कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवंति यदि सर्वे कर्मोदयेन जीवा दुःखितसुखिता भवति यदि सर्वे I 1 ४३६ कर्म च न ददासि त्वं दुःखितसुखिताः कथं कृतास्तैः । कर्म च न ददति तव कृतोसि कथं दुःखितस्तैः । कर्म च न ददति तव कथं त्वं सुखितः कृतस्तैः । सुखदुःखे हि तावज्जीवानां स्वकर्मोदयेनैव तदभावे तयोर्भवितुमशक्यत्वात् । स्वकर्म च नान्येनान्यस्य दातुं शक्यं तस्य स्वपरिणामेनैवोपायमाणत्वात् । ततो न कथंचनानि श्रन्योन्य नामसंज्ञकम्मोदय, जीव, दुविस्वदसहिद, जदि, सभ्य, कम्म, च, ण, तुम्ह, दुविस्वदहिद कहें, कय, त कम्मोदय, जीव, दुक्खिदसुहिद, जदि, सव्व, कम्म, च, ण, तुम्ह, कद, कहं, दुविखद, त, कम्मोदय, जीवाः ] सब जीव [ फर्मोदयेन ] अपने कर्मोदयसे [दुःखितसुखिताः ] दुःखी सुखी [भवंति ] होते हैं [च] और [त्थं] तु उन जीवोंको [ कर्म] कर्म [ न ददासि ] देता नहीं तो तुम्हारे द्वारा [ते] a [ दुःखितसुखिताः ] दुःखी सुखी [ कथं कृताः] कैसे किये गये ? तथा [ यदि ] यदि [सर्वे जीवाः ] सब जीव [ कर्मोदयेन ] अपने कर्मोदयसे [दुःखितसुखिताः] दुःखी सुखी [भवंति ] होते हैं [च] और वे जीव [ तब ] तुझको [ कर्म] कर्म तो [न ददति ] देते नहीं [लैः ] तो उनके द्वारा [दुःखितः कथं ] तू दुःखो कैसे [कृतोसि ] किया गया ? [च] तथा [ यदि] यदि [ सर्वे ] जीवाः ] सभी जीब [ कर्मोदयेन ] अपने कर्मोदयसे [दुःखितसुखिताः ] दुःखी Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स्य सुखदुःखे कुर्यात् । प्रत: सुखितदुःखितश्च क्रिये चेत्यध्यवसायो ध्र वमज्ञानं । सर्व सदैव नियतं भवति स्वकोयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यं । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात् जीव. दाक्ति सहिदा. जदि. सध्व. कम्म, च. ण. तम्ह, कहा, तम्ह, सहिद, कद, त। धातसंज्ञ-हव सत्तायां, दा दाने, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-कर्मोदय, जीव, दुःखितसखित, यदि, सर्व, कर्मन्, युष्मद, कर्थ, कृत, सुखी [भवंति] होते हैं [च] और वे [तब तुझको [कर्म] कर्म [न बदति ] दे नहीं सकते तो [तैः] उनके द्वारा [त्वं सुखितः] तू सुखी [कथं कृतः] कैसे किया गया ? तात्पर्य—साता असाता प्रकृतिकर्मोदयसे ही जीव सुखी दुःखी होते हैं तो किसीने किसी दूसरेको सुखी दुःखी किया यह मानना अज्ञान है । टीकार्य-सुख-दुःख तो जीवोंको अपने कर्मोदयसे ही होते हैं, क्योंकि कर्मोदयका प्रभाव होनेपर उन सुख-दुःखोंके होनेको अशक्यता है । और अन्य पुरुषके द्वारा अपना कर्म अन्यको दिया नहीं जा सकता, क्योंकि वह कर्म अपने-अपने परिणामोसे ही उत्पन्न होता है, इस कारण अन्य कोई अन्य दूसरेको सुख-दु:ख किसी तरह भी नहीं दे सकता । अत: "मैं परजीवोंको मुखी दुःखी करता हूं और परजीवोंसे मैं सुखी-दुःखी किया जाता हूं" यह अध्यवसाय निश्चयसे अज्ञान है । भावार्थ-सब जीव अपने-अपने कमंदियसे सुखो दुःखी होते हैं । फिर भी जो ऐसा माने कि मैं परजीवको सुखी-दुःखी करता हूं और परजीव मुझे सुखी-दुःखी करते हैं तो यह मानना निश्चयसे अज्ञान है । हों, प्राश्रयभूत कारण याने नोकर्मको दृष्टिसे अन्यको अन्यका सुख-दुःखका करने वाला कहते हैं सो यह उपचार है । निमित्तनैमित्तिक भावकी दृष्टि से सुख-दुःख का करने वाला कर्मोदय है। अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं-सर्प इत्यादि । अर्थ-इस लोक में जीवोंके जीवन मरण दुःख सुख सभी सदैव नियमसे अपने-अपने कमोदयसे होते हैं । तब कोई पुरुष अन्यके जीवन मरण दुःख सुखको करता है, यह मानना अज्ञान है । भावार्थ-कोई जीव किसी दूसरेको सुख-दुःख देनेका निमित कारण भी नहीं है, फिर भी किसीको अन्यका सुस्व. दुःखदाता मानना, यह बिल्कुल अज्ञान है। अब फिर इसी अर्थको दृढ़ करते हुए कहते हैं- अज्ञान इत्यादि । अर्थ-इस पूर्व. कथित प्रज्ञानको प्राप्त करके जो पुरुष परसे परका जीवन, मरण, दुःख-सुख होना मानते हैं वे पुरुष "मैं इन कर्मोको करता हूं" ऐसे अहंकाररससे कर्मोके करनेके इच्छुक याने मारने जिलानेके सुखी दुःखी करनेके इच्छुक प्राणी नियमसे मिथ्यादृष्टि हैं और अपने प्रात्माका हो घात करने वाले होते हैं । भावार्थ-जो परको मारने जिलाने तथा सुख-दुःख करनेका प्राशय Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार पुमान मरणजीवितदुःखसौख्यं ॥१६॥ अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यति ये भरणजीवितदुःखसौख्यं । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवंति ॥१६६॥ ।। २५४-२५६ ।। तत् आदि । मूलधातु-भू सत्तायां, बुदात्र दाने, अस् भुवि । पदविवरण--कम्मोदयेण कर्मोदयेन-तृतीया एकवचन । जीवा जीवा:-प्रथमा बहु०। दुक्खिदसुहिदा दुःखितसुखिता:-प्रथमा बहु० । हवंति भवंतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । जदि यदि-अव्यय । सव्वे सर्वे-प्रथमा बहु । कम्म कर्म-द्वितीया एक० । देसि ददासि-वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० क्रिया । तुम त्व-प्रथमा एक० आदि पूर्ववत् ।। २५४-२५६ ।। रखते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं तथा अपने स्वरूपसे च्युत होकर रागो द्वेषो मोही होनेके कारण स्वयं अपना घात करते हैं इस कारण वे हिंसक हैं । । प्रसंगविवरण----प्रनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि परजीवके प्रति दुःख मुख करनेका अध्यवसाय प्रज्ञान है । अब इन तीन गाधाषोंमें यह बताया गया है कि दुःख सुख करनेका अध्यवसाय प्रज्ञान कैसे है ? तध्यप्रकाश-१) जीव अपने भनार्मोदय पुरली होते हैं। (२) जीव अपने अशुभकर्मोदयसे दुःखी होते हैं । (३) शुभ कर्मोदयके बिना जीव सुखी नहीं हो सकते । (४) जीव प्रशुभ कर्मोदयके बिना दुःखी नहीं हो सकते । (५) अन्यका कर्म किसी अन्यके द्वारा नहीं दिया जा सकता है । (६) शुभ अथवा अशुभ सभी कर्म अपने परिणामसे ही अजित होता है । (७) उरत कारणोंसे कोई भी जीव किसी अन्य जीवका सुख दुःख नहीं कर सकता है । (८) मैं दुसरोंको दुःखी करता हूं यह अध्यवसाय अज्ञान है । (९) मैं दूसरोंको दुःखी करता हूं, यह अध्यवसाय प्रज्ञान है । (१०) मैं दूसरोंके द्वारा सुखी किया जाता हूं, यह मध्यवसाय प्रज्ञान है । (११) मैं दूसरों के द्वारा सुखी किया जाता हूं, यह अध्यवसाय अज्ञान है । (१२) दूसरोंको सुखो दुःखी करनेके अहंकार रससे विचित्र चेष्टाय करते हुए मिथ्याष्टि जीव अपना हो घात करते हैं। सिद्धान्त—(१) शुभाशुभ कर्मोदयका निमित्त पाकर जीव सुखी अोर दुःखी होते हैं । (२) सुखी दुःखी करनेके अहंकार विकल्पसे परिणत जीव अपने पापको प्राकुलित करते हुए प्रज्ञानसे स्वयंका घात करते हैं। दृष्टि-१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकमय (२४) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । प्रयोग हम अपने प्रापका ही परिणमन कर सकते हैं किसी अन्यका नहीं ऐसा जानकर अपने स्वभावका अवलम्बन करके अपनेको प्रनाकुल व पवित्र रखना ॥२५४-२५६॥ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार जो मरइ जो य दुहिदो जायदि कम्मोदयेण सो सव्वो। तमा दु मारिदो दे दुहाविदो चेदि गा हु मिच्छा ॥२५७॥ जो णा मरदि ग य दुहिदो सोवि य कम्मोदयेण चेव खलु । तमा ण मारिदों णो दुहाविदो चेदि ण हु मिच्छा ॥२५८॥ (युगलम्) जो परे कुशी होते, गह हाल है व उत्यो शिर तो। मारा दुखी किया मैं, क्या ये नहिं भाव हैं मिथ्या ॥२५७॥ जो न मरे न दुखी हो, वह सब भी कर्म उदयसे फिर तो। न दुखी किया न मारा, क्या ये नहिं भाव हैं मिथ्या ॥२५८।। यो म्रियते यदच दुःखितो जायते कादियेन स सर्वः । तस्मातु मारितरते दुःखापितदचेति न खलु मिथ्या? यो न म्रियते न च दुःखितः सोपि च कर्मोदयेन चैव खलु, तस्मान्न मारितो नो दुःखापितश्चेति न खलु मिथ्या? यो हि म्रियते जीवति वा दुःखितो भवति मुखितो भवति च स खलु कर्मोदयेनैव तदभावे तस्य तथा भवितुमशक्यत्वात् । ततः मयायं मारितः, अयं जीवितः, अयं दःखितः कृतः, नामसंज्ञ.. जज, य, दुहिद, कम्मोदय, त, मद, त, दु, मारिद. तुम्ह. दुहाविद, च, इदि, ण, दु. मिच्छा, ज, ण, ण, य, दुहिद, त, वि, कम्मोदय, च, एक, खलु, त, ण, मारिद, च, इदि, ण, दु, मिच्छा। धातुसंशपर प्राणत्यागे, दुक्ख दुःखने, जा प्रादुर्भाये । प्रातिपदिक -- यत्, यत्, च, दुःखित, कर्मोदय, तत्, सवे, तत्, तु, मारित, युष्मद्, दुःखापित, च, इति, न, तु, मिथ्या, यत्, न, च, दुःखित, तत्, अपि, च, को प्रब दुःखी सुखी करनेके अध्यवसायका मिथ्यापन कहते हैं- [यः म्रियते] जो मरता है [च यः दुःखितो जायते] और जो दुःखी होता है [सः] वह [सर्वः] सब [कर्मोदयेन कर्मोदयसे होता है [तस्मात् तु] इस कारण [मारितः च दुःखितः इति] "मैं मारा गया, मैं दुःखी किया गया" ते] तेरा यह अभिप्राय [खलु न मिथ्या क्या मिथ्या नहीं है ? तथा [य: न म्रियते] जो नहीं मरता [च न कुखितः] और न दुःखी होता [सोपि च वह भी [कर्मोक्येन चैव खलु] वास्तबमें कर्मोदयसे ही होता है [तस्मात् ] इस कारण [न मारित: नो दुःखितश्च इति] "मैं मारा नहीं गया और न दुःखी किया" यह भी अभिप्राय [खतु मिथ्या न] क्या मिथ्या नहीं है ? मिथ्या ही है। तात्पर्य-जब जीव अपने-अपने कर्मोदयसे सुखी द:खी होते हैं सब किसी अन्यको अन्यके सुख दुःखका कर्ता मानमा अज्ञान ही है। टीकार्थ--वास्तव में जो मरता है, जीता है, दुःखी होता है तथा सुखी होता है वह सब अपने कर्मोदयसे होता है। क्योंकि उस कर्मके उदयका अभाव होनेपर उस जीवके उस Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४४३ अयं सुखितः कृतः इति पश्यन् मिथ्याष्टिः ॥ मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बंधहेतुविपर्ययात् । य एवाध्यवसायोयमज्ञानात्मास्य दृश्यते ।।१७०। ।। २५७.२५८ ।। दय. च, एव, खलु, तत् न, मारित, न, दुःखापित, च, इति, न. तु, मिथ्या । मूलधातु ----मृड त्यागे तुदादि, जनी प्रादुर्भावे दिवादि, दुःख तस्क्रियायां चुरादि। पदविवरण जो यः-प्रथमा एक० । च-अव्यय । दुःखित:-प्रथमा एक० । कम्मोदयेण कर्मोदयेन-तृतीया एक०। सो स:-प्र० ए० । सम्वो सर्व:-० ए०। तम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । दु तु-अव्यय । मारिदो मारित:-प्र० ए० । दे ते-षष्ठी एक | दुहाविदो दुःखापित:-प्रथमा एक०। च इदि ण हु, च इति न खलु-अव्यय । मिच्छा मिथ्या-प्रथमा एक० । मरदि भ्रियते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया। जायदि जायदि जायते--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । शेष पुर्ववत् ।। २५७-२५८ ।। तरहका फल याने मरण जीवन सुख दःख नहीं हो सकता । इस कारण मेरे द्वारा यह माग गया, यह जिवाया गया, यह दुःखी किया गया, यह सखी किया गया, ऐसा मानता हुमा जीव मिथ्यादृष्टि है । भावार्थ-जब किसीके सुख दुःखमें अन्य जीव । सो उपादान कारण है और न निमित्त कारण है तब अन्य के मारने जिवाने प्रादिका जो अभिप्राय करता है वह मियादृष्टि ही होता है । मारने प्रादिका भाव कर्मबंधहेतु है, अतः ऐसा अज्ञानभाव नहीं रखना । अब इसी अर्थकों स्पष्ट करते हैं--मिथ्यादृष्टेः इत्यादि । अर्थ---मिथ्याप्टिका यह अध्यवसाय विपर्ययस्वरूप होनेसे वह प्रत्यक्ष अज्ञानरूप है और वही अभिप्राय इस मिथ्यादृष्टि के बन्धका कारण है । भावार्थ-मिथ्या प्राशय ही मिथ्यात्व है व वही बंधका कारण है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व २४७ से २५६ गाथा तक दुसरेके मरण आदि करने अध्यवसायोंको प्रज्ञान बताया गया था । मब उन्हीं सब कथनोंका उपसंहाररूप निष्कर्ष इन दो गाथावों में बताया गया है । ___ तथ्यप्रकाश-(१) मरण जीवन दुःख सुख होना कर्मोदयसे ही होता है । (२) नये जीवनका ही नाम मरण है । (३) नवीन प्रायुके प्रथम समयमें अर्थात् प्रथम निषेकोदयके समय पूर्वभव नहीं रहता, इस कारण मरण होना भी नवीन प्रायुके उदयसे कहा जाता है । (४) मैं किसी अन्यको कर्मोदय दे नहीं सकता, अतः मैंने इसे मारा, जिलाया, सुखी किया, दुःखी किया, ऐसा देखना मिथ्यात्व है । सिद्धान्त-(१) जीव के मरण जीवन सुख दुःख होने में निमित्त कारण कर्मोदय है। (२) दूसरे जीवके सुख-दुःख आदि होने में अन्य जीव उपादान व निमित्त दोनों ही कारण न होनेपर भी काका व्यवहार करना मात्र उपचार है। दृष्टि--१- निमित्तत्वदृष्टि (५३) । २- परकर्तृत्व उपचरित असद्भूत व्यवहार Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 4 ४४४ समयसार एसा दुजा मई दे दुक्खिदसुहिदे करेमि सत्तेति । एसा दे मूढमई सुहासुहं बंध कम्मं ॥ २५६ ॥ यदि तेरी मति यह हो, जीवोंको मैं सुखो दुखी करता । तो यह मोहितमति ही, बांधे शुभ या अशुभ विधिको ॥ २५६ ॥ एषा तु या मतिस्ते दुःखित सुखितान् करोमि सत्वानिति । एषा ते मूढमतिः शुभाशुभं बध्नाति कर्म २५६॥ परजीवानहं हिनस्मि न हिनस्मि दुःखयामि सुखयामि इति य एवायमज्ञानमयोऽध्यव नामसंज्ञ - एता, दु, जा, मह, तुम्ह, दुक्खिदहिद, सत्त, ते एता, तुम्ह, मूढमइ, सुहासुह, कम्म । धातुसंज्ञ कर करणे, बंध बन्धने । प्रातिपदिक- एनत्, तु, या मति, युष्मद् दुःखित, सुखित, सत्त्व, इति, ... ( १२६ ब ) | प्रयोग - - परपदार्थ के विषय में सभी प्रकारके अध्यवसानों को छोड़कर अविकल्प सहजसिद्ध अन्तस्तत्त्वमें उपयोग करना ।। २५७-२५८ ।। अब यही अध्यवसाय कर्मबन्धका कारण है यह कहते हैं - हे आत्मन [ते तु ] तेरी [इति एषा या मतिः ] ऐसी यह जो बुद्धि है कि मैं [ सत्त्वात् ] जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] सुखी दुःखी [ करोमि ] करता हूं [ एषा ते ] सो यह तेरी [ मूढमतिः ] मूढबुद्धि ही [ शुभाशुभं कर्म] शुभाशुभ कर्मोंको [ बध्नाति ] बांधती है । तात्पर्य- दूसरे जीवोंको दुःखी सुखी आदि करनेका जो अहंकार है वह कर्मबन्धका निमित्त कारण है । टीका --- परजीवोंको मैं मारता हूं, नहीं भारता हूं, दुःखी करता हूं, सुखी करता हूं, ऐसा जो यह अज्ञानमय अध्यवसाय है वह मिथ्यादृष्टिके होता है । यही अध्यवसाय स्वयं रागादिरूपपते के कारण उसके शुभाशुभ बन्धका कारण है। भावार्थ- दुःखी सुखी करने आदिका मिथ्या अध्यवसाय बन्धका कारण है । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्वं गाथाद्वय में मिथ्या अध्यवसायोंका उपसंहारात्मक निष्कर्ष बताया गया था | अब इस गाथा में बताया गया है कि उक्त समस्त श्रध्यवसाय कर्मबन्धका हेतुभूत है । तथ्य प्रकाश---- - ( १ ) मैं दूसरे जीवको सुखी दुःखी करता हूं यह प्रज्ञानमय अध्यवसाय स्वयं रागादि विकाररूप है । ( २ ) रागादि विकाररूप श्रज्ञानमय अध्यवसाय शुभाशुभ कर्मबन्धका निमित्त कारण है । ( ३ ) स्वभावच्युतिके कारण इन श्रध्यवसानोंका कार्य बन्धन हो है, अन्य कुछ नहीं । Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार सायो मिथ्यादृष्टेः स एव स्वयं रागादिरूपत्वात्तस्य शुभाशुभ बंधहेतुः ।। २५६ ।। एता युष्मद् मूढमति, शुभाशुभ कर्मन् । मूलधातु- डुकृञ् करणे, बन्ध बन्धने क्रयादि । पदविवरणएसा एषा प्रथमा एक दु तु-अव्यय । जा या प्रथमा एक० । मई मतिः- प्र० ए० । दे ते-ष्टी एक० । दुखद सुहिदे दुःखितसुखितान् द्वितीया बहु० । करेमि करोमि - वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एकवचन क्रिया । सत्ते सत्त्वान - द्वि० बहु० 1 ति इति-अव्यय । एसा एषा प्रथमा एक० | दे ते पष्ठी ए० । मूढमई मूढमतिःप्रथम एक सुहासुहं शुभाशुभम् - द्वितीया एकवचन । कम्मं कर्म - द्वितीया एक० । बंधये बध्नातिवर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। २५६ ॥ ४४५ सिद्धान्त - - (१) कर्मबन्धका कारण स्वभावच्युत aane रागादि विकाररूप प्रशानमय अध्यवसाय है । दृष्टि - १ - निमित्तदृष्टि ( ५३ ) | प्रयोग - कर्मबन्धके हेतुभूत समस्त अध्यवसायोंको छोड़कर सहजशुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना ।। २५६ ।। अब मिथ्या श्रध्यवसायको बन्धके कारणरूपसे अवधारित करते हैं- मैं [ सत्त्वान् ] ataist [दुःखितसुखितान् ] दुःखी सुखी [ करोमि ] करता हूं [ एवं यत् ते अध्यवसितं ] ऐसा जो तुम्हारा अध्यवसाय है [ तत्] वह अभिप्राय [ पापबंधकं वा ] पापका बंधक है [ या पुण्यस्य बंधकं ] तथा पुण्यका बंधक [ भवति ] है । [ बा] अथवा मैं [ सत्त्वात् ] जीवोंको [ मारयामि] मारता हूं [ जीवयामि ] श्रथवा जिवाता हूं [ यदेवं ते अध्यवसितं ] जो ऐसा तुम्हारा अध्यवसाय है [ तत् ] वह [ पापबंधक या ] पापका बंधक है [ या पुण्यस्य बंधकं ] थवा पुण्यका बंधक [ भवति ] है । तात्पर्य - प्रन्थ द्रव्य में कुछ करनेका भाव शुभ अशुभ भावानुसार पुण्य च पापका बन्ध करने वाला है । टीकार्थ - मिथ्यादृष्टिके जो हो यह प्रशानजन्य रागमय अध्यवसाय है वह ही बन्ध का हेतु है, ऐसा निश्चित जानना । बन्ध पुण्य-पाप के भेदसे दो भेद वाला है सो इसके दो भेद होने से कारणका भेद नहीं खोजना, क्योंकि इस एक हो अध्यवसाय से "मैं दुःखी करता हूं मारता हूं तथा सुखी करता हूं जिवाला हूँ" ऐसे दो प्रकारके अशुभ ग्रहंकाररससे पूर्ण होने से पुण्य पाप दोनोंके ही बन्धहेतुत्वका विरोध है याने अध्यवसायसे ही पुण्य पाप दोनोंका बंध होता है । भावार्थ - प्रज्ञानमय अध्यवसाय ही बंघका कारण है; उसमें चाहे जिवाना सुखी करना यह प्रशुभ अध्यवसाय हो, ग्रहजानना कि शुभका कारण तो अन्य है करना ऐसा शुभ श्रध्यवसाय हो, चाहे मारना दुःखी काररूप मिथ्याभाव दोनोंमें ही है इस कारण ऐसा न " Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अथाध्यवसायं बंधहेतुत्वेनावधारयति दुक्खिदसु हिदे सत्ते करेमि जं एवमझवसिदं ते । तं पावबंधगं वा पुण्णस्म व बंधगं होदि ॥२६०॥ मारिमि जीवावेमि य सत्ते जं एवमझवसिदं ते । तं पावबंधगं वा पुण्णस्स व बंधगं होदि ॥२६१॥ (युग्मम्) दुखी सुखी करता है, हो अध्यवसान भाव यदि तेरे । तो वह अघका बन्धक, अथवा है पुण्यका बन्धक ।। २६०॥ मारू जीवन देऊ, हो अध्यवसान भाव यदि तेरे । तो वह अधका बन्धक, अथवा है पुण्यका बन्धक ॥२६॥ दुःखितसुखितान् सत्वान् करोमि यदेवमध्यवसितं ते । तत्पापबंधक वा पुण्यस्य वा बंधक भवति ।।२६०111 मारयामि जीवयामि च सत्वान् यदेवमध्यवसितं ते । तत्पापबंधकं वा पुण्यस्य वा बंधकं भवति ।।२६१॥ ___ य एवायं मिथ्यादृष्टेरज्ञानजन्मा रागमयोध्यवसाय: स एव बंधहेतुः, इत्यवधारणीयं न च पुण्यपापत्वेन द्वित्वाबंधस्य तद्धत्वंतरमन्वेष्टव्यं । एकेनवानेनाध्यवसायेन दुःखयामि, मारयामि नामसंझ-दुक्खिदहिद, सत्त, ज, एवं, अज्भवसिद, तुम्ह, त, पापबंधग, वा, पुष्ण, वा, बंधग, सत्त, ज, एवं, अज्झवसिद, तुम्ह, आदि । धातुसंज्ञ—कर करणे, हो सत्तायां, मर प्राणत्यागे, जीव प्राणऔर प्रशुभका कारण दूसरा ही है । अज्ञानपने की अपेक्षासे दोनों अध्यवसाय एक ही हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें अध्यवसायोंको कर्मबन्धका हेतु बताया गया था। अब इन दो गाथावोंमें उन्हीं अध्यवसायोंकी विशेषरूपसे बंधहेतुताका अवधारण किया गया है। तथ्यप्रकाश-१-रागमय अध्यवसाय प्रशानसे उत्पन्न होता है । २-अज्ञानमय मध्यवसाय कर्मबन्धका हेतु है । ३-पुण्यकर्म पापकर्म दोनोंके ही बंधका हेतु अध्यवसाय है । ४-दुःखी करने घात करनेके अशुभ अहंकारमें भी हेतु प्रशानमय अध्यवसाय है । ५-सुखी करने जीवन करनेके शुभ अहंकारमें भी हेतु अज्ञानमय अध्यवसाय है। ६--शुभ अशुभ इन दोनों अहंकारोंमें जीव शुद्धात्मभावनासे च्युत है । ७-शुभाहंकाररसनिर्भर अध्यवसाय पुण्यबन्धका हेतु है । -प्रशुभाहंकाररसनिर्भर अध्यवसाय पापबन्धका हेतु है । ६.. अन्य जीवके जीवन मरण सुख दुःख उन्हीं के उपाजित कर्मके उदयके निमित्तसे हैं । १०- निमित्तनैमित्तिक योग भी न हो फिर भी अन्धके कार्यका कर्ता किसी परको बताना असद्भूत व्यवहार है। सिद्धान्त-१--पापबन्ध व पुण्यबंध दोनोंका हेतु प्रध्यवसाय है । २.-जीवोंको सुख - -- Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४४७ . इनि, मुख यामि, जीवयामोति च द्विधा शुभाशुभाहंकाररसनिर्भरतया द्वयोरपि पुण्यपापयोबंध. हेतुत्वस्याविरोधात् ।। २६०-२६१ ।। धाग्यो । प्रातिपदिक . दुःखितमुग्वित, गन्ध, यत्, एवं, अध्यबसित, युष्मद्, तत्, पापबन्धक, वा. पुण्य. वा, बन्धक, मत्त्व, यन, एवं, अव्यवसिन आदि पूर्वोक्त । मूसधातु- डुकृत्र करणे, भू मत्तायां. मृङ, त्यागे तुदादिः जीव प्राणधारगो । पद विवरण दुक्खिदसुहिदे दुःखितसुरिबतान-द्वितीया बहु० । सने सत्त्वानहि० बहु । करेमि करोमि-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एका० । जं यत्-प्रथमा एकः । एवं-अव्यय । अझबसिहं अभ्यमित-प्रत ए० ते-पाठी एक० । तं तत-प्र० एक पापबंधगं पापबन्धक-प्र० एक० । वाअव्यय । पुण्णस्म पुण्यस्य-पप्ठी एक० । वा-अव्यय । बंधगं बन्धक-प्र००होदि भवति-वर्तमान न अन्य पुमा एक.. । मारिमि मारयामि-वर्तमान लट उत्तम पुरुष एकवचन णित क्रिया । जीवावेभि जीवयामि-वर्नमान लद उत्तम गुमप एकवचन णिजात क्रिया। सले सत्त्वान-द्वि. बहु० । जं यत-प्रथमा एकाकुचन । आदि गुक्ति ।। २६०-२६१॥ दुःख अादिका लाभ उनके उपाजित कर्मोके उदासे होता है । दृष्टि--१-- सादृश्यनय (२०२) । २-देवनय (१८४)। प्रयोग ----परके कर्तृत्वके अध्यवसायको अनर्थ जानकर दूर करना ।।२६०.२६१।। अब कहते हैं कि क्रियादिगर्भित अध्यवसाय हो बंधका कारण होनेसे हिसाका प्रध्यवसाय ही हिंसा है यह सिद्ध हुना- [सत्त्वान] जीवोंको [मारयतु] मारो [चा मा मारयतु] अथवा मत मारो [जीवानां] जीवोंका [बंधः] कर्मबंध [अध्यवसितेन अध्यक्षसायसे ही होता है [एषः निश्चयनयस्य बंधसमासः] निश्चयनयके मतमें यह बंधसंक्षेप है। तात्पर्य-अन्य पदार्थको परिणतिसे बन्ध नहीं होता, किन्तु विकारभाव होनेसे बन्ध होता है। टोकार्थ--परजीवोंके अपने कमोदयकी विचित्रतासे प्राणवियोग कदाचित् होवे अथवा न होवे परंतु ''यह मैं मारता हूं' ऐसा अहंकार रससे भरा हुआ जो हिंसाका अध्यवसाय है वही निश्चयरों उस अभिप्राय वालेके बंधका कारण है । क्योंकि निश्चयनयसे परभावरूप प्राणवियोग दुसरेके द्वारा नहीं किया जा सकता। भावार्थ-निश्चयनयसे दूसरेके प्राणोंका वियोग दूसरेके द्वारा नहीं किया जा सकता। उसके हो कर्मोदयकी विचित्रतासे कदाचित् होता है कभी नहीं भी होता । अतः जो ऐसा महंकार करता है "कि मैं परजीवको मारता हूं' आदि यह अहंकाररूप अध्यवसाय अज्ञानमय है । यही हिसा है, क्योंकि इस विकारसे अपने विशुद्ध चैतन्य प्राणका घात है । और यही बंधका कारण है। यह निश्चयनयका मत व्यवहारनयको गौएकर कहा जानना सर्वथा एकांत पक्ष मिथ्यात्व है। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ समयसार एवं हि हिंसाध्यवसाय एवं हिसेत्यायातं अभवसिदेण बंधो सत्ते मारेउ मा वा मारेउ । एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयणयस्स ॥२६२॥ अध्यवासितसे बन्धन, प्राणी मारो तया नहीं मारो। निश्चयनयके मतमें, जीवोंका बन्ध विवरण यह ॥२६२।। अध्यवसितेन बंधः सत्त्वान् मारयतु मा वा मारयतु । एष बंधसमासो जीवानां निश्चयनयस्य ॥२६२।। परजीवानां स्वकर्मोदयवैचिश्यबशेन प्राणव्यपरोपः कदाचिद् भवतु, कदाचिन्मा भवतु । य एव हिनस्मोत्यहंकाररसनिर्भरो हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतस्तस्य बंधहेतुः निश्चयेन परभावस्य प्राणव्यपरोपस्य परेण कतु मशक्यत्वात् ।।२६२॥ नामसंज-अन्भवसिद, सतना ज न त, जीव, णिच्छयणय । धातुसंज-मर प्राणत्यागे । प्रातिपदिक-अध्यबसित, बन्ध, सत्व, मा, वा, एतत, बन्धसभास, जीव, निश्चयनय । मत्र प्राणत्यागे । पदविवरण-अज्झवसिदेण अध्यवसितेन-तृतीया एक० । बंधो बन्धः-प्रथमा एकवचन । सत्ते सत्त्वान्-द्वि० बहु० । मारेउ मारयतु-लोट् आशाद्यर्थे अन्य पुरुष एकवचन णित क्रिया। एसो एषः-प्रथमा एक० । जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहु । णिच्छयणयस्स निश्चयनयस्य--षष्ठी एकवचन ॥२६॥ प्रसंगविवरण-अनन्सरपूर्व माथाद्वयमें अध्यवसायको बन्धहेतु बताया गया था। अब यह बताया जायगा कि प्रध्यवसाय ही पाप व 'पुण्य है । जिनमें से प्रथम हो इस गाथामें बताया है हिंसाविषयक अध्यवसाय ही हिंसा है। तथ्यप्रकाश---१-जीवोंका प्राणवियोग उनके कर्मोदयकी विचित्रताके वश होता है । २-जो जीव अन्य जीवके प्रति "इसे मारू" ऐसा अध्यवसाय करता है उसे हिंसाका पाप लग ही गया, चाहे वह जीव मरे या न मरे । ३-हिंसाविषयक अध्यवसाय (अभिप्राय) ही निश्चयसे उसके बंधका कारण है व कर्मबन्धका मूल निमित्त कारण है । ४-निश्चयसे अन्यप्राणदियोगरूप परभाव किसी अन्य जीवके द्वारा किया ही नहीं जा सकता। सिद्धान्त--१--नवीन कर्मबन्धका साक्षात् निमित्त कारण उदयागत द्रभ्यप्रत्यय (कर्म) है । २.-उदयागत द्रव्यप्रत्ययोंमें कर्मबन्धनिमित्तपना प्रावे इसका निमित्त अध्यवसाय है । ३--अध्यवसाय करनेसे आत्मा खुद ही अपनी विकृतियोंसे बुरा बँधा हुआ है । . दृष्टि-१--निमित्तदृष्टि (५३ अ)। २-निमित्तस्थानिमित्तदृष्टि (२१)। ३--अशुद्धनिश्चयनय (४७)। प्रयोग---अपने अध्यवसायसे हो बंध होता है, ऐसा जानकर रागादिक अपध्यान छोड़ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार प्रयाध्यवसायं पापपुण्ययोबंधहेतुत्वेन दर्शयति- ૪૪૨ एवमलिये यदत्ते अवभचेरे परिग्गहे चेव । कीरह प्रभवसाणं जं तेण दु बज्झए पावं ॥ २६३ ॥ तहवि य सच्चे दत्ते बंभे अपरिग्गहत्तणे चैव । कीरह अवसाणं जं तेा दु वज्झए पुण्णं ॥ २५४ ॥ ( युग्मम्) यों ही अलोक चोरी, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रहमें । अध्यवसान करे तो, उससे हो पाप बंधता है ॥२६३॥ वैसे सत्य चोरी, अपरिग्रह ब्रह्मचर्यमें जो कुछ । प्रध्यवसान करे तो उससे ही पुण्य बंधता है ॥२६४॥ एवम लोकेऽदब्रह्मचयं परिग्रहे चैव । क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पापं ॥ २६३|| तथापि च सत्ये दत्ते ब्रह्मणि अपरिग्रहत्वे चैव क्रियतेऽध्यवसानं यत्तेन तु बध्यते पुण्यं ॥ २६४॥ | एवमयमज्ञानात् यो यथा हिंसायां विधीयतेऽध्यवसायः, तथा असत्यादत्ता ब्रह्मपरिग्रहेषु I नामसंश- एवं, अलिय, अदत्त, अबंभचेर, परिग्गह, च, एय, अज्भवसाण, ज, त, दु, पाव, तह, वि. य, सच्च, दत्त, बंभ, अपरिममहत्तण, च, एव, अज्झवसाण, ज, त, दु, पुष्ण । धातुसंज्ञ कर करणे, बज्झ बंधने प्रातिपदिक एवं अलीक, अदत्त, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, च एव अध्यवसान, यत्, तत्, तु, पाप, कर अविकल्प ज्ञानमय श्रात्मस्वरूप में उपयोग लगाना ।। २६२ ॥ Taratrast goयपापके बंधका कारणपने रूपसे दिखलाते हैं - [ एवं ] इस [अलोके] प्रसत्य में [अदत्त ] परिग्रह में [यत् श्रध्यवसानं ] [ पापं बध्यते ] पाप बंधता है प्रकार याने जैसा पहले हिंसाका अध्यवसाय कहा था उसी प्रकार चोरो में [अब्रह्मचर्ये] कुशल संसर्ग में [परिग्रहे] धनं धान्यादिक जो श्रध्यवसान [ते] किया जाता है [ तेन तु] उससे तो [ अपि च ] और [ तथा ] उसी प्रकार [ सत्ये] सत्यमें [दत्त ब्रह्मचर्यमें [ अपरिग्रहत्ये एवं ] और अपरिग्रहृपने में [ यत् ] जो [ श्रध्यवसानं ] अध्यवसान [क्रियते] किया जाता है [तेन तु] उससे [पुण्यं बध्यते] पुण्य बंधता है । ] दिया हुना लेने में [ ब्रह्मरिण ] तात्पर्य - दुराचार के प्रध्यवसायसे पाप व ब्रतके अध्यवसायसे पुण्यकर्म बंधता है । टीकार्थ -- ऐसे याने पूर्वकथित रीति से प्रशानसे जैसे हिंसा में अध्यवसाय किया जाता है उसी प्रकार प्रदत्त, श्रब्रह्म, परिग्रह इनमें जो अध्यवसाय किया जाता है वह सभी केवल पापबंधका ही कारण है । तथा जैसे अहिंसामें अध्यवसाय किया जाता है उसी तरह सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इनमें भी अध्यवसाय किया जाता है वह सभी केवल पुण्यबंधका हो Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार यश्च विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पापबंधहेतुः । यस्तु अहिंसायां यथा विधीयते अध्यवसायः, तथा यश्च सत्यदत्तब्रह्मापरिग्रहेषु विधीयते स सर्वोऽपि केवल एव पुण्य बंधहेतुः ।।२६ ३.३६४।। तथा, अपि च, सत्य, दत्त, ब्रह्मन, अपरिग्रहत्व, च, एवं. अध्यन्त्रमान, यत्, तत, नु, पुण्य । मूलधातु-- वा करणे, बन्ध बन्धने । पविवरण--एवं-अध्यय । अलिये अलीकेमातमी बहु० । अदस-सातमी एक० ! अबंभचेरे अब्रह्मचर्य-सप्तमी एक 1 परिगहे परिग्रहे-सप्तमी एक० । च एव-अव्यय । कीरइ क्रियते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य क्रिया। अज्झबसाणं अध्यवसान-प्रथमा एक । जं यत्-प्रथमा एक० । तेण तेन-तृ०ए० । दु तु-अव्यय । बझए बध्यते--वर्तमान० अन्य ः एकवचन कर्मवाच्य किया। पावं पाप-प्र० ए० । तह वि तथा अपि-अव्यय । सच्चे सत्ये-सः एक । दत्ते-म० ए० | बंभे ब्रह्मणि-सप्तमी एक० । अपरिहत्तणे अपरिग्रहत्वे-स० ए० कीग्द क्रियते--वर्तमान लट् अन्य पुमा एकवचन कर्मवाच्य किया । अज्झत्रसाणं अध्यवसानं-प्रथमा एक० । जं यत्--प्र० एकः । तेण तेन-तृ०प० । वदि बध्यते--पूर्वोक्त किया । पुष्णं पुण्यं-प्रथमा एकवचन ।। २६३-२६४ ।। कारण है । भावार्थ-जैसे कि हिंसामें अध्यवसाय पापबंधका कारण है, वैसे ही असत्य, अदत्त, अब्रह्म, परिग्रह इनमें भी अध्यवसाय पापबंधका कारण है। तथा जैसे अहिंसा में अध्यवसाय पुण्यबंधका कारण है, वैसे ही सत्य, दत्त, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रहपना इनमें किया गया अध्यबसाय पुण्यबंधका कारण है। इस प्रकार पांच पापोंका अभिप्राय तो पापबंध करता है और पाँच अतरूप एक देश व सर्व देशका अभिप्राय पुण्यबंध करता है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताया गया था कि हिंसाविषयक अध्यवसाय ही हिंसा है। अब इन दो गायावों में बताया गया है कि जैसे हिसाविषयक सध्यवसाय हो हिंसा है ऐसे ही झूठ प्रादि विषयक अध्यबसाय ही झूठ प्रादिक पाप है व उससे पापका बंध । है । तथा इसी प्रकार अहिंसाके पुण्यत्वकी भांति सत्य आदिक पुण्य है व उससे पुण्यका बंध है। तथ्यप्रकाश-१--जैसे हिंसाविषयक अध्यवसाय अज्ञानसे होता है वैसे ही झूठ प्रादि विषयक अध्यवसाय भी अज्ञानसे होता है । २.जैसे अहिंसा (नहीं मारू) विषयक अध्यवसाय (अहंकाररसनिर्भर प्राशय) अज्ञानसे होता है वैसे ही सत्य आदि विषयक अहंकाररसनिर्भर प्राशय (अध्यवसाय) प्रज्ञानसे होता है । ३-हिंसादि पापविषयक अध्यवसाय पाएबन्ध का हेतु है । ४-अहिंसासस्यादि विषयक अध्यवसाय पुण्यबन्धका हेतु है । सिद्धान्त-१-अध्यवसाय जोधका अज्ञानमय परिणमन है। २-बत्तविषयक मध्यवसाय पुण्यकर्मके बन्धका निमिस है। ३-अवतविषयक प्रध्यवसाय पापकर्म के बन्धका निमित्त है । दृष्टि-१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २, ३-- निमित्तदृष्टि (५३ प्र)। . Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्दाधिकार ४५१ न च बाह्यवस्तु द्वितीयोऽपि बंधहेतुरिति शंक्यं-- वत्थु पडुच्च जं पुण अझवसाणं तु होइ जीवाणं । ण य वत्थुदो दु वंधों अज्झवसाणेण बंधोस्थि ॥२६५।। वस्तु अवलंब करके, होता अध्ययसित भाव जीवोंका। नहि बन्ध वस्तुसे है, है प्रध्यवसानसे बधन ॥२६॥ वस्तु प्रतीत्य बत्तुमर यवसानं तु भवति जीवानां । न च वस्तुतरतु बंधोऽध्यवमानेन बंबोस्ति ।।५।। अध्यवसानमेव बंध हेतुर्न तु बाह्यवस्तु तस्य बंधहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थस्वात् । तहि किमर्थो बाह्यवस्तुप्रतिषेधः ? अध्यवसानप्रतिषेधार्थः। अध्यवसानस्थ हि बाह्म नामसंज्ञ- वत्थु, ज, पुण, अज्झवाण, तु, जीव, प, य, वत्युदो, दु, बंध, अझवसाय, बंध । धातु- संज- हो सत्तायां, पडि- इ गती, अस सत्तायां । प्रातिपदिक --बस्तु, यत्, पुनर, अध्यवयान, तु, जोव, न, प्रयोग–अशुभ व शुभ अध्यवसायोंको बन्धहेतु जानकर उनसे हटकर अविकल्प ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयुक्त होने का पौरुप करना ॥२६३.२६४।। अब कहते हैं कि दूसरी कोई बाह्य वस्तु बंधको कारण है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये-- [पुनः] और भी देखिये [जोबानां] जीवोंके [यत् अध्यवसान] जो अध्यवसान होता है वह [वस्तु] वस्तुको [प्रतीत्य] प्रवलंबन करके भवति होता है। [च तु] परन्तु वहाँ [वस्तुतः] वस्तुसे बंधः न च] बंध नहीं है, किन्तु [अध्यवसानेन] अध्यवसानसे ही [बंधः अस्ति] बंध है। टोकार्य - अध्यवसान हो बंधका कारण है, बाह्य वस्तु बंधका कारण नही है । क्योंकि बंधके कारणभूत अध्यवसानके ही कारणपनेसे चरितार्थपना है । प्रश्न-तो फिर बाह्यवस्तु का निबंध किसलिये किया जाता है ? समाधान-अध्यवमान के निषेधके लिये बाह्य वस्तुका त्याग कराया जाता है, क्योंकि बाह्यवस्तुका प्राश्रय किये बिना अध्यवसान अपने स्वरूपको व्यक्त नहीं कर पाता । यदि बाह्य वस्तुका आश्रय न लेकर भी मध्यवसान उत्पन्न हो तो जैसे सुभटको माताके पुत्र सुभटका सद्भाव होनेसे उसका प्राश्रय लेकर किसोके अव्यवसान होता है कि मैं सुभटकी माताके पुत्रको मारता हूं उसी प्रकार बांझके पुत्र का प्रभाव होनेपर भी ऐसा प्रध्यवसान होना चाहिये "मैं बंध्यासुतको मारता हूं" मिन्नु ऐसा अध्यवसान लो उत्पन्न नहीं होता अर्थात् जब बंध्याका पुत्र ही नहीं है तो मारनेका अध्यवसान कैसे हो सकता है ? इस कारण बाद्यवस्तुके आश्रयके बिना मध्यवसान उत्पन्न नहीं होता; यह दृढ़ नियम बना । इसी कारण अध्यवसानका प्राश्रयभूत जी बाह्यवस्तु है उसका अत्यंत निषेध कराया गया; Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ समयसार वस्तु प्राश्रयभूतं । न हि बाह्यवस्स्वनाश्रित्य अध्यवसानमात्मानं लभते । यदि बाहायस्त्वना श्रित्यापि अध्यवसानं जायेत तदा यथा वीरसूभुतस्याश्रयभूतस्य सद्भावे वीरसूसूनुं हिनस्मीत्य । ध्यवसायो जायते, तथा बंध्यासुतस्याश्रयभूतस्यासद्भावेऽपि बंध्यासुतं हिनस्मीत्यध्यवसायो च, यस्तुतः, तु, बन्ध, अध्यवसान, बन्ध । मूलधातु-प्रति इण गती, भू सत्ताया, अस् भुवि । पदविवरण- । वत्थं वस्त-द्वितीया एकवचन । पडच्च प्रतीत्य-असमाप्तिकी क्रिया। जंयत-प्रथमा एक० । पूण पून:-- अव्यय । अज्झवसाणं अध्यवसानं--प्रथमा एक० । दुतु-अव्यय । होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष, एकवचन किया । जीवाणं जीवानां-षष्ठी बहु ! ण य न च--अव्यय । वत्थुदो वस्तुत:-पंचम्यर्थे अव्यय । क्योंकि कारणके प्रतिषेधसे ही कार्यका प्रतिषेध होता है। देखिये--बंधहेतु अध्यबसानको हेतु.। पना होनेपर भी बाह्य वस्तु बंधका हेतु नहीं है, क्योंकि जैसे कोई मुनीन्द्र ईर्यासमितिरूप । प्रवत रहा है उसके चरणसे हना गया जो कालका प्रेरा प्रतिवेगसे शीघ्र पाकर पड़ा कोई उड़ता हुमा जीव मर गया, तो भी उसके मर जानेसे मुनीश्वरको हिंसा नहीं लगती सो बंधके कारणभूत अध्यवसायके कारणभूत बाह्यवस्तुको बन्धकारणता न होनेसे बाह्य वस्तुको बंधका कारणपना मानने में अनेकांतिक हेत्वाभासपना पाता है । अतः जीवका प्रतद्भावरूप बाह्य वस्तु । बंधका कारण नहीं है । जीवका तद्भावस्वरूप अध्यवसान हो बंधका कारण है । भावार्थ:-नियनपसे या हेतु मध्यषसान ही है । बाह्य वस्तुएं अध्यवसान के प्राश्रयभूत हैं, उनमें उपयोग देनेसे अध्यवसान व्यक्त होता है, इस कारण बाह्य बस्तु उपचारसे अध्यवसानका कारण कहा जाता है । बाह्य वस्तुके बिना निराश्रय यह अध्यवसान नहीं होता । इस कारण बाह्य बस्तुका त्याग कराया गया है । यदि बन्धका कारण बाह्य वस्तु हो । कहा जावे तो कोई मुनि ईयाँसमितिसे यत्न कर गमन करता हो उस समय उसके पैरोंके । नीचे कोई उड़ता जीव प्रा पड़ा और मर गया तो उसकी हिंसा मुनीश्वरको क्यों नहीं लगती? } सो यहाँ बाह्य दृष्टिसे देखा जाय तो हिसा हुई, परन्तु मुनिके हिंसाका अध्यवसान नहीं है, इसलिए वह जीवका मरणरूप परधात बंधका कारण नहीं है । हाँ बाह्य वस्तुके बिना निरा. श्रय अध्यवसाय प्रकट नहीं होता, इसलिये बाह्यवस्तुका निषेध करना उपदेशमें बताया है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अबताध्यवसाय पापबन्धका हेतु है और बताध्यवसाय पुण्यबंधका हेतु है । अब इसीके समर्थन व अन्ययोगव्यवच्छेदके लिये इस गाथाका अवतार हुमा है । तथ्यप्रकाश--(१) अध्यवसाय ही कर्मबन्धका निमित्त है । (२) पंचडान्द्रयके विष. भूत चेतन अचेतन बाह्य पदार्थ कर्मबन्धका निमित्त नहीं है । (३) बाह्य पदार्थ तो कर्मब Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নামিকা जायेत । न च जायते । ततो निराश्रयं नास्त्यध्यवसानमिति प्रतिनियमः । तत एव चाध्यवसानाश्रयभूतस्य बाह्यवस्तुनोऽत्यंतप्रतिषेधः, हेतुप्रतिषेधेनैव हेतुमत्प्रतिषेधात् । न च बन्धहेतुहेतुत्वे सत्यपि बाह्य वस्तु बंधहेतुः स्याद् ईर्यासमितिपरिणतयतींद्रपदव्यापाद्यमानवेगापतत्कालचोदितकुलिंगवद् ब्राह्मवस्तुनो बंधहेतुहेतोरप्यबंधहेतुत्वेन बंधहेतुत्वस्यानकांतिकत्वात् । अतो न बाह्यवस्तु जीवस्यातद्भावो बंधहेतु: । अध्यवसानमेव तस्य तद्भावो बंधहेतु: ।। २६५ ॥ बंधो बन्धः-प्रथमा एक० । अन्झवसाणेण अध्यवसानेन-तृतीया एक० 1 बंधो बन्धः-प्रथमा एक० । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २६५ ।। निमित्तभूत अध्यवसायका विषयरूप कारण है अर्थात् पाश्रयभूत कारण है। (४) बाह्यवस्तु का त्याग अध्यवसायको हटानेके लिये किया जाता है। (५) बाह्य पदार्थ व्यक्त अध्यवसायका प्राश्रयभूत है । (६) अनुपचारित असद्भूत अव्यक्त विकारमें बाह्य पदार्थ प्राश्रयभूत भी नहीं हो पाते । (७) बाह्य वस्तुका प्राश्रय किये बिना अध्यवसान व्यक्त नहीं हो पाता । (6) अध्यवसायके प्राश्रयभूत बाह्य वस्तुका मनसे, वचनसे, कायसे त्याग होनेपर प्रध्यवसाय प्रकट हो हो नहीं सकता। (६) बाह्य वस्तु कर्मबन्धका निमित्त नहीं है, क्योंकि अध्यवसायका प्रभाव होनेपर बाह्यवस्तुप्रसंग होनेपर भी कर्मबन्ध नहीं होता। (१०) बाह्य वस्तु जीवका कुछ भी नहीं है, प्रतद्भाव है, अत: बाह्यवस्तु बन्धहेतु नहीं होता। (११) अभ्यवसान ही जीवका तद्भाव है, विभाव है जो कि वातरोगपरमात्मतत्पसे भिन्न है, अतः मध्यवसान हो बन्धहेतु होता है। (१२) बाह्य वस्तुके होनेपर नियमसे कर्मबन्ध हो एसा मन्वय न होने से बाह्यवस्तु कर्मबन्धका कारण नहीं । (१३) बाह्य वस्तुके न होनेपर कर्मबन्ध नहीं हो ऐसा व्यतिरेक न होने से बाह्यवस्तु कर्मबन्धका कारण नहीं। (१४) बाह्यवस्तु कर्मबन्धका आश्रयभूत कारण है, पारोपित कारण है, विषयभूत कारण है, परम्परा कारण है । (१५) कर्मबन्धके निमित्तभूत उदयागत द्रव्यप्रत्ययमें कर्मबन्धका निमित्तपना भा जाये इसका निमित्त प्रध्यवसाय है इस कारण अध्यवसाय कर्मबन्धका मूल कारण है। सिद्धांत-(१) प्राश्रयभूत इन्द्रियविषयोंको विकारका कारण कहना प्रारोपित व्यव. हार है । (२) कर्मबन्धका मूल निमित्त अध्यवसाय विकार है। दृष्टि-१- प्राश्रये आश्रयी उपचारक व्यवहार (१५१)! २- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (२०१)। प्रयोग-कर्मबन्ध के मूल कारण अध्यवसायके प्रतिषेधके लिये उस अध्यवसायके प्राश्र. यभूत इन्द्रियविषयोंका अर्थात् बाह्य समागमोंका त्याग करना चाहिये ॥२६॥ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ४५४ एवं बंधहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वामावेन मिथ्यात्वं दर्शयति - दुक्खिदसुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । जा एमा मूढमई णिरत्थया सा हु दे मिच्छा ॥२६६॥ दुखी सुखी जीवोंको, करता हूं बांधता छुड़ाता हूं। यह ऐसी मूढमती, निरथिका है प्रतः मिथ्या ॥२६६॥ दुःखितस्तुखितान् जीवान् करोमि बंधयामि तथा विमोचयामि. या एषा मूदमतिः नरथिका सा खलु ते मिथ्या।। परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि बंधयामि विमोचयामोत्यादि वा यदेतदध्यव. मानं तत्सर्वमपि परभावस्थ परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुम नामसंश-दुनिखदसुहिर, जीव, तह, ज, एला, मूढमढ़, शिरस्थया ता, हु, तुम्ह, मिच्छा। धातुसंज-वर करणे, बन्ध बन्धने, वि मुंत्र त्यागे । प्रातिपदिक-दुःखितसुखित, जीव, तथा, यत्, एतत्, मढ़मति, निरथिका, तत्, खलु, मिथ्या 1 मूलधातु---डुकृत करणे, बन्ध बन्धने, वि मुच्छ्र मोक्षणे तुदादि।। पदविवरण- दुनिशाहिदे दुःयितयुखि मिटा दहुः । नीदे जीवान्-द्वि० बहु० । कमि करीमि उत्त प्रकारसे बंधकारणपनेसे निश्चय किये गये अध्यवसानका अपनी अर्थक्रियाकारिता न होनेसे मिथ्यापना यहाँ दिखलाते हैं----मैं [जोवान् ] जीवोंको [दुःखितसुखितान् ] दुःखी सुखी [करोमि] करता हूँ [बंधयामि] बंधाता हूं [तथा] और [विमोचयामि] छुड़ाता हूं। [या एषा से मूढमतिः] ऐसी जो तेरी मूह बुद्धि है [सा] वह [निरथिका] निरर्थक है अतएव [खालु] निश्चयसे [मिथ्या] मिथ्या है। तात्पर्य-विकल्पका बाह्यवस्तुके परिणमनपर कोई अधिकार नहीं, फिर भी पर.। पदार्थ में कुछ करनेका अध्यवसाय करना नियमसे मिथ्यात्व है । ___टोकार्थ-~-परजीवोंको दुःखी करता हूं, सुखी करता हूं इत्यादि, तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूं इत्यादि, जो यह अध्यवसान है वह सभी मिथ्या है, क्योंकि परभावका परमें ध्यापार न होनेसे स्वार्थक्रियाकारीपनका प्रभाव होने के कारण "मैं आकाशके फूलको तोड़ता हूं" इस अध्यवसायकी तरह वह झूठा है, मात्र अपने अनर्थ के लिए हो है। भावार्थ--जिस विकल्पका जो करनेका भाव है वह जब विकल्पसे होता ही नहीं है तो वह विकल्प निरर्थक है, मोही जीव परको दुःखी-सुखी प्रादि करनेकी बुद्धि करता है, किन्तु परजीष इसके विकल्प करनेसे दुःखी सुखी नहीं होते तब ऐसी बुद्धि निरर्थक होनेसे मिथ्या है। प्रसंगविवरण-~-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अध्यवसान हो कर्मबन्धका निमित्त कारण है और द्वितीय कुछ भी वस्तु बन्धका कारण नहीं है । अब इस गाथामें Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार लुनामीत्यध्यवसान वन्मिश्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव ।। २६६ ।। वर्तमान लट उत्तम पुरुष एकवचन | बंधेसि बन्धयामि विमोचेनि विमोचयामि वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक क्रिया । जा या एसा एषा प्रथमा एक० मूढमई मूढमतिः - प्रथमा एक० । णिरत्यया निरधिका-प्र० ए० । सा सा प्रथमा ए० हु खलु अव्यय । दे ते पष्ठी एक मिच्छा मिथ्या - प्रथमा एकवचन ॥ २६६ ॥ सयुक्तिक बताया गया है कि वह अध्यवसाय सब मिथ्या है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) जो बात सोचनेसे होती नहीं उसका सोचना स्वार्थक्रियाकारी नहीं । (२) जो स्वार्थक्रियाकारी नहीं वह मिथ्या है । (३) मैं दूसरे जीवोंको सुखी दुःखी करता हूं यह अध्यवसाय मिथ्या है, क्योंकि इस श्रध्यवसायका दूसरे जीवपर कोई व्यापार नहीं होता । सिद्धान्त ---- ( १ ) परजीवोंके विषय में उनका कुछ करने का कुछ भी चिन्तन करना मिथ्या है | दृष्टि - १ - संश्लिष्ट स्वजात्युपचरित प्रसद्भुत व्यवहार ( १२४ ) | प्रयोग --- किसी भी जीवके विषयमें दुःख सुख यादि करनेके चिन्तयन करनेको मिथ्या, अनर्थकारी जानकर इम ग्रध्यवसायको छोड़कर अविकल्प ज्ञानमात्र श्रन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना ।। २६६ ॥ ४५.५ प्रश्न -- प्रध्यवसान अपनी प्रक्रियाका करने वाला किस कारण नहीं है ? उत्तर-[ यदि हि] यदि वास्तव में [ जीवाः ] जोव [ श्रध्यवसाननिमित्तं ] खुदके प्रपने अध्यवसान के निमित्तसे [कर्मणा ] कर्मसे [ बध्यंते ] बँधते हैं [च] प्रोर [ मोक्षमार्गे ] मोक्षमार्गमें [स्थिताः ] ठहरे हुए [मुच्यते ] कर्मसे छूटते हैं [ तत् ] तो [त्वं किं करोषि ] उनमें तू क्या करेगा ? तेरा तो बांधने छोड़नेका अभिप्राय विफल हुआ । तात्पर्य — जीव अपने ही भावसे कर्मसे बँधते व छूटते हैं, सो कोई उनकी परिणतिका विकल्प करता है तो वह निरर्थक है । टीकार्थ- 'मैं निश्चयतः बँधाता हूं छुड़ाता हूं' ऐसा जो श्रध्यवसान है उसकी अर्थ क्रिया जीवोंका बांधना और छुड़ाना है। सो जीव तो इस प्रध्यवसायके मौजूद होनेपर भी वे अपने सरागवीतरागपरिणामके प्रभावसे न बँधते हैं, न छूटते हैं । और मपते सरागवीतरागपरिणामके सद्भावसे तेरे अध्यवसायका प्रभाव होनेपर भी बँधते हैं तथा छूटते हैं, इस कारण परमें अकिचित्करपना होनेसे यह प्रध्यवसान कुछ भी स्वार्थक्रिया करने वाला नहीं है । इस कारण यह अध्यवसान मिथ्या ही है, ऐसा भाव है । भावार्थ---जो हेतु परमें कुछ भी न कर सके उसे किंचित्कर कहते हैं । सो यह बांधने छोड़नेका अध्यवसान परमें कुछ भी नहीं Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ समयसार कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि ? इति चेत् अन्झवसाणणिमित्तं जीवा बभंति कम्मणा जदि हि। मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करोसि तुमं ॥२६७॥ अध्यवसानसे बँधते, कोसे जीव छुटते हैं जो। मोक्षमार्गमें सुस्थित, उनका फिर क्या किया तुमने ॥२६७॥ अध्यवसानिमित्तं जीवा बध्यते कर्मणा यदि हि । मुच्यते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वं ।।२६७।। यत्किल बंधयामि भोधयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यबंधनं मोचनं जीवानां । जीवस्तु प्रस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान नामसंज्ञ-- अज्झवसाणणिमित्त, जीव, कम्म, जदि, हि, मोवखमग्ग, ठेद, य, ता, कि, तुम्ह । धातुसंज–बज्झ बंधने, मुंच त्यागे, कर करणे । प्रातिपदिक-अध्यवसाननिमित्त, जीव, कर्मन्, यदि, हि, मोक्षमार्ग, स्थित, च, तत्, किम्, युष्मद् । मूलधातु--बन्ध बन्धने, मुच्ल मोक्षणे, डुकृत्र करणे । पदविकरण-अज्भवसाणणिमित्तं अध्यवसानिमित्त-अव्यय यथा स्यात्तथा क्रियाविशेषण । जीवा जीवा:-प्रथमा करता । क्योंकि इसके अध्यवसाय न होनेपर भी जीव अपने सरागवीतरागपरिणामों द्वारा बंध मोक्षको प्राप्त होता है और इसके अध्यवसाय होनेपर भी जीव अपने सरागवीतरागपरिणामके प्रभाव होनेसे बंध मोक्षको नहीं प्राप्त होता । इसलिये अध्यवसान परमें प्रकिचित्कर है इसी कारण स्वार्थक्रियाकारी नहीं और मिथ्या है। अब इस अर्थका कलशरूप श्लोक कहते हैं-अनेना इत्यादि । अर्थ-मात्मा इस निरर्थक अध्यवसानसे मोहित हुअा अात्मा ऐसा जगतमें कुछ भी नहीं है जिस रूप अपनेको नहीं करता हो । भावार्थ-यह आत्मा मिथ्या अभिप्रायसे भूला हुमा प्रात्मा चतुर्गति संसारमें जितनी अवस्थायें हैं, जितने पदार्थ हैं उन सब स्वरूप हुना मानता है, अपने विविक्त शुद्धस्वरूपको नहीं पहिचानता । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी न होनेसे मिथ्या है । अब इस माथामें यह बताया गया है कि प्रध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी कैसे नहीं है? सध्यप्रकाश---१-कोई परजीवको बाँधनेका विकल्प करता है सो उसके विकल्प करने से यदि परजीव बँध जावे तब यह अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी कहावेगा । २- कोई परजीव को मुक्त करानेका विकल्प करता है सो उसके विकल्प करनेसे यदि परजीव मुक्त हो जावे तो तब यह मध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी कहावेगा। ३- परजीवको बांधनेका विकल्प करनेपर Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्aाधिकार ४५७ बध्यते न मुख्यते । सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्यवसायस्याभावेऽपि बध्यते मुच्यते च ततः पराकिंचित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि ततश्च मिथ्यैवेति भावः ॥ श्रमाध्यवसानेन निष्फलेन विमोहितः । तकिचनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत् ।। १७१ ।। ।। २६७ ॥ बहु० 1 बज्झति बध्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया । कम्मणा कर्मणा - तृतीया एक० । जदि यदि हि-अध्यय । मुच्वंति मुख्यन्ते वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुबचन कर्मवाच्य क्रिया । मोक्तमगे मोक्षमार्गे - सप्तमी एक० । ठिदा स्थिताः - प्रथमा बहु० य च ता संप अव्यय । किं-अव्यय या प्र० एक० । करोसि करोषि - वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एक० क्रिया । तुमं त्वं प्रथमा एकवचन ।। २६७ ॥ भी परजीवके सराग परिणाम न हो तो वह नहीं बंध सकता सो वह अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी न रहा । ४- परजीवको मुक्त करनेका विकल्प करनेपर भी परजीवके वीतरागपरिणाम नहीं होता तो वह मुक्त नहीं हो सकता सो यह प्रध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी न रहा । ५ - किसीका अध्यवसाय परजोद में कुछ कर नहीं सकता, इस कारण अध्यवसायं स्वार्थक्रियाकारी नहीं और इसी कारण मिथ्या है। सिद्धान्त - १ - जीवके श्रध्यवसायका निमित पाकर पौद्गलकार्याणवरणायें कर्मरूप बँधती हैं । २- वीतरागपरिणामके निमित्तसे कर्मबन्ध हट जाते हैं । ३- परके अध्यवसाय का स्व आत्मामें कोई प्रभाव नहीं होता । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय व निमित्तदृष्टि ( ५३, ५३८ ) । २ - शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय व निमित्तदृष्टि (२४५, ५३ ) । ३ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याचिकनय ( २६ ) | प्रयोग - अध्यवसाय स्वार्थक्रियाकारी नहीं होता यह जानकर श्रध्यवसायको हटाकर अविकार ज्ञानस्वभावको दृष्टि करना ॥ २६७ ॥ अब पूर्वगायोक्त अर्थको प्रगटरूपसे गाथा में कहते हैं: - [जीवः ] जीव [ श्रध्यवसानेन ]अध्यवसानसे [तियंरयिकान् ] तिथंच नारक [च देवमनुजान् ] और देव मनुष्य [ सर्वान् ] सभी पर्यायोंको [च] और [ नैकविधं पुण्यं पापं ] अनेक प्रकारके पुण्य पापोंको [ करोति] करता है [ तथा ध] तथा [धर्माणमं] धर्म प्रधर्म [जीवाजीयो] जीव प्रजीव [च] प्रोर [ प्रलोकलोकं ] लोक लोक [at] इन सभी को [ जीवः ] जीव [ अध्यवसानेन ] प्रध्यवसान से [आत्मानं ] मात्मस्वरूप [ करोति ] करता है । । तात्पर्य मोही जीव जिस परको व परभावको ग्रात्मरूप मानता है वह उसी --- Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ समयसार सब्वे करे जीवो अभवमागोण तिरियणेरयिए । देवमणुये य सव्वे पुण्ण पावं च णयविहं ॥२६॥ धम्माधम्मं च तहा जीवाजीवे अलोयलोयं च । मब्वे करेइ जीवो यज्झवमाणेगा अपाणं ॥२६॥ (युगलम) अध्यवसितसे प्राणी, सब कुछ करता हि जीव अपनेको । पशु नारक देव मनुज, नानाविध पुण्य पापोंको ॥२६॥ धर्म अधर्म हि अथवा, जीव अजीव व अलोक लोक तथा । अध्यवसितसे प्रारणी, अपनेको सर्व कर लेता ॥२६६ ।। सर्वान् की जीवो व्यवसानेल नियंङ नैर्गयकान् । दशमनुजांश्च मर्वान पृष्यं पापं च नैविधं ॥१६८।। धर्माधर्म च तथा जीवाजीवी अलोकलोक च । गर्वान् करोति जीवः अव्यवमानेन आत्मानं ।। ६६ ।। यथायमेवं ऋिपागहिसाध्यबसानेन हिमकम् इतराध्यवसानैरितरं च अात्मात्मानं फुर्यात्, तथा विपच्यमान नारकाध्यवसानेन नारकं, विपच्यमानतियंगध्यवसानेन तिर्य, विषय नामसंज्ञः सच, जीब, अभावमाण, तिरिय यथे, देवमय, य, मन्च, पृष्ण, पाप, च. विह मम्मामम्म, रहा, जोया जात्र, आलोयलाय. मात्र, बि, सा. अ । धातुसंज्ञ- कर करण । नपने वो करने वाला कहा जाता है । टीकार्थ---जैग यह आत्मा ऐसे याने पूर्वोक्त क्रिया वाले हिसाके अध्यवसानसे अपने को हिसक करता है, और अन्य अध्यवसानोंसे यह प्रात्मा अपनेको अन्य बहुत प्रकार करता है; उसी प्रकार उदयमें आये हुए नारकके अव्यवसानसे अपनेको नारको करता है, उदयमें प्राय हुए तिर्यंच अध्यवसानसे अपने को तिर्यंच करता है, उदय में प्राये हुए मनुष्यके अध्ययसानसे अपनेको मनुष्य करता है, उदयमें आये हुए देवके अध्यवसानसे अपनेको देव करता है, उदय में प्राये हुए मुख आदि पुण्यके मध्यवसानसे ग्नपनेको पुण्यरूप करता है, उदयमें पाये हुए दुःख अादि पापके प्रध्धवसानसे अपने की पापरूप करता है । और उसी प्रकार जानने में पाये या धर्मास्तिकायके अध्यवसानसे अपनेको धर्मास्तिकायका करता है, जाने हुए अधर्मास्तिकाय के प्रध्यवसानसे अपनेको अधस्तिकाय रूप करता है, जाने हुए अन्य जीवके अध्यवसानसे अपनेको अन्य जीवरूप करता है, जाने हुए पुद्गलके मध्यवसानसे अपनेकी पुद्गलरूप करता है, जाने हुए लोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको लोकाकाशरूप करता है, जाने हुए अलोकाकाशके अध्यवसानसे अपनेको अलोकालाशरूप करता है । भावार्थ----अपना परमार्थरूप नहीं Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार मानमनुष्याध्यवसानेन मनुष्यं, विपच्यमानदेवाध्यवसानेन देवं, विपच्यमानसुखादिपुण्याध्यवसानेन पुण्यं, विपच्यमानदुःखादिपापाध्यवसानेन पापमात्मानं कुर्यात् । तथैव च ज्ञायमानधर्माध्यवसानेन धर्म, ज्ञायमानाधर्माध्यवसानेनाधर्म; ज्ञायमानजीवान्तराध्यवसानेन जीवान्तर, ज्ञायमानपुद्गलाध्यवसानेन पुद्गलं, ज्ञायमानलोकाकाशाध्यवसानेन लोकाकाशं ज्ञायमानालोकावणाप्रातिपदिक-सर्व, जीव, अध्यवसान, लियङ नै रयिक, देवमनुज, सर्व, पुण्य, पाप, च, नेकविध, धमाधम च, नया, जीवाजीव, अलोकलोक, सर्व, जीव, अध्यवसान, आत्मन् । मूलधातु-दुका करणे । पददिवरण- सव्वे मन्-िद्वितीया बहु० । कारेइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । जीवो जीव:-प्रथमा एव० | अज्झवसाणेण अध्यवसानेन-तृतीया एकवचन । तिरियणेरयिये तिर्यड नैरपिकान-हितीया बहु । देवमणुये देवमनुजान-द्वि० बहु । य च-अव्यय । सव्वे सर्वान-द्वि० बहु । पुण्णं पुण्यं पावं पापं-द्विन्दीया एक० । णयविहं न कविध-द्वि० ए० । धम्माधम्म धर्माधर्म-दि० ए० । च तहा तया-अव्यय । जीवाजीवे जाननेसे अज्ञानी प्रात्मा अपने आपको अनेक अवस्थारूप करता है याने उनमें प्रापा गा? प्रवर्तता है। स इसका नाम पर कर कहते हैं--विश्वात् इत्यादि । अर्थ-मोहमुलक सब द्रव्योंसे भिन्न होनेपर भी यह प्रात्मा जिस प्रध्यवसायके प्रभावसे अपनेको समस्तस्वरप करता है वह अध्यवसाय जिनके नहीं है वे ही मुनि हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें सयुक्तिक बताया गया था कि अध्यवसान स्वार्थक्रियाकारी न होनेसे मिथ्या है। अब इन दो गाथावों में बताया है कि जीव अध्यभान हो अपनेको नानारूप बनाता है। तथ्यप्रकाश-(१) "मैं इसे मारू" ऐसे क्रियागर्भ हिंसाके अध्यवसान के द्वारा यह जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुप्रा अपनेको हिंसक बना देता है । (२) अन्य भी नाना प्रकार के क्रियागर्भ अध्यवसानसे स्वस्वभावसे च्युत होता हुअा उन उनरूप अपने को बना देता है । (३) नरकगतिकर्मोदयजनित नरकभावोंके अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुआ अपनेको नारक बना देता है । (४) तिर्यग्गतिकर्मोदयजनित भावोंके अध्यवसान जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुआ अपनेको तिथंच बना देता है । (५) मनुष्यगतिकर्मोदय जनित भावों के अध्यवसानके द्वारा स्वस्वभावसे च्यूत होता हुअा अपनेको मनुष्य बना देता है । (६) देव. गतिकर्मोदयजनित भावोंके अध्यवसानसे स्वस्वभाबसे च्युत होता हुअा अपने को देव बना देता है । (७) सातावेदनीयादिपुण्यकर्मोदयजनित सुखादि पुण्यभावके अध्यवसानसे जीव स्वस्वभाव से च्युत होता हुआ अपनेको पुण्यरूप बना देता है । (८) असातावेदनीयादिपापकमोदय जनित परभावोंके अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुअा अपनेको पापरूप बना देता है। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० समयसार ध्यवसायेनालोकाकाशमात्मानं कुर्यात् ।। विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वं । मोहैककंदोध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव ।।१७२।। ।। २६८-२६६ ॥ जीवाजीवी-द्वितीया बहुवचन । अलोयलोयं अलोकलोक-द्वि० ए० । सब्वे सर्वान्-द्वि० बह । करेइ करोतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। जीवो जीवः-प्रथमा एक० । अझक्साणेण अध्यवसानेन-तृतीया एक० । अप्पाणं आत्मानम्-द्वितीया एकवचन ।। २६८-२६६ ।। (8) जाने जा रहे धर्मास्तिकायके जानन विकल्पके मोहरूप अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावस च्युत होता हुआ अपनेको धर्मास्तिकायरूप बना देता है। (१०) जाने जा रहे अधर्मास्तिकायके जाननविकल्पके मोहरूप अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे व्युत होता हुना अपनेको अधर्मास्तिकायरूप बना देता है । (११) जाने जा रहे अन्य जीवके जाननविकल्पके मोहरूप अध्यवसान से जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुआ अपनेको अन्य जीवरूप बना देता है। (१२) जाने जा रहे पुद्गलके जानन विकल्पके मोहरूप अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुअा अपनेको पुद्गलरूप बना देता है । (१३) जाने जा रहे लोकाकाशके जानन विकल्पके मोहरूप अध्यकसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुअा अपनेको लोकाकाशरूप बना देता है । (१४) जाने जा रहे अलोकाकाशके जानन विकल्पके मोहरूप अध्यवसानसे जीव स्वस्वभावसे च्युत होता हुआ अपनेको प्रलोकाकाशरूप बना देता है । (१५) घटाकारपरिणत ज्ञान उपचारसे घट कहा जाने की तरह धर्मास्तिकायादिका जाननरूप विकल्प भी उपचारसे धर्मास्तिकायादि कहा जाता है। सिद्धान्त- (१) क्रियागर्भ विपच्यमान ज्ञायमान सम्बन्धी अध्यवसानसे जीव अपने को नानारूप कर लेता है। दृष्टि--- अशुद्धनिश्चयनय, उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (४७, २४)। प्रयोग-परभावविषयक अध्यवसानसे जीवको नाना दुर्गतियाँ जानकर उन अध्यक्षसानोंको छोड़कर ज्ञान मात्र स्वरूप में प्रात्मभावना करना ॥ २६८.२६६ ॥ प्रब बताते हैं कि अज्ञानरूप अध्यवसाय जिनके नहीं है वे मुनि कर्मसे लिप्त नहीं होते--[एतानि] ये पूर्वोक्त अध्यवसाय तथा [एयमादीनि] इस तरहके अन्य भी [अध्ययसानानि] अध्यवसाय [येषां] जिनके [न संति] नहीं हैं [ते मुनयः] वे मुनिराज [अशुभेन] अशुभ [या] अथवा [शुभेन कर्मणा] शुभकर्ममे [न लिप्यंते] लिप्त नहीं होते । तात्पर्य-~-अपनेको परभावरूप नहीं अनुभवने वाले मुनि शुभ व अशुभ दोनों प्रकारके कर्मसे लिप नहीं होते। टीकार्थ-ये पूर्वोक्त जो तीन प्रकारके प्रध्यवसाय हैं अज्ञान, प्रदर्शन और प्रचारित्र, Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्धाधिकार एदाणि णत्थि जेसिं अज्झवसाणाणि एवमादीणि । ते असुहेण सुहेण व कम्मेण मुणी ण लिप्पंति ॥२७०॥ अध्यवसान कहे जो, वे प्रादिक अन्य सब नहीं जिनके । शुभ अशुभ कर्मसे के, मुनिजन नहिं लिप्त होते हैं ।।२७०॥ एतानि न संति येपामध्यवसानान्येवमादीनि । तेऽशुभेन शुभेन वा कर्मणा मुनयो न लिप्यते ।।२३०॥ एतानि किल यानि त्रिविधान्यध्यवसानानि समस्तान्यपि तानि शुभाशुभकर्मबंधनिमि. तानि, स्वयमज्ञानादिरूपत्वात् । तथाहि, यदिदं हिनस्मोत्याध्यवसानं तद्ज्ञानमयत्वेन प्रात्मनः सदहेतुकज्ञप्त्येकक्रियस्य रागद्वेषविपाकमयीनां हननादिक्रियाणां च विशेषाज्ञानेन विविक्तात्माऽज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्माऽदर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं, विविक्तात्मानावरणादस्ति नामसंज्ञ-एत, ण, ज, अज्झवसाण, एवं, आदि, त, असुह. सुह, व, कम्म, मुणि, ण । धातुसंझ--- लिप लेपने, अस् सत्तायां । प्रातिपदिक --एतव, न, यत्, अध्यवसान. एवं, आदि, तत्, अशुभ, शुभ, त्र, कर्मन्, मुनि, न । मूलधातु-लिप उपमर्दे, अस सत्तायां। पदविवरण - एदाणि एतानि-प्रयमा बहु । ण से भी गुग अशुभे दाने निमित्त है. क्योंकि ये स्वयं प्रज्ञानादिरूप हैं । इसोका स्पष्टीकरण----जो यह मैं परजीवको मारता हूं इत्यादिक अध्यवसान है वह प्रज्ञानादिरूप है, क्योंकि प्रात्मा तो ज्ञानमय होनेसे सत् अहेतुक झतिक्रियामात्र ही है, किन्तु हनना घातना आदि क्रिपा हैं वे रागद्वेष के उदयरूप हैं सो इस प्रकार प्रारमा और घातने प्रादि क्रियाके भेदको न जानने से प्रात्माको भिन्न नहीं जाननेसे "मैं परजीवका घात करता हूं" प्रादि अध्यवसान मिश्याज्ञान है । इसी प्रकार भिन्न प्रात्माका श्रद्धान न होनेसे वह प्रध्यवसान मिथ्यादर्शन है इसी प्रकार भिन्न आत्माके अनाचरणसे वह अध्यक्सान मिथ्याचारित्र है और जो "मैं नारक हूं" इत्यादि अध्यवसान है वह भी ज्ञानमयपना होनेसे सत् पहेतुक एक ज्ञायकभाव प्रात्माका व कर्मोदयजनित नारकादि भावोंको अन्तर न जाननेसे विविक्त प्रात्माका अज्ञान होनेसे अश्रद्धान होनेसे मनावरण होनेसे प्रभारित है। मोर फिर जो यह धर्मद्रव्य मेरे द्वारा जाना जाता है ऐसा अध्यवसाय है वह भी अज्ञानादि रूप ही है, क्योंकि प्रात्मा तो ज्ञानमय होनेसे सत् अहेतुक एक शानमात्र हो है, किन्तु धर्मादिक ज्ञेयमय है, ऐसे ज्ञानज्ञेयका विशेष न जाननेसे विविक्त प्रात्माके अज्ञानसे "मैं धर्मको जानता हूँ" ऐसा अध्यक्सान अज्ञानरूप है, भिन्न प्रात्माके न देखनेसे याने श्रद्धान न होनेसे यह अध्यवसान मिथ्यादर्शन है, और भिन्न प्रात्माके अनाचरणसे यह अध्यवसान प्रचारित्र है । इस कारण ये सभी अध्यवसान बंध के निमित्तभूत हैं। जिनके ये अध्यवसान विद्यमान नहीं हैं वे ही मुनियोंमें प्रधान हैं याने Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार चाचारित्रं । यत्पुनारकोहमित्यायध्यवसानं तदपि ज्ञानमयस्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञायकवभावस्य कदियजनितनारकादिभावानां च विशेषाज्ञान दिदिक्तामाजानः स्तिमज्ञानं विवि मामादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विविक्तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रम् । यत्पुनरेप धर्मों ज्ञायत इत्याद्यध्यवसानं तदपि ज्ञानमयत्वेनात्मनः सदहेतुकज्ञानेकरूपस्य ज्ञेयमयानां धर्भादिरूपाणां च विशेषाजानेन विविक्तात्माज्ञानादस्ति तावदज्ञानं विविक्तात्मादर्शनादस्ति च मिथ्यादर्शनं विवि. तात्मानाचरणादस्ति चाचारित्रं । ततो बंध निमित्तान्ये वैतानि समस्तान्यध्यवसानानि । येषामे. न-अव्यय । अस्थि संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । जेसि येषां-षष्ठी बहु । अज्भवसागणि अध्ययसानानि-प्रथमा बहुः । एवं-अन्यय । आदीणि आदीनि-प्र० बहु । ते-प्र० बहु० । असुहेण सुहेण कम्मेण मुनिकुंजर हैं । ऐसे कोई कोई विरले पुरुष सत् अहेतुक ज्ञप्ति एक क्रिया वाले, सन् अहेतुक एक ज्ञायकभावस्वरूप और सत् अहेतुक एक ज्ञानरूप विविक्त प्रात्माको जानते हुए उमीका सम्यक श्रद्वान करते हुए और उसीका पाचरण करते हुए निर्मल स्वच्छन्द स्वाधीन प्रवृत्तिम्हप उदयको प्राप्त प्रमंद प्रकाश रूप अन्तरङ्ग ज्योतिःस्वरूप हैं, इसी कारण अज्ञान प्रादिके अत्यन्त प्रभावसे शुभ तथा अशुभ कर्मसे नहीं लिप्त होते ।। भावार्थ - "मैं परको मारता हूं" आदि अध्यवसान तो क्रियागर्भाध्यवसान है । तथा "मैं नारक हूं" आदि अध्यवसान विपच्यमानाध्यवसान हैं। तथा 'मैं परद्रव्यको जानता हूं" आदि ज्ञायमानाध्यवसान है । सो इन अध्यवसानोंमें जीव तब तक प्रवर्तता है जब तक आत्मा के रागादिकके तथा प्रात्माके व नारकादिकके तथा प्रात्माके व ज्ञेयरूप अन्य द्रव्यके भेद न जाने । वह अध्यवसाय भेदज्ञानके बिना मिथ्याज्ञानरूप है, मिथ्यादर्शनरूप है तथा मिथ्याचारित्र रूप है । ऐसे यह मोही तीन प्रकार प्रवर्तता है । जिनके ये अध्यवसान नहीं है वे मुनिकुंजर हैं, वे ही प्रात्माको सम्यक् जानते हैं, सम्यक् श्रद्धान करते हैं, सम्यक् प्राधरण करते हैं । इस कारण अज्ञानके अभावसे उत्तम तत्त्वज्ञ प्रात्मा सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र हुए कर्मोसे लिप्त नहीं होने । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें बताया गया था कि यह जीव अज्ञानमय अध्यवसायसे अपनेको नानारूप करता रहता था। अब इस गाथामें बताया है कि वे अध्यवसाय जिन जीवोंके नहीं है वे मुनि शुभ अशुभ किसी कर्मसे लिप्त नहीं होते। तथ्यप्रकाश-१- अध्यवसान तीन प्रकारके होते हैं--(१) क्रियागर्भाध्यवयान, (२) विपच्यमानाध्यवसान, (३) ज्ञायमानाध्यवसान । २- सत् अहेतुक ज्ञप्तिक्रियामात्र निज मात्मामें व रागद्वेषविपाकमयी हननादि कियावोंमें अन्तर न जाननेके कारण विविक्त प्रात्माका Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार वैतानि न विद्यते त एव मुनिकुन्जराः केचन सदहेतुकज्ञप्त्य कक्रिय सदहेतुकज्ञायकभावं सदहेतुकशानकरूपं च विविक्तात्मानं जानंतः सम्यक्पश्यतोऽनुचरंतश्च स्वच्छस्वछंदोद्यदमंदांतयोतिषोऽत्यंतमज्ञानादिरूपत्वाभावात् शुभेनाशुभेन वा कर्मणा खलु न लिप्येरन् ।। २७० ।। अशुभेन शुभेन कर्मणा-तृतीया एक० । मुणो मुनयः-प्र० बहु० । ण न-अव्यय । लिप्पंति लिप्यन्ते-बर्नमान लद अन्य पुरुष बहुवचन भावकर्मवाच्य क्रिया ।। २७० ॥ ज्ञान न होनेसे क्रियागर्भाध्यवसान अज्ञानरूप है, विविक्तात्माका दर्शन न होनेसे कियागर्भा___ध्यवसान मिथ्यादर्शन है, विविक्तात्माका प्राचरण न होनेसे क्रियागर्भाध्यवसान मिथ्याचारित्र है। ३-सत् अहेतुक ज्ञायकस्वरूप निज प्रात्मामें व कर्मोदयजनितनारकादिभावोंमें अन्तर न जानने के कारण विविक्तात्माका ज्ञान न होनेसे विपच्यमानाध्यवसान अजानरूप है, विवि. क्तात्माका दर्शन न होनेसे विपच्यमानाध्यवसान मिथ्यादर्शन है, विविक्तात्माका पाचरण न होने से विपच्यमानाध्यवसान मिथ्याचारित्र है । (४) सत् अहेतुक ज्ञानरूप निज प्रात्माका व ज्ञेयमय पदार्थका अन्तर न समझने के कारण विविक्तात्माका ज्ञान न होनेसे ज्ञायमानाध्यवसान प्रज्ञानरूप है, विविक्तात्माका दर्शन न होनेसे ज्ञायमानाध्यवसान मिथ्यादर्शन है, विविक्तात्मा का प्राचरण न होनेसे ज्ञायमानाध्यवसान मिथ्याचारित्र है। (५) अथवा क्रियागर्भाध्यवसान मुख्यतया प्रचारित्ररूप है। (६) विपच्यमानाध्यवसान मुख्यतया मिथ्यादर्शनरूप है । (७) ज्ञायमानाध्यवसान मुख्यतया मिथ्याज्ञानरूप है। (८) जिनके ये अध्यवसानभाव हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं । (६) ये सभी अध्यवसान कर्मबन्धके निमित्त कारण हैं। (१०) जिनके ये अध्यवसान नहीं है वे ही मुनिश्रेष्ठ हैं । (११) जो शतिक्रिया, ज्ञायकस्वरूप, ज्ञानमय विविक्तात्मा को जानते देखते भाचरते हैं वे शुभ अशुभ किसी कर्मसे लिप्त नहीं होते । सिद्धान्त-(१) ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वको पाराधनासे अध्यवसानभाव व कर्मबन्ध दोनों दूर हो जाते हैं। दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-प्रध्यबसान व कर्मबन्धसे हटने के लिये अपनेको शतिक्रिय, ज्ञायकस्वरूप ज्ञानमात्र निरखना ।। २७० ॥ प्रश्न-वह अध्यवसान क्या है ? उत्तर--[बुद्धिः] बुद्धि [व्यवसायः] व्यवसाय [अपि च] और [मध्यवसानं] अध्यवसान [च] और [मतिः] मति [विज्ञान] विज्ञान [चित्त] चित्त [भावः] भाव [4] और [परिणामः] परिणाम [सर्व] ये सब [एकार्थमेव] एकार्थ ही हैं याने इनका अथं भिन्न नहीं है, मात्र नामभेद है । Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ किमेतदध्यवसानं नामेति चेद समयसार बुद्धी ववसायवि य श्रवसा मई य विष्णाणं । एकमेव सव्वं चित्तं भावो य परिणामो ॥ २७१ ॥ बुद्धि व्यवसाय अथवा अध्यवसान विज्ञान विस तथा । " परिणाम भाव ग्रह मति, ये सब एकार्थवाचक हैं || २७१ ॥ facierest अध्यवसानं मतिश्च विज्ञानं । एकार्थमेव सर्वं चित्तं भावश्च परिणामः ॥ २७९ ॥ स्वपरयोरविवेके सति जीवस्याध्यवसितिमात्रमध्यवसानं । तदेव च बोधनमात्रत्वाद्बुद्धिः | व्यवसानमात्रत्वाद् व्यवसायः । मननमात्रत्वान्मतिः । विज्ञप्तिमात्रत्वाद्विज्ञानं चेतन मात्र नामसंज्ञ - बुद्धि, बवसाअ, वि, य, अम्भवसरण, भइ, य, विष्णाण एकट्ट, एव, चित्त, भाव, व. परिणाम | धातुसंज्ञ - बुज्झ अवगमने, मन अवबोधने, चेत करणावबोधनयो: । प्रातिपदिक-बुद्धि, व्यव साथ, अपि च, अध्यवसान, मतिः च, विज्ञान, एकार्थं, एव सर्व चित्त, भाव, च, परिणाम । मूलधातुतात्पर्य - बुद्धि व्यवसाय प्रादिक भिन्न-भिन्न अपेक्षावोंसे अध्यवसान भावके ही वाचक हैं. । टोकार्थ- स्व और परका भेद ज्ञान न होनेपर जीवको मात्र मान्यता श्रध्यवसान है । वही बोधनमात्र से बुद्धि हैं, प्रसङ्ग में लगे रहने से व्यवसाय है, जाननमात्रपनेसे मति है, विज्ञप्तिमात्रप से विज्ञान है, चेतन मात्रसे चित्त है, चेतनके भवनमाश्रपनेसे भाव है और परिणामनमात्रप से परिणाम है । इस प्रकार ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं। भावार्थ - ये जो बुद्धि ग्रादिग्रा नाम कहे हैं वे सभी इस जीवके परिणाम हैं। जब तक स्व और परका भेद ज्ञात न हो तब तक परमें और अपने में जो एकत्वके निश्चयरूप बुद्धि प्रादिक होते हैं वे सब अध्यवसान ही हैं । अब कहते हैं कि जो अध्यवसान त्यागने योग्य कहा गया है सो मानो सब व्यवहार का त्याग कराकर निश्चयका ग्रहण कराया गया है - सर्वत्रा इत्यादि । प्रर्थ- समस्त वस्तुओं में जो अध्यवसान हैं वे सब जिनेन्द्र भगवानने त्यागने योग्य कहे हैं सो ऐसा मैं मानता हूं कि परके आश्रय से प्रवर्तने वाला सभी व्यवहार छुड़ाया गया है । तब फिर यह सत्पुरुष सम्यक् प्रकार एक निश्चयको ही निश्चलतासे अंगीकार करके शुद्ध ज्ञानघनस्वरूप प्रपनी आत्मस्वरूप महिमामें स्थिरता क्यों नहीं धारण करते ? भावार्थ - जिनेश्वरदेवने अन्य पदार्थों में जो आत्मबुद्धिरूप अध्यवसान छुड़ाया है सो ऐसा समझना चाहिए कि पराश्रित सभी व्यवहार छुड़ा दिया है। इस कारण शुद्धज्ञानस्वरूप अपने आत्मामें स्थिरता रखो ऐसा Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४६५ स्वाच्चित्तं । चितो भवनमात्रत्वाद् भावः । चितः परिणमनमात्रत्वात् परिणामः ॥ सर्वाध्वसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनैः तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यङ् निश्चयमेकमेव तदमी निष्कंपमाक्रम्य विशुद्धज्ञानघने महिम्नि त निजे बध्नंति संतोश्रुति ।। १७३ ।। ।। २७१ ।। बुध मने, मन ज्ञाने, चितो संज्ञाने । पदविवरण- बुद्धी बुद्धिः प्रथमा एकवचन | वेबसाओ व्यवसाय - प्रथमा एक० । वि अयि च अव्यय | अभवसाणं अध्यवसानं मई मतिः विष्णागं विज्ञानं एकट्ठे एकार्थं सव्वं सर्व चित्तं भावो भावः परिणामो परिणामः प्रथमा एकवचन ।। २७९ ॥ शुद्ध निश्चय ग्रहाका उपदेश है। यह आचर्य भी किया है कि जब भगवानने सर्वविषयोंमें अवसानको छुड़ाया है तो सत्पुरुष इन ग्रध्यवसानों को छोड़कर अपने में स्थिर क्यों नहीं होते ? प्रसंगविवरण --- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि अध्यवसान जिनके नहीं होते वे कर्मसे लिप्त नहीं होते । श्रव इस गाथा में उन्हीं अध्यवसानोंका परिचय अनेक नामों द्वारा कराया गया है । : तथ्यप्रकाश -- १ - बुद्धि, व्यवसाय, मति, विज्ञान, चित्त, भाव, संकल्प, विकल्प व परिणाम, ये सब श्रध्यवसान के अनर्थान्तर हैं । २ स्व व परका भेदविज्ञान न होनेपर होने वाले निश्चयको अध्यवसान कहते हैं । ३ श्रध्यवसान ही बोधनरूप होनेसे बुद्धि है । ४-प्रध्यवसान ही निश्चयमात्र या चेष्टामात्र होनेसे व्यवसाय कहलाता है । ५- अध्यवसान ही मननमात्र होनेसे मति कहलाता है । ६ - ग्रध्यवसान ही जाननरूप होनेसे विज्ञान कहलाता है । ७श्रध्यवसान ही चेतनेमात्रको दृष्टिसे चित्त कहलाता है । श्रध्यवसान हो जीवमें कुछ होने मात्रको दृष्टिसे भाव कहलाता है । ६- श्रध्यवसान ही जीवका कुछ परिणमन की दृष्टिसे परिराम कहलाता है | १० - श्रध्यवसान हो 'यह मेरा है' ऐसा संकल्प गर्भ होनेसे संकल्प कहलाता है । ११ - प्रध्यवसान ही हर्षविषादादिरूप होनेसे विकल्प कहलाता है । १२ - बाह्यवस्तु रागादि श्रध्यवसानका विषयभूत कारण है । १३- रागादि अध्यवसान कर्मबंध के निमित्तके निमित्तत्व का निमित्त कारण है । १४- उदयागत द्रव्यप्रत्यय नवीन कर्मबंधका निमित्त कारण है । सिद्धान्त - - ( १ ) कर्मविपाकोदय होनेपर ग्रध्यवसानभाव होता है । ( २ ) अध्यवसान भाव होनेपर कर्मबन्ध होता है । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४) । २- निमितदृष्टि ( ५.३) । प्रयोग - श्रध्यवसान भावको सर्वसंकटोंका मूल कारण जानकर अध्यवसान से अलग होकर विकार सहज ज्ञानस्वरूपमें आत्मत्वका अनुभव कर परम विश्राम पाना ।। २७१ ।। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार एवं ववहारणो पडिसिद्धो जाण गिच्छयणयेगा । णिच्छयणयासिदा पुण मुणिणो पावंति णिव्वाणं ॥२७२॥ निश्चयनयसे जानो, यह सब व्यवहारनय निषिद्ध प्रतः । निश्चयनयाश्रयो भूनि, पाते निवारणपदको हैं ॥२७२॥ एवं व्यवहार नयः प्रतिषिद्धो जानीहि निश्चयनयेन । निश्चयनयाश्रिताः पुनः मुनयः प्राप्नुवंति निर्वाणं | प्रात्माश्रितो निश्चयनयः, पराश्रितो व्यवहारनयः । तत्रैवं निश्चयनयेन पराश्रितं सम. स्त मध्यवसानं बंधहेतुत्वेन मुमुक्षोः प्रतिषेधयता व्यवहारनय एव किल प्रतिषिद्धः, तस्यापि परा नामसंझ-एवं, ववहारणअ, पडिसिद्ध, णिच्ट्रयणय, णिच्छयणयासिद, पुण, मुणि, गिब्वाण । पातुसंत्र-जाण अवबोधन, प आव प्राप्ती । प्रातिपदिक----एवं, व्यवहारनय, प्रतिषिद्ध, निश्चयनथ, निश्च-: यनयाथित, पुनर, मुनि, निर्वाण । मूलधात-ज्ञा अवबोधने, प्र आप्लू व्याप्ती स्वादि । पदविवरण--एवंयव्यय । बबहारणओ व्यवहारनयः-प्रथमा एक० । परिसिद्धो प्रतिषिद्धः-प्रथमा एक० । जाण जानीहि-' अब उक्त गाथार्थका स्पष्टीकरण करते हैं--[एवं] इस प्रकार याने पूर्वकथित रीतिसे [व्यवहारमयः] व्यवहारनय [मिश्चयनयनj नियाययः सारा [प्रतिषिद्धः] प्रतिषिद्ध [जानीहि] जानो [पुनः] क्योंकि [निश्चय नयनयाक्षिताः] निश्चयके प्राश्रित हैं [मुनयः] मुनिराज [निरपं] मोक्षको [प्राप्नुवंति] प्राप्त करते हैं। तात्पर्य-व्यवहारनये समस्त तत्त्वोंको जानकर उन भेदविकल्पोंसे भी परे होकर परमशुद्धनिश्चयनयका आश्रय कर लेने वाले मुनिराज मोक्ष प्राप्त करते हैं। ___ . टोकार्थ-प्रात्माश्रित निश्चयनय है और पराश्रित व्यवहारनय है ! वहाँ बंधका कारणपना होनेसे पराश्रित समस्त अध्यवसान मुमुक्षुमोंको उस अध्यवसानका निषेध करते हुए प्राचार्यने वास्तव में व्यवहारनयका हो निषेध कर दिया है, क्योंकि प्रध्यवसानकी तरह व्यवहारनयके भी पराश्रितपनेका अन्तर नहीं है। और इस प्रकार भी व्यवहारनय निषेध करने योग्य है कि प्रात्माश्रित निश्चयनयका प्राश्रय लेने वाले हो मुक्त होते हैं और पराश्रित व्यवहारनयका प्राश्रय एकांततः कभी मुक्त न होने वाला अभव्य भी करता है । भावार्थ-- प्रात्माके परके निमित्तसे होने वाले अनेक भाव सब व्यवहारनयके विषय है । इस कारण व्यवहारनय तो पराश्रित है और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वह निश्चयनयका विषय है । इस कारण निश्चयनय प्रात्माश्रित है। अध्यवसान भी पराश्रित होनेसे व्यवहारन यका ही विषय है । इसलिये जो भले प्रकार अध्यवसानका त्याग है वह सब व्यवहारनयका ही त्याग है । जो निश्चयके ग्राश्रय प्रवर्तते हैं वे तो कर्मसे छूटते हैं और जो एकांतसे व्यवहारनय Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धाधिकार ४६७ श्रित्याविशेषात् । प्रतिषेध्य एवं चाय, पारमाश्रितनिश्चयन याश्रितानामेव मुच्यमानत्वात्, परा. श्रितव्यवहारनयस्यकातनामुच्यनानेनामधेन प्याजीयनाणत्वाच्च ।। २७२ ।। आज्ञार्थं लोट् मध्यम पुरुष एक प्रिया । णिच्छयणायेण निश्चयनयेन-तृतीया एक.। णिच्छयणयासिदा नियनयाश्रिता:-प्रथमा बहु० । पुण पुनः--अव्यय । मुणिणो मुनयः-प्रथमा बहु० । पावंति प्राप्नुवंतिवर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया। णिब्याणं निर्वाणम्-द्वितीया एकवचन ।। २७२ ॥ के हो आश्रय प्रवत रहे हैं वे कर्मसे कभी नहीं छूटते । प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें मध्यवसानका अनेक नामोंसे परिचय कराते हुए प्रध्यवसान छुड़ानेका अथवा अध्ययसान छुड़ानेके लिये अन्याय समस्त व्यवहार ही छुड़ानेका संकेत दिया था 1 अब इस माथामें निश्चयनयको उपयोगिता दिखाकर व्यवहारनय प्रतिषिद्ध किया गया है। तथ्यप्रकाश-(१) यहाँ परद्रब्धका प्राश्रयकर होने वाला विकल्प व्यवहारनय है । (२) यहाँ शुद्धात्मद्रव्यका प्राश्रयकर होने वाला सद्भाव निश्चयनय है । (३) निश्चयनय प्रर्थात् शुद्धात्मद्रव्यका प्राश्रय करने वाले मुनि निर्वाणको प्राप्त करते हैं। (४) निश्चयनयके द्वारा अर्थात् शुद्धात्म द्रव्यके प्राश्रय द्वारा परद्रव्याश्रित समस्त व्यवहार प्रतिषिद्ध हुमा है। (५) पराश्रित व्यवहारन यके प्राश्रयसे साक्षात् निर्वाण नहीं है । सिद्धान्त--- (१) परद्रव्यविषयक व्यवहार अथवा अध्यवसान सब उपचार होनेसे मिथ्या है । (२) सहजसिद्धशुद्धात्मद्रव्यविषयक उपयोग स्वसहजभाव होनेसे भूतार्थ है। दृष्टि-- १- अनेक प्रसद्भूतव्यवहार (१२४, १२५, १२६, १२७, १२८ आदि)। २- परमशुद्धनिश्चयनय (४४)। प्रयोग-निश्चयचारित्रको उपयोगितामें ही ध्यान लगाकर परमविश्राम पाना ।।९७२।। प्रश्न--प्रभव्य जीव व्यवहारनयका कैसे प्राश्रय करता है ? उत्तर--[जिनवरैः] जिनेश्वरदेव के द्वारा प्राप्तं] कहे गये [व्रतसमितिगुप्तयः] व्रत समिति गुप्ति [शीलतपः] शील तपको [कुर्वन्नपि] करता हुआ भी {अभव्यः] अभव्य जीव [अज्ञानी मिथ्याष्टिः तु] अज्ञानी मिथ्या दृष्टि ही है। तात्पर्य-निज अविकार सहज ज्ञानस्वभावका अनुभवन हो पानेसे व्रतादिको पालता हमा भी प्रभव्य अशानी है। टोकार्य-शील तपसे परिपूर्ण तीन गुप्ति पांच समितिसे संयुक्त, अहिंसादिक पाँच महावत रूप व्यवहारचारित्रको प्रभव्य भी करे तो भी यह प्रभव्य चारित्रसे रहित, प्रज्ञानी, Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ समयसार कथमभव्येनाश्रीयते व्यवहारनयः ? इति चेस्--- बदसमिदीगुत्तीयो सीलतवं जिणावरहि षण्णत्तं । कुब्बतोवि अभब्यो अण्णाणी मिच्छदिट्टी दु॥२७३॥ जिनघर के बतलाये, प्रत समिति पुति तथा शोल तपको । यह प्रभव्य करता भी, अज्ञानी मूदृष्टी है ॥ २७३ ॥ प्रतसमिति गुप्तयः शीलतपो जिनवरैः प्राप्त । कुर्वनप्यभापोलानी मिथ्यादृष्टिस्तु ॥ २७३ ।। शीलतपःपरिपूर्ण त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमाहिंसादिपंचमहानतरूपं व्यवहारचारिप्रमभव्योऽपि कुर्यात् तथापि स निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव निश्चयचारित्रहेतुभूतज्ञान. श्रद्धानशून्यत्वात् ।।२७३।। ___ नामसंझ--वदसमिदीगुत्ति, सीलतव, जिणवर, पण्णत, कुव्वंत, वि, अभब्ब, अण्णाणि, मिच्छदिदि, दु। धातुसंज्ञ-कुब्ध करणे। प्रातिपदिक –अतसमितिगुप्त, शीलतपस्, जिनवर, प्रज्ञप्त, कुर्वन्त, अपि, अभय, अज्ञानिन्, मिथ्यादृष्टि, तु । भूलशास्तु- डुकृञ् करणे। पदविवरण- बदसमिदीगुत्तीओ अतसमितिगुप्तयः-प्रथमा बहु० | सीलतवं शीलतपः-प्रथमा एक० । जिणवरेहिं जिनवरैः-तृतीया बहु० । पण्णस्तं प्रज्ञप्त-प्रथमा एक० । कुच्वंतो कुर्वन्-प्रथमा एक० । वि अपि-अव्यय । अभन्यो अभव्यः-प्रथमर एक० । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । मिच्छदिद्धि मिथ्यादृष्टि:-प्रथमा एक० । दुतु-अव्यय ।। २७३ ।।। मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि उसके निश्चयचारित्रका कारणस्वरूप ज्ञान और श्रद्धान नहीं है। भावार्थ-अभव्य जीव महाप्रत समिति गुप्ति रूप व्यवहारचारित्रको पाले तो भी वह निश्चय सम्यग्ज्ञान श्रद्धानके बिना सम्यकचारित्र नाम नहीं पाता और अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही रहता है । प्रसंगबिवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें निश्चयनयको उपयोगिता दिखाकर समस्त पर द्रध्याश्रित व्यवहार प्रतिषिद्ध कर दर्शाया गया था कि पराश्रित व्यवहारका तो अभव्य भी माश्रय करते हैं बड़े दुर्धर तप आदि करते हैं, किन्तु उनका मोक्ष नहीं होता । अब इस गाथा में उसी व्यवहारनयका प्रभव्यके द्वारा पाश्रय किया जानेकी रीति बताई गई है । तथ्यप्रकाश-१-शील व तपश्चरणसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति व पांच समितिसे युक्त पहिंसादि पञ्च महाव्रत व्यवहारचारित्र है । २- प्रभव्य भी मंद मिथ्यात्व व मंदकषायके व्यवहारचारित्रका पालन करता है । ३- व्यवहारचारित्रको पालता हुमा भी प्रभव्य निश्चयचारित्र ही है, क्योंकि उसके निश्चयचारित्र हो ही नहीं सकता । ४-व्यवहारचारित्रको पालता हुप्रा भी अभब्य अज्ञानी ही है, क्योंकि निश्चयचारित्रका हेतुभूत ज्ञान वहां नहीं है। ५- क्ष्यबहारचारित्रको पालता हुमा भी प्रभव्य मिथ्यादृष्टि ही है, क्योंकि निश्चयचारित्रका हेतु Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४६६ तस्यकादशोगज्ञानमस्ति ? इति चेद- . . मोक्खं असदहतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज । पाठो ण करेदि गुणं असदहंतस्स णाणं तु ॥२७४॥ मुक्तिका अश्रद्धानी, अभव्य प्राणी पढ़े श्रुताङ्गोंको। पढ़ना गुण नहि करता, क्योंकि उसे ज्ञानभक्ति नहीं ॥२७४॥ मोक्षमश्रद्धानो भव्यसत्त्वस्तु योऽधीथीन । पाठो न करोति गुणमश्रधानन्य ज्ञानं तु ॥ २७४ ।। मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते शुद्धज्ञान गयात्मज्ञानशून्यत्वात् ततो ज्ञानमपि नासो श्रद्धले, ज्ञानमश्रधानश्चाचाराद्य कादशांगं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान ज्ञानो स्यात् नामसंज-- मोक्ख, असहत, अभवियसत्त, दु, ज, पाठ, ण, गुण, असदहत, णाण, तु । धातुसंज्ञअधि इ अध्ययने, कर करणे । प्रातिपदिक -मोक्ष, अश्रद्दधान, अभव्यमत्व, तु, यत्, पाठ, न, गुण, अश्रदृधान, ज्ञान, तु । मूलधातु अधि इछ, अध्ययने अदादि, डकुत्र करणे । पदविवरण-- मोक्खं मोक्षंभूत श्रद्धान अभयके नहीं हो पाता । ६- अभव्यके सभ्यवत्वघातक मिश्यात्वादि सात प्रकृ. तियोंका उपशम, क्षय या क्षयोपशम न होनेके कारण शुद्धात्मत्वको उपादेयताका श्रद्धान नहीं होता, अतः प्रभव्य मिथ्यादृष्टि ही रहता है। सिद्धान्त-(१) प्रत समिति गप्ति आदिमें चारित्रपना कहना व्यवहार है। दृष्टि--१- एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) । प्रयोग-निश्चयचारित्रके हेतुभूत शुद्धात्मत्वका श्रद्धान ज्ञान कर सहजात्मस्वरूपके अनुरूप ज्ञानवृत्तिका सहज पौरुष करना ॥२७३।। __ प्रश्न-प्रभव्य जीवके सो ग्यारह अंग तकका भी ज्ञान हो जाता, फिर मोक्षमार्गी क्यों नहीं है ? उत्तर- [मोक्षं प्रश्रद्दधानः] मोक्ष तत्त्वकी श्रद्धा नहीं करने वाला [यः अभव्यसत्त्वः] जो अभव्य जीव है वह [अधीयोत तु] शास्त्र तो पढ़ता है [तु] परन्तु [ज्ञानं अश्रद्दधानस्य] ज्ञानस्वभावकी श्रद्धा नहीं करने वाले अभव्यका पाठः] शास्त्रपठन [गुणं न करोति] गुण नहीं करता। तात्पयं-- अविकार सहज ज्ञानस्वरूपमें अपनी श्रद्धा न होनेसे अभन्यका ज्ञान भी गुणकारी नहीं है। टीकार्थ-प्रथम तो अभव्य जीव निश्चयतः शुद्ध ज्ञानमय प्रात्माके ज्ञानसे शून्य होने से मोक्षका हो श्रद्धान नहीं करता इस कारण अभव्य जीव ज्ञानकी भो श्रद्धा नहीं करता । और ज्ञानका श्रद्धानन करने वाला अभव्य पाचारांगको प्रादि लेकर ग्यारह अंगरूप श्रुतको Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स किल गुणः श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञानमयात्मज्ञानं तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्यामव्यस्प श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत सतस्तस्य तद्गुणाभावः, ततश्च ज्ञानश्रद्धाः । द्वितीया एक० । असहहतो अश्रदधानः-प्रथमा एका० । अभवियसत्तो अभव्यसत्व:-प्रथमा एक० । दुतुअव्यय । जो य:-प्रथमा एक० । अधीरज अधीयीत-लिङ विधौ अन्य पुरुष एक० किया। पाठो पाठःपढ़ता हुमा भी शास्त्र पढ़नेके गुणके प्रभावसे ज्ञानी नहीं होता। शास्त्र पढ़नेका यह गुण है। कि भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान हो । सो उस भिन्न वस्तुभूत ज्ञानको नहीं श्रद्धान। करने वाले अभव्यके शास्त्रके पढ़नेसे विविक्त वस्तुभूत ज्ञानमय प्रात्मज्ञान प्राप्त किया जाना । शक्य नहीं। इसी कारण उसके शास्त्र पढ़नेका जो भिन्न प्रात्माका जानना गुण है, वह नहीं । है और इस कारण वह नहीं है और इस कारण सच्चे ज्ञान श्रद्धानके प्रभावसे वह अभव्य प्रशानी ही है यह निश्चित है । भावार्थ-प्रभव्य जीव ग्यारह अंग भी पढ़ ले तो भी उसके शुद्ध प्रात्माका ज्ञान श्रद्धान नहीं होता इस कारण उसके शास्त्रको पठनसे गुश नहीं हुआ। इसी कारण वह अज्ञानी ही है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि व्यवहारचारित्रको पालता। हुप्रा भी अभव्य अज्ञानी व मिथ्यादृष्टि ही है। अब इस गाथामें उसीके सम्बन्धमें बताया है कि प्रभव्यका एकादश अंगका अध्ययन भी गुणकारी नहीं है। तथ्यप्रकाश----१-अभध्य जीवको मोक्षका यथार्थ श्रद्धान नहीं होता। २-देहादि अन्य सर्वपरिमुक्त आत्माकी केवल शुद्ध ज्ञानमय स्थितिको मोक्ष कहते हैं। -प्रभव्य शुद्धज्ञानमय प्रात्मज्ञानसे शून्य होनेके कारण न तो मोक्षको श्रद्धा कर पाता है और न ज्ञानको श्रद्धा कर पाता है ! (४) श्रुत शास्त्र भागमके अध्ययनका फल शुद्ध ज्ञानस्वरूपको श्रद्धा है। (५) शुद्ध ज्ञानस्वरूपकी श्रद्धा न हो पानेके कारण एकादशांग श्रुतका भी अध्ययन प्रभव्यके लिये गुणकारी नहीं हो पाता । (६) प्रभव्यके शुद्ध ज्ञानमय प्रात्माका न तो ज्ञान है और न श्रद्धाग है, इस कारण प्रभव्य अज्ञानी मिथ्याष्टि ही है। (७) अभब्यके दर्शन मोहनीयका उपशम क्षय क्षयोपशम न होनेसे वह मिथ्यादृष्टि ही रहेगा। सिद्धान्त-(१) प्रभव्य जीव विकारभावोंमें ही पात्मत्वका श्रद्धान बनाये रहनेके कारण सदा अशुद्ध ही रहता है । (२) मन, वचन, कायको क्रियायें निश्चयचारित्रका हेतुभूत नहीं हैं। फिर भी उन्हें चारित्र कहना व्यवहार है। दृष्टि--१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (:४२)। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७१ ... - -. - "-" - -- बन्धाधिकार नाभावात् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः ।।२७४।। प्रथमा एक । ण न-अव्यय । कदि कराति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । गुणं-द्वितीया एक० । असद्दहंतस्स अथद्दधानस्य-षष्ठी एकः । गाणं ज्ञान-प्रथमा एकावचन । तु-अध्यय ।। २७४ ।। प्रयोग----शुद्ध ज्ञानमय मोक्षके लिये शुद्ध ज्ञानमय अन्तस्तस्वका प्रात्मरूपसे श्रद्धान ज्ञान प्राचरण करना ।। २७४ ।। प्रश्न-उस अभव्यके धर्मका तो श्रद्धान होता है उसके कैसे निषेध किया जा रहा है ? उत्तर- [सः] वह अभव्य जीव [भोगनिमित्त] भोगके निमित्तरूप [धर्म] धर्मको [श्रद्दधाति च] श्रद्धान करता है [प्रत्येति च प्रतीति करता है [रोचति च] रुचि करता है पुनश्च] और स्पृिशति] स्पर्शता है [तु] परन्तु [कर्मक्षयनिमित्त'] कर्मक्षय होनेका निमि. तरूप धर्मका [न] श्रद्धान प्रादि नहीं करता । तात्पर्य--सहज ज्ञानस्वभावका परिचय नहीं होनेसे अभव्य ज्ञानस्वभावरूप धर्मकी श्रद्धा नहीं कर पाता। टीकार्थ-प्रभव्य जीव नित्य ही कर्म और कर्मफलचेतनारूप वस्तुको श्रद्धा करता है, परन्तु नित्य ज्ञानचेतनामात्र वस्तुका श्रद्धान नहीं करता, क्योंकि अभव्य जोव नित्य ही स्व. परके भेदज्ञान के योग्य नहीं है । इस कारण वह अभव्य कर्मक्षयके निमित्तभूत ज्ञानमात्र भूतार्थ धर्मको श्रद्धान नहीं करता, परंतु भोगके निमित्तभूत शुभ कर्ममात्र असत्यार्थ धर्मको ही श्रद्धान करता है । इस कारण यह प्रभव्य अभूतार्थ धर्मका श्रद्धान, प्रतीति, रुचि, स्पर्शनके द्वारा ऊपरके ग्रैवेयक तकके भोगमात्रोंको पाता है, परन्तु कर्मसे कभी नहीं छूटता । इसलिये इसके सत्यार्थ धर्मके श्रद्धानका प्रभाव होनेसे सच्चा श्रद्धान भी नहीं है। ऐसा होनेपर निश्ववनयके मिद्धान्तमें व्यवहारनयका निषेध युक्त ही है। भावार्थ---प्रभव्य जीव कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाको जानता है, परन्तु ज्ञानचेतनाको नहीं जानता, क्योंकि प्रभव्यके भेदज्ञान होनेकी योग्यता नहीं है, इस कारण इसके शुद्ध प्रात्मीयधर्मका श्रद्धान नहीं है । यह तो शुभ कर्मको हो धर्म समझकर श्रद्धान करता है सो मंद कषाय सहित यदि द्रव्यमहाव्रत पालन कर ले तो उसका फल वेयक तकके भोग पाता है, परन्तु कर्मका क्षय नहीं होता। इस कारण इसके सत्यार्थ धर्मका भी श्रद्धान नहीं कहा जा सकता, इसीसे निश्चयनयके सिद्धान्त में व्यवहारलय का निषेध है। प्रसंगविवरण-मनन्तरपूर्व गाथामें अभव्य के श्रुताध्ययनको अगुणकारी बताया गया था । अब इस गाथामें बताया है कि अभव्यके जैसा भी धर्मश्रद्धान संभव है वह पुण्यल्प Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ४७२ समयसार तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्-- सद्दहदि य पत्तियदि य रोचेदि य तह पुणा य फासेदि । धम्म भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ॥२७॥ कभी धर्मको श्रद्धा, प्रतीति रुचि वा झुकाव भी करता। वह सब भोगनिमित्त हि, पर कर्मक्षय निमित्त नहीं ॥२७५।। श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पुशति । धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तं । अभव्यो हि नित्यकर्मकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते नित्यमेव भेदविज्ञानानहत्वात् । ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमा भूतार्थं धर्म न श्रद्धत्ते । भोगनिमित्तं शुभकर्गमात्रमभूतार्थमेव पादने ! तत एकाही प्रभुजाधानद्धानात्यगनरोचनस्पर्शनरुपरितनदेयकभोगमात्रमास्कंदेन्न पुनः कदाचनापि विमुच्यते, ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धा नामसंज्ञ-य, तह, पुणो, धम्म, भौगणिभित्त, ण, दु, त, कम्मवस्त्रयणिमित्त । धातुसंज्ञ-श्रत् दह धारणे, पति इ गतौ, रोय अभिलाषे श्रद्धायां च, फास स्पर्श । प्रातिपदिक च, तथा, पुनर्, धर्म, भोगनिमित्त, न, तु, तत्. कर्मक्षयनिमित्त । मूलधातु---श्रद डुधान धारणपोषणयोः जुहोत्यादि, प्रति इण गती अदादि, रच रोत्तने, स्पृश संस्पर्शने तुदादि । पदविवरण-सद्दहदि श्रद्दधाति पतियदि प्रत्येति रोचेदि रोचधर्मश्रद्धान भी मोक्षके लिये नहीं होता। तथ्यप्रकाश-~~१- अभव्य जीव भोगके प्रयोजनसे पुण्यरूप धर्मको श्रद्धा करता है। २-प्रभव्यजीव गुद्ध ज्ञानमय धर्मको जानता ही नहीं है । ३-अभव्यजीव भेदविज्ञानको योग्यता न होनेसे ज्ञान चेतनारूप तत्वको श्रद्धा नहीं कर सकता । ४-ग्रभव्य सदा कर्मचेतना व कर्मफल चेतनारूप वस्तुको श्रद्धा करता है । ५- कर्ममोक्षके हेतुभूत ज्ञानमात्र भूतार्थधर्मकी श्रद्धा प्रभव्यको होना असंभव है । ६- अभव्य जीव अभूतार्थधर्मको श्रद्धा प्रतीति रुचिके बलसे नव ग्रेवेयक तक भी उत्पन्न हो सकता, किन्तु भूतार्थधर्मको श्रद्धा न होनेसे उसको कभी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती। ७-- निश्चय चारित्र बिना कितना ही व्यवहारचारित्र हो उसको मुक्ति नहीं अत: अनिश्चय प्रतिषेधक है व्यवहार प्रतिषेध्य है। सिद्धान्त–१- येवल सहज ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वकी अभेदोपासनाके बलसे व्यक्त शुद्ध सिद्ध दशा प्राप्त होती है । २- शुभ अशुभ विकारके पादरसे संसार दशा प्राप्त होती है । दृष्टि- १-शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय, अशुद्धनिश्चयनय (२४, ४७)। प्रयोग- कर्मक्षयके हेतुभूत ज्ञानचेतनामात्र परमतत्वके श्रद्धान ज्ञान प्राचरणसे अपने . Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७३ बन्धाधिकार नाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति । एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एक ॥ २७५ ।। यति फासेदि स्पृशति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । धम्म धर्म-द्वितीया एक. । भोगणिमित्तं भागनिमित्तं-द्वितीया एक० । ण न दु तु-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । कम्मवखणिमित्तं कर्मक्षयनिमित्तंद्वितीया एकवचन ।। २७५ ॥ को सर्वसंकटहीन बनाना ।।२७५॥ प्रश्न—निश्चयनय और निश्चयनय किस प्रकारसे प्रतिषेध्य प्रतिषेधक हैं ? उत्तर-- [प्राचारादि ज्ञान] आचारांग प्रादि शास्त्र तो ज्ञान हैं [च] तथा [जीवादि दर्शन] जीवादि तत्त्व दर्शन [विशेष जानना [५] और षड्जीवनिका] छह जीवनिकाय [चारित्रं] चारित्र है [तथा तु] इस तरह तो [व्यवहारः भगति] व्यवहारनय कहता है [खलु] और निश्चयसे [मम प्रात्मा ज्ञानं] मेरा अात्मा ही ज्ञान है में आत्मा मेरा आत्मा ही [दर्शन चारित्रं च] दर्शन और चारित्र है [प्रात्मा] मेरा अात्मा हो [प्रत्यास्यानं] प्रत्याख्यान है [मे आत्मा] मेरा प्रात्मा ही [संवरः योगः] सम्बर और समाधि व ध्यान है । तात्पर्य-निश्चयनयसे प्रात्मा ही ज्ञानादि है इसके होनेपर व्यवहार ज्ञान आदिसे यह जीव प्रतीत हो जाता है इस कारण निश्चयनय प्रतिषेधक है । टोकार्थ---प्राचारांग आदि शब्दश्रुत ज्ञान है, क्योंकि वह ज्ञानका प्राश्रय है। जोव आदि नव पदार्थ दर्शन हैं, क्योंकि ये दर्शनके आश्रय हैं । और छः जीवनिकाय याने छह काय के जीवोंकी रक्षा चारित्र है, क्योंकि यह चारित्रका आश्रय है । यह तो व्यवहार है। शुद्ध मात्मा ज्ञान है, क्योंकि ज्ञानका प्राश्रय आत्मा हो है । शुद्ध आत्मा हो दर्शन है, क्योंकि दर्शन का प्राश्रय प्रात्मा ही है । शुद्ध आत्मा ही चारित्र है, क्योंकि चारित्रका आश्रय पात्मा ही है । यह निश्चय है । प्राचारांग आदिकको ज्ञानादिकके प्राश्रयपनेका व्यभिचार है याने प्राचारोग प्रादिक तो हों, परन्तु ज्ञान आदिक नहीं भी हों, इसलिये व्यवहारनय प्रतिषेध करने योग्य है, परन्तु निश्चयनयमें शुद्ध प्रात्मासे साथ ज्ञानादिकके आश्रयत्वका ऐकांतिकपना है । जहाँ शुद्ध मात्मा है वहाँ ही ज्ञान दर्शन चारित्र हैं, इसलिये व्यवहारनयका निषेध करने वाला है । यही प्रबं स्पष्ट करते हैं..--प्राचारादि शब्दश्रुत एकान्तसे ज्ञानका प्राश्रय नहीं है, क्योंकि प्राचाराङ्गादिकका अभव्य जीवके सद्भाव होनेपर भी शुद्ध प्रात्माका अभाव होनेसे ज्ञानका प्रभाव है । जीव आदि नौ पदार्थ दर्शनका प्राश्रय नहीं है, क्योंकि अभव्यके उनका सद्भाव होनेपर भी शुद्धात्माका अभाव होनेसे दर्शनका अभाव है। छहकायके जीवनिकाय याने जीवोंको रक्षा Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कोदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधको व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत् -- अायारादी गाणं जीवादी दंमणं च विण्णायं । छज्जीवणिकं च तहा भण्इ चरितं तु विहारो॥२७६।। यादा खु मज्म णाणं श्रादा मे दसणं चरित्तं च । आदा पच्चक्खाणं यादा मे संवरो जोगो ॥२७७॥ (युगलम) प्राचारादि जिनागम, ज्ञान व जीवादि तत्त्व है दर्शन । षट्कायजीवरक्षा, चारित व्यवहार कहता है ॥२७६॥ निश्चयसे आत्मा हो, दर्शन चरित्र जान है मेरा । प्रत्याख्यान भि आत्मा, संबर अरु योग भी आत्मा ॥२७७॥ भाचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयं । षड्जीवनिका प तथा भति चरिशं तु व्यवहारः ।। २७६ ।। आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च । आत्मा प्रत्यारण्यानं आत्मा मे संवरो योगः ।। २७७ ॥ - प्राचारादिशब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वात् ज्ञानं, जीवादयो नबपदार्था दर्शनस्याश्रयत्वादर्शनं, षड्जीवनिकावरक्षाचारित्रस्याश्रयत्वात् चारित्रं, इति व्यवहारः । शुद्ध प्रात्मा ज्ञानाश्रयत्वाद् ज्ञानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वादर्शनं, शुद्ध प्रात्मा चारित्राश्रयत्वाच्चारित्रमिति निश्चयः । तत्राचारादीनां ज्ञानाश्रयत्वस्यानकांतिकत्वाद् व्यवहारनयः प्रतिषेध्यः । निश्चयनयस्त शुद्धस्या नामसंझ-आयारादि, णाग, जीवादि, दसण, द, विष्णेय, छज्जीणिक, च, तहा, चरित्त, तु, बवहार, आद, खु, अम्ह, णाण, आद, अम्ह्, सण, चरित्त, च, आद, पच्चक्खाण, आद, अम्ह, संवर, जोग । धातुसंश- -भण कथने । प्रातिपदिक--आचारादि, ज्ञान, जीवादि, दर्शन, च, विज्ञेय, षट्जीवनिकाय, च, चारित्रका प्राश्रय नहीं है, क्योंकि उसके मौजूद होनेपर भी अभव्यके शुद्धात्माका अभाव होनेसे चारित्रका प्रभाव है। शुद्ध आत्मा ही ज्ञानका आश्रय है, क्योंकि प्राचाराङ्गादि शब्दश्रुतका सद्भाव होनेपर या प्रसद्भाव होनेपर शुद्ध प्रात्माके सद्भावसे ही ज्ञानका सद्भाव है । शुद्ध मात्मा ही दर्शनका प्राश्रय है, क्योंकि जोधादि पदार्थोंका सद्भाव होने व न होनेपर भी शुद्ध मात्मा ही दर्शनका सद्भाव है । शुद्ध प्रात्मा ही चारित्रका प्राश्रय है, क्योंकि छह कायके जीवनिकायका याने जीवोंकी रक्षाका सद्भाव होने तथा प्रसद्भाव होनेपर भी शुद्धात्माके सद्भायसे हो चारित्रका सद्भाव है। भावार्थ-प्राचाराङ्गादि शाम्दश्रुतका शान कर लेना, जीवादि पदार्थोका श्रद्धान करना तथा छह कायके जीवोंकी रक्षा कर लेना, इन सबके होनेपर भी प्रभव्यके सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र नहीं होते इस कारण व्यवहारनय तो प्रतिषेध्य है। किन्तु शुद्धालमाके Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---...-... -- - बन्धाधिकार ४७५ स्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यकांतिकत्वात् तत्प्रतिपेधकः । तथाहि-नाचारादिशब्दश्रुतं, एकांतेन ज्ञानस्याश्रयः तत्सद्भावेप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात् । न जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयाः, तत्सद्भावेप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात् । न च पड्जीवनिकाय: चारित्रस्याश्रयस्तत्सद्भावेप्यभावानां शुद्धात्माभायेन चारित्रस्याभावात् । शुद्ध प्रात्मैव ज्ञानस्याश्रयः, प्राचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावात् । शुद्ध प्रात्मैव तथा, चारित्र, तु, व्यवहार, आत्मन्, खलु, अस्मद्, ज्ञान, आत्मन्, अम्मद, दर्शन, चरित्र, च, आत्मन्, प्रत्यास्थान, आत्मन्, अस्मद, संवर, योग । मूलधातु-भण शब्दार्थः । पविबरण-आयारादी आचारादिप्रथमा एक० । णाणं ज्ञानं-प्रथमा एक० । जीवादी जीवादि-प्र० ए० । दसणं दर्शन-प्र० ए० । च-अव्यय । विशीयं विज्ञयं-प्रथमा एक० कृदन्त । छज्जीवणिक पट्जीवनिझां-द्वितीया एक० १ च तहा नथा-अव्यय । होनेपर ज्ञान, दर्शन, चारित्र होते ही हैं, इस कारण निश्चयनय इस व्यवहारका प्रतिषेधक है, प्रतः शुद्धनय उपादेय बताया गया है ।। प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथामें यह बताकर कि अभव्य पुण्यरूप धर्म व्यवहारचारित्रको श्रद्धा भोगनिमित्त वरता उससे कभैक्षय नहीं है, एक संकेत दिया था कि व्यवहार प्रतिषेध्य है व निश्चय प्रतिषेधक है। अब इन दो गाथावों में बताया है कि वह प्रतिषेध व्यवहार दर्शन ज्ञान प्रादि क्या है और प्रतिषेधक निश्चय दर्शन आदि क्या है ? तथ्यप्रकाश-(१) प्राचारांग आदि शब्दश्रुत ज्ञानका माश्रय, विषय, कारण होनेसे व्यवहार ज्ञान कहलाता है अथवा श्रुतका शाब्दिक ज्ञान व्यवहार ज्ञान कहलाता है । (२) जीवादिक नव पदार्थ सम्यक्त्वके पाश्रय होनेसे, निमित्त होनेसे व्यवहारसम्यवत्व कहलाता है प्रथवा इन नव पदाथोंका पर्यायरूप श्रद्धान व्यवहारसम्यक्त्व कहलाता है । (३) छह जीवनिकाय अथवा उनकी रक्षा चारित्रका प्राश्रय हेतु होनेसे व्यवहारचारित्र कहलाता है । (४) व्यवहार ज्ञान प्रादि ज्ञानका प्राश्रय करते हुए हों यह नियम नहीं, इस कारण यह व्यवहार प्रतिषेध्य है । (५) पाचारांग आदि शब्दश्रुत प्रभव्यके भी अधीत हो जाता है, किन्तु शुद्धास्मत्वकी प्रतीति न होनेसे वह सम्यग्ज्ञान नहीं। (६) जीवादिक नव पदार्थोंका पर्यायरूप श्रद्धान अभध्यके भी हो जाता है, किन्तु शुद्धात्मत्वको प्रतीति न होनेसे वह सम्यकचारित्र नहीं । (७) षटकायजीवरक्षा प्रभव्य भी करते हैं, किन्तु शुद्धात्मत्वका बोध न होनेसे वहाँ सम्यक्चारित्र नहीं। (८) शुद्धात्मा ही अथवा सुद्धात्माका बोध निश्चय सम्यग्ज्ञान है । (६) शुद्धात्मा अथवा शुद्धात्माका श्रद्धान हो निश्चय सम्यग्दर्शन है। (१०) शुद्धात्मा अथवा शुद्धामाको उपासना निश्चयचारित्र है । शुद्धात्माको सहजवृति ही प्रत्याख्यान है, संवर है, Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- ...--- ४७६ समयसार दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्धाबे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात् । शुद्ध प्रात्मैव चारित्रस्याश्रयः षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात् ।। सगादयो बंधनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः । आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रगुन्नाः पुनरेवमाहुः ॥१७४।। ।। २७६-२७७ ।। भणइ भणति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । चारित्तं चारित्रं-द्वितीया एक० । तु-अव्यय । ववहारे व्यवहारः-प्रथमा एक० । आदा आत्मा-प्रथमा एक० । स्खु खलु-अव्यय । मझ मम--षष्ठी एक० । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक० । आदा आत्मा-प्र० ए०। मे-षष्ठी एक० । दसणं दर्शन चरितं चारित्र आदा आत्मा पच्चक्लाणं प्रत्याख्यानं आदा आत्मा संवरो संवरः जोगो योगः-प्रथमा एक० । मे-पष्ठी एकवचन ॥२७६२७७।। परमयोग है । (११) निश्चयमोक्षमार्ग में स्थित प्रात्मावोंका नियमसे मोक्ष होता है, किन्तु व्यवहारमोक्षमार्गमें स्थित जीवोंके शुद्धात्मत्वाराधना न हो तो मोक्ष नहीं, इस कारण निश्चयनय प्रतिषेधक है। सिद्धान्त-(१) निश्चयमोक्षमार्गमें सहजशृद्धात्मत्वका प्राश्रय होनेसे शुद्धदशा प्रकट होनेका विधान है। दृष्टि---१- शुद्धनिश्चयनय (४६) । प्रयोग-शुद्धात्मत्वकी व्यक्तिके लिये सहजशुद्धात्मस्वरूपको प्राराधना करना ॥२७६२७७।। अब अगले कथनकी सूचनिकामें एक प्रश्न रखा जा रहा है---रागादयो इत्यादि । अर्थ--रागादिक तो बन्धके कारण कहे गये हैं और रागादिक शुद्ध चैतन्यमात्र प्रात्मासे भिन्न कहे हैं तो उनके होने में आत्मा निमित्त कारण है या कोई अन्य ? तो ऐसे पूछनेका प्राचार्य इस प्रकार उत्तर दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं-यथा] जैसे [स्फटिकमणिः] स्फटिकमणि [शुद्धः] स्वयं शुद्ध है वह [रागायः] ललाई प्रादि रंगस्वरूप [स्वयं न परिणमते] स्वयं नहीं परिणमता [तु] परन्तु [स:] वह [अन्यैः रक्तादिभिः द्रव्यः] दूसरे लाल आदि द्रव्यों के द्वारा [रज्यते] ललाई प्रादि रंगस्वरूप परिणमता है [एवं] इस प्रकार [ज्ञानी] ज्ञानी [शुद्धः] स्वयं शुद्ध है [सः] वह [रागाधः] रागादि भावोंसे [स्वयं न परिणमते] स्वयं तो नहीं परिणमता [तु] परन्तु [अन्यः रागादिभिः दोषः] अन्य रागादि दोषोंके द्वारा [रज्यते] रागादिरूप किया जाता है । तात्पर्य—अपने आप अकेला परसंगरहित यह जीव रागादिरूप नहीं परिणमता है, Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं । रंगिज्जदि अण्णेहिं दु सो रत्तादीहिं दब्वेहिं ॥२७॥ एवं णाणी सुद्धो ण मयं परिणमइ रायमाईहिं । राइज्जदि अण्णोहिं दु सो रागादीहिं दोसे हिं ॥२७६॥ (युगलम् ) स्फटिक मलि शुद्ध , स्पक रामदिरूप परिणमता। रक्तिम वह हो जाता, अन्यहि रक्तादि द्रव्योंसे ।।२७८। ज्ञानी भी शुद्ध वैसे, स्वयं न रागादिरूप परिणमता । रागी वह हो नाता, अन्य हि रागादि दोषोंसे ॥२७६॥ यथा स्फटिकमणिः गूढो न स्वयं परिणमते रागाचैः । रज्यते न्यस्तु स रक्तादिभिव्यैः ।। २२८ ।। एवं ज्ञानी शुद्धो न स्वयं परिणमते रागाद्यैः । रज्यतेऽन्यस्तु म रागादिभिदोषैः ।। २६ ।। यथा खलु केवलः स्फटिकोपल: परिणामस्वभावस्त्रे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावाद् रागादिभिः स्वयं न परिणामते, परद्रव्येराव स्वयं रागादिभावापन्न. तया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्यते । तथा नामसंज्ञः जह, फणिहमणि, सुद्ध, ण, मयं, रायमाइ. अण्ण, दु, त, रत्तादि, दम्य एवं, णाणि, सुद्ध, श, सयं, रायमाइ, अा, दु, त, गगादि, दोस । धातुसंज्ञ.....परि नम नम्रीभावे, रज्ज रागे। प्रातिपदिक यथा, स्फटिकमणि, शुद्ध, न, स्वयं, रागान, अन्य, नु. तत्, रक्तादि, द्रव्य, एवं. ज्ञानिन्. शुद्ध, न, स्वयं किन्तु अन्य कर्मप्रकृतिविपाकोदयके द्वारा रागादिरूप परिणमाया जाता है ।। टोकार्थ- जसे वास्तव में केवल (अकेला) स्फटिक पाषाण स्वयं परिणामस्वभावरूप होनेपर भी अपने शुद्ध स्वभावपनेके कारण रागादिनिमित्तत्वके अभावसे रागादिकोंसे प्राप नहीं परिणमता याने आप ही अपने रागादि परिणाम होनेका निमित नहीं है, परन्तु स्वयं रागादिभावको प्राप्त होनेसे स्फटिकके रागादिकके निमित्तभूत परद्रव्यके हो द्वारा शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुग्रा ही रागादि रंगरूप परिणमता है। उसी तरह अकेला नात्मा परिणमनस्वभावरूप होनेपर भी अपने शुद्ध स्वभावपनेके कारण रागादिनिमित्तपनेके अभावसे स्वयं हो रागादिभावों से नहीं परिणमता याने अपने माप ही स्वयं रागादि परिणामका निमित्त नहीं है, परन्तु स्वयं रागादिभावको प्राप्त होनेसे प्रात्माके रागादिकका निमित्तभूत परद्रध्यके द्वारा ही शुद्धस्वभावसे च्युत होता हमा ही रागादिक भावोंरूप परिणमता है। ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है । भावार्थ-प्रात्मा परसंगरहित एकाको तो शुद्ध ही है, परन्तु है परिणाम स्वभाव सो जिस तरहका परका निमित्त मिले वैसा ही परिणमता है । इस कारण रागादिकरूप पर Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ समयसार केवल: किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणामले परद्रव्येव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्येत, इति तावद्वस्तुस्वभावः ।। न जातु रागाद्य. अन्य, तु. तत्. रागादि, दोष । मूलधातु-- परि णम प्रवत्वे शन्दे च भ्वादि, रंज रागे दिवादि । पदविवरण--जह यथा-अध्यय । फलिहमणी स्फटिकमणिः-प्रथमा एक० । सुद्धो शुद्ध:--प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । सयं स्वयं-अव्यय । परिणमइ परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । रायमाईहि रागाद्यैःतृतीया बहुवचन । रंगिजदि रज्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य क्रिया । अयोहि अन्यैःद्रव्य कर्मप्रकृतिविपाकके निमित्तसे परिणमता है । जैसे कि स्फटिकमणि प्राप तो केवल एका- . कार स्वच्छ शुद्ध ही है, परन्तु जब परद्रव्यको ललाई आदिका डंक लगे तब ललाई प्रादिरूप परिणामता है । ऐसा यह परिणाममान वस्तुका ही स्वभाव है कि अशुद्ध उपादान अनुकूल निमित्तके सान्निध्य में ही विकाररूप परिणमता है। अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं--न जातु इत्यादि । अर्थ-प्रात्मा सूर्यकान्तमणि की तरह अपने रामादिकके निमित्त पादको कभी नहीं ना होता । उस प्रात्मामें रागादिक होनेका निमित्त परद्रव्यका सम्बन्ध ही है । यह वस्तुका स्वभाव उदयको प्राप्त है किसीका किया हुआ नहीं है । भावार्थ--जैसे सूर्यकान्तमरिण स्वयं परसंगरहित होकर ललाईरूप नहीं बनता, किन्तु लालडंकका सन्निधान होनेपर ललाईरूप परिणमता है अथवा सूर्यकान्तमरिण अपने पाप अग्निरूप नहीं होता, किन्तु सूर्यबिम्बका सान्निध्य होनेपर अग्निरूप परिणमता ऐसे हो प्रात्मा रागप्रकृतिकर्मविपाकोदय होनेपर ही रागादिरूप परिणमता है। अब कहते हैं कि ऐसे वस्तुस्वभावको जानता हुअा ज्ञानी रागादिकको अपने नहीं करता--इति वस्तु इत्यादि । अर्थ--- इस तरह अपने बस्तुस्वभावको ज्ञानी जानता है, इस कारण वह शानो रागादिकको अपने नहीं करता । अतः ज्ञानी रागादिका कर्ता नहीं है ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें निश्चयनयकी प्रतिषेधकता व व्यवहारनयको प्रतिषेध्यताका संदर्शन था जिससे ग्रह ध्वनित हुआ कि समस्त रागभाव प्रतिषेध्य है। अब इस गाथामें बताया है कि रागभावमें स्वयं प्रास्मा निमित्त नहीं है, कोई पर-उपाधिका संग ही निमित्त है तभी यह सुगमतया प्रतिषेध्य है। तथ्यप्रकाश-(१.) सभी पदार्थकी भौति स्फटिकमरिण व प्रात्मा स्वयं परिणमनस्वभावी है । (२) स्फटिकमरिण व प्रात्मा स्वयं शुद्धस्वभावी होनेसे रागादिमें निमित्त नहीं हैं । (३) स्फटिक व प्रात्मा रागादिमें निमित्त न होनेसे स्वयंसे हो रागादिरूपसे नहीं परिणमते । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४७६ रानादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथाकांतः । तस्मिन्निमित्तं परमंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ।।१७।। इति वस्तुस्वभाव स्वं ज्ञानो जानाति तेन सः । रागादोन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ॥१७६।। ।। २७८-२७६ ॥ तृतीया बहु० । दु तु--अव्यय । सो सः-प्रथमा एकवचन । रत्तादीहि रक्तादिभिः-४० बहु० । दवेहि द्रव्य:तृ० बहु । एवं-अध्यय । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । सुद्धो शुद्धः-प्र० ए० 1 ण न--अव्यय । मय स्वयं-- अव्यय । परिणमइ परिणमते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । रायमाईहिं रागाद्य:-तृ० बहु० । राइज्जदि रज्यते-बर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया। अपरोहिं अन्यः-तृ० बहु० । सो सः-प्र० एक० । रागादीहिं रागायः-४० बहु० । दोसेहिं दोषः-तृतीया बहुवचन ॥ २०८-२७६ ।। (४) लाल कागज व रागादिप्रकृतिकर्म स्वयं रागादिभावसे युक्त है सो वह स्फटिक व प्रात्मा के रागादिभावमें निमित्त होता है । (५) लाल कागज व रागादिप्रकृति विपाकका सान्निध्य पाकर स्फटिक व प्रात्मा अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुपा हो रागादिभावसे परिणमाया जाता है। (६) योग्य उपादान का ऐसा ही स्वभाव है कि अनुकूल निमितका सानिध्य पाकर तदनुरूप विकारभावसे परिणम जाता है । (७) स्फटिककी भांति प्रात्मा परसंग बिना स्वयं नगशातिरूपसे नहीं परिणाम झामना । (6) रागादिभाबको नैमितिकताके तथ्यका ज्ञाता पुरुष अपनेको रागादिरूप नहीं करता, अतः रागादिका प्रकर्ता है। सिद्धान्त-(१) प्रात्मा शुद्धस्वभाव होनेके कारण स्वयं अस्वभावभावरूप रागादि भावका अकर्ता है । (२) रागादिभाव नैमित्तक होनेसे स्वभावभावके आश्रयस यह हदा जाता है। । दृष्टि-१- प्रकर्तृनय (१६०)। २- उपाधिसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग-रागादिविकारको नैमित्तिक पराश्रित अस्वभावभाव जानकर उससे उपेक्षा करके सहज ज्ञानानन्दस्वभावी अन्तस्तत्त्वमें उपयोंगको रमाना ॥ २७६.२७६ ।। अब ज्ञानीका अकर्तृत्व इस गाथामें कहते हैं--[ज्ञानी] ज्ञानी [स्वयमेव] प्राप हो [रागद्वेषमोह] राग द्वेष मोहको [या कषायभावं] तथा कषाय भावको [आत्मनः] प्रात्माके [न च फरोति नहीं करता [तेन] इस कारण [स:] वह ज्ञानी [तेषां भावानां] उन भावोंका [कारकः न] कर्ता नहीं है। तात्पर्य ज्ञानी परभावोंको अपना स्वभाव नही मानता, अतः वह रागादिका कलां नहीं है। टोकार्थ-यथोक्त वस्तुस्वभावको जानता हुमा ज्ञानी अपने शुद्ध स्वभावसे नहीं छूटता, इसलिये राग-द्वेष-मोह प्रादि भावोंसे अपने पाप नहीं परिणमता और दूसरेसे भी नहीं Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --- .. . -- समयसार गा य रागदोसमोहं कुब्वदि णाणी कसायभावं वा। मयमप्पणो ण सो तेण कारगो तेसि भावाणं ॥२८॥ ज्ञानी स्वयं न करता, अपने रति द्वेष मोह क्रोधादिक । इससे यह प्रात्मा उन, भावोंका है नहीं कर्ता ॥२०॥ नागि नागपमोहं करोति ज्ञानी कपायभाव वा । स्वयमात्मनो न म तेन कारकरतेपां भावानां ॥२०॥ ___यथोक्तं वस्तुस्वभाव जानन ज्ञानी शुद्धस्वभावादेव न प्रच्यवते, ततो रागद्वेषमोहादिभाव: स्त्रयं न परिणामते न परेरणापि परिणम्यते, ततप्टकोत्कोणेकज्ञायकस्वभावो ज्ञानी राग नामसंज्ञः .प, य, रागदीसमोह. पाणि, कसायभाव, वा, सर्य, अप्प, ग, त, वारग, त, भाव । धातुसंज्ञ-युग्ध करो। प्रातिपदिक-- न, च, रागद्वेपमोह, मानिन्, कपायभाव, वा, स्वयं, आत्मन्, न, परिणमाया जाता । इस कारण टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप ज्ञानी राग-द्वेष-मोह आदि भावोंका अकर्ता ही है, ऐसा नियम है। भावार्थ:-जब यह आत्मा ज्ञानी हया तब वस्तुका एसा स्वभाव जाना कि स्वयं तो प्रात्मा स्वरूपत: शुद्ध है द्रव्यदृष्टिसे तो ध्र व है पर्याय दृष्टि से परिणमता है सो परद्रव्यके निमित्तसे रागादिरूप परिणामता है सो अब पाप ज्ञानी हुमा उन भावोका वटी नहीं होता, मात्र उदयमें पाये हुए फलोंका ज्ञाता ही है। अब कहते हैं कि प्रज्ञानी ऐसा वस्तुका स्वभाव नहीं जानता, इसलिये रागादिभावोंका कर्ता होता है--इति वस्तु इत्यादि । अर्थ-अज्ञानी ऐसे अपने वस्तुस्वभावको नहीं जानता, इस कारण वह प्रज्ञानो रागादिक भावोंको अपने करता है, अतः उन (रागादिकों) का करने वाला होता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वय में बताया गया था कि रागादि विकार नैमित्तिक हैं, स्वभावभाव नहीं । अब इस गाथामें बताया है कि वस्तुस्वभावका ज्ञानी रागादिभावका कर्ता नहीं होता। तथ्यप्रकाश ... (१) ज्ञानी मात्माको सहज शुद्धस्वरूप जानता है । (२) ज्ञानी विकारोद्भबके तथ्यको जानता है कि ये स्वभावसे नहीं होते, किन्तु प्रकृतिविपाकोदयके निमित्तसे होते हैं । (३) वस्तुस्वभावका ज्ञाता स्वयं रागादिरूपसे नहीं परिणमता और न परके द्वारा परिणमाया जाता है। (५) शुद्धस्वभावका अनुभव हो जानेके कारण ज्ञानी शुद्धस्वभावकी प्रतीतिसे शुत होता, सो रागद्वेषमोहादि भावोंका अकर्ता ही है। प्रान्त---(१) ज्ञानी अपने प्रात्मद्रव्यको निरुपाधिस्वभाव निरखता है। (२) मात्मद्रव्य टोत्कोणंवत् निश्चल एक ज्ञायकस्वभावमात्र है । Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धाधिकार ४६ १ द्वेष मोहादिभावानामकर्तवेति नियमः । " इति वस्तुस्वभावं स्वं नाज्ञानी वेत्ति तेन सः । रागादीनात्मनः कुर्यादतो भवति कारक || १७७॥ ॥ २८० ॥ तत् तत् कारक तत्, भाव । मूलघातु- डुकृञ करणे । पबविवरण – ण ग य च अव्यय । रायदोसमोहं रागद्वेषमोह - द्वितीया एक० कुठवदि करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । गाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । कषायभाव - द्वितीया एक वा अव्यय । सयं स्वयं अध्यय । अप्पणो आत्मनः - षष्ठी एक० । न - अव्यय । सो सः - प्र० ए० । तेण तेन-तृ० एक० । कारगो कारक:-प्र० एक० । तेसि तेषां षष्ठी बहु० । भावाणं भावानां षष्ठी बहुवचन ॥ २८० ॥ (२२) । दृष्टि - १- शुद्धजय ( १६८ ) । २- उत्पादव्ययगोणसत्ता ग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय प्रयोग - रागादिभावोंको मौपाधिकभाव जानकर उनरूप अपने को नहीं मानना और अपने सहज चैतन्यस्वभाव में रुचि करना ॥ २८० ॥ अब ज्ञानको दशाको इस गाथामें कहते हैं: [ रागे च द्वेषे च कषायकर्मसु चैव ] रागद्वेष और कषाय कर्मोके होनेपर [ये भाषाः] जो भाव होते हैं [ तैस्तु ] उन रूपोंसे [ परिणाममानः ] परिणमता हुश्रा श्रज्ञानी [ रागावीन्] रागादिकोंको [पुनरपि ] बार-बार [ बध्नाति ] बांधता है । तात्पर्य - रागादिकर्म प्रकृतिका उदय होनेपर रागादिरूप मैं हूं इस श्रद्धासे परिणमता हुमा अज्ञानी फिर रागादि कर्मोंको बांधता हैं । टीकार्थं यथोक्त वस्तुस्वभावको नहीं जानता हुआ प्रशानी प्रपने शुद्ध स्वभावसे मनादि संसारसे लेकर च्युत हुप्रा हो है इस कारण कर्मके उदयसे हुए जो राग-द्वेष-मोहादिक भाव हैं उनसे परिणमता प्रज्ञानी राग-द्वेष-मोहादिक भावोंका कर्ता होता हुआ कमसे बंधता ही है, ऐसा नियम है । भावार्थ - प्रज्ञानी अपना यथार्थस्वभाव तो जानता नहीं है, परंतु कर्मके उदयसे जैसा कर्मरस झलके उसको अपना समझ परिणमता है तब भावोंका कर्ता होता हुआ कर्मोसे बंधता ही है, ऐसा नियम है । मादार्थ - मज्ञानी अपना यथार्थ स्वभाव तो जानता नहीं है, परंतु कर्मके उदयसे जैसा कर्मरस झलके उसको अपना समझ परिणमता है तब उन भावोंका कर्ता हुआ आगे भी बार-बार कर्म बांधता है यह निश्चित है । प्रसंगविवरण- अनन्तः गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी पुरुष रागादिभावका अकर्ता है | अब इस गाथामें बताया है कि रागादिको प्रपनाने वाला अज्ञानी जीव रागादिका कर्ता होता है और वह पुनः कर्मोंसे बँधता है । Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ समयसार रायझि य दोसह्मि य कसायकम्मेमु चेव जे भावा। तेहिं दु परिणामंतो रायाई बंधदि पुणोवि ॥२८॥ रति प्रति कषाय प्रकृति-के होनेपर हि भाव जो होते। उनसे परिणमता यह, रागादिक बांधता फिर भी ॥२८१॥ रागे च द्वेषं च कषायकर्मसु चैव ये भावाः । तस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति पुनरपि ॥ २८॥ __ यथोक्तं वस्तुस्यभावमजानस्त्वज्ञानी शुद्धस्वभावादासंसारं प्रच्युत एव । ततः कर्मविपाकप्रभ रागद्वेष मोहादिभावः परिणममानोऽज्ञानी रागद्वेषमोहादिभावानां कर्ता भवन् अध्यात एवेति प्रतिनियमः ॥२८॥ नामसंग-सबका बोस. य, कसायकम्म, च, एच, ज, भाव, त. दु, परिणमंत, रायाइ, पुणो, वि। धासुसंज्ञ . बन्ध बन्धने । प्रातिपदिक-राग, च, द्वेष, च, कषायकमन्, च, एव, यत्, भाव, तत्, तु. परिणत ममान, रागादि, पुनस् , अपि । मूलधातु-बन्ध बन्धन । पदविवरण-रायम्हि रागे-सातमी एकवचन । य च एव दु तु पुणो पुन: वि अपि-अव्यय । दोसम्हि दोष-सप्तमी एक० | कसायकम्मेलु कपायकमंसु सप्तमी बहु० । जे ये--प्रथमा बहु० । भावा भावा:-प्र० बहुः । तेहि तै:-तृतीया बहुल । परिणमलो परिण ममान:-प्रथमा एकवचन । रायाई रागादीन्-द्वितीया बहु० | बंधदि बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ॥ २८१॥ तथ्यप्रकाश-१- जो वस्तुस्वभावको नहीं जानता वह अज्ञानी है । २- प्रज्ञानो, शुद्धस्वभावसे च्युत ही रहता है। ३-- शुद्धस्वभावसे च्युत रहने के कारण प्रशानी कर्मविपाका प्रभव रागद्वेष मोहादि भावोंसे निरर्गल परिणमता है । ४- जो रागादिरूपसे परिणमें, अपनेको रागादिरूप करे वह रागादिका कर्ता है । ५- अज्ञानी अपनेको याने रागादिरूप करनेसे कर्मसे बंध जाता है। सिद्धान्स- - जीवके विकारभावका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणायें कर्मरूप परि.. णाम जाती हैं । २-- रामादिरूपोंसे परिणमने वाला अज्ञानी है, प्रशानी रागादिरूपोंसे परिण-- मता है। दृष्टि-१- निमित्तदृष्टि (५३)। २- अशुद्धनिश्चयन य (४७)। प्रयोग--विकारविपदासे बनोके लिये शुद्धात्मभावनाका निरन्तर पौरुष करना १॥२८॥ अब पूर्वोक्त गाथाका समर्थन करते हैं:-[रागे च द्वेषे च] राग द्वेष [कर्मसु चव] धीर कषाय कोंके होनेपर [ये भाषा:] जो भाव होते हैं [तस्तु] उनसे [परिणममानः] Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ततः स्थितमेतत् रायमि य दोसह्मि य कसायकम्मसु चेव जे भावा । तेहिं दु परिणमंतो तयाई बंधदे चेदा ॥२८२॥ रति परति कषाय प्रकृति के होनेपर हि माव जो होते । उनसे परिणमता यह, रागादिक बांधता प्रात्मा ॥२२॥ रागे च द्वेषे च कगायकर्मसु चैव ये भावा: । तस्तु परिणममानो रागादीन् बध्नाति चेतथिता ॥ २८२ ॥ ___ य इमे किलाज्ञानिनः पुद्गलकमंनिमित्ता रागद्वेषमोहादिपरिणामास्त एवं भूयो रागद्वेषमोहादिपरिणामनिमित्तस्य पुद्गलकर्मणो बंधहेतुरिति ।।२८२॥ नामसंज्ञ - चेदा, शेष पूर्वगाथावत् । धातुसंज्ञ---पूर्व माथावत् । प्रातिपदिकचेदा, चेतयितृ, शेष पूर्वगाथावत् । मूलधातु --पूर्वगाथावत् । पदविवरण-चेदा चेतयिता-प्रथमा एकवचन, शेष पूर्वगाथावत् ।। २८२ ।। परिणमता हुअा चेतयिता] प्रात्मा {रागादोन्] रागादिकोंको [बध्नाति] बांधता है । तात्पकर्मप्रकृतिषिषाको समस्ष माता प्रा जोव रागादिक कौको बांधता टोकार्थ-वास्तव में जो ये अज्ञानीके पुद्गलकर्मके निमित्तसे हुए राग-द्वेष मोह आदि भाव हैं वे ही परिणाम फिर राग-द्वेष-मोह आदि परिणामके निमित्तभूत पुद्गलकर्म बंधके कारण होते हैं ! मावार्य-प्रज्ञानोके जो कर्मनिमित्तक राग-द्वेष-मोह प्रादिक परिणाम होते हैं वे फिर कर्मबंधके कारण होते हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि रागद्वेष आदि कषाय कर्मोंके होनेपर हुए भावोंसे परिणममान जीव फिर भी रागादिक कर्मोको बांधता है । अब इस गाथा में उसोके निष्कर्षको प्रसिद्ध करते हैं। तथ्यप्रकाश-१- कर्मविपाकजभावोंको अभेद बुद्धिसे आत्मरूप मानने वाला कमौसे बंधता है । २- कर्मविपाकजभावोंको ये मेरे हैं यों अपनाने वाला जीव भी कर्मोंसे बंधता है । ३-कर्मबन्धका कारण रागादिक है । ४-रागादिक होनेका कारण कर्मोदय है । ५-प्रात्मतत्त्व कर्मबन्धका कारण नहीं । ६. प्रात्मतत्त्य कर्मोदयका कार्य नहीं । ७- प्रात्मा रागादिका प्रकारक है। सिद्धान्त-- १- कर्मबन्धका निमित्तकारण उदयागत द्रव्यप्रत्यय है । २- उदयागत द्रव्यप्रत्ययों में कर्मबन्धनिमित्तत्व होने उसका निमित्तकारण जीवका रागादिभावोंसे परिणमन Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ समयसार कथमात्मा रागादीनामकारकः ? इति चेत्-- अपडिकलमा दुविहं अपच्चक्खाणं तहेव विष्णेयं । एएणुवसेण य अकारो वणिणो चेया ॥२८३॥ अपडिक्कमणं दुविहं दब्वे भावे तहा अपच्चरखाण । एएणुवसेण य अकारो वणिो चेया ॥२८४॥ जावं अपडिक्कमणं अपञ्चक्खाणां च दव्वभावाणं । कुब्बइ श्रादा तावं कत्ता सो होइ णायव्यो ॥२८५॥ (त्रिकलम् ) प्रप्रतिक्रमण विविध है, अप्रत्याख्यान भी द्विविध जानो। इससे हि सिद्ध यह है, वेतयिता तो प्रकारक है ॥२८३॥ द्रव्य भाव वो प्रप्रति-फमरण तया अप्रत्याख्यान भि दो। इससे हि सिम यह है, चेतयिता तो प्रकारक है ॥२४॥ अव्य तथा भावोंका, प्रतिक्रमण न प्रत्याख्यान जब तक । करता है यह आत्मा, तब तक कर्ता इसे जानो ॥२८॥ नामसंश- अपडिक्कमण, दुविह, अपच्चक्खाण, तह, एव, विष्णेय, एत, उवएस, य, अकारअ, वष्णिा , चेया, अपडिक्कमण, दुविह, दव्य, भाष, तहा, अपञ्चक्खाण, एस, उवएस, य, अकारअ, बग्णिय, है । ३- जीवके रागादि परिणमन उदयामत द्रध्यप्रत्ययके सान्निध्यमें होते हैं । दृष्टि-१- निमित्तष्टि (५३) । २- निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (२०१)। ३-उपाधिसापेक्ष प्रशुद्धद्रव्याथिकनय (२४)। प्रयोग-रागादिविकारोंको अस्वभावभाव जानकर उससे आत्मीयता न जोड़कर पाश्वत ज्ञानस्वभाबमें प्रात्मत्वका अनुभव करना !! २८२ ।। प्रश्न-यदि भज्ञानीके रागादिक फिर कर्मबन्धके कारण हैं, तो प्रात्मा रागादिकोंका प्रकारक कैसे है ? उत्तर--[अप्रतिक्रमणं] अप्रतिक्रमण [द्विविध] दो प्रकारका [तथैव] उसी तरह [प्रप्रस्याल्यानं] अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका [विशेय] जानना [एतेन उपदेशेन ब] इस उपदेशसे [चेतयिता] प्रात्मा [अकारकः भणितः] प्रकारक कहा गया है । [अप्रतिजमरणं] मप्रतिक्रमण [द्विविध] दो प्रकार है [द्रध्ये भावे] एक तो द्रव्यमें, दूसरा भावमें । [सवा अप्रत्याल्यामं] उसी तरह अप्रत्याख्यान भी दो तरहुका है एक द्रव्यमें दूसरा भावमें Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्धाधिकार vt अतिक्रमणं द्विविधमप्रत्याख्यानं तथैव विज्ञेयं । एतेनोपदेशेन चाकारको वणितश्चेतयिता ॥ २८३ ॥ अप्रतिक्रमणं द्विविधं द्रव्ये भावे तथाप्रत्याख्यानं । एतेनोपदेशेन चाकारको वणितश्चेतयिता ॥ २८४ ॥ यावदप्रतिक्रमणमप्रत्याख्यानं च द्रव्यभावयो: । करोत्यात्मा तावत्कर्ता स भवति ज्ञातव्यः ।। २८५ ।। आत्मात्मना रागादीनामकारक एव अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यान योद्वैविध्योपदेशान्यथानुपपत्तेः । यः खलु प्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोर्द्रव्यभावभेदेन द्विविधोपदेशः स द्रव्यभावयोनिमित्तचेया, जावं, अपडिक्कमण, अपच्चक्खाण, च, दव्वभाव, अत्त, तावं, कत्तार त णादव्व । धातुसंज्ञ-जाण अवबोधने, वण्ण वर्णने, कुछ करणे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक - अप्रतिक्रमण, द्विविध, अप्रत्याख्यान, तथा, एव विज्ञेय, एतत् उपदेश, च, अकारक, वर्णित चेतयितृ, अप्रतिक्रमण, द्विविध, द्रव्य, भाव, तथा अप्रव्याख्यान, एतत् उपदेश, च, अकारक, वर्णित, चेतयितृ यावत्, अप्रतिक्रमण, अप्रत्याख्यान, च, द्रव्यभाव, [ एतेन उपवेशेन च ] इस उपदेश से [ चेतविता] प्रारमा [ अकारकः वरितः ] प्रकारक कहा गया है । [ यावत् ] जब तक [ श्रात्मा] श्रात्मा [द्रव्यभावयोः ] द्रव्य और भाव में [अप्रतिक्रमणं च अप्रत्याख्यानं ] प्रतिक्रमण और ग्रप्रत्याख्यान [ करोति ] करता है [ तावत् ] तब तक [स] वह आत्मा [कर्ता भवति ] कर्ता होता है [ ज्ञातव्यः ] ऐसा जानना चाहिये । तात्पर्य- - द्रव्य प्रत्याख्यान श्रादि निमित्त है और भाव अप्रत्याख्यान श्रादि नमितिक है इस उपदेश से भी यही सिद्ध होता है कि आत्मा रागादिभावों का प्रकर्ता है | टीकार्य - प्रात्मा स्वतः रागादि भावोंका अकारक ही है, क्योंकि अन्यथा याने श्राप ही रागादिभावोंका कारक हो तो प्रतिक्रमण और प्रप्रत्याख्यान ऐसे दो प्रकारपनेके उपदेश की अनुपपत्ति होती है । प्रतिक्रमण और श्रप्रत्याख्यान जो यह वास्तव में दो प्रकारका उपदेश है वह उपदेश द्रव्य और भावके निमित्तनैमित्तिकभावको बतलाता हुआ प्रात्मा के प्रकर्तापनको बतलाता है । इस कारण यह सिद्ध हुआ कि परद्रव्य तो निमित्त है और आत्मा के रागादिक भाव नैमित्तिक हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो द्रव्य अप्रतिक्रमण और द्रव्य अत्रत्याख्यान इन दोनोंके कर्तृत्व निमित्तपनेका उपदेश व्यर्थ हो हो जायगा । और उपदेश के व्यर्थ होनेपर एक आत्माके ही रागादिक भाबके निमित्तपनेकी प्राप्ति होनेपर सदा कर्तापनका प्रसंग आयेगा, उससे मोक्षका प्रभाव सिद्ध होगा । इस कारण निमित्त परद्रव्य ही होनो। ऐसा होनेपर आत्मा रागादिभावों का हुआ तो भी जब तक रागादिकके निमित्तभूत परद्रव्यका प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान न करें तब तक नैमित्तिकभूत रागादिभावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान नहीं होता । और जब तक इन भावका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान न हो तब तक आत्मा रागादिभावोंका कर्ता ही है। जिस समय रागादिभावोंके निमित्तभूत द्रव्योंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान करता है, उसी समय नमि आत्मा के रागादिभात्रों का प्रकारक ही है यह सिद्ध Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ समयसार नैमितिकभावं प्रथयनकर्तृत्वमात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं, परद्रव्यं निमित्तं, नैमित्तिका । प्रात्मनो रागादिभावाः । यद्येवं नेष्येत तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वो । पदेशोऽनर्थक एव स्यात् । तदनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागादिभावनिमित्तत्वापत्ती नित्यकर्तृ.। स्वानुषंगान्मोक्षाभाव: प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागादिभावनिमित्तमस्तु । तथासति तु रागादीनामकारक एवात्मा, तथापि यावन्निमित्तभूतं द्रव्यं ने प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च आत्मन्, तावत्, कर्तृ, तत्, सातव्य । मूलधातु-शा अवबोधने, वर्ण वर्णने, डुकृत्र करणे, भू सत्तायां। " पदविवरण-अपडिक्कम अप्रतिक्रमण-प्रथमा एकवचन | दुबिहं द्विविध-प्रथमा एक० । अपच्चक्खाणं । अप्रत्याख्यान-प्र० एक० । तह तथा एव-अव्यय । विष्णेयं विज्ञयं-प्र० ए० । एएण एतेन-तृतीया एक०।। उरएसेण उपदेशेन-तृतीया एकायच-अव्यय । अकारयो अकारक:-प्रथमा एक०। वष्णियो प्र० ए० । चेया चेतयिता-प्र० ए० । अपडिक्कमणं अतिक्रमणं दुविहं द्विविध-प्रथमा एक० ! दब्बे द्रव्ये । भावे-सप्तमी एक०।तहा तथा अध्यय । अपच्चक्खाणं अप्रत्याख्यान-प्रथमा एकवचन । एएण आ त्तिकभूत रागादिभावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान होता है तथा जिस समय इन भावोंका प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान हुआ उस समय साक्षात् अकर्ता हो है। भावार्थ-यहाँ द्रव्य अप्रतिक्रमण और भाव अप्रतिक्रमण, द्रव्य अप्रत्याख्यान और भाव अप्रत्याख्यान ऐसे दो प्रकारका जो उपदेश है वह द्रव्यभावके निमित्तनैमित्तिक भावको बताता है कि परद्रव्य तो निमित्त है और रागादिक भाव नैमित्तिक हैं । सो जब तक निमित्तभूत परद्रव्यका त्याग इस आत्माके नहीं है तब तक तो रागादिभावोंका परिहार नहीं है और जब तक रागादिभावोंका अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान है तब तक रागादिभावोंका कर्ता ही है । तथा जिस समय निमित्तभूत परद्रव्यका त्याग करे; उस समय नैमित्तिक रागादिभावोंका भी परिहार हो जाता है, और जब रागादि भावोंका परिहार हो जाय तब साक्षात् अकर्ता हो है । इस प्रकार प्रात्मा स्वयमेव तो रागादि भावोंका अकर्ता हो है, यह सुसिद्ध हुआ। प्रसंगविधरस-अनन्तरपूर्व गाथा तक ५ गाथावोंमें जीवके रागादिकके प्रकारकाने को वर्णनका स्थल समाप्त किया था । अब रागादिकका प्रकारकपना कैसे है, इस जिज्ञासाका समाधान इन तीन गाथावोंमें किया है। .. तथ्यप्रकाश-१-मात्मा अपने आपके द्वारा रागादिका प्रकारक है, अन्यथा अप्रतिक्रमण व अप्रत्याख्यान दो-दो प्रकारके न दिखाये जाते । २- अप्रतिक्रमण दो प्रकारका है-- (१) भाव अतिक्रमण, (२) द्रव्य प्रतिक्रमण । ३-अप्रत्याख्यान दो प्रकारका है—(१) भाव प्रत्याख्यान, (२) द्रव्य अप्रत्याख्यान । ४- परद्रव्यको न त्याग सकना द्रव्य अप्रत्याख्यान आदि है । ५-परद्रव्यविषयक राग न त्याग सकना भाव अप्रत्याख्यान प्रादि है । ६-परद्रव्य Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार *૭ तावन्नैमित्तिकभूतं भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्याचष्टे च यावतु भावं न प्रतिक्रामति न प्रत्या चष्टे तावत् स्यात् । यदैव निमित्तभूतं द्रव्यं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदैव नैमित्तिक भूतं भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च । यदा तु भावं प्रतिक्रामति प्रत्याचष्टे च तदा साक्षादकतेंब स्यात् ।। २८३ २८५ ।। गाथावत् जावं यावत्-अव्यय । अपवित्रक्रमणं प्रतिक्रमणं द्वितीया एक अपञ्चवखाणं अप्रत्याख्यानंद्वि० एक० च अभ्यय । दव्वभावाणं द्रव्यभावानां षष्ठी बहु० । कुब्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । आदा आत्मा-प्रथमा एकवचन । तावं तावत् कत्ता कर्ता प्र० ए० । सो सन्प्र० ए० । होइ भवन वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० | गायत्री ज्ञातव्यः प्रथमा शुक्रवचन ।। २८३-२६५ ।। निमित्त है, रागादिभाव नैमित्तिक है । ७- जब तक परद्रव्यका त्याग न किया जा सके तब तक रामका कैसे त्याग हो सकेगा ? - जन तक रागादिभावोंको न त्याग सके याने रागादिभावोंको अपनाये तब तक वह कर्ता है । 2- जब जीव मनसा वचसा कायेन परद्रव्यका त्याग कर देता है तभी वह रागादिभावोंको त्याग देता है । १०- जब रागादिभावोंको त्याग दिया तब वह अकर्ता ही है । ११- ग्रप्रतिक्रमण श्रप्रत्याख्यान ( रागादिभाव ) ये कर्मके कर्ता हैं | कर्मका कर्ता जीवद्रव्य नहीं । १२- यदि जीवद्रव्य कर्मका कर्ता हो तो सदा ही कर्ता रहना पड़ेगा क्योंकि जीव सदा है । १३- रागादिविकल्प अनित्य हैं सो जब स्वभावच्युत जीवोंके रागादिविकल्प है तब कर्ता है | १४ - स्वभावाश्रय होनेपर विकल्पसंकल्प न रहनेसे ज्ञानी कर्ता नहीं है । सिद्धान्त - १ - कर्मविपाकप्रतिफलित रागादिकको जो अपनाये वह अज्ञानी है । २- कर्मविपाकप्रतिफलित रागादिकको जो प्रत्यन्त दूर करे वह ज्ञानी है । दृष्टि - १ - उपाधिसापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय (२४) । २ - प्रतिषेधक शुद्धनय (४९) । प्रयोग — रागादि विकारका निमित्तके साथ अन्वयव्यतिरेक निरखकर उससे हटकर अपने स्व शाश्वत ज्ञानस्वभावमें रमकर तृप्त रहना ॥ २८३- २८५ ॥ श्रव द्रव्य और भावको निमित्तनैमित्तिकताका उदाहरण देते हैं:--- [ अधःकर्माद्याः इमे ] श्रधःकर्म आदि जो ये [ पुद्गलद्रव्यस्य दोषाः ] पुद्गल द्रव्यके दोष हैं [तात्] उनको [ज्ञानी] ज्ञानी [कथं करोति ] कैसे करे ? [तु] क्योंकि [ये] ये [नित्यं ] सदा ही [परद्रव्यगुखाः ] परद्रव्यके याने पुद्गलद्रव्यके गुण हैं । [च] और [ इवं ] यह प्रधःकर्मोद्द शिकं ] अधःकर्म और उद्देशिक [ पुद्गलमयं ब्रदर्श ] पुद्गलमयं द्रव्य [ यत् ] जो कि [नित्यं ] सदा Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार द्रव्यभाययोनिमित्तिकभावोबाहरणं चैतत् श्राधाकम्माईया पुग्गलदब्बस्स जे इमे दोसा। कह ते कुब्वइ पाणी परदब्वगुणा उ जे णिच्चं ॥२८६॥ आधाकम्म उद्देसियं च पोग्गलमयं इमं दब्बं । कह तं मम होइ कयं जं णिच्चमचेयणं उत्तं ॥२८॥ अधःकर्मावि दुषरण, पुरगलद्रव्यके दोष हैं उनको । ज्ञानी किमु कर सकता, वे परिणति नित्य पुद्गलकी ॥२८६।। अधःकर्म प्रौदेशिक पुद्गलमय द्रव्य है कहा इनको । नित्य अचेतन फिर बे, कसे मेरे किये होते ॥२८॥ अधःकर्मायाः पुद्गलद्वन्यस्य य इमे दोषाः । कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणस्तु ये नित्यं ।। २८६ ।। अध:कर्मोद्देशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं । कथं तन्मम भवति कृतं यनित्यमत्रेतनमुक्तं ॥ २८७ ।। पथाधःकर्मनिष्पन्न मुद्दशनिष्पन्न व पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भाव न . नामसंश-आधाकम्माईय, पुग्गलदव्व, ज, इम, दोस, कह, त, गाणि, परदव्वगुण, उ, ज, णिच्चं, आधाकम्म, उद्दे सिय, च, पोग्गलमय, इम, दव्य, कह. त, मम, कय, ज, णिचं, अचेयण, उत्त । पातुसंज[अचेतनं उक्तं] अचेतन कहा गया है [तत्] वह [मम] मेरा [कृतं] किया [कथं भवति कैसे हो सकता है ? टीकार्थ-जैसे भावोंके निमित्तभूत अधःकर्मसे निष्पन्न और उद्देशसे उत्पन्न (पाहार प्रादिक) पुद्गल द्रव्यको न त्यागता हुआ मुनि उस द्रव्य के नैमित्तिकभूत और बंधके साधक भावको भी त्याग नहीं करता, उसी प्रकार जो समस्त परद्रव्यको त्याग नहीं करता है वह उसके निमित्तसे हुए भावोंको भी त्याग नहीं करता। और अधःकर्म आदिक पुद्गलद्रव्योंके दोषोंको प्रात्मा नहीं करता, क्योंकि ये दोष पुद्गल द्रव्यके परिणाम है । ऐसा होनेपर आत्मा के इनके कार्यत्वका अभाव है। इस कारण जानी ऐसा जानता है कि जो अधःकर्म उद्देशिक पुद्गलद्रव्य हैं वे मेरे कार्य नहीं हैं; क्योंकि ये नित्य ही अचेतन होनेसे मेरे कार्यत्वका इनके प्रभाव हैं। ऐसे तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यको त्यागता हुआ मुनि बंधके साधक नैमित्तिकभूत भावको भी त्यागता है; उसी तरह समस्त परद्रव्यको त्याग करता हुआ पात्मा उस परद्रव्यके निमित्तसे हुए भावोंको भी त्यागता है । इस प्रकार द्रश्य और भाव इन दोनों Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धाधिकार ४८४ प्रत्याचष्टे । यथा चाधःकर्मादीन पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे सति प्रात्मकार्यत्वाभावात् । ततोऽधःकर्मोह शिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्य, नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात् इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुद्गलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षारणस्तन्निमित्तं भावं प्रत्याचष्टे । कुव्य करणे, हो सत्तायां, वच्च परिभाषणे । प्रातिपदिक-अधःकर्माद्य, पुद्गलद्रव्य, यत्, इदम्, दोष, कथं, तान्, ज्ञानिन्, परद्रव्यगुण, तु, यत्, नित्यं, अध:कर्मन्, उद्देशिक, च, पुदगलमय, इदम्, द्रव्य, कथं, तत्, अस्मत्, कृत, यत्, नित्य, अचेतन, उक्त । मूलधातु-दुखद करणे, माया । विवरण - आधा कम्पा. ईया अधःकर्माद्या:-प्रथमा बहुवचन । पुग्गलदचस्स पुद्गलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । जे ये इमे इमे दोसा दोषाः-प्रथमा बहु० । कह कथ-अव्यय । ते तान्-द्वितीया बहु० । कुव्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष का निमित्तनैमित्तिकभाव है । भावार्थ---जो आहार पापकर्मसे उत्पन्न हो उसे अधःकर्मनिष्पन्न कहते हैं । जो आहारमात्र किसीके निमित्त ही बना हुआ हो उसे उद्देशिक कहते हैं। इन दोनों प्रकारके प्राहारका जो पुरुष सेवन करे उसके वैसे ही भाव होते हैं इस तरह द्रव्य और भावका जैसे निमित्तनैमित्तिक संबंध है, उसी तरह समस्त द्रव्योंका भावके साथ निमित्तनैमितिक सम्बन्ध जानना कि जो परद्रध्यको ग्रहण करता है, उसके रागादिभाव होते हैं उनका कर्ता होता है और कर्मका बंध करता है। किन्तु जब ज्ञानी हो जाता है तब किसीके ग्रहण करनेका राग नहीं, रागादिरूप परिणामन भी नहीं, तब कर्मबंध भी नहीं होता। इस प्रकार सिद्ध हुमा कि ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है। अब परद्रव्यके त्यागका उपदेश करते हैं-इत्यालोच्य इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार परद्रध्यका और अपने भावका निमितनैमित्तिकपना विचारकर परद्रव्यमूलक बहुभावोंकी परि. पाटोको युगपत् उखाड़ फेंकनेका इच्छुक समस्त परद्रव्यको बलपूर्वक अलग करके अतिशयसे धारावाही पूर्ण एक संवेदनयुक्त अपने प्रात्माको प्राप्त होता है । जिससे कि जिसने कर्मबंधन मूलसे उखाड़ दिये हैं, ऐसा यह भगवान् आत्मा अपने प्रात्मामें ही स्फुरायमान होता है याने प्रकट होता है । भावार्थ-परद्रव्य और अपने भावका निमित्तनैमित्तिकभाव जानकर यात्महितेच्छु समस्त परद्रव्यका त्याग करे तो समस्त रागादिभावोंकी संतति हट जाती है, और तब प्रात्मा अपना ही अनुभव करता हुआ कर्मके बन्धनको काटकर स्वयंमें ही प्रकाशरूप प्रकट होता है। अव बन्धका अधिकार पूर्ण होते समय अंतमें मंगलरूप ज्ञानको महिमा इस कलशमें कहते हैं- रागादि इत्यादि । अर्थ---बंधके कारणरूप रागादिके उदयको निर्दयतापूर्वक याने Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० समयसार एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनमित्तिकभावः ॥ इत्यालोच्य विवेच्य तकिल परद्रव्यं समग्रं बलात्तन्मूल बहुभावसंततिमिमामुद्धर्तुकामः समं । प्रात्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णकसंविद्युत यनोन्मूलितबंध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ।। १७८।। रागादोनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बंधं विविधमधुना सद्य एव प्रणुध । ज्ञानज्योतिः क्षपिततिमिरं साधु सन्नद्ध मेतत्तद्वद्यद्वएक ! गाणी ज्ञानी-प्रथमा एक ० । परदध्वगुणा परद्रध्यगुणा:-प्र० बहु । उ तु-अव्यय । जे ये-प्रथमा बहु० । णिचं नित्यं-अव्यय । आधाकम्म अध:कर्म-प्रथमा एकवचन । उई सियं उद्देशिक-प्र० एका । च-अव्यय । पोग्गलमयं पुद्गलमयं-प्र० एक० । इमं इदं-प्र० ए०। दब्वं द्रव्य-प्र०ए० । कह कथं-अव्यय । तं तत्-प्र० ए० । मम-षष्टी एका० । होइ भवति-वर्तमान लट् उत्तम पुरुष एक क्रिया । कयं कृतं-प्रथमा प्रखर पुरुषार्थसे विदारण करती हुई, उस रागादिके कार्यरूप ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारके बंधको अब तत्काल ही दूर करके, जिसने प्रज्ञानरूपी अन्धकारका नाश किया है ऐसी यह ज्ञानज्योति सही ऐसी सज्जित हुई कि अब उसके विस्तारको अन्य कोई प्रावृत नहीं कर सकता । भावार्थ-जब ज्ञान प्रकट होता है तब सगादिक नहीं रहते, उनका कार्य कर्मबन्ध. भी नहीं होता तब फिर इसके विकासको रोकने वाला कोई नहीं रहता, सदा प्रकाशमान ही इस तरह बंध स्वांगको दूर कर निकल गया । प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथात्रयमें द्रव्य व भाव में निमित्तनैमित्तिकभाव दति हुए बताया गया था कि प्रात्मा रागादिका अकारक है। अब इन दो गाथावोंमें द्रव्य व भाव में स्थित निमित्तनैमित्तिकभावका उदाहरण बताया है। तथ्यप्रकाश--(१) परद्रव्यप्रसंग व विकारभाव में निमित्तनैमित्तिक भाव है। (२) अधःकर्मनिष्पन्न व उद्दिष्ट आहार पुगलद्रव्यमय है । (३) पुद्गलद्रव्यमय आहारके दोष गुण मुनि ज्ञानी द्वारा नहीं किये जा सकते । (४) पुद्गलद्रव्यमय आहारमें मन वचन कायसे कृत कारित अनुमोदनाका प्रसंग करे तो उसके बन्ध होता1 (५) यदि परकृत पाहारमें मन वचन कायसे कृत कारित अनुमोदनाका भाव रंच भी न हो तो उसके बन्ध नहीं होता। (६) भेदज्ञान होनेपर निश्चयरत्नत्रयके साधक संत जनोंके योग्य आहारके विषयमें भी मन वचन काय कृत कारित अनुमोदनाका भाव नहीं रहता । (७) मनकोटि विशुद्ध मुनियोंके परकृतीहारादि विषयमें बन्ध नहीं है । (८) यदि परकीय परिणामसे बन्ध होने लगे तब तो फिर किसी भी कालमें निर्वाण नहीं हो सकता। 'सिद्धान्त-(१) कर्मबन्धका निमित्त स्वकीय रागादि प्रज्ञानमय परिणाम है । (२) Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ बन्धाधिकार प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ॥१७६।। इति बंधो निष्क्रांतः ॥ २८६-२८७ ।। इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्याती बंधप्ररूपक: सप्तमोऽङ्क ।। ७ ।। एक । जं यत्-प्रथमा एक० । णिच्चं नित्यं-प्रथमा एक० । अचेयणं अचेतन-प्रथमा एकवचन। उत्तं उक्तप्रथमा एकवचन ॥२८६-२८७ ।। -..--- -- - -.नवकोटिविशुद्ध मुनिके कर्मबन्ध नहीं है । दृष्टि-१- निमित्तदृष्टि (२२)। २- शुरुभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-परद्रव्य मुझमें राग नहीं करता, स्वभावतः प्रात्मा राग नहीं करता, किन्तु परद्रव्यविषयक रागादिविकल्प मुझे परतन्त्र बनाता यह जानकर रागादिविकल्पको छोड़कर अविकल्प सहज शुद्ध ज्ञानानन्दस्वभाव में उपयोग लगाना ।।२८६-२८७ ।। इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार व उसकी श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारख्याख्या प्रात्मख्यातिकी सहजानन्दसमदशाङ्गी टोकामें बन्धप्ररूपक सातवां अंक समाप्त हुमा । Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ समयसार अथ मोक्षाधिकार अथ प्रविशति मोक्षः । द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाबंधपुरुषो नयन्मोक्षं साक्षात्पुरुषमु. पलभैकनियतं । इदानीमुन्मज्जत् सहजपरमानंदसरमं परं पूर्ण झानं कृतसकलकृत्यं विजयते ।। ।। जह णाम कोवि पुरिसो बंधणयमि चिरकालपडिवतो। तिव्वं मंदसहावं कालं च वियाणए तस्म ॥२८॥ जइ वि कुणइ च्छेदं ण मुच्चए तेण बंधणवसो सं। बगले, उबएणविण सो एरो पावइ विमोक्खं ॥२८॥ इय कम्मबंधणाणं पएसठिड्पयडिमेवमणुभागं । जाणंतोवि ण मुच्चड़ मुच्चइ सो चेव जइ सुद्धो ॥२६॥ जैसे कोई पुरुष जो, बन्धनमें चिरकालसे बँधा हो। तीन मंद भावोंको, अरु बन्धनकालको जाने ॥२८॥ यदि वह नर नहिं काटे, बन्धनको बन्धके वश हुआ तो। बहुत कालमें भी उस, बन्धनसे मुक्ति नहिं पाता ॥२८॥ त्यों कर्मबन्धनोंके, थिति अनुभागप्रदेश प्रकृतियोंको । जानता भि नहि छुटे, छूटे यदि शुद्ध हो जावे ॥२६॥ नामसंशः जह, णाम, को, वि, पुरिस, बंधणय, चिरकालपडिबद्ध, तिच, मंदसहाव, काल, च, तत्, जप, ण, बि, छेद, ण, बंधणवस, संत, काल, उ, वहुय, वि, ण, त, णर. विमोक्ख । धातुसंश-वि जाण अब क्रमप्राप्त मोक्षाधिकारका धारम्भ होता है जिसमें सर्वप्रथम मोक्षाधिकारके प्रादिमें । सम्यग्ज्ञानकी महिमा बतलाते हैं--द्विधाकृत्य इत्यादि । अर्थ--प्रब प्रज्ञारूप करोंतसे विदारण के द्वारा बन्ध और पुरुषको पृथच् करके निजस्वरूपके अनुभवसे सुनिश्चित पुरुषको साक्षात मोक्ष प्राप्त कराता हुमा जयवंत प्रवर्त रहा है। वह ज्ञान अपने स्वाभाविक परम प्रानन्दसे सरस (रस भरा) है, उत्कृष्ट है और जिसने करने योग्य समस्त कार्य कर लिये हैं याने अब Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार यथा नाम कोऽपि पुरुषो बंधनके चिरकालप्रतिबद्धः । तीन मदस्वभाव कालं च विजानाति तस्य ॥२८८।। यदि नापि करोति छेदं न मुच्यते तेत बंधनवराः सन् । कालेन तु बहुकेनापि न स नरः प्राप्नोति विमोक्षं । इति कर्मबंधनानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभाग। जानत्रपि न मुच्यते मुच्यते स चव यदि शुद्धः ॥२६॥ - प्रात्मबंधयोद्विधाकन मोक्षः । बंधस्वरूपज्ञान मात्रं तद्धेतुरित्येके तदसत्, न कर्मबद्धस्य अवबोधने, कुण करणे, मुंन त्याये, प आव प्राप्तौ । प्रातिपदिक-यथा, नामन्, किम्, अपि, पुरुष, बन्धनक, चित्काल प्रतिबद्ध, तीब्रमंदस्वभाव, काल, च, तत्, यदि, न, अपि, छेद, न, तत, बन्धनवश, सत्. काल, तु, बहक, अपि, न, तत्, नर, विमोक्ष, इति, कर्मबन्धन, प्रदेशस्थितिप्रकृति, एवं, अनुभाग, जानत्, अपि, न, तत्, च, एव, शुद्ध । मूलधातु--वि शा अवबोधने, डुकृञ् करणे, मुल मोक्षणे, प्र आल व्याप्ती स्वादि। कुछ करना नहीं रहा ऐसा हैं । भावार्थ--जान बंध और पुरुषको पृथक् करके पुरुषको मोक्ष प्रास कराता हुअा अपना सम्पूर्ण स्वरूप प्रगट करके जयवंत प्रवर्त रहा है इस प्रकार जानका सर्वोत्कृष्पना प्रकट करना यही उपादेय मोक्षतत्त्वके वर्णनके प्रारम्भमें है। अब मोक्षकी प्राप्ति कैसे होती है ? इसका समीक्षण करते हैं---[यथा नाम] जैसे [बंधनके] बंधनमें [चिरकालप्रतिबद्धः] बहुत कालका बंधा हुया [कश्चित् पुरुषः] कोई पुरुष [तस्य] उस बन्धन के [तोत्रमंदस्वभावं] तीन मंद स्वभावको [च] और [कालं] कालको [विजानाति] जानता है कि इतने कालका बंध है । तु यदि] किन्तु यदि उस बन्धनको प्राप [छदं न करोति] काटता नहीं है [तेन न मुच्यते] तो बह उस बन्धसे नहीं छूट पाता [पि] [बंधनवशः सन्] उस बन्धनके वश हुमा [स नरः] वह पुरुष [बहुकेन] बहुत [कालेन अपि] कालमें भी [विमोक्षं न प्राप्नोति] उस बन्धसे छूटने रूप मोक्षको प्राप्त नहीं करता [इति] उसी प्रकार जो पुरुष कर्मबंधनानां] कर्मके बन्धनोंके [प्रदेशस्थितिप्रकृति एवं अनुभाग] प्रदेश स्थिति प्रकृति और अनुभागको [जाननपि] जानता हुअा भी [न मुच्यते] कर्मबन्धसे नहीं छूटता च यदि स एव शुद्धः किन्तु यदि वह स्वयं रागादिकको दूर करके शुद्ध होता है [मुच्यते] तो मोक्ष पाता है। तात्पर्य -- बन्धक स्वरूप ज्ञान मात्रसे मोक्ष नहीं होता, अतः बन्धको चर्चा करके हो अपने को मोक्षोपाय वाला नहीं मान लेना चाहिये ।। __टोकार्थ-- प्रात्मा और बन्धका विधाकरा करना पृथक् करना मोक्ष है । यहाँ कोई कहते हैं कि बन्धका स्वरूप जानना मात्र ही मोक्षका कारण है। किन्तु वह ठीक नहीं है, कर्मसे बंधे हुए पुरुषको बंधके स्वरूपका ज्ञान मात्र ही मोक्षका कारण नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार बेड़ी आदिसे बँधे हुए पुरुषको बेड़ी आदि बन्धनके स्वरूपका जानना ही बेड़ी प्रादि कटने का कारण नहीं होता उसी तरह कर्मसे बंधे हुए पुरुषको कर्मके बन्धका स्वरूप जानना Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - समयसार बंधस्वरूपमा नोक्षहेतुरतुवात गाविद्धस्थ बंधस्वरूपज्ञानमात्रवत् । एतेन कर्मबंध. प्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसंतुष्टा उत्थाप्यते ॥ २८८.२६० ।। पदविवरण- जह यथा-अव्यय । णाम नाम-अव्यय या प्रथमा एक० । को क:-प्रथमा एक० । वि अपिअव्यय । पुग्गिो पुरुष:-प्रथमा एक० | बंधणयम्हि बन्धनके--सप्तमी एक० । चिरकालपडिबद्धो चिरकालप्रतिबद्धः-प्रथमा एकः । तिव्वं तीव्र-द्वितीया एक० । मंदसहावं मंदस्वभाव-द्वि० ए० । काल-द्वि० एक. । च-अव्यय । बियाणये विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । तरस तस्य-पष्ठी एक० । यदि जइअव्यय । ण दिन अपि-अव्यय । कुणइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । छेद-द्वि० एक० 1 नअव्यय । मुच्चए मुच्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भाबकर्मवाच्य क्रिया। तेण तेन-तृतीया एक०। । बंधणवसो बन्धनवशः प्रथम एक० । संसन-प्र० 1 | कालेण कालेन-तुल एक० । उत-अव्यय। बहाण बहकेन-तृ० एक० । वि अपि-अव्यय । ण न-अध्यय । सो स:-प्र. एक० । णो नरः-प्र० एक० । पावर प्राप्नोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । विमोवखं विमोक्ष-ढि० एक ० । श्य इति वि अपि एवंणन च एव जइ यदि-अव्यय । कम्मबंधणाणं कर्मबन्धयाना-षष्ठी बहु० । पएसठिइपडि प्रदेशस्थिति प्रकृतिद्वि० एकः । अनुभाग-द्वि० ए० ! जाणती जानन्-प्र० ए० । मुच्चइ मुच्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक.. भाधकर्मवाच्य क्रिया । सो सः-प्र० ए० । सुद्रो शुद्धः-प्रथमा एकवचन ।। २८५-२६०॥ मात्र हो कर्मबन्धसे टूटनेका कारण नहीं है । इस कथनसे जो लोग कर्मके बन्धके विस्तारको रचनाके जानने मात्रसे हो मोक्ष मानते हैं, अतः उसके ज्ञानमात्रमें ही सन्तुष्ट हैं उनका खंडन किया है । भावार्य--- जाननेमात्रसे ही बन्ध नहीं कटता, बन्ध तो कटनेसे ही कटता है। प्रसंगविवरण--भूयत्थेरणाभिगया इत्यादि अधिकार गाथाके अनुसार जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा व बन्ध तत्त्वका वर्णन अब तक हो चुका । अब क्रमप्राप्त मोक्षतत्वका वर्णन किया जाता है । तथ्यप्रकाश-(१) प्रात्मा और कर्मबन्धके अलग-अलग हो जानेको मोक्ष कहते हैं । (२) कर्म व कर्मबन्धके स्वरूपका ज्ञान भर कर लेना मोक्षका कारण नहीं । (३) कर्मबन्धके विस्तार व रचनाके ज्ञानमात्रसे ही सन्तुष्ट होनेमें कल्याण नहीं है । (४) कर्मबन्धको अलग हटा देना मोक्षका हेतु है । (५) मिथ्यात्व रागादिरहित होकर अनन्तज्ञानादिगुणात्मक परमास्मस्वरूपमें स्थित होता हना ही जीव कर्मबन्धोंको छोड़ देता है। (६) स्वरूपोपलब्धिरहित पुरुषोंको कर्मबन्ध रचनादि परिज्ञानसे व चर्चासे मन्दकषायके कारण मात्र पुण्यबन्ध होता है, मोक्षमार्ग नहीं। सिद्धान्त-(१) सहज स्वशुद्धज्ञानमय अन्तस्तत्वको प्राराधना होनेपर कर्मबन्धसे मुक्ति होतो है। दृष्टि—१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६५ मोक्षाधिकार जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावई विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो जोवावि गण पावई विमोक्ख ॥२६१ ज्यों बन्ध चिन्तता भी, अन्धनबद्ध नहि मुक्तिको पाता। त्यौं बन्ध चिन्तता भी, यह जीव भि मोक्ष नहिं पाता ॥२६११ __ यथा बंधान चितयन् बंधनबद्धो न प्राप्नोति विमोक्षं । तथा बंघांश्चितयन् जीवोऽपि न प्राप्नोति विमोक्ष । बंधचिताप्रबंधो मोक्षहेतुरित्यन्ये तदप्यसत्, न कर्मबद्धस्य बंधचिताप्रबंधो मोक्षहेतु रहेतु. त्वात् निगडादिबद्धस्य बंधचिताप्रबंधवत् । एतेन कर्मबंधविषयचिताप्रबंधात्मकविशुद्धधर्मध्यानांधबुद्धयो बोध्यते ।। २६१ ।। नामसंझ--जह, बंध, चितत, बधणबद्ध, ण, विमोवख, तह. बन्ध, चिनंत, जीय, वि, ण. विमाक्व । धातुसंज--प आव प्राप्तौ । प्रातिपदिक ...यथा, बन्ध, चिन्तत्. बन्धनबद्ध, न, बिमोक्ष, नथा..बन्ध, चिन्तत्, जीव, न. अग्पि, विमोक्ष । मुलधातु- आण्ड च्याप्तौ । पदविवरण--जह यथा - न तह वि ण तथा अपि न-अध्यय । बंधे दन्धान-द्वितीया बहु० । चिनंतो चिन्तन-प्रथमा एक० । बंधणबद्धो वन्धनबद्धः-प्रथमा एक० । पावइ प्राप्नोति-वतंगान लट् अन्य पुरुष एकवचन । बिमोक्खं दिमोक्ष-द्वि० एक० । जीवो जोत्र:प्रथमा एकवचन ॥२९१ ।। प्रयोग---संसारमूल कर्मबन्धनसे छुटकारा पाने के लिये सहज ज्ञानस्वभावमात्र अन्तस्तत्त्वको निरखते रहना ।। २८८.२६० ।। अब कहते हैं कि बन्धकी चिंता करनेसे भी बन्ध नहीं कटता--यया] जैसे कोई [बंधनबद्धः] बन्धनसे बंधा हुमा पुरुष [बंधान चितयन्द] उन बंधोंको विचारता हुमा [विमोक्षं] ___ मोक्षको [न प्राप्नोति नहीं प्राप्त कर पाता [बंधान चितयन] कर्मबन्धको चिता करता हुआ [जीवोपि] जीव भी विमोक्षं] मोक्षको न प्राप्नोति नहीं प्राप्त कर पाता 1 तात्पर्य-मात्र कर्मबन्धके चिन्तन व कर्मफलके अपायके चिन्तनरूप शुभोपयोग परि. णामसे भी मोक्ष नहीं होता । टीकार्थ-बंधकी चिताका प्रबन्ध मोक्षका कारण है, ऐसा कोई अन्य लोग मानते हैं वह मानना भी असत्य है । कर्मबन्धनसे बँधे हुए पुरुषके उस बंधकी चिताका प्रबन्ध कि यह बन्ध कैसे छूटेगा वह भी बन्धके अभावरूप मोक्षका कारण नहीं है; क्योंकि यह निताका प्रबंध बन्धसे छूटनेका हेतु नहीं है । जैसे कि बड़ी (सांकल) से बंधे हुए पुरुषको बन्धके स्वरूपका ज्ञानमात्र बन्धसे छूटनेका उपाय नहीं है। इस कथनसे कर्मबन्धविषयक चिताप्रबन्धस्वरूप विशुद्ध धर्मध्यानसे जिनकी बुद्धि अंधी है उनका उत्थान किया गया है । भावार्थ-कर्मबन्धकी कर्मफलके अपायकी चिन्तामें धर्मध्यानरूप शुभपरिणाम है । जो केवल शुभपरिणामसे ही मोक्ष Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ कस्तहि मोक्षहेतुः ? इति चेत्- समयसार जह बंधे छित्तराय बंधणबद्धो तु उ पावड़ विमोक्खं । तह बंधे वित्तृण य जीवो संपावड़ विमोक्खं ॥ २६२ ॥ ज्यों बन्ध काट करके बन्धनबद्ध नर मुक्तिको पाता । J त्यों बन्ध काट करके, आत्मा भी मोक्षको पाता ॥२६२॥ यथा वन्वामित्वा च बन्धनस्तु प्राप्नोति विमोक्षं । तथा बन्धारित्वा च जीवः संप्राप्नोति विमोक्षं । कर्मबद्धस्य बंधच्छेदो मोक्षहेतु:, हेतुत्वात् निगडादिवद्धस्य बंधच्छेदवत् । एतेन उभये नामसंज्ञ --जह, बन्ध, य, बन्धणबद्ध, उ, विमोवख तह, बन्ध, य, जीब, विमोक्ख । धातुसंज्ञ-frage छेदने, आव प्राप्ती संप आव प्राप्तौ । प्रातिपदिक- यथा बन्ध, च बन्धनवद्ध, तु. विमोक्ष, तथा वन्ध, च, जीव, विमोक्ष मूलघातु-छिदिर धोकर प्र आलू व्याप्तो संप्र आलू व्याप्ती । मानते हैं, उनको उपदेश है कि शुभपरिणामसे मोक्ष नहीं होता । प्रसंग विवरण — ग्रनन्तरपूर्व गाथात्रिक में बताया था कि कर्मबन्धरचना के ज्ञानमात्रसे मोक्ष नहीं है । ग्रव इस गाथामें बताया है कि कर्मबन्धविषयक चिन्तासे भी मोक्ष नहीं है तथ्यप्रकाश - ( १ ) कर्मको प्रकृति श्रादिके बन्धका चिन्तवन करने मात्र से मोक्ष नहीं है । (२) कर्मसे रागसे कैसे छूटू इतने मात्र धर्म्यध्यान से भी मोक्ष नहीं है । ( ३ ) सहज चिदानन्दैकस्वरूप अन्तस्तस्वके ध्यानसे रहित जीवके कर्मबन्धचिन्तवनरूप सरागधर्मध्यान से पुण्यबंध तो हो लेगा, मोक्ष नहीं । सिद्धान्त - ( १ ) सरागधर्म्यध्यान शुभकर्मबन्धका हेतु है । दृष्टि - १- निमित्तदृष्टि, उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याधिकनय ( ५३, ५३ ) । प्रयोग -- कर्मबन्धविनाश चिन्तनसे गुजरकर निर्विकल्प सहजात्मसंवेदन में उपयोगको रमाना ।। २६१ ।। प्रश्न- यदि बन्धके स्वरूपके ज्ञानसे भी मोक्ष नहीं होता और उसको चिन्ता करनेसे भी मोक्ष नहीं होता तो मोक्षका कारण क्या है ? उत्तर- [ यथा च ] जैसे [ बंधन बद्धः ] बन्धनसे बँधा पुरुष [ बंधान् छित्वा तु] बन्धको छेदकर हो [दिमोक्षं] मोक्षको [प्राप्नोति ] प्राप्त करता है [ तथा च] उसी प्रकार [ बंधान छत्वा ] कर्मके बन्धनको छेदकर [जीव: ] जीव [विमोक्षं प्राप्नोति ] मोक्षको प्राप्त करता है । तात्पर्य - - बन्ध के विनाशसे ही मुक्तिको प्राप्ति होती है । टीकार्थ- कर्मपुरुष के बन्धनको छेदन करना मोक्षका कारण है, ऐसा ही हेतुपना Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार Sपि पूर्वे श्रात्मयोद्विधाकर व्यापार्यन्ते ॥ २१२ ॥ जह यथा य च उ तु तह तथा य च - अव्यय । बन्धे बन्धान् द्वितीया बहु० । छित्तूण छित्त्वा असमाप्तिकी किया | aणबद्धो बन्धनबद्ध:, पावइ प्राप्नोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । विमोक्खं विमोक्षं द्वि० ए० । बंधे बन्धान् द्वितीया बहु० । जीवो जीवः प्रथमा एक० । संपावइ संप्राप्नोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । विमोक्खं विमोक्षं द्वितीया एकवचन ॥ २९२ ॥ ૪૨૭ होनेसे जैसे कि बेड़ी सांकल श्रादिसे बँधे हुए पुरुष के सांकलका बन्ध काटना ही छूटनेका कारण है । इस कथन से पहले कहे गये दोनों ही प्रकारके पुरुष श्रात्मा श्रीर बन्धके पृथक्-पृथक् करने में पौरुष करनेके लिये प्रेरित किये गये हैं । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि कर्मबन्धविषयक चिन्तनसे भी कर्ममोक्ष नहीं होता । अब इस गाथा में मोक्षहेतु क्या है यह बताया है । तथ्यप्रकाश ---- ( १ ) बन्धका छेदन हो मोक्षका साक्षात् हेतु हैं । (२) बन्धछेदन निविकल्प सहज चिदानन्दैकस्वभाव अन्तस्तत्त्व के आश्रय के बलसे होता है । सिद्धान्त - ( १ ) स्वशुद्धात्मतत्वकी भेदोपासना के बलसे बद्ध कर्म सब दूर हो जाते हैं । ( २ ) उपाधिके प्रभाव से मोक्ष होता है । दृष्टि-- १- शुद्ध भावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याधिकनय ( २४ब ) । २- उपाध्यभावनापेक्ष 'शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । प्रयोग -- सहजानन्दमय निज शुद्धात्मलाभ के लिये सहजशुद्ध चैतन्यस्वरूपकी प्रभेदोपासना में मग्न होना ॥ २९२ ॥ प्रश्न -- कर्मबन्धनका हो छेदना मोक्षका कारण कहा गया सो क्या यही मोक्षका कारण है ? उत्तर--- [बंधानां च स्वभावं] बन्धोंके स्वभावको [च] और [ श्रात्मन: स्वभावं ] श्रात्मा के स्वभावको [विज्ञाय ] जानकर [ यः ] जो पुरुष [ बंधेषु ] बन्धोंके प्रति [विरज्यते ] विरक्त होता है [स] वह पुरुष [ कर्मविमोक्षशं करोति ] कर्मोंसे विमोक्षण करता है । तात्पर्य - अविकार सहज चित्प्रकाशमय प्रात्मस्वभावको व विकाररूप बन्धस्वभाव को जानकर जो बन्धोंसे हटता है वह कर्मरहित होता है । टोकार्थ- जो ही पुरुष निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र प्रात्मस्वभावको और उस श्रात्मा के विकारको करनेवाले बन्धोंके स्वभावको जानकर उन बन्धोंसे विरक्त होता है वही पुरुष समस्त कर्मोंसे मुक्त होता है । इससे मारमा और बंधके पृथक-पृथक करनेके ही मोक्षके कारणपका मियम किया गया है । भावार्थ --- श्रात्मा व बंधका नृबक्करल ही गोक्षका हेतु है । Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ समयसार किमय मेव मोक्षहेतुः ? इति चेत् -- बंधाणं च सहावं वियाणियो अपणो सहावं च । बंधेसु जो विरजदि सो कम्मविमोक्खणं कुणई ॥२६॥ विधि बन्ध स्वभावोंको, अरु प्रात्मस्वभावको भी जो। बन्धविरक्त हमा बुध, सो कर्मविमोक्षको करता ॥२६३॥ वन्धानां न स्त्रमा विरल बा । बन्धेषु यो विरज्यते स कर्मविमोक्षणं करोति ।।२६३|| य एव निर्विकारचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मस्वभावं तद्विकारकारक बन्धानां च स्वभाव विज्ञाय बंधेभ्यो विरमति स एव सकलकर्ममोक्ष कुर्यात् । एतेनात्मबंधयोद्विधाकरणस्य मोशहेतुत्वं नियम्यते ॥ २६३ ।। नामसंज्ञ--बन्ध, च, सहाव, अप्प, सहाव, च, बन्ध, ज, त, कम्मविमोक्खण । धातुसंज-वि जाण अवयोधने, वि रज्ज रागे, कुण करणे । प्रातिपदिक-बन्ध, च, स्वभाव, आत्मन्, स्वभाव, च, बन्ध, यत्, तन्, कर्मविमोक्षण । मूलधातु--वि शा अवबोधने, वि रज्ज रागे दिवादि. डुकृन करणे। पदविवरणबन्धाण बन्धानां-षष्ठी बहु० । च-अव्यय । सहावं स्वभाव-द्वितीया एक । विमाणिओ विज्ञाय-असमा. प्तिको क्रिया । अप्पणो आत्मन:-षष्ठी एक० । सहावं स्वभाव-द्विल एक । बन्धेसु बन्धेषु-सप्तमी बहु० । जो यः-प्रथमा एक० ! विरज्जदि विरज्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। सो स:-प्रथमा एकवचन । कम्मविमोक्खणं कर्मविमोक्षण-द्वितीया एकवचन । कुणइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। २६३ ।। प्रसंगविवरण-अनंतरपूर्व गाथामें बताया गया था कि बन्धको छेद करके जीय मोक्ष प्राप्त करता है । अब इस गाथामें उसी मोक्षके उपायको स्पष्ट बताया है। तथ्यप्रकाश-(१) बंधका छेदन बंधसे विरक्त होने याने विमुख होनेसे होता है। (२) बंधसे विरक्ति बन्धका स्वभाव ब प्रात्माका स्वभाव जाननेसे होती है । (३) प्रात्मस्वभाव है निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र । (४) बन्धका स्वभाव है आत्मामें विकार करना । (५) बन्ध स्वभावसे प्रात्मस्वभाव अलग है। (६) अात्मस्वभाव में विकार नहीं। (७) बन्धोंसे ओ हट जाता है वह कर्ममोक्षको प्राप्त होता है। सिद्धान्त--(१) बन्धसे विरक्ति होनेसे, स्वभाव में मग्नता होनेसे मोक्ष प्राप्त होता है। दृष्टि-- १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यापिकनय (२४ब) । प्रयोग - शुद्धात्मलाभके लिये भात्मस्वभाव व बन्धस्वभावको जानकर बन्धसे विरक्त होकर शुद्धात्मतत्त्वकी भावना करना ।। २६३ ।। प्रश्न---आत्मा और बंध ये दोनों किस उपायसे पृथक किये जाते हैं ? उसर-- [जीवः च बंधः] जीव और बन्ध ये दोनों [नियताभ्यो] निश्चित [स्वलक्षणाभ्यां] अपने Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार केनात्मबंधी द्विधा कियेते ? इति चेत्-- जीवो बंधो य तहा छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहि । पण्णाछेदणएण उ छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥२६४॥ प्रज्ञा छेनी द्वारा, अपने अपने विशिष्ट चिह्नोंसे । जीय तथा बन्धों में, भेद किये भिन्न थे होते ॥२६४॥ जीवो बन्धश्च तथा छियेते स्वलक्षणाभ्यां नियताभ्यां । प्रज्ञाछेदकेन तु छिनौ नानात्वमापन्नौ ।। २९४ ॥ प्रात्मबंधयोदिधाकरणे कार्ये कर्तुरात्मनः करणमीमांसायां निश्चयतः स्वतो भिन्नकरणासंभवात् भगवती प्रजब छेदनात्मक कारण ! जया हिको मामायणमा ततः प्रज्ञयवात्मबंधयोद्विधाकरणं । ननु कथमात्मबंधी चेत्यचेतकभावेनात्यंतप्रत्यासतेरेकीभूतो भेदविज्ञानामावादेकचेतकवव्यवलियमारणी प्रज्ञया छेत्तं पाक्येते ? नियतस्वलक्षण सूक्ष्मांतःसंधिसाचधाननिपातनादिति बुध्येमहि । प्रात्मनो हि समस्तशेष द्रव्यासाधारपात्वाच्चैतन्यं स्वलक्षणं तत्तु प्रवर्तमानं यद्यदभिव्याप्य प्रवर्तते निवर्तमानं च यद्यदुपादाय निवर्तते तत्तत्समस्तमपि सहप्रवृत्तं नामसंज-जीव, बंध, य, तहा, सलक्षण, णियय, पण्णाछेदणअ, उ, छिण्ण, णाणत्त, आवष्ण। धातुसंज्ञ-च्छिद छेदने, आ वण्ण वर्णने । प्रातिपदिक-जीव, बन्ध, च, तहा, स्वलक्षण, नियत, प्रज्ञाछेदक, अपने लक्षणोंसे [प्रशाछेदकेन] बुद्धिरूपी छनीसे [तथा] उस तरह [छिछते छेदे जाते हैं [तु] कि जिस तरह [छिन्नौ] छेदे हुए वे [नानास्वं] नानापनको [प्रापतौ] प्राप्त हो दायें। तात्पर्य---अपने-अपने नियत लक्षणसे जीव और बन्धको अलग-अलग जानकर प्रज्ञा छनीसे उन्हें अलग-अलग कर देना चाहिये । टोकार्थ----मात्मा और बन्धको भिन्न-भिन्न करनेरूप कार्यके विषयमें कर्ता प्रात्माके करणविषयक विचार किया जानेपर निश्चयतः पातमासे पृथक् किसी करणको असंभवता होनेसे भगवती प्रज्ञा याने ज्ञानस्वरूप बुद्धि ही छेदनस्वरूप करण है। उस प्रज्ञाके द्वारा ही छेदे गये वे दोनों याने प्रात्मा द बन्ध नानापनेको अवश्य प्राप्त होते हैं अर्थात् पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । इस कारण प्रज्ञाके द्वारा ही प्रात्मा और बन्धका पृथक्-पृथक् करना होता है । प्रश्न--प्रात्मा और बन्ध जो कि चेत्यचेतक भावके द्वारा अत्यन्त निकटताके कारण एकीभूत हो रहे हैं और भेदविज्ञानके अभावसे एक चेतककी तरह जो व्यवहार में प्रवर्तते देखे जाते हैं वे प्रशासे कैसे छेदे जा सकते हैं ? समाधान-प्रात्मा और बन्धक निश्चित स्वलक्षणकी सूक्ष्म अन्तरंग संधि में इस प्रज्ञा छनोको सावधान होकर पटकनेसे दोनोंको याने प्रात्मा और बंधको छेदा जा सकता है, पृथक् पृथक् किया जा सकता है । वहाँ प्रात्माका तो निश्चयसे समस्त Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार क्रमप्रवृत्तं वा पर्यायजातमात्मेति लक्षणीयं तदेकलक्षणलक्ष्यत्वात्, समस्तसहक्रमप्रवृत्तानंतपर्यायाविनाभावित्वाच्चैतन्यस्य चिन्मात्र एवात्मा निश्चेतव्यः इति यावत् । बंधस्य तु प्रात्मद्रव्यासाधारणा रागादयः स्वलक्षणं । न च रागादय प्रात्मद्रव्यसाधारणतां विधारणाः प्रतिभासंते नित्यमेव चैतन्यचमत्कारादतिरिक्तत्वेन प्रतिभासमानत्वात् । न च याबदेव समस्तस्बपर्यायव्यापि चैतन्यं प्रतिभाति तावंत एव रागादयः प्रतिभांति । रामादीनंतरेणापि चैतन्यस्यात्मलाभसंभावनात् । यत्तु रागादीनां चैतन्येन सहैवोत्प्लबतं तच्चेत्यचेतकभावप्रत्यासत्तरेव नेकद्रव्यत्वात, तु, छिन्न, नानात्व, आपन्न । मूलधातु-छिदिर् छेदने रुधादि, आ-पद गतौ । पदविवरण-जीवो जीव:अन्य द्रव्योंसे असाधारणपना होनेसे याने अन्य द्रव्यमें न पाया जानेसे चैतन्य स्वलक्षण है । वह चैतन्य स्वलक्षण प्रवर्तता हुमा जिस-जिस पर्यायको व्याप्त कर प्रवर्तता है तथा निवर्तता हमा जिस-जिस पर्यायको ग्रहण कर निवृत्त होता है वह वह समस्त हो सहवर्ती और क्रमवर्ती पर्यायों का समूह आत्मा है ऐसा लखना चाहिये । क्योंकि प्रात्मा उसी एक लक्षणसे लक्ष्यों होता है । तथा समस्त सहवती व क्रमवर्ती अनन्त पर्यायोंके साथ चैतन्यका अविनाभावोपना होनेसे चिन्मात्र ही प्रात्मा है ऐसा निश्चय करना चाहिये, इस प्रकार ही समझना । परन्तु बन्धका स्वलक्षण प्रात्मद्रव्यसे असाधारण रागादिक हैं, क्योंकि ये रागादिक आत्मद्रव्यसे साधारणपन को धारण करते हुए प्रतिभासित नहीं होते, वे रागादिक सदा ही चैतन्यचमत्कारसे भिन्नपने से प्रतिभासित होते हैं । और जितना अपने समस्त पर्यायोंमें व्यापने स्वरूप चतन्य प्रतिभासित होता है, उतने ही रागादिक प्रतिभासित नहीं होते, क्योंकि रागादिकके बिना भी चैतन्यका प्रात्मलाभ सम्भव है । हाँ, जो रागादिकका चैतन्य के साथ ही उत्पन्न होना दीखता है वह इस ज्ञेयज्ञायक भावके अति निकट होनेसे ही दीखता है एक द्रव्यपनेके कारण नहीं । वहाँ चेत्यमान रागादिक आत्माके चेतकपनको याने जायकपनेको हो विस्तारते हैं, रागादिकपनको नहीं विस्तारते, जैसे कि दीपकके द्वारा प्रकाशमान घटादिक दीपकके प्रदीपकपनेको ही विस्तारते हैं, रागादिकपनको नहीं विस्तारते, ऐसा होनेपर भी पात्मा और बन्ध दोनोंके अत्यन्त निकटपने से भेदकी सम्भावनाका अभाव होनेसे इस अज्ञानीके अनादिकालसे एकत्वका भ्रम है । लेकिन वह भ्रम प्रज्ञाके द्वारा छेदा जाता ही है । भावार्थ-प्रात्मा तो अमूर्तिक है और बन्ध सूक्ष्म पुद्गलपरमाणुगोंका स्कन्ध है इस वजहसे ये दोनों पुथक् प्रज्ञानीके ज्ञान में नहीं पाते, एकीभूत दीखता है, यह अज्ञान अनादिसे चला पाया है । सो श्रीगुरुयोंका उपदेश पाकर ज्ञानबलसे इन दोनोंको न्यारान्यारा ही जानना कि चैतन्यमात्र तो मात्माका लक्षण है और रागादिक बन्धका लक्षण है । ये दोनों Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार वेत्यमानस्तु रागादिरात्मनः प्रदीप्यमानो घटादिः प्रदीपस्य प्रदीपकतामिव चेतकतामेव प्रथयेन पूना रागादीन्, एवमपि तयोरत्यंतप्रत्यासत्या भेदसंभावनाभावादनादिरस्त्येकत्वव्यामोहः स तु प्रज्ञयव छिद्यत एव ।। प्रज्ञा छेत्री शितेयं कथमपि निपुणः पातिता सावधानः सुक्ष्मेऽन्तःसंधिबंधे प्रथमा एक० । बंधो बन्धः-प्रथमा एकवचन । य च तह तथा-अव्यय । सलक्खणेहि-तृतीया बह । स्वलक्षणाभ्या--तृतीया द्विवचन । णियएहि-४० बहु० 1 नियताभ्यां-तृतीया द्विवचन | छिज्जति-वर्तमान लट् प्रज्ञानवश ज्ञेयज्ञायकभावकी अतिनिकटतासे एकसे हो रहे दीखते हैं, लेकिन तीक्ष्णबुद्धिरूपो छैनीको इनको सूक्ष्म संधिपर ज्ञानाभिमुख होकर पटकना । उसके पड़ते हो दोनों प्रलग-अलग दोखने लगते हैं और तब आत्माको ज्ञान भाव में ही रखना और बन्धको अज्ञानभाव में डालना । __अब इसी अर्थको का७५ में कहते हैं--प्रज्ञा इत्यादि । अर्थ-प्रवीण व सावधान प्रमादरहित पुरुषोके द्वारा प्रात्मा और कर्म इन दोनोंके सूक्ष्म भीतरी संविपर पटकी हुई यह तीव्र प्रज्ञारूपो छनी शीघ्र ही अन्तरङ्गमें तो स्थिर और स्पष्ट प्रकाशरूप देदीप्यमान तेज वाले चैतन्य के प्रवाहमें भग्न अात्माको तथा प्रज्ञानभावमें नियमित बन्धको भिन्न-भिन्न करती हुई मात्मकर्मोभयकी संधिपर गिरती है । भावार्थ--यहाँ कार्य तो है प्रात्मा और बन्धको भिन्नभिन्न करना । उसका कर्ता प्रात्मा है । और जिसके द्वारा कार्य हो वह करण भी प्रात्मा है। निश्चयन यत: कर्तासे पृथक करण होता नहीं है । इस कारण आत्मासे अभिन्न यह प्रज्ञा हो इस कार्य में करग है । सो प्रज्ञा द्वारा शरीरसे, ज्ञानावरणादिक द्रव्यकर्मसे तथा रागादिक भावकर्मसे भिन्न एक चैतन्य भावमात्र अपना अनुभव रखना ही इनको भिन्न करना है। इसी विधिसे सब कर्मोका नाश हो जाकर सिद्धपद प्राप्त हो जाता है । प्रसंगविधरण-अनन्तरपूर्व गाथामें प्रात्मा और बन्धको अलग करनेके प्रसङ्ग में मोक्ष का उपाय स्पष्ट बताया था । अब इस गाथामें यह बताया है कि प्रात्मा और बन्ध किस साधनसे अलग-अलग किये जाते हैं। तथ्यप्रकाश – (१) प्रात्मा और बन्धको अलग करनेरूप कार्यका कर्ता प्रात्मा हो होगा। (२) प्रात्माके जिस करणसे प्रात्मबन्धका द्विधाकरण होगा वह प्रात्मासे अभिन्न ही होगा। (३) प्रात्मबन्धके द्विधाकरणका साधन प्रज्ञा ही है । (४) प्रज्ञाके द्वारा छेदे गये वे दोनों अवश्य ही अलग-अलग हो जाते हैं। (५) बन्ध चेत्य है, ग्रात्मा चेतक है इस निकटता से वे दोनों यद्यपि एकीभूतसे लग रहे हैं तथापि प्रज्ञा द्वारा उनके अपने अपने स्वलक्षणोंको जुदा-जुदा पहचानने से वे छिन्न हो जाते हैं । (६) आत्माका लक्षग चैतन्य है जो किसी अन्य द्रव्यम नही पाया जाता और प्रात्मामें सदा तन्मय रहता है। (७) बन्धका लक्षण रणादिक Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार निपतित रभसादात्मकर्मोभयस्य । प्रात्मानं मम्नमंतःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बंध चाहा नभावे नियमितमभित: कुवंती भिन्नभिन्नौ ॥१८१॥ ॥ २६४ ॥ . अन्य पुरुष बहु० कर्मवाच्य क्रिया । छियेते-वर्तमान लट् अन्य पुरुप द्विवचन कर्मवाच्य किया। पण्णाछेदगऐण प्रज्ञाछेद केन-तृतीया एक० । उ तु-अव्यय । छिण्णा-प्रथमा बहु० । छिनौ-प्रथमा द्विवचन । गायत नानात्व-द्वितीया एक० । आवण्णा-प्रथमा बहु । आपनी-प्रथमा द्विवचन ।। २९४ ।। है जो सब प्रात्मावों में नहीं पाया जाता और चतन्यस्वरूपसे अत्यन्त दिलक्षण है। (८) चेत्यमान रागादिक आत्माको चेतकताको ही प्रसिद्ध करते हैं रागादिकताको नहीं बताते । (६) प्रकाशमान घटादिक दीपककी प्रकाशकताको ही प्रसिद्ध करते हैं । (१०) चेत्यचेतक भावको प्रतीव प्रत्यासत्ति के कारण उनमें भेदज्ञानको सम्भावना न होनेपर होने वाला एकपनेका मोह । प्रज्ञाके द्वारा ही नष्ट किया जाता है । सिद्धान्त--(१) भेदविज्ञानके द्वारा ग्रात्मा व कर्मबन्ध इनको पृथक्-पृथक् कर दिया जाता है। दृष्टि--१- वैलक्षण्यनय (२०३) । प्रयोग-विवेकबुद्धि द्वारा जीव और बन्धको अपने अपने लक्षणोंसे जुदा-जुदा करके । जीवस्वभावको निहारते रहना ।। २६४ 11 प्रश्न - प्रात्मा और बंधको द्विधा करके क्या करना ? उत्तर---- जीवः] जीव च] | प्रौर [बंधः] ये दोनों [नियताभ्यां] निश्चित [स्वलक्षणाभ्यां] अपने अपने लक्षणोंसे [तथा उस प्रकार [छिद्य ते छेदे जाते हैं कि [बंधः छेत्तव्यः] बन्ध तो छिदकर अलग हो जाना चाहिये [च] और शुक्षः आत्मा गृहीतव्यः] शुद्ध याने केवल प्रात्मा ग्रहण कर लिया जाना ! चाहिये । तात्पर्य-मात्मा और बन्धको अलग जान लेनेका प्रयोजन यह है कि बन्ध तो फूट जाना चाहिये और प्रात्मा ग्रहण में पाना चाहिये । टोकार्थ-प्रात्मा और बन्ध इन दोनोंको पहले तो अपने-अपने निश्चित लक्षणके ज्ञान से सर्वधा हो भिन्न करना चाहिये । तत्पश्चात् रागादिक लक्षण वाले समस्त बन्धको तो छोड़ना चाहिये तथा उपयोगलक्षण वाले केवल शुद्ध आत्माको हो ग्रहण करना चाहिये । यही निश्चयसे मात्मा और बन्धके भिन्न-भिन्न करनेका प्रयोजन है कि बन्धके त्यागसे शुद्ध प्रात्मा को ग्रहण करना । भावार्थ---प्रात्मा भोर बन्धको द्विधा करके क्या करना ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि बन्धका तो त्याग करना और शुद्ध पात्माको ग्रहण करना । Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार आत्मबंधौ द्विधा कृत्वा किं कर्तव्यं ? इति चेत् - जीवो बंधो य तहा छिज्जति सलक्खणेहि णियएहिं । बंधो लेएदब्बो सुद्धो अप्पा य घेत्तव्यो ॥ २६५ ॥ जीव तथा बन्धोसे, नियत लक्षणों से भेद यों करता। बन्ध वहां हट जाये, शुद्धात्मा गृहीत हो जाये ॥२६॥ जीको बन्धश्च तथा छिद्यते स्वलक्षणाम्यां नियताभ्यां । वन्धपछत्तव्यः शुद्ध आत्मा च गृहीतव्यः ।। २९५ ।। प्रात्मबंधौ हि तावनियतम्वलक्षणविज्ञानेन सर्वथैव छत्तव्यों, ततो रागादिलक्षणः समस्त एव बंधो निर्मोक्तव्यः, उपयोगलक्षण: शुद्ध प्रात्मैव गृहीतभ्यः । एतदेव किलात्मबन्धयो. द्विधाकरणमा मोननं पदभात्यागेन गाडामोपादानम ।। २६५ ।। नामसंज्ञ-जीव, बन्ध, य, तहा, सलवखण, णियअ, बन्ध, छेएदव, सुद्ध, अप्प, य, घेत्तव । घातुसंज-च्छिद छेदने गह उपादाने । प्रातिपदिक- जीव, बन्ध, च, तथा, स्वलक्षण, नियत, बन्ध, छेत्तव्य, शुद्ध, आत्मन्, गृहीतव्य । मूलधातु-छिदिर छेदने रुधादि, गिण्ह ग्रहणे । पदविवरण-जीवो जीव:-प्रथमा एकवचन । बन्धो वन्धः-प्रथमा एक०। ये च-अव्यय । तह तथा--अध्यय । छिज्जति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० कर्मवाच्य क्रिया । छिचते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष द्विवचन कर्मवाच्य क्रिया । सलक्खणेहितृ० बहु० । स्वलक्षणाभ्यां-तृ० द्विवचन । णियएहि-तृ० वहु० । नियताभ्यां-तृ द्विवचन । बन्धो बन्धःप्रथमा एक० । छेएदब्बो छत्तव्यः-प्रथमा एक० 1 सुद्धो शुद्धः-प्रथमा एक अप्प आत्मा-प्रथमा एकवचन । य च-अव्यय । घेत्तब्बो गृहीतव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २६५ ।। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गायामें बताया गया था कि प्रात्मा और बच्चके नियत स्वलक्षणों को जानकर प्रज्ञा द्वारा उन्हें अलग-अलग कर दिया जाता है । अब इस गाथा में बताया है कि आत्मा और बन्धको अलग-अलग करके क्या करना चाहिये ? तथ्यप्रकाश-(१) स्वलक्षणविज्ञानसे प्रात्मा और बन्धको अलग-अलग परख लिया जाता है । (२) प्रात्मा तो मात्र उपयोगस्वरूप है । (३) बन्ध रागादि लक्षण वाला है। (४) आत्मा और बन्धको अलग-अलग करके बन्धको तो छोड़ देना चाहिये और मात्र सहज सिद्ध प्रात्माको उपयोगमें रखना चाहिये। सिद्धान्त-(१) आत्मा और बन्धका भेदविज्ञान कल्याणका प्रारम्भ है । (२) बन्ध को छोड़कर मात्र चैतन्यस्वरूप प्रात्माका अनुभव करना कल्याणलाभ है । दृष्टि - १- वैलक्षण्यनय (२०३) । २~ शून्यनय (१७३)।। प्रयोग-भेदविज्ञानसे उपयोगस्वरूप प्रात्माको और रागादि अन्धनको अलग-अलग जानकर उपयोगस्वरूप सहजात्मतस्दमें उपयोग लगाना ।। २६५ 11 Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कह सो घिप्पइ अप्पा पण्णाए सो उ धिप्पए अप्पा । जह पणाइ विहत्तो तह पण्णाएव पित्तव्यो ॥२६६॥ किमि गृहीत हो प्रात्मा, प्रज्ञासे वह गृहीत होता है। ज्यौं प्रज्ञासे भेदा, त्यो प्रज्ञासे ग्रहण करना ॥२६६॥ कथं स गृह्यते आत्मा प्रज्ञया स तु गृह्यते आत्मा । यथा प्रज्ञया विभक्तस्तथा प्रज्ञयव गृहीतव्यः ॥ २६६ ॥ ननु केन शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः ? प्रज्ञयव शुद्धोयमात्मा गृहीतव्यः, शुद्धस्यात्मनः नामसंज्ञ-कह, त, अप्प, एण्णा, त, उ, अप्प, जह, पाणा, बिहत्त, तह, पण्णा, एव, पित्तव्व । धातुसंज्ञ -गिह ग्रहयो । प्रातिपदिक-कथं, तत्, आत्मन्, प्रज्ञा, तत्, तु, आस्मन्, यथा, प्रज्ञा, विभक्त, तथा, प्रज्ञा, एच, गृहीतव्य । मूलधासु · ग्रह उपादाने क यादिगणे । पदविवरण-कह कथं-अव्यय । सो सः-प्रथमा एकवचन । उ तु-अन्यय । घिप्पइ गृहयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया। अप्पा आत्मा-प्रथमा एक० । पण्णाए प्रज्ञया-तृतीया एकवचन । सो सः-प्रथमा एक० । उ तु-अव्यय । आत्मा और बन्धको प्रज्ञासे तो भिन्न किया, परन्तु प्रात्माको ग्रहण किसके द्वारा किया जाय ? इस प्रश्नोत्तरको गाथा कहते हैं--प्रश्न-[स प्रात्मा] वह शुद्धात्मा [कथं] कैसे [गृह्यते ग्रहण किया जाता है ? उत्तर---[स तु आस्मा] वह शुद्धातमा [प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा हो । गृह्यत] ग्रहण किया जाता है । यथा] जिस प्रकार पहले [प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा [विभक्तः] भिन्न किया [तथा] उसी प्रकार [प्रज्ञयव] प्रज्ञाके द्वारा हो [गृहीतव्यः] ग्रहण किया जाना चाहिये। तात्पर्य --ज्ञानके द्वारा हो तो आत्मस्वभाव व बन्धको भिन्न-भिन्न किया जाता है और ज्ञानके ही द्वारा प्रात्माको ग्रहण किया जाता है । टोकार्थ---प्रश्न--यह शुद्ध प्रात्मा किस तरह ग्रहण किया जाना चाहिये ? उत्तरयह शुद्धात्मा प्रज्ञासे ही ग्रहण किया जाना चाहिये । क्योंकि स्वयं अपने शुद्ध आत्माको ग्रहण करते हुए शुद्ध प्रात्माके जैसे कि पहले भिन्न करते हुएके प्रज्ञा ही एक करण था उसी प्रकार ग्रहण करते हुए भी वही प्रज्ञा एक करण है, भिन्न करण नही है । अत: जैसे प्रज्ञाके द्वारा भिन्न किया था वैसे प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये। भावार्थ- प्रात्मा और बन्धको भिन्न करनेमें और केवल प्रात्माके ग्रहण करने में पृथक् करण नहीं है इसलिये प्रज्ञाके द्वारा ही तो भिन्न किया और प्रज्ञाके द्वारा ही ग्रहण करना चाहिये । प्रसंगविवरण--- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्मा और बन्धको अलगअलग करके गात्र आत्माको ग्रहण करना चाहिये। अब इस गाथामें बताया है कि मात्र प्रात्मतत्त्वको कसे ग्रहण कर लेना चाहिये । Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार स्वयमात्मानं गृह्णतो विभजत इव प्रजककरणत्वात् । अतो यथा प्रज्ञया विभक्तस्त्था प्रज्ञयव गृहीतव्यः ।। २६६ ।। घिप्पए गृहयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन कर्मवाच्य किया। अप्पा आत्मा-प्रथमा कवचन कर्मवाच्यमें कर्म । जह यथा-अव्यय। पण्णाइ प्रज्ञया-तृ० एक० करणकारक । विहत्तो विभत्तः-प्रथमा एक कृदन्त क्रिया , तह तथा-अव्यय । पण्णाइ प्रज्ञया-तृ० एक० । एव-अव्यय । चित्तदवो हीतव्यः-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया॥ २६६ ।। तथ्यप्रकाश-(१) मात्मा और बन्धको अलग अलग कर देनेका प्रयोजन शुद्ध प्रात्माका ग्रहण करना है। (२) प्रजाके द्वारा हो यात्मा और बन्धको अलग-अलग किया जाता है । (३) प्रज्ञाके द्वारा ही शुद्ध प्रात्माको ग्रहण किया जाता है । (6) प्रात्मा और बन्धके छेदनको तरह शुद्ध प्रात्माको ग्रहण करना भी एक प्रज्ञाकरणके द्वारा ही सम्भव है । सिद्धान्त--(१) ज्ञान द्वारा ज्ञानमें ज्ञानस्वरूप प्रात्माको सुसिद्ध किया जाता है। (२) निर्विकल्प सम्वेदन द्वारा शाश्वत जानम्वभावमें उपयोग अभेदरूपसे रम जाना है । दृष्टि-१- ज्ञाननय (१६४) । २-- नियतिनय (१७७)। प्रयोग--ज्ञान मात्र आत्माको निरखकर इसी शाश्वत ज्ञानस्वभावमें उपयोरको लगाना व रमाना ।। २६६ ।। प्रश्न-प्रात्माको प्रज्ञाके द्वारा किस प्रकार ग्रहण करना चाहिए ? उत्सर---[यः चेतयिता] जो चेतनस्वरूप प्रात्मा है [निश्चयतः] निश्चयसे [सः तु] वह ही तो [अहं] मैं हूं ऐसा [प्रज्ञया] प्रज्ञाके द्वारा [गृहीतव्यः] ग्रहण करना चाहिये [अवशेषाः] और अवशेष [ये भाषा:] जो भाव हैं [ते] वे [मम परा] मुझसे पर हैं याने भिन्न हैं [इति ज्ञातव्याः] इस .. प्रकार जानना चाहिये । तात्पर्य-जो ज्ञानमात्र हूं, जाननहार हूं वही मैं हूं ऐसा अन्तः अनुभव करना ही प्रात्माको ग्रहण करना है । टोकार्य-निश्चयसे जो निश्चित निजलक्षणको अवलम्बन करने वाली प्रज्ञाके द्वारा विभक्त किया गया जो चैतन्यस्वरूप प्रात्मा है वहीं यह मैं हूं और जो ये अवशेष अन्य अपने लक्षणसे पहचानने योग्य व्यवहाररूप भाव हैं, वे सभी व्यापक आत्माके व्याप्यपनेमें नहीं पाते हुए मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं। इस कारण मैं ही, अपने द्वारा हो, अपने हो लिये, अपनेसे हो, अपने में ही, अपनेको ही ग्रहण करता हूं। जो मैं निश्चयत: ग्रहण करता हूं वह प्रात्माकी वेतना ही एक क्रिया होनेसे मैं उस त्रिपासे चेतता ही हूं, चेतता हुमा हो नेतता हूं, चेतते Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कयमयमात्मा प्रजया गृहीतव्यः ? इति चेत् --- पण्णाए चित्तवो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायव्वा ॥२६॥ प्रज्ञासे यों गहना, जो चेतक सो हि मैं हु निश्चयसे । अवशिष्ट भाव मुझसे, भिन्न तथा पर पृथक् जानो ॥२६॥ प्रशया गृहीतयो यश्चेतयिता सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावाः ते मम परा इति ज्ञातव्याः ॥२६७।।। यो दि निम्तस्वलानलंबिया या प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं । ये स्वमी अबशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवलियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतायतृत्वस्य व्यापकस्य व्यायस्वमनायांतोऽत्यंत मत्तो भिन्नाः । ततोऽहमेव मर्यव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृणामि । यत्किल गृह्णामि तच्चेतनकक्रियत्वादात्मनश्चेतये एव, चेतयमान एव चेतये, चेतयमानेनैव नामसंज्ञ-- पण्णा, चित्तव्य, ज, चेदा, त, अम्ह, तु, णिच्छयदो, अवसेस, ज, भाव, त. अम्ह, पर, इत्ति, णायन्व। धातसंज्ञ-गिव्ह गहणे, चेत करणाववोधनयोः, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-प्रज्ञा, हुएसे ही चौता हूं, चेतते हुएके लिये ही चेतता हूं, चेतते हुएसे ही चेतता हूं, चेतते हुए में हो चेतता हूं, चेतते हुएको ही चेतता हूं अथवा न तो चेतता हूं, न चेतता हुमा चेतता हूं, न चेतते हुएरे चेतता हूं, न चेतते हुएके लिये चेतता हूं, न चेतते हुएसे चेतता हूं, न चेतते हुएमें चेतता हूं, न चेतते हुएको चेतता हूं । किन्तु मैं तो सर्प विशुद्ध चिन्मात्र भाव हूं। भावार्थ:पहिले प्रज्ञाके द्वारा आत्माको बन्धसे भिन्न किया था तब उसीसे यह चैतन्यस्वरूप आत्मा मैं हूं ऐसा अपनेको ग्रहण किया । सो यहाँ अभिन्न छह कारकोंसे ग्रहण किया कि मैं, मुझको, • मेरे द्वारा, मेरे लिये, मुझसे अपनेमें जानता हूं अब और सामान्यकी और वृत्ति हुई सो उससे मै चेतता हूं, अपनेको चेतता हूं, अपने द्वारा चेतता हूं, अपने लिये चेतता हूं, अपनेसे चेतता हूं, अपनेमें चेतता हूं यों अनुभवा । फिर और सामान्य हुए तो इन अभिन्न कारकोंके भेदका भी निषेध करके मैं शुद्ध चैतन्य मात्र भाव हूं, एक अभेद हूं, इस तरह बुद्धिके द्वारा प्रात्माको ग्रहण करना । अब इस अर्थको काव्यमें कहते हैं-भित्त्या इत्यादि । प्रर्थ--जो कुछ भी भेदा जा सकता है उस सरको निज लक्षणके बलसे' भेदकर चैतन्य चिह्नसे चिह्नित, विभागरहित महिमा वाला मैं शुद्ध चैतन्य ही हूं । यदि प्रतिबोधनार्थ कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपा. दान, प्रधिकरण-~ये छ: कारक और सत्व, प्रसत्व, नित्यत्व, अनित्यत्व प्रादिक धर्म व ज्ञान, दर्शन आदिक गुण ये भेदरूप हों तो हों, परन्तु विशुद्ध , समस्त विभावोंसे रहित, शुद्ध, ल Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार ५०७ चेतये, चेतयमानायव चेतये, चेतयमानादेव चेतये, चेतयमाने एवं चेतये, चेतयमानमेव रेतये । अथवा न चेतये, न चेतयमानश्चेतये, न चेतयमानेन चेतये, न चेतयमानाय चेतये, न चायमानाच्चेतये, न चेतयमाने चेतये, न चेतयमानं चेतये । किंतु सर्वविशुद्धचिन्मात्रो भावोम || भित्त्वा सर्वमपि स्वलक्षणबलाभेत्तं हि यच्छवयते । चिन्मुद्रांकितनिविभागमहिमा शुद्धसिदेवा. स्म्यहं । भिद्यते यदि कारकारिण यदि वा धर्मा गुणा वा यदि । भियंतां न भिदास्ति वाचन विभौ भावे विशुद्ध चिति ॥१८॥ ॥ २६७ ।। गृहीतव्य, यत्, चेतयितृ, तत्, अस्मद्, तु, निश्चयतः, अवशेष, यत्, भाव, तत्, अस्मद्, पर, इति, शारव्य । मूलधातु-ग्रह उपादान क्रयादि,ज्ञा अवबोधने। पदविवरण-पण्णाए प्रज्ञया-तृतीया गृहीतव्यः-प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया। जो यः-प्रथमा एक ०। चेदा चेतयिता-प्र० एक० । सो सः-श्यमा एक० । अहं-प्र० एक० । तु-अव्यय । णिच्छयदो निश्चयत:-अव्यय पंचम्यर्थे । अवसेसा अवशेषा:-श्रमा बहुवचन । जे ये-प्रथमा बहु० । भादा भावा:-प्र. बहु० । ते-प्र० बहु । मझ मम-षष्ठी एक० । परा पर बसा हु । इति इति बसाय : या सातव्याः-प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया ॥ २६७ ॥ सब मुणपर्यायोंमें व्यापक ऐसे चैतन्यभावमें तो कोई भेद नहीं है । भावार्थ-इस चैतन्यभासे अन्य अपने स्वलक्षणसे भेदे गये जो कुछ भी कारकभेद धर्मभेद भोर मुणभेद हैं तो रहें. शुद्ध चैतन्यमात्रमें कुछ भी भेद नहीं है । शुद्धनयसे प्रात्माको पभेदरूप चिमात्र अनुभवना चाहिये। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्माको प्रज्ञा द्वारा ग्रहरा करना चाहिये | अब इस गाथामें बताया है कि प्रज्ञाके द्वारा प्रात्मा किस ढंगसे ग्रहण किया जाता है । ___ तम्यप्रकाश-(१) प्रज्ञा नियत स्वलभरणका अवलम्बन करती है । (२) प्रज्ञासे जिस शुद्ध प्रात्माको विभक्त निरखा गया वह चैतन्यमात्र प्रात्मा मैं हूं, ऐसा प्रज्ञाके द्वारा सहज शुद्ध पात्मतत्वका ग्रहण किया जाता है। (३) प्रशाके द्वारा ही यह निर्णीत किया गया कि चेलनालक्षणसे शून्य रागादिबन्धन मुझ ज्ञानस्वरूप प्रात्मतत्त्वसे अत्यन्त भिन्न हैं। (४) आत्माके ग्रहणमें मैं ही मेरे द्वारा मेरे लिये मुझसे मुझमें अपनेको ग्रहण करता हूं। (५) मात्माको ग्रहण करनेका अर्थ है आत्माको चेतना। (६) मैं हो चेतता हूं। (७) मैं चेतता हुअा ही चेतता हूं। (८) मैं चेतते हुएके द्वारा ही चेतता हूं। (६) मैं चेतते हुएके लिये हो चेतता हूं। (१०) मैं चेतते हुएसे हो चेतता हूं। (११) मैं चेतते हुएमें हो चेतता हूं। (१२) मैं चेतते हुए को ही घेतता हूं । (१३) इस अभेदसंचेतन में कारकभेद न होनेसे चेतन करना भी कुछ नहीं यह तो शुद्ध घिमात्र भाव ही हूं मैं । सिद्धान्त-(१) प्रारम्भमें प्रात्माको अभिन्न कारकोंमें ग्रहण किया जाता है । (२) Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०५ समयसार पण्णाए वित्तवो जो दवा सो अहं तु णिच्छयो। अवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति णायव्वा ॥२६८॥ पण्णाए चित्तब्बो को शादा सो अहं तुमिच्छयो । यवसेसा जे भावा ते मज्झ परेत्ति गणादव्वा ॥२६६॥ (युग्मम् ) प्रज्ञासे यों गहना, जो द्रष्टा सो हि मैं हूं निश्चयसे । अवशिष्ट भाव मुझसे, भिन्न तथा पर पृथक् जानो ।।२६८॥ प्रज्ञासे यों गहना, जो ज्ञाता सो हि मैं हु निश्चयसे । अवशिष्ट भाव मुझसे, भिन्न तथा पर पृथक् जानो ॥२६॥ व्यो यो द्रष्टा सोऽहं त निश्चयतः । अवशेषा ये भावास्ते मम पग इति ज्ञातव्याः ।। २६८।। प्रशया हीतव्यो यो ज्ञाता सोऽहं तु निश्चयतः । अवशेषा ये भावास्ते मम परा इति ज्ञातव्या: ।। २६६11 चेतनाया दर्शनज्ञानविकमानतिक्रमणाच्चेतथितृत्वमिव द्रष्टुत्वं ज्ञातृत्वं चात्मनः स्वलक्षणमेव । ततोहं द्रष्टारमात्मानं गृह्णामि यत्किल गृह्णामि तत्पश्याम्येव, पश्यन्नेव पश्यामि, पश्यत्व पश्यामि, पश्यते एव पश्यामि, पश्यत एव पश्यामि, पश्यत्येव पश्यामि, पश्यतमेब नामसंज्ञ--. पण्णा, वित्तम्ब, ज, दट्टार, ते अम्ह, तु, णिच्छयओ, अवसेस, ज, भाव, त, अम्ह, पर, इत्ति,णादव, 'पण्णा, चित्तव्य, ज, णादार, त, अम्ह, तु, णिच्छयदो अवसेस इत्यादि । धातुसंज-गिण्ह ग्रहो' जाण अवयोधने । प्रातिपदिक - प्रज्ञा, गृहीतव्य, यत्, द्रष्टा तत् अस्मद्, तु, निश्चयतः, अवशेष, प्रान ग्रहणका अभ्यास हो चुकनेपर प्रात्माका अभेटानुभव होता है। दृष्टि–१- कारककारकिभेदक सद्भूतव्यवहार (७३) । २- शुद्धनय (४६) । प्रयोग- प्रात्माको उपयोगस्वलक्षणसे ज्ञानमात्र परखकर ज्ञानमात्र अन्तस्तत्वका निवकल्प अनुभव करना ।। २६७ ॥ अब कहते हैं कि सामान्य चेतना दर्शनज्ञानसामान्यमय है इसलिये अनुभवमें दर्शनज्ञानस्वरूप मात्माका ऐसे भी ग्रहण होता है-[प्रज्ञया गृहीतव्यः] प्रज्ञाके द्वारा इस प्रकार म्हण करना चाहिये कि [यो द्रष्टा] जो देखने वाला है [स तु] वह तो [निश्चयतः] निश्चय 1 [अहं] मैं हूं [अवशेषा ये भावाः] अवशेष जो भाव हैं [ते मम पराः] वे मुझसे पर है इति ज्ञातव्याः] ऐसा जानना चाहिये तथा [प्रज्ञया गृहीतव्यः] प्रज्ञाके द्वारा ऐसा ही ग्रहण करना चाहिये कि [यो ज्ञाता] जो जानने वाला है [स तु] वह तो [निश्चयतः] निश्चयसे [अहं] मैं हूं {अवशेषा ये भावाः] अवशेष जो भाव हैं [४] वे [मम पराः] मुझसे पर हैं [इति ज्ञातव्याः] ऐसा जानना चाहिये। Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार पश्यामि । अथवा न पश्यामि, न पश्यन् पश्यामि, न पश्यता पश्यामि, न पश्यते पयामि, न पश्यतः पश्यामि, न पश्यति पश्यामि, न पश्यंत पश्यामि । किंतु सर्वविशुद्धो दृङ्मात्रो भावो. स्मि । अपि च--ज्ञातारमात्मानं गृणामि यत्किल गृहामि तज्जानाम्येव, जानलेव जानामि, जानतंव जानामि, जानते एवं जानामि, जानत एव जानामि, जानत्येव जानामि, जानंतमेव जानामि । अथवा--न जानामि, न जानन जानामि, न जानता जानामि, न जानते जानामि, न जानतो जानामि, न जानति जानाभि न जानतं जानामि । किंतु सर्वविशुद्धो ज्ञप्तिमात्रो यत्, भाव, तत्. अस्मद, पर, इशि, जानन्य, जाण । मूलयात - या उपादाने, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण . पण्णाए प्रजया-तृतीया एक. करणकारक 1 चितन्यो गृहीतयः-प्रथमा एक कृदन क्रिया । जो च -प्र० एक० । दट्टा द्रष्टा-प्रथमा एकः । सो सः-प्र० एकः । अह-प्र० To | तु-अव्यय । णिच्छवओ निदन यतः तात्पर्य-समस्त पर व परभावसे विभक्त दर्शनजानसामान्यात्मक अपनेको अनुभवना परमार्थतः आत्मद्रव्यका अनुभव है। टोकार्थ-चेतनाके दर्शन ज्ञान के भेदका उल्लंघन नही होने के कारण चेतकत्वको तरह दर्शकपना व ज्ञातापना प्रात्माका निज लक्षण हो है । अतः मैं देखने वाले प्रात्माको ग्रहण करता हूं, जो निश्चयसे ग्रहण करता हूँ सो देखता हूं, देखता हुया ही देखता हूं, देखते हुएके द्वारा ही देखता हूं, देखते हुएके लिये ही देखता हूं, देखते हुएसे ही देखता हूँ, देखते हुए में ही देखता हूं और देखते हुए को ही देखता हूं अथवा न देखता हूं, न देखता हुआ देखता हूं, न देखते हुएके द्वारा देखता है, न देखते हुएके लिये देखता हूं, न देखते हुएसे देखता हूं, न देखते हुएमें देखता हूं, न देखते हुएको देखता हूं। किन्तु मैं सर्वविशुद्ध एक दर्शनमात्र भाव हं । तथा और भी.. मैं ज्ञाता प्रात्माको ग्रहण करता हूं, जो ग्रहण करता हूं सो निश्चयसे जानता ही हूं, जानता हुआ भी जानता हुआ ही जानता हूं, जानते हुएसे ही जानता हूं, जानते हुएके लिये ही जानता हूं, जानते हुएसे ही जानता हूं, जानते हुएमें हो जानता हूं, जानते हुए को हो जानता हूं । अथवा नहीं जानता, न जानता हुअा जानता हूं, न जानते हुएके द्वारा जानता हूं, न जानते हुएके लिये जानता हूं, न जानते हुएसे जानता हूं, न जानते हुएमें जानता हूं, न जानते हुएको जानता हूँ। किन्तु सर्वविशुद्ध एक जाननक्रियामात्र भाव मैं हूं। भावार्थ- इस तरह ज्ञानपर छह कारक भेदरूप लगाकर फिर अभेदरूप करनेको कारक भेदका निषेध कर ज्ञानमात्र अपना अनुभव करना। प्रश्न-- चेतना दर्शन ज्ञान भेदको कैसे उल्लंघन नहीं करती कि जिससे मात्मा द्रा ज्ञाता हो जावे । उत्तर--वास्तव में चेतना प्रतिभापरूप है, ऐसी चेतना दोरूप Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० समयसार भावोऽस्मि । ननु कथं चेतना दर्शनज्ञानविकल्पो नातिकामति येन चेतयिता द्रष्टा ज्ञाता च स्यात् ? उच्यते-चेतना तावत्प्रतिभासरूपा सा तु सर्वेपामेव वस्तूनां सामान्यविशेषात्मकत्वात् द्वैरूप्यं नातिकामति । ये तु तस्या द्वे रूपे ते दर्शनज्ञाने, ततः सा ते नातिकामति । यद्यतिकामति ? सामान्य विशेषातिक्रांतत्वाच्चेतनव न भवति । तदभावे द्वी दोषौ---स्वगुणोच्छेदाच्चेतनस्याचेतनापत्तिः व्यापकाभावे व्याप्यस्य चेतनस्याभावो वा । ततस्तदोषभयाद्दर्शनज्ञानात्मिकंव पंचम्यर्थे अव्यय । अवसेसा अवशेषाः-प्रथमा बहु० । जे ये-प्र०बहु । भावा भावाः-प्र. बह ० । ते-प्रथमा बहु० । मज्भ मम-पष्ठी एक० । परा परा:-प्रथमा बहुवचन । इत्ति इति-अव्यय । णादब्वा ज्ञातव्या:पनेको उल्लंघन नहीं करतो, क्योंकि सभी वस्तुओं की सामान्यविशेषात्मकता है । जो उसके दो रूप हैं वे दर्शन, ज्ञान हैं । इस कारण वह चेतना दर्शन, ज्ञान इन दोनोंको उल्लंघन नहीं करती । यदि चेतना इन दो स्वरूपोंको लांधे तो सामान्य विशेषरूपके उल्लंघनपनेसे चेतना ही नहीं रहती। उस चेतनाको अभाव होनेपर दो दोष पाते हैं--एक तो अपने गुराका उच्छेद होनेसे चेननके अचेतनपनकी प्राप्ति प्रातो है और दूसरे व्यापक चेतनका अभाव होने पर व्याप्य जो चेतन आत्मा उसका प्रभाव होता है । इस कारण इन दोषोंके भयसे चेतना दर्शनझानस्वरूप ही अङ्गीकार करना चाहिये । भावार्थ-चेतनाको ज्ञावरूपमें ग्रहण करना, सामान्य प्रतिभासरूपमें ग्रहण करना, इन भेदोंको छोड़ चिन्मात्र अनुभवना ।। ___ अब इस अर्थको काव्यमें कहते हैं--प्रदता इत्यादि । अर्थ-जनतमें निश्चयसे चेतना अद्वैत होनेपर भी यदि वह दर्शन ज्ञानरूपको छोड़ दे तो सामान्यविशेषरूपके अमावसे वह चेतना अपने अस्तित्वको ही छोड़ देगी और अब चेतना अपने अस्तित्वको ही छोड़ दे तो चेतनके जड़पना हो जायगा तथा व्यापक चेतनाके बिना व्याप्य प्रात्मा अन्तको प्राप्त हो जायगा अर्थात् आत्माका नाश हो जायगा, इस कारण चेतना नियमसे दर्शनज्ञानस्वरूप हो है । भावार्थ---वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है। चेतना भी वस्तु है सो वह यदि दर्शन ज्ञान विशेषको छोड़ दे तो वस्तुपनेका नाश हो जानेसे, चेतनाका अभाव हो जानेसे चेतनके जइपना या जायेगा 1 इस कारण चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही जानना चाहिए । जो सामान्य चेतनाको ही मानकर एकान्त करते हैं, उनकी भूल दूर करनेके लिये भी 'वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है सो चेतनाको भी सामान्य विशेषरूप अंगीकार करना' ऐसा बतलाया है । अत्र युक्तिपूर्वक वाहते हैं कि चिन्मयभाव तो उपादेय है और परभाव हेय हैं----एक इत्यादि । अर्थ---चेतनका तो एक चिन्मय हो भाव है । और जो दूसरे भाव है वे प्रगट रोति से परके भाव हैं । इस कारण एक चिन्मयभाव ही ग्रहण करने योग्य है और परभाव सभी Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार चेतनाभ्युपगंतव्या ।। अद्वैतापि हि चेतना जगति चेलारूपं त्यजेत् तदला. विशेष वि. हात्सास्तित्वमेव त्यजेत् । तत्त्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापकादात्मा चांतमुपति तेन नियतं दृग्जप्तिरूपास्ति चित् ।।१८६॥ एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषां । ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एवं भावो भावाः परे सर्वत एव हेयाः ।।१८। ।। २६८२६६ ॥ प्रथमा बहुवचन कृदन्त क्रिया । मादा ज्ञाता-प्रथमा एकवचन । शेष पूर्ववत् ॥ २६८-२६६|| त्यागने योग्य हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि प्रात्माको चेतनेमात्रकी क्रिया से ग्रहण करना चाहिये । अब चूकि चेतना दर्शन व ज्ञानरूप है सो द्रष्टापन व ज्ञातापनके रूपसे प्रात्माको ग्रहण करने का विधान इस गाथामें बताया है । तथ्यप्रकाश--(१) चेतना दर्शन और ज्ञानरूप है । (२) प्रात्माका लक्षण जैसे चेतयितापन है, ऐसे हो द्रष्टापन व ज्ञातापन स्वलक्षण ही है। (३) चेतना सामान्यविशेषात्मक है । (४) चेतनासामान्य दर्शन है। (५) चेतनाविशेष जान है । (६) आत्मा यदि दर्शन ज्ञानस्वरूप न हो तो सामान्यविशेषात्मकता न होनेसे चेतनाका अस्तित्व ही संभव नहीं है । (७) चेतनाका अभाव होनेपर, चेतन अचेतन हो जायगा अथवा चेतनका ही अभाव हो जायमा यह प्रापत्ति पाती है । (८) चोतना दर्शनज्ञानात्मिका ही होती है । (६) मैं द्रष्टा मात्माको ग्रहण करता हूं सो कैसा ? मैं देखता ही हूं। (१०) देखता हुना ही मैं देखता हूं। (११) देखते हुए के द्वारा ही देखता हूं : (१२) देखते हुएके लिये ही देखता हूं । (१३) देखते हुएसे हो देवता हूं। (१४) देखते हुएमें ही देखता हूं। (१५) देखते हुए को ही देखता हूं। (१६) इस अभेदसंदर्शनमें कारकभेद न होनेसे देखना भी कुछ नहीं, यह तो सर्वविशुद्ध दृशिमात्र भाव ही हूं मैं । (१७) मैं ज्ञाता प्रात्माको ग्रहण करता हूं सो कैसा ? मैं जानता ही हूं। (१८) जानता हुमा हो मैं जानता हूं । (१६) जानते हुएके द्वारा ही जानता हूं। (२०) जानते हुएके लिये ही जानता हूं । (२१) जानते हुएसे ही मैं जानता हूं। (२२) जानते हुएमें हो जानता हूँ। (२३) जानते हुएको ही जानता हूँ। (२४) यह अभेदसंज्ञान कारकभेद न होनेसे जानना भी कुछ नहीं, यह तो सर्वविशुद्ध ज्ञप्तिमात्र भाव हूँ मैं । (२५) दर्शनज्ञानात्मिका चेतनाके अतिरिक्त अन्य सर्व भाव हेय ही हैं। 'सिद्धान्त--(१) प्रारम्भमें प्रात्माको अभिन्न कारकोंमें देखा जाता है। (२) प्रात्मग्रहणका अभ्यास हो चुकनेपर प्रात्माका अभेदानुभव होता है । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ परमा को णाम भणिज वुहोणाउं सब्बे पराइए भावे । मज्झमिणति य वयणं जाणतो अप्पयं सुद्धं ॥३००॥ सब परमावोंको पर, आत्माको शुद्ध जानने वाला। कौन बुध यह कहेगा, परभावोंको कि ये मेरे ॥३०॥ को नाम भयो बुधो ज्ञात्वा सर्वान परकीयान् भावान । ममेदमिति च वचनं जाननात्मानं शुद्ध ।। ३००॥ यो हि परात्मनोनियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रजया ज्ञानी स्यात् स खल्वेकं चिन्मात्र भावमात्मीयं जानाति शेषांश्च सर्वानेव भावान परकीयान् जानाति । एवं च जानन कथं पर. भावान्ममामी इति ब्रूयात् ? १रात्मनोनिश्चयेन स्वस्वामिसंबंधस्यासंभवात् । अत: सर्वथा चिद्.. भाव एव गृहीतव्य: शेषाःसर्वे एव भावा. प्रहातव्या इति सिद्धांतः ।। सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्तचरितर्मोक्षार्थिभिः सेध्यता शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः देवास्म्यहं । एते ये तु समुल्लसंति नामसंश-क, णाम, वुह, सम्ब, पराइस, भाव, अम्ह, इम, जि, य, वयण, जाणत, अप्पय, सुद्ध। । धातुसंज-भण कथने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-किम्, नामन्, बुध, सर्व, परकीय, भाव, अस्मद्, इदम्, इति, च, वचन, जानत्, आत्मन्, शुद्ध । मूलधातु-भण शब्दार्थः, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-को क:-प्रथमा एक० । णाम नाम-प्रथमा एक० अथवा अव्यय । भणिज्ज भणेत्-लिङ विधौ अन्य पुरुष एक दृष्टि--१-- कारककारकिभेदक सद्भूत व्यवहार (७३) । २- शुद्धनय (४६) । प्रयोग--प्रात्माको दर्शनशानोपयोग स्वलक्षणसे परखकर दर्शन ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्व का निर्विकल्प अनुभव करना ।। २६८-२६६ ।। अब परभावकी हेयता इस गाथामें कहते हैं--[सर्वान् भावान् परकीयान] सभी : परकीय भावोंको [ज्ञात्वा] जानकर [इदं मम ये मेरे हैं [इति च वचनं] ऐसा वचन : [आत्मानं] अपने प्रात्माको [शुद्ध जानन] शुद्ध जानता हुअा [क: नाम बुधः] कोन बुद्धिमान [भरोत्] कहेगा ? ज्ञानी पंडित तो नहीं कह सकता। तात्पर्य-शुद्ध प्रात्मतत्त्वको जानने वाला परभावोंको अपना नहीं मान सकता। टीकार्य-जो पुरुष प्रात्मा और परके निश्चित स्वलक्षणके विभागमें पड़ने वाली । प्रज्ञाके द्वारा ज्ञानी होता है, वह पुरुष निश्चयतः एक चैतन्यमात्र अपने भावको तो अपना । जानता है और बाकीके सभी भावोंको परके जानता है । और ऐसा जानता हुप्रा ज्ञानी परके भावोंको 'ये मेरे हैं' ऐसा किस तरह कह सकता है ? क्योंकि पर और आपमें निश्चयसे स्वस्वामिपनाका सम्बन्ध असम्भव है । इस कारण सर्वथा चिद्भाव ही एक ग्रहण करना चाहिये, अवशेष सभी भाव त्यागना चाहिये, ऐसा-सिद्धान्त है । भावार्थ-जैसे लोकमें यह न्याय है कि सुबुद्धि और न्यायवान पुरुष परके धनादिकको अपना नहीं कहता, उसी तरह सम्यग्ज्ञानो Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार ५१३ विविधा भावा पृथग्लक्षणा: तेऽहंनास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्ना अपि ॥१८५।। परद्रव्यग्रहं कुर्वन बध्येतवापराधवान् । बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः ॥१८६।। ।।३००॥ वचन क्रिया । वुहो बुधः-प्रथमा एक० । णाचं ज्ञात्वा-कृदंत असमाप्सिकी सम्बंधार्थक्रिया प्रक्रिया, अव्यय । सन्चे सर्वान् पराइए परकीयान् भावे भावान-द्वितीया बहु० । मझ मम-षष्ठी एकः । इणं इदम्-प्रथमा एक० । इति अव्यय । श्यणं वचनं-द्वितीया एक० कर्मकारक । जाणतो जानन्-प्र० एक कृदन्त कर्बर्थप्रक्रिया । अप्पयं आत्मानं-द्वि० एक० । सुद्धं शुद्ध-द्वितीया एकवचन ॥ ३०० ।। भी समस्त परद्रव्यको अपना नहीं बनाता, अपने निज भावको हो अपने जान अनुभवता है। __ अब इसी प्रर्थको कलशरूपमें कहते हैं-सिद्धांतो इत्यादि । अर्थ---उदात्त चिलके चरित्र वाले मोक्षके इच्छुक पुरुष इस सिद्धान्तका सेवन करें कि मैं तो सदा शुद्ध चैतन्यमय एक परमज्योति ही हूं और जो ये अनेक प्रकारके भिन्न लक्षणरूप भाव हैं वे मैं नहीं हूं, क्योंकि वे सभी भाव मेरे लिये परद्रव्य हैं 1 भावार्थ-स्वरूप निरखकर सदा ऐसा अनुभव करना चाहिये कि मैं शुद्ध चैतन्यमात्र हूं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें बताया गया था कि प्रज्ञासे दर्शनज्ञानात्मिका चेतना ही ग्रहण करना चाहिये, चेतनाके अतिरिक्त अन्य सभी भाव हेय हैं । अब इस गाथामें उन्हीं अन्य सर्व भावोंको हेयताका समर्थन किया गया है । तथ्यप्रकाश--(१) जो प्रात्मा व परके नियत स्वलक्षण विभागमें पड़े, वह प्रशा है । (२) प्रज्ञा द्वारा जो स्व-परका विभाग कर स्वको स्वरूपसे, परको पररूपसे जाने वह ज्ञानी है । (३) ज्ञानी एक चिन्मात्र भावको अात्मस्वरूप जानता है। (४) ज्ञानी चोतनातिरिक्त सर्व भावोंको परकीय जानता है । (५) स्वकीय व परकीय भावोंको जानता हुमा ज्ञानी परभावोंको अपना मान हो नहीं सकता । (६) पर व आत्मामें निश्चयसे स्वस्वामीसम्बन्ध रंच भी नहीं है । (७) सर्व उपायोंसे चैतन्यभाव ही ग्रहण किया जाने योग्य है । (८) चेतनातिरिक्त सर्वभाव छोड़ने योग्य हो हैं । सिद्धान्त-(१) मुझमें परपदार्थका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव कुछ भी नहीं है । (२) मुझमें स्वका ही द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव है। दृष्टि-१- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२६)। २- स्वद्रव्याटिग्राहक द्रव्याथिकनय (२८)। प्रयोग-परकीयभावको पर जानकर उनसे उपयोग हटाना और निज शाश्वत सहज चैतन्यस्वरूपको प्रात्मस्वरूप जानकर इस निज अन्तस्तत्वमें उपयोग लगाना ।।३००। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ समयसार थेयाई अवराहे कुम्वदि जो सो उ संकिदो भमई । मा वज्झज्जं केणवि चोरोत्ति जणम्मि वियरंतो ॥३०१॥ जो ण कुगाइ अवराहे सो णिस्संको दु जणवए भमदि । णवि तस्स वज्झिदुजे चिंता उप्पज्जदि कयाइ ॥३०२॥ एवं हि सावराहो वज्झामि अहं तु संकिदो चेया। जइ पुण शिरवराहो णिस्संकोहं ण वज्झामि ॥३०३॥ धौर्यादिक अपराधों को जो करता सशंक भ्रमता है । चौर समझकर लोगों के द्वारा मैं न बँध जाऊँ ॥३०१॥ जो अपराष्ट्र न करता वह नि:शंक हो नगरमें भ्रम उसको बँध जानेकी, चिन्ता उत्पन्न नहिं होती ॥३०२॥ यों सापराध बनकर, शंकित्त मैं कर्मफंदसे बंधता । यदि होउँ निरपराधी, तो मैं निःशंक नहि बँधता ॥३०३॥ स्तेयादीनपराधान् करोति यः स तु शङ्कितो भ्रमति । मा बध्ये केनापि चौर इति जने विचरन् ।। ३०१॥ यो न करोत्यपराधान् स निश्शंकस्तु जनपदे भ्रमति । नापि तस्य बद्ध यत् चिन्तोत्पद्यते कदाचित् ।।३०२॥ एवं हि सापराधो बध्येऽहं तु शङ्कितश्चेतयिता । यदि पुननिरपराधो निश्शंकोऽहं न बध्ये ॥३०॥ यथात्र लोके य एव परद्रव्यग्रहलक्षणमपराधं करोति तस्यैव बंधशंका संभवति । यस्तु तं न करोति तस्य सा न संभवति । तथात्मापि य एवाशुद्धः सन् परद्रव्यग्रहणलक्षणमपराध नामसंज-थेयाइ, अबराह, ज, त, उ, संकिद, मा, क, वि, चोर, इति, जण, वियरत, ज, ण, अवराह, त, णिस्संक, दु, जणवा, ण, वि, त, जे, चिंता, कयाइ, एवं, हि, सावराह, अम्ह, तु, संकिद, चेया, जद, पुण, गिरवराह, णिस्संक, अम्ह, ण । धातुसंज्ञ-कुब्व करणे, भ्रम भ्रमणे, बन्ध बन्धने, उव पज्ज अब कहते हैं कि परद्रव्यको जो ग्रहण करता है वह अपराधी है और बन्धमे पड़ता है, किंतु जो निज द्रव्यमें नियन्त्रित है वह निरपराधी है वह नहीं बवता-परद्रग्य इत्यादि । अर्थ---परद्रव्यको ग्रहण करता हुप्रा जोय अपराधी है और वह बंधमें पड़ता है; किन्तु अपने द्रव्यमें ही नियत रहने वाला यतीश्वर अपराधरहित है वह नहीं बँधता । भावार्थ-जो परद्रव्यको अपनाता है वही बँधता है और जो प्रात्मस्वरूपको अपनेरूप स्वयं अनुभवता है वह बन्धनरहित होता है। अब हटान्तपूर्वक सापराध निरपराध बन्धन प्रबन्धनका वृत्त गाथामें कहते हैं--[यः] Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार करोति सद यंवर का शंभवति, बाद शुद्ध पान करोति तस्य सा न संभवति इति नियमः । गतौ । प्रातिपदिक-स्तेयादि, अपराध, यत्, तत्, तु, शंकित, मा, किम्, अपि, चौर, इति, जन, विचरत्, यत्, न, अपराध, तत्, निःशङ्क, तु, जनपद, न, अपि, तत्, यत्, चिन्ता, कदाचित्, एवं, हि, सापराध, अस्मद्, तु, शङ्कित, चेतयित, यदि, पुनर्, निरपराध, निःशङ्क, अस्मद, न । मूलधातु- डुकृञ करणे, भ्रम चलने, बन्ध बंधने, उत् पद गतौ । पदविवरण --..येयाई स्तेयादीन-द्वितीया बहुवचन । कुन्वदि करोति-- जो पुरुष [स्तेयादीन अपराधान] चोरी प्रादि अपराधोंको [करोति] करता है [स तु] बह [जने विचरन] लोकमें विचरता हुअा मैं चोर इति] चोर है, ऐसा ज्ञात हुमा मैं [केनापि मा बध्ये] किसीके द्वारा पकड़ा न जाऊँ शिंकितो भ्रमति] इस प्रकार शंकासहित हा भ्रमण करता है [यः] जो [अपराधात् ] कोई भी अपराध [न करोति नहीं करता [स तु] वह पुरुष [जनपदे] देश में [निःशंकः भ्रमति] निःशङ्क घूमता है यत्] क्योंकि [तस्य] उसके [बद्ध चिता] बंधनेकी चिता [कवाचित अपिकभी भी [न उत्पद्यते नहीं उत्पन्न होती। [एवं] इसी प्रकार [सापराधः] अपराधसहित होता हुआ [तु] तो [अहं] मैं बंधूंगा ऐसा [शङ्कितः] शङ्कायुक्त [चेतयिता] आत्मा भ्रमण करता है [यदि पुनः] और यदि [निरपर राधः] निरपराध रहूँ तो [अहं] मैं [न बध्ये] नहीं बैंधूंगा । ऐसा [निशंकः] निःशङ्क तात्पर्य—मोह-राग-द्वेषरूप अपराध करने वाला जोव हो बंधता है, प्रात्मोपासक निरपराध प्रात्मा नहीं बधता । टोकार्थ--जैसे इस लोकमें जो पुरुष परद्रध्यको ग्रहण करनेके अपराधको करता है, उसोके बंधकी शङ्का होती है । और जो अपराध नहीं करता है उसके शङ्का सम्भव ही नहीं है। उसी प्रकार प्रात्मा भी जो ही अशुद्ध होता हुमा परद्रव्यको ग्रहण करनेरूप अपराधको करता है, उसीके बन्धको शङ्का होती है । परन्तु जो आत्मा शुद्ध हुमा उस अपराधको नहीं करता उसके वह शङ्का नहीं होती, यह नियम है। इस कारण सर्वधा समस्त परद्रव्यके भाव के त्याग द्वारा शुद्ध प्रात्माको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेपर ही निरपराधपना होता है। भावार्थ-यदि कोई चोरी प्रादि अपराध करे तो उसको बंधनेको शङ्का हो, निरपराधके शङ्का क्यों हो ? उसी प्रकार यदि प्रात्मा परद्रव्यको ग्रहण करनेका अपराध करे तो उसको बन्धकी शमा होती ही है, यदि अपनेको शुद्ध अनुभवे, परको नहीं ग्रहण करे तो बंध की शङ्का कैसे हो ? इस कारण परद्रव्यको छोड़कर शुद्ध प्रात्माका ग्रहण करनेसे ही जीव निरपराध होता है, ऐसा जानकर मात्माराधना करके निरपराध होगी। Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अतः सर्वथा सर्वपरकीयभावपरिहारेण शुद्ध प्रात्मा गृहीतयः, तथा सत्येव निरपराधत्वात् । ॥ ३०१-३०३ ॥ वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जो यः सो सः-प्रथमा एकवचन । उ तु-अव्यय । संकिदो शंकित:-प्रथमा एक । भमई भ्रति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । मा-अव्यय । वझेझ अध्ये-वर्तमान लट् उत्तम', पुरुष एक० कर्मवाच्य क्रिया । केण केन-तृतीया एक० 1 वि अपि-अच्यय । चोरो चोर:-प्रथमा एक.। इत्ति इति-अव्यय । जणम्हि जने-सप्तमी एकः । वियरंतो विचरन-प्रा एक । जो यः-प्रथमा एकवचन ।। ण न-अव्यय । कुणई करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । अवराहे अपराधान्--द्वितीया बहु । सो स:-प्रथमा एक० । णिस्संको नि:शंक:-प्रथमा एकः । उतु-अध्यय । जणवए जनपदे--सप्तमी एक.।। भमई भ्रमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । ण न वि अपि-अव्यय । तस्स तस्य-षष्ठी एक० । बज्झिg. ब -कृदन्त । जे यत्-अव्यय । चिता-प्र० ए० 1 उप्पज्जइ उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ।। कयाइ कदाचित्-अव्यय । सावराहो सापराध:-प्र० ए०। बज्झामि बध्ये-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० कर्मवाच्य किया। अहं-प्र० एक० । संकिदो शक्ति:--न. एक० । चेदा चेतायता निरव राहो निरपराध: हिस्सको निश्शक:-प्रथमा एक० ] अहं-प्रथमा एकवचन । बझामि बध्ये-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक: वचन ।। ३०१-३०३ ।। प्रसंगधिवरण----अनन्तरपूर्व माथामें बताया गया था कि स्व शुद्ध आत्माको जानता हुप्रा कौन ज्ञानी परको अपनायमा, परभाव तो सभी हेय हैं। अब इस गाथामें उन्हीं परभावों को ग्रहण करने वालेको अपराधी प्रसिद्ध किया गया है। तथ्यप्रकारा--(१) चोरी, परस्त्रोसेवनके अपराधकी तरह रागादि परद्रव्यका ग्रहण ! करना, स्वीकार करना अपराध है । (२) रागादि परभावको प्रात्मरूप माननेसे जीव स्वस्थभावसे च्युत हो जाता है, अत: परभावका स्वीकरण · अपराध है। (३) यह अपराधी जीव : बन्धनकी शङ्कासहित भ्रमण करता है, कर्मोंसे बंध जाता है, विषाद मरण आदि दण्ड पाता है । (४) जो रागादि परभावोंको स्वीकार नहीं करता, परकीय जानकर उनसे हटा रहता है वह निरपराध है। (५) निरपराध आत्मा निःशङ्क रहता है । (६) निरपराध आत्माको बन्धनको शङ्का नहीं रहती। (७) निरपराध आत्मा कर्मसे मुक्त होता है । (८) मिथ्यात्व रागादि परभावोंको स्वीकारतासे कर्मबन्धन होता। (६) अविकार परम चैतन्यस्वभावकी स्वीकारतासे जीव मुक्त होता है । (१) प्रात्महितैषियोंको नेतन्यमात्र भाव ही ग्रहण करने योग्य है, शेष सर्व भाव छोड़ने योग्य है। - सिद्धान्त ---(१) परभावको स्वीकार करने वाला अपराधी जीव निश्चयत: अपने विकार वासना संस्कारोंसे बँध जाता है । (२) अपराधी जीवके विकारका निमित्त पाकर ज्ञानावरणादि कर्मोका बन्ध होता है । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ मोक्षाधिकार को हि नामायमपराधः ? संसिद्धिराधसिद्ध साधियमाराधियं च एयठें। अक्मयराधो जो खलु चेया सो होइ अवराधो ॥३०॥ जो पुण गिरवराधो चेया णिस्संकियो उ सो होइ । श्राराहणाइ णिच्चं बट्टेइ ग्रहं ति जाणतो ॥३०५॥ (युग्मम्) संसिद्धि राध साधित, पाराधित सिद्ध सर्व एकार्थक । जो जीव राध अपगत, सो प्रात्मा है निरपराधी ॥३०४॥ जो जीव निरपराधी, बह निःशंक निःशल्य हो जाता। निजको निज लखता यह, लगता मास्मानुराधनमें ॥३०॥ संसिद्धिराधसिद्ध साधितमाराधितं चैकार्थं । अपगतराधो यः खलु चेतयिता स भवत्यपराधः ।। ३०४ ॥ यः पुननिरपराधश्चेतयिता निश्शंकितस्तु स भवति । आराधनया नित्यं वर्तते, अहमिति जानन् ॥ ३०५।। परद्रव्यपरिहारेण शुद्धस्यात्मनः सिद्धिः साधनं वा राधः, अपगतो राधो यस्य चेतयितुः सोऽपराधः । अथवा अपगतो राधो यस्य भावस्य सोऽपराधस्तेन सह यश्चेतयिता वर्तते स नामसंग-संसिद्धिराधसिद्ध, साधिय, आराधिय, च, एयट्ट, अवगयराध, ज, स्खलु, चेया, त, अबराध, ज, पुण, मिरवराध, चैया, णिस्संकिअ, उ, त, आराहणा, णिच्चं, अम्ह, ति, जाणत । पातुसंज्ञ-- दृष्टि--१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । २-निर्मिसदृष्टि, निमित्तत्वनिमित्तदृष्टि (५३, २०१)। प्रयोग-निःशङ्क निर्बन्ध रहने के लिये परद्रव्य व परभावके ग्रहणका अपराध नहीं नहीं करके स्वभावमें उपयुक्त होना ।। ३०१.३०३ ।। प्रश्न-यह अपराध क्या है ? उत्तर-[संसिद्धिराधसिद्ध] संसिद्धि, राध, सिद्ध [साधितं च भाराधितं] साधित और पाराधित [एकार्य] ये एकार्थ शब्द हैं। [यः खलु चेत. यिता] जो आत्मा [अपगतराधः] राधसे रहित हो [सः] वह प्रात्मा [अपराधः भवति] राधरहित याने अपराधी है [यः पुनः] और जो [चेतयिता] प्रात्मा [निरपराधः] अपराधरहित है [सः तु] वह [निःशक्तिः ] शंकारहित [भवति] है पौर सहजस्वरूप अपनेको [महं इति] मैं हूं ऐसा [जानन] जानता हुमा [आराधनया भाराधना द्वारा [नित्यं वर्तते] हमेशा बर्तता है। तात्पर्य-प्रात्माकी दृष्टि न होना अपराध है, ऐसा अपराध करने वाला ही संसार में Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.१८ समयसार सापराधः स तु परद्रव्यग्रहणसद्भावेन शुद्धात्मसिद्ध्यभावादबंध शंकासंभवे सति स्वयमशुद्धत्वादनाराधक एवं स्यात् । यस्तु निरपराकास समग्रपरद्रव्यपरिहारेण शुद्धात्मसिद्धिसद्भावादुबंधशंकाया असंभवे सति उपयोगकलक्षरणशुद्ध श्रात्मैक एवाहमिति निश्चिन्वन् नित्यमेव शुद्धात्मसिद्धिलक्षणयाराधनया वर्तमानत्वादाराधक एव स्यात् ॥ अनवरतमनंतंबंध्यते सापराधः स्पृशति राह राधने, साहू साधने, सिज्झ निष्पत्तौ हो सत्तायां, वत्त वर्तने, जाण अववोधने । प्रातिपदिक-संसिद्धिसिद्ध, साधित, आराधित, व, एकार्थ, अपगतराध, यत्, खलु, चेतयितृ, तत्, अपराध, यत् पुन, निर पराध, चेतयितृ, निःशंकित, तु, आराधना, नित्यं, अस्मद् इति, जानत् । मूलबासु-साध संसिद्धौ स्वादि, राध संसिद्धी स्वादि, षिधु संसिद्धी दिवादि, भू सत्तायां वृतु वर्तने भ्वादि, जाण अवबोधने । पदविवरणसंसिद्धिरावसिद्ध - प्रथमा एकवचन । साधियं साधितं प्रथमा एक० आराधियं आराधितं प्रथमा एक० । रुलता है निरपराध आत्मा श्रात्ममग्न होता है । टोकार्थ- परद्रव्यके परिहार द्वारा शुद्ध श्रात्माकी सिद्धि अथवा साधन होना राध है । जिस श्रात्मा के राध अर्थात् शुद्ध आत्माकी सिद्धि अथवा साधन बपगत हो वह ग्रात्मा अपराध है | अथवा जिस भावका राध अपगत हो गया हो याने दूर हो गया हो वह भाव अपराध है ! उस अपराधसे सहित जो श्रात्मा रहता है वह ग्रात्मा सापराध है। ऐसा आत्मा परद्रव्य के ग्रहण सद्भावसे, शुद्ध प्रात्माकी सिद्धिके प्रभावसे, उसके बंधकी शङ्काका संभव होनेपर स्वयं अशुद्धपना होनेसे प्राराधना करने वाला नहीं है । परन्तु जो श्रात्मा निरपराध है वह समस्त परद्रव्यके परिग्रहके परिहार द्वारा शुद्ध आत्माकी सिद्धिके सद्भावसे उसके बंध की शङ्का न होनेपर "मैं उपयोगलक्षण वाला एक शुद्ध श्रात्मा ही हूँ" ऐसा निश्चय करता हुआ वह प्रात्मा नित्य ही शुद्ध आत्माकी सिद्धि लक्षणबाली प्राराधना से युक्त सदा बर्तता होने से आराधक हो है । भावार्थ- संसिद्धि, राध, सिद्धि, साधित और माराधित- इन शब्दोंका अर्थ एक आत्मावलोकन हो है । जिसके यह श्रात्मदर्शन नहीं है वह प्रात्मा सापराध है, और जिसके यह हो यह निरपराध है । सापराधके बंधको शंका होती है, इसलिये अनाराधक है, श्रीर. निरपराध निशंक हुआ अपने उपयोगमें लीन होता है, निरपराधोको बंधको शंका नहीं होती, तब वह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तपका एक भावरूप निश्चय श्राराधनाका श्राराधक ही है । I अब इसी अर्थको कलश में कहते हैं --अनवरत इत्यादि । श्रर्थ सापराध श्रात्मा निरंतर अनंत पुद्गल परमाणुरूप कर्मोंसे बँधता है; निरपराध श्रात्मा बंधन को कभी स्पर्शन नहीं करता । तो प्रपने आत्माको नियमसे अशुद्ध ही सेवन करता हुआ प्रात्मा तो सापराध ही होता है और अच्छी तरह शुद्ध श्रात्माका सेवन करने वाला श्रात्मा निरपराध होता है । — Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार निरपराधो बंधनं नैव जातु । नियतमयमशुद्धं स्वं भजन सापराधो भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी ।।१८।। ॥ ३०४-३०५ ।। एय? एकार्थ-प्रथमा एक नेपालको नयाल राक्ष:-प्र०ए० । जो यः-प्र० ए. 1 खलु-अव्यय । वेदा तयिता-प्र०ए। सो सः-प्र० ए०। होइ भवति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। अवर.धो अपराध:--प्र०ए०। णिरावराधो निरपराध:-प्र०ए०। णिस्संकिओ निःशंकित:-प्र० ए०। आराहणाइ आराधनया-तृतीया एक० । णिच्च नित्य--अव्यय । वट्टइ वर्तते-प्र० एक० । अहं-प्र० एक० । ति इतिअव्यय । जाणतो जानन्-प्रथमा एकवचन ।। ३०४-३०५॥ भावार्थ-जो आत्मा अपनेको सहज अधिकार स्वरूप निरखता है वह निरपराध है व निर्बन्ध है। प्रसंगधिवरण-अनन्तरपूर्व गाथात्रयमें बताया था कि अपराधी जीव सशंक होता हमा कर्मबद्ध हो जाता है और निरपराध प्रात्मा नि:शंक और प्रबन्ध रहता है। अब उसी अपराधके विषय में इन दो गाथावोंमें बताया गया है कि वह अपराध क्या है और निरपराध को स्थिति क्या होती है ? तथ्यप्रकाश-(१) राध अात्मसिद्धिको कहते हैं । (२) जिसके राध नहीं है उस भावको अपराध कहते हैं । (३) राधके इतने और नाम भाव समझने के लिये जानना--१संसिद्धि, २- सिद्धि, ३- साधन व ४- पाराधना । (४) विभावपरिणामरहित निविकल्पसमाधिमें स्थित होकर निज शुद्धात्माकी उपलब्धि होना संसिद्धि है । (५) परद्रव्यका परिहार करके शुद्ध प्रात्मामें मग्नता होना सिद्धि है । (६) सर्वविकारभावोंसे हटकर शुद्ध भैतन्यस्वरूपकी सेवा करना साधन है । (७) विकारभावका परिहार करके शुद्ध चित्स्वरूप प्रात्माको उपासना करना प्राराधना है । (८) जिसके परद्रव्यका ग्रहण है, परभावमें प्रात्मरूपकी मान्यता है उसके शुद्धात्मसिद्धिका प्रभाव है । (९) जिसके शुद्धात्मसिद्धि नहीं है वह सापराध है। (१०) सापराधके सदैव बन्धशङ्का रहती है व बन्ध होता है, क्योंकि वह शुद्धात्मतत्त्वका प्रनारापक है । (११) जो समग्र परद्रव्योंका परिहार करता है उसके शुद्धात्मसिद्धि होती है। (१२) जिसके शुद्धाश्मसिद्धि है उसके बन्धशङ्काकी असंभवता है, क्योंकि उसके ज्ञान मात्र शुद्ध अन्तस्तत्त्वको उपासना बनी रहनेसे वह आराधक ही है। सिद्धान्त---(१) शुद्ध अन्तस्तत्त्य के प्राराधक शुद्धात्मसेवी निरपराध है। (२) प्रशुद्ध सोपाधि सविकार प्रात्माको सेवा करने वाले सापराध हैं। (३) निरपराध प्रात्मा निर्बन्ध होते हैं । (४) सापराध जीव अनन्त कोको बांधते हैं। दृष्टि-- १- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । ३- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । ४- परकर्तृत्व प्रसद्भूत व्यवहार (१२६) । Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० समयसार ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनप्रयासेन यतः प्रतिक्रमणादिनव निरपराधो भवस्थात्मा सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन्द्र विषकुम्भले सति प्रतिक्रमणदिस्तदपोहकत्वनामृतकुम्भत्वात् । उक्तं च व्यवहाराचारसूत्रे-अपडिकमणं अपडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । परिणयत्ती य अणिदाऽगरुहाऽसोहीय दिसकुभो ।।१॥ पडिकमणं पडिसर परिहारो धारणा णि यत्ती य । णिंदा गाहा सोही अट्टविहो अमयकु भो दु॥२।। अत्रोच्यते-- पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । गिंदा गरहा सोही अट्टविहो होइ विसकुभो ॥३०६॥ अप्पडिकमणं अप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदाऽगरहाऽसोही अमयकुभो ॥३८७॥ प्रतिक्रमरण अथवा प्रति-सरण परिहार धारण निवृत्ती । निन्दा गर्दा शुखी, ये हैं विषकुम्भ आठों हो ॥३०६॥ प्रप्रतिक्रमण अप्रति-सरण परिहार धारणा अगरे । अनिवृत्ती व प्रनिन्दा, अशुचि अमृतकुम्भ ये आठों ॥३०७॥ नामसंज- पडिकमण, पडिसरण, परिहार, धारणा, णियत्ति, य, जिंदा, गरहा, सोहि, अविह, विसकुंभ, अप्पडिकमण, अप्पडिसरण, अप्परिहार, अधारणा, च, एव, अणियत्ति, य, अणिदा, अगरहा, प्रयोग-निःशंक निर्बन्ध होनेके लिये अपनेको ज्ञानमात्र निरखना ॥३०४.३०५।। प्रश्न – इस शुद्ध प्रात्माके सेवनके प्रयाससे क्या लाभ है ? क्योंकि प्रतिक्रमण आदि से ही प्रात्मा निरपराध हो जाता है । इसका भी कारण यह है कि सापराधके प्रप्रतिक्रमणादि में अपराधको अपोहकता न होनेसे विषकुम्भपना होनेपर प्रतिक्रमणादिकके हो अपराधकी अपोहकता होनेसे अमृतकुंभपना होता है। यही व्यवहारविषयक आचारसूत्रमें भी कहा हैअप्पडि इत्यादि । अर्थ-प्रप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, प्रधारणा, अनिवृत्ति, अनिदा, अगहों और अशुद्धि, विषकुम्भ है । प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा निवृत्ति, निदा, गहरे और शुद्धि, अमृतकुभ है ? उत्तर-[प्रतिक्रमरणं प्रतिसरणं परिहारः धारणा निवृत्तिः निदा गर्दा] अज्ञानोका व कियारतका प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा, गहीं [च शुद्धिः] और शुद्धि इस तरह [अष्टविधः] पाठ प्रकारका तो [विषकुम्भः] विषकभ [भवति है; [च] और ज्ञानीका व सहजस्वभावके अनुभवीका [अप्रतिक्रमणं प्रप्रतिसरणं अपरिहारः अधारणा] सहज अतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा [अनियुसिः Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृतिश्च । निदा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुंभः ।।३०६।। अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चव । अनिवृत्तिश्चानिदाऽगडिशुद्धिरमृतकुम्भः ॥३०॥ ___ यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्ध्यभावस्वभावत्येन स्वयमेवापराषत्वाद् विषकुम्भ एव किं तस्य विचारेण । यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराध. विषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृतकुम्भोऽपि प्रतिक्रमणाऽप्रतिक्रमणादिविलक्षणाप्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयकी भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्यकारित्वाद्विषकुम्भ एवं स्यात् । अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीय भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापरावविषदोषारणां सर्वकष. असोहि, अमयकभ। धातुसंज्ञ- पडि-क्कम पादविक्षेपे, पटि-सर गतौ, पडि-हर हरणे, नि इगती, निद निंदायां, गरह निन्दायां, सज्झ नर्मल्ये । प्रातिपदिक--प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, च, निन्दा, गो, सुद्धि, अष्टविध, विषकुम्भ, अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिन्दा, अगही, अशुद्धि, अमृतकुम्भ । मूलधातु-प्रति कम पाद विक्षेपे भ्वादि, प्रति स गतौ भ्वादि, होअनिदा अगाँ] अनिवृत्ति, अनिदा, अगहाँ [च एवं] और [अशुद्धिः] अशुद्धि यह आठ प्रकार का [अमृतकुम्भः] अमृतकुंभ है । तात्पर्य-विकल्परत रहना विषकुम्भ है, स्वभाव रहना अनुम्न है। टीकार्थ---वास्तव में अज्ञानी जनोंमें साधारणतया पाया जाने वाला जो अप्रतिक्रमणादि है वह शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाव वाला होनेके कारण स्वयमेव अपराधरूप होनेसे विषकुम्भ ही है; उसका विचार करनेका प्रयोजन ही क्या है ? क्योंकि वे तो प्रथम हो त्यागने योग्य हैं किन्तु जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमण प्रादि है वह समस्त अपराधविषदोषको हटाने में समर्थ होनेसे अमृतकुम होनेपर भी प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण प्रतिक्रमणादि रूप तीसरी भूमिकाको न देखने वाले पुरुषको वह द्रव्य-प्रतिक्रमणादि अपराध काटने रूप अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे विपक्ष अर्थात् बंध का कार्य करने वाला होनेसे विषकुम्भ ही है। परंतु अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होनेके कारण समस्त अपराधरूपी विषके दोषोंको सर्वथा नष्ट करने वालो होनेसे साक्षात् स्वयं अमृतकुम्भ है । और, इस प्रकार वह तीसरी भूमि व्यवहारसे द्रव्यप्रतिक्रमणादिके भी अमृतकुम्भपना साधती है। और उस तीसरी भूमिसे हो पात्मा निरपराध होता है। उस तीसरो भूमिके अभावमें द्रव्यप्रतिक्रमणादि अपराध ही है। इस कारण तीसरी भूमिसे ही निरपराधत्व है यह सिद्ध होता है । उसको प्राप्तिके लिये ही यह द्रव्यप्रतिक्रमणादि है । ऐसा होनेसे यह नहीं मानना कि निश्चयनयका शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिको छुड़ाता है। किन्तु मात्र द्रव्यप्रतिक्रमणादि द्वारा छुड़ा नहीं देता, इसके अतिरिक्त अन्य भी, प्रतिक्रमण-अप्रतिक्रमणादिसे प्रगोचर प्रप्रतिक्रम Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ समयंसार स्वात् साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि, अमृतकुंभत्वं साधयति ! तयैव च निरपराधो भवति चेतयिता । वदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्पराध एव । प्रतस्तृतीयभूमिकयव निरपराधत्वमित्यवतिष्ठते, तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रव्यप्रतिक्रमणादिः, ततो मेति मंस्था यत्प्रतिक्रमणादीन श्रुतिस्त्याजयति किंतु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न मुंचति अन्यदीयप्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि कारयति । वक्ष्यते त्यादि, परि-हत्र हरणे, धूत्र धारणे भ्वादि, नि-वृतु वरणे दिवादि, णिदि कुत्सायां भ्वादि, गई कुत्सायां भ्वादि, शुध शौचे दिवादि। पदविवरण- पडिकमण प्रतिक्रमणं पडिसरणं तिसरणं परिहारो परिहारः रणादि रूप, शुद्ध प्रात्माको सिद्धि जिसवा लक्षण है ऐसा अति पुष्कर कुछ करवाता है। भावार्थ-व्यवहारनयावलंबीने कहा था कि जब लगे हुए दोषोंवा प्रतिक्रमणादि करनेसे ही मात्मा शुद्ध होता है, तो शुद्धात्माके पालम्बनका श्रम करनेसे लाभ क्या ? उसका उत्तर यह है कि द्रव्यप्रतिक्रमणादि दोषके मेटने वाले हैं, परंतु शुद्ध अात्माके स्वरूपके पालम्बनके बिना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं वे दोषके मेटनेको समर्थ नहीं हैं; क्योंकि निश्चयसे युक्त ही व्यवहारमय गोत्रमार्ग में प्रोना है, केवल व्यवहारका पक्ष मोक्षमार्गमें नहीं है, वह तो बंधका ही मार्ग है । अतः सिद्ध है कि अज्ञानोके जो अप्रतिक्रमणादिक हैं वे विषकम ही हैं, उनकी तो कथा क्या ? परन्तु जो व्यवहारचारित्रमे प्रतिक्रमणादिक कहे हैं वे भी निश्चयनय से विषकुंभ ही हैं। क्योंकि आत्मा तो अतिक्रमण व प्रतिक्रमणादिकसे रहित सहज शुद्ध अतिक्रमणादि स्वरूप है। अब इसी कथनको काव्यमें कहते हैं--प्रतो हलाः इत्यादि । अर्थ-इस कथनसे सुख से बैठे हुए प्रमादी जीव ताडित हुए तथा निश्चयनये कान्ती जनोंको चपलता प्रलीन हुई । स्वच्छन्दी जीवोंके परद्रव्योंका पालम्बन दूर किया है । व्यवहारके पालम्बनसे जो चित्त अनेक प्रवृत्तियोंमें भ्रमण करता था उसे शुद्ध प्रात्मामें ही लगाया है जब तक कि सम्पूर्ण विज्ञानघन मात्माकी प्राप्ति न हो। भावार्थ-प्रतिक्रमणसंबंधी निश्चय व्यवहारकथनसे प्रमाद और चंचलता मिटाकर ज्ञानमग्न होने तक चित्तको आत्मामें स्थापित कराया गया है। यहां निश्चयन यसे प्रतिक्रमणादिकको विषकुम्भ कहा और अप्रतिक्रमणादिकको अमृतकुम्भ कहा, इस कथनसे कोई उल्टा समझकर प्रतिक्रमणादिको छोड़कर प्रमादी न हो जावे, प्रतः उसे इस कलशरूप काव्यमें समझाते हैं--यत्र इत्यादि । अयं-जहाँ प्रतिक्रमण ही विष कहा है वहाँ अप्रतिक्रमण कैसे अमृत हो सकता है ? इसलिये यह मनुष्य नोचे-नीचे गिरता हमा प्रमादरूप क्यों होता है ? निष्प्रमादी होकर ऊँचा-ऊँचा क्यों नहीं चढ़ता । भावार्थ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार ५२३ चाव---कम्मं जं पुवकयं सुहासुहमसोयवित्थरबिसेस । तत्तो रिणयत्तए अप्पयं तु जो सो पडिकम्मरणं । इत्यादि । अतो हताः प्रमादिगो ता. सुखासीत प्राम चापलमुन्नीलितमालबनं । प्रात्मन्येवालानितं चित्तमासंपूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः ॥१८८।। यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतनधोऽधः कि नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः ॥१८६ ।। प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभरगौरवादलसता धारणा णियत्ती निवृत्तिः जिंदा निन्दा गरहा गर्दा सोही शुद्धिः अविहो अष्टविधः विसकुंभो विषभःप्रथमा एकवचन । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुप एक । अप्पडिक्कमणं अप्रतिक्रमणं अप्पडिसरणं अज्ञानावस्था जो अप्रतिक्रमणादिक थे उनका तो कथा ही क्या ? वे तो विषकुम्भ है हो । यहाँ तो जो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक शुभप्रवृत्तिरूप थे, उनका एकांत पक्ष छुड़ाने को उन्हें विषकुम्भ कहा है, क्योंकि शुभप्रवृत्तियाँ कर्मबन्धको ही कारण हैं। अप्रतिक्रमण व प्रतिक्रमणसे रहित जो तीसरी भूमि शुद्ध प्रात्मस्वरूप है वह अमृतकृम्भ कहा गया है, उस भूमिमें चढ़नेको उपदेश किया है । प्रतिक्रमणादिकको विषकुम्भ सुनकर जो प्रमादी होता है उसको कहते हैं कि यह जन नीचे नीचे क्यों गिरता है तीसरी भूमिमें ऊँचा-ऊँचा क्यों नहीं चढ़ता ? अब इसी मर्थको दृढ़ करनेके लिये काव्य कहते हैं--प्रमाद इत्यादि । अर्थ-प्रमादयुक्त प्रालस्य भाव कसे शुद्ध भाव हो सकता है ? क्योंकि कषायके बोझके गौरवसे हितकार्यमें पालस्य होना हो तो प्रमाद है । इस कारण प्रात्मोकरससे भरे स्वभावमें निश्चल हुमा मुनि परम शुद्धताको प्राक्ष होता है और थोड़े समयमें ही कर्मबन्धसे छूट जाता है। भावार्थप्रमाद तो कषायको प्रचुरतासे होता है, इसलिये प्रमादोके शुद्धभाव नहीं होते । जो मुनि उद्यम करके स्वभावमें प्रवर्तता है वह शुद्ध होकर मोक्षको प्राप्त होता है। अब मुक्त होनेका अनुक्रम काव्य में कहते हैं-त्यक्त्वा इत्यादि । अर्थ---जो पुरुष निश्चयसे अशुद्धताके करने वाले सब परद्रव्योंको छोड़कर स्वयं अपने निजद्रव्यमें लीन होता है, वह पुरुष नियमसे सब अपराधोंसे रहित हुना बंधके नाशको प्राप्त होकर नित्य उदयरूप हुमा अपने स्वरूपके प्रकाशरूप ज्योतिसे निर्मल उछलता जो चैतन्यरूप अमृतका प्रवाह उससे जिसको महिमा पूर्ण है, ऐसा शुद्ध होता हुआ कर्मोंसे छूटता है । भावार्थ-मुमुक्षु पहले तो समस्त परद्रव्यका त्यागकर अपने प्रात्मस्वरूप में लीन होता है, सो सब रागादिक अपराधोंसे रहित होकर आगामी बंधका नाश करता है सो फिर नित्य उदयरूप केवलज्ञानको पाकर शूद्ध होकर समस्त कर्मों का नाशकर मोक्षको प्राप्त करता है। यही मोक्ष होनेको रोति है । इस तरह मोक्षकी विधि बताकर मोक्षाधिकार पूर्ण किया जा रहा है । Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार प्रमादो यत: । अतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन्मुनिः परमशुद्धता व्रजति मुच्यते चाचिरात् ।।१६।। त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तकिल परद्रव्यं सामग्रं स्वयं स्वे द्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराधच्युतः । बंधध्वंसमुपेत्यनित्यमुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छलच्चैतन्यामृतपूरपूर्णअप्रतिसरणं अपरिहारो अपरिहारः अधारणा अधारणा अणियत्ती अनिवृत्तिः अणिदा अनिन्दा अगरहा अब मोक्षाधिकारको पूर्ण करते समय मंगलरूपज्ञानको महिमा कलशरूप काव्यमें कहते हैं—बंध इत्यादि । अर्थ-कर्मके बंधके छेदनेसे अविनाशी प्रतुल मोक्षका अनुभव करता हुआ नित्य उद्योतसे विकसित स्वाभाविक अवस्था युक्त अत्यंत शुद्ध, अपने ज्ञानमात्र प्राकारके निजरसके भारसे प्रत्यंत गंभीर द धीर यह पूर्ण ज्ञान किसी प्रकार नहीं चले ऐसी अचल अपनी महिमामें लीन हुअा है। भावार्थ-कर्मका नाश करके मोक्षरूप हग्रा अपनी स्वाभाविक अवस्थारूप अत्यन्त शुद्ध समस्त ज्ञेयाकारको गौण कर निज ज्ञानका प्रकाश - जिसकी थाह नही व जिसमें प्राकुलता नहीं" ऐसा प्रकट देदीप्यमान होकर अपनी महिमा में लीन हृया हैं। इस प्रकार उपयोग रंगभूमिमें मोक्षसस्वका स्वांग प्राया था। सो जब सहज ज्ञानस्वरूपमें ज्ञान का ज्ञान प्रकट हुआ तब मोक्षका स्वांग निकल गया । प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गाथाद्वयमें शुद्धामाराधन को निरपराध बताया गया था। उस सम्बन्धमें यह जिज्ञासा हुई कि चरणानुयोगमें बताया गया कि प्रतिक्रमण प्रादि करनेसे दोष दूर होते हैं, प्रतिक्रमण करने बाला निरपराध हो जाता है, फिर शुद्धात्माराधना पर बल क्यों दिया जाता है इसका समाधान इन दो गाथावों में पाया है। तथ्यप्रकाश.-१-अप्रतिक्रमण दो प्रकारका होता है--(१) अज्ञानीजनमाधारण अप्रतिक्रमण, (२) प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणादिविलक्षण अप्रतिक्रमण । २- प्रतिक्रमण विधिनिषेध सम्बन्धित तीन भूमिकायें है---(१) अज्ञानियोंका अप्रतिक्रमण, (२) द्रव्यरूप प्रतिक्रमण, (8) ज्ञानियोंका अतिक्रमण । ३- द्रव्यरूप प्रतिक्रमणके कुछ अनन्तिर ये है--सरागचारित्ररूप शुभोपयोग. व्यवहारप्रतिकमरा ! ४-ज्ञानिजनाश्रित प्रप्रतिक्रमएके कुछ अनर्थान्तर ये हैं-- परमोपेक्षारूप संयम, निर्विकल्पसमाधि, निश्चयप्रतिक्रमण, शुभाशुभास्रवदोषनिराकरण, वीतरागचारित्र, सम्यक् त्रिगुप्तिरूप रत्नत्रय, निर्विकल्प शुद्धोपयोग । ५- प्रज्ञानियोंका अतिक्रमण सर्वथा विषकुम्भ है । ६- अज्ञानियोंका अप्रतिक्रमण मिथ्यात्वविषयकपायपरिणतिरूप है अत: वह नरकादि दुःखोंका कारणभूत है । ७- द्रव्यरूपप्रतिक्रमण लगे हुए दोषोंके निराकरणके लिये है, अतः अमृतकुम्भ है तथापि तृतीयभूमिकाको न देखने गले Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्षाधिकार ५२५ महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ।। १६१।। बंधच्छेदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतन् नित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकांतशुद्धं । एकाकारस्वरसभरतोऽत्यंतगंभीरधोरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ।। १६२॥ इति मोक्षो निकांत: । इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्याती मोक्षप्ररूपक: अष्टमोऽङ्कः ।। ८ ।। अगर्दा सोही शुद्धिः अमयकुभो अमृतकुंभ:-प्रथमा एकवचन ।। ३०६-३०७॥ पुरुषोंको बन्धकारी होनेसे विषकुम्भ है । ५- तृतीयभूमिका अर्थात् निश्चयप्रतिक्रमरणरूप वोतराग अप्रतिक्रमण स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूप होने से सर्वदोषों को समूल नष्ट करता है प्रतः यह जानिज नाश्रित अप्रतिक्रमण साक्षात् अमृतकम्भ है । - ज्ञानिजनाधित अप्रतिक्रमणका संबंध हो तो द्रव्यप्रतिक्रमण भी अमृतकुम्भ कहलाता है। १०- वास्तवमें प्रात्मा ज्ञानिजनानित अप्रतिक्रमणरूप तृतीय भूमिका द्वारा ही निरपराध होता है । ११-- तृतीय भूमिकाके अर्थात् निश्चयप्रतिक्रमणके प्रभावमें द्रव्यप्रतिक्रमण भी अपराध ही है । १२- द्रव्यप्रतिक्रमण तृतीयभुमिकाके लिये अर्थात् निर्विकल्प समाधि के लिये ही किया जाता है । १३- चरणानुयोगमें द्रव्यप्रतिक्रमणको अमृतकुम्भ कहा है वह एक विधानकी दृष्टि से युक्त है, किन्तु निश्चयप्रतिक्रमणके बिना मात्र द्रव्यप्रतिक्रमणसे मुक्ति नहीं है यह तथ्य भी माथ-साथ जानना । १४प्रतिक्रमण अप्रतिक्रमणका अगोचर अप्रतिक्रमणरूप शुद्धात्मसिद्धिलक्षण निश्चयप्रतिक्रमण हो अलौकिक सिद्धि प्रदान करता है। १५-- उक्त १४ बातें प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गहीं ब शुद्धिके विषयमें भी घटित करना । सिद्धान्त-१-- ज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण शुद्धात्मतत्वकी परम अभेद प्राराधना है। २- अज्ञानिजनाश्रित अप्रतिक्रमण विकारोंमें अभेदबुद्धिरूप है । दृष्टि---१- शुद्धनय (४६)।२- अशुद्धनिश्चयन य (४७)। प्रयोग- प्रज्ञानिजनाश्रित प्रप्रतिक्रमणको सर्वथा छोड़कर सरागचारित्रसे गुजर कर प्रतिक्रमणादि करते हुए निश्चयप्रतिक्रमणमें बिहार कर प्रतिक्रमण प्रप्रतिक्रमण प्रादि सर्व विकल्पोंके अगोचर परमोक्षासंयममें रहनेका पौरुष करना ।। ३०६-३०७ ।। इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसार व उसकी श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचित समयसारव्याख्या प्रात्मख्यातिकी सहजानन्दसप्तदशाङ्गी टीकामें मोक्षप्ररूपक पाठवां अंक समाप्त हुआ। Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ समयसार अथ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकारः अथ प्रविशति सर्वविशुद्धं ज्ञानम् । नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान् कर्तृभोक्त्रादिभावान् दूरीभूतः प्रतिपदमयं बंधमोक्षप्रक्लृप्तेः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्ण पुण्याचलाचिष्टकोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुञ्जः ॥ १६३ ॥ कर्तृत्वं न स्वभावस्य वित्तो वेदयितृत्वस् । श्रज्ञानादेव कर्ता तदभावादकारकः || १६४ ।। अथात्मनोऽकर्तृत्वं दृष्टांत पुरस्सर मारूपालि नामसंज्ञ - दविय, ज, गुण, त, त, अणण्ण, जह, कडयादि, दु, पज्जय, कणय, अणण्ण, इह, जीव, अजीब, दु, ज, परिणाम, दु, देसिय, सुत्त, त, जीव, अजीव, वा, त, अणण्ण, ण, कुदोचि, वि, उप्पण, ज, यहाँ मोक्ष का भी स्वाङ्ग निकलनेके पश्चात् सर्वविशुद्धज्ञान प्रवेश करता है । रङ्गभूमिमें जीवाजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य-पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध प्रोर मोक्ष-ये आठ स्वाङ्ग प्राये थे उनका नृत्य हुआ । त्रे भाठों विकल्प अपना-अपना स्वरूप दिखाकर निकल गये । गब सब स्वाङोंके दूर होनेपर एकाकार सर्वविशुद्ध ज्ञान प्रवेश करता है । यहाँ प्रथम हो मंगलरूप ज्ञानपुञ्ज आत्माको महिमा बतलाते हैं-- नीत्वा इत्यादि । अर्थ-- समस्त कर्ता भोक्ता श्रादि भावोंको सम्यक् प्रकारसे नाशको प्राप्त कराके पद-पदपर अर्थात् कर्मोंके क्षयोपशम के निमित्तसे होने वाली प्रत्येक पर्याय में बन्धमोक्षकी रचनासे दूर वर्तता हुधा, शुद्ध शुद्ध अर्थात् रागादिमूल तथा प्रावरणसे रहित विस्तारसे परिपूर्ण तथा टंकोकीवत् प्रकट महिमा वाला ज्ञानपुञ्ज प्रात्मा प्रगट होता है । भावार्थ- शुद्धनका विषय सहज ज्ञानस्वरूप श्रात्मा है वह कर्ता-भोक्तापने के भावोंसे रहित है, बन्धमोक्षकी रचनासे रहित है, परद्रव्योंसे और सब परद्रव्यों के भावोंसे रहित होनेके कारण शुद्ध हैं और अपने निजरसके प्रवाहसे पूर्ण देदीप्यमान ज्योतिस्वरूप टंकोत्कोशवत् श्रचल है, ऐसा ज्ञानपुञ्ज प्रात्मा प्रगट होता है । अब सर्व विशुद्ध ज्ञार्मको बतलाने के प्रारम्भ में प्रथम ही सहज ज्ञानब्रह्मको कर्ता भोक्ता भावसे भिन्न दिखलाते हैं - कर्तृत्वं इत्यादि । अर्थ-- इस चित्स्वरूप श्रात्माका जिस प्रकार भोक्तापना स्वभाव नहीं है, उसी तरह कर्तापना भी स्वभाव नहीं है । यह आत्मा प्रज्ञानसे ही कर्ता माना जाता है, सो अज्ञानका प्रभाव होनेपर वह कर्ता नहीं है । Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार दवियं जं उप्पज्जइ गुगाहि तं तेहिं जासु श्राणां । जह कडयादीहिंद पज्जपहिं कण्यं यमिह ॥२०८ ॥ जीवस्साजीवस्स दु जे परिणामा दु देसिया सुत्ते । तं जीवमजीवं वा तेहिमाणं वियाणाहि ॥ ३०६ ॥ दोचिव उप्पो जह्मा कज्जं या तेण सो यदा । उप्पादेदि किंचिवि कारणमवि तेण ण स होइ ||३१०॥ कम्मं पडुच्च कत्ता कत्तारं तह पडुच्च कम्माणि । उप्पंजंतिय यिमा सिद्धी दु ण दीसए अण्णा ॥ ३११॥ (चतुष्कम् ) जो द्रव्य जिन गुणोंमें, परिणमता वह श्रनन्य उनसे । त्यों कटकादि दशावों से अनन्य है सुवर्ण यहां ||३०८|| जीव व अजीवको जो, परिपतियां हैं बताइ ग्रन्थों में । उनसे अन्य जानो, उस जीव प्रजीव बस्तुको ॥ ३०६ ॥ नहि उत्पन्न किसीसे, इस कारण कार्य है नहीं श्रात्मा । उत्पन्न नहीं करता, परको इससे न कारण वह ॥ ३१० ॥ कर्मोंको प्रश्रय कर, कर्ता कर्ताको कर्म आश्रय कर ५२७ होते उत्पन्न यहां, जानो नहिं अन्यथा सिद्धी ||३११॥ कज्ज, ग. त, त, अत्त, ण, किंचि, वि. कारण, अवि, ण, त, कम्म, कतार, दु ण, अण्णा । घातुसंज्ञ पज्ज गती, जाण अवबोधने, हो सत्तायां, पडि इ विक द्रव्य, यत्, गुण, तत् तत् अन्यत्, यथा, कटकादि तु पर्याय, कनक, तह, कम्भ, य, नियम, सिद्धि, गती दिस प्रेक्षणे । प्रातिपअनन्यत्, इह, जीव, अजीव, अब आत्माका अकर्तापन दृष्टान्तपूर्वक प्रसिद्ध करते हैं - [ यत् ब्रव्यं] जो द्रव्य [गुः ] जिन गुणोंसे [ उत्पद्यते ] उपजता है [ तत् ] वह [तः] उन गुणोंसे [ अनन्यत् ] अनन्य [जानीहि ] जानो, [ यथा] जैसे [ह] लोक में [ कनकं ] सुवर्ण [ कटकादिभिः ] अपने कटक कड़े आदि [पर्याय: ] पर्यायोंसे [ अनन्यत् तु] अनन्य है याने कटकादि है वह सुवर्ण ही है । उसी तरह [जीवाजीवस्य तु ] जीव और अजीव [ ये परिणामाः तु] जो परिणाम [ सूत्रे दशिताः ] सूत्र में कहे हैं [तः] उन परिणामोंसे [तं जीवं प्रजीवं वा ] उस जीव प्रजीवको [अन्य] अनन्य [विजानाहि] जानो याने जो परिणाम हैं वे द्रव्य ही हैं। [यस्मात् ] जिस कारण [ स श्रात्मा ] Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ समयसार द्रव्यं यदुत्पद्यते गुणस्तत्तैर्जानीानन्यत् । यथा कटकादिभिस्तु पर्यायः कनकमनन्यदिह ॥३०८|| जीवस्याजीवस्य तु ये परिणामास्तु दशिताः सूत्रे । तं जीवमजीवं वा तैरनन्यं बिजानीहि ।।३०६।। न कुतश्चिदप्युत्पन्नो यस्मात्कार्य न तेन स आत्मा। उत्पादयति न किंचित्कारणमपि तेन न स भवति ।। कर्म प्रतीत्य कर्ता कतार तथा प्रतीत्य कर्माणि । उत्पद्यते च नियमात्सिद्धिस्तु न दृश्यतेऽन्या ।।३११॥ जोवो हि तावत्क्रमनियमितात्मपरिणामरुत्पद्यमानो जीव एव नाजीवः, एवमजीवोऽपि क्रमनियमितात्मपरिणामरुत्पद्यमानोऽजीव एव न जीवः, सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामः सह तादात्म्यात् कंकणादिपरिणाम: कांचनवत् । एवं हि जीवस्य स्वपरिणामरुत्पद्यमानस्याप्यजीवेन सह तु, यत, परिणाम, तु, दर्शित, सूत्र, तत्, जीब, अजीब, वा, तत्, अन्य, न, कुतश्चित्, अपि, उपपन्न, यत्, कार्य, न, तत्, तत्, आत्मन्, न, किचित्, कारण, अपि, तत्, न, तत्, कर्मन्, कर्तृ, तथा, कर्मन्, च, नियम, वह प्रात्मा [कुतश्चिदपि] किसीसे भी [न उत्पन्नः] उत्पन्न नहीं हुप्रा है [तेन] इस कारण वह [कार्य] किसीका कार्य [न भवति] नहीं है और [किंचिदपि] किसी अन्यको भी [न उत्पादयति] उत्पन्न नहीं करता [तेन] इस कारण [स:] वह [कारणमपि] किसोका कारण भो [न] नहीं है । [नियमात्] नियमसे [कर्म प्रतीत्य] कर्मको आश्रय करके ही तो [कर्ता] कर्ता होता है [तथा च] और [कर्तारं प्रतीत्य] कर्ताको आश्रय करके [कर्माणि] कर्म [उत्पद्यते] उत्पन्न होते हैं [अन्या तु सिद्धिः] अन्य प्रकार कर्ता-कर्मको सिद्धि [न दृश्यते] नहीं देखी जाती। तात्पर्य-वास्तवमें कर्ता-कर्म भिन्न-भिन्न द्रव्यमें नहीं होते, इस कारण जीव किसी अन्यका न तो कर्ता है और न किसी अन्यका कार्य है। . टोकार्थ - जीव प्रथम तो क्रमनियमित अपने परिणामोंसे उत्पन्न हुअा अजीव हो है जीव नहीं है, क्योंकि सभी द्रव्योंका अपने परिणामोंके साथ तादात्म्य है, जैसे कंकरणादि परि. णामोसे सुवणं उत्पन्न होता है वह कंकणादिसे अन्य नहीं है उनसे तादात्म्यस्वरूप है उसो तरह सब द्रव्य हैं। इस प्रकार अपने परिणामोंसे उत्पन्न हुए जीवका अजीवके साथ कार्य कारणभाव सिद्ध नहीं होता; क्योंकि सब द्रव्योंका अन्य द्रव्यके साथ उत्पाद्य-उत्पादक भावका प्रभाव है । और उस कार्यकारणभावकों सिद्धि न होनेपर अजीवके जीवकर्मत्व सिद्ध नहीं होता और अजीवके जीवकर्मत्व सिद्ध न होने परसे कर्ता-कर्मके अनन्यापेक्ष सिद्ध होनेसे जीव के अजीत्रका कर्तापना सिद्ध नहीं होता। इस कारण जीव परद्रव्यका अकर्ता ही ठहरता है । भावार्थ-सब द्रव्योंके परिणाम पृथक्-पृथक् हैं। अपने-अपने परिणामोंके सब कर्ता हैं। प्रत्येक पदार्थ स्वयं अपने परिणामोंके कर्ता हैं वे परिणाम उनके कर्म हैं। निश्चयतः किसी का किसीसे भी कर्ताकर्मसम्बन्ध नहीं है, इस कारण जोब अपने परिणामोंका कर्ता है जीवके Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविशुशानाधिकार ५२६ कार्यकारण भावो न सिद्धधति, सर्वद्रव्याणां द्रव्यांतरेण सहोत्पाद्योत्पादकभावाभावात् । तदसिद्धौ घाजीवस्य जीवकर्मत्वं न सिद्धयति । तदसिद्धी च कर्तृकर्मणोरनन्यापेक्षसिद्धत्वात् जोवस्याजीवकर्तृत्वं न सिद्धति, प्रतो जीवोऽकर्ता प्रतिष्ठते । अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति सिद्धि, तु, न, अन्या । मूलधातु--उत् पद गती, झा अवबोधने, भू सत्तायां, प्रति इण् गती, इशिर् प्रेक्षणे । प्रदविवरण--दवियं द्रव्यं-प्रथमा एकवचन। दुतु-अव्यय । पजहि पर्याय:-तृतीया बहुवचन 1 कणयं कनक-प्रथमा एक० । अणण्णं अनन्य-प्रथमा एक० । इह-अव्यय । जीवस्स जीवस्य अजीवस्स अजीवस्यषष्ठी एक० । दुतु-अव्यय 1 जे ये परिणामा परिणामा:-प्रथमा बहु० । देसिया देशिता:-प्रथमा बहु० । सुत्ते सूत्रे-सप्तमी एक० । तं जीवं अजी-द्वितीया एक । तेहि तै:-तृ० बह । अणणं अनन्यं-द्वितीया एक० । वियाणाहि विजानीहि-आशार्थे लोट् मध्यम पुरुष एकवचन । ण न-अव्यय । कुदोचि कदाचित्अध्यय । वि अपि ण न ण न ण न य च दु तु ण न-अध्यय । उपपणी उत्पन्न:-प्रथमा एक० । जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । कज्ज कार्य-प्रथमा एकवचन। तेण तेन-त० एक० । आदा आत्मा-प्र० एक० । उप्पादेदि उत्पादयति-वर्तमान लट् प्रथम पुरुष एकवचन णिजन्त क्रिया। किंचि किंचित-अव्यय । कारणंपरिणाम हो जीवके कर्म हैं। इसी तरह अजीव अपने परिणामोंका कर्ता है उसके परिणाम उसके कर्म हैं । इस प्रकार जीव अन्यके परिणामोंका अकर्ता है। अब इस प्रर्थके कलशल्प काव्यमें जीय प्रकर्ता है तो भी इसके बंध होता है यह प्रशानकी महिमा है ऐसा कहते हैं-प्रकर्ता इत्यादि । अर्थ--इस तरह अपने निज रससे विशुद्ध और स्फुरायमान चेतन्यज्योतिसे . व्याप्त हुया है लोकका मध्य जिसके द्वारा ऐसा यह जीव अकर्ता स्थित है तो भी इसके इस लोकमें प्रकट कर्म प्रकृतियोंसे बंध होता है, सो यह निश्चयत: प्रज्ञानकी ही कोई महम महिमा है। भावार्थ-जिसका ज्ञान सब ज्ञेयोंमें व्यापने वाला है ऐसा यह जीव शुद्धनयसे प्रकर्ता ही है तो भी इसके कर्मका बंध होता है यह कोई अज्ञानकी बड़ी करतूत है । प्रसंगविवरण--"भूयत्थेणाभिगया" इत्यादि अधिकार माथामें कथित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पासव, संघर, निर्जरा, बंध, मोक्ष इन नव पदार्थोका वर्णन किया जा चुका । अब अन्तमें समयसारके लक्ष्यभूत सर्वविशुद्ध शानका वर्णन करनेके लिये सर्वविशुद्धज्ञाना. धिकार नामका मंतिम अधिकार पाया है। इसमें सर्वप्रथम दृष्टान्तपूर्वक प्रात्माका कर्तृत्व प्रकट किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने परिणामोंसे (पर्यायोंरूपसे) उत्पद्यमान होता रहता है। २- परिणाम दो प्रकारके होते हैं---(१) सहनियमित परिणाम, (२) क्रम. नियमित परिणाम । ३-सहनियमित परिणाम गुणोंको याने शक्तियोंको कहते हैं, क्योंकि अनंत Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० समयसार विशुद्धः स्वरसतः स्फुरच्चिज्ज्योतिभिश्छुरितभुवनाभोगभवनः । तथाप्यस्यासो स्याद्यदिह किल बंधः प्रकृतिभिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोपि गहनः ।।१६५ ॥ ३०८-३११ ।। प्रथमा एक । तेण तेन-तृतीया एक । स स:-प्र० एक० । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । कम्म कर्म-द्वि० एकः । पडुच्च प्रतीत्य-असमाप्तिको क्रिया। कत्ता कर्ता-प्रथमा एक० । कत्तार कारंद्वि० एक० । कम्माणि कर्माणि-द्वि० बहुः । उप्पज्जंति उत्पद्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । णियमा नियमात--पंचमी एक० । सिद्धी सिद्धिः-प्र० एक० । दीसए दृश्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकल क्रिया । अण्णा अन्या-प्रथमा एकवचन ।। ३०५-३११ ।। गुण सब एक ही समयमें हैं। ४- क्रमनियमित परिणाम पर्यायोंको कहते हैं, क्योंकि पर्याय सब एक साथ नहीं रहते, किन्तु एक-एक समयमें पदार्थका एक-एक ही परिणमन होता है । ५- सर्व द्रव्योंकी एक-एक पर्याय रहने से एक समय में अनन्त पर्यायका होना कहना गुणदृष्टिके प्राश्रित कथन है । ६- कोई भी पदार्थ किसी दूसरे पदार्थको पर्यायोंसे उत्पन्न नहीं होता। ७.- जीव अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता हुमा जीव ही तो है । ८- अजीब (प्रकृतमें कर्म) अपनी पर्यायोंसे उत्पन्न होता हुआ अजीव ही तो है । - अपनो पर्यायोंसे ही उत्पद्यमान जीवका अजीव न तो कार्य है और न कारण है । १०- अपनी पर्यायोंसे ही उत्पद्यमान अजीव (प्रकृतमें कर्म) का जीव न कार्य है, न कारण है । ११- जीवके विकारभावका निमित्त पाकर कार्मारणवर्गणा पने पनिसायदो कर्मरूप हो जाती हैं । १२- कर्मके उदयादिका निमित्त पाकर जीव अपने परिणमन विकार विचार प्रादिरूप परिणम जाता है । १३-निमित्तमितिक भावके कारण लोक जीवको कर्मका कर्ता कह देते हैं। १४- निमित्तनैमित्तिक भावके कारण लोक कर्मको जीवके विकल्प विचार प्रादिका कर्ता कह देते हैं । १५-- जीवके गुण, पर्याय जीवसे अभिन्न हैं । १६- अजीवकी गुण, पर्याय अजीवसे भिन्न हैं। सिद्धान्त---१- जोवके विकल्प विचार प्रादि जीवसे अभिन्न हैं। २- अजीवके द्वारा जीबका गुण पर्याय अादि कुछ भी नहीं हो सकता । ३-- जीव कर्म प्रादि समस्त परभावका प्रकर्ता है 1 ४- सभी पदार्थ अपने-अपने परिणामके ही कर्ता होते हैं । ५- उपचारसे जीवको कर्मका कर्ता कहा जाता है । ६- उपचारसे ही कर्मको जीवके रागादिविकारका कर्ता कहा जाता है ।७- उपचारसे ही कर्मको जीवके रागादिविकारका कर्ता कहा जाता है । दृष्टि-१- सभेद अशुद्ध निश्चयनय (४७) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकनय । (२६) । ३- प्रतिषेधका शुद्धनय (४६ अ)। ४-- उपादानदृष्टि (४६ब) । ५, ६, ७- परकर्तृत्व अनुपचारित पर भूतव्यवहार । प्रयोग- अपने अपराधसे अपना विकारपरिणमन होना जानकर नैमित्तिक मोह Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धानाधिकार चेया उपयडीयट उप्पज्जइ विणस्सह । पडीवि चेयय उप्पज्जह विवरसह ॥ ३९२ ॥ एवं बंधो उदण्प अण्णोष्णुप्पच्चया हवे | पण पयडीए य संसारो तेण जायए ||३१३ || ( युग्मम् ) आत्मा प्रकृतिके निर्मित, उपजता विनशता तथा । प्रकृति भी जीवके निमित, उपजती विनशती तथा ॥ ३१२॥ होता यों बन्ध दोनोंका, परस्परके 'निमित्तसे । ५३१ श्रात्मा तथा प्रकृतिके, होता भव इस बच्वसे ॥३१३॥ चेतयिता तु प्रकृत्यर्थमुत्पद्यते । विनश्यति प्रकृतिरपि चेतकार्थमुत्पद्यते विनश्यति ।। ३१२ ॥ एवं बंधस्तु द्वयोरपि अन्योन्यप्रत्ययाद्भवेत् । आत्मनः प्रकृतेश्च संसारस्तेन जायते ।। ३१३ ।। अयं हि संसारत एवं प्रतिनियतस्वलक्षणानिर्ज्ञानेन परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य कर कर्ता सन् चेतयिता प्रकृतिनिमित्तमुत्पादविनाशावासादयति । प्रकृतिरपि चेतयितृनिमित्त नामसंज्ञ - चेया, उ, पर्याडियट्ठे, पर्याड, वि, चेययठ्ठे, एवं, बन्ध, उ, दु, पि, अणण्णोणपच्चय, अप्प, पर्याड, य, संसार, त । धातुसंज्ञ उब पज्ज गती, वि नस्स नाशे, हव सत्तायां, जा प्रादुर्भाव । प्रातिपदिक चेतयितृ, तु, प्रकृत्यर्थ, प्रकृति, अपि चेतकार्य, एवं बंध, तु, द्वि, अपि, अन्योन्यप्रत्यय, आत्मन् प्रकृति, च, संसार, तत् । मूलघातु-उत् पद गतो, वि णस अदर्शने दिवादि, भू सत्तायां, जनो रागादि अपराधको अन्तर्दृष्टिके बलसे दूर करना और सर्वविशुद्ध ज्ञानभाव में प्रापा अनुभ वना ॥ ३०८-३११ ।। अब इस प्रज्ञानको महिमाको प्रकट करते हैं: - [ चेतयिता तु] चेतयिता श्रात्मा तो [ प्रकृत्यर्थं ] ज्ञानावरणादि कर्मको प्रकृतियोंके निमित्तसे [ उत्पद्यते ] उत्पन्न होता है [ विनश्यति ] तथा विनाशको प्राप्त होता है और [ प्रकृतिरपि ] प्रकृति भी [ चेतकार्थं] चेतक आत्मा के लिये [उत्पद्यते ] उत्पन्न होती है [विनश्यति ] तथा विनाशको प्राप्त होती है । [ एवं ] इस तरह [आत्मनः च प्रकृतेः ] श्रात्मा और प्रकृति [ द्वयोः ] दोनोंके [ अन्योन्यप्रत्ययात् ] परस्पर निमित्तसे [बंध: ] बंध होता है [ च तेन ] और उस बंधसे [ संसारः जायते ] संसार उत्पन्न होता है । तात्पर्य - जीव और जीवकर्म में परस्पर कर्ता कर्मभाव तो नहीं है, किन्तु दोनों के विकारपरिणमन में वे दोनों परस्पर एक दूसरेके निमित्तभूत हैं। टोकार्थ - यह आत्मा अनादि संसारसे ही अपने और बंधके पृथक्-पृथक् लक्षणका Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ समयसार मुत्पत्तिविनाशावासादयति च एवमनयोरात्मप्रकृत्योः कर्तृ कर्म भावाभावेप्यन्योन्यनिमित्तनैमित्तिकभावेन द्वयोरपि बंधो दृष्टः, ततः संसारः तत एव च तयोः कर्तृकर्मव्यवहारः ।। ३१२-३१३॥ प्रादुर्भावि । पदविवरण - चेया चेतयिता- प्रथमा एक० । उ तु एवं पथडीयट्ठ प्रकृत्यर्थं चेयय चेतकार्थं पि अपि य च - अव्यय । उप्पज्जइ उत्पद्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । विणस्स विदश्यते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एवं अव्यय । बंधो बन्धः-प्र० एक० । दुण्हं षष्ठी बहु० । द्वयोः षष्ठी द्विवचन । अष्णोष्ण पच्चया अन्योन्यप्रत्ययात् पंचमी एक० । वे भवेत् विधिलिङ अन्य पुरुष एकवचन । अप्पणो आत्मनः षष्ठी ए० । पयडीए प्रकृतेः षष्ठी एक० । संसारो संसार - प्र० एक० । तेण तेन तृ० एक० । जाए जायते वर्तमान जद् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ३१२-३१३ ।। भेदज्ञान न होनेसे पर और आत्माके एकपनेका प्रध्यास करनेसे परद्रव्यका कर्ता होता हुआ ज्ञानावरण आदि कर्मकी प्रकृतिके निमित्तसे उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होता है । और प्रकृति भी आत्मा निमित्तसे उत्पत्ति और विनाशको प्राप्त होती है याने श्रात्म के परिणाम के अनुसार परिणमती हैं । इस तरह श्रात्मा और प्रकृति इन दोनोंके परमार्थसे कर्ता कर्मपनेके भावका प्रभाव होनेपर भी परस्पर निमित्तनैमित्तिक भावसे दोनोंके हो बंध देखा जाता है . उस बंध से संसार होता है, और उसीसे दोनोंके कर्ता-कर्मका व्यवहार चलता है । भावार्थश्रात्मा और प्रकृतिके परमार्थसे कर्ता कम्पनेका प्रभाव है तो भी परस्पर निमित्तनैमित्तिक भाव से कर्ता-कर्म भाव है इससे हो बन्ध है मोर बंधसे हो संसार है । प्रसंगविवरण – अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें जीवको प्रकर्ता बताते हुए यह संकेत किया गया है कि वास्तव में प्रकर्ता होनेपर भी जीवका प्रकृतियोंके साथ जो बन्ध होता है वह अज्ञान की ही लोला है । अब इन दो छन्दोंमें उसी प्रज्ञानलीलाका दिग्दर्शन कराया गया है । तथ्यप्रकाश--- ( १ ) अन्य अन्य द्रव्य होनेके कारण आत्मा और प्रकृतिमें कर्तृ कर्मभाव बिल्कुल नहीं है । ( २ ) ग्रात्मा और प्रकृति में कर्तृकर्मत्व न होनेपर भी उनका बन्ध मात्र निमित्तनैमित्तिक भावसे होता है । (३) निमित्तनैमित्तिक भावके कारण जीव प्रौर प्रकृति में कर्तृत्व व्यवहार कर लिया जाता है । (४) जीवके विकाररूप नैमित्तिक भाव होनेका मूल कारण आत्मभाव व कर्मभाव में एकत्वबुद्धि है । (५) जीवककत्वबुद्धिका कारण प्रतिनियत स्वलक्षणका प्रज्ञान है । ( ६ ) जीव प्रकृतिके निमित्तसे अपना उत्पाद विनाश करता है । (७) प्रकृति जीवके निमित्तसे अपना उत्पाद विनाश करता है । (८) प्रथवा जीव प्रकृतिके लिये याने प्रकृतिबंधादि होनेके लिये उत्पाद विनाश करता है अर्थात् विभावरूप परिणमता है । ( ६ ) प्रकृति जीवके लिये याने साता प्रसाता रागद्वेष आदि होनेके लिये अपना उत्पाद विनाश करता है अर्थात् उदय उदीरणा निर्जरादि करता है । (१०) आत्मा मोर प्रकृतिके Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार जा एसो पयडीयट्ट चेया णेव विमुचए। अयाणयो हवे ताव मिच्छादिही असंजो ॥३१४॥ जया विमुञ्चए चेया कम्मप्फलमणंतयं । तया विमुत्तो हवइ जागानो पासो मुणी ॥३१५॥ प्राकृतिक इन तंत्रोंको, जब तक जोव न छोड़ता। प्रजानी बना तब तक, मिथ्यादृष्टी असंयमी ॥३१४॥ जब छोड़ देता पात्मा, अनन्त सब कर्मफल । तब निर्बन्ध हो होता, ज्ञायक दर्शक व संयमी ॥३१५।। यावदेष प्रकृत्यर्थ चेतयिता नव विमुंचति । अज्ञायको भवेत्तान्मिथ्याष्टिरसंयतः ॥ ३१४ 11 यदा विमुचति चेतयिता कर्मफलमनंतक । तदा विमुक्तो भवति ज्ञायको दर्शको मुनिः ।। ३१५ ।। यावदयं चेतयिता प्रतिनियतस्वलक्षणानिनिात प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं न मुञ्चति तावत्स्वपरयोरेकत्वज्ञानेनाज्ञायकों भवति । स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन मिथ्यादृष्टिभवति । नामसंज्ञा , एत, पयडीयठें, चेया, ण, एव, अयाण, ताव मिच्छाइट्टि, असंजअ, जया, चेया, कम्मप्फल, अणतय, तया, विमुत्त, जाणअ, पासअ, मुणि । धातुसंस--वि-मुंच त्यागे, हब सत्तायां । प्रातिबंधनसे संसार देखा जाता है । (११) इसी बंध और संसार होनेके कारण जीव और प्रकृति के कर्तृकर्मत्वका व्यवहार होता है । (१२) निश्चयसे जीव और प्रकृतिमें कर्तृकर्मत्व नहीं है। सिद्धान्त--{१) कर्मोदयविपाकके सान्निध्यमें जीव विकाररूप परिणमता है । (२) जीवके विकारभावके निमित्तसे कर्मबन्ध होता है। दृष्टि--१- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४) । २- निमित्तदृष्टि (५३५)। प्रयोग--भेदविज्ञान के प्रभावसे यह सब कर्मबन्धन व संसारसंकट हो रहा है यह जानकर प्रात्मस्वभाव और कर्मस्वभावके लक्षणका यथार्थ परिचय प्राप्त करना ।।३१२-३१३।। अब कहते हैं कि जब तक प्रात्मा प्रकृतिके सिमित्तसे उपजना विनशना न छोड़े तब तक वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि असंयत है.---[एष चेतयिता] यह प्रात्मा [यावत् जब तक [प्रकृत्यथं] प्रकृति के निमित्तसे उपजना विनशना [नव विमुशति] नहीं छोड़ता [तायत्] तब तक [अज्ञायकः] अज्ञानी, [मिथ्यादृष्टिः] मिथ्यादृष्टि, [असंयतः] असंयमी [भयेत्] है । [यवा] पौर जब [चेतयिता] प्रात्मा [अनंतक] अनन्त [कर्भफल] कर्मफलको [विमुञ्चति] छोड़ देता है [तवा] उस समय [विमुक्तः] बन्धसे रहित, [जायकः दर्शकः] ज्ञाता, द्रष्टा [मुनिः Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार स्वपरयोरेकत्वपरिणत्या चासंयतो भवति । तावदेव परात्मनोरेकत्वाध्यासस्य करणातकर्ता भवति । यदा स्वयमेव प्रतिनियतस्वलक्षणनिर्ज्ञानात् प्रकृतिस्वभावमात्मनो बंधनिमित्तं मुञ्चति तदा स्वपरयोविभागज्ञानेन ज्ञायको भवति । स्वपरयोविभागदर्शनेन दर्शको भवति । स्वपरयो. पदिक. यावत्, एतत्, प्रकृत्यर्थ, चेतायत, एव, अज्ञायक, तावत्, मिथ्याष्टि, असंयत, यदा, चेतयित, कर्मफल, अनन्तक, तदा, विमुक्त, ज्ञायक, दर्शक, मुनि ! मुलात-- दि मुल्ल मोक्षरणे, भू सत्तायां । पदविवरण--जा यावत् ण न एव ताव तावत् जया जदा तया तदा-अव्यय । एस एषः-प्रथमा एक० । पयडीयट्ट प्रकृत्यर्थ-अव्यय । चेया चेतयिता-प्र० ए० । विमुंचए विमुंचत्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । भवति संयमी है। तात्पर्य-जब तक यह जीव कर्मफलमें एनत्वबुद्धिको नहीं छोड़ता है तब तक यह जीव अपने मिथ्या अध्याससे अज्ञानी है व कर्ता-भोक्ता है। टोकार्थ-जब तक यह प्रात्मा अपने और प्रकृतिके पृथक-पृथक प्रतिनियत स्वभावरूप लक्षाके भेदज्ञान के प्रभावसे अपने बन्धको निमित्तभूत प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता, तब तक अपने और परके एकपनेके ज्ञानसे अज्ञायक होता है, अपने परके एकपनेके दर्शन (श्रद्धान) से मिथ्यादृष्टि होता है, अपनी परके एकपनेको परिणतिसे असंयत होता है, और तभी तक पर और यात्माके एकपनेका अध्यास करनेसे कर्ता होता है । परन्तु जिस काल यही आत्मा अपने और प्रकृतिके पृथक्-पृथक् प्रतिनियत स्वलक्षणके निर्णयरूप ज्ञानसे अपने बन्धके निमित्तभूत प्रकृतिस्वभावको छोड़ देता है उस काल अपने परके विभागके ज्ञानसे ज्ञायक होता है, अपने पौर परके विभागके श्रद्धानसे दर्शक होता है, अपने परके विभागको परिणतिसे संयत होता है और उसी समय अपने परके एकपनेका अध्यास न करनेसे अकर्ता होता है । भावार्थ-यह मात्मा जव तक अपना और परका प्रतिनियत लक्षण नहीं जानता, तब तक भेदज्ञान के प्रभाव से कर्मप्रकृतिके उदयको अपना समझकर वैसे. विकल्परूपसे परिणमता है । यों वह मिथ्याइष्टि अज्ञानी असंयमी होकर कर्ता होता हुआ कमका बन्ध करता है । किन्तु जब भेदज्ञान हो जाता है है तब उसका न कर्ता बनता है न कर्मका बन्ध करता है केवल ज्ञाता द्रष्टा रहता हुमा स्व. भावके अनुरूप परिणमता है। अब भोक्तापन भी प्रात्माका स्वभाव नहीं हैं इसकी सूचना करते हैं--मोक्तृत्वं इत्यादि । अर्थ-कर्तापन की तरह भोक्तापन भी इस चैतन्यका स्वभाव नहीं है यह अज्ञानसे ही भोक्ता है । अज्ञानका प्रभाव होनेसे भोक्ता नहीं होता । भावार्थ-कर्मफलसे निराला ज्ञानमात्र प्रात्मस्वरूपका सानुभव ज्ञान पा लेनेके बाद ज्ञानी कर्मफलका प्रभोक्ता है। ...MRAAN Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार विभागपरिणत्या च संयतो भवति तदैव च परात्मनोरेकल्वाध्यासस्याकरणादकर्ता भवति ।। भोक्तृत्वं न स्वभाबोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववच्चितः । अज्ञानादेव भोक्तायं तदभावादवेदकः ।। १६६।। अयाणओ अज्ञायक:-प्र० ए०। हवे भवेत्-विधिलिङ अन्य पुरुष एक० । मिच्छाइट्ठी मिथ्यादृष्टि:-प्रथमा एक० । असंजओ असंयत:-प्र० ए० । कम्माफलं कर्मफल-द्वितीया एक० । अर्णतयं अनंतक-द्वितीया एका० । विमुत्तो विमुक्त:-प्र० ए० । हवइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक जाणओ ज्ञायकः प मुणी मुनिः-प्रथमा एकवचन ।। ३१४-३१५।। प्रसंगविवरण---अनन्तरपूर्व छन्दोंमें बताया गया था कि जीव भेदविज्ञान के अभावसे प्रकृतिके निमित्त अपना विचित्र उत्पाद विनाश करता हुमा बद्ध और संसारी बनता है। अब इन दो छन्दोंमें बताया है कि यह जीव जैसे ही कर्मफलको छोड़ देता है वैसे ही यह ज्ञाता द्रष्टा संयमी निर्बन्ध होता है ।। तथ्यप्रकाश-(१) जब तक जीवके प्रात्मस्वभाव व कर्मस्वभावके विषयमें यथार्थ ज्ञान नहीं है तब तक जीव रागादिकर्मोदयरूप प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता है । (२) जब तक जीव प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता तब तक वह रागादिरूप अपनेको श्रद्धान करनेसे मिथ्यादृष्टि है । (३) जब तक जीव प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता तब तक वह चौतन्यमात्र अपनेको न जाननेसे अज्ञानी है । (४) जब तक जीव प्रकृत्यर्थको नहीं छोड़ता तब तक वह अपनेको रागादिरूप अनुभवनेसे रागादिरूप आचरण करनेसे असंयमी है। (५) जब तक जीवके परभावमें प्रात्मत्वका प्रध्यास है तब तक वह कर्ता होता है । (६) जब यह जीव प्रात्मस्वभाव व कर्मस्वभावके प्रतिनियत स्वलक्षणका यथार्थ ज्ञान कर लेता है तब यह जीव प्रकृत्यर्थको अर्थात् कर्मफलको छोड़ देता है 1 (७) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा शुद्धबुद्ध कस्वभाव प्रात्म. तत्वका श्रद्धानी होनेसे सम्यग्दृष्टि है । (८) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा भूतार्थ अन्तस्त. त्वका ज्ञाता होनेसे सम्यग्ज्ञानी है । (8) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्वके अनुरूप ज्ञानवृतिरूप परिणमनेसे संयमी है । (१०) कर्मफलको छोड़ देने वाला प्रात्मा मात्मस्वभाव व कर्मस्वभावमें एकत्वका मध्यास न कर सकनेसे अकर्ता है । सिद्धान्त-(१) भेदविज्ञानके प्रतापसे प्रात्मा स्वरूपको उपलब्धि करता है । (२) कर्मफलको त्यागकर ज्ञानवृत्तिमात्रसे परिणमनेके प्रतापसे प्रातमा कर्मसे विमुक्त होता है। दृष्टि--१-- ज्ञानमय (१६४) । २- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४व) । प्रयोग-प्रकृतिस्वभाव रागादिभावको छोड़कर चैतन्यचमत्कारमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग लगाना ।। ३१४-३१५ ।। Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ समयसार अण्णाणी कम्मफलं पयसिहादु वेदे | गाणी पुण कम्मफलं जागइ उदियं ण वेदेइ || ३१६॥ अज्ञानी विधिफलको, प्रकृतिस्वभावस्थ होय अनुभवता । ज्ञानी उदित कर्मफल को जाने भोगता नहि है ॥ ३१६ ॥ अज्ञानी कर्मफलं प्रकृतिस्वभावस्थितस्तु वेदयते । ज्ञानी पुनः कर्मफल जानाति उदितं न वेदयते ॥ ३१६ ॥ अज्ञानी हि शुद्धात्मज्ञानाभावात् स्वपरयोरेकत्वज्ञानेन स्वपरयोरेकत्वदर्शनेन, स्त्रपरयो' रेकत्वपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वात् प्रकृतिस्वभावमप्यहंतया अनुभवन कर्मफलं वेदयते । ज्ञानी तु शुद्धात्मज्ञानसन् । वात्स्वपरयोविभागज्ञानेन स्वपरयोविभागदर्शनेन स्वपरयोविभागपरिणत्या च प्रकृतिस्वभावादपसृतत्वात् शुद्धात्मस्वभावमेकमेवाहंतयानुभवन् कर्मफलमुदितं ज्ञेय नामसंज्ञ - अण्णाणि, कम्मफल, पर्याडिसहावद्विअ, णाणि, पुण, कम्मफल, उदिय, ण धातुसंज्ञवेद वेदने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-अज्ञानिन् कर्मफल, प्रकृतिस्वभावस्थित, तु, ज्ञानिन् पुनर् कर्मअब ज्ञानीके भोक्तृत्वका निरूपण करते हैं— [अज्ञानी] प्रज्ञानी [ प्रकृतिस्वभावस्थितः ] प्रकृति के स्वभावमें ठहरता हुआ [ कर्मफलं ] कर्मके फलको [वेदयते] भोगता है [पुनः] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [ उदितं ] उदयमें प्राये हुए [कर्मफलं ] कर्मके फलको [जानाति ] जानता है [तु] परन्तु [न बेदयते] भोगला नहीं है । तात्पर्य - भज्ञानी तो कर्मविपाकमें प्रात्मीयबुद्धिसे परिरगत होकर कर्मफलको भोगता हैं, किन्तु ज्ञानी कर्मफलको परभाव जानकर अपने ज्ञानस्वभाव के श्रभिमुख होता हुआ कर्मफल को मात्र जानता है, भोगता नहीं । टीकार्थ - प्रज्ञानी निश्चयसे शुद्ध प्रात्माके ज्ञानके अभाव के कारण स्व-परके एकपने के ज्ञानसे स्व-परके एकत्वके श्रद्धानसे और स्व-परके एकपनेकी परिणति से प्रकृतिके स्वभावमें स्थित होनेसे प्रकृतिके स्वभावको ही श्रहंबुद्धिपनेसे अनुभव करता हुम्रा कर्मके फलको भोगता है । परन्तु ज्ञानी शुद्ध आत्माके ज्ञानके सद्भाव के कारण अपने औौर परके भेदज्ञानसे, अपने परके विभाग के श्रद्धानसे और स्व-परकी विभागरूप परिणति से प्रकृतिके स्वभाव से दूरवर्ती होने से शुद्ध श्रात्माके स्वभावको एकको ही महंरूपसे अनुभव करता हुआ उदयमें माये हुए कर्मके फलको ज्ञेयमात्रता के कारण जानता ही है, पुरन्तु उसका श्रहंरूपसे अनुभव किया जानेके लिये शक्यता होने से भोगता नहीं है । भावार्थ - प्रशानीको शुद्ध आत्मतत्वका ज्ञान नहीं है, इस कारण जो कर्म उदयमें आता है उसीको अपना स्वरूप जान भोगता है, और ज्ञानीके शुद्ध घात्मानुभव हो गया है, इस कारण प्रकृतिके उदयको अपना स्वभाव नहीं जानता सो उसका Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ५३७ मात्रत्वात् जानात्येव न पुनस्तस्याहंतयाऽनुभवितुमशक्यत्वादयते । श्रज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको ज्ञानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुणैरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धात्ममये महस्यचलितरासेव्यतां ज्ञानिता ।। १६७।। ।। ३१६ ।। फल, उदित, न । मूलघातु - विद चेतनाख्यातनिवासेषु ज्ञा अवबोधने । पदविवरण – अण्णाणी अज्ञानीप्रथमा एक. 1 कम्मफल कर्मफल- द्वितीया एक० 1 पर्याडिसहाबद्विओ प्रकृतिस्वभावस्थितः प्र० एक० | दु तु पुण पुनः ण न अव्ययं । वेदेइ वेदयते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । गाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । कम्मफलं कर्मफलं - द्वि० एक० । जाणइ जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । उदिय उदितं द्वि० ए० । वेदेश वेदयते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ३१६ ॥ ज्ञाता ही रहता है भोक्ता नहीं होता । अब इसी अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं— अज्ञानी इत्यादि । अर्थ-- श्रज्ञानी जीव प्रकृतिस्वभाव में लीन होता हुआ सदाकाल उसका भोक्ता है, और ज्ञानी प्रकृतिस्वभावसे विरक्त रहता हुआ कभी भी भोक्ता नहीं है । सो इस प्रकार तत्त्वनिपुण पुरुषोंको ज्ञानीपने और अज्ञानीपने नियमको विचार करके अज्ञानीपने को तो बड़ा चाहिये और शुद्ध आत्ममय एक तेज ( प्रताप ) में निश्चल होकर ज्ञानीपनेको सेवना चाहिये । प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व दो छन्दोंमें बताया गया था कि जब तक जीव प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता है तब तक वह अज्ञानी है और जब हो कर्मफलको अर्थात् प्रकृतिस्वभाव को छोड़ देता है तब ही वह निर्बंन्ध ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है । अब इस गाथामें उस अज्ञानीही व ज्ञानीके विषय में बताया है कि अज्ञानी तो कर्मफल भोगता है और ज्ञानी मात्र कर्मफलको जानता है । अहंरूपसे अनुभव करता है । तथ्यप्रकाश -- ( १ ) प्रज्ञानीको सहज शुद्ध प्रात्मस्वरूपका ज्ञान नहीं है । (२) शुद्धा 'मत्वका ज्ञान न होनेसे अज्ञानी स्व व परमें एकत्वका ज्ञान दर्शन व परिणमन करता है । ( ३ ) स्व- परमें एकत्वका ज्ञान श्रद्धान परिगमन होनेसे जीव प्रकृतिस्वभाव में स्थित कहलाता है । ( ४ ) प्रकृतिस्वभावमें स्थित होनेसे जीव प्रकृतिस्वभावको ( ५ ) प्रकृतिस्वभावको प्रहंरूपसे अनुभवता हुआ जोव कर्मफलको भोगता है । (६) ज्ञानीको सहज शुद्ध आत्मस्वरूपका ज्ञान है । ( ७ ) शुद्धात्मस्वरूपका ज्ञान होनेसे ज्ञानी के स्व व परमें भिन्नताका ज्ञान है, भिन्नताका श्रद्धान है मोर विभागरूपसे परिणमन है । ( ८ ) स्वपरविभाग का ज्ञाता प्रकृतिस्वभावसे हट जाता है । (E) प्रकृतिस्वभावसे हटने के कारण ज्ञानी शुद्ध सहज 'प्रात्मस्वरूपको ही रूप से अनुभवता है । ( २० ) एक शुद्धात्मस्वरूप को अहंरूप से अनुभवता हुआ जीव उदित कर्मफलको ज्ञेयमाश्रपना होनेसे मात्र जानता है । ( १२ ) कर्मफल में श्रहंरूपसे Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार अज्ञानी वेदक एवेति नियम्यते-- ण मुयइ पयडिमभन्यो सुट्ठवि अज्झाइऊण सत्थाणि । गुडदुद्धपि पिबंता ण पण्णाया णिब्बिसा हुंति ॥३१७॥ नहिं छोड़ता प्रकृतिको, अभध्य अच्छे भि शास्त्रको पढ़कर । गुड़ दूध पान कर ज्यौं, न सर्प निविष कभी होते ॥३१७॥ न मुंचति पहलिमय: मुष्णपि अधीय गाय । भुडदुग्धमाप पिबंतो न पन्नगा निविषा भवति ॥३१७|| यथात्र विषधरो विषभावं स्वयमेव न मुञ्चति, विषभावमोचनसमर्थसशर्करक्षीरपानाच्च न मुञ्चति । तथा किलाभव्यः प्रकृतिस्वभाव स्वयमेव न मुञ्चति प्रकृतिस्वभावमोचनसम. नामसंज्ञ –ण, पयडि, अभब्व. सुटु, वि, सत्थ, गुडदुद्ध, पि, पिवंत, ण, पण्णय, णिविस । धातुसंज्ञ--मुंच त्यागे, अहि इ अध्ययने, हो सत्तायां । प्रातिपदिक---न, प्रकृति, अभव्य, सुष्ठु, अपि. शास्त्र, गुडदुग्ध, अपि, पिवन्त, न, पन्नग, निविष । मूलधातु- मुख्तृ मोक्षणे, अधि इङ अध्ययने अदादि, पा पाने म्वादि, भू सत्तायां। पद विवरण--ण न सुठु सुष्टु वि अपि-अव्यय । मुयइ मुंचति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । पडि प्रकृति-द्वितीया एक० । अभब्बो अभव्यः-प्रथमा एकवचन । अज्झाइऊण अनुभव किया जाना अशक्य होनेसे ज्ञानी जीव कर्मफलको भोगता नहीं है । सिद्धान्त-(१) अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता है । (२) ज्ञानी कर्मफलका मात्र साक्षी है । दृष्टि-१- भोवतृनय (१६१) । २- अभोक्तृनय (१९२) । प्रयोग--विकारको अपनानेसे दुःख भोगना पड़ता है यह जानकर परभाव विकारसे उपेक्षा करके शुद्ध एक प्रात्ममय चैतन्यमें उपयोगको स्थिर करना ।। ४१६ ॥ अब अज्ञानी भोक्ता ही है ऐसा नियम कहते हैं- [अभव्यः] प्रभव्य [सुष्टु] अच्छी तरह [शास्त्राणि शास्त्रोंको [अधीत्य अपि पढ़कर भी [प्रकृति न मुञ्चति प्रकृतिको अर्थात् प्रकृतिस्वभावको नहीं छोड़ता [पन्नगाः] जैसे कि सर्प [गुडदुग्धं] गुड़सहित दूधको [पिबंतः प्रपि] पीते हुए भी [निविषाः] निविष [न भवति नहीं होते। तात्पर्य-विकारमें अहंपनेका श्रद्धान होनेसे शास्त्रोंको पढ़कर भी प्रभव्य विकारके लगायको नहीं छोड़ता, अतः वह कर्मफलको भोगता ही है। टोकार्थ---जैसे इस लोकमें सपं अपने विषभावको स्वयं नहीं छोड़ता तथा विषभावके मेटनेको समर्थ ऐसे मिश्रीसहित दूधके पोनेसे भी नहीं छोड़ता उसी तरह प्रभव्य वास्तवमें प्रकृतिस्वभावको स्वयमेव भी नहीं छोड़ता और प्रकृतिस्वभावके छुड़ानेको समर्थ द्रव्यश्रुतके ज्ञानसे भी नहीं छोड़ता। क्योंकि इसके नित्य ही भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धात्मज्ञानका प्रभाव होने Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार ५३६ र्यद्रव्यश्रुतज्ञानाच्च न मुञ्चति नित्यमेव भावश्रुतज्ञान लक्षण शुद्धात्मज्ञानाभावेनाज्ञानित्वात् । 7 तो नियम्यतेऽज्ञानी प्रकृतिस्वभावे स्थितत्वाद्वेदक एव ।। ३१७ ।। अधीत्य - असमाप्तिकी क्रिया कृदन्त, सत्याणि शास्त्राणि द्वितीया बहु० । गुडदुद्ध गुडदुग्ध द्वितीया एक० । पिता पिबन्तः - प्रथमा बहु० । पण्णया पन्नगाः प्रथमा बहु० । जिव्विसा निर्विषाः प्रथमा बहु० । हुति भवंति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ।। ३१७ ।। से अज्ञानीपन है । इसलिये ऐसा नियम किया जाता है कि अज्ञानी प्रकृतिस्वभाव में ठहरनेसे कर्मका भोक्ता ही है । भावार्थ - इस गाथा में "अज्ञानी कर्मके फलका भोक्ता ही है” यह नियम किया गया है । जैसे कि प्रभव्य बाह्य कारणोंके मिलनेपर भी कर्मके उदयको अपनाने का स्वभाव नहीं बदलता, इस कारण यह सिद्ध हुआ कि अज्ञानीको शुद्ध आत्माका ज्ञान नहीं, अतः श्रज्ञानीके भोक्तापनेका नियम बनता है । प्रसंगविवरण -- अनन्तरपूर्व गाथा में बताया गया था कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता होता है और शानो कर्मफलका भोक्ता नहीं । अब इस गाथा में अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता हो है ऐसा नियम युक्ति दृष्टान्तपूर्वक दर्शाया गया है । - तथ्य प्रकाश – (१) अभव्य जीव सदा प्रभ्थत्व अशुद्ध पारिणामिक भावमय होनेसे प्रकृतिस्वभावको याने कर्मविपाकलगावको स्वयं छोड़ता ही नहीं । (२) प्रकृतिस्वभावको छुड़ाने में समर्थ द्रव्य श्रुतज्ञान है सो श्रुतका विशिष्ट अध्ययन होनेपर भी वह नहीं छूटता । ( ३ ) भव्य जीवको भावश्रुतज्ञानरूप शुद्धात्मज्ञान नहीं होनेसे सदा प्रज्ञान ही रहता है । ( ४ ) सदा अज्ञानमय होने के कारण प्रभव्य जीव सदा प्रकृतिस्वभाव में स्थित रहा करते हैं । ( ५ ) प्रकृतिस्वभावमें स्थित रहने के कारण प्रभव्य जीव कर्मफलका भोक्ता होता ही है । सिद्धान्त - ( १ ) अभव्य जीव सदा अज्ञानमयभाववान रहनेसे विकारजगाव बनाये रहता है । (२) मिथ्यात्वोदयवश श्रुताध्ययन करके भी ग्रभव्य शुद्ध नहीं हो पाता । दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४७) । २ - उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय ( २४ ) | प्रयोग — सहजात्मस्वरूपकी व्यक्तिके लिये अपने आपको सहज प्रनन्त ज्ञानादिरूप शुद्ध ग्रन्तस्तत्त्व जानकर इसी स्वरूपकी घोर उपयोग लगाना ।। ३१७ ।। अब ज्ञानी कर्मफलका प्रवेदक ही है, यह नियम किया जाता है - [ज्ञानी] ज्ञानी [ निर्वेदसमापनः ] वैराग्यको प्राप्त हुआ [ मधुरं कटुकं ] मोठा तथा कड़वा [ अनेकविधं] इत्यादि अनेक प्रकारके [कर्मफलं ] कर्मके फलको [विजानाति ] जानता है [ तेन ] इस कारण [स] वह [अवेदकः भवति ] भोक्ता नहीं है । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ज्ञानी त्ववेयक एवेति नियम्यते-- णिव्वेयसमावण्णो णाणी कम्मप्फलं वियाणेइ । महुरं कडुयं बहुविहमवेयश्रो तेण सो होई ॥३१८॥ वैराग्यप्राप्त ज्ञानी, मधुर कटुक विविध कर्मके फलको । जानता मात्र केवल, इससे उनका प्रवेदक वह ॥३१॥ निर्वेदसमापनो ज्ञानी कर्मफलं विजानाति । मधुरं फेटुकं बहुविधमवेदको तेन सः भवति ॥३१॥ ज्ञानी तु निरस्तभेदभावश्रुतज्ञानलक्षणशुद्धात्मज्ञानसद्धावेन परतोऽत्यंतविविक्तत्वात प्रकृतिस्वभावं स्वयमेव मुंचति ततोऽमधुरं मधुरं वा कर्मफलमुदितं ज्ञातृत्वात् केवलमेव जानाति, न पुनर्ज्ञाने सति परद्रव्यस्याहंतयाऽनुभवितुमयोग्यत्वाद्वेदयते । अतो ज्ञानी प्रकृतिस्वभावविरक्त नामसंज्ञ-णिब्वेयसमावण्ण, णाणि, कम्मफल, महुर, कडुय, बहुविह, अवेयअ, त, त । धातुसंझ-- वि जाण अवबोधने, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-निवेदसमापन्न, ज्ञानिन्, कर्मफल, मधुर, कटुक, बहुविध, तात्पर्य-ज्ञानी रागादिभावोंको परभाब जानकर उनसे लगाव नहीं रखता, प्रतः कर्मफलका केवल ज्ञाता रहनेक कारण वह कमफलका भोक्ता नहीं होता। टोकार्थ---जानी अभेदरूप भावश्रुतज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञानके होनेसे परसे अत्यन्त विरक्तपना होने के कारण कर्मके उदयके स्वभावको स्वयं ही छोड़ देता है । इस कारण मीठा कड़वा सुख दुःखरूप उदित कर्मफलको ज्ञातापन होनेके कारण केवल जानता ही है । न कि ज्ञानके होनेपर पर द्रव्यको अहंरूपसे अनुभव करनेको अयोग्यता होनेके कारण भोक्ता होता है । अतः ज्ञानी कर्मस्वभावसे विरक्तपना होनेसे अवेदक ही है । भावार्थ----जो जीव जिससे विरक्त होता है वह उसको अपने वश तो भोगता नहीं है यदि परवश भोगना ही पड़े तो उसे परमार्थतः भोक्ता नहीं कहते, इस न्यायसे चूकि ज्ञानी कर्मके उदयको अपना नहीं समझता, उससे विरक्त है, सो वह स्वयमेव तो भोगता ही नहीं, यदि उदयकी बलवत्तासे परवश हुमा अपनी निबंलतासे कर्मविपाकको भोगे तो उसे वास्तवमें भोक्ता नहीं कहते । जीव कर्मानुभाग का तो व्यवहारसे भोक्ता है, और कर्मप्रतिफलनका प्रशुद्ध निश्चयनयसे भोक्ता है, उसका यहाँ शुद्ध नयके कथनमें अधिकार ही नहीं है। . अब इसी अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं---ज्ञानी इत्यादि । अर्थ- ज्ञानी जीव कर्मको न तो करता है और न भोगता है, मात्र कर्मस्वभावको जानता ही है । इस प्रकार ज्ञानी केवल जानता हुमा कर्तृत्व और भोवतृत्वके अभावके कारण शुद्ध स्वभावमें निश्चल हमा वास्तव में मुक्त ही है। भावार्थ--मानी कर्मका स्वाधीनपनेसे कर्ता भोक्ता नहीं वह तो Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकार ५४१ त्वादवेदक एवं ।। ज्ञानो कशति ननवेदयत च कम जानाति केवलमयं किल तत्स्वभाव । जानन्परं करणवेदनयोरभावात् शुद्धस्वभावनियत: स हि मुक्त एव ।।१६।। ।। ३१८ ॥ अवेदक, तत्, तत् । मूलधातु-वि ज्ञा अवबोधने, भू सत्तायां । पदविवरण-णिधेयसमावणो निवेदसमापन्न:-प्रथमा एकवचन । णाणी ज्ञानी-प्रथमा एकवचन। कम्-मफलं कर्मफल-द्वितीया एक० । बियाणेइ विजानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । महुरं मधुरं कडुयं कटुकं बद्दविहं बहुविध-हिए। अवेर ओ अवेदक:- इ.टमा एक० । तेण तेन-तृतीया एक० । सो स:-प्रथमा एकवचन । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। ३१८ ।। केवल ज्ञाता ही है, इस कारण शद्ध स्वभाव में उपयुक्त हुना वह अन्त: मुक्त ही है। कर्मका उदय प्राता है, प्रतिफलन होता है वहाँ ज्ञानी क्या कर सकता है ? कुछ नहीं, सो जब तक यह निर्बलता रहती है तब तक कर्म जोर चला लें, कभी तो ज्ञानी कर्मका निर्मूल नाश करेमा ही । तथा वर्तमान में शुद्ध स्वभाव में नियत है सो मुक्त-सा ही है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि अज्ञानी कर्मफलका भोक्ता हो है । अब इस गाथामें बताया है कि जानी कर्मफलका अभोक्ता है अर्थात् भोक्ता नहीं है । तथ्यप्रकाश-(१) अभेदभावश्रुत ज्ञानस्वरूप शुद्धात्मज्ञान जिसके है वह ज्ञानी है। (२) ज्ञानी परसे अत्यन्त जुदा है, अतः प्रकृतिस्वभावको स्वयं ही छोड़ देता है । (३) जिसने प्रकृतिस्वभावको छोड़ दिया है वह उदित शुभाशुभ कर्मफलका मात्र ज्ञाता है। (४) ज्ञानी परद्रव्यको महंरूपसे अनुभव करनेमें असमर्थ है, अतः कर्मफलको नहीं भोग सकता । (५) जहाँ प्रकृतिस्वभावसे विरक्ति है, संसार शरीर भोगसे विरक्ति है वहां प्रकृतिस्वभावसे लगाव नहीं हो सकता । (६) ज्ञानी शुद्धात्मभावनाजन्य सहज प्रतीन्द्रिय आनन्दको छोड़कर इन्द्रियसुखमें कर्मफलमें नहीं लग सकता। सिद्धान्त-(१) भेदविज्ञान व अभेदान्तस्तत्त्वकी प्रतीति होनेसे ज्ञानी कर्मफलका मात्र साक्षी है, भोक्ता नहीं । (२) ज्ञानोकी दृष्टिमें परभावके नाते शुभ अशुभ कर्मफल परतत्त्व हैं । दृष्टि-१- अभोवतृनय (१६२)। २- सादृश्यनय (२०२)। प्रयोग-पुण्य पाप कर्मविपाकको परभाव जानकर उसका मात्र ज्ञाता रहकर निष्कर्म ज्ञानस्वरूप स्वतस्वमें उपयोग लगाना ।। ३१८ ॥ अब ज्ञानीके हातृत्वको फिर पुष्ट करते हैं-[ज्ञानी] ज्ञानी [बहुप्रकाराणि कर्माणि] बहुत प्रकारके कर्मोको [नापि करोति] न तो करता है [नापि वेयते] और न भोगता है [पुनः] परन्तु [बंध] कर्मके बन्धको [च] और [कर्मफलं] कर्मके फल [पुण्यं - पापं] पुण्य Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार गावि कुबइ गवि वेयइ णाणी कम्माई बहुपयाराई । जाणइ पुण कम्मफलं बंधं पुण्णं च पावं च ॥३१६॥ नहि कर्ता नहि भोक्ता, ज्ञानी नाना प्रकार कर्मोका । जानता मात्र विधिफल, बन्ध तथा पुण्य पापोंको ॥३१॥ नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि । जानाति पुनः कर्मफल बंधं पुण्यं च पापं च ॥ ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमक स्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च ! किंतु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबंध कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति ।। ३१६ ।। नामसंज्ञ---ण, वि, ण, वि, णाणि, कम्म, बहुपयार, पुण, कम्मफल, बंध, पुण्ण, च, पाव, च । धातुसंज्ञ-कुब्व करणे, वेद वेदने, जाण अवबोधने । प्रातिपदिक ....न, अपि, न, अपि, ज्ञानिन्, कर्मन्, बहुप्रकार, पुनर्, कर्मफल, बन्ध, पुण्य, च, पाप, च । मूलपातु-डुकृत्र करणे, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण –ण न वि अपि पुण पुनः च-अव्यय । कुम्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। वेयइ वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया 1 जाणइ जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन । बंधं बंधं पुण्णं' पुण्यं पावं पापंद्वितीया एकवचन ।। ३१६ ।। और पापको [जानाति] मात्र जानता ही है । तात्पर्य-कर्म कार्मारणवर्गरणाके स्कन्ध हैं उन्हें जीव कैसे करेगा व कैसे भोगेगा और ज्ञानी तो कर्तृत्व भोवतृत्वके विकल्पसे भी रहित है सो ज्ञानीके कर्मका करना व कर्मफलका भोगना विकल्पतः भी सम्भव नहीं, ज्ञानी तो उनको मात्र जानता ही है। टीकार्थ----कर्मचेतनाशून्यपना होनेसे तथा कर्मफलोतनासे भी शून्यपना होनेसे स्वयं अकर्तृत्व व प्रभोक्तृत्व होनेसे ज्ञानो कर्मको न तो करता है और न भोगत्ता है, किन्तु ज्ञानी ज्ञानचेतनायुक्त होनेसे केवल ज्ञाता ही है, इस कारण कर्मके बन्धको तथा कर्मके शुभ अशुभ फलको केवल जानता ही है । भावार्थ--ज्ञानो दिकारका व पुण्य पाप कर्म प्रादिका मात्र झाता रहता है। प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें ज्ञानी कर्मफलका अबेदक ही दर्शाया गया था । अब उसी ज्ञानीको स्वच्छता बतानेके लिये इस गाथामें बताया है कि ज्ञानी कर्मोंको न तो करता है और न भोगता है, किंतु वह तो पुण्य-पाप कर्मबंध कर्मफलका मात्र ज्ञाता रहता है । ___ तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानी सहज शुद्ध ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वकी वृत्तिरूप रहनेसे कर्मधेतनाशून्य है । (२) ज्ञानी शुदात्मभावनाजन्य सहजानन्दरससे तृप्त होनेके कारण कर्मफल Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४३ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कुत एतत् ?-- दिही जहेव णाणं अकास्यं तह अवेदयं चेव । जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं णिज्जरं चे ॥३२०॥ ज्ञान नयनदृष्टी ज्यौँ, होय प्रकर्ता तथा प्रभोक्ता भी। बन्ध मोक्ष कर्मोदय, निर्जरको जानता वह है ॥३२०॥ दृष्टिः यर्थव ज्ञानमकारक तथाऽवेदकं चैव । जानाति च बंघमोक्ष कर्मोदयं निर्जरा चैव ॥ ३२० ॥ ____ यथात्र लोके दृष्टि श्यादत्यंतविभक्तत्वेन तत्करावेदनयोरसमर्थत्वात् दृश्यं न करोति ___न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्संधुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य लोडपिंडवत्स्वयमेवीप्ण्यानु नामसंज्ञ--दिट्टि, जह, एव, णाण; अकारय, तह, अवेदय, च, एव, य, बंधमोक्ख, कम्मुदय, णिज्जर, च, एव । धातुसंज-जाण अवबोधने । प्रातिपदिक-दृष्टि, यथा, एव, ज्ञान, अकारक, तथा, अवेदक, च, चेतनाशून्य है । (३) ज्ञानी कर्मचोतनाशून्य होनेसे अकर्ता है । (४) ज्ञानी कर्मफलचेतनाशून्य होनेसे अभोक्ता है । (५) ज्ञानी ज्ञानचेतनामय होनेसे शुभ अशुभ कर्मबंध व कर्मफलका मात्र जानन हार है । (६) अकर्ता अभोक्ता होनेसे शुद्धस्वभावमें नियत ज्ञानी अन्तर्वृत्तिको अपेक्षा मुक्त ही की तरह है । सिद्धान्त-(१) निर्विकार अनन्तज्ञानादिसम्पन्न प्रभु पूर्णतः ज्ञानचोतनामय हैं । (२) सहनशुद्ध अन्तस्तत्त्वके अनुभवी प्रतीत्या ज्ञानचेतनामय है । दृष्टि -... १- शुद्धनिश्चयनय (४६) । २- अपूर्ण शुद्धनिश्चयनय (४५) । प्रयोग-कर्मों की प्रकृति कर्ममें ही निरखकर कर्मोके मात्र ज्ञाता रहना और अपनेको ज्ञानस्वरूपसे अभिन्न निरखकर प्रात्मस्वरूपका संचेतन करना ।। ३१६ ।। . प्रश्न---शानी मात्र ज्ञाता ही कैसे है ? उत्तर- [दृष्टिः यथा] नेत्रकी तरह [ज्ञान] ज्ञान [प्रकारकं च अवेदकं एव] प्रकर्ता और अभोक्ता ही है [तथा] तथा [बंधमोक्षं] बंध, मोक्ष [च कर्मोदयं] व कर्मोदय [च] और [निर्जरा] निर्जराको [जानाति एव] मात्र जानता तात्पर्य--ज्ञानका काम जानना ही है, परको करना व भोगना नहीं है। टीकार्थ---जैसे इस लोक में नेत्र देखने योग्य पदार्थोंसे अत्यन्त भिन्नताके कारण उनके करने और भोगनेकी असमर्थता होने के कारण दृश्य पदार्थको न तो करता है और न भोगता है । अन्यथा याने यदि ऐसा न हो तो अग्निको जलाने वालेकी तरह व अग्निसे तलायमान लोहके पिंडकी तरह अग्निके देखनेसे नेत्रके कर्तापन व भोक्तापन अवश्य आ जायगा सो तो है Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ समयसार भवनस्य च दुनिवारत्वात् । किंतु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्व केवलमेव पश्यति । तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टुत्वात् कर्मणोऽत्यंतविभक्तत्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कम न एव, च, बन्धमोक्ष, कर्मोदय, निर्जरा, च, एव। मूलधातु-ज्ञा अवबोधने । पदविवरण-दिट्ठी दृष्टि:प्रथमा एकवचन । .जह यथा एव तह तथा च एव य च-अव्यय । णाणं ज्ञान-प्रथमा एक० । अकारयं ही नहीं। किन्तु केवल दर्शनमात्रस्वभावीपन होनेसे नेत्र दृश्यको केवल देखता ही है । उसो प्रकार ज्ञान भी स्वयं द्रष्टापन होनेके कारण कर्मसे अत्यन्त भिन्नपना होनेसे निश्चयतः उस कर्मको करने और भोगनेमें असमर्थपना होनेसे न तो कर्मको करता है और न भोगता है । केवल ज्ञानमात्र स्वभावपनेसे कर्मके बन्ध, मोक्ष व उदयको तथा उसकी निर्जराको केबल जानता ही है । भावार्थ- जैसे नेत्र दृश्य पदार्थको दूरसे ही देखता है दृश्यको न करता है और न भोगता है, ऐसे ही शानका स्वभाव दूरसे जाननेका है । इस कारण ज्ञानके कर्तृत्व व भोक्तृत्व नहीं है । कर्तुत्व भोस्तृत्व मानना अमान है। यद्यपि जब तक चारित्रमोहकर्मका उदय है तब तक प्रदर्शन, प्रज्ञान और असमर्थपना होता ही है, सो तब तक याने केवलज्ञान के पहले पूर्णतया ज्ञाता द्रष्टा नहीं कहा जा सकता, तो भी यहाँ यह समझिये कि यदि स्वतंत्र होकर करे और भोगे. तो उसे वास्तबमें कर्ता-भोक्ता कहते हैं । सो जब ही मिथ्यादृष्टिरूप अज्ञानका प्रभाव हुया, तब परम्पले स्वामीप नेना भाव हुना, तब स्वयं ज्ञानी हुमा स्वतंत्रपनेसे तो किसीका कर्ता भोक्ता नहीं । परन्तु अपनी निबलतासे, कर्मके उदयकी बलवतासे जो कार्य होता है उसको परमार्थदृष्टिसे कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता। उसके निमित्तसे जो कुछ नवीन कर्मरज लगता भी है, उसको यहाँ बन्धमें नहीं गिना । मिथ्यात्व ही तो संसार है, मिथ्यात्वके चले जानेके बाद संसार क्या रहा ? समुद्र में बुंदकी क्या गिनती ? दूसरी बात यह भो जानना कि केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही है, परन्तु श्रुतशानी भी शुद्धनयके अवलम्बनमे प्रात्माको शुद्धात्मस्वरूप ही अनुभव करता है। हाँ प्रत्यक्ष और परोक्षका भेद है । सो श्रुतज्ञानीके ज्ञान श्रद्धानकी अपेक्षा तो ज्ञाता द्रष्टापना ही है । चारित्रको अपेक्षा प्रतिपक्षी कर्मका जितना उदय है उतना ही घात है, इसके नाश करनेका ज्ञानीके उद्यम है । जब कर्मका अभाव हो जायगा तब साक्षात् यथाख्यात चारित्र होगा, तब केवलज्ञानको प्राप्ति होगी ही। तीसरी बात यहां यह जानना कि सम्यग्दृष्टिको ज्ञानी मिथ्यात्वके प्रभावको अपेक्षा हो कहते हैं । यदि यह अपेक्षा नहीं ली जा सनसामान्यसे सभी जीव, ज्ञानी हैं और विशेष अपेक्षासे जब तक कुछ भी प्रज्ञान रहे तब तक ज्ञानी नहीं कहा जा सकता, जब तक केवलशान नहीं होता तब तक बारहवां गुणस्थानपर्यंत प्रज्ञानभाव ही कहा गया है। सो यहाँ ज्ञानी Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -.. -- -.-.-- .. . सर्वविशद्धज्ञानाधिकार करोति न वेदयते च । किंतु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबंध मोक्षं वा फर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति ।। ये तु कर्तारमात्मानं पश्यति तमसा तताः । सामान्य जनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षतां ।।१६ ।३०। अकारकं प्रथमा एक० ! अवेदयं अवेदक-प्रथमा एक० । जाणइ जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । बंधमोक्खं बन्धमोक्ष-द्वितीया एक० । कम्मुदयं कर्मोदयं-द्वितीया एक० । णिज्जरं निर्जरा-द्वितीया एक. वचन ।। ३२०॥ प्रज्ञानी कहना सम्यक्त्व मिथ्यात्व की ही अपेक्षा जानना । अब जो सर्वथा एकांतके प्राशयसे आत्माको कर्ता हो मानते हैं उनका निषेध इस श्लोकमें कहते हैं---ये तु इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष प्रज्ञानांधकारसे आच्छादित हुए प्रात्माको कर्ता मानते हैं, उनका मोक्षको चाहते हुए भी लौकिकजनकी तरह मोक्ष नहीं होता। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानी कर्मका अकर्ता व अभोक्ता है । अब इस गाथामें ज्ञानीके उसो अकर्तृत्व व प्रभोक्तृत्वका दृष्टान्तपूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है। __तथ्यप्रकाश-(१) जैसे नेत्र दृश्यसे अत्यन्त विभक्त है, ऐसे ही ज्ञान कर्मसे अत्यन्त विभक्त है । (२) जैसे नेत्र दृश्यसे जुदा होनेसे दृश्यको करने व भोगनेमें असमर्थ है, ऐसे ही ज्ञान कर्मसे जुदा होनेसे कर्मको करने भोगनेमें असमर्थ है। (३) जैसे दृष्टि (नेत्र) तो मात्र देखती है, वैसे ही ज्ञान तो मात्र जानता है । (४) जैसे नेत्र अग्निशिखाको, अग्नि बढ़नेको, ज्वलन करनेको देखता मात्र है ऐसे ही ज्ञान कर्मबन्धको, मोक्षको, कर्मोदयको, निर्जराको मात्र जानता है । (५) ज्ञान नेत्रकी भौति परका प्रकारक है व अवेदक है। ___सिद्धांत-(१) भान अर्थात् प्रात्मा कर्मका अकारक है। (२) ज्ञान अर्थात प्रात्मा कर्मका अवेदक है। दृष्टि-१- अकर्तृनय (१९०)। २- अभोक्तृनय (१६२) । प्रयोग---अपनेको अपने प्रदेशोंमें ही परिसमाप्त निरखकर कर्मके करने व भोगनेको मिथ्याबुद्धि तजकर कर्मदशाके मात्र जाननहार रहना ।। ३२० ।। मब आत्माको लोककर्ता मानने वालोंका भी मोक्ष नहीं है, इस अर्थको गाथामें . कहते हैं- [लोकस्य] लौकिक जनोंके मतमें [सुरनारकतिर्थमानुषान् सत्त्वान्] देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य प्राणियोंको [विष्णुः] विष्णु [करोति] करता है ऐसा मन्तव्य है [५] और इसी प्रकार [यदि] यदि [शमणानामपि] श्रमणोंके मतमें भी ऐसा माना जाय कि [षड्य Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार लोयम्स कुणइ विल सुरणारयतिरियमाणुसे सत्ते । समणाणंपि य अप्पा जइ कुबड़ छविहे काये ॥३२१॥ लोगसमणाणमेयं सिद्धतं जड़ ण दीसह विसेसो। लोयस्स कुणइ विण्हू समणाणवि अप्पयो कुणइ ॥३२२॥ एवं ण कोवि मोक्खो दीसह लोयसमणाण दोण्हंपि । णिचं कुव्वंताणं सदेवमायासुरे लोए ॥३२३॥ जम कहे विष्णु करता, सुर नारक पशु मनुष्य प्रारणोको । कहें श्रमण भी ऐसा, प्रात्मा षटकायको करता ॥३२॥ लोक श्रमण दोनोंके, इस प्राशयमें दिखे न कुछ अन्तर । लोकके निष्पा करता, श्रमापोंके भि प्रात्मा करता ॥३२२॥ इस तरह लोक श्रमणों, दोनोंके भि नहिं मोक्ष हो सकता। क्योंकि दोनों समझते, परको इस सृष्टिका कर्ता ॥३२३॥ लोकस्य करोति विष्णुः सुरनारकतिर्यक मानुषान् सत्त्वान्, श्रमणानामप्यात्मा यदि करोति षड्विधान् कायान् लोकश्रमणानामेक: सिद्धांतो यदि न दृश्यते विशेष:, लोकस्य करोति विष्णुः श्रमणानामप्यात्मकः करोति । एवं न कोऽपि मोक्षो दृश्यते लोकश्रमणानां न्येषामपि, नित्यं कुर्वतां सदेवमनुजासुरान् लोकान् ।।३२३॥ ये स्वात्मानं कर्तारमेव पश्यति ते. लोकोतरिका पपि न लौकिकतामतिवर्तते । लौकिनामसंश-लोय, विण्ड, सुरणारयतिरियमाणुस, सत्त, समण, पि, य, अप्प, जइ, छव्यिह, काय, लोगसमण, एवं, सिद्धत, जई, ण, विसेस, लोय, विष्ह, समण, वि, अप्पर, एवं, ण, क, वि, मोक्ख, धान कायान्] छह कायके जीवोंको [प्रात्मा] प्रात्मा [करोति] करता है तो [लोकश्रमणानां] लोकोंका और यतियोंका [एक सिद्धांतः] एक सिद्धान्त बन गया, [विशेषः न दृश्यते] कुछ अन्तर नहीं रहा । क्योंकि [लोकस्य] लोकके मतमें विष्णुः] विष्णु [करोति] करता है तो श्रिमणानामपि] श्रमणोंके मतमें भी [प्रात्मा करोति] आत्मा करता है [एवं] इस तरह कर्ताके [सदेवमनुजासुरान् ] देव, मनुष्य, असुर सहित [लोकान] लोकोंको [नित्यं कुर्वता] नित्य करते हुए [लोकश्रमणानां द्वय षां प्रपि] लोक और श्रमण दोनोंका ही [कोपि मोक्षः] कोई भी मोक्ष [न दृश्यते] नहीं दिखाई देता । तात्पर्य-जो सांसारिक दशावोंको औपाधिक न मानकर प्रात्माको ही उनका स्वतंत्र फर्ता मानते हैं उनके चतुर्गतिका कभी प्रभाव ही नहीं हो सकता, फिर मोक्ष कसे होगा ? Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ सर्वविशुधनानाधिकार कानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोति इत्यपसिद्धांतस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात्--लौकिकानामिव लोकोतरिका. लोयसमण, दु, पि, णिच्च, सदा, एव, मायासुर, लोय ! बातुसंज्ञकुण करणे, कुव्व करणे, दिस प्रेक्षणे। प्रातिपदिक-लोक, विष्णु, सुरनारकतिर्यड मानुष, सस्व, श्रमण, अपि, आत्मन्, यदि, षड्डिध, काय, लोकश्रमण, एक, सिद्धान्त, यदि, विशेष, ण, लोक, विष्णु, श्रमण, अपि, आत्मन् एवं, न, किम्, अपि, मोक्ष, लोकथमण, दय, अपि, नित्यं, सदा, एव, मनुजासुर, लोक । मूलधातु-डुकृञ करणे, हशिर प्रेक्षणे। पदविवरण--लोयस्स लोकस्य-षष्ठी एकः । कुणड करोति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन किया । विष्टू विष्णुः प्रथमा एक० । सुरणारयतिरियमाणुसे सुरनारकतियंङ मानुषान्-द्वितीया बहु । सत्त्वान्द्वितीया बहु० । समणाणं श्रमणानां-षष्ठी बहु० । पि अपि-अभ्यय । अप्पा आत्मा-प्रथमा एक० । जइ यदि-अव्यय । कुय्यद करोति-वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया। छरिबहे षड्विधे-सप्तमी एक० । कायेसप्तमी एक० । लोगसमणाण लोकश्रमणानां-षष्ठी बहु० ! एयं एवं अव्यय 1 सिद्धत सिद्धान्त:-प्रथमा एकर । जइ यदि-अव्यय । ण न-अव्यय । दीसह दृश्यते--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। वित टोकार्थ--जो पुरुष प्रात्माको कर्ता ही मानते हैं वे लोकोत्तर होनेपर भी लौकिकपने को उल्लंघन नहीं करते (छोड़ते), क्योंकि लौकिक जनोंके मतमें तो परमात्मा विष्णु सुर नारक प्रादि शरीरोंको करता है और मुनियोंके मतमें अपना प्रात्मा सुर नारक आदिको करता है । इस प्रकार अन्यथा माननेका सिद्धान्त दोनोंके समान है । इसलिये प्रात्माके नित्य कर्तापनके माननेसे लौकिकजनकी तरह लोकोत्तर मुनियोंका भी मोक्ष नहीं होता । भावार्थजो प्रात्माको इस लोकका कर्ता मानते हैं वे मुनि भी हों तो भी लौकिक जन सरीखे ही हैं, क्योंकि लौकिक जन तो ईश्वरको कर्ता मानते हैं और मुनियोंने भी प्रात्माको कर्ता मान लिया, इस तरह इन दोनोंका मानना समान हुआ । इस कारण जैसे लौकिक जनोंको मोक्ष नहीं है, उसी तरह उन मुनियोंको भी मोक्ष नहीं । जो निरपेक्ष कर्ता होगा वह सदा करता ही रहेगा, तथा वह कार्यके फलको भोगेगा हो, और जो फल भोगेगा उसके मोक्ष कैसा ? अर्थात मोक्ष हो ही नहीं सकता। अब परद्रव्य और प्रात्मतस्त्रका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, ऐसा काव्यमें कहते हैंनास्ति इत्यादि । अर्थ--परद्रव्य और प्रात्मतत्त्वका कोई सम्बन्ध नहीं है, यों कर्ताकर्मसम्बन्ध का प्रभाव होनेसे मात्माके परद्रव्यका कर्तापन कैसे हो सकता है ? भावार्थ-परद्रव्य और प्रात्माका कुछ भी सम्बन्ध नहीं है तब फिर उनमें कर्ताकर्मसम्बन्ध कैसे हो सकता है ? अतः प्रास्माके कर्तापन भी क्यों होगा? प्रसंगविवरण--अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शान कर्मदशाका अकारक व Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार रणामपि नास्ति मोक्षः ।। नास्ति सर्वोऽपि संबंध: परद्रध्यात्मतत्वयोः । वर्तृकर्मरवसंबंधाभावे तत्कर्तृता कुतः ॥२००।। ३२१.३.३ ।। विष्णुः-प्रथमा एक० । समणाणं श्रमणानां-षष्ठी बहु० । वि अपि-अव्यय । अप्पओ आत्मक:-प्रथमा एक० ! कुणइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक 01 एवं न-अव्यय । को कः-प्रथमा एकः । वि अपि अव्यय । मोवखो मोक्ष:-प्र० ए. दीसह दृश्यते-वर्तमान लट अन्य पुरुष एक कर्मवाच्य क्रिया। लोगसमयाण लोकश्रमणानां-षष्ठी बहु०। दोण्हं येषां-षष्ठी बहु० । अपि-अव्यय । णिच्च नित्यंअव्यय । कुन्वंताणं कुर्वतां-षष्ठी बहु० । एव-अव्यय । मनुजासुरे मनुजासुरान्-द्वितीया बहु० । लोए लोकान-द्वितीया बहुवचन ।। ३२१-३२३ ।। प्रवेदक है, मात्र जाननहार है । अब इन तीन गाथानोंमें यह बताया है कि आत्माको परका कर्ता मानने वाले जन लौकिक जनोंकी भांति मोक्षजाको मीनही प्रत कर समात, मोक्ष तो प्राप्त होगा ही कैसे ? तथ्यप्रकाश-(१) जो किसी ईश्वरको समस्त परद्रव्योंकी, नरक तिर्यच मनुष्य देव को सृष्टि का कर्ता मानते हैं वे लौकिक कहलाते हैं । (२) जो अपने प्रात्माको परद्रव्योंकी, नरक तियंश्च देव मनुष्यकी, बस स्थावर जीवको सृष्टिका कर्ता मानते हैं वे यहाँ लोकोत्तरिक कहे गये हैं । (३) यदि प्रात्मा अपनी अस स्थावर जीवको सृष्टि करता है तो प्रात्मा तो मित्य है सो सदैव अपनी संसारदृष्टि करता रहेगा सो ही लोकोतरिक पुरुषोंको भी मोक्ष नहीं हो सकता । (४) यदि कोई ईश्वर जीवोंको संसारसृष्टि करता है तो १- ईश्वर सदा संसारसृष्टि करता रहेगा। २- जीवकी सृष्टि पराधीन हो गई सो जीव अपने मोक्षका उपाय न बना सकेगा सो यों लौकिक जनोंको भी मोक्ष नहीं हो सकता । (५) राग-द्वेष-मोहरूपसे परिमन हो कर्तृत्व कहा जाता है उस परिणमनके सतत होनेपर शुद्धात्मश्रद्धानज्ञानाचरणरूप रत्नत्रया. त्मक मोक्षमार्ग हो ही नहीं सकता अतः मोक्षका प्रभाव होगा। (६) वास्तविकता यह है कि ग्यात्मतत्वका किसी भी परद्रव्यसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, कर्तृकर्मत्वसम्बन्ध भी नहीं है, प्रतः पराधीनता नहीं। (७) स्वाधीन जीव जब कुज्ञानमें चलता है संसारसृष्टि होती है । (८) स्वाधीन जीव जब ज्ञानरूप परिणमता है तब मोक्षमार्गमें चलकर मोक्ष पाता है । (६) रागादि संसारपरिणमन कर्मोपाधिका निमित्त पाकर होनेमे नैमित्तिक है । (१०) नैमित्तिक भाव अस्व. भाव भाव होनेसे ८ जाया करता है ।। सिद्धान्त—(१) जीव अज्ञानवश अपने रागद्वेषादि भावोंकी सृष्टि करता है । (२) जीव शुद्धात्मज्ञान होनेपर अपने ज्ञानमय परिणामको सृष्टि करता है । दृष्टि-१- प्रशुद्धनिश्चयनय (४७) । २- शुद्धनिश्चयनय (४६, ४६ब) । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *૪* सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ववहार भासिए उपरदव्वं मम भांति यविदियत्था । जागंति विच्छये उसा य मह परमाणुमिच्चमवि किंचि ॥ ३२४ ॥ जह कोवि रो पड़ गामविसययररठं । णय होंति तस्स ताणि उ भाइ य मोहेण सो अप्पा || ३२५|| एमेव मिच्छदिट्ठी गाणी णिस्संसयं हवइ एसो | जो परदवं मम इदि जांतो अप्पयं कुइ ॥ ३२६ ॥ ताण मेति णिच्चा दोह वि एयाण कत्तविवसायं । परदव्वे जाणतो जागिज्जो दिट्ठिरहियाणं ६ २२७॥ व्यवहारवचन लेकर, मोही परद्रव्यको कहे मेरा । ज्ञानी निश्चय माने, मेरा प्रणुमात्र भी नहि कुछ ॥ ३२४॥ जैसे कोइ कहे नर, ग्राम नगर देश राष्ट्र मेरा है । किन्तु नहीं वे उसके, वह तो यौं मोहसे कहता ॥ ३२५ ॥ वैसे हि परपदार्थों को अपना जानि आत्ममय करता । यह आत्माभि मिथ्या दृष्टी हाता है निःसंशय ॥ ३२६ ॥ सो लौकिक क्षमरणों, परमें कत्व भावको लखकर परविविके ज्ञानी, मिथ्यादृष्टी उन्हें कहते ॥ ३२७॥ मामसंज्ञ --- ववहारमा सिय, उ, परदव्य, अम्ह, अविदियत्थ, णिच्छय, उ, ण, य, अम्ह, परमाणुमिच्च, अवि, किंचि, जह, के, वि, पर, अम्ह, ग्रामविसयणयर, ण, य, त, त, उ, य, मोह, त, अप्प, एमेव, प्रयोग -- संसारमूल भ्रमको छोड़कर मोक्षमूल शुद्धात्मतत्व के शान श्रद्धान भाचरण में लगना ।। ३२१-३२३ ॥ जो व्यवहारनयके वचनसे परद्रव्य मेरा है, ऐसे व्यवहारको हो निश्चयस्वरूप मान लेते हैं, वे अज्ञानी हैं, ऐसा अब दृष्टान्त द्वारा कहते हैं--- [श्रविदितार्थाः ] जिन्होंने पदार्थका स्वरूप नहीं जाना है वे पुरुष [ व्यवहारभाषितेन ] व्यवहारके कहे हुए वचनोंके द्वारा [परद्रव्यं मम तु ] परद्रव्य मेरा है ऐसा [भांति ] कहते हैं [तु] परन्तु ज्ञानी [निश्चयेन] निश्चयसे [ परमाणुमात्रं श्रपि ] परमाणु मात्र भी [किंचित् यम न ज ] कुछ मेरा नहीं है [जापति ] ऐसा जानते हैं । [ यथा ] जैसे [कोपि] कोई [ नरः ] पुरुष [ अस्माकं ] हमारा [ ग्रामविषयन गरराष्ट्र ] Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार व्यवहारभाषितेन तु परद्रयं नम भणत्यविदितार्थाः, जानति निश्चयेन तु न च मम परमाणुमात्रमपि किंचित्। यथा कोऽपि नरो जरूपति अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्र, न च भवंति तस्य तानि तु भणति च मोहेन स आत्मा। एवमेव मिथ्याष्टिानो निस्संशयं भवत्येषः । यः परद्रव्यं ममेति जाननात्माकं करोति ॥३२६|| तस्मान मम इति झावा येषामप्येतेषां कर्तृ व्यवसायं । परद्रव्ये जानन जानीयाद् दृष्टिरहितानां ॥३२७॥ ___अशानिन एव व्यवहारविमूढा परद्रव्यं ममेदमिति पश्यति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रति बुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यति । ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारवि. मूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन् मिथ्याष्टिः । तथा यदि ज्ञान्यपि कथंचिद् व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिच्छादिदि पाणि, गिमसंगाय. एट, परदन्यः भाग, शनि, जाणत, अप्पय, त, ण, अम्ह, इत्ति, दु, वि, एत, कत्तविवसाय, परदन्व, जाणत, जाणिज्ज, दिविरहिअ । धातुसंश-भण कथने, जाण अवबोधने, जप व्यक्तायां वाचि, हो सत्तायां, ह्व सत्तायां, कुण करणे । प्रातिपदिक-व्यवहारभाषित, तु, परद्रव्य, अस्मद, . अविदितार्थ, निश्चय, तु, न, च, अस्मद्, परमाणुमात्र, अपि, किंचित्, यथा, किम्, अपि, नर, अस्मद, ग्राम है, देश है, नगर है व राष्ट्र है [अल्पति] इस प्रकार कहता है [तु तानि] किन्तु वे ग्राम ! प्रादिक तस्य] उसके नि च भवंति] नहीं हैं सि प्रात्मा] वह प्रात्मा [मोहेन च भरणति] मोहसे मेरा, मेरा ऐसा कहता है । [एवमेव] इसी तरह [यः] जो ज्ञानी [परद्रध्यं मम इति] परद्रव्य मेरा है ऐसा [जानन] जानता हुमा [प्रात्मानं करोति] अपनेको परद्रव्यमय करता है [एषः] वह [निःसंशयं] निःसंदेह [मिथ्यादृष्टिः भवसि] मिथ्यादृष्टि होता है । [तस्मात्] ! इसलिये शानी [म मम इति ज्ञात्वा] परद्रव्य मेरा नहीं है ऐसा जानकर [एतेषां द्वघषामपि इत दोनोंके ही याने लोकिक जन तथा मुनियोंके परब्रव्ये] परद्रव्य में [कत व्यवसायं कर्ता'पनके व्यापारको [जानन] जानते हुए यह व्यवसाय [दृष्टिरहिताना] सम्यग्दर्शनसे रहित । पुरुषोंको [जानीयात] जानना चाहिये अर्थात उन दोनोंको सम्यग्दर्शनरहित जानना चाहिये । तात्पर्य जो परद्रव्यको अपना मानता है वह मिथ्याष्टि है। टोकार्थ-प्रशानी जन ही व्यवहार में विमूढ होते हुए परद्रव्य मेरा है ऐसा देखते हैं, किन्तु ज्ञानी जन निश्चयसे प्रतिबुद्ध होते हुए परद्रव्यको कणिकामात्रको भी यह मेरा है ऐसा नहीं देखते। इसलिए जैसे इस लोकमें कोई दूसरेके ग्राममे रहने वाला व्यवहारविमूढ पुरुष 'यह मेरा ग्राम है' ऐसे देखता हुमा मिथ्याष्टि कहा जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी भी किसी प्रकारसे व्यवहारमें विमूढ होकर 'यह परद्रव्य मेरा है' ऐसे देखे तो उस समय वह भी परद्रव्य को अपना करता हुमा मिथ्याष्टि ही होता है । अतः तत्त्वको जानने वाला पुरुष सभी परपरद्रव्य मेरा नहीं है' ऐसा जानकर "लौकिकजन और श्रमगजन इन दोनोंके जो परद्रव्य में Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार मिथ्याष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन सुरुमा लर्वमेव मशिनाला गोरामणानां द्वय पामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसाय: स तेषां सभ्यग्दर्शन रहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चित जानीयात् ।। एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्द्ध संबंध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः । तत्कत. ग्रामविपयनगरराष्ट्र, न, च, तत्, तत्, तु, च, मोह, तत्, आत्मन्. एब, एव, मिथ्याष्टि, ज्ञानिन, निस्सशायं, एतत्, यत्, परद्रव्य, अस्मद्, इति, जानन्त, आत्मन्, तत्, न, अस्मद. इति, य, अपि, एतत्, कर्तृधबमाय, परद्रव्य, जानन्त्, इति, दृष्टि रहित । भूलधातु-भण शब्दार्थः, ज्ञा यवनोधने, जल्प व्यक्तायां वाचि भ्वादि, भू सतायां, डुकृञ् करगो । पदविवरण-ववहारभासिएण व्यवहारभाषितेन-तृतीया एक० । उ तु-अव्यय । परद ब्वं परद्रव्यं-प्रथमा एक० । प्रम-पष्ठी एक० । भणति भणन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बह क्रिया । अविदियत्था अधिदितार्था:-प्रथमा बह जाणंति जानन्ति-वर्तमान लद अन्य पुरुष बह। णिच्छयेण नियनयेन-तृतीया एक० । उ तु ण न य च-अव्यय । मह मम-पष्ठी एक० । परमाणुमिच्न परमाणुमावं-प्रथमा एकवचन । अवि अपि-अव्यय । किचि किचित्-अव्यय । जह यथा--अव्यय । को क:प्रथमा एकवचन । वि अपि-अव्यय । णरो नरः-प्रथमा एक जंपद जल्पति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अम्ह अस्माक-पष्ठी बह गामविसयणयरस्ट ग्रामविषयनगर रास्ट्र-प्रथमा एक।णन.यु च-अव्यय । होति भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । तस्स तस्य-परठी एक० । ताणि तानि-प्रथमा कर्तापनका निश्चय है वह उनके सम्यग्दर्शनके न होनेसे ही है," ऐमा सुनिश्चित जाने । भावार्थ---ज्ञानी होकर भी यदि व्यवहारमोही हो, तो वह लौकिकजन हो या मुनिजन, दोनों अब इसी अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं - एकस्य इत्यादि । अर्थ—चंकि इस जगत में एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सभी सम्बन्ध निषेधा गया है इस कारण जहाँ वस्तु भेद है वहाँ कर्ता-कर्मकी घटना हो नहीं है । अत: मुनिजन तया लौकिकजन वस्तुके यथार्थ स्वरूपको प्रकर्ता ही श्रद्धामें लाप्रो।। ___ अब अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही है, ऐमा काव्य में कहते हैं---ये तु इत्यादि । अर्थ---ग्रहो, जो पुरुष वस्तुस्वभावके नियमको नहीं जानते और जिनका पुरुषार्थ रूप तेज प्रज्ञानमें डूब गया है वे दीन होकर कर्मोको करते हैं । अतः भाव कर्मका कर्ता चेतन ही स्वयं है, अन्य नहीं है । भावार्थ----प्रशानी मिथ्यादृष्टि वस्तुके स्वरूपका नियम जानता नहीं है, और परद्रव्यका कर्ता बनता है, तब चूकि वह स्वयं यों अज्ञानरूप परिणमता है इस कारण अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी ही है, अन्य नहीं है । ऐमा निश्चित समझिये । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथात्रिकमें यह निष्कर्ष प्रसिद्ध किया था कि प्रात्मतत्त्व का परद्रव्य के साथ कर्तृकर्मत्व प्रादि कोई सम्बन्ध नहीं है । अब इन चार माथानोंमें बताया है कि परद्रव्योंका जो अन्य के साथ कर्तृ कर्मत्व स्वामित्व आदि कुछ भी सम्बन्ध मानते हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ समयसार घटनास्ति न वस्तुभेदे पश्यंस्वकर्तृ भुनयश्च जनाश्च तत्त्वं ॥ २०९ ॥ ये तु स्वभावनियमं *लयंति ममज्ञानमग्न महसो बत ते बराकाः । कुर्वन्ति कर्म तत एव हि भावकर्म कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।। २०२ ।। ।। ३२४-३२७ ।। बहु० | भइ भणति - प्रथमा एक० । मोहेण मोहेन-तृतीया ए० । सो सः प्रथमा एकवचन । अप्पा आत्माप्र० एक० । एमेव एवमेव अव्यय । मिच्चादिट्ठी मिथ्यादृष्टिः प्र० एक० । गाणी ज्ञानी - प्र० ए० । निस्संसयं निःसंशयं - क्रियाविशेषण यथा स्वात । - अन्य पुरुष एक० क्रिया । एसो एषः - प्रथमा एकवचन । जो यः प्रथमा एक० । परदव्वं परद्रव्यं प्रथमा एक० । मम षष्ठी एक० । इदि इति- अव्यय । जाणतो जानन् - प्रथमा एक० । अप्पयं आत्मकं द्वितीया एकवचन । कुणइ करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० तम्हा तस्मात् पंचमी एक० ग न अव्यय । मेत्ति मेति-अव्यय । णिच्चा ज्ञात्वाअसमाप्तिकी क्रिया । दोष्हं येषां षष्ठी बहु० । वि अपि-अव्यय । एयाण एतेषां षष्ठी बहु० । कतविव. सायं कर्तृ व्यवसाय - द्वितीया बहुवचन । परदब्वे परद्रव्ये सप्तमी एक० । जाणतो जानन् प्रथमा एक० । जाणिज्जो जानीयात् विधिलिङ अन्य० एक० । दिट्टिरहियाणं दृष्टिरहितानां षष्ठी बहु० ।। ३२४-३२७ ।। तथ्य प्रकाश--- ( १ ) जो व्यवहार में विमुग्ध हैं वे प्रज्ञानी हैं । (२) अज्ञानी हो परद्रव्य मेरा है ऐसा निरखते हैं । (३) ज्ञानी पुरुष तथ्य तत्त्वको जानते हुए भी व्यवस्थावश कभी बोलते हैं कि मकान मेरा है आदि सो वह व्यवहारभाषा से ही बोलते हैं । ( ४ ) निश्चयज्ञानी पुरुष परमाणुमात्र भी परद्रव्यको अपना नहीं निरखते। (५) लौकिक जनोंको जो परकर्तृव 'का निश्चय है वह मिथ्यात्व है । (६) लोकोत्तरिक (श्रमण) जनों को भी जिनको परकर्तृत्व का श्रद्धान है वे भी मिथ्यादृष्टि हैं । ( ७ ) एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यके साथ कर्तृकर्मत्थ श्रादि सम्बंध निरखना सम्यक् दर्शन नहीं है । (८) प्रत्येक द्रव्यकी शक्ति व परिणति स्वयं स्वयंके अपने ही प्रदेशोंमें परिसमाप्त है इस वस्तुस्वरूपको न जानने वाले कायर होकर विकल्प किया करते हैं । सिद्धान्त - ( १ ) व्यवहारविमूढता में स्वामित्वविषयक अनेक उपचार बन जाते हैं । (२) निश्चयज्ञान में मात्र स्व स्व उपादानको दृष्टि होती है । दृष्टि - १ - संश्लिष्ट स्वजात्युपचरित व्यवहारसे परभोक्तृत्व उपचरित प्रसद्भूत व्यवहार तक व परस्वामित्व असभूत व्यवहार (१२३, १२४, १२५, १२६, १२७, १२८, १२६, १२६, १२, १२, १३५) २ - निश्चयनय (४४ से ४७ व ४६ ब ) । प्रयोग-- प्रत्येक पदार्थको स्वस्वप्रदेशपरिसमाप्त निरखकर निर्मोह रहना ॥३२४-३२५ ।। अथ इस कथनको युक्तिसे पुष्ट करते हैं कि जीवके जो मिध्यात्वभाव होता है उसका निश्चय कर्ता कौन होता है ? - [ यदि ] यदि [ मिध्यात्वं प्रकृतिः] मिथ्यात्यनामक मोहक - की प्रकृति [आत्मानं ] आत्माको [ मिध्यादृष्टि] मिध्यादृष्टि [ करोति ] करती है ऐसा माना Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविशुद्धशानाधिकार मिच्छत्तं जइ पयडी मिच्छाइट्टी करेइ अप्पाणं । तमा अचेदणा दे पयडी गणु कारगो पत्तो ॥३२८॥ अहवा एसो जीवो पुग्गलदव्वस्स कुणइ मिच्छत्तं । तमा पुग्गलदव्वं मिच्छाइट्ठी ण पुण जीवो ॥३२६॥ अह जीवो एयडी तह पुग्गलदव्वं कुणंति मिच्छत्तं । तह्मा दोहि कदं तं दोण्णिवि भुञ्जन्ति तस्स फलं ॥३३०॥ ग्रह ण पयडी ण जीवो पुग्गलदव्वं करेदि मिच्छत्तं । तमा पुग्गलदव्वं मिच्छत्तं तं तु ण हु मिच्छा ॥३३॥ मिथ्यात्व प्रकृति मिथ्या दृष्टी यदि प्रास्माको करता है। तो फिर प्रकृति अचेतन, हो कारक प्राप्त होवेषा ॥३२८॥ अथवा यदि जोव करे, पुद्गलद्रव्यके मिश्या प्रकृतिको। तो पुद्गल ही मिथ्या दृष्टि हुआ किन्तु जीव नहीं ॥३२६॥ यदि जीव प्रकृति दोनों, हि पुद्गलके मिथ्यात्वको करते। तो दोनोंके द्वारा, कृत विधिका फल भजे दोनों ॥३३०॥ यदि प्रकृति जीव दोनों, पुद्गल मिथ्यात्वको नहीं करते। पुद्गलद्रव्य मिथ्याव, है यह कहना बने मिथ्या ॥३३१॥ नामसंशमिच्छत्त, जदि, पयडि, मिच्छाइडि, अप्प, तत्, अचेदण, ज, तुम्ह, पयडि, पणु, कारग, पत्त, अहवा, एत, जीव, पुग्गलदच्च, मिच्छत्त, त, पुगलदव्य, मिच्छाइट्ठि, ण, पुण, जीव, अह, जीव, पडि, तह, पुग्गलदव्य, मिच्छत्त, त, दु, कद, त, दु, वि, त, फल, अह, ण, पयाडि, ण, जीव, पुणलदव्य, मिच्छत्त, त, पुग्गलदत्व, मिच्छत्त, त, तु, ण, हु, मिच्छा । धातुसंज्ञ-कर करणे, कुण करणे, मुंज भोगे। प्रातिपदिक-मिथ्यात्व, यदि, प्रकृति, मिथ्याष्टि, आत्मन्, तत्, अचेतना, युष्मद, प्रकृति, ननु, कारका, जाय [तस्मात् ननु] तो अहो सांख्यमतानुयायो [ते अचेतना प्रकृप्तिः] तेरे मतमें प्रचेतन प्रकृति [कारका प्राप्ता] जीवके मिथ्यात्वभावको करने वाली हो पड़ी ? [अथवा] अथवा [एष जीवः] यह जीव हो [पुदगलद्रव्यस्य मिथ्यात्वं] पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वको [करोति करता है [तस्मात्] ऐसा माना जाय तो ऐसा माननेसे [पुद्गलद्रव्यं मिथ्याष्टिः] पुद्गलद्रव्य मिथ्यादृष्टि हो पड़ा [न पुनः जीवः] जीव मिथ्यादृष्टि नहीं ठहरा ? [अथ] अथवा यदि [जीवः तथा प्रकृतिः] जीव और प्रकृति दोनों [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्यको [मिथ्यास्वं] मिथ्यात्वरूप Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ समयसार मिथ्यात्वं यदि प्रकृतिमिथ्या दृष्टि करोत्यात्मानं । तस्मादचेतना ते प्रकृतिनंनु कारका प्राप्ता ।।३२८|| अथवैष जीव: पुद्गलद्रव्यस्य करोति मिथ्यात्वं । तस्मात्पुद्गलद्रव्यं मिथ्याष्टिर्न पुनर्जीवः ॥३२६।। अथ जीवः प्रकृतिस्तथा पुद्गलद्रव्यं कुर्वन्ति मिथ्यात्वं । तस्मादाभ्यां कृतं नद द्वापि भुजाते तस्य फलं ।। अथ न प्रऋतिनं जीवः पुद्गलद्रव्यं करोति मिथ्यात्वं । तस्मात्पुद्गल द्वन्यं मिथ्यात्वं तनु न खलु मिथ्या ।। ___ जीत्र एवं मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषंगात् । स्वरयंव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभाव कर्मणि प्राप्ता, अथवा, एतत्, जीव, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व. तत्, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यादृष्टि, न, पुमा, जीव, अथ, जीव, प्रकृति, तथा, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व, तत्. द्वि, कृत, तत्, द्वि. अपि, तत्. फल. अथ, न, प्रकृति, न, जीव, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व, तत्, पुद्गलद्रव्य, मिथ्यात्व, तत्, तु, न, खल, मिथ्या। मूलधातु - डुकृत्र करण, भुज पालनाभ्यवहारयोः रुधादि । पदविवरण मिच्छन मिथ्यात्वं-प्रथमा एक० । अदि यदिअव्यय । परडी प्रकृति:-प्रथमा एक० । मिच्छाइट्टी मिथ्या टि-द्वितीया एक । करेइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । अप्पाणं आरमानं-द्वि० एकः । तम्हा तस्मात्-पत्र मी एक० । अचेदणा अचेलनाप्रथमा एकवचन । दे ते-षष्ठी एक । यडी प्रकृतिः-प्रथमा एक० । गणु तनु-अव्यय । कारगी कारका[कुर्वन्ति ] करते हैं [तस्मात्] ऐसा माना जाय तो [हाभ्यां कृत] दोनोंके द्वारा किया गया [तस्य तत् फलं] उसका वह फल दापि भुञ्जाते] दोनों ही भोग डालें । [अथ] अथवा यदि [पुदगलद्रव्यं मिश्नात्वं पुद्गल द्रव्यको मिथ्यात्वरूप [न प्रकृतिः न जीवः कुरुते न तो प्रकृति करती है और न जीद करता है [तस्मात्] ऐसा माना जाय तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं] पुद्गलद्रव्य ही स्वभावसे मिथ्यात्व भावरूप हुमा तत्तु] सो ऐसा मानना [खलु] क्या [मिथ्या न] झूठ नहीं हैं ? इसलिये यह सिद्ध होता है कि अशुद्धनिश्चयसे मिथ्यात्वनामक भावकर्मका कर्ता अज्ञानी जीव है । तात्पर्य -... मिथ्यात्वप्रकृतिका उदय तो निमित्तमात्र है और वहां मिथ्यात्वभावरूप जीव हो परिणमता है। टीकार्थ--जीव ही मिथ्यात्व प्रादि भावकमका कर्ता है। यदि उसके अचेतन प्रकृति का कार्यपना माना जाय, तो उस भावकमको भी अचेतनपैनेका प्रसंग पा जायगा । जीवं.. प्रएने हो मिथ्यात्वे श्रादि भावकर्मका कर्ता है। यदि जीवके द्वारा पुद्गलद्रव्य के मिथ्यात्व 'पादिक भावकर्म किया गया माना जाय तो पुद्गलद्रव्यके भी चेतनपनेका प्रसंग मा जायगा। तथा जीव और प्रकृति दोनों ही मिथ्यात्व आदिक भावकर्मके कर्ता हैं, ऐसा भी नहीं है, क्योंकि फिर तो अचेतन प्रकृतिको भी जीवकी तरह उसका फल भोगने का प्रसग प्रा जायगा। सथा जीव और प्रकृति ये दोनों प्रकर्ता हों ऐसा भी नहीं है, क्योंकि यदि ये दोनों प्रकर्ता हो तो पुद्गलद्रव्यके अपने स्वभावसे ही मिथ्यात्व आदि भावका प्रसंग प्राता है. इससे यह Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार क्रियमारणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुपंगात् । न च जीवश्च प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ जीववदचेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषंगात् । न च जीवश्च प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौवायकर्तारी, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुपंगात् । ततो जीव: कर्ता स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धं । कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरझा. प्रथमा एक० । पत्तो प्राप्ता-प्र० एक। अहवा अथवा-अध्यय। एसो एषः-प्र० ए० 4 जीवो जीव:-प्र० ए० । पुग्गलदब्बस्स पुद्गल द्रव्यस्य--पप्टी एक० । कुणइ करोति--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । मिच्छत मिथ्यात्वं-द्वितीया एका । सम्हा तस्मात्-पंचमी एक । पुग्गलदव्वं पुद्गलद्रव्यं-प्रथमा एक । मिच्छाइट्ठी मिथ्या दृष्टि:-प्रथमा एकवचन । ण पुण न पुन:-अध्यय । जीवो जीवः-प्रथमा एकल । अह अथ-- सिद्ध हुआ कि मिथ्यात्व प्रादि भावकर्मका कर्ता जीव है और भावकर्म उस जीवका कार्य है। भावार्थ-भावकमका कर्ता जीव ही है, यह इन गाथावों में सिद्ध किया है । परमार्थसे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके भावका कर्ता होता ही नहीं है। इसलिये जो चेतनके भाव हैं उनका चेतन ही कर्ता होता है । इस जीत्रके अज्ञान से जो मिथ्यात्व ग्रादि भावरूप परिणाम हुए हैं वे चेतन हैं, जड़ नहीं हैं । शुद्धनयको तुलनामें उनको चिदाभास भी कहते हैं । इसलिये चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही होना परमार्थ है। अभेददृष्टि में तो जीव शुद्ध चेतनामात्र है, परन्तु कर्मके निमित्तसे जब परिणमन करता है तब उन विभाव परिणामोंसे युक्त होता है। उस समय परिणाम-परिणामीको भेददृष्टि में अपने प्रज्ञानभाव परिणामोंका कर्ता जीव हो है । अभेद दृष्टिमें तो कर्ता-कर्मभाव ही नहीं हैं, शुद्ध चोतनामात्र जीववस्तु है । इस प्रकार यहां यह सम. झना कि चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही है। अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-कार्यत्वा इत्यादि । अर्थ-कार्यपना होनेसे कर्म अकृत याने बिना क्रिया नहीं होता। और ऐसा भी नहीं है कि वह भावकम जोव और प्रकृति इन दोनोंका किया हुआ हो, क्योंकि फिर तो जड़ प्रकृतिको भी उसको अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग पाता है तथा भावकर्म एक प्रकृतिका ही कार्य हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि प्रकृति तो अदेतन है और भावकर्म चेतन है। इस कारण इस भावकर्मका कर्ता जीव ही है व यह भावकर्म जीवका हो कर्म है, क्योंकि भावकर्म चेतनसे अन्वयरूप है । और पुद्गल ज्ञाता नहीं है इसलिये भावकम पुद्गलका नहीं है । भावार्थ-चेतनकर्म चेतनके ही हो सकता है। पुद्गलके चेतनकर्म कैसे होगा ? अब जो कोई भावकर्मका भी कर्ता कर्मको ही मानते हैं उनको समझाने के लिये स्याद्वादसे बस्तुकी मर्यादाका सूचनाका काव्य कहते हैं-कर्मव इत्यादि । अर्थ-कोई अात्मघातक Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ समयसार - - - - ..-- - -- - --- या प्रकृतेः स्वकार्यफलभुक्भावानुषंगात्कृतिः । नकस्याः प्रकृतेर चित्त्वलसनाज्जीवोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।। कमब प्रवितयं कर्तृ हतकः क्षिप्त्वाअव्यय । जीवो जीवः-प्रथमा एक० । पयडी प्रकृति:-प्रथमा एक० । तह तथा-अव्यय । पुग्गलदध्व मिच्छत्तं पुदगलद्रव्यं मिथ्यात्व-द्वितीया एकवचन । कुणति कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० क्रिया । तम्हा तस्मात्-पंचमी एक । दोहिं द्वाभ्यां-तृ० बहु । कदं कृतं-प्रथमा एक० । तं तत्-प्रथमा एक० । दोष्णि प्र. बहु० । द्वी-प्र० दि० 1 वि अपि-अव्यय । भुंजंति-वर्तमान अन्य पुरुष बहु० क्रिया । भुंजाते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष द्विवचन । तस्स तस्य-षष्ठी एक० । फल-द्वितीया एक० । अह ण अथ न-अव्यय । पथडी सर्वथा एकान्तवादो कर्मको ही कर्ता विचारकर प्रात्माके कर्तृत्वको उड़ाकर 'यह प्रात्मा कथंचित् करता है' ऐसी कहने वाली जिन-भगवानकी निर्वाध श्रतरूप वाणीको कोपित करते हैं याने जिनवाणीकी विराधना करते हैं ऐसे आत्मघातोको जिनकी कि बुद्धि तीन मोहसे मुद्रित हो गई है, उनके ज्ञानको संशुद्धि के लिए स्याद्वादसे निर्वाधित वस्तुस्थिति कही जाती है। मावार्थ-जो सर्वथा एकांतसे भावकर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्माको अकर्ता कहते है, वे प्रात्माके स्वरूपके घातक हैं। जिनवाणो स्याद्वाद द्वारा वस्तुको निर्वाध कहती है। वह वाणी पात्माको कथंचित कर्ता कहती है सो उन सर्वथा एकांतवादियोंपर जिनवाणीका कोप है । उनको बुद्धि मिथ्यात्वसे ढक रही है। जानो गिः यात्वके दूर करनेको प्राचार्य स्याद्वादसे जैसे दस्तुको सिद्धि होती है वैसा अब कहते हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें बताया गया था कि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, फिर कर्तृकर्मभाव एकका दूसरेके साथ कैसे हो सकता है । अब इस गाथाचतुरुकमें युक्तिपुरस्सर कर्म और आत्माका कर्तृकर्मत्व निराकृत किया है। तध्यप्रकाश-१-प्रत्येक पदार्थ अपनी अपनी ही परिणतिका कर्ता हुमा करता है । २-अज्ञानी जीवको परिणति मिथ्यात्व प्रादि भावकम है । ३- मिथ्याल्वादि भावकमका कर्ता भीव है अचेतन कर्म नहीं । ४- यदि अचेतन मिथ्यात्वप्रकृति मिथ्यात्वादि भावकर्मको कर दे तो भावकर्म जड़ हो जायगा। ५-जीव स्वके ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है । ६-यदि जीव मिथ्यात्वादि भावकर्मको पुद्गलके कर दे तो पुद्गलद्रव्यको चेतन बन जाना पड़ेगा। ६-जीव व पुद्गल दोनों मिलकर मिथ्यात्वादि भावकर्म नहीं करते । ७- यदि मिथ्यात्वादिभावको जीवकी भांति पुद्गल भी करने लग जावे तो जीवकी तरह पुद्गलको भी मिथ्यात्वादि फल भोगनेका प्रसंग मा जावेगा | E- यदि मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता जीव व पुद्गल किसीको भी न माना जाय तो मिथ्यात्वादि भावकर्म किसीके भी हो स्वभावसे हो बैठेंगें । Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार त्मनः कर्तृतां कर्ताष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिछुतिः कोपिता । तेषामुद्धतमोहमुद्रितधियाँ बोधस्य संशुद्धये स्याद्वादप्रतिबंधलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ॥ २०४॥ ।। ३२८-३३१।। प्रकृतिः - प्र० ए० । ण न-अव्यय । जीवो जीवः प्र० ए० । पुग्गलदव्वं मिच्छत्तं पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वं द्वि० ए० । करेदि करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । तम्हा तस्मात् पंचमी एक० । पुग्गलदव्यं मिष्यतं गुगल गियातु ण हु तु न खलु अव्यय । मिच्छा मिथ्याप्रथमा एकवचन || ३२८-३३१ ।। ६- मिथ्यात्वादि भावकर्म जीव में स्वभावसे नहीं होते, किन्तु मिथ्यात्वादि प्रकृत्युदयका निमित्त पाकर जीन में होते । १० - मिथ्यात्वादि भावकर्म पुद्गलमें कभी संभव ही नहीं है । ११ - शुद्ध • नयको दृष्टिसे मिथ्यात्वादि भावकर्म चिदाभास हैं । १२- शुद्ध निश्चयनयसे जोव मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है । १३ - शुद्ध निश्चयनयसे जीव सम्यक्त्वादि स्वभावभावका कर्ता है | १४- परमशुद्ध निश्चयनय अथवा शुद्धनयकी दृष्टिसे जोव अकर्ता है । १५ - मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता पुद्गल नहीं | १६ - जीव तो परिणामी हो और मिथ्यात्वादि प्रकृति हठपूर्वक जीवको मिथ्यादृष्टि श्रादि कर दे ऐसा वस्तुस्वभाव नहीं । १७ - प्रकृति (कर्म) परिणमनस्वभावी है प्रोर जीव भी परिणमनस्वभावी है । १८ - जीव और कर्म दोनोंके हो परिणमनस्वभावी होनेपर उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंधको व्यवस्था है तथा बंध मोक्षकी प्रक्रिया है । ( १६ ) भिन्न पदार्थोंमें निमित्तनैमित्तिक संबंध हो सकता है । ( २० ) एक पदार्थ कर्तृकर्म है । सिद्धान्त - १ - जीव मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है । २- कर्मप्रकृति मिथ्यात्वादिभावकर्मका कर्ता नहीं । ३-जीव प्रकर्ता व प्रभोक्ता है । दृष्टि - १ - शुद्ध निश्चयनय (४७) प्रयोग -- अपनी भूल के कारण किये अपने शुद्ध ज्ञानमात्र स्वरूप में विहार करना ।। ३२८-३३१ ।। २ - उपादानदृष्टि (४९) । ३ - शुद्धनय (४६) । i गये भावकर्मको अपनी सुधके बलसे दूर कर अब आत्माके कर्तृत्व व कर्तृ स्वके सम्बन्ध में स्याद्वादशासनका निध करते हैं--- [कर्मभिस्तु ] कर्मोंके द्वारा [ श्रज्ञानी] जीव प्रजानी [क्रियते] किया जाता है [तर्भव] उसी प्रकार [कर्मभिः ] कर्मो के द्वारा जीव [ज्ञानी ] ज्ञानो किया जाता है, जीव [कर्मभिः] कमौके द्वारा [स्वाप्यते ] सुलाया जाता है [ तथैव ] उसी प्रकार जीव [कर्मभिः ] कमौके द्वारा ही [ जागयंते ] जगाया जाता है [ कर्मभिः सुखीक्रियते ] कमौके द्वारा जीव सुखी किया जाता है [ तथैव ] उसी प्रकार जीव [कर्मभिः दुःखीकियते] कमौके द्वारा दुःखी किया जाता है [च] [कर्मभिः मिध्यात्वं नीयते ] कमौके द्वारा मिथ्यात्वको प्राप्त कराया जाता है [ चैच] Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ समयसार कम्मे हिंदु अण्णाणी किजइ गाणी तहेव कम्मेहिं । कम्मे हिं सुवाविजइ जग्गाविज्जइ तहेव कम्मेहिं ॥३३२॥ कम्मे हिं सुहाविज्जइ दुक्खाविज्जह तहेव कम्मेहिं । कम्मेहिं य मिच्छत्तं णिज्जइ णिज्जइ असंजमं चेव ॥३३३॥ कम्मेहिं भमाडिज्जड् उड्ढमहो चावि तिरियलोयं य । कमेम्हिं चैव किज्जइ सुहासुहं जत्तियं किंचि ॥३३४|| जह्मा कम्मं कुबइ कम्मं देई हरत्ति जं किंचि । तमा उ सव्वजीवा अकारया हुँति श्रावण्णा ॥३३५॥ पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसइ । पमा अायरियपरंपरागया एरिसी दु सुई ॥३३६॥ तह्मा गा कोवि जीवो अवंभचारी उ ब्रह्म उवएसे । जह्मा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसइ इदि भणियं ॥३३७॥ जमा घाएइ परं परेण घाइजए य सा पयडी। एएणच्छेण किर भण्णइ परघायणामित्ति ॥३३॥ नामसंज्ञ----कम्म, दु, अण्णाणि, णाणि, तहेव, मिच्छत्त, असंजम, चेव, उड्ढं, अहो, तिरियलोय, सुहासुह, जित्तिय, किंचि, तत्, उ, सब्बजीव, अकारय, आवष्ण, पुरुमित्थियाहिलासि, इत्थीकम्म, च, तथा असंयम नीयते] असंयमको प्राप्त कराया जाता है [कर्मभिः ऊध्र्य चापि प्रधः च तिर्यग्लोक भ्राम्यते] जीव कर्मों के द्वारा ऊध्र्वलोक तथा अधोलोक और तिर्यग्लोकमें भ्रमाया जाता है [च कर्मभिः एव और कर्मोके द्वारा ही यत्किचित् यावत् शुभाशुभं क्रियते] जो कुछ शुभ अशुभ है वह किया जाता है । सो [यस्मात्] चूँकि [इति यत् किचित्] इस प्रकार जो कुछ भी है उसे [कर्म करोति] कर्म ही करता है [कर्म वदाति] कर्म ही देता है {हरति] कर्म ही हरता है [तस्मात्तु] इस कारण [सर्वजीयाः] सभी जोय [अकारका प्रापन्नाः भवंति प्रकर्ता प्रसक्त होते हैं। [ईदृशी एषा आचार्थपरंपरागता तु श्रुतिः] तथा ऐसो यह प्राचार्योको परिपाटीसे आई हुई धृति है कि [पुरुषः] पुरुषवेदकर्म तो स्त्र्यमिलाषी] स्त्रीका अभिलापी है [च] और [स्त्रीकर्म] स्त्रीवेदकर्म [पुरुवं अभिलषति पुरुषको बाहता है। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार विदे। ता को जीवो वा जमा कम्मं चेव हि कम्मं घाएदि इदि भणियं ॥ ३३६ ॥ एवं संखुवएस जे उपरुविंति एरिसं समणा । तेसिं पडी कुव्वह अप्पा य कारया सुळे || ३४०॥ ग्रहवा मरासिम अप्पा अप्पाणमपणो कुगाई । एसो मिच्छमहावो तुम्हें एवं मुगांतस्स || ३४१॥ अप्पर fat संखिज्जपदेसो देखियो उ समयम्हि | वि सो सकड़ तत्तो होणो अहियो य काउं जे ||३४२ ॥ जीवस्स जीवरूवं वित्थर दो जागा लोगमित्तं ख । तत्तो सो किं होणो अहियो व कहं कुगाइ दव्वं ॥ ३४३ ॥ यह जाणयो उ भावी गाणसहावेण यत्थि इत्ति मयं । तह्मा वि पापयं तु सयमपणो कुणाई || ३४४ || कमसे अज्ञानी, किया जाता ज्ञानी भि कर्मोंसे । कर्म सुला देते हैं, कर्म हि इसको जगा देते ॥ ३३२ ॥ कर्म सुखी करता है, दुखी भि होता तथैव कर्मोंसे । कर्म हि मिथ्यात्व तथा असंयमन भावको करता ॥ ३३३॥ ५५६ पुरिस, एत, आयरियपरंपरागया एरिसी, सुई, क, वि. जीव, अबंभचारि, अम्ह, उबएस, ज. भणिय, पर, *न, पर्याड, एत, अच्छ, किर, परघातनाम, इति, तत्, ण, क, वि, वधायअ, उबदेस, संखुवएस. ज. एरिस "समण, त पर्याड, अप्प, अकारय, सव्य, अहवा, अम्ह, मिन्छसहाव, तुम्ह, एस, मुणंत, णिच्च, असंखिज्ज• प्रदेस, देसि, व, समय, पवि, त, तत्तो, हीण, अहिअ, य, ज, जीवरूव, वित्थरदो लोगमित्त, खु, ल, किं, [तस्मात् ] इससे [कोपि जीवः ] कोई भी जीव [ श्रब्रह्मचारी न ] ब्रह्मचारी नहीं है [ श्रस्माकं तु उपदेशे ] हमारे उपदेशमें तो ऐसा है [ यस्मात्] कि [कर्म चैव हि ] कर्म ही [[कर्म श्रभिति ] कर्मको चाहता है [ इति भरिणतं ] ऐसा कहा है। [यस्मात् ] जिम कारण [ स प्रकृतिः ] वह प्रकृति ही [परं] दुसरेको [हंति ] मारता है [च] और [ परेश हन्यते] परके द्वारा मारा जाता है [ एतेन अर्थन] [ परघात नाम इति मध्यते ] यह परघात नामक प्रकृति है यह कहा जाता है इस कारण [ श्रस्माकं उपदेश ] इसी ग्रर्थसे [तस्मात् ] Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कर्म भ्रमाता रहता, ऊर्ध्व अधः मध्यलोकमें इसको। कर्म किया करता है, शुभ व प्रशभ भाव भी सब कुछ ॥३३४॥ क्योंकि कर्म करता है, देता हरता है कर्म ही सब कुछ । इससे समस्त आत्मा, अकारक हि प्राप्त होते हैं ॥३३॥ पुरुषवेद नारीको, स्त्रोधेद मि कर्म पुरुषको चाहे । यह है प्राचार्यपरं-परागता श्रुति भी तत्साधक ॥३३६॥ अभिलाषा करता है, कर्मको कर्म यह बताया जब । तब फिर जीव भि कोई, व्यभिचारी भी न हो सकता ॥३३७॥ भू कि प्रकृति ही परको, घाते परसे व घात उसका हो । इस ही कारण उसका, परघातप्रकृति नाम हुभा ॥३३॥ इस कारणसे प्रात्मा, धातक नहिं है हमारे प्राशयसे । क्योंकि कर्मको कर्म हि, धाता करता बताया है ॥३३६॥ ऐसे सांख्याशयको, इस प्रकार श्रमण जो प्रकट करते । उनके प्रकृति हि कर्ता, प्रात्मा होते अकारक सब ॥३४०।। यदि मानो यह प्रात्मा, अपने आपका आप करता है। तो मान्यता तुम्हारी, है मिथ्याभावकी यह सब ॥३४१॥ जीव प्रसंख्यप्रदेशी, नित्य बताया जिनेन्द्र शासनमें । उससे कभी न छोटा, न बड़ा भी किया जा सकता ॥३४२॥ "कह. दब्ब, अह, जाणअ, भाव, णाणराहाव, इत्ति, मय, अप्पय, सयं, अप्प। धासुसंश-कर करणे, जग्ग निद्राक्षये, सुहाय सुखी करणे नामधातुप्रत्रिया, दुक्खाय दुखीकरणे नामधातुप्रक्रिया, ने प्रापणे, भम भ्रमणे, कर करणे, कुन्च करणे, दा दाने, हर हरणे, अहि लस इच्छाकोडनयोः, घात हिंसायां, प स्व घटनायां, मन्न अवबोधने, कुण करणे, सक्क सामर्थ्य, कर करणे, जाण अवबोधने, अस सत्तायां । प्रातिपदिक-कर्मन, हमारे उपदेशमें [कोपि जीवः] कोई भी जीव [उपधातको नास्ति] उपवात करने वाला नहीं है [यस्मात्] क्योंकि कर्म चंव हि] कर्म हो [कर्म हंतीति मरिणतं] कर्मको पातता है ऐसा कहा है [एवं तु] इस तरह [ये श्रमणाः] जो कोई यति [ईदृशं सांख्योपदेशं प्ररूपयंति] ऐसे सांख्यमतका उपदेश निरूपण करते हैं [तेषां] उनके मतमें [प्रकृतिः] प्रकृति हो [करोति] करती है [च सर्वे प्रात्मानः] और प्रात्मा सब प्रकारकाः] अकारक ही हैं, [अथवा] प्राचार्य कहते हैं यदि [मन्यसे] तू ऐसा मानेगा कि [मम आत्मा] मेरा प्रात्मा -- - Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार जीवका जीवरूपक, विस्तृत लोकपरिमाण तक जानो। उससे होन या अधिक, कैसे है कोई कर सकता ॥३४३॥ यदि ऐसा मानो यह, ज्ञायक निज ज्ञानभावसे है ही। तो सिद्ध हुआ प्रात्मा, अपनेको पाप नहि करता ॥३४४॥ कर्मभिः सुखायते दुःखायते तथैव कर्मभिः। कर्मभिश्च मिथ्यात्वं नीयते नीयतेऽसंयमं चैव ॥ ३३३ ।। __ कर्मभिर्भ्राम्यते ऊर्वमघश्चापि तिर्यग्लोक च 1 कर्मभिश्चैव क्रियते शुभाशुभं यावत्किचित् ।। ३३४ । यस्मात् कर्म करोति कर्म ददाति कर्म हरतीति यत्किचित् । तस्मात्तु सर्वजीवा अकारका भवंत्यापन्नाः ।। पुरुषः स्यभिलाषी स्त्रीकर्म च पुरुषमभिलषति । एषाचार्यपरंपरागतेदृशी तु श्रुतिः ।। ३३६ ॥ तस्मान्न कोऽपि जीवोऽब्रह्मचारी त्वस्माकमुपदेशे। यस्मात्कर्म चैव हि कर्माभिलषतीति भणितं ॥ ३३७ ।। यस्माद्धति पर परेण हन्यते च सा प्रकृतिः । एतेनार्थेन किल भण्यते परघातनामेति ॥ ३३८ ।। तस्मान्न कोऽपि जीव उपघातकोऽस्त्यस्माकमुपदेशे । यस्मात्कर्म चैव हि कर्म हंतीति भणितं ।। ३३६ ॥ एवं सांख्योपदेशं ये तु प्ररूपयंतीदशं श्रमणा: । तेषां प्रकृतिः करोस्यात्मानइचाकारकाः सर्वे ॥ ३४० ।। अथवा मन्यसे ममात्मात्मानमात्मनः करोति । एप मिथ्यास्वभावस्तवैसज्जानतः ।। ३४१ ।। आत्मा नित्योऽसंख्येयप्रदेशो दर्शितस्तु समये। नापि स शक्यते ततो हीनोऽधिकश्च कतु यत् ।। ३४२ ।। जीवस्य जीवरूपं विस्तरतो जानीहि लोकमानं खलु । ततः स कि हीनोऽधिको बा कथं करोति द्रव्यं ।। ३४३ ।। अथ ज्ञायकस्तु भावो ज्ञानस्वभावेन तिष्ठतीति मतं । तस्मान्नाप्यात्मात्मानं तु स्वयमात्मनः करोति ।।३४४।। कर्मेवामानमज्ञानिनं करोति ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कर्मव ज्ञानिनं करोति झानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्तेः । कमव स्वापयति निद्राख्यकर्मोदयमंत तु, अज्ञानिन्, ज्ञानिन्, तथा, एव, च, मिथ्यात्व, असंयम, ऊर्व, अधः, तिर्यम्लोक, शुभाशुभ, यावत्, किंचित्, यत्, तत्, सर्वजीव, अकारक, आपन्न, पुरुष, स्थ्यभिलाषिन, स्त्रीकर्मन्, पुरुष, एतत्, आचार्यपरम्परागता, ईदृशी, श्रुति, तत्, न, किम्, अपि, जीव, अब्रह्मचारिन्, तु, अस्मद्, उपदेश, यत्, भणित, पर, तत्, प्रकृति, एतत, अर्थ, किल, परघातनामन्, इति, उपघातक, सांख्योपदेश. यत्, ईदृश, श्रमण, तत्, प्रकृति, आत्मन्, च, अकारक, सर्व, अथवा, अस्मद्, आत्मन्, एतत्, मिथ्यास्वभाव, युष्मद, एतत्, जानत्, आत्मन्, नित्य, असंख्येयप्रदेश, दर्शित, तु, समय, न, अपि, तत्, ततः, हीन, अधिक, जीवरूप, विस्तरतः, [प्रात्मनः] अपने [प्रात्मानं] प्रात्माको करोति] करता है, ऐसा कर्तापनका पक्ष मानो तो [तज्जानतः] ऐसे जानते हुए [तवैव] तेरा [एषः] यह [मिथ्यास्वभावः तु] मिथ्यास्वभाव है [यत् ] क्योंकि [समये] सिद्धान्तमें [प्रात्मा आत्मा [नित्यः] नित्य [असंख्येयप्रदेशः] असंख्यातप्रदेशी [दशितः कहा गया है [तत: उससे [सः] वह होनः च अधिकः कतु] होन और अधिक किया जानेके लिये [नापि शक्यते] शक्य नहीं है [विस्तरतः] और विस्तार अपेक्षासे भी [जीवस्य जीवरूप] जीवका जीवरूप [खलु] निश्चयतः लोकमानं] लोकमात्र [जानीहि] जानो [तप्तः] उस परिमाणसे [किं] क्या सः] वह [होनोऽधिकः धा] होन Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ..... . रेण तदनुपपत्तेः । कमव जागरयति निद्राख्यकर्मक्षयोपशममंतरेण तदनुपपत्ते: । कमैव सुखयति सद्वेदास्यकर्मोदयमंतरेव तदनुपपत्तेः । कर्मैव दुःखयति प्रसद्वेदात्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमव मिथ्याष्टिं करोति मिथ्यात्वकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमवासंयतं करोति चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । कमवोद्ध वधिस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति प्रानुपूर्व्याख्यकर्मोदयमतरेण तदनुपपत्तेः । अपरमपि यद्यावत्किचिच्छुभाशुभभेदं तसावत्सकलमपि कर्मव करोति प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमंतरेण तदनुपपत्तेः । यत एवं समस्तमपि स्वतंत्र कर्म करोति कर्म ----......... लोकमात्र, खल, ततः, कथं, द्रव्य, अथ, ज्ञायक, भाव, ज्ञानस्वभाव, इति, मत तत, न, अपि, आरमन, स्वयं, आस्मन् । मूलधातु- डुकृत्र करणे, शीङ स्वप्ने अदादि, जागृ निद्राक्षये, सुखाय सुखीकरणे, नामधातुप्रक्रिया, दुःखाय दुखीकरणे नामधातुप्रक्रिया, जीन प्रापणे, भ्रम अनवस्थाने दिवादि, भ्रमु चलने भ्वादि, डुदान पाने जुहोत्यादि, अहरणे बादि, अभि लस श्लेषनोडनयोः भ्वादि, हन हिसायां अदादि, प्र रूप रूपक्रियायां, मन ज्ञाने दिवादि, शक्ल शक्ती स्वादि, ज्ञा अवबोधने यादि, अस भुवि । पदविवरणकम्मेहि कर्मभिः-तृतीया बहुतु तह तथा एव य च अवि अपि जित्तियं यावत् किंचि किंचित् इत्ति इति उ तु ण न वि अपि हि इदि इति किर किल तत्तो तत: अव्यय । अण्णाणी अज्ञानी-प्रथमा एक० । किज्जइ क्रियते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक भावकर्मप्रक्रिया। णाणी ज्ञानी-प्रथमा एक० । सुवाविज्जई स्वाप्यते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष णिजन्त भावकर्मप्रक्रिया । जग्गाविज्जइ जागर्यते-वर्तमान लट् अन्य। तथा अधिक हो सकता है ? [द्रव्यं] तब फिर प्रात्मा द्रव्यको [कथं करोति] कैसे कर सकता है ? [प्रथ] अथवा [इति मतं] ऐसा माना जाय कि नायकः भाव: तु] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभाधेन] ज्ञानस्वभावसे [तिष्ठति] तिष्ठता है [तु] तो [लस्मात्] उसी हेतुसे सिद्ध हुआ कि [प्रात्मा] प्रात्मा [प्रात्मनः आत्मानं] अपने आपको [स्वयं नापि करोति] स्वयं कुछ भी नहीं करता। तात्पर्य-कर्तापन साधनेको विवक्षा पलटकर जो पक्ष कहा था सो नहीं बना । यदि कर्मका कर्ता कर्मको ही मानें तो स्याद्वादसे विरोध हो जायेगा; इसलिए कथंचित् प्रज्ञान अवस्थामें अपने अज्ञान भावरूप कर्मका कर्ता माननेमें स्याद्वादसे विरोध नहीं है। टोकार्थ- पूर्वपक्ष--कर्म ही प्रात्माको अज्ञानी करता है; क्योंकि ज्ञानावरण कर्मके उदयके बिना अज्ञानकी अनुपपत्ति है। कर्म ही प्रात्माको ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानाबरण कर्मके क्षयोपशमके बिना ज्ञानकी अनुपपत्ति है। कर्म ही प्रात्माको सुलाता है, क्योंकि निद्रानामक कर्मके उदयके बिना निद्राकी अनुपपत्ति है । कर्म ही प्रात्माको जगाता है; क्योंकि निद्रानामक कर्भके क्षयोपशमके बिना जगानेकी अनुपपत्ति है । Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाषिकार ५६३ ददाति कर्म हरति च ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेव कांतेनाकर्तार एवेति निश्चिनुमः किंव श्रुतिरप्येन मर्थं माह, पुंवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति स्त्रीवेदास्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति Satara कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृ त्वसमर्थनेन जीवस्था ब्रह्मकर्तृत्वासमर्थनेन च जीवस्याब्रह्मकर्तृत्वप्रतिषेधात् । तथा यत्परं हंति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य धातकर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैवाक्तुं त्वज्ञापनात् । एवमीदृशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सुश्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमरणाभासाः प्ररूपयंति तेषां प्रकृतेरेकांतेन कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकांतेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो . पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया सुहाविज्जइ सुखायते दुक्खाविज्जद दुःखायते वर्तमान अन्य० एक० नामधातु भावकर्मप्रक्रिया । णिज्जइ नीयते वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया । भमाडिज्जइ भ्राम्यते - वर्तमान अन्य० एक० भावकर्मप्रक्रिया । उड्छं ऊर्ध्वं अहो अधः - अव्यय । तिरियलोय तिर्यग्लोकं, किज्जर क्रियतेवर्तमान अन्य० एक० भावकर्मप्रक्रिया सुहासुहं शुभाशुभं प्र० एक० कर्मवाच्य कर्म । जम्हा यस्मात्पंचमी एक० । कम्भं कर्म - प्र० एक० । कुत्व करोति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । हरइ हरति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । जं यत् प्रथमा एक० । तम्हा तस्मात् पंचमी एक० । सव्यजीवा सर्वजीवाः - प्र० बहु० । अकारया अकारका प्र० बहु० । हुति भवन्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । आण्णा आपन्ना:- प्रथमा बहु० । पुरिसित्थयाहिलासी पुरुषः स्त्र्यभिलाषी - प्रथमा एक० । स्त्रीकर्मप्र० ए० । पुरिसं द्वि० ए० एसा एषा प्र० ए० । आयरियपरंपरागया आचार्य परम्परागता एरिसी ईदृशी कर्म हो आत्माको सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीयकर्मके उदयके बिना सुखको श्रनुपपत्ति है । कर्म ही आत्माको दुःखी करता है क्योंकि असातावेदनीयकर्मके उदयके बिना दुःखकी अनुपपत्ति है । कर्म ही श्रात्माको मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्व कर्मके उदयके बिना मिथ्यात्वकी अनुपपत्ति है । कर्म ही श्रात्माको श्रसंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोहक मैके उदयके बिना असंयमकी अनुपपत्ति है । कर्म हो आत्माको ऊर्ध्वलोक में, अधोलोक में और तिर्यलोक भ्रमाता है, क्योंकि श्रानुपूर्वीनामकर्मके उदयके बिना भ्रमणको प्रनुपपत्ति है । भन्य जो भी कुछ शुभ अशुभ हैं, उन सबको कर्म ही करता है; क्योंकि प्रशस्त श्रप्रशस्त रागनामक कर्मके उदयके बिना उस शुभ अशुभ की अनुपपत्ति है। इस प्रकार सब ही को स्वतन्त्र होकर कर्म ही करता है, कर्म हो देता है, कर्म ही हरता है, इसलिये हम ऐसा निश्चय करते हैं कि सभी जीव नित्य एकांत से प्रकर्ता हो हैं। और क्या शास्त्र भी इसी अभिप्रायका समर्थन करता है । क्योंकि पुवेदकमं स्त्रोको और स्त्रीवेदकर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है, इस वाक्य से कर्मकी ही अभिलाषारूप कर्मके कर्तृत्व के समर्थन द्वारा जीवके प्रब्रह्मका समर्थन न होनेसे atest ब्रह्मका कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । तथा 'जो दूसरेको मारता है और दूसरेसे मारा Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार दुःशक्यः परिहत् । यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावाद पर्यायरूपान् करोति मात्मा त्वात्मानमेवैकं द्रव्यरूपं करोति ततो जीवः कति शुद्धिकोपरे ग पहा पाभप्रापः स मिव । जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च । सत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुपपन्न सुई श्रुति:-प्र० ए० । को क:-प्र० ए० । जीवो जीवः अबभचारी अब्रह्मचारी-प्र० ए० । अम्ह अस्माकंपाठी बहु० । उवएसे उपदेशे-सप्तमी एक० । अहिलसइ अभिलपति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया । भणियं भणित-प्रथमा एकवचन । घाएइ हंति-वर्तमान० अन्य एक० किया । परं-हि० एक० । परेण-तृ० एक० । घाइज्जए हन्यते-बर्तमान अन्य एका भावकर्मप्रक्रिया । सा पयडी सा प्रकृतिः-प्रथमा एक । जाता है वह परघातकर्म है, इस माक्यसे कर्मको हो कर्मके घातका कर्तृत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवके घातकर्तृत्वका निषेध होनेसे जीवके सर्वथा अकर्तृत्वका ही समर्थन होता है । इस प्रकार कुछ श्रमणाभास अपने बुद्धिदोषसे आगमके अभिप्रायको बिना हो समझे सांख्यमतका अनुसरण करते हैं। उनके इस तरह प्रकृतिको एकान्ततः कर्ता मान लेनेसे सब ही जोद एकान्तसे अकर्ता सिद्ध हो जाते हैं । तब 'जीव कर्ता है' श्रुतिका यह कोप दूर करना दुःशक्य हो जाता है । और 'कर्म आत्माके पर्यायरूप अज्ञानादि भावोंको करता है और प्रात्मा द्रव्यरूप केवल मात्मा को हो करता है इस तरह प्रागमको विरुद्धता न होगी, ऐसा जो प्राशय है वह मिथ्या ही है। क्योंकि जीव द्रव्यरूपसे नित्य, असंख्यातप्रदेशी और लोकके बराबर है, अतः जो नित्य होता है वह कार्य नहीं हो सकता, क्योंकि कृतकत्व और नित्यत्वमें परस्पर विरोध है। यहाँ यह कहना भी ठीक नहीं कि अवस्थित और असंख्यातप्रदेशो आत्माके पुद्गल स्कंधको तरह प्रदेशोंके बिछुड़ने मिलनेसे कार्यत्व सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि प्रदेशोंके बिछुड़ने मिलनेसे उसमें एकत्व नहीं रह सकता । और 'सम्पूर्ण लोक भवन के बराबर विस्तार वाला प्रात्मा जब अपने नियत (छोटे बड़े) शरीरोंको धारण करता है तब आत्मप्रदेशोंमें संकोच विस्तार होनेके कारण उसमें कार्यत्व सिद्ध हो जायगा' यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि संकोच विस्तार होनेपर भी सूखी गीली अवस्थामें अपने ही परिमाणके अन्दर रहने वाले 'चमड़े की तरह अात्मा को अपने निश्चित विस्तारसे होनाधिक नहीं किया जा सकता। और नंकि वस्तुस्वभावको मिटाया नहीं जा सकता इसलिए प्रात्माका ज्ञायकभाव सदा ज्ञान स्वभावसे ही रहता है और जब वह ज्ञानस्वभावसे रहता है तब ज्ञायकता और कर्तृता दोनोंमें परस्पर विरोध होनेसे वह मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं हो सकता परन्तु मिथ्यात्वादि भाव होते अवश्य हैं इस लिये *म हो उन का कर्ता कहा जाता है ऐसा कथन केवल संस्कारके प्राधीन होकर ही किया जा सकता है । इससे तो 'प्रात्मा मात्माको करता है' इस मान्यताका पूर्णतया खण्डन ही Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कृतकत्वनित्यन्वयोरेकत्वविरोधात् । न चावस्थिताऽसंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कंधस्येव प्रदेशप्रक्षेपणापंणगारेगापि लभ्य कार्यत्वं प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् । न चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियत निजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसंकोचनविकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचविकाशयोरपि शुष्काचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमक्ष क्यएएणअच्छेण एतेनन-तृ एक । भण्णइ भण्यते-वर्तमान र अन्य एक० भाकर्मप्रक्रिया । परयायणाम परघातनाम वधायओ उपपातका:- एक अस्थिरत-० अ कया। बारी दिति-या 0 एक्रिया। संखुवासं सांस्योपदश-दितीया एक० । पविति प्रापयन्ति-ब० अ० यह क्रिया। एरिस ईशं-द्वि० ए० । समणा श्रमणा:-प्र० बहुत 1 तेसिं तेषां-पष्ठी बहु० । पयडी प्रकृति:-प्र० ए० । कुब्वाइ होता है। इस कारण सामान्यकी अपेक्षासे ज्ञानस्वभावमें स्थित होकर भी ज्ञायकभाव जब कमसि उत्पन्न मिथ्यात्वादि भावोंका ज्ञान करता है तब अनादिकालसे ज्ञेय ज्ञान का भेद न समझनेके कारण परपदार्थको अपना मानने लगता है सो विशेषको अपेक्षासे अज्ञानमयी परि. सामोंके करनेके कारण उसका कर्ता मानना चाहिए। वह भो तब तक, जब तक कि इसे प्रकट भेदज्ञानको पूर्णता न हो, पूर्णता हो जानेपर जब वह अात्माको ही प्रात्मा जानने लगता है, तब इस विशेषको अपेक्षासे ज्ञानमयी ज्ञानपरिणामोंसे परिणमन करता है, उस समय मात्र ज्ञाता होनेसे वह साक्षात् अकर्ता रहता है । भावार्थ --कितने ही जैन श्रमण भी स्याद्वादवाणीको अच्छे प्रकार न समझोके कारण सर्वथा एकांतका अभिप्राय करते हैं, और विवक्षाको बदलकर यह कहते हैं कि 'प्रात्मा तो भावकर्मका अकर्ता ही है। कर्म प्रकृतिका उदय हो शरीर व भावकर्मको करता है । ऐसा सर्वथा एकान्तको मानने वाले उन मुनियोंपर जिनवागोका कोप अवश्य होता है, क्योंकि जिनवाणीका कथन है कि प्रत्येक सत् अपना परिणमन करता रहता है, प्रात्मा भी अपना परिणमन करता है। जिनवाणीके कोपके भय से यदि वे विवक्षाको बदलकर ऐसा कहें कि भावकर्मका कर्ता कर्म है और अपने प्रात्माका कर्ता प्रात्मा है, इस प्रकार हम अात्माको कचित् कर्ता कहते हैं, इसलिए वारणीको विराधना नहीं होती, तो उनका ऐसा कहना मिथ्या ही है 1 प्रात्मा द्रव्यसे नित्य है, असंख्यातप्रदेशी है, लोकपरिमाण है, इसलिए उसमें तो कुछ नबीन करना नहीं है। इसलिए आत्माके कर्तृत्व और अकर्तृत्वको विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको 'यथार्थ मानना है' प्रात्माके कर्तृत्व और अकर्तृत्वके संबंध में सत्यार्थ स्याद्वाद प्ररूपा इस प्रकार है। प्रात्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है, परंतु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते समय अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञान के प्रभाव Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार त्वात् । यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदेव तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यंतविरुद्धत्वामिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति । भवंति च मिथ्यात्वादिभावाः ततस्तेषां कमव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेष: स तु नितरामात्माऽऽत्मानं करोतोत्यभ्युपगममुपहत्येव ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो करोलि-व० अ० ए० । अप्पा अकारया सटवे आत्मान: अकारकाः सर्वे-प्र. बहु० । मष्णसि मन्यसे वर्तमान० मध्यम० एक० | मज्झ मम-षष्ठी एक० । अप्पा आत्मा-प्र० ए० । अप्पाणं आस्मानं-द्वि० एक० । के कारण ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको अात्माके रूपमें जानता है इस प्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे कर्ता है, और जब भेदविज्ञान होनेसे प्रात्माको ही मात्माके रूपमें जानता है, तब विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप परिणाममें ही परिणमिन होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे ज्ञानी साक्षात् प्रकर्ता है । ___ अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-मां कार इत्यादि । अर्थ- अहंतके अनुयायी ये जन भी आत्माको, सांख्य मतियोंकी तरह सर्वथा अकर्ता मत मानो, भेदज्ञान होने से पहिले उसे सदा कर्ता मानो और भेदज्ञान होनेसे पश्चात् उद्धत ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको अकर्ता, अचल और एक परम ज्ञाता ही देखो। भावार्थ-सांख्यमतावलम्बी पुरुषको एकांतसे अकर्ता, शुद्ध, उदासीन, चैतन्यमात्र मानते हैं । ऐसा माननेसे पुरुष को संसारके प्रभावका प्रसंग आता है, और यदि प्रकृतिको संसार माना जाय तो प्रकृति तो जड़ है, उसके सुख-दुःख प्रादिका संवेदन नहीं है, इसलिये प्रकृतिको संसार कैसा इत्यादि दोष एकान्तमान्यतामें पाते हैं। क्योंकि वस्तुका स्वरूप सर्वथा एकांत नहीं है। इस कारण वे सर्वथा नित्यकान्तवादी मिथ्याष्टि हैं। उसी तरह जो जैन भी ऐसा मानते हैं तो वे भी मिथ्थादृष्टि होते हैं। इसलिये प्राचार्य यहाँ उपदेश करते हैं कि सांख्यमतियोंको तरह जन मात्माको सर्वया प्रकर्ता मत मानो । जहां तक स्व और परका भेदविज्ञान न हो तब तक तो रागादिकका अपने चेतनरूप भावकोका कर्ता मानो, भेदविज्ञान हुए पश्चात् शुद्ध विज्ञानधन समस्त कर्तापनके भावसे रहित एक ज्ञाता ही मानो। इस तरह एक ही प्रात्मामें कर्ता प्रकर्ता दोनों भाव विवक्षाके वशसे सिद्ध होते हैं । यह स्यावाद मत है तथा वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है, कल्पना नहीं है। ऐसा माननेसे पुरुषके संसार मोक्ष प्रादिको सिद्धि होती है। सर्वथा एकांत मानने में निश्चय व्यवहार सबका लोप हो जाता है। अब क्षणिकवादका सर्वथा एकांत मानने में दूषण दिखलाते हैं तथा स्याद्वादसे जिस Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणाकर्तृत्वमनुमंतव्यं तावद्यावत्तदादिशेयज्ञानभेदविज्ञानपूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणीव ज्ञानपरिणामेन परि. गममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तुत्वं स्यात् ।। माऽकर्तारममो स्पृशंतु पुरुषं सांख्या इवाअप्पणो आत्मन:-षष्ठी ए. । कुणइ करोति-ब० अ० ए०। मिच्छमहाबो मिथ्यास्वभावः-प्र०ए। तुम्हं मुणंतस्स तव जानतः-षष्ठी ए० । अप्पा आत्मा णिच्चो नित्यः असंखिज्जपदेसो असंख्यातप्रदेशः देखियो तरह वस्तुस्वरूप है उस तरह काव्यमें दिखलाते हैं-क्षणिक इत्यादि । अर्थ ---इस लोकमें कोई एक क्षणिकवादी दार्शनिक तो आत्मतत्त्वको क्षणिक कल्पित करके अपने मनमें कर्ता भोक्तामें भेद करते हैं कर्ता अन्य है भोक्ता अन्य है उनके प्रज्ञानको यह चैतन्यचमत्कार हो स्वयं नित्य अमृतके समूहोसे सोंचता हुआ दूर करता है । भावार्थ-क्षणिकवादी कर्ता भोक्ता में भेद मानते हैं कि जो पहले क्षणमें वह दूसरे क्षणके नहीं है प्राचार्य करते हैं हम उनको क्या समझा ? यह चैतन्य ही उनका प्रज्ञान दूर करेगा जो कि अन स्वगोचर व नित्यरूप है । पहले क्षण जो प्रात्मा है वही दूसरे क्षरणमें कहता है, सो जो मैं पहले ४ वही हूं ऐसा स्मरण पूर्वक प्रत्यभिज्ञान उसको नित्यता दिखलाता है। इसलिये नित्यता र अनित्यताका सर्वथा एकांत मानना ये दोनों ही भ्रम हैं वस्तुस्वरूप नहीं है । स्माद्वारा शासन कथंचित नित्यानित्यरूप वस्तुका स्वरूप कहता है वही सत्यार्थ है।। अब ऐसे ही क्षणिक मानने वालोंको युक्तिसे काव्य द्वार! निषेध करते हैं-वृत्यंश इत्यादि । अर्थ-वृत्त्यशोंके भेदसे वृत्तिमानके सर्वथा नाशको कल्पः . "अन्य करता है अन्य भोक्ता है" ऐसा एकान्त मत प्रकाशित करो। भावार्थ-क्षण क्षणको प्रति अवस्थाभेदोंको वृत्त्यंश कहते हैं, उनको सर्वथा भेद जुदे जुदे वस्तु माननेसे अवस्थानोंका प्राश्रयरूप जो वृत्तिमान वस्तु है उसके नाशको कल्पना करके जो ऐसा मानते हैं कि कर्ता दूसरा है और भोक्ता कोई दूसरा ही है । उसपर प्राचार्य कहते हैं कि ऐसा एकान्त मत प्रकाशित करो। जहाँ अवस्थावान् पदार्थका नाश हुआ वहाँ अवस्थायें किसके प्राश्रय होकर रहेंगी? इस तरह पर्याय व द्रव्य दोनोंका नाश पाता है तब शून्यका प्रसंग होता है । प्रसंगविवरण-प्रनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें यह निष्कर्ष दिखाया गया था कि परिणमनस्वभावी जीव मिथ्यात्वादि प्रकृत्युदयका निमित्त पाकर मिथ्यात्वादि भावकर्मरूप परिणाम जाता है । अब इन गाथावोंमें पूर्वपक्षपूर्वक उसी सिद्धान्तको पुष्ट किया गया है । तथ्यप्रकाश-(१) यहाँ मूल पूर्वपक्ष यह है कि जीव कूटस्थ ध्र व मपरिणामी अकर्ता है। (२) जोद जब एकान्तत: प्रकर्ता है तो अज्ञान, निद्रा, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ समयसार प्याहताः कर्तारं कलयंतु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊर्ध्व तुद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं पश्यतु च्युतकर्तृभावमचल ज्ञातारमेकं परं ॥२०५॥ क्षणिकमिदमिहैक: कल्पयित्वात्म. तत्त्वं निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोविभेदं । अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतोप्रैः स्वयमयमभिषिचंश्चिञ्चमत्कार एव ॥२०६॥ वृत्यंशभेदतोऽत्यंत वृत्तिमन्नाशकल्पनात् । अन्यः करोति भनेत्य इत्कालिका मा ।।२०७।। ।। ३३२-३४४ ।।। देशितः-प्र० ए० । समयम्हि समये-म० ए० । सवकइ शक्यते-वर्त० अ० ए. भावकर्मप्रक्रिया। तत्तो ततःअव्यय । हीणो अहिओ हीनः अधिक:-प्र० एक० । काउं कतु-हेत्वथें कृदन्त क्रिया . जीवरूवं लोगमित्तं जीवरूपं लोकमात्र-द्वितीया एकवचन ॥ ३३२ ३४४ ।। असंयम, परभवगमन, मथुन, घात प्रादिको कौन करता है इस प्रश्न के उत्तरमें पूर्वपक्ष है कि इन सबको उस-उस जातिका उदित प्रकृतिकर्म किया करता है । (३) जीव जब एकान्ततः अकर्ता है तो ज्ञान, जागरण, ब्रत आदिको कौन करता है इस प्रश्न के उत्तरमें पूर्वपक्ष है कि उस-उस जातिके कर्मप्रकृतिका क्षयोपशम करता है। (४) इस सांख्योपदेशके पूर्वपक्षमें न कोई हिंसक है, न कोई व्यभिचारी है, हिंसक व्यभिचारी आदि सब प्रकृति हो है । (५) उत्तरपक्ष में विचारिये---यदि जीव सर्वथा अकर्ता है तो जीबका संसार ही नहीं, बन्ध ही नहीं तब मोक्षोपदेश व मोक्षका अभाव हो जायगा । (६) आत्मा अपने प्रात्माको करता है ऐसा कहकर यदि एकान्त अकर्तृत्वके दूषणसे बचनेका प्रयास किया जाय तो यह संगत नहीं है, क्योंकि प्रात्मा नित्य प्रसंख्यप्रदेशी है हीन अधिक प्रदेश होते नहीं, फिर उसका करना क्या कहलाया । (७) मौलिक तथ्य यह है कि ज्ञानस्वभाव प्रात्मा जो अनादि ज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्य है वह प्रकृतिजन्य मिथ्यात्वादिके ज्ञानके समयमें मिथ्यात्वादि झलकको प्रात्मरूप मानता हमा प्रज्ञानरूप ज्ञानपरिणमन का कर्ता होता है। (८) ज्ञानस्वभाव प्रात्मा जब ही ज्ञेयज्ञान. भेदविज्ञानसे पूर्ण होता है तब ही प्रात्माको ही प्रात्मरूप जानता हुअा ज्ञानमय ज्ञानपरिगमन से परिणामते हुए स्वयंका मात्र ज्ञाता होनेसे साक्षात् प्रकर्ता है । (६) भेदविज्ञानसे पहिले प्रज्ञानमय होनेसे जीव का है। (१०) भेदविज्ञान के पश्चात् ज्ञानमय होनेसे जीव प्रकर्ता है। सिद्धान्त-(१) अज्ञानरूप परिणमने वाला जीव मिथ्यात्वादि भावकमका कर्ता है । (२) ज्ञानरूपसे ही परिणमने वाला जीव अकर्ता है । दृष्टि-- १- अशुद्धनिश्चयनय (४७)। २-- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६) । प्रयोग-संसारसंकटोंका मूल भेददिजानका प्रभाव जानकर भेदविज्ञानसे विविक्त किये गये प्रात्मस्वभावको उपयोगमें बनाये रहना ॥ ३३२-३ ४४ ।। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार केहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए व केहिंचि दु जीवो। जमा तह्मा कुब्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ॥३४५॥ केहिंचि दु पज्जयेहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो। जमा तह्मा वेददि सो वा अण्णो व यंतो ॥३४६॥ जो चेव कुणइ सोचिय ण वेयए जस्स एस सिद्ध तो। सो जीवो णायव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ॥३४७॥ अण्णो करइ अण्णो परिभुजइ जस्स एस सिद्धतो। सो जीवो णादवो मिच्छादिट्टी प्रणारिहदो ॥३४८॥ कि किन्हीं पर्यायों से नशता जीव किन्हींसे न नशे । इससे वही है कर्ता, अथवा अन्य है यह सच सब ॥३४५॥ चुकि किन्हीं पर्यायों-से नशता जीव किन्हींसे न नशे । इससे बही है भोक्ता, अथवा अन्य है यह सच सब ॥३४६॥ जो कर्ता यही नहीं, भोक्ता जिसका विचार हो ऐसा । उसको जानो मिथ्या-दृष्टी, जिन समयसे बाहर ॥३४७३ अन्य कता व भोक्ता, होता जिसका विचार हो ऐसा । उसको जानो मिथ्या-दृधी, जिन समयसे बाहर ॥३४८॥ नामसंज्ञ-केहिचि, पज्जय, दुणेव जीव, त, वा व चेक जीव, ज, त, अण्ण, णेयंत, ज, एत, सिद्धत, णायब, मिच्छादिट्ठी, अणारिहद, अण्ण, ज, एत, सिद्धत, णादश्च । धातुसंज-वि नस्स नाशे, कुन्ध अब अनेकान्त शासनसे इस क्षणिकवादको स्पष्टतया निषेधते हैं- [यस्मात्] जिस कारण [जीवः] जीव [कश्चित्तु पर्यायः] कितनी ही पर्यायोंसे तो [विनश्यति ] विनाशको प्राप्त होता है [तु] और [कश्चित्] किन्हीं भावोंसे निव] विनष्ट नहीं होता [तस्मात्] इस कारण [स वा करोति] वह ही करता है [वा अन्यः] अथवा अन्य करता है [न एकांतः] ऐसा एकान्त नहीं [यस्मात्] जिस कारण [जीवः] जीव [कश्चित्तु पर्यायः] कितनी एक पर्यायोंसे [विनश्यति] विनाशको प्राप्त होता है [तु] और [कश्चित् किन्हीं भावोंसे [व] विनष्ट नहीं होता [तस्मात्] इस कारण [स वा वेदयते] वही जीव भोक्ता होता है [अन्यो वा] अथवा अन्य भोक्ता है [न एकांतः] ऐसा एकान्त नहीं है । [च यस्य एष सिवांतः] Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसारं कैश्चित्तु पर्यायविनश्यति नैव कश्चित्तु जीवः । यस्मात्तस्मालरोति स वा अन्यो वा नैकांतः ।। ३४५ ।। : कैश्चित्तु पर्याय विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः । यस्मात्तस्माद्वेदयते स वा अन्यो वा नकातः ।। ३४६ ।। यश्चव करोति स चैव वेदयते । यस्यैष सिद्धांतः । स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याष्टिरनार्हतः । ३४७ ।। अन्यः करोत्यन्य: परिभुक्ते यस्य एष सिद्धांतः। स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्यादृष्टि रनाहतः ।। ३४८ ॥ यतो हि प्रतिसमयं संभवदगुरुलघुगुणपरिणामद्वारेण क्षणिकत्वादचलितचैतन्यान्वयगुणद्वारेण नित्यत्वाच्च जीवः कश्चित्पर्यायविनश्यति, कैश्चित्तु न विनश्यतीति द्विस्वभावो जीवस्वकरणे, वेद वेदने, कुष्ण करणे, परि भंज भोगे। प्रातिपदिक-कश्चित्, पर्याय, न, एव, जीव, यत्, तत्, तत्, वा, अन्य, वा, न, एकान्त, तु, पर्याय, जीव, यत्, एतत्, सिद्धांत, तत्, जीव, ज्ञातव्य, मिथ्या दृष्टि, और जिसका ऐसा सिद्धान्त है कि [य एव] जो जीव [करोति] करता है [स चैव वेश्यते] वही भोगता है | स जीवः] वह जोव [मिथ्याष्टिः] मिथ्या दृष्टि [ज्ञातव्यः] जानना [अनार्हतः] वह परहंतके मतका अनुयायी नहीं है [यस्य एष सिद्धांतः] तथा जिसका ऐसा सिद्धान्त है कि [अन्यः करोति] कोई अन्य करता है [अन्यः परिभुक्ते] और कोई दूसरा भोगता है [स जीवः] वह जीव [मिथ्याष्टिः] मिथ्यादृष्टि [ज्ञातव्यः] जानना [अनाहतः] वह अरहंतके मतका अनुयायी नहीं है। तात्पर्य-जीव नित्यानित्यात्मक है यह युक्ति, प्रागम व प्रनुभवसे सिद्ध है। ___टोकार्थ-~-चूंकि प्रतिसमय होने वाले अगुरुलधुगुणके परिणामके द्वारा क्षणिकपना होनेसे और प्रचलित चैतन्यके अन्ययरूप गुणके द्वारा नित्यपना होनेसे जीव कुछ एक पर्यायों से तो विनष्ट होता है तथा कितने ही भावोंसे विनष्ट नहीं होता, ऐसे जीवका स्वभाव दो स्वरूप है, इस कारण जो ही करता है वही भोगता है अथवा अन्य ही भोगता है, जो भोगता है वही करता है अथवा अन्य करता है ऐसा एकांत नहीं है। इस प्रकार अनेकांत होनेपर भी जो ऐसा मानता है कि जिस क्षणमें जो पर्याय होती है उसोको परमार्थरूप सत्तासे वस्तुपना है, इस प्रकार वस्तुके अंशमें वस्तुत्वका निश्चय करके शुद्धनयके लोभसे ऋजुसूत्रनयके एकांत में ठहरकर जो ऐसा श्रद्धान करता है कि जो करता है वही भोगता नहीं, अन्य करता है और अन्य ही भोगता है वह जोव मिथ्यारष्टि हो जानना क्योंकि पर्यायरूप अवस्थानोंके क्षणिकपना होनेपर भी वृत्तिमान (पर्यायो) जो चतन्यचमत्कार टंकोत्कीर्ण नित्य स्वरूप है उसका अंतरंग में प्रतिभासमानपना है। भावार्थ-वस्तुका स्वभाव पागममें द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है । सो पर्यायको अपेक्षासे तो वस्तु क्षणिक है और द्रव्यको अपेक्षासे नित्य है ऐसा स्याद्वादसे सिद्ध होता है । जीवनामक वस्तु भी ऐसा ही द्रव्यपर्यायस्वरूप है, अतः पर्यायकी अपेक्षासे देखा जाय तब तो कार्यको Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.७१ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार भावः । ततो य एवं करोति स एवान्यो वा वेदयते, य एव वेदयते स एवान्यो वा करोतीति नास्त्येकांतः । एवमनेकांतेऽपि यस्तत्क्षणवर्तमानस्येव परमार्थसत्त्वेन वस्तुत्वमिति वस्त्वंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास्य शूद्धनयलोभाहजुसूत्रकांते स्थित्वा य एव करोति स एव न वेदयते, अन्यः करोति अन्यो बेदयते इति पश्यति स मिथ्यादृष्टि रेब द्रष्टव्यः । क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यशानां वृत्तिमतश्चैतन्यचमत्कारस्य टंकोत्कीर्णस्यैवान्तःप्रतिभासमानत्वात् ॥ प्रात्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्ति प्रपद्यांधकः, कालोपाधिबलादशुद्धिमधिका तत्रापि मत्वा परैः । चैतन्यं क्षणिक प्रक. अनाहत । मूलधातु-वि णश अदर्शने, डुकृञ् करणे, विद चेतनाख्याननिवासेषु चुरादि, परि भुज उपभोगे । पालनाभ्यवहारयोः रुधादि, मुजोऽनवने इत्यनेन आत्मनेपदी। पदविवरण-केचि कैश्चित्-अव्यय अन्तः करने वाला अन्य पर्याय है और भोगने वाला अन्य ही पर्याय है। जैसे मनुष्य पर्यायमें शुभ प्रशुभ कर्म किये उनका फल देवादि पर्यायमें भोगा। परन्तु द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तब जो करता है वही भोगता है ऐसा सिद्ध होता है । जैसे मनुष्य पर्यायमें जो जीवद्रव्य था उसने शुभाशुभ कर्म किये थे वही जीव देवादि पर्याय में गया वहाँ उसी जीवने अपने कियेका फल भोगा । इस तरह वस्तुका स्वरूप अनेकांतरूप सिद्ध है, तो भी जो सुद्धनको तो समझते नहीं और शुद्धनयके लोभसे वस्तुका प्रत्येक पर्याय जो वर्तमान काल में एक एक अंश था उसी को वस्तु मानकर ऋजुसूत्रनय के विषयका एकांत पकड़ ऐसा मानते हैं कि जो करता है वह नहीं भोगता है अन्य भोगता है और जो भोगता है वह करता नहीं है अन्य करता है, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव अरहंत मतके अनुयायी नहीं हैं। क्योंकि पर्यायके क्षणिकपना होनेपर भी द्रव्य तो चैतन्यचमत्कार अनुभवगोचर नित्य है। जैसे प्रत्यभिज्ञानसे ऐसा जाने कि जो बालक अवस्थामें मैं था वही अब तरुण अवस्थामें तथा वृद्ध अवस्थामें हूं, इसी तरह जो अनुभवगोचर स्थ संवेदनमें प्रावे व जिनवाणी भी ऐसे ही कहे उसको न माने वही मिथ्यावृष्टि कहलाता है । __ अब इसो अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं--आत्मानं इत्यादि । अर्थ-प्रात्मा को संपूर्णतया शुद्ध चाहने वाले अज्ञानान्धोंने उस आत्मामें कालको उपाधिके बलसे अधिक अशुद्धता मानकर अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर तथा शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें अमर्याद प्रेरित होकर चैतन्यको क्षणिक कल्पना करके इस प्रात्माको छोड़ दिया। जैसे कि हारके सूतको न देख कर मात्र मोतियोंके देखने वाले हारको छोड़ देते हैं । भावार्थ-प्रात्मा तो द्रव्यपर्याय स्वरूप था, यह सर्वया क्षणिक पर्यायस्वरूप मानकर छोड़ दिया गया तो उनको प्रात्माको प्राप्ति नहीं हुई । यहां हारका दृष्टांत है। जैसे मोतियोंका हार है उसमें सूत्र में जो मोती पोये हुए हैं वे भिन्न-भिन्न दीखते हैं सो जो हार सूत्र सहित मोती नहीं दिखते, मोतियोंको ही भिन्न देख Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ल्प्य पृथुकः शुद्धजु मूत्रेरितरात्मा म्युज्झित एष हारवदहो निस्सूत्रमुक्तेक्षिभिः ॥२०८।। कतुर्वेद. यितश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वभेदोपि वा, कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचित्यतां । प्रोता सूत्र इवात्मनोह निपुणतु न शक्या क्वचित्, चिच्चितामणिमालिकेयमभितोप्येकी चका. तृतीया यहु० । दु ण एव वा व तु न एव वा वा-अध्यय । पज्जयहि पर्याय:-तृतीया बह । विणस्सए विनश्यति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवो जीव:-प्रथमा एकवचन । जम्हा यस्मात् तहा तस्मात्-पंचमी एक० । कुब्वदि करोति-वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सो सः-प्र० ए ! अण्णो अन्य:-प्र० ए० । एयंतो एकान्त:-प्रथमा एक० । वेददि वेदयते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया। ग्रहण करते हैं उनको हारकी प्राप्ति नहीं होती । उसी प्रकार जो आत्माके एक नित्य चतन्य भावको ग्रहण नहीं करते तथा समय समय बर्तनापरिणाम रूप उपयोगको प्रवृत्तिको देख उस को सदा नित्य मान कालकी उपाधिसे अशुद्धपना मानकर ऐसा जानते हैं कि यदि नित्य माना जाय तो कालको उपाधि लगनेसे प्रात्माके अशुद्धाना आता है तब अतिव्याप्ति दूषण लगता है, इस दोषके भयसे ऋजुसूत्रनयका विषय शुद्ध वर्तमान समयमात्र क्षणिकपना उस मात्र मान आत्माको छोड़ देते हैं। भावार्थ-आत्माको समस्तपने शुद्ध माननेके इच्छुक क्षणिकवादीने विधारा कि यदि प्रात्माको नित्य माना जाय तो नित्यमें कालकी अपेक्षा पाती है. इसलिये उपाधि लग जायगी तब बड़ी अशुद्धता प्रायेगी, तब प्रतिव्याप्ति दोष लगेगा। इस भयसे शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है उतना क्षणिक हो प्रात्माको माना । तब जो आत्मा नित्यानित्यरूप द्रव्यपर्यायरूप था उसका उसके ग्रहण नहीं हुमा, केवल पर्यायमाश्रमें मात्माकी कल्पना हुई । ऐसा कल्पित प्रात्मा सत्यार्थ नहीं है। अब फिर इसी अर्थका समर्थन काव्यमें कहते हैं---कर्तृ इत्यादि । अर्थ-कर्ताका और भोक्ताका युक्तिके वशसे भेद हो अथवा अभेद हो, अथवा कर्ता भोक्ता दोनों ही न हों, वस्तुका ही चितवन करो। जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा सूत्र में पाई हुई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, वैसे ही प्रात्मामें पोई हुई चैतन्यरूप चितामगिकी माला भी किसीस नहीं भेदी जा सकती। ऐसी यह प्रात्मारूपो माला समस्तपनेसे एक हमारे प्रकाशरूप प्रकट हो । भावार्थ- पदार्थ द्रव्यपर्यायस्वरूप है उसमें विवक्षावश कर्ताभोक्तापनेका भेद भी है और भेद नहीं भी है, तथा कर्ता-भोक्ताका भेदाभेद भी क्यों करना चाहिए ? केवल शुद्ध वस्तुमात्रका उसके असाधारण धर्मके द्वारा अनुभव करना चाहिए । जैसे मणियों की मालामें सूत और मोतियोंका विवक्षासे भेद है । मालामात्र ग्रहण करने में भेदाभेद विकल्प नहीं हैं। उसी तरह प्रात्मामें चैतन्यके द्रव्यपर्याय अपेक्षा भेदाभेद है तो भी प्रात्मवस्तुमात्र अनुभव करनेपर विकल्प नहीं रहता । ऐसे निर्विकल्प प्रात्माका अनुभव हमारे प्रकाशरूप होयो। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार स्त्येव नः ॥२०६।। व्यावहारिकदृशंव केवलं कर्तृ कम च विभिन्न मिष्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चित्यते कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते ॥२१०।। ।। ३४५.३४८ ॥ एयता एकान:-प्रथमा एकवचन ! जो य:-प्र०प० । कुणइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । जस्स यस्य-पप्ठी एक । एस एष:-प्रथमा एक । सिद्धंतो सिद्धान्त:-प्रथमा एक० । णादवो ज्ञानध्य:मिच्छादिट्ठी मिथ्याष्टि:-प्र० ए० । अणारिहदो अनार्हतः-प्रथमा एकवचन ।। ३.४५-३४८ ।। अब इस कथन को नय विभागसे काव्यमें कहते हैं- व्यावहारिक इत्यादि । अर्थ-केवल ध्यवहारको दृष्टि से ही कर्ता और कर्म भिन्न-भिन्न दीखता है यदि निश्सयसे विचार किया जाय तो कर्ता और कर्म सदाकाल एक ही देखनेमें आता है । भावार्थ--व्यवहारनय तो पर्यायाश्रित है इसमें तो भेद ही दीखता है और शुद्ध निश्चयनय द्रव्याश्रित है, इसमें अभेद हो दोखता है । इसलिए व्यवहारमें तो कर्ता कर्मका भेद है और निश्चयनयमें अभेद है याने कर्ता कर्मका भेद नहीं है। प्रसंगयिधरण-अनन्तरपूर्व गाथावोंमें सिद्ध किया गया था कि अज्ञानो पारमा अशुद्ध परिणामका कर्ता है । अब इसी विषयके स्पष्टीकरणके अर्थ इस गाथाचतष्कमें बताया गया है कि जो जीव कर्ता है वही भोक्ता है यह एकान्त मिथ्या है और अन्य जीव कर्ता है अन्य जीव भोक्ता है यह एकान्त भी मिथ्या है। तथ्यप्रकाश-५-प्रतिसमय अगुरुलघुगुणके परिणमन होते ही रहने से जीवमें क्षणिक पना है । २- जीव का असाधारण गुण चैतन्य प्रचलित अन्वित होनेसे जीवमें नित्यपना है । ३- जीवमें क्षणिकत्व ब नित्यत्व दोनों एक साथ हैं। ४--- क्षणिकत्व व नित्यत्व होनेसे जीव किन्हीं पर्यायोंसे तो विनष्ट होता है और किन्हीं पर्यायोंसे विनष्ट नहीं होता। ५- यदि कोई यह एकान्त करे कि जो करता है वही भोगता तो वह मिथ्या है । ६- यदि कोई यह एकान्त करे कि अन्य कोई करता है अन्य कोई भोगता है तो वह मिथ्या है । --यदि जीवको कूटस्थ अपरिणामी नित्यैकान्त ऐसा एक माना जावे तो उस एकका मनुष्यादि भव ही न बना फिर करना भोगना ही नहीं बनता। ८-मनुष्यने तप किया देवने फल भोगा ऐसा अन्यतैकान्त मान कर दोनोंमें यही जीव न माना जाय तो फिर मोक्षसाधनादि सब व्यर्थ हो जायेंगे व हिंसादि पाप निरर्गल बढ़ जावेंगे। 6- वास्तविकता यह है कि पर्यायोंके क्षणिक होनेपर भी पर्यायी चैतन्यचमत्कारमय जीव शाश्वत अंतः प्रतिभासमान है । १०-निरुपाधि शुद्ध आत्माको बतानेकी धुन में कुछ दार्शनिकोंने कालोपाधि भी हटाकर क्षणिक पर्यायको ही पूर्ण द्वध्य मान कर द्रव्यका सत्त्व पहिले या बादमें कुछ भी नहीं माना है जो कि बिल्कुल असंगत है । ११ Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार जह सिप्पियो उ कम्मं कुव्वइ ण य सो उ तम्मनो होइ । तह जीवोवि य कम्मं कुब्वदि ण य तम्मश्रो होइ ॥३४६॥ जह सिप्पियो उ करणेहिं कव्वइ ण य सो उ तम्मनो होइ। तह जीवो करणेहिं कव्वइ ण य तम्मश्रो होइ ॥३५०॥ जह सिप्पियो उ करणाणि गिलइ गा सो उ तम्मश्रो होइ। तह जीवो करणाणि उ गिलइ ण य तम्मश्रो होइ ॥३५१॥ जह सिप्पिउ कम्मफलं भुजदि ण य सो उ तम्मश्रो होइ। तह जीवो काफलं भुजा गा य तम्मश्रो होइ ॥३५२॥ एवं ववहारस्स उ वत्तब्वं दरिसणं समासेण । सुणु णिच्छयस्स बयणं परिणामकयं तु जं होई ॥३५३॥ जह सिप्पियो उ चिठं कुबइ हबइ य तहा अण्ण्णो से । तह जीवोवि य कम्मं कुब्वइ हवइ य अणण्णो से ॥३५४॥ जह चिठं कुब्वंतो उ सिप्पियो णिच्चदुक्खिनो होई । तत्तो सिया अणण्णो तह चेठेतो दुही जीवो ॥३५५॥ नामसंज्ञ--जह, सिप्पिअ, उ, कम्म, ण, य, त. उ, तम्मम, तह, जीव, वि, य, कम्म, ण, य, तम्मअ, जह, सिप्पिअ, उ, करण, कम्मफल, एवं ववहार, वत्तव्ब, दरिसण, समास, णिच्छय, वयण, परिणामकय, वास्तविकता यह है कि द्रव्य अनादि अनन्त है उसमें प्रतिक्षण पर्यायोंका उत्पाद व्यय होता रहता है । १२- निश्चयसे प्रत्येक द्रव्य अपने अपने पर्यायौंका कर्ता है। १३- जीबद्रव्य अपने पर्यायोंका कर्ता है। सिद्धान्त-१- अपनी सब पर्यायोंमें रहने वाला जीव अनादि अनन्त नित्य एक द्रव्य है । २- जीव प्रतिक्षण नवोन-नवीन पर्यायोंसे उत्पन्न होता रहता है। दृष्टि --- १- नित्यनय (१६६) । २- अनित्यनय (१७०) । प्रयोग-सब पर्यायोंमें रहते हुए भी किसी पर्यायमात्र न रहने वाले ध्र व चैतन्यचमस्कारमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग रमानेका पौरुष करना ॥ ३४५-३४८ ।। अब इस निश्चय व्यवहारके कथनको दृष्टांतसे गाथानों में कहते हैं- यथा शिल्पिक: Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार जैसे शिल्पी करता, भूषण कम नहि कर्ममें तन्मय । वैसे जीव भि करता, कर्म नहीं कर्मसे तन्मय ॥३४६।। जैसे शिल्पी करता, करणोंसे करगमें नहीं सन्मय । वैसे जीव भि करता, करणोसे किन्तु नहिं तन्मय ॥३५०॥ जैसे शिल्पी गहता, करखोंको करणमें नहीं तन्मय । वैसे जीव भि गहता, करणोंको किन्तु नहिं तन्मय ॥३५१॥ ज्यौं शिल्पी कृतिफलको, भोगे फलसे न तन्मयो होता। त्यों शिल्पी कृतिफलको, भोगे नहिं तन्मयो होता ॥३५२॥ त्यौं ध्ययहाराशयका, दर्शन संक्षेपसे बताया है। अब निज परिणाम विहित, निश्चयनयका वचन सुनिये ॥३५३|| ज्यौं शिल्पी करता है, या उससे अक्षय होस का । स्यौं भावकर्म करता, जीव भि उससे अनन्य हुमा ॥३५४॥ ज्यों चेष्टा करता यह, शिल्पी फलमें अभिन्न दुख पाता। त्यों चेष्टा कर प्रात्मा, फलमें भि अभिन्न दुख पाता ॥३५५।। तु, ज, चिट्ठ, अणण्ण, त, णिच्चदुक्खिअ, तत्तो, अणण्ण, चेट्टत, दुहि, जीव । धातुसंश-कुन्च करणे, हो सत्तायां, गिण्ह ग्रहणे, मुंज भोगे, सुण श्रवणे, हव सत्तायां, चेट्ठ चेष्टायां । प्रातिपदिक-यथा, शिल्पिक, तु] जैसे शिल्पी [कर्म] प्राभूषणादिक कर्मको [करोति] करता है [तु स] परन्तु वह [तन्मयो न च भवति] माभूषणादिकोंसे तन्मय नहीं होता [तथा] उसी तरह [जीवोपि च] जीव भी कर्म] पुद्गलकर्मको किरोति] करता है । [च तो भी [तन्मयो न भवति कर्मसे तन्मय नहीं होता। [यथा] जैसे [शिल्पिकः] शिल्पी [कररणैः] हथौड़ा प्रादि करणोंसे [करोति] कर्म करता है । [तु सः] परन्तु वह [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता [तथा) उसी तरह [जीवः] जीव भी [करणः करोति] मन, वचन, काय प्रादि करणोंसे कर्मको करता है [च] तो भी [तन्मयो न भवति] करणोंसे तन्मय नहीं होता। [यथा] जैसे [शिल्पिकः] शिल्पी [करणानि] करणोंको [गृह्णाति] ग्रहण करता है [तु] तो भी [स तु] वह [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता [तया] उसी तरह [जीवः] जीव [करणानि गृह्णाति] मन, वचन, कायरूप करणोंको ग्रहण करता है [तु च] तो भी [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता । [यथा] जैसे {शिल्पी तु] शिल्पो [कर्मफलं] प्राभूषणादि कोके फलको [भुक्ते] भोगता है [तु च] तो भी [सः] वह उनसे [तन्मयो न भवति] तन्मय नहीं होता Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार यथा शिल्पिकरशु कम करोति न च स तु तन्मयो भवति । तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति । यथा शिल्पिकस्तु करणः करोलि न स तन्मयो भवति । तथा जीवः करणः करोति न च तन्मयो भवति । यथा शिल्पिकरतु करणानि गुल्लाति न स तु तन्मयो भवति, तथा जीवः करणानि तु गृहाति न च तन्मयो। यया शिल्पिकः कर्मफलं भुत्ते न च स तु तन्मयो भवति । तथा जीवः कर्मफलं भुक्ते न च तन्मयो भवति । एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन । शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद्भवति ॥३५३।। यथा शिल्पिकस्तु चेष्टा करोति भवति च तथानन्यस्तस्याः तथा जीवोपि च कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात् यथा चेष्टां कुर्वाणस्तु शिल्पिको नित्यदुःखितो भवति । ततः स्यादनन्यस्तथा चेष्टमानो दुःखी जीवः ।।३५५।। यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादिः कुंडलादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति । हस्तकुट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकः करणः करोति । हस्तकुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति । ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुंडलादिककर्मफलं भक्ते च । नत्वने. तु, कर्मन्, न, त्र, तत्, तु, तन्मय, तथा, जीव, अपि, त्र, कर्मन, न, च, तन्मय, यथा, शिल्पिक, तु, करण, कर्मफल, एवं, व्यवहार, बक्तव्य, दर्शत. समास, निश्चय, वचन, परिणामकृत. तु यत्, चेष्टा, अनन्य, तत्, नित्यदुःखित, लतः, अनन्य, चेप्टमान, दुःखिन्, जोव । मूलधातु--डुकृत्र करणे, भू सत्तायां, ग्रह उपादाने क यादि, भुज उपभोगे, चेष्ट' चेष्टायां स्वादि । पदविवरण-जह यथा उ तु ण न य च तह तथा तत्तो तथा जीवः] उसी तरह जीव भी [कर्मफलं] सुख दुःख अादि कर्मफलको [भुक्ते] भोगता है [च परन्तु [तन्मयो न भवति] उनसे तन्मय नहीं होता। [एवं तु] इस तरह तो [व्यवहारस्य दर्शनं] व्यवहारका मत [समासेन] सक्षेपसे [वक्तव्यं] कहने योग्य है [स] अब [निश्चयस्थ] निश्चयका [वचनं] वचन [शृणु] सुनो [यत्] जो कि [परिणामकृतं] अपने परिणामोंसे किया [भवति] होता है। [यथा] जैसे [शिल्पिकः तु] शिल्पी तो [चेष्टां करोति] अपने परिणामस्वरूप चेारूप कर्मको करता है [तथा च] और [तस्या अनन्यः] उस चेष्टासे भिन्न नहीं [भवति ] है, तन्मय है [तथा] उसी तरह [जोबोपि च] जीव भी [कर्म] अपने परिणामस्वरूप चेष्टारूप कर्मको [करोति] करता है [च और [तस्मात] उस चेष्टारूप कर्मस [अनन्यः भवति] अन्य नहीं है, तन्मय है। [यथा तु] जैसे [शिल्पिकः] शिल्पी (चेष्टां कुरिणः] चेष्टा करता हुमा [नित्यदुःखितो भवति] निरन्तर दुःखी होता है [] और [तस्मात्] उस दुःखसे [अनन्यः स्यात्] पृथक् नहीं है, तन्मय है [तथा] उसो नरह [जीवः] जीव भी चिष्टमानः दुग्गे] चेष्टा करता हुमा दुःखो होता है और दुःखसे अनन्य है। तात्पर्य-निश्चयसे जीव अपने परिणमनका हो कर्ता व अनुभविता है । टोकार्थ-जिस प्रकार निश्चयसे मुनार प्रादि शिल्पी कुण्डल आदि परद्रव्यके परि. Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्ध ज्ञानाधिकार ५७७ कद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभीतृभोग्यत्वव्यवहारः । तथात्मापि पुण्यपापादिपुद्गल परिणामात्मकं कर्म करोति कायवाङ्मनोभिः पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकः करणैः करोति कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करानि गृह्णाति सुखदुःखादिपुद् गलद्रव्य परिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च नत्वनेकद्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृ कर्मभो भोग्यत्वव्यवहारः । यथा च स एव शिल्ली चिकीर्षुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म ततः - अव्यय । सिपिओ शिल्पिकः - प्रथमा एकवचन । कम्मं कर्म - द्वितीया एकवचन । कुब्बइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सो सः प्र० ए० । तम्मओ तन्मयः- प्र० ए० । होइ भवति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवो जीवः प्रथमा एक कम्मं कर्म - द्वितीया एक० । करहिं करण :-- तृ० बहु० । गिण्हइ गृह्णाति - वर्तमान लद् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । कम्मफलं कर्मफल- द्वितीया एक णामस्वरूप कर्मको करता है, हथौड़ा श्रादि परद्रव्यके परिणामस्वरूप करणों द्वारा करता हैं, हथौड़ा आदि परद्रव्यके परिणामस्वरूप करणों को ग्रहण करता है, और ग्राम धन यादि परद्रव्यके परिणामस्वरूप कुण्डलादि कर्मफलको भोगता है, किंतु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे याने कर्म करण आदि अन्यपता होनेपर उनसे तन्मय नहीं होता, इस कारण वहाँ निमित्तनैमि तिभावमात्र से ही उनके कर्ता-कर्मपनेका और भोक्ता भोग्यपनेका व्यवहार है । उसी प्रकार आत्मा भी पुण्य पाप आदि पुद्गलद्रव्यस्वरूप कर्मको करता है, मन वचन काय पुद्गलद्रव्य स्वरूप करणोंके द्वारा कर्मको करता है, मन वचन काय पुद्गलद्रव्य के परिणामस्वरूप करणों को ग्रहण करता है और सुख-दुःख श्रादि पुद्गल द्रव्य के परिणामस्वरूप पुण्य पाप आदि क के फलको भोगता है, किन्तु अनेक द्रव्यपनेके कारण उनसे अन्य होनेपर उनसे तन्मय नहीं होता । इस कारण निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र से ही वहां कर्ता कर्मपने व भोक्ता भोग्यपनेका व्यवहार है । जैसे वही शिल्पी करनेका इच्छुक हुआ अपने हस्त प्रादिकी चेष्टारूप अपने परिणामस्वरूप कर्मको करता है और दुःखस्वरूप अपने परिणामरूप चेष्टामय कर्मके फलको भोगता है उन परिणामोंको अपने एक ही द्रव्यपनेके कारण अनन्य होनेसे उनसे तन्मय होता है । इसलिये उनमें परिणाम- परिणामी भावसे कर्ता कर्मपनेका तथा भोक्ता भोग्यपनेका निश्चय है । उसी तरह श्रात्मा भी करनेका इच्छुक हुआ अपने उपयोगको तथा प्रदेशोंकी चेष्टारूप अपने परिणामस्वरूप कर्मको करता है और दुःख स्वरूप अपने परिणामरूप कर्मके फलको भोगता है और अपने एक ही द्रव्यपनेके कारण अन्यपता न होनेपर उनसे तन्मय होता है । इस कारण परिणाम परिणामी भावसे उसीमें कर्ता कर्मपनेका और भोक्ता भोग्यपनेका Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार करोति दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मक लेष्टानुरूप काम गले में कद्रव्यान तोडनन्यत्वे | सति तन्मयश्च भवति तत: परिणामपरिणामिभावेन तव कर्तृकर्मभोवतृभोग्यत्वनिश्चयः । । तथात्मापि चिकीर्षुश्चेष्टानुरूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मक चेष्टानुरूपकर्मफलं भुक्ते च एकद्रव्यत्वेन ततोनत्यत्वे सति तन्मयश्च भवति ततः परिणामपरि. गामिभावेन तव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्वयः ।। ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः भुजदि भुंक्ते–वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । ववहारस्स ब्यवहारस्य-षष्ठी एक० । वत्तव्वं वरुव्यंप्रथमा एकवचन कृदन्त । दरिसणं दर्शन-प्रथमा एक० । समासेण समासेन-तृतीया एक० । सुशु शृणुनिश्चय है। ___ अब इसी अर्थको श्लोकमें कहते हैं-ननु इत्यादि । अर्थ---वास्तवमें वतुका परिणाम ही निश्चब से कर्म है, वह परिणाम अपने आश्रयभूत परिणामी द्रव्यका ही होता है, पन्यका नहीं होता । कर्म कर्ताके बिना नहीं होता, तथा वस्तुको एक अवस्थारूप कूटस्थ स्थिति नहीं होती, इस कारण बस्तु ही स्वयं अपने परिणामरूप कर्मका कर्ता है। भावार्थ- प्रत्येक वस्तु . स्वयं ही स्वयंके परिणामको स्वयंकी परिणतिसे करता है यह निश्चयनयका सिद्धान्त है। ___ अब इसी अर्थका समर्थन कलशरूप काव्यमें करते हैं. बहिर्मुठति इत्यादि । अर्थयद्यपि स्वयं प्रकाशरूप अनंतशक्तिमान वस्तु बाहर लोटती है तो भी अन्यवस्तु अन्यवस्तुमें प्रवेश नहीं करती है । क्योंकि सभी वस्तु अपने-अपने स्वभावमें नियत हैं ऐसा निीत हुमा हैं। ऐसा होनेपर भी अहो, यह जीव अपने स्वभावसे चलायमान होकर प्राकुलित तथा मोही। हमा क्लेशरूप क्यों होता है ? भावार्थ-वस्तुस्वभाव नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तुमें कोई । अन्य वस्तु नहीं मिलती फिर तो यह बड़ा अज्ञान है कि यह प्राणी अपने स्वभावसे चलायमान | होकर ब्याकुल (क्लेशारूप) हो जाता है। प्रब फिर इसी अर्थको श्लोकमें दृढ़ करते हैं-वस्तु इत्यादि । अर्थ--इस लोकमें। एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं है, इस कारण वस्तु वस्तुरूप ही है। ऐसा होनेपर अन्यवस्तु बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है अर्थात् कुछ भी नहीं कर सकती । भावार्थ-वस्तुका स्वभाव ही ऐसा है कि अन्य कोई वस्तु उसे बदल नहीं सकती, यदि ऐसा न माना जाय तो वस्तुका बस्तुपना ही न रहेगा। तब अन्यका अन्यने कुछ भी नहीं किया। जैसे चेतन वस्तुके एक क्षेत्रावगाहरूप पुद्गल रहते हैं तो भी चेतनको जड़ पुद्गल अपने रूप तो नहीं परिणमा सकते तब चेतनका कुछ भी नहीं किया, यह निश्चयनयका मत है, और निमित्तनैमित्तिक भावसे अन्य वस्तुके परिणाम होता है तो वह भी उस उपादानभूत वस्तुका Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत् । न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया स्थिति. रिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः ॥२११॥ बहिर्मुठति यद्यपि स्फुटदनंत शक्तिः स्वयं तथाआशार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० किया। णिच्छयस्स निश्चयस्य-षष्ठी एक० । वयणं वचनं परिणामकयं परिणामकृतं जं यत्-प्रथमा एकवचन । होइ भवति-व० अ० ए० । चिट्ठ घेण्टा-द्वि० एक० । कुबई ही है अन्यका कहना थ्यवहार है । अब यही अर्थ काव्यमें कहते हैं--यत्त इत्यादि । अर्थ---कोई वस्तु स्वयं परिणामी अन्य वस्तुका कुछ करती है ऐसा जो मत है वह मत व्यवहारनयको दृष्टि से ही है निश्चयसे तो एकका दूसरा कुछ है ही नहीं। भावार्थ-एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहा जाता कि अन्य द्रव्यने यह किया, निश्चयसे तो जो परिणाम हुप्रा वह अपना ही हुआ दूसरेने उसमें कुछ भी लाकर नहीं रक्खा, ऐसा जानना । प्रसंगविवरस---अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्को स्वपरिणमनरूप कर्तृत्वको सिद्ध करनेके लिये नित्यानित्यत्वकी व्यवस्था बताई गई थी। अब इस गाथासप्तको वास्तविक कर्तृ कर्मत्व प्रभेद दर्शाया गया है। . तथ्यप्रकाश-१-व्यवहारसे कर्ता कर्म भिन्न-भिन्न समझे जाते हैं, किन्तु निश्चयसे जो ही कर्ता है वही उसका कर्म है। २- व्यवहारसे अज्ञानी जीव स्वसंवेदनसे च्युत होता हुआ ज्ञानावरणादि कर्मोको करता है, किन्तु उनसे तन्मय नहीं होता। -- व्यवहारसे अज्ञानी जोव मन वचन कायके व्यापाररूप उपकरणोंके द्वारा कर्मोको करता है, किन्तु उन उपकरणों से तन्मय नहीं होता । ४-व्यवहारसे अज्ञानी जीव कर्मोको करनेके लिये योगव्यापाररूप उपकरणोंको ग्रहण करता है, किन्तु उनसे तन्मय नहीं होता। ५-जीब तो कर्म व योगव्यापारोंसे भिन्न टोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप है, प्रतः कर्म व योग व्यापारोंसे कभी भी तन्मय नहीं होता। ६- व्यवहारसे प्रज्ञानी जीव शुद्धात्मभावनोत्थ सहजानन्दको न पाता हुप्रा शुभाशुभ कर्मफलोंको भोगता है, किन्तु उनसे तन्मय नहीं होता । ७- वास्तवमें अज्ञानी जीव शुद्धात्मस्वरूपको प्रतीतिके प्रभावमें अपने समुचित उपादानरूपसे मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मको करता है वह उस समय उस भावकमसे अनन्य है । ८- वास्तव में अज्ञानी जीव निश्चयरत्नप्रयके प्रभावमें सुखदुःखादिके भोगनेके समय हर्षविषादरूप चेष्टाको करता हुमा दुःखी होता है वह हर्षविषादचेष्टासे अशुद्धोपादानरूपसे मनन्य है । ६- अज्ञानी जीव स्वसहजात्मज्ञानसे च्युत होकर व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मको करता है व भोगता है । १०- वास्तवमें अज्ञानी जीव कर्म. फलको प्रात्मरूप मानता मा अज्ञानरूप ज्ञानपरिलमनसे परिणमता है । Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० समयसार --. ...-.. प्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वंतरं । स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिशठते ।। १२॥ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयायमपरोऽपरस्य क: किं करोति हि बहिलुठन्नपि ॥ १३॥ यत्तु वस्तु कुरु. तेऽन्य वस्तुनः किंचनापि परिणामिनः स्वयं । व्यावहारिकदृर्शव तन्मतं नान्यदस्ति किमपोह निश्चयात् ।।२१४।। ।। ३४६-३५५ ।। करोति हवाइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन ! अणपणो अनन्यः-प्र० ए० । से तस्याः -षष्ठी ए० । कुट्वंतो कुर्वन्–प्रथमा एक० कृदन्त । णिश्चदुविखओ नित्यदुःखितः-प्रथमा एक० । तत्तो तत:--अव्यय । सिया स्यात्-विधिलिङ अन्य पुरुष एकवचन । चेट्टतो चेष्टमानः प्रथमा एक० । दुही दुःखी-प्र० ए०। जीवो जीव:-प्रथमा एकवचन ।। ३४६-३५५ ।। __ सिद्धान्त.१- जीव व्यवहारनयसे द्रव्यकर्मको करता है । २- जीव व्यवहारनयसे कर्मफलको भोगता है । ३-अज्ञानी जोव निश्चयसे मिथ्यात्वरागादिरूप भावकमको करता है। ४--जीव निश्चयसे हर्षविपादादिरूप परिणामको भोगता है । ५- परमार्थसे प्रात्मा कर्तृत्व भोक्तृत्वसे शून्य है । दृष्टि-....१- परकर्तृत्व अनुपचरित असदभूतव्यवहार (१२६) । २-- परभोक्तृत्व अनुपचारित असद्भूतथ्यवहार (१२६ अ)। ३-अशुद्धनिश्चयनय (४७) । ४-अशुद्धनिश्चयनय (४७) । ५--शुद्धनय, शून्यनय (४६, १६८, १७३) । प्रयोग-~-बाह्य पदार्थ के करने भोगनेकी असंभवता जानकर, रागादिक अशुद्ध परिणामौके करने भोगनेको अपराध जानकर, उन सबसे हटकर सहज चित्स्वरूप अन्तस्तत्त्वमें उपयोग लगाना ।। ३४६.-३५५ ।। अब इस निश्चयव्यवहारनयके कथनको दृष्टांत द्वारा स्पष्ट करते हैं - [यथा] जैसे [ सेटिका तु] सफेदी-कलई-खड़िया मिट्टी तो [परस्य न परकी याने दीवार आदिकी नहीं है [सेटिका] सफेदी तो [सा च सेटिका भवति] वह सफेदी ही है तथा] उसी प्रकार [शायकः तु] ज्ञायक प्रात्मा तो [परस्य ने] परद्रव्यका नहीं है [शायकः स तु ज्ञायकः] ज्ञायक तो वह ज्ञायक ही हैं। [यथा] जैसे [सेटिका त] सफेदी [परस्य न] परद्रव्यको नहीं है [सेटिका सा च सेटिका भवति ] सफेदी तो वह सफेदी हो है [तथा] उसी प्रकार, [दर्शकः त] देखने वाला प्रात्मा [परस्य न] परका नहीं है सेटिका सा च सेटिका भवति] सफेदो तो वह सफेदी ही है [तथा] उसी प्रकार [दर्शक: तु] देखने वाला प्रात्मा [परस्य न] परका नहीं है [दर्शकः स तु दर्शकः दर्शक तो वह दर्शक ही है [यथा] जैसे [सेटिका तु] सफेदी Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ १ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार जह सेडिया दुगा परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ । तह जादु ण परस्स जाणो जाओ सो दु || ३५६ ॥ जह सेडिया दगा परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ । तह पास दुण परस्स पासो पासो सो दु || ३५७॥ जह सेडिया दु | परस्स सेडिया सेडिया दुसा होइ । तह संजय दुण परस्स संजय संजय सो दु ॥ ३५८ ॥ जह सेडिया दुण परस्स सेडिया सेडिया दुसा होदि । तह दंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं तं तु || ३५६ ॥ एवं तु णिच्छयणस्स भासियं गाणदंसणचरिते । सुववहारणयरस य वत्तव्यं से समासे ॥३६०ना जइ परदव्वं सेsदि हु सेडिया पण सहावेण । तह परदव्वं जाणइ गाया विसयेण भावेण ॥ ३६१॥ जह परदव्वं सेडदि ह सेडिया अप्पणी सहावेण । तह पदव्वं परसह जीवोवि सयेण भावेा ॥३६२॥ जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणी सहावे । तह परदव्वं विजह णायावि सयेा भावे ॥३६३॥ नामसंज्ञ – जह, सेडिया, दु, ण, पर, य, त, तह, जाणअ, त, पास, संजअ, दक्षण, एवं तु मिच्छ यणय, भासिय, णाणदंसणचारित, बवहारणय, वतव्व, त, समाम, णाया, बि सय भाव, परदव्य, अप्प, [ परस्य न ] परपदार्थ दीवार श्रादिकी नहीं है [सेटिका ] सफेदी [सा च सेटिका भर्थात ] तो सफेदी ही है [ तथा ] उसी प्रकार [संयतः तु ] संयत याने त्याग करने वाला श्रात्मा [परस्य न] परद्रव्यका नहीं है [ संयतः स तु संयतः ] संयत तो वह संयत ही है [ यथा ] जैसे [सेटिका तु] सफेदी [ परस्य न ] परद्रव्यकी नहीं है, [सेटिका सा च सेटिका भवति ] सफेदी तो वह सफेदी ही है [ तथा ] उसी प्रकार [ दर्शनं तु ] श्रद्धान [परस्थ न] परपदार्थका नहीं है [ दर्शने तत्तु दर्शनं] श्रद्धान तो वह श्रद्धान हो है । [ एवं तु ] इस प्रकार [ज्ञानदर्शनचरित्रे ] ज्ञान, दर्शन और चारित्रमें [ निश्चयनयस्य भाषितं ] निश्चयनयका कथन है [ तस्य च ] अब उस सम्बंध Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८.२ समयसार जह परदर्द से हि पण सहावेण | तह परदव्वं सद्दहइ सम्मादिट्ठी सहावेण || ३६४ ॥ एवं हारस्तदु विणिच्छश्रो गाणदंसणचरिते । भणियो अण्गोसु वि पज्जएस एमेव गायव्वो ॥ ३६५॥ (दशकम् ) ज्यौं सेटिका न परकी, सेटिका सेटिका ही होती है । त्यज्ञायक नहि परका, ज्ञायक ज्ञायक हि होता है || ३५६ ।। ज्यों सेटिका न परकी, सेटिका सेटिका ही होती है । दर्शक नहिं परका, दर्शक दर्शक हि होता है ।। ३५७ ।। सेटिका न परको, सेटिका सेटिका ही होती है । संपत नहि परका, संयंत संयत हि होता है ॥ ३५८ ॥ ज्यौं सेटिका न परकी, सेटिका सेटिका ही होती है । त्यौं दर्शन हि परका, दर्शन दर्शन हि होता है ।। ३५६ ॥ यौं निश्चयका आश्रय, दर्शन ज्ञान चारित्रमें भाषित । अब व्यवहाराशयको, सुनो सुसंक्षेप में कहते ॥ ३६० ॥ ज्यौं परको श्वेत करे, सेटिका वहां स्वकीय प्रकृतीसे । त्यो परको जाने यह, ज्ञाता भि स्वकीय भाव हि से ।। ३६१ ॥ परको श्वेत करे, सेटिका वहां स्वकीय प्रकृतीसे । प्रात्मा भि स्वकीय भाव हि से ॥३६२॥ सेटिका वहां स्वकीय प्रकृतीसे । श्रात्माभि स्वकीय भाव हि से ।।३६३ ॥ त्यौं परको देखे यह ज्यों परको श्वेत करे, त्यों परको त्यागे यह सहाव, सम्मादिद्धि, विणिच्छय, गाणदंसणचरित, भणिअ, अण्ण, पज्जय, एमेव, णायव्व । धातुसंज्ञहो सत्तायां, सुण श्रवणे, सेड वेती करणे, जाण अवबोधने, पास दर्शने, वि जहा त्यागे, सद् दह धारणे । में [ समासेन व्यवहारनयस्य वक्तव्यं शृणु ] संक्षेपसे व्यवहारनयका कथन सुनो। [ter] जैसे [सेटिका प्रात्मनः स्वभावेन ] सफेदी अपने स्वभाव से [परद्रव्यं सेटयंति ] परद्रव्यको याने दीवार आदिको सफेद करती है [ तथा ] उसी प्रकार [ज्ञाता अपि स्वकेन भावेन परद्रव्यं जानाति ] ज्ञाता भी अपने स्वभावसे परद्रव्यको जानता है [ यथा ] जैसे [सेटिका आत्मनः स्वभावेन परद्रव्यं सेटयति ] सफेदी अपने स्वभावसे परद्रव्यको सफेद करती Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार परको श्वेत करे, सेटिका वहां स्वकीय प्रकृतीसे । 1 परको सरधाने, सम्यग्दृष्टी स्वभाव हि से ।। ३६४ ।। यौं व्यवहार विनिश्चय, दर्शन ज्ञान चारित्रमें जानो । ऐसा ही अन्य सफल, पर्यायोंमें भि नय जानो ॥ ३६५॥ यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा ज्ञायकस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायकः स तु ॥ यथा सेटिका 'तुन परस्थ सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शकः स तु ।। यथा टिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा संयतस्तु न परस्य संयतः संयतः स तु ॥ यथा टिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति । तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु ॥ एवं तु निश्चयनयस्थ व भाषितं ज्ञानदर्शनचरित्रे । शृणु व्यवहारनयस्य च वक्तव्यं तस्य समासेन || यथा परद्रव्यं सेटयति खलु सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥ यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं पश्यति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ॥ は यया परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन |! वथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन । तथा परद्रव्यं श्रद्धत्ते ज्ञातापि स्वकेन भावेन || एवं व्यवहारस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रे । भणितोऽन्येष्वपि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्यः ॥ सेटिका तावच्छ्रवेत गुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं । तस्य तु व्यवहारेण श्वत्यं कुड्यादिपरद्रव्यं । प्रथात्र कुड्यादेः परद्रव्यस्य श्र्वत्थस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति तदुप्रातिपदिक - यथा, सेटिका, तु न पर, च, तत्, तथा, सायक, दर्शक, संयत, दर्शन, एवं, तु, निश्चयनय, भाषित, ज्ञानदर्शनचरित्र, व्यवहारनय, वक्तव्य, तत्, समास, ज्ञातृ, अपि स्वक, भाव, परद्रव्य, आत्मन, है [ तथा ] उसी प्रकार [जीवः प्रपि स्वकेन भावेन परद्रव्यं पश्यति ] जीव भी अपने स्वभाव से परद्रव्यकी देखता है [ यथा] जैसे [सेटिका भ्रात्मनः स्वभावेन परद्रव्यं सेटयति ] सफेदी अपने स्वभावसे द्रव्यको सफेद करती है [ तथा ] उसी प्रकार [ज्ञाता अपि स्वकेन भावेन परब्रव्यं सेटयति ] ज्ञानी भी अपने स्वभावसे परद्रव्यको छोड़ता है [ यथा] जैसे [सेटिका श्रात्मनः स्वभावेन परद्रव्यं सेटयति] सफेदी अपने स्वभावसे परद्रव्यको सफेद करती है [ तथा ] उसी प्रकार [सम्यग्दृष्टिः स्वभावेन परद्रव्यं श्रद्धते] सम्यग्दृष्टि अपने स्वभावसे परद्रव्यको श्रद्धा करता है [ एवं तु] इस प्रकार [ज्ञानदर्शनचरित्रे ] ज्ञान, दर्शन और चारित्र में [व्यव हारनयस्य विनिश्चयः ] व्यवहारनयका निर्णय [भरितः ] कहा गया है [ एवं अन्येषु पर्यायेषु श्रपि ज्ञातव्यः ] इसी प्रकार अन्य पर्यायोंमें भी जानना चाहिये । तात्पर्य - आत्मा स्वयंमें अपने उपयोग परिणामरूप परिणमता है यह निश्चयनयका सिद्धान्त है और उपयोग के विषयभूत पदार्थ के प्रति श्रात्माका कर्तृत्व बताना व्यवहारनयका विनिश्चय है । : ५८३ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ समयसार भयतत्त्वसंबंधो मीमांस्यते---यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञान भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसंबंधे जीवति सेटिका कुख्यादेर्भवंती कुड्यादिरेव भवेत्, एवं सति सेटिकायाः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्र व्यस्यास्त्युच्छेदः, ततो न भवति सेटिका कुड्यादेः । यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तहिं कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति । ननु कतरान्या सेटिका सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः । किंतु स्वस्वाम्यंशावेवान्यो । किमत्र साध्य स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तहि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकवेति निश्चयः । सम्यग्दृष्टि, स्वभाव, विनिश्चय, ज्ञानदर्शनचारित्र, भणित, अन्य, पर्याय, एवं, एव, ज्ञातव्य । मूलपातुभू सत्तायां, श्रु श्रवणे भ्वादि, षिट अनादरे भ्वादि णिजन्त, ज्ञा अवबोधने, दृशिर् प्रेक्षणे, वि ओहाक त्यागे जुहोत्यादि, श्रद् डुधात्र धारणपोषणयोः । पदविवरण-जह यथा-अव्यय । सेडिया सेटिका-प्रथमा एक० । दु तु ण न-अव्यय । परस्स परस्य--षष्ठी एक० । य च-अव्यय । सा-म० ए० । होइ भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। तह तथा अव्यय । जाणओ ज्ञायक:-प्र० ए०। पासओ दर्शक:-प्रथमा टीकार्थ-इस लोकमें महिया (एफेदी) श्वेतगुणसे भरा हुमा द्रव्य है। कुटी, भीत , प्रादि परद्रव्य व्यवहारसे श्वैत्य है । अब खड़िया और परद्रव्य दोनोंमें परमार्थसे क्या संबंध है ? इसका विचार किया जा रहा है कि श्वेत करने योग्य कुटो आदि परद्रव्यकी श्वेत करने । वालो खड़िया है या नहीं ? यदि सेटिका भींत आदि परद्रव्यकी है, तो ऐसा न्याय है कि जो जिसका हो वह उस स्वरूप ही होता है । जैसे प्रात्माका ज्ञान प्रात्मस्वरूप ही है । ऐसा पर. मार्थरूप तस्वसंबंध जीवित (विद्यमान) होनेपर. सेटिका भीत प्रादिको होती हुई भींत प्रादि । के स्वरूप ही होनी चाहिये, ऐसा होनेपर सेटिकाके निजद्रव्यका तो प्रभाव हो जायगा; परंतु एकद्रव्यका अन्यद्रव्यरूप होना तो पहले ही प्रतिषिद्ध हो जानेसे द्रव्यका उच्छेद नहीं है। इस कारण खड़िया कुटो प्रादि परद्रव्यकी नहीं है । प्रश्न- यदि खडिया भीत प्रादिको नहीं है तो किसकी है ? उत्तर-खड़िया खड़ियाकी ही है। प्रश्न-वह अन्य खड़िया कोनसी है जिस खडियाकी यह खड़िया है ? उत्तर-खड़ियासें भिन्न अन्य कोई खड़िया नहीं है, किन्तु खडियाके स्वस्वामिरूप अंश ही अन्य कहे जाते हैं । प्रश्न - यहाँ स्वस्वामि अंशके व्यव. हारसे क्या साध्य है ? उत्तर-कुछ भी नहीं। इससे यह सिद्ध हुमा कि खडिया अन्य किसी को भी नहीं, खड़िया खड़िया ही है ऐसा निश्चय है । जैसा यह दृष्टांत है वैसा ही यह दान्ति है- इस लोकमें प्रथम तो चेतनेवाला प्रात्मा ज्ञानगुणसे भरे स्वभाव वाला द्रव्य है, उसका व्यवहारसे जानने योग्य पुद्गल प्रादिक परद्रव्य है। अब यहाँ शेय पुद्गल प्रादि परद्रव्यका Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार यथा दृष्टान्तस्तथायं दार्टान्तिकः---चेतयितान तावद् ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण ज्ञेयं पुद्गलादि परद्रव्यं । अथात्र पुद्गलादे: परद्रव्यस्य ज्ञेयस्य ज्ञायकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति ? तदुभयतत्त्वसंबंधो मीमांस्यते । यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवति इति तत्त्वसंबंधे जोवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्, एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य एकवचन । संजओ संयतः-प्रथमा एक सण दोमन २०.९ अब सिरणयस्स निश्चयनयस्य-षष्ठी एक० । भासिय भाषितं-प्रथमा एक० कृदन्त । णाणदंसणचरिने ज्ञानदर्शनचरित्रे-सप्तमी एक० द्वन्द्वसमास. सुणु शृणु-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एक० क्रिया। बवहारणयरस व्यवहारनयस्यज्ञायक चेतयिता प्रात्मा कुछ होता है या नहीं ? ऐसा उन दोनोंका तात्विक सम्बन्ध विचारा जाता है । यदि चेतयिता प्रात्मा पुद्गल आदि परद्रव्यका है तो यह न्याय है कि जो जिसका हो वह वही है अन्य नहीं । जैसे कि प्रात्माका होता हुअा ज्ञान प्रात्मा ही है ज्ञान कुछ पृथक द्रव्य नहीं है । ऐसे परमार्थरूप तत्त्वसंबंधके जीवित (विद्यमान) होनेपर प्रात्मा पुद्गलादिक का होवे तो वह चेतयिता पुद्गलादिक ही होना चाहिये। ऐसा होनेपर प्रात्माके स्वद्रव्यका प्रभाव हो जायगा, किन्तु द्रव्यका प्रभाव नहीं होता, क्योंकि अन्य द्रव्यको पलटकर अन्य द्रव्य होनेका निषेध तो पहले ही कह पाये हैं । इसलिये चेतयिता प्रात्मा पुद्गलादिक परद्रव्य का नहीं होता । प्रश्न-चेतयिता अात्मा पुद्गलादि परद्रव्यका नहीं हैं तो किसका है ? उत्तरचेतयिताका ही चेतयिता है । प्रश्न - वह दूसरा घेतयिता कौनसा है जिसका यह चेतयिता है ? उत्तर-- चेतयितासे अन्य कोई चेतयिता नहीं है, किन्तु स्वस्वामिग्रंश ही अन्य कहे जाते हैं । प्रश्न- यहां स्वस्वामिग्रंशके व्यवहारसे क्या साध्य है ? उत्तर-कुछ भी नहीं । अतः यह सिद्ध हुआ कि जायक है वह निश्चयसे अन्य किसीका ज्ञायक नहीं है, ज्ञायक ज्ञायक ही है ऐसा निश्चय है। किञ्च --यहाँ खड़िया प्रथम तो श्वेत गुणसे भरे स्वभाव वाला द्रव्य है । दीवार कुटी आदि परद्रव्य व्यवहारसे श्वैत्य है । अब श्वेत करने योग्य कुटी प्रादि परद्रव्यकी श्वेत करने बाली खड़िया क्या है या नहीं ? इस प्रकार उन दोनोंका तात्विक संबंध विचारा जा रहा है-पदि खड़िया कुटी आदिककी है तो यह न्याय है कि जिसका जो हो वह वही है अन्य नहीं है । जैसे कि प्रात्माका होता हुमा ज्ञान प्रात्मा ही है। ऐसे परमार्थरूप संबंधके विद्यमान होनेपर खड़िया कुटो आदिकी यदि हो तो कुटी प्रादिक ही होनी चाहिये । ऐसा होनेपर खडियाके स्वद्रव्यका नाश हो जायगा, किंतु द्रव्यका उच्छेद नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्र्व्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादे: । यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तहि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति । ननु कतरोन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चतायता भवति ? न खल्यन्यश्चेतयिता चेतयितुः, किंतु स्वस्वाभ्यंशा. वेवान्यौ । किमत्र साध्यं स्वस्त्राम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तहि न कस्यापि ज्ञायकः । ज्ञायको ज्ञायक एवेति निश्चयः । किं च सेटिकात्र ताबच्छ्वेतगुणनिर्भरस्वभाव द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेरण बैत्यं कुड्यादि परद्रव्यं । अथात्र कूड्यादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति कि न भवतीति ? तदुभयतत्त्वसंबंधो मीमांस्यते । यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा षष्ठी एक० । यत्तव्वं वक्तव्य-प्रथमा एक० । से तस्य-षष्ठी एक०। समासेण समासेन-तृतीया एकः । जह यथा अव्यय । परदव्वं परद्रव्य-द्वितीया एक० । सेडदि सेटयति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन अन्यद्रव्यरूप पलटनेका पहले ही निषेध कर चुके हैं। इस कारण खड़िया कुटी आदिको नहीं है । प्रश्न- सेटिका कुटी आदिको नहीं हैं तो किसकी है ? उत्तर--सेटिका सेटिकाकी हो है । प्रश्न- वह दूसरो सेटिका कौनसी है कि जिसको यह सेटिका है ? उत्तर-दूसरी सेटिका तो' नहीं है कि जिसको यह सेटिका हो सके, किन्तु स्वस्वामिग्रंश ही अन्य है । प्रश्न-यहां स्वस्वामिग्रंशके व्यवहारसे क्या साध्य है ? उत्तर-कुछ भी नहीं । तो यह सिद्ध हुमा कि सेटिका किसीकी भी नहों, सेटिका सेटिका ही है ऐसा निश्चय है । जैसे यह दृष्टांत है वैसे यह दान्ति है- यहां चेतयिता प्रात्मा दर्शन गुरगसे परिपूर्ण स्वभाव वाला द्रव्य है, पुद्गल आदि परद्रव्य व्यवहार से उस चेतयिताका दृश्य है । अब यहां दोनोंका परमार्थभूत तत्त्वरूप सम्बन्ध विचारते हैं कि दृश्य पुद्गल प्रादि परद्रध्यका दर्शक चेतयिता कुछ है या नहीं ? यदि चेतायता पुद्गल द्रव्यादिका है तो यह न्याय है कि जो जिसका होता है वह वही है अन्य नहीं है । जैसे कि प्रात्माका होता हुमा ज्ञान प्रात्मा ही है, ज्ञान भिन्न द्रव्य नहीं है। ऐसे तत्वसम्बन्धके विद्यमान होनेपर चेतयिता पुद्गल प्रादिका होता हुमा पुद्गल प्रादिक ही हो सकेगा, भिन्न द्रव्य न हो सकेगा। ऐसा होनेपर चेतयिताके स्वद्रव्यका नाश हो जायगा, परन्तु द्रव्यका नाश होता नहीं, क्योंकि अन्य द्रव्यको पलटकर अन्य द्रव्य होनेका पहले ही निषेध कर चुके हैं । इसलिये यह ठहरा कि चेतयिता पुद्गल द्रव्य प्रादिका नहीं है । प्रश्न--चेतयिता पुद्गलद्रव्य आदिका नहीं है तो किसका है ? उत्तर--चेतयिताका हो चेतयिता है। प्रश्न- वह दूसरा चेतपिता अन्य कौन है जिसका यह चेतयिता है ? उत्तर-चेतयितासे अन्य तो चेतयिता नहीं है। तो क्या है ? स्वस्वामिग्रंश ही अन्य है । प्रश्न-यहाँ स्वस्वामिग्रंशके व्यवहारसे क्या साध्य है ? उत्तर- कुछ भी नहीं । तब यह ठहरा कि चेतायता किसीका भी दर्शक नहीं Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति ययात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसंबंधे जीवति सेटिका कुड्मादेर्भवंती कुड्यादिरेव भवेत्. एवं सति सेटिकायाः स्वद्रध्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद् द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति सेटिका कुड्यादेः । यदि न भवति सेटिका कुड्यादेस्तहि कस्य सेटिका भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति । ननु कतरान्या सेटिका सेटिकाया: यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः किंतु स्वस्वाम्यशावेवान्यौ । किमत्र साध्यं स्वस्वाय॑शव्यवहारेण ? न किमपि । तहि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकवेति निश्चयः । यथायं दृष्टांतस्तथायं दार्शन्तिक:--चेतयितात्र तावद्दर्शनमुणनिक्रिया । हु खलु-अव्यय । सेडिया सेटिका-प्रथमा एक । अप्पणो आत्मनः-षष्ठी एक० । सहावेण स्वभाव हैं, दशक दर्शक हो है । अपि च-यहाँ सेटिका जिसका स्वभाव श्वेतमुणसे भरा है एक द्रव्य है, उसका व्यवहारसे श्वेत करने योग्य कुटी प्रादि परद्रव्य है । अब यहाँ दोनोंका परमार्थसे सम्बंध विचारा जा रहा है.---श्वेत करने योग्य कुटी आदि परद्रव्यकी श्वेत करने वाली सेटिका क्या है या नहीं ? यदि सेटिका कुटी प्रादिको है तो यह न्याय है कि जो जिसका हो वह वही है अन्य नहीं है। जैसे कि प्रात्माका होता हुआ ज्ञान प्रात्मा ही है अन्य द्रव्य नहीं है । ऐसे परमार्थरूप तत्त्व सम्बंधके जीवित (विद्यमान) होनेपर सेटिका कुटी आदिकी होती हुई कुटी प्रादि ही होगी । ऐसा होनेपर सेटिकाके स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायगा सो द्रव्यका उच्छेद नहीं होता, क्योंकि अन्य द्रव्यको पलटकर अन्य द्रव्य होनेका निषेध पहले कर चुके हैं । इस. लिये सेटिका कुड्यादिककी नहीं है । प्रश्न-सेटिका कुटो आदिको नहीं है तो किसकी है ? उत्तर--सेटिका सेटिकाकी ही है । प्रश्न--वह दुमरी सेटिका कौनसी है जिसको यह सेटिका है। उत्तर-इस सेटिकासे अन्य सेटिका तो नहीं है। तो क्या है ? स्वस्वामिग्रंश हैं वे ही अन्य हैं । स्वस्वामिग्रंशसे निश्चयनयमें क्या साध्य है ? कुछ भी नहीं । तब यह ठहरा कि कि सेटिका अन्य किसीको भी नहीं है सेटिका सेटिका ही है ऐसा निश्चय है । जैसा यह दृष्टान्त है वैसा यह दान्ति है इस जगतमें चेतयिता प्रात्मा ज्ञान दर्शन गुणसे परिपूर्ण परके अपोहन याने त्यागरूष स्वभाव वाला द्रव्य है, पुद्गल आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस चेतयिता का अपोह्य याने त्याज्य है । अब यहाँ दोनोंके परमार्थतत्त्वरूप सम्बन्ध विचारा जा रहा हैत्यागने योग्य पुद्गल आदि परद्रव्यका त्यागने वाला चेतयिता कुछ है या नहीं ? यदि चेतयिता पुद्गल प्रादि परद्रव्यका है तो यह न्याय है कि जिसका जो हो वह वही है जैसे कि मात्माका ज्ञान प्रात्माका होता हुआ पातमा ही है अन्य द्रव्य नहीं। ऐसा तत्त्वसम्बन्ध विद्यमान होनेपर चतयिता पुद्गल प्रादिका होता हुआ पुद्गल प्रोदिक ही होगी । ऐसा होनेपर Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '== समसार भरस्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण दृश्यं पुद्गलादि परद्रव्यं । अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्य दृश्यस्य दर्शक श्वेतयिता किं भवति किं न भवतीति ? तदुभयतत्त्व संबंधो मीमांस्यते-- यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवति इति तस्वसंबंधे जीवति चेतपिता पुद्गलादेर्भवन पुद्गलादिरेव भवेत् । एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतरसंक्रमस्य पूर्वमेत्र प्रतिषिद्धत्वात् द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ? ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः । यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तहि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति । ननु कतरोन्यश्वेतयिता चेतपितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न वेन - तृतीया एक जाणइ जानाति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । णाया ज्ञाता - प्रथमा एकवचन | चेतयिता स्वद्रव्यका उच्छेद हो जायगा, किन्तु द्रव्यका उच्छेद होता नहीं, क्योंकि अन्यद्रव्य को पलटकर अन्यद्रव्य होनेका प्रतिषेध पहले हो कर चुके हैं। इसलिये चेतयिता पुद्गलादिक का नहीं हो सकता । प्रश्न- चेतयिता पुद्गल श्रादिका नहीं है तो चेतयिता किसका है ? उत्तर - चेतयिताका ही चेतयिता है। प्रश्न -- वह दूसरा चेतयिता कौनसा है जिसका यह चेतयिता है ? उत्तर - तयिता से अन्य चेतयिता तो नहीं है । तो क्या है ? स्वस्वामिश्रंश ही धन्य हैं। प्रश्न- - यहाँ स्वस्वामिश्रंशके व्यवहारसे क्या साध्य है ? उत्तर - कुछ भी नहीं । तब यह ठहरा कि पोहक (त्यागने वाला) किसीका भी नहीं है, अपोहक अपोहक ही है ऐसा निश्चय है | अब व्यवहारका व्याख्यान किया जाता है जैसे श्वेतगुरासे परिपूर्ण स्वभाववाली वही सेटिका स्वयं कुटी आदि परद्रव्यके स्वभावसे नहीं परिणमती हुई तथा कुड्यादिक परद्रव्यको अपने स्वभावसे नहीं परिणमाती हुई, जिसको कुड्यादि परद्रव्य निमित्त है, ऐसे अपने श्वेतगुणसे भरे स्वभावके परिणामसे उपजती हुई सेटिका जिसको निमित्त है, ऐसे अपने कुड्यादि स्वभाव के परिणाम द्वारा उत्पन्न होते हुए कुड्यादि परद्रव्यको अपने स्वभावसे सफेद करती है । ऐसा व्यवहार किया जाता है । उसी तरह ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभाव वाला चेतयिता श्रात्मा भी स्वयं पुद्गलादि परद्रव्य के स्वभावसे परिणमित नहीं होता हुआ और पुद्गल आदि परद्रव्यको अपने स्वभावसे न परिणमाता हुआा तथा जिसको पुद्गल श्रादि परद्रव्य निमित्त है ऐसे अपने ज्ञानगुणसे भरे स्वभाव के परिणामसे उत्पन्न होता हुआ, जिसको चेतयिता निमित्त हैं ऐसे अपने स्वभाव के परिणामसे उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावसे जानता है, ऐसा व्यवहार किया जाता है । किञ्च -- जैसे श्वेतगुण से परिपूर्ण स्वभाव वाली वही सेटिका स्वयं कुयादि परद्रव्यके स्वभावसे परिणमन नहीं करती हुई, और कुड्यादि Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धशाधिकार ५८६ खल्वन्यश्चेतयिता चेतयितुः किंतु स्वस्वाम्यंशावेवान्यो । किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तहि न कस्यापि दर्शकः, दर्शको दर्शक एवेति निश्वयः । अपि च सेटिका तावच्छ्वेत गुणनिर्भर स्वभावं द्रव्यं तस्य तु व्यवहारेण श्वत्यं कुड्यादि परद्रव्यं । प्रया कुड्य देः परद्रव्यस्य श्र्वेत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं भवति किं न भवतीति ? तदुभयतस्व संबंधी मीमांस्यते । यदि सेटिका कुड्यादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनोज्ञानं भवदातव भवति इति तत्त्वसंबंधे जीवति सेटिका कुड्यादेर्भवती कुड्यादिरेव भवेत् । एवं सति सेटि कायाः स्वद्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतर संक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद् द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ? ततो न भवति सेटिका कुड्या देः । यदि न भवति सेटिका कुड्यावस्तह कस्य सेटिका भवति ? सेटि काया एव सेटिका भवति । ननु कतरान्या सेटिका सेटिकाया यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका से टिकायाः किंतु स्वस्वाभ्यंशा वेदान्यो । किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तर्हि न कस्यापि सेटिका, सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः । यथायं दृष्टांतस्तथायं दाष्टन्तिक: -- चेतयितात्र तावद् ज्ञानदर्शन गुणनिर्भरपरापोहनात्मक स्वभावं द्रव्यं । तस्य तु व्यवहा वि अपि - अव्यय । सयेण स्वकेन भावेण भावेन-तृतीया एक० । पस्सइ पश्यति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष परद्रव्यको अपने स्वभावसे परिरणमन नहीं कराती हुई तथा जिसको कुड्यादि परद्रव्य निमित्त हैं, ऐसे श्वेतगुण से भरे अपने स्वभाव के परिणामसे उत्पन्न होती हुई तथा जिसको सेटिका निमिस है ऐसा अपने स्वभावके परिणामसे उत्पन्न होते हुए कुटी प्रादिक परद्रव्यको अपने स्वभावसे सफेद करती है, ऐसा व्यवहार किया जाता है । उसी तरह दर्शन गुरणसे परिपूर्ण स्वभाव वाला चेतयिता आत्मा भी स्वयं पुद्गल आदि परद्रव्यके स्वभावसे परिणमन नहीं करता हुआ, और पुद्गल मादि परद्रव्यको भी अपने स्वभावसे परिणमन नहीं कराता हुआ तथा जिसको पुद्गल आदि परद्रव्य निमित्त हैं ऐसा प्रपने दर्शन गुणसे भरे स्वभाव के परिणाम से उत्पन्न होता हुथा तथा जिसको चेतयिता निमित्त है ऐसे अपने स्वभाव के परिणामसे उत्पन्न होते हुए पुद्गलादि परद्रव्यको अपने स्वभावसे देखता है ऐसा व्यवहार किया जाता है । अपि च-- जैसे श्वेतगुरणसे परिपूर्ण स्वभाव वाली सेटिका स्वयं कुड्यादि परद्रव्यके स्वभावसे परिणमन नहीं करती हुई, तथा कुड्यांदि परद्रव्यको अपने स्वभावसे नहीं परिणमाती हुई, और जिसको कुड्यादि परद्रव्य निमित्त है ऐसा श्वेतगुण से भरे अपने स्वभाव के परिणाम से उत्पन्न होती हुई, तथा जिसको सेटिका निमित्त हैं ऐसा अपने स्वभाव के परिणामसे उत्पन्न कुटी आदि परद्रव्यको सेटिका अपने स्वभावसे श्वेत करती है । ऐसा व्यवहार किया जाता है । उसी तरह ज्ञानदर्शन गुणसे भरा परके अपोहन (त्याग) रूप स्वभाव वाला यह चेतयिता Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० समयसार रेणापोह्य पुद्गलादिपरद्रव्यं । अथात्र पुद्गलादेः परद्रव्यस्थापोह्यस्यापोहकः चेतयिता कि भवति कि न भवतीति ? तदुभयतत्वसंबंधो मीमांस्यते । यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य पद्भवति तत्तदेव भवति शल्पनो ज्ञान भन्दा माति इति शल्ल संबंधे जीवति चेतयिता पुद्गलादेर्भवन् पुदगलादिरेव भवेत् । एवं सति चेतयितुः स्व द्रव्योच्छेदः । न च द्रव्यांतर. संक्रमस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्रव्यस्यास्त्युच्छेदः । ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः । यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तहि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव चेतयिता भवति । ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न खल्क्त्यश्चेतयिता चेतयितुः किंतु स्वस्वाम्यंशावेवान्यो । किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि । तहि न कस्याप्यपोहकः, अपोहकोऽपोहक एवेति निश्चयः । अथ व्यवहारव्याख्यानम् | यथा च संव सेटिका एकवचन क्रिया। जीवो जोव:-प्रथमा एक० । विजहइ विजहाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन प्रात्मा स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यके स्वभावसे परिणमन नहीं करता हुआ और पुद्गलादि परद्रव्यको भी अपने स्वभावसे नहीं परिणमाता हुश्रा तथा पुद्गलादि परद्रव्य जिसको निमित्त है ऐसा अपने ज्ञानदर्शनगुणसे भरा परके त्याग करने रूप स्वभावके परिणामसे उत्पन्न होता हुआ, जिसको पुद्गलादि परद्रव्य निमित्त हैं ऐसे अपने ज्ञानदर्शनगुरासे परिपूर्ण परापोहनात्मक स्वभावके परिणाम द्वारा उत्पन्न होता हुआ, तया जिसको चेतयिता निमित्त है ऐसा अपने स्वभावके परिणामसे उत्पन्न पुद्गलादि परद्रध्यको अपने स्वभावसे त्यागता है । ऐसा व्यवहार किया जाता है । इस प्रकार यह प्रात्माके ज्ञानदर्शनचारित्र पर्यायोंका निश्चय व्यवहार है। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई पर्याय हैं उन सभी पर्यायोंका निश्चय व्यवहार जानना । भावार्थ-शुद्धनयसे आत्माका एक चेतनामात्र स्वभाव है। उसके परिणाम देखना, जानना, श्रद्धान करना और परद्रव्यसे निवृत्त होना है। वहां निश्चयनयसे विचार, तब प्रात्मा परद्रव्यका ज्ञायक नहीं कहा जा सकता, न दर्शक, न श्रद्धान करने वाला और न त्याग करने वाला कहा जा सकता है। क्योंकि परद्रव्यका और प्रात्माका निश्चयसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । जो ज्ञाता द्रष्टा श्रद्धान करने वाला, त्याग करने वाला, ये सब भाव हैं .सो स्वयं ही है। भाव्य-भावकका भेद कहना भी व्यवहार है और परद्रव्यका ज्ञाता, द्रष्टा, श्रदान करने वाला त्याग करने वाला कहना भो व्यवहार है। परद्रव्यका और आत्माका मात्र निमित्तनैमित्तिक भाव है, सो परके निमित्तसे कुछ भाव हुए देख व्यवहारी जन कहते हैं कि परद्रव्यको जानता है, परद्रव्यको देखता है परद्रव्यका श्रद्धान करता है और परद्रव्यको त्यागता है । इस तरह निश्चय व्यवहारके तथ्यको जानकर यथावत् श्रद्धान करना चाहिये । Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ५६१ श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणमयन्ती कुड्यादिपरदन्यानिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुगनिर्भरस्वभावस्य.परिणामेनोत्तरमाना कुज्यादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मन: स्वभावस्य परिणामेनोल्पद्यमानमात्मस्वभावेन श्वेतयतीति व्यवह्रियते तथा चेतयितापि ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणामयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोल्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं तयितुनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन जानातीति व्यवह्रियते । किच यथा च सैव सेटि. का श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुख्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममाना कुड्यादिपरद्रव्यं चामस्वभावेनापरिणमयंती कुड्यादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्व परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्यादिपरद्रव्यं सेटिकानिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः किया। सद्दहइ श्रद्दधाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-शुद्ध इत्यादि । अर्थ----जिसने शुद्ध द्रव्यके निरूपणमें बुदि लगाई है, और जो तत्त्वका अनुभव करता है, ऐसे पुरुषके अन्यद्रव्य एकद्रव्यमें प्राप्त हुमा कुछ भी कदाचित् नहीं प्रतिभासित होता । ज्ञान ज्ञेय पदार्थोंको जानता है सो यह भानके शुद्धस्वभावका उदय है । फिर अन्यद्रव्यके ग्रहण में प्राकुलित हुए लोक शुद्धस्वरूपसे क्यों चिगते हैं ? भावार्थ-शुद्धनयकी दृष्टिसे तत्त्वस्वरूप निरखनेसे अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्यमें प्रवेश नहीं दीखता, फिर भी ज्ञानमें अन्यद्रव्य प्रतिभासित होता है सो यह ज्ञान की स्वच्छताका स्वभाव है, शान उनको ग्रहण नहीं करता । लौकिकजन प्रत्यद्रव्यका ज्ञानमें प्रतिभास देख अपने ज्ञानस्वरूपसे छूटकर शेयके ग्रहण करनेकी बुद्धि करते हैं सो यह प्रज्ञान है । प्राचार्य देव उनपर दयालु होकर कह रहे हैं कि ये लोक तस्वसे क्ष्यों घिगते हैं । अब इसी अर्थको काव्यसे और भी दृढ़ करते हैं— शुखद्रव्यस्वरस इत्यादि । अर्थशुद्ध द्रव्यका निज रसरूप परिणमन होनेसे क्या शेष अन्य द्रव्य उस स्वभावका हो सकता है ? अथवा क्या अन्यद्रव्यका स्वभाव हो सकता है ? जैसे चांदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है तथापि पृथ्वी चांदनीको कदापि नहीं होती। उसी तरह ज्ञान ज्ञेय पदार्थको सदाकाल जानता है तथापि ज्ञेय ज्ञानका कदापि नहीं होता है। भावार्थ-शुद्धनयकी दृष्टिसे देखनेपर किसी द्रम्पका स्वभाव किसी अन्य ट्रगरूप नहीं होता। जैसे चाँदनी पृथ्वीको उज्ज्वल करती है परन्तु चादनीकी पृथ्वी कुछ नहीं लगती; उसी तरह ज्ञान ज्ञेयको जानता है परंतु ज्ञानका लेय कुछ नहीं लगता । प्रात्माका शान स्वभाव है इसकी स्वच्छतामें ज्ञेय स्वयमेव झलकते हैं Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ समयसार स्वभावेन श्वेतयतीति व्यबहियते । तथा चेतयितापि दर्शन गुणनिर्भरस्वभावः स्वयं पुद्गलादि परद्रव्यस्वभावेनापरिणममान: पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणाम यन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो दर्शनगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेत. यितृ निमित्तकैनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन पश्यतीति व्यवहियते । अपि च--यथा च सैव सेटिका श्वेतगुणनिर्भरस्वभावा स्वयं कुड्यादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणम : माना कुड्यादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणामयंती कुड्यादिपरद्रव्यनिमित्तकेन:त्मनः श्वेतगुणनिर्भरस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमाना कुड्यादिपरद्रव्यं सेटिका निमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य एक । विणिन्छओ विनिश्चयः-प्रथमा एक० । गाणदेसण चरित्ते ज्ञानदर्शनचरित्रे-सप्तमी एक० । भणिओं तो भी ज्ञान में उन ज्ञेयोंका प्रवेश नहीं है। अब काव्यमें बताते हैं कि ज्ञान में राग-द्वेषका उदय कब तक है— रागद्वेष इत्यादि । अर्थ--यह जान जब तक ज्ञानरूप नहीं होता और ज्ञेय ज्ञेयभावको प्राप्त नहीं होता तक तक रागद्वेष दोनों उदित होते हैं । इसलिये यह ज्ञान अज्ञानभाव को दूर कर जानरूप होप्रो जिससे कि भाव अभावको तिरस्कृत करता हुमा ज्ञान पूर्णस्वभाव प्रकट होता है। भावार्थजब तक ज्ञान ज्ञानरूप नहीं होता ज्ञेय ज्ञेयरूप नहीं होता तब तक राग-र दोनों उत्पन्न होते रहते हैं । इसलिये यह ज्ञान अज्ञान भावको दूर करके ज्ञानरूप होवे जिससे कि ज्ञान पूर्ण स्वभावको प्राप्त हो जाय । यह भावना यहाँ की गई है। प्रसंगविवरण– अनन्तरपूर्व गाथासप्तक में व्यवहारसे का कर्मको अन्य तथा निश्चय में कर्ता कर्मको अनन्य बताया था। अब इस गाथादशकमें शान्तपूर्वक निश्चयतः सविवरण एक वस्तु में कर्तृकर्मत्वके अभेदको बताया है। तथ्यप्रकाश-१-ज्ञायक प्रात्मा नि सत् है, जय हर बस्त.. पत्र सत् है। . जायक ज्ञेयका कुछ नहीं, जायक नाय का ही है पाने लायक नायक है । ३- दर्शक भिन्न सन् है, दृश्य भिन्न सत् है । - दर्शक हायका कुछ नहीं: दर्शक दर्शकका ही है गाने दर्शक दर्शक ही है। । - संयत पोहर --त्यागी भिन्न सत् है त्याज्य परवस्तु भिन्न मत् है । 1- त्यागी न्यायका कुछ नहीं, स्वागीबासीका ही है याने त्यागो (अपोहक) त्यागी ही है। ७-प्रदान-श्रद्धाता भिन्न सन् ६, थडेय जीवादि पर पदार्थ भिन्न सत् है । ८- श्रद्धान श्रद्धेय का कुछ नही, श्रद्धान श्रद्धानका ही है याने श्रद्धान श्रद्धान ही है 1 ६- ज्ञाता मात्मा बटादिक पर शेयको व्यवहारसे जानता है, किन्तु वह परद्र बसे तन्मय नहीं होता। १०- प्रारमा पटादिक पाद्रव्य दृश्यको व्यवहारसे देखता है. किन्तु वह दृश्म परद्रव्यरो जन्मय नहीं होता । Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार परिणामेनोल्पद्यमानमात्मनः स्वभावेन श्वेतयतीति व्यवहियते । तथा चेतषितापि ज्ञानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभाव: स्वयं पुद्गलादिपरद्रव्यस्वभावेनापरिणममानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चात्मस्वभावेनापरिणामयन् पुद्गलादिपरद्रव्यनिमित्तकेनात्मनो शानदर्शनगुणनिर्भरपरापोहनात्मकस्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानः पुद्गलादिपरद्रव्यं चेतयितृनिमित्तकेनात्मनः स्वभावस्य परिणामेनोत्पद्यमानमात्मनः स्वभावेनापोहतीति व्यवह्रियते । एवमयमात्मनो ज्ञानदर्शनचारित्रपर्यायापरं निश्चयव्यवहारप्रकारः । एवमेवान्येषां सर्वेषामपि पर्यायाणां द्रष्टव्यः ।। शुद्धद्रयनिरूपणाप्तिमतेस्तत्त्व समुत्पश्यतो नकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यांतरं जातुचित् । ज्ञानं ज्ञेयमवैति यत्तु तदयं शुदस्वभावोदयः किं द्रव्यांतरचुंबनाकुलधियस्तत्त्वाचव्यवंते जनाः ॥२१५॥ शुद्धद्रव्यस्वरसभवनाकि स्वभावस्य शेष मन्यद्रव्यं भवति यदि वा तस्य कि स्यात्स्वभावः । ज्योत्स्नारूपं स्नपयति भुवं नैव तस्यास्ति भूमिनि ज्ञेयं कलयति सदा ज्ञेयमस्यास्ति नैव ॥२१६। रागद्वेषद्वयमुदयते तावदेतन्न यावद् ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्णोधतो याति बोध्यं । ज्ञानं ज्ञानं भवतु तदिदं न्यकृताज्ञानभाव भावाभावो भवति तिरयन्येन पूर्णस्वभावः ।।२१७।। ।। ३५६. भणित:-प्रथमा एक कृदन्त । अण्णेसु अन्येषु-सप्तमी बहु० । पज्जएसु पर्यायेषु-सप्तमी बहु० । एमेव एवमेव एवं एव-अव्यय । णायवो ज्ञातव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। ३५६-३६५ ।। ११- प्रात्मा परद्रव्य परिग्रहको व्यवहारसे त्यागता है, किन्तु वह त्याज्य पदार्थसे तन्मय नहीं होता। १२-प्रात्मा परद्रव्यका श्रद्धाता है, किन्तु वह श्रद्धेय पदार्थ से तन्मय नहीं होता । १३-मात्माके सभी गुण पर्यायोंकी आत्मासे अनन्यता है, परसे नहीं । १४-मैंने भोजन भोगा, घर बनाया, घर छोड़ा प्रादि यह सब व्यवहारसे कहा जाता है । १५- वास्तवमें तो इसने अपने रागादि परिणामको ही भोगा, रागादि परिणामको हो किया, रागादि परिणामको हो छोड़ा । १६-- प्रश्न-यदि व्यवहारसे परद्रव्यका जानना है तब तो निश्चयसे कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता ? १४- उत्तर--सर्वपरद्रव्यविषयक जानना हो रहा प्रभुके, इस कारण सर्वज्ञता में कोई संदेह नहीं, किन्तु सर्वको जानकर भी प्रभु सर्व परपदार्थोंमें तन्मय नहीं होते, अतः प्रभुकों सर्वज्ञ व्यवहारसे कहा गया है। सिद्धान्त- १- परपदार्थविषयक ज्ञान प्रादि होनेपर परद्रव्यका शाता आदि व्यवहारसे कहा गया है । २- ज्ञानादि परिणमन स्वयंमें स्वयंकी परिणतिसे होने के कारण स्वज्ञाता प्रादि वास्तवमें कहा गया है । ३- स्वयं सहन परिपूर्ण आत्मा अनिर्वचनीय होनेके कारण सर्व भेदोंसे प्रतीत है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ समयसार दसणणाणचरितं किंचिवि णत्यि दु अचेयणे विसये । तह्मा किं घादयदे चेदयिदा तेसु विसएसु ॥३६६।। दसणणाणचरितं किंचिवि णस्थि दु अचेयणे कम्मे । तह्मा किं धादयदे चेदयिदा तेसु कम्मेसु ॥३६७।। दंसणणाणचरितं किंचिवि णस्थि दु अचेयणे काये। तमा किं धादयदे चेदयिदा तेसु कायेसु ॥३६॥ णाणस्स दंसणस्स य भणियो धागो तहा चरित्तस्स । मावि तहिं पुग्गलदबम्स कोऽवि घानो उ णिहिट्ठो ॥३६॥ जीवस्स जे गुणा केइ ण संति खलु ते परेसु दब्बेसु । तह्मा सम्माइहिस्स पत्थि रागो उ विसएसु ॥३७॥ रामो दोसो मोहो जीवस्सेव य अणण्णपरिणामा । एएण कारणेण उ सदादिसु णत्थि रागादी ॥३७१।। मामझ-दसणणाणचरित, किंचि, वि, ण, दु, बधेयण, बिसय, त, कि, त, विसय, त, कि, चेदबिदा, त, विसय, कम्म, त, कम्म, काय, णाण, दंसण, भणिअ, पाअ, तहा, चरित, तहि, पुग्गलदध्व, क; दृष्टि-१- स्वाभाविक उपचरिस स्वभाव व्यवहार (१०५) । २- कारककारविभेदक सद्भुतम्यवहार (७३) । ३-शुद्धनय (४६) | प्रयोग-परमशान्तिके अर्थ सर्वविकल्पवादोंसे हटकर अपनेमें अपना प्रात्मसर्वस्व निरखना ।। ३५६-३६५ ।। gब युक्तिपूर्वक कहते हैं कि प्रशानसे अपना ही बात होता है--[दर्शनमारचारित्र दर्शन ज्ञान धारित्र [अचेतने विषये तु] अचेतन विषयमें तो [किचिदपि नास्ति] कुछ भी नहीं है [तस्मात्] इस कारण [चेतयिता] प्रात्मा [तेषु विषयेषु] उन विषयोंमें [कि हंति] क्या बात करता है ? [दर्शनशानधारित्रं] दर्शन शान चारित्र [अचेतने कर्मणि तु] अचेतन कर्ममें [किंचिदपि नास्ति] कुछ भी नहीं हैं। [सस्मात्] इस कारण [वेतयिता] प्रात्मा [सत्र कर्मरिण] उस कर्ममें [कि हंति] क्या बात करता है ? [वर्सनमानधारित) दर्शन ज्ञान 'पारित्र [अचेतने काये तु] अचेतन कायमें [किधिपि नास्ति] कुछ भी नहीं है [तस्मात्] Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार चारित्र ज्ञान दर्शन, कुछ भी नहि है विषय प्रचेतन में। तब फिर क्या घात करे, उन विषयों में मुधा प्रात्मा ॥३६६॥ चारित्र ज्ञान बर्शन, कुछ भी नहि है करम प्रवेतनमें । तब फिर क्या घात करे, उन कोंमें मुषा प्रात्मा ॥३६७॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, कुछ मो नहि है अजीब कायोंमें । तम फिर क्या बात करे, उन कायों में मुषा प्रात्मा ॥३६॥ चारित्र ज्ञान दर्शन, का जो है घात होना बताया। पुस्मामला यहां, नहै कोई बात बतलाया ॥३६६॥ जीवके कोई जो गुण, हैं नहिं वे अन्य किन्हीं द्रव्योंमें । इससे सम्मादृष्टी-के नहि है राग विषयोंमें ॥३७०॥ राग द्वेष मिथ्याशय, जीव हि को हैं अनन्य परिणतियां। इस कारण रागादिक, शब्दाविक में नहीं कुछ भी ॥३७१।। वि, ज, णिदिद, जीव, ज, गुण, केइ, त, पर, दब्बत, सम्माइठि, राग, विसय, राग, दोस, मोह, जीव, अणष्णपरिणाम, एत, कारण, सद्दादि, रागादि । धातुसंश-अस सत्तायां, घात हिंसायां। प्रातिपदिकदर्शनशानचारित्र, किंचित्, अपि, न, तु, अचेतन, विषय, तत्, कि, चेतयित, कर्मन्, काय, ज्ञान, दर्शन, इसलिये चियिता] आत्मा [तेदु कामेषु] उन कायोंमें [कि हंसि] क्या घात करता है ? [मानस्य दर्शनस्य तमा चरित्रस्य ज्ञानका, दर्शनका तथा चारित्रका [घातः] घात [मरिणतः] कहा गया है [तत्र वहां [पुद्गलद्रव्यस्य तु] पुदगलद्रव्यका तो [कोपि पातः] कुछ भी पात [नापि निर्दिष्टः] नहीं कहा गया। [ये केचित्] को कुछ [जोवस्य गुगाः] जोदके गुण हैं स] वे [खलु] निश्चयसे [परेषु द्रव्येष] परद्रव्यों में इन संति] नहीं हैं [तस्माद] इस कारण [सम्बग्दष्टेः] सम्यग्दृष्टिके [विषयेषु] विषयोंसे [रागस्तु] राग हो [नास्ति नहीं है। [रागः देवः मोहः] राग-द्वेष-मोह ये सब [जीवस्यैव ] जीवके हो [अनन्यपरिणामा] भभिन्न परिणाम हैं [एतेन कारणेन सु] इसी कारण [रागाइयः] रागादिक [शब्याविषु] शब्दादिकोंमें [म संति नहीं हैं। तात्पर्य-जीव परविषयक विकल्प करके अपना ही घात करता है परका कुछ नहीं कर सकता। टोकार्य-निश्वयसे जो जिसमें होता है वह उसके पास होनेपर पाता हो जाता है । जैसे दीपकमें प्रकाश है सो दीपकका पात होनेपर प्रकाश भी नष्ट हो जाता है । और जिसमें Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार दर्शनशानचरित्रं किचिदपि नारित त्वचेतने विषये। तस्माकि हंति चतयिता तेषु विषयेषु ।। ३६६ ।।। दर्शनज्ञानचरित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने कर्मणि । तस्मारिक हंति चेायता तेषु कर्मसु ।। ३६७ ।। दर्शनज्ञानचरित्रं किंचिदपि नास्ति त्वचेतने काये। तस्मात् कि हंति चेतयिता तेषु कायेषु ॥ ३६८ ।। झानस्य दर्शनस्य भणितो घातस्तथा चरित्रस्य । नापि तत्र पुद्गलद्रव्यस्य कोऽपि घातस्तु निदिष्टः ।। ३६६ ।। जीवस्य ये गुणाः केचिन्न संति खलु ते परेषु द्रव्येषु । तस्मात्सम्यग्दृष्टेर्नास्ति सगस्तु विषयेषु ।। ३७० ।। रागो द्वेषो मोहो जीवस्यैव चानन्यपरिणामाः । एतेन कारोन तु शब्दादिषु न संति राशादयः ।। ३७१ ।। यद्धि यत्र भवति तत्तद्धाते हन्यत एव यथा प्रदीपघाते. प्रकाशो हन्यते । यत्र च यद्भवति तत्तदाते हन्यते यथा प्रकाशपाते प्रदीपो हन्यते । यत्तु यत्र न भवति तत्तदाते न हन्यते यथा घटधाते घटप्रदीपो न हन्यते । यत्र यन्न भवति तत्तद्धाते न हन्यते यथा घटप्रदीपधाते घटो न हन्यते । तथात्मनो धर्मा दर्शन ज्ञानचारित्राणि पुद्गलद्रव्यधातेऽपि न हन्यते, न च दर्शनज्ञानचरित्राणां पातेऽपि पुद्गलद्रव्यं हन्यते, एवं दर्शनज्ञानचारित्राणि पुद्गलभणित, घात, तथा, चरित्र, तत्र, पुद्गलद्रव्य, निदिष्ट, जीव, यत्, गुण, केचित्, न, खलु, तत्, पर, द्रव्य, तत्, सम्यग्दृष्टि, राग, विषय, राग, द्वेष, मोह, जीव, अनन्यपरिणाम, एतत्, कारण, तु, शब्दादि, न, रागादि । मूलधातु- अभति, हुन हिसायां । परमिशन--सामारित्तं दर्शनशानचरित्र-प्रथमा एक० । किचिवि किंचित-अव्यय । ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। दु जो होता है, उसके याने प्राधेयके घात होनेसे उस आधारका भी घात होता है, जैसे प्रकाशका घात होनेपर दीपक भी हना जाता है । जो जिसमें नहीं है वह उसके घात होनेपर नहीं हना जा। जैस घटका घात होनेपर घटप्रदीप नहीं नष्ट हो जाता । तथा जिसमें जो नहीं है वह उसके घात होनेपर नहीं हना जा सकता । जैसे घड़े में दीपकका घात होनेपर घड़ा नहीं नष्ट हो जाता । उसी प्रकार पुद्गलद्रव्यके घात होनेपर भी यात्माके धर्म दर्शन, ज्ञान और चारित्र नहीं घाते जाते, तथा दर्शन, ज्ञान और चारित्रका घात होनेपर पुद्गलद्रव्य भी नहीं पाता जाता । इस तरह दर्शन ज्ञान और चारित्र पुद्गलद्रव्यमें नहीं है यह निर्णीत होता है । यदि ऐसा न हो तो दर्शन जान चारित्रका घात होनेपर पुद्गलद्रव्यका बात अवश्य हो जावेगा और पुद्गलद्रव्यका घात होनेपर दर्शन, ज्ञान और मारित्रका घात अवश्य हो जावेगा । चूंकि ऐसा है अतः जो जितने कोई भी जीवद्रव्यक गुण हैं. वे सभी परद्रव्यों में नहीं है। यह हम अच्छी तरह देख रहे हैं । यदि ऐसा न हो तो यहाँपर भी जीवके गुणका घात होनेपर पुद्. गलद्रव्यका घात और पुद्गल द्रव्यका पति होनेपर जीवगुणका घात हो बठेगा, किन्तु ऐसा नहीं होता। प्रश्न-यदि ऐसा है तो सम्यम्हष्टिके विषयों में राग किस कारणसे होता है ? उत्तर - किसी भी कारणसे नहीं होता । प्रश्न--तब रागके उपजनेकी कौनसी खान है ? उत्तररागद्वेष मोह, जीबके ही प्रशानमय परिणाम रागादिकके उपजनेकी खान है । इस कारण Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : 3: ५६७ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार द्रव्ये न भवतीत्यायात अन्यथा तद्धाते पुद्गलद्रव्यधातस्य पुद्गलद्रव्यघाते तद्घातस्य दुनि चारत्वात् । यत एवं ततो ये यावन्तः केचनापि जीवगुणास्ते सर्वेऽपि परदव्येषु न संतोति सम्यक् पश्यामः । अन्यथा अत्रापि जीवगुणघाते पुद्गलद्रव्यघातस्य पुद्गलद्रव्यधाते जीवगुणघालस्य च दुर्निवारत्वात् । यद्येवं तहि कुलः सम्यग्दृष्टेर्भवति रागो विषयेषु ? न कुतोऽपि । तहि रागस्य कतरा खनिः ? रागद्वेषमोहा हि जीवस्यैवाज्ञानमयाः परिणामास्ततः परद्रव्यत्वा तु अव्यय | अयणे अचेतने विसयेविषये सप्तमी एक । तम्हा तस्मात् पचमी एक० । किं-अव्यय या द्वि० ६० एक० । घादयदे हन्ति वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । चेदयिदा चेतयिता - प्रथमा एक० 1 तेमु तेषु वियेसु विषयेषु सप्तमी बहु । कम्मे कर्मणि सप्तमी एकवचन तेसु कम्मेसु तेषु कर्मसु सप्तमी बहु० । काये - सप्तमी एक० । कायेसु कार्येषु सप्तमी बहु० । णाणस्स ज्ञानस्य दंसणस्स दर्शनस्य--पष्ठी परद्रव्यवना होनेसे विषयों में रागादिक ग्रज्ञानमय परिणाम नहीं है और प्रज्ञानका प्रभाव होनेसे सम्यग्दृष्टि में भी रागादिक नहीं है । इस प्रकार रागादिक विषयोंमें न होते हुए व सम्यदृष्टि भी न होते हुए वे हैं ही नहीं । भावार्थ - दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रादि जितने भी जीवके गुरण हैं वे कोई भी प्रचेतन पुद्गलद्रव्यमें नहीं हैं । आत्या मान परिसराग-द्वेष-सोह विकार अज्ञानवश जीवमें होते है, उनसे अपने ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र श्रादि गुरण घाते जाते हैं । अज्ञानका प्रभाव हो जानेपर आत्मा सम्यग्दृष्टि हो जाता है तब वे राग-द्वेष- मोह नहीं उत्पन्न होते । श्रब देखिये शुद्धपकी दृष्टि में पुद्गलमें भी रागद्वेष मोह नहीं है और सम्यग्दृष्टि जीवमें भी नहीं है । इस तरह वे रागादिक दोनों में ही नहीं हैं। तथा पर्यायदृष्टि से देखिये तो रागादिक भाव जीवके श्रज्ञान अवस्था में हैं, ऐसा निर्णय समझना । अब इस अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं- रागद्वेष इत्यादि । अर्थ - इस ग्रात्मा में ज्ञान ही अज्ञानभावसे रागद्वेषरूप परिणमित होता है । वस्तुत्वपर लगाई हुई दृष्टिसे देखे गये वे रागद्वेष कुछ भी नहीं हैं याने द्रव्यरूप भिन्न पदार्थ नहीं हैं । इस कारण सम्यग्दृष्टि पुरुष तत्वदृष्टिसे उन राग द्वेषोंको प्रकटतया नाश करे जिससे कि पूर्ण प्रकाशरूप अचल दीक्षि वाली स्वाभाविक ज्ञानज्योति प्रकाशित हो । भावार्थ -- रागद्वेष कुछ भिन्न द्रव्य नहीं हैं, ये तो जीवके प्रज्ञानभावसे होते हैं । इसलिये सम्यग्दृष्टि होकर तत्त्वदृष्टिसे देखो तो राग द्वेष कुछ भी वस्तु नहीं । इस तरह देखनेसे घातक कर्मका नाश होता है व केवलज्ञान उत्पन्न होता है । प्रसंगविवरण - प्रनन्तरपूर्वं गाथादशक में प्रात्माका कर्तृकर्मत्व ग्रात्मामें ही बताया Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार १६८ द्विषयेषु न संति, प्रज्ञानाभावारसम्यग्दृशौ तु न भवति । एवं ते विषयेष्वसंतः सम्यम्हण्टेनं भवंतो न भवत्येव ।। रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानभावात् तो वस्तुत्वप्रणिहितशा दृश्य। भानो न किंचित् । सम्यग्दृष्टिः क्षपयतु ततस्तत्त्वदृष्ट्या स्फुट तो ज्ञानज्योतिर्बलति सहज येन पूर्णाचसाधिः ॥२१८।। रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया नान्यद द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरंतश्चकास्ति व्यक्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात् ॥२१६॥ ॥ ३६६-३७१ ।। एक० । भणिओ भणितः घाओ घातः-प्रथमा एकः । चरित्तस्स चरित्रस्य-षष्ठी एक० । तहिं तत्र-मयय । पुग्गलदव्यस्स पुद्गलद्रव्यस्य-षष्ठी एक० । णिहिट्ठो निदिष्ट:-प्र० एक० । जीवस्स जीवस्य-पष्ठी एक० । जे ये-प्रथमा बहुगुणा गुणाः-प्रथमा बहु०। ण न-अव्यय । संति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० किया। खलु-अव्यय । परेसु दवेसु परेषु द्रव्येषु-सप्तमी बहु । तम्हा तस्मात्-पंचमी एक० । सम्माइटिस्स सम्यमहा:--पाली ए. ! . अन्ना भरिमानान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । रागो राग:-प्र. ए० । विसएसु विषयेषु सप्तमी बहु० । रागो दोसो मोहो रागः द्वेषः मोहः-प्रथमा एक० । जीवस्स जीवस्य--पष्ठी एक० । एव-अव्यय । अणण्णपरिणामा अनन्यपरिणामा:-प्रथमा बह। एएण कारणेण एतेन कारणेन-तृतीया एक० । सद्दादिसु शब्दादिषु-सप्तमी बहु० । ण न-अव्यय । अस्थि अस्ति-वर्तमान लट् । अन्य पुरुष एक० क्रिया । रागादी रागादयः-प्रथमा बहुवचन ।। ३६६-३७१॥ गया था। अब उस प्रभिन्न कर्तृकमत्वके परिचयसे प्रात्माको क्या शिक्षा व कर्तव्य करना चाहिये उसका कथन इस गाथाषट्कमें बताया गया है। तथ्यप्रकाश-१-मात्माका दर्शन, ज्ञान, चास्त्रि प्रात्मामें ही है । २-प्रचेतन विषय, कर्म, कायके गुण व परिणमन उन्हीं मचेतनोंमें हैं। ३-अचेतन विषय, कर्म व कायके घात होने पर दर्शन, ज्ञान, चारित्रका घात नहीं होता । ४-दर्शन, ज्ञान, चारित्रका पात होनेपर विषय, कर्म व कायका घात नहीं होता। ५--प्रात्माके दर्शन, शान, चारित्र प्रादि कोई भी गुण पुद्गल द्रव्यमें नहीं हैं | ६-- प्रात्माके दर्शन, ज्ञान, चारित्रका विभावपरिणमन भी रागादिक किसी परद्रव्यसे नहीं पाते । ७- रागादिक विभाबपरिणमन परद्रव्यमें नहीं होते। :- रागादिक विभादपरिणमन प्रात्मस्वभावसे नहीं होते ! ६-रामादिक विभाव परद्रव्यमें होते नहीं, प्रात्मस्वभाव में होते नहीं, किन्तु जीवके मशानभय परिणाममें ही रागादिक होते हैं । १०- सम्यग्दृष्टिके प्रज्ञानमय भाव नहीं हैं सो उसके प्रज्ञानमय रागादिकभाव नहीं होते । ११-विभावके उत्पाद व विनाशके तथ्यके प्रजानकार विषयादिके निमित्त अपने गुणका घात करते हैं। १२- अविकार सहजज्ञानानन्दका स्वाद मायेपर विषयकर्मकायसंकट स्वयं दूर हो जाते हैं इस तथ्यके अजानकार स्वसंवेदनरहित कायक्लेशसे ही प्रात्माका दमन करते हैं । १३-हे पात्मन, विषयादिके संग्रहविग्रहरूप घात क्यों व्यर्थ करता है । १४-- हे प्रात्मन्, विषयादिमें तू क्यों Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९६ सर्वविशुवज्ञानाधिकार अण्णदविएण अण्णदवियस्स ण कीरए गुगुप्पाओ। तमा उ सव्वदचा उप्पज्जते सहावेण ॥ ३७२ ॥ अन्य द्रव्यके द्वारा, अन्य द्रव्यका न गुल किया जाता । इस कारण द्रव्य सभो, उत्पन्न स्वभावसे होते ॥३७२।। अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यस्य न क्रियते गुणोत्पादः । तस्मात्तु सर्वद्रव्याण्युत्पद्यते स्वभावेन ॥ ३७२ ॥ न च जोवस्य परद्रव्यं रागादीन्युत्पादयतीति शंक्य---अन्यद्रव्येशान्यद्रव्यगुणोत्पादकरपस्यायोगात् । सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात् । तथाहि-मृत्तिका कुम्भभावेनोत्पद्यमाना कि कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते किं मृत्तिकास्वभावेन ? यदि कुम्भकारस्वभावनोत्पाते तदा कुम्भ ___ नामसंज- अण्णदविय, ण, गुणुप्पाअ, त, उ, सम्वदव्व, सहाव; धातुसंश-कर करणे, उब पज गतौ । प्रातिपदिक-अन्यद्रव्य, न, गुणोत्पाद, तत्, सर्वद्रव्य, स्वभाव । मूलधातु-डुकत्र करणे, उत् पद अपना धात करता है। १५- हे भारमन, विषपाकिक लिमिरा घरों तू अपने मोंका पात करता है। १६- हे प्रात्मन्, धर्मके नामपर भी शब्दरूपादि विषयोंका तू क्यों बात करनेका विकल्प करता है। १७- हे प्रात्मन, शब्दादि इन्द्रियविषयोंकी अभिलाषारूप जो रामादि विकारपरिणाम मनमें प्राता है उसका घात करना चाहिये । १८- रागादिकके प्राश्रयभूत कारण होनेसे शन्दादिक विषयोंका त्याग करना चाहिये । सिद्धान्त-- १- परद्रव्यके घातादि परिणभनसे प्रात्माके दर्शनादि गुणका बात नहीं, क्योंकि परका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आत्मामें नहीं है । २-- स्वयंके गुणोंके सुधार विगाइसे स्वयंका सुधार बिगाड़ है। दृष्टि---१- परद्रव्याद्रिग्राहक द्रव्यापिकनय (२८)। २- शुद्धनिश्चयनय, प्रशुद्धनिश्चयनय (४६, ४७)। प्रयोग-प्रपनी उन्नतिके लिये परविषयक विकल्प छोड़कर सहज दर्शनशानचारिक मय चैतन्यस्वरूपका पाश्रय करना ॥ ३६६-३७१ ।। अब कलशरूप काम्यमें कहते हैं कि अन्यद्रम्पसे अन्यतम्यके गुण उत्पन्न नहीं होते। रागद्वेषो इत्यादि । प्रर्थ-तत्वदृष्टि से रागद्वेषका उत्पन्न करने वाला अन्यद्रव्य कुछ भी नहीं दोखला क्योंकि सब इन्योंकी उत्पत्ति प्रपने ही निज स्वभाव में प्रत्यंत प्रगट प्रकाशित होती है । भावार्ष-अन्यद्रव्यमें अन्यके गुणपर्यायोंको उत्पत्ति नहीं है स्वयं ही सायंमें होता है। अब अन्यद्रव्य के द्वारा मन्यद्रव्यका गुणोत्पाय नहीं होता यह तथ्य गावामें कहते हैं:--- [अन्यतम्येण] अन्यद्रव्यके द्वारा [अम्बामस्य] अन्यद्रव्यके [गुणोत्पा] गुणका उत्पाद Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार करणाहकारनिर्भरपुरुषाधिष्ठितच्यापृतकरपुरुषशरीराकारः कुम्भः स्यात्, न च तथास्ति द्रध्यांतरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् । यद्येवं तहि मृत्तिका कुम्भकारस्वभावेन नौरपद्यते किंतु मृत्तिकास्वभावेनैव, स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् । एवं च सति मृत्तिकायाः स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकारः कुम्भस्योत्पादक एव मृत्तिकैव कुम्भकारस्वभावमस्मृशंतो स्वस्वभावेन कम्भभावेनोत्पद्यते । एवं सर्वाण्यपि द्रव्याणि स्वपरिणामपर्यायेणोत्पद्यमानानि कि निमित्तभूतगन्यांतरस्वभावेनोत्पद्यते किं स्वस्वभावेन ? यदि निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावेनोत्पद्यते तदा निमित्तभूतपरद्रध्याकारस्तत्परिणाम: स्यात्, न च तथास्ति द्रव्यांतरस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्थादर्शनात् । यद्येवं तहि न सर्वद्रव्याणि निमित्तभूतपरद्रव्यस्वभावेनोत्पद्यते गतौ । पदविवरण-अण्णदवियेण अन्यद्रष्येण-तृतीया एक० । अण्णदवियस्स अन्यद्रव्यस्य-षष्ठी एक [न क्रियते] नहीं किया जा सकता [तस्मात्तु] इस कारण यह सिद्धांत हुआ कि [सर्वद्रव्याणि] सभी द्रब्ध [स्वभावेन] अपने अपने स्वभावसे [उत्पद्यन्ते] उपन्न होते हैं । तात्पर्य-निश्चयतः किसो द्रव्यके द्वारा किसी अन्यद्रव्यका कुछ भी रंचमात्र भी उत्पाद व्यय नहीं किया जा सकता। टोकार्थ-ऐसी प्राशंका नहीं करनी चाहिए कि परद्रव्य जीवको रागादिक उत्पन्न कराता है, क्योंकि अन्यद्रव्यके द्वारा प्रन्यद्रव्यके गुणोंको उत्पन्न करानेकी असमर्थता होनेके कारण सब द्रव्योंमें स्वभावसे हा उत्पाद होता है । यही दृष्टांतपूर्वक स्पष्ट करते हैं कि मृत्तिका घटभादसे उत्पन्न होती हुई क्या कुंभकारके स्वभावसे उत्पन्न होती है या मृत्तिकाके स्वभावसे ? यदि कुम्भकारके स्वभावसे उत्पन्न होती है तो घट बनानेके अहंकारसे भरे हुए पुरुष द्वारा अधिष्ठित और व्याप्त हाथ वाले पुरुषके प्राकाररूप घड़ा होना चाहिये अर्थात् कम्हारके शरीरके प्राकार घड़ा बनना चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं होता। क्योंकि अन्यद्रव्यके स्वभावसे अन्यद्रव्यके परिणामका उत्पन्न होना नहीं देखा जाता । और ऐसा होनेपर मृत्तिका कुम्भकार स्वभावसे तो उत्पन्न नहीं होती, किन्तु मृत्तिकास्वभावसे ही उत्पन्न होती है, क्योंकि अपने स्वभावसे ही द्रध्यके परिणामका उत्पाद देखा जाता है। ऐसा होनेपर मृत्तिकाके अपने स्वभावका उल्लंघन न होनेसे कुम्भकार घडेको उत्पन्न करने वाला नहीं है, किन्तु मिट्टी हो कुम्भकारके स्वभावको नहीं स्पर्शती हुई अपने हो स्वभावसे कुम्भभावसे उत्पन्न होती है। इसी प्रकार सब द्रव्य अपने परिणामरूप पर्यायसे उत्पन्न होते हुए क्या वे निमित्तभूत अन्यद्रव्यके स्वभावसे उत्पन्न होते हैं या अपने ही स्वभावसे उत्पन्न होते हैं ? यदि निमित्तभूत भन्यद्रव्यके स्वभावसे उत्पन्न होते है तो निमित्तभूत परद्रव्यके प्राकार उसका परिणाम होना Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६०१ स्वस्वभावेनैव स्वस्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्य दर्शनात् । एवं च सति स्वस्वभावानमात् सर्वद्रव्याणां निमित्तभूतद्रव्यांतराणि न स्वपरिणामस्योत्पादकान्येव सर्वद्रव्याण्येव निमित्तभूतद्रव्यांतरस्वभावमस्पृशति स्वस्वभावेन स्वपरिणामभावेनोत्पद्यते । श्रतो न परद्रव्यं जीवस्य रागादीनामुत्पादकमुत्पश्यामो यस्मै कुप्यामः ॥ यदिह भर्वात रागद्वेषदोषप्रसूतिः कतन - अव्यय । कौर क्रियते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन भावकर्मप्रक्रिया । सव्वदच्वा सर्वद्रव्याणि - चाहिये । किन्तु ऐसा नहीं होता, क्योंकि अन्यके स्वभावसे अन्यद्रव्य के परिणामका उत्पाद नहीं देखा जाता । जब ऐसा है तो सभी द्रव्य निमित्तभूत परद्रव्यके स्वभाव से उत्पन्न नहीं होते, किन्तु अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं। क्योंकि अपने स्वभाव से ही सब द्रव्यों के परिणामका उत्पाद देखा जाता है । और ऐसा होनेपर अपने स्वभावका उल्लंघन न होने सभी द्रव्योंके निमित्तभूत अन्यद्रव्य स्वके परिणामके उत्पन्न कराने वाले नहीं हैं, किन्तु सभी द्रव्य निमित्तभूत अन्यद्रव्योंके स्वभावको नहीं स्पर्शते अपने स्वभावसे अपने परिणाम भावसे उत्पन्न होते हैं, इस कारण हम परद्रव्यको जीवके रागादिकका उत्पन्न करने वाला नहीं देख रहे हैं जिसपर हम कोप कर रहे हैं । भावार्थ -- जिस प्रात्मा के रागादिक उत्पन्न होते हैं वे उसके अपने हो अशुद्ध परिणाम हैं । निश्चयनयसे विचारो तो रागादिरुको उत्पन्न करने वाला अन्य द्रव्य नहीं है । अन्यद्रव्य इनका निमित्तमात्र है । क्योंकि यह नियम है कि अन्यद्रव्य श्रन्यद्रव्यके गुणपर्यायको उत्पन्न नहीं करते। इसलिये जो ऐसा मानते हैं कि मेरे रागादिकको परद्रव्य ही उत्पन्न कराता है, ऐसा एकांत करते हैं वे तथ्य न जाननेसे मिथ्यादृष्टि हैं । ये रागादिक जीवके प्रदेश में उत्पन्न होते हैं, परद्रव्य तो निमित्तमात्र है, ऐसा मानना सम्यग्ज्ञान है। सो मनन करें कि हम रागद्वेष की उत्पत्ति में अन्यद्रव्यपर क्यों कोप ( गुस्सा) करें। राग-द्वेषका उपजना अपना हो अपराध है । , . अब इस अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं- यदि इत्यादि । अर्थ- जो इस आत्मामें रागद्वेष रूप दोषकी उत्पत्ति है वहाँ परद्रव्यका कुछ भी दोष नहीं है । वहाँ तो स्वयं यह अपराधी ज्ञान ही फैलता है, यह विदित होवे और यह प्रज्ञान प्रस्तको प्राप्त होवे । मैं तो ज्ञानमात्र हूं । भावार्थ - प्रज्ञानी जीव राग-द्वेषको उत्पत्ति परद्रव्यसे मानकर परद्रव्यपरकोप करता है कि यह परद्रव्य मुझे राग-द्वेष उत्पन्न कराता है अरे, राग-द्वेषको उत्पत्ति अज्ञान से अपने में ही होती है, वे अपने ही भशुद्ध परिणाम हैं। सो यह अज्ञान नाश को प्राप्त होवे और सम्यग्ज्ञान प्रगट होवे । मैं श्रात्मा तो मात्र ज्ञानस्वरूप हूं ऐसा अनुभव Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०२ समयसार रपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र । स्वयमयमपराधी तत्र सर्पत्यबोधो भवतु विदितमस्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥ २२० ॥ रागजन्मनि निमित्ततां परद्रव्यमेव कलयंति ये तु ते 1 उत्तरति न प्रथमा बहुवचन । उप्पकतेच वर्तनाम लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया । सहावेण स्वभावेनकरो । परद्रव्यको रागद्वेषका उत्पन्न करने वाला मानकर उसपर कोप मत करो । ! अब इसी अर्थ दृढ़ करनेको काव्य कहते हैं--- रामजन्मनि इत्यादि । श्रयं जो पुरुष रागकी उत्पत्ति में परद्रव्यका ही कारणपना मानते हैं, वे शुद्धनयके विषयभूत ग्रात्मस्वरूपके ज्ञानसे रहित अंधबुद्धि वाले पुरुष मोह नदीको पार नहीं कर सकते । भावार्थ- शुद्धयका विषय अनंतशक्तिको लिये चैतन्यचमत्कारमात्र नित्य एक प्रन्तस्तत्त्व है । उसमें यह योग्यता है कि जैसा निमित्त मिले वैसे श्राप परिणमता है। ऐसा नहीं कि जो जैसा परिणामावे वैसा परिणमन करे, अपना कुछ करतब नहीं हो । आत्माके स्वरूपका जिनको ज्ञान नहीं है वे ऐसा मानते हैं कि परद्रव्य ग्रात्माको जैसा परिरणमावे वैमा परिणमता है। ऐसा मानने वाले मोह रागद्वेषादि परिणामसे अलग नहीं हो पाते, उनके राग-द्वेष नहीं मिटते। क्योंकि यदि अपना करतब रागादिक होनेमें हो तो उनके भेटने में भी हो जायगा और परके ही करनेसे रागादिक हो तो वह परपदार्थं रागादिक क्रिया ही करेगा, तब मेटना कैसे हो सकता ? इस कारण रागादिक अपना किया होता है, अपना मेटा मिटता है, इस तरह कथंचित् मानना सम्यग्ज्ञान है । प्रसंग विवरण -- मनंतरपूर्व गाथाषट्कमें बताया गया था कि अचेतन विषय, कर्म, काय में दर्शन, ज्ञान, चारित्र नहीं है, फिर उनका या उनमें या उनके निमित्त क्या घात करता है । अब उसी परद्रव्यविषयक मत्यंताभावको सिद्ध कर सर्वद्रव्योंकी अपने अपने में उत्पद्यमानता - इस गावामें दर्शायी गई है । तम्यप्रकाश--- १- निश्चयतः कोई भी परद्रव्य जीवके रागादिको उत्पन्न नहीं कर सकता । २-अन्यद्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यका गुणोत्पाद किया ही नहीं जा सकता । ३ - सर्वद्रव्यों का उत्पाद (पर्याय) अपने स्वभावसे होता है. ४-विकारपरिणामन में अन्य द्रव्य मात्र निमित्त कारण हो सकते हैं । ५- वास्तव में अपने परिणाम पर्याय से उत्पद्यमान सभी द्रव्य निमित्तभूत परद्रव्यके स्वभावसे उत्पन्न नहीं होते, किन्तु प्रपने-अपने स्वभावसे ही उत्पन्न होते हैं । ६ - यदि कोई द्रव निमित्तभूत परद्रव्यके स्वभाव से उत्पन्न हो तो उसे निमित्तभूत परद्रव्यके प्राकार (स्वरूप) परिणमना चाहिये, किन्तु ऐसा है ही नहीं । ७- कोई भी परद्रव्य जीवके रागादिका उत्पादक नहीं है । ८- अपनी भूलसे यह जीव अज्ञानमय रागादिरूप परिणम Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार हि मोहवाहिनी शुद्धबोधविधुरांधबुद्धयः ।।२२१॥ ॥ ३७२ ।। तृतीया एकवचन ।। ३७२ ॥ जाता है । ६- कार्य उपादान कारणके सदृश हुमा करते हैं । १०- शब्दादिक बाह्यपदार्थ रागादिके आश्रयभूत कारण अथवा बहिरंग निमित्त कारण हैं, किन्तु उन बाह्य पदार्थोंका धात करनेसे रागादिका विनाश नहीं होता । ११- जो पुरुष मनमें हुए रागादिभावको नहीं जानता वही रामादिके पाश्रयभूत बाह्य शब्दादि विषयोंका घात करनेका संकल्प करता है, वहाँ चित्तस्य रागादिको मिटानेका उपाय नहीं बनता । १२- चित्तस्थ रागादिको मिटानेका उपाय अविकार सहज चैतन्यस्वभावका अवलम्बन है । __ सिद्धान्त-१- परद्रव्यके गुण पर्याय प्रात्मामें नहीं हो सकते । २- प्रात्मा अपने स्वरूपकी सुध छोड़कर व्यर्थ विकल्परूप परिणमता है। दृष्टि-१- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यापिकाय (२९) । २.- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । प्रयोग- अपने स्वरूपकी बेसुधीको रागादिका मूल जानकर अपनी सुध करके परभाव के असहयोग व स्वरूपके सत्याग्रह द्वारा अन्तस्तत्वमें उपयोगको रमाना ।। ३७२ ॥ अब जो स्पर्श-रस-गंध-वर्ण-शब्दरूप पुद्गल परिणत होते हैं वे यद्यपि इन्द्रियोंसे मात्माके जानने में आते हैं तो भी ये जड़ है, आत्माको यह नहीं कहते कि हमको ग्रहण करो। प्रात्मा ही अमानो होकर उनको भले बुरे मानकर रागी-द्वेषी होता है यह तथ्य गाथामें कहते हैं--[पुद्गलाः] पुद्गल [बहुकानि] बहुत प्रकारके [निवितसंस्तुतमचनानि] निदा और स्तुतिके वचनरूप [परिणमंति] परिणमते हैं [तानि] उनको [श्रुत्वा] सुनकर [अहं मरिणतः] मुझको कहा है ऐसा मानकर [रुष्यति] अज्ञानी जीव रोष करता है व पुनः] पोर [तुष्यति] संतुष्ट होता है [पुद्गलद्रव्यं] पुद्गलद्रव्य [शम्बत्वपरिणतं] शब्दरूप परिणत हुआ है [तस्य गुरणः] उसका गुण [अन्यः] तुझसे अन्य है [तस्मात्] सो हे अज्ञानी जोव त्वं किंचिदपि न मणितः] तुझको तो कुछ भी नहीं कहा [अबुधः] तू प्रज्ञानी हुमा [कि रुष्यसि] क्यों रोष करता है ? [अशुभः वा शुभः] अशुभ अथवा शुभ [शब्दः] शब्द [स्वां न भरगति इति] तुझको ऐसा नहीं कहता कि [मां शृण] मुझको सुन [च] भौर [श्रोत्रविषयं प्रागतं] श्रोत्रइन्द्रियके विषयको प्राप्त [शम्बं] शन्दको [विनिहीतुं] ग्रहण करनेके लिये [स एव] वह पालमा भो अपने प्रदेशोंको छोड़ [न एति] नहीं जाता । [अशुभ शुभं वा] भशुभ अथवा शुभ [रूपं] रूप त्वां इति न भरगति] तुझको ऐसा नहीं कहता कि [मां पश्य तु मुझको देख [च] और [चक्षुविषयं प्रागतं रूपं] चक्षुइन्द्रियके विषयभूत रूपको [विनि. Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ मपसार प्रिंदियसंथुयवयणाणि पोग्गला परिणमंति बहुयाणि । ताणि सुणिऊण रूसदि तूसदि य अहं पुणो भणिदो ॥३७३॥ पोग्गलदब्बं सहत्तपरिणयं तस्स जड़ गुणो अपणो । तरा ण तुमं भणियो किंचिवि किं रूससि अबुद्धो ॥३७४॥ असहो सुहो व सद्दो ण तं भाइ सुणसु मंति सो चेव । ण य एइ विणिग्गहिउँ सोयविसयमागयं सह ॥३७५॥ असुहं सुहं च रूवं ण तं भणइ पस्स (पिच्छ) मंति सो चेव । ण य एइ बिणिम्गहिउं चक्खुविसयमागयं रूवं ॥३७६॥ अहो महो व गंधो ण तं भणइ जिग्य मंति सो चेव । ण य एइ विणिराहिउं घाणविषयमागयं गंधं ॥३७७॥ असहो सहो व रसो ण तं भण्इ रसय मंति सो चेव । ण य एइ विणिग्गहिउं रसणविसयमागयं तु रसं ॥३७८॥ असुहो सुहो व फासो ण तं भणइ फुसस मंति सो चेव । ण य एइ विणिग्गहिउं कायविसयमागयं फासं ॥३७६।। असुहो सुहो व गुणो ण तं भणइ वुझ मंति सो चेव । म य एइ विणिग्गहिडं बुद्धिविसयमागयं तु गुणं ॥३०॥ मामसंश-णिदियसंधुयवयण, पोग्गल, बहुय, त, य, अम्ह, पुणो, भणिद, पोग्गलदव, सद्दत्तपरिगय, त, बइ, गुण, अण्ण, त, ण, तुम्ह, भणिअ, किचि, वि, कि, अबुद्ध, असुह, सुह, वा, सद्द, ण, तुम्ह, अम्ह, होतं] ग्रहण करनेके लिये [स एवं] वह प्रात्मा भी अपने प्रदेशोंको छोड़ [न एप्ति] नहीं जाता। [अशुमः वा शुभः] अशुभ अथवा शुभ [गंधः] गंध [त्वां इति न भति] तुझको ऐसा नहीं कहता कि [मां जिन] तू मुझको सुंघ [च] और [प्राणविषयं आगतं गंधं] घ्राणइन्द्रियके विषयभूत गंधको [विनि होत] ग्रहण करनेके लिये [स एव] वह पारमा भी अपने प्रदेशको छोड़ [न एति] नहीं जाता है । [अशुभः बा शुभः रसः] अशुभ व शुभ रस [स्वां इति न मणति] तुझको ऐसा नहीं कहता कि [मां रसय] मुझको तू पास्वाद कर [५] मोर Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार असुहं सुहं व दबंग तं भणइ वुझ मंति सो चेव । ण य एइ विणिग्गहिउँ बुद्धिविसयमागयं दध्वं ॥३८१।। एयं तु जाणिऊण उबममं व गच्छई मूढो । णिग्गहमणा परस्म य सयं च बुद्धिं मिवमपत्तो ॥३८२॥ निन्दास्तुलिकीय वचन, नानाविध परिसमे हि पुदगल हो। उसको सुनि क्यों रूपे, तुषे मुझको कहा भ्रम करि ॥३७३।। शब्द विपरिणत पुद्गल, वह तुझसे सर्वथा पृथक् है जब । तुझको कहा नहीं कुछ. तब तू बन प्रक्ष रूपे क्यों ॥३७४१ शुम अशुभ शब्द तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको सुन ही लो। श्रोत्रविषयगत इसको लेने . आत्मा नहीं पाता ॥३७५॥ शुभ अशुभरूप तुमको, नहिं प्रेरें तुम मुझको देखो हो । चक्षुविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३७६॥ शुभ अशुभ गन्ध तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको सूंघो हो । घ्राणविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३७७॥ शुभ व अशुभ रस तुझको, नहिं प्रेरें तुम मुझको चख ही लो। रसनविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३७॥ शुभ अशुभ परस तुझको, नहिं प्रेरे तुम मुझको छू ही लो। काविषयगत इसको, लेने प्रात्मा नहीं पाता ॥३७६।। शुभ व अशुभ गुरण तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको जानो हो । बुद्धिविषयगत इसको, लेने आत्मा नहीं पाता ॥३८॥ त, च. एव, ण, य, सोयाबमय, आगय, सह, रूव, चक्खुविसय, आगय, रूव, गंध, घाणविसय, आगय, गंध, रस, रसविसय, रस, फास, कायविसय, फास, गुण, बुद्धिविसय, गुण, दन्य, एवं, तु, उसम, ण, एव, [रसनविषयं प्रागतं तु रसं] रसनाइन्द्रियके विषयभूत रसको [विनि होत] ग्रहण करनेके लिये [स एव] वह आत्मा भी अपने प्रदेशको छोड़ [न एति नहीं जाता। [प्रशुमः वा शुभः स्पर्शः] अशुभ व सुभ स्पर्श [त्वां इति न भरगति] तुझको ऐसा नहीं कहता कि [मां स्पृश] तू मुझको स्पर्श (छू ले) [च] और [काविषयं प्रागतं स्पर्श] स्पर्शनइन्द्रियके विषयभूत स्पर्शको विनिहीतुं] ग्रहण करनेके लिये इस एच] बह प्रात्मा भी अपने प्रदेशको छोड़ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ समयसार शुभ अशुभ द्रव्य तुझको, नहि प्रेरें तुम मुझको जानो हो । बुद्धिविषयगत इसको, लेने मात्मा नहीं माता ॥३८१॥ मूढ यों जानकर भी, उपशमभावको प्राप्त नहिं होता । परनिहा रचिया स्वयं शिवा द्धि माह पाता ॥३८२॥ निदितसंस्तुतवचनानि पुद्गला; परिणमंति बहुकानि । तानि श्रुत्वा रुष्यति तुष्यति न पुनरहं भणितः ।। पुद्गलद्रश्यं शम्दत्वपरिणतं तस्य यदि गुणोऽन्यः । तस्मान्न त्वं भणित: किंचिदपि कि रुष्यस्यबुद्धः ।। अशुभः शुभो वा शब्दः न त्वां भणति शृणु मामिति स एव । नचैति विनिहीतुं श्रोत्रविषयमागतं शब्दं ।। अशुभं शुभं वा रूप न त्वां भणति पश्य मामिति स एव । न चैति विनिर्ग्रहीतु घ्राणविषयमागतं गंधं ॥ अशुभः शुभो वा रसो न त्वां भणति रसय मामिति स एव । न चैति विनिहीतु रसनविषयमागतं तु रसं ।। अशुभ: शुभो वा स्पर्शो न त्वां भणति स्पृश मामिति स एव । न चैति विनिगु होतं कायविषयमागतं तु स्पर्श ।। अशुभ: शुभो वा गुणो न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव । न पैति विनिहीतुं बुद्धिविषयमागतं तु गुणं ।। अशुभं शुभं वा द्रव्यं न त्वां भणति बुध्यस्व मामिति स एव न ति विनिगृहीतं बुद्धिविषयमागतं द्रव्यं ।। एतत् सात्वा उपशर्म नैव गच्छति मूढः । निर्गहमनाः परस्य च स्वयं च बुद्धि शिवामप्राप्तः ।। यह बहिरों घटपटादिः, देवदत्तो यज्ञदत्तमिव हस्ते गृहीत्वा 'मां प्रकाशय' इति स्व. प्रकाशन न प्रदीपं प्रयोजयति । न च प्रदीपोप्ययःकांतोपलकृष्टायःसूचीवत् स्वस्थानात्प्रच्युत्य मूत, णिग्गहमण, पर, सयं, बुद्धि, सिव, अपत्त । पातसंझ-परि नम नमीभावे, उपसर्गादर्थपरिवर्तनम्, सुण श्रवणे, रुस रोषे, तुस संतोषे, इ गतो, भण कयने, दि णि गह ग्रहणे, पास दर्शने, प इक्ख दर्शने, ग्या [न एति] नहीं जाता । [अशुभः या शुभः] अशुभ व शुभ [गुणः] गुण [त्वां इति न मरगति] तुझको यह नहीं कहता कि [मां दुध्यस्थ] तू मुझको 'जान [च] मौर [बुद्धिविषयं प्रागतं तु गुणं] बुद्धिके विषयमें पाये हुए गुणको [विनिहीतु] ग्रहण करनेके लिये [स एव] यह मात्मा भी अपने प्रदेशको छोड़ [न एति] नहीं जाता। [एतत्तु जात्या) अहो, ऐसा जानकर भी [मूढः] मूढ जोव [उपशमं मैव गच्छति] उपशमभावको नहीं प्राप्त होता [च] और [स्वयं शिवां बुद्धि अप्राप्तः] स्वयं कल्याणरूप बुद्धिको नहीं प्राप्त होता हुआ [परस्य विनिर्ग्रहमनाः] परके ग्रहण करनेका मन करने वाला होता है । तात्पर्य-न तो परद्रव्य प्रात्माको भोगनेके लिये प्रेरित करता है और न आत्मा भोगनेके लिये परद्रव्यके पास जाता है तब फिर मूढ बनकर क्यों दुःख किया जावे । ____टोकार्थ-जैसे यहाँ घटपटादि बाह्य पदार्थ जिस प्रकार देवदत्त यज्ञदत्तका हाथ पकड़कर उससे अपना कार्य करा लेता है, उस प्रकार दीपकसे यह नहीं कहते कि तू हमें प्रकाशित कर । और न दीपक भी चुम्बकसे प्राकृष्ट सुईकी तरह अपना स्थान छोड़कर उन पदार्थोंको प्रकाशित करने पहुंचता । किन्तु वस्तुस्वभाव दूसरेके द्वारा उत्पन्न होनेके लिये अशक्य होनेसे Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार तं प्रकाशयितुमायाति । कि तु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्यत्वाच यथा तदसन्निधाने तथा तदसन्निधानेऽपि स्वरूपेणैव प्रकाशते । स्वरूपेणैव प्रकाशमानस्य चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयन् कमनीयोऽकमनोयो वा घटपटादिनं मनागपि विक्रियाय कल्प्यते । तथा बहिरर्थः शब्दो रूपं गंधो रस: स्पर्शो गणदारे च देवदत्तो यादत्तमिव हस्ते गृहीत्वा मां शृणु मां पश्य मां जिन मा रसय मां स्पर्श मा बुध्यस्वेति स्वज्ञाने नात्मानं प्रयोजयति । नचात्माप्ययःकांतोपलकृष्टाय सूचीवत् स्वस्थानात्रच्युत्य तान् ज्ञातुमायाति । किंतु वस्तुस्वभावस्य परेणोत्पादयितुमशक्यत्वात् परमुत्पादयितुमशक्यत्वाच्च यथा गंधोपादाने, रस आस्वादनाकन्दनयोः फुस स्पर्श शुद्धौ च, जाण अववोधने, बुज्झ अवगमने, गच्छ गतौ । प्रतिनिक- निन्टितात तिटवन एगल, बहुका, तत, च, पुनर्, अस्मद्, भणित, पुद्गलद्रव्य, शब्दत्वपरिणत, तत्. यदि, गुण, अन्य, तत्, न, तुम्ह, भणित, किंचित्, अपि, किं, अवुद्ध, अशुभ, शुभ, बा, शब्द, न, युष्मद्, अस्मद्, इति, तत्, एव, न, च, श्रोत्रविषय, आगत, गब्द, रूप, चक्षुर्विषय, गंध, नाणविषय, रस, और परको उत्पन्न करने के लिये अशक्त होने से दीपक, जैसा घटपटादि पदार्थोके, सद्भावमें प्रकाशमान रहता है वैसा ही उनके सद्भावमें भी । इस प्रकार स्वरूपसे ही प्रकाशमान दीपक को वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त सुन्दर या असुन्दर घटपटादि बाह्य पदार्थ कुछ भी विकार पैदा नहीं करते । वैसे ही बाह्य पदार्थ शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और गुणद्रव्य यज्ञदत्तका हाथ पकड़कर देवदतकी तरह आत्मासे यह नहीं कहते कि तू मुझे सुन, देख, संघ, प्रास्वादन कर, छु, समझ । और न प्रात्मा हो चुम्बकसे धाकृष्ट सुईकी तरह अपने स्थानसे हटकर उन्हें जाननेके लिए उन तक जाता है । किन्तु वस्तुस्वभाव परके द्वारा उत्पन्न नहीं किया जा सकनेसे और परको उत्पन्न करने में अशक्त होनेसे जैसे कि बाह्य पदार्थोके असन्निधान में प्रात्मा स्वरूपसे ही जानता है वैसे ही बाह्यपदार्थके सन्निधानमें भी स्वरूपसे ही जानता है । इस प्रकार स्वरूपसे जानते हुए इस प्रात्माको वस्तुस्वभावसे ही विचित्र परिणतिको प्राप्त सुन्दर व असुन्दर शब्दादिक वाद्य पदार्थ रंधमात्र भी विकार पैदा नहीं करते । इस प्रकार प्रात्म। प्रदीपकी तरह परपदार्थके प्रति सदा ही उदासीन है, यही वस्तुस्वभाव है । तिसपर भी जो रागद्वेष होते हैं वह अजान है। भावार्थ--- प्रात्मा शब्दको सुनकर, रूपको देखकर, गंधको सूधकर, रसको चखकर, स्पर्शको स्पर्शकर, गुणद्रव्यको जानकर भला बुरा मान रागद्वेष बनाता है सो वह प्रज्ञान है । क्योंकि ये शब्दादिक तो जड़के गुण हैं, आत्माको कुछ नहीं कहते कि हमको ग्रहण करो। और आत्मा भी स्वयं अपने प्रदेशोंको छोड़कर उनके ग्रहण करनेके लिये उनमें नहीं जाता है । Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ -समयसार तदसन्निधाने तथा तत्सन्निधानेऽपि स्वरूपेरणेव जानीते । स्वरूपेण जानतश्चास्य वस्तुस्वभावादेव विचित्रां परिणतिमासादयंतः कमनीया कमनीया वा शब्दादयो बहिरा न मनागपि विक्रियाय कल्प्येरन् । एवमात्मा प्रदीपवत् परं प्रति उदासीनो नित्यमेवेति वस्तुस्थितिः, तथापि रसनविषय, स्पर्श, काविषय, गुण, बुद्धिविषय, द्रव्य, बुद्धिविषय, एतत्, तु, ज्ञात्वा, उपशम, न एव, मूढ, वित्तिर्ग्रहमनस्, पर, त्र, सयं, च, बुद्धि, शिवा, अप्राप्त। मूलधातु-परि णम प्रवत्वे, रुष क्लेशे दिवादि, तप प्रीतो दिवादि, भण शब्दार्थः, श्र धवणे, इण गतौ अदादि, वि निर ग्रह उपादाने, दृशिर प्रेक्षणे, घ्रा गन्धोपादाने, रस आस्वादनस्नेहयोः चुरादि, स्पुश संस्पर्शने तुदादि, शा अवबोधने, बुध अवगमने दिवादि, गम्ल गती। पदविवरण-णि दियसंथुयवयणाणि निन्दितसंस्तुतवचनानि-प्रथमा बहु० । पोग्गला पुद्गलाःप्रथमा बहु० । परिणमंति-ततेमान लद अन्य पुरुष या क्रिया ! बहुगाणि बहुकानि-प्रथमा बहु० । ताणि तो प्रात्मा जैसे उनके समीप न होनेपर जानता है वैसे ही समीप होनेपर भी जानता है। ऐसा वस्तुका स्वभाव है । तो भी प्रात्मामें रागद्वेष उत्पन्न होता है सो यह प्रज्ञान ही है । अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं - पूर्णं इत्यादि । अर्थ-पूर्ण, एक, अच्युत शुद्ध ज्ञानको महिमा वाला ज्ञानी ज्ञेय पदार्थोंसे कुछ भी विकारको प्राप्त नहीं होता। जैसे दोपक प्रकाशने योग्य घटपटादि पदार्थोसे विकारको नहीं प्राप्त होता । तब फिर जिनको बुद्धि वस्तुको मर्यादाके ज्ञानसे रहित है, ऐसे अज्ञानी जीव अपनी स्वाभाविक उदासीनताको क्यों छोड़ते हैं और रागद्वेषमय क्यों होते हैं ? भावार्थ-ज्ञानका स्वभाव ज्ञेयको जाननेका हो है। जैसे कि दीपकका स्वभाव घटपट आदिको प्रकाश करने का है। यह वस्तुस्वभाव है। ज्ञेयको जाननेमात्रसे ज्ञानमें विकार नहीं होता। तब फिर जो शेयको जानकर भला बुरा मान रागी, द्वेषी, विकारी होना है सो यह अज्ञान है । इसपर प्राचार्यदेवने सोच किया है कि वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है. फिर यह आत्मा प्रशानी होकर रागद्वेषरूप क्यों परिणमता है ? अपनी स्वाभाविक उदासीनता अवस्थारूप क्यों नहीं रहता ? सो यह प्राचार्यका सोच करना युक्त है । क्योंकि जब तक शुभ राग है तब तक प्राणियोंको अज्ञानसे दुःखो देख करुणा उत्पन्न होती है तब सोच भी होता है । अब अगले कथनके विषयका संकेत काव्यमें करते हैं-रागद्वेष इत्यादि । अर्थ- राग द्वेष रूप विभावसे रहित तेज वाले, नित्य ही अपने चैतन्यचमत्कारमात्र स्वभावको स्पर्श करने वाले, पूर्व किये गए समस्त कर्म और अागामी होने वाले समस्त कर्मोसे रहित तथा वर्तमान कालमें पाये हुये कर्मके उदयसे भिन्न ज्ञानीजन अतिशय अंगीकार किये गये चारित्र वैभवके बलसे ज्ञानको सम्यक् प्रकार चेतनाको अनुभव करते हैं जो ज्ञानचेतना चमकतो (जागती) चैतन्यरूप ज्योतिमयी है तथा अपने ज्ञानरूप रससे जिसने तीन लोकको सींचा है। Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६०६ यद्रागद्वेषी तदज्ञानं ॥ पूर्णेकाच्युतशुद्धबोध महिमा बोद्धा न बोध्यादयं, यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दीपः प्रकाश्यादिव । तद्वस्तुस्थितिबोध बंध्यधिषणा एते किमज्ञानिनो, रागद्वेषमयी तानि द्वि० बहु० । सुणिऊण श्रुत्वा असमाप्तिकी क्रिया । रूसदि रुपयति तूसदि तुष्यति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन दिवादि क्रिया । य न अव्यय । अहं प्रथमा एक. कर्मवाच्य कर्म । पुणो पुनः अव्यय । afrat भणितः - प्रथमा एक० कृदन्त क्रिया । किंचि किचित् वि अपि कि-अव्यय । रूससि रुध्यसि वर्तमान मध्यम पुरुष एकवचन दिवादि क्रिया । अबुद्धो अबुद्ध: असुहो अशुभः सुहो शुभः सद्दी शब्द :- प्रथमा एक० । न-अव्यय । तं त्वां द्वितीया एक० । भणइ भगति वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक क्रिया । सुणसु शृणुआज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक क्रिया । मं मां-द्वितीया एक० ति इति - अव्यय । सो सः - प्र० एक० ! च एव - अव्यय । ण न य च - अव्यय । एइ एति वर्तमान लद् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया विणिग्गहिडं विनि होतु हेत्वर्थं कृदन्त अव्यय । सोयविसयं श्रोत्रविषयं द्वितीया एक० । आगये आगत- द्वि० एक० । सदर्द शब्द द्वि० ए० रूवं रूपं प्रथमा एक० । पिच्छ पस्स पश्य आज्ञार्थी लोट् मध्यम० एक० क्रिया । भावार्थ --- जिनका राग द्वेष दूर हो गया और अपने चैतन्यस्वभावको जिनने अंगीकार किया तथा प्रतीत श्रनागत वर्तमान कर्मका ममत्व जिनके न रहा ऐसे ज्ञानी सब परद्रव्यसे पृथक् होकर चारित्रको अंगीकार करते हैं । उस चारित्रके बलसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतना से पृथक् जो अपनी चैतन्यके परिणमन स्वरूप ज्ञानचेतना है उसका अनुभव करते हैं । यहाँ यह जानना कि मुमुक्षुने पहले तो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे भिन्न अपनेको ज्ञानचेतना मात्र श्रागम अनुमान स्वसंवेदन प्रमाणसे जाना और उसका श्रद्धान दृढ़ किया। सो यह तो ग्रविरत, देशविरत और प्रमत्त अवस्था में भी होता है । जब अप्रमत्त यवस्था होती है अपने स्वरूपका ही ध्यान करता है उस समय ज्ञानचेतनाका जैसा श्रद्धान किया था उसमें लीन होता है तब वह श्रेणी चढ़ केवलज्ञान उत्पन्न कर साक्षात् ज्ञानचेतनारूप होता है । प्रसंगविवरण- प्रनन्तरपूर्व गाथा में परद्रव्यको रागादिका अनुत्पादक बताया था । इस गाथादशक में बताया है कि जब शुभ अशुभ विषयभूत परपदार्थ रागादिके उत्पादक नहीं है, फिर तू उन विषयोंको उपयोग में लेकर क्यों व्यर्थ रोष तोष करता है, क्यों नहीं तथ्य जानकर उपशमभावको प्राप्त होता है । तथ्यप्रकाश - ( १ ) रागादि विषयभूत पदार्थ भिन्न सत् हैं, श्रात्मा भिन्न सत् है । (२) विषयभूत पदार्थोंका गुण, पर्याय श्रादि कुछ भी श्रात्मामें होना असम्भव है । ( ३ ) इन्द्रिय विषयभूत पदार्थ आत्मा पर जबरदस्ती नहीं करते कि तुम हमको सुनो, देखो, सूंधो, स्वादो व छु । ( ४ ) श्रात्मा भी अपने प्रदेशोंसे बाहर कहीं भी विषयोंको सुनने प्रादिके लिये जाता नहीं । ( ५ ) अज्ञानी जीव भ्रमसे ही विषयोंको इष्ट अनिष्ट समझकर वृथा रुष्ट तुष्ट होता है । Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार भवंति सहजा मचन्त्युदासीनतां ॥२२२॥ रागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पुशः पूर्वागा. मिसमस्तकर्मविकला भिन्नास्तदात्योदयात् । दुरारुढचरित्रवैभवबलाच्चंचच्चिदचिर्मयों विदन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनां ।।२२३।। ।। ३७३-३८२ ।। रूवं रूपं-प्रथमा एक० । गंधो गंधः-प्रथमा एक० । घाणविसयं घ्राणविषयं आगयं आगतं गंध-द्वितीया ए० । रसो रस:-प्रथमा एक० । रसय-आज्ञार्थे लोट् मध्यम० एक० किया । रसणविसमं रसणविषयं-द्वि० ए. आगयं आगतं रसं-द्वि० ए० । फासो स्पर्श:-प्रथमा एक० । फुससु स्पृश-आज्ञार्थं लोट् मध्यम० ए० । काविसयं आगयं फासं कायविषयं आगतं स्पर्श-द्वितीया एकवचन । गुणो गुण:-प्रथमा एक० । बुद्धिविसयं बुद्धिविषयं आगयं आगतं गुण--द्वि० ९क० । ददवं द्रव्य-प्र० एक० । बुद्धिविसयं आगयं दव्वं बुद्धिविषयं आगतं द्रव्य-द्वि० ए० । एयं एवं तु-अव्यय । जाणिऊण ज्ञात्वा-असमाप्तिकी किया। उदसम उपशम-वि० ए० व नैव-अव्यय । गच्छई गच्छसि--वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० किया। मूढो मूढः-प्रथमा एक० । णिग्गहमणा निर्गमना:-प्र० एक० । परस्स परस्य-षष्ठी एक० । सयं स्वयं-अव्यय । बुद्धि सिवं शिवांद्वि० ए० । अपत्तो अप्राप्त:-प्रथमा एकवचन ।। ३७३-३८२ ।। (६) अज्ञानी जीवके रोष-तोषका कारण मात्मस्वरूपका अपरिचय है ! (७) सहजशुद्धात्मतत्त्वज्ञानी अात्मा मनोज्ञ अमनोज्ञ इन्द्रियविषयोंमें रागद्वेष नहीं करता, किन्तु स्वस्थ भावसे शुद्धात्मस्वरूपका अनुभव कर सहज आनन्द पाता है । (८) परद्रव्य गुण पर्यायें भो प्रात्मापर जाननेको जबरदस्ती नहीं करते । (8) प्रात्मा अपने प्रदेशोंसे बाहर कहीं परद्रव्य गुण पर्यायों को जानने नहीं जाता । (१०) अज्ञानी व्यर्थ हो परद्रव्य गुणा पर्यायोंको इष्ट अनिष्ट मानकर रोष-तोष प्रादि विकार करता है। (११) ज्ञानी जीव सहजात्मस्वरूपके श्रद्धानके कारण बाह्य पर्थो में हर्ष विषाद नहीं करता । (१२) प्रज्ञानी जीव सहजानन्दधाम ज्ञानस्वरूप अन्तस्तत्वकी अजानकारीके कारण विषयभूत परपदार्थोसे उपयोगको हटा नहीं पाता और उपशम (शान्ति) भावको प्राप्त नहीं हो पाता । (१३) प्रात्मा तो जानता ही रहता है, अपने स्वरूपसे हो जानता रहता है। (१४) अपने स्वरूपसे जानते रहने वाले में बाह्य विषयभूत पदार्थ विक्रिया नहीं कर सकते । (१५) जाननस्वरूपमें विकार नहीं होता। (१६) अपने स्वरूपसे अनभिज्ञ जीव अजानरूप ज्ञानपरिणामसे परिणमता हुना रागद्वेषरूप बिकल्प किया करता है। सिद्धान्त--(१) परद्रव्यका द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव प्रात्मामें होना त्रिकाल असम्भव है । (२) अज्ञानी जीव जाननमात्ररूप उदासीन भावको छोड़कर रागद्वेष करता है वह इस हो का प्रज्ञानभाव है। दृष्टि - (१) परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याधिकनय (२६) । २- प्रशुद्धनिश्चयनय, अशुद्ध. नय (४७, १६७)। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वशुद्धज्ञानाधिकार कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थर विसेसं । तत्तों गियत्त अपयं तु जो सो पडिक्कमणं ॥ ३८३|| कम्मं जं सुहममुहं जलिय भावपि वज्ड भविस्सं । तत्तो यित्तए जो सो पच्चक्खाणं हवह चेया ॥ ३८४॥ जं सुहमसुह मुदिरां संपडियायवित्थरविसेसं । तं दो जो चेयइ सो खलु आलोयां चेया ॥ ३८५॥ णिच्चं पच्चक्खाणं कुव्वइ णिच्च य पडिक्कमदि जो । च्विं आलोचेयर सो हु चरितं हवइ चैया ||३=६॥ शुभ शुभ विविध विस्तृत, पूर्वकृत कर्म जो हुए उनसे । स्वयंको छुड़ाता जो, वह जीव प्रतिक्रमणमय है ॥ ३८३॥ जिस भाव से भविष्यत्, शुभ व अशुभ कर्मबन्ध हो उसमें । स्वयंको छुड़ाता जो वह प्रत्यात्मानमय आत्मा ॥ ३८४॥ शुभ अशुभ विविध विस्तृत, कर्म प्रभी जो उबीरण हैं उनको । दोषरूप जो जाने, श्रात्मा आलोचनामय वह ॥ ३८५ ॥ आलोचना प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यानको नित्य करता जो । वह ग्रात्मा होता है, स्वयं स्वचेतक व चारित्री ॥ ३८६ ॥ ६११ नामसंज्ञ----कम्म, ज, पुव्वक्य, सुहासुह, अरगेयवित्थर विसेस, तत्तो, अप्प, तु, ज, त. पडिक्कमण, कम्म, ज, सुह, असुह, ज, भाव, भविस्सं ततो ज, त, पच्चक्खाण, चेया, ज, सुह, असुह, उदिष्ण, संपि अस्यवित्थारविसेस, त दोस, ज, त, खलु, आलोयण, खलु, आलोयण, चेया, णिच्च पञ्चक्खाण, प्रयोग - परद्रव्पका आश्रय कर स्वकीयबुद्धि दोषसे भज्ञानी रागादिरूप परिणमता है। यह तथ्य जानकर प्रज्ञादोषको याने भ्रमको छोड़कर अविकार ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना || ३७३-३८२ ।। अतीत कर्मसे ममत्व छोड़ना प्रतिक्रमण है, आगामी ममत्व न करनेकी प्रतिज्ञा प्रत्याख्यान है, वर्तमान कर्म जो उदयमें आया है उसका ममत्व छोड़े वह आलोचना है । ऐसा चारित्रका विधान है सो ही कहते हैं:- [ पूर्वकृतं ] प्रतीतकाल में किये हुये [स्] जो [ अनेक विस्तरविशेषं] ज्ञानावरण आदि अनेक प्रकार विस्तार विशेषरूप [ शुभाशुभं ] शुभ Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ६१२ कर्म यत्पूर्वकृत शुभाशुभमनेकविस्तर विशेषं । तस्मान्निवर्तयत्यात्मानं तु यः स प्रतिक्रमणं ॥३८३|| कर्म यच्छुभमशुभं यस्मिश्च भावे बभ्यते भविष्यत् । तस्माभिवर्तते यः स प्रत्याख्यानं भवति चेतयिता ॥ ३८४॥ यच्छुभमशुभमुदीर्णं संप्रति वानेकविस्तरविशेषं । तं दोषं यः चेतयते स खल्वालोचनं चेतयिता ||३८|| नित्यं प्रत्याख्यानं करोति नित्यं प्रतिक्रामति यश्च । नित्यमालोचयति स खलु चरित्रं भवति चेतयिता ॥ ३५६ ॥ यः खलु पुद्गलकर्मविपाकभवेभ्यो भावेभ्यश्चेतयितात्मानं निवर्तयति स तत्कारणभूतं पूर्वकर्म प्रतिक्रामन् स्वयमेव प्रतिक्रमणं भवति । स एव तत्कार्यभूतमुत्तरं कर्म प्रत्याचक्षाणः प्रत्याख्यानं भवति । स एव वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंत भेदेनोपलभमान: आलोचना भवति । एवमयं नित्यं प्रतिक्रामन, नित्यं प्रत्याचक्षाणो नित्यमालोचयंश्च पूर्वकर्मकार्येभ्य उत्तरणिच्चं, त, हु, चरिक्त, चेया । धातुसंज्ञणि बस वर्तन, बन्ध बन्धने, हव सत्तायां, चेत करणावबोधनयो:, कुब्व करणे, पडि क्कम पादविक्षेपे, आ लोच दर्शने । प्रातिपदिक- कर्मन् यत् पूर्वकृत, शुभाशुभ, अनेकविस्तरविशेष, ततः, आत्मन् तु यत्, तत् प्रतिक्रमण, कर्मत्र, यत्, शुभ, अशुभ, यत्, भाव, भविष्यत् ततः यत् तत् प्रत्याख्यान, चेतयितृ, यत्, शुभ, अशुभ, उदीर्ण, संप्रति, च, अनेकविस्तर विशेष, तत्, दोष, यत्, निवृतु तत् खलु, आलोचन, चेलयितृ, नित्यं प्रत्याख्यान, नित्यं तत् खलु चरित्र, चेतयितृ । मूलधातु-वर्तने, बबन्धने शी संज्ञा कुन करणे, प्रति ऋमु पादविक्षेपे, आलोचृ दर्शने चुरादि । पदविवरण - कम्मं कर्म - प्रथमा एक० । जं यत् पुब्बकथं पूर्वकृतं सुहासुहं शुभाशुभं अयवित्थरविसेसं अने कविस्तर विशेषं प्रथमा एक० । तत्तो ततः पंचम्यर्थे तद्धित अव्यय । णियत्तए निवर्तते वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया। अप्पयं आत्मानं द्वितीया एक० । तु-अव्यय । जो सो यः सः पडिस्कमणं प्रतिक अशुभ [ कर्म] कर्म है [ तस्मात् ] उससे [ यः तु ] जो चेतयिता [ श्रात्मानं निवर्तयति ] अपने आत्माको अलग कर लेता है [ सः] वह आत्मा [प्रतिक्रमणं] प्रतिक्रमणस्वरूप है [च] और [ भविष्यत् यत् ] श्रागामी कालमें जो [ शुभं शुभं] शुभ तथा अशुभ [ कर्म] कर्म [ यस्मिन्मावे ] जिस भावके होनेपर [बध्यते ] बंधे [तस्मात् ] उस भाव से [यः चेतयिता ] जो ज्ञानी [वि] अपनेको हटा लेता है [स] वह श्रात्मा [ प्रत्याख्यानं भवति ] प्रत्याख्यानस्वरूपं है । [च] श्रीर [ संप्रति ] वर्तमान काल में [ उदी] उदयोगत [ यत् ] जो [शुभं अशुभं ] शुभ अशुभ कर्म [ अनेक विस्तरविशेषं] अनेक प्रकार ज्ञानावरणादि विस्तारविशेषरूप है [तं दोघं ] उस दोषको [यः चेतयिता ] जो ज्ञानी [ चेतयते] मात्र जानता है याने उसका स्वामिपना, कर्तापना छोड़ता है [ सः खलु ] वह आत्मा निश्चयसे [ श्रालोचनं] प्रालोचनास्वरूप है । [ च यः ] इस तरह जो [ चेतयिता ] श्रात्मा [नित्यं प्रत्याख्यानं करोति ] नित्य प्रत्याख्यान करता है [ नित्यं प्रतिक्रामति] नित्य प्रतिक्रमण करता [ नित्यं प्रालोचयति ] नित्य झालो. चना करता है [ सः खलु ] वह चेतयिता निश्चयसे [ चारित्रं भवति ] चारित्रस्वरूप है । तात्पर्य --- जो श्रात्मा वर्तमान विकारभावसे निराले सहजशुद्ध ज्ञानमात्र अपनेको Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कर्मकारणेभ्यो भावेभ्योत्यंत निवृत्तः, वर्तमानं कर्मविपाकमात्मनोऽत्यंत भेदेनोपलभमानः स्वस्मिलेव खलु ज्ञानस्वभावे निरन्तरचरणाच्चारित्रं भवति । चारित्रं तु भवन् स्वस्य ज्ञानमात्रस्य मणं-प्रथमा एक० । कम्म कर्म जं यत् सुहं शुभं असुहं अशुभं-प्रथमा एक. 1 जम्हि यस्मिन भावह्मि भावे-- सप्तमी एक० । बझइ बध्यते-वर्तमान लद अन्य पुरुष एकवचन । भविस्सं भविष्यत्-अव्यय । तत्तो तत:पंचम्यर्षे अव्यय । गियत्तए निवर्तते-वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया । जो यः सो सः चेया चेतयिता पच्चक्खाणं प्रत्याख्यानं-प्रथमा एक । हवाइ भवति वतमान लंष्ट्र अन्य पुरुपए सचदा किया । इंदिस्य उदीर्ण-- अनुभवता है वह आत्मा चारित्रस्वरूप है । टीकार्य-जो आत्मा पुद्गलकर्मके उदयसे हुए भावोंसे अपने प्रात्माको दूर रखता है वह उस भावके कारणभूत पूर्व (प्रतीत) कालमें किये गये कर्मको प्रतिक्रमणरूप करता हुमा प्राप हो प्रतिक्रमण स्वरूप होता है। वहीं प्रात्मा पूर्वकमके कार्यभूत आगामी बंधने वाले कर्मको प्रत्याख्यान रूप करता (त्यागता).. हुमा पाप हो प्रत्याख्यान स्वरूप होता है, तथा वही मात्मा वर्तमान कर्मके उदयसे अपनेको अत्यंत भेदसे अनुभव करता हुआ प्रवतंता है वह पाप हो पालोचना स्वरूप होता है। ऐसे यह प्रात्मा नित्य प्रतिक्रमण करता हुमा, नित्य प्रत्याख्यान करता हुआ और नित्य पालोचना करता हुआ पूर्व कर्मके कार्यरूप और अागामी कर्मके कारणरूप भावोंसे अत्यन्त अलग होता हुआ तथा वर्तमाम कर्मके उदयसे अपनेको प्रत्यंत भिन्न अनुभवता हुमा अपने ज्ञानस्वभावमें ही निरंतर प्रवर्तन करनेसे पाप हो चारित्र स्वरूप होता है। ऐसे चारित्ररूप होता हुमा अपनेको ज्ञानमात्र अनुभवनेसे प्राप हो ज्ञानचेतना स्वरूप होता है ऐसा तात्पर्य है। भावार्थ-यहां निश्चयचारित्रकी प्रधानतासे कथन है । चारित्रमें प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान मोर मालोचनाका विधान है। सो निश्चयसे विचारनेपर जो प्रात्मा तीनों काल संबंधो कर्मोंसे प्रात्माको भिन्न जानता है, भिन्न श्रद्धान करता है और भिन्न अनुभव करता है, वह प्रात्मा स्वयं हो प्रतिक्रमण है, स्वयं हो प्रत्याख्यान है और स्वयं ही मालोचना है। इन तीनों स्वरूप प्रात्माका निरंतर अनुभवन करना सो चारित्र है। निश्चयचारित्रमें ज्ञानचेतनाका अनुभवन है। इसी अनुभवसे साक्षात् ज्ञान चेतनास्वरूप केवलज्ञानमय मारमा प्रकट होता है। ___ अब ज्ञानचेतना मोर मज्ञानचेतनाके परिणामको काव्यमें कहते हैं--ज्ञानस्य इत्यादि । अर्थ---'जानकी चेतनासे ही ज्ञान प्रत्यंत शुद्ध निरंतर प्रकाशित होता, है, परन्तु . प्रगानकी चेतनासे बंध दौड़ता हुमा ज्ञान की शुद्धताको रोकता है । मावाई-किसी वस्तुके प्रति उसीका एकाग्र होकर अनुभव रूप स्वाद लेना यह उसको संचेतना कही जातो है। ज्ञानके प्रति ही Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ समयसार चेतनात् स्वयमेव ज्ञानचेतना भवतीति भावः । ज्ञानस्य संचेतनयव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धं । अज्ञानसंचेतनया तु धावा बोधस्य शृद्धि निरुणद्धि बंधः ।।२२४।। ॥ ३८३.३८६ ॥ प्र० एक० । संपडि संप्रति-अव्यय । अरऐयवित्थरविसेसं अनेकविस्तरविशेष-प्रथमा एक० । तं दोस तं दोष-द्वि० ए० । जो यः-प्रथमा एक० । नेयइ चेतयते-वर्तमान० अन्य० एक० क्रिया । सो सः आलोयणं आलोचनं चेया चेतयिता-प्र० ए० । णिचं नित्यं-अव्यय । पच्चक्राणं प्रत्याख्यानं-द्वितीया एक० । कुन्वइ करोति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । पडिकमांड प्रतिकामात-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । आलोचेयइ आलोचयति-वर्तमान लट अन्य पुरुष एकवचन किया। चरितं चरित्र-प्र० एक० । हवइ भवति-वर्तमान अन्य० एक क्रिया । चेया घेयिता-प्रथमा एकवचन ।। ३८३-३८६ ।। एकाग्र उपयुक्त होकर उसी में ध्यान रखना ज्ञानचेतना है । इस ज्ञानचेतनासे तो ज्ञान अत्यन्त शुद्ध होकर प्रकाशित होता है याने केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है, और तब ही सम्पूर्ण ज्ञानचेतना नाम पाता है। और अज्ञानमय कर्म और कर्मफलरूप उपयोगको करना उसी तरफ एकाग्र होकर अनुभव करना वह अज्ञानचेतना है। अज्ञानचेतनासे कर्मका बन्ध होता है और वह ज्ञानको शुद्धताको रोकता है अर्थात् जानकी शुद्धता नहीं होने देता ।। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथादशकमें यह बताया गया था कि प्राश्रयभूत परद्रव्य रागादिभावका कारण नहीं है ऐसा जानकर उपशमभावको प्राप्त होना चाहिये । अब इस गाथाचतुष्कमें बताया है कि रागादिके निमित्तभूत प्रतीत भविष्यत् वर्तमान कर्मके फलसे भी अलग रहना चारित्र है। ___ तथ्यप्रकाश-(१) पूर्वबद्ध पुद्गलकर्मविपाकज भावोंसे निराले स्वात्माके आश्रयके बलसे पूर्वकर्मको निष्फल कर देना प्रतिक्रमण है । (२) बँध रहे पुद्गलकर्म के कार्यभत आगामी कर्मको सहजात्माके प्राश्रयसे निष्फल कर देना प्रत्याख्यान है । (३) वर्तमान कर्मविपाकको सहजात्मस्वरूपसे प्रत्यन्त भिन्न निरखते हुए सहजात्माके प्राश्रयसे निष्फल कर देना पालोचना है । (४) परमार्थ प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान व मालोचनाके बलसे ज्ञानस्वभाव स्वात्मामें निरन्तर उपयोगको रखना चारित्र है । (५) परमार्थ चारित्ररूप होते हुए अन्तरात्माके स्वयं ज्ञानचेतना होतो है । (६) स्वयंको ज्ञानमात्र चेतना, निरखना ज्ञानचेतना है। (७) ज्ञानको संचेतनासे ही अतीव शुद्ध परतत्वविभक्त ज्ञान प्रकाशमान होता है । (८) अज्ञानको संचेतना से बन्ध होता है और ज्ञानको शुद्धि तिरोभूत हो जाती है। सिद्धान्त-(१) सहजात्मस्वरूपको भावनामें त्रिकाल कर्मफलका प्रभाव है । दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (२४)। प्रयोग-यात्मम्वरूपमें स्थिर होनेके लिये परद्रव्य व परभावसे विविक्त सहज ज्ञान Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार वेदतो कम्मफलं अप्पाणं कुणइ जो दु कम्मफलं । सो तं पुणोवि बंधइ वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ॥३८७॥ वेदंतो कम्मफलं मए कयं मुणइ जो दु कम्मफलं । सो तं पुणोवि बंधइ वीयं दुक्खस्स अट्ठविहं ॥३८॥ वेदंतो कम्मफलं सुहिदो दुहिदो य हवदि जो चेदा । सो तं पुणावि बंधई वीयं दुक्खस्स अट्टविहं ॥३८६॥ कर्मफल वेदता जो, उसको निज रूप है बना लेता। बह फिर भि बांध लेता, दुखबीज हि अधः मौको ॥३८७।। कर्मफल वेदता जो, यह मैंने किया मानत! ऐसे । यह फिर भि बांध लेता, दुखबीज हि प्रष्ट कर्मोको ॥३८८॥ वेदता कर्मफल जो, हो जाता है सुखी दुखी प्रात्मा । वह फिर भि बांध लेता, दुखबीज हि प्रष्ट कर्मोको ॥३६॥ वेदयमानः कर्मफलमात्मानं करोति यस्तु कर्मफलं । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविध ॥३५७।। वेदयमानः कर्मफलं मया कृतं जानाति यस्तु कर्मफलं । स तत्पुनरपि बध्नाति बीज दुःखस्याष्टविधं ॥३८॥ देदयमानः कर्मफलं सुखितो दुःखितः । भवति यः चेतायता । स तत्पुनरपि बध्नाति बीजं दुःखस्याष्टविध ।। ___ ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनं अज्ञानचेतना । सा द्विधा कर्मचेतना कर्मफलचेतना च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना । ज्ञानादन्यत्रेदं वेदयेऽहमिति चेतनं कर्मफल नामसंझ-दंत, दाम्मफल, अप्प, ज, दु, कम्मफल, त, त, पुणो, वि, वीय, दुक्ख, अट्ठविह, वेदत, ___ मात्र अन्तस्तत्वमें उपयुक्त होनेका पौरुष करना ॥ ३८३.३८४ ॥ ___ अब ज्ञानचेतना व अज्ञानचेतनाका फल कहते हैं- [कर्मफलं वेश्यमानः] कर्मके फल को अनुभवता हुप्रा [यः तु] जो प्रात्मा [कर्मफलं प्रात्मानं करोति] कर्मफलको निजरूप करता है [सः] बह [पुनरपि] फिर भी [दुःखस्य बीज] दुःख के बीज [अष्टविधं तत्] ज्ञानावरणादि पाठ प्रकारके कर्मको [बध्नाति] बांधता है। [यस्तु जो [कर्मफलं वेदयमानः] कर्मके फलका वेदन करता हुआ [कर्मफलं मया कृतं जानाति] उस कर्मफलको मैंने किया ऐसा जानता है [स पुनरपि] वह फिर भी [दुःखस्य बोज] दुःखके बीज [अष्टविध तत्] ज्ञानावरणादि पाठ प्रकारके कर्मको [बध्नाति] बांधता है । [यः चेतयिता] जो प्रात्मा [कर्मफलं देवयमानः] कर्मके फलको वेदता हुआ [सुखितः च दुःखितः] सुखी और दुःखो [भवति] Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ १६ समयसार चेतना । सा तु समस्तापि संसारबीजं, संसारबीजस्याष्टविधकर्मणो बीजत्वात् । ततो मोक्षार्थिना पुरुषेणाज्ञान चेतनाप्रलयाय सकलकर्मसंन्यासभावनां सकलकर्म फलसंन्यासभावनां च नाटयित्वा स्वभावभूता भगवती ज्ञान चेतनैवैका नित्यमेव नाटयितव्या । तत्र तावत्सकलकर्मसंन्यासभावनां नाटयति-- कृतकारितानुमननै स्त्रि कालविषयं मनोवचनकार्य: । परिहृत्य कर्म सर्वं परमं नककम्मफल, अम्ह, कय, ज, दु, कम्मफल, स, त, पुणो, वि, वीय, दुक्ख, अट्ठवि, वेदंत, कम्मफल, सुहिद, होता है [स] वह श्रात्मा [ पुनरपि ] फिर भी [दुःखस्य बीजं अष्टविधं तत् बध्नाति] दुःखके बीज ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मको बाँधता है । तात्पर्य - प्रज्ञान चेतना में स्थित जीव कर्मको बाँधता हुआ संसार में जन्म मरण कर संकट सहता रहता है । टीकार्थ -- ज्ञानसे अन्य भावों में ऐसा अनुभव करना कि 'यह मैं हूं' वह प्रज्ञानचेतना है । वह दो प्रकारकी है— कर्मचेतना, कर्मफल चेतना । उनमें से ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में . ऐसा अनुभव करना कि 'इसको मैं करता है' यह कहै और ज्ञान के सिवाय अन्य भावों में ऐसा अनुभव करना कि 'इसको मैं भोगता हूं' यह कर्मफलचेतना है | वह समस्त ही श्रज्ञानचेतना संसारके बीजभूत आठ प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मका बीजपना होनेसे संसारका बीज है । इसलिये मोक्षको चाहने वाले पुरुषको प्रज्ञानचेतनाका नाश करनेके लिये सब कभ के छोड़ देनेकी भावनाको भाकर और समस्त कर्मोके फलके त्यागको भावनाको नृत्य कराकर स्वभावभूत भगवती एक ज्ञानचेतनाको निरन्तर नचाना चाहिये याने भाना चाहिये । वहाँ प्रथम हो सकल कर्मके संन्यासको भावनाको सातिशय भाता है उसको कलशरूप काव्य में कहते हैं - कृत इत्यादि । अर्थ- प्रतीत अनागत वर्तमानकाल सम्बन्धी सभी कर्मोंको कृम, कारित, अनुमोदना और मन, वचन, कायसे छोड़कर उत्कृष्ट निष्कर्म अवस्थाको में प्रवलम्बन करता हूं । भावार्थ - यहां त्रिकालविषयक कर्मपरिहार करने का भाव है प्रतिक्रमण, प्रालोचना व प्रत्याख्यान । सो त्रिकालविषयक सब कमके त्याग करनेके कृत कारित, अनुमोदना और मन, वचन, कायके ४९ भंग होते हैं । यहां अतीतकाल सम्बन्धी कर्मके त्याग करनेरूप प्रतिक्रमणके निम्नांकित ४६ भंग: कहते हैं - यवहं इत्यादि । अर्थ- जो मैंने मनसे, वचनसे तथा कायसे कर्म किया, कराया और दूसरेके द्वारा करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । (कर्म करना, कराना और करने वाले का अनुमोदन करना संसारका बीज है, यह जाम लेनेपर उस दुष्कृत के प्रति बुद्धि के कारण उससे ममत्व छूट जाना यो उसका मिथ्या करना है ) 1181, - 122 Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार म्यंमवलंबे ॥२२५॥ यदहमकार्ष यदचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च वाचा घ कायेन चेति तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥१॥ यदहमकार्ष यदचोकरं यत्कर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञास मनसा च वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कतामिति ॥२॥ यदहमकार्ष यदचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्य समन्वज्ञासं मनसा च कायेन चेति तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।। ३ ।। यदहमकार्ष यदचीकर यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा च कायेन चेति तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥४॥ यदहमका यदचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।। ५ ।। यदहमकार्ष यदचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ।। ६ ।। यदहमकार्ष यदचोकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥ ७ ।। यदहमकार्ष यदत्रीकरं मनसा च वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ||८|| यदहमकार्ष यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्यज्ञास मनसा च वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥६॥ यदहमचीकर यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च वाचा च कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ।। १० ।। यदहमकार्ष यदचोकर मनसा च वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति !॥११॥ यदहमकार्ष यत्कुदुहिद, य, ज, चेदा, त, त, पुणो, वि, वीय, दुक्ख, अविह। धातुसंज्ञ-कुण करणे, बंध बंधने, मुण ज्ञाने, जो मैंने मनसे तथा वचनसे किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।। २ ।। जो मैंने मनसे तथा कायसे किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।। ३ ।। जो मैंने वचनसे तथा कायसे किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥ ४ ॥ जो मैंने मनसे किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, यह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।। ५ ॥ जो मैंने वचनसे किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥६।। जो मैंने कायसे किया, कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन क्रिया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥७॥ जो मैंने मनसे, वचनसे तथा कायसे किया और कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥६॥ जो मैंने मनसे, वचनसे और कायसे किया और अन्य करते हुए को अनुमोदा वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥६॥ जो मैंने मनसे, वचनसे तथा कायसे कराया और अन्य करते हुएको अनुमोदा, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१०॥ जो मैने मनसे तथा वचनसे किया और कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥११॥ जो मैंने मनसे तथा वचनसे किया पौर अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१२॥ जो मैंने मनसे व वन से कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।१३।। जो मैंने मनसे तथा कायसे किया और कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१४॥ जो मैंने मनसे तथा Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार वंतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।। १२ । यदहमचीकर यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च वाचा च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥ १३ ॥ यदहमकार्ष यदचीकर मनसा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुधात भिति । हाल यजुर्वनामन्यं समन्वज्ञास मनसा च कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ।।१५।। यदहमचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्य समन्वज्ञासं मनसा च कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ।।१६।। यदमकार्ष यदचोकर वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।।१७।। यदहमका यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा च कायेन च तमिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥१८॥ यदहमचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥ १६ ॥ यदहमकार्षं यदचोकर मनमा च तन्मिध्या मे दुष्कृतमिति ॥ २०॥ यदहमकार्ष यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥ २१॥ यदहमचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च तस्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥२२॥ यदहमकार्ष यदचोकरं वाचा व तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥२३।। यदहमका यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥२४1। यदमचीकरं यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा त्र तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥२५॥ यदहमकार्ष यदचोकरं कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।।२६॥ यदहमकार्ष यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं कायेन च तन्मिथ्या हव सत्तायां । प्रातिपदिक -वैदयमान, कर्मफल, आत्मन्, यत्, तु, कर्मफल, तत्, तत्, पुनर, बीज, दुःख, कायसे किया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१५।। जो मैंने मनसे तथा कायसे कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत्त मिथ्या हो ।।१६।। जो मैंने वचनसे तथा कायसे किया और कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।१७।। जो मैने वचनसे तथा कायसे किया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥१८॥ जो मैंने वचनसे तथा कायसे कराया तथा अन्य करते हुएका मनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।१६।। जो मैंने मनसे किया और कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥२०॥ जो मैंने मनसे किया तथा अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।२१। जो मैंने मनसे कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।२२।। जो मैंने बचनसे किया और कराया वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥२३।। जो मैंने वचनसे किया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥२४॥ जो मैंने वचनसे कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया वह मेरा,दुष्कृत मिथ्या हो ॥२१॥ जो मैने कायसे किया और कराया तथा अन्य करते हुएका कुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥२६॥ जो मैंने कायसे किया और अन्य करते Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६१६ मे खुशामिति । २७५. सहर बीमार कुर्मरामायन्यं समन्वज्ञासं कायेन तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥२८॥ यदहमकार्ष मनसा च वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।। २६ ।। यदहमचोकरं मनसा च वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥३०॥ यस्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥३१॥ यदहमकार्ष मनसा च वाचा च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥३२॥ यदहमचीकर मनसा च वाचा च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥३६॥ यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च वाचा च तन्मिथ्या में दुष्कतमिति ॥३४॥ यदहमकार्ष मनसा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ।।३५|| यदहमचोकर मनसा च कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥३६॥ यत्कुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं मनसा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिनि ॥३७॥ यदहमकार्ष वाचा च कायेन च. तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥३८।। यदहमचीकरं वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥३६।। याकुर्वतमप्यन्यं समन्वज्ञासं वाचा च कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥४०॥ यदहमकार्ष मनसा च तन्मिध्या में दुष्कृतमिति । ४१। यदहमचीकर मनसा च तमिथ्या मे दुष्कृतमिति १४२॥ यत्कुर्वतमप्यन्यं अष्टविध, वेदयमान, कर्मफल, अस्मद्, कृत, यत्, तु, कर्मफल, तत्, तत्, पुनर्, बीज, दुःख, अष्टविध, हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥२७॥ जो मैंने कायसे कराया और अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । २८ ।। जो मैंने मनसे, वचनसे तथा कायसे किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥ २६ ॥ जो मैंने मनसे, वचनसे व कायसे कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।॥३०॥ जो मैंने मनसे, वचनसे तथा कायसे अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।३१॥ जो मैंने मनसे तथा वचनसे किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।३२।। जो मैंने मनसे तथा वचनसे कराया वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३३॥ जो मैंने मनसे तथा वचनसे अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३४॥ जो मैंने मनसे तथा कायसे किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३५॥ जो मैंने मनसे तथा कायसे कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३६॥ जो मैंने मनसे तथा काय से, अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३७॥ जो मैंने वचनसे तथा कायसे किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३८॥ जो मैंने बचनसे तथा कायसे कराया वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥३॥ जो मैंने वचनसे तथा कायसे अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥४०॥ जो मैंने मनसे किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।४१। जो मैंने मनसे कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो १४२। जो मैंने मनसे अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।।४३॥ जो मैंने वचनसे किया, वह मेरा Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० समन्वजास मनसा च तन्मिथ्या से दुष्कृतमिति ॥४३॥ तमिति ॥ ४४ ॥ यदहमचीकर वाचा च तन्मिथ्या में यदहमकार्षं वाचा च तन्मिथ्या में दुष्कृदुष्कृतमिति ||४५ || यत्कुर्वतमप्मन्यं समवज्ञासं बाचा च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥ ४६ ॥ यदहमकार्षं कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥ ४७ ॥ यदहमचीकरं कायेन च तन्मिथ्या में दुष्कृतमिति ॥४८॥ यत्कुर्वंतमप्यन्यं सम न्यज्ञास कायेन च तन्मिथ्या मे दुष्कृतमिति ॥ ४६ ॥ मोहाद्यदहमकार्ष समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य । श्रात्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ||२२७|| इति प्रतिक्रमण कल्पः समाप्तः । समयसार न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचाच कायेन चेति । १| न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा चेति |२| न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति । ३ । न करोमि न वेदयमान कर्मफल, सुखित, दुःखित, च यत्, चेतयितृ, तत् तत् पुनर् अपि, बीज, दुःख, अष्टविध । दुष्कृत मिथ्या हो ||४४ || जो मैंने वचनसे कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥ ४५ ॥ | जो मैंने वचनसे धन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ।। ४६ ।। जो मैंने कायसे किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ||४७|| जो मैंने कायसे कराया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ||४८ ॥ जो मैंने कायसे अन्य करते हुएका अनुमोदन किया, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ॥४६॥ अब इस भावको कलशरूप काव्य में कहते हैं— मोहाय इत्यादि । श्रर्थ- मैंने मोहसे जो कर्म किये हैं, उन समस्त कर्मीका प्रतिक्रमण करके में निष्कर्म याने समस्त कर्मोसे रहित चैतन्य स्वरूप ग्रात्मा में आत्माके द्वारा निरंतर बर्त रहा हूं । भावार्थ - भूतकाल में किये गये कर्मको ४६ भंगपूर्वक मिथ्या करने वाला प्रतिक्रमण करके ज्ञानी ज्ञानस्वरूप श्रात्मामें लोन होकर निरन्तर चैतन्यस्वरूप आत्माका अनुभव करे । इस प्रकार प्रतिक्रमण -कल्प याने प्रतिक्रमण किया जानेका विधान समाप्त हुआ । अब आलोचनाकल्प कहते हैं- मैं ममसे, वचन से तथा कायसे न तो करता हूं, न कराता हूं और न अन्य करते हुये का अनुमोदन करता हूं || १ || मैं मनसे, वचनसे न तो करता हूं, न कराता हूं, न श्रन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ||२|| मैं मनसे तथा कायसे न तो करता हूं, न कराता हूं, न श्रन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ||३|| मैं वचनसे तथा काषसे न तो करता हूं, न कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ||४|| मैं मनसे न तो करता हूं, न कराता हूं, न : : Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार कारयामि न कुर्वतमप्यन्य समनुजानामि वाचा च कायेन चेति ।४। न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति 1५न करोमि न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि बाचा चेति ।६। न करोमि नं कारयामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति १७ न करोमि न कारयामि मनसा च वाचा च कायेन चेति 1८। न करोमि न कुर्वन्तमप्यन्य समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।६। न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।१०। न करोमि न कारयामि मनसा च बाचा चेति ।११। न करोमि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा चेति ।१२। नं कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा चेति ।१३। न करोमि न कारयामि मनसा च काये चेति ।१४। न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति ।१५। न कारयामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति ।१६। न करोमि न कारयामि वाचा च कायेन चेति ।१७1 न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि बाचा च कायेन चेति ।१८। न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चेति ।१६। न करोमि न कारयामि मनसा चेति ।२०१ न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ।२१। न मूसधातु-हुकुत्र करणे, बन्ध बन्धने, मन ज्ञाने दिवादि, भू सत्तायां । पदविवरण–वेदतो बेदयमानः-- अन्य करते हुये का अनुमोदन करता हूं। मैं वचनोरमा, न कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं।६।। मैं कायसे न तो करता हूं, न कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ।।७।। मैं मनसे, बचनसे तया कायसे में करता हूँ, न कराता हूं ॥११॥ मनसे, वचनसे तथा कायसे न तो मैं करता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमो. दन करता हूं ॥६॥ मनसे, वचनसे तथा कायसे न मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥१०॥ मनसे तथा वचनसे न मैं करता हूं, न कराता हूं ॥११॥ मनसे तथा वचनसे न मैं करता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥१२॥ मनसे तथा वचनसे न तो मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥१३॥ मनसे तथा कायसे न मैं करता हूं, न कराता हूँ ॥१४॥ मनसे तथा कायसे न मैं करता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥१५॥ मनसे तथा कायसे न मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनु. मोदन करता हूं ॥१६॥ वधानसे तथा कायसे न मैं करता हूं, न कराता हूं ॥१७॥ बचनसे तथा कायसे न मैं करता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥१८॥ वचनसे तथा कायसे न मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥१६॥ मनसे न तो मैं करता हूं, न कराता हूं ॥२०॥ मनसे न मैं करता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ समयसार कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ।२२१ न करोमि न कारयामि बाचा चेति ।।३। न करोमि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा चेति १२४। न कारयामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि चाचा चेति ।२५। न करोमि न कारयामि कायेन चेति ।२६॥ न करोमि न कुर्वतमप्यन्य समनुजानामि कायेन चेति ।२७। न कारयामि ग कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि कायेन चेति ।२८। न करोमि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।२६। न कारयामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।३०। न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च वाचा च कायेन चेति 1३१॥ न करोमि मनसा च वाचा चेति ॥३२॥ न कारयामि मनसा च वाचा चेति ।३३। न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च बाचा चेति ।३४। न करोमि मनसा च कायेन चेति ।३५। न कारयामि मनसा च कायेन चेति ॥३६॥ न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि मनसा च कायेन चेति ।३७१ न करोमि वाचा च कायेन चेति ।३८। न कारयामि वाचा व कायेन चेति 1३६। न कुर्वतमप्यन्यं समनुजानामि वाचा च कायेन चेति :४० । न करोमि मनसा चेति ।४१॥ न कारयामि मनसा चेति ।४२। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि मनसा चेति ॥४३॥ न करोमि बाचा चेति 1४४। न कारयामि बाचा चेति ।४५। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुजानामि बाचा चेति प्रथमा एकवचन । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एक० । जो यः-प्रथमा हूं ॥२१॥ मनसे न मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥२२॥ वचनसे न मैं करता हूं, न कराता हूं ॥२३॥ वचनसे न मैं करता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥२४॥ वषनसे न मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥२५॥ कायसे न मैं करता हूं, न कराता हूं ॥२६॥ कायसे न मैं करता हूँ, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥२७।। कायसे न मैं कराता हूं, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ॥२८॥ मनसे, वपनसे तथा कायसे न में करता हूं ॥२६। मनसे, वधनसे तथा कायसे न • मैं कराता हूं ॥३०॥ मैं मनसे, वचनसे सया कायसे अन्य करते हुयेका अनुमोदन नहीं करता ॥३१।। मनसे तथा वचनसे न मैं करता हूँ ॥३२।। मनसे तथा वचनसे न मैं कराता हूं ॥३३॥ मनसे तथा वचनसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ।३४। मनसे तथा कायसे न मैं करता हूं।३५॥ मनसे तथा कायसे न मैं कराता हूं ।३६। मनसे तथा कायसे न मैं मन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ।३७ वचनसे तथा कायसे न मैं करता हूं ।३८) वचनसे तथा कायसे न मैं कराता हूँ ।३६। वचनसे. तथा कायसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूँ।१०। मनसे न मैं करता हूं ॥४१॥ मनसे न मैं कराता हूं ।४२। मनसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूं ।४३। वचनसे न में करता हूं।४४। वचनसे न में कराता Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार ६२३ | ४६| न करोमि कायेन चेति १४७॥ न कारयामि कायेन चेति ॥४८॥ न कुर्वन्तमध्यन्यं समनुनुजानामि कायेन चेति २४६| मोहविलासविजूभित सकलपालोच्य । भ्रात्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ २२७॥ इत्यालोचनाकल्पः समाप्तः । न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च धाचा च कायेन चेति |१| न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति |२| न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चेति | ३ | न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा व कायेन चेति |४| न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चेति | ५ | न करिष्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि बाचा चेति । ६३ न करिएक० । दु तु-अव्यय । कम्मफल कर्मफलं द्वितीया एक० । सो सः - प्रथमा एक० तं वि० एक० । पुणो हूं ॥४५॥ वचनसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूँ |४६| कायसे न में करता हूं ॥४७॥ कायसे न मैं कराता हूं ।४८। कायसे न मैं अन्य करते हुयेका अनुमोदन करता हूँ |४६ | ( इस प्रकार प्रतिक्रमण के समान आलोचनामें भी ४६ प्रङ्ग कहे ) । अब इस कथनको कलशरूप काव्य में कहते हैं:-मोहविलास इत्यादि । अर्थ- मोह के विलास से फैले हुए इस उदीयमान में कर्मको आलोचना करके मैं निष्कर्म चैतन्यस्वरूप आत्मा से आत्मा के द्वारा ही निरन्तर वर्त रहा हूं। भावार्थ --- वर्तमानकाल में जो कर्मको उदय श्रा रहा है, उसके विषयमें ज्ञानी यह विचार करता है कि पहले जो कर्म बांधा था उसका यह कार्य है, मेरा नहीं, मैं इसका कर्ता नहीं हूँ, मैं तो शुद्ध चैतन्यमात्र भ्रात्मा हूं । मेरी तो दर्शनशानरूप प्रवृत्ति है । उस दर्शन- ज्ञानरूप प्रवृत्तिके द्वारा मैं इस उदयामत कर्मको देखने, जानने वाला हूं । मैं अपने स्वरूप में ही प्रवर्तमान हूं। ऐसा अनुभव करना ही निश्चयचारित्र है । इस प्रकार आलोचना कल्प समात हुआ । अब टीकामें प्रत्याख्यान कल्प कहते हैं । प्रत्याख्यान करने वाला कहता है कि मैं मनसे, वचनसे तथा कायसे भविष्य में कर्म न तो करूंगा, न कराऊंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूँगा || १ || मनसे तथा वचनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊंगा, न मन्य करते हुये का अनुमोदन करूंगा ||२|| मनसे तथा कायसे में न तो करूंगा, न कराऊंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ||३|| वचनसे तथा कायसे में न तो करूंगा, न कराऊँगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूंगा ॥४॥ मनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊँगा, न धन्य करते हुएका अनुमोदन करूंगा ||५|| वचन से में न तो करूया न कराऊंगा, न अभ्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ||६|| कायसे में न तो कथा, ना Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ समयसार ध्यामि न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन चेति ।। न करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।८। न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञा. स्यामि मनसा च वाचा ध कायेन चेति ।। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा च कायेन चैति । १०। न करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा च वाचा चेति १११॥ न करिष्यामि न कुर्वन्तमप्यन्ये समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति ।१२। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति ।१३। न करिष्यामि न कारयिध्यामि मनसा च कायेन चेति ।१४। न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चेति ।१५। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन वेति १६॥ न करिष्यामि न कारयिष्यामि वाचा च कायेन चेति ।१७। न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा च कायेन चेति ।१८। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाया च कायेन चेति ।१६। न करिष्यामि न कारयिष्यामि मनसा चेति 1२०। न करिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चेति ।२१। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चेति ।२२। न करिष्यामि न कारयिष्यामि वाचा चेति ।२३। न करि यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ।२४। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं पुनः अव्यय । वि अपि-अव्यय । कुणदि करोति बंधइ बध्नाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । वीयं न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ७। मनसे, वचनसे तथा कायसे में न तो करूगा, न कराऊँगा ।। मनसे, वचनसे तथा कारसे में न तो करूंगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूगा 18 । मनसे, वचनसे, कायसे मैं न तो कराऊंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ।१०। मनसे तथा वचनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊंगा।११॥ मनसे व वचनसे मैं न तो करूगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ।१२। मनसे तथा वचनसे मैं न तो कराऊंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।१३। मनसे व कायसे मैं न तो करूंगा, न कराऊंगा ।१४। मनसे तथा कार्यसे में न तो करूंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूमा ।१५। मन से, कायसे में न तो कराऊंगा, न अत्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।१६। वचनसे तथा कायसे मैं न तो करूंगा, न कराऊंगा ।१७। मैं वचनसे तथा कायसे न तो करूंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूमा ११०१ वचनसे तथा कायसे न तो कराऊंगा, न अन्य करते हुये का अनुमोदन करूगा ।१६। मनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊँगा ।२०। मनसे मैं न तो करूंगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।२१। मैं मनसे न तो कराऊँगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।२२। वचनसे मैं न तो करूंगा, न कराऊँगा ।२३। बचनसे मैं न तो Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धशानाधिकार ६२५ समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ।२५। न करिष्यामि न कारयिष्यामि कायेन चेति ।२६। न करिध्यामि न कुर्वतमप्यन्य समनज्ञास्यामि कायेन ति ।२७। न कारयिष्यामि न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन चेति ।२८। न करिष्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।२६। न कारयिष्यामि मनसा च वाचा च कायेन चेति ।३। न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनमा च वाचा व कायेन चेति ।३११ न करिष्यामि मनसा च वाचा चेति ।३२. न कारयिष्यामि मनसा च वाचा चेति ।३३। न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च वाचा चेति ।३४। न करिष्यामि मनसा च कायेन चेति ।३५। न कारयिष्यामि मनसा च कायेन चेति ।३६। न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि मनसा च कायेन चेति ।३७। न करिष्यामि वाचा व कायेन चेति ।३८] न कारयिष्यामि वाचा च कायेन चेति ।३६। न कुर्वन्तमप्यन्यं समनुशास्यामि वाचा च कायेन चेति १४०। न करिष्यामि मनसा चेति ।४१५ न कारयिष्यामि मनसा चेति ।४ । न कुर्वतमप्यत्यं समनुज्ञास्यामि मनसा चेति ।४३। न करिष्यामि वाचा नेति ॥४४॥ न कारयिष्यामि वाचा चेति ।४५। न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि वाचा चेति ।४६। न करिष्यामि कायेन चेति ।४७। न कारयिष्यामि कायेन चेति ।४८। न कुर्वतमप्यन्यं समनुज्ञास्यामि कायेन चेति ।४६। प्रत्याख्याय दी हिनीया पतन । टुबमास दुःखस्प-लाडी एकवचन । अट्टविहं अष्टविध-द्वितीया एकचवन । करूगा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।२४। वचनसे मैं न तो कराऊँमा, न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।२५। कायसे मैं न तो करूंगा, न कराऊँगा १२६। कायसे मैं न तो करूंगा, न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूगा ।२७। कायसे मैं न तो कराऊंगा, न अन्य करते हुये का अनुमोदन करूगा ।२८। मनसे, वचनसे तथा कायसे मैं न करूंगा ।२६ । मन से, वचनसे तथा कायसे न कराऊंगा ।३०। मनसे, वचनसे तथा कायसे मैं न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ।३१। मनसे तथा वचनसे मैं न तो करूंगा ।३२१ मनसे तथा वचनसे मैं न कराऊंगा ।३३। मनसे तथा वचनसे मैं न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा ।३४। मनसे तथा कायसे में न करूंगा ।३५१ मनसे तथा कायसे मैं न कराऊँमा ।३६। मनसे तथा कायसे मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूंगा।३७। वचनसे तथा कायसे न करूगा ।३८। वचनसे तथा कायसे मैं न कराऊंगा ।३६। वचनसे तथा कायसे मैं न अन्य करते हुये का अनुमोदन करूगा ।४० मनसे मैं न करूंगा ।४१। मनसे मैं न कराऊंगा ।४२। मनसे मैं न अत्य करते हुयेका अनुमोदन करूगा । ४३। वचनसे मैं न तो करूगा ।४४। वचनसे में न कराऊँगा ।४५॥ वचनसे मैं न अन्य करते हुयेका अनुमोदन करूंगा ।४६। कायसे मैं न तो करूगा !४७। कायसे मैं न कराऊँगा ।४। कायसे मैं न अन्य करते हुएका अनुमोदन करूगा ।४६। (इस Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२६ समयसार भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोहः । प्रात्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥२२८॥ इति प्रत्याख्यानकल्पः समाप्तः । समस्तमित्येवमपास्य कर्म कालिकं शुद्धनयावलंबी। विलीनमोहो रहितं विकारैश्चिन्मात्रमात्मानमथावलंबे ॥२२६॥ ___ अथ सकलकर्मफलसंन्यासभावनां नाटयति । विगलंतु कर्मविषतरुफलानि मम भुक्तिमंतरेणेव । संचेतयेऽहमचलं चैतन्यात्मानमात्मानं ॥२३०॥ नाहं मतिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।११ नाहं श्रुतज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।२। नाहमवधिज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।३. नाहं मनःपर्य यज्ञानाबरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।४। नाहं केवल ज्ञानावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।। नाहं चक्षुर्दर्शनावरणीय. कमफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतयं ।६। नाहमचक्षुर्दर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ।। नाहमवधिदर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मावेदंतो वेदयमानः-प्रथमा एकवचन । कम्मफलं कर्मफलं-द्वितीया एकवचन : सुहिदो सुखित:-प्रथमा एकप्रकार प्रतिक्रमणके समान हो प्रत्याख्यानमें भी ४६ भङ्ग कहे)। अब इस अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-प्रत्याख्याय इत्यादि । अर्थ-(प्रत्याख्यान करने वाला ज्ञानी कहता है कि) भविष्यके समस्त कर्मोका प्रत्याख्यान (त्याग) करके, जिसका मोह नष्ट हो गया है, ऐसा मैं निष्कर्म अर्थात् समस्त कर्मोसे रहित चैतन्यस्वरूप मात्मामें प्रात्माके द्वारा ही निरंतर बर्त रहा हूं। भावार्थ-निश्चयचारित्रमें प्रत्याख्यानका विधान ऐसा है कि-समस्त प्रागामी कर्मोंसे रहित, चैतन्यको प्रवृत्तिरूप अपने शुद्धोपयोगमें रहना सो प्रत्याख्यान है । इस प्रकार प्रत्याख्यानकल्प समाप्त हुमा । अब समस्त कर्मोके संन्यास (त्याग) को भावनाको नचानेके सम्बन्धका कथन उपसंहार कलशरूप काव्यमें करते है--समस्त इत्यादि । अर्थ---पूर्वोक्त प्रकारसे तीनों कालके समस्त कर्मोको दूर करके, शुद्धनयावलम्बी और विलीनमोह में प्रब सर्वविकारोसे रहित चैतन्यमात्र प्रात्माका अवलम्बन करता हूं ॥२२६।। अब समस्त कर्मफलसंन्यासकी भावनाको नचाते हैं— उसमें प्रथम, उस कथनके समुच्चय अर्थको काव्यमें कहते हैं--विमलंतु इत्यादि । अर्थ-कर्मरूपो विषवृक्षके फल मेरे द्वारा भोगे बिना ही खिर जायें; मैं अपने चैतन्यस्वरूप मात्माका निश्चयतया संचेतन (अनु. भव) करता हूं। भावार्थ-ज्ञानी कहता है कि जो कर्म उदयमें प्राता है उसके फलका में मात्र ज्ञाता द्रष्टा हूं, उसका भोक्ता नहीं इसलिये मेरे द्वारा भोगे बिना ही वे कर्म खिर जाएं, Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार नमात्मानमेव संत नाहं केवलदर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये || नाहं निद्रादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १० | नाहं निद्रानिद्रादर्शनावरणीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | ११ | नाहं प्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १२ | नाहं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीयकर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १३ नाहं त्यानगृद्धिदर्शनावर सोपकर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेत्र संचेतये | १४| नाहं सातावेदनीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १५ | नाहमसातावेदनीयकर्मफलं भुजे येतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १६ | नाहं सम्यक्त्वमोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १७| नाहं मिथ्यात्वमोहनीयकर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | १८| नाहं सम्यक्त्वमिथ्यात्वमोहनीय कर्मवचन । दुहिदो दुःखितः प्रथमा एकवचन । य च - अव्यय । वदि भवति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन मैं अपने चैतन्यस्वरूप श्रात्मामें लीन होता हुग्रा उसका ज्ञाता द्रष्टा ही होऊं । यहाँ यह जानना कि अविरत देशविरत तथा प्रमत्तसंयत दशामें ऐसा ज्ञान श्रद्धान हो प्रधान है और जब जीव श्रप्रमत्त दशाको प्राप्त होकर श्रेणी चढ़ता है तब यह अनुभव साक्षात् होता है । मैं ( ज्ञानरत ) मतिज्ञानावरणीय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूँ अर्थात् एकाग्रता अनुभव करता हूँ |१1 में श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप आत्माका ही संचेतन करता हूं । २। मैं भवधिज्ञानावरणीय कर्मके०, चैतन्यस्वरूप० । ३ में मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मके०, चैतन्यस्वरूप० 1४| मैं केवलज्ञानावरणीय कर्मके० चैतन्यस्वरूप० |५| ६२७ 1 मैं क्षुदर्शनावरणीय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप श्रात्माका ही संचेतन करता हूँ | ६| मैं प्रचक्षुदर्शनावरणीय कर्मके, चैतन्य० 1७1 में अवधिदर्शनावरणीय कर्मके ०, चैतन्य० 11 में केवलदर्शनावरणीय कर्मके ०, चैतन्य० 181 मैं निद्रादर्शनावरणीय कर्मके ०, चैतन्य |१०| मैं निद्रानिद्रादर्शनावरणीय कर्मके०, चैतन्य० १११। मैं प्रचला दर्शनावरणीय कर्मके० चैतन्य० | १२| मैं प्रचलाप्रचलादर्शनावरणीय कर्मके० चैतन्य० ११३ में स्त्यानगृद्धिदर्शनावरणीय कर्मके ०, चैतन्य० ॥१४॥ 0 मं सातावेदनीय कर्मके फलको नहीं भोगता, डचैतन्यस्वरूप प्रारमाका हो संचेतन करता हूं | १५ | मैं असातावेदनीय कर्मके०, चैतन्य० | १६ | मैं सम्यक्त्वमोहनीय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप श्रात्माका ही संचेतन करता हूं | १७| मैं मिथ्यात्व मोहनीयकर्मके० | १५ | मैं सम्यक्त्वमिथ्यात्व मोहनीय कर्मके ० Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ समयसार फलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये ॥१६॥ नामनन्तानुबंधिक्रोधकषाय वेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | २० | नाहमप्रत्याख्यानावरणीय क्रोधकषाय वेदनीय मोहनीय कर्मफल भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | २११ नाहं प्रत्याख्यानावरणीयक्रोधकषाय वेदनीय मोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | २२ | नाहं संज्वलनक्रोधकषाय वेदनीय मोहनीय कर्मफलं भुंजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | २३ | नाहमनन्तानु. बंधिमानकषाय वेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | २४| नाहमप्रत्याख्यानावरणीय मानकषाय वेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्यात्मानमात्मानमेव संचेतये | २५ ॥ नाहं प्रत्याख्यानावरणीय मानकषायवेदनीय मोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्या० । ६ । नाहं संज्व• लनमानकषाययेदनीय मोहनीयकर्मफलं भुजे चैतन्या० | २७| नाहमनन्तानुबंधि मायाकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्या० |२८| नामप्रत्याख्यानावरणीय मायाकषाय वेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे चैतन्या० १२६| नाहं प्रत्याख्यानावरणीय मायाकषाय वेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे चैतन्या० |३०| नाहं संज्वलनमायाकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे चैतन्या० 1३१1 नाहमतानुबंधिलोभकषाय वेदनीय मोहनीय कर्मफलं मुंजे० : ३२ | नाहमप्रत्याख्यानावरणीय लोभकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं ० । ३३ । नाहं प्रत्याख्यानावरणीयलोभकषायवेदनीय मोहनीय कर्मफलं भुजे |३४| नाहं संज्वलन लोभकषायदे दनीय मोहनीय कर्मफलं भुजे० ॥३५॥ नाहं हास्यनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे० | ३६ | नाहं रतिनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुंजे ० १३७| क्रिया । जो यः प्रथमा एकवचन | चेदा चेतयिता - प्रथमा एकवचन । सो सः - प्रथमा एकवचन | तं| १६ | मैं अनन्तानुबन्धी क्रोधकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० | २०| मैं प्रप्रत्याख्यानावरणीय क्रोधावेदनीय मोहनीय कर्मके० | २१| मैं प्रत्याख्यातावरणीय क्रोधकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके ० 1२२1 में संज्वलन क्रोधकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके ० | २३| मैं अनन्तानुबन्धी मानकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० | २४| मैं प्रत्याख्यानावरणीय मानकषाय वेदनीय मोहनीय कर्म के० । २५ । मैं प्रत्याख्यानावरणीय मानकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके० । २६ । मैं संज्वलन मानकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके ० | २७| मैं प्रनन्तानुबंधी मायाकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके ० | २८ मैं प्रत्याख्यानावरणीय मायाकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके ० | २६| में प्रत्याख्यानावरणीय मायाकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके ० |३०| मैं संज्वलन मायाकषाय वेदनीय मोहनीय कर्म के | ३१ | मैं अनन्तानुबन्धो लोभकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके० 1३२| मैं प्रत्याख्यानावरणीय लोभकषायवेदनीय मोहनीय कर्मके ० |३३| मैं प्रत्याख्यानावरणीय लोभकषाय वेदनीय मोहनीयकर्म के ० ० १३४ | मैं संज्वलन लोभकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके ० |३५| में हास्यनीकषायवेदनीय 0 Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार नाहं परतिनोकषायबेदनीयमोहनीयकर्मफलं भजे० ३८। नाहं शोकनोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुंजे० ।३। नाहं भयनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे० ॥४०॥ नाहं जुगुप्सानोकषायवेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे० । लाहं स्त्रीवदनाकषायवदनायमोहनीय फलं भुजे० ।४२। नाहं पुवेदनोकषायवेदनीयमोहनीय कर्मफलं भुजे० ॥४३॥ नाहं नपुंसकवेदनोकषायबेदनीयमोहनीयकर्मफलं भुजे० ॥४४नाहं नरकायुःकर्मफलं भुजे० १४५॥ नाहं तिर्यगायुःकर्मफलं' भुंजे ०४६। नाहं मानुषायु:कर्मफलं भुजे०।४७I नाहं देवायुःकर्मफलं भुजे० ।४८) नाहं नरकगतिनामकर्मफलं भुजे० ।४६ । नाहं मनुष्यगतिनामकर्मफलं भुजे०।४६ । नाहं तियंगतिनामकर्मफलं भुजे० ।५०। नाहं मनुष्यगतिनामकर्मफलं भुजे ॥५१॥ नाहं देवगतिनामकर्मफलं भुजे० १५२। नाहमेकेन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे० ।५३। माहं द्वोन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे० ।५४॥ नाहं त्रीन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे० ॥५५॥ नाहं चतुरिन्द्रियजातिनामकर्मफलं भुजे० ।५६। नाहं पञ्चेन्दियजातिनामकर्मफलं भुजे० ।५७) नामोदारिकशरीरनामकर्मफलं भुजे० ।५८। नाहं वक्रियिकशरीरनामकर्मफलं भुजे० ।५९। नाहमाहारकशरीरनामकर्मफलं भुजे० १६०। नाहं तेजसशरीरनामकर्मफलं भुजे० १६१। नाहं कार्मणशरीरनामकर्मफलं भुजे० ।६२। नाहमौदारिकशरोरांगोपांगनामकर्मफलं भुजे ।६३। नाहं वैऋियिकशरीरांगोपांगनामकर्मद्वि० ए० । पुणो पुन:-अव्यय । वि अपि अव्यय । वीयं बीज-द्वितीया एकवचन। दुक्खस्स दुःखस्य-षष्ठी मोहनीयकर्मके० ।३६। मैं रतिनोकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके ० ३७। मैं अरतिनोकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० ३८। मैं शोकनोकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० १३६। मैं भयनोकषाय वेदनीय मोहनीयकर्मके० ।४01 मैं जुगुप्सानोकषायवेदनीय मोहनीयकमके० ॥४१॥ मैं स्त्रीवेदनोकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० ॥४१॥ मैं पुरुषवेदनोकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० ॥४३॥ मैं नपुंसकवेदनोकषायवेदनीय मोहनीयकर्मके० १४४॥ मैं नरकायु कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप प्रात्माका ही संचेतन करता हूं ।४५। मैं तिर्यंचायु कर्मके० ।४६। मैं मनुष्यायु कर्मके० ।४७। मैं देवायु कर्म के० ।४।। ___ मैं नरकगतिनामकर्मके. फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप प्रात्माका ही संचेतन करता हूं ।४६। मैं तिथंचगतिनामकर्मके० १५०। मैं मनुष्यगतिनामकर्मके० १५१। मैं देवगतिनामकर्मके० ।५२। मैं एकेन्द्रियजाति नामकर्मके० ॥५३॥ मैं द्वीन्द्रियजाति नामकर्मके० ।५४। मैं त्रीन्द्रिय जाति नामकमंके० १५५। मैं चतुरिन्द्रियजाति नामकर्मके० ॥५६। मैं पञ्चेन्द्रियजाति नामकर्मके० ।५७। मैं प्राहारकशरीर नामकर्मके० ।५८३ में क्रियिकशरीर नामकर्मके. ॥५६॥ मैं माहारकशरीरतामकर्मके०६०। मैं तैजसशरीरनामकर्म०६१। मैं कामरणशरीर Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० समयसार फलं भुजे १६४ नाहमाहारकशरीरांगोपांगनामकर्मफलं भुजे० ।६५। नामोदारिकशरीरबंध. ननामकर्मफलं भुजे० ।६६। नाहं वैऋियिकशरीरबंधननामकर्मफलं भुजे० ।६७. नाहमाहारकशरीरबंधननामकर्मफलं भुने०.६८) नाहं तैजसशरीरबन्धननामकर्मफलं भुजे० ॥६६॥ नाहं कामगाशरोरबन्धननामकर्मफलं भुजे० ।०। नामोदारिकशरीरसंघासनामकर्मफलं भुजे० ।७१। नाहं बैंक्रियिकशरीरसंघातनामकर्मफलं भुजे० ॥७२॥ नाहमाहारकशरीरसंघातनामकर्मफलं भुजे०७३। नाहं तेजसशरीरसंथातनामकर्मफलं भुजे० १७४१ नाहं कार्मणशरीरसंघात. नामकर्मफलं भुजे० ७५। नाहं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मफलं भुजे० १७६१ नाहं न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थाननामकर्मफलं भुजे० ७७। नाहं स्वातिसंस्थाननामकर्मफलं भुजे० ७८। नाह कुब्जकसंस्थाननामकर्मफलं भुजे ।७६। नाहं वामनसंस्थाननामकर्मफलं भुजे० ।५०। नाहं हुंडकसंस्थाननामकर्मफलं भुजे०1८१ नाहं ववर्षभनाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे० १८२॥ नाहं वजनाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे० ।५३। नाहं नाराचसंहनननामकर्मफलं भुजे०।४। नाहमर्धनाराचसंहनननागकर्मफलं भुजे० ८५ नाहं कोलिकासंहनन नामकर्म फलं भूजे० १६६। नाहमसंप्राप्तामृपाटिकासंहनननामकर्मफलं भुजे० ८७ नाहं स्निग्धस्पर्शनामकर्मफलं भुजे० 11८। नाहं पक्षस्पर्शनामकर्मफलं भुजे ।। नाहं शोतस्पर्शनामकर्मफलं भुजे० ९०) नाहवचन । अट्टविहं अष्टविध-द्वितीया एकवचन ॥ ३८७-३८६ ॥ नामकर्मके ० ॥६२। मैं प्रौदारिकशरीरांगोपांग नामकर्मके० ।६३। मैं वैकियिकशरीरांगोपांग नामकर्मके० ।६४॥ मैं आहारकशरीरांगोपांग नामकर्मके १६५। मैं प्रौदारिकवरोरबंधन नामकर्मके०६६। मैं वैक्रियिकशरीरबंधन नामकर्मके० ।६७। मैं प्राहारकशरीरबन्धन नामकर्मको ।६८) में तैजसशरीरबन्धन नामकर्मके० ।६६। मैं कार्मरणशरीरबन्धन नामकर्मके० ७०। मैं प्रौदारिकशरीरसंघात नामकर्मके० ७१! मैं बैंक्रियिकशरीरसंघास नामकर्मके०७२। मैं पाहारकशरीरसंघात नामकर्मके० ।७३। मैं तेजसशरीरसंघात नामकर्मके०७४। में कामरणशरीरसंघात नामकर्मके ० ७५३ में समचतुरस्रसंस्थान नामकर्मके० ७६ में न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान नामकर्मके० ७७। मैं स्थातिसंस्थान नामकमंके० १७८। में कुजकसंस्थान नामकर्मके. liveमैं वामनसंस्थान नामकर्मके० १८०। मैं हुण्डकसंस्थान नामकमके० |८१६ मैं दप्तर्षमबायपहनन नामकमंके० ।२। मैं वशनाराचसंहनन नामकर्मके० ।। मैं नाराचसंहनन नामकर्मके I मैं अर्धनाराषसंहनन नामकर्मके० ८५, मैं कोलिकासंहनन नामकर्मके. ६) में प्रसम्प्राप्तामृपाटिकासंहनन नामकर्मके ० ८७। मैं स्निग्धस्पर्श नामक के. १८८ मैं ससस्पर्श नामकर्मके० ।। मैं शोतस्पर्श नामकर्मके ० ६ ० मैं उष्णस्पर्श नामकर्मके० ।।११ Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार ६३१ मुस्पर्शनामकर्मफलं भुजे |१| नाहं गुरुस्पर्शनामकर्मफल ॥६२॥ नाहं लघुस्पर्शनामकर्मफलं भुजे ॥ ६३॥ नाहं मृदुस्पर्शनामकर्मफलं भुजे ६४ | नाहं कर्कशस्पर्शनामकर्मफलं भुजे० ५। नाहं मधुररसनामकर्मफलं भुजे० | १६ | नाहमम्लरसनामकर्मफलं भुजे० ॥६७॥ नाहं तिक्तरसनामकर्मफलं भुजे० ६८| नाहं वटुकरसनामकर्मफलं भुजे ॥ ६६। नाहं कषायरसनामकर्मफलं भुजे० ११०० । नाहं सुरभिगन्धनामकर्मफलं भुजे० | १०११ नाहमसुरभिगन्धनामकर्मफलं भुजे ११० २ | नाहं शुक्लवर्णनामकर्मफलं भुजे० | १०३ | नाहं रक्तवर्णनामकर्मफलं भुजे० ११०४ । नाहं पीतवर्णनामकर्मफलं भुजे० | १०५ । नाहं हरितवर्णनामकर्मफलं भुजे ॥१०६ ॥ नाहं कृष्णवर्णनामकर्मफलं भुजे० | १०७ । नाहं नरकगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजै० | १०८ ॥ नाहं तिर्यग्गत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे० ११०६॥ नाहं मनुष्यस्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजेल । ११० । नाहं देवगत्यानुपूर्वीनामकर्मफलं भुजे० | १११ । नाहं निर्माणनामकर्मफलं भुजे । ११२ । नाहमगुरुलघुनामकर्मफलं भुजै० १११३ । नाहमुपघात नामकर्मफलं भुजे० ११४। नाहं परघातमामकर्मफलं भुजे० | ११५१ नाहमातपनामकर्मफलं भुजे० | ११६ । नाहमुद्योतनामकर्मफलं भुजे० | ११७ । नाहमुच्छ्वासनामकर्मफलं भुजे० | ११६ । नाहं प्रशस्त विहायोगविनामकर्मफलं मुजे० | ११६। नाहमप्रशस्त विहायोगतिनामकर्मफल भुजे० । १२० । नाहं साधारणशरीरनामकर्मफलं भुंजे० | १२१ । नाहं प्रत्येकशरीरनामकर्मफलं भुजे० | १२२| नाहं स्थावरनामकर्मफलं नामसंज्ञ - सत्य, णाण, ण, ज, सत्य, ण, किंचित, अण्ण, णाण, अण्ण, सत्थ, जिण, सह, णाण, मैं गुरुस्पर्श नामकर्मके० 181 में लघुस्पर्श नामक संके० | ११ | मैं मृदुस्पर्श नामकर्मके० | १४ | मैं セ · स्पर्श नामकर्मके० १६५ मैं मधुररस नामकर्मके० ॥ ६६। मैं अम्लरस नामकर्मके ० ७ मैं तिक्तरस नामकर्मके० [ ६८ ] मैं कटुकरस नामकर्मके ० [१६] मैं कषायरस नामकर्मके० १००। मैं सुरभिगन्ध नामकर्मके० ।१०१। मैं प्रसुरभिगन्ध नामकर्मके । १०२ में शुक्लवर्ण नामकर्मके ।१०३। मैं रक्तवर नामकर्मके ० ११०४ | मैं पीतदर्श नामकर्मके । १०५ | मैं हरितवर्ण नामकर्मके० । १०६ । मैं कृष्णवर्ण नामकर्मके ० | १०७ | मैं नरकगत्यानुपूर्वी नामकर्म के० ११०८ | मैं तियंचगत्यानुपूर्वी नामकर्मके ० ११०६। मैं मनुष्यगत्यानुपूर्वी नामकर्मके ।११०१ मैं देवस्थानुपूर्वी नामकर्मके० | १११| मैं निर्माण नामकर्मके० | ११२१ मैं अगुरुलघु नामकर्म के० १११३ | मैं उपधात नामकर्मके० | ११४ | मैं परघात नामकर्मके ० | ११५ । मैं प्रतप नामकर्मके ० | ११६ | मैं उद्योत नामकर्मके ० | ११७| मैं उच्छवास नामकर्मके ० | ११ | मैं प्रशस्तविहायोगति नामकर्मके० | ११६ | मैं अप्रशस्तविहायोगति नामकर्मके० ११२० मैं साधारणसरोर नामकर्मके ।१२१। मैं प्रत्येकशरीर नामकर्मके० | १२२ में स्थावर नामकर्म · Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार भुजे० ११.३नाहं त्रसनामकर्मफलं भुखे० ३१२४। नहिं सुभगनामकर्मफलं भुजे० १५५१ नाहं दुर्भगनामकर्मफलं भुजे० ।।२६। नाहं सुस्वरनामकर्मफलं भुजे० ।१२७ नाहं दुःस्वर• नामकर्म फलं भंजे० १२८ नाहं शुभनामकर्षफलं भजे ॥१२६। नाहमशुभनामकर्मफलं भुजे० ११३०। नाहं सूक्ष्मशरीरनामकर्मफलं भुजे० ।१३१। नाहं वादरशरीरनामकर्मफलं भुंजे० ११३२१ नाहं पर्याप्तनामकर्मफलं भुजे० ।१३३। नाहमपर्याप्तनामकर्मफलं भुजे० ।१३४। नाहं स्थिरनामकर्मफलं भुजे० ।१३५॥ नामस्थिरनामकर्मफलं भुंजे० ॥१३६। नाहमादेयनामकर्मफलं भुं० । १३७ नाहमनादेयनामकर्मफलं भुजे० ११३८। नाहं यश:कोतिनामकर्मफलं भुजे. ॥१३६। नाहमयश कीर्तिनामकर्मफलं भुजे०।१४०। नाहं तीर्थंकरवनामकर्मफलं भुंजे० १४१। नाहमुच्चैर्गोत्रकर्मफलं भुजे० ।१४२। नाहं नोचंगोत्रकर्मफलं भुजे०।१४३। नाहं दानांतरायकर्मफलं भुजे० ।१४४। नाहं लाभांतरायकर्मफलं भुजे० ।१४५। नाहं भोगांतरायकर्मफलं भुजे० ११४६। नाहमुपभोगांतरायकर्मफलं भुजे० ।१४७। नाहं वीर्यात रायकर्मफलं भुजे० ११४८।। निश्शेषकर्मफलसंन्यसनान्ममैव सर्वक्रियांतरविहारनिवृत्तवृत्तः । चैतन्यलक्ष्म भजतो भशमात्मतत्त्वं कालावलीयमचलस्य वहत्वनंता ।।२३१॥ य: पूर्वभावकृतकर्मविषद्रुमागां भुक्ते ण, ज, सद्द, रूब, वण्ण, गंध, रस, फास, कम्म, धम्म, अधम्म, काल, आयास, पि, यास, ण, अन्झवसाण, के० ३१२३। मैं अस नामकर्मके |१२४। मैं सुभग नामकर्मके० ।१२५। मैं दुर्भग नामकर्मके. ११२६। मैं सुस्वर नामकर्मके० ।१२७। मैं दुःस्वर नामकर्मके० ।१२८। मैं शुभ नामकर्मके. । १२६ । मैं अशुभ नामकर्मके० ११३०। मैं सूक्ष्मशरीर नामकर्मके० ॥१३१। मैं वादरशरीर नामकर्मके ०।१३२॥ मैं पर्याप्त नामकर्मके० ११३३। मैं अपर्याप्त नामकर्मके०।१३४। मैं स्थिर नामकर्मके० ॥१३५। मैं अस्थिर नामकर्मके० ॥१३६। मैं प्रादेय नामकर्मके० ॥१३७। मैं अनादेय नामकर्मके० ।१३। मैं यशःकीति नामकर्मके० । १३६ ! मैं अयशःकीर्ति नामकर्मके. ११४०। मैं तीर्थंकर नामकर्मके० ११४१। ___ मैं उच्चगोत्र नामकर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप प्रात्माका हो संचेतन करता हूं।१४२। मैं नीचगोत्र नामकर्मके. १४३॥ ___ मैं दानांतराय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप मात्माका ही संचेतन करता हूँ।१४४। मैं लाभांतराय कर्मके० ।१४५। मैं भोगांतराय कर्मके० ।१४६। मैं उपभोगांतराय कर्मके० ।१४७। मैं वीर्यातराय कर्मके फलको नहीं भोगता, चैतन्यस्वरूप प्रात्माका ही संचेतन करता हूं ॥१४८। इस प्रकार ज्ञानी सकल कोके फलके संन्यासकी भावना करता है यहां भावनाका अर्थ बारम्बार चितवन करके उपयोगको ज्ञानाभिमुख रखनेका अभ्यास करना है। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार फलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । आपातकालरमणीयमुदरम्यं निष्कर्मशर्ममयमेति दशातरं सः ॥२३२॥ अत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाचच प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनअचेदण, ज, णिचं, त, जीव, दु, जाणअ, णाणि, णाण, च, जापाअ, अन्वदिरित्त, मुणेयब्व, णाण, सम्माजब जीव सम्यग्दृष्टि–जानी होता है तब उसे ज्ञान बद्धान तो हुना ही है कि 'मैं शुद्धनयसे समस्त कर्म और कर्मके फलसे रहित हूं ? परन्तु पूर्वबद्ध कर्म उदयमें आनेपर उनसे होने वाले भावोंका कर्तृत्व छोड़कर, त्रिकाल सम्बन्धी ४६-४६ भंगों द्वारा कर्मचेतनाके त्यागको भावना करके तथा समस्त कर्मोका फल भोगनेके त्यागको भावना करके, एक चैतन्यस्वरूप प्रात्माको ही भोगना शेष रह जाता है। अविरत, देशविरत और प्रमम अवस्था वाले जीवके जान-श्रद्धान में निरंतर यह भावना तो है ही; और जब जीव अप्रमत्तदशाको प्राप्त करके एकाग्रचित्तसे ध्यान करे, केवल चैतन्यमान अवस्थामें उपयोग लगाये और शुद्धोपयोग रूप हो, तब निश्चयचारित्ररूप शुद्धोपयोग भावसे श्रेणी चढ़कर केवल ज्ञान प्राप्त करता है । उस समय इस भावना का फल जो कर्मचेतना और कर्मफलचेतनासे रहित साक्षात् ज्ञान चेतना रूप परिणमन है सो होता है । पश्चात् आत्मा अनन्तकाल तक ज्ञानचेतना रूप ही रहता हुप्रा परमानन्दमें मग्न रहता है। अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं--नि:शेष इत्यादि । अर्थ---पूर्वोक्त प्रकारसे सकल कर्मोंके फलका संन्यास (त्याग) करनेसे चैतन्य लक्षण बाले प्रात्मतत्त्वको हो अतिशयतया भोगते हुए और अन्य उपयोगकी क्रिया तथा बाह्यकी क्रियामें प्रवृत्तिसे रहित बर्तने वाले अचल मुझ मात्माके यह कालकी प्रावली अनंत प्रवाहरूप बहो अर्थात् समरत काल आत्मतत्त्वके अनुभवमें व्यतीत होवे । भावार्थ-ऐसी भावना करने वाला ज्ञानी ऐसा तृप्त हुअा है कि भावना करते हुए मानो साक्षात् केवली हो हो गया हो । सो अनन्तकाल तक ऐसा हो रहना चाहता है। यह योग्य ही है; क्योंकि इसी अन्तस्तत्त्वको भावनासे आत्मा केवली होता है । केवलज्ञान उत्पन्न होनेका परमार्थ उपाय यह अन्तस्तत्वका अवलम्बन है, बाह्य व्यवहारचारित्र इसीका साधन रूप है। इस सहजारमावलम्बनके बिना व्यवहारचारित्र शुभकर्मको बांधता है, मोक्षका उपाय नहीं है। अब पुन: यही भाव काव्यमें कहते हैं-यः पूर्व इत्यादि । अर्थ-पूर्वकालमें अज्ञान भावसे किये कर्मरूप विषवृक्षके उदय प्राये हुये फलको जो स्वामी होकर नहीं भोगता और वास्तव में अपने प्रात्मस्वरूपसे ही तृप्त है, वह पुरुष वर्तमानकालमें रमणीय तथा आगामी कालमें रम्य निष्कर्म स्वाधीन सुखमयी अलौकिक दशाको प्राप्त होता है। भावार्थ-ज्ञान Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार मखिलाज्ञानसंचेतनायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतना स्वां सानंदं नाटयंतः दिहि, दु, संजम, सुत्त, अगपुव्वगय, धम्माधम्म, च, तहा, पव्वज्ज, बुह । धातुसंज्ञ-हव सत्तायां, जाण चेतनाको भावनासे अत्यन्त तृप्ति रहती है, और प्रागामो कालमें केवलज्ञान उपार्जन कर सब कोसे रहित मोक्ष अवस्थाकी प्राप्ति होती है। अब पुनः इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं-प्रत्यंतं इत्यादि । अर्थ-ज्ञानीजन निरन्तर कर्मसे तथा कर्मके फलसे प्रत्यन्त विरतिको भाकर, और समस्त प्रमानचेतनाके नाशको स्पष्टतया नचाकर निजरससे प्राप्त स्वभावको पूर्ण करके मानन्दके साथ जैसे हो उस तरह ज्ञानचेतनाको कराते हुए अब यहाँसे कर्मके प्रभावरूप प्रात्मोक रसरूप अमृतरसको सदाकाल पीवो । भावार्थ- पहले तो तीनकाल संबंधी कर्मका कर्तृत्वरूप कर्मचेतनाके ४६ भंग रूप त्यागकी भावना की फिर १४८ कर्मप्रकृतियोंका उदयरूप कर्मफलके त्यागको भावना को । ऐसे अज्ञानचेतनाका प्रलय कराके ज्ञानचेतनामें प्रवर्तनेका पौरुष किया है । यह ज्ञानचेतना सदा दिल्प अपने स्वभावका अनुभवरूप. है । उसको ज्ञानोजन सदा भोगो। अब परद्रव्य व परभावोंसे ज्ञानको पृथक् काव्यमें दिखलाते हैं-- इतः पदार्थ इत्यादि । अर्थ----यहाँसे अब सब वस्तुनोंसे भिन्नत्वके निश्चयसे पृथक् किया गया ज्ञान पदार्थके विस्तार के साथ गुथित होनेसे याने ज्ञेयज्ञानसम्बन्धबश एकमेक जैसा दिखाई देनेसे उत्पन्न होने वाली कर्तृत्वभावरूप क्रियासे रहित एक ज्ञान क्रियामात्र मनाकुल देदीप्यमान होता हुमा ठहरता है। भावार्थ-इस सर्वविशुद्ध ज्ञानाधिकारमें अब तक ज्ञानको कर्तृकर्मत्वसे रहित दिखाया है अब यहाँसे ज्ञानको सर्व परतत्वोंसे निराला दिखाते हैं। __ प्रसंगदिवरण-अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें बताया गया था कि कर्म कर्मफलके प्रति. क्रमण प्रत्याख्यान अालोचनास्वरूप प्रात्मा स्वयं चारित्र है जिससे कि कर्म कर्मफल दूर होता है अब इस गाथात्रिकमें बताया है कि परमार्थ प्रतिक्रमणादिरूप झानचेतनासे च्युत होकर जो कर्मफलको अपनाता है वह दुःखमूल अष्टविधकर्मको बांधता है। तथ्यप्रकाश-१-सहज ज्ञानस्वभाव में आत्मत्व निरखना ज्ञानचेतना है । २-ज्ञानके मिवाय अन्य सभी भावोंमें इसको मैं करता हूं ऐसा निरखना कर्मचेतना है । ३-ज्ञानके सिवाय अन्य भावों में इसको मैं भोगता है ऐसा निरखना कर्मफलचेतना है । ४- कर्मचेतना कर्मफलचेतमा दोनों ही अज्ञानचेतना हैं। ५- अशानचेतना ही संसारका मूल बीज है । ६-संसारसंकदसे छुटकारा पाने के लिये अज्ञानचेतनाका विध्वंस कर देना चाहिये । ७-प्रज्ञानचेतनाका विध्वंस करनेके लिये त्रिकाल मनसे वचनसे फायसे करने कराने अनुमोदनेकी समस्त Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार प्रशमरसमितः सर्वकालं पिबंतु ॥२३३॥ इतः पदार्थप्रथनावगुंठनाद् विना कृते रेकमनाकुलं ज्वलत् । समस्तवस्तुव्यतिरेकनिश्चयात् विवेचित ज्ञानमिहावतिष्ठते ॥२३४।। ।।३८७.३८६।। अवबोधने, विद झाने, मुण ज्ञाने, अभि उब इ गती। प्रातिपदिक-- शास्त्र, ज्ञान, न, यत्, शास्त्र, न, क्रियावोंके परिहार कर निष्कर्म ज्ञानमात्र प्रात्माका प्राश्रय रहना चाहिये । ५-प्रज्ञानचेतनाका विध्वंस करनेके लिये समस्तकर्मफलोंके भोगनेका परिहार करके केवल ज्ञानानन्द स्वभावमात्र प्रात्माका संचेतन होना चाहिये । -ज्ञानमात्र संचेतनके अलावा जो भी क्रियायें हुई उन्हें मिथ्या जानना चाहिये अर्थात् मेरे स्वरूप में वे क्रियायें नहीं थी, किन्तु संयोगप्रसंगमें हुई थी ऐसा जानना चाहिये । १०- मैं सर्वक्रियावोंसे विविक्त हूं ऐसा जानकर निष्कर्म ज्ञान मात्र स्वभावमें उपयोग रमाना चाहिये । ११- मैं अपने अचल चैतन्यस्वरूपका संचेतन करता हूं, उदित कर्मफलका प्रतिफलन पाता है तो मेरे भोगे बिना ही उस सब कर्मफलको निकल जाने दो। १२.. मेरा समस्त अनन्तकाल चैतन्यस्वरूपके आश्रयमें ही बीते । १३- कर्मविषवृक्षके फलको न भोगकर स्वसंचेतनमें तृप्त रहनेसे वर्तमान में व सदा भविष्यमें शान्ति रहना निर्बाध है। सिद्धान्त-१-ज्ञानमात्र प्रात्माका ज्ञानरूपसे संचेतन करना प्रात्माका स्वभाव परिएमन है । २-- ज्ञानमात्र प्रात्माका मोह राग-द्वेषादि अज्ञानमय भावोंरूप संवेदन करना विभाव परिणमन है। दृष्टि-१-शुद्धनिश्चयनय (४६) । २-अशुद्धनिश्चयनय (४७) । प्रयोग--कर्मचेतना व कर्मफल चेतनाका त्याग करके ज्ञानमात्र अपने प्रापको निरखते रहना ॥३८७-३८६।। अब ज्ञानकी परविविक्तता गाथानोंमें कहते हैं-[शास्त्रं] शास्त्र [जानं न भवति ज्ञान नहीं है [यस्मात्] क्योंकि [शास्त्रं किंचित् न जानाति] शास्त्र कुछ जानता नहीं है [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिन भगवान [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको अन्य [अन्यत् शास्त्र] व शास्त्रको अन्य [विति] कहते हैं। [शब्दः ज्ञानं न भवति] शब्द ज्ञान नहीं है [यस्मात्] मयोंकि [शब्दः किंचित् न जानाति] शब्द कुछ जानता नहीं है [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [शानं अन्यत्] ज्ञानको अन्य व [शब्दं अन्य] शब्दको अन्य [विदन्ति] कहते हैं । [रूपं ज्ञानं न भवति] रूप ज्ञान नहीं है [यस्मात] क्योंकि [रूपं किंचित् न जानाति] रूप कुछ जानता नहीं है [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [शानं अन्यत्] जानको अन्य व [रूपं अन्यत्] रूपको अन्य [विति] कहते हैं । [वर्णः ज्ञानं न भवति] वर्ण ज्ञान नहीं है [यस्मात्] Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार सत्यं णाणं ण हवइ जह्मा सत्यं ण याणए किंचि । तमा अण्णा णाणं अण्णं सत्यं जिणा विति ॥३६॥ खदो गाय या हबइ जहा सद्दो ण याणए किंचि । तमा अण्णं णाणं अण्णं सहजिणा विति ॥३६१॥ रूवं णाणं ण हवइ जमा रूवं ण याणए किंचि । तमा अण्णां णाणं अण्णं रूवं जिणा विति ॥३६२॥ वण्णो गाणं ण हवइ जह्मा वण्णो ण याणए किंचि । तमा अण्णं णाणं अण्णं वण्णं जिणा विति ॥३६३॥ गंधो णाणं ण हवइ जह्मा गंधो ण याणए किंचि । तमा अण्णं णाणं अण्णं गंधं जिणा विति ॥३६४॥ ण रसो दु हवदि गाणं जमा दु रसो ण याए किंचि । तमा अण्णं णाणं रसं य अण्णं जिणा विति ॥३६५।। फासो ण हवइ गाणं जमा फासो ण् याणए किंचि । तमा अण्णं गाणं अण्णं फासं जिणा विति ॥३६६॥ कम्म णाणं ण हवइ जमा कम्म ण याणए किंचि । तमा अण्णं णाणं अण्णं कम्मं जिणा विति ॥३६७॥ धम्मो णाणं ण हवइ जमा धम्मो ण याणए किंचि । तह्मा श्रृण्ण णा अण्ण धम्म जिणा विति ॥३६॥ णाणमधम्मो ण हवइ जमाऽधम्मो ण याणए किंचि । तह मा अण्णं णाणं अण्णमधम्मं जिणा विति ॥३६६॥ किंचित, तत्, अन्यत्, ज्ञान, अन्यत्, शास्त्र, जिन, शब्द, रूप, रूप, वर्ण, वर्ण, गन्ध, गन्ध, रस, रस, स्पर्श, क्योंकि [वर्णः किंचित् न जानाति] वर्ण कुछ जानता नहीं है [तस्मात् ] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको अन्य व [वर्णः अन्यः] वर्णको अन्य [विदंति] कहते हैं । Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ सर्वविशुद्धशानाधिकार कालो गाणं ण हवइ जमा कालो ण याणए किंचि । तह मा अण्णं गाणं अण्णं कालं जिणा विंति ॥४००॥ यासंपि ण णाणं जह मा यास ण याणए किंचि । तह्मा यासं अण्णं अण्णं णाणं जिणा विति ।।४०१॥ ज्झवसाणं गाणं अभवसाणं अचेदणं जमा । तमा अणं णाणं अज्झवसाणे तहा अण्णं ॥४२॥ जह्मा जाण्इ णिच्चं तह्मा जीको दु जाणो णाणी । णाणं च जाणयादो अवदिरितं मुणेयव्वं ॥४०३॥ णाणं सम्मादिहिँ दु संजमं सुत्तमंगपुवयं । धम्माधम्मं च तहा पवज अब्भुवंति बुहा ॥४०४॥ शास्त्र ज्ञान नहि होता, क्योंकि नहीं शास्त्र जानसा कुछ भी। इससे भान पृथक् है, शास्त्र यक्ष को कहीं प्रभुमे ॥३६०॥ शब्द ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं शब्द जामता कुछ भो। इससे ज्ञान पृथक् है, शास्त्र पृथक यों कहा प्रभुने ।।३६१॥ रूप ज्ञान नहिं होता, क्योंकि न रूप जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक है, रूप पृथक् यों कहाँ प्रभुने ॥३६२॥ वर्ष ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं वर्ण जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृयक है, वर्ण पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३६३।। गन्ध ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं गन्ध जानता कुछ भी । इससे ज्ञान पृथक है, गन्ध पृथक यों कहा प्रभुने ॥३६४॥ स्पर्श, कर्म, कर्म, धर्म, धर्म, अधर्म, अधर्म, काल, काल, आकाश, आकाश, अध्यवसान, अध्यवसान, यत्, [गंधः ज्ञान न भवति] गन्ध ज्ञान नहीं है [यस्मात् क्योंकि [गन्धः किचित् न जानाति] गन्ध कुछ जानता नहीं [तस्मात्] इस कारण [जिना:] जिनेन्द्र देव [ज्ञानं अन्यत् गंधं अन्य] ज्ञानको अन्य व गन्धको अन्य [विदन्ति] कहते हैं । [रसः ज्ञानं न भवति] रस ज्ञान नहीं है [यस्मात् ] क्योंकि [रसः किंचित् न जानाति] रस कुछ जानता नहीं [तस्मात् ] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको अन्य व [रसं च अन्य] और रसको अन्य [विदन्ति] कहते हैं । [स्पर्शः ज्ञानं न भवति] स्पर्श ज्ञान नहीं है [यस्मात्] क्योंकि [स्पर्शः किंचित् न Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार रस ज्ञान नहीं होता, क्योंकि रस नहीं जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक् है, तया पृथक् रस कहा प्रभुने ॥३६५॥ स्पर्श ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं स्पर्श जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक है, स्पर्श पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३६६॥ कर्म शान नहिं होता, क्योंकि नहीं कर्म जानता कुछ भो । इससे ज्ञान पृथक् है, कर्म पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३६७॥ धर्म ज्ञान नहिं होता, क्योंकि नहीं धर्म जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक् है, धर्म पृथक् यों कहा प्रभुने ॥३९॥ न अधर्म ज्ञान होता, क्योंकि नहिं अधर्म जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक है, अधर्म पर यों कहा प्रभुने ॥३६६॥ काल ज्ञान नहि होता, क्योंकि नहीं काल जानता कुछ भी। इससे ज्ञान पृथक् है, काल पृथक् यों कहा प्रभुने ॥४००॥ आकाश ज्ञान नहि है, क्योंकि प्राकाश मानता नहीं कुछ । इससे ज्ञान पृथक् है, आकाश पृथक् कहा प्रभुने ॥४०१॥ अध्यवसान झान नहि, अध्यवसान भी तो अचेतन है । इससे ज्ञान पृथक् है, तथा है अध्यवसान पृथक् ॥४०२॥ जानता नित्य आत्मा, इससे ज्ञानी है पारमा नायक । है अभिन्न शायफसे, ज्ञान सदा तन्मयो जानो ॥४०३॥ ज्ञान हि सम्यग्दृष्टी, व अंगपूर्वगत सूत्र संयम यह । धर्म अधर्म व दीक्षा, बुधजन इस शानको कहते ॥४०४॥ नित्यं, तत्, जीव, तु, ज्ञायक, ज्ञानिन्, ज्ञान, चं, शायक, अव्यतिरिक्त, ज्ञातव्य, शान, सम्यग्दृष्टि, तु, संयम, सूत्र, अंगपूर्वगत, धर्माधर्म, च, तथा, प्रवज्या, बुध । मूलधातु-भू सत्तायां, झा अक्बोधने, विद जानाति] स्पर्श कुछ जानता नहीं। [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको प्रन्य [स्पर्श अभ्यं] स्पर्शको अन्य [विति] कहते हैं : [कर्म ज्ञानं न भवति] कर्म ज्ञान नहीं है [यस्मात] क्योंकि [कर्म किचित् न जानाति] कर्म कुछ जानता नहीं [तस्माव] इस कारण [जिनाः] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत्] ज्ञानको अन्य व [कर्म अन्यत्] कर्मको अन्य विदंति] कहते हैं। [धर्मः हामं न भवति] धर्मद्रथ्य ज्ञान नहीं है [यस्मात] क्योंकि [धर्मः किंचित न जानाति धर्म कुछ जानता नहीं [तस्मात्] इस कारण [जिनाः] जिनदेव ज्ञानं अन्यत्] ज्ञान Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व विशुद्धज्ञानाधिकार ६३६ शास्त्रं ज्ञानं न भवति यस्माच्छास्त्रं न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यच्छास्त्र जिना विदति ॥ ३६० ।। शब्दो ज्ञानं न भवति यस्माच्छन्दो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं शब्दं जिना विदति ॥३६२॥ रूपं ज्ञानं न भवति यस्माद्रूपं न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यद्रूपं जिना विदंति ॥३६२॥ वर्णो ज्ञानं न भवति यस्माद्वर्णो न जानाति किचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं वर्णं जिना विदति ॥ ३६३|| गंध ज्ञानं न भवति यस्माद्गंधो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं गंध जिना विदेति ॥ ३९४॥ न रसस्तु भवति ज्ञानं यस्मात्तु रसो न जानाति किचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानं रसं चान्यं जिना विदति ||३५|| स्पर्शो न भवति ज्ञानं यस्मात्स्पर्शो न जानाति किचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं स्पर्श जिना विदति ॥ ३६६ ॥ कर्म ज्ञानं न भवति यस्मात्कर्म न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यत्कर्म जिना विदन्ति ॥ ३६७॥ धर्मो ज्ञानं व भवति यस्माद्धर्मो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यं धर्म जिना विदन्ति ॥ ३६८ ॥ ज्ञानमधर्मो न भवति यस्मादधर्मो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यज्ज्ञानमन्यमधर्म जिना विदन्ति ||३६|| कालो ज्ञानं न भवति यस्मात्कालो न जानाति किंचित् । तस्मादन्यद् ज्ञानमन्यं कालं जिना विदंति || ४०० ॥ आकाशनाप न ज्ञायं यस्मादका न जानाति किमि । तस्मादाकाशमन्यदन्यज्ज्ञानं जिना विदति ॥४०१ ॥ नाध्यवसानं ज्ञानमध्यवसानमचेतनं यस्मात् । तस्मादन्यज्ज्ञानमध्वसानं तथान्यत् यस्माज्जानाति नित्यं तस्माज्जीवस्तु शायको ज्ञानी । ज्ञानं च ज्ञायकादव्यतिरिक्तं मन्तव्यं ॥ ४०३ ॥ ज्ञानं सम्यग्दृष्टि तु संयमं सूत्रमंगपूर्वगतं । धर्माधर्मं व तथा प्रवज्यामभ्युपयांति बुधाः || ४०४|| न श्रुतं ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानश्रुतयोर्व्यतिरेकः । न शब्दो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञान शब्दयोव्यतिरेकः । न रूपं ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानरूपयोर्व्यतिरेकः । न वर्णो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानवर्णयोर्व्यतिरेकः । न गंधो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानगंधयोर्व्यतिरेकः । न ज्ञाने अदादि, मन ज्ञाने, अभि उप या प्रापणे । पदविवरण- सत्थं शास्त्र - प्रथमा एकवचन । गाणं ज्ञानंप्रथमा एक० । ण न - अव्यय । हवइ भवति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जम्हा यस्मात् - ॥ ४०२ ॥ को अन्य [ धर्मं श्रन्यं] धर्मको अन्य [विन्ति ] कहते हैं । [ अधर्मः ज्ञानं न भवति ] श्रधर्मद्रव्य ज्ञान नहीं है [ यस्मात्] क्योंकि [श्रधर्मः किंचित् न जानाति ] अधमं कुछ जानता नहीं [तस्मात् ] इस कारण [जिना: ] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञानको अन्य व [प्रथमं श्रन्यं ] श्रधर्मको अन्य [विति ] कहते हैं । [ काल: ज्ञानं न भवति ] काल ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [ कालः किंचित् न जानाति ] काल कुछ जानता नहीं [तस्माद] इस कारण [जिना: ] जिनदेव [ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञानको अन्य व [ कालं अभ्यं ] कालको अन्य प्रपि ज्ञानं न ] आकाश भी ज्ञान नहीं है [ यस्मात्] क्योंकि श्राकाश कुछ जानता नहीं [तस्मात् ] इस कारण [जिनाः ] जिनदेव [ ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञानकी अन्य [ श्राकाशं श्रन्यत् ] श्राकाशको अन्य [ विदन्ति ] कहते हैं । [तथा] उसो प्रकार [मध्यवसानं ज्ञानं नं] म्रध्यवसान ज्ञान नहीं है [ यस्मात् ] क्योंकि [श्रध्यवसानं ] श्रध्यवसान [प्रचेनं] अचेतन है [ तस्मात् ] इस कारण [ जिमाः ] जिनदेव [ ज्ञानं अन्यत् ] ज्ञानको अन्य व [ विदन्ति ] कहते हैं । [ श्राकाशं [आकाशं किचित् न जानाति ] Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४० समयसार रसो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानरसयोयंतिरेकः । न स्पर्शो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानस्पर्शयोयतिरेकः । न कर्म ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानकर्मग्गोय॑तिरेकः । न धर्मों ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानधर्मयोर्ध्यतिरेकः । नाधर्मों ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानाधर्मयोर्व्यतिरेक: । न कालो ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानकालयोयतिरेकः । नाकाशं ज्ञानमचेतनत्वात् ततो ज्ञानाकाशयोव्यतिरेकः । नाध्यवसानं ज्ञानमचेतनत्वात् ततो जानाध्यवसानयोर्व्यतिरेकः । इत्येवं भानस्य मरेत्र परद्रन्यः सह व्यतिरेको निश्चयसाधितो द्रष्टव्यः । अथ जीव एवैको ज्ञानं चेतनत्वात् पंचमी एक । सत्थं शास्त्र-प्रथमा एक० । ण न-अव्यय । जाणए जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । किंचि विचित्-अध्यय । तम्हा तस्मात्-पचमी एक० । अण्णं अन्यत् णाणं ज्ञान-प्रथमा [अभ्यवसानं अन्यत्] अध्यवसानको अन्य वहते हैं। [यस्मात् ] कि [नित्यं जानाति] जीव निरन्तर जानता है [तस्मात् तु] इसलिये [जीवः] जीव [ज्ञायक: ज्ञानी] ज्ञायक है, वही ज्ञानी है [2] और ज्ञानं] ज्ञान [ज्ञायकात् अध्यतिरिक्तं ज्ञातव्यं] ज्ञायकसे अभिन्न है ऐसा जानना चाहिए । [तु] और [बुधाः] ज्ञानी ज्ञानं सम्यादृष्टिी ज्ञान को ही सम्यग्दृष्टि, [संयम संयम [अंगपूर्वग पूध अंगपूर्वगत सूत्र च धमाधम और धर्म अधर्म [तथा तथा [प्रवज्यां] दीक्षा [अभ्युपयांति] मानते हैं। तात्पर्य-ज्ञान समस्त परद्रव्योंसे भिन्न है, समस्त परभावोसे भिन्न है तथा ज्ञान आत्माको सर्वविभावपरिणतियोंसे भिन्न है। टोकार्थ-द्रव्यश्रत ज्ञान नहीं है, क्योंकि वचन प्रचेतन है, इस कारण ज्ञान और श्रुतमें भेद है । शब्द ज्ञान नहीं है, क्योंकि शब्द अचेतन है, इस कारण ज्ञान और शब्दमें भेद है । रूप ज्ञान नहीं है, क्योंकि रूप अचेतन है, इस कारण वर्ण और ज्ञान में भेद है। गंध ज्ञान नहीं है, क्योंकि गन्ध प्रचेतन है, इस कारण गन्ध और ज्ञानमें भेद है । रस ज्ञान नहीं है, क्योंकि रस अचेतन है, इस कारण रस और ज्ञान में परस्पर भेद है । स्पर्श ज्ञान नहीं है, क्योंकि स्पर्श अचेतन है, इस कारण स्पर्श और ज्ञानमें भेद है । कर्म ज्ञान नहीं है, क्योंकि कर्म अचेतन है, इस कारण कर्म और ज्ञानमें भेद है। धर्मद्रव्य ज्ञान नहीं है, क्योंकि धर्म अचेतन है, इस कारण धर्मद्रव्य और ज्ञान में भेद है। अधमंद्रव्य ज्ञान नहीं है, क्योंकि अधर्मद्रव्य अचेतन है, इसलिए अधर्मद्रव्यका और ज्ञानका भेद है । कालद्रव्य ज्ञान नहीं है, क्योंकि काल प्रचेतन है, इस कारण काल प्रौर ज्ञानमें भेद है । प्राकाशद्रव्य ज्ञान नहीं है, क्योंकि प्राकाश अचेतन है, इस कारण प्राकाश और ज्ञानमें भेद है । अध्यवसान ज्ञान नहीं है, क्योंकि अध्यवसान अचेतन है, इस कारण ज्ञान और अध्यवसान में भेद है । इस प्रकार यों ज्ञानका समस्त परद्रव्योंके साथ व्यतिरेक निश्चयसाधित देखना चाहिए याने अनुभवना Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४१ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार सतो शानजीवयोरेवाव्यतिरेकः । न च जीवस्य स्वयं ज्ञानत्वात्ततो व्यतिरेकः कश्चनापि शङ्क. नीयः । एवं तु सति ज्ञानमेव सम्यग्दृष्टिः, ज्ञानमेव संयमः, ज्ञानमेवांगपूर्वरूपं सुत्र, ज्ञानमेव धर्माधी, ज्ञानमेव प्रव्रज्येति ज्ञानस्य जीवपर्यायरपि सहाव्यतिरेको निश्चय साधितो द्रष्टव्यः । एक० । अण्णं जाणं अण्णं सत्थं अन्यत् ज्ञानं अन्यत्व शास्त्र-द्वितीया एकवचन । टाब्द: ज्ञान-प्रथमा एक० । अपणं णाणं अण्णं शब्दं अन्यत् ज्ञानं अन्यं शब्द-द्वितीया एक । विति बिदलि-वर्तमान लद अल्प पुरुष चाहिये । यो प्रब देखिये-जीव ही एक ज्ञान है; क्योंकि जीव चेतन हैं, इसलिये ज्ञान और जीवमें प्रभेद है । स्वयं ज्ञानस्वरूप होनेसे ज्ञानका जीवके साथ व्यतिरेक कुछ शंकाय नहीं है । ऐसा होनेपर ज्ञान ही सम्यग्दृष्टि है, ज्ञान हो संयम है, ज्ञान ही अंगपूर्वगत गुत्र है । तथा ज्ञान ही धर्म अधर्म है, ज्ञान हो दीक्षा है अथवा निश्चयचारित्र है । इस तरह जीवका पर्यायों के साथ भी अभेद निश्चयसाधित देखना चाहिये । ___अब इस प्रकार सब परद्रव्योंके साथ तो भेदके द्वारा तथा शब दर्शनादि जीव रवभावों के साथ अभेदके द्वारा प्रतिव्याप्ति और अव्यानि दोषको दूर करता था, अनादिविभ्रम. मूलक धर्म अधर्म याने पुण्य पापरूप परसमयको दूर करके, स्वयं ही निश्चयचारित्रलप दीक्षा को पाकर, दर्शनशानचारित्रमें स्थितिरूप स्वसमयको व्यापकर मोक्षमार्गको प्रात्मा ही परिरगत करके जिसने सम्पूर्ण विज्ञानधनस्वभाव पा लिया है ऐसा व त्याग ग्रहग से रहित साक्षात् समयसारभूत परमार्थरूप शुद्ध एक ज्ञान ही अवस्थित हुआ देखना अर्थात् प्रत्यक्ष स्वसम्वेदनसे अनुभव करना। भावार्थ-ज्ञान सब परद्रव्योंसे जुदा और अपने पर्यायोंसे अभेदरूप है, इस कारण मात्माके इस लक्षण में प्रतिव्याप्ति और अव्याप्ति नामके लक्षणदोष नहीं रहते । अ व्याप्ति-- लक्षणका पूरे लक्ष्य में न रहना प्रव्याप्ति है, अति व्याप्ति- लक्षणका लक्ष्य के अलावा प्रलक्ष्य में भी रहना अतिव्याप्ति है । प्रात्माका लक्षण ज्ञान याने उपयोग अन्य प्रचेतन द्रव्यों में नहीं है। इस कारण अतिव्याप्ति दोष नहीं है और उपयोग अपनी सब अवस्थानों में है, इसलिये अव्याप्ति दोष नहीं है । यहाँपर ज्ञान कहनेसे प्रात्मा हो जानना, क्योंकि अभेदविवक्षामें गुण और गुरगीका अभेद है; इसलिये विरोध नही । इस कारण ज्ञान हो कहनेसे छमस्थ ज्ञानी आत्माको पहचान लेता है । अतः अात्मा ज्ञानको ही निरखकर इस ज्ञानमें अनादि अज्ञानज शुभाशुभ उपयोगरूप परसमयकी प्रवृत्तिको दूर करके, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें प्रवृत्तिरूप परिणमनस्वरूप मोक्षमार्गमें प्रात्माको परिणमाकर सम्पूर्ण ज्ञानको जब प्राप्त होता है, तब फिर त्याग ग्रहणके लिये कुछ नहीं रहता । ऐसा साक्षात् समयसारस्वरूप पूर्ण ज्ञान परमार्थभूत शुन्द्ध अवस्थित है उसको देखना । यहाँपर देखना तीन प्रकार Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ समयसार अर्थ सर्वपरद्रव्यव्यतिरेकेण सर्वदर्शनादिजीवस्वभावाव्यतिरेवेण वा प्रतिव्याप्तिमव्याप्ति च परिहरमागमनादिविभ्रममूलं धर्माधर्मरूपं परसभयमुद्रम्य स्वयमेव प्रव्रज्यारूपमापाद्य दर्शन बहु० क्रिया । रूवं गाणं- प्रथमा एक० । अष्णं णाण अण्णं रूवं अन्यत् ज्ञानं अन्यं रूपं --द्वितीया एकवचन वष्णो वर्ण:- प्रथमा एक० वण्णं वर्ण-द्वितीया एकवचन | गंध:- प्रथमा एक० । गन्धं द्वितीया एक० । जानना । एक तो देखना शुद्धनयके ज्ञान द्वारा इसका श्रद्धान करना है । यह तो अविरत आदि प्रमत्त अवस्था में भी मिध्यात्व के अभाव से होता है। दूसरा देखना यह है कि ज्ञान श्रद्धान हुए बाद बाह्य सब परिग्रहका त्यागकर इसका अभ्यास करना, उपयोगको ज्ञान में हो ठहराना, जैसा शुद्ध नयसे अपने स्वरूपको सिद्ध समान जानकर श्रद्धान किया वैसा ही ध्यान में लेकर एकाग्र चित्तको ठहराना, बार-बार इसीका अभ्यास करना, सो यह देखना श्रप्रमत्त दशा में होता है । इसलिए जहाँ तक ऐसे अभ्याससे केवलज्ञान प्राप्त हो वहाँ तक यह अभ्यास निरन्तर करना । यह देखना दूसरा प्रकार हैं । यहाँ तक तो पूर्ण ज्ञानका शुद्धनयके श्राश्रयसे परोक्ष देखना रहा । श्रौर तीसरा देखना केवलज्ञान प्राप्त हो तब साक्षात् होता है । उस समय सब विभावों से रहित हुया सबको देखने जानने वाला ज्ञान होता है । यह पूर्ण ज्ञानका प्रत्यक्ष देखना है । प्रकार सर्वत्र सिद्ध है कि शाही भरना है। प्रभेदविवक्षा में ज्ञान कहो या ग्रात्मा कहो कुछ विरोध नहीं । अब इस अर्थको कलशरूप काव्य में कहते हैं— अन्येभ्यो इत्यादि । अर्थ - परद्रव्योंसे भिन्न अपने में ही निश्चित पृथक् वस्तुत्व धारण करता हुप्रा, ग्रहण त्यागसे रहित यह रागादिक मलसे रहित ज्ञान उस प्रकार अवस्थित अनुभव में प्राता कि जिस प्रकार मध्य आदि अंत विभागसे रहित, स्वाभाविक विस्ताररूप प्रकाशसे देदीप्यमान शुद्ध ज्ञानघनरूप नित्य उदित रहे । भावार्थ - ज्ञानका पूर्णरूप सबको जानना है । सो जब यह ज्ञान प्रकट होता है तब अपने सर्व ऐश्वर्य के साथ प्रकट होता । इसकी महिमा कोई नहीं बिगाड़ सकता । निरुपाधि ज्ञान सदा निर्वाध उदित रहता है । अब काव्य में कहते हैं कि ऐसे ज्ञानस्वरूप है - उन्मुक्त इत्यादि । श्रर्थ - जिसने सब शक्तियाँ श्रात्मामें ही धारण करना है वही तो छोड़ने योग्य योग्य सन ग्रहण कर लिया है। भावार्थ करनेपर त्यागने योग्य सभी त्यागा गया यह कृतकृत्यपना है । श्रात्माका धारण करना यही कृतकृत्यपना समेट लो हैं, ऐसे पूर्ण श्रात्माका जो सब कुछ छोड़ा है और ग्रहण करने पूर्ण ज्ञानस्वरूप सर्वशक्तिपुञ्ज प्रात्माको धारण और ग्रहण करने योग्य सभी ग्रहण कर लिया गया, -- Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशुद्धताधिकार ६४३ ज्ञानचारित्रस्थितित्वरूपं स्वसमयमवाप्प मोक्षमार्गमात्मन्येव परिणतं कृत्वा समवाप्तसम्पूर्ण वि ज्ञानघनभाव हानोपादानशून्यं साक्षात्समयसारभूतं परमार्थरूपं शुद्धं ज्ञानमेकमेव स्थितं द्रष्टव्यं ॥ अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं विभ्रत्पृथग्वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञानं तथावस्थितं । मध्यार्धत विभागमुक्त सहजस्फारप्रभाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ।। २३५ ।। उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहृतसर्वशक्तेः पूर्णस्य संधारणमात्मनीह ॥ २३६ ॥ व्यतिरिक्तं परद्रव्यादेवं ज्ञानमवस्थितं । कथमाहारकं तत्स्याद्येन देहोऽस्य शक्यते ॥ २३७॥ ।। ३६०-४०४ ॥ स्पर्श द्वितीया एक० । अधम्मो अधर्मः - प्रथमा फार्स । सो रस: - प्रथमा एक० । रसं द्वि० एक० । फासो स्पर्शः प्रथमा एक कम्मं कर्म-प्रथमा एक कम्मं कर्म - द्वितीया एक० । धम्मं धर्म - द्वितीया एक० एक० । अधम्मं अधर्मं द्वि० एक० । कालो कालः- प्र० ए० । कालं द्वि० ए० । आयासं आकाशं प्र० एक० । आयासं आकाश - द्वितीया एक अज्भवमाणं अध्यवसानं प्रथमा एक० तथा द्वि० ए० । जम्हा यस्मात् - पंचमी एक | जाणइ जानाति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । णिच्च नित्यं - अव्यय । जीवो जीवः - प्र० ए० । णाणओ ज्ञायक :- प्र० एक० 1 पाणी ज्ञानी-प्र० एक० । णाणं ज्ञानं प्र० ए० । जाणयादो शायकात्-पंचमी एक० । अध्बदिरित्तं अध्यतिरिक्तं प्र० एक० । मुरोदव्वं मन्तव्यं - दन्त क्रिया । अब काव्य में कहते हैं कि ऐसे ज्ञानके देह भी नहीं है - व्यतिरिक्तं इत्यादि । अर्थइस प्रकार ज्ञान परद्रव्य से पृथक् अवस्थित है । वह आहारक कैसे हो सकता है ? जिससे कि इसके देहको शङ्का की जा सके । भावार्थ - ज्ञान कर्म नोकर्म आदि सबसे निराला है सो ज्ञानके कर्माहार, नोकमहार, कवलाहार कोई भी शाहार नहीं । सो जो माहारक ही नहीं, उसके देह कैसा ? प्रसंग विवरण - अनन्तरपूर्व गाथात्रिक में कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाका संन्यास कराकर ज्ञानमात्र सहजस्वरूपके संचेतनका मार्गदर्शन किया था। अब इस पञ्चदशक में उसी ज्ञानमात्र श्रात्मतत्त्वको समस्त परद्रव्यों व परभावोंसे विविक्त दिखाया गया है । तथ्यप्रकाश- - ( १ ) द्रव्यश्रुत व शब्द अचेतन है पुद्गलद्रव्यकी व्यञ्जनपर्याय है ज्ञान अात्माका शाश्वतस्वरूप है, चेतना है । ( २ ) वर्णं, गन्ध, रस, स्पर्श अचेतन हैं पुद्गलद्रव्यके गुरण हैं, किन्तु ज्ञान श्रात्माका शाश्वतस्वरूप है, चेतनस्वरूप है । ( ३ ) कर्म अचेतन है. कार्माण वर्ग जातिके पुद्गलद्रव्योंकी पर्याय है, किन्तु ज्ञान श्रात्माका शाश्वत स्वरूप है, चेतनस्त्ररूप है । ( ४ ) धर्मद्रव्य, श्रधमंद्रव्य, कालद्रव्य, माकाशाद्रव्य अचेतन हैं भिन्न स्वतंत्र द्रव्य हैं, किन्तु ज्ञान प्रात्मद्रव्यका शाश्वत स्वरूप है चेतनस्वरूप है । ( 2 ) श्रध्यवसानभाव प्रचेतन हैं, कर्मforeferer हैं, किन्तु ज्ञान भ्रात्माका शाश्वतस्वरूप है, चेतनस्वरूप है। (६) ज्ञान जीव Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ समयसार अत्ता जस्सामुत्तो ण हु सो याहारयो हवइ एवं । थाहारो खलु मुत्तो जह मा सो पुग्गलमयो उ ॥४०५॥ णवि सक्कइ घित्तु जंण विमोत्तुजं य ज परदव्वं । सो कोवि य तस्स गुणो पाउगियो विस्ससो वावि ॥४०६॥ तह मा उ जो विसुद्धो चेया सो णेव गिण्हए किंचि । व विमुचइ किंचिवि जीवाजीवाण दवाणं ॥४०७॥ जिसके अमृतं प्रात्मा, वह प्राहारक कमी नहीं होता। क्योंकि श्राहार मूर्तिक, होता पौगलिक होनेसे ॥४०५।। जो अन्य द्रव्य उसकी, ग्रहरण विमोचन किया न जा सकता। ऐसा ही द्रव्योंका, प्रायोगिक बैखसिक गुण है ॥४०६॥ तब जो विशुद्ध आत्मा, वह जीव प्रजीव द्रव्य परमें से। कुछ भी ग्रहण न करता, तथा नहीं छोड़ता कुछ भी ॥४०७।। - नामसंज्ञ - अत्त, ज, अमुत्त, ण, हु, त, आहारअ, एवं, आहार, खल, मुत्त, ज, त, गुग्गलमअ, उ, मा, वि, ज, ण, ज, य, ज परद्दब्व, त, क, वि, य, त, गुण, पाजगिअ, विस्सस, वा, वित, उ, ज, विसुद्ध, स्वरूप है, अत: सम्यग्दर्शन, ज्ञान, संयम प्रादि सर्व आत्मपरिणमनोंसे ज्ञानका प्रभेद है। (७) पुण्यपापभावरूप परसमयको त्यागकर दर्शनज्ञान चारित्रस्थितिस्वरूप स्वसमयको पाकर समयसारभूत एक ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वका अनुभव करना चाहिये । (८) ज्ञानमात्रका संचेतन होनेपर पाने योग्य सब पा लिया व छोड़ने योग्य सब छूट गया । सिद्धान्त-(१) प्रात्मा अभेद ज्ञानस्वभावमात्र है । (२) प्रात्मा समस्त परद्रव्यों व परभाबोंसे रहित है। दृष्टि-- १- शुद्धनय (४६, १६८) । २- परद्रव्यादिग्राहक द्रव्याथिकन य (२६) । प्रयोग---ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें अवस्थित होनेके लिये अपनेको सर्व परद्रव्योंसे तथा परभावोंसे निराला निरखना ।। ६६०.४०४ ।।। अब प्रात्माकी अनाहारकता गाया कहते हैं:---[एवं] इस प्रकार [यस्य आत्मा अमूर्तः] जिनके प्रात्मा अमूर्तिक है स खलु] वह निश्चयसे [आहारकः न भवति] माहारक नहीं है [यस्मात्] क्योंकि [आहारः खलु मूर्तः] पाहार मूर्तिक है [स तु पुद्गलमयः] वह तो पुद्गलमय है । [यत् यत् परद्रव्यं] क्योंकि जो पर द्रध्यको [गृहीतुं च विमोमतुं नापि Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६४५ आत्मा यस्यामूतों न खलु स आहारको भवत्येवं । आहार: खलु मूर्तों यस्मात्स पुद्गलमयस्तु ।। ४०५ ।। नापि शक्यते गृहीतुं यन्न बिमोक्तुं यच्च यत्परद्रव्यं । स कोऽपि च तस्य गुणो प्रायोगिको स्रसो वापि ।। तस्मात्तु यो विशुद्धश्चेतायता स नंव गृह्णाति किचित् । नैव विमंचात किंचिदपि जीवाजीवयोध्ययोः ।। ज्ञानं हि परद्रव्यं किंचिदपि न गृह्णाति न मुञ्चति प्रायोगिकगुणसामति वस्रसिकगुणसामद्विा ज्ञानेन परद्रव्यस्य गृहोतुं मोक्तु चाशक्यत्वात् । परद्रव्यं च न ज्ञानस्या घेया, त, ण, एव, किंचि, वि, जीवाजीव, दब्ब ! धानुसंश-हव सत्तायां, सक्क सामर्थ्य, गह गहणे, वि ___ मुंच त्यागे, गिव्ह अहणे । प्रातिपदिक- आत्मन्, यत्, अमूर्त, न, खलु, तत्, आहार, एवं, आहार, खलु, मूर्त. यत्, तत्, पुद्गलमय, न, अपि, यत्, परद्रव्य, तत्, कि, अपि, च, तत्, गुण, प्रायोगिक, वैसस, वा, अपि. विशुद्ध, चेतयित, जीवाजीव, द्रव्य । मूलधातु- सत्तायां, शक्ल सामर्थ्य, ग्रह उपादाने, वि मुच्लू मोक्षणे । पदविवरण–अत्ता आत्मा-प्रथमा एकवचन । जस्स यस्य-षष्ठी ए.। अमुत्तो अमूर्तः प्र० ए० । शक्यते] ग्रहण भी नहीं किया जा सकता और छोड़ा भी नहीं जा सकता [स कोपि च तस्य] यह कोई ऐसा हो आत्माका [प्रायोगिकः वापि वस्रसः गुणः] प्रायोगिक तथा वैनसिक गुण है। [तस्मात ] इसलिये [यः विशुद्धः चेतयिता] जो विशुद्ध प्रात्मा है [सः] वह [जीवा. जीवयोः द्रव्ययोः] जीव प्रजीव परद्रव्य में से [किचित् नैव गृह्णाति] किसीको भी न तो ग्रहण ही करता है [अपि काँचत नव विमुञ्चति ] पोर न किसीको छोड़ता है। __ तात्पर्य–मात्मा अमूर्त है वह किसी भी परद्रव्यको न ग्रहण कर सकता और जब ग्रहण ही कुछ नहीं है तो वह छोड़ हो क्या सकता है ? टीकार्य प्रायोगिक अर्थात् परनिमित्तसे उत्पन्न हुए गुणकी सामर्थ्य से तथा वैनसिक याने स्वाभाविक गुणकी सामर्थ्य से ज्ञान के द्वारा परद्रव्यके ग्रहण करने और छोड़नेका असमर्थपना होनेसे ज्ञान परद्रव्यको कुछ भी न ग्रहण करता है और न छोड़ता है । प्रमूर्तिक ज्ञानस्वरूप आत्मद्रव्यके मूर्तिक द्रव्य माहार नहीं है, क्योंकि अमूर्तिकके मूर्तिक पुद्गलद्रव्य आहार नहीं होता। इस कारण ज्ञान प्राहारक नहीं है। अतः ज्ञानके देहकी शंका न करना । भावार्थ- ज्ञानस्वरूप प्रात्मा प्रमूर्तिक है और कर्म नोकर्म रूप पुद्गलमय पाहार मूर्तिक है । सो परमार्थसे पात्माके पुद्गलमय माहार नहीं है। प्रात्माका ऐसा ही स्वभाव है कि चाहे स्वभावरूप परिणमन करे या विभावरूप परिणमन करे, पात्माके अपने ही परिणामका ग्रहण त्याग है, परद्रव्य का ग्रहए त्याग कुछ भी नहीं है । अब कहते हैं कि देहरहित ज्ञानके मोक्षका कारण देह नहीं हैं-एवं ज्ञानस्य इत्यादि । अर्थ- इस प्रकार (पूर्वोक्त प्रकारसे) शुद्ध ज्ञानके देह ही विद्यमान नही है इसलिये जाताके देहमय चिन्ह (भेष) मोक्षका कारण नहीं है । Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ समयसार मूर्तास्मद्रव्यस्य मूर्तपुद्गलद्रव्यत्वादाहारः ततो ज्ञानं नाहारकं भवत्यतो ज्ञानस्य देहो न शंकनीयः || एवं ज्ञानस्य शुद्धस्य देह एव न विद्यते । ततो देहमयं ज्ञातुनं लिंगं मोक्षकारणं ।।२३८।। ।। ४०६०-४०६ ।। न खलु - अव्यय । सो सः प्रथमा एकवचन । आहारओ आहारक:- प्र० एक० । हवइ भवति - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन एवं उ ण एव तु न - अव्यय । आहारो आहारः - प्रथमा एक० । मुत्तो मूर्त:लालयमा एक० । सक्कइ शक्यते वर्तमान अन्य० एक० क्रिया । धित्तु गृहीतुं विमोत्तुं विमोक्तुं - हेत्वर्थे कृदन्त अध्यय । परद्दव्वं परद्रव्यं द्वितीया एकवचन । सो को सः कः - प्र० एक० | तस्स तस्य षष्ठी एक० गुणो गुण: पाउगिओ प्रायोगिकः विस्सओ स्रसः - प्रथमा एकवचन । विसुद्ध विशुद्धः चेया चेतयिता सो सः - प्रथमा एकवचन । गिन्हए गह्णाति - वर्तमान लद् अन्य पुरुष एक० क्रिया | fafa किंचित्-अध्यय । विमुंचद विमुंचति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । जीवाजीवाण दव्वाण षष्टी बहु० | जीवाजीवयोः द्रव्ययोः षष्ठी द्विवचन ॥ ४०५-४०७ प्रसंगविवरण - अनन्तरपूर्व पंचदशक में ज्ञानको समस्त परद्रव्य व परभावोंसे विविक्त तथा श्रात्मपरिणामोंसे अव्यतिरिक्त बताया गया था। अब इस गाथात्रिक में बताया है कि आत्मा मूर्त है वह पुद्गलद्रव्यका ग्राहारक नहीं हो सकता अतः वह अन्य जीव व सर्व प्रजीव द्रव्योंके ग्रह त्यागसे भी रहित है । तथ्यप्रकाश - १ - ज्ञान न तो स्वयं किसी परद्रव्यको ग्रहण करता है न छोड़ता है । २- ज्ञान किसी प्रायोगिक गुणके सामथ्र्यसे भी किसी परद्रव्यको न ग्रहण करता है, न छोड़ता है । ३ - ज्ञानके द्वारा परद्रव्य न तो ग्रहण किया जा सकता और न छोड़ा जा सकता । ४- परद्रव्य मूर्त पुद्गलद्रव्य अमूर्त ज्ञानका अर्थात् आत्माका महार हो हो नहीं सकता । ५जब ज्ञान पुद्गलका प्रहारक ही नहीं है तो ज्ञानका देह भी नहीं है । ६-जब ज्ञानका देह ही नहीं है तो देहमय वेश ज्ञाता के मोक्षका कारण कैसे होगा ? ७- निश्चयसे ज्ञाता के मोक्षका कारण ज्ञाताका सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप शुद्ध परिणाम है । सिद्धान्त -- १ - ग्रात्मद्रव्य में किसी भी परद्रव्यका ग्रहण नहीं है । दृष्टि--:- शून्यनय (१७३) । प्रयोग - कैवल्यदशा प्राप्त करनेके लिये गर्वपरद्रव्यों से भिन्न सर्वपरद्रव्योंके श्राहा र से रहित देहरहित केवल ज्ञानमात्र श्रात्मतत्त्वको निरखना ||४०५ - ४०७ ।। er लिङ्गकी मोक्षमताका प्रतिषेध करते हैं:- [ बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [पाखंडिलिगानि ] पाखंडलिंग [वा] अथवा [गृहिलिंगानि] गृहिलिंगोंको [ गृहीत्वा ] धारण करके [झूठा इति वदति ] प्रज्ञानी जन ऐसा कहते हैं कि [ इवं लिगं ] यह लिंग हो [मोक्ष i Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६४७ पाखंडीलिंगाणि व गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । वित्त वदंति मूढा लिंगमिणं मोक्खमग्गोति ॥४०॥ ण उ होदि मोक्खमग्गो लिंग जं देहणिम्ममा अरिहा । लिंग मुहत्त दंसणणाणचरित्ताणि सेयंति ॥४०६॥ पाखण्डीलिङ्गोंको, अथवा बहुविध गृहस्थ लिङ्गोंको । धारण करि प्रज्ञ कहें. लिनसी मोक्षका नया लिङ्ग नहि मोक्षका ५थ, क्योंकि जिनेशने देहनिर्मम हो। लिङ्गबुद्धि तज करके, दर्शन ज्ञान चरितको सेया ।।४०६॥ पाखंडिलिंगाणि वा गृहिलिगानि वा बहुप्रकाराणि । गृहीत्वा बदंति मुढा लिंगमिदं मोक्षमार्ग इति ।।४०८॥ न तु भवति मोक्षमार्गो लिमं यददेहनिर्ममा अहंतः । लिंग मुक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्राणि सेवते ।।४०६।। केचिद्रव्य लिगमज्ञानेन मोक्षमार्ग मन्यमानाः संतो मोहेन द्रव्यलिंगमेवोपाददते । तदा प्यनुपपन्नं सर्वेषामेव भगवतामहदेवानां शुद्धज्ञानमयत्वे सति द्रव्यलिंगाश्रयभूतशरीरममकार नामसंज्ञ-पाखंडीलिंग, व, गिहिलिंग, व, बहुप्पयार, सूढ, लिंग, इम, मोक्खमाग, इत्ति, ण, उ, लिङ्ग, देहिम्मम, अरिह, दराणणाणचरित्त । धातुसंज्ञ-गह ग्रहणे, हो सत्तायां, मुंच त्यागे, सेव सेवायां। प्रातिपदिक-पाखण्डीलिङ्ग, गृहिलिङ्ग, बहुप्रकार, मूढ, लिङ्ग, इदम्, मोक्षमार्ग, इति, लिङ्ग, देहनिर्मम, महंत, दर्शनशानचारित्र । मूलधातु-ग्रह उपादाने, वद व्यक्तायां वाचि, भू सत्तायां, मुच्ल मोक्षणे, सेव सेवायां । पदविवरण–पाखंडीलिङ्गाणि पाखण्डिलिगानि-द्वितीया बहु । गिहिलिङ्गाणि गृहिलिङ्गानिमार्गः] मोक्षका मार्ग है। [तु लिंगं मोक्षमार्गः न भवति] परन्तु लिंग मोक्षका मार्ग नहीं है [यत्] क्योकि [अहंतः] अर्हत देव भो [देहनिर्ममाः] देहसे निर्ममत्व होते हुए [लिगं मुक्त्वा] लिंगको छोड़कर [दर्शनशानचारित्रारिण सेवते] दर्शन ज्ञान चारित्रका हो सेवन करते हैं। . तात्पर्य-जहाँ देहसे भी निर्मम होकर मोक्ष जाना होता है फिर देहलिङ्गको मोक्षका मार्ग कैसे कहा जा सकता है। . टीकार्थ-कितने ही लोग अज्ञानसे द्रव्य लिगको हो मोक्षमार्ग मानते हुए मोहसे द्रव्यलिंगको ही अंगीकार करते हैं । वह भी (द्रध्यलिगको मोक्षमार्ग मानना) प्रयुक्त है, क्योंकि सभी अरहंत देवोंके शुद्ध ज्ञानमयता होनेपर, द्रव्यलिंगके आश्रयभूत शरीरके ममत्वका त्याग है, तया उस शरीरके आश्रित द्रव्यलिंगके त्यागसे दर्शनज्ञानचारित्रकी मोक्षमार्गरूपसे उपासना देखी जाती है । भावार्थ-यदि देहमय द्रव्यलिंग हो मोक्षका कारण होता तो अरहतादिक देहका ममत्व छोड़ दर्शनज्ञानचारित्रका क्यों सेवन करते, द्रश्यलिंगसे ही मोक्षको प्राप्त हो जाते । इस Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ समयसार त्यागात् । तदाश्रितद्रयलिंगत्यागेन दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षमार्गत्वेनोपासनस्य दर्शनात् ॥ ४०८-४०६ ॥ द्वि० बहु० । बहुप्पयाराणि बहुप्रकारानि-द्वि० बहु । चित्तुं गृहीतु-हेत्व) कृदन्त अध्यय । वदति-वर्तमान अन्य० बहु० क्रिया । मूढा भूता:-प्रथमा बहु० । लिङ्ग इणं लिङ्ग इद-द्वितीया एक० । मोषखमग्गो मोक्षमार्ग:-प्रथमा एकवचन ! होदि भवति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया। जं यत्-प्रथमा एकः । देहणिम्ममा देहनिर्ममा:-प्रथमा बहु० । अरिहा अर्हतः-प्र. बहु । लिङ्ग-द्वि० ए० । मुइत्तु मुक्त्या-असमाप्तिकी क्रिया । दसणणाणचरिताणि दर्शनज्ञानचारित्राण-वि० बहु । सेयंति संव-संभान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ॥ ४०८-४०६ ।। कारण यह निश्चय हुआ कि देहमयलिंग भोक्षमार्ग नहीं है । परमार्थसे दर्शनज्ञान चारित्ररूप प्रात्मा ही मोक्षका मार्ग है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथात्रिकमें बताया गया था कि अमूर्त प्रात्मद्रव्य पाहा. रक भी नहीं है उसके देह कैसा ? तथा जब देह ही नहीं है ज्ञाताके, तब उसके मोक्षका कारण देहमय वेश कैसे हो सकता है। अब इस गाथाद्वय में बताया है कि मूढ जन हो बहुत प्रकारके गृहिलिंग ब साधुवेशको मोक्षमार्ग कहते हैं, किन्तु वेश मोक्षमार्ग नहीं, क्योंकि देहसे ममत्व त्याग त्यागकर ही दर्शनज्ञानचारित्रको अभेदोपासनासे ही भव्यात्मा मोक्ष पाते हैं। तथ्यप्रकाश-१- अज्ञानवश द्रव्यलिंगसे ही मोक्ष माननेवाले लोग द्रव्यलिंगको ही ग्रहण करते हैं । २-जो परमात्मा हुए हैं उन्होंने द्रव्यलिंगके पाश्रयभूत शरोरसे ममत्व छोड़ा था। ३- जो परमात्मा हुए हैं उन्होंने शुद्ध ज्ञानमयस्वरूपको अभेदोपासना की थी। ४-देहा. श्रित लिङ्गके त्याग (ममकारत्याग) पूर्वक दर्शनज्ञानमारित्रकी उपासना करना मोक्षमार्ग है। सिद्धान्त-१- कार्य उपादानकारण के अनुरूप होता है । २- देहके वेषसे प्रात्माकी कैवल्यदशाको सिद्धि नहीं होती । ३- द्रव्यलिङ्गको मोक्षमार्ग कहना उपचार कपन है । दृष्टि-१- निश्चयनय (१६६) । २- परद्रव्यादिग्ग्राहक द्रध्यापिकनय (२९)। ३एकजाल्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) । प्रयोग-शाश्वत शान्तिधाम प्राप्त करनेके लिये देहविषयक ममता त्यागकर शान. स्वरूप स्वमें उपयोग लगाना ॥ ४०८-४०६ ।। __ आगे यह सिद्ध करते हैं कि दर्शन ज्ञान और चारित्र ही मोक्षमार्ग है:-[पासाडिगृहिमयानि लिंगानि] पाखंडी लिङ्ग याने मुनिलिंग और गृहस्पलिंग [एषः] यह [मोक्मार्गः] मोक्षमार्ग [नापि] नहीं है [जिनाः] जिनदेव [दर्शनज्ञानमारित्राणि] वर्शन शान पोर पारित्रको [मोक्षमार्ग] मोक्षमार्ग [विति] कहते हैं। Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६४६ प्रथैतदेव साधयति ण वि एस मोक्खमग्गो पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाणि । दंसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्गं जिणा विति ॥४१०॥ पाखण्डी व गृहस्थों-का लिङ्ग न कोइ मोक्षका पय है। दर्शन ज्ञान चरित्र हि, मोक्षका मार्ग जिन कहते ॥४१०॥ नाप्येष मोक्षमार्ग: पाखंडिगृहिमयानि लिङ्गानि। दर्शनज्ञानचरित्राणि मोक्षमार्ग जिना विदंति ।। ४१० ।। न खलु द्रव्यलिगं मोक्षमार्गः शरीराश्रितत्वे सति परद्रव्यत्वात् । तस्माद्दर्शनज्ञानचारित्राण्येव मोक्षमार्गः, प्रात्माश्रितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात् ॥४१०॥ - नामसंज्ञ- ण, वि, एत, मोक्खमग्ग, पाखंडीगिहिमय, लिङ्ग, दसगणाणचरित्त, मोक्खमग, जिण । धातुसंज्ञ-विद ज्ञाने । प्रातिपदिक - न, अपि, एतत्, मोक्षमार्ग, पाखण्डिगृहिमय, लिङ्ग, दर्शनज्ञानचारित्र. मोक्षमार्ग, जिन । मूलधातु-विद ज्ञाने अदादि । पडविवरण–ण विन अपि-अव्यय । एस एषः-प्रथमा एकवचन । मोक्खमग्गो मोक्षमार्ग:-प्र० ए० । पाखंडीगिहिमयाणि लिंगाण पारण्डिाहमयानि लिङ्गानिप्र. बहु० । दसणणाणचरित्ताणि दर्शनज्ञानचारित्राणि-द्वि० बहु । मोक्खमम्गे मोक्षमार्ग-द्वि० ए० । जिणा जिना:-प्र० बहु० । विति विदन्ति- वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन क्रिया ।। ४१० ।। तात्पर्य–परमार्थतः सम्प्रदर्शन ज्ञान चारित्रका एकत्व हो साक्षात् मोक्षमार्ग है। टोकार्थ--निश्चयसे द्रव्य लिंग मोक्षका मार्ग नहीं है, क्योंकि शरीरके प्राश्रित होनेसे यह परद्रव्य है । इस कारण दर्शनज्ञान चारित्र ही मोक्षमार्ग हैं; क्योंकि इसको याने दर्शनज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्गको प्रात्माश्रित होनेसे स्वद्रव्यपना है । भावार्थ-मोक्ष सब कमोंके प्रभाव रूप आत्माका परिणाम है, इस कारण मोक्षका कारण भी प्रात्माका परिणाम ही हो सकता। दर्शनज्ञानचारित्र प्रातमाके परिणाम हैं, इसलिये निश्वयसे दर्शनज्ञानचारित्रात्मक आत्म परिणाम हो मोक्षका मार्ग है । लिंग देहमय है, देह पुद्गलद्रव्यमय है; इसलिये देह प्रात्माके मोक्षका मार्ग नहीं है । परमार्थसे अन्यायका अन्यद्रव्य कुछ नहीं करता यह नियम है । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि देहलिग मोक्षमार्ग नहीं है । अब इस माथामें इसी विषयका समर्थन किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- परद्रव्य प्रात्माका मोक्षमार्ग नहीं है । २- द्रव्यलिंग शरीराश्रित होनेसे परद्रव्यरूप है। ३- प्रात्माश्रित परिणाम स्वद्रव्यरूप है। ४- प्रात्माश्रित परिणाम मात्माका मोक्षमार्ग हो सकता है । ५- सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र प्रात्मपरिणाम हैं प्रतः यह रत्नत्रय मोक्षमार्ग है। सिद्धान्त-१- अविकार ज्ञानस्वरूप प्रात्मतत्त्वके प्राश्रयसे मोक्ष होता है । Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार यत एवं-- तहमा दु हित्तु लिंगे सागारणगारएहिं वा गहिए । दसणणाणचरित्ते अप्पाणं झुंज मोक्खपहे ॥४११॥ इससे सागार तथा, अनगारोंके गृहीत लिङ्गोंको। तजि दृशिज्ञारचरितमय, शिवपथमें युक्त कर निजको ।।४११॥ तस्मात् तु हित्वा लिङ्गानि सागार रनगार्वा गृहीतानि । दर्शनशानचरित्रे आत्मानं युक्ष्व मोक्षपथे ।।'४११।। यतो द्रव्यालगं न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिगं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारिश्रेष्वेद नामसंज-त, दु, लिङ्ग, सागारणगार, वा, दसणाणचरित्त, अप्प, मोक्खपढ् । धातुसंस-हा ह्रासे, गह ग्रहरणे, जुज योगे । प्रातिपक्षिक-तत्, तु, लिंग, सागार, अनगार, वा, गृहीत, दर्शनशानचारित्र, आत्मन्, मोक्षपथ । मूलधातु-ओहाक त्यागे, ग्रह उपादाने, युजिर योगे रुधादि। पदविवरण–तम्हा तस्मात-पंचमी एक दुतु-अव्यय । हितु हित्वा-असमाप्तिकी क्रिया व अव्यय । लिंगे लिङ्गानि-द्वि०. दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब) । प्रयोग-कैवल्यलाभके लिये केवल प्रात्माश्रित सहज चैतन्यस्वरूपको उपासना कर रत्नत्रयपरिणमनरूप पौरुष करना ॥ ४१० ॥ अब कहते हैं कि यदि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है तो मोक्षार्थ क्या करना चाहिए[तस्मात त] इस कारण हो सागारः] गृहस्थोके द्वारा [बा] अथवा [भनगारः] मुनियोंके द्वारा गृहीतानि लिगानि] ग्रहण किये गये लिंगोंको [हित्वा] छोड़कर [प्रास्मानं] अपने पाल्माको दर्शनशानचारित्रे] दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप [मोक्षपथे] मोक्षमार्गमें [युक्ष्व] युक्त करो। तात्पर्य–लिङ्ग छोड़ने का भाव है लिङ्गसे ममता छोड़ना, सो गृहस्थ व मुनि अपने पदके लिङ्गमें रहकर उससे ममता छोड़कर प्रात्माके दर्शनज्ञान चारित्रमें उपयुक्त होनो। टोकार्थ-चंकि द्रव्यलिंग मोक्षका मार्ग नहीं है, इस कारण सभी द्रव्यलिंगोंको छोड़ कर दर्शनशानचारित्रमें ही प्रात्माको युक्त करना चाहिये । यही मोक्षका मार्ग है ऐसा सूत्रका उपदेश है । भावार्य-यहाँ द्रव्यलिंगको छुड़ाकर दर्शन ज्ञान और चारित्रमें लगानेका उपदेश है। यह सामान्य परमार्थ वचन है, कहीं यह मुनि व श्रावकके व्रत छुड़ानेका उपवेश नहीं है। जो केवल व्यलिंगको ही मोक्षमार्ग जानकर भेष धारण करते हैं उनको व्यलिगका पक्ष छुड़ाया है कि भेषमात्रसे मोक्ष नहीं है, परमार्थरूप मोक्षमार्ग प्रात्माके दर्शन ज्ञान और चारित्ररूप परिणाम ही हैं । चरणानुयोगमें कहे अनुसार जो मुनि व श्रावकके बाह्यवत हैं ये Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार मोक्षमार्गस्वात् प्रात्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः ।। दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमागों मुमुक्षुणा ॥२३६।। ।।४११।। ब० । सामारणगारएहि सागारैः अनगारैः-तृतीया बहु० । बा-अव्यय । गहिए गृहीतानि-द्वि० बहु० । दसणाणचरित्ते दर्शनज्ञानचरित्र-सप्तमी एक० । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एक० । जुंज युक्ष्व-आज्ञार्थं लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । मोवखपहे मोक्षपथे-सप्तमी एकवचन ।। ४११ ।। व्यवहारसे निश्चयमोक्षमार्गके साधक हैं, उन को नहीं छुड़ाते; परन्तु ऐसा कहते हैं कि उनका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ मोक्षमार्गमें लगनेसे ही मोक्ष होता है, केवल भेषमात्रसे मोक्ष नहीं ___ अब इसी प्रर्थको काव्यमें दृढ़ करते हैं-शन इत्यादि । अर्थ-प्रात्माका यथार्थरूप दर्शनशान चारित्रका त्रिकस्वरूप है। सो मोक्षके इच्छुक पुरुषोंको एक यही मोक्षमार्ग सदा सेवने योग्य है । भावार्थ- अन्तस्तत्त्वका श्रद्धान ज्ञान रमण ही मोक्षमार्ग है । प्रसंगविवरण-- अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं, किन्तु सभ्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय प्रात्मपरिणाम मोक्षमा है। अब इस गाथामें द्रयलिगका ममत्व छुटाकर प्रात्माको परमार्थ मोक्षमार्गमें लगानेका उपदेश किया है । तभ्यप्रकाश-१- देहलिग मोक्षमा नहीं हैं, गोंकि ट्रगालिग अनात्माश्रित है। २- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र मोक्षमार्ग है, क्योंकि यह रत्नत्रय प्रात्माश्रित है । ३-समस्तद्रव्यलिगको त्यागकर दर्शनज्ञानचारित्रमें ही अपनेको भगाना मोक्षमार्गको साधना है । ४-देहममत्व का त्याग ही समस्त द्रयलिंगका त्याग है । सिद्धान्त---१- अनात्माश्रित द्रव्यलिङ्ग प्रात्माके विकासका मार्ग नहीं है । . दृष्टि ---१- प्रतिषेधक शुद्धनय (४६ अ)। प्रयोग-गृहीत देहलिगका ममकार छोड़कर, देहका ममकार छोड़कर अपने मात्माको दर्शन ज्ञानचारित्रमय मोक्षमार्गमें लगाना ।।४११॥ प्रब मोक्षपथमें लगनेका उपदेश गाथामें कहते हैं:-- हे भव्य तू [मोक्षपणे] मोक्षमार्ग में [प्रात्मानं] अपने प्रात्माको [स्थापय] स्थापित कर [च सं एवं] उसीका [ध्याय] ध्यान कर [तं घेतयस्व] उसीका अनुभव कर [तत्रैव नित्यं विहर] और उस प्रात्मामें ही निरंतर विहार कर, [अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः] न्यद्रव्योंमें विहार मत कर । तात्पर्य---सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमें ही उपयुक्त रहना मोक्षार्थीका कर्तव्य है। टीकार्थ- अनादि संसारसे लेकर अपने बुद्धिदोषसे परद्रय रागद्वेषादि नित्य ही Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ समयसार मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय। तत्थेव विहर णिच्च मा विहरसु अण्णदब्वेसु ॥४१२॥ शिवपथमें प्रात्माको, थापो ध्याओ व अनुभवो उसको । उस ही में नित्य विचर, मल विचसे अन्य द्रव्यों में ॥४१२॥ मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व । तत्रैव विहर नित्यं मा विहापरिन्यद्रव्येषु ।।४१२।। मा संसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव स्वप्रज्ञादोषिएावतिष्ठमानमपि स्व प्रज्ञागुगनव ततो यावर्त्य दर्शनशानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापय अतिनिश्चलमात्मानं । तथा समस्तचिन्तान्तरनिरोधेनात्यंतमेकाग्रो भूत्वा दानजारिश राय . राधा कानुक काफलचेतनासंन्यासेन शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वा दर्शनशानचारित्राण्येव चेतयस्व । तया द्रध्यस्वभाववशतः प्रतिक्षणविज़म्भमाणपरिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनशानचारिश्रेश्वेव विहर । तथा - नामसंज्ञ-...मोक्लपह, अप्प, त, च, एव, त, तस्थ, एव, णिच, मा, अण्णदछ । धातुसंज्ञ- दुद स्थापनायां, ज्झा ध्याने, चेय स्मृत्यों चेत करणावबोधनयोः, वि. हर हरणे उपसर्गादर्थपरिवर्तनम् । प्राशिपदिक-मोक्षपथ, आत्मन्, तत्, च, एव, तत्, तत्र, एव, नित्यं, अन्यद्रव्य । मूलधातु-प्ठा गतिनिवृत्ती प्रवर्त रहे अपने प्रात्माको प्रपनी बुद्धिके ही गुगसे उन परद्रव्योंसे याने राग-द्वेषसे छुड़ाकर दर्शनज्ञानचारित्र में निरन्तर अति निश्चलरूपसे स्थापित कर । तथा समस्त अन्य चिंतानोंके निरोधसे अत्यन्त एकाग्नचित्त होकर दर्शनज्ञानचारित्रका हो ध्यान कर । तथा समस्त कर्म और कर्मफलरूप.. चेतनाका त्याग करके शुद्धशानचेतनामय होकर दर्शनज्ञानचारित्रका ही अनुभव कर । तथा द्रव्य के स्वभावके वश प्रतिक्षण उत्पन्न हो रहे परिणामपनेसे उन परिणामों में तन्मय होकर दर्शन ज्ञान चारित्रमें ही विहार कर । तथा एक ज्ञानरूपको ही निश्चलरूप अवलंबता हुमा ज्ञेयरूपसे ज्ञान में उपाधिपनेके कारण सब प्रोरसे फैले हये परद्रव्योंमें किचित्मात्र भी बिहार मत कर । भावार्थ-परमार्थरूप प्रात्माके परिणाम दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं, वे ही मोक्षमार्ग हैं, उनमें ही पाल्माको स्थापित करो, उनका ही ध्यान करो, उन्हीं का अनुभव करो, और उन्हीं में प्रवों, अन्य द्रव्योंमें नहीं प्रवर्ती । केवल व्यवहारमें ही मूढ़ न रही यह प्राचार्यदेवका यहाँ उपदेश है। अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं—एको मोक्ष इत्यादि। अर्थ-दर्शन ज्ञान चारित्र स्वरूप यही एक मोक्षका मार्ग है। जो पुरुष उसी में ठहरता है, उसको निरंतर ध्याता है, उसीका अनुभव करता है और अन्य द्रव्योंका स्पर्शन नहीं करता, उसीमें निरंतर प्रवर्तन करता है, वह पुरुष थोड़े हो कालमें जिसका नित्य उदय रहे, ऐसे समयसारके स्वरूप Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६५३ ज्ञानरूपमेकमेवाचलितमवलंबमानी शेयरूपेणोपाधित या सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेध्वपि मनागपि मा विहार्षीः ।। एको मोक्षपथो य एष नियतो दृग्ज्ञप्तिवृत्तात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति ! तस्मिन्नेव निरंतर बितर ति द्रव्यांतराण्यस्पृशन् सोऽत्रश्यं जित, ध्यं चिन्तायां, चिती संज्ञाने, वि हा हरणे । पदविवरण-मोवखपहे मोक्षपथे-सप्तमी एकवचन । अप्पाणं आत्मानं-द्वितीया एक०। ठवेहि स्थापय आज्ञार्थं लोट् मध्यम पुरुष एकवचन णिजन्त क्रिया । तं-द्वि० ए० । झाहि ध्यायस्व-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एकवचन क्रिया । तं-द्वि० ए० । का अनुभव करता है। भावार्थ----निश्चयमोक्षमार्गके सेवनसे अल्पकालमें हो मोक्षको प्राप्ति होती है यह नियम है। ___ अब कहते हैं कि जो द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग मानकर उसमें ममत्व रखते हैं वे मोक्षको नहीं पाते उसकी सूचनाका काव्य है-ये त्वेनं इत्यादि । अर्थ-जो पुरुष इस पूर्वोक्त परमार्थस्वरूप मोक्षमार्गको छोड़कर व्यवहारमार्गमें स्थापित अपने आपसे द्रव्यमयलिङ्गीमें याने बाह्य भेषमें हो ममता करते हैं, अर्थात् यह जानते हैं कि यही हमको मोक्ष प्राप्त करायगा वे पुरुष तत्वके यथार्थज्ञानसे रहित होते हुए नित्य उदित प्रखंड अतुलप्रकाशा वाले स्वभावको प्रभाके पुज, अमल समयसारको प्राप्त नहीं कर सकते भावार्थ--जिनको द्रव्यलिङ्ग में ममता है वे अब तक भी समयसारको नहीं पा सके। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें दर्शनज्ञानचारित्रमें प्रात्माको लगानेकी प्रेरणा दी गई थी। अब इस माथामें और विस्तारसे उसोका समर्थन किया है । तथ्यप्रकाश-१- रागद्वेषादि विकार कार्मारण द्रव्यके अनुभाग होनेसे परद्रव्य हैं । २- रागद्वेषादि कर्मानुभागों में यह जीव अपने प्रज्ञादोषसे अनादिसे ठहरता चला पाया है । ३-अपने स्वरूपको सुध रूप प्रज्ञागुरासे यह प्रात्मा रागद्वेषादिसे हट सकता है । ४-रागद्वेषादि विकारसे हटकर ही यह प्रात्मा अपने पापको अपने दर्शनज्ञान चारित्रमें स्थित कर सकता है । ५-ज्ञानी पुरुष अन्यत्र चित्त न देकर एकाग्रतासे दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूपका ही ध्यान करता है । ६-ज्ञानी पुरुष समस्त कर्मचेतना व कर्मफलचेतनाके परिहारसे शुद्धज्ञान चेतनामय हुपा है सो वह दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूपको ही चेलता रहता है । ७-प्रात्माका नाम ब्रह्म है जिसका संकेत है कि प्रात्मा गुस्गोंके द्वारा बढ़ता रहता है स्वगुणवू लाति इति ब्रह्म । ८- अपने ब्रह्मस्वभाववशसे प्रतिक्षण गुणोमें बढ़-बढ़कर उन परिणामोंमें तन्मय होकर ज्ञानी दर्शनज्ञानारित्रस्वरूप में ही विहार करता है अर्थात् उपयोग रमाये रहता है । ६-- ज्ञानस्वरूप एक प्रचल प्रात्मतत्वमें उपयोग रखने वाला शानी यद्यपि शेयरूपसे सब पोरसे परद्रव्य Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ समयसार समयस्य सारमचिरान्नित्योदयं विदति ॥२४०। ये त्वेनं परिहत्य संवृतिपथप्रस्थापितेनात्मना लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्त्वावबोधच्युताः । नित्योद्योतमखंडमेकमतुलालोकं स्वभावप्रभाप्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यति ते ॥२४१।। ।।४१२।। चेय चेतस्व-आज्ञार्थे लोट् मभ्यम पुरुष एक० । तत्थ तत्र एव-अव्यय । णिच्चं नित्यं-अव्यय मा-अव्यय । विहरसु विहर-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एक० किया । अण्णदन्वेसु अन्यद्रव्येषु-सप्तमी बहुवचन ।।४१२।। प्रात्मामें दौड़ प्राये याने झलक रहे तो भी उन सर्व परद्रव्योंमें झलकोंमें रंच भी विहार नहीं करता याने उपयोग नहीं रमाता । सिद्धान्त—१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्यमें ज्ञानमात्र अन्तस्तत्त्वमें उपयोग रमाना मोक्षमार्ग है । २- द्रव्यलिङ्गको मोक्षमार्ग कहना उपचार है। दृष्टि-१- उपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय, शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२१, २४ब) । २- एकजात्याधारे मान्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४२) । प्रयोग-केवल ज्ञानवृत्ति बनाये रहने के लिये ज्ञानमात्र शुद्ध अन्तस्तत्त्वका प्रभेदविधि से ध्यान करना ।।४१२॥ अब उक्त गाथासंकेतको स्पष्ट कहते हैं:-[2] जो पुरुष [पाखंरिलिगेषु] पाखंडो लिंगोंमें [था] प्रथवा [बहुप्रकारेषु गृहिलिगेषु या] बहूत भेद वाले गृहस्थ लिंगोंमें [ममत्व] ममता [कुर्वति] करते हैं अर्थात् हमको ये ही मोक्षके देने वाले हैं ऐसी प्रास्था रखते हैं [तः] उन पुरुषोंने [समयसारः] समयसारको [न ज्ञातः] नहीं जाना। तात्पर्य-जो द्रव्यलिंगसे ही मुक्ति मानकर अन्तस्तस्वके पालम्बनका ध्येय छोड़ देते हैं बे समयसार परमतत्त्वसे बिल्कुल अनभिज्ञ हैं । टोकार्थ-जो पुरुष निश्चयतः मैं श्रमण हूं, अथवा श्रमणका उपासक हूं; इस तरह द्रव्यलिंगमें ममकार करके मिथ्या अहंकार करते हैं, वे अनादिसे चले आये व्यवहारमें विमूढ़ हुए प्रौढ़ विवेक वाले निश्चयनयको नहीं पाते हुए परमार्थतः सत्यार्थ भगवान ज्ञानरूप समयसारको नहीं देखते । भावार्य-जो अनादिकालीन परद्रव्यके संयोगसे व्यवहारमें मोही हैं वे ऐसा जानते हैं कि यह बाह्य महावतादिरूप भेद ही हमको मोक्ष प्राप्त करायेगा, परन्तु जिससे भेदज्ञानका जानना होता है ऐसे निश्चयनयको नहीं जानते, उनके सत्यार्थपरमात्मरूप शुद्धज्ञानमय समयसारकी प्राप्ति नहीं होती। ____ अब इसी अर्थको कलशरूप काव्यमें कहते हैं- व्यवहार इत्यादि । अर्थ-जो लोक व्यवहारमें ही मोहित बुद्धिवाले हैं वे परमार्थको नहीं जानते । जैसे लोकमें तुष (भूषा) के Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धशानाधिकार ६५५ पाखंडीलिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु । कुव्बंति जे ममत्तं तेहिं ण णायं समयसारं ॥४१३॥ पाखण्डी लिङ्गोंमें, तथा विविध सब गृहस्थ लिङ्गोंमें । जो ममत्व करते उन को न समयसार ज्ञात हमा॥४१३॥ पाखंडिलिगेषु वा गृहिलिगेषु वा बहुप्रकारेषु । कुर्वति ये ममत्वं तैर्न ज्ञात: समयसारः ।। ४१३ ।। ये खलु श्रमणोऽहं श्रमणोघासकोऽहमिति द्रयलिंगममकारेण मिथ्याहसारं कुर्वन्ति तेऽनादिरूढव्यवहारविमूढा: प्रौढविवेकं निश्चयमनारुढा: परमार्थसत्यं भगवंतं समयसारं न नामसंश- पाखंडीलिंग, व, गिहिलिंग, व, बहुप्पयार, ज, ममत्त, त, ण, गाय, समयसार । धातुसंज्ञ-कुब्ब करणे, शा अवबोधने । प्रातिपदिक- पाखन्डिलिंग, वा, गृहिलिंग, व, बहुप्रकार, यत्, ममत्व, तत्, न, ज्ञात । मूलधातु-डुकृत्र करणे, ज्ञा अवबोधने । पदविवरण- पाखंडीलिंगेसु पाखण्डिलिगेषु गिहिही ज्ञानमें विमुग्ध बुद्धि वाले तुषको हो संचित करते हैं वे तंदुग्नको नहीं संचित करते हैं। भावार्थ--जो व्यवहारमें ही मूढ़ हो रहे हैं अर्थात् शरीरादि परद्रव्यको ही प्रात्मा जानते हैं वे परमार्थ प्रात्माको नहीं जानते ।। प्रागे इसी प्रर्थको काब्य में दृढ़ करते हैं-द्रयलिंग इत्यादि । प्रर्थ-द्रव्यलिंगके मोहसे अंधे हुए पुरुषोंके द्वारा समयसार नहीं देखा जा सकता; क्योंकि इस लोकमें द्रव्यलिंग तो अन्यद्रव्यसे होता है. और एक यह ज्ञान अपने आत्मद्रव्यसे होता है। भावार्य -- जो द्रव्यलिंगको ही अपना मानते हैं वे मोहान्ध हैं। प्रसंगविवरण- अनन्तरपूर्व गायामें देहादिविषयक रागद्वेषादिसे हटाकर दर्शन ज्ञानचारित्रस्वरूप साक्षात् मोक्षमार्गमें उपयुक्त कराया था। प्रब इस गायामें उसी मार्गकी दृढ़ताके लिये बताया है कि जो साक्षात् मोक्षमार्गसे इटकर द्रव्यलिङ्गोंमें ममत्व करता है उसने समयसार ही नहीं जाना, फिर उसका कल्याण होगा ही कैसे ? तथ्यप्रकाश–१- मै मुनि हूं इस प्राशयमें द्रव्यलिङ्गके प्रति दृढ़ ममत्व बसा हुमा है । २-मैं श्रमणोपासक हूँ, श्रावक हूं इस माशयमें भी श्रावकवेशरूप द्रब्यलिङ्गमें दृढ़ ममत्व बसा हुआ है । ३-द्रव्यलिन में ममत्व होनेसे मिथ्या अहंकारकी वृत्ति जगतो रहती है । ४-वेशमें अहंकार करने वाले मुग्ध पुरुष विवेकसे च्युत रहते हैं। ५- द्रव्यलिङ्गकी ममता वाले मिथ्याहंकारी अविवेकी पुरुष परमार्थसत्य भगवान समयसारको निरख नहीं सकते। ६- जो व्यवहारमें ही विमूढ हो गये हैं वे परमार्थ सहजामस्वरूपपर दृष्टि भी नहीं कर पाते । ५-सहजात्मस्वरूपको दृष्टि, प्रतीति, रुचि, अनुभूति बिना मोक्षमार्गका प्रारम्भ भी नहीं Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ समयसार पश्यति ।। व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयंति नो जनाः। तुषबोधविमुग्ध बुद्धयः कलयंतीह तुषं न तंडुलं ।।२४२।। द्रव्यलिंगममकारमीलित: दृश्यते समय सार एव न । द्रव्यलिंगमिह यत्किलान्यतो ज्ञानमेकमिदमेव हि स्वत: ॥२४३।। ।। ४१३ ।। लिंगेसु गृहिलिगेषु बहुप्पयारेसु बहुप्रकारेषु-सप्तमी वहु० । कुवंति कुर्वन्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु. किया । जे ये-प्रथमा बहु० । ममत्तं ममत्वं-द्वि० ए०। तेहि तै:-तृ० बहु० । ण न-अव्यय । णायं ज्ञात:प्रथमा एक कृदन्त क्रिया । समयसार समयसार:-प्रथमा एक० ।। ४१३ ।। होता । ८-मैं केवल चैतन्यमात्र प्रात्मपदार्थ हूँ इस प्राशयमें ज्ञानका शुद्धप्रकाश है । ६-जान प्रकाश स्वसे होता है, द्रव्यलिङ्ग परसे अर्थात् देहसे होता है, अत: ज्ञानप्रकाशरूप मोक्षमार्गका मिलन प्रधलिङ्गसे नहीं। सिद्धान्त--१-मात्माके प्रात्मीय पुरुषार्थसे शुद्धात्मस्व की सिद्धि होती है । दृष्टि-१-पुरुषकारनय (१८३) । प्रयोग--शुद्धात्मत्वकी प्रकटताके लिये देहवेशदृष्टि न रखकर चैतन्यमात्र शुद्धात्मस्व. स्वरूपको ही उपयोगमें बनाये रहना ॥४१३।। अब लहते हैं कि यहारमय तो मुनि श्रावकके भेदसें दो प्रकारके लिंगोंको मोक्षमार्ग कहता है और निश्वयनय किसी लिंगको मोक्षमार्ग नहीं कहता--[व्यावहारिकः नयः] व्यवहारनय [ लिंगे पि] मुनि श्रावकके भेदसे दोनों ही प्रकारके लिंगोंको [मोक्षपये भरणति] मोक्षमार्ग कहता है [पुनः] पोर [निश्चयनयः] निश्चयनय [सलिगानि] सभी लिंगोंको [मोक्षपणे न इच्छति] मोक्षमार्गमें इष्ट नहीं करता। तात्पर्य-मुनि और श्रावक वेशको व्यवहारसे ही मोक्षमागं कहा गया है, निश्चयनय से कोई भी वेश मोक्षमार्ग नहीं है, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही मोक्षमार्ग है । टीकार्य-मुनि और उपासकके भेदसे दो प्रकारका लिङ्ग मोक्षमार्ग है जो ऐसा कहना है वह केवल व्यवहार हो है परमार्थ नहीं है, क्योंकि उस व्यवहारनयके स्वयं प्रशुद्ध द्रव्यका अनुभवस्वरूपपना होनेपर परमार्थपनेका अभाव है । तथा मुनि और श्रावकके भेदसे भिन्न दर्शन शान चारित्रकी प्रवृत्तिमात्र निर्मलज्ञान ही एक है, ऐसा निर्मल जो अनुभवन है वही परमार्थ है । क्योंकि ऐसे ज्ञान के ही स्वयं शुद्धद्रव्यरूप होनेका स्वरूपपना होनेपर परमार्थपना है । इसलिये जो पुरुष केवल व्यवहारको ही परमार्थबुद्धिसे अनुभवते हैं वे समयसार का अनुभव नहीं करते, जो परमार्थका ही परमार्थकी बुद्धिसे अनुभव करते है वे हो इस समरसारको अनुभवते हैं । भावार्थ--व्यवहारनयका विषय भेदरूप अशुद्धद्रव्य और निश्चय Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ६५७ ववहारियो पुण णो दोण्णिवि लिंगाणि भाइ मोक्खपहे । णिच्छयणो ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि ॥ ४१४ ॥ व्यवहारनय बताता, दोनों ही लिङ्ग मोक्षके पथ हैं। निश्चय सब लिडोको, शिवपथमें इष्ट नहिं करता ॥४१४॥ व्यावहारिक: नयः पुनः द्वे अपि लिंगे भणति मोक्षपथे । निश्चयनयः न इच्छति मोक्षपथे सर्वलिंगानि ।। यः खलु श्रमणश्रमणोपासकभेदेन द्विविधं द्रव्यलिंगं मोक्षमार्ग इति प्ररूपणप्रकारः स केवलं व्यवहार एव, न परमार्थस्तस्य स्वयमशुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वाभावात् । यदेव श्रमणश्रमणोपासकविकल्पातिक्रांत दृशिज्ञप्तिवृत्तप्रवृत्तिमात्र शुद्धज्ञान मेवैकमिति निस्तुषसंचेतनं परमार्थः, तस्यैव स्वयं शुद्धद्रव्यानुभवनात्मकत्वे सति परमार्थत्वात् । ततो ये व्यवहार नामसंज–ववहारिओ, पुण, ण, दु, वि, लिंग, मोक्खपह, णिच्छयण, ण, मोक्खपह, सलिंग । धातुसंज-भण कथने, इच्छ इच्छायां । प्रातिपषिक–व्यावहारिक, पुनर्, नय, द्वि, अपि, लिङ्ग. मोक्षपथ, नयका विषय अभेवरूप शुद्ध द्रव्य परमार्थ है । जो व्यवहारको ही निश्चय मानकर प्रवर्तन कर रहे हैं उनको समयसारको प्राप्ति नहीं है, और जो परमार्थको परमार्थ जानते हैं उनको समयसारको प्राप्ति होती है और वे ही मोक्ष पाते हैं। अब काध्यमें कहते हैं कि बहुत कहने से क्या लाभ, एक परमार्थ का ही चितवन करना-प्रलमल इत्यादि । अर्थ-बहुत कहनेसे और बहुतसे दुर्विकल्पोंसे बस होप्रो, उनमे कुछ लाभ नहीं । एक परमार्थका ही निरन्तर अनुभवन करना चाहिये । क्योंकि वास्तवमें अपने रसके फैलावसे पूर्ण ज्ञानके स्फुरायमान होने मात्र समयसार याने सहज परमात्मतत्त्वके सिवाय अन्य कुछ भी सार नहीं है । भावार्थ-परमार्थतः पूर्ण ज्ञानस्वरूप प्रात्माका अनुभव करना हो समयसार है। __ अब इस समयसार ग्रंथकी पूर्णताका संकेत करते हैं--इदमेकं इत्यादि । अर्थ - पानन्दमय विज्ञानधनको प्रत्यक्ष करता हुआ यह एक अक्षय जगच्चक्षु पूर्णताको प्राप्त होता है। भावार्थ-यह समयप्राभूतग्रंथ वचनरूप तथा ज्ञानरूप दोनों ही प्रकारसे अद्वितीय नेत्रके समान है, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादिको प्रत्यक्ष दिखलाता है वैसे यह भी शुद्ध प्रात्माके स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि द्रव्यलिङ्गमें ममत्व करने वालोंने समयसार ही न जान पाया। अब इस प्रसंगको अन्तिम गाथामें बताया है कि पव. हारनय तो मुनिलिङ्ग व भावलिङ्ग दोनोंको मोक्षमार्ग इष्ट करता है, किन्तु निश्चयनय किसी Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ समयसार मेव परमार्थ बुद्धया चेतयंते ते समयसारमेव न चेतयंते । य एव परमार्थं परमार्थबुद्धया चेतयंते ते एव समयसारं चेतयंते || अलमल मतिजल्पविकल्प रनरूप रयमिह परमार्थश्चिन्त्यतां नित्यमेकः । स्वरसविस पूर्णज्ञान विस्फूर्तिमात्रान खलु समयमारादुत्तरं किंचिदस्ति ।। २४४॥ इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णतां । विज्ञानघनमानंदमयमध्यक्षतां नयत् ॥ २४५।। ।। ४१४ ।। निश्चयनयन, मोक्षपथ, सर्वलिङ्ग । मूलधातु भण शब्दार्थः इषु इच्छायां । पद विवरण- बबहारिओ व्यावहारिकः णओ नयः प्रथमा एक० । पुण पुनः- अव्यय । दोणि-द्वितीया बहु० । द्वे द्वितीया द्विवचन | धि - अव्यय लिया। द्विवचन | भणद भगत-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन किया | मोक्खपहे मोक्षपथे- सप्तमी एक० णिच्छयणओ निश्चयनयः- प्रथमा एक० । ण नअव्यय । इच्छुइ इच्छति बर्तमान लद् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । मोक्त्रपहे मोक्षपथे सप्तमी ए० । सव्वलिंगाणि सर्व लिंगानि द्वितीया बहुवचन ॥१४॥ भी लिङ्गको मोक्षमार्ग नहीं मानता । तथ्य प्रकाश--- - (१) द्रव्यलिङ्गके बिना मोक्ष नहीं, द्रव्यलिङ्गसे मोक्ष नहीं । ( २ ) समस्त परिग्रहों का पूर्ण त्याग होनेपर जो देहमात्र रहता है वह मुनिलिङ्ग है । ( ३ ) परिग्रह का परिमाण कर व्रतों का पालन करते हुए जो भेष रहता है वह श्रावकलिङ्ग है । (४) कोई बाह्य परिग्रहका त्याग न करें, द्रव्यलिंग धारण न करे और अन्तरंग परिग्रह कषाय छूट जाय, यह नहीं हो सकता । ( ५ ) कोई बाह्य परिग्रहका त्याग कर दे उसके अन्तरंग परिग्रह कषाय छूट ही जाय, यह नियम नहीं है । (६) व्यवहारनय कहता है कि श्रमण और श्रमणोपासक ऐसे दो प्रकारके द्रव्यलिङ्ग मोक्षमार्ग है । (७) निश्चयनयके मत में दोनों ही प्रकार के द्रव्यलिङ्ग मोक्षमार्ग नहीं है । ( ८ ) व्यवहारका विषय भेद, संयोग, उपचार, निमित्तनैमित्तिक व श्राधाराधेय सम्बन्ध आदि है, अतः केवल परिपूर्ण एक द्रव्यको न देखनेसे व्यवहार अपरमार्थ है | ( 8 ) द्रव्यलिङ्ग अर्थात् देहलिङ्ग मोक्षमार्ग है यह प्ररूपण व्यवहार है, परमार्थं नहीं । (१०) द्रव्यलिङ्गके विकल्पसे अतिक्रान्त दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप शुद्ध ज्ञान ही एक मैं हूं, इस प्रकारका निर्मल अभेद अनुभव मोक्षमार्ग है यह परमार्थ है । ( ११ ) जो व्यवहारको ही परमार्थ समझ लेते है वे समयसारको नहीं अनुभव सकते । ( १२ ) जो परमार्थको ही परमार्थबुद्धिसे अनुभवते हैं वे समयसारको अनुभवते हैं । ( १३ ) समयसार से अर्थात् सहजात्मस्वरूपसे अधिक उत्कृष्ट तत्त्व अन्य कुछ नही है । सिद्धान्त - ( १ ) रत्नत्रयभाव केवल एक स्वद्रव्य के अनुभवरूप होनेसे परमार्थ मोक्षमार्ग है । (२) द्रव्यलिंग परद्रव्यका परिणाम होनेसे आत्माका मोक्षमार्ग नहीं । दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय । २ परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिकनय (२४३, २६ ) | 4 Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 सर्वत्रिशुद्धज्ञानाधिकार जो समयपाहुडमिणं पडिहूणं प्रत्थतचदो गाउं । त्थे ठाही चेया सो होही उत्तमं सोक्खं ॥ ४१५॥ जो भि समयप्राभृतको, पढ़कर सत्यार्थ तत्त्वसे लखकर । श्रर्थमध्य ठहरेगा, वह सहजानन्दमय होगा ॥४१५॥ यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा । अर्थ स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यं ॥ ४१५|| यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्वस्व ६५६ नामसंज्ञ – ज, समयपाहुड, इम, अत्थतच्चदो, अत्थ, चैषा, त, उत्तम सोक्ख । धातुसंज्ञ - पढ़ पहने, जाण अवबोधने ट्ठा गतिनिवृत्ती हो सत्तायां । प्रातिपदिक- यत् समयप्राभृत, इदम् अर्थतत्त्वतः, अर्थ नेतृ उत्तम सौद : अलधालु पठने, ज्ञा अवबोधने, ष्ठा गतिनिवृत्तौ भू सत्तायां । पद विवरण- जो यः - प्रथमा ए० । समयपाहुडं समय प्राभृतं द्वि० ए० । इणं इदम् - वि० ए० । पडिहूणं पठित्वा प्रयोग -- मोक्षलाभ के लिये मुनिलिङ्ग धारण कर उस देहलिङ्गसे उपेक्षा कर दर्श ज्ञानचारित्रवृत्तिमय शुद्ध ज्ञानघन प्रारमतत्वमें उपयोग करना ।। ४१४ ॥ अब पूज्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस ग्रंथको पूर्ण करते समय इसकी महिमा के रूपमें पढ़नेके फलकी गाथा कहते हैं - [यः चेतयिता ] जो चेतयिता पुरुष ( भव्यजीव) [ इदं समयप्राभृतं पठित्वा ] इस समय प्राभृतको पढ़कर [प्रर्थतस्त स्वतः ज्ञात्वा ] अर्थ से प्रोर तत्त्वसे जान कर [ अर्थे स्थास्यति ] इसके अर्थ में ठहरेगा [सः ] वह [ उत्तमं सौख्यं भविष्यति ] उत्तम सुखस्वरूप होगा । तात्पर्य - जो भव्य जीव समयसारके वाच्य समयसार में स्थित होगा वह उत्तम सुखस्वरूप होगा । टोकार्थ - जो भव्य पुरुष निश्चयतः समयसारभूत भगवान परमात्माका विश्वप्रका कपना होनेके कारण विश्वसमयका प्रतिपादन करनेसे स्वयं शब्दब्रह्मस्वरूप इस शास्त्रको करके विश्वप्रकाशन में समर्थ परमार्थभूत चित्प्रकाशस्वरूप श्रात्माको निश्चित करता हुआ अर्थ से और तत्त्व से जानकर इसी अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्म में सर्व स्थित होगा वह साक्षात् तत्क्षण प्रकट होने वाले एक चैतन्यरस से परिपूर्ण स्वभाव में सुस्थित और निराकुल होनेसे परमानन्दशब्दवाच्य उत्तम अनाकुलत्व लक्षण वाला सौख्यस्वरूप स्वयं ही होगा । भावार्थ - यह समयप्राभृतनामक शास्त्र समयको याने पदार्थ व आत्माको बहने वाला है । जो इस शास्त्रको पढ़कर इसके यथार्थ अर्थ में ठहरेगा वह परमब्रह्मको अनुभवेगा । इससे Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - समयसार प्रतिपादनात शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रभिदमधीत्य विश्वप्रकाशनसमर्थपरमार्थभूतचित्प्रकाशरूपं परमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णे विज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वाग्भेमा स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षणविज़म्भमाणविदेकरसअसमाप्तिको क्रिया । अत्थतच्चदो अर्थतत्त्वतः-पंचम्यर्थे तद्धितप्रत्ययन्त अव्यय । णाचं ज्ञात्वा-असमाप्तिकी क्रिया । अत्थे अर्थ-सप्तमी एक० । ठाही स्थास्यति-भविष्यति लुट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया । चेया परमानन्दमय स्वात्मीक, स्वाधीन, बांधारहित (अविनाशी) उत्तम सुखको प्राप्त करेगा । इसलिए हे भव्य पुरुषो! अपने कल्याणके लिए इसको पढ़ो, सुनो, निरन्तर इसीका ध्यान रखो, जिससे कि अविनाशी सुखकी प्राप्ति होवे । अब इस सर्वविशुद्ध ज्ञान के अधिकारको पूर्णताका वचन इस कलशरूप श्लोकमें कहते हैं--इतीदं इत्यादि । अर्थ-इस प्रकार यह प्रात्माका तत्त्व प्रखण्ड, एक, प्रचल, स्वसम्वेद्य, प्रबाधित ज्ञानमात्र ही अवस्थित होता है । भावार्थ-ज्ञानार्थ प्रात्माका निजस्वरूप ज्ञान हो कहा है । यद्यपि प्रात्मामें अनन्त धर्म हैं तथापि उनमें कोई तो साधारण हैं सो वे अतिव्याप्ति स्वरूप है, उनसे प्रात्मा पहचाना नहीं जाता तथा कोई पर्यायाश्रित हैं किसी प्रवस्थामें होते हैं, किसी में नहीं हैं इसलिए वे अन्याप्तिस्वरूप हैं, उनसे भी प्रात्मा नहीं पहचाना जाता। तथा चैतन्य यद्यपि शाश्वत लक्षण है तो भी शक्तिमात्र है, प्रतः वह अदृश्य है, हाँ उसका व्यक्त रूप दर्शन और ज्ञान है। उनमें से ज्ञान साकार है, प्रगट अनुभवगोचर है; इसी कारण ज्ञानके द्वारा ही आत्मा पहचाना जाता है। प्रतएव इस ज्ञानको ही प्रधान करके आत्मतत्त्व कहा गया है । यहाँ ऐसा नहीं समझना कि जो प्रात्माको ज्ञानमात्र तत्त्व कहा है सो इतना ही परमार्थ है, अन्य गुण भूठे हैं, आत्मामें नहीं हैं। तथा ऐसा भी न समझना कि वे सब गुण स्वतन्त्र सत् हैं उनका समूह आत्मा है । किसी प्रकारका एकान्त अभिप्राय रखकर कोई मुनिप्रत भी पालन करे तथा कल्पित स्वरूपमै प्रात्माका ध्यान करे तो भी मिथ्यात्व नहीं छूटता । मन्द कषायके निमित्तसे भले ही किसीको स्वर्ग प्राप्त हो जावे, परन्तु समयसार अन्तस्तत्त्वका प्राश्रय लिये बिना मोक्षका साधन नहीं होता । अतः स्याद्वादसे सिद्ध तत्त्वको हो यथार्थ सममना चाहिये । प्रसंगविवरण – अनंतरपूर्व गाथा तक परमपूज्य श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने समयमाभृत ग्रन्थकी रचना को । अव इस अन्तिम गाथामें इस ग्रन्थके अध्ययन मननका फल बताया है। तभ्यप्रकाश-(१) यह समयप्राभृत ग्रन्थ शब्दब्रह्मस्वरूप है, क्योंकि यह ग्रंथ विश्वसमय अर्थात समस्त द्रव्यका प्रतिपादक है । (२) समयप्राभृत विश्वसमयप्रतिपादक है, क्योंकि Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार निभरस्वभावसुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानंदशब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं स्वमेव भविष्यतीति ॥ इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितं । प्रखंडमेकमचल स्वसंवेद्यमबा. धितं ।।२४६॥ ॥ ४१५ ॥ इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारख्याख्यायामात्मख्याती सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोऽङ्कः ॥ ८ ॥ चेतयिता-प्रथमा एकवचन | सो स:-प्रथमा एक०। होही भविष्यति-भविष्यत्काले लुट् अन्य पुरुष एक बचन क्रिया । उत्तम-प्रथमा एकवचन । सोक्खं सौख्यं-प्रथमा एकवचन ।। ४१५ ।। ग्रन्थ विश्वको जानने वाले भगवान परमात्माके स्वरूपका दर्शक है। (३) भगवान परमात्म कार्यसमयसार है, भगवान प्रात्मा प्रोष कारणसमयसार है, क्षीणमोह वीतराग अन्तरात्म! समुचित कारणसमयसार है, समयप्राभृतग्रंथ परमागम समयसार है । (४) समयसार ग्रंथका अर्थसे अध्ययन करनेपर समयसार प्रात्मतत्त्वका ज्ञान होता है । (५) समयसार ग्रन्थका भावभासनासे अध्ययन करनेपर समयसार प्रात्मतत्त्वका सानुभव सम्यग्ज्ञान होता है । (६) समयसारको प्रर्थ से व तत्त्वसे जानकर ज्ञानघन परमब्रह्म अन्तस्तस्व समयसारमें जो स्थित होसा वह अलौकिक सहज परम आनन्दस्वरूप होता है। (७) अखण्ड प्रचल प्रबाधित स्वसंवेद्य शान मात्र अन्तस्तत्त्व समयसार है। (८) प्रानन्दमय विज्ञानधन प्रात्मस्वरूपको स्पष्ट दर्शाता हुमा यह जगचक्षु समयसार प्रन्थ पूर्णताको प्राप्त होता है । (६) मानन्दमय विज्ञानघन परमब्रह्मको प्रत्यक्ष दिखाता हुआ यह जगच्चक्षु सम्यग्ज्ञान अपने सहजविलाससे भरपूर होता है। सिद्धान्त---(१) समयसार प्रभेद पैतन्यस्वरूप है। (२) कारणसमयसारके आश्रय से कार्यसमयसार होता है। दृष्टि-१-भेदकल्पनानिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनम (२३) । २-शुद्धनिश्चयनय (४६)। प्रयोग---अलौकिक स्वाधीन सहज आनन्द पानेके लिये समयसार ग्रंथका अर्थसहित व भावभासनासहित अध्ययन मनन करके शुद्ध अन्तस्तत्वकी दृष्टिके बलसे ज्ञानघन प्रात्मस्व. रूपको शानमें बनाये रहना ।। ४१५ ॥ इनि पूज्यश्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यविरचित समयसारपर व पूज्यश्रीमद्मृतचंद्रसूरिविरचित प्रात्मस्याति टीकापर सविनख मानाधिकारको ।। श्रीमत्तहजानवविरचित सप्तदशाङ्गी टीका समाप्त ।। Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + समयसारस्य अकारादिक्रमेण गाथासूची # गा.सं. पसं. ३७५ ६०४ ३४४ ५५ ३३१ ५५३ ११५ २२८ २८ १२ २० ६१ ३२६ ५५३ १२४ २३५ ६३ १३२ ११६ २३१ अज्झवसानिमित्तं जीवा अज्झसिदेण बंधो सत्ते अटुक्मिप्पे कम्मे णोकम्म अविहं पिय कम्म सवं अण्णदविएण अण्णवियस्सं अण्णाणमओ भावो अगाणिणो अण्णाभया भावा अण्णाणो अण्णाणमया मावा अणाणिणो अण्णमोहिदमदी मनमिणं अण्णाणस्स स उदोजं जीवाणं ...पणाणी कम्मफलं पडि अण्णाणी पुण रस्तो सम्वदम्चेमु अण्णी करेह अण्णो परिभु जह अत्ता जस्सामुप्तो ग हु सो अपशिकमणं दुविहं अपच्चखालं अपडिक्कमणं दुविहं दचे भाव अपरिग्गही अणिच्छो भणिदो अपरिगहो अणिन्छो भणिदो अपरिगहो अणिन्छो भणिदो अपरिगहो अणिन्छो मणिदो अपरिमंतहि सयं जीवे कोहादिएहिं अपडिकमण अप्पडिसरणं अप्पाणमप्पणा घिऊण दो अप्पाणमयाणता मूढा दु अप्याणमयाणतोबणप्पयं चावि अप्पा णिचो अर्सखिज्जपदेसो अप्पाणं सायंतो सणणाणमो बरसमस्वमगंध अम्बत्तं अवरे अनक्साणेसु तिश्वमंदा भसुह सुहं व दवंण भणह भसुहं सुहं व रुवं णसं भणद असुहो सुहो व मंधो ण तं भगइ असुहो सुही व गुणो ण त भणह भसुहो महो व फासो ण संभणइ । भसुहो सुहो व रसोणतं भणइ गा.सं. पृ.सं. असुही सही व सद्दोण तं भणइ २६७ ४५६ बह जाणओ उ मायो णाणसहावेण २६२ ४४८ अह जीवो पयठी तह पुग्गल दवं १५२ ३२७ अह ण पयडी ण जीवो पुम्गलदब्ध ४५ १०४ अह दे अण्णो कोहो अण्णव - ३७२ ५६९ अहमिक्को स्वल सुजो दसणणाण १२७ २४. अहमिनको खलु सुद्धो णिम्ममओ १२६ २४२ अहमेदं एदमहं अहमेदरसेव १३१ २४४ अहवा एसो जीवो पूरगलदव्यस्स अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अयाण १३२ २४७ अह सयमप्पा परिणमदि कोहभाचेण ३१६ ५३६ अह संसारस्थाणं जीवाणं तुज्ज्ञ २१९३९४ अह सयमेव हि परिणमदि कम्मभाषण ३४८ ५६६ आ ४०५ ६४४ आउक्खयेण मरणं जीवाणं २८३ ४८४ अमोल श्रीवा २८४ ४८४ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं २१० ३७६ आऊदयेण जीवदि जीवो एवं २११३६१ आदमि दयभाये अपदे मोतूण २१२ ३८२ आदा खु माझ गाणं आदा मे २१३ ३८४ आशाकम उद्देसियं च १२२ २३५ आधा कम्माईया पुग्गलदम्बस्स ३०७ ५२. आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं मायारादी णाणं जीवादी . आया पिणाणं जम्हा यासं २०२ ३६० आसि मम पुग्धमेदं अहमेदस्साकि ३४२ ५५६ १८६ ३३६ इणमण्णं जीवादो देहं पुग्गल. ४६ ११० इय कम्मबंधणाणं पएसठिय २४८ ४३२ २४६ ४३२ २५१ ४३६ २५२ ४३६ २०३३३ २७७ ४७४ २८७ ४८ २८६ ४५८ २०४ ३१६ २७६ ४७४ ४०१ ६३७ २८ ७२ २६. ४६२ ३५१६०५ उदयो असंजमस्स दुजं उदयविवागो विविहो कम्माण ३७७ ६.४ उप्पण्णोदय भोगो बिजोग ३८.१०४ उम्पादेदि करेदि य बंधदि ३७६ ६०४ उम्मग मच्छत सगंपि ३५८ ६०४ उबओगस्स अणाई परिणामा १३३ २४७ १६६ ३५४ २१५ ३८७ १०७ २२१ १६ १८६ Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूची गा. सं. पृ. सं. उवोगे उवओगो कोहादिनु उवधायं कुन्वंतस्स तस्स उवधायं कुवंतस्स तस्स गाणा उवभौमिदियहि देवाण ३१३ ५३१ २४१ ४२१ २७२ ४६६ ८२ १६६ ६६५ ५८२ २०० ३५७ २४६४२७ २५६ ४४४ ११७ २३१ एएण कारणेण दुकता आदा एए सम्छे भावा पुगल दम्ब एएस य उनओगो तिविहो एएहि य संबंधो जहेब खीरोदयं एक्कं च दोष्णि तिणिय एकस्स दु परिणामो जायदि एकस्स दु परिणामो पुरंगल एदमि रदो णिच्च संसुट्टो एदाणि णस्थि असि एदाहि य शिव्यस्सा जीवट्टाणा एदे अचेदणा खनु पुग्गनकम्म एदेण कारण दु सम्मादिट्ट एदेण दुसो कत्ता आदा णिच्छय एदेसु हेदृभूदेसु कम्मइय एमादिए दु विविहे सम्धे एमेव कम्मपयडी सीलसहाब एमेव जीबपुरिसो कम्मर एमेव मिश्छादिट्री गाणी एमेव य ववहारी अज्यवसाणादि एमेव सम्मदिट्रो बिसयत्थं एवं तु अविबरीदं णाण जइया एयं तु जाणिऊण उवसम व एयत्तपिच्छयगओ समओ एवं तु असंभूदं आदविय एवमलिये अदत्त अदं भवेरे एवमिह जो दु जीयो सो एवं हि सावराहो बज्झामि एवं जाण पाणी अण्णाणी एवं ण कोवि मोक्खो एवं गाणी सुद्धो ण सयं एवं तु णिच्छयणयस्स एवं पराणि दध्वाणि अप्पयं मा.सं पृ.सं १८१ ३२७ एवं पुग्गलदच्वं जीयो तह २३६ ४२१ एवं बंधो उ दुष्ह वि २४४ ८२७ एवं मिच्छादिट्री बट्टतो १६५ ३४४ एव चवहारणओ परिसिद्धो एवं ववहारस्स उ एवं वबहारस्स विणिन्छओ एवंविदा बहुबिहा परमप्पागं एवं संखुवएसं जे उ पवित्ति ५७ १२२ एवं सम्माट्ठिो अप्पाणं मणदि एवं सम्मादिट्ठी वट्टतो १३८ २५० एवं हि जीवराया णादग्दो तह य १४० २५३ एसा दुजा मई दे २०६ ३७१ २७. ४६१ कणयमया भावादो कम्मइयवगणासुय १११ २२४ कम्मजं पुवक कम्म जं सुहमसुह ६७ २०२ कम्मं जाणं ण हबइ जह्मा कम्म १३५२४७ कम्म पड़च्च कसा कत्तार २१४ ३८५ कम्म बमबझं जीवे एवं १४६ २७६ कम्ममसहं कुसील सहकम्म २२५ ४०१ कम्मस्साभावेण म गोकम्माण ३२६ ५४६ कम्मरसय परिणाम णोकम्मस्स ४८ १०५ कम्मरसुदयं जीवं अवरे २२७ ४०१ कम्मे पोकम्महि य अहमिदि १८३ ३२७ कम्मेहि दु अण्णाणी किन्नइ ३८२ ६.५ कम्भेहि ममाडिज्जइ ३ ११ कमेहि सुहाविज्जह २२ ६१ कम्मोदएण जीवा २६३ ४.४६ कम्मोदएण जीवा ११४ २२८ कम्मोदएण जीवा ३०३ ५१४ कह सो घिपा अप्पा पण्णाए १८५ ३३२ कालो णाणं ण हबइ ३२३ ५४६ केहिवि दुपज्जएहि . २७६ ४७७ केहिचिदुपज्जएहि ३६० ५८१ को णाम भणिज्ज हो परदवं ९६ १९४ को णाम भणिज्ज हो शाई' ३८४ ६११ ३६७ ६३६ ३११ ५२७ १४२ २५६ १४५ २७० १६२ ३३६ १६ ५० ३३२ ५५० ३३४ ५५८ १३३ ५५० २५४ ४३६ २५५ ४३६ २५६ ४३९ २०७ ३७३ Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समघसार कीधादिस तस्स तस्स कोहुवजुत्तो कोहो माणक्जुत्तो गुणसण्णिदा दु एदे कम्म गंधरसफासरूवा देहो संठाग गंधो पार्ण ण हवा गा.सं. पृ.सं ३१३ ५८१ १६४ ५८२ २२६ ४०१ २४२४२७ १७६ ३२३ २७८ ४७७ २९१ ४६ २९२ ४६६ १६६ ३५० १०५ २२३ १६५ ३४ १५२ ५४४ ३४६ ५७४ पबिह भयभेयं बंधते पारिसपरिणिवढं कसायं या उपयीय? छिज्ज वा भिजदु वा णिज्यदु दिदि मिददि य तहा दिदि भिदि य तहा ताली भा.सं. पृ.सं. ७.१४३ वह परदवं सेडदि १२५ २३५ जह परदव्यं सेदि जह पुण सो चिय पुरिसो वह पुणा सो व गरो जन पुगि प हिलो जह फलिहमणो सुद्धोण सपं जह बंधे चितंतो बंधणबसो जह बंधे छित्तण य जह मज्ज पिबमाणो अरदिभावेण अह राया क्वहारा बोसगुणु ३१२ ५३१ जह विसमुवभुजतो वेजो जह सिप्पिओ उम्मफलं २०६ ३७७ जह सिपियो उम्म जह सिपिओ उ करणाणि अह सिप्पिओ उ करणेहि जह सिप्पिो उचिट्ठ १३९ २५३ जह से डिया दुण परस्स २८६ ४६२ जह सेहिया दु ण परस्स ७१ १४७ जह से डिया दु २२२ ३६७ जह सेडिया दु २६ ६८ जना कम्यं कुम्बद फम्म देई जमा धाएइ परं परेण घाइज्जए ६६ २०७ जह्या जाणइ णिचं तह्मा २५ ६४ बह्मा दुबत्तभावं पुग्गलभावंच ३१५ ५३३ जह्मा दु जहण्णादोणाणगुणादो १८४ ३३२ जा एसो पयडीयटू चेया ३२५ ५४६ जावं अपडिक्कमणं अवश्य ३५५ ५७४ जाव ण देदि विसेसंतरंतु ११३ १२८ जिदमोइस्स दु जया खीपो मोहो ५ २२ जीबणिबड़ा एए बधुव अणिकचा १७ ५५ जीबपरिगामहेदु कम्मत ३५ १ जीवनि हेदुदे बस्स दु १४८ २७६ जीवस्स जोनरुवं वित्तरदो २३७ ४२१ चीवस्स रे गा केंद्र २८८ ४६२ पौवास मस्थि केई मोबट्टामा १११५५१ मोबस्समावि रागो परियोसो १९२११ बीवस्स मारिप बग्यो म ३५. ५७४ ३५४ ५७४ १५६ ५८१ ३५७ ५५१ ३५८ ५८१ ३५९५०१ जंइ जीदेण महच्चिय जह णवि कृपइच्छेदं ण मुच्चए जया इमेण नीषण अप्पणी जझ्या स एव संखो सेक्सहावं अदि जीवो ण सरीरं तिल्षयरा अदि पुग्गलकम्ममिणं कुम्वाद जदि सो परदस्वाणि य करिज्ज जदि सो पुग्गलदग्बीभूदो जीवत्त जया विमुपए या कम्मप्फल बह कणयमग्गितवियं पि कणय यह कोवि गरो जपइ अझ जह चिट्ठ' कुब्र्वतो जह जीवस्स अणष्णुवबोगो जह जवि सक्कमणज्जो अणजजह नाम को विपुरिसोरायाणं जह णाम कोवि पुरिसो परदब्ध जहणाम कोवि पुरिसो मुग्थ्यि जहणाम कोवि पुरिसो मेहभत्तो जहमाम कोदि परिसो बमयहि बाद परमम् सेदि बह परदन्यं सेवारि ३३८ ५५८ ४.३ १३७ ३१. ५३३ २८५४८४ ७४ १५६ ..१ १०५ २१८ ३७.११४ ५१ ११४ ५२४ Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूची गा सं प.सं. मा.सं प.सं २४० ४२१ २४५ ४२७ २३२ ४१३ १३७ २५. ३०१ ५२७ १५५ २८६ १४१ २५५ जो सो दुणेहभावो तम्हि गरे जो सो अणेहभावो तम्हि जो हवा असम्मूढो घेदा जो हि सुरहिमच्छह अप्पाणमिन ज कुणह भावमादा कत्ता सो जंकुणादि भावमादा कत्ता सो मावं सहमसुहं करेदि आक्षा जे सूहमसुहमुदिणं १२६२३८ १०२ २१५ ४२ #५ २ ८ ४.२ ६३० ३६ ५८ बीपस्म परिव वषो जवि गंधा जीवस्स दुकम्मेण 4 सह परिणामा जीवरसाजीवस्स दुजे जीवादीसहहर्ण सम्मत वीवे कम्म व पुदि जीये थे सायं पण सर्य भीयो कम्म उही दोणिवि हनु जीबो परिसदसणणाणदिउ भीयो चेव हि एदे सके भावाप्ति जीयो ण करेदि यह गेम पड़ जीवो परिणामयदे पुगलदवाणि जीयो बंधो य तह छिअंति जीवो बंधी व तहा जे पुग्गलदवाणं परिणामा जो मप्पणा दु मणदि जो इंदिये विणित्ता गाणसहावा ओ कुणदि वलत जो पत्तारि विपाए दिदि जो देव कुणा जो जहि गुणे दव्ये सोमणम्हि गो ग करेदि जुगुप्प जो ण कुणा अवराहे जो ग मरणिय दुहिदो जोश करेदि कवं जोधेहि कये जुद्ध रायेण कदंति यो पस्सदि अप्पाणं अपडपटु जो पस्सदि अप्पाणं भवदपुटु जो पण मिरवराधो या जो मण्णादि जीवेमिय जो मण्णादि हिंसामिव को भरह जो य दुहिदो जो मोहं तु चिणिता णाणसहावा जो वेददि वेदिज्जरि समए समए जो समयपाहडमिणं जो सव्यसंगमुक्को शायदि जो सिद्धत्तिजत्तो जो सुबणाणं सवं आग सुष ४०१ ६४७ ३१७ ५३८ ३. ४४ २० ४५. ३६५ ६३६ ४१. ६४ ३१६ ५४२ १०. २०६ मकदोनि मि उपयो ११८२३१ णभवसाणं णाम २६४ ४६E णस्थि दुभासवबंधो सम्मादिद्रिम्स २१५५०३ स्थि मम को वि मोहो बुग्यदि स्थि मम धम्मआदी बज्यादि २५३ ४३८ ।उ होदि मोक्खमम्मों ३१ ७१ ण मुबइ पडिमभको सदवि २३५ ४१७ णयरम्मि वणिणदे जह ण वि २२६ ४०६ ण य रायदोसमोहं कुम्वाद ३४७ ५६६ प रसो दुइबइ गाणं १०३ २१४ वि एस मोक्खमम्गो २३१ ११३ मचि कुज्य कामगुणो जीवो कम्म ३०२ ५१४ गावि कुबइ वि वेयइ २५० १४२ गवि परिणमदि ण गिलदि २३० ४११ मवि परिणमदि ण गिदि १०६ २२० "दि परिणमदिन गिधा १४ ४३ नदि परिणमदिन गिदि १५ ४ गवि सक्का चितु जं। ३०५ ५१७ दि होदि अप्पमत्तो ण पमसो २५० ४३४ ग सयं बद्धो कम्मे ण सयं २४७ ४३१ गाणे सम्मादिट्टि दु संजमं २५७ ४४२ णाणगुणेण विहीणा एवं तु ३२ ७६ गाणमधम्मो ण हवइ २१६ ३८ जाणमया भावाओ णाणमको गाणस्स देसणस्सम १८८ ३३६ गाणस्स पडिनिबई अण्णाणं २३३ ४१५ माणादरशादीयस्स दे दे १. २५ गाणी रागप्पअहो सम्बदम्बेस ७७ १६० ७८ १६५ ७६ १६७ ------ ---- १२१ २३५ ४०४ ६३७ २०५ ३६६ २९६ ६३६ १२८ २४२ ३६६ ५ १६२ २६५ २१५३१४ Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.६६ समयसार मा.सं प. ७२ १४६ दुक्खिदमुहिदे सत्ते फरेमि ३७३ ६०४ दोण्हति णयाण भणियं दसणणाणचरित जं. दसणणाणचरितं किचिदि १२० २३१ दसणणाणचरितं किंचिति २१८५४० दसणणाणचरितं किचिदि दंगणणाणचरिताणि सेविदवाणि गा.स. प.स. २६. ४८६ १४३ २६२ १७२ ३१३ पादूण आसवाणं अमुचितं च शिदियसंथमवयणणि पोग्गला पिच्चं पच्चक्याणं णिच्छयणमस्त एन आदा णियमा कम्मपरिणद कम्म चिय णिग्वेयसमावण्णो णाणी गंब य जीचट्टाणा ण गुणटुण्णा जो ठिदिबंधढाणा जीवस्स ण ३६७ ५६५ ३६८ १६५ धमाधम्म व तहा धम्मो णाणं ण हवइ २६६ ४५८ ३६८ ६३६ तस्य भवे जीवाणं संसारस्थाण तइ जीवे कम्माणं णोकम्माणं च सहगाणिस्स दुपन्वं जे वद्धा तह गाणिस्स बि बिबिहे तह णाणी विहु जश्या गाण तहवि य सच्चे दत्ते बों तमा उ जो विसुद्धो तभा दुहित लिगे नमा ण कोवि जीबी अखंभचारी तहमा ण कोवि जीवो बधायओ तमा पप मेति णिचा दोहंवि तह्मा दु कुसीलेहि य रायं मा तिविहो एसुवओगो अप्पविय तिविही एसुवओगो अपवियप्पं सेसि पुणोवि य इमो भणिदो सेसि हेऊ मणिदा नं एयत्तविहतं दाएह अप्पणो तं खलु जीवणिबद्ध' ऋम्मइय तं णिच्छये ग जुज्जदि ण सरीर सं जाण बोगउदयं जो जीवाणं १६८ ३०६ ६७ १३७ ३०६. ५२० २६७ ५०६ २६६ ५०८ २६८ ५०० १५४ २५४ १५२ २८१ १५१ २७६ ६२ १६१ १८० ३२३ पक्के फलह्मि पडिए जहण २२१ ३६७ . पम्जत्तापज्जता जे सुहमा २२३ ३६७ पडिकमण पष्टिसरण २६४ ४४६ पण्णाए धिसभ्यो जो चेदा ४०७ ६४४ पण्णाए धिलध्वो जो णादा ४११ ६५० पण्णाए चित्तच्चो जो इट्टा ३३७ ५५८ परमट्टबाहिरा जे ले अण्णाणेण ३३६ ५५६ परमह्मि दु अठिदो जो कुणदि ३२७ ५४६ परमट्ठो खलु समओ सुद्धो जो १४७ २७५ परमपाणं कुष्य अपाणे पिय ६४ १६५ परमपाणमफुटवं अप्पाणं पिय #५ १६७ परमाणुमित्तयपि रायादीणं ११० २२४ पाखंहीलिंगाणिव १६० ३३६ पाखंडीलिगेसु व ५ १६ पुगणलकम्म कोहो जीवं १३६ २४७ पुगगलकम्म मिच्छ जोगो २६ ७३ पुग्गलकम्म रागो तस्स •१३४ २४७ पुढवीपिंडसमाणा पुश्वणिवदा परिसित्थियाहिलासी ३०१ ५१४ पुरिसो जह कोवि यह बित्ति पोग्गलदब्व सहप्तपरिणय १०४ २१६ - पंथे मुस्संत परिसदूण लोगा ३०८ ५२७ १६४ ३४७ फासो ण हवा पाण ३२० ५४३ २६६ ४५४ वी धमाओविय २०१ ३६० ४०८ ६४७ ४१३ ६५५ १२३ २३५ ८८ १५४ १६६ ३५६ याई अबराहे कुयदि २२४ ४०१ ३७४ ६०४ ५८ १२४ दव्यगुणस्स य ादा ण कुणदि दक्यिं जे उत्पज्जर गुणेहि दव्वे उबमुजसे णियमा दिछी बहेव गाणं अकारयं दुक्खिदमुहिदे जीवे ३६६ ६३६ २७१ ४६४ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूची गा.सं. प.सं. बंधाणं च सहाय विवाणियो बंधुयभोगणिमित्ते ८४ १७५ ४१४ ६५७ भावो रागादिजुदो जीवेण मजतस्स वि विबिहे ममत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य ५६ १२० २३६ ४१८ ३८७ ६१५ ३८८ ६१५ ३०१ ६१५ मझ परिगहो जातदो मारिमि जीवावेमि य सत्ते मिच्छत अविरमणं कसाय जोगा मिच्छतं अह पयडी मिच्छत्त पुण विहं जीव मजीव मोक्खं असद्दहतो अभविय मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि मोत्तूण णिच्छय ववहारे मोहणकम्मरसुदया दु वणिया ३६० १३६ २७५ ४७२ ३६१ ६३६ र गा.सं. पू.सं. २१३ ४६८ ववहारस्स दरीमणमुपएसो २१७ ३६२ ववहारस्स दु आदा पुम्गलकम्म ववहारिओ पुण गओ १६७ ३०५ ववहारेण दु आदा करेदि २२० ३६७ ववहारेण दु एदे जीवस हवंति १३ ३७ ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स ववहारोऽभूयस्थो भूयत्यो देसियो २०८ ३७५ विज्जारहमारूढी मणोरह २६१ ४४६ वेदतो कम्मफलं अप्पाणं वेदत्तो कम्मफलं मए ३२८ ५५३ वेदंतो कम्मफलं मुहिदो १७ १८२ बंदिसु सच्चसिद्ध २७४ ४६६ ४१२ ६५२ सत्यं गाणं ण हवा १५६ २८८ सद्दहदि म पत्तियदि य सही जाणं ण हवइ जमा सम्मतपदिणिब मgri १५० २७५ सम्मदिट्टी जीवा पिस्संका ३७१ ५६५ सभ्मद सणणाणं एसो लहदित्ति १७७ ३२० सवण्हणाणदिट्ठो जीवो उवओग २८१ ४६२ सन्चे करेइ जीयो अज्यवसाणेण २८२ ४८३ सम्वे पुन्वणिबद्धा पच्चया ४७ १०८ सधे भावे जमा पञ्चक्खाइ सामण्णपच्चया खलु चरो सुदपरिचिदाणुभूया सव्वस्सवि सुद्धं तु बियाणतो सुद्ध ३२१ ५४६ सुद्धो सुद्धादेसो गायव्यो परम सेवतो वि ण सेवइ असेवमाणो ३६३ ६३६ सो चैव कुणइ सोचिय १५७ २६० सोणिय पिणियल बंधदि १५८ २९० सो सवणाणरिसी १५६ २६० संती दूणिरुवभोज्ज. बाला २१ संसिद्धिराधसिद्ध साधिय १५३ २८३ २७३ ४६५ हेअभावे णियमा २७ ७० हेदूचदुधियप्पो अट्टव्यियप्पस्य २२४ ५४६ होदूण णिस्वभोज्जा तह रत्तो बंधदि कम्म मदि रागो दोसो मोहो जीवस्सेय रागो दोसो मोहो य आसवा रायह्मि य दोसह्मि य रायझि य दोसहि य राय हु जिग्गदो तिय एसो रूवं पाणश हवह जह्मा स्वं २२८ ४०५ १४ २६४ २४ ६४ १७३ ३१६ ३४ ६३ १०६ २२४ १८६३३४ लोयसमणाणमयं लोयस्स कुणइ विण्डू ३२२ ५४६ १६७ ३५२ ३४७ ५६६ १४६ २७३ वण्णो णाणं ण हवा अस्थस्स सेदभावोजह पासेदि वत्थरस सेदभावो जह रस्थस्स सेदभावो जह बत्युपडुच्च जं पुण वदणियमाणि धरता लाणि पदसमिद्रीगुत्तीओ बबहारणओ थासदि जीयो देहो य वहारभासिएण उ परदन्छ । १७४ ३१६ ३०४ ५१७ १११ ३३ १५८ ३९. १७५ ३१६ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार ज कलशकाव्यानां अकारादिक्रमेण सूची गा.सं. प.सं. आसंसारविरोधिसंवरजयकान्ता १६५ ५२६ आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणी गा.सं. प.सं. १२५ ३२६ १३८ ३६१ २८ ८२ १७६ ७६ १७७ ४६१ ३१ ६१ २४६ ६६१ २३४ ६३५ अकर्ता जीवोऽयं स्थित इति । अखंडितमनाकुलं ज्वलदनम्त अचित्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मान अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलति यदिमा: अज्ञानतस्तु सतुणाभ्यवहारकारी अज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्च अज्ञानमेतदधिगम्य परात्वरस्य अज्ञामान्मृगतृष्णकां जसधिया अज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नास्मान मज्ञानी प्रकृतिस्वभावनिरतो अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनता अतः शुद्धनमाय प्रत्यग्ज्योति अत्यंतं भावयित्वा विरतिमविरतं अथ महामनिर्भरमबरं समररंग बस्तापि हि खेतमा जगति अध्यास्य शुद्धनषमुद्धतबोधचिह्न अनंतधर्मणस्तत्त्वं पश्यन्ती अनवरतमनतबध्यते सापराधः अनागनंतमचल स्वसंवेद्यमिदं अनेमाध्यवसायेन निष्फलेन अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं अयि कथमपि मृत्वा तस्यकौतूहली अलमलमतिजल्प विकल्प अवतरति न याबद् वृत्तिमत्यन्त बस्मिन्मनादिनि महत्यविवेक १४४ ३७२ इति परिचितसवरात्मकायकतायो १४१ ३६८ इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति ५७ २०३ इति वस्तूस्वभाव स्वं नाजानी ६. २४६ इति सति सह सरस्वभाव इतीदमात्मनस्तत्त्वं ५८ २०३ हतः पदार्थप्रपनावगुठनाद इत्यं ज्ञानक्रकचकलनापादनं इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव १८८ ५२३ इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल सालमा 3 ३६ इत्येवं बिरचय्य संप्रति इदमक जगच्चक्षुरक्षय ११३ २६६ इदमबान तात्पर्य हेयः १८३ ५११ इन्द्रजालमिदवमुच्छलत उ २१ उदयति ननयधीरस्तमेति प्रमाण १८७ ५१६ जन्मक्तमन्मोपामशेषतस्तत्तथास ११ १४० उभयनयविरोधध्वसिनि स्यात् १४५ ३७८ १७८ ४६.. २४५ ६५८ १२२ १२३ १४० ३६४ २७ २ १८४५११ १६. ४०८ ५२ १८० आक्रामन्नविकल्पभावमचलं वास्मनश्चिन्तयवाल भयका भारममावाकरोत्यात्मा परमाबान मात्मस्वमा परमावभिन्नमापूर्ण मात्मा झार्न स्वयं प्रानं ज्ञानादन्यत् भास्मानं परिशुद्धमीप्सुमिरतिव्याप्ति मात्मानुभूतिरिति शनयाल्मिका या बासंसारत एवं धाति परं कुर्वेह २३५ ६४३ एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वाद २३ ६७ एकत्वं ब्यबहारतो न तु पून: २४४ ६५८ एकत्वे निम्तस्य शुद्धनकतो २९ ८७ एकमेव हि तत्स्वाधं विपदा - ४ १४१ एकश्चितश्चिन्मय एवं भावो एक ज्ञानमनाद्यनंतमचलं ६३ २६५ एक: परिणमति सदा परिणामो - १६ ५४ - एकः कर्ता घिदहमिह में कर्म ५६ १८१ एकस्य कर्ता नप्तया परस्य . १. ४२ एकस्य कार्य न तथा परस्य ६२ २०५ एकस्य आत्मोन तथा परस्य २०८ ५७१ एकस्य चको न तथा परस्य १३ ४८ एकस्य जीवोन तथा परस्य ५५ १८१ एकस्य दुष्टोन तथा परस्य ७४ २५७ ७६ २५८ .८६ २५६ २१ २५६ ७६ २५० ७३ २५७ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकस्य दुश्यो न तथा परस्य एकस्य माना न तथा परस्य एकस्य निश्यो न खथा परस्य एकस्य बद्री न तथा परस्थ एकस्य भातो न तथा परस्य एकस्य भावो न तथा परस्य एकस्य भोक्ता न तथा परस्य एकस्य मूढो न तथा परस्य एकस्य रवतो न तथा परस्य एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण सार्धं एकस्य वाच्यो न तथा परस्य एकस्य वेधो न तथा परस्य एकस्य सांतो न तथा परस्य एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य एकस्य हेतुर्न म तथा परस्य एको दूरास्यजति मंदिरां ब्राह्मणत्वा एको मोक्षपयो य एष एवं शामस्य बुद्धस्य देह एव न एष नयनो नित्यमात्मा सिद्धि एव हि वेदना मदवसं फ कथमपि समुपात्तत्रित्वमध्येकताया कथमपि हि लभते भेदनिशानमूला कर्ता कर्ता वति न यथा कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्तारं स्वफलेन यत्किम बलात् तुर्वेदयितुश्च युक्तिमतो कस्वं न स्वभावोऽस्य पितो कर्म सर्वमपि सर्वविदो कमेव प्रतिक्यं कर्तृ हल: काय स्नपयंति के दमादिशो कार्यत्वादकृतं न कर्म कृतकारितानुमनने स्वि क्लिश्यतां स्वयमेव दुष्कर तरं कुभाभिधानेऽपि भक्तिव्याप्तसर्वस्वचारो गायासूवी मा.सं. पू.सं. ८७ २६० ८५ २५६ ८३२५९ ७. १० ८ २६० ८०२५६ ७५ २५८ ७१ २५७ ७२ २५७ २० ५७ २१ ६० ६१ २६८ ६८ २६७ मिरमिति नवहत्यच्छन्नमुन्नी मान विस्वभाव भरभावितभावा चंद्रप्यं जपतां च दधतोः १५२ ४०० २०६ ५७२ जानाति यः स न करोति जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म जीवाजीव विवेक पुष्कलदशा जीवादजीवमिति लक्षणतो २०१५५१ टोत्कीर्णस्वरसनितिज्ञान ८४ २५६ २६० ८२ २५६ ७७ २५८ ७६ २५८ १०१ २६९ २४० ६५३ २३८ ६४६ १५ ५१ १५६४०५ さ श तज्ञानस्यैव सामर्थ्यं विरागस्य तथापि न निरर्गल परिसुमिष्यते तद कर्म शुभाशुभदतो येन फलं स कर्म कुरुते त्यत्याशुद्धिविधामि तत्किल त्यजतु जगदिदानीं मोह व दर्शनज्ञानचारित्रत्रधारना दर्शनज्ञानचारि स्वित्वादेकस्वतः दर्शनज्ञानचारिस्त्रिभिः दूरं भूरिविकल्पजालगहने द्रव्पलिंगममका रमीलित द्विधा कृत्य प्रज्ञाककचदलनाद् 容 धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने न १६४ ५२६ १०३ २७८ २०४५५६ न कर्मबहुलं जगन्न चलनात्मक न जातु रागादिनिमित्तभाव परिणाम एक किल ननु २४ ६८ नमः समयसाराय २०३ ५५५ न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयो २२५ ६१६ नाइनुले विषयसेवनेऽपि यः स्वं १४२ ३६८ नास्ति सर्वोऽपि संबंध: ४० १३८ निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशवस्या नित्यमविकार सुस्थितसर्वाङ्ग निर्वस्ते येन यत्र किंचित् ३६ ११३ fet. ग.सं. पू.सं. ८ ४० ६२ २६३ १२६ ३३० १६७ ४३० ६३ २२३ ३३ ९५ ४३ १४१ १६१ ४०८ १३४ १४० १६६ ४२६ १०० २६६ १५३ ४०२ १६१ ५२४ २२ ६३ २३६ ६५१ -१६ ५४ १७ ૪ ६४ २६५ २४३ ६५६ १५० ४६२ १२३ ३२४ १६४ ४२५ १७५ ४७० २११५७८ १ १ ११ ४७ १३५ ३५१ २०० ५.४६ १२० ३३५ २६ १४७. ३८ १३५ ... Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार निःशेषकर्मफलसंन्यसनान्ममय निषिद्ध सर्वस्मिन्सुकृतदुरिते नीला सम्पक प्रलयमस्त्रिलान् नकस्य हि कारीडो स्तो। मोमो परिणमतः खलु परिणामी गा.सं. प.सं. १७०४३ १०५ २८१ २२७ ६२३ २२६ ६२१ प गा.स. पू.सं. २३१ ६३२ मिथ्यादृष्टेःस एवास्य मोक्षहेततिरोधानाद बंधत्वात मोहविलासांवजमिस मोहाद्यवहमकार्ष समस्तमपि ५४ १८१ ५३ १८० य एव मुक्त्वा नयपक्षपात पतु वस्तु कुरुतेऽज्यवस्तुनः १४३ ३७० यस्सन्नाशमुपैति तन्न नियत यदि कथमपि धारावाहिना यदिह भवति रागढ पदोषप्रसूति: ४७ १५२ यदेतद् ज्ञानात्मा प्रवमचल १८ ५४ यन प्रतिक्रमणमेव विर्ष प्रणीतं २२२ ६०१ य करोति स करोति केवलं १४६.३८६ यः परिणमति स कर्ता यः । १२१ ३२२ यापूर्वभावकृतकम विषद्माणां १५१ ५०१ मा दृक् तादगिहास्ति तस्य वशतों २२८ ६२६ यावत्पाक मुपैति कर्मविरतिर्ज्ञानस्य १६० ५२३ ये तु कर्सारमात्मानं येतु स्वभावनियम कलयन्सिनेम ये खेन परिहत्य संवृतिपय । ६६ २५७ २१४ ५८० १५७ ४०६ १२७ २३४ २२० ६०१ १०५२८३ १८६ ५२३ पदमिदं मनु कर्मदुरासद परद्रव्यग्रहं कुर्वन् परपरिणतिहेतोमोहनाम्नो परपरिणतिमुज्झत खंडयद् परमार्थेन तु व्यक्तशातत्व पूर्णकाच्युतशुद्धपोधमहिमा पूर्वबद्धतिजकर्मविपाका प्रच्युस्य शुशनयत: पुनरेव ये तु प्रशालेती शितेयं कथमपि प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म प्रमादकलित: कथं भवति प्राकारकलितादरमुपयनराजी प्राणोच्छेदमुवाहरति मरणं ५१ १०० २३२ ६३२ ११० २६६ २०२५५२ बन्धम्छेदारकलयदतुलं बहिलु ति यद्यपि २२१ १.२ २१७ ५६३ २२३ ६१० ११६ ३१८ २१५ ५६८ २१६ ५६५ भावये विज्ञानमिद भावासबाभावमयं प्रपन्नो भाबो रागद्वं षमोहै विना यो भित्वा सर्वमपि स्वलक्षण भूतं भातमभूतमेव रभसान्निभिध भवशानोच्छलनकलनायुद्ध भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत् भोक्तत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः १९२ ५२५ रागजन्मनि निमितता २१२ ५७६ रागद्वेषद्वयमुदयते साबदेतन्न रामद बिभावमुक्तमहसो रागद्वेषविमोहानां शानिनां १३० ३४१ रागः षाविह हि मति ११५ ३०६. रागढषोत्पादकं तस्वदृष्ट्य । ११४ ३०७ रागादयो बंधनिदानमुक्ता १५२ ५०७ रागादीनामुदयमदयं रागादीनां झगिति विगमाप्त १३२ ३४२ रागाद्यास्रवरोधतो निजधुरी १३१ ३४२ रागोदगारमहारसेन सकर्म ११२/२६७ धन बंध नवमिति निजैः १९६५३५ लोकः कर्म ततोऽस्तु सोऽस्तु घ १११ २६७ लोकः शाश्वत एक एक १७६ ४६० १२४ ३२५ १३३ ३४४ १६३ ४२१ १६२ ४१६ १६५ ४२६ भग्नाः कर्मन यावलंबनपरा ज्ञान मजेत निर्भरममी सममेव लोका माऽकारममी स्पृशन्तु २०५ ५६७ वर्णादिसामनयमिदं विदंतू Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथासूची गर.सं. प.सं. १३७ ३५० १७३ ४६५ वर्णाद्या बा रागमोहादयो वा षणांदी : सहितस्तथा विरहितो वस्तु कमिह नान्यवस्तुनो विकल्पकाः परं कर्ता विकल्पःकर्म विगसंतु कर्मविषतरुफलानि विजहति न हि सत्ता प्रत्ययाः चिरम फिमपरेणाकायकोलाहलेन विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यस्तभावा वत्तं कर्मस्वभावेनशानस्य पतं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य वृत्तांशभेदतोऽ वेयवेदकविभावचलत्वाद् ध्यतिरिक्तं परम्यादेवं ब्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि स्यात्पदा व्यवहारविमूदृष्टयः व्याप्यव्यापकता तदात्मनि व्यावहारिकदर्शव केवलं गा.सं. १.सं. ३७ ११६ सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमह जातु ४२ १४० सम्यम्दष्टेभबति नियतं ज्ञान २१३ ५८० सर्वतः स्वरसनिर्भरभाष चेतये सवंताध्यवसानमेवमखिल २३० ६२६ सर्वस्यामेव जीवंत्यां ध्य ११८ ३१५ सर्व सदेव नियतं भवति स्वकीय ३४ १०३ सिद्धांतोऽयमुदात्तचित्त चरित १७२ ४६० स्थितेति जीवस्य निरंतराया (शद्धि पत्रमें) १०७ २५६ स्थितेत्यविध्ना खल पुद्गसस्य १०६ २५९ स्वेच्छासम् च्वसदनल्पविकल्पजाल २०३ ५६८ स्वं रूपं किल बस्तुनोऽस्ति १६% ४४. १८५ ५१२ ६५ २३७ ६४ २३४ ९० २६० २५:४०७ २३७ ६४३ हेतुस्वभावानुभवाश्चयाणां १०२ २७२ २०६५६८ शुद्धद्रव्यनिरूपणापितमतेस्तत्त्वं शुद्ध्यस्वरसभवनास्कि २४२ ६५६ मणिकभिदमिहकः ४६ १६० २१० ५७३ शनि करोती हिासलेन्ट' ज्ञानमय एष भावः कुसो भवेद् २१५ ५६३ ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः २१६ ५६३ ज्ञानस्य संचेतनयब निर्य झानादेव ज्वलनपयसोरोष्ण्य ३५ ११३ शानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्या २२६ ६२६ ज्ञानिन कर्म न जातु कतुमुचित ११६ ३१४ शानिनो न हि परिग्रहमा १०६ २९६ ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता: सवें भावा १२६ ३४१ ज्ञानी करोति नन बेदयते च कर्म १५४ ४०३ ज्ञानी जानन्नपीमा स्वपर १४६ ३६३ २२४ ६१४ ६० २०४ ५६ २०४ १५१ ३६६ १४८ ३९१ सकलमपि विहायालाय घिच्यक्ति समस्तमित्येवमपास्य कर्म संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिश रागं संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत् संपद्यते संवर एष साक्षात् सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं ११८ ५४१ ५० १६८ Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hind i - EDO . - -- - - ( 672 ) प्रध्यात्मयोगो न्यायतीर्थ पूज्य श्री 105 शुल्लक मनोहर जी वर्णी श्रीमत्सहजानन्द महाराज द्वारा विरचितम् सहजपरमात्मतत्त्वाष्टकम् / / शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् / / यस्मिन् सुधाम्नि निरता गतभेदभावाः, प्राप्स्यन्ति चापुरचलं सहजं सुशर्म / एकस्वरूपममलं परिणाममूलं, शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् // 1 // शुद्धं चिदस्मि जपतो निजमूलमंत्रं, ॐ मूर्ति मूतिरहितं स्पृशतः स्वतंत्रम् / यत्र प्रयान्ति विलयं विपदो विकल्पा:, शुद्धं चिदस्मि सहज परमात्मतत्त्वम् // 2 // भिन्नं समस्तपरतः परभावतश्च, पूर्ण सनातनमनन्तमखण्डमेकम् / निक्षेपमाननयसर्वविकल्पदूर, शुद्धं चिदरि, ह परमार, सत्वर / ज्योतिः परं स्वरमकर्तृ न भोक्तु गुप्तं, झानिस्ववेचमकलं स्वरसाप्तसत्त्वम् / चिन्मात्रधाम नियतं सततप्रकाशं, शुद्धं चिदस्मि सहन परमात्मतत्त्वम् // 4 // प्रतिब्रह्मसमयेश्वरविष्णुवाच्यं, चित्पारिणामिकपरात्परजल्पमेयम् / यदृष्टिसंश्रयणजामलवृत्तितानं, शुद्ध चिस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् / / 5 / / प्राभात्यखण्डमपि खण्डमनेकमशं, भूतार्थबोधविमुखव्यवहारदृष्टयाम / प्रानंदशक्तिशिबोधचरित्रपिण्डं, शुद्धं चिदस्मि सहज परमात्मतत्त्वम् // 6 // शुद्धान्तरङ्गसुविलासविकासभूमि, नित्यं निरावरणमजनमुक्तमोरम् / निष्पीतविश्वनिजपर्ययशक्ति तेजः, शुद्धं चिदस्मि सहजं परमात्मतत्त्वम् / / 7 / / घ्यायन्ति योगकुशला निगदन्ति यद्धि, यद्ध्यानमुत्तमतया गदितः समाधिः / यद्दर्शनात्प्रवहति प्रभुमोक्षमार्गः, शुद्धं चिदस्मि सहज परमात्मतत्त्वम् // 6 // सहजपरमात्मतत्त्वं स्वस्मिन्ननुभवति निर्विकल्पं यः / सहजानन्दसुवन्धं स्वभावमनुपर्ययं याति // -