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कर्तृ कर्माधिकार
२६१ भावं स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रं ॥१०॥ इंद्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।११।। ।। १४२ ।। वचन क्रिया । यः, सः-प्रथमा एक० । समयसार:-प्रथमा एकवचन ।। १४२ ॥
प्रयोग--नयोंसे प्रात्मपरिचय करके नयपक्षातिकान्त होकर अभेद अन्तस्तत्वके अभिमुख होनेका सहज अन्तः पौरुष होना ।। १४२ ।।
अब पूछते हैं कि पक्षातिकान्त ज्ञानीका क्या स्वरूप है ? उसका उत्तररूप गाथा कहते हैं-[नयपक्षपारहीनः नयपक्षसे रहित समयप्रतिबद्धः] अपने शुद्धात्मासे प्रतिबद्ध ज्ञानी पुरुष द्वियोरपि] दोनों ही नययोः] लयोंके [भरिंगत] कथनको [कवले] केवल [जानाति तु] जानता ही है [तु] परन्तु [नयपक्षं] नयपक्षको [किछिपि] किञ्चिन्मात्र भी [न गृह्णाति] नहीं ग्रहण करता।
तात्पर्य--व्यवहारनयसे गुजरकर निश्चयनयसे जानकर, शुद्धनय द्वारा सर्वनयपक्षसे प्रतीत होकर भव्याला सहज अन्तस्तत्त्वका अनुभव करता है।
टीकार्य-जैसे केवली भगवान विश्वसाक्षी होनेसे श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहार निश्चयनयके पक्षरूप दो नयके स्वरूपको केवल जानते ही हैं, परन्तु किसी भी नयके पक्षको. ग्रहण नहीं करते, क्योंकि केवली भगवान निरंतर समुल्लसित स्वाभाविक निर्मल केवलज्ञानस्वभाव हैं, इसलिये नित्य ही स्वयमेव विज्ञानघनस्वरूप हैं, और इसी कारण श्रुतशानको भूमिका से प्रतिकान्त होनेके कारण समस्त नयपक्षोंके परिग्रहसे दूरवर्ती हैं। उसी प्रकार जो श्रुतज्ञान के अवयवभूत व्यवहार निश्चयरूप दोनों नयोंके स्वरूपको क्षयोपशमविजृम्भित श्रुतज्ञानस्वरूप विकल्पोंकी उत्पत्ति होनेपर भी शेयोंके ग्रहण करने में उत्सुकताको निवृत्ति होनेसे केवल जानता है, परन्तु तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिसे ग्रहण किये गये निर्मल नित्य उदित चैतन्यस्वरूप अपने शुद्धात्मा से प्रतिबद्धताके कारण उस स्वरूपके अनुभवनेके समय स्वयमेव केवलोकी तरह विज्ञानघनरूप होनेसे श्रुतज्ञानस्वरूप समस्त अंतरंग और बाह्य प्रक्षरस्वरूप विकल्पकी भूमिकासे प्रतिक्रांत होनेसे समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दुरीभूत होनेके कारण किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता है ! वह मतिश्रुतज्ञानी भी निश्चयसे समस्त विकल्पोंसे दूरवर्ती परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यज्योति, प्रात्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है।
भावार्थ--जैसे केवली भगवान सदा नयपक्षोंके साक्षीमात्र हैं, वैसे ध्रुतज्ञानी भी जिस समय समस्त नयपक्षोंसे प्रतिक्रान्त होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भाचका अनुभव करता है, तब नयपक्षका साक्षी मात्र ही है । यदि एक नयका सर्वथा. पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्वसे मिला हमा पक्षका राग हुना तथा प्रयोजनके वशसे एक नयको प्रधान कर ग्रहण करे तो मिथ्यात्वके बिना