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________________ २६० समयसार चिति द्वयोविति पक्षपाती ।यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८६॥ एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातो । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८७॥ एकस्य वेद्यो न तया परस्य चिति द्वयोर्दाविति पक्षपातौ । यस्त. स्ववेदी ध्यप्तपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ।।८। एकस्य भातो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥८६॥ स्वेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षा । अंतर्हिः समरसैकरसस्वएक० 1 पक्षातिक्रान्त:-प्रथमा एक० । पुन:-अव्यय ! भण्यते-वर्तमान लट् भावकर्मप्रक्रिया अन्य पुरुष एक अब तत्त्ववेदीका अनुभव दिखलाते हैं-~-इंद्रजाल इत्यादि । अर्थ-विपुल चंचल विकल्प तरंगों द्वारा उछलने वाले इस समस्त इन्द्रजालको जिसका स्फुरण ही तत्काल विलीन कर देता है वह चैतन्यमात्र तेजः पुंज मैं हूं। भावार्थ-अविकार सहज चैतन्यका अनुभव हो ऐसा है कि इसके होनेसे समस्त नयोंका विकल्परूप इंद्रजाल उसी समय विलीन हो जाता है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाया बताया गया था कि जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट है। यह व्यवहारनयसे कहा गया है, किन्तु शुद्धनयके मतमें जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है । इस विदरणपर यह जिज्ञासा हुई कि इन दोनों नयपक्षोंके विषय में होना क्या चाहिये ? इसका समाधान इस गाथामें दिया है। सम्यप्रकाश-(१) जीवमें कर्म बद्ध है यह व्यवहारनयका पक्ष है । (२) जीवमें कर्म प्रबद्ध है यह निश्चयनयका पक्ष है । (३) जीवमें कर्म बद्ध है ऐसा जिसने विकल्प किया उसने यद्यपि जीवमें कर्म प्रबद्ध है इस विकल्पका अतिक्रमण किया तो भी विकल्पातीत तो न रहा । (४) जीवमें कर्म अबद्ध है ऐसा जिसने विकल्प किया उसने यद्यपि जीवमें कर्मबद्ध है। इस विकल्पका अतिक्रमण किया तो भी विकल्पातीत सो न रहा । (५) जीवमें कर्म बद्ध है। और प्रबद्ध है जिसने ऐसा विकल्प किया उसने दोनों पक्षोंका ही अतिक्रमण न किया सो । विकल्पातीत तो है ही कहाँ ? (५) जो समस्त विकल्पोंका प्रभाव कर दे वह हो निर्विकल्प शानघनस्वभाव होता हा साक्षात् समयसार है। (७) तत्वज्ञानी आत्मा दोनों पक्षपातोंसे रहित है, उसके तो चित् (चेतन) चित् ही है, बद्ध प्रबद्ध मादि नहीं । सिद्धान्त-(१) जीवमें कर्म बद्ध है । (२) जीवमें जीवस्वरूप ही है, कर्म बद्ध नहीं है। (३) जीव निर्विकल्प प्रखण्ड चिन्मात्र है। दृष्टि---१- पराधिकरणत्व असद्भुतव्यवहार (१३४) । २- परमशुद्धनिश्चयनय (४४), प्रतिषेधक शुद्धनय (४६म) । ३- शुद्धनय (४९), परमभावग्राहक द्रव्याथिकनय (३०), शुद्ध पारिणामिक परमभावग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (३०प्र)।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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