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________________ कर्तृकर्माधिकार २५.६ चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ||८०|| एकस्य चैको न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव || = १ || एकस्य सांतो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती ! यस्त ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥६२॥ एकस्य निरयो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ८३ ॥ एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ८५॥ एकस्य चेत्यो न तथा परस्य सप्तमी एक । एवं तु अव्यय । जानीहि आज्ञायां लोट् मध्यम पुरुष एक क्रिया । नयपक्षम् - द्वितीया में दोनों नयोंके दो पक्षपात्र हैं, किन्तु तत्ववेदी पक्षपातरहित है उसके ज्ञानमें तो चित् चित् ही है । एक नयके मत में हेतु हैं, दूसरे नयके मत में हेतु नहीं है, ऐसे ये चैतन्यमें दोनों नयोंके दो पक्षपात हैं, किन्तु तस्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञानमें तो चित् चित् हो है । एक नयके मत में यह जीव कार्य है, दूसरे नयके मत में कार्य है ऐसा नहीं ये चैतन्यमें० 1 एक नय के मत में जीव भावरूप है दूसरे नयके मतमें प्रभावरूप है ऐसे ये चैतन्य में एक नयके मत में जीव एक है, दूसरे नयके मत में अनेक हैं ऐसे ये चैतन्यमें ० । एक नयके मत में जीव सांत है, दूसरे नयके मत में अंतसहित नहीं है ऐसे ये चैतन्यमें ० । एक नयके मतमें जीव नित्य है, दूसरे नयके मत में श्रनित्य है ऐसे ये चैतन्य में। एक नयके मत में जीव वाच्य है, दूसरे नयके मत में वचनगोचर नहीं है ऐसे ये चैतन्य में। एक नयके मत में जीव नानारूप है, दूसरे नयके मत में नानारूप नहीं है, ऐसे ये चैतन्यमें एक नयके मत में चेष्य श्रर्थात् जानने योग्य है, दूसरे नयके मत में चेतने योग्य नहीं हैं, ऐसे ये चैतन्य में। एक नथके मतमें जीव दृश्य है दूसरे नयके मत में देखने में नहीं आता, ऐसे ये चैतन्यमें एक नयके मतमें जीव वेद्य ( वेदने योग्य) है दूसरे नयके मत में वेदने में नहीं आता, ऐसे ये चैतम्य में । एक नयके मतमें जीव वर्तमान प्रत्यक्ष है, दूसरे नयके मतमें नहीं, ये दोनों नयोंके चैतन्यमें दो पक्षपात हैं, किन्तु तत्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञानमें तो चित् चित् ही है । अब उक्त कथनोंका उपसंहारात्मक काव्य कहते हैं— स्वेच्छा इत्यादि । श्रर्थ- ज्ञानी इस प्रकार पूर्व कही हुई रीतिसे जिसमें बहुत विकल्पोंके जाल अपने श्राप उठते हैं ऐसी बड़ी नयपक्षकक्षाको लांघकर अन्दर व बाहर जिसमें समतारस ही एक रस है, ऐसे स्वभाव वाले अनुभूतिमात्र प्रात्माके भावरूप श्रपने स्वरूपको प्राप्त होता है ।
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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