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________________ समयसार २५८ एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तत्त्ववेदो च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु विदेव || ७५|| एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्त ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७६ ॥ । एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७७॥ एकस्य हेतुर्न तथा परत चिति द्वयोविति गाती च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ||७८ || एकस्य कार्यं न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपात । यस्तस्ववेदी च्युत पक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ७६ ॥ एकस्य भावो न तथा परस्य अति कम पादविक्षेपे, भण शब्दार्थः । पविबरण-कर्म- प्रथमा एक० । बद्धं, अबद्धं प्रथमा एक० : जीवेपरनिमित्तसे अनेक होते हैं, उन सबको गौण कर शुद्धनय में पहुंचना, फिर शुद्धनयके पको छोड़ शुद्धस्वरूप में प्रवृत्तिरूप चारित्र होनेसे वीतराग दशा होती है । अब बद्ध श्रबद्ध पक्षके छुड़ानेको तरह मोही श्रमोही पक्षको प्रकट कहकर छुड़ाते हैं-एकस्य इत्यादि । अर्थ-जीव मोही है यह एक नयका पक्ष है और दूसरे नयका पक्ष है कि जीव मोही नहीं है । इस तरह ये दोनों ही चैतन्यमें पक्षपात है । जो तत्त्ववेदी है, वह पक्षपातरहित है, उसके ज्ञानमें तो चित् चित् ही है । 1 अब मोही श्रमोही पक्ष छुड़ानेकी भिित रागी अरागी पक्षको प्रकट कहकर छुड़ाते हैं-- एकस्य इत्यादि । श्रर्थं - यह जीव रागी है एक नयका तो ऐसा पक्ष है और दूसरे नय का ऐसा पक्षपात है कि रागी नहीं है । ये दोनों हो चैतन्य में नयके पक्षपात हैं। जो तत्त्ववेदी है, वह पक्षपातरहित है, उसके उपयोगमें तो जो चित् है, वह चित् ही है । I - I अब रागी रागी पक्ष छुड़ानेकी भांति ग्रन्थ पक्षोंको भी प्रकट कहकर छुड़ाते हैंएकस्य दुष्टों इत्यादि । अर्थ- एक नयके तो द्वेषी हैं ऐसा पक्ष है और दूसरे नयके द्वेषी नहीं है ऐसा पक्ष है ऐसे ये चतुभ्यमें दोनों नयोंके दो पक्षपात हैं। तस्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञान में तो चित् चित् ही है। एक नयके कर्ताका पक्ष है, दूसरे नयके कर्ता नहीं ऐसा पक्ष है, ऐसे ये चैतन्यमें दोनों नयोंके दो पक्षपात हैं, किन्तु तत्त्ववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसको दृष्टिमें तो चित् चित् ही है । एक नयके भोक्ता है, दूसरे नयके भोक्ता नहीं यह पक्ष है । ऐसे चैतन्यमें दो नयोंके दो पक्षपात हैं, किन्तु तववेदी पक्षपातरहित है, अतः उसके ज्ञान मैं तो चित् चित् ही है । एक नयक मतमें जीव है, दूसरे नयके मसमें जीव है ऐसा नहीं ये चैतन्यमें दोनों नोंके पक्षपात हैं, किन्तु तत्ववेदी पक्षपातरहित है, उसके उपयोग में तो चित् चित् ही है । एक नयके मतमें सूक्ष्म है, दूसरे नयके मत में सूक्ष्म है ऐसा नहीं, ऐसे ये चैतन्य
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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