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________________ कर्तृकर्माधिकार २५७ नयपक्षमतिकामति स एव समस्तं विकल्पमतिकामति । य एवं समस्तं विकल्पमतिकामति स एवं समयसारं विदति । यद्येवं तहि को हि नाम नयपक्षसंन्यासभावनां न नाटयति । य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसंति नित्यं । विकल्पजालच्युतशांतचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबंति ।।६६।। एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ।।७०।। एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिन्धिदेव ॥७१।। एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोद्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७२।। एकस्य दुष्टो (द्विष्टो) न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातो । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥७३॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्कीविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥५४॥ पक्षातिकान्त, पुनस् यत्, तत्, समयसार । मूलधातु-बन्ध बन्धने क्रयादि, पक्ष परिग्रहे भ्वादि सुरादि, छोड़नेपर ही सहजसिद्ध समयसारका परिचय होता है। जिज्ञासा-यदि ऐसा है तो नयपसके त्यागकी भावनाको कौन नहीं नचावेगा? इसका समाधानरूप काव्य कहते हैं-य एव इत्यादि। अर्थ—जो पुरुष नयके पक्षपातको छोड़कर अपने स्थरूपमें गुप्त होते हुए निरन्तर निवास करते हैं, वे ही पुरुष विकल्पके जालसे च्युत व शांत चित्त होते हुए साक्षात् अमृतको पीते हैं । भावार्थ-जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है, तब तक चित्त क्षुब्ध रहता । जब सब नयोंका पक्षपास दूर हो जाता है, तब ही स्वरूपका यथार्थ अनुभव होता है ।। अब तत्त्वज्ञानो होकर स्वरूपको पाता है, इस भावको बतानेके लिये कलशरूप बीस काव्य कहते हैं-एकस्य इत्यादि । प्रर्थ-यह चिन्मात्र जीप कमसे बंधा हुपा है यह एक नयका पक्ष है और दूसरे नयका पक्ष ऐसा है कि कर्मसे नहीं बंधा । इस तरह दो नयोंके दो पक्ष हैं । सो दोनों नयोंका जिसके पक्षपात है, वह तत्त्ववेदी नहीं है और जो तस्ववेदो है, वह पक्षपातसे रहित है, उस पुरुषके उपयोगमें चिन्मात्र आत्मा शाश्वत चिन्मात्र ही है । भावार्थयहाँ शुद्धनयको मुख्यतासे जीवका परिचय कराया जा रहा है सो जीव पदार्थको शुद्ध, नित्य, अभेद, चैतन्यमात्र निरखकर कहते हैं कि जो इस शुदनयका भी पक्षपात करेगा, वह भी उस स्वरूपके स्वादको नहीं पायेगा । अशुद्धनयपक्षमें तो प्रकट प्रशुद्धताका परिषय है, किंतु शुद्धनय का भी पक्षपात करेगा, तो पक्षका राग नहीं मिटेगा, बीतरामता नहीं होगी। इसलिये पक्षपात को छोड़ चिन्मात्रस्वरूपमें लीन होनेपर ही भव्य समयसारको पा सकता है । चैतन्यके परिणाम
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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