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________________ २६२ समयसार पक्षार्तिक्रांतस्य किं स्वरूपमिति चेत् -.. दोण्हवि णयाण भणियं जाणइ णवरिं तु समयपडिबद्धो। ण दु णयपक्खं गिण्हदि किंचिवि णयपक्वपरिहीणो ॥१४३॥ शुद्धात्मतत्त्व ज्ञाता, दोनों नयपक्ष जानता केवल । नहि पक्ष कोइ गहता, वह तो नयपक्ष परिहारी ।।१४३॥ द्वयोरपि नययोर्भणितं जानाति केवलं तु समयप्रतिबद्धः । न तु नयपक्षं गृह्णाति किंचिदपि नयपक्षपरिहीनः ।। यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्यं स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वाच्छु लज्ञानभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति ! या किल ए' शुलज्ञा बसवयनमोर्य हानिध्ययनयपक्षयोः क्षयोपशमविज- मामसंज-दु, वि, णय, भणिय, णार, तु, समयपडिबड, ण, दु, जयपक्ख, किचि, वि, णयपक्लपरिहीण । धातुसंज-ने प्रापणे, भण कथने, जाण अवबोधने, मिण्ह ग्रहणे । प्रकृतिशब्द--द्वि, अपि, नय, भणित, केबलं, तु, समय प्रतिबद्ध, न, तु, नयपक्ष, किचित्, अपि, नयपक्षपरिहीन । मूलधातु-भण शब्दार्थः, शा अवबोधने, ओहाक् त्यागे जुहोत्यादि, ग्रह उपादाने क्रयादि, पक्ष परिग्रहे म्बादि चुरादि । पद विवरणचारित्रमोहके पक्षका राग हुना । हाँ, जब नयपक्षको छोड़कर वस्तुस्वरूपको केवल जानता हो । रहे. तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलीको तरह ज्ञातादृष्टा ही होता है, साक्षीमात्र होता है। अब इस अर्थको मनमें धारण कर तत्त्ववेदी ऐसा अनुभव करता है-चित्स्वभाव इत्यादि । अर्थ-चैला यस्वभावके पुञ्जसे भावित भाव प्रभावस्वरूप एक भावरूप परमार्थरूप से एक अपार समयसारको समस्त बंधकी परिपाटीको दूर करके मैं अनुभवता हूं। भावार्थपरद्रव्यविषयक कर्ताकर्मभावसे बंधको चली आई हुई परिपाटी दूर कर मैं समयसारका अनु. भव करता है, जो कि अपार है अर्थात् जिसके अनन्त ज्ञानादि गुणका पार नहीं है । प्रसंगविबरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि पक्षातिकान्त प्रात्मा समयसार है । सो इसी विषयमें प्रश्न हुमा कि पक्षातिक्रान्तका स्वरूप क्या है ? इसीका समाधान इस गाथामें किया है। तथ्यप्रकाश-(१) केवलज्ञानी प्रभु विश्वके साक्षो मात्र होनेसे श्रुतज्ञानके अंशरूप व्यवहारनय व निश्चयनयका केवल स्वरूप ही जानते हैं, किंतु किसी भी पक्षको ग्रहण नहीं करते । (२) प्रभु सर्वज्ञताके कारण ज्ञानघनभूत हैं, अतः श्रुतज्ञानको भूमिकासे प्रतिक्रान्त होनेसे मयपक्षके परिग्रहसे दूर हैं । (३) श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उठनेपर भी परतत्त्व का परिग्रहण करनेकी उत्सुकता निवृत्त हो जानेसे व्यवहारनय व निश्चयनयका मात्र स्वरूप
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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