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कर्तृकर्माधिकार म्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तीत्सुक्यतया स्वरूपभेदं केवलं जानाति न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञान धनभूतत्वात श्रुतज्ञानात्मकस पस्तांतर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरोभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः। चित्स्वभावभरभावितभावाऽभावभावपरमार्थतयकं । बंधपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमषारं ।।१२।। ।। १४३ ।। द्वयोः-षष्ठी द्विवचन । अपि-अव्यय । नययोः-षष्ठी द्विवचन । भणित-द्वितीया एक० । जानाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । केवल-अव्ययभावे । समयप्रतिबद्धः-प्रथमा एकवचन । न-अध्यय । तु-अव्यय । नयपक्ष-द्वितीया एक० । गृह्णाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । किचित्-अव्यय । अन्तः-प्रथमा एकवचन । अपि-अव्यय । नयपक्षपरिहीनः-प्रथमा एकवचन ॥१४३।। ही जानते, किन्तु नयपक्षका परिग्रहण नहीं करते। (४) श्रुतज्ञानी अन्तःप्रकाशमान चिन्मय समयसारमें प्रतिबद्ध होनेसे उसके उपयोगके समय स्वयं ज्ञानधनभूत हैं, अतः समस्त विकल्पभूमिकासे प्रतिक्रांत होनेके कारण समस्त नयपक्ष परिग्रहसे दूर हैं । (५) पक्षातिकान्त दशामें अनुभूतिमात्र प्रात्मख्यातिरूप ज्ञानात्मक ज्योति समयसार है।
सिद्धान्त-(१) अन्तस्तत्वाभिमुख अात्मा नयपक्षको ग्रहण नहीं करता । (२) केवलज्ञानी प्रभु विश्वके साक्षीमात्र हैं ।
दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब) । २- शुद्धनिश्चयनय (४६) ।
प्रयोग-विकल्पबुद्धिको दूर कर निर्विकल्प चित्स्वभावमय समयसारकी दृष्टिमें बने रहने का पौरुष करना ॥ १४३ ॥
पक्षसे दूरवर्ती ही समयसार है अब यह सिद्ध करते हैं-[यः] जो [सर्वनयपक्षरहितः] सब नयपक्षोंसे रहित है [सः] वही [समयसारः] समयसार [भरिणतः] कहा गया है। [एषः] यह समयसार हो [केवलं] केवल [सम्यग्दर्शनज्ञानं] [इति] ऐसे [व्यपदेशं] नामको [लभते पाता है।
टोकार्थ-जो निश्चयसे समस्त नयपक्षसे खण्डित न होनेसे जिसमें समस्त विकल्पोंके व्यापार विलय हो गए हैं, ऐसा समयसार शुद्ध स्वरूप है सो यही एक केवल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान ऐसे नामको पाता है । ये परमार्थसे एक ही हैं, क्योंकि प्रात्मा, प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभाव प्रात्माका निश्चय कर, पीछे निश्चयसे मात्माको प्रकट प्रसिद्धि होनेके लिए परपदार्थकी ख्याति होनेके कारणभूत इन्द्रिय और मनके द्वारा हुई प्रवृत्तिरूप बुद्धिको गौण कर जिसने मतिज्ञानका स्वरूप प्रारगाके सन्मुख किया है ऐसा होता हमा