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________________ समयसार नैवान्यागतवेदनैव हि भवेत्तद्धीः कुतो ज्ञानिनो, निश्शंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विंदति ॥१५६।। यत्सनाशमुपैति तन्न नियतं व्यक्तेति वस्तुस्थितिओनं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रात किमस्यापरैः । अस्यात्राणमतो न किचन भवेत्तद्धोः कुतो ज्ञानिनो, निःशंकः सततं भयविप्रमुक्त, यत्, तत्, तु, निश्शंक । मूलपातु-जीव प्राणघारणे, निस्-शकि शंकायां भ्वादि । पदविव रण-सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टिः-प्रथमा एक० । जीवा जीवाः-प्रथमा एक० । णिस्सका निःशंकाः-प्रथमा अब अरक्षाके भयका निराकरण करते हैं—यत् इत्यादि । अर्थ - जो सत्स्वरूप है वह कभी भी नाशको प्राप्त नहीं होता ऐसी नियमसे वस्तुकी मर्यादा है । यह ज्ञान भी (ज्ञानमय आत्मा भो) स्वयं सत्स्वरूप वस्तु है उसका निश्चयसे दूसरेके द्वारा रक्षण कैसा ? इस प्रकार उम ज्ञानको अरक्षा करने वाला कुछ भी नहीं है इस कारण ज्ञानीके अरक्षाका भय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी तो निःशंक होता हुआ अपने सहज ज्ञानस्वरूपका सदा स्वयं अनुभव करता है । भावार्थ--ज्ञानी ऐसा जानता है कि सत् कभी नष्ट नहीं होता, ज्ञान स्वयं सत्स्वरूप है इस कारण ज्ञान स्वयं ही रक्षित है। ज्ञानीके अरक्षाका भय नहीं। वह तो निःशंक रहता हुमा अपने सहज ज्ञानका सदा अनुभव करता है। अब अगुप्तिभयका निराकरण करते हैं-स्यं रूपं इत्यादि । अर्थ-निश्चयतः दस्तुका निजरूप ही वस्तुको परम गुप्ति है, स्वरूप में अन्य कोई प्रवेश नहीं कर सकता । और प्रकृत सहजज्ञान ही पुरुषका स्वरूप है । अतः ज्ञानीके कुछ भी अगुप्ति नहीं है, ज्ञानीको अगुप्तिका भय कैसे हो सकता है ज्ञानी तो निःशक हुआ निरंतर स्वयं सहन अपने ज्ञानभावका सदा अनुभव करता है । भावार्थ-जिसमें किसी चोर प्रादिका प्रवेश नहीं हो सके ऐसे गढ़ दुर्गादिकका नाम गुप्ति है, उसमें यह प्राणी निर्भय होकर रहता है। और जो गुप्त प्रदेश न हो, खुला हुअा हो, वहाँ रहनेसे जीवको भय उत्पन्न होता है। ज्ञानी ऐसा जान चुका है कि जो वस्तुका निज स्वरूप है उसमें दूसरी वस्तुका प्रवेश नहीं हो सकता है यही परमगुति है । प्रात्माका स्वरूप ज्ञान है उसमें किसीका प्रवेश नहीं है । इसलिये ज्ञानीको भय कैसे हो सकता है ? ज्ञानी तो अपने सहज ज्ञानस्वरूपका निःशंक होकर निरंतर अनुभव करता है । अब मरणभयका निराकरण करते हैं--प्राणो इत्यादि । प्रथ-प्राणों के उच्छेद होने को मरण कहते हैं सो आत्माका प्राण निश्चयतः ज्ञान है, वह स्वयमेव शाश्वत है इसका कभी उच्छेद नहीं हो सकता, इस कारण प्रात्माका मरण नहीं है । तब फिर ज्ञानीके मरण का भय कैसे हो ? शानी तो नि:शंक हुमा निरन्तर प्रपने सहज ज्ञानभावका स्वयं सदा अनुभव करता है । भावार्थ-इंद्रियादिक प्राणोंके विनाशको मरण कहते हैं, प्रात्माके इंद्रियादिक प्राप
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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