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निर्जराधिकार
४०७ स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विदति ॥१५७।। स्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुमिः स्वरूपे न य-च्छक्तः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं ज्ञानं स्वरूपं च नुः । अस्यागुप्तिरतो न काचन भवेतद्धीः कुतो ज्ञानिनो, निश्शंक: सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विदति ॥१५८।। प्राणोच्छेदमुदाहरंति मरणं प्राणाः किलास्यात्मनो, ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नो छिद्यते जातुचित् । तस्यातो मरणं न किंचन भवेतद्धीः कुतो ज्ञानिनो, नियम; मतमा सान सा - विंदति ॥१६॥ बहु । होति भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु । णिन्भया निर्भया:-प्रथमा बहु । तेण तेन-तृतीया एक० । सत्तभयविप्पमुक्का सप्तभयविप्रमुक्ताः-प्र० बहु० । जम्हा यस्मात्-पंचमी एक० । तम्हा तस्मात्-- परमार्थ स्वरूप नहीं हैं । परमार्थत: प्रात्माका ज्ञान ही प्राण है वह ज्ञान प्राण अविनाशी है, अतः प्रात्माके मरण नहीं। इस कारण ज्ञानीको मरणका भय नहीं है । ज्ञानी तो अपने शानस्वरूपका निःशंक होता हुमा निरंतर स्वयं अनुभव करता है ।
अब प्राकस्मिक भयका निराकरण करते हैं---एफ इत्यादि । अर्थ-ज्ञान एक है, अनादि है, अनंत है, अचल है, और निश्चयतः स्वतः हो सिद्ध है सो जब तक वह है तब तक सदा वही है, इसमें दूसरेका उदय नहीं है, इस कारण इसमें प्राकस्मिक कुछ भी नहीं है । तव ज्ञानीको प्राकस्मिक भय कैसे हो सकता है। ज्ञानी तो निःशंक हुग्रा निरंतर अपने सहज मानस्वभावका सदा अनुभव करता है। भावार्थ-प्रकस्पात् भयानक पदार्थसे प्राणीके भय उत्पन्न होनेको प्राकस्मिक भय कहते हैं । सो आत्माका ज्ञानस्वरूप अविनाशी, अनादि, अनन्त प्रचल, एक है, इसमें दूसरेका प्रवेश नहीं है, अतः प्रात्मामें नवीन अकस्मात् कुछ नहीं होता। ऐसा ज्ञानी जानता है फिर, उसके अकस्मात् भय कैसे हो ? इस लिये ज्ञानी अपने ज्ञानभाव का निःशंक निरंतर अनुभव करता है इस प्रकार सात भय ज्ञानीके नहीं हैं।
अब सम्यग्दृष्टिके निःशंकितादि अंगोंका प्रताप काव्य में कहते हैं-टंकोत्कीर्ण इत्यादि । अर्थ-चंकि टंकोत्कीर्णवत् एकस्वभाव निजरससे व्याप्त ज्ञानसर्वस्वको अनुभवने वाले सम्यग्दृष्टि के निःशंकितादि लक्ष्म समस्त कर्मोका हनन करते हैं, इस कारण फिर भी याने कभी भी सभ्यग्दृष्टिके शंकादिदोषकृत कर्मबन्ध लेशमात्र भी नहीं होता और पूर्वबद्ध कर्मको भोगते हुए उसके निश्चित निर्जरा ही होती है । भावार्थ---पूर्वबद्ध भयादि प्रकृतियोंका अनुभाग प्रतिफलित होता है उसे भोगते हुए भी ज्ञानी के शंकादिकृत बन्ध रंच भी नहीं होता, प्रत्युत निर्जरा ही होती है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथाचतुष्कमें यह प्रसिद्ध किया गया था कि सरागपरिणामसे बंध होता है और वीतराग परिणामसे मोक्ष होता है। अब इस गाथामें बताया है कि ।