________________
समयसार एकं ज्ञानमनाद्यनंतमचलं सिद्धं किलेतत्स्वतो, यावत्तावदिदं सदैव हि भवेन्नात्र द्वितीयोदयः । तम्नाकस्मिकमत्र किंचन भवेत्तद्धोः कुतो ज्ञानिनो, निशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विदति ॥ १६ ॥ टंकोत्कीर्णस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वभाजः, सम्यग्दृष्टेयदिह सकलं नंति लक्ष्माणि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाकर्मणो नास्ति बंधः, पूर्वोपात्तं तदनुभवतो निश्चितं निर्जरव ॥१६१॥ ॥ २२८ ।। पंचमी एकवचन । दु तु-अव्यय । निस्संका निश्शंकाः-प्रथमा बहुवचन ।। २२८ ।। फलाकांक्षारहित तत्त्वज्ञ प्रात्मा निःश और निर्भय रहते हैं ।
तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानी कर्मफलाकांक्षारहित होनेसे कर्मनिरपेक्ष रहते हैं । (२) कर्मनिरपेक्ष रहनेसे ज्ञानोको स्वभावाभिमुख रहनेमे निःशङ्क वृत्ति रहती है । (३) प्रात्मविषयमें अत्यन्त निःशत होनेसे ज्ञानी अत्यन्त निर्भय रहते हैं । (४) निज सहज परमात्मतत्त्वको भावनारूप अमृतके स्वादसे तृप्त सम्यग्दृष्टि वोर उपसर्गमें भी प्रविकार सहजस्वरूपकी लगनको नहीं छोड़ते । (५) सप्तभयरहित होनेसे ज्ञानी शुद्धात्मस्वरूप में निष्कम्प नि:शङ्क होते हए स्वरूपसे च्युत नहीं होते । (६) ज्ञानी सहज स्वयं अमर ज्ञानस्वरूपको ही लोक व पर (उत्कृष्ट) लोक माननेके कारण इहलोक परलोकभयसे रहित होते हैं । (७) वस्तुतः ज्ञानस्वरूप यह निज प्रात्मा ही सदा वेदा जाता है अन्य पदार्थ नहीं, इस निर्णयके कारण ज्ञानी वेदनाभयसे रहित होते हैं। (८) अविनाशो निज सत्त्वको देखकर ज्ञानी प्रवाणभयसे रहित होते. हैं। (8) परप्रवेशरहित सहज गुप्त अन्तस्तत्त्वको निरखकर जानो भगुप्तिभयसे रहित होते हैं । (१०) दर्शनज्ञानमय वास्तविक प्राणकी शाश्वतता निरखकर ज्ञानी मरणभयसे रहित होते हैं । (११) अन्य परिणामसे अत्यन्त विविक्त अचल प्रात्मस्वभावको निरखकर ज्ञानी प्राकस्मिक भयसे रहित होते हैं।
सिवान्त--(१) सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध निर्दोष सहजपरमात्मतत्त्वकी पाराधना करते हुए निःशङ्क रहते हैं।
दृष्टि-१- उपादानदृष्टि (४६ब)।
प्रयोग-निर्दोष सहजसि चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वको प्राराधनाके पौरुषके बलसे नि:शङ्क व निर्भय रहना ॥ २२८॥
अब प्रष्ट अङ्गोंमें से प्रथम निःशङ्कित अङ्गका प्रताप कहते हैं- [यः] जो [चियिता] प्रात्मा [कर्मबंधकरान] कर्मबन्धके हेतुभूत मोहके करने वाले [तान् चतुरोपि पादान] मिथ्यात्वादिभावरूप धारों पादोंको [छिनत्ति] काटता है [सः] वह प्रातमा [निःशंकः सम्यग्दृष्टिः