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निर्जराधिकार जो चत्तारिवि पाए छिददि ते कम्मबंधमोहकरे । सो हिस्संको चेदा सम्मादिठी मुणेयम्बो ॥२२६॥ विधिबंध मोहकारी, मानव चारों हि छेदते हैं जो।
सो निशंक आत्मा है, सम्यग्दृष्टी उसे जानो ॥२२६।। यश्चतुरोपि पादान् छिनत्ति तान् कर्मबंधमोहकराच । स निश्शंकश्चेतयिता सम्यग्दृष्टिमन्तव्यः ॥२२६।।
यतो हि सभ्याट, टंकीत्कारकज्ञायक मात्र भयल्वेन कमबंधशकाकरमिथ्यात्वादिभावा. नामसंज्ञ-ज, चउ, वि, पाद, त, कम्मबंधमोड़कर, त, णिस्सक, चेदा, सम्मादिदि, मुररोयच । धातुसंज्ञ. . .च्छिद छेदने, मुण ज्ञाने। प्रातिपदिक-यत्, चतुर, अपि, पाद, तत्, कर्मबन्धमोहकर, तत्, निशंक, चेतयितृ, सम्यग्दृष्टि, ज्ञातव्य । मूलधातु --छिदिर् द्वेधीकरणे रुधादि, मन ज्ञाने दिवादि । पदविवरण-जो यः-प्रथमा एकवचन । चत्तारि चतुर:-द्वितीया बहु । वि अपि-अव्यय । पाए पादान-द्वितीया निःशङ्क सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये ।
__ तात्पर्य--संसारविषवृक्षके मूलभूत मिथ्यात्वादि भावोंका घात करनेसे यह ज्ञानी निःशंक है।
टोकार्थ—जिस कारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भावमयपनेके कारण कर्मबंध को शंकाको करने वाले मिथ्यात्वादि भावोंका प्रभाव होनेसे निःशंक है, इस कारण इसके शंकाकृत बन्ध नहीं है, किन्तु निर्जरा ही है । भावार्थ---सम्यग्दृष्टिके किसी पदवीमें कर्मका उदय प्राता है किंतु उसका स्वामीपनेके अभावसे वह कर्ता नहीं होता इस कारण भयप्रकृतिका उदय प्रानेपर भी शंकाके अभावसे ज्ञानी स्वरूपसे भ्रष्ट नहीं होता, निःशंक रहता है । प्रतएव इसके शंकाकृत बन्ध नहीं होता, किन्तु कर्मोदय रस खिराकर क्षयको प्राप्त हो जाता है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सम्यग्दृष्टि जीव निर्भय व निःशंक होते हैं । अब इस गाथामें बताया गया है कि सम्यग्दृष्टिको निःशंकताका कारण यह है कि उसने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय व योगरूप विकार भावको ज्ञान द्वारा निज शुद्धस्वरूपसे जुदा कर डाला है ।
तथ्यप्रकाश---(१) सहजात्मा तो निष्कर्म अन्तस्तत्त्व है, किन्तु मिथ्यात्वादि भाव कर्म करने वाले हैं । (२) सहजात्मा तो निर्मोह अन्तस्तत्त्व है, किन्तु मिथ्यात्वादि भाव मोह करने वाले हैं । (३) सहजात्मा तो निर्बाध सहजानन्दमय परमपदार्थ है, किन्तु मिथ्यात्वादि भाव बाधा करने वाले हैं। (४) शुद्ध अन्तस्तत्त्वमें निःशंक होकर ज्ञानी स्वसम्वेदन ज्ञान खड्गसे मिथ्यात्वादि संसारविषवृक्षमूलोंको काट डालता है। (५) शुद्धात्मशंकाकृत बन्ध