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समयसार भावाग्निश्शंकः, ततोऽस्य शंकाकृतो नास्ति बंधः किं तु निर्जरैव ॥२२॥ बहु० । छिददि छिनत्ति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन । ते तान्-द्वितीया बहु० । कम्मबंधमोहकरे कर्मबन्धमोहक़रान्-द्वितीया बहु० । सो सः-प्रथमा एकवचन । णिस्संको निःशंक:-प्रथमा एक० । चेदा चेतयिता-प्रथमा एक । सम्मादिट्ठी सम्यग्दृष्टि:-प्रथमा एक० । मुणेयब्बो मन्तव्य:-प्रथमा एकवचन कृदन्त क्रिया ।। २२६ ।। सम्यग्दृष्टिके नहीं है । (६) शुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वमें निःशंक निर्भय निष्कम्प ज्ञानीके पूर्वबद्धकर्मनिर्जरा निश्चित है।
सिद्धान्त-(१) निरास्रव शुद्ध अन्तस्तत्त्वको भावना परिणत ज्ञानीके पूर्वबद्ध कर्म निर्जीर्ण हो जाते हैं।
दृष्टि-१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रध्याथिकनय (२४ब)।
प्रयोग-निरासव शुद्ध चिन्मात्र अन्तस्तत्त्वमें आत्मत्वको अनुभूतिका पौरुष करना ॥ २२६ ॥
प्रागे निःकांक्षित गुण कहते हैं:- [यः चेतयिता] जो आत्मा [कर्मफलेषु] कर्मोंके फलोंमें [तपा] तथा [सर्वधर्मेषु] समस्त वस्तुधर्मोमें [कांक्षां] वांछा [न तु] नहीं करोति] करता है [सः] वह प्रात्मा [निष्कांक्षः सम्यग्दृष्टिः] नि:कांक्ष सम्यग्दृष्टि है [ज्ञातव्यः] ऐसा जानना चाहिये।
तात्पर्य-किसी भी परभावमें व परद्रव्यमें ज्ञानी इच्छा नहीं करता है अतः वह निःकांक्ष है।
___टोकार्थ-जिस कारण सम्यग्दृष्टि टंकोत्कीर्ण एक शायक भावपनेसे सब ही कमौके फलोंमें तथा सभी वस्तुके धर्मों में वांछाके प्रभावसे निर्वाचक है, इस कारण इसके कांक्षा (इच्छा) कृत बंध नहीं है किन्तु निर्जरा ही है। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि के कर्मफलमें तथा सब धर्मों में अर्थात् कांच सोना आदि पदार्यों में निन्दा प्रशंसा प्रादिक वचनरूप पुद्गलके परिणमन में प्रथया एकान्तिवादियों द्वारा माने हुए अनेक प्रकारके सर्वथा एकांतरूप व्यवहार धर्मके भेदोंमें वांछा नहीं है । इस कारण ज्ञानीके वांछाकृत बंध नहीं है । वर्तमानको पोड़ा सही नहीं जानेसे उसके मेटनेके इलाजकी वांछा चारित्रमोहके उदयसे है । सो यह उसका पाप कर्ता नहीं होता, कर्मका उदय जानकर उसका ज्ञाता है । इस कारण ज्ञानीके वांछाकृत बंध नहीं है ।
प्रसंगविवरण-प्रनन्तरपूर्व गाथामें निःशंकित अङ्गवारी सम्यग्दृष्टिका वर्णन किया ।। अब क्रमप्राप्त इस गाथामें क्रमप्राप्त निकांक्षित अङ्गधारीका वर्णन किया है।