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নিয়ন্তিকা सम्मादिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिमया तेण। सत्तभयविप्पमुक्ता ब्रह्मा तहा दु गिएम्सका ॥२२८॥ सम्यग्दृष्टी प्रात्मा, होते निःशंक हैं अतः निर्भय ।
कि ये सप्तमयसे, मुक्त इसीसे निशंक कहा ॥२२॥ सम्यग्दृष्टयो जीवा निश्शंका भवंति निर्भयास्तेन । सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निश्शंकाः ॥२२॥
येन नित्यमेव सम्यग्दृष्यः सकलकर्मफलनिरभिलाषाः संतः, अत्यंतं कर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते तेन नूनमेते अत्यंतनिश्शंकदारुणाध्यवसायाः संतोऽत्यंतनिर्भयाः संभाव्यते ॥ लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः, चिल्लोक स्वयमेव केवलमयं यं लोकयत्येकक: । लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तद्धीः कुतो, निशंकः सततं स्वयं स सहज ज्ञानं सदा विदति ॥१५५।। एषकैव हि वेदना यदचल ज्ञानं स्वयं वेद्यते, निर्भदोदितवेद्यवेदकबलादेक सदानाकुलः । ___नामसंश-सम्मादिट्ठि, जीव, णिस्संक, णिन्भय, त, सत्तभयविप्पमुक्क, ज, त, दु, णिस्संक । धातुसंश-जीव प्राणधारणे, णिस्-संक शंकायां । प्रातिपदिक-सम्यग्दृष्टि, जीव, निश्शंक, निर्भय, तत्, सप्तलोक तथा परलोकका भय कैसे हो सकता है ? वह ज्ञानी तो स्वयं निःशंक हुमा हमेशा अपने को सहज ज्ञानस्वरूप अनुभवता है । भावार्थ---इस भवमें प्राजीवन अनुकूल सामग्री रहेगी या नहीं, ये लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे ऐसी चिन्ता रहना तो इस लोकका भय है और परभवमें न मालूम क्या होगा ऐसा भय रहना परलोकका भय है । किन्तु, ज्ञानी ऐसा जानता है कि मेरा लोक तो चैतन्यस्वरूपमात्र एक नित्य है जो सदा प्रगट है । सो मेरा लोक तो किसीका बिगाड़ा हुमा नहीं बिगड़ता । ऐसे विचारता हुमा ज्ञानी अपनेको सहज ज्ञानरूप अनुभवता है, उसके इहलोकका भय व परलोकका भय किस तरह हो सकता है ? कभी नहीं होता।
प्रब वेदनाके भयका निराकरण करते हैं-एषकेव इत्यादि । अर्थ-भेदरहित उदित वेद्यवेदकके बलसे एक अचल ज्ञानस्वरूप ही स्वयं निराकुल पुरुषों द्वारा सदा वेदा जाता है, अनुभव किया जाता है । भन्यसे प्राई हुई वेदना ज्ञानीके होती ही नहीं है। इस कारण उस ज्ञानीके वेदनाका भय कैसे हो सकता है ? नहीं होता । यह तो निःशंक हुआ अपने सहज ज्ञानभावका सदा अनुभव करता है । भावार्य-सुख दुःखको भोगनेका नाम वेदना है ज्ञानी तो एक अपने सहज ज्ञानमात्रस्वरूपको भोगता है । वह पुद्गलसे प्राई हुई वेदनाको वेदना हो नहीं जानता, इस कारण अन्य द्वारा प्रागत वेदनाका भय ज्ञानीको नहीं है। वह तो सदा निर्भय हुमा सहज ज्ञानका अनुभव करता है ।