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समयसार विहाय स्वयं जानतः स्वमबध्यबोधवपुषं बोधाच्च्यते न हि ॥१५४।। ।। २२४.२२७ ॥ बहु० । जह यथा-अव्यय । पुण पुन:-अव्यय । सो सः-प्रथमा एक० । चिय चंव-अव्यय । पुरिसो पुरुष:प्रथमा एक०। वित्तिणिमित्तं वृत्तिनिमित्त-क्रियाविशेषण । ण न-अव्यय । सेवदे सेवते, रायं राजानम्द्वि० एक० । सो स:-प्रथमा एक । ण न-अव्यय । सम्मदिवी सम्यग्दृष्टि:-प्र० ए०। विषयत्थं विषयार्थअव्यय । सेवा सेवते, णन, कम्मर कर्मरज:-दि० एसो सःण न. देव ददाति कामो कर्मविविहे विविधान्, भौए भोगान्, सहप्पाए सुखोत्पादकान्-द्वितीया बहुवचन ।। २२४-२२७ ॥ सुखके लिये नहीं सेवने वाले ज्ञानीको वह कर्म विषयसुखोत्पादक शुद्धात्मभावनाविनाशक रागादिभावोंका कारण नहीं बनता । (४) कर्मफलका परित्याग करने वाले ज्ञानीपर कर्मविपाकवश कुछ परिस्थिति पड़नेपर भी वह तो निष्कंप ज्ञानस्वभाव के ही अभिमुख रहता है ।
सिद्धान्त-(१) कर्मफलसे विरक्त शुद्धात्मभावनापरिणतके कर्मनिर्जरा होती है। (२) परभावरागसे बंधा कर्म उदयकालमें प्राकुलतारूप परभावोपभोगका निमित्त होता है।
दृष्टि - १- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४३)। २- उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिकनय (२४)।
प्रयोग--भोगोपभोगको आकांक्षारहित होकर शुद्ध अन्तस्तत्त्वका लक्ष्य रखकर भी हो रहे कर्मविपाकका मात्र जाननहार रहनेका पौरुष करना ।। २२४-२२७ ।।
अब सम्यग्दृष्टिका निःशंकित अंग कहते हैं-[सम्यग्दृष्टयः जीयाः] सम्यग्दृष्टि जीव [निःशंका भति] निःशंक होते हैं तेन] इसी कारण [निर्भयाः] निर्भय हैं और [यस्माद] चूंकि वे [सप्तभयविप्रमुक्ताः] सप्तभयसे रहित हैं [तस्मात् ] इस कारण [निःशंकाः निःशक
तात्पर्य--सम्यग्दृष्टि प्रामस्वरूप में निःशंक होनेसे निर्भय है और निर्भय होनेसे निःशंक है।
टोकार्थ--- जिस कारण सम्यग्दृष्टि नित्य ही समस्त कर्मोके फलको अभिलाषासे रहित होते हुए पूर्ण निरपेक्षतासे प्रवर्तन करते हैं इस कारण में अत्यंत निःशंक सुदृढ़ निश्चयी होनेसे अत्यन्त निर्भय होते हैं ।
अब सप्तभयरहितका कलशकायों में वर्णन होगा उनमें इहलोक तथा परलोक संबंधी दो भयोंका निराकरण कहते हैं--लोक इत्यादि । अर्थ--यह चैतन्यस्वरूप लोक हो विविक्त मात्माका शाश्वत एक और सर्वकालमें प्रगट लोक है, क्योंकि मात्र चैतन्यस्वरूप लोकको यह ज्ञानो प्रात्मा स्वयमेव अकेला अवलोकन करता है। यह चैतन्यलोक ही तेरा है और इससे भिन्न दूसरा कोई लोक याने इहलोक या परलोक तेरा नहीं, ऐसा विचारते हुए ज्ञानीके इह