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________________ निर्जराधिकार ४०३ ज्ञानी कि कुरुतेऽथ किं न कुरुते कर्मेति जानाति कः ॥१५३।। सम्यग्दृष्टय एव साहसमिदं कतुं क्षमते परं, यदऽपि पतत्यमी भयचलत्त्रलोक्यमुक्तावनि । समिव निसर्गनिर्भयतया शंको क्रियाविशेषण । तु-अव्यय । सेवए सेवते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक०। रायं राजान--द्वितीया एकः । तो तत्-अव्यय । अवि अपि-अव्यय । देदि ददाति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । राया राजाप्रथमा एकवचन । विविहे विविधान्-द्वितीया बहु० । भोए भोगान-द्वि० बहु० । सुहप्पाए सुखोत्पादकान्द्वि० बहु० । एमेव एवमेव-अव्यय । जीवपुरिसो जीबपुरुष:-प्रथमा एकवचन । कम्मरये कर्मरजः-द्वितीया वसे-वर्तमान लट अन्य परुष एका सहणिमित्तं सखनिमित्तं-यथा स्यात्तथा क्रियाविशेषण। सो सः-प्रथमा एक० । वि अपि--अव्यय । देइ ददाति-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक० । कम्मो कर्म-प्रथमा एक० । विविहे विविधान्-द्वितीया बहु० । भोए भोगान्-द्वितीया बहु । सुहुप्पाए सुखोत्पादकान्-द्वि० उज्ज्वल हैं । उनके उजलापनको ज्ञानी ही जानते हैं मिथ्यादृष्टि उनका उजलापनको नहीं जानता । मिथ्यादृष्टि तो बहिरात्मा है बाहरसे ही भला बुरा मानता है, अंतरात्माकी परिणति को मिध्यादृष्टि क्या जान सकता है ? अब इसी अर्थके समर्थन में ज्ञानीके निःशंकित नामक गुणकी सूचनारूप काव्य कहने हैं- सम्यग्दृष्टयः इत्यादि । अर्थ—ऐसा साहस एक सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है कि जिस भय से तीन लोक अपना भार्ग छोड़ देते याने चलायमान हो गये ऐसे बज्रपातके पड़नेपर भी वे स्वभावसे ही निर्भयपना होनेके कारण सब शंकायोंको छोड़कर जिसका ज्ञानरूपो शरीर किसीसे भी बाधित नहीं हो सकता ऐसे अपने प्रात्माको जानते हुए स्वयं ज्ञानमें प्रवृत्त होते हैं, ज्ञानसे व्युत नहीं होते । भावार्थ-वचपातके पड़नेपर भी ज्ञानी प्रपने स्वरूपको निबांध ज्ञानशरीररूप मानता हुमा ज्ञानसे पलायमान नहीं होता, वह ऐसी शंका नहीं रखता कि इस वज्रपातसे मेरा विनाश हो जायगा । पर्यायका विनाश होवे तो उसका विनाशीक स्वभाव है ही । ज्ञानी तो शुभाशुभ कर्मोदयमें भी ज्ञानरूप परिणमते हैं । प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गायाचतुष्कर्मे यह सिद्ध किया गया था कि ज्ञानदृष्टि छोड़कर यह जीव खुद प्रज्ञानरूप परिणमता है । अब इस गाथाचतुष्को दृष्टान्तपूर्वक उसी निष्कर्षके समर्थन में कहा गया कि सरागपरिणामसे बंध होता है और वीतरामपरिणामसे मोक्ष होता है । तथ्यप्रकाश-(१) विषयसुम्बके निमित्त कर्मबन्ध करनेवाले प्रज्ञानीको वह बद्धकर्म सुखोत्पादक भोगका निमित्त कारण होता है। (२) शुभकर्मके निमित्त सनिदान शुभकर्मका मनुष्ठान करने वाले जीवको भविष्य में वह पापानुबन्धी पुण्य भोगलाभका निमित्त कारण होता है । (३) उदयागत कर्मफलको उपादेयबुद्धिसे न भोगने वाले..ज्ञानीकों अर्थात् विषय
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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