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________________ ४०२ समयसार 1 पुरुषो यथा कोपीह वृत्तिनिमित्तं तु सेवते राजानं । तत्सोऽपि ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् । एवमेव जीवपुरुषः कर्मराजः सेवते सुखनिमित्तं । तत्तदपि ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् । यथा पुनः स एव पुरुषो वृत्तिनिमित्तं न सेवते राजानं । तत्सोऽपि न ददाति राजा विविधान् भोगान् सुखो० । एवमेव सम्यग्दृष्टिर्वियार्थ सेवते न कर्मरजः । तत्तन्न ददाति कर्म विविधान् भोगान् सुखोत्पादकान् । यथा कश्चित्पुरुषः फलार्थं राजानं सेवते ततः स राजा तस्य फलं ददाति । तथा जीवः फलार्थं कर्म सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं ददाति । यथा च स एव पुरुषः फलार्थं राजानं न सेवते ततः स राजा तस्य फलं न ददाति । तथा सम्यग्दृष्टिः फलार्थं कर्म न सेवते ततस्तत्कर्म तस्य फलं न ददातीति तात्पर्य । तं न फलं स कर्म कुरुते नेति प्रतीमो वयं किन्त्वस्यापि कुतोऽपि किंचिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते त्वकंपपरमज्ञानस्वभावे स्थितो भोग सुखोत्पादक, एवं, एव, जीवपुरुष, कर्मरजस्, सुखनिमित्त तत् तत् अपि कर्मन्, विविध भोग, सुखोत्पादक, यथा, पुनर्, तत् एव पुरुष, वृत्तिनिमित्त, न राजन् तत् तत् अपि न राजन् विविध, भोग, सुखोत्पादक, एवं एवं सम्यग्दृष्टि, विषयार्थ, न, कर्मरजस्, तत् तत् न, कर्मन् विविध, भोग सुखोत्पादक । मूलधातु - सेव सेवायां, हुदान, दाने जुहोत्यादि । पदविवरण - पुरियो पुरुषः - प्रथमा ए० । जह यथा-अव्यय । को कः - प्रथमा एक० । वि अपि - अव्यय । इह - अव्यय । वित्तिणिमित्तं वृत्तिनिमित्तंफल नहीं देता । उसी तरह सम्यग्दृष्टि फलके लिये कर्मको नहीं सेवता तो वह कर्म भी उसको फल नहीं देता, यह कहने का तात्पर्य है । भावार्थ- कोई फलकी इच्छा से कर्म करे तो उसका फल मिलता है इच्छा के बिना कर्म करे तो उसका फल नहीं मिलता । ज्ञानीपर पूर्वकर्मविपाकवश कुछ घटना बने तो भी उससे अलग रहता हुआ ज्ञानस्वभावमें ही रुचि रखता है, अतः न अब वैसा कर्मफल मिला और वैसा कर्मबन्ध न होनेसे श्रागे भी कर्मफल न मिलेगा । अब यहाँ जिज्ञासा होती है कि जिनको फलकी इच्छा नहीं है, वह कर्म क्यों करेगा इसके समाधानमें काव्य कहते हैं—त्यक्तं इत्यादि । श्रर्थ जिसने कर्मका फल छोड़ दिया है और कर्म करता है यह हम विश्वास नहीं करते परंतु यहाँ इतना विशेष है कि ज्ञानीके भी किसी कारण से कुछ कर्म इसके वश बिना या पड़ते हैं उनके श्रानेपर भी यह ज्ञानी निश्चल परमज्ञानस्वभावमें ठहरता हुआ कुछ कर्म करता है या नहीं करता यह कौन जानता है । भावार्थ- ज्ञानी के परवशतासे कर्म श्रा पड़े हैं, उनके होनेपर भी ज्ञानी ज्ञानसे चलायमान नहीं होता, ऐसे परमज्ञानस्वभावमें स्थित हुआ यह ज्ञानी कर्म करता है कि नहीं यह बात कौन जान सकता है, ज्ञानीकी बात ज्ञानी हो जानता है अज्ञानोका सामर्थ्यं ज्ञानोके परिणामको जाननेका नहीं है । यहाँ शानी कहने से अविरत सम्यग्दृष्टिसे लेकर ऊपर के सभी ज्ञानी समझना । उनमें से अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत तथा श्राहार विहार करने वाले मुनियोंकी बाह्यक्रिया प्रवर्तती है तो भी अंतरंग मिथ्यात्व के प्रभावसे तथा यथासंभव कषायके प्रभाव से परिणाम
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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