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________________ १२६ समयसार मोहप्रत्ययकर्मनोकमवर्गवर्गणास्पर्द्धकाध्यात्मस्थानानुभागस्थानयोगस्थानबन्धस्थानोदयस्थानमार्गणास्थानस्थितिबंधस्थानसंक्लेशस्थानविशुद्धिस्थानसंयमलब्धिस्थानजीवस्थानगुणस्थानान्यपि व्यवबहुवचन, व्यवहारिणः--प्रथमा बहु० कर्तृ विशेषण, मुध्यते-कर्मवाच्य क्रिया वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक०, कश्चित्-अव्यय अन्तः प्रथमा एक०, तथा अव्यय, जीवे-सप्तमी एक०, कर्मणां-षष्ठी एक०, नोकर्माषष्ठी एक०, वर्ण-द्वि० ए०, जीवस्य-षष्ठी एकवचन, एष:-प्रथमा एक०, जिन:-तृतीया बहुवचन, व्यववह सवैया असत्यार्थ है, किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना । क्योंकि जब एफ द्रव्यको उसको भिन्न-भिन्न पर्यायोंसे प्रभेदरूप मसाधारण गुणमात्रको प्रधानरूपसे कहा जाय, तब परस्पर द्रव्योंका निमित्तनैमित्तिक भाव तथा निमित्तसे हुए पर्याय ये सब गौण हो जाते हैं, वे एक प्रभेदद्रव्यको दृष्टि में प्रतिभासित नहीं होते। इसलिये वे सब उस द्रव्यमें नहीं हैं, इस प्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है । जब यह देखा जाय कि ये उस द्रव्यमें हैं तो व्यवहारनयसे यह जान सकते हैं, ऐसा नयविभाग है । यहाँ शुद्ध द्रव्यको दृष्टिसे कथन है, इसलिये ऐसा सिव किया है कि ये सब भाव सिद्धान्तमें व्यवहारनयसे जीवके कहे हैं । यदि निमित्तनैमित्तिकमाव की दृष्टि से देखा जाय तो वह व्यवहार कदाचित् सत्यार्थ कहा जा सकता है । यदि सर्वषा असत्यार्थ ही कहें तो सब व्यवहारका लोप हो जायगा, और ऐसा होनेसे परमार्थका भो लोप हो जायगा । इसलिये जिनेन्द्रदेवका उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्याज्ञान है, सर्वथा एकांत करना मिथ्यात्व है। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व प्रकरणमें यह बताते चले पा रहे हैं कि सिद्धान्तमें व्यवहारनयसे तो वर्णादिक जीवके कहे गये हैं, किन्तु निश्चयसे जीवके नहीं हैं । सो यहां यह जिज्ञासा हुई कि फिर व्यवहार निश्चयका अविरोधक कैसे रहा ? इसके उत्तरमें ये तीन गाथायें कही गई हैं। तथ्यप्रकाश- (१) एक द्रव्यके द्रव्य गुण पर्यायमें दूसरे द्रव्यके द्रव्य गुण पर्यायका आरोग किसी न किसी सम्बन्धके होनेके कारण हुआ करता है । (२) व्यवहारतः निर्णय यह है कि मार्गमें जाने ठहरने वाला धनिक मुसाफिर लुटेरों द्वारा लूट लिया जाता है सो उस मार्गमें ही न जाया जावे इस शिक्षाको देनेके लिये यों ही कहा जाता है कि यह मार्ग लुटता है या यह मार्ग लूट लेता है । (३) निश्चयतः निर्णय यह है कि मार्ग तो उस जगहके प्राकाशप्रदेश है, क्या वह प्राकाशका हिस्सा (मार्ग) लुटता है या लूटता है ? न लुट सकता है, न लूट सकता है । (४) व्यवहारतः निर्णय यह है कि जीवके माथ बन्धपर्यायसे प्रवस्थित कर्म नोकर्मके वर्णको देखते हैं सो तीर्थप्रवृत्तिके लिये दृश्यमान नर, पशु आदिको जीव बताया जाता है जिससे यह प्रसिद्ध होता है कि वर्णादिक जीवके हैं । (५) निश्चयतः निर्णय यह है
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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