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जीवाजीवाधिकार
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तो वानां प्रज्ञापतेपि निश्चयतो नित्यमेवामूर्तस्वभावस्योपयोगगुणेनाधिकस्य जीवस्य सर्वाण्यपि न संति तादात्म्यलक्षरण संबंधाभावात् ।।५८-५६-६० ।।
हारतः - पंत्रम्यां तसल अध्यय उक्तः प्रथमा एक. कृदंत, गंधरसस्पर्शरूपाणि- प्रथमा बहु०, देहः - प्रथमा एक०, संस्थान - प्रथमा एक०, आदयः - प्रथमा बहु०, ये प्रथमा बहु०, सर्वे - प्रथमा बहु०, व्यवहारस्य - पष्ठी एक०, निश्चयद्रष्टारः - प्रथमा ब०, व्यपदिशति-वि-अप दिशंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० ।। ५६-६० ।। कि वर्णादिक तो पुद्गल के प्राश्रित हैं वे जीवके नहीं हैं ।
सिद्धान्त - ( १ ) एक जातिके पदार्थ के प्राधार में अन्य जातिके आधेय पदार्थका आरोप करना आरोपक अभूतव्यवहार है । ( २ ) जिस विभाग पर्यायका जो उपादान है उसको उसमें ही बताना प्रयोजक व्यवहार है ।
दृष्टि - १ - एकजात्याधारे अन्यजात्याधेयोपचारक व्यवहार (१४०) । २ - अशुद्ध निश्चयनय, अशुद्धपर्यायविषयी व्यवहारनय (४७, ५२ ) ।
प्रयोग - किसी भी उपचार कथनसे उसके प्रयोजनमात्रको जानकर आगे प्रगतिके लिये निश्चयनयका प्राश्रय करके सर्वविकल्पातिक्रान्त श्रन्तस्तत्त्वको अनुभवना चाहिये ||१८० ५६ ६०॥
यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्य सम्बंध क्यों नहीं है ? उसका उत्तर कहते हैं - [रादयः ] जो वर्णं प्रादिक हैं ये [संसारस्थानां जीवानां] संसारमें स्थित atric [भ] उस भव में [ भवन्ति ] होते हैं [ संसारप्रमुक्तानां ] किन्तु संसारसे छूट गए या मुक्त हुए जीवों [ खलु ] निश्चय से [वरपदयः केचित् ] वर्णादिक कोई भी [ न संति ] नहीं हैं । इसलिये तादात्म्य सम्बंध भी नहीं है ।
तात्पर्य- केवल संसारदशा में देहादि में वर्णादि होते हैं मुक्तदशामें नहीं होते, अतः सदा न होनेसे जीवका वर्णादिसे तादात्म्य सिद्ध नहीं होता ।
टीकार्थ-नो निश्चय से सब प्रवस्थानों में जिस स्वरूपसे व्याप्त हो और जिस स्वरूपकी व्याप्तिसे रहित न हो, उस वस्तु के साथ उन भावोंका तादात्म्य सम्बंध होता है । इसलिए सब ही श्रवस्थाओं में वर्णादिरूपसे व्याप्त हुए और वर्णादिकको व्याप्तिसे शून्य न हुए पुद्गल द्रव्यका वर्णादिक भावोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध है । श्रीर संसार - अवस्था में कथंचित् वर्णादि स्वरूपसे हुए तथा वर्णादि स्वरूपकी व्याप्तिसे शून्य न हुए जीवका मोक्ष अवस्था में सर्वथा वर्णादि स्वरूपकी व्याप्तिसे शून्य होनेके कारण तथा वर्णादि स्वरूपसे व्याप्त न होने के कारण वर्णादि भावोंके साथ तादात्म्य सम्बन्ध किसी प्रकार भी नहीं है ।
भावार्थ -- जो वस्तु जिन भावोंसे सब अवस्थामों में व्याप्त हो उस वस्तुका उन भावों