________________
१२८
समयसार कुतो जीवस्य वविमिः सह तादात्म्पलक्षणः सम्बन्धो नास्तीति चेत्--
तत्थभवे जीवाणं संसारत्याण होति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णतिय हु वण्णादो केई ॥६॥ संसारी जीवोंके, भवमें ही वर्ण प्रादि व्यवहृत हैं ।
संसारप्रमुक्तोंके, नहि वे वर्णादि होते हैं ॥१॥ तत्र भवे जीवानां संसारस्थानां भवंति वर्णादयः । संसारप्रमुक्तानां न संति क्लु वर्णादयः केचित् ।।६।।
यत्किल सर्वास्वप्यवस्थासु यदात्मकत्वेन व्याप्तं भवति यदात्मकत्वव्याप्तिशून्यं न भवति तस्य तैः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धः स्यात् । ततः सर्बाष्वप्यवस्थासु वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तम्य
नामसंज-तत्थ, भव, जीव, संसारत्य, वण्णादि, संसारपमुक्क, ण, हु, वष्णादि केई । धातुसंशसम्-सर गती, ट्ठा गतिनिवृत्ती, हो सत्तायां, प-मुच त्यागे, अस सत्तायां । प्रातिपदिक--- तत्र, भव, जीव, संसारस्थ, वर्णादि, संसारप्रमुक्त, न, खलु, वर्णादि, केचित् । मूलधातु-भू सत्तायां, जीव प्राणधारणे, मुच। के साथ तादात्म्य सम्बन्ध कहा जाता है । सो वर्णादिक तो पुद्गलकी सब अवस्थानोंमें व्याप्त है और वर्णादिमा पुगतने साथ तादात्म्य है और जीवको संसार-प्रवस्थामें तो वर्णादिक किसी तरह कह सकते हैं, परन्तु मोक्ष अवस्थामें सर्वथा ही नहीं। इसलिए जीवका वर्णादिक के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, ऐसा न्याय प्रात है।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व कथन में बताया था कि वर्णादिक जीवके नहीं है, क्योंकि वर्णादिकके साथ जीवका तादात्म्य नहीं है । सो अब यहाँ प्रश्न होता है कि जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य संबंध किस कारपसे नहीं है उसके उत्तरमें यह गाथा कही है ।
तथ्यप्रकाश--१-किसी भी एक पदार्थका तादात्म्य उसके साथ है जो उस पदार्थको सब अवस्थानोंमें रहे ही रहे । २-वर्णादिक पुद्गलमें सदा रहते ही हैं अतः वर्णादिक पुद्गलके हैं । ३–रागादिक पुद्गलकर्मके विपाकका निमित्त होनेपर ही होता है, पुद्गलविपाक का निमित्त हुए बिना नहीं होता, तथा रागादिक कर्मविपाकका ही प्रतिफलन है अतः रागा. दिक भी पौद्गलिक हैं । ४-यद्यपि संसारी जीवके साथ वर्णादिकका (पुद्गल का) संयोग सम्बंध है तो भी संसारसे मुक्त हुए जीवोंमें तो वर्णादिकके संयोगसंबंधका भी अवकाश नहीं, अतः वस्तुत: जीवके साथ वर्णादिकका तादात्म्य संबंध नहीं।
सिद्धान्त-(१) त्रिकाल तादात्म्य वाले गुणसे हो वस्तुका सही परिचय होता है। (२) नैमित्तिकभावसे उपादानभूत द्रव्य अवस्था में मलिन हो जाता है तथापि नैमित्तिकभावके साथ उपादानद्रव्यका तादाम्य नहीं है, उसका तो अधिकारी नियंता उपाधिभूत अन्य द्रव्य है ।
दृष्टि--(१) प्रखण्ड परमशुद्ध निश्चयनय व सभेद परमशुद्धनिश्चयनय (४४-४५) ।