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जीवाजीवाधिकार
१२६ भवतो वर्णाधात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्च पुद्गलस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः संबंधः स्यात् । संसारावस्थायां कथंचिद्वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्य भवतो वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तिशून्यस्याभवतश्चापि मोक्षावस्थायां सर्वथा वर्णद्यात्मकत्वध्यातिशून्यस्य भवतों वर्णाद्यात्मकत्वव्याप्तस्पाभवतश्च जीवस्य वर्णादिभिः सह सादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो न कथंबनापि स्यात् ।।६१।।। प्रमोचने, स गतौ । पदविवरण-तर-अव्यय । भवे-सप्तमी एक० । जीवाना-षष्ठी बहुः । संसारस्थानांषष्ठी बहु० । भवन्ति वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहुवचन । वर्णादयः-प्रथमा बहु० । संसारप्रमुक्तानां षष्ठी बहुवचन । न--अव्यय । अस्ति-वर्तमान लान पुरुष एसागर : ब-या। वर्गाद भरमा बहु० । केचित-अव्यय अन्त: प्रथमा बहुवचन ॥६॥ (२) उपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय व विविक्षितकदेश शुद्धनिश्चयनय (२४-४८)।
प्रयोग-संसार अवस्थामें संयोगसम्बद्ध शरीरके वर्मादिक देखकर संदेह नहीं करना, भब भी संसार अवस्थामें भी अपनेको प्रमूर्त ही निरखकर अबद्ध अस्पृष्ट चैतन्यस्वभावमय मनुभवना चाहिये ॥६॥
अब जीवका वर्णादिकके साथ तादात्म्य ही है, ऐसा मिथ्या अभिप्राय करने में जो दोष है उसे अगली गाथामें कहते हैं:---[यविह च] यदि तुम [इति मन्यसे] ऐसा मानोगे कि' एते सर्वे भावाः] ये वदिक सब भाव [जीवा हि एवं] जीव ही हैं [तु ते] तो तेरे मतमें [जीवस्य च अजोवस्य] जोव और अजीवका [कश्चित्] कोई [विशेषः] भेद [नास्ति] वहीं रहता।
तात्पर्य--प्रजीव तो वणोदिमान ही है और अब जीवको भी वर्णादिमान मानोगे तो फिर जीव व अजीवमें कुछ फर्क न रहा।
टीकार्थ-जैसे वर्णादिक भाव अनुक्रमसे प्रगट होने (उपजने वाली प्रौर छिपने (नाश होने) वाली उन उन व्यक्तियों (पर्यायों) के द्वारा पुद्गल द्रव्यको मन्वय रूप प्राप्त हुए पुद्गल द्रध्यके ही तादात्म्यस्वरूपको विस्तृत करते हैं, उसी प्रकार वर्णादिक भाव क्रमसे भावित प्राविर्भावतिरोभाव वाली पर्यायोंसे जीयके अन्वयको प्राप्त होते हुए जीवके वर्णादिकके साथ तादात्म्य स्वरूपको विस्तारते हैं ऐसा जिसका अभिप्राय है, उसके अन्य शेष द्रव्योंसे असाधारण वर्णादिस्वरूप जो पुद्गल द्रव्यका लक्षण है उसको जीवका अङ्गीकार करनेसे जीव और पुद्गलमें अविशेषका प्रसंग होगा । ऐसा होनेसे पुद्गलसे भिन्न जीवद्रव्यका अभाव हो जायगा तब जीव द्रव्यका ही प्रभाव हो जायगा ।
भावार्थ-जैसे वर्णादि पुद्गलद्रव्य के साथ तादात्म्यस्वरूप हैं, उसी प्रकार जीवके साथ भी तादात्म्यस्वरूप हो जाय तो जीव व पुद्गलमें कुछ भी भेद न रहेगा, और ऐसा हो जाय तो जीवका भी प्रभाव हो जायगा । यह महादोष किसीको भी इष्ट नहीं है।