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निर्जराधिकार
किच
एदसि रदो णिच्चं संतुट्ठो होहि णिच्चमेदमि । एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तम सोक्खं ॥२०६॥
इस ज्ञानमें सदा रत, होमो संतुष्ट नित्य इस ही में।
इससे हि तृप्त होतो, सुख तेरे उत्तम हि होगा ॥२०६॥ एतस्मिन् रतो नित्यं संतुली अल निल लिमय . एन मात्र हप्तो भविष्यति तबोत्तम सौख्यं ।। २०६॥
एतावानेव सत्य प्रात्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमु. _पहि । एतावत्येव सत्याशीः, यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणेव नित्यमेव संतोषमुपैहि । एतावदेव सत्यभनुभवनीयं यावदेव ज्ञानमिति निपिचत्य ज्ञानमात्रेणेव नित्यमेव तृप्तिमुप॑हि ।
नामसंज्ञ-एत, रद, णिचं, संतुट्ट, णिच्चं, एत, एत, तित्त, तुम्ह, उत्तम, सोक्स । धावसंश-हो सत्तायां, तुस संतोष, तिप्प तातो। प्रातिपदिक -एतत्, रत, नित्यं, संतुष्ट, नित्यं, एतत्, तृप्त, युष्मद, उत्तम, सौख्य । मूलधातु-रमु क्रीडायां भ्वादि, सम्-तुष प्रीतौ दिवादि, भू सत्तायां, तृप् प्रीणने दिवादि। पथविवरण--एदम्हि एतस्मिन्--सप्तमी एक० । रदो रत:-प्रथमा एक० कृदन्त । णिच्चं नित्यं-अव्यय । से [मृप्तः भव] तृप्त होमो, अन्य कुछ इच्छा न रहे; ऐसे अनुभवसे [तव] तेरे [उत्तमं सुखं] उत्तम सुख [भविष्यति] होगा।
तात्पर्य-रुचिपूर्वक याने हितश्रद्धासहित सहज ज्ञानस्वरूपमें मग्न होकर तृप्त रहने में ही उत्तम शान्ति है।
टीकार्थ- हे भव्य, इतना ही सत्य मात्मा है जितना यह ज्ञान है, ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्र प्रात्मामें ही निरंतर प्रोतिको प्राप्त होतो। इतना ही सत्य प्राशीष है, जितना यह ज्ञान है ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही नित्य संतोषको प्राप्त होगी। इतना ही सत्यार्थ अनुभव करने योग्य है, जितना यह ज्ञान है ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही नित्य तृप्तिको प्राप्त होगी । इस प्रकार नित्य ही प्रात्मामें रत, प्रात्मामें संतुष्ट, प्रात्मा तृप्त हुए तेरे वचनातीत नित्य उत्तम सुख होगा, और उस सुखको उसी समय तुम स्वयमेव ही देखोगे, दूसरों को मत पूछो । भावार्थ-ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना, इसी में संतुष्ट रहना और इसीसे तृप्स
होना यह परम ज्ञानवृत्ति है । इसीसे वर्तमानमें मानन्दरूप होता है और उसके बाद ही ___ सम्पूर्ण ज्ञानानन्दस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है।
अब ज्ञानीको महिमा बताते हैं—अचित्य इत्यादि । अर्थ-जिस कारण यह चैतन्य__ मात्र चिंतामणि वाला अचिन्त्यशक्तिमान ज्ञानी, स्वयमेव प्राप देव है । इस कारण ज्ञानीके