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समयसार
शून्या नेदमुपलभंते । इदमनुपलभमानाश्च न कर्मभिविप्रमुच्यते ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञाना. वष्टंभेन नियतमेवेदमेक पदमुपलभनीयं ।। पदमिदं ननु कर्मदुरासदं सहजबोधकलासुलभं किल । तत इदं निजबोधकलाकारकालयितुं या तो मान ।।३।। ।। २०५ ।। द्वितीया एकवचन । पयं पद-द्वितीया एक० । वह बहवः-प्रथमा बहु० । वि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । लहंति लभते-वर्तमान लट् अन्य पुरुष बहु० । तं तद्-द्वितीया एक० । गिह गृहाण-आज्ञार्थे लोट् मध्यम पुरुष एक० । णियदं नियत-द्वि० ए० । एदं एतत्-द्वितीया एक० । जदि यदि-अव्यय । इच्छशि-वर्तमान लट् मध्यम पुरुष एकवचन । कम्मपरिमोक्खं कर्मपरिमोक्ष-द्वितीया एकवचन ।।२०५|| वह हीन कलास्वरूप है भतिज्ञानादिरूप है। उस ज्ञानको कलाके अभ्याससे पूर्णकला याने । केवलज्ञानस्वरूप कला प्रकट होती है।
प्रसंगविवरण--मनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि जिसका लाभ पाकर हो । मोक्ष प्राप्त होता है उस सहज ज्ञानमात्र आत्मपदका आलंबन लेना चाहिये । अब इस गाथामें उसो तथ्यका व्यतिरेक सम्बन्ध पूर्वक समर्थन करके इस ज्ञानपदके ग्रहणका अनुरोध किया है ।
तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानकी उपलब्धि केवल ज्ञानके ज्ञान में ही ज्ञान के प्रकाशनसे होतो है । (२) समस्त कर्मों (क्रियावों) द्वारा भी कर्ममें ज्ञानका प्रकाश असम्भव है, अतः कर्मसे जानकी उपलब्धि नहीं होती । (३) ज्ञानशून्य क्रियाकाण्डके पक्षपाती अनेक कर्मोको करके भी इस ज्ञानपदको प्राप्त नहीं कर पाते । (४) शाश्वत ज्ञानमात्र आत्मपदको न पाने वाले कर्मोंसे नहीं छूट सकते । (५) कर्मसे मोक्ष चाहने वाले पुरुषोंको केवल ज्ञानके मालम्बन द्वारा इस एक नियत ज्ञानमात्र प्रात्मपदका पालम्बन लेना चाहिये । (६) यह सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपद सहजज्ञानकला द्वारा सुलभ है । (७) कल्याण चाहने वाले जीवोंको निज ज्ञानकलाके बलसे एक नियत अपने सहज ज्ञानस्वभावका उपयोग करनेका प्रयत्न करना चाहिये ।
सिद्धान्त-(१) ज्ञानगुणरहित याने अज्ञानी जीव ज्ञानमात्र इस प्रात्मपदको न प्राप्त कर अपद विकारोंमें ही रमते हैं। (२) एक सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपदका आलम्बन होनेपर कर्ममोक्ष होता है।
दृष्टि—१- अशुद्धनिश्चयनय (४७) । शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय (२४ब)।
प्रयोग-समस्त कर्मविपदावोंसे मुक्तिका लाभ लेनेके लिये नियत शाश्वत एक सहज ज्ञानमात्र स्वभावको दृष्टि प्रतीति अनुभूति बनाये रहनेका पौरुष करमा ॥ २०५ ।।
__और क्या ? [एतस्मिन् हे भव्य जीव इस ज्ञानमें [नित्यं] सदा [रतः भव] चिसे लीन होमो और [एतस्मिन] इसीमें [नित्यं] हमेशा [संतुष्टः] भव संतुष्ट होप्रो और [एतेन] इसी