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________________ निर्जराधिकार णाणगुणेण विहीणा एयं तु पयं वहूवि ण लहंति । तं गिरह णियदमेदं जदि इच्छसि कम्मपरिमोक्खं ॥२०॥ ज्ञानगुरणहीन आत्मा, इस पदको प्राप्त कर नहीं सकते। सो यह नियत गहो पद, यदि चाहो कर्मसे मुक्ति ॥२०॥ ज्ञानगुणेन विहीना एतत्तु पदं बह्वोऽपि न लभते । तद्गृहाण नियतमेतद् यदीच्छसि कर्मपरिमोक्षं ॥२०५।। यतो हि सकलेनापि कर्मणा कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात् ज्ञानस्यानुपलंमः । केवलेन ज्ञानेनैव ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनाद् ज्ञानस्योपलंभः । ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञान नामसंज–णाणगुण, विहीण, एत, तु, पय, बहु, वि, ण, त, णियद, एत, जदि, कम्मपरिमोरख । धातुसंश-लभ प्राप्ती, गिण्ह ग्रहणे, इच्छ इच्छायां । प्रातिपदिक-ज्ञानगुण, बिहीन, एतत्, तु, पद बहु, अपि, न, तत्, नियत, एतत्, यदि, कर्मपरिमोक्ष । मूलधातु-डुलभष प्राप्तौ, ग्रह उपादाने, इषु इच्छायां। पवविवरण---णाणगुरणेण ज्ञानगुणेन-तृतीया एकवचन । विहीणा बिहीना:-प्रथमा बहुवचन । एयं एतत्निश्चित ज्ञानको [गृहाण] ग्रहण कर। क्योंकि [ज्ञानगुणेन विहीनाः] ज्ञान गुणसे रहित [बहवः अपि] अनेकों पुरुष भी [एतत् पवं] इस ज्ञानस्वरूप पदको [न लभते] नहीं प्राप्त करते । तापर्य-ज्ञानसे शानमें सहजज्ञानस्वरूपका अनुभव किये बिना इस केवल ज्ञानस्वरूप पदको प्राप्त नहीं किया जा सकता। टोकार्थ- जिस कारण समस्त भी कर्मों द्वारा कर्मों में ज्ञानका प्रकाशन न होनेके कारण जानका पाना नहीं होता, केवल एक ज्ञान द्वारा ही ज्ञानमें ज्ञानका प्रकाशन होनेके कारण ज्ञानसे ही ज्ञानका पाना होता है। इस कारण ज्ञानशून्य बहुतसे प्राणी अनेक प्रकारके कोंके करनेपर भी इस ज्ञानके पदको प्राप्त नहीं करते और इस पदको न पाते हुए वे कर्मोसे नहीं छूटते । इस कारण कर्ममोक्षके अभिलाषी भव्यको तो केवल एक ज्ञान के प्रबलम्बन द्वारा नियत इसी एक पदको प्राप्त करना चाहिये। भावार्य- ज्ञानसे ही मोक्ष होता है कम करनेसे नहीं। इस कारण मोक्षार्थीको ज्ञानका ही ध्यान करना चाहिये । अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं--पवमिदं इत्यादि । अर्थ--यह ज्ञानमय पद कर्म करनेसे तो दुष्प्राप्य है और स्वाभाविक ज्ञानकी कलासे सुलभ है । इस कारण अपने निज ज्ञान की कलाके बलसे इस ज्ञानको ग्रहण करनेके लिये सब जगत् अभ्यासका यत्न करो। भावार्थयहाँ समस्त कर्मकाण्डके पक्षसे छुड़ाकर ज्ञानके अभ्यास करनेका उपदेश किया है । यहाँ ज्ञान की कक्षा कहनेसे ऐसा सूचित होता है कि जब तक पूर्णकला प्रकट न हो तब तक जो ज्ञान है
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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