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________________ समयसार वागते, प्राबलं कपर निर्यने, कुरणकर्माभायात् साक्षान्मोक्षो भवति ॥ अच्छाच्छा स्वयमुच्छलंति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पोताखिलभावमंडलरसप्राग्भारमत्ता इव । यस्याभिः न्नरस: स एष भगवानेकोप्यनेकीभवन यल्गस्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ॥१४१।। किंध---क्लिश्यता स्वयमेव दुष्करतरर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः क्लिपयंतां च परे महावततपोभारेप भग्नाश्चिरं । साक्षान्मोक्ष इदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमते न हि ।।१४२॥ ॥ २०४ ॥ प्रथमा एक० । सो सः-प्र० ए० । एसो एषः-प्र० ए० । परमट्टो परमार्थ:-प्र० ए.। जयं-द्वितीया एक। लहिदुं लब्ध्वा-असमाप्तिकी क्रिया । णिबुदि निर्वृति-द्वि० एक० । जादि याति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया ।। २०४।। प्रात्मभ्रान्ति नष्ट होती है । ८-- प्रात्मम्रान्ति नष्ट होते ही प्रात्मलाभ होता है । - प्रात्मलाभ होते ही अनात्मतत्वका परिहार होता है । १०- अनात्मतत्त्वका परिहार होते हो कर्मोदय मूर्छा नहीं कर पाते हैं। ११- कर्मोदयमूर्छा नष्ट होते ही राग द्वेष मोह नहीं होते। १२- रागादिका प्रभाव होनेपर फिर कर्मका प्रास्त्रब नहीं होता । १३- कर्मास्रव न होनेपर कर्मबन्ध नहीं होता। १४- कर्मानवका व कर्मबन्धका प्रभाव होनेपर प्रारबद्ध कर्म भुगकर निर्जीर्ण हो जाते हैं । १५- पाखवाभाव, बन्धाभाव , निर्जरा हो होकर समस्त कर्मका प्रभाव होते ही साक्षात् मोक्ष हो जाता है । १६- इस स्वसंवेद्य शाश्वत ज्ञानमात्र प्रात्मपदके पाये बिना कोई कितने ही कठोर व्रत तप आदि करे तो भी उसका मोक्ष असम्भव है। वह सब चेष्टा क्लेशमात्र है। सिद्धान्त-१- मति श्रुत अवधि मनःपर्ययज्ञान प्रात्माके एकदेश शुद्ध विभाव गुणव्यञ्जन पर्याय हैं । २- केवलज्ञान प्रात्माका स्वभावगुणव्यञ्जनपर्याय है । ३- शाश्वत ज्ञानमात्र सहज भाव प्रात्माका शाश्वत प्रात्मभूत स्वभाव है। दृष्टि-१- उपादानदृष्टि (४६ब) । २- सभेद शुदनिश्चयनय (४६५) । ३- प्रखंड परमशुद्धनिश्चयनयं (४४)। प्रयोग-निविकल्प निराकुल प्रात्मानुभव पानेके लिये व्यक्तरूप मतिज्ञान श्रुतशान पवधिज्ञान प्रादि शानपर्यायोंके स्रोतभूत एक ज्ञानमात्रस्वभावका उपयोग करने व बनाये रहने का पौरुष करना । २०४॥ अब ज्ञानलाभ का उपदेश करते हैं-हे भव्य [यवि] यदि तुम [कर्मपरिमोक्षं] कर्म का सब तरफसे मोक्ष करना [इच्छसि] चाहते हो [९] तो [तत् एतद नियतं] उस. इस
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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