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________________ निर्जराधिकार ३६७ तथाऽस्मनः कर्मपटलोदयावगुंठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिद्युः, किं तु प्रत्युतमभिनंदेयुः। ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्वभावभूतं शानभेवैकमालम्व्यं । तदालंबनादेव भवति पदप्रातिः, नश्यति भ्रांतिः, भवत्यात्मलाभः, सिद्धत्यनात्मपरिहारः, न कम मूर्द्धति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवंते, न पुनः कर्म प्रास्रवति, न पुनः कर्म एन, एय, भय, जना रत, गार्ग, पद गिई। मूलधातु-भू सत्तायां, या प्रापणे। पदविवरणआभिणिसुदोहिमणकेबलं आभिनिबोधिक श्रुतावधिमनःपर्यय केवल-प्रथमा एकवचन । च-अव्यय । तं, तत्प्रथमा एक० । होदि भवंति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० । एक्कं एक-प्रथमा एक० । एव-अव्यय ! पदंउसमें निर्मल छोटी बड़ी अनेक लहरें उठती हैं वे सब तरंगें एक जलरूप ही हैं उसी तरह यह प्रात्मा ज्ञानसमुद्र है सो एक ही है इसमें अनेक गुण हैं और कर्मके निमित्तसे ज्ञान के अनेक भेद अपने पाप व्यक्तिरूप होकर प्रगट होते हैं सो उन सब ज्ञान व्यक्तियोंको एक ज्ञानरूप ही जानना, खंड खंड रूप नहीं । । अब और क्या ?-क्लिश्यता इत्यादि । अर्थ- कोई जीव दुष्करतर क्रियाबोंसे तथा मोक्षसे परान्मुख कर्मोंसे स्वयमेव मनचाहा भले ही क्लेश करें और कोई मोक्षके सन्मुख याने कथंचित जिनाज्ञामें कहे गये ऐसे महावत तथा तपके भारसे बहुत काल तक मग्न (पीड़ित) हुए भी क्रियावोंसे भले ही क्लेश करें, किन्तु साक्षात् मोक्षस्वरूप तो यह निरामयपदभूत तथा अपनेसे ही प्राप वेदने योग्य ज्ञानपद है इसे ज्ञान गुणके बिना किसी तरहके कष्ट से भी वे प्राप्त करनेके लिये समर्थ नहीं हैं । भावार्थ - ज्ञानस्वभावको प्राप्ति ज्ञानवृत्तिसे हो हो सकती है, बाह्य प्राचरण तो अशुभसे हटाकर ज्ञानवृत्तिसे रहनेका मौका देते हैं। प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि शाश्वत एकस्वरूप होनेसे ज्ञानमात्र स्वभाव ही मात्र एक प्रात्माका पद है। अब इस गाथामें उसी ज्ञानकत्वका समर्थन किया गया है। तथ्यप्रकाश-१- अपना प्रात्मा अपना परम पदार्थ है । २- ज्ञानस्वरूप होनेसे सब द्रव्योंमें पाने पदार्थोंमें भी परम पदार्थ है । ३- अपने पाप आत्मा एक ही पदार्थ है और ज्ञानस्वभाव ही प्रात्मपदार्थका एकमात्र पद है। ४-- प्रात्माका जो एक शाश्वत ज्ञानमात्र पद है उसका प्राश्रय ही वास्तवमें मोक्षमार्म है । ५- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान ये ज्ञानगुणको पर्यायें प्रास्माके शाश्वत ज्ञानमात्र पदका भेदन नहीं करते, किन्तु एक ज्ञानमात्र पदको ही प्रसिद्ध करते हैं। ६-अभेद अात्मस्वभावभूत एक शानमात्र सहजभावका मालम्बन करनेसे मात्मपदको प्राप्ति होती है । ७- प्रात्मपदकी प्राप्ति होते ही
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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