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________________ समयसार तयाहि आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एक्कमेव पदं । सो एसो परमट्ठो जं लहिदु णिव्वुदि जादि ॥१०४॥ भति श्रुत अवधि मनःप-र्यय केवल सर्वज्ञान एक हि पद । वह यह परमार्थ जिसे, पाकर निर्धारण मिलता है ॥२०४॥ अभिनिबोधिक थुतावधिमनःपर्ययकवलं च तद्भवत्येकमेब पदं । स एष परमार्थो यं लब्ध्वा निर्वृति याति । प्रात्मा किल परमार्थः तत्तु ज्ञानं, प्रात्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पर्द, पदेतत्तु ज्ञान नामक पदं स एप परमायः साक्षामोसोपायः . भिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकपदमिह भिदंति । कि तु तेऽपोदमेवक पदमभिनंदति । तथाहि-यथात्र सवितुर्घनपटलाबगुठि. तस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतः प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभाव भिदंति । नामसंज्ञ- आभिणिसुदाहिमणकेवल, च, त, एक्क, एव, पद, त, एत, परमट्ट, ज, णिन्दुदि । धातुसंश-हो सत्तायां, लभ प्रापणे, जा गतौ । प्रातिपदिक-आभिनिबोधिकश्रुतावधिमन पर्वय केबल, च, तत्, हो करते हैं । इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर हो गये हैं ऐसे प्रात्माके स्वभावभूत एक ज्ञान को ही मालम्बन करना चाहिये । उस ज्ञानके पालम्बनसे ही निज पद की प्राप्ति होती है, उसी से भ्रमका नाश होता है, उसीसे प्रात्माका लाभ होता है और अनात्माके परिहारकी सिद्धि होती है । ऐसा होनेपर कर्मके उदयकी मूर्छा नहीं होती, राग द्वेष मोह नहीं उत्पन्न होते, रागद्वेष मोहके बिना फिर कर्मका प्रास्रव नहीं होता, मानव न होनेसे फिर कर्मबंध नहीं होता, और जो पहले कर्म बाँधे थे वे उपभुक्त होते हुए निर्जराको प्राप्त होते हैं और तब सब कर्मोंका प्रभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है । भावार्थ--ज्ञान में भेद कर्मोके विघटन (क्षयोपशमादि) के अनुसार होते हैं सो वे ज्ञानविकासभेद कुछ ज्ञानसामान्यको अज्ञानरूप नहीं करते, बल्कि ज्ञानस्वरूपको ही प्रगट करते हैं । इसलिए भेदोंको गौरण कर एक ज्ञानसामान्यका पालम्बन करके प्रात्माका ध्यान करना। इसीसे सब सिद्धि होती है । अब इसी अर्थको कलशमें कहते हैं-अच्छाच्छाः इत्यादि । अर्थ-समस्त पदार्थों के समूहरूप रसके पोनेके बहुत बोझसे मानो मतवाले हुए अनुभवमें आये हुए ज्ञानके भेद निर्मल से निर्मल अपने पाप उछलते हैं-वह यह भगवान अद्भुतनिधि वाला चैतन्यरूप समुद्र उठती हुई लहरोंसे अभिन्न रस हुग्रा एक होनेपर भी अनेकरूप हुमा दोलायमान प्रवर्तता है । भावार्य-जैसे बहुत रत्नोंसे भरा समुद्र सामान्यदृष्टि से देखो तो एक जलसे भरा है तो भी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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