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समयसार अर्थवं तव तन्नित्यमेवात्मरतस्य, प्रात्मसंतुष्टस्य, प्रात्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भर्भावध्यति । तत्त तरक्षण एवं त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि मा अन्यान् प्राक्षीः ।। अचित्यशक्तिः स्वयमेव देवश्मित्माधितामणि रेष यस्मात् । सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्थ परिनहेण ॥१४४॥ ॥ २०६ ।। संतुट्टो संतुष्ट:-प्रथमा एक० । होहि भव-आज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० । णिचं नित्य-अव्यय । एदम्हि । : एतस्मिन-सप्तमी एक० । एदेग एतेन तृतीया एक० । होहि भव-आज्ञार्थ लोट् मध्यम पुरुष एक० । तितो तृप्तः-प्रथमा एक०। होहदि भविष्यति-भविष्यत् लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । तुह तव-षष्ठी एक०।। उत्तम-प्रथमा एक० । सोक्खं सौख्यं-प्रथमा एकवचन ।। २०६ ।। सब प्रयोजन सिद्ध हैं, ज्ञानी अन्यके परिग्रहणसे क्या करेगा ? भावार्थ--यह ज्ञान मूर्ति आत्मा अनन्त शक्तिधारक सर्वार्थसिद्धस्वरूप स्वयं देव है । फिर ज्ञानीके अन्य परिग्रहले सेवन करने से क्या साध्य है ? कुछ भी नहीं। : प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि ज्ञानगुणसे रहित जीव सहज , ज्ञानमय प्रात्मपद नहीं पाते, अतः मोक्षके इच्छुक प्रात्मा इस सहज ज्ञान मात्र भावको ग्रहण ! करें । अब इस गाथामें बताया है कि सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपदको ग्रहण कर इसीमें रत होमो, : संतुष्ट होवो व तृप्त होमो।
तथ्यप्रकाश-(१) जितना यह ज्ञानमात्र भाव है इतना ही यह सत्य आत्मा है अतः इस सहज ज्ञानमात्र भावमें ही नित्य रुचि करो। (२) जितना यह ज्ञानमात्र है इतना ही सत्य प्राशीष है, अतः ज्ञानमात्रभावके द्वारा इस ज्ञानमात्रमें ही सदा संतुष्ट रहो । (३) जितना यह भानमात्र भाव है इतना ही सत्य अनुभवनेके योग्य है, अत: ज्ञानमात्र भावके ही द्वारा नित्य तृप्त रहो । (४) प्रात्मरत प्रात्मसंतुष्ट प्रात्मतृप्त आत्मामें अलौकिक प्रानन्द स्वयं प्राप्त होता है । (५) जो सहज ज्ञानमात्र प्रात्मपदमें रमते हैं उनके सवार्थ सिद्ध हैं, उन्हें अन्य पदार्थ के परिग्रहणका कुछ प्रयोजन नहीं रहता ।।
सिद्धान्त - (१) सहजज्ञानस्वभावमें रमने वाले मानी स्वतंत्र सहज प्रानन्दका अनुभव करते हैं। (२) भात्मपदसे अनभिज्ञ अज्ञानी जीव ही कर्मरसविषयक विकल्पमें रमण कर प्राकुलताका अनुभव करते हैं । _ष्टि--१-- अनीश्वरनय (१८६)। २- अशुद्धनिश्चयनय (४७)।
प्रयोग-परमार्थ आनन्द पानेके लिये सहज ज्ञानस्वभावमात्र अन्तस्तत्त्वमें रमने व तृप्त रहनेका पौरुष करना ।।' २०६ ॥