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निर्जराधिकार
३७३ कुतो ज्ञानी न परं गृह्णातीति चेत्
को णाम भणिज बुहो परदब्वं मम इमं हवदि दब्बं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणतो ॥२०७।।
कौन सुधी है ऐसा, जो परद्रव्यको कह उठे मेरा ।
प्रात्मपरिग्रह प्रात्मा, निश्चयसे जानता भी यह ॥२०७॥ को नाम भरणेद बुधः परद्रव्यं ममेदं भवति द्रव्यं । आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियतं विजानन् ।।२०७।।
यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भावः स तस्य स्वः । स तस्य स्वामीति खरतर
नामसंश-क, णाम, बुह, परदव्व, अम्ह, इम, दव, अप्प, अप्प, परिमह, तु, णियदं, वियाणंत । पातुसंश-भण कथने, हब सत्तायां, वि-जाण अवबोधने । प्रातिपक्कि-किम्, नामन्, बुध, परद्रव्य, अस्मद्, इदम्, द्रव्य, आत्मन, आत्मन्, परिग्रह, तु, नियत, विजानत् । मूलधातु-भण शब्दार्थ, बुध अवगमने, भू सत्तायां, परि-गृह ग्रहणे, वि-ज्ञा अवबोधने ऋयादि । पदविवरण-को कः-प्रथमा एकवचन । णाम नामप्रथमा एक० । भणिज्ज भणेत-लिङ अन्य पुरुष एक० क्रिया। परदवं परद्रव्य-प्रथमा एक०। मम
अब पूछते हैं कि. ज्ञानी परद्रव्यको क्यों नहीं ग्रहण करता? उत्तर-[श्रात्मानंत] अपने प्रात्माको हो [नियतं] निश्चित रूपसे [मात्मनः परिग्रह] अपना परिग्रह [विजानन्] जानता हुमा [कः नाम बुधः] ऐसा कोन सानो पडित है ? जो [इवं परद्रव्य] यह परद्रव्य [ममतव्यं] मेरा द्रव्य [भवति] है [भरणेत्] ऐसा कहे।
तात्पर्य-ज्ञानी पुरुष परद्रव्यमें स्वत्वकी कल्पना नहीं करता।
टोकार्थ-चूंकि ज्ञानी "जो जिसका निजभाव है वही उसका स्व है, और उसी स्वभाव रूप द्रव्यका वह स्वामी है" ऐसे सूक्ष्म तोक्षण तत्त्वदृष्टिके प्रवलंबनसे प्रात्माका परिग्रह अपने प्रात्मस्वभावको ही जानता है, इस कारण "यह मेरा स्व नहीं, मैं इसका स्वामी नहीं" यह जानकर परद्रव्यको ग्रहण नहीं करता । मावार्थ-विवेकी मनुष्य परवस्तुको प्रपनी नहीं जानता हुअा उसको ग्रहण नहीं करता उसी तरह परमार्थज्ञानी अपने स्वभावको ही अपना धन जानता है परके भावको अपना नहीं जानता, इस कारण ज्ञानी परको ग्रहण नहीं करता।
प्रसंगविवरण-अनन्तरपूर्व गाथामें बताया गया था कि सहजज्ञानमात्र प्रात्मपदमें रमने, संतुष्ट होने व तृप्त होनेपर उत्तम आनंद प्राप्त होता है, फिर उसे अन्य पदार्थका परिग्रह करनेको प्रावश्यकता नहीं होती। अब इस गाथामें बताया है कि शानो परपदार्थको ग्रहण वगों नहीं करता ?
तथ्यप्रकाश-(१) ज्ञानीके यह दृढ़ निर्णय है कि जिसका जो निजभाव है वही