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________________ ३५२ समयसार अर्थतदेव दर्शयति-- सेवंतोवि ण सेवइ असेवमाणोवि सेवगो कोई । पगरणचेट्ठा कस्सवि ण य पायरणोत्ति सो होई ॥१६॥ सेता हुआ न सेवे, कोइ नही सते भी सेवक है। परजन कार्य निरत भी, प्राकरणिक भी नहीं होता ॥१७॥ सेवमानोऽपि न सेवते असेवमानोऽपि सेवकः कश्चित् । प्रकरणचेष्टा कस्यापि न च प्राकरण इति स भवति । यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात्प्राकरणिक: । तथा सम्यग्दृष्टि: पूर्वसश्चितकर्मोदयसंपन्नान विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावादसेवक एव । मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामित्या नामसंज्ञः - सेवंत, चि, ण, असेवमाण, वि, सेवग, कोई, पगरणचेढा, क. वि, ण, य, पायरण, इत्ति, त । धातुसंज्ञ-सेव सेवायां, प.कर करणे, हो सत्तायां । प्रातिपदिक-सेबमान, अपि, असेवमान, अपि, सेवक, कश्चित्, प्रकरणचेष्टा, किम्, अपि, न, च, प्राकरण, इति, त । मूलधातु-सेव सेवायां, भू सत्तायां । पदविवरण- सेवंतो सेवमानः-प्रथमा एक० । वि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । सेवइ सेवते-वर्तमान लट् सेवता हुमा भी [सेवकः] सेवने वाला कहा जाता है [कस्यापि] जैसे किसी पुरुषके [प्रकरणचेष्टा अपि किसी कार्यके करनेकी चेष्टा तो है [घ सः] किन्तु वह [प्रापरणः] कार्य करने वाला स्वामी हो [इति न भवति] ऐसा नहीं है । टीकार्थ-जैसे कोई पुरुष किसी कार्यकी प्रकरणनि यामें व्याप्रियमाण होकर भी याने उस सम्बंधी सब क्रियानोंको करता हुआ भी उस कार्यका स्वामी नहीं है । किन्तु दूसरा कोई पुरुष उस प्रकरण में व्याप्रियमाण न होकर भी याने उस कार्य सम्बंधी क्रियाको नहीं करता हुप्रा भी उस कार्यका स्वामीपन होनेसे उस प्रकरणका करने वाला कहा जाता है । उसी तरह सम्यग्दृष्टि भी पूर्वसंचित कोंके उदयसे प्राप्त हुए इन्द्रियोंके विषयोंको सेवता हुआ भी रागा. दिक भावोंका अभाव होनेके कारणसे विषयसेवनके फलके स्वामीपन का प्रभाव होनेसे प्रसेवक ही है । किन्तु, मिथ्यादृष्टि विषयोंको नहीं सेवता हुना भी रागादिभावोंका सद्भाव होनेके कारण विषय सेबनेके फलका स्वामी. होनेसे विषयोंका सेवक ही है। __ भावार्थ-जैसे कोई व्यापारी स्वयं कार्य न करके नोकरके द्वारा कारखानेका कार्य कराता है, तो वह स्वयं कार्य न करता हुआ भी स्वामित्वके कारण दूकान सम्बंधी हानि-लाभ का फ़ल हर्ष विषाद पाता है । किन्तु नौकर स्वामित्वबुद्धि प्रभावमें व्यापार करता हुमा भी
SR No.090405
Book TitleSamaysar
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherBharat Varshiya Varni Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1995
Total Pages723
LanguageHindi, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size21 MB
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