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निर्जराधिकार सन् विषयानुप जानोऽपि तीव्रविरागभावसामान्न बध्यते ज्ञानी ॥ नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य वा। ज्ञानवैभवविरागतावलात् सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥१३५।।
कृदंत । अरदिभाव अरतिभावे-उतीमा : महाशि-वर्तमान लद अन्य पुरुष एक० किया। ण न-अव्यय। पुरिसो पूरुषः-प्रथमा एक० कर्ताकारक। दबुबभोगे द्रव्योपभोगे-सप्तमी एक० ।। अरदो अरत:-प्र०ए० पाणी ज्ञानी-ग्र० एक० । वि अपि-अव्यय । ण न-अव्यय । बज्झदि बध्यते-वर्तमान लन अन्य पुरुष एक० क्रिया। तह तथा अव्यय । एव-अव्यय ।। १६६ ॥
भावार्थ--- ज्ञान और विरागताका ऐसा अद्भुत बल है कि इंद्रियोंसे विषयोंका सेवन करने पर भी उनका सेवने वाला नहीं कहा जाता। क्योंकि विषयसेवनका निजफल संसार व संसारभ्रमण है । लेकिन ज्ञानी वैरागीके मिथ्यात्वका प्रभाव होनेसे संसारका भ्रमणरूप फल नहीं होता।
प्रसंगविवरण-उपान्त्यपूर्व गाथामें ज्ञान और वैराग्यके सामर्थ्यका संकेत था जिसमें ज्ञानसामर्थ्यका वर्णन अनन्तरपूर्व गाथामें किया गया है। अब इस गाथामें वैराग्यका सामर्थ्य बताया गया है।
तथ्यप्रकाश-१- उपभोगके प्रति तीव्र विरागता होनेके कारण ज्ञानी विषयोंको भोगता हुअा भी बँधता नहीं है । २- रागमें राग न होनेसे ज्ञानीके उपभोगमें भी राग नहीं होता, मात्र भोगना पड़ने की बात होती है । ३- भोगमद्यका प्रतिपक्षभूत हर्षविषादादिविकल्पशुन्य योग औषधिका समायोग होनेसे विरागताके कारण भोगमद्यका उपभोग ज्ञानीको बेसुध नहीं कर सकता है ।
__सिद्धान्त-१-- सहजशुद्ध अविकार स्वभावकी भावना होनेपर द्रव्योपभोगमें परति होनेसे कर्मबन्ध नहीं होता । २- जितने अंशमें ज्ञानी राग नहीं करता उतने अंशमें वह कर्मसे नहीं बंधता । ३- पूर्ण वीतराग होनेपर कमसे रंच भी नहीं बैधता ।
दृष्टि---१-- शुद्धभावनापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४ब) । २.. अपूर्ण शुद्ध निश्चयनय (४६५)। ३--उपाध्यभावापेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनय (२४) ।
प्रयोग-सर्वदुःखमुक्ति के लिये कर्मानुभागके प्रतिफलनमें राग न करके अविकार ज्ञानस्वभावमें उपयुक्त होनेका पोग करना ।।१६।।।
___ अब उक्त प्रर्थको दृष्टांत द्वारा दिखलाते हैं--[कश्चित्] कोई तो [सेवमानोपि विषयोंको सेवता हुआ भी [न सेयते नहीं सेवन करता है और [असेवमानोपि] कोई नहीं